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पापनीय साहित्यकी खोज
करती हैं और इस तरह इस आचेलक्य श्रमणकल्पकी समाप्त की गई है।
इससे अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है कि व्याख्याकार यापनीय संघके हैं और वे उन सब आगमोंको मानते हैं जिनके उद्धरण उन्होंने अचेलताके प्रकरणमें दिये हैं। उनका अभिप्राय यह है कि साधुओंको नम रहना चाहिए, नम रहनेकी ही आगमोंकी प्रधान आशा है और कहीं कहीं जो वस्त्रादिका उल्लेख मिलता है सो उसका अर्थ इतना ही है कि यदि कभी अनिवार्य जरूरत आ पड़े, शीतादिकी तकलीफ बरदाश्त न हो, या शरीर बेडौल घिनौना हो तो कपड़ा ग्रहण किया जा सकता है परन्तु वह ग्रहण करना कारणसापेक्ष है और एक तरहसे अपवादरूप है । भगवान् महावीरकी वे उन सब भिन्न भिन्न कथाओंका उल्लेख करते हैं जो उनके कुछ काल तक वस्त्रधारी रहनेके सम्बन्धमें श्वेताम्बर-सम्प्रदायमें प्रचलित रही हैं और दिगम्बर सम्प्रदायमें जिनका कहीं जिक्र तक नहीं है । १-स्थानाभावसे यहाँ उत्तराध्ययनकी चार ही गाथायें दी जाती हैं
परिचत्तेसु वत्थेसु ण पुणो चेलमादिए । अचेलपवरो भिक्खू जिणरूबधरे सदा ॥ अचेलगस्स लूहस्स संजयस्स तवस्सिणो। तणेसु सयमाणस्स णं ते होदि विराहिणा । ण मे णिवारणं अत्थि छवित्ताणं ण विज्जई। अहं तु अग्गि सेवामि इदि भिक्खू ण चिंतए ।। आचलक्को य जो धम्मो जो वायं पुणरुत्तरो ।
देसिदो वड्ढमाणेण पासेण य महप्पणा ।। २ इस विषयमें यापनीय संघकी तुलना शुरूके भट्टारकोंसे की जा सकती है । वे थे तो दिगम्बर सम्प्रदायके ही अनुयायी, श्रीकुन्दकुन्दकी आम्नायके माननेवाले और नग्नताके पोषक, परन्तु अनिवार्य आवश्यकता होनेपर वस्त्रोंका भी उपयोग कर लेते थे। यों तो वे अपने मठोंमें वस्त्र छोडकर नग्न ही रहते थे और भोजनके समय भी नग्न हो जाते थे । श्रीश्रुतसागरसूरिने षट्पाहुड टीकामें इसे अपवादवेष कहा है। यथा
“ कलौ किल म्लेच्छादयो नग्नं दृष्ट्वा उपद्रवं यतीनां कुर्वन्ति, तेन मण्डपदुर्गे श्रीवसन्तकीर्तिना स्वामिना चर्यादिवेलायां तट्टीसारादिकेन शरीरमाच्छाद्य पुनस्तन्मुञ्चति इत्युपदेशः कृतः संयामिनां । इत्यपवादवेषः । ” अर्थात् कलिकालमें यतियोंको नग्न देखकर म्लेच्छांदि