Book Title: Premi Abhinandan Granth
Author(s): Premi Abhinandan Granth Samiti
Publisher: Premi Abhinandan Granth Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेमी-अभिनंदन-थ प्रेमी - अभिनंदन -ग्रंथ-समिति Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक यशपाल जैन वी० ए०, एल-एल० वी० मत्री-प्रेमी-अभिनदन-गय-समिति, टीकमगढ (सी० आई०) - मूल्य दम रुपया अक्तूबर १६४ जे दार्मा इलारावाद तो जनन प्रेम ग्लागार Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ coretand med att श्री नाथूराम प्रेमी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिन्होने अपनी विद्वत्ता और सतत साधना से हिन्दी की अपूर्व सेवा की है, उन्ही श्री नाथूराम जी प्रेमी के करकमलो Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SANIS [कलाकार खास्तगीर } सवि पुस्तकालय गपुर श्रद्धाजलि playli KAN Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अ) श्रायोजना और उसका इतिहास (आ) आभार (इ) निवेदन १- अभिनंदन १ उपकृत्त ( कविता ) २. श्रायोजन का स्वागत ३. प्रभिनदन ४ सौमनस्य के दूत ५. प्रेमी जी : जीवन-परिचय ६ मार्ग-दर्शक प्रकाशक ७ श्री नाथूराम जी प्रेमी 'हिन्दी ग्रय- रत्नाकर' और उसके मालिक मेरा सद्भाग्य १०. मेरी भाषा के निर्देशक ११ प० नाथूराम जी प्रेमी १२. जुगजुग जियह ( कविता ) १३ सैतीस वर्ष १४ प्रेमी जी १५ स्मरणाध्याय १६ प्रेमी जी के व्यक्तित्व की एक झलक १७ वे मधुर क्षण १८ कुछ स्मृतियाँ १६. स्वावलम्वी प्रेमी जी २० श्रादर्श प्रकाशक २१. हार्दिक कामना २२. इतिहासकार प्रेमी जी २३ प्रेमी जी की देन ? २४ आभार २५ सुधारक प्रेमी जो विषय-सूची पृष्ठ यशपाल जैन ग्यारह आर्थिक सहायता प्रदान करने वालो की सूची सत्रह वनारसीदान चतुर्वेदी अठारह • श्री सियारामशरण गुप्त सर सर्वपल्ली रावाकृष्णन् श्री पुरुषोत्तमदाम टडन श्री काका कालेलकर स० [सं० धन्यकुमार जैन श्री हरिभाऊ उपाध्याय प० वेचरदाम जी० दोगी स्व० हेमचद्र मोदी श्री जैनेन्द्रकुमार श्री किशोरीदास वाजपेयी श्री श्रादिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये श्री बुद्धिलाल श्रावक श्री पदुमलाल पुन्नालाल वस्शी श्री रामचद्र वर्मा प्राचार्य १० सुवलाल सघवी राय कृष्णदास श्री नरेन्द्र जैन एम० ए० श्री शिवसहाय चतुर्वेदी श्री लालचंद्र वी० मेठी मुनि जिनविजय श्री कृष्णलाल वर्मा * श्री भानुकुमार जैन श्री मामा वरेरकर श्री गो० खुशाल जैन एम० ए० प० देवकीनंदन १-६२ ३ ४ ४ ४ ५ € १० १३ २२ २५ २६ २६ २७ ३२ ३५ ४० ४२ ४५ ४७ & ५० ५१ v B ६० Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ] २- भाषा-विज्ञान और हिन्दी - साहित्य १ भारतीय आर्य-भाषा में बहुभाषिता २ 'बीच' को व्युत्पत्ति ३ अश्वो के कुछ विशिष्ट नाम ४ संस्कृत व्याकरण में लकारवाची सज्ञाएँ ५ 'गो' शब्द के अर्थों का विकास ६ मरण से ( कविता ) ७ हमारे पुराने साहित्य के इतिहास की सामग्री ८ व्रजभाषा का गद्य-साहित्य ६ गोत १० फोर्ट विलियम कॉलेज और विलिम प्राइस ११ मानव और मैं ( कविता ) १२ हिन्दी गद्य निर्माण की द्वितीय श्रवस्था १३ पृथ्वीराज रासो की विविध वाचनाएँ १६ साधना है गान मेरे ( कविता ) १७ समालोचना और हिन्दी में उसका विकास १८ अदृष्ट ( कविता ) १६ हिन्दी कविता के कलामंडप २०. जायसी का पक्षियों का ज्ञान २१ उपेक्षित बाल-साहित्स २२ में हूँ नित्य वर्तमान ( कविता ) २३ हिन्दुस्तान में छापेखाने का आरंभ (सचित्र) २४ भारत में समाचार-पत्र और स्वाधीनता २५ गोत डा० सुनीति कुमार चाटुर्ज्या डा० आर्येन्द्र शर्मा श्री उदयगकर भट्ट प्रो० सत्येंद्र प्रो० मूलराज जैन १४. काफल पाक्कू ( कविता ) श्री चंद्रकुंवर बर्त्वाल १५ विक्रम और बेताल-कथा में तथ्यान्वेषण (सचित्र) श्री सूर्यनारायण व्यास प्रो० सुवोन्द्र प्रो० पी० के० गोडे प्रो० क्षितीशचंद्र चट्टोपाध्याय ५ हिन्दू-मुस्लिम सवाल का प्राध्यात्मिक पहलू ६ प्राचीन आर्यों का जलयात्रा - प्रेम (सचित्र) ७ श्यूश्रान् चुना और उनके भारतीय मित्रों के बीच का पत्र-व्यवहार डा० मगलदेव शास्त्रो श्री मैथिलीशरण गुप्त श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी श्री प्रेमनारायण टडन श्री सोहनलाल द्विवेदी डा० लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय प्रो० विनयमोहन शर्मा ठा० गोपालगरणसिंह प्रो० सुधीन्द्र श्री सुरेश सिंह सर्वश्री खद्दर जो और दद्दा जो श्री वीरेन्द्रकुमार श्री अनंत काकावा श्री अम्विकाप्रमाद वाजपेयी प० गोकुलचंद्र शर्मा ३- भारतीय संस्कृति, पुरातत्त्व और इतिहास १ सस्कृति या सभ्यता ? २ हमारी सस्कृति का श्रधिकरण ३ दादू और रहीम ४. उत्तर भारत के नाय-सम्प्रदाय की परम्परा में बगाली प्रभाव श्री किशोरलाल घ० मश्रूवाला सत निहालसिंह आचार्य क्षितिमोहन सेन डा० सुकमार सेन प० सुन्दरलाल श्री कृष्णदत्त वाजपेयी डा० प्रबोधचद्र बागची पृष्ठ ६३-१६० ६५ ७४ ८१ ८५ ६० ६५ १६ १०० ११० १११ १२० १२२ १३० १३५ १३६ १४३ १४४ १८६ १५० १५७ १६३ १६६ १६७ १८२ १६० १६१-२६२ १९३ १९४ १६८ २०२ २०५ २१० २१३ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. ऋषिभिर्वहुवा गीतम् ६. दो महान सस्कृतियों का समन्वय १०. कुछ जैन श्रनुश्रुतियां और पुरातत्त्व ११. जैन प्रथो में भोगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जैन-धर्म का प्रसार १२. हिन्दू राजनीति में राष्ट्र को उत्पत्ति १३ इतिहास का शिक्षण १४. देवगढ़ का गुप्तकालीन मंदिर १५. मथुरा का जैनस्तूप और मूर्तियाँ (सचित्र) १६ महाराज मानसिंह और 'मान - कौतूहल' (सचित्र) १७ जैन श्रौर वैष्णवो के पारस्परिक मेल-मिलाप का एक शासन-पत्र ४ - जैन- दर्शन १. जैन तत्त्वज्ञान २. जैन दार्शनिक साहित्य का सिहावलोकन ३ परम साख्य ४. जैनदर्शन का इतिहास श्रौर विकास ५. स्याद्वाद और सप्तभगी ६. सर्वज्ञता के प्रतीत इतिहास की झलक ७. जैन-मान्यता में धर्म का श्रादि समय श्रीर उसकी मर्यादा ५- संस्कृत, प्राकृत और जैन साहित्य १. सुमित्रा पचदशी २. विक्रमसिंह रचित पारसी संस्कृत - कोष ३. पाणिनि के समय का संस्कृत-साहित्य डा० वासुदेवशरण अग्रवाल प्रो० शान्तिप्रसाद वर्मा डा० मोतीचद्र ६. 'भगवती - श्राराधना' के कर्ता शिवायं १०. श्रीदेव-रचित 'स्याद्वादरत्नाकर' में अन्य प्रथों और प्रथकारो के उल्लेख डा० जगदीशचंद्र जैन To aटुकृष्ण घोष श्री रमिकलाल छोटालाल पारीक प० माघवस्वरूप 'वत्स' श्री मदनमोहन नागर प्रो० हरिहरनिवास द्विवेदी डा० वासुदेवशरण अग्रवाल प० सुखलाल मघवी प्रो० दलसुख मालवणिया श्री जैनेन्द्रकुमार प० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य प० कैलाशचंद्र सिद्धान्तशास्त्री प० फूलचंद्र जैन सिद्धान्तशास्त्री प० वशीधर व्याकरणाचार्य डा० वहादुरचंद्र छावडा डा० बनारसीदाम जैन प्रो० वलदेव उपाध्याय प० सुखलाल सघवी ४. प्रतिभा - मूर्ति सिद्धसेन दिवाकर ५. सिद्धसेन दिवाकरकृत 'वेदवादद्वात्रिशिका' ६. नयचद्र और उनका ग्रथ 'रभामजरी' ७. प्राकृत और संस्कृत पच-सग्रह तथा उनका श्राधार श्री हीरालाल जैन सिद्धान्तशास्त्रो ८. श्राचार्य श्री हरिभद्र सूरि और उनकी समरमयंकाकहा प० सुग्वलाल सघवी डा० श्रादिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये मुनि पुण्यविजय श्री ज्योतिप्रमाद जैन डा० वी० राघवन [ सात पृष्ठ २१७ २२० २२६ २५० २६ε २७३ २७६ २७६ २८५ २६० २६३-३६२ २६५ ३०३ ३२३ ३२७ ३३४ ३४५ ३५६ ३६३-५१२ ३६५ ३६७ ३७२ ३७७ ३८४ ४११ ४१७ ४२४ ४२५ ४२६ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ ४३६ ४४५ ४४८ ४५५ ४६४ ४७० ४७३ ४८८ ४६८ ५०६ ५१३-६२ ११. अपभ्रश भाषा का 'जम्बूस्वामिचरित' ___ और महाकवि वीर प० परमानद जैन १२. पट्खडागम, कम्मपयडी, सतक और सित्तरी प्रकरण प० हीरालाल जैन १३. जैन-साहित्य श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी १४ जन-साहित्य में प्राचीन ऐतिहासिक मामग्री श्री कामता प्रसाद जैन १५. जैन-साहित्य को हिन्दी-साहित्य को देन श्री रामसिंह तोमर १६. जैन-साहित्य का प्रचार मुनि न्यायविजय १७ जन-साहित्य का भौगोलिक महत्व श्री अगरचद नाहटा १८. महाकवि रन्न का दुर्योधन श्री के० भुजवली गास्त्री १६ अभिनव धर्मभूषण और उनकी 'न्यायदीपिका' १० दरवारीलाल कोठिया २०. 'जन-सिद्धान्त-भवन के कुछ हस्तलिखित हिन्दी-अथ श्री परमानद जैन २१ 'माणिकचद्र-प्रथमाला' और उसके प्रकाशन श्री राजकुमार जैन नाहित्याचार्य ६-मराठी और गुजराती साहित्य १. मराठी साहित्य की कहानी प्रो० प्रभाकर माचवे २. मराठी में जैन-साहित्य और साहित्यिक श्री गवजी ने शहा ३ मराठी-साहित्य में हास्यरस श्री के० ना० डाँगे ४. मराठी का कोशसाहित्य श्री प्रा० वा० ना० मुडी. ५. रासयुग के गुजराती-साहित्य की झलक श्री केशवराव काशीराम शास्त्री ६. ऐतिहासिक महत्व की एक प्रशस्ति श्री साराभाई मणिलाल नवाव ७ चौदहवीं सदी का गुजरात का राजमार्ग श्री धीरजलाल धनजीभाई शाह ८. नल-दवदन्ती-चरित्र प्रो० भोगीलाल जयचदभाई माडेमरा ७-बुन्देलखड १ बुन्देलखण्ड (कविता) म्व० मुशी अजमेरी जी २. बुन्देलखण्ड के इतिहास की कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री डा० रघुवीरसिंह ३. बुन्देलखण्ड के दर्शनीय स्थल सर्वश्री राधाचरण गोस्वामी और शिव सहाय चतुर्वेदी ४. बुन्देलखण्ड को पावन भूमि (कविता) स्व. रसिकंद्र ५. प्रेमी जी को जन्मभूमि देवरी श्री शिवसहाय चतुर्वेदी ६ बुन्देलखण्ड की पत्र-पत्रिकाएँ श्री देवीदयाल चतुर्वेदी 'मस्त' ७. बुन्देलखण्ड का एक महान सगीतज्ञ ८. वर बदनीय बुन्देलखण्ड (कविता) श्री वृन्दावनलाल वर्मा ९. विध्यखण्ड के वन स्व० घासीराम 'व्यास डा० रघुनाथसिंह ५१५ ५३० ५३८ ५४१ ५४३ ५६३-६२७ ५६५ ५७४ ५८३ ५८४ ५८८ ५६३ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , [नौ ६३२ ६५३ ६७६ १०. बुन्देली लोक-गीत सर्वश्री गौरीशकर द्विवेदी और देवेन्द्र सत्यार्थी ६०७ ११. बुन्देलखण्ड के कवि (कविता) श्री गौरीशकर द्विवेदी ६२१ १२. अहार और उसकी मूर्तियां श्री यशपाल जैन ६२४ ८-समाज-सेवा और नारी-जगत ६२७-६६८ १. जैन-सस्कृति में सेवा-भाव जैन-मुनि श्री अमरचद्र उपाध्याय ६२६ २. समाज-सेवा महात्मा भगवानदीन ३. सस्कृति का मार्ग-समाज-सेवा श्री भगवानदास केला ४ समाज-सेवा का प्रादर्श श्री अजितप्रसाद ६४६ ५. जैन-समाज के वीसवीं सदी के प्रमुख आन्दोलन श्री परमेष्ठीदास जैन ६ ऋग्वेद में सूर्या का विवाह प्रो० धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री ६५७ ७. भारतीय नारी की वर्तमान समस्याएँ श्रीमती कमलादेवी चट्टोपाध्याय ८. भारतीय नारी की बौद्धिक देन श्रीमती सत्यवती मल्लिक ६७० & सस्कृत-साहित्य में महिलाओ का दान डा० यतीन्द्र विमल चौधरी १०. भारतीय गृहों का अलकरण श्री जयलाल मेहता ६८० ११. धर्मसेविका प्राचीन जैन देवियाँ व० चदावाई ६८४ १२. काश्मीरी कवियित्रियाँ कुमारी प्रेमलता कौल एम० ए० ६६२ ९-विविध* ६६६-७४६ १. कौटिल्य-फालीन रसायन डा० सत्यप्रकाश ७०१ २. जैन-गणित की महत्ता श्री नेमिचद्र जैन ७१३ ३. विश्व-मानव गाधी श्री काशिनाथ त्रिवेदी ७२४ ४ एक कलाकार का निर्माण श्री काति घोष ७३५ ५ अभिनदनीय प्रेमी जी श्री जुगलकिशोर मुख्तार ७४० ६ साधक प्रेमी जी प० बनारसीदास चतुर्वेदी ७४२ १०-चित्र-परिचय ७४७-७५१ चित्र-सूची पृष्ठ १ श्री नाथूराम प्रेमी तीन २ श्रद्धाजलि चार ३ स्व० हेमचद्र, श्री नाथूराम प्रेमी और हेमचद्र की माता स्व. रमाबाई४ स्व० हेमचद्र (१६१२) ५. स्व० हेमचद्र (सन् १९३२) * इस विभाग में स्फुट लेखो के अतिरिक्त कुछ ऐसे लेख भी दिये गये है, जो देर से प्राप्त होने के कारण उक्त विभागो में नहीं जा सके । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसा १३६ १४१ १६६ २०८ २२४ २४० २५६ २७२ २८० २८१ r ६ चि० विद्याधर, यशोधर और चम्पावाई ७ पोशित भृत्तिका ८ उज्जैन के वेताल-मदिर का एक दृश्य ६ सित्तन्नवामल की नृत्य-मुग्धा अप्सरा १० देवगढ का विष्णुमदिर ११ विष्णु-मदिर का प्रवेश द्वार १२ शेप-शायी विष्णु १३ नरनारायण-तपश्चर्या १४ गजेन्द्र-मोक्ष १५ पायागपट्ट, जिस पर वौद्धस्तूप का नकशा बना है १६ उत्तर-गुप्त-कालीन तीर्थंकर-मूर्तियाँ १७ गुप्त-कालीन तीर्थकर-मूर्ति १८ महाराज मानसिंह तोमर द्वारा निर्मित मानमदिर के भित्ति-चित्र और पत्थर की कारीगरी १६ महाराज मानसिह के पूर्वज डूगरेन्द्रदेव द्वारा निर्मित ग्वालियर गढ की तीर्थकरो की मूर्तियां २० मानमदिर की विशाल हथिया पौर२१ महाराज मानमिह द्वारा गूजरी रानी मृगनयना के लिए वनवाया गया 'गूजरी महल' २२ प्रकृति-कन्या २३-२६ बुन्देलखण्ड-चित्रावली (१) ओरछा का किला (२) ओरछा में वेत्रवती (३) बुन्देलखण्ड का एक ग्रामीण मेला (४) उपा-विहार (५) बरो-घाट (६) जतारा (मोरछा राज्य) के सरोवर का एक दृश्य (७) कुण्डेश्वर का जल-प्रपात ३० प्रहार का एक दृश्य ३१ भगवान शातिनाथ की मूर्ति ३२ भगवान कुथनाथ की मूर्ति ३३ पभाजलि ३४ नृत्यमत्ता २८५ २८६ २८७ २८८ ५६० ५६५ ५७६ ५८६ ६०५ ६०६ ६१४ ૬૨૪ ६२५ ६२६ ६७२ ७३६ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयोजना और उसका इतिहास अद्वय नायूराम जो प्रेमी को अभिनदन-प्रय भेंट करने का विचार वास्तव में उस दिन उदय हुआ, जव आदरणीय प० वनारसीदास जो चतुर्वेदी ने श्री रामलोचनशरण विहारी की स्वर्ण-जयती के अवसर पर प्रकाशित और श्री शिवपूजनसहाय जी द्वारा सम्पादित 'जयतो-स्मारक-प्रय' आगरे के 'साहित्य-भण्डार' मे देखा। लौट कर उन्होने वह ग्रय पटने से मंगाया और हम दिखा कर कहा कि ऐसे ग्रथ के अधिकारी प्रेमी जो भी है, जिन्होने हिन्दी को इतनी ठोन सेवा की है और जो विज्ञापन से सदा वचते रहे है। इसके कुछ ही दिन बाद जैन-पत्रो मे समाचार छपा कि जैन-छात्र-सघ (काशी) को ओर से प्रेमी जो को एक अभिनदन-अथ भेंट करने का निश्चय किया गया है । इस पर टोकमगढ के साहित्य-सेवियो की ओर से एक पत्र उक्त सघ को भेजा गया, जिसमे सघ से हम लोगो ने अनुरोध किया कि चूकि प्रेमो जो हिन्दी-जगत की विभूति है, अत यह सम्मान उन्हें समस्त हिन्दी-जगत् की ओर से मिलना चाहिए। इस आशय का एक वक्तव्य हिन्दी के प्रमुख पत्रो में प्रकाशित हुआ। छात्र-सघ ने हमारी वात को स्वीकार कर लिया। अभिनदन के सवध में हिन्दी के विद्वानो की सम्मति ली गई तो सभी ने उसका स्वागत करते हुए अपना सहयोग देने का वचन दिया। कतिपय विद्वानो और साहित्यकारो के उद्गार यहाँ दिये जा रहे है मैथिलीशरण जी गुप्त . "श्री नाथूराम जो प्रेमी के अभिनदन का मै हृदय से समर्थन करता हूँ। वे सर्वथा इसके योग्य है । ऐसे अवसर पर मैं उन्हें सप्रेम प्रणाम करता हूँ।" प० सुन्दरलाल जी : "मेरा हार्दिक आशीर्वाद इस शुभकार्य में आपके साथ है।". ___ डा० सुनीतिकुमार चाटुा. "श्री नाथूराम जी प्रेमी के अभिनदन के लिए जिस प्रबध-सग्रह-अथ के तैयार करने की चेष्टा हो रही है, उसके माथ मेरी पूरी सहानुभूति है।" पं० माखनलाल चतुर्वेदी : "श्रीयुत प्रेमी जो अभिनदन से भी अधिक आदर और स्मरण को वस्तु है। श्रापके इस आयोजन से मै सहमत हूँ। आपने श्रेष्ठतर कार्य किया है।" श्री सियारामशरण गुप्त : "श्री नाथूराम जी प्रेमी को अभिनदन-प्रय अर्पित करने का विचार स्वयं अभिनदनीय है। प्रेमो जो हिन्दी-भाषियो में सुरुचि और ज्ञान के अप्रतिम प्रकाशक है। उनका अध्यवसाय, उनको कर्मनिष्ठा और उनका निरतर आत्मदान अत्यन्त व्यापक है । इसके लिए सारा हिन्दी-समाज उनका ऋणी है। मेरी विनम्र श्रद्धा उनके प्रति सादर समर्पित है।" श्री जैनेंद्रकुमार : "श्रद्धेय प्रेमी जी को अभिनदन-पथ भेट करने के विचार से मेरी हार्दिक सहमति है और मै आपको इसके लिए वधाई देना चाहूँगा।" । श्री व्यौहार राजेन्द्रसिंह : "प्रेमी जी को अभिनदन-अथ भेंट करने की बात सुन्दर है।" डा० रामकुमार वर्मा . "श्रीमान् श्रद्धेय नाथूराम जी प्रेमी को अभिनदन-अथ देने के निश्चय के साथ मेरी पूर्ण सहमति और सद्भावना है । प्रेमो जी ने हिन्दी को जो सेवा की है, वह स्थायी और स्तुत्य है।" श्री देवीदत्त शुक्ल : "श्रीमान् प्रेमी जी का अवश्य अभिनदन होना चाहिए। प्रेमी जी के उपयुक्त ही अभिनदन का समारोह हो। प्रेमी जी के द्वारा हिन्दी के प्रकाशन मे एक नई क्राति हुई है। वे सुरुचि के ज्ञाता साहित्यिक भी है।" श्री गुलाबराय : "हिन्दी के प्रति प्रेमी जो की जो सेवाएं है, वे चिरस्मरणीय रहेंगी। उन्होने व्यक्ति रूप Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारह] ने जितना प्रकाशन-कार्य को आगे बढाया है, उतना कोई सस्या भी नही कर सकती थी। उन्हें अभिनदन-पथ दिया जाना उपयुक्त ही है।" ___ श्री शातिप्रिय द्विवेदी : "मैं आपके अभिनदन-कार्य का अभिनदन करता हूँ, क्योकि वह एक नाहित्यिक साधक को अर्घदान देने का अनुष्ठान है।" ___उपर्युक्त विद्वानो और साहित्यकारो के अतिरिक्त अन्य साहित्य-सेवियो ने, जिनमे श्रद्धेय वावूराव विष्णु पराडकर, रायकृष्णदास, डा० मोतीचद, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य पद्मनारायण, श्री कृष्णकिंकरसिंह प्रभृति के नाम उल्लेखयोग्य है, इस प्रस्ताव का हार्दिक समर्थन किया। जैन-विद्वानो मे आचार्य जुगलकिशोर मुस्तार, मुनि जिनविजयजी, महात्मा भगवानदीन, प० सुखलाल जी, डा. हीरालाल जैन, प० वेचरदान जी० दोशी, प्रो० दलसुम मालवणिया, डा० ए० एन० उपाध्ये, प० कैलाशचद्र जी, प० फूलचन्द्र जी आदि ने भी इस आयोजना का पूर्ण स्वागत किया। हिन्दी के कई पत्रो ने इस बारे में अपने विचार प्रकट किये। काशी के दैनिक 'ससार' ने लिखा "हिन्दी पर हमारी मातृ-भाषा मौर राष्ट्र-भापा पर-नाथूराम जी का जो उपकारभारहै, उने हम कभी भी नहीं उतार केंगे। हमारा कर्तव्य है कि उनका अभिनदन करने की जो योजना की गई है, उसमे हम ययाक्ति हाय बटावे और गय के प्रकाशित हो जाने पर उसका प्रत्येक साक्षर घर मे प्रचार करे।" शुभचिंतक (जवलपुर) “श्री नाथूराम जी प्रेमी हिन्दी-साहित्य के श्रेष्ठ लेखक और प्रकाशक है। उनका हिन्दी-सेवा स्तुत्य है । वगला का श्रेष्ठ साहित्य हिन्दी-भापा-भापियो को उनके पयत्नो से ही उपलब्ध हो सका है। इसके अतिरिक्त उनकी हिन्दी-सेवा भी अपना एक विशेष स्थान रखती है।" जापति (कलकत्ता). "जिस मां-भारती के लाल ने साहित्यिक कोप को भरने के लिए मौलिक गय दिये तया उमके भण्डार को अन्य उन्नत भापामो के अनुवाद-पयो से पूर्ण करने का प्रयत्न किया, उन श्री नापूराम प्रेमी के अभिनदन प्रस्ताव का कौन मुक्तकण्ठ से समर्थन न करेगा? आज अगर हिन्दी मे उसके लेखको का सम्मान बढा है तो उनका श्रेय श्री प्रेमी जी द्वारा सचालित "हिन्दी-नय-रत्नाकर-कार्यालय', वम्बई को है।" एक ओर यह आयोजन चल रहा था, दूसरी पोर प्रेमी जी ने अपने २७ दिसम्बर १९४२ के पत्र में चतुर्वेदी जी को लिखा "काशी के छात्रों ने तो खैर लडकपन किया, पर यह आप लोगो ने क्या किया? मै तो लज्जा के मारे मरा जा रहा हूँ। भला में इस सम्मान के योग्य हूँ? मैने किया ही क्या है ? अपना व्यवसाय ही तो चलाया है। कोई परोपकार तो किया नहीं। आप लोगो की तो मुझ पर कृपा है, पर दूसरे क्या कहेंगे? मेरो हाथ जोड कर प्रार्थना है कि मुझे इस सकट से बचाइए। यह समय भी उपयुक्त नहीं है।" अनतर ४ फरवरी १९४४ के पत्र में यशपाल जैन को लिखा "एक जरूरी प्रार्थना यह है कि प्राप चौवे जी को समझा कर मुझे इस अभिनदन-नय की असह्य वेदना से मुक्त करादें। उसके विचार से ही मै अत्यन्त उद्विग्न हो उठता हूँ। मै उसके योग्य पदापि नही हूँ। मुझे वह समस्त हिन्दी-ससार का अपमान मालूम होता है । मै हाथ जोडता हूँ और गिडगिडाता हूँ. मुझे इस कष्ट से वचाइए।" प्रेमी जो अत्यन्त मकोचशील है और नमा-सोसायटी तथा मान-सम्मान के आयोजनो से सदा दूर ही रहते है। अत इस आयोजन से उन्होने न केवल अपनी असहमति ही प्रकट की, अपितु उससे मुक्ति मी चाही, लेकिन उस समय तक योजना बहुत आगे वढ चुकी थो और हिन्दी तथा अन्य भाषामो के विद्वानो का आग्रह था कि उसे अवश्य पूरा किया जाय।। इसके बाद चतुर्वेदी जी, भाई राजकुमार जी साहित्याचार्य तथा यशपाल जैन ने इस सबंध में कई स्थानो की यात्रा की और विद्वानो के परामर्श से निम्नलिखित कार्य-समिति का सगठन किया गया Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा० वासुदेवशरण अग्रवाल प० बनारसीदास चतुर्वेदी श्री जैनेन्द्रकुमार यशपाल जैन वी० ए०, एल- एल० वी० स० सि० धन्यकुमार जैन महात्मा भगवानदीन जी १० माखनलाल चतुर्वेदी प्रो० हीरालाल जैन श्रीमती सत्यवती मल्लिक डा० रामकुमार वर्मा प० कैलाशचंद्र जैन सिद्धान्तगास्त्री ३. जैन-दर्शन- ४. संस्कृत श्रीर प्राकृत-साहित्य --- ५. भाषा-विज्ञान --- ग्रंथ के निम्नलिखित अठारह विभाग रक्वे गये तथा उनके सम्पादन का भार विभागो के सामने उल्लिखित विद्वानो को उनकी अनुमति लेकर सौंपा गया विभाग १. सस्मरण और जीवनी ---- २. भारतीय संस्कृति- ६ कला श्रध्यक्ष उपाध्यक्ष ७ पुरातत्व- ८. हिन्दी - साहित्य (गद्य) - 11 मंत्री सयुक्त मंत्री सदस्य सम्पादक प० बनारसीदास चतुर्वेदी (मयोजक ) श्री जैनेन्द्रकुमार डा० सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या ( मयोजक ) श्री भदन्त ग्रानन्द कौसल्यायन डा० वेनीप्रसाद प्रो० दलसुख मालवणिया ( मयोजक ) मुनि जिनविजयजी प० सुखलाल सघवी प० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य डा० हीरालाल जैन ( सयोजक ) डto जगदीशचन्द्र शास्त्री प० वेचरदास दोशी डा० सुनीति कुमार चाटुर्ज्या ( सयोजक ) डा० मगलदेव शास्त्री आचार्य पद्मनारायण श्री जयभगवान जैन डा० वेनीप्रसाद [ तेरह डा० वासुदेवशरण अग्रवाल ( सयोजक ) डा० मोतीचन्द्र प्राचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ( सयोजक ) श्री पदुमलाल पुन्नालाल वरुणी श्री रामचन्द्र वर्मा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदह ] है हिन्दी-काव्य प० हरिशकर शर्मा (सयोजक) श्री सियारामशरण गुप्त डा० रामकुमार वर्मा १० जन-साहित्य आचाय जुगलकिशोर मुख्तार (सयोजक) ५० फूलचन्द्र जैन शास्त्री प० परमेष्ठीदास जैन प० जगन्मोहनलाल गास्त्री ११ वगला-साहित्य प्राचार्य क्षितिमोहन सेन (सयोजक) श्री धन्यकुमार जैन १२. गुजराती-साहित्य प० बेचरदास जी० दोशी १३ मराठी साहित्य प्रो० प्रभाकर माचवे १४ अग्रेजी प्रो० ए० एन० उपाध्ये १५ साहित्य-प्रकाशन-- यगपाल जैन (सयोजक) श्री कृष्णलाल वर्मा १६ बुन्देलखण्ड श्री शिवसहाय चतुर्वेदी (सयोजक) श्री व्यौहार राजेन्द्र सिंह श्री वृन्दावनलाल वर्मा १७ समाज-सेवा श्री अजितप्रसाद जैन (सयोजक) महात्मा भगवानदीन वैरिस्टर जमनाप्रसाद जैन १८ नारी-जगत श्रीमती सत्यवती मल्लिक (मयोजिका) " सुभद्राकुमारी चौहान " कमला देवी चौधरी , रमारानी जैन इस विभाजन के पश्चात् कार्य-समिति के अध्यक्ष श्री वासुदेवशरण जी अग्रवाल ने ग्रथ के प्रत्येक विभाग के लिए एक उपयोगी योजना तैयार की, जिसे सब सम्पादको की सेवा में भेजा गया। योजना इम प्रकार थी "सस्मरण और जीवनी' जितने सयत और सक्षिप्त ढग से लिखी होगी, उतनी ही वढिया होगी। मै इसके लिए तीस पृष्ठ पर्याप्त समझता हूँ। 'भारतीय सस्कृति-विभाग में अन्य लेखो के अतिरिक्त एक लेख 'भारतीय मस्कृति का विदेशो में विस्तार' शीर्षक से रहे तो बहुत अच्छा है। इस विभाग मे सौ पृष्ठ की सामग्री हो सकती है। 'जैन-दर्शन-विभाग' मे जैन-दर्शन के ऐतिहासिक तिथि-क्रम पर एक लेख बहुत उपयुक्त होगा। सस्कृत और प्राकृत-साहित्य-विभाग' में अधिकाश अप्रकाशित या अज्ञात साहित्य का परिचय देना चाहिए। इस विभाग में तीन सौ पृष्ठ हो-मौ मस्कृत के लिए और दो सौ प्राकृत के लिए। गुप्त-काल से लेकर लगभग अकवर के ममय तक जैन, वौद्ध और ब्राह्मण विद्वानो ने सस्कृत-साहित्य की जो प्रमुख सेवा की, उसका परिचय तीन लेखो मे अवश्य रहना चाहिए, जिनमें ग्रथो के नाम परिचय सहित, रचयिताओ के नाम और उनके समय का निर्देश होना चाहिए। सस्कृत-कथा-साहित्य, विशेषकर जैन-कहानी-साहित्य या तो इस विभाग में या जैन-साहित्य वाले विभाग में रखना चाहिए। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पन्द्रह "प्राकृत-साहित्य को खास जगह देने की जरूरत है। उसके लिए दो सौ पृष्ठ दिये जाये तो अच्छा है, क्योकि प्राकृत-साहित्य के विषय में हिन्दी-जगत् को अभी बहुत-कुछ परिचय देने की आवश्यकता है। भविसमत्त कहा, समराइच्च कहा, पाउमचर्य कहा सदृश प्राकृत-ग्रन्थो के परिचय देने वाले आधे दर्जन लेख रहे । बीस पृष्ठो में जैनप्राकृत-साहित्य के प्रमुख नथो की प्रकाशित और अप्रकाशित एक तालिका ऐतिहासिक तिथि-क्रम के अनुसार दे दी जाय तो बहुत लाभप्रद होगी। भाषा-विज्ञान-विभाग में पाली, प्राकृत और अपभ्रश की परम्परा द्वारा हिन्दी भाषा का स्वरूप किस प्रकार विकसित हुआ है, इसी पर दो-तीन लेखो में ध्यान केन्द्रित किया जाय तो सामयिक उपयोग की वस्तु होगी। इस विभाग के लिए साठ पृष्ठ और 'कला-विभाग के लिए चालीस पृष्ठ पर्याप्त है। कला के अन्तर्गत अपभ्रश कालीन चित्रकला पर एक लेख और दूसरा शिल्प-साहित्य के विषय-परिचय के बारे में हो। मथुरा, देवगढ और आबू की शिल्प सामग्री के परिचयात्मक लेख भी हो सकते है। 'पुरातत्त्व-विभाग' में पचास पृष्ठ और दो लेख रहेंगे। "हिन्दी-साहित्य (गद्य) और 'हिन्दी-काव्य के लिए सौ-सौ पृष्ठ पर्याप्त समझता हूँ। हिन्दी-साहित्यविभाग में पुरानी हिन्दी के काल की साहित्यिक कृतियो और धार्मिक प्रवृत्तियो का परिचय विशद रूप से हो, जो श्री हजारीप्रसाद जी द्विवेदी का मुख्य अध्ययन-विषय है और जिसके सम्बन्ध में हिन्दी-जगत् का ज्ञान अभी अधूरा है। जायसी पर भी एक लेख हो तो अच्छा है। 