________________
७८
जैनसाहित्य और इतिहास
नीतिवाक्यामृतके टीकाकारका समय अज्ञात है; परंतु यह निश्चित है कि वे मूल ग्रन्थकर्तासे बहुत पीछे हुए हैं, क्योंकि और तो क्या वे उनके नामसे भी अच्छी तरह परिचित नहीं हैं । यदि ऐसा न होता तो मंगलाचरणके श्लोककी टीकामें जो ऊपर उद्धृत हो चुकी है, वे ग्रंथकर्ताका नाम 'मुनिचन्द्र' और उनके गुरुका नाम ' सोमदेव' न लिखते । इससे भी मालूम होता है कि उन्होंने प्रन्थकर्ता और महेन्द्रदेवका समकालिकत्व किसी किंवदन्तीके आधारसे या यों ही लिख दिया है। __सोमदेवसूरिने यशस्तिलकमें एक जगह जो प्राचीन महाकवियोंकी नामावली दी है, उसमें सबसे अन्तिम नाम राजशेखरका है। इससे मालूम होता है कि राजशेखरका नाम सोमदेवके समयमें प्रसिद्ध हो चुका था, अतएव राजशेखर उनसे अधिक नहीं तो ५० वर्ष पहले अवश्य हुए होंगे और महेन्द्रदेवके वे उपाध्याय थे। इससे भी नीतिवाक्यामृतका उनके समयमें या उनके कहनेसे बनना कम संभव जान पड़ता है। __ और यदि कान्यकुब्ज-नरेशके कहनेसे सचमुच ही नीतिवाक्यामृत बनाया गया होता, तो इस बातका उल्लेख ग्रन्थकर्ता अवश्य करते; बल्कि महाराजा महेन्द्रगलदेव इसका उल्लेख करनेके लिए स्वयं उनसे आग्रह करते ।
इसकी अपेक्षा तो यह अधिक संभव मालूम होता है कि नीतिवाक्यामृत चालुक्य अरिकेसरीके पुत्र बद्दिगके लिए ही बनाया गया हो ।
नीतिवाक्यामृतके टीकाकार संस्कृतटीका-जिस एक प्रतिके आधारसे यह टीका मुद्रित हुई है, उसमें कहीं भी टीकाकारका नाम नहीं दिया है । परन्तु टीकाकारने ग्रन्थके आरंभमें जो मंगलाचरणका श्लोक लिखा है, उससे अनुमान होता है कि उनका नाम बहुत करके ' हरिबल' होगा।
हरिं हरिबलं नत्वा हरिवर्ण हरिप्रभम् ।
हरीज्यं च ब्रुवे टीका नीतिवाक्यामृतोपरि ॥ १ “ तथा उर्व-भारवि-भवभूति-भर्तृहरि-भर्तृमण्ठ-गुणाढ्य-व्यास-भास-बोस-कालिदास-बाणयूर-नारायण-कुमार-माघ-राजशेखरादिमहाकविकाव्येषु तत्र तत्रावसरे भरतप्रणीते काव्याध्याये सर्वजनप्रसिद्धेषु तेषु तेषूपाख्यानेषु च कथं तद्विषया महती प्रसिद्धिः ।"
—यशस्तिलक आ० ४, पृ० ११३