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जैन साहित्य और इतिहास
भोजन-पान लानेका निर्देश है । इसपर स्व० पं० सदासुखजीने अपनी वचनिकामें और दीवान अमरचन्दजीने अपने कविवर वृन्दावनजीको लिखे हुए पत्र में आपत्ति की है'।
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५ आराधनाकी ४२८ वीं गाथा आचारांग और जीतकल्प ग्रन्थों का उल्लेख करती है जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं ।
६ शिवार्य ने अपनेको ' पाणितलभोजी' अर्थात् हथेलियोंपर भोजन करनेवाला लिखा है । यापनीय संघ के साधु श्वेताम्बर साधुओंके समान पात्र - भोजी नहीं for दिगम्बरों के समान कर - पात्रभोजी थे ।
शिवाय जब यापनीय संघ के थे, तब भगवजिनसेनने उनका स्मरण क्यों किया ? इस विषय में हमारा खयाल है कि उस समय के विद्वानों में इतनी उदारता थी और वे इसमें कोई दोष नहीं समझते थे । उन्होंने इसी दृष्टिसे सिद्धसेनाचार्यकी भी प्रशंसा की है ।
मूल कर्त्ताका समय
भगवजिनसेनने शिवार्यकी स्तुति की है और शाकटायनने उनके गुरु सर्वगुप्तको बड़ा भारी व्याख्याता बतलाया है, इससे वे इन दोनों ग्रन्थकर्त्ताओंसे तो निश्चयपूर्वक पहले के हैं । कितने पहलेके हैं, यह तो नहीं बतलाया जा सकता । परन्तु ऐसा मालूम होता है कि बहुत पहले के हैं । आराधना के चालीसवें 'विजहना' नामक अधिकारमें जो आराधक मुनिके मृतकसंस्कारका वर्णन है, उससे इसकी प्राचीनता पर प्रकाश पड़ता है । उसके अनुसार उस समय मुनिके मृतक शरीरको वनमें किसी अच्छी जगहपर यों ही छोड़ दिया जाता था और उसे पशु-पक्षी समाप्त कर देते थे । इस ग्रन्थपर जैसा कि आगे बतलाया गया है कई प्राकृत कायें थीं और प्राकृत टीकाओं के लिखे जानेका समय छठी सातवीं शताब्दि के बाद नहीं मालूम होता । फिर तो संस्कृतटीकाओंका काल आ जाता है । इस प्राचीन ग्रन्थपर अनेक टीकायें लिखी गई हैं, जिनमेंसे नीचे लिखी उपलब्ध हैं
१ देखो ' वृन्दावनविलास ' में मेरी लिखी हुई भूमिका ।
२ भगवती आराधनाकी भूमिका में इस विधिको कुछ विस्तार के साथ लिखा गया है । पाठक वहाँसे देख लें 1