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जैनसाहित्य और इतिहास
सूत्रकृतांगके पुण्डरीक अध्ययन में कहा है कि साधुको किसी वस्त्रपात्रादिकी प्राप्तिके मतलब से धर्मकथा नहीं कहनी चाहिए और निशीथसूत्र के दूसरे उद्देश्य में भी कहा है कि जो भिक्षु वस्त्र पात्रोंको एक साथ ग्रहण करता है उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त लेना पड़ता है ।
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शंकाकार कहता है कि इस तरह सूत्रोंमें जब वस्त्र-ग्रहण निर्दिष्ट है, तब अचेलता कैसे बन सकती है ? इसके समाधानमें टीकाकार कहते हैं कि आगम में अर्थात् आचारांगादि में आर्यिकाओंको तो वस्त्रकी अनुज्ञा है परन्तु भिक्षुओंको नहीं है । और जो है वह कारणकी अपेक्षा है । जिस भिक्षुके शरीरावयव लज्जाकर हैं और जो परीपह सहन करनेमें असमर्थ है वही वस्त्र ग्रहण करता है। और फिर इस बात की पुष्टि में आचारांग तथा कल्प (बृहत्कल्प) के दो उद्धरण देकर आचारांगका एक दूसरा सूत्र बतलाया है जिसमें कारणकी अपेक्षा वस्त्र ग्रहण करनेका विधान है और फिर उसकी टीका करते हुए लिखा है - यह जो कहा है कि हेमन्त ऋतुके समाप्त हो जाने पर परिजीर्ण उपधिको रख दे, सो इसका अर्थ यह है कि यदि शीतका कष्ट सहन न हो तो वस्त्र ग्रहण कर ले और फिर ग्रीष्मकाल आ जाने पर उसे उतार दे । इसमें कारणकी अपेक्षा ही ग्रहण कहा गया है । परन्तु जीर्णको छोड़ दे, इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि दृढ़ ( मजबूत ) को न छोड़े । अन्यथा अचेलतावचन से विरोध आ जायगा । वस्त्रकी परिजीर्णता प्रक्षालनादि संस्कारके अभाव से कही
१ - कहेज धम्मक बत्थपत्तादिदुभिदि ।
२ - कसिणाई वत्थकंबलाई जो भिक्खू पडिग्गहिदि पज्जदि मासिगं लहुगं इदि । ३ - एवं सूत्रनिर्दिष्टे चेले अचेलता कथं इति ।
४ - आर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं, कारणापेक्षया भिक्षूणाम् । हीमानयोग्यशरीरावयवो दुश्चर्माभिलम्बमानत्रीजी वा परीपहसहने वा अक्षमः स गृह्णाति ।
५-हिरिहेतुकं व होइ देहदुगुंछंति देहे जुग्गिदगे धारेज सियं वत्थं परिस्सहाणं च विहासीति :
६ - द्वितीयमपि सूत्रं कारणमपेक्ष्य वस्त्रग्रहणमित्यस्य प्रसाधकं आचारांगे विद्यतेएवं जाणे । पातिकंते हेमंतेहिं सुपडिवण्णे से अथ पडिजुण्णमुवधिं पदिट्ठावेज्ज । '
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