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卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐 [विवेचन- अग्निकाय को जलाने और बुझाने वालों में महाकर्म आदि और अल्पकर्म आदि से संयुक्त कौन और क्यों ? - प्रस्तुत सूत्र (19) में कालोदायी द्वारा पूछे गए पूर्वोक्त प्रश्न का भगवान् द्वारा दिया गया सयुक्तिक समाधान अंकित है। 筑
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अग्नि जलाने वाला महाकर्म आदि से युक्त क्यों?- अग्नि जलाने से बहुत-से अग्रिकायिक जीवों की उत्पत्ति होती है, उनमें से कुछ जीवों का विनाश भी होता है। अग्नि जलाने वाला पुरुष अग्रिकाय के अतिरिक्त अन्य सभी कायों (जीवों) का विनाश (महारम्भ) करता है। इसलिए अग्नि जलाने वाला पुरुष ज्ञानावरणीय आदि महाकर्म उपार्जन करता है, दाहरूप महाक्रिया करता है, कर्मबन्ध का हेतुभूत महा-आस्रव करता है और जीवों को महावेदना उत्पन्न करता है, जब कि अग्रि बुझाने वाला पुरुष एक अनिकाय के अतिरिक्त अन्य सब कायों (जीवों) का अल्प आरम्भ करता है। इसलिए वह जलाने वाले पुरुष की अपेक्षा अल्प-कर्म, अल्प-क्रिया, अल्प-आस्रव और अल्पवेदना से युक्त होता है ।]
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अल्पकर्म और अल्पक्रिया आदि का निर्देश जो यहां है, उस प्रसंग में क्रिया का एक विशेष अर्थ समझना चाहिए। कर्मबन्ध की कारणभूत चेष्टा को अथवा दुर्व्यापारविशेष को जैन दर्शन में 'क्रिया' कहा गया है। 事 卐
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[क्रियाएं पांच कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं
(1) कायिकी, (2) आधिकरणिकी, (3) प्राद्वेषिकी, (4) पारितापनिकी और (5) प्राणातिपातिकी । 卐 कायिकी आदि क्रियाओं का स्वरूप और प्रकार- कायिकी के दो प्रकार- 1. अनुपरतकायिकी (हिंसादि सावद्ययोग 卐 से देशत: या सर्वतः अनिवृत्त - अविरत जीवों को लगने वाली), और 2. दुष्प्रयुक्त-कायिकी - (कायादि के दुष्प्रयोग से प्रमत्तसंयत को लगने वाली क्रिया ।) आधिकरणिकी के दो भेद - 1. संयोजनाधिकरणिकी ( पहले से बने हुए अस्त्र-शस्त्रादि हिंसा - साधनों को एकत्रित कर तैयार रखना) तथा 2. निर्वर्तनाधिकरणिकी ( नये अस्त्र-शस्त्रादि 筑 बनाना) । प्राद्वेषिकी - ( स्वयं का, दूसरों का, उभय का अशुभ- द्वेषयुक्त चिन्तन करना), पारितापनिकी, (स्व, पर और उभय को परिताप उत्पन्न करना) और प्राणातिपातिकी (अपने आपके, दूसरों के या उभय के प्राणों का नाश करना) । 卐 कायिकी आदि पांच-पांच करके पच्चीस क्रियाओं का वर्णन भी मिलता है। इसके अतिरिक्त इन पाचों क्रियाओं का अल्प - बहुत्व भी विस्तृत रूप से प्रज्ञापना में प्रतिपादित किया गया है ।]
(77)
दो भंते! पुरिसा सरिसया जाव सरिसभंडमत्तोवगरणा अन्नमन्त्रेणं सद्धिं
अगणिकायं समारभंति, तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकायं उज्जालेति, एगे पुरिसे अगणिकायं निव्वावेति । एतेसिं णं भंते! दोण्हं पुरिसाणं कतरे पुरिसे महाकम्मतराए
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चेव, महाकिरियतराए चेव, महासवतराए चेव, महावेदणतराए चेव? कतरे वा पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेदणतराए चेव? जे वा से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेति, जे वा से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेति ?
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कालोदाई ! तत्थ णं जे पुरिसे अगणिकायं उज्जालेति से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव जाव महावेदणतराए चेव । तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं निव्वावेति से गं 卐
पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव जाव अप्पवेयणतराए चेव ।
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(व्या. प्र. 7/10/19 (1))
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अहिंसा - विश्वकोश /31/