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जैनसाहित्य और इतिहास
कर्ता श्वेताम्बर है, दूसरी गाथाके अर्थमें वस्त्र पात्र कम्बलादि पोषै है, कहै है, ताते प्रमाणरूप नाहीं है।” चूं कि उन्हें यापनीय संघके स्वरूपका कुछ पता नहीं था, इसलिए उन्होंने अपराजितसूरिको श्वेताम्बर समझ लिया था। वास्तवमें वे यापनीय थे और यापनीयसंघके बहुतसे सिद्धान्त श्वेताम्बरसम्प्रदाय जैसे हैं । वे आचारांग, उत्तराध्यन आदि आगमोंका मानते हैं और अपराजितसूरि जगह जगह उनके उद्धरण देकर अपने विषयका निरूपण करते हैं । उनके यापनीय होनेके
और भी अनेक प्रमाण मैंने अपने ' यापनीय साहित्यकी खोज' शीर्षक लेखमें दिये हैं, पाठक वहाँसे देख सकते हैं । ___ अपराजितसूरिका ठीक समय तो नहीं मालूम हो सका, परन्तु अनुमान यह है कि वे विक्रमकी नवीं शताब्दिके पहले ही होंगे। गंगवंशके पृथ्वीकोङ्गणि महाराजका एक दानपत्र श० सं० ६९८ ( वि० सं० ८३३ ) का मिला है। उसमें यापनीयसंघके चन्द्रनन्दि, कीर्तिनन्दि और विमलचन्द्रको ' लोकतिलक' जैनमन्दिरके लिए एक गाँव दिये जानेका उल्लेख है। अपराजितसूरि शायद इन्हीं चन्द्रनन्दिके प्रशिष्य होंगे । उक्त दानपत्रमें उनके एक शिष्य कुमारनन्दिकी ही गुरुपरम्परा दी है, दूसरे शिष्य शायद बलदेवसूरि हों और उनके शिष्य अपराजित ।
२ मूलाराधना-दर्पण - इसके कर्ता पं० आशाधरजी हैं जिनके अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं और जिनके समय आदिके विषयमें काफी लिखा जा चुका हैं । यह टीका भी विजयोदया टीकाके साथ छप चुकी है। कारंजाकी जिस प्रतिके आधारसे यह छपी है उसमें अन्तकी प्रशस्तिका एक पृष्ठ नष्ट हो गया है, इसलिए यह न मालूम हो सका कि यह टीका किस संवतमें लिखी गई थी। पं० आशाधरजीसे पहले अमितगतिकी संस्कृत आराधना बन चुकी थी। १ इंडियन एण्टिक्वेरी जिल्द २ पृ० १५६-५९ ।
२ चन्द्रनन्दिको अपराजितसूरिने महाकर्मप्रकृत्याचार्य लिखा है । श्रवणबेल्गोलके ५४ वें शिलालेखमें जो श० सं० १०५० का है, अनेक आचार्योंके साथ एक कर्ग-प्रकृति भट्टारकको भी नमस्कार किया गया है । ये बहुत करके चन्द्रनन्दि आचार्य होंगे। उक्त शिलालेखसे समयपर कोई प्रकाश नहीं पड़ता है । ___ ३ देखो, ' अनेकान्त ' वर्ष ३, अंक ११-१२ में मेरा लिखा ' पं० प्र० आशाधर' शीर्षक विस्तृत लेख।