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जैनसाहित्य और इतिहास
साहित्यसे यथेष्ट परिचित थे । बहुत संभव है कि उनके समयमै उक्त सबका सब साहित्य नहीं तो उसका अधिकांश उपलब्ध हो । कमसे कम पूर्वोक्त आचायोंके ग्रन्थोंके सार या संग्रह आदि अवश्य उन्हें मिले होंगे। __इन सब बातोंसे और नीतिवाक्यामृतको अच्छी तरह पढ़नेसे हम इस परिणामपर पहुँचते है कि नीतिवाक्यामृत प्राचीन नीतिसाहित्यका सारभूत अमृत है । जिस तरह कामन्दकने चाणक्यके अर्थशास्त्रके आधारसे संक्षेपमें अपने नीतिसारका निर्माण किया है, उसी प्रकार सोमदेवसूरिने उनके समयमें जितना नीतिसाहित्य प्राप्त था उससे और अर्थशास्त्रके आधारसे यह नीतिवाक्यामृत निर्माण किया। दोनोंमें अन्तर यह है कि नीतिसार श्लोकबद्ध है और नीतिवाक्यामृत गद्य ।
यहाँ हम अर्थशास्त्र और नीतिवाक्यामृतके कुछ ऐसे अवतरण देते हैं जिनसे दोनोंकी समानता प्रकट होती है
१-दुष्प्रणीतः कामकोधाभ्यामज्ञानाद्वानप्रस्थपरिव्राजकानपि कोपयति, किमङ्ग पुनर्गृहस्थान् । अप्रणीतो हि मात्स्यन्यायमुद्भावयति । बलीनबलं ग्रसते दण्डधराभावे ।
-अर्थशास्त्र अध्याय ४,१५ दुष्प्रणीतो हि दण्डः कामक्रोधाभ्यामज्ञानाद्वा सर्वजनविद्वेषं करोति । अप्रणीतो हि दण्डो मात्स्यन्यायमुद्भावयति । बलीयानबलं ग्रसते ( इति मात्स्यन्यायः)।
-नीतिवा० पृ० १०४-५ । २–ब्रह्मचर्य चाषोडशाद्वर्षात् । अतो गोदानं दारकर्म च ।।
-अर्थ० ५, ९ । ब्रह्मचर्यमाषोडशाद्वर्षात्ततो गोदानपूर्वकं दारकर्म चास्य । -नी० १६७ ।
३-पुरोहितमुदितोदितकुलशीलं षडंगे वेदे दैवे निमित्ते दण्डनीत्यां च अभिविनीतमापदां दैवमानुषीणां अथर्वभिरुपायैश्च प्रतिकर्तारं कुर्वीत ।
__ अर्थ० ९,१५ । पुरोहितमुदितकुलशीलं षडंगवेदे दैवे निमित्ते दण्डनीत्यामभिविनीतमापदां दैवीनां मानुषीणां च प्रतिकतारं कुर्वीत ।
-नीति० पृ० १५९ । १ यशस्तिलक आ० ४ पृ० १०० में नीतिकार भारद्वाजके षाड्गुण्य प्रस्तावके दो श्लोक और विशालाक्षके कुछ वाक्य दिये हैं । ये विशालाक्ष संभवतः वे ही नीतिकार हैं जिनका उल्लेख अर्थशास्त्र और नीतिसारमें किया गया है।