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जानकार प्राचार्यों ने नौ लाख पच्चीस हजार योजन कहा है।
पांचवी पृथिवी के पहले तम नामक इन्द्रक का विस्तार पाठ लाख तैतीत्त हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग है। दूसरे भ्रम इन्द्रक का विस्तार सात लाख इकतालीस हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों दो भाग है। तीसरे झष इन्द्रक का विस्तार छ: लाख पचास हजार योजन चौये अन्ध इन्द्र क का पांच लाख अंठावन हजार तीन सौ तेतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण वणित है।
और पांचवे तिमिस्र नामक इन्द्र का विस्तार चार लाख छियासठ हजार छ: सौ छियासठ योजन पार एक योजन के तीन भागों में दो भाप प्रमाण है।
छठवी पृथ्वी के पहले हिम नामक इन्द्रक का विस्तार निर्मल केवल ज्ञान के धारी परहन्त भगवान ने तीन लाख पचहत्तर हजार योजन बतलाया है। दूसरे वर्दल इन्द्रक का विस्तार दो लाख तेरासी हजार तीन सौ तैतीस योजन और एक योजन के तीन भागों में एक भाग प्रमाण है। और तीसरे लल्लक इन्द्रक का विस्तार एक लाख एकान हजार छह सौ छियासठ योजन और एक योजन के तीन भागों में दो भाग प्रमाण हैं।
सातवीं पृथ्वी में केबल अप्रतिष्ठान नाम का एक ही इन्द्रक है तथा वस्तु के विस्तार को जानने वाले सर्वज्ञ देव ने उसका विस्तार एक लाख योजन बतलाया है।
धर्मा नाम पहली पृथ्वी के इन्द्रक बिलों की मुटाई एक कोश श्रेणी बद्ध बिलों की एक कोश के तीन भागों में एक भाग और प्रकीर्णक विलों की दो कोश एक कोश के तीन भागों में एक भाग प्रमाण हैं। दूसरी बंशा पृथ्वी के इन्द्रक बिलों की मटाई डेढ़ कोश, श्रेणी बद्धों की दो कोश और प्रकीर्णकों की साढ़े तीन कोश है। तीसरी मेधा पृथ्वी के इन्द्रक को मुटाई दो कोश, श्रेणी बद्धों की दो कोश और एक कोश के तीन भागों में दो भाग हैं। चौथी अंजना पृथ्वी के इन्द्रकों को मुटाई अड़ाई कोश, श्रेणी बद्धों को तीन कोश और एक कोश के तीन भागों में एक भाग तथा प्रकीर्णकों की पांच कोश और एक कोश के छह भागों में पांच भाग पांचवीं अरिष्ठा पृथ्वी के इन्द्रकों को मुटाई तोन कोश, श्रेणी बद्धों को चार और प्रकीर्णको की सात कोश है। छठवी मघवा पृथ्वी के इन्द्रकों की मुटाई साढ़े तीस कोश, धेणी बद्धों की चार कोश और एक कोश के तीन भागों में दो भाग तथा प्रकोणकों की पाठ और एक कोश के पाठ भागों में छह भाग प्रमाण है। एवं माघवी नामक सातवीं पृथ्वी के अप्रतिष्ठान इन्द्रक की मुटाई चार कोश श्रेणी बद्धों की पांच कोश और एक कोश के तीन भागों में एक भाग है। सातवीं पृथ्वी में प्रकीर्णक बिल नहीं है।
अब बिलों का परस्पर अन्तर कहते हैं प्रथम पृथ्वी के इन्द्रक विलों का अन्तर बुद्धिमान पुरुषों को चौसठ सौ निन्यानवे योजन (छः हजार चार सौ निन्यावें योजन) दो कोश और एक कोश के बारह भागों में से ग्यारह भाग जानना चाहिये । श्रेणी बद्ध विलों का चौसठ सौ निन्यानवें योजन दो कोश और एक कोश के नौ भागों में पांच भाग हैं। तथा प्रकीर्णक विलों का अन्तर चौसठ सौ निन्यानवें योजन मो कोश और एक कोश के छत्तीस भागों में सत्रह भाग प्रमाण हैं। द्वितीय पृथ्वी के इन्द्रक विलों का अन्तर बहुश्रुत विद्वानों ने दो हजार नौ सौ निन्यानवें योजन और चार हजार सात सौ धनुष कहा है। श्रेणी बद्ध विलों का अन्तर दो हजार नौ सौ निन्यानवें योजन और तीन हजार छह सौ धनुष है। एवं प्रकीर्णक विलों का भी पारस्परिक अन्तर उतना ही अर्थात दो हजार नौ सौ निन्यानवें योजन और तीन सौ धनुष हैं। तीसरी पृथ्वी में इन्द्रक विलों का विस्तार
वह सत्ताईस से गुणित और और आठ से भाजित धनराजू के प्रमाण हैं।-1-२३ =३३ प. राश कल्प के अभ्यान्तर क्षेत्र का घनफल ।
धनराजु को क्रमशः दाई और दो से गुणा करने पर जो गुणनफल प्राप्त हो, उतना शेष दो स्थानों के घनफल का प्रमाण है। इस सब घनफल को जोड़कर और उसे दुगुणा कर संयुक्त रूप से रखना पाहिए। 16:२४/७ :-- घ रा आनन कल्प के ऊपर का घ० फ० |