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यापनीय साहित्यकी खोज
अपराजितमूरि यापनीय थे यापनीय संघकी मानताओंका थोड़ा-सा परिचय देकर अब हम यह बतलाना चाहते हैं कि क्या सचमुच ही कुछ यापनीय साहित्य ऐसा है जिसे इस समय दिगम्बर सम्प्रदाय अपना मान रहा है, जिस तरह कि कुछ स्थानोंमें उनके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाओंको ? इसके प्रमाणमें हम सबसे पहले मूलाराधनाकी टीका श्रीविजयोदयाको उपस्थित करते हैं, जो अपराजितसूरि या श्रीविजयाचार्यकी बनाई हुई है।
यह टीका भगवती आराधनाके वचनिकाकार पं. सदासुखजीके सम्मुख थी। सबसे पहले उन्होंने ही इसपर सन्देह किया था और लिखा था कि इस ग्रन्थकी टीकाका का श्वेताम्बर है । वस्त्र, पात्र, कम्बलादिका पोषण करता है, इसलिए अप्रमाण है । सदासुखजी चूकि यापनीय संघसे परिचित नहीं थे, इसलिए वे अपराजितसूरिको श्वेताम्बरके सिवाय और कुछ लिख भी नहीं सकते थे। इसी तरह स्व० डॉ० के० बी० पाठकको भी अमोघवृत्तिमें आवश्यक, छेदसूत्र, नियुक्ति
आदिके उदाहरण देखकर शाकटायनको श्वेताम्बर मान लेना पड़ा था, जो कि निश्चित रूपसे यापनीय थे। __ अपराजितसूरिके यापनीय होनेका सबसे स्पष्ट प्रमाण यह है कि उन्होंने दशवैकालिक सूत्रपर स्वयं एक टीका लिखी थी और उसका भी नाम इस टीकाके समान 'श्रीविजयोदया' था। इसका जिक्र उन्होंने स्वयं ११९७ नम्बरकी गाथाकी टीकामें किया है, " दशवैकालिकटीकायां प्रपंचिता उद्गमादिदोषा इति नेह प्रतन्यते । ” अर्थात् मैंने उद्गमादि दोषोंका वर्णन दशवैकालिक टीकामें किया है, इसलिए अब उसे यहाँ नहीं करता। दिगम्बर सम्प्रदायका कोई आचार्य किसी अन्य सम्प्रदायके आचार-ग्रन्थकी टीका लिखेगा, यह एक तरहसे अद्भुत-सी बात है जब कि दिगम्बर सम्प्रदायकी दृष्टिमें दशवैकालिकादि सूत्र नष्ट हो चुके हैं । वे इस नामके किसी ग्रन्थके अस्तित्वमें मानते ही नहीं हैं।
यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि श्वेतांबर संप्रदाय-मान्य जो आगम ग्रन्थ हैं यापनीयसंघ शायद उन सभीको मानता था; परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि दोनोंके आगमोंमें कुछ पाठ-भेद था और इसका कारण शायद यह हो कि उपलब्ध वलभी-वाचनासे पहलेकी कोई वाचना ( संभवतः माथुरी वाचना)