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आराधना और उसकी टीकायें
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महासंघे गच्छे गिरिगगबलात्कारपदके, गुरौ नन्द्याम्नायेऽन्वयवरगुरौ कुन्दमुनिपे ।
सुजातो वै सूरिर्जयपुरपदस्थो मुनिवरः ॥२॥ महेन्द्रस्तत्पट्टे गुरुगुणनिधिः क्षेमसुवृषा, तदीयः सच्छिष्यो वुधवरनिहालेति पदभाक् । तदीयः सच्छिष्यो गुणनिधिदयाचन्द्रविबुधः, तदीयः सत्तेजः दिलसुखवुधो ज्ञाननिरतः ।। ३॥ तदीयः सच्छिप्यः शिवजिदरुणो भक्तिनिरतः, गुरूणामाज्ञावान् धृतजिनसुधर्मोऽभवदिह । तदीयः सत्पुत्रो मणिजिदरुणाख्यो लघुमतिस्तदर्थं वृत्तिर्वा प्रकटितपथाकारि रुचिरा ॥४॥ समे वस्वकार्येदुमिति शुभपक्षे शुचिभवे, त्रयोदश्यहोत्ये (?) चरमसमये वारधिषणे ऽनुराधानक्षत्रे शुभसुयशर्द्धिप्रजननी, चिरं जीयादेषा भुवि जिनमतोद्योतनकरी ॥
___ इति भगवती आराधनाटीका समाप्ता। यह टीका शिवजिदरुण अर्थात् पं० शिवजीलालने अपने सुपुत्र मणिजिदरुण ( मणिजीलाल या मणिलाल ) के लिए बनाई है । वे जयपुरके भट्टारककी गद्दीके पण्डित थे। उन्होंने अपनी गुरुपरम्परा इस प्रकार दी है–भट्टारक महेन्द्रकीर्तिके शिष्य भट्टारक क्षेमकीर्ति, उनके पं० निहालचन्द, निहालचन्दके शिष्य दयाचन्द्र, दयाचन्द्रके दिलसुख और दिलसुखके शिवजीलाल । प्रशस्तिके पाँचवें पद्यमें टीका निर्माणका समय दिया हुआ है, परन्तु उसका पहला चरण कुछ अशुद्ध-सा हो गया है, इस कारण वह ठीक नहीं बतलाया जा सकता । संवत् १८१८ की जेठ सुदी १३ गुरुवारको टीका समाप्त हुई है । पं० शिवजीलाल पं० सदासुखजीके ही समकालीन विद्वान् थे और एक प्रकारसे उनके प्रतिपक्षी थे। उस समय तेरहपन्थ और बीसपन्थमें बहुत कटुता बढ़ी हुई थी। शिवजीलालका एक तेरहपन्थ-खण्डन नामका ग्रन्थ भी है । उन्होंने रत्नकरण्ड, चर्चासंग्रह, बोधसार,