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जैनसाहित्य और इतिहास
विषयराग, निराकृतसकलपरिग्रह और क्षीणायुष विशेषण दिये हैं; परन्तु इन विशेषणोंका देना वे ठीक नहीं समझते हैं ।
इसके सिवाय उन्होंने और भी कई जगह 'अत्र परा व्याख्या' 'अत्रान्ये व्याचक्षते' आदि कहकर अपना मत-भेद प्रकट किया है, इतना ही नहीं किन्तु अनेक स्थलोंपर तो वे उन पूर्ववर्तिनी टीकाओंका खण्डन करते हुए भी पाये जाते हैं । इससे उनके समक्ष अन्य टीकायें जरूर थीं, यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है।
पं० हीरालालजी शास्त्रीने जैनसिद्धान्तभास्कर ( भाग ५, किरण ३) में अन्य टीकाओंके सम्बन्धमें कुछ और भी प्रकाश डाला है और वह यह कि
१५० आशाधरने गाथा नं ४३० की व्याख्यामें मनुष्य-भवकी दुर्लभता बतलाते हुए 'चुल्लय पासं धण्णं' आदि गाथाका उल्लेख करनेके बाद लिखा है, " एते चुल्लीभोजनादिकथासम्प्रदायाः दशापि प्राकृतटीकादिषु विस्तरेणोक्ताः प्रतिपत्तव्याः।”
२ गाथा नं० ५२५ की व्याख्यामें लिखा है, षट्त्रिंशद्गुणा यथा-अष्टा ज्ञानाचाराः, अष्टौ दर्शनाचाराश्च, तपो द्वादशविधं, पंचसमितयः तिस्रो गुप्तयश्चेति संस्कृतटीकायां । प्राकृतटीकायां तु अष्टाविंशति मूलगुणाः आचारवत्त्वादयश्चाष्टौ, इति षट्त्रिंशत् । __ ३ गाथा नं ० ५५० के 'काउसग्ग' पदकी व्याख्या करते हुए लिखा है, 'काउसग्गं सामायिकदण्डकस्तवप्रयोगपूर्वकं बृहत्सिद्धभक्तिं कृत्वोपविश्य लघुसिद्धभक्तिं करोतीति प्राकृतटीकाम्नायः ।'
४ इनसे एक प्राकृतटीका और एक संस्कृतटीकाके अस्तित्वका स्पष्ट पता लगता है । इनके सिवाय जान पड़ता है कि कुछ और भी गद्यात्मक टीकायें थीं, जिनके कर्त्ता मूलगाथाओंके कुछ भिन्न भिन्न पाठ निर्देश करते थे और टीका भी भिन्न करते थे । यथा
गाथा नं० १८१८-एषा प्राकृतटीकाकारमतेन व्याख्या। अन्ये 'संयम
१ पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने ( अनेकान्त वर्ष २, किरण १ में ) किमिरागकंबलस्सव' आदि गाथा ( नं० ५३७ ) की टीका ( मूलाराधनादर्पण ) का एक उद्धरण और दिया है जिसमें संस्कृतटीकाका और उल्लेख है ।