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यापनीय साहित्यकी खोज
गई है, दृढ़का त्याग करनेके लिए नहीं और यदि ऐसा मानोगे कि संयमके लिए पात्र-ग्रहण सिद्ध है तो यह ठीक नहीं है। क्यों कि अचेलताका अर्थ है परिग्रहका त्याग और पात्र परिग्रह है, इसलिए उसका त्याग सिद्ध है । अर्थात् वस्त्र-पात्रग्रहण कारणसापेक्ष है । जो उपकरण कारणकी अपेक्षा ग्रहण किये जाते हैं उनका जिस तरह ग्रहणका विधान है उसी तरह उनका परिहरण भी अवश्य कहना चाहिए । इसलिए बहुतसे सूत्रोंमें अधिकारकी अपेक्षा जो वस्त्र-पात्र कहे हैं सो उन्हें ऐसा मानना चाहिए कि कारणसापेक्ष ही कहे गये हैं। और जो भावना (आचारांगका २४ वाँ अध्ययन ) में कहा है कि भगवान् महावीरने एक वर्ष तक चीवर धारण किया और उसके बाद वे अचेलक हो गये, सो इसमें बहुत-सी विप्रत्तिपत्तियाँ हैं, अर्थात् बहुतसे विरोध और मत-भेद हैं। क्योंकि कुछ लोग कहते हैं कि उस वस्त्रको जो वीर जिनके शरीरपर लटका दिया गया था, लटका देनेवाले मनुष्यने ही उसी दिन ले लिया था। दूसरे कहते हैं कि वह काँटों और डालियों आदिसे उलझते उलझते छह महीनेमें छिन्न भिन्न हो गया था। कुछ लोग कहते हैं कि एक वर्षसे कुछ अधिक बीत जानेपर खंडलक नामक ब्राह्मणने उसे ले लिया था और दूसरे कहते हैं कि जब वह हवासे उड़ गया और भगवानने उसकी उपेक्षा की, तो लटकानेवालेने फिर उनके कन्धेपर लटका दिया । इस तरह अनेक विपत्तिपत्तियाँ होनेके कारण इस बातमें कोई तत्त्व नहीं दिखलाई देता। यदि सचेल लिंग प्रकट करनेके लिए भगवान्ने वस्त्र ग्रहण किया था, तो फिर उसका विनाश क्यों इष्ट हुआ? उसे सदा ही धारण किये रहना था । यदि उन्हें पता था कि वह नष्ट हो जायगा
१-हिमसमये शीतबाधासहः परिग्रह्य चेलं तस्मिन्निष्क्रान्ते ग्रीष्मे समायाते प्रतिष्ठापयेदिति कारणमपेक्ष्यं ग्रहणमाख्यातम् । परिजीर्णविशेषोपादानादृढानामपरित्याग इति चेत् अचेलतावचनेन विरोधः । प्रक्षालनादिसंस्कारविरहात्परिजीर्णता वस्त्रस्य कभिता, न तु दृढस्य त्यागकथनार्थ पात्रप्रतिष्ठापनासूत्रेणोक्तेति ।
२-संयमार्थ पात्रग्रहणं सिद्धयति इति मन्यसे, नैव । अचेलता नाम परिग्रहत्यागः पात्रं च परिग्रह इति तस्यापि त्यागः सिद्ध एवेति । तस्मात्कारणापेक्ष वस्त्रपात्रग्रहणम् । यदुपकरणं ग्रह्यते कारणमपेक्ष्य तस्य ग्रहणविधिः ग्रहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यमेव । तस्मादत्रं पात्रं चार्थाधिकारमपेक्ष्य सूत्रेषु बहुषु यदुक्तं तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम् ।