'हिन्दी-काव्य' के अन्तर्गत नवीन कृतियो के प्रकाशन की अपेक्षा प्राचीन हिन्दी, मैथिली, राजस्थानी आदि के काव्यो का प्रकाशन अच्छा होगा। विद्यापति और हिन्दी में रासो-साहित्य पर भी दो लेख रह सकते है। ""जैन-साहित्य-विभाग के अन्तर्गत अपभ्रश साहित्य का भरपूर परिचय देना चाहिए। जैन-भडारो में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रथो के परिचय पर भी एक लेख रहना अच्छा होगा। श्री जुगलकिशोर मुख्तार ने इस सम्बन्ध मे 'अनेकान्त' द्वारा उपयुक्त सूचियाँ प्रकाशित की है, किन्तु उनके मथे हुए सार से हिन्दी-जगत् को अधिक परिचित होने की आवश्यकता है। ____'बगला-साहित्य', 'गुजराती-साहित्य' और 'मराठी-साहित्य विभागो में प्रत्येक के लिए पचास पृष्ठ का औसत रखिए। इन निवन्धो में साहित्य का प्राचीन काल से अबतक का सक्षिप्त इतिहास और विकास, आधुनिक प्रवृत्तियाँ, साहित्य का काम करने वाली सस्थानो का परिचय यदि हो तो हिन्दी के लिए काम की चीज़ होगी । 'साहित्यप्रकाशन' के विभाग मे भारतीय साहित्य और सस्कृति एव इतिहास का प्रकाशन करने वाली देशी-विदेशी प्रधान ग्रथमालाओ का परिचय देना उपयोगी होगा । भावी कार्य-क्रम की योजनाओ और कार्य के विस्तृत क्षेत्र पर भी लेख हो सकते है। “अग्रेजी साहित्य तो वहुत बडी चीज है । उसको केवल एक दृष्टि से हम इस ग्रथ मे देखने का प्रयल करे, अर्थात् भारतवर्ष की भूमि, उस भूमि पर वसने वाले जन और उस जन की सस्कृति के सम्बन्ध में जो कार्य अग्रेजी के माध्यम से हुआ है, पच्चीस-तीस पृष्ठो मे उसका इस दृष्टि से परिचय कि हिन्दी में वैसा कार्य करने और उसका अनुवाद करने की ओर हमारी जनता का ध्यान आकर्षित हो। बुन्देलखण्ड-प्रात-विभाग के लिए सौ पृष्ठ रखें। उनमे बुन्देलखण्ड की भूमि, उस भूमि से सम्बन्ध रखने वाली विविध पार्थिव सामग्री, बुन्देलखण्ड के निवासी एव उनकी संस्कृति से सम्वन्ध रखने वाला अत्यन्त रोचक अध्ययन हमें प्रस्तुत करना चाहिए, जिसमें इस प्रदेश के जनपदीय दृष्टिकोण से किये हुए अध्ययन का एक नमूना दिया जा सकता है । 'समाज-सेवा' और 'नारी-जगत्' विभागो के लिए पचास-पचास पृष्ठ काफी होगे। 'समाजसेवा' के अन्तर्गत हमारे राष्ट्रीय और जातीय गुणो और श्रुटियो का सहानुभूतिपूर्ण विश्लेपण देना चाहिए । सामाजिक सगठन में जो प्राचीन परम्परामो की अच्छाई है और हमारे जीवन का जो भाग विदेशी प्रभाव से अब तक अछूता वचा है उमको जनता के सम्मुख प्रशसात्मक शब्दो में रखना आवश्यक है। पश्चिमी देशो मे सामाजिक विज्ञान परिपर्दै Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोलह ] (इन्स्टीट्यूट ऑव सोगल नाइतेज) जिस प्रकार का प्राणमय अध्ययन करती है उनका सूत्रपात् हमारे यहां भी होना आवश्यक है । एक-दो लेखो में उसकी कुछ दिया सुझाई जा सके तो आगे के लिए अच्छा होगा।" इनी रूप-रेखा के पावार पर हम अथ की नामग्री का सग्रह कराना चाहने थे, लेकिन इनके लिए नमय अपेक्षित था। दूसरे कई एक मम्पादकी के पास समय की इतनी कमी थी कि इच्छा रखते हुए भी वे हम विप नहयोग नदेनके। डा० वेनीप्रमाद जी ने हमें आश्वासन दिया था कि यदि हम उनके 'कला'-विभाग की सामग्री एकत्र कर दें तो वे उनका सम्पादन कर देंगे और एक लेख अपना भी दे देंगे, लेकिन काल की क्रूर गति को कौन जानता है। देवीच में ही चले गये । इसी प्रकार प्रेमी जो के निकटतम व वाबू सूरजभानु जी वकील का देहावसान हो गया और वे भी हमें कुछ न भेज सके। य में अठारह विभाग र गये थे और एक हजार पृष्ठ, लेकिन जब कागज़ के लिए हमने लिखा-पढी की तो युक्त-प्रात के पेपर-कन्ट्रोलर महोदय ने पहले तो स्वतत्र रूप से ग्रय-प्रकागन को अनुमति देने से ही इन्कार कर दिया, लेकिन बाद में जब उनसे बहुत अनुरोध किया गया तो उन्होने कृपा-पूर्वक अनुमति तोदे दी, पर कागज कुत सात सौ पृष्ठ का दिया। लाचार होकर हमें सामग्री कम कर देनी पडी और कई विभागों को मिला कर एक कर देना पड़ा। हमें इस बात का वडाही खेद है कि बहुत सी रचनाओं को हम इसमय में सम्मिलित नहीं कर सके और इनके लिए लेखको से समानार्थी हैं। सहा वर्ष के परिश्रम से ग्रय जैसा बन सका, पाठको के सामने है । वस्तुत देवा जाय तो प्रेमी जी तो न नय को तैयारी में उपलन मात्र है। उनके बारे में केवल ६२ पृष्ठ रक्खे गये हैं। शेप पृष्ठों में विभिन्न विषयों की उपादेय सामी इकको की गई है । इसके मग्रह में हिन्दी के जिन साहित्यकारीने मह्योग दिया है, उन्हें तथा अपने सम्पादकमण्डल को हम हार्दिक धन्यवाद देते हैं । गुजराती, मराठी तया वगलाके विद्वान लेखको के तो हम विपत्पने आभारी हैं, जिन्होने इस आयोजन को अपना कर हमें अपना मक्रिय सहयोग प्रदान किया। कार्पमिति के अध्यक्ष डा. वानुदेवगरण जी अग्रवाल ने कई दिन देकर पूरे प्रय की मामी को देखा, उसके समादन में हमें योग दिया और समय-समय पर उपयोगी सुझाव देते रहे, तदयं हम उनके कृतज्ञ है। समिति के अन्य पदाधिकारियो को भी हम धन्यवाद देते है। प्रय को चित्रित करने के लिए सर्वश्री असितकुमार हलदार, कनु देसाई, राल जी, रामगोपाल विजयवर्गीय, जे० एम० अहिवासी प्रभृति कलाकारो ने रगीन चित्र देना स्वीकार कर लिया था-अहिवाती जी तया श्री सुवीर खास्तगीर ने तो रगीन चित्र भेज भी दिये लेकिन पर्याप्त सावन न होने के कारण हम उनकी कृपा का लाम न ले सके। श्री सुवीर खास्तगीर ने कई चित्र हमें इस ग्रय के लिए दिये हैं, जिनके लिए हम उनके आभारी है। श्री रामचद्र जी वर्मा को भी हम धन्यवाद देते हैं, जिन्होने काशी नागरी प्रचारिणी सभा से लेलो के अत में देने के लिए कई ब्लॉक उवार दिलवा देने की कृपा की। हम उन मावन-सम्मन्न वधुओ के भी अनुग्रहीत है, जिनको उदार सहायता के विना ग्रथ का कार्य पूर्ण होना असमव था । बन्धुवर धन्यकुमार जी जैन ने स्वय एक हजार एक रुपये देने के अतिरिक्त धन-संग्रह मे हमें पर्याप्त सहायता दी और हर प्रकार से वरावर सहयोग देते रहे। लेकिन वे हमारे इतने नजदीफ है कि धन्यवाद के रूप में हम कुछ कह भी तो नहीं सकते। प्रारम से लेकर अंत तक प्रेरणा, सुझाव और महयोग देने वाले श्रद्धेय ५० बनारसीदास जी चतुर्वेदी तो इस आयोजन से इतने अभिन्न हैं कि उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना महज़ पुष्टता होगी। ___इलाहावाद लॉ जर्नल प्रेन के प्रबंधक श्री कृष्णप्रसाद जी दर तया उनके कर्मचारियो का भी हम आभार स्वीकार करते हैं, जिनकी सहायता से अथ की छपाई इतनी साफ और सुन्दर हो सकी। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सत्रह इस जनपद की प्रकृति के भी हम ऋणी है, जिसके निकट साहचर्य में हमे इस अनुष्ठान के करने की स्फूर्ति और प्रेरणा मिली। अत में हम भगवान से प्रार्थना करते है कि प्रेमी जी दीर्घायु हो और साधना-पथ पर उत्तरोत्तर अग्रसर होते रहने की शक्ति उन्हे प्राप्त होती रहे। पचवटी कुण्डेश्वर -~-यशपालन मत्री आभार हम निम्नलिखित महानुभावो के आभारी है, जिनकी उदार सहायता से इस ग्रथ का कार्य सम्पन्न हुआ है १ साह शातिप्रसाद जी जैन (डालमिया नगर) १००१) २. स० सिं० धन्यकुमार जैन (कटनी) १००१) ३ रा०प० लालचद जी सेठी (उज्जैन) १०००) ४ रा०व० हीरालाल जी काशलीवाल (इदौर) १०००) ५ सेठ लक्ष्मीचन्द्र जी (भेलसा) १०००) ६ साहु श्रेयांसप्रसाद जी (ववई) ५००) ७ श्री छोटेलाल जी जैन (कलकत्ता) ३००) ८ स्व० विश्वम्भरदास जी गार्गीय (झांसी) १०१ ९ श्री बालचन्द्र जी मलैया (सागर) १०१) १० वैद्य कन्हैयालाल जी (कानपुर) १०१) ११ श्री विजयसिंह नाहर (कलकत्ता) २५) -मत्री Page #19 --------------------------------------------------------------------------  Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन जो किसान खेत पर घोर परिश्रम करके अपने खून को पसीना बना कर अन्न उत्पन्न करते हैं, जो मजदूर लोकोपयोगी वो मे अपना जीवन खपाते हुए भावी सामाजिक व्यवस्था के निर्माण के लिए अपनी शक्ति तथा समय को अर्पित करते हैं, जो ग्रामीण अध्यापक मगज पच्ची करके पचासो छात्रो को अक्षर-ज्ञान कराते है, जो बढई अथवा लुहार जनता के नित्यप्रति काम आने वाली चीजे बनाते हैं, अथवा जो पत्रकार या लेखक नाना प्रकार के कष्टो को सहते हुए सर्वघासारण को सात्त्विक मानसिक भोजन देते है वे सभी अपने-अपने ढङ्ग पर वन्दनीय है, अभिनन्दनीय है। परिश्रमी लेखक, निप्पक्ष अन्वेषक और ईमानदार पुस्तक प्रकाशक की हैसियत मे प्रेमी जी का सम्मान होना ही चाहिए। इन अभिनन्दनो में दो वातो का ध्यान रखना आवश्यक है एक तो यह कि सम्मान-कार्य उमव्यक्ति की रुचि, दृष्टिकोण तया लक्ष्य को ध्यान में रख कर किया जाय और दूसरी यह कि अभिनन्दन कार्य के पीछे एक निश्चित लोक-कल्याणकारी नीति हो। पाठक देखेंगे कि प्रेमी-अभिनन्दन-ग्रन्थ में इन दोनो वातो का खयाल रक्खा गया है। प्रेमी जी के विषय में कुल जमा ६२ पृष्ठ है । शेप पृष्ठ अन्य आवश्यक विषयो को दे दिये गये है । सच तो यह है कि प्रेमी जी के वार-बार मना करने पर भी उनकी इच्छा के सर्वथा विरुद्ध इस आयोजना को जारी रक्खा गया है। जनता की श्रद्धा से लाभ उठाये विना इस गरीव मुल्क मे हम अपने जनोपयोगी कार्य नहीं चला सकते, फिर साहित्यिक अथवा सास्कृतिक यज्ञो का सचालन तो और भी कठिन है। दरअसल बात यह है कि प्रेमी जी के प्रति लोगो की जोश्रद्धा है उसका सदुपयोग हमने इस ग्रन्थ मे कर लिया है। दान-सूची तथा लेख-सूची से पाठको को पता लग जायगा कि प्रेमी जी के प्रति श्रद्धा रखने वालो की सख्या पर्याप्त है । यद्यपि जो पैसा इस यज्ञ में व्यय हुआ है वह सव जैन समाज के प्रतिष्ठित सज्जनो का ही है--ग्रन्थ के शरीर के निर्माण का श्रेय उन्ही को है-तथापि ग्रन्थ की आत्मा का निर्माण सर्वथा निस्वार्थ भाव से प्रेरित विद्वानो ने ही किया है। इस यज्ञ के प्रधान होता डाक्टर वासुदेवशरण जी अग्रवाल रहे है, जो अपनी उच्च सस्कृति, परिष्कृत रुचि तथा तटस्थ वृत्ति के लिये हिन्दी जगत् मे सुप्रसिद्ध है। ग्रन्थ का तीन-चौथाई से अधिक भाग उनकी निगाह से गुज़रा है और शेप सामग्री को उनके विश्वासपात्र व्यक्तियो ने देस लिया है। श्री अग्रवाल जी जनपदीय कार्य क्रमके प्रवर्तक है और इस विषय मे उनके अनुयायी वनने का सौभाग्य हमे कई वर्षों से प्राप्त रहा है। विचारो के जिस उच्च धरातल पर वे रहते हैं, वहाँ किसी भी प्रकार का अविवेक, पक्षपात अथवा निरर्थक वाद-विवाद पहुँच ही नही सकता। ग्रन्थ में यदि उपयोगी मसाले का चुनाव हो सका है तो उसका श्रेय मुख्यतया अग्रवाल जी को ही है । यदि कागज़ की कमी न हो गई होती तो कम-से-कम चार सौ पृष्ठो की सामग्री इस ग्रन्थ मे और जा सकती थी। खास तौर पर वुन्देलखड के विषय में और भी अधिक लेख तथा चित्र इत्यादि देने का हमारा विचार था। इस ग्रन्थ के विपय में हमें जो अनुभूतियां हुई है उनके वल पर हम निम्नलिखित प्रस्ताव भावी अभिनन्दन ग्रन्यो के विपय में उपस्थित करते है (१) अभिनन्दन ग्रन्थ मे इक्यावन फीसदी पृष्ठ वन्दनीय व्यक्ति के जनपद के विषय मे होने चाहिए, पैतालीस फीसदी उसकी रुचि के विपयो पर और शेप चार फीसदी उसके व्यक्तित्व के बारे में। (२) विद्वत्तापूर्ण लेखो के माथ-साथ प्रसाद-गुणयुक्त सजीव और युगधर्म के अनुकूल रचनाएँ छापी जायें । भावी सामाजिक व्यवस्था और सास्कृतिक तथा साहित्यिक आयोजनामो को उचित स्थान दिया जाय । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीस ] (३) मानव जगत् ही नहीं, पशु-पक्षी, वन-वृक्ष, नदी-सरोवर, गरज़ यह कि चारो गोर की प्रकृति को ग्रन्थ में स्थान मिले। अभिप्राय यह है कि प्रत्येक अभिनन्दन ग्रन्थ को हम बिजली के सजीव तार की तरह स्पन्दनशील और जाग्रत बनाने के पक्ष में है। उदाहरण के लिए हम एक लेख सागर की दो देन-प्रेमी' जी और जामनेर (नदी)इस अन्य के लिए लिखना चाहते थे। जामनेर नदी का उद्गम सागर जिले मे ही है और उसके दोसुन्दर दृश्य इस ग्रन्थ में दिये भी गये हैं। पुरुष तथा प्रकृति का यह मिलन ही हमे आनन्द-प्रद तथा जन-कल्याणकारी प्रतीत होता है। हमें अपने विस्तृत देश का पुनर्निर्माण करना है और यह तभी सम्भव है जब हम छोटे-छोटे जनपदो का साहित्यिक तथा सास्कृतिक पुननिर्माण प्रारम्भ कर दें। जो महत्त्व आज इने-गिने गहरी व्यक्तियो को प्राप्त है वही हमें जानपद जनो को देना है और प्रेमी जी निस्सन्देह एक जानपद जन है-ठेठ ग्रामीण व्यक्ति । साधारण जन-समाज से उठकर उन्होने असाधारण कार्य कर दिखाया है। उनका अभिनन्दन करते हुए हम सामान्य जन (Common man) का सम्मान कर रहे हैं। उन जैसे सैकडो-सहस्रो व्यक्ति प्रत्येक जनपद के भिन्न-भिन्न क्षेत्रो में उत्पन्न हो, अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वे अपना सर्वोत्तम मातृभूमि के चरणो मे अर्पित करे और इस प्रकार विश्व-कल्याण के बहुमुखीन कार्यक्रम में सहायक हो, यही हमारी हार्दिक अभिलापा है। आम्रनिकुज । कुण्डेश्वर । बगनारकोमा नाच Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनंदन Page #23 --------------------------------------------------------------------------  Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपकृत श्री सियारामशरण गुप्त अपने इस फर से उस कर ने पाया हो जो दान , दिया तुम्हारा था वह ऐसा, गया न जिस पर ध्यान | पौ फटती धुंधली वेला में भग में पग ये मन्द । गया न ध्यान कि गति में पाई सुगति कहाँ स्वच्छन्द । अन्तरिक्ष में दूर कहीं से पाया जो पालोक, जान पडा भीतर-बाहर ज्यो निज का ही प्रानन्द ! किया स्वय अपने को हमने उसका श्रेय प्रदान , दिया तुम्हारा था वह ऐसा, गया न जिस पर ध्यान ! xxx दिया प्रथम जिस प्रात पवन ने नव गति का उद्वोध , हो कैसे जीवन में उसके उस ऋण का परिशोध । वसा हुअा है तन में, मन में उसका सुरभि-पराग, फूंक गया वह घूम-पुज में घग्-धग् करती प्राग । अब इस दोपहरी में फिर-फिर देकर स्मृति-सस्पर्श , रक्षित रक्खे है वह मेरे चलने का अनुराग ! उसका भार-वहन देता है हलकेपन का बोध , ऋणी रहूँ चिरकाल, यही है उसका ऋण-परिशोध । चिरगांव ] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयोजन का स्वागत सर सर्वपल्ली राधाकृष्णन् मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि श्री नाथूरामजी प्रेमी को एक अभिनन्दन-ग्रन्य भेट किया जा रहा है। प्रेमीजी स्वय विद्वान् है और उन्होने उच्च कोटि के बहुत मे ग्रन्य प्रकाशित किये है। उन ग्रन्यो के द्वारा उन्होने हिन्दीप्रकासन-क्षेत्र मे उच्च आदर्श स्थापित किया है। मुझे मालूम हुआ है कि उनके प्रकारान-गृह, हिन्दी-गन्य-रत्नाकर', का हिन्दी-जगत् में बड़ा सम्मान है। में इस आयोजन की सफलता चाहता हूँ। बनारस] अभिनंदन श्री पुरुषोत्तमदास टण्डन श्री नाथूराम जी प्रेमी ने हिन्दी की स्मरणीय सेवा की है। उन्होने हिन्दी में ऊंचे स्तर के गन्य-प्रकाशन की कल्पना उस समय की जव इस ओर बहुत कम लोगो का ध्यान था। हिन्दी-साहित्य की वृद्धि मे और उसके प्रचार में उनका जो भाग रहा है, उसके लिए वह हमारी कृतज्ञता के पात्र हैं। उनके मम्मानार्थ प्रेमी-अभिनदन-ग्रय प्रकाशित करन की योजना का मै हार्दिक स्वागत करता हूँ और उसकी सफलता चाहता हूँ। इलाहावाद] सौमनस्य के दूत श्री काका कालेलकर श्री नाथूगम जी प्रेमी स्वय एक वडी सस्था है। उनकी की हुई हिन्दी की सेवा हिन्दी के उपासक कभी भी भूल नही सकेंगे। उनका किया हुआ सशोधन मारके का है। अनुवाद-ग्रयो में भी उन्होने अच्छी अभिरुचि वताई है। गुजराती, बंगला, मराठी और हिन्दी, इन प्रधान भाषाओ के वे सौमनस्य के दूत (Ambassador of goodrill and understanding) है। ऐसे व्यक्ति का अभिनदन अवश्य होना चाहिए था। मदरास में मन् १९३४ के करीव स्वर्गीय श्री प्रेमचन्द जी के साथ वे आये थे। तब मैने प्रेमीजी से प्रार्थना को थी कि प्रेमचन्द जी के ग्रन्यो मे अरवी-फारसी के जो गन्द आते है, उनका हिन्दी मे अर्थ देने वाला एक नागरी-कोष हमे दीजिए। बडी ही स्फूति से उन्होने हमे देवनागरी उर्दू-हिन्दी-कोप तैयार करवा कर दिया। इस कोष ने राष्ट्र-भाषा हिन्दुस्तानी की उत्कृष्ट मेवा की है। इसके लिए हम प्रेमीजी के बहुत ही कृतज्ञ है। मुझे उम्मीद है कि प्रेमीजी से, इसी प्रकार, बहुन-कुछ सेवा हमें मिलेगी। वर्धा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी जी : जीवन-परिचय सवाई सिघई धन्यकुमार जैन श्री नाथूरामजी प्रेमी के पूर्वज मालवा- प्रदेश मे नर्वदा - कछार की ओर के थे । वहाँ से चलकर वे दो श्रेणियो मे बँट गये । कुछ तो बुन्देलखण्ड की ओर चले प्राये और कुछ गढा - प्रान्त ( त्रिपुरी ) की ओर चले गये । श्रतएव स्वय प्रेमीजी के वशीय 'गढावाल' कहलाते थे । वे गढा - प्रान्त के निवासी थे और वहाँ से चलकर चेदि राज्य के सागर जिलान्तर्गत‘देवरी” नामक कस्वे में रहने लगे। वही गहन सुदी ६ मवत् ११३८ को प्रेमीजी का जन्म हुआ 1) (प्रेमीजी के पिता स्व० टुँडेलालजी तीन भाई थे श्रीर उनके दो बहने थी। पहली माँ से एक भाई और दूसरी से दो । दादी का व्यवहार इतना सरल और स्नेहशील था कि पारस्परिक भेद-भाव का कभी किसी को ग्राभास तक नही हुआ । वाद में तीनो चाचियो में अनवन हो जाने के कारण मव अलग हो गये । उन दिनो का उद्योग-धन्वा खेती-बारी और साहूकारी था, लेकिन पिताजी इतने सरल और सीधे थे कि साहूकारी मे जो कुछ लगाया, उमे वे कभी भी वसूल न कर सके । 'लहना-पावना सव डूब गया। खेती की सुरक्षा श्रौर प्रबन्ध के तरीको से अनभिज्ञ होने के कारण खेती भी चौपट हो गई। धीरे-धीरे गृहस्थी की हालत इतनी बिगड गई कि खाने-पीने तक का ठिकाना न रहा ) वजी भौंरी कर शाम को जब पिताजी दो-एक चीथिया' अनाज लेकर लौटने तो भोजन की समस्या हल होती । एक लम्बे अरसे तक यही सिलसिला चलता रहा । ( ऐसी सकटापन्न स्थिति मे प्रेमीजी ने देवरी की पाठशाला मे विद्यारम्भ किया।) विद्याभ्यास और जीविका- प्रेमीजी की वृद्धि वडी कुशाग्र थी । (पढने लिखने मे इतने तेज़ थे कि अपनी कक्षा मे सदा प्रथम या द्वितीय रहते । गणित और हिन्दी में उनकी विशेष रुचि थी । होशियार बालको पर मास्टर स्वभावत कृपालु रहते है ! त प्रेमीजी को भी अपने अध्यापको का कृपा-पात्र बनते देर न लगी । छठी की परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर प्रेमीजी को पहली कक्षा पढाने के लिए डेढ रुपये मासिक की मानीटरी मिल गई । इस काम को करते हुए स्कूल के हैडमास्टर श्री नन्हूरामसिंह ने, जो बाद में नायब, फिर तहसीलदार और अन्त में ऐक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर होकर खनियावाना स्टेट के दीवान हो गये, प्रेमीजी को अपने घर पढाकर टीचर्स ट्रेनिंग की परीक्षा दो वर्ष में दिला दी। उसी समय स्कूल में एक नायव का स्थान ख ली हुआ । उन दिनो नायव मुर्दार को छ-सात रुपया मासिक वेतन मिलता था। प्रेमीजी ने जी-तोड प्रयत्न किया । हैडमास्टर ने भी सिफारिश की, लेकिन उन्हे मफलता न मिली और वह स्थान म्यूनिसपल मेम्वर के किसी स्नेहपात्र को मिल गया । इससे प्रेमीजी को वडी निरागा हुई । पर करते क्या ? परिवार के बोझ को हल्का करने की लालसा मन-की-मन में ही रह गई। फिर भी वे प्रयत्नशील रहे । इन्ही दिनो प्रेमीजी में कविता करने की धुन समाई । साहित्यिक सहयोगियो की एक मण्डली बनी श्रौर कविता-पाठ होने लगा । ( देवरी के प्रसिद्ध साहित्यकार स्व० सैयद अमीर अली 'मीर' उस मण्डली के प्रधान तथा मार्ग-दर्शक थे । प्रेमीजी को 'मीर' साहब बहुत चाहते थे । प्रेमीजी की रचनाएँ प० मनोहरलाल के सम्पादकत्व में कानपुर से प्रकाशित होने वाले 'रसिकमित्र', 'काव्यसुधाकर' तथा 'रसिकवाटिका' पत्रिका मे छपने लगी । 'प्रेमी' 'उपनाम तभी का है, परन्तु प्रेमीजी इस क्षेत्र मे बहुत श्रागे नही बढे । ) अनाज नापने का सवासेर का बर्तन | Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ उन्नति के लिए वे निरन्तर उद्योग करते रहे। (अन्त में उन्हे खुरई से पाठ मील दूर खिमलासा नामक ग्राम म नायव मुरिस की जगह मिल गई। गई-वीती हालत मे भी मोहवरा माता-पिता इकलौते बेटे को अपने से अलग करने के लिए तैयार न थे, पर मीर साहव के समझाने-बुझाने पर वे राजी हो गये। यह सन् १८६८-६९ की वात है। उस समय प्रेमीजी की अवस्था सत्रह-अठारह वर्ष की थी। पोस्टमास्टरी इसी समय स्कूल के हेडमास्टर के छुट्टी जाने पर स्थानापन्न का कार्य करते हुए प्रेमीजी को स्थानीय पोस्टआफिस की पोस्टमास्टरी भी कुछ दिन सँभालनी पड़ी। इन दिनो प्रेमी जी का मासिक खर्च तीन रुपया था। शेष चार रुपये वे घर भेज देते थे। कर्म-निष्ठ प्रेमी जी छ मास खिमलामा और छ मास ढाना मे रहने के वाद प्रेमीजी ने नागपुर के एग्रीकल्चर स्कूल में वनस्पतिशास्त्र, रसायन-शास्त्र और कृषि-शास्त्र का अध्ययन किया। लेकिन घुटने मे वात का दर्द हो जाने के कारण परीक्षा दिये विना ही घर लौट आना पडा और तव दो-तीन महीने के वाद प्रापका तवादिला वडा तहसील मे कर दिया गया। वैमे भी वे आत्मिक विकास के साधन चाहते थे, जो यहाँ उपलब्ध न थे। अत वाहर जाकर किसी उपयुक्त स्थान मे कार्य करने का विचार करने लगे। भाग्य की वात कि बम्बई प्रान्तिक सभा में एक क्लर्क की जगह खाली हुई। पच्चीस रुपय मासिक वेतन था। प्रेमीजी ने प० पन्नालालजी बाकलीवाल के पास आवेदन-पत्र भेज दिया। स्वीकृति आ गई,पर जेब मे वम्बई जाने के लिए रेल-किराया तक न या । जैसे-तैसे उनके परिचित मेठ खूबचन्दजी ने टीप लिखा कर दस रुपये उधार दिये। इसी समय चाँदपुर के मालगुजार ने लगान न चुकने के कारण घर की कुडकी करवा ली। ऐमी विषम परिस्थिति में वैर्य धारण किये नये क्षेत्र में परीक्षण करने के लिए प्रेमीजी वम्बई को रवाना हुए। क्लर्की का जीवन यह सन् १९०१ की वात है। तीन वर्ष तक प्रेमीजी ने इस पद पर काम किया। वम्बई प्रान्तिक मभा में 'जनमित्र के भिवाय उपदेशकीय तथा तीर्थक्षेत्र-कमेटी का दफ्तर भी शामिल था। उन सवका काम भी प्रेमीजी को ही करना पड़ता था। __ उन दिनो सभा का आफिम भोईवाडे मे था, जिसकी देखभाल प० पन्नालालजी कागलीवाल करते थे। वे विद्वान्, गम्भीर और समझदार व्यक्ति थे। श्री लल्लूभाई प्रेमानन्द एल. सी० ई० प्रान्तिक सभा के मन्नी और चुन्नीलाल जवेरचन्द जौहरी तीर्थक्षेत्र कमेटी के मन्त्री थे। इसी काल में हाथरस का एक नवयुवक कार्यालय में आने-जाने लगा। वह बडा चलता-पुर्जा था। कुछ दिन वाद जब परिचय वढ गया तो एक रोज़ उसने सेठ माणिकचन्द्रजी से कहा कि प्रेमीजी तिजोरी में रखे धन का अपने काम में अनुचित उपयोग करते है। बात कुछ ऐसे ढग से कहीं गई कि सेठजी प्रभावित हो गये और एक दिन चुपचाप पहुँचकर तलाशी लेने की वात निश्चित हो गई। निश्चय के अनुसार एक दिन लल्लूभाई प्रेमानन्द एल० सी० ई० और चुन्नीलाल जवेरचन्दजी कार्यालय पहुंचे। जव वे गुजराती मे कुछ कानाफूसी करते ऊपर की मजिल पर चढ रहे थे, प्रेमीजी नीचे पानी पी रहे थे। वे भांप गये कि कुछ दाल में काला है। पानी पीकर ऊपर पहुंचे तो वे दोनो महानुभाव पूछ-ताछ कर रहे थे। प्रेमीजी के पहुंचते ही इन्होने रोजनामचा मांगकर देखा और तिजोरी खुलवाकर उस रोज की रोकडवाकी मिला देने को कहा। तिजोरी खोली गई तो रोकड में दसवीरा रुपये अधिक निकले । प्रश्न हुआ कि रोकड क्यो वढती है ? उत्तर में प्रेमीजी ने अपनी निजी हिसाव की नोट-बुक उनके सामने फेंक दी। रोकड पाना-पाई से ठीक मिल गई। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी जी जीवन-परिचय इतने अपमान के बाद प्रेमीजी के लिए वहाँ कार्य करना असम्भव था । उन्होने तिजौरी की चाबियाँ काशली वाल जी के सामने रख दी और कहा, "मैं कल मे यहाँ काम नही करूंगा । एक बार जब अविश्वास हो गया तो फिर काम कैसे हो सकता है ?" ग्रथ- सम्पादन --- (कार्यालय में क्लर्की करते हुए प्रेमीजी को 'जैनमित्र' के सम्पादन से लेकर पत्र डाक मे छोडने तक का काम करना पडता था ।⟩पूज्यवर प० गोपालदासजी वरैय। बैंक का काम छोडकर मोरेना विद्यालय मे चले गये थे । 'जैन-मित्र’ के सम्पादक वही थे । सम्पादकीय लेख के लिए विषय-निर्देश कर देते थे, लेकिन लिखना सव प्रेमीजी को ही पडता था । इस कार्य - भार को वहन करते हुए प्रेमीजी ने 'ब्रह्मविलास' की भूमिका लिखी । यह ग्रन्थ उन दिनो छप रहा था । इसके अतिरिक्त प्रेमीजी ने 'दौलतपदसग्रह', 'जिनशतक' तथा 'बनारमी विलास' श्रादि का सम्पादन किया । प्रेमीजी की प्रतिभा के विकास के माधन अव निरन्तर जुटने लगे । इतना काम करते हुए भी प्रेमीजी ने सस्कृत पढने का समय निकाला श्रीर् जैन मन्दिर की पाठशाला में सुबह डेढ घटे संस्कृत का अभ्यास करने लगे । इसी ममय उन्होने गुजराती और मराठी भी सीखी और प० वाकलीवालजी मे बँगला का ज्ञान प्राप्त किया । वस्तुत वाकली - * वालजी ने प्रेमीजी को वडा सहारा दिया । यही कारण है कि प्रेमीजी उन्हें गुरुतुल्य मानते थे और प्राज भी उनकी प्रमा करते है । ० सन् १९०४ या ५ मे एक घटना और घटी। शोलापुर के श्री नाथारगजी गाधी ने सबसे पहले ग्रन्थ- प्रकाशन का कार्य प्रारम्भ कराया था श्रीर पचास हज़ार के दान से एक प्रकाशन-सस्था खोली थी । उस समय शास्त्रो, पुराणो तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थो के छापे जाने के विरोध मे ज़ोर से प्रान्दोलन चल रहा था। सेठ रामचन्द्रजी नाथा ने अपने प्रकाशित हुए 'स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा', 'पंचाध्यायी' श्रादि ग्रन्थो की कुछ प्रतियाँ भेज दी थी, जो 'जैन- मित्र'कार्यालय की अलमारी मे रख दी गई थी। उन दिनो प्रत्येक जिनालय में प्रकाशित ग्रन्थ रखने पर प्रतिबन्ध था । 