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यापनीय साहित्यकी खोज
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सरसरी तौरसे नहीं पहिचानी जा सकती कि वे दिगम्बर संप्रदायकी हैं या यापनीयकी । इसी तरह यापनीय संघका बहुत-सा साहित्य भी तो ऐसा हो सकता है जो स्थूल दृष्टिसे दिगम्बर सम्प्रदाय जैसा ही मालूम हो । उदाहरणके लिए हमारे सामने शाकटायन व्याकरण है ही । वह दिगम्बर सम्प्रदायमें सैकड़ों वर्षोंसे केवल मान्य ही नहीं है उसपर बहुत-से दिगम्बर विद्वानोंने टीकायें तक लिखी हैं ।
शाकटायनाचार्यके व्याकरणके अतिरिक्त दो और ग्रन्थ प्रकाशमें आये हैं जिनमेंसे एकका नाम 'स्त्री-मुक्ति प्रकरण' और दूसरेका 'केवलि-भुक्ति प्रकरण' है। इन ग्रन्थोंमें नामके अनुसार स्त्रीको उसी भवमें मोक्ष हो सकता है और केवली भोजन करते हैं, इन दो बातोंको सिद्ध किया गया है। चूंकि ये दोनों सिद्धान्त दिगम्बर सम्प्रदायसे विरुद्ध हैं, शायद इसीलिए इनका संग्रह दिगम्बर भण्डारोंमें नहीं किया गया परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय इन बातोंको मानता है इसलिए उसके भण्डारोंमें यह संग्रहीत रहा।
पाल्यकीर्ति ( शाकटायन ) का एक साहित्यविषयक ग्रन्थ भी था जिसका मत राजशेखरने अपने महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ काव्य-मीमांसामें उद्धृत किया है ।
जैसा कि पाठकोंको आगे चलकर मालूम होगा यापनीय संघ सूत्र या आगमग्रन्थोंको भी मानता था और उनके आगमोंकी वाचना उपलब्ध वल्लभी वाचनासे, जो श्वेताम्बर संप्रदायमें मानी जाती है, शायद कुछ भिन्न थी। उसपर उनकी स्वतंत्र टीकायें भी होंगी जैसी कि अपराजितसूरिकी दशवैकालिक सूत्रपर एक टीका थी। इस सब साहित्यमेंसे कुछ न कुछ साहित्य ज़रूर मिलना चाहिए ।
जिस संप्रदायके अस्तित्वका पन्द्रहवीं शताब्दि तक पता लगता है और जिसमें शाकटायन और स्वयंभू जैसे प्रतिभाशाली विद्वान् हुए हैं, उसका साहित्य सर्वथा ही नष्ट हो गया होगा, इस बातपर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता। वह अवश्य होगा और दिगम्बर-श्वेताम्बर भण्डारोंमें ज्ञात-अज्ञात रूपमें पड़ा होगा।
विक्रमकी बारहवीं-तेरहवीं शताब्दि तक कनड़ी साहित्यमें जैन विद्वानोंने एकसे एक बढ़कर सैकड़ों ग्रन्थ लिखे हैं । कोई कारण नहीं है कि जब उस समय तक यापनीय संघके विद्वानोंकी परम्परा चली आ रही थी तब उन्होंने भी कनड़ी साहित्यको दस-बीस ग्रन्थ भेंट न किये हों।
१ जैन साहित्य-संशोधक भाग २ अंक ३, ४ में ये प्रकरण प्रकाशित हो चुके हैं ।