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जैनसाहित्य और इतिहास
विजयोदया टीकाका यह एक ही प्रसंग उसे यापनीय सिद्ध करनेके लिए काफी है और इसी लिए यह खास तौरसे पाठकोंके सामने पेश किया गया है ।
और भी कई प्रसंग और उद्धरण दिये जा सकते हैं परन्तु उनमें जो दिगम्बरयापनीय भेद हैं वे इतने सूक्ष्म हैं कि उन्हें जल्दी नहीं समझाया जा सकता और उनपर विवाद भी किया जा सकता है ।
अपराजितमूरिकी गुरु-परम्परा श्रीविजयोदया टीकाके अनुसार अपराजितसूरि बलदेवसूरिके शिष्य और चन्द्रनन्दि महाप्रकृत्याचार्यके प्रशिष्य थे । नागनन्दि गणिकी चरण-सेवासे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ था और श्रीनन्दिगणिके कहनेसे उन्होंने यह टीका लिखी थी। वे आरातीय सूरियोंमें श्रेष्ठ थे। श्रीविजय उनका दूसरा नाम थों और शायद इसीसे इस टीकाका तथा दशवैकालिक टीकाका नाम श्रीविजयोदया रक्खा गया है।
दिगम्बर-सम्प्रदायके किसी भी सघकी गुर्वावली या पट्टावलीमें यह गुरुपरम्परा
उपद्रव करते हैं, इससे मण्डपदुर्ग (मांडलगढ़ ) में वसन्तकीति स्वामीने मुनियोंको यह उपदेश किया कि आहारादिके लिए निकलते समय चटाई, सादड़ी ( बाँस या खजूरके पत्तोंसे बनी हुई चटाईके टुकडे ) से शरीर ढंक लेना और फिर उसे छोड देना । यह अपवाद. वेश है । तत्त्वार्थटीकामें इन्हीं श्रुतसागरने इसे द्रव्यलिंग कहा है । यथा-" द्रव्यलिगिनः असमर्था महर्षयः शीतकालादौ कम्बलादिकं गृहीत्वा न प्रक्षालयन्ते न सीव्यन्ति न प्रयत्नादिकं कुर्वन्ति अपरकाले परिहरंतीति । " अर्थात् द्रव्यलिंगी असमर्थ महर्षि शीतकालादिमें कम्बलादिक ग्रहण कर लेते हैं, परन्तु न उन्हें धोते हैं, न सीते हैं, न उनके लिए कुछ प्रयत्न करते हैं और फिर उसे छोड़ देते हैं ।
१-" चन्द्रनन्दिमहाप्रकृत्याचार्य-प्रशिष्येण आरातीयसूरिचूलामणिना नागनन्दिगणिपादपद्मोपसेवाजातमतिलवेन बलदेवमूरिशिष्येण जिनशासनोद्धरणधीरेण लब्धयशःप्रसरेणापराजितसूरिणा श्रीनन्दिगणिनावचोदितेन रचिता-"
२—आशाधरने अपराजितका अपने ग्रन्थोंमें श्रीविजयाचार्यके नामसे भी उल्लेख किया है.--" एतच्च श्रीविजयाचार्यविरचितसंस्कृतमूलाराधनटीकायां सुस्थितसूत्रे विस्तरतः समर्थितं
-अनगारधर्मामृत टीका पृ० ६७३
दृष्टव्यं ।"