'जैनमित्र' का दफ्तर भोईवाडे के जैनमन्दिर के ऊपरी भाग मे था । मन्दिर मे जो लोग पूजा करते थे, उनमे से अधिकाश का पेगा दलाली था और वे सेठी और मुनीमो के दर्शन करने आते ही तैयार किये हुए श्रर्घ्यं पात्र उनके हाथो मे थमा देते थे । प्रेमीजी ने उनकी इम चेष्टा पर एक व्यग्यपूर्ण लेख 'पुजारीरत्रोन' नाम से लिखा, जो 'जैनमित्र' के मुख पृष्ठ पर छपा। उसे पढकर पुजारी आग बबूला हो गये और उनमे से मन्दिर के मुख्य पुजारी ने 'जैनमिन' की वह प्रति रूढिवादी सेठो को दिखाई । श्रक मे श्रीमतो की भी ग्रालोचना थी। इतना ही नही, पुजारी ने अलमारी में रक्खे प्रकाशित ग्रन्थ भी मेठो को दिखाये । परिणाम यह हुआ कि मेठो ने अलमारी से निकालकर ग्रन्थो को तो सड़क पर फेका ही, साथ ही आफिस का सामान भी बाहर फेक दिया । सेठ माणिकचन्द्रजी प्रान्तिक सभा के अध्यक्ष थे । हीराबाग उस समय बनकर तैयार ही हुआ था । उन्होने तुरन्त सभा के कार्यालय का हीरावाग मे प्रवन्ध कर दिया, जहां वह ग्राज तक चल रहा I स्वतंत्र जीवन और अध्यवसाय- प्रेमीजी ने अब स्वतन्त्र रूप से कुछ करने का निश्चय किया और प्रान्तिक सभा से त्याग पत्र दे दिया । प० धन्नालालजी कागलीवाल ने बहुतेरा समझाया, पर वे अपने निश्चय पर दृढ रहे । जब श्री गोपालदासजी वरैया ने भी बहुत दवाव डाला तो प्रेमीजी ने सिर्फ 'जैन- मिन' के सम्पादन कर देने का कार्य स्वीकार कर लिया । सभा की नौकरी छोडने ही प्रेमीजी को अनुवाद का बहुत-सा काम मिल गया । रामचन्द्र जैन ग्रन्थमाला के स्तम्भ मनसुखलाल खजी भाई ने गुजराती की 'मोक्षमाला' नाम की पुस्तक का अनुवाद उनसे कराया । प्रेमीजी ने डेढ मी पृष्ठ की पुस्तक का अनुवाद पन्द्रह-बीस दिन मे कर दिया और विशेषता यह कि गद्य का गद्य और पद्य का द्य में अनुवाद किया । पारिश्रमिक के रूप मे सत्तर-अस्सी रुपये प्रेमीजी को मिले। आशा से यह रकम कही अधिक Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी - श्रभिनंदन - प्रथ थी । इससे हर्प के साथ प्रेमीजी का साहस भी बढा । प्रेमी जी के स्वतन्त्र जीवन की सफलता के प्रथम अध्याय का श्री यहाँ से ही हुआ । वह पाण्डुलिपि बाद मे खो गई । 'प्रेमीजी 'जैनमित्र' का सम्पादन व प्रकाशन वडी लगन और तत्परता से करते रहे और वरैयाजी ने जो कुछ पारिश्रमिक दिया, उसे विना 'ननुनच' किये लेते रहे। पहले वर्ष मे सवा सो, दूसरे मे डेढ सौ श्रादि । ८ १. स्व० हेमचद्र २. श्री नाथूराम प्रेमी ३ हेमचंद्र की माता स्व० रमाबाई (सन् १९१३) इसके बाद प्रेमीजी पर 'जैनहितैषी' के सम्पादन का दायित्व भी आ पडा, जिसे उन्होने ग्यारह चारह वर्ष तक योग्यतापूर्वक वहन किया । 'जैनहितैषी' के सम्पादन -काल में ही उन्होने माधवराव सप्रे गन्यमाला के द्वितीय पुष्प 'स्वाधीनता' को 'मुवई वैभव' प्रेस से छपवा कर प्रकाशित किया और उसी गमय (सन् १९१२ मे) 'हिन्दी-ग्रन्थ- रत्नाकर' की स्थापना की । 'हिन्दी - ग्रन्थ - रत्नाकर' सीरीज का 'स्वाधीनता' ही प्रथग ग्रन्थ बनाया गया । यह कार्यालय श्राज अपनी विकसित अवस्था में हिन्दी - जगत् के सम्मुख विद्यमान है । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्ग-दर्शक प्रकाशक & प्रेमीजी ने अनेक मौलिक ग्रन्थो की रचना की है और प्राचीन जैन साहित्य के अनुसन्धान का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। तीन- चार सस्कृत ग्रन्थो का उन्होने अनुवाद भी किया है । बंगला, गुजराती और मराठी के भी अनेक उपयोगी ग्रन्थो का हिन्दी रूपान्तर स्वय किया है और अपने सहयोगियो से करवाया है । कुल मिलाकर प्रेमीजी की तीस-बत्तीस पुस्तके है | अपने यहाँ से पुस्तको के प्रकाशन में प्रेमीजी बडे सजग रहे है और उनके चुनाव मे लोक-हित की दृष्टि को प्रधानता दी है । यही कारण है कि 'हिन्दी-ग्रन्थ - रत्नाकर' से एक भी हल्की चीज प्राज तक प्रकाशित नही हुई । परिवार दुर्घटनाए— (प्रेमीजी को बनाने मे बहुत-कुछ हाथ उनकी पत्नी का था । वे बडी ही कष्ट-सहिष्णु और मेवा - परायण थी। कप्ट-काल मे उन्होने सदैव प्रेमीजी को ढाढस बँधाया और समाज-सुधार के कार्यो मे उत्साहित किया । (२२ अक्तूबर १६३२ को उनका देहान्त हो गया । प्रेमीजी ने अपनी आशाएँ अपने एकमात्र पुत्र हेमचन्द्र पर केन्द्रित की श्रीर बडे लाड-प्यार से उनका लालनपालन किया । हेमचन्द्र विलक्षण बुद्धि के ये । अल्पायु में ही उन्होने अनेक विपयो में दक्षता प्राप्त कर ली थी और साहित्य का गहन अध्ययन किया था, लेकिन ३३ वर्ष की अवस्था मे १६४२ की मई मास की १६ तारीख को वे भी चले गये । अव प्रेमीजी के परिवार मे उनकी पुत्रवधू चम्पादेवीजी तथा दो नाती यगोधर और विद्याधर है ।) प्रेमी जी एक अनुपम देन - प्रेमीजी का एक निजी व्यक्तित्व है । अपनी कार्य क्षमता, श्रमशीलता और पाण्डित्य से हिंदी - जगत् को उन्होने जो कुछ भेट किया है उससे साहित्य की मर्यादा वढी है। प्रेमीजी जीवन के चौसठ वर्ष पार कर चुके है । इस सुदीर्घ काल मे उन्होने असाधारण सफलता प्राप्त की है। जाने कितने प्राघात उन्होने धैर्यपूर्वक सहन किये है अनेक सकट ग्रस्त वधुओ को ढाढस बंधाया है । अध्ययनशीलता प्रेमीजी का व्यसन है । उचित उपायो द्वारा धनोपार्जन के साथ-साथ अपने बौद्धिक विकास सतत उद्यमशील रहना वे कभी नही भूले । अनेक उदीयमान लेखको को पथ-प्रदर्शन द्वारा उन्होने साहित्य क्षेत्र मे ग्रागे वढाया है । उत्तम ग्रन्थ प्रकाशन, पुरस्कार वितरण, लेखको, श्रनुवादको श्रीर सम्पादको को उनकी रचनाओ पर पारिश्रमिक दान, विद्यार्थियो को छात्रवृत्ति, कठिनाइयो मं पडे बघुयो की सहायता द्वारा वे अपने धन का सदुपयोग करते रहते है । उनका द्वार छोटे-वडे सबके लिए हर घडी खुला रहता है । कटनी ] र्ग-दर्शक प्रकाशक श्री हरिभाऊ उपाध्याय प्रेमीजी हिन्दी के उन थोडे-से प्रारम्भिक प्रकाशको में हैं, जिनमे आदर्शवादिता, सहृदयता व व्यापारिकता का सुन्दर सामजस्य हुआ है । उन्होने जो कुछ साहित्य हिन्दी - ससार को दिया है, उसमे हिन्दी - पाठको की आत्मा पुष्ट ही हुई है और हिन्दी - प्रकाशको के लिए वह दिशा दर्शक रहा है । अपनी सेवाओ के कारण वे हिन्दी - जगत् मे आदरणीय है और इस शुभ अवसर पर में भी अपना सम्मान उनके प्रति प्रदर्शित करने हुए श्रानन्द व गौरव का अनुभव कर रहा हूँ । अजमेर ] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नाथूराम जी प्रेमी प० चेचरदास जी० दोशी प्रेमीजी बुन्देलखडी है, मै काठियावाडी, उनकी भाषा हिन्दी है, मेरी गुजराती, वे जन्म से दिगम्बर जैन है, में श्वेताम्बर । इतना भेद होते हुए भी हम दोनो में विचार-प्रवाह की अधिक समानता है। अत 'समानशील व्यसनेषु सत्यम् के अनुमार हमारे बीच अन्योन्य अजय मित्रता बनी हुई है। एक समय था जव मै कट्टर साम्प्रदायिक था, यहां तक कि श्वेताम्बर साहित्य के सिवाय इतर किमी भी साहित्य को पढना मेरे लिए पाप-सा था। बनारस म कई नाल रहा । तो भी जिम वृत्ति से श्वेताम्बर मन्दिर में जाता, उस वृत्ति से कभी भी दिगम्बर मन्दिर मे नही गया। कभी गया भी नो दिखावे की भावना से। हमारीपाठशालाकी स्थापना के बाद दिगम्बर पाठगाला, स्याद्वाद महाविद्यालय, कागी की स्थापना हुई। उस समय वम्बई के श्रीमान विद्याप्रेमी श्री माणिकचन्द सेठ काशी पधारे थे और नागों में कम्पनी वाग के सामने दिगम्बर मन्दिर मे दिगम्बर पाठशाला का स्थापन-समारम्भ था। वहां भी हमारी मारी मडली गई थी, परन्तु दिगम्वर श्वेताम्बर दोनो सहोदर भाई है, इस वृत्ति से नहीं। केवल बाह्य उपचार और दिवावे का व्यवहार ही हमारे जाने का कारण था। काशी में मै न्याय,प्रधानत जैन न्याय, व्याकरण और साहित्य पादि पट त्रुका था और प्राकृत अर्थात् मागधी, गौरसेनी भापायो का मेरा अध्ययन पूर्ण हो चुका था। बाद मे मैं यगोविजय-जैन-गन्थमाला के सम्पादन-कार्य में जुट गया। उस समय मै कोई वीस-इक्कीस वर्ष का था। मागधी भाषा का ज्ञान होने के कारण मै श्वेताम्बर मूल जैन-आगमो को स्वय पढने लगा, समझने लगा और कठस्थ भी करने लगा। जव मैने आनाराग आदि अग ठीक तरह से पढे तव मेरे चित्त में परम आह्लाद का अनुभव हुआ और मेरी मारी साम्प्रदायिक कट्टरता एकदम रफूचक्कर हो गई। यद्यपि मैं जैन साधुनो के सहवास में अधिक रहा हूँ, उनकी सेवा भी काफी को है, उनके बताये हुए अनेक-विध क्रियाकाडो मे रस भी लिया है, परन्तु स्वयमेव मूल जैन-आगम पटने पर और उनका मर्म समझने पर मेरी जड-क्रियाकाड में अरुचि एव साधुनो के प्रति अन्ध-भक्ति का लोप हो गया। और स्वय शोध करने की तरफ लक्ष गया। साघुरो के प्रति व्यक्तिश नहीं, परन्तु समूह सस्था की तरफ मेरी अरुचि हो गई और मुझको स्पष्ट मालूम हुआ कि आगम वचन दूसरे प्रकार के है, पर अपने को आगमानुसारी मानने वाले मघ की प्रवृत्ति अन्य प्रकार की है। प्रचलित क्रियाकाडो का उद्देश्य ही विस्मृत-सा हो गया है। मेरे मन में ये भाव उठने नगे कि लोगों के सामने आगम वचनो को रक्खा जाय और उनका अच्छी तरह अनुवाद करके प्रकाशित किया जाय, जिससे व्यर्थ के आडम्बर के चक्कर में फंसी हुई जनता वस्तु-तत्त्व का विचार कर सके । अव तक मुझको यह मालूम नहीं था कि हम थावक लोग पागमो को स्वय नही पढ़ सकते अथवा आगमो का अनुवाद भाषा मे करना पापमा है, क्योंकि जब मै पाठशाला मे आगमो का अध्ययन करता था तव किमी ने मुझको मना नहीं किया था। अत मैने ठान लिया कि पाठशाला से बाहर निकल कर आगमो के अनुवाद का कार्य ही सर्व प्रथम करूंगा। इन दिनो पूज्य गाजी भारतवर्ष में आये हुए थे और सारे देश के वातावरण में क्रान्ति की लहरे हिलोरे लेने लगी थी। जब मैने ग्रागमा के अनुवाद की प्रवृत्ति का श्रीगणेश किया तो जैन साधुओ ने उसका बडे जोरो से विरोध किया। विरोध क्या रिया, उन प्रवृनि को बन्द करने के लिए भयानक आन्दोलन इन साधुओ ने किये और मुझ पर तो घोर आक्षेपो को वृष्टि होन लगी। मेरे कुटुम्ब वाले और मेरी माता जी भी स्वय कहने लगी कि अनुवाद के काम की अपेक्षा आत्मघात को मर जाना अच्छा है। व्यवहार के क्षेत्र में मेरा प्रथम ही प्रवेश था और मेरे सामने माधु-समाज और श्रावकममाज का निरोप भी भयकर था। तब भी मै अपने निश्चय से टस-से-मसानही हुआ। मैने आगमो के वचनो का जो ग्राम्याद लिया था उसका अनुभव आम जनता भी करे,यही मेरा एक निश्चय था। सेठ पुजाभाई हीराचन्द अहमदानाद बानो ने मेरे निश्चय मे या प्रदान किया। अत उनके महारे मै आगमो के अनुवाद की प्रवृत्ति के लिए बम्बई पाया । यहाँ उम ममय यो प्रमाजी मे मर्व-प्रथम परिचय उनकी हीरावाग वाली दुकान में हुआ। उन्होने मुझको Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नाथूराम जी प्रेमी ११ वडा प्रोत्साहन दिया। उन दिनो वे 'जैन-ग्रन्य-रत्नाकर-कार्यालय' चलाते थे और हीरावाग के पास ही चन्दावाडी मे रहते थे। गायद 'माणिकचन्द-जन-ग्रन्थमाला' के भी सचालक थे और 'परमश्रुत प्रभावक मडल' मे भी उनका सम्बन्ध था। इस प्रकार श्री प्रेमीजी से हमारी मित्रता करीव आज सत्ताईस-अट्ठाईस वर्ष से चली आई है और जब तक हमारी चेतना जागरूक है तब तक चलती रहेगी। केवल प्रेमीजी से ही नहीं, अपितु उनके कुटुम्ब के साथ भी हमारे कुटुम्ब की मित्रता वन गई है। प्रेमीजी कुटुम्ब-वत्सल, मूक भाव से क्रान्ति के प्रेरक, सामाजिक कुरूढियो के भजक, स्वच्छ साहित्य के प्रचारक और प्रामाणिक व्यवसायी है। एक बार जब मै अपनी पत्नी के साथ पूने मे था तव प्रेमी जी भी वहां निवास के लिए आये थे। साथ में उनकी पत्नी स्व. रमावहिन और उनका पुत्र स्व. हेमचन्द्र भी था। रमावहिन अत्यन्त नम्र, मर्यादाशील एव कुटुम्ब-वत्मल गृहणी थी और हेमचन्द्र तो मनोहर मुग्ध सतयुग का वालक या। हम दो थे और प्रेमीजी का कवीला तीन व्यक्तियो का था। हम पाँचो जने 'भाडारकर प्राच्य मन्दिर' के पीछे UPL 13 - 11 ETA PRANAAD Ayms . .. AsASK HTTAYEVER WKTA LI स्व० हेमचद्र (१९१२) की पहाडियो पर नित्य प्रात काल घूमने जाते और अनेक प्रकार की वाते होती। अधिकतर सामाजिक कुरूढियो की और धार्मिक मिथ्यारूढियो की चर्चा चलती थी। स्व० हेमचन्द्र भी 'दद्दा दद्दा' कहकर मनोहर वालसुलभ वाते पूछा करता। किमी टेकरी पर चढने मे स्त्रियो को अपनी पोशाक के कारण वाधा आती तो दोनो यानी रमावहिन और मेरी पत्नी कच्छा लगाकर टेकरी पर चढ जाती। उस समय हम लोगो ने जो सुखानुभव किया, वह फिर कभी नहीं किया। प्रेमीजी साहित्य और इतिहास के कीट होने पर भी कितने कुटुम्ब-वत्सल थे, उसका पता वहाँ टेकरी पर ही लगता था। उन दिनो प्रेमीजी 'जैन-हितैषी' चलाते थे। उसमें साहित्य, इतिहास इत्यादि के विषय में बडी आलोचना-प्रत्यालोचना रहती थी। 'जन-हितैषी' के मुख-पृष्ठ पर एक चित्र आता था, जिसमे ध्वज-दड सहित एक देवकुलिका थी और उसके शिखर में रस्सी को फांसकर एक तरफ श्वेताम्वर खीच रहा है, दूसरी तरफ दिगम्वर । यह हाल जैन-ममाज का आज तक भी वैसा ही बना हुआ है। इस चित्र से प्रेमीजी के अन्त स्थित क्रान्तिमय मानम Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ का पूरा पता चलता है। वैसे तो प्रेमीजी ने जोशीले व्याख्यान नही दिये और जोशीले लेख भी नहीं लिसे, परन्तु उन्होने मूक भाव से क्रान्ति की प्रेरणा की है। उसका दूसरा उदाहरण वाबू सूरजभानु वकील द्वारा सम्पादित-प्रकागित 'सत्योदय' नामक मासिक है। सूरजभानु जी भी प्रेमीजी के असाधारण मिग है। कोई भी विचारक प्रेमीजी के ससर्ग मे आवे और उनसे प्रशान्त भाव से शास्त्रीय व सामाजिक रूढियो की चर्चा करे तो उनके क्रान्तिमय विचारो का पता उसे जरूर लगेगा। प्रेमीजी दृढ सकल्प से रूढियो का भजन करते रहे है। प्रेमीजी के प्रयत्न से ही शास्त्र छपवाने के विरोधी दिगम्बर-समाज में भी जैन-साहित्य का अच्छा मुद्रण-प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। 'माणिकचन्द्र-जैनग्रन्थमाला' मे अनेक अच्छे-अच्छे गन्य प्रेमीजी की देखभाल में सुसम्पादित होकर प्रकाशित हुए। अव तो यह कार्य इतना अग्रसर हुआ है कि जो ग्रन्थ अाज तक मूडबिद्री मे केवल पूजे ही जाते थे और यात्रियो के केवल दर्शन विषय बने हुए थे, वे धवला इत्यादि ग्रन्थ भी भाषान्तर के साथ छप कर प्रकाश में आने लगे है। इतना ही नही, परन्तु कई पडित नये युग के रग मे रँगकर दिगम्बर श्वेताम्बर के ऐक्य की खोज मे लग रहे है और यहां तक विचार किया जाने लगा है कि दोनो सम्प्रदाय मे कोई विरोध नहीं है। मेरी समझ मे श्री प्रेमीजी और उनके मिनो ने जो कान्तिके वीज बोये थे, वे उगे और उन्होने वृक्षो का रूप धारण कर लिया है । अभी फल कच्चे है, परन्तु जव पक जायँगे तब मारे जैनसमाज को अपूर्व प्रमोद होगा। प्रेमीजी ने जैन-साहित्य की तो सेवा की ही, परन्तु उन्होने विशाल और व्यापक दृष्टि रविकर सारे हिन्दी साहित्य की मेवा के लिए तत्पर होकर अपना 'जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय' 'हिन्दी-ग्रन्थ-रलाकरकार्यालय' के रूप में परिणत कर दिया और उसके द्वारा हिन्दी भाषा मे शुचि और स्वस्थ माहित्य प्रकागित करना • शुरु कर दिया। कहानी, इतिहास, वाचनमाला, विज्ञान, धर्म, समाज-व्यवस्था, अर्थशास्त्र, राजकारण आदि अनेक विषयो पर सुन्दर साहित्य उन्होने प्रकाशित किया और आज तक कर रहे है। यद्यपि व्यवमाय की दृष्टि से उन्होने सैकडो हिन्दी के ग्रन्थ प्रकाशित किये है तो भी ग्रन्थो को देखने से व्यवसाय की अपेक्षा उनकी साहित्य-सेवा को ही दृष्टि झलकती है । व्यवसायी लोग तो जनता की अधोभूमिका का लाभ लेकर शृगारमय वीभत्स साहित्य भी प्रकाशित कर गरीबो का धन हर ले जाते है, परन्तु प्रेमीजी के गन्थ-रत्नाकर मे ऐमी कोई भी पुस्तक नहीं मिल सकती। इस प्रकार श्री प्रेमीजी हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र मे हीरा है तो हमारे जैन-साहित्य-क्षेत्र में वे उज्ज्वल मणि के समान है। अपने इकलौते पुत्र श्री हमचन्द्र के अवसान के कारण प्रेमीजी को भारी प्राघात हुआ है और इसी कारण उनकी देह अव अधिक जर्जरित हो गई है । अत अस्वास्थ्य के कारण अब वे अनुत्साहित से दीग्व पडते है, फिर भी महात्मा बनारमी दासजी की तरह वे ठीक अन्तर्मुख है। इसी कारण अपनी साहित्य-सेवा की प्रवृत्ति से वे तनिक भी विचलित नहीं हुए है। भले ही उनका वेग मन्द हुआ हो, परन्तु प्रवृत्ति चलती ही रहती है। अभी उनकी 'जैन-साहित्य का इतिहास' तथा 'अर्धकथानक पुस्तके प्रकाशित हुई है। वे उनकी अन्तर्मुखता की गवाही है ।। अन्त में प्रेमीजी की एक अनुकरणीय वात कहकर इस लेख को समाप्त करूँगा। प्रेमीजी ने अपना सारा बोझ अपने ही कन्धे पर ढोते हुए समाज-सेवा, कान्तिप्रचार, रूढि-भजन, सुचार-प्रवृत्ति और साहित्य-सेवा आदि प्रशसनीय प्रवृत्तियां आज तक की है। इसी प्रकार हम लोग भी अपना बोझ समाज व राष्ट्र पर न डालकर स्वय उसे संभालते हुए यथासाध्य कार्य में लगें तो अवश्य ही अच्छा कार्य कर सकेगे। प्रेमीजी वाहर से सीधे-सादे और अन्तरग से गम्भीर चिन्तक है । आज तक उन्होने जो काम किया है, स्थिरभाव से, स्थितप्रज्ञ की-सी वृत्ति से। क्रान्ति का उतावलापन या रूढिप्रियता का शोर-गुल उनमें नहीं है । 'काल कालस्य कारणम्' समझ कर जो वना, वह सचाई और ईमानदारी के साथ कर दिया, यही उनका स्वभाव है। अहमदाबाद ] 'खेद है कि अव श्री सूरजभानु जी का स्वर्गवास हो गया है। 'अर्घकथानक' प्रात्मचरित के लेखक, जिन्हें अपनी नौ सन्तानों का वियोग अपनी आँखो देखना पड़ा था। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' और उसके मालिक स्व० हेमचन्द्र मोदी यह लेख बहुत ही सुन्दर और रोचक है । 'पिता-पुत्र के सम्बन्ध के होते हुए भी लेखक ने कहीं अपने को सत्य से बहकने नहीं दिया है। इसमें सर्वत्र हेमचन्द्र जी की पैनी बुद्धि की छाप है। जान पडता है कि सत्य के राजमार्ग पर चलने की उनकी एक प्रादत-सी बन गई थी। विशेष घटनाओ का उल्लेख करते हुए उनके पीछे जो सामान्य सत्य है उसकी ओर इस लेख में कई स्थानों पर बहुमूल्य सुझाव दिये गए है। हर्ष की बात है कि श्री नाथूराम जी का ऐसी सद्विवेकिनी शैली से लिखा हुआ चरित्र उपलब्ध हो सका। स्व० हेमचन्द्र के सिवा सम्भवत इस कार्य को कोई दूसरा इतने अच्छे ढग से पूरा न उतार सकता था। -वासुदेवशरण अग्रवाल] वम्बई का 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय' हिन्दी में एक ऐसी प्रकाशन-सस्था रही है, जिसने लोगो का बहुत-कुछ ध्यान आकर्षित किया है । इसके वारे में ज्यादा जानने के लिए लोग उत्सुक भी रहे है, पर इस विज्ञापनवाज़ी के ज़माने में न जाने क्यो इसके सचालक हमेगा आत्म-विज्ञापन की ओर इस तरह उपेक्षा दिखलाते रहे है कि लोगो की उत्सुकता खुराक के अभाव मे अभिज्ञता के स्प मे नही पलट पाई। कोशिश करने पर लोग इसके बारे मे इसके ' नाम के अलावा इतना ही जान पाये है कि इसके मालिक श्री नाथूराम प्रेमी नामक कोई व्यक्ति विशेष है । हाँ, कोई आठ-दस साल पहले व्यक्तिगत चिट्ठियो मे सवाल-पर-सवाल पूछकर पूज्य प० वनारसीदासजी चतुर्वेदी कुछ जानकारी पा गये थे, जिसे उन्होने 'विशाल भारत' मे छाप दिया था। पर इसके द्वारा लोगो की उत्सुकता वढी थी, घटी नही थी। मै पिताजी को न जाने कब से 'दादा' कहता आया हूँ और मेरी देखादेखी निकट परिचय मे आने वाले हिन्दी के बहुत से लेखक भी उन्हे 'दादा' कहने और पत्रो मे लिखने लगे है। हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' के साथ वे इस तरह मश्लिष्ट है कि जो लोग थोडे भी परिचय में आये है, वे दोनो में भेद नही कर पाते। इतना ही नहीं, मेरा कई साल का अनुभव है कि वे स्वय भी अपने आपको चेप्टा करने पर भी 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' से अलग नहीं कर पाते । अपने कार्य से इतना अधिक एकात्म्य दुनिया में बहुत कम लोग अनुभव करते है। यह एकात्म्य यहाँ तक रहा है कि कभीकभी मुझे यह भासने लगता है कि जिस पितृ-स्नेह का मै हकदार था, उसका एक बहुत बडा हिस्सा इमने चुरा लिया है और मुझे याद है कि मेरी स्वर्गीया माँ भी अनेक वार इसमे अपनी मौत का दर्शन करती रही है, परन्तु मेरे निकट - हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' कोई चीज़ नही है। मेरे निकट तो वस मेरे दादा है। मै यहाँ अपने दादा का ही परिचय दूंगा, क्योकि मेरे लिए वे ही सब कुछ है। मेरे निकट 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' है तो केवल उनके एक प्रतीक के रूप में। मुझे • विश्वास है कि पाठक भी जड 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' की अपेक्षा चेतन 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' को ही जानने के लिए ज्यादा उत्सुक होगे। पर इसका मतलब यह नहीं है कि दादा मुझे चाहते नही है या मेरी माता के प्रति उनका व्यवहार उचित नही था। सच पूछो तो दादा मेरी माँ को चाहते नहीं थे, उनकी भक्ति करते थे। जव वे किसी चीज़ के लिए कहती थी तव वह मांग उन्हे इतनी तुच्छ प्रतीत होती थी कि उनके ख्याल से उन जैसी देवी को शोभा न देती थी। उन्होने इस वात का ख्याल नही किया कि एक देवी के शरीर मे भी मनुष्य का हृदय रह सकता है। उनकी मृत्यु के आठ साल वाद आज भी जव वे उनका स्मरण करते है तब उनका हृदय दुख से भर उठता है । आप कहेगे, “यह तुमने अच्छा झगडा लगाया। 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' मे तुम्हारी मां का क्या सम्वन्ध ?" पर मेरा विश्वास है कि दादा ने जो Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ १४ भी कुछ किया, 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' को श्राप जैमा कुछ देखते हैं, उसमे अगर यह कहा जाय कि दादा की अपेक्षा मेरी माँ का अधिक हिस्सा है तो शायद कुछ ज्यादा अतिशयोक्ति न होगी । पुरुष कितना ही त्याग-वृत्ति का हो, मेवापरायण और कर्तव्यनिष्ठ हो, पर अगर स्त्री अपने पति के व्रत को अपना व्रत नहीं बना लेती तो अवश्य ही उस पुरुप -- का पतन होता है। कार्लमार्क्स कितने ही मिद्धान्लवादी होते, पर उनकी पत्नी लोभी, विलासेच्छ होती तो वे कभी के पूंजीवादियो के मायाजाल में फंस जाते । बडे-बडे होनहार देश-भक्तो, त्यागियो और महापुम्पो का पतन उनकी . पत्नी के अपातिव्रत्य के कारण ही हुआ है । अपने पति के व्रत को वे अपना व्रत न मान राकी। जब कभी हम लोग फुर्सत के वक्त दादा के पास बैठते है तब वे अपने जीवन की स्मरणीय घटनाग्रो और बातो को कहते है । उनको सुनने और उन पर विचार करने पर हमें मालूम होता है कि उनके चरित्र और स्वभाव के फिन गुणो ने उन्हें आगे बढाया और उस कार्य के करने के लिए प्रेरित किया और किन परिस्थितियो ने उगमे मदद पहुंचाई। दादा की बातो में सबसे पहली वात जो ऊपर तैर पाती है वह अत्यन्त दरिद्रता की है। दादा के पिता अर्थात् मेरे आजे का नाम था टूडे मोदी। हम लोग देवरी जिला सागर (मध्य प्रान्त) के रहने वाले परवार वनिये है। परवार लोग अपने मूल मे मेवाड के रहने वाले थे। पहले हथियार वाँधते थे, पर वाद में और बहुत-गी क्षनिय जातियो की तरह व्यापार करने लगे और वैश्य कहलाने लगे। पुराने गिला-लेखो मे इस जाति का नाम 'पौरपट्ट' मिलना है और ये मेवाड के पुर या पौर कमवे के रहने वाले है और सारे बुन्देलपड मे वहुतायत से फैले हुए है। मगर हमारे आजे टूडे मोदी महाजनो मे अपवाद-रूप थे। अपनी हार्दिक उदारता के रावव वे अपने प्रासामियो री कर्ज दिया हुआ रुपया कभी वसूल न कर सकते थे और किसी को कष्ट मे देखते थे तो पारा मे रुपया रखकर देने से इन्कार न कर मकने थे। इस कारण वे अत्यन्त दरिद्रता के शिकार हो गये । देखने को हजारो रुपये की दस्तावेजे थी, पर घर मे याने को अन्न का दाना नहीं था। दादा सुनाते है कि बहुत दिनो तक घर का यह हाल था कि वे जव घोडे पर नमक, गुड वगैरह मामान लेकर देहात मे बंचने जाते थे और दिन भर मेहनत करके चार पैमे लाते ये तब कही जाकर दूसरे दिन के भोजन का इन्तजाम होता था। वे कर्जदार भी हो गये थे। एक वार की बात है कि घर में चूल्हे पर दाल-चावन पक कर तैयार हुए थे और मव खाने को वैठने ही वाले थे कि साहूकार कुडकी लेकर आया । उगने वमूली में चूल्हे पर का पीतल का बर्तन भी मांग लिया। उससे कहा कि भाई, योडी देर ठहर। हमे खाना मा लेने दे। फिर वर्तन ले जाना। पर उसने कुछ न सुना। वर्तन वही राख मे उडेल दिये । खाना राव नीचे गाव मे मिल गया और वह वर्तन लेकर चलता वना। सारे वाटुम्ब को उस दिन फाका करना पड़ा। __ ऐसी गरीवी मे गाँव के मदरसे मे दादा पढे, ट्रेनिंग की परीक्षा पास की और मास्टरी की नौकरी कर ली। वे कई देहाती स्कूलो में मास्टर रहे। मास्टर होने के पहले कुछ दिन उन्होने डेढ रुपया महीने की मानीटरी की नौकरी की। मास्टरी में उन्हें छ रुपया महीना मिलता था। वाद में सात रुपया महीना मिलने लगा था। इसमे से वे अपना खर्च तीन रुपये मे चलाते थे और चार रुपया महीना घर भेजते थे। इन दिनो जो कम-खर्ची की यादत पड़ गई, वह दादा से अभी तक नहीं छूटती। एक तरफ तो उनमें इतनी उदारता है कि दूसरो के लिए हजारो रुपये दे देते है, पर अपने खर्च के लिए वे एक पैसा भी मुश्किल से निकाल पाते हैं। अन्य गुणो के साथ मिलकर इस आदत का असर 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' के सचालन पर भी गहरा पड़ा है। कितावो की बिक्री का जो भी कुछ पैमा पाता रहा, वह कुछ व्यक्तिगत खर्च निकाल कर नये प्रकाशनो में ही लगता गया। वम्बई के जीवन का बहुत बडा हिम्सा उन्होने दस-बारह रुपये महीना किराये के मकानो में ही निकाल दिया है, जब कि उनकी हालत ऐसी थी कि खुशी से पचास रुपया महीना किराया खर्च कर सकते थे। इस आदत के कारण ही उन्हें कभी किसी अच्छे ग्रन्थ को छपाने के लिए, जिमकी कि वे आवश्यकता समझते हो, रुपयो का टोटा नही पडा और न कभी भाज तक कर्ज़ में किसी का पैसा लेकर धन्धे में लगाया। कभी किसी प्रेस वाले का या कागज़ वाले का एक पैसा भी उधार नहीं रक्खा। यही पादत उन्हे सभी किस्म के व्यसनो से और लोभ से भी बचाये रही। सट्टेवाज़ मारवाडियो के बीच रहकर भी हमेशा वे सट्टे के प्रलोभन Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ''हदी-ग्रंथ-रत्नाकर' और उसके मालिक १५ से बचे रहे। उन्होने कभी किसी ऐसी पुस्तक को नही छापा, जिमका उद्देश्य केवल पैसा कमाना हो और न लोभ मे पड कर कभी कोई ऐसा कार्य किया, जो नीति की दृष्टि से गिरा हुआ हो । कभी ऐसा मौका आता है तो वे कह देते है, "ज़रूरत पडने पर फिर मै एक वार छ रुपये महीने मे गुज़ारा कर लूँगा, पर कमाई के लिए यह पुस्तक न छापूँगा ।" यहाँ मुझे यह भी कहना चाहिए कि अल्पसन्तापिता से एक बुराई भी पैदा हो गई हैं । वह यह कि अन्य पुस्तकप्रकाशक अपनी पुस्तक बेचने के लिए जितनी कोशिश कर पाते है और कभी-कभी जितनी ज्यादा वेच लेते है उतनी हम नही कर पाते । विक्री की दौड में 'हिन्दी-ग्रन्थ - रत्नाकर' मदा पीछे ही रहा है, पर इनमें बहुत से प्रति प्रयत्नशील प्रकाशक चार दिन चमक कर ग्रस्त हो गये, पर 'हिन्दी-ग्रन्थ - रत्नाकर' अपनी कछुए की चाल से चला ही जा रहा है । करीब दो साल दादा मास्टरी करते रहे। इसी जमाने में देवरी मे वर्गीय अमीर अली 'मीर' के ससर्ग से दादा को कविता करने का शौक हुआ और उन्होने 'प्रेमी' के उपनाम से बहुत मी कविताएँ लिखी, जो उम जमाने मे समस्यापूर्ति के 'रमिक मित्र', 'काव्य -सुधाकर' आदि पत्रो मे छपा करती थी । पढने का भी शौक हुया और श्रासपाम मे जो भी पुस्तकें हिन्दी की मिलती थी, सभी पढी । कोई दो साल मास्टरी की नौकरी करने के बाद सरकार ने उन्हें नागपुर कृपि-कालेज में पढने भेज दिया । उन दिनों उस कालेज में हिन्दी में पढाने का प्रवन्ध किया गया था । पर नागपुर में वे अधिक दिन स्वस्थ न रह मके वीमार पड गये और घर लौट जाना पडा । अपने विद्यार्थी जीवन की सबसे अधिक स्मरणीय वात वे उस स्वावलम्वन की शिक्षा को समझते हैं, जो उस समय उन्हें मिली । उम ज़माने में कालेजो के साथ ग्राजकल की तरह वोडिंग नही थे । सव विद्यार्थियो को अपने हाथ से ही रोटी बनानी पडती थी । दादा को रोटी बनाने में आधा घटा लगता था । दादा वोडिंगो की प्रथा को बहुत बुरी प्रथा समझते हैं, जिससे उनमें विलामिता घर कर जाती है । । 