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जैनसाहित्य और इतिहास
असहायमनादर्श रत्नं रत्नाकरादिव । मत्तः काव्यमिदं जातं सतां हृदयमण्डनम् ॥१४- प्रथम आश्वास समुद्रसे निकले हुए असहाय, अनादर्श और सजनोंके हृदयकी शोभा बढ़ावाले रत्नकी तरह मुझसे भी यह असहाय ( मौलिक ), अनादर्श (बेजोड़) पौर हृदय मण्डन काव्य-रत्न उत्पन्न हुआ। कर्णाञ्जलिपुटैः पातुं चेतः सूक्तामृते यदि ।। श्रूयतां सोमदेवस्य नव्याः काव्योक्तियुक्तयः ॥२४६ -द्वितीय आ० यदि आपका चित्त कानोंकी अंजुलिसे सूक्तामृतका पान करना चाहता है, तो गोमदेवकी नई नई काव्योक्तियाँ सुनिए। लोकवित्त्वे कवित्वे वा यदि चातुर्यचञ्चवः। सोमदेवकवेः सूक्तिं समभ्यस्यन्तु साधवः ॥ ५१३ ॥ -तृतीय आ० यदि सजनोंकी यह इच्छा हो कि वे लोकव्यवहार और कवित्वमें चातुर्य प्राप्त करें तो उन्हें सोमदेव कविकी सूक्तियोंका अभ्यास करना चाहिए ।
मया वागर्थसंभारे भुक्ते सारस्वते रसे। कवयोऽन्ये भविष्यन्ति नूनमुच्छिष्टभोजनाः॥-चतुर्थ आ० पृ० १६५ मैं शब्द और अर्थपूर्ण सारे सारस्वत रस ( साहित्य रस ) को भोग चुका हूँ, प्रतएव अब जो अन्य कवि होंगे, वे निश्चयसे उच्छिष्टभोजी या जूठा खानेवाले होंगे, वे कोई नई बात न कह सकेंगे।
अरालकालव्यालेन ये लोढा साम्प्रतं तु ते ।। शब्दाः श्रीसोमदेवेन प्रोत्थाप्यन्ते किमद्भुतम् ।। -पं० आ० १६५ समयरूपी विकट अजगरने जिन शब्दोंको निगल लिया था, अतएव जो मृत हो गये थे, यदि उन्हें श्रीसोमदेवने उठा दिया-जिला दिया तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए । ( इसमें ' सोमदेव' शब्द श्लिष्ट है । सोम चन्द्रवाची है और चन्द्रकी अमृत-किरणोंसे विषमूञ्छित जीव सचेत हो जाते हैं ।)
उद्धृत्य शास्त्रजलधेर्नितले निमग्नैः ।।
पर्यागतैरिव चिरादभिधानरत्नैः । या सोमदेवविदुषा विहिता विभूषा वाग्देवता वहतु सम्प्रति तामनर्घाम् ॥५० आ०, पृ० २६६