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यापनीय साहित्यकी खोज
नहीं मिलती और यह आरातीय पद भी विनयदत्त, श्रीदत्त और अर्हद्दत्त, इन चार आचार्योंके सिवाय और किसी भी आचार्यके लिए व्यवहृत नहीं किया गया है । सर्वार्थसिद्धि टीकाके अनुसार भगवान्के साक्षात् शिष्य गणधर और श्रुतकेवलियोंके बाद जो आचार्य हुए और जिन्होंने दशवैकालिकादि सूत्र उपनिबद्ध किये हैं वे आरातीय कहलाते हैं। चूँकि अपराजितसूरिने दशवैकालिककी टीका लिखी थी, शायद इसीलिए वे 'आरातीय-चूडामणि' कहलाते हों। दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार दशवैकालिकादि अंगबाह्य श्रुत तो हैं; परन्तु उसकी दृष्टिमें वे छिन्न हो गये हैं और जो उपलब्ध हैं वे अप्रमाण हैं । अतएव दिगम्बर सम्प्रदायका कोई भी आचार्य इस पदवीका धारक नहीं है ।
यापनीयोंका नन्दिसंघ गंगवंशी पृथ्वीकोङ्गाणि महाराजका शक ६९८ (वि० सं० ८३३) का एक दान-पत्रं मिला है जो श्रीपुर ( शिरूर ) के ' लोकतिलक' नामक जैनमंदिरको 'पौन्नाल्लि' नामक ग्रामके रूपमें दिया था। उसमें जो गुरुपरम्परा दी है वह इस प्रकार है-श्रीचन्द्रनन्दि गुरु, उनके शिष्य कुमारनन्दि, उनके कीर्तिनन्दि और उनके विमलचन्द्राचार्य । इन्हें श्रीमूलमूलगणाभिनन्दित नंदिसंघ, एरे गित्तूर
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१-विनयधरः श्रीदत्तः शिवदत्ताऽन्योऽर्हद्दत्तनामैते । आरातीयाः यतयस्ततोऽभवन्नगपूर्वधराः ॥ २४
-श्रुतावतार २-त्रयो वक्तारः सर्वशतीर्थकरः इतरो वा श्रुतकेवली आरातीयश्चेति ।
-अनगारधर्मामृतटीका पृ० ६७३ आरातीयः पुनराचार्यैः कालदोषात्संक्षिप्तायुमंतिबलशिष्यानुग्रहार्थं दशवैकालिकाद्युपनिबद्धं तत्प्रमाणमर्थतस्तदेवेदमिति क्षीरार्णवजलं घटगृहीतमिव । --अ० १, मूत्र २०
३-इण्डियन एण्टिक्वेरी २-१५६-५९ श्रीमूलशरणाभिनन्दितनन्दिसंघान्वयएरेगित्तरनाम्नि गणे मूलिकलगच्छे स्वच्छतरगुणकिरणप्रततिप्रह्लादितसकललोकश्चन्द्र इवापरश्चन्द्रनन्दिनामा गुरुरासीत् ।
४-'श्रीमूलमूलशरणाभिनन्दित' पाठ शायद ठीक नहीं है । सम्भव है पढ़नेवालेने गण को 'शरण' पढ लिया हो।