'मीर' साहव के मसर्ग में जो उन्हें काव्य-साहित्य का शौक हुआ मो हमेशा ही बना रहा। साथ ही ज्ञान की पिपामा जाग्रत हो गई । खुद सुन्दर कविता करने लगे, पर इससे अधिक अपने अन्य कवियो की कविताओ का उत्तम मशोधन करने का बहुत अच्छा अभ्यास हो गया । ग्रागे चलकर इस ग्रभ्यास की ऐसी वृद्धि हुई कि कई अच्छे कवि अपनी कविता का मशोधन कराने में प्रसन्नता का अनुभव करते थे । दादा का कहना है कि उनको कविता प्रयत्नपूर्वक वनानी पडती है । वे स्वभावत कवि नही है । इसलिए उन्होने बाद मे कविता लिखना वन्द कर दिया। वे 'प्रेमी' उपनाम से कविता करते थे और इसी नाम से वे प्रसिद्ध हो गये । पर कविता के सशोधन और दोष-दर्शन में जितनी कुलता उन्हें हासिल है, उतनी कुछ इने-गिने लोगो को होगी । कही कोई शब्द वदलना हो, कही कोई काफिया ठीक न बैठता हो तो वे तुरन्त नया शब्द सुझा देते है और काफिये को ठीक कर देते हैं । ( इमी ममय एक अखवार में विज्ञापन निकला कि 'वम्बई - प्रान्तिक-दिगम्बर जैन सभा' को एक क्लार्क की जरूरत है । दादा ने अपना आवेदन-पत्र इस जगह के लिए भेज दिया । उनका आवेदन मजूर हुआ और बम्बई आने के लिए सूचना आ गई । पर आप जानते हैं कि उनका आवेदन मजूर होने का मुख्य कारण क्या था ? आवेदन-पत्र तो वहुतो ने भेजे थे, पर उनका श्रावेदन मजूर होने का मुख्य कारण उनकी हस्तलिपि की सुन्दरता थी । श्राजकल लोग हम्त लेख को सुन्दर बनाने पर बहुत कम ध्यान देते है । दादा के मोती मरीखे जमे हुए अक्षर ग्राज भी वहुतो का मन हरण कर लेते है । 'दादा के अक्षर सुन्दर न होते तो उनका वम्बई ग्राना न होता और न 'हिन्दी-ग्रन्थ - रत्नाकर' का उनके हाथो जन्म ही होता । वचपन मे उन्होने अपनी हस्तलिपि को सुन्दरता के लिए काफी प्रयत्न किया था श्रीर कस्वे के सरकारी स्कूल के सारे तख्ते उन्हीं के हाथ के लिखे थे । श्रकसर देखा जाता है कि जिन लडको के अक्षर अच्छे होते है, वे पढने में पिछड़े होते हैं, पर दादा अपनी कक्षा में हमेशा पहले दो लडको में रहे । वैम्बई में ग्राकर उन्हें अपनी शक्तियो के विकास का भरपूर अवसर मिला । यहाँ आते ही उन्होने सम्कृत, बँगला, मराठी और गुजराती सीखना शुरु कर दिया । छ -मात घटे आफिस का काम करके बचत के समय में वे इन भाषाओं का अभ्यास करते थे । दफ्तर में एकमेवाद्वितीय थे । चिट्ठी-पत्री लिखना, रोकड मम्हालना और 'जैनमित्र' Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ प्रेमी-प्रभिनंदन-प्रय नामक मासिक पत्र के सम्पादन से लेकर पत्रो को लिफाफो मे बन्द करना, टिकट चिपकाना, डाकखाने मे जाकर डाल आने तक का काम उनका था और मिलता था उनको इसके बदले में सिर्फ पच्चीस रुपया माहवार जिस काम को उन्होने अकेले किया, उसी के लिए बाद में कई आदमी रखने पडे ।। अपने नौकरी के जीवन की सबसे स्मरणीय वात जो दादा सुनाते है, वह यह कि जब कभी जितनी भी तनख्वाह उन्हें मिली, हमेशा उससे उन्हें बेहद सन्तोष रहा । उन्होने हमेशा यही समझा कि मुझे अपनी लियाकत से बहुत ज्यादा मिल रहा है। कभी तनख्वाह बढवाने के लिए कोई कोशिश नहीं की और न कभी किसी से इसकी शिकायत की, पर साथ ही अपनी योग्यता बढाने की सतत कोशिश करते रहे। एक सामाजिक नौकरी करते हुए भी कभी किसी सेठसाहूकार की खुशामद नही की और हमेशा अपने स्वाभिमान की रक्षा करते रहे। स्वाभिमान पर चोट पहुंचते ही उन्होने नौकरी छोड दी। जिन सेठ साहब की देख-रेख में दादा काम करते थे, उनके कुछ लोगो ने कान भरे कि दादा रोकड के रुपयो मे से कुछ रुपये अपने व्यक्तिगत काम मे ले आते है। एक दिन मेठ साहब अचानक दफ्तर में आ धमके और बोले कि तिजोरी खोलकर बताओ कि कितने रुपये है। दादा ने तिजोरी खोलकर रुपये-पाने-पाई का पूरा-पूरा हिसाब तुरन्त दे दिया और फिर तिजोरी की चावी उन्ही को देकर बाहर चले गये और कह गये कि आपको मेरा विश्वास नहीं रहा। इसलिए अब मैं यह नौकरी न करूंगा। आप दूसरा आदमी रख लीजिए । बहुत आग्रह करने पर भी दादा ने नौकरी तो न की, पर 'जनमित्र' की सम्पादकी का काम करते रहे। उस समय वम्बई के जैनियो में प० पन्नालाल जी वाकलीवाल नामक एक त्यागी व्यक्ति थे। उन्होने आजन्म समाज-सेवा का, विशेप करके जैन-साहित्य की सेवा का, व्रत लिया था और आजन्म अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा की थी। वे लोगो में 'गुरुजी' के नाम से प्रसिद्ध थे और अपने जमाने मे जैन समाज के इने-गिने विद्वानो में से थे। वे बहुत वर्ष बगाल के दुर्गापुर (रंगपुर) नामक स्थान में अपने भाई की दुकान पर रहे थे और दादा ने उनसे बगाली भाषा सीख ली थी। दादा पर उनके चरित्र का, उनकी निस्पृहता का और समाज-सेवा की भावना का भी वडा गहरा असर हुआ और उनसे उनका सम्बन्ध प्रगाढ होता गया। उन्होने जैनियो मे शिक्षा के प्रसार के लिए और जैन-ग्रन्थो के प्रकाशन के लिए 'जन-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय' नामक एक प्रकाशन-सस्था की स्थापना की थी। इसमे 'जैन-हितैषी' नाम का एक मासिक पत्र प्रकाशित होता था और बहुत-सी जैन-पुस्तके प्रकाशित हुई थी। दादा ने भी धीरे-धीरे उनके इस काम में हाथ बटाना शुरू किया। दादा की योग्यता और परिश्रम का गुरुजी पर बडा प्रभाव पडा और थोडे ही समय बाद वे सारा काम दादा को सौंपकर चले गये। पहले दादा को अपने परियम के बदले मे कितावो की विकी पर कुछ कमीशन मिलता था। कुछ दिनो वाद 'जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय में दादा का आधा हिस्सा कर दिया गया। यहां इतना कह देना आवश्यक है कि 'जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय मे कितावो की शक्ल मे जो पूंजी थी, वह अधिकाश कर्ज की थी, जिसका व्याज देना पड़ता था, पर जिनकी वह पूंजी थी वे ऐसे व्यक्ति नहीं थे, जो एकाएक कभी आकर अपने रुपये तलब करने लगे। वाद मे दादा ने और छगनमलजी ने यह सारा रुपया 'कमाकर चुकाया। कुछ दिन बाद गुरूजी ने अपनी जगह पर अपने भतीजे श्री छगनमलजी वाकलीवाल को रख दिया। दादा और छगनमलजी दोनो मिलकर जैन-प्रन्यो के प्रकाशन मे जुट गये। दुकान का प्रवन्ध-सम्बन्धी सारा काम छगनमल जी सम्हालते थे और ग्रन्थो का सम्पादन, मशोधन और 'जैन-हितपी' के सम्पादन का काम दादा सम्हालते थे। इस समय करीव सास-पैसठ जैन-धर्म-सम्बन्धी ग्रन्थ प्रकाशित किये । 'जैन-हितैपी' ने ममाज में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा प्राप्त की। उमका सम्पादन इतना अच्छा होता था कि उस जमाने की 'सरस्वती' से ही उसका मुकाविला किया जा सकता था। कोई भी जातीय पत्र उसका मुकाबिला न कर सकता था। गुरूजी का सारा कर्ज धीरे-धीरे अदा कर दिया गया और योडा-सा खर्च जाकर जो वचने लगा सो प्रकाशन में ही लगने लगा। इरा ज़माने की सबसे ज्यादा स्मरणीय बात है स्वर्गीय भेठ माणिकचन्द्र पानाचन्द्र की सहायता । दिगम्बर Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ''हंदी -थ- रत्नाकर' और उसके मालिक १७ - समाज का जितना अधिक उपकार सेठ माणिकचन्द्र जी कर गये, उतना गायद ही किसी एक व्यक्ति ने किया हो । यह उपकार उन्होने कोई धर्मादा सस्थाओ को बहुत-सा रुपया देकर किया हो, सो वात नही । उन्होने जितनी सस्थाएँ क़ायम की उनका बहुत मुन्दर प्रवन्ध करके ही उन्होने वह कार्य किया । जितना काम उन्होने एक रुपये के खर्च मे किया, उतना दूसरे धनवान् व्यक्ति सौ रुपया खर्च करके भी न कर पाये । इम मफलता का रहस्य उनमे कार्यकर्ताओ के चुनाव की जो जवरदस्त गक्ति थी, उसमें निहित है। साथ ही और लोग जहाँ दान मे अपनी सारी सम्पत्ति का एक छोटा हिस्सा ही देते हैं वहाँ वे अपनी लगभग मारी सम्पत्ति दान में दे गये । वम्बर्ड का हीराबाग, जिसमें कि शुरु आज तक 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय' का दफ्तर रहा है, उनके दिये दान की एक ऐसी ही सस्था है । से जैन-ग्रन्थो के प्रकाशन में वे इम रूप में सहायता देते थे कि जो भी कोई उत्तम ग्रन्थ कही से प्रकाशित होता था, उसकी दो-तीन मौ प्रतियाँ एक साथ तीन वीयाई कीमत में खरीद लेते थे । प्रत्येक प्रकाशक के लिए यह बहुत काफी सहायता थी, जिसमे छपाई का करीब सारा खर्च निकल आता या । दादा को भी इस तरह काफी सहायता मिली । पुस्तक - प्रकाशन में सहायता का यह ढग इतना सुन्दर है कि दादा का कहना है कि अगर हिन्दी में उत्तम पुस्तको के प्रकाशन को प्रोत्साहन देने के लिए यह ढग अख्तियार किया जाय तो हिन्दी - माहित्य की बहुत कुछ कमी वात-की-वात दूर हो सकती है । इसमें लेखक और प्रकाशक दोनो को उत्साह मिलता है । सिर्फ लेखको को पुरस्कार देने की अथवा प्रकाशन के लिए नई प्रकाशन-मस्थाएँ खोलने की जां रीति है, उसमें खर्च के अनुपात से लाभ नही होता | हिन्दी में अविकारी लेखको का अभाव नही हैं, पर प्रकाशको का ज़रूर प्रभाव है । जवनक विकने की आशा न हो तबतक प्रकाशक ग्रच्छी पुस्तके निकालते सकुचाते हैं । पुस्तक अच्छी होगी तो लेखक ज़रूर पुरस्कार प्राप्त करेगा, पर प्रकाशक को उसमे क्या लाभ होगा ? यूरोप की तरह यहाँ तो पुरस्कार की बात सुनकर उस लेखक की पुस्तक लेने को तो दौडेंगे नही । ऐसी परिस्थिति में या तो लेखक को स्वय ही प्रकाशक वनकर पुस्तक छपानी पडती है और यह वह नभी करता है जव कि उसे पुरस्कार प्राप्त करने का निश्चय होता है और या किसी प्रकाशक को किसी तरह राज़ी कर पाता है । पर प्रकाशक इस तरह राजी नही होते । वे हमेशा कुछ टेढे तरीके से लाभ उठाने की बात सोचते हैं और प्राय इस तरह कालेजो के प्रोफेसरों की और टेक्स्ट- चुक कमेटी के मैम्बरो की ही कितावे छप पाती है । अन्य योग्य लेखक यो ही रह जाते है । नई सार्वजनिक प्रकाशन-सस्थाएँ खोलने पर प्रकाशन तो पीछे शुरू होता है, पर आफिस श्रादि का खर्च पहले ही होने लगता है और जितना खर्च वास्तविक कार्य के पीछे होना चाहिए, उसमे ज्यादा खर्च ऊपर के ग्राफिम आदि के ऊपर होता है और कही उसने पत्र निकाला और प्रेस किया तो समझिये कि वह विना मौत ही मर गई । पुरानी प्रकाशन -सस्याओ के होते हुए नई प्रकाशन सस्थाएँ पैदा करना दोनो को भूखा मारने के वरावर होता है और असगठित रूप से नये-नये प्रकाशक रोज होने से न उनकी पुस्तको की बिक्री का ठीक संगठन ही होता है और न पढने वाली को पुस्तकें मिल पाती है । स्वर्गीय सेठ माणिकचन्द्र जी के प्रति दादा का जो कृतज्ञता का भाव था, उससे प्रेरित होकर उनके स्वर्गवास के वाद उन्होने 'माणिकचन्द्र- दिगम्बर जैन ग्रन्थ- माला' नाम की सस्था खडी की, जिसका कार्य मस्कृत, प्राकृत र अपभ्रग भापाग्रो के लुप्तप्राय प्राचीन जैन-ग्रन्थ सुसम्पादित रूप मे प्रकाशित करना है । इस समय तक इसमे सिर्फ are हज़ार का चन्दा हुआ है और चालीस ग्रन्थ निकल चुके है। दादा इस माला के प्रारम्भ से ही अवैतनिक मन्त्री रहे है और उसका कार्य इस बात का उदाहरण रूप रहा है कि किस प्रकार कम-से-कम रुपये में अधिक-से-अधिक र अच्छे से अच्छा काम किया जा सकता है, क्योकि ग्रन्थो की कीमत लागत मात्र रक्खी जाने के कारण और एक-मुश्त सौ रुपया देने वालो को मारे ग्रन्थ मुफ्त दिये जाने के कारण विक्री के रूप में मूल रकम वसूल करने की श्रागा ही नही की जा सकती। बहुत से ग्रन्थो का सम्पादन दादा ने खुद ही किया है और बहुतो का दूसरो के साथ और शेष का ग्रच्छे आदमियों को चुनकर करवाया है। पहले तो इस कार्य के योग्य विद्वानों का ही प्रभाव था। बाद मे जब विद्वान मिलने रुपयो का प्रभाव हो गया। यहाँ इतना कहना जरूरी है कि अपने प्राचीन ग्रन्थ प्रकाशित करने की थोर ३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन ग्रंथ दिगम्बर-जैन-समाज का बहुत ही दुर्लक्ष्य है । वडी मुश्किल से उसके लिए रुपया मिलना है । प्राचान जन-शतहास का अध्ययन और इन ग्रन्थो के सम्पादन में दिलचस्पी के कारण दादा को सस्कृत, प्राकृत और अपभ्रम भाषाग्रो का इतना काफी ज्ञान हो गया है कि इन भाषाओ के बडे-बडे विद्वान् उनकी वाक मानते है । ब्रज भाषा का सुन्दर ज्ञान तो दादा को अपने कवि-जीवन मे ही है । १८ 'जैन - हितैषी' का सम्पादन करते हुए और जैन -पुस्तको का प्रकाशन करने हुए दादा हमेगा बँगला, मराठी, गुजराती श्रौर हिन्दी की बाहरी पुस्तके बहुत कुछ पढा करते थे । इन सब के साहित्य को पढकर उन्हे यह बात बहुत खटकती थी कि हिन्दी में अच्छे ग्रन्थो का अभाव है और ये भाषाएँ बरावर आगे वढ रही है । उस समय उनके पढने म प० महावीर प्रसाद जी द्विवेदी द्वारा अनुवादित जॉन स्टुआर्ट मिल का प्रसिद्ध ग्रन्थ 'लिबर्टी' आया, जो 'स्वाधीनता' के नाम से स्वर्गीय प० माघव राव सप्रे की 'हिन्दी -ग्रन्थ प्रकाशन -मडली' से प्रकाशित हुआ था । उसे पढकर दादा की इच्छा हुई कि इसकी सौ-दोमो प्रतियां लेकर जैनियो मे प्रचार करे, ताकि उनकी कट्टरता कम हो और वे विचारस्वातन्त्र्य का महत्त्व समझे । पर तलाश करने पर मालूम हुआ कि वह ग्रन्थ अप्राप्य है । तव इसके लिए उन्होने द्विवेदी जी को लिखा । उस समय तक दादा को गुमान भी नही था कि वे किसी दिन हिन्दी के भी प्रकाशक बनेगे । उन्होने तो अपने कार्यक्षेत्र को जैन ग्रन्थो के प्रकाशन और जैन समाज की मेवा तक ही सीमित रख छोड़ा था । द्विवेदीजीने बताया कि गवर्नमेंट देशी भाषात्रो मे इस तरह का साहित्य छापना इप्टकर नही समझती । इसलिए इसके प्रकाशन मे जोखम है । पर दादा राजनैतिक साहित्य खूव पढते थे और उन्हे वडा जोग या । उन्होने उसे छापने का बीडा उठा लिया | प्रेस सम्बन्धी कठिनाइयाँ भाई, पर वे हल हो गई और द्विवेदीजी के आशीर्वाद और उनकी 'स्वाधीनता' के प्रकाशन से ता० २४ सितम्बर १९१२ को 'हिन्दी - ग्रन्थ- रत्नाकर -ग्रन्थमाला' का जन्म हुआ । 'हिन्दी - ग्रन्थ - रत्नाकर' सबसे पहली ग्रन्थमाला थी, जो हिन्दी मे प्रकाशित हुई । मराठी वगैरह भाषाओ मे उस समय कई ग्रन्थमालाएँ निकल रही थी । उन्ही के अनुकरण में इन्होने भी स्थायी ग्राहक की फीस आठ आना रक्खी, जो पोस्टेज वढ जाने के कारण वाद में एक रुपया कर दी गई। यह ग्रन्थ-माला हिन्दी में सब तरह का माहित्य देने के उद्देश्य से निकाली गई थी । उस समय लोगो मे यह भावना थी कि हिन्दी मे जो भी नवीन साहित्य छपे, मव खरीदा जाय, क्योकि उस समय हिन्दी में नवीन साहित्य था ही कितना । उस समय लोगो में साहित्य को अवलम्वन देने का भाव भी था । इसलिए धीरे-धीरे माला के डेढ दो हजार ग्राहक आसानी से हो गये और हरेक पुस्तक का पहला सस्करण दो हजार का निकलने लगा । लगभग डेढ हज़ार तो पुस्तक निकलते ही चली जाती थी, वाकी धीरे-धीरे विकती रहती थी । समालोचना का उन दिनो यह असर था कि 'सरस्वती' पुस्तक की सौ- डेढ सौ प्रतियाँ तुरन्त ही विक जाती थी और विज्ञापन का भी तत्काल असर होता था । महायुद्ध एक अच्छी समालोचना निकलते ही. जमाने में बारह ग्राने पौण्ड का कागज खरीद कर भी ग्रन्थमाला वरावर चालू रक्खी गई। पर इस जमाने का लाभ के दादा वहुत समय तक और पूरा न ले सके। कई सस्त और लम्बी बीमारियाँ उन्हें झेलनी पडी । साथ ही उन्हें जैनसमाज की और साहित्य की सेवा करने की घुन ज्यादा थी । ज्यादा वक्त ऐतिहासिक लेस लिखने और 'जैन- हितैषी' के सम्पादन में खर्च होता था । जितना परिश्रम और खर्च उन्होने 'जैन - हितैषी' के सम्पादन में किया, उसमे श्राधे परिश्रम में हिन्दी का अच्छे से अच्छा मासिक पत्र चलाया जा सकता था और सम्पादक और लेखक के तौर पर वडा कमाया जा सकता था। सिवाय इसके विज्ञापन का एक बहुत सुन्दर साधन भी वन सकता था । पर इस सव समाज के लिए की गई मेहनत का परिणाम क्या हुआ है ? दादा तब उग्र और स्वतन्त्र मिजाज के व्यक्ति थे। किसी से भी दवना उनके स्वभाव के खिलाफ था और ऐसी व्यग और कटाक्ष भरी लेखनी थी कि जिसके खिलाफ लिखते थे उसकी शामत श्रा जाती थी। इसके सिवाय सेठ लोगो के वे हमेशा खिलाफ लिखते थे। पहले 'जैन-हितैषी' की ग्राहक-सख्या खूब बढी । इतनी बढी कि जैन समाज मे किसी भी सामाजिक पत्र की कभी उतनी नही हुई । दादा के विचार प्रत्यन्त सुधारक थे और छापे का प्रचार, विजातीय विवाह वगैरह के कई श्रान्दोलन उसमे शुरू Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी-प्रथ-रत्नाकर' और उसके मालिक किये, पर जब उन्होने विधवा-विवाह के प्रचार का आन्दोलन उसमें शुरू किया तो उसका चारो ओर से बहिष्कार प्रारम्भ हुआ। उसके विरुद्ध प्रचार करने के लिए कई उपदेशक रक्खे गये। इन सामाजिक लेखो के अलावा उसमे ऐतिहासिक लेख वहुत होते थे, जिनकी कीमत उस समय नही आंकी गई, पर उनके लिए आज उसके पुराने अको के . लिए सैकडो देशी और विलायती सस्थाएं दस गुनी कीमत देने को राजी है, लेकिन आज वे बिलकुल ही अप्राप्य है। विधवा-विवाह के प्रचार के लेख ही दादा ने नहीं लिखे, बल्कि अनेक विधवा-विवाहो में वे शामिल हुए और अपने भाई का भी विधवा-विवाह उन्होने कराया। परिणाम यह हुआ कि उन्हें कई जगह जाति से वहिप्कृत होना पडा तथा समाज में उनका सम्मान विलकुल ही कम हो गया, पर इससे वे जरा भी विचलित नहीं हुए। आखिर समाज को ही उनसे हार माननी पडी। पर हाँ, वीमारी और घाटे के सवव उस समय पत्र वन्द कर देना पड़ा। सब मिलाकर वह पत्र ग्यारह वर्ष चला। उसका सारा खर्च और घाटा 'जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय' खुद ही बर्दाश्त करता रहा। किमी से एक पैसे की सहायता नही ली। स्थायी ग्राहक बनने का सिलसिला तभी तक रहा, जबतक कि डाक-व्यय की दर कम रही। पहले एक-दो रुपये तक की वीपियो को रजिस्टर कराने की जरूरत नहीं होती थी और इसलिए जहां भी किसी एकाध रुपये की पुस्तक का भी विज्ञापन ग्राहक देखता था या समालोचना पढता था कि तुरन्त कार्ड लिखकर आर्डर दे देता था और बहुत कम खर्च में उसे घर बैठे पुस्तक मिल जाती थी। उस जमाने में इतने आर्डर आते थे कि उनकी पूर्ति करना मुश्किल था और छगनमल जी अन्य प्रकाशको की पुस्तके बेचने के लिए रखते नहीं थे। फिर भी साल में करीव पांच-छ हजार वीपियाँ जाती थी। यह वात 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' के पुराने रजिस्टरो से बखूबी सिद्ध की जा सकती है कि जिस अनुपात में डाक-व्यय की दर वढती गई, ठीक उसी अनुपात में जाने वाली वीपियो की सख्या घटती गई। दादा का ख्याल है कि अगर हमे देश मे स्थायी साक्षरता और सस्कृति का विस्तार करना है तो सबसे पहले पुस्तको के लिए पोस्टेज की दर कम कराने का आन्दोलन करना चाहिए । कांग्रेस का ध्यान भी इस तरफ पूरी तरह से नहीं खीचा गया है। चिट्ठियो और कार्यों पर डाक-महसूल की दर भले ही कम न हो, पर कितावो पर जरूर ही कम हो जानी चाहिए। अगर यह नहीं होगा तो कोई भी प्रान्दोलन सफल नहीं हो सकता। चाहे समाजवाद हो, चाहे राष्ट्रवाद हो और चाहे गाधीवाद, जवतक उसका साहित्य सस्ते पोस्टेज के द्वारा घर-घर न पहुँच सकेगा तवतक किसी मे सफलता न होगी। कितावो की कीमत सस्ती रखकर कुछ दूरी तक साहित्य के प्रचार में सहायता पहुंचाई जा सकती है, पर वह अधिक नहीं। एक रुपये की पुस्तक मंगाने पर अगर आठ-दस आने पोस्टेज में ही लग जावें तो पुस्तक के सस्तेपन से उसकी पूर्ति कैसे की जा सकती है ? ऐसी परिस्थिति मे तो सभी यह सोचेगे कि पुस्तक फिर कभी मंगा ली जायगी और फिर कभी का समय नहीं पाता। हाल मे ही 'मॉडर्न-रिव्यू' मे जव रामानन्द वाबू का पोस्टेज के बारे मे अमेरिका के प्रेसीडेंट रुजवेल्ट की डिक्री पर नोट पढा तब मुझे इसका ख्याल हुआ कि अमेरिका जैसे धनवान देश में किताबो के लिए डाकखाने ने पोस्टेज का रेट फी पौण्ड तीन पैसा (२ सेंट) रख छोडा है तब हिन्दुस्तान का चार पाने फी पौण्ड से ऊपर का रेट • कितना ज्यादा है। मेरे ख्याल से इसके लिए अगर एक बार सत्याग्रह आन्दोलन भी छेडा जाय तो भी उचित ही है। - पोस्टेज के रेट बढने पर धीरे-धीरे हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर-सीरीज़ के और उसके अनुकरण मे निकलने वाली अन्य मालाओ के ग्राहक टूट गये । वाद को सव ने बहुत कोशिश की, नियमो मे वहुत-सी ढील डाली गई, पर कोई स्थायी लाभ नही हुआ। इस तरह पुस्तक-बिक्री का पुराना सगठन नष्ट हो गया और नया पैदा भी नहीं होने पाया । साहित्यिक पुस्तको की विक्री के लिए बडे-बडे शहरो में भी अवतक कोई उचित प्रबन्ध नही हो सका है और होना वडा मुश्किल है, क्योकि साहित्यिक पुस्तको की इतनी विक्री अभी बहुत कम जगह है कि उससे किसी स्थानीय पुस्तकविक्रेता का पेट भर सके। फिर कमीशन की नियमितता ने इसकी जो कुछ सम्भावना थी उसे भी नष्ट कर दिया है। स्कूली पुस्तकें बेचने वाले विक्रेता सब जगह है, धार्मिक और बाज़ारू पुस्तके बेचने वाले भी है, पर वे साहित्यिक पुस्तकें रखना पसन्द नहीं करते । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ खैर, पोस्टेज की कमी के सवव से "हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' को अपनी उन्नति मे जो सहारा मिला, उसे तो हम निमित्त कारण कह सकते है, भले ही वह निमित्त-कारण कितना ही महत्त्वपूर्ण क्यो न हो । उमकी उन्नति के प्रमुख - कारण दूसरे ही है। मेरी समझ में नीचे लिखे कारण उसमे मुख्य है (१) ग्रन्यो का चुनाव-दादा अपने यहाँ मे प्रकाशित होने वाले ग्रन्यो का चुनाव वढी मेहनत से करते हैं। प्रकाशनार्थ जितने अन्य हमारे यहां आते है, उनमें से सो मे मे पिचानवे तो वापिस लौटा दिये जाते है। फिर भी लोग वहुत ज्यादा अपनी पुस्तके दादा के पास भेजते है। हिन्दी मे अन्य प्रकाशको के यहां ने प्रकाशित हो जाने वाली अनेक पुस्तके ऐमी होती है जो हमारे यहाँ से वापिस कर दी गई होती है। चुनाव के वक्त दादा नीन बातो पर ध्यान देते हैं (अ) प्रथम श्रेणी की पुस्तक हो, चाहे उसके विकने की आशा हो, चाहे न हो। (मा) पुस्तक मध्यम श्रेणी की हो, मगर ज्यादा विकने की आशा हो । (इ) लेखक प्रतिभाशाली हो तो उसे उत्साह देने के लिए। (अधम श्रेणी की किताब को, चाहे उसके कितने ही विकने की आगाहो, वे कभी नही पकागित करते। सचित प्रलोभन देकर जो लोग अपनी पुस्तक प्रकाशित करवाना चाहते है, उनकी पुस्तक वे कभी नही छापते। एक दफे की बात मुझे याद है कि एक महाशय ने, जिनका हिन्दी माहित्य-सम्मेलन के परीक्षा-विभाग मे सम्बन्ध था, दादा को पत्र लिखा कि में अपना अमुक उपन्यास और कहानी-संग्रह आपको भेज रहा हूँ। इसे आप अपने यहां से प्रकाशित कर दीजिए। मैं भी आपके लिए काफी कोशिश कर रहा हूँ। आपकी नीन पुस्तके मै मध्यमा के पाठ्यक्रम में लगा रहा हूँ। कहना न होगा कि दादा ने उनका उपन्यास और कहानी-संग्रह वैरगही वापिस भेज दिया। सम्मेलन का पाठ्यक्रम छाते-छपते उसमे से भी पाठ्यक्रम में लगी पुस्तको के नाम गायव हो गये। बाद में कभी भी दादा की कोई पुस्तक नहीं ली। (२) उत्तम सशोधन और सम्पादन-हिन्दी के बहुत से प्रसिद्ध लेखक अवतक भी शुद्ध भापा नहीं लिवते। कुछ दिन हुए एक पुराने लेखक ने हमारे यहां एक पोयी छपने भेजी थी, जिसमे हिन्दी की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तको में की व्याकरण और रचना-सम्बन्धी हजारो गलतियाँ सगृहीत की गई थी, पर उस पोथी को दादा ने छापा नहीं। जो भी पुस्तके "हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' से प्रकाशित होती हैं, उनका सशोधन वडे परिश्रमपूर्वक किया जाना है और अन्तिम प्रूफ लेखक की सम्मति के लिए रसके पास भेज दिया जाता है। मशोधन में इस बात का ध्यान रक्खा जाता है कि उससे लेखक की लेग्वन-शैली में फर्क न होने पावे। सशोधन मे दादा ने स्वर्गीय प० महावीर प्रसाद जी द्विवेदी के ढग को बुरी तरह अपना लिया है। जान स्टुअर्ट मिल को द्विवेदी जी ने जिस तरह मशोधित किया था उसे दादा ने अपने मानस-पटल पर रख छोडा है। अनुवाद-ग्रन्थो के प्रकाशित करने के पहले मूल से अक्षर-प्रक्षर दादा अपने हाथ से मिलाते है या मुझमे मिलवाते है। हिन्दी के प्रसिद्ध अनुवादक भी ऐमी भद्दी गलतियों करते है कि क्या कहा जाय। एक ही अनुवादक की 'हिन्दी-ग्रन्य-रत्नाकर' से निकली पुस्तक मे और अन्यत्र मे निकली पुस्तक मे बहुत बार बडा अन्तर दीव पडेगा। यह सब मेहनत करके भी सम्पादक या सशोधक के रूप में अपना नाम देने का दादा को शौक नहीं है। (३) छपाई-सफाई-कितावो की छपाई-सफाई अच्छी हो, इस पर दादा का वडा ध्यान रहता है। उनका . कहना है कि वम्बई में वे इसीलिए पडे रहे है कि यहाँ वे अपने मन की छपाई-सफाई करवा सकते है । एक दफे उन्होने घर का प्रेस करने का विचार किया था और विलायत को मशीनरी का आर्डर भी दे दिया। पर उसी समय दो ऐसी घटनाएं हो गई, जिन्होने उनके मन पर वडा अमर किया और तुरन्त ही उन्होने घाटा देकर प्रेस की मशीनें बिकवा दी। उस समय मराठी मे स्वर्गीय श्री काशीनाथ रघुनाथ मित्र का मासिक पत्र 'मनोरजन' वडा लोकप्रिय था और करीव पांच-छ हजार खपता था। उसे वे पहले 'निर्णय-सागर प्रेस में और वाद में 'कर्नाटक-प्रेस' में छपवाते थे। प्रेस में काम की अधिकता के कारण कभी-कभी उनका पत्र लेट हो जाता था। कर्नाटक प्रेम के मालिक स्वर्गीय श्री गणपति राव कुलकर्णी ने खाम उनके काम के लिए कर्ज लेकर एक बहुत बडी कीमत की मशीन मंगाई। इसी बीच में मित्र महागय को खुद ही अपना प्रेस करने की सूझी और उन्होने प्रेस कर लिया। प्रेस कर लेने के बाद वाहर के Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ हिंदी-ग्रंथ-रत्नाकर' और उसके मालिक २१ काम के लोभ के कारण और प्रेस पर ध्यान बट जाने के कारण 'मनोरजन' जहाँ पहले एकाध महीना लेट निकलता था वहाँ अव दो-दो महीने लेट निकलने लगा और कार्याधिक्य और चिन्ता के कारण उनकी मृत्यु हो गई। यहाँ कर्नाटक प्रेस की वह मशीन वेकार पड़ी रही और कर्ज को चिन्ता के मारे गणपति राव की मृत्यु हो गई । इन घटनाओ ने दादा पर वडा प्रभाव डाला। उन्होने प्रतिज्ञा की कि अपनी ज़िन्दगी में मै कभी प्रेस नही करूँगा। घर का प्रेस होने पर उममे चाहे छपाई अच्छी हो या बुरी अपनी पुस्तकें छापनी ही पडती है। दूसरे उस पर ध्यान बट जाने पर अपना सशोधन वगैरह का कार्य ढीला पड़ जाता है। तीसरे प्रेस को हमेशा काम देते रहने की चिन्ता के कारण अच्छी-बुरी मभी तरह की पुस्तके प्रकाशित करनी पडती है और इस तरह यश मे धव्वा लगता है । नियमित काम देने पर जोरेट किसी भी प्रेस से पाये जा सकते हैं वे हमेशा उससे कम होते है, जो रकम का व्याज वाद देने पर घरू प्रेस करने पर घर में पड़ सकते है। (४) सद्व्यवहार-दादा का व्यवहार अपने लेखको, अपने सहयोगी प्रकाशको और मित्रो मे अच्छा रहा है। इस व्यवहार की कुजी रही है गम खाना । पर वे कभी किसी ने दवे नहीं है, न कभी किसी की चापलूसी ही उन्होने की है । प्रकाशको को उन्होने अपना प्रतिस्पर्धी नहीं समझा । अनेक वार ऐमा'हुआ है कि कोई नई पुस्तक प्रकाशन के लिए आई है और उसी वक्त कोई प्रकाशक-मित्र उनके पास आये है । उन्होने कहा है कि यह पुस्तक तो प्रकाशन के लिए मुझे दे दीजिए और उसी वक्त खुशी-खुशी दादा ने वह पुस्तक उन्हें दे दी। कभी कोई पुस्तक खुद न छपा मके तो दूसरे प्रकाशको मे प्रवन्ध कर दिया। इसी तरह सव गर्ने त हो जाने पर लेखक का हक न रह जाने पर भी अगर कभी लेखक ने कोई उत्रित मांग की है तो उन्होने उमे तुरन्त पूरा किया है। किसी भी लेखक की कोई पुस्तक उन्होने दवाकर नहीं रक्खी । पढकर उसे नुरन्त वापिस कर दिया है। हमेगा उन्होने सव से निर्लोभिता और उदारता का व्यवहार रक्खा है। अन्त मे अव मै 'हिन्दी-ग्रन्य-रत्नाकर' की कुछ विशेषतायो का दिग्दर्शन कराना उचित समझता हूँ। 'हिंदी-ग्रन्थ-रत्नाकर' मे हिन्दी के अधिकाश लेखको की पहली चीजे निकली है । स्वर्गीय प्रेमचन्द्र जी की सबसे पहली रचनाएँ 'नव निधि' और 'मप्तसरोज' करीव-करीव एक साथ या कुछ आगे-पीछे निकली थी। जैनेन्द्र जी, चतुरसेन जी शास्त्री, सुदर्शन जी वगैरह की पहली रचनाएँ 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' से ही निकली। 'हिन्दी-ग्रन्थरत्नाकर' के नाम की इतनी प्रतिष्ठा है कि हम अपनी पुस्तके बेचने के लिए न आलोचको की खुशामद करनी पडती है और न विशेप विज्ञापन ही करना पडता है । 'हिन्दी-अन्य-रत्नाकर' का नाम ही उसके लिए उत्तम चीज़ का प्रत्यय होता है । लेखक की पहले से विशेष प्रमिहि हो, इसकी भी जरूरत नहीं होती। हमारे यहाँ आकर लेखक अपने आप प्रसिद्ध हो जाता है । आलोचनार्थ पुस्तके भी हमारे यहाँ से बहुत कम भेजी जाती है। हिन्दी के बहुत से बडे आदमी अपना हक समझते है कि आलोचना के बहाने उन्हें मुफ्त मे कितावें मिला करे। ऐसे लोगो से दादा को बडी चिढ है । उन्हें वे शायद ही कभी किताव भेजते है । पत्रो के पास भी आलोचना के लिए किनावें कम ही भेजी जाती है। पहले जव आलोचनायो का प्रभाव था और ईमानदार समालोचक थे तव जरूर दादा उनकी बडी फिक्र करते थे और आलोचनामो की कतरने रखते थे और सूचीपत्र में उनका उपयोग भी करते थे। अब केवल खास-खास व्यक्तियो को, जिन पर दादा की श्रद्वा है, आलोचना के लिए किताबें भेजी जाती है । इसकी जरूरन नही समझी जाती कि वह आलोचना किमी पत्र में छपे । उनका हस्तलिखित पत्र ही इसके लिए काफी होता है और जरूरत पड़ने पर उसका विज्ञापन में उपयोग कर लिया जाता है । वम्बई] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा सद्भाग्य श्री जैनेन्द्रकुमार प्रेम का नाम बहुत छुटपन मे पुस्तको पर देखा था । उसी आधार पर सन् '२६ मे अपनी 'परख' उनके पास भेजने का साहस कर बैठा । साहस को समझाना मुश्किल है। में लेखक न था और इस कल्पना से ही जी सहम जाता था कि किताब छप सकती है। किताबो पर छपे लेखको के नाम अलौकिक लगते थे और प्रकाशको के बारेमे तरह-तरह की कथाएँ सुनी थी। तो भी प्रेमीजी के नाम पर मन में साहस बांधकर मैंने लिखे कागजों का पुलिन्दा बम्बई भेज दिया । जानता था कि कुछ न होगा। किताव तो छपेगी ही नही, उत्तर भी न आयेगा। एक नये प्रकाशक । यही कागज छ महीने पडे रहे थे 'हिन्दी - अन्य - रत्नाकर' तो उन्हें पूछेगा ही क्यो ? पर चौथे रोज पाण्डुलिपि की पहुँच श्रा गई । पत्र खुद प्रेमीजी के हाथ का था । लिखा था कि जल्दी पुस्तक देखकर लिखूंगा। चार-पाँच रोज and - न-बीतते दूसरा पत्र या गया कि पुस्तक को छापने को तैयार है श्रोर श्रमुक महीने में प्रेस में दे सकेगे। वात उतनी ही लिखी गई, जितनी की गई और समय का अक्षरश पालन हुआ । - इस अनुभव ने मुझे बडा महारा दिया। मैं जगत् को अविश्वास से देख रहा था। धारणा थी कि अपरिचित के लिए दुनिया एक बाज़ार है, जहाँ छल और सौदा है । अपने-अपने लाभ की सबको पडी है और एक का ख्याल दूसरे को नही है । लेखक और प्रकाशक के बीच में तो उस बाजार के सिवा कुछ है ही नही। लेकिन प्रेमीजी के प्रथम सम्पर्क ने मुझे इस नास्तिकता से उवार लिया। उनकी प्रामाणिकता से मैने अपने जीवन में यह गम्भीर लाभ प्राप्त किया । इसके बाद से तो मैं उनका हो रहा । यह कभी नही सोचा कि अपनी किताब किसी और को भी जा सकती है । अपना लिखा उन्हें सौप कर खुद में निश्चिन्त रहा। लिखी सामग्री कब छपती है, कैसे छपती है, कैमी विकती है और क्या लाभ लाती है, इधर मैने ध्यान ही नही दिया। कभी इसमें शका नही हुई कि उनके हाथो मेरा हित उससे अधिक सुरक्षित है कि जितना में खुद रख सकता हूँ । लोग है जो बाजार में नही है और नीतिनिष्ठ है । लेकिन दुकान लेकर यह अत्यन्त दुर्लभ है कि सामने की अज्ञानता का लाभ लेने से चूका जाय । व्यवसाय मे यह अन्याय नही है और कुशलता है । व्यवसाय किया ही द्रव्योपार्जन के लिए जाता है । कर्म कौशल के तारतम्य से ही उसमें लाभ-हानि होती है। हानि वाला ग्रपने को ही दोप दे सकता है और लाभ जो जितना कर लेता है, वह उसकी चतुराई है । व्यवसाय में इस तरह मानो एक अटूट 'कर्मसिद्धान्त' व्याप्त है । जो जितनी ऊँची कमाई करता है, कर्म की दृष्टि से वह उतना ही पात्र है । उसे अपने का ही इस रूप मे फल भोग मिलता है । शुभ कर्मो उसी बाजार मे दूसरे के हित का यथोचित मान करने वाली प्रामाणिकता एक तरह श्रकुशलता भी है। पर देखते है कि प्रेमीजी ने मानो उस श्रकुशलता को स्वेच्छा से स्वीकार किया है । पहली पुस्तक 'परख' सन् '३० मे छप श्रई । मैं तब जेल में था । वहाँ प्रेमीजी की ओर से तरह-तरह की पुस्तकें मुझे भेजी जाती रही । परोक्ष के परिचय मे से ही इस भाँति उनका वात्सल्य और स्नेह प्रत्यक्ष होकर मुझे मिलने लगा । जेल के बाद कराची - काग्रेस से उसी स्नेह में खिचा में बम्बई जा पहुँचा । मेरे जेल रहते प्रेमीजी खुद मेरे घर हो आये थे । लेकिन मेरे लिए बम्बई में उनका यह प्रथम दर्शन था । पर साक्षात् के पहले ही रोज़ से उनके यहाँ तो मैने अपने को घर में पाया । क्षण को भी न अनुभव किया कि महमान हूँ या पराया हूँ । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरा सद्भाग्य २३ वहाँ उनके काम करने का ढंग देखा । एक शब्द में, अथ से इति तक, वह प्रामाणिक है । मालिक से अधिक वह श्रमिक है । पूरा-पूरा लाभ मालिक को आता है । इसलिए अचरज नही कि मालिक भी श्रम पूरा-पूरा करे। लेकिन नही, प्रेमीजी की बात और है। श्रम उनके स्वभाव मे है । मालिको की अक्सर नीति होती है काम लेना । बडे व्यवसायी और उद्योगपति इस करने की जगह काम लेने की नीति से वडे बनते है । वे श्रम करते नही, कराते है और सवके श्रम के फायदे का अधिक भाग अपने लिए रखते है । व्यवस्थापक इस तरह अधिकाश श्रमिक नही होते, चतुर होते हैं । प्रेमीजी की - त्रुटि कहिए कि विशेषता कहिए, वे वडे व्यवसायी नही है और नही हो पाये । कारण, वे स्वय औरो से अधिक श्रम करने के आदी और अभ्यासी है । पुस्तक उनके हाथो आकर सदोष नही रह सकती । भाषा देखेंगे, भाव देखेंग, पक्चुएशन देखेगे और छपते समय भी छपाई और गैटप आदि का पूरा ध्यान रक्खेगे । कही किसी ओर प्रमाद नही रह पायगा । अपनी पुस्तक के सम्वन्ध में इतनी सावधानी और सयत्नता रखने वाला प्रकाशक दूसरा मेरे देखने में नही आया । वस, उनके लिए घर और दुकान | दुकान से शाम को घर और घर से सवेरे दुकान । इस स्वधर्म की मर्यादा से कोई तृष्णा उन्हें बाहर नही ला सकी । यही सद्गृहस्थ का आदर्श है । वेशक वह आदर्श आज की परिस्थिति की माँग में कुछ श्रोछा पडता जा रहा है, लेकिन अपनी जगह उसमें स्थिर मूल्य है और प्रेमीजी उस पर अत्यन्त सय • डिग भाव से कायम रहे है। घर-गिरिस्ती में अपने को वाँटकर रहना, शेष के प्रति सद्भाव रखना और न्यायोपार्जित द्रव्य के उपभोग का ही अपने को अधिकारी मानना, सद्गृहस्थ की यह मर्यादा है । प्रेमीजी का गुण-स्थान वही है और भावना से यद्यपि वे ऊँचे पहुँचते रहे, व्यवहार में ठीक वही रहे । उससे नीचे मेरे अनुमान में कभी नही उतरे । उनका प्रारम्भ जैन जिज्ञासु के रूप से हुआ, लेकिन साम्प्रदायिकता ने उन्हें नही छुन । जैनत्व मे नात्मिक और मानसिक के अलावा ऐहिक लाभ लेने की उन्होने नही सोची । धर्म से ऐहिक लाभ उठाने की भावना से व्यक्ति साम्प्रदायिक बनता है । वह वृत्ति उनमें नही हुई, फलत हर प्रकार का प्रकाश वह स्वीकार करते गये । उनकी जिज्ञासा बन्द नही हुई, इससे विकास मन्द नही हुआ। सहानुभूति फैलती गई और सत्साहित्य की पहचान उनकी सहज और सूक्ष्म होती चली गई। उनकी यही प्रान्तरिक वृत्ति कारण थी कि विना कही पढे अपने व्यवसाय में रहते सहते विविध विषयो का गम्भीर ज्ञान वह प्राप्त कर सके और निस्सन्देह एक से अधिक विषयों के ऊँची-से-ऊँची कोटि के विद्वानों के समकक्ष गिने जाने लगे । वह ज्ञान उनमें सचित न रहा, उन्हें सिद्ध हो गया । उसे उन्हें स्मरण न रखना पडा, वह आप ही समुपस्थित रहा । इसी में उनके स्वभाव की प्रामाणिकता मा मिली तो उनकी सम्मति विद्वानो के लिए लगभग निर्णीत तथ्य का मूल्य रखने लगी । कारण, इनके कथन में पक्ष न होता, न आवेश, न श्रुतिरजन, न प्रत्युक्ति । एक बात का मुझ पर गहरा प्रभाव पडा है । अपने को साधारण से भिन्न समझते मैने उन्हें कभी नही देखा । कभी उन्होने अपने मे कोई विशिष्टता अनुभव नही की । इस सहज निरभिमानता को मैं अत्यन्त दुर्लभ और महान गुण मानता हूँ । मेरे मन तो यही ज्ञानी का लक्षण है । जो अपने को महत्त्व नही देता, वही इस अवस्था में होता है कि शेप सबको महत्त्व दे सके। इस दृष्टि से प्रेमीजी को जब मैने देखा है, विस्मित रह गया हूँ । उनकी इस खुली निरीह साधारणता के समक्ष मैने सदा ही भीतर से अपने को नत मस्तक माना है और ऐसा मानकर एक कृतार्थता भी अनुभव की है । ऐसा अनुभव इस दुनिया में अधिक नही मिलता कि जहाँ सब अपने-अपने को गिनने के आदी और बाकी दूसरो को पार कर जाने के श्राकाक्षी है । उनकी सहज धर्म-भीरुता के उदाहरण यत्रतत्र अनेक मिलेगे । एक सज्जन ने हिसाब में भूल से एक हज़ार की रकम ज्यादा भेज दी । वह जमा हो गई और हिसाब साल पर साल आगे आता गया । तीन-चार साल हो गये । दोनो तरफ खाता वेवाक समझा जाता था । एक असें वाद पाया गया कि कंही से एक हज़ार की रकम बढती है । खोज-पडताल की गई । बहुत देखने पर पता चला कि अमुक के हिसाव मे वह रकम ज्यादा आ गई है । तुरन्त उन Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन ग्रंथ २४ सज्जन को लिखा गया कि वह कृपया अपना हिसाव देखे । माधारणत उन सज्जन ने लिख दिया कि हिमाव तो साफ हैं और वाक़ है, लेकिन प्रेमीजी की ओर से उन्हें मुझाया गया कि तीन-चार वर्ष पहले की हिमाव वही देसे, हमारे पास एक हजार की रकम ज्यादा या गई हैं। इस तरह अपनी चोर से वढी रकम को पूरे प्रयत्न मे जानने के बाद कि वह यथार्थ में किसकी है और मालूम होने पर तत्काल उमे उन्ही को लोटाये बिना प्रेमीजी ने चैन नही लिया । यह श्रप्रमत्त ईमानदारी सावना से हाथ आती है । पर प्रेमीजी का वह स्वभाव हो गई है । उनका जीवन अन्दर से धार्मिक है । इसी से ऊपर से उतना धार्मिक नही भी दीखे । यह धर्म उनका श्वास है, स्वत्व नही । प्राप्त कर्तव्य मे दत्तचित्त होकर बाहरी तृष्णाओ और विपदाओ से प्रकुण्ठित रहे हैं । पत्नी गई, भर - उमर म पुत्र गया । प्रेमीजी जैमे सवेदनशील व्यक्ति के लिए यह वियोग किसी से कम दुम्मह नही था । इम विछोह की वेदना के नीचे उन्हें बीमारी भी भुगतनी हुई, लेकिन मदा ही अपने काम मे से वह धैर्य प्राप्त करते रहे । प्राप्त मे मे जी को हटा कर अप्राप्त ग्रथवा विगत पर उन्होने अपने को विशेष नहीं भरमाया । अन्त तक काम में जुटे रहे और भागने की चेष्टा नही की । मैंने उन्हें अभी इन्ही दिनो काम में व्यस्त देसा है कि मानो श्रम उनका धर्म हो और धर्म उनका श्रम | ऐमे श्रमशील और सत्परिणामी पुरुष के सम्पर्क को अपने जीवन में में अनुपम मद्भाग्य गिनता हूँ । दिल्ली ] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी भाषा के निर्देशक श्री किशोरीदास बाजपेयी मन् १९२० या '२१ में जलियांवाले वाग के सम्बन्ध में मैने एक आख्यायिका लिखी थी। एक प्रकार का उपन्याम कहिए। उसे प्रकाशनार्य “हिन्दी-ग्रन्य-रत्नाकर-कार्यालय" (वम्बई) को भेजा। उत्तर मे श्री नाथूराम जी प्रेमी ने लिखा "आपकी चीज़ अच्छी है, पर हम प्रकाशित न कर सकेंगे। हमारे यहां से स्थायी साहित्य ही प्रकाशित होता है। परन्तु आपकी भापा मुझे बहुत अच्छी लगी। एक शास्त्री की ऐमी टकसाली मरल भापा प्रशसनीय है। यदि आप कुछ जैन-ग्रन्यो के हिन्दी-अनुवाद कर दें तो मै भेज दूं। उन्हे 'जैन-ग्रन्य-रत्नाकर-कार्यालय' प्रकाशित करेगा। पहले प्रद्युम्न-चरित', 'अनिरुद्ध-चरित' तथा 'पार्श्वनाथ-चरित' का अनुवाद होगा। प्रति पृष्ठ एक रुपये के हिसाव से पारिश्रमिक दिया जायगा। इच्छा हो तो लिखें। आपकी लिखी पुस्तक वापिस भेज रहा हूँ।" इम पत्र से मैंने समझा कि लोग कैसी भापा पसन्द करते है। इससे पहले मुझे इमका ज्ञान न था। जैसी प्रवृत्ति थी, लिखता था। इससे मैने अपनी भाषा का स्वरूप सदा के लिए स्थिर कर लिया। इस प्रकार प्रेमीजी मेरी भाषा के दिशा-निर्देशक है। प्रेमीजी ने तीन ग्रन्थ मेरे पास भेजे। पहले मैंने 'प्रद्युम्न-चरित' और 'अनिरुद्ध-चरित' देखे। वैष्णव-भावना थी और इनके कथानक की कल्पना मुझे पसन्द नही आई, विशेषत रुक्मिणी के पूर्वजन्म की कथा । अत अनुवाद करने की मेरी प्रवृत्ति न हुई। वह मेरी भावुकता ही थी, अन्यथा आर्थिक लाभ और साहित्यिक जीवन के प्रारम्भ में नामार्जन, कुछ कम प्रलोभन न था। ___ मैने प्रेमीजी को लिख भेजा कि ग्रन्यो में कथानक-कल्पना मेरे लिए रुचिकर नही है। इसलिए अनुवाद में नहीं कर मकूँगा। इसके उत्तर में प्रेमीजी ने लिखा "आपने शायद ठीक नहीं समझा है । जैन-सिद्धान्त मे कर्म का महत्त्व बतलाने के लिए ही महापुरुपो के पूर्वजन्मो का वैसा वर्णन और क्रम-विकास है। आप फिर सोचें। मेरी समझ मे तो आप अनुवाद कर डालें। अच्छा रहेगा।" परन्तु फिर भी मेरी समझ मे न आया और मै अनुवाद करना स्वीकार न कर सका। इम पत्र-व्यवहार से मेरे ऊपर प्रेमीजी की गहरी छाप पडी। मैंने उनके मानसिक महत्त्व को समझा। आगे चलकर मेरी दो पुस्तके भी उन्होने प्रकाशित की, जिनमें से 'रम और अलकार' वम्बई सरकार ने सन् १९३१ मे जन कर ली, क्योकि उममें उदाहरण सव-के-सव राष्ट्रीय थे। पुस्तक तो जब्त हो गई, लेकिन पारिश्रमिक मुझे पूरा मिल गया। इस विषय में प्रेमीजी आदर्श है । मुझे तो पेशगी पारिश्रमिक भी मिलता रहा है । ____वास्तव में प्रेमीजी का जीवन ऐसी भावनाओ से परिपूर्ण है, जिनका चित्रण करना हर किसी के लिए सम्भव नही। मै प्रेमीजी को एक आदर्श साहित्य-सेवी और उच्च विचार का एक ऐसा व्यक्ति मानता हूँ, जिसके प्रति स्वत ही श्रद्धा का उद्रेक होता है। कनखल] Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० नाथूराम जी प्रेमी श्री श्रादिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये पडित प्रेमीजी एक सच्चे अन्वेषणकर्त्ता श्रौर साहित्य सेवी है । जिन्हें उनके निकट सम्पर्क में थाने का अवसर मिला है, वे उनकी तृप्त न होने वाली ज्ञान-पिपासा तथा विद्या-वृद्धि के लिए हार्दिक सचाई में तत्काल प्रभावित हुए होगे । अपने विचारो के प्रति उनमे हठधर्मी नही है और न नये ज्ञान का स्वागत करते हुए वे कही थमे है । उनका मस्तिष्क सदैव ताज्रा और चुस्त है । समस्त नवीन बातो का वे इच्छापूर्वक स्वागत करते है और एक खिलाडी की भाँति अपनी स्थिति की जांच-पडताल करते रहते है । उनके वृद्ध शरीर में युवा मस्तिष्क एव स्नेही हृदय निवास करता है और इन्हें क्रूर पारिवारिक दुर्घटनाओ तथा लम्बी-लम्बी बीमारियो के बाद भी उन्होने सुरक्षित रखा है। वे सच्चे कार्यकर्त्ताओ को और वढिया काम करने के लिए सदैव प्रोत्साहन देते हैं। उनका दृष्टिकोण व्यापक है और उनकी वृत्ति विश्व के प्रति मैत्री भाव से परिपूर्ण है । उनका स्वभाव निश्चित रूप मानवीय है । उनकी कृपा और आतिथ्य का द्वार उनके प्रेमियो तथा आलोचको के लिए भी हमेशा खुला रहता है। दोपो को वे घृणा की दृष्टि से देखते हैं, लेकिन दोपी के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करते है और उसके सुधार के निमित्त मन से प्रयत्न करते है । पुरातन और नवीन दोनो के प्रति वे सदैव विवेकपूर्णं सतुलन रखते है । नवीन अथवा पुरातन, दोनो में से किसी के प्रति भी उनमे कट्टरता नही है । वे नैतिकता एव उच्च मानवीय मूल्यों की कसौटी पर प्रत्येक चीज़ को कमकर देखते है। अपने शब्दो के प्रयोग मे वे बहुत नपे-तुले रहते हैं और जो कहते हैं, वही उनकी भावना भी होती है । से पति जो दुर्लभ गुणो के मूर्तिमान स्वरूप हैं और यही कारण है कि वे अनेको अन्वेपको और साहित्य सेवियो के सखा और मार्ग दर्शक है । कोल्हापुर ] देवरी ] जुग जुग जियहू [ प्रेमीजी के बाल-बन्धु की शुभ कामना ] , 'प्रेमी' प्रभु-पद-पद्म के, नेमी तत्त्व-विचार | जियहु- जियहु, जुग जुग जियहु, सह 'श्रावक' -आचार || - बुद्धिलाल 'श्रावक' Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैंतीस वर्ष श्री पदुमलाल पुन्नालाल वस्ती स्व. द्विवेदी जी मे लेकर जैनेन्द्र तक हिन्दी-साहित्य की जो विकास-गाथा है, उसी में प्रेमीजी के भी साहित्यजीवन की कया है। गत सैतीस वर्षों में देश में स्वाधीनता की जाग्रति के वाद लोगो ने अपनी यथार्थ स्थिति की समीक्षा की और उमी समीक्षा के वाद साम्यवाद को लेकर वर्तमान क्रान्ति-युग आया है। ये तीनो वाते स्वाधीनता, देशदर्शन और माम्यवाद के क्रमय प्रकाशन से प्रकट हो जाती है। कल्पना के क्षेत्र में प्रतिभा', 'नवनिधि', 'वातायन' और 'घृणामयों में हिन्दी के कथा-साहित्य को पूर्ण कथा है। इनके आदर्श में भी समाज की वही भावनाएं स्फुट हुई है। माहित्य के क्षेत्र में एक और मृजन का कार्य होता है और दूसरी ओर प्रचार का । सृजन-कार्य की महत्ता के विषय में किसी को भी सन्देह नहीं हो सकता, पर प्रचार का काम भी कम महत्त्व का नहीं है। जिन कलाकारो की सृष्टि देश और काल की मीमा को अतिक्रमण कर सदैव चिर नवीन बनी रहती है उनको भी प्रकाश मे लाने के लिए सुयोग्य प्रकागको की आवश्यकता होती है । यदि लेखको के प्रयास स्तुत्य है तो प्रकागको के भी कार्य अभिनन्दनीय है। इसमें सन्देह नहीं कि साहित्य के क्षेत्र मे एकमात्र लेखक या सम्पादक ही काम नहीं करते। साहित्य के निर्माण, प्रचार, उन्नति और वृद्धि में जो लोग सम्मिलित है उन सभी के कार्य प्रशसनीय है। हिन्दी की वर्तमान स्थिति में तो प्रकाशको के कार्य विशेष गौरवपूर्ण है। सच तो यह है कि यदि लेखक साहित्य का निर्माण करते है तो प्रकाशक ही लेखको का निर्माण करते है । माहित्य का सचालन-भार प्रकाशक पर ही रहता है और इसीलिए प्रकाशक का काम विशेष उत्तरदायित्वपूर्ण है। यह तो स्पष्ट है कि पुस्तक प्रकाशन भी अन्य व्यवसायो की तरह एक व्यवसाय है। व्यवसाय का पहला सिद्धान्त यही होता है कि कम-से-कम के द्वारा अविक-से-अधिक लाभ उठाया जाय । इसी में व्यवसाय की सफलता मानी जाती है। हिन्दी-साहित्य की अभी ऐसी स्थिति है कि उसमें साधारण योग्यता के लेखको को ही अधिक कार्य करना पड़ता है। जो उच्च कोटि के लेखक है, वे अपने पद-गौरव के कारण प्रकाशकोसे भले ही सम्मानित हो, पर उनकी साहित्य-सेवा अभी तक अगण्य ही है। इसी प्रकार एकमात्र अपनी कृति की लोक-प्रियता के ऊपर निर्भर रहने वाले साहित्य-मेवी दो ही चार है। हिन्दी के अधिकाग लेखको में यह क्षमता नही है कि वे स्वय कुछ कर सके। उन्हे प्रकाशको के आश्रय पर ही निर्भर होना पडता है। यही कारण है कि अधिकांश लेखक यह समझते है कि प्रकाशक उन्हें ठग रहे है,अधिक-से-अधिक काम करा कर कम-से-कम पारिश्रमिक दे रहे है । प्रकाशक यह समझते है कि लेखक उन्हें ठग रहे है, कम-से-कम काम कर अधिक-से-अधिक पारिश्रमिक ले रहे है। पाठक यह समझते है कि प्रकाशक और लेखक दोनों ही उन्हें ठग रहे है । रद्दी कितावो के लिए उनसे अधिक-से-अधिक मूल्य ले रहे है। आजकल पत्रो में लेखको के द्वारा प्रकाशन के सम्बन्ध मे जो एक असन्तोष की भावना प्रकट हो रही है, उसका मूल कारण यही है । हिन्दी में पाठको की सख्या परिमित होने के कारण माधारण अन्यो का अधिक प्रचार नहीं होता। पाठ्य-पुस्तको के द्वारा प्रकाशको को जो लाभ होता है वह किसी भी उच्च कोटि की रचना प्रकाशित करने से नहीं होता। इसी कारण अधिकाश को अपने व्यवसाय की सफलता के लिए ऐसी नीति का भी अवलम्बन करना पडता है, जो विशेषगौरवजनक नही । क्षुद्र भावो की ही प्रेरणा से हिन्दी-साहित्य में कभी-कभी जो दल बन जाते है उनसे केवल कटुता और वैमनस्य को ही वृद्धि होती है । ऐमी स्थिति मे हिन्दी की सर्वाङ्गपूर्ण उन्नति के लिए ऐसे प्रकाशको की वडी आवश्यकता Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ २८ हैं, जो केवल व्यवसायी न हो, जो लेखको के मित्र हो, सहचर हो, पथ-प्रदर्शक हो और सच्चे सहायक हो । प्रेमी जी में यही सब वाते है । प्रेमीजी ने स्वय जो साहित्य की सेवा की है उसका मूल्य तो विज्ञ ही निर्दिष्ट करेंगे, पर अपने प्रकाशन-कार्य के द्वारा उन्होने साहित्य के क्षेत्र को जितना विस्तृत किया है, लेखको को प्रोत्साहित कर उनकी ठीक योग्यता के अनुसार उनके लिए साहित्य सेवा में जितनी अधिक सुविधाएँ कर दी है और जितना अधिक भार्ग - पदर्शन कर दिया है, पाठको की जितनी अधिक रुचि परिष्कृत कर दी है और उनमें जितना अधिक सत्- साहित्य की ओर अनुराग उत्पन्न कर दिया है, वह मेरे जैसे पाठको और लेखको के लिए विशेष अभिनन्दनीय है। इसी दृष्टि से श्राज में यहाँ इन्ही के जीवन को लक्ष्य कर सेतीस साल की साहित्य गति पर विचार करना चाहता हूँ । ( २ ) गाधुनिक हिन्दी साहित्य का अभी निर्माण हो रहा है । भारतेन्दु जी से लेकर आज तक हिन्दी माहित्य hraft किसी भी प्रकार का अवरोध नही हुआ है । क्रमश उन्नति ही होती जा रही है। आधुनिक हिन्दी साहित्य के निर्माताओ मे कितने ही विज्ञो के नाम लिये जा सकते है । उन सभी की सेवाएँ स्तुत्य है । तो भी यदि हम प्राधुनिक साहित्य की तुलना हिन्दी के प्राचीन साहित्य से करे तो हमे यह स्पष्ट प्रकट हो जाता है कि प्राचीन माहित्य में जो स्थायी ग्रन्थ-रत्न है उनके समान ग्रन्थो की रचना आधुनिक हिन्दी साहित्य मे अभी अधिक नही हुई है । आधुनिक लेखको में जिनकी रचनाएँ अधिक लोक प्रिय है उनकी महत्ता को स्वीकार कर लेने पर भी यह दृढतापूर्वक नही कहा जा सकता कि उनकी रचनाओ में कितना स्थायित्व है । साहित्य के प्रारम्भिक काल में नवीनता की ओर श्रधिक आग्रह होने के कारण अधिकाश लोग किसी की भी नवीन कृति के सम्बन्ध में उच्च धारणा बना लेते है । पर जव वही नवीन रचना कुछ समय के बाद अपनी नवीनता खो बैठती है तब उसके प्रति लोगो में आप से- श्राप विरक्ति का-सा भाव श्रा जाता है । काव्य के क्षेत्र में पडित श्रीधर पाठक, पडित नाथ्राम शकर शर्मा, पडित रामचरित उपाध्याय, सनेहीजी, श्रादि कवियों की रचनाएँ कुछ ही समय पहले पाठको के लिए केवल आदरणीय ही नही, स्पृहणीय भी थी, परन्तु श्रव यह निस्सकोच कहा जा सकता है कि आधुनिक हिन्दी काव्य के विकास में उनका एक विशेष स्थान होने के कारण वे श्रव आदरणीय ही है । आजकल मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, सियारामशरण गुप्त, निराला, पन्त, रामकुमार वर्मा, महादेवी वर्मा, वच्चन, दिनकर श्रादि कवियो की रचनाएं स्पृहणीय अवश्य है, पर नवीन काव्य-धारा के प्रवाह में उनकी रचनाओ का गौरव कबतक बना रहेगा, यह निश्चय-पूर्वक नही कहा जा सकता । कवि-सम्मेलनो में नये कवियो की रचनाओ की र नवयुवको का जो आग्रह प्रकट होता है वह श्राग्रह उक्त लब्ध प्रतिष्ठ कवियो की रचनाओ के प्रति नही देखा जाता । कुछ विज्ञ यह भी अनुभव करने लगे है कि अब हिन्दी में उत्तम एव साधना सम्पन्न साहित्य-सृजन तथा निष्पक्ष और निर्भीक समालोचना की बडी अवहेलना होती है । इस कथन में चाहे जितना सत्य हो, इसमें सन्देह नही कि हिन्दी अभी परिष्कृत लोक रुचि का निर्माण नही हुआ । यही कारण है कि लोग अभी उच्च कोटि के साहित्य की ओर श्रनुरक्त नही होते । साहित्य के क्षेत्र में जबतक उच्च श्रादर्श को लेकर ग्रन्थो का प्रकाशन नही होगा तवतक सर्वसाधारण की रुचि परिष्कृत नही होगी । जिस लोक-शिक्षा के भाव से हिन्दी में द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' का सम्पादन किया था उसी लोक शिक्षा के भाव से प्रेरित होकर प्रेमीजी ने 'हिन्दी- प्रन्थ-रत्नाकर' का प्रकाशन किया था । साहित्य के क्षेत्र मे जो परिवर्तन 'सरस्वती' के द्वारा हुआ है, वही 'हिन्दी - अन्य - रत्नाकर' के द्वारा भी हुआ है । 'हिन्दी-ग्रन्थ - रत्नाकर' के ग्रन्थो का सर्व साधारण पर कितना प्रभाव पडा है, यह उसकी लोकप्रियता से ही प्रकट हो जाता है। उस समय में छात्र था । 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय' द्वारा सवसे पहले द्विवेदी जी की 'स्वाधीनता' का प्रकाशन हुआ । उसके बाद 'प्रतिभा' और फिर 'फूलो का गुच्छा' निकला। कितने ही लोग 'हिन्दी-ग्रन्थ - रत्नाकर' के स्थायी ग्राहक हो गये । १९१२ से लेकर १९१६ तक मेरे घर में भी 'हिन्दी-ग्रन्थ - रत्नाकर' के सभी ग्रन्थ आते रहे । १९१६ में मेरे Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैतीस वर्ष २६ सौभाग्य से उसी ग्रन्थमाला में मेरा 'प्रायश्चित' नामक एक नाटक भी प्रकाशित हो गया । तभी मैं प्रेमीजी से विशेष परिचित हुआ । इसी समय जबलपुर मे अखिल भारतवर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन हुआ । वही पर मैने प्रेमीजी को पहली बार देखा । मेरी वडी इच्छा थी कि में 'हिन्दी - अन्य - रत्नाकर - कार्यालय' में काम करूँ । प्रेमीजी को मैने कई वार लिखा और उन्होने सभी समय मुझे बम्बई आने के लिए लिखा, परन्तु वम्बई में गया कितने ही वर्षो के वाद । इस तरह अपनी छात्रावस्था से लेकर अभी तक प्रेमीजी के 'हिन्दी - अन्य - रत्नाकर' से मेरा सम्वन्ध वना हुआ है । मेरे समान साधारण पाठको के हृदय में 'हिन्दी-ग्रन्थ - रत्नाकर' का क्या स्थान है, यही बतलाने के लिए मै यहाँ अपनी छात्रावस्था का वर्णन कर रहा हूँ । ( ३ ) छात्रावस्था में सभी को अपने भविष्य के लिए अध्ययन करना पडता है । यह अध्ययन काल सभी के लिए एक समान नही है । कोई चार-पांच वर्ष ही पढकर अपना छात्र जीवन समाप्त कर डालते है, कोई आठ-दस सालतक पढते है और कोई पन्द्रह-सोलह वर्षो तक अध्ययन में लगे रहते है। जिसकी जैसी स्थिति होती है उसी के अनुसार उसका छात्र जीवन निर्दिष्ट होता है । कुछ उच्च शिक्षा पा लेते है श्रौर अधिकाश उस शिक्षा सेवचित रहते है । पर एक वार जीवन क्षेत्र में प्रविष्ट होते ही फिर सभी को उसी मे श्राजीवन सलग्न रहना पडता है । एक विद्वान का कथन है कि छात्रावस्था में खूब परिश्रम के साथ हम जो कुछ पढते हैं, उसे भूल जाने के वाद ज्ञान का जो अग अवशिष्ट रह जाता है, उसी से हमारी मानसिक अवस्था की उन्नति होती इसमे सन्देह नही कि छात्रावस्था में हम लोगो को कितनी ही बातें याद करनी पडती है । उन बातो का जीवन मे क्या उपयोग होता है, यह तो हम लोग नहीं जानते । पर इसमें सन्देह नही कि छात्र -काल में उन्ही वातो के लिए अत्यधिक परिश्रम करना पडता है । सन् १६०२ मे लेकर १९१६ तक मुझे अपना छात्रजीवन व्यतीत करना पडा । वह समय मेरे लिए जैसे निर्माणकाल था, वैसे ही भारतवर्ष के लिए भी निर्माणकाल था । इन चौदह वर्षों के भीतर भारतवर्ष मे एक नये ही युग का निर्माण हो गया । क्या समाज, क्या साहित्य और क्या राजनीति, सभी क्षेत्रो मे विलक्षण परिवर्तन हुआ । एक के वाद एक भारत में जो घटनाएं हुई हैं, उनसे देश उन्नति के पथ पर ही अग्रसर हुआ है । वह सुरेन्द्रनाथ, गोखले, तिलक और अरविन्द का समय था । वह रवीन्द्रनाथ का युग था । हिन्दी मे वह बालमुकुन्द गुप्त, श्रीधर पाठक, और महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का काल था । एक ओर जब भारतवर्ष में उन्नति की यह लहर वह रही थी तव में अपने ही छात्रजीवन की समस्याओ को लेकर उलझा हुआ था। देश मे जव वगभग, स्वदेशी आन्दोलन और बायकाट की खूब चर्चा हो रही थी तव में इलाहावाद के विश्वविद्यालय की परीक्षाओं के प्रश्न-पत्रो को लेकर व्यस्त था । मेरे लिए भूगोल, इतिहास, गणित, संस्कृत और अगरेजी ये भिन्न-भिन्न प्रश्न देश के राजनैतिक प्रश्नो से कही अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते थे । मुझे उनके लिए सतत् प्रयत्न करना पडता था । पर समाचार-पत्रो में भिन्न-भिन्न लेख पढने के लोभ को भी मै नही रोक सकता था । शिवशभु शर्मा के पत्र 'भारत मित्र' में प्रकाशित होते थे । उन्हें में खूब ध्यान से पढता था । जव 'हिन्दी-केसरी' का प्रकाशन हुआ तव हम लोगो के प्रान्त में भी एक घूम सी मच गई। 'महात्मा तिलक के ये उपाय टिकाऊ नही है', 'देश की बात' आदि लेखो को मैने भी पढा था । उसी समय सप्रेजी की ग्रन्थमाला में द्विवेदी जी की 'स्वाधीनता' निकली। पर अपने मस्तिष्क को मैने इतिहास, रेखागणित, जामेट्री आदि विषयो से ही भर लिया था । उस समय अपनी परीक्षा के लिए जितनी बातें मुखाग्र याद करनी पडी उनमे से शायद एक भी वात मेरे मस्तिष्क में नही है । छात्रावस्था में जिन पाठो को मैने परिश्रम के साथ स्वायत्त किया था वे भी न जाने कहाँ विलीन हो गये है । यही नही, साहित्य के जिन प्रसिद्ध ग्रन्थो को उस ममय मुझे परिश्रम से पढना पडा था उनसे अव न जाने क्यो विरक्ति-सी हो गई है । अव उन्हें फिर से पढने की इच्छा तक नही होती है । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ ३० सचमुच यह नही जान पड़ता कि हम लोगो के जीवन पर किन गन्यो का सबसे अधिक पभाव पडता है। माज जब मै यह विचार करने बैठता हूँ कि मेरे जीवन पर किन त्यो का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा है ता मुझे यही ज्ञात होता है कि उनमें एक भी मेरी पाठ्य पुस्तको मे नही है। आज जो सर्वधा अगण्य है, उन्ही 'चन्द्रकान्ता , परीक्षागुरु' और 'देवीसिंह ने मेरी कल्पना-शक्ति को जितना उत्तेजित किया, उतना अन्य किसी उपन्यास ने नहीं किया । पर रचना की ओर मेरी प्रवृत्ति हुई 'हिन्दी-गन्य-रत्नाकर' के ग्रन्यो से । इसमे सन्देह नही कि 'प्रतिभा', चौवे का निट्ठा, वकिम निवन्धावली को मैने पचास वार से अधिक पड़ा होगा। उनके कारण एक विशेष मेली को अपनाकर हिन्दी साहित्य में लिखने की ओर मेरा ध्यान गया। कुछ समय पहले हिन्दी-साहित्य के एक प्रेमी सज्जन ने मुझसे पूछा कि हिन्दी के किन-किन उपन्यासो पर मेरा विशेष अनुराग है। इस प्रश्न का उत्तर देना मेरे लिए वडा कठिन हो गया है। वात यह है कि अवस्था की वृद्धि के साथ जैसे हम नये लोगो मे परिचय नही वढाना चाहते, वैसे ही नये उपन्यासो से भी हमे अनुराग नहीं होता। जो लोग समीक्षक या पालोचक होते है उनकी वात दूसरी है। पर साधारण पाठको के लिए यह सम्भव नहीं है कि वे नवीन कलाकारो की नवीन कृतियो को पढे । पथिकान पाठको के लिए विशेष लेखक इतने प्रिय हो जाते हैं कि वे अन्य लोगो को कृतियो को पढ ही नहीं सकते। मेरी भी यही स्थिति है। अपनी छात्रावस्था में जिन ग्रन्थोपर मेरा अनुराग हो गया था पौर जिन्हें मैने वार-चार पढा है, उन नन्द्रकान्ना, परीक्षागुरु, और देवीसिंह को छोड करप्राय नभी अनुवाद पन्य है और वे सभी प्राय 'हिन्दी-गन्य-रत्नाकर-कार्यालय द्वारा प्रकाशित हुए है। 'प्रतिभा', 'फूलो का गुच्छा', 'आंख की किरकिरी', 'अन्नपूर्णा का मन्दिर', 'चौवे का चिट्ठा', 'वकिम निवन्धावली' यही सब तो मेरे विशेष प्रिय ग्रन्य वने है। इन्ही के कारण मै यह समझता है कि प्रेमीजी के 'हिन्दी-गन्य-रत्नाकर कार्यालय' से मेरा जीवन कितने ही वर्षों से सम्बद्ध हो गया है। प्रेमीजी के कारण साहित्य की ओर मेरी अनुराग-वृद्धि हुई और उन्ही के कारण मै हिन्दी-साहित्य के क्षेत्र मे 'प्रायश्चिन' नामक नाटक लेकर प्रविष्ट भी हुआ। यह तो बिलकुल स्पष्ट है कि किसी भी साहित्य का महत्त्व उसके मौलिक ग्रन्थों पर निर्भर है। पर हिन्दीसाहित्य के ममान अनुन्नत साहित्य में तो अनुवाद की ही विशेष आवश्यकता है। हिन्दी-साहित्य मे अभी तक लब्धप्रतिष्ठ विज्ञो की रचना नहीं है। हिन्दी-साहित्य के सेवको मे अधिकाश अपनी विद्या भोर ज्ञान का अभिमान नही कर सकते । अनुवादो में सबसे बडा लाभ यह होता है कि उससे ज्ञान का प्रमार वडी सरलता से हो जाता है, उच्च आदर्शों का प्रचार सुगमता से होता है और भाषा आप-से-आप परिष्कृत होती है। अनुवाद का यह काम कष्ट-माध्य है। हिन्दी-साहित्य में अभी तक भावो को स्पष्ट रीति से सरलता-पूर्वक व्यक्त करने में कठिनता होती है । 'हिन्दीअन्य-लाकर-कार्यालय' से जो अनुवाद अन्य प्रकाशित हुए, उनके द्वारा भापा की यथेष्ट उन्नति हुई है। कितने ही नवको पर उसका स्थायी प्रभाव पड़ा है। आधुनिक नाटक, उपन्यास, आख्यायिका और निवन्ध तो अपना मूल उन्ही में पा सकते है। मैने भी मनुताद से ही अपना साहित्यिक जीवन प्रारम्भ किया है और मुझे प्रेमीजी और द्विवेदीजी के समान योग्य सम्पादको के कारण अपने काम में विफलता नहीं मिली। ___ कुछ समय तक मै बम्बई मे प्रेमीजी के साथ रह भी चुका है। उस समय मुझे पाठ्य पुस्तके तैयार करनी पड़ी। मैंने तब यह देखा कि प्रेमीजी कितने मनोयोग से अपना काम करते हैं। प्रेमीजी खूव परिश्रम किया करते है। वे खूब ध्यान से लेखो को पढते है और खूब ध्यान से उन्हें छपवाते है । प्रूफ़ देन्वने मे वे और भी विशेष सावधान रहते है । उनको सावधानता के कारण किसी भी प्रकार की भूल नही हो सकती। उन्होने पुस्तको के वाह्य रूप पर भी विशेष ध्यान दिया है। यही कारण है कि उनको पुस्तको का विशेष आदर होता है और मेरे समान कितने ही लेसको की यही लालसा बनी रहती है कि उनकी रचनाएँ 'हिन्दी-गन्थ-रत्नाकर कार्यालय द्वारा प्रकाशित हो । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सैतीस वर्ष विश्व के कर्मक्षेत्र मे मनुष्य अपने प्रयासो के द्वारा जो सफलता या विफलता प्राप्त करता है उसी के अनुसार लोग उसके जीवन में सार्थकता देखते हैं। ससार में कीर्ति अथवा अपकीर्ति, यश अथवा अपयश मनुष्य-मात्र के उन्ही प्रयासो का पुरस्कार है, जो ससार की ओर से उसे प्राप्त होता है। परन्तु अपने जीवन-सग्राम में उसे जो कष्ट झेलना पडता है, जो वेदना सहनी पडती है, जो दुर्वह भार उठाना पडता है उसकी तीव्रता का अनुभव केवल वही करता है । सरोवर के वक्ष स्थल पर खिले हुए कमलो के सौन्दर्य और सौरभ पर हम सभी मुग्ध होते है, पर उन कमलो के विकास के भीतर जो पक छिपा हुआ है, उस पर किसी की भी दृष्टि नही जाती है । शकरजी के विषपान की तरह सरोवर भी सारे पक को उदरम्य कर देता है। अपने व्यवसाय की उन्नति और साहि~-सेवा के मार्ग में प्रेमी जी ने भी कष्ट महा है, विघ्नो और आपत्तियो को झेला है और यातनाओ का अनुभव किया है। उन्हें अपने यश-मौरभ के लिए जो प्रयास करना पड़ा है, उसमे उनके धैर्य, सहिष्णुता, परिश्रम-शीलता और निपुणता आदि गुणो की कठोर परीक्षा हुई है। पर वेदना के जिस तीव्र प्राघात को वे हृदय पर सह कर चुपचाप शान्त और गम्भीर होकर अपने कार्यों में निरत है, उसे केवल वही अनुभव कर सकते है । खैरागढ ] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी जी श्री रामचन्द्र वर्मा नैने पहले-पहल प्रेनीजी को उनी नम्य जाना था जब उन्होंने 'हिन्दी - गन्य- रत्नाकर का प्रकाशन प्रारम्भ किया था और उस नाता में पहले पुष्प के रूप में आचार्य द्विवेदी जी की स्वाधीनता प्रकाशित हुई थी । 'स्वावीनता' ने हिन्दी-जगत् को नृग्य कर लिया था। मैं भी उनी हिन्दी जगत् के एक कोने में बैठा हुआ मन ही मन प्रेमीजी व उन प्रयत्न की प्रशंखा करता था और अपने मन में इस कामना को पोप करता था कि हिन्दी में इस प्रकार की अनेक आदर्श पुन्नव नालाएँ प्रकाशित हो । जब अन्य-रलाकर से थोडे ही समय में कई अच्छे अच्छे राज्य मज न मे और उत्कृष्ट रूप में प्रकाशित हुए नब हिन्दी के बहुत से लेखक उसमें अपने ग्रन्थ प्रकाशित करने के लिए उनावले होने लगे। उन्हीं में मे में भी एक था, परायान्य-रत्नाकर से प्रकाशित होने के योग्य पुस्तक में लिख भी सकूंगा या नहीं ? बहुत-कुछ सोचविचार के बाद मैंने 'नेता और उसकी भावना के उपाय' नाम की एक छोटी पुस्तक लिखकर प्रेमीजी के पास भेजी । बन्दी ही प्रेनीजी की स्वीकृति आ गई और थोडे ही समय में पुस्तक छप भी गई। गन्ध- रत्नाकर ने अपनी पुस्तक प्रकाशित होने का मुझे गर्व ना हुआ । उसले भी बटकर ह इस बात का हुआ कि प्रेमीजी मरोसे नुयोग्य मोर सज्जन व्यक्ति से मेरा परिचय हुआ । यह परिचय वर्षों तक दरावर वडना रहा, पर केवल पत्रव्यवहार के रूप में । वीरे-धीरे उनने प्रत्यक्ष परिचय प्राप्त करने की उत्सुक्ता मन में बढ़ने लगी। नोचता था कि कब अवनर मिले और कब प्रेमीजी ने भेंट हो । नयोग से वह अवसर भी का गया। जबलपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन हुआ। वही मैंने सुना कि प्रेमीजी नी आये हैं। मैं उनने मिलना चाहता था । अस्मात् एक दिन सवेरे उन मे भेंट हुई। वे नल पर नान करके तोड रहे थे और में स्नान करने जा रहा था । एक मित्र ने बतलाया कि यही प्रेनीजी है । में आगे बढकर उनने मिला । उन्हें अपना परिचय दिया, पर एक-दो बातें होकर रह गई । वे अपने राले चले गये और में पपने रान्ते । मैं अत्यन्त दुखी और निराग हुआ । जिन प्रेमीजी को ने अबतक बहुत ही सज्जन और महृदय समभ रहा था, वे इस पहली भेंट के समय मुझे नितान्त मौर सोजन्य-विहीन जान पडे । में मन में प्रन्न भी हुआ और प्ट भी । उनी रोर के कारण मैने उनसे फिर मिलने का प्रयत्न भी न किया । इम प्रकार पहली भेंट नितान्न निरामापूर्ण हुई । काशी लोडने पर चार-पांच दिन बाद प्रेमीजी का पत्र मिला। उनमें फिर वही भोजन्य और वही महृदयता मरी थी, जो पहले पत्र में रहा करती थी । यद्यपि मैं मोच चुका था कि अत्र उनने कोई विशेष सम्पर्क न करूंगा, पर उस पत्र का उत्तर देना ही पड़ा । फिर वही पत्र-व्यवहार चलने लगा। पर मेरी समझ में न आया कि आखिर नीजी किन तरह के आदमी है। मन में आता भी कैसे ? प्रेमजी ये सतजुगी महापुरप और में या किंचित् कलजुगी । उनके सौजन्य पर नन्त्रता और आत्म-गोपन के जो बडे-बडे आवरण चढे हुए थे, उन्हें भेदकर उनके अन्तकरण में छिपी हुई महत्ता तक पहुँचना सहज नहीं या । इनके लिए कुछ अधिक घनिष्ट परिचय की आवश्यकता थी । कुछ दिनों बाद वह अवसर भी आ गया। मुझे नागरी प्रचारिणी सभा के एक आवश्यक कार्य के लिए पहले जयपुर और फिर बन्दई जाना पड़ा । जयपुर से बम्बई जाने के पहले मैंने प्रेमीजी को अपने बम्बई पहुंचने की सूचना दे दी थी, पर वह सूचना थी केवल औपचारिक । मैं अपने मित्र स्व० श्री मदनगोपाल जी गाडोदिया के यहाँ ठहरना चाहता था। मोत्रा या कि प्रेमीजी ने भी मित लूंगा । पर बम्बई पहुंचने पर मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रेमी जी स्टेशन पर न तो गाडोदिया जी दिखाई दिये और न उनका कोई आदमी। (उन्हें मेरा पत्र ही मेरे बम्बई पहुंचने के सात-आठ घटे वाद मिला था।) हाँ, प्रेमीजी मुझे अवश्य इवर-उधर ढूंढते हुए दिखाई पडे । सवेरे छ बजे का समय। जाडे का दिन । आकाश में कुछ वादल और कुहरा-सा छाया हुआ। ऐसे ममय में मै स्वप्न में भी आशा नहीं करता था कि प्रेमीजी मुझे स्टेशन पर दिखाई देंगे। पर वे मुझे जिस तत्परता से ढूंढ रहे थे, उसी का मुझ पर यथेष्ट प्रभाव पड़ा। उस दिन से अाज तक मेरा और उनका भाइयो का-सा व्यवहार चला आता है। प्रेमीजी जवरदस्ती मुझे अपने घर ले गये। रास्ते में ही जो वातें हुईं, उनसे मैने समझ लिया कि जवलपुर में प्रेमीजी को पहचानने में मुझसे वडी भूल हुई थी। प्रेमीजी को मै जितना सज्जन और सहृदय समझता था, उससे वे कही अधिक वढकर निकले । पछताते हुए मैने अपनी भूल उन पर प्रकट की। सुनकर वोले, “वर्मा जी, मै सीवासादा आदमी हूँ। आजकल की व्यवहार-चातुरी मुझमें नहीं है। इसलिए कोई कुछ समझ लेता है, कोई कुछ।" उन्हीं 'कोडयो में मैं भी एक 'कोई' था। पर आज उस वर्ग से निकल कर और प्रेमीजी के अन्तस्तल तक पहुंचकर मैने उसका पूरा-पूरा निरीक्षण किया। साथ ही यह प्रतिज्ञा की कि आगे से मै किसी के व्यक्तित्व के सम्बन्ध में इतनी जल्दी कोई वारणा न बना लिया करेगा। यह पहली शिक्षा थी, जो प्रेमीजी से पहली भेंट में मुझे प्राप्त हुई। पर मै नही जानता था कि अभी मुझे इनसे और भी बहुत-सी वातें सीखने को मिलेंगी। प्रेमीजी के घर पहुंचते ही मै अवाक् रह गया। बहुत ही छोटा-सा अवेरा घर। मैं समझता था कि प्रेमीजी ने प्रकाशन कार्य से पचीस-पचास हजार रुपये कमाये है। वे कुछ तो ठाठ-बाट से रहते होगे, पर वहां ठाठ-बाट का नाम नही था । घर की सभी बातें बहुत ही मावारण थी। पर मैने तुरन्त अपने आपको सँभाला। मैने सोचा कि यहाँ मी प्रेमीजी का वहीं सीवापन अपना परिचय दे रहा है, जिसकी चर्चा उन्होने स्टेशन से आते समय की थी। और बात भी वही थी। यो प्रेमीजी मितव्ययी तो है ही, पर इससे भी बढकर वे सरल और नितान्त सात्विक वृत्ति के पुरुष है। वे अपनी आवश्यकताएँ बहुत ही कम करके इस सिद्धान्त का उज्ज्वल उदाहरण हमारे सामने रखते है कि जिसकी आवश्यकताएँ जितनी ही कम हो, वह ईश्वर के उतना ही समीप होता है। प्रेमीजी का घर देखने में तो बहुत ही साधारण था, पर मुझे सुख मिला स्वर्ग का-सा। उनकी स्वर्गीय साध्वी पत्नी का नितान्त निश्छल और निष्कपट स्वागत-सत्कार बहुत अधिक प्रभाव डालता था। बालक हेमचन्द्र, जिसको दुःखद स्मृति ने बहुतो के हृदय में स्थायी रूप से घर कर लिया है, उस समय दस-यारह वर्ष का था। उसकी सरलता और सहृदयता तथा प्रेमपूर्ण व्यवहार मानो प्रेमीजी के इन सब गुणो को भी मात करने वाला था। आठही दम घटो में मुझे वहां घर से बढकर सुख और आनन्द मिलने लगा। पर उस सुख का मै अधिक उपभोग न कर सका। सन्ध्या होते ही गाडोदिया जी मोटर लेकर आ पहुंचे और मुझे जवरदस्ती अपने निवास स्थान पर (दादर) उठा ले गये। पर अपने प्राय एक मास के वम्बई प्रवास में प्रेमीजी के आकर्षक प्रेम के कारण मेरा आधा समय हीरावान में ही बीता। - इसके बाद कई वार वम्बई जाने का अवसर मिला है और हर वार में प्रेमीजी के यहाँ ही ठहरा हूँ। मै ही क्यो, प्रेमीजी के प्राय सभी मित्र और अधिकाश हिन्दी-प्रेमी उन्ही के यहाँ ठहरते है। जो लोग कभी किमी कारण मे दूसरी जगह जा ठहरते है, उन्हें भी प्रेमीजी विवश करके अपने यहाँ ले आते है। यह प्रेमीजी का स्वाभाविक गुण है। इस सोने में एक सुगन्ध भी प्रान मिलती थी। वह सुगन्ध थी उनके वाल-वच्चो का स्नेहपूर्ण और घर का-सा व्यवहार । पर हाय | हेमचन्द्र के चले जाने मे वह सुगन्व ही नही उड गई, बल्कि मोना भी गरम राख की बडी तह के नीचे दव गया। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय वहुत-से लोग प्रेमीजी को केवल प्रकाशक के रूप में जानते है । कुछ लोग उन्हें हिन्दी के लेखक के रूप मे भी जानते हैं। उन्हें इस तरह जानने वाले सभी लोग उनकी सत्यशीलता, सद्व्यवहार, सदाचार, नम्रता आदि गुणो से इतने अधिक परिचित है कि इस सम्बन्ध में विशेष कहना वाहुल्य-मात्र है। फिर भी वैयक्तिक तथा नैतिक क्षेत्र में प्रेमीजी में इतने अधिक गुण है कि उनका पूरा और ठीक वर्णन करना कठिन है। प्रेमीजी अपनी मैकडो-हजारो की हानि विलकुल चुपचाप सह लेगे, पर किसी से लडना-झगडना कभी पसन्द न करेंगे। यदि कोई उन्हें जबरदस्ती किसी तरह की लडाई में घसीटने में समर्थ भी हुआ तो वे सदा जल्दी-से-जल्दी पीछा छुड़ाने का ही प्रयत्न करेंगे और विशेषता यह कि अपने परम शत्रु के लिए भी किसी प्रकार के अमगल या अहित का स्वप्न में भी विचार नहीं करते। उनके इस गुण का परिचय मुझे कई वार मिल चुका है। उनकी सज्जनता से गहे कोई कितना ही अनुचित लाभ उठा ले, पर किसी के अपकार करने का विचार भी वे अपने मन में नहीं ला सक्ते। साधारणत प्रेमीजी के जीवन का यही सबसे बडा सार्वजनिक अग समझा जाता है, पर वस्तुत उनके जीवन का इससे भी एक बडा अग है, जिससे अपेक्षाकृत कम ही लोग परिचित है। प्रेमीजी उच्च श्रेणी के विचारशील विद्वान् है। विशेषत प्राकृत के वे अच्छे पडित है और अपना वहुत-सा समय अध्ययन और विद्या-विपयक अनुसन्धान मे लगाते है। उनमे यह कमी है कि वे अंगरेजी बहुत कम जानते है, पर अपनी इस कमी के कारण वे अपने कार्य-क्षेत्र में कभी किसी से पीछे नही रहते । जैन-इतिहास के वे अच्छे ज्ञाता है और इस विषय के लेख आदि प्राय लिखते रहते है। वे अनेक विषयो की नई खोजो के, जो प्राय अंगरेजी मे ही निकला करती है, विवरणो की सदा तलाश में रहते है और जब उन्हें इस तरह की किसी नई खोज का पता चलता है तब वे अपने किसी मित्र की सहायता से उसका वृत्त जानने का प्रयत्न करते है। उनका यह विद्या-प्रेम प्रशसनीय तो है ही, अनुकरणीय भी है। प्रेमीजी में एक और बहुत वडा गुण है। वे कभी अपने आपको प्रकट नहीं करना चाहते-कभी प्रकाश मे नही पाना चाहते । हाँ, यदि प्रकाश स्वय ही उन तक जा पहुंचे तो वात दूसरी है। वे काम करना जानते है, परन्तु चुपचाप । अनेक विषयो का वे प्राय अध्ययन और मनन करते रहते हैं और कभी कुछ लिखने के उद्देश्य से अनेक प्रकार की सामग्री भी एकत्र करते रहते है, पर जव उन्हें पता चलता है कि कोई सज्जन किसी विषय पर कुछ लिखन लगे है तब वे उनके उपयोग को अपनी सारी सामग्री अपनी स्वाभाविक उदारता से इस प्रकार चुपचाप उन्हें देते है कि किसी को कानोकान भी खबर नहीं होती। प्रेमीजी के अनेक गुणो में ये भी वे थोडे-से गुण है, जिनके कारण वे बहुत ही सामान्य अवस्था से ऊपर उठते हुए इतने उच्च स्तर पर पहुंचे है। बहुत ही दुख की बात है कि ऐसे सुयोग्य और सज्जन विद्वान का पारिवारिक तथा शारीरिक जीवन प्राय कष्टो से और वह भी बहुत बडे कष्टो मे सदा भरा रहा। हो सकता है कि ये शारीरिक और पारिवारिक कष्ट ही उनके स्वर्ण-तुल्य जीवन को तपाकर निखारने वाली अग्नि के रूप मे विधाता की भोर में प्राप्त हुए हो। अपनी गति वही जाने । बनारस ] Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मरणाध्य श्राचार्य पं० सुखलाल सघवी मेरे स्मरणग्रन्थ में प्रेमीजी का स्मरण एक अध्याय है, जो प्रति विस्तृत तो नही है, पर मेरे जीवन की दृष्टि मे महत्त्व का और सुखद अवश्य है । इस सारे ग्रव्याय का नवनीत तीन वातो में है, जो प्रेमीजी के इतने लम्बे परिचय मं मैने देखी है और जिनका प्रभाव मेरे मानम पर गहरा पडा है । वे ये है (१) अथक विद्याव्यामग । (२) सरलता और (३) सर्वया साम्प्रदायिक और एकमात्र मत्यगवेपी दृष्टि । प्रेमीजी का परिचय उनके 'जनहितैपी' गत लेखो के द्वारा शुरू हुआ । मैं अपने मित्रो और विद्यार्थियों के साथ गरे में रहता था । तत्र माय-प्रात की प्रार्थना में उनका निम्नलिखित पद्य रोज पढ़े जाने का क्रम था, जिसन हम सबको बहुत आकृष्ट किया था दयामय ऐमी मति हो जाय । त्रिभुवन की कल्याण-कामना, दिन-दिन बढती जाय ॥१॥ श्रीरों के सुख को सुख समझू, सुख का करूँ उपाय ॥ अपने दुख सब सहूँ किन्तु, परदुख नहि देखा जाय ॥२॥ प्रथम श्रज्ञ अस्पृश्य श्रधर्मी, दुखी श्रीर श्रसहाय ॥ वन जाय || ३ || समुदाय ॥ सवके श्रवगाहन हित मम उर सुरसरि सम भूला भटका उलटी मति का, जो है जन उसे सुझाऊँ सच्चा सत्पय, निज सर्वस्व सत्य धर्म हो सत्य कर्म हो, सत्य ध्येय वन जाय ॥ सत्यान्वेषण में ही 'प्रेमी', जीवन यह लग जाय ॥५॥ लगाय ॥४॥ प्रेमीजी के लेखो ने मुझको इतना प्राकृष्ट किया था कि में जहाँ कही रहता, 'जैन- हितैषी' मिलने का प्रायोजन कर लेना और उसका प्रचार भी करता । मेरी ऐतिहासिक दृष्टि की पुष्टि मे प्रमीजी के लेखो का थोडा हिम्सा श्रवश्य है । प्रेमीजी के नाम के साथ 'पण्डित' विशेषण छपा देखकर उस जमाने में मुझे श्राश्चर्य होता था कि एक तो ये पण्डित है और दूसरे जैन परम्परा के । फिर इनके लेखों में इतनी तटस्थता और निर्भयता कहाँ से ? क्योकि तबतक जितने भी मेरे परिचित जैन-मित्र और पण्डित रहे, जिनकी मख्या कम न थी, उनमें से एक-प्राध अपवाद छोडकर किमी को भी मैने वैमा श्रमाम्प्रदायिक और निर्भय नही पाया था । इसलिए मेरी ऐसी धारणा वन गई थी कि जैन पण्डित भी हो श्री निर्भय साम्प्रदायिक हो, यह दुःसम्भव है । प्रेमीजी के लेखो ने मेरी वारणा को क्रमण गलत सावित किया । यही उनके प्रति श्राकर्षण का प्रथम कारण था । १९१८ में में पूना में था। रात को अचानक प्रेमीजी सकुटुम्ब मुनि श्री जिनविजय जी के वासस्थान पर श्राये । मैने उक्त पद्य की अन्तिम कडी बोल कर उनका स्वागत किया। उन्हें कहीं मालूम था कि मेरे पद्य को कोई प्रार्थना में भी पढता होगा । इम प्रसग ने परिचय की परोक्षता को प्रत्यक्ष रूप में बदल दिया और यही सूत्रपात दृढ़ भूमि बनता गया । उनके लेखो मे उनकी बहुश्रुतता और यमाम्प्रदायिकता की छाप तो मन पर पडी ही थी। इस Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ प्रत्यक्ष परिचय ने मुझे उनकी अकृत्रिम सरलता की ओर आकृष्ट किया। इसीसे मै थोडे ही दिनो वाद जब वम्बई आया तो उनसे मिलने गया। वे चन्दावाडी में एक कमरा लेकर रहते थे। विविध चर्चा में इतना दूवा कि आखिर को अपने डेरे पर जाकर जीमने का समय न देखकर प्रेमीजी से मैने कहा कि मैं और मेरे मित्र रमणिकलाल मोदी यही जीमेंगे। उन्होने हमें उतनी ही सरलता और प्रकृत्रिमता से जिमाया और परिचयसूत्र पक्का हुआ। फिर तो मेरे लिए वम्बई में आने का एक अर्थ यह भी हो गया कि प्रेमीजी से अवश्य मिलना और नई जानकारी पाना। MATERNITION .६A fe1 4 HK ":" । SAAL .. स्व० हेमचद्र (१९३२) बम्बई मे मेरे चिर परिचित और निकट मित्र सेठ हरगोविन्ददास रामजी रहते है। प्रेमीजी के भी वे गाढ सखा वन गये थे। यहाँ तक कि उन दोनो का वासस्थान एक था या समीप-समीप । घाटकोपर, मुलुन्द जैसे उपनगरों में भी वे निकट रहते थे। अतएव मुझे प्रेमीजी की परिचय-वृद्धि का वडा सुयोग मिला। मै उनके घर का अग-सा बन गया। उनकी पत्नी रमावह्न और उनका इकलौता प्राणप्रिय पुत्र हेमचन्द्र दोनो के सम्पूर्ण विश्वास का भागी मै वन गया। घाटकोपर की टेकरियो में घूमने जाता तो प्रेमीजी का कुटुम्ब प्राय साथ हो जाता। आहार सम्बन्धी मेरे प्रयोगोका कुछ असर उनके कुटुम्ब पर पड़ा तो तरुण हेमचन्द्र के नव प्रयोग में कभी मै भी सम्मिलित Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मरणाध्याय ३७ हुना | लहसुन डालकर उवाला दूध पीने से पेट पर अच्छा असर होता है । इस अनुभवसिद्ध श्राग्रहपूर्ण हेमचन्द्र की उक्ति को मानकर मैने भी उनके तैयार भेजे वैसे दुग्धपान को आज़माया । कभी में घाटकोपर से शान्ताक्रूज जुहू तट तक पैदल चलकर जाता तो अन्य मित्रो के साथ हेमचन्द्र और चम्पा दोनो भी साथ चलते । दोनो की निर्दोषता और मुक्त हृदयता मुझे यह मानने को रोकती थी कि ये दोनो पति-पत्नी है । जव कभी प्रेमीजी शरीक हो तब तो हमारी गोष्ठी में दो दल श्रवश्य हो जाते और मेरा झुकाव नियम मे प्रेमीजी के विरुद्ध हेमचन्द्र की ओर रहता । धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक आदि विषयो में प्रेमीजी का ( जो कभी स्कूल-कॉलेज में नही गये) दृष्टिविन्दु मैने कभी गतानुगतिक नहीं देखा, जिसका कि विशेष विकाम हेमचन्द्र ने अपने मे किया था। आगरा, अहमदाबाद, काशी आदि जहाँकही से मैं बम्बई प्राता तो प्रेमीजी से मिलना और पारम्परिक साहित्यिक एवं ऐतिहासिक चर्चाएँ खुल करके करना मानो मेरा एक स्वभाव ही हो गया था। आगरे से प्रकाशित हुए मेरे हिन्दी ग्रन्थ तो उन्होने देखे ही थे, पर ग्रहमदाबाद प्रकाशित जव मेरा 'सन्मतितकं' का मस्करण प्रेमीजी ने देखा तो वे मुझे न्यायकुमुदचन्द्र का वैसा ही सस्करण निकालने hat ग्रह करने लगे और नदयं उमको एक पुरानी लिखित प्रति भी मुझे भेज दी, जो बहुत वर्षो तक मेरे पास रही श्रीर जिसका उपयोग 'सन्मतितर्क' के मस्करण में किया गया है । सम्पादन मे सहकारी रुप से पण्डित की हमे श्रावश्यकता होती थी तो प्रेमी जी बार-बार मुझे कहते थे कि श्राप किसी होनहार दिगम्बर पण्डित को रसिए, जो काम सीख कर आगे वैसा ही दिगम्बर- साहित्य प्रकाशित करे। यह सूचना प० दरवारीलाल 'सत्यभक्त', जो उस समय इन्दौर मे थे, उनके माथ पत्र-व्यवहार में परिणत हुई। प्रेमीजी माणिकचन्द जैन ग्रन्थमाला का योग्यतापूर्वक सम्पादन करते ही थे, पर उनकी इच्छा यह थी कि न्यायकुमुदचन्द्र आदि जैसे ग्रन्थ 'मन्मतितर्क' के ढग पर सम्पादित हो । उनकी लगन प्रवल थी, पर समय-परिपाक न हुआ था। बीच मे वर्षं वीते, पर निकटता नही बीती । श्रतएव हम दोनो एक-दूसरे की सम्प्रदाय विषयक धारणा को ठीक-ठीक समझ पाये थे और हम दोनों के बीच कोई पन्य-ग्रन्थि या सम्प्रदाय ग्रन्थि फटकती न थी । एक बार प्रेमीजी ने कहा, "हमारी परम्परा में पण्डित बहुत है भौर उनमे कुछ अच्छे भी श्रवश्य है, पर मे चाहता हूं कि उनमें से किसी को भी पन्य-ग्रन्थि ढीली हो ।" मैंने कहा कि यही बात में श्वेताम्बर साघुनो के वारे मैं भी चाहता हूँ । श्रीयुत जुगल किशोर जी मुख्तार एक पुराने लेंसक और इतिहासरसिक है। प्रेमीजी का उनमे खासा परिचय था । प्रेमीजी की इच्छा थी कि श्री मुख्तार जी कभी सशोवन और इतिहास के उदात्त वातावरण मे रहे । आन्तरिक इच्छा सूचित करके प्रेमीजी ने श्रीयुत मुस्तार जी को श्रहमदावाद भेजा । वे हमारे पास ठहरे श्रीर एक नया परिचय प्रारम्भ हुआ। गुजरात विद्यापीठ के और खासकर तदन्तर्गत पुरातत्त्वमन्दिर के वातावरण और कार्यकर्ता का श्रीयुत मुख्तार जी के ऊपर अच्छा प्रभाव पडा, ऐसी मुझे उनके परिचय से प्रतीति हुई थी, जो कभी मैंने प्रेमी जी से प्रकट भी की थी । प्रेमीजी मुझसे कहते थे कि मुख्तार साहब की गन्थि-शिथिलता का जवाब समय ही देगा । पर प्रेमीजी के कारण मुझको श्रीयुत मुस्तार जी का ही नहीं, बल्कि दूसरे अनेक विद्वानो एव सज्जनो का शुभग परिचय हुआ है, जो अविस्मरणीय है । प्रेमीजी के घर या दूकान पर बैठना मानो अनेक हिन्दी, मराठी, गुजराती और विशिष्ट विद्वानों का परिचय साधना था । प० दरवारीलाल जी 'सत्यभवत' की मेरी मंत्री इसी गोष्ठी का श्रन्यतम फल है । मेरी मैत्री उन लोगो मे कभी म्यायी नही बनी, जो साम्प्रदायिक और निविड-ग्रन्थि हो । १९३१ के वर्षाकाल में पर्यूषण व्याख्यानमाला के प्रसग पर हमने प्रेमीजी और प० दरवारीलाल जी 'सत्यभक्त' को कुटुम्ब अहमदाबाद बुलाया । उन्होने श्रसाम्प्रदायिक और सामयिक विविध विषयो पर विद्वानो के व्याख्यान सुने, खुद भी व्याख्यान दिये। साथ ही उनकी इच्छा जाग्रत हुई कि ऐसा आयोजन बम्बई में भी हो । बम्बई के युवको ने अगले साल से पर्यूषण व्याख्यानमाला का आयोजन भी किया। प्रेमीजी का सक्रिय सहयोग रहा। मेरे कहने पर उन्होने पुराने सुधारक वयोवृद्ध बाबू सूरजभानु जी वकील को वम्बई में बुलाया, जिनके लेख में वर्षों पहले पढ चुका था और जिनमे मिलने की चिराभिलाषा भी थी । उक्त बाबू जी १९३२ में बम्बई पधारे और व्याख्यान भी दिया। मेरी यह अभिलापा एकमात्र प्रेमीजी के ही कारण सफल हुई । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनवन-प्रथ ३८ उघर हेमचन्द्र की उम्र बढती जाती थी और प्रेमीजी की चिन्ता भी बढती जाती थी कि यह अनेक विषयों का धुनी प्रयोगवीर जोगी कारोवार कैसे संभालेगा। पर मेरा निश्चित विश्वास था कि हेमचन्द्र विरज विभूति है। प्रेमीजी है तो जन्म से सी० पी० के और देहाती संकीर्ण सस्कार की परम्परा के, पर उनकी सामाजिक मान्यताएं धार्मिक मान्यताओ की तरह बन्धनमुक्त वन गई थी। अतएव उनके घर में लाज-परदे का कोई वन्धन न था और आज भी नहीं है । हेमचन्द्र की पत्नी, जो उस समय किशोरी और तरुणी थी, वह उतनी ही स्वतन्त्रता से सबके साथ पेश आती, जितनी स्वतन्त्रता से रमावहन, हेमचन्द्र और प्रेमीजी खुद । प्रेमीजी पूरे सुधारक है। इसीसे उन्होने अपने भाई की पून गादी विधवा से कराई और रूढिवादियो के खफा होने की परवाह नहीं की। प्रेमीजी के माथ चम्पा का व्यवहार देखकर कोई भी अनजान आदमी नहीं कह सकता कि यह उनकी पुत्रा है। उसे आभास यही होगा कि वह उनकी इकलौती और लाडिली पुत्री है। जब कभी जानो, प्रेमीजी के निकट मुक्त वातावरण पानोगे। रूढिचुस्त और सुधारक दोनो इस बात में सहमत होगे कि प्रेमीजी खुद अजातशत्रु है। प्रेमीजी गरीबी की हालत और मामूली नौकरी से ऊँचे उठकर इतना व्यापक और ऊँचा स्थान पाये हुए है कि आज उनको सारा हिन्दी ससार सम्मान की दृष्टि से देखता है। इसकी कुजी उनकी सच्चाई, कार्यनिष्ठा और बहुश्रुतता में है। यद्यपि वे अपने इकलौते सत्यहृदय युवक पुत्र के वियोग से दुखित रहते है, पर मैने देखा है कि उनका आश्वासन एकमात्र विविध विषयक वाचन और कार्यप्रवणता है। वे कसे ही बीमार क्यो न हो, वैद्य, डॉक्टर और मित्र कितनी ही मनाई क्यो न करें, पर उनके विस्तरे और सिरहाने के इर्द-गिर्द वाचन की कुछ-न-कुछ नई मामग्री मैंने अवश्य देखी है। प्रेमीजी के चाहने वालो में मामूली-से-मामूली आदमी भी रहता है और विशिष्ट-से-विशिष्ट विद्वान् का भी समावेश होता है । अभी-अभी मैं हरकिसनदास हॉम्पीटल में देखता था कि उनकी खटिया के इर्द-गिर्द उनके अरोग्य के इच्छुको का दल हर वक्त जमा है। प्रेमीजी परिमितव्ययी और सादगीजीवी है, पर वे मेहमानो और स्नेहियो के लिए उतने ही उदार है । इसीसे उनके यहां जाने मे किसीको सकोच नहीं होता। १९३३ की जुलाई की तीसरी तारीख को मै जव हिन्दू यूनिवसिटी मे काम करने के लिए वम्बई से रवाना हुआ तव प्रेमीजी ने उस पुरानी लगन को ताजा करके मुझसे कहा कि काशी में तरुण प० महेन्द्रकुमार जी है। आप उनसे नई पद्धति के अनुसार न्यायकुमुदचन्द्र का सम्पादन अवश्य करवाएँ । प्रथम से ही परिचित ५० कैलाशचन्द्र जी काशी मे थे ही। महेन्द्रकुमार जी नये मिले। दोनो से प्रेमीजी का विचार कहकर उस काम की पूर्वभूमिका का विचार मैने कहा । दोनो तत्काल कृतनिश्चय हुए और हिन्दू यूनिवर्सिटी में पाने लगे। चिन्तन-गोष्ठी जमी। समय आते ही प्रेमीजी की इच्छा के अनुसार उक्त दोनो पडितो ने न्यायकुमुदचन्द्र का सुसस्कृत सम्पादन करके उसे माणिकचन्द जैन-प्रन्यमाला से प्रकाशित कराया। प० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य मेरे काम में भी सहयोगी बने और व्यापक अध्ययन चालू रक्खा । फलत उन्होने 'सिन्धी-जैन-सीरीज़' मे स्वतन्त्र भाव से अकलक ग्रन्यत्रय का और सहकारी रूप से प्रमाण-मीमासा आदि ग्रन्थो का सम्पादन किया, जिससे प्रेमीजी की इच्छा अशत अवश्य पूर्ण हुई है, परन्तु मैंने देखा है कि प्रेमीजी उतने मात्र से सम्पूर्ण सन्तुष्ट नही। उनकी उत्कट अभिलाषाएँ कम-से-कम तीन है । एक तो वे अन्य सात्विक विद्वानो की तरह अपनी परम्परा के पण्डितो का धरातल इतना ऊँचा देखना चाहते है कि जिससे पण्डितगण सार्वजनिक प्रतिष्ठा लाभ कर सकें। दूसरी कामना उनकी सदा यह रहती है कि जैन-भण्डारो के-कम-सेकम दिगम्बर-भण्डारो के-उद्धार और रक्षण का कार्य सर्वथा नवयुगानुसारी हो और पण्डितो एव घनिको की शक्ति का सुमेल इस कार्य को सिद्ध करे। उनकी तीसरी अदम्य आकाक्षा यह देखी है कि फिरको की और खासकर जातिपांति की सकुचितता पौर चौकाबन्धी खत्म हो एव स्त्रियो की खासकर विधवामो की स्थिति सुधरे । मैने देखा है कि प्रेमीजी ने अपनी ओर से उक्त इच्छाओ की पूर्ति के लिए स्वय अथक प्रयत्न किया है और दूसरो को भी प्रेरित किया है । आज जो दिगम्बर परम्परा में नवयुगानुसारी कुछ प्रवृत्तियां देखी जाती है उनमे साक्षात् या परम्परा से Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मरणाध्याय प्रमीजी का थोडा-बहुत असर अवश्य है। पुराने विचार के जो लोग प्रेमीजी के विचार से सहमत नही, वे भी प्रेमीजी के सद्गुणो के प्रशमक अवश्य रहे है । यही उनकी जीवनगत असाधारण विशेषता है। प्रेमीजी में असाम्प्रदायिक व सत्यगवेषी दृष्टि न होती तो वे अन्य बातो के होते हुए भी जैन-जनेतर जगत् में ऐसा सम्मान्यस्थान कभी नही पाते । मैंने तत्त्वार्थ और उमास्वाति के बारे में ऐतिहासिक दृष्टि से जो कुछ लिखा है, प्रेमीजी की निर्भय गवेषक दृष्टि ने उसका केवल समर्थन ही नहीं किया, बल्कि साम्प्रदायिक विरोधो की परवाह विना किये मेरी खोज को और भी आगे बढाया, जिसका फल सिंधी स्मृति अक भारतीय विद्या में विस्तृत लेखरूप से उन्होंने अभी प्रकट किया है। आजकल प्रेमीजी मेरा ध्यान एक विशिष्ट कार्य की ओर साग्रह खीच रहे है कि 'उपलब्ध जैनआगमिक साहित्य का ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्याकन तथा भारतीय संस्कृति और वाङ्मय में उसका स्थान' इस विषय पर साधिकार लिखना आवश्यक है। वे मुझे बार-बार कहते है कि अल्पश्रुत और साम्प्रदायिक लोगो की गलत धारणाओ को सुधारना नितान्त आवश्यक है। कोई भी ऐतिहासिक बहुश्रुत विद्वान हो, प्रेमीजी उससे फायदा उठाने से नहीं चूकते। आचार्य श्री जिनविजय जी के साथ उनका चिर परिचय है। मैं देखता आया हूँ कि वे उनके साथ विविध विषयो की ऐतिहासिक चर्चा करने का मौका कभी जाने नहीं देते। अन्त में मुझे इतना ही कहना है कि प्रेमीजी की सतयुगीन वृत्तियो ने साम्प्रदायिक कलियुगी वृत्तियो पर सरलता से थोडी-बहुत विजय अवश्य पाई है। . बम्बई HOSH Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी जी के व्यक्तित्व की एक झलक राय कृष्णदास प्रेमीजी को मै निकट से नहीं के बराबर जानता हूँ। फिर भी उनके व्यक्तित्व को मै जितना जानता हूँ, सम्भवत उससे अधिक उनके अत्यन्त निकटवर्ती भी न जानते होगे। इसके पीछे एक घटना है, जिसकी स्मृति पाज पच्चीस बरस बाद भी टटकी है। प्रेमीजी जिस समय प्रकाशक के रूप मे हिन्दी-जगत् के सामने आये, उस समय वह परपट पड़ा हुआ था। आज की तरह न प्रकाशको की भरमार थी, न ग्रन्थो की । पाठक ग्रन्थो के लिए लालायित हो रहे थे, हिन्दी के शुभंपी उसके भण्डार को ग्रन्थ-रत्नो से भरा-पूरा देखना चाहते थे। ऐसी परिस्थिति में 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' एक वरदान के रूप में अवतरित हुआ। उसके प्रकाशित बंगला के अनुवाद ही तव पाठको के लिए सब कुछ थे। ज़मीन तैयार हो रही थी। उतने ही से हिन्दी वाले फूले न समाते थे। इसके पहले कई प्रकाशन-योजनाएँ चालू हुई थी और अकुरित हो-होकर मारी गई थी। अतएव प्रेमीजी का समारम्भ उनके लिए तो माहस और आत्म-विश्वास का काम था ही, वाचको के लिए भी वह धडकते हुए हृदय की एक बहुत बडी आशा थी। जहां प्रकाशक और वाचक ऐसी परिस्थिति मे थे, वहां एक तीसरा वर्गभी था, जो बडी मतृष्ण दृष्टि से प्रकाशनो की ओर देख रहा था। यह वर्ग था उन लेखको का, जो मासिक पयो तक तो किसी भांति पहुंच पाते थे, किन्तु उसके आगे जिनकी रसाई न थी। वह आज का जमाना न था जब लेखको और पत्रो की भरमार तो है हो, सम्पादकीय अनुशासन भी ऐसा-ही-वैसा है। वह द्विवेदीयुग था, जब लेखको के लिए मासिक पत्र का द्वार बहुत ही अवरुद्ध पीर कटकाकीर्ण था। इसका यह तात्पर्य नहीं कि लेखक किसी प्रकार हतोत्साह किये जाते थे। वात विलकुल उलटी थी। उस समय तो आचार्य द्विवेदी जी और उनके अनुकरण में अन्य सम्पादक लेखको के तैयार करने में लगे हुए थे। फिर भी द्विवेदी जी ने लेखन का स्तर इतना ऊँचा कर रक्खा था कि सहसा किसी के लिए लेखक बन जाना सम्भव न था और न दूसरे पत्रकार ही अपने पत्र का स्तर गिराने का साहस कर सकते थे। वे यथासम्भव 'सरस्वती' को ही मानदण्ड बनाकर अपना पन चलाते थे। यही कारण था कि उन्ही लेखको की कुछ पूछ थी, जो अपना स्थान बना चुके थे अथवा जिनमें किसी विशेषता का अकुर था। ऐसे लेखको के लेख यद्यपि पाठको के ज्ञानवर्द्धन की अच्छी सामग्री होते तो भी उनमें स्थायी महत्त्व के इने-गिने ही होते थे। फिर भी उनके लेखक चाहते कि उनकी कृति पुस्तक रूप में निकल जाय । ऐसे ही एक महागय ने शास्त्र' पर एक लेखमाला 'इन्दु' में निकाली। यहाँ 'इन्दु' का थोडा-सा परिचय दे देना अनुचित न होगा। प्रसाद जी सन् १९०८ के अन्त मे नई भावनाएँ लेकर हिन्दी-ससार में आये। उनका सुरती का पैतृक समृद्ध व्यापार भी था, जिसके कारण उनका कुल-नाम 'सुधनीसाव' पड गया था। सो अपनी नई भावनायो को व्यक्त करने के लिए, साथ ही अपने पैतृक कारवार के विज्ञापन के लिए, उन्होने अपने भानजे स्व० अम्बिकाप्रसाद गुप्त से 'इदु' को सन् १९०६ के भारभ मे निकलवाया था। इस मासिक पत्र की एक अपनी हस्ती थी। प्रसाद जी की रचनामो के सिवा उनसे प्रभावित और प्रोत्साहित कितने ही नये लेखक इसमें लिखा करते थे। यद्यपि इसकी छपाई-सफाई का दर्जा बहुत ही साधारण था, फिर भी लेखो के नाते यह एक नये उत्थान का सूचक था। इसी 'इन्दु' में वे' शास्त्र' वाले लेख धारावाहिक रूप में निकले थे। विषय नया था। अतएव उसकी ओर अनेक लोगो का ध्यान गया और पत्रो में कुछ चर्चा भी हुई। जब यह लेखमाला पूरी हो गई तब लेखक महाशय ने उसका स्वत्व प्रेमीजी को दे दिया और उन्होने उसे पुस्तकाकार निकाल दिया। उस समय के विचार से उसकी अच्छी Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमीजी के व्यक्तित्व की एक झलक ४१ मांग हुई और एकाविक सस्करण भी हुए। तब लेखक महाशय की नीयत में फितूर आया और उन्होने प्रेमीजी से और ऐंठने का वाँधनू वावा । प्रेमीजी थे सच्चे और खरे आदमी। उन्होने यह मामला पचायत में डाल दिया। सर्वश्री डा० भगवानदास, स्व० शिवप्रसाद गुप्त, श्रीप्रकाश, रामचन्द्र वर्मा और मैं, उसके सदस्य थे। पचायत ने कदमकदम पर पाया कि लेखक महाशय ने जिस रूप में मामला खडा किया था, उसमें उनकी जबरदस्ती ही नही, बहुत वडी जघन्यता भी थी। सच बात तो यह है कि उन्होने जो हरकत की थी उसके लिए उलटे प्रेमीजी को हरजाना मिलना चाहिए था, किन्तु उन दिनो लेखक महाशय ने राष्ट्रीय वाना धारण कर लिया था। अतएव वे कुछ पचो की निगाह में कोई चीज हो गये थे। निदान, 'दयापूर्ण' फैसला यह हुआ कि यद्यपि उन्होने काम तो अनुचित किया है फिर भी उन्हें प्रेमीजी अमुक रकम प्रदान करें। प्रेमीजी ने तत्काल विना किसी ननुनच के इस 'न्याव' की तामील कर दी। लेखक महागय को प्रेमीजी से लिखित क्षमा मांगने की आज्ञा भी हुई थी। सो मानों उक्त रकम उसी क्षमा प्रार्थना की फीस चुकवाई गई थी। प्रेमीजी आरम्भ से ही निलिप्त रहे । वे तो घरमोधरम यहाँ तक तैयार थे कि कापीराइट तथा छपी प्रतियां लेखक महाशय को यो ही दे दें। उन्होने न कभी लाछित करने वाले कर्म किये थे, न करना चाहते थे। यही उनका जीवन-व्रत है, जिस पर वे आज भी समारूढ है। इस घटना में मैंने दो वातें पाई। पहली तो प्रेमीजी के निखरे हुए व्यक्तित्व की एक झलक और दूसरे यह कि .गोसाई जी की ये पक्तियां मवासोलह आने सच है "लखि सुवेष जग बचक जेक । वेष प्रताप पूजिहि तेऊ ॥" बनारस ]] Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे मधुर क्षण! श्री नरेन्द्र जैन एम० ए० श्रद्धेय प्रेमीजी का नाम तो बहुत दिनो से सुना था, लेकिन साक्षात्कार हुआ उस समय, जव मै कॉलेज की अध्यापकी पाने की आशा में वम्बई गया। घर पर पहुंचा तो प्रेमीजी भोजन कर रहे थे। उन्हें देखकर मुझे ऐसा मालूम हुआ कि दुर्दैव के प्रहारो से वे झुक अवश्य गये है, पर उसे चुनौती देने की क्षमता मानो अव भी उनमे शेप है। रुग्णा पुत्रवधू अस्पताल मे थी। इससे कुछ चिन्तित थे। मैंने उन्हे नारियल की तरह पाया। ऊपर से कठोर, पर अन्तर में कोमल। प्रेमीजी की सहायता से नौकरी प्राप्त हो जाने पर फिर तो अनेकों बार उनसे भेट और वातचीत करने का अवसर मिला और अब भी मिलता रहता है। जी नही लगता तो प्राय उनके पास चला जाता हूँ। उनके छोटे-से परिवार के कई मधुर चित्र मेरे सामने है । एक दिन जस्सू (पौत्र) अपनी कितावो का वस्ता ट्राम मे भूल पाया। मैंने कहा कि चलो, छुट्टी हुई। लेकिन जस्सू बहुत सुस्त था। आंखो में आंसू झलकने लगे। दादा (प्रेमीजी) उसकी व्यथा को ताड गये। बोले, “बेटा, तू क्या फिकर करता है । अरे, दुकान तो तेरी ही है । तेरे लिए एक-एक छोड दो-दो किनावे अभी मँगाये देता हूँ।" यह आश्वासन पाकर जस्सू उछलने लगा।। एक रोज़ बोले, "अरे वेटा चम्पा,'बच्चे वारिश मे भीगते जाते है। उनके लिए एक-एक वरसाती खरीद दे।" चम्पा बोली, “दादा, इनके पास छतरी है तो। फिर वरसाती की क्या जरूरत है ?" "लो भई वेटा पस्सू, कही वारिश छतरी से भी रुकती है । यह मां कैसी बाते करती है ?" प्रेमीजी ने हंसते हुए कहा। पस्सू खिलखिला पडा। वोला, “हाँ, दादा, देखो, मां कितनी मक्खीचूस है।" कहने की आवश्यकता नहीं कि शीघ्र ही दो वढिया वरमाती आ गई। यो ही बैठे हुए एक दिन मैंने पूछा, “यह रेडियो कितने में खरीदा था ?" वोले, "पता नही। सब वही (हेमचन्द्र) लाया था। हमने तो यह शास्त्र पढा ही नहीं।" अपने व्यवसाय में प्रेमीजी जितने सजग और कुशल है, घर-गृहस्थी की चीजो के बारे में उतने ही अनभिज्ञ । चीज़ों का मोल-तोल करना उनसे आता ही नहीं। एक दिन जस्सू विक्री के पांच रुपये वारह पाने हाथ मे खनखनाता उछलता हुआ पाया ।-"मेरा बटुआ कहाँ है ? बटुआ कहाँ है ?" उसने हल्ला मचा दिया । प्रेमीजी बोले, "वडा दुकानदार वना है | अरे, रोटी तो खा ले, वेटे | मुझे क्यो सताता है ?" पर जस्सू सुनने वाला आसामी नही। "प्रेमीजी फिर चिल्लाए, “वेटा चम्पा, इसके कान तो पकड । रोटी नही खाता।" जस्सू अपनी धुन मे मस्त रहा और जब पैसे बटुए मे भर लिये नव रोटी खाने बैठा। थाली पाते ही लगा चिल्लाने, “चावल लायो, चावल ।" प्रेमीजी ने हंसते हुए कहा, "अरे, यह क्या होटल है। वाह, बेटा वाह, मेरे घर को तोनुने होटलहीवनादिया।" हम सब खिलखिला कर हँस पडे। 'पुत्रवधू। पौत्र। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे मधुर क्षण ! प्रेमीजी ने अपनी दुकान की कितावें पढनेकी छूट मुझे दे रक्खी है । एक दिन 'शाहजहाँ' (डी० एल० राय कृत) नाटक लेकर जोर-जोर से पढने लगा। प्रराग था कि जिहनखां दारा का सिर काटने पाता है । दारा का बेटा सिपर पिता को नही छोडता और जल्लादो से कहता है कि तुम उन्हें नहीं मार सकते । दृश्य बडा ही करुण था। पढते-पढते मेरी आँखें गीली हो पाई । निगाह ऊपर उठी तो देखता हूँ कि प्रेमीजी के टप्टप् आँसू गिर रहे है । वास्तव मे प्रेमीजी बहुत ही नरम दिल के है। ऐमे प्रसगो पर उन्हें अपने हेम की याद भी हो पाती है। १ na ALTRA REM 45 13RT १. चि० विद्याधर (पस्सू) २. चि० यशोधर (जस्सू) ३ चपावाई (स्व० हेमचद्रके पुत्र और पत्नी।) प्रेमीजी में विनोदप्रियता भी खूब है । अपनी हंसी आप ही उडाना, यह उनके स्वभाव की विशेपता है । बुन्देलखण्ड का एक ग्राम-गीत-"डुकरा तोको मोत कतऊँ नइयाँ"-बडे लहजे के साथ गाया करते है। कभी-कभी पस्सू मचल जाता है। कहता है, "दादा, हम तो वही कहानी सुनेंगे।" जानते हुए भी दादा पूछते है, "कौन-सी कहानी भैया ?" Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ प्रेमी-अभिनंदननाथ "अरे, वही-अल्ला मियां बडे सयाने। पहले ही काट लिये दो भाने।" हंसते-हंसते दादा पूरी कहानी सुना देते हैं। कभी जब पस्सू किसी से नाराज होकर रोने लगता है तो प्रेमीजी उसके कान मे वही भल्ला मियां वाला मन्त्र फूंक देते है और वह खिलखिलाने लगता है। इस प्रकार की अनेको घटनाएँ उस घर में देखता हूँ। ये घटनाएँ छोटी अवश्य है, पर ऐसी घटनामो से हमारे परिवारो मे मधुर रस का सचार होता है। प्रेमीजी की प्राशा अपने इन्ही दोनो पोतो पर निर्भर है। वे योग्य हो जाये तो उनके कन्धो पर सारा दायित्व सौंपकर चुपचाप दुनिया से विदा ले ले, यही उनकी अभिलाषा जान पडती है। बम्बई - - - - - . - - - - - - Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ स्मृतियाँ श्री शिवसहाय चतुर्वेदी सन् १९०६ या १० की बात है । उम समय में केसली में मास्टर था । दिसम्बर की छुट्टी में घर श्राया था । अभी तक प्रेमीजी से मेरी घनिष्टता नही हुई थी । साधारण परिचय मात्र था । एक दिन सन्ध्या समय मैने देखा कि बाज़ार की एक दहलान में प्रेमीजी को घेरे हुए बहुत से मास्टर बैठे है और कुछ लिख रहे हैं । कौतूहलवश मैं भी वहाँ जा पहुँचा। मालूम हुआ, प्रेमीजी बम्बई से आये है । कुछ दिन यहाँ रहेंगे । मास्टरो के आग्रह पर प्रति-दिन बँगला भाषा सिखाया करेंगे। इस समाचार ने मुझे हर्ष-विषाद के गम्भीर आवर्त में डाल दिया । हर्ष इस बात का कि एक नई भाषा सीखने का अवसर है । विषाद इसलिए कि मै इस अवसर से लाभ उठाने में असमर्थ था । मेरी छुट्टी समाप्त हो चुकी थी और मुझे दूसरे दिन प्रात काल केसली जाना था। मैने अपनी अभिलाषा और कठिनाई प्रेमीजी को कह सुनाई । कठिनाई की इस विषम गुत्थी को एक सुदक्ष पुरुष की नाई उन्होने तत्काल सुलझा दिया । बँगला भाषा के 'साहित्य' नामक पत्र की एक फाइल उनके सामने रक्खी थी । उसे मेरी चोर बढाते हुए उन्होने कहा, " प्राप इसे ले जाइए । मै बँगला वर्णमाला की पहिचान कराये देता हूँ । बाकी अभ्यास से आप स्वय सीख जावेंगे ।" फाइल लेकर मैं उसके पन्ने इधर-उधर पलटने लगा । मोटे-मोटे शीर्षक के अक्षरों में प्रेमीजी ने बतलाया कि देखो, यह अ है, यह ख और यह भ । इत्यादि । प्रेमीजी बतलाते गये और में पेंसिल से उन पर हिन्दी में लिखता गया । दूसरे दिन मैं केसली चला गया। थोडे ही दिन के अभ्यास से मैं उस फाइल के लेख पढने लगा । अभ्यास से कुछ-कुछ मतलब भी समझ में आने लगा । जब किसी शब्द का अर्थ मालूम न पडता तब उस शब्द को घटो खोजता कि वह कहाँ और किस अर्थ में आया है । इस तरह उसके शब्दो, विभक्तियों आदि से परिचित होता गया । एक महीने पीछे मैने प्रेमजी को बंगला में एक पत्र लिखा । वे उस समय बम्बई पहुँच चुके थे । प्रेमीजी की दूकान के साझीदार श्री छगनमल बाकलीवाल को बहुत समय बगाल में रहने का अवसर मिला था। वे बँगला अच्छी तरह लिख और बोल सकते थे । उन्होने मेरे पत्र का उत्तर बँगला में दिया । मेरे परिश्रम की सराहना करते हुए उन्होने बँगला की तीन-चार गद्य-पद्य की पुस्तकें मेरे अभ्यास के लिए भेज दी कुछ समय पीछे मैने प्रेमीजी की दी हुई 'साहित्य' की फाइल में से 'कञ्छुका', 'जयमाला' आदि गल्पो का अनुवाद करके उनके पास भेजा । ये गल्पें 'जैन - हितैषी' मासिकपत्र मे प्रकाशित हुई और पश्चात् 'हिन्दी- अन्य - रत्नाकर - कार्यालय' से प्रकाशित 'फूलो का गुच्छा' नामक कहानी-संग्रह में भी सम्मिलित । की गई । X ‘X X I मध्य-प्रदेश के तत्कालीन चीफ कमिश्नर बेञ्जामन राबर्टसन दौरे पर देवरी आ रहे थे । यह सन् १९१८ की बात है। उनकी रसद के इन्तजाम के नाम पर तहसील के सिपाहियों ने देवरी तथा निकटवर्ती देहातो में खूब लूट मचा रक्खी थी । लकडी, घास, खाट पलग, बर्तन आदि अनेक वस्तुएँ सग्रह की जा रही थी । गाडी-बैल, भैंसे बेगार में दस-पन्द्रह दिन पहले से ही पकड़े जा रहे थे । सिपाही लोगो के घर जा खडे होते और यदि उनके हाथ गरम न कर दिये जाते तो वे उनकी वस्तुएँ बलात् ले जाते थे । साहव बहादुर के चले जाने के पश्चात् रसद का बचा हुआ सामान नीलाम किया गया । स्थानीय हलवाइयो को खूब खोवा बेचा गया। उस समय सौभाग्य से प्रेमीजी देवरी आये हुए थे । गरीब लोगो की यह तवाही उनसे न देखी गई। उन्होंने इस विषय में "देवरी में नादिरशाही, चीफ कमिश्नर का दौरा और प्रजा की तबाही" शीर्षक एक लेख 'प्रताप' में भेज दिया । लेख छपते ही अफसरो में खलबली मच गई। तहसीलदार और छोटे साहव दौडे आये । तहक़ीक़ात की गई । लेख लिखने वाले पर मुकद्दमा चलाने की Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ धमकी भी दी गई। पर बात सच थी। बेचारे क्या करते ? अन्त में उचित मावजा देकर लोगों को शान्त कर दिया। कुछ सिपाही बरखास्त कर दिये गये और प्रवन्धकर्ता तहसीलदार की बदली हो गई । देवरी के इतिहास में इस तरह के राजकर्मचारियों की ज्यादती का प्रतिरोध समाचार-पत्र द्वारा करने का यह पहला ही अवसर था। x प्रेमीजी विधवा-विवाह के समर्थक है। उन्होने जैन-समाज में इसके प्रचार के लिए समय-समय पर यथेष्ट आन्दोलन किया है । उनके लघु भ्राता सेठ नन्हेलाल जी की पत्नी का स्वर्गवास हो जाने पर उन्होने ६ दिसम्बर १९२८ को उनका विवाह हनोतिया ग्राम-निवासी एक वाईस वर्षीय परवार-विधवा के साथ करके अपने विधवा-विवाह-विषयक विचारो को अमली रूप दिया। उस समय विरोधियो ने विरोध करने में कुछ कसर नही रक्सी । जैन-जाति के मुखियो को विवाह में भाग लेने से रोका गया, सत्याग्रह करने तक की धमकी दी गई, पर प्रेमीजी के अदम्य उत्साह और कर्तव्यशीलता के कारण विरोधियो की कुछ दाल न गली। विवाह सागर मे चकराघाट पर एक सुसज्जित मडप के नीचे किया गया था। चार-पांच हजार आदमी एकत्र हुए थे। सागर के प्राय सभी वकील, जैन जाति के बहु-सख्यक मुखिया और सागर के बहुत से प्रतिष्ठित व्यक्ति इस विवाह में सम्मिलित हुए थे। जैन-अर्जन वीसो वक्ताप्रो के विधवा-विवाह के समर्थन में भाषण हुए। विवाह के पश्चात् देवरी में प्रेमीजी ने १२ दिसम्बर को एक प्रीति-भोज दिया। उमी दिन स्थानीय म्यूनिसिपैलिटी के अध्यक्ष प० गोपालराव दामले बी० ए०, एल-एल० वी० की अध्यक्षता मे उक्त विधवा-विवाह का अभिनन्दन करने के लिए एक सार्वजनिक सभा की गई। सभा मे सैय्यद अमीरअली 'मीर', दशरथलाल श्रीवास्तव, शिवसहाय चतुर्वेदी, बुद्धिलाल श्रावक, ब्रजभूषणलाल जी चतुर्वेदी और नाथूराम जी प्रेमी के भाषण हुए । सभापति महोदय ने ऐतिहासिक प्रमाणो के द्वारा विधवा-विवाह का समर्थन किया और सभा विसर्जित हुई। कहने का तात्पर्य यह कि स्वर्गीय सैय्यद अमीरअली 'मीर' और श्री नाथूराम जी प्रेमी के सत्सग से देवरीनिवासियो में विद्याभिरुचि तथा अन्याय के प्रति विरोध करने का साहस उत्पन्न हुआ। प्रेमीजी के 'प्रजा को तबाही वाले लेख के पश्चात् स्थानीय अधिकारियो की स्वेच्छाचारिता और अन्याय के विरुद्ध बहुत मे लेख लिखे गये, जिसके फलस्वरूप अन्याय की कमी हुई और अनेक युवको में कविता करने तथा साहित्यिक लेख लिखने की रुचि उत्पन्न हुई। देवरी - - - Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वावलम्बी प्रेमी जी श्री लालचन्द्र वी० सेठी लगभग,सन् १९१२ की बात है, जब प्रथम बार वम्बई में श्री प्रेमीजी से मेरी भेट हुई। उस समय 'जन-ग्रन्थरत्नाकर-कार्यालय का कार्य-सचालन करते हुए उन्होने 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय का भी कार्य प्रारम्भ कर दिया था और उस समय तक 'स्वाधीनता' व 'फूलो का गुच्छा' ये दो पुस्तकें प्रकाशित भी हो चुकी थी। उन दिनो प्रेमीजी वडी योग्यता के साथ 'जन-हितैषी' का सम्पादन कर रहे थे। मै उसे वडी रुचि से पढता था। जितने समय तक प्रेमीजी ने इस पत्र का सम्पादन किया, वडी निर्भीकता और विचार-स्वातन्त्र्य के साथ किया। 'जन-हितैषी' की फाइलो में उनके युग-सन्देश-वाहक तथा युक्तिपूर्ण लेख आज भी पढने योग्य है । प्रेमीजी की उन्नत विचारशीलता, चरित्र-निष्ठा और सुधारक मनोवृत्ति का परिचय हमें उनकी लेखनी से लिखे गये लेखो में बराबर मिलता है। . 'जैनियों में सर्व-प्रथम श्री प्रेमीजी ने ही जैन-इतिहास पर कलम उठाई। उन्होने अपने गम्भीर और विशाल अध्ययन के द्वारा जैन-प्राचार्यों का परिचय प्रकाशित करना प्रारम्भ किया। धीरे-धीरे वे उनका समय-निर्णय करने लगे और वाद को तो वे एक पूरे इतिहासज्ञ ही वन गये। आज समाज में जैन-इतिहास की जो इतनी विशद चर्चा दिखाई देती है, उसका प्रधान श्रेय प्रेमीजी को ही है। 'श्री माणिकचन्द्र-ग्रन्थमाला' का प्रारम्भ एक छोटी-सी पूंजी से हुआ था, पर प्रेमीजी ने अपनी कुशलता और अविश्रान्त परिश्रम से लगभग पैतालीस अलभ्य और अनुपम ग्रन्थो का प्रकाशन कर उन्हें सर्वत्र सुलभ कर दिया है। आज से तीस वर्ष पूर्व सस्कृत-प्राकृत ग्रन्थो की हस्त-लिखित प्राचीन प्रतियों का प्राप्त करना, उनकी प्रेस-कापी कराना, छपाई की व्यवस्था करना, प्रूफ-सशोधन करना आदि कितना गुरुतर कार्य था, यह भुक्तभोगी लोगो से अविदित नही है। मगर अपनी सच्ची लगन और दृढ अध्यवसाय के द्वारा प्रेमीजी ने इस दिशा में एक आदर्श उपस्थित किया। उमीसे प्रेरणा पाकर आज अनेको ग्रन्थमालाएँ चालू है । 'माणिकचन्द्र-ग्रन्थमाला' के अवैतनिक मन्त्री होते हुए भी प्रेमीजी ने नि स्वार्थभावं और केवल प्राचीन ग्रन्थो के उद्धार को दृष्टि में रखकर इतने मितव्यय से इसका कार्य किया है कि जिसका दूसरा उदाहरण मिलना कठिन है। प्रेमीजी प्रात्म-प्रशसा और प्रसिद्धि से सदैव दूर रहे है, यहाँ तक कि मैने उन्हें कभी किसी सभा-सोसाइटी में जाते या सभापति बनते और व्याख्यान देते हुए नही देखा । पर जो भी व्यक्ति निजी तौर पर उनसे मिला, उन्होने उससे बडी स्पष्टता और ठोस युक्तियो के साथ शान्तिपूर्वक अपने विचारो का प्रतिपादन किया। प्रेमीजी ने जिस बात या विचार को सच समझा, विना किसी सकोच के स्पष्ट कहा और लिखा। व्यक्तिगत विरोध या बहिष्कार की उन्होने कभी कोई चिन्ता नहीं की और न उसके कारण उन्होने अपने विचारो को दवाया ही। ___'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय' से आज तक मां सौ से भी ऊपर पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। उनमे कई-एक पुस्तकें तो बिलकुल नवीन लेखको की है। प्रेमीजी ने नवीन लेखको को सदैव प्रोत्साहन दिया है । बहुत सी पुस्तको मे भाषा, भाव, अनुवाद आदि की दृष्टि से पर्याप्त सशोधन स्वय करते हुए भी उन्होने सारा श्रेय लेखक को ही दिया है । सशोधक या सम्पादक के रूप में अपना पूर्ण अधिकार होते हुए भी उन्होने कभी किसी पुस्तक पर अपना नाम नही दिया। यही कारण है कि उनके कार्यालय की निन्दा आज तक किसी लेखक से सुनने में नही आई, प्रत्युत स्व० श्री प्रेमचन्द्र जी, श्री बख्शी जी, श्री जैनेन्द्रकुमार जी आदि के द्वारा प्रेमीजी के खरे, पर प्रेममय निर्मल व्यवहार की प्रशसा ही सुनने को मिली है। प्रेमीजी के यहां से जितनी पुस्तकें प्रकाशित हुई है, वे सब छपाई, सफाई, सशुद्धि, कागज, रूप-रग आदि की दृष्टि से सर्वोत्तम रही है। शरत्-साहित्य-माला, मुशी-साहित्य, आदि जो सस्ती मालाएँ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय ४० प्रेमीजी ने प्रकाशित की है, वे हिन्दी के लिए ही नहीं, अपितु अन्य भाषानो के लिए भी आदर्श है। उत्तम विचारो के प्रचार की दृष्टि से प्रेमीजी ने इन ग्रन्य-मालाओ का प्रारम्भ किया था। गत वर्षों में मुझे बम्बई अनेक वार जाना पड़ा है और मै प्रत्येक प्रवास में प्रेमीजी से मिले वगैर नही रहा है। मैने उन्हें नये लेखको को सदैव सत्परामर्श देते और उत्साह के साथ उनका मार्ग-प्रदर्शन करते हुए देखा है। मै जव-जव उनसे मिलने गया हूँ, वे अपना सब काम छोडकर बडे प्रेम के साथ मिले है। विविध विषयो पर घटो विचार-विनिमय होता रहा है। उनके विचार मुझे हिन्दी और अग्रेजी के बडे-बडे विचारक विद्वानो से भी उच्च प्रतीत हुए। उनके विचारो की दूरदर्शिता का इसीसे पता लग सकता है कि जिन वातो को उन्होने आज से पच्चीस-तीस वर्ष पूर्व कहा या लिखा था, वे आज कार्यरूप में परिणत हो रही है। प्रेमीजी अपने विचारो के स्वय आदर्श है। यदि उन्होने कभी 'विधवा-विवाह' का समर्थन किया तो स्वय अपने छोटे भाई श्री नन्हेलाल का सर्वप्रथम उसी प्रकार विवाह कर दिखाया। प्रेमीजी का ध्येय 'हिन्दी-ग्रन्य-रत्नाकर-कार्यालय का सचालन, नवीन साहित्य का अध्ययन और सर्जन, पुराने साहित्य की शोव, नवीन लेखको को प्रोत्साहन, आगन्तुको को सत्परामर्श देना एव स्वय सत्य का अन्वेषण करते रहना है। आज इस उत्तरावस्था में अपने एकमात्र पुत्र के चिर-वियोग जैसे वज्राघात के होने पर भी वे अपना अध्ययन वरावर करते रहते है और नित नई खोजो से जैन-प्राचार्यों का इतिहास प्रकाश में लाकर जन-साहित्य का भडार भर रहे हैं। विगत वर्षों में जव-जव प्रेमीजी से मिला तव-तव उनके सुपुत्र स्व० हेमचन्द्र से भी मिला हूँ। वह अपने पिता के समान अध्ययनशील, सरल और निश्छल था। विविध विषयो को पढने और लिखने की रुचि आदि अनेक ऐसे गुण थे, जो उसने अपने पिता से प्राप्त किये थे। यदि वह जीवित रहता तो नि सन्देह सुयोग्य पिता का सुयोग्य पुत्र निकलता, पर दैवगति के सामने किसकी चलती है! प्रेमीजी स्वावलम्वी और अपने पैरो खडे होने वाले व्यक्ति है । उन्होने बहुत छोटी-सी पूंजी से पुस्तकप्रकाशन का कार्य प्रारम्भ किया था। आज उनके अदम्य उत्साह, सच्ची लगन, अनवरत परिश्रम और कर्तव्य-परायणता से उनके कार्यालय को सचमुच 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' कहलाने का गौरव प्राप्त है। मुझे आज लगातार उनसे मिलते हुए तीस वर्ष हो गए, मगर उन्होंने पान तक कभी किसी प्रकार के निजी स्वार्य का प्रस्ताव नहीं रक्खा। यह विशेषता मैंने बहुत कम व्यक्तियो में पाई है। मेरी समझ से स्वावलम्बी होकर दूसरो की सेवा करना ही सच्ची समाजसेवा है। ऐसे आदर्श साहित्य-सेवी और समाज-हितैषी व्यक्ति के सम्मान में जो भी कृतज्ञता प्रकट की जाय, थोडी है। उज्जन ] - - - - - - X Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि नू और आदर्श प्रकाशक श्री भानुकुमार जैन मेरी धारणा है कि जो प्रकाशक या पुस्तक विक्रेता साहित्यिक नही है, वह सफल पब्लिशर अथवा बुकसेलर नही हो सकता । पुस्तक-व्यवसाय को मै राष्ट्र या समाज का विकाम करन वाला धन्वा मानता हूँ । दुर्भाग्य से अव यह धन्वा अनैतिक हो गया है । येनकेन प्रकारेण पैसा कमाना ही इसका ध्येय रह गया है । मुझे हर्प है कि मेरी आंखो के सामने एक ऐसा व्यक्ति है, जो प्रकाशन के इस क्षुद्रतापूर्ण उद्देश्य को अपने श्राचरण में नही ग्राने देता, जो खर्च करने में प्रत्यन्त मकोचशील है, पर रुपये का कैसा भी प्रलोभन उसे अपनी ईमानदारी से नही डिगा सकता | वडे-से-बडा व्यक्ति भी यदि उससे कहता है, "भाई, रुपये ले लो, लागत भी हमारी और बढिया-सेबढिया छपाई करो, पर हमारी किताव अपने यहाँ से प्रकाशित कर दो” तो वह उत्तर में चुपचाप पाण्डुलिपि लौटाकर विनयपूर्वक अपनी श्रसमर्थता प्रकट कर देता है । मैं नित अपनी आँखो देता हूँ और दावे के साथ कहता हूँ कि प्रेमीजी की कमाई का एक-एक पैसा ईमानदारी का पैसा है | प्रकाशन में उनका वेजा स्वायं कभी नही रहा और श्रवसरवादिता का आश्रय लेकर उन्होने कभी भी लाभ नही उठाया । वे रातदिन परिश्रम करते हैं । किमी भी महान् लेखक या अनुवादक की कृति क्यो न हो, स्वय जवतक शब्द मूल से मिलाकर सशोधित, परिमार्जित और शुद्ध नही कर लेते तबतक कोई भी पाण्डुलिपि प्रेस में नही जाती । किसी रचना को स्वीकार भी तब करते है, जब वह उनकी अपनी कसौटी पर खरी उतर आती है। बड़े नामो के प्रति उन्हें कोई श्राकर्षण नहीं हैं और पसन्द आ जाय तो साधारण लेखक की चीज भी स्वीकार करने में उन्हें झिझक नही होती | हिन्दी के माने हुए श्राचार्यो और विद्वानो की रचनाएँ कसौटी पर खरी न उतरने के कारण उन्होने लौटा दी और उन ग्रन्थकारो के कोपभाजन बने । व्यक्तिगत रूप मे ऐसे आदमियो द्वारा प्रेमीजी की श्रालोचना सुनने में आ जाती है, पर ये महानुभाव यह नही सोचते कि प्रेमीजी के इस स्वग्य और निष्पक्ष दृष्टिकोण के कारण ही हिन्दी की प्रकाशनसम्याश्रो में 'हिन्दी-ग्रन्थ- रत्नाकर' सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन संस्था मानी जाती है । प्रेमीजी ने भर्ती के ग्रन्थ नही छापे । स्वय ही हर किताव के प्रूफ देखे हैं । पुस्तको की छपाई -सफाई में बाज़ार का ध्यान रखकर उन्होने ग्राडम्बरयुक्त सजावट की बात कभी नही सोची । यह तो हुआ उनका व्यावसायिक पहलू । श्रव एक दूसरा पहलू श्रीर देखे । प्रेमीजी जैन विद्वान् है । 'जैन साहित्य और इतिहास' में उनके वे खोज - सम्वन्धी लेख है, जिनके लिए आज से तीस वर्षं पूर्व उतनी सामग्री सुलभ नहीं थी, जितनी श्राज है । श्राज तो विद्वान् लोग भी प्रेमीजी के इन लेखो का सहारा लेते है । 'महाकवि स्वयम्भू' को प्रकाश मे लाने का श्रेय महापडित राहुल सांकृत्यायन को दिया जाता है, लेकिन श्राज से पच्चीस वर्ष पूर्वं दो लेख प्रेमीजी ने उसके बारे में 'जैन- हितैषी' में लिख दिये थे, जो उनकी 'जैन साहित्य श्रीर इतिहास' पुस्तक में सकलित है। यदि प्रकाशन के कार्य में ही प्रेमीजी का समय न चला गया होता तो निश्चय ही वे स्वयं अपनी बहुत-सी मूल्यवान रचनाओ से हिन्दी साहित्य की अभिवृद्धि कर सकते थे । कौटुम्बिक दुखो से प्रेमीजी पिस गये है। इकलोता, निर्भीक, चरित्रवान और विद्वान् वेटा हेमचन्द्र चल वसा । उसके पहले प्रेमीजी की पत्नी की मृत्यु हो गई थी। इस पर श्वाँस जब-तब परेशान कर डालता है । अनवरत परिश्रम और अध्ययन ने भी प्रेमीजी के स्वास्थ्य को बहुत क्षति पहुँचाई है, पर उनके मनोवल, सतत् ७ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी अभिनंदन ग्रंथ ५० जागरूकता के सकल्प और दो छोटे पोतों ने उन्हें जीवित रक्खा है और मानसिक दृढता से वे अस्वस्थता पर विजय पाये हुए हैं। हमारी कामना है कि प्रेमीजी अभी बहुत दिनो तक अपने परिपक्व अनुभव तथा ज्ञान के द्वारा हमारा मार्गप्रदर्शन करते रहें । बम्बई] हार्दिक कामना श्री माना वरेरकर वगीय और गुर्जर भाषा में से चुनिन्दा साहित्य हिन्दी भाषियों को सुलभ कर देने के कार्य में जिन्होंने अपना सर्वस्व दे दिया तथा जिन्होने प्रत्यत सुवीध हिन्दी भाषा में चुने हुए साहित्य-प्रय श्रनुवादित कराकर सर्वसाधारण पाठक को सन्ते मूल्य में प्राप्य करा दिये और इस प्रकार स्वायंत्यागपूर्ण पुस्तक प्रकाशन-व्यवसाय चलाया, युद्ध से उत्पन्न भयानक परिस्थिति में भी जिन्होने मराठी या अन्य प्रकाशको की भाति अपनी पुस्तको की कीमते बहुत अधिक नहीं वढाई और अपने ग्राहकों को ऐसी दशा में भी सतुष्ट रखने का प्रयत्न किया, और इस प्रकार हिंदी भाषा का वैभव तथा हिंदी भाषियों के साहित्यप्रेम को जिन्होने उपयुक्त रीति से बढाया - ऐसे श्री नाथूराम 'प्रेमी' को दीर्घायुरारोग्य प्राप्त हो, ऐसी हृदय से कामना करता हू । मेरे मित्र स्व० शरच्चंद्र चट्टोपाध्याय का साहित्य हिंदी में अनूदित कर उन्होंने बगला तथा हिंदी दोनो भाषाओं पर जो उपकार किया है, वह वाड्मय के इतिहास की दृष्टि से अमूल्य है । उसी भाति भाषा का अधिकृत वाङ्मय हिंदी भाषियो को सुपरिचित करा देने की ओर भी आगामी काल में उनका ध्यान प्राकृष्ट हो, ऐसी में श्राशा प्रदर्शित करता हू | Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहासकार 'प्रेमीजी' श्री० गो० खुशाल जैन एम० ए० __ पाश्चात्य विद्वानों का यह आरोप था कि भारतीय विद्वानो में ऐतिहासिक चेतना नही थी। प्रत उनकी कृतियो के आधार पर किसी वश, परम्परा, स्थान आदि का इतिहास तयार नही किया जा सकता। इतना ही नहीं, उन लेखको के प्रामाणिक जीवन-चरित भी उनकी रचनाओं के आधार पर नही लिखे जा सकते । लेकिन विदेशी तथा भारतीय पुरातत्त्व-विशारदी की सतत् साधना से उद्भूत गम्भीर और सूक्ष्म शोधो ने उक्त कथन की निस्सारता को ही सिद्ध नहीं किया है, अपितु प्राचीन भारत का सर्वाङ्ग सुन्दर राजनैतिक एव सास्कृतिक इतिहास भी प्रस्तुत कर दिया है। भारत की प्राचीन संस्कृतियो में से अन्यतम जैन-सस्कृति के ऐतिहासिक अनुशीलन के लिए जिन विद्वानो ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है, उनमें प्रेमीजी का ऊंचा स्थान है। प्रेमीजी के साहित्यिक जीवन का सूत्रपात कुछ आगे-पीछे 'जनहितपी' के सम्पादकत्व, 'माणिकचन्द्र ग्रन्यमाला' के मन्त्रित्व और "हिन्दी-ग्रन्य-रलाकर कार्यालय' के स्वामित्व के अनुमग से हुआ है। उनकी चिन्ता मौलिक, तलस्पी और उदार है। अतएव वे 'जनहितपी' में उस समय की प्रथा के अनुसार चालू वस्तु देकर ही अपने सम्पादकीय दायित्व की इतिश्री नही कर सके। इस युग का प्रधान लक्षण युक्तिवाद उन्हें प्रत्येक परिणाम और मान्यता की गहराई में प्रवेश करने की प्रेरणा करता था। उन्होने जबलपुर में हुए सातवें हिन्दी साहित्य-सम्मेलन मे 'जैन-हिन्दी-साहित्य" शीर्षक निवन्ध पढा था। यह निवन्ध उनकी शोधक वृत्ति का परिचय देने के लिए पर्याप्त है। इमसे स्पष्ट है कि प्रेमीजी ने प्रारम्भ से ही अपने दृष्टिकोण को वैज्ञानिक तया कालक्रमानुगत बनाने के लिए अथक परिश्रम किया तया इस दिशा में लेखनी चलाने के पहले विविध शास्त्र-भडारो में बैठ कर बहुमूल्य सामग्री सकलित की। 'माणिकचन्द्र-ग्रन्य-माला' के सचालन ने उनकी जिज्ञामा को और भी प्रखर कर दिया था। हस्त-लिखित ग्रन्यों को केवल छपवा कर निकाल देने में ही प्रेमीजी को कोई रस न था, गोकि जनसमाज में प्रकाशन की यह पद्धति पहले थी ही नहीं, आज जो है। उनकी जागरूक चेतना उन प्राचार्यों के स्थान, पूर्वज, गुरु, काल, सहकर्मी, प्रशसक तथा रचनाओ को जानने के लिए व्याकुल हो उठी, जिनके प्रत्येक वचन में ससार की उलझी गुत्थियो को सुलझाने के उपाय है। इस मानसिक भूख को शान्त करने के लिए जब प्रेमीजी ने पुरातत्त्व की ओर दृष्टि फेरी होगी तो विविध साहित्य से परिपूर्ण नाना शास्त्र-भडारो, देवालयो, मूर्तियो, शिलालेखो, ताम्रपत्रो, पट्टावलियो, लोकोक्तियो आदि विशाल सामग्री को देख कर अवश्य ही कुछ क्षणों के लिए वे द्विविधा मे पड गये होगे। लेकिन कठिनाइयो से घबराना उनके स्वभाव के विरुद्ध है। अत: धैर्यपूर्वक सयत भाव से उस विपुल सामग्री का अध्ययन करके उन्होने प्राचार्यों का परिचय देने पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। इसके बाद जन-समाज में प्रकाशन का एक नया युग प्रारम्भ हुआ, जिसका श्रेय 'माणिकचन्द्र-अन्यमाला' को और उसके कर्णधार प्रेमीजी को ही है। मगलाचरण, गुरु तया श्रेष्ठ पुरुषो के स्मरण और उदाहरण स्वरूप आये पुरुषो के उल्लेख तथा प्रशस्तियो के प्रामाणिक एव पालकारिक वर्णन में प्रेमीजीने कमाल कर दिखाया। साहित्य समाजोद्भूत होते हुए भी उसकी जीवन-धारा का अक्षय स्रोत है। अतएव उसमें आये विविध सास्कृतिक विषय भी प्रेमीजी की पैनी दृष्टि से नहीं बच सके। फलस्वरूप उन्होने अनेक प्रकार की ऐतिहासिक रचनाएं की, जिन्हें सुविधा के विचार से दो भागो में विभक्त किया जा सकता है-(अ) जनसाहित्य का इतिहाम तथा (मा) स्फुट जैन-सास्कृतिक इतिहास । "जन हितैषी' प्र० १२ पु०, ५४१-५६८, प्र० १३ पृ० १०-३५ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ पू२ जैन साहित्य का इतिहास-जैनसाहित्य का भण्डार अत्यन्त समृद्ध है। अत यह देख कर आश्चर्य होता है कि प्रेमीजी ने (१) साहित्यकारो के इतिहास, (२) ग्रन्थो का विशेष अध्ययन तथा (३) कतिपय ग्रन्थो की व्यापक तुलना करने के लिए पर्याप्त समय कहाँ से निकाला.होगा! इस पर भी विशेषता यह कि प्रेमीजी की लेखनी ने एक-दो विषय के विद्वानो के ही शब्द-चित्र नही खीचे है, अपितु धर्मशास्त्री, नैयायिक, वैयाकरण, समालोचक तथा स्रष्टा कवि, पुराण-निर्माता, टीकाकार, आयुर्वेदशास्त्री, तान्त्रिक आदि सभी के चरित्र उनकी शोध और लेखनी के सहारे मूर्तिमान हुए है। ___साहित्यकारो का इतिहास-'कवि चरितावली' सर्व प्रथम विद्वद्रत्नमाला' के रूप में प्रकाश में आई थी। इममें पुराणकार महाकवि जिनसेन गुणभद्र, धर्मशास्त्री आशाघर तथा अमितगति, सर्वशास्त्र चक्रवर्ती वादिराज, नाटककार मल्लिषेण तथा नैयायिको के दीक्षागुरु स्वामी समन्तभद्र के जीवन सकलित है। इन निवन्धो में प्रेमीजी ने प्रत्येक आचार्य की जन्मभूमि, विद्यास्थल तथा ग्रन्थ निर्माण क्षेत्र का वर्णन किया है, विविध स्रोतो के सहारे पूर्वजो का परिचय दिया है और उनका समय-निर्धारण किया है। साथ ही उनकी प्राप्य-अप्राप्य रचनाओ का भी परिचय दिया है। तत्पश्चात् यह धारा 'जन-हितषी' तथा अन्य शोधक पत्रो के लेखो तथा ग्रन्थमाला के ग्रन्यो की भूमिका के स्प मे प्रवाहित हुई। फलस्वरूप आचार्य वीरसेन', अमृतचन्द्र, शिवार्य, अमितगति, पाशाधर आदि धर्मशास्त्रकार विद्वानो के इतिहास निर्मित हुए है। आचार्य वीरसेन की कृतियां जिस प्रकार महत्त्वपूर्ण है, उसी प्रकार उनके सम्बन्ध की जो सामग्री प्रेमीजी ने सकलित की है, वह भी, विशाल और बहुउपयोगी है। पडिताचार्य आशाधर जी के विषय में प्रेमीजी ने जो कुछ लिखा है, वह उनके पाडित्य पर ही प्रकाश नही डालता, अपितु अन्य लेखको के लिए उपयोगी सामग्री भी उपस्थित करता है। उन्होने अध्यात्म-रहस्य, योगशास्त्र, राजमिती विप्रलम्भ आदि सभी विषयो पर सफलतापूर्वक लेखनी चलाई थी। स्वामी समन्तभद्र, आचार्य प्रभाचन्द्र, देवसेनसूरि, अनन्तकीर्ति आदि नैयायिक थे। प्रेमीजी के लेखो को देखने पर इनकी विद्वत्ता का मानचित्र सामने आ जाता है। आचार्य प्रभाचन्द्र ने सभी विषयो पर लिखा है, किन्तु उनकी कीर्ति-पताका न्याय के ग्रन्थो पर ही लहराती है। , आचार्य जिनसेन,, गुणभद्र," चामुण्डराय' आदि अपने समय की अनुपम विभूतियां थी। इनका प्रभाव केवल साहित्यिक क्षेत्र में ही नहीं प्रतिफलित हुआ था, अपितु सर्वव्यापी था। प्राचार्य जिनसेन की पुराण-निर्माण शैली तो शतियो तक पुराण-निर्माताओ के लिए आदर्श थी। आचार्य पुष्पदन्त" तथा विमलसूरि" ने प्राकृत 'वम्बई, जनमित्र कार्यालय, १९१२ जनहितैषी १९११ जनहितैषी १९२० "अनेकान्त १९३१ 'जनहितैषी १६०८ 'जनहितैषी १९०६ "विद्वद्रत्नमाला पृ० १५६ 'अनेकान्त १९४१ 'जनहितैषी १९२१ जनहितैषी १९१५ "जनहितैषी १९११ जनहितैषी १९१६ "जनसाहित्य सशोधक १९२३ जनसाहित्य और इतिहास पृ० २७२ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३ इतिहासकार 'प्रेमीजी' भाषा में पुराणो की रचना करके जन-साधारण के लिए धर्मकथा को मार्ग खोल दिया था। दिनोदिन प्रकाश मे आने वाली कृतियाँ इनके साहित्यिक क्षेत्र को विस्तृत ही करती जा रही है। इनके तथा स्वयभू, त्रिभुवन स्वयभू प्रभृति प्राकृत कवियो के विषय में जो कुछ लिखा गया है उसमे पता चलता है कि प्रेमीजी ने अपभ्रश भापानो का कितना मूक्ष्म अध्ययन किया है। प्रेमीजी के उद्योग से ही कवि चतुर्मुख' की स्थिति स्पष्ट हो सकी है। अपभ्रश के अध्ययन-मार्ग के तो प्रेमीजी एक प्रकार मे प्रवर्तक ही है। कविराज हरिचन्द्र, वादभिसिंह,' धनजय, महासेन, जयकीति, वाग्भट आदि कवि थे। इनकी रचनाएं मस्कृत साहित्य की अमूल्य निवियाँ है । जहाँ धनजय का 'द्विसन्धान काव्य' समस्त कवियो को निरस्त्र कर देता है, वहां हरिचन्द्र का 'धर्मगर्माभ्युदय' सरलता से " सन्ति त्रयो गुण" को चरितार्थ करता है। पूज्यपाद देवनन्दि' तया मुनि शाकटायन' शब्दशास्त्री थे। मल्लिषेण" तथा वादिचन्द्र' नाटककार थ। टीकाकार श्रुतसागर", नीतिवाक्यामृत के रचयिता मोमदेवसूरि" तया प्राध्यात्मरसवेत्ता आचार्य शुभचन्द्र" अपने ढग के निराले विद्वान थे। इनकी कृतियां अपने-अपने विषय की अनुपम रचनाएं है । इन सव को प्रकाश में लाने का श्रेय प्रेमीजी को ही है। अन्य परिचय-कितने ही सस्कृत तया प्राकृत ग्रन्यