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जैनसाहित्य और इतिहास
सेमरको ' शिमूल' कहते हैं जो 'श्रीमूल' का ही अपभ्रंश मालूम होता है । कनड़ी में भी सेमर के लिए सम्भव है कि शिमूल या श्रीमूलसे ही मिलता जुलता कोई शब्द हो ।
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संस्कृत कोषोंमें नन्दि भी एक वृक्षका नाम है, इससे कल्पना होती है कि शायद नन्दिसंघ नाम भी उक्त वृक्षके कारण पड़ा होगा । ऐसी दशा में मूल संघ समान अन्य संघों में भी नन्दि संघ होना स्वाभाविक है ।
हमारा अनुमान है कि पृथ्वीकौङ्गणि महाराजके दानपत्र में जिन चन्द्रनन्दि आचार्यका उल्लेख है, उनके ही प्रशिष्य अपराजितसूरि होंगे । उक्त दानपत्र में उनके एक शिष्य कुमारनन्दिकी ही शिष्य-परम्परा दी है, संभव है दूसरे शिष्य बलदेवकी परम्परामें अपराजितसूरि हुए हों ।
दानपत्र में दिगम्बर सम्प्रदाय के मूलसंघान्तर्गत नन्दिसंघ से पृथक्त्व प्रकट करने के लिए ही शायद ' श्रीमूलमूलगणाभिनन्दित' विशेषण दिया गया है।
क्या शिवार्य भी यापनीय थे ?
अपराजितसूरि के विषय में विचार करते समय मूल भगवती आराधना में भी कुछ बातें ऐसी मिली हैं जिनसे उसके कर्ता शिवार्य भी यापनीय संघ के मालूम होते हैं | देखिए —
१ इस ग्रन्थकी प्रशस्ति में लिखा है कि आर्य जिननन्दि गणि, आर्य सर्वगुप्त गणि और आर्य मित्रनन्दि गणिके चरणोंसे अच्छी तरह सूत्र और उनका अर्थ समझकर और पूर्वाचार्यों की रचनाको उपजीव्य बनाकर 'पाणितलभोजी' शिवार्यने यह आराधना रची' | हम लोगों के लिए प्रायः ये सभी नाम अपरिचित हैं ।
१. -अजजिणणं दिगणिअजमित्तणंदीणं ।
अवगमियपायमूले सम्मं सुत्तं च अत्थं च ॥ २१६१ पुव्वायरियणिवद्धा उपजीवित्ता इमा ससत्तीए । आराहणा सिवजेण पाणिदलभोइणा रइदा || २१६२
२- - यापनीय संघके मुनियोंमें कीर्तिनामान्त अधिकतासे हैं- जैसे पाल्यकीति, रविकीर्ति, विजयकीर्ति, धर्मकीर्ति, आदि । नन्दि, गुप्त, चन्द्र, नामान्त भी काफी हैं जैसे- जिननन्दि, मित्रनन्दि, सर्वंगुप्त, नागचन्द्र, नेमिचन्द्र । पर इनस किसी संघका निश्चयपूर्वक निर्णय नहीं हो सकता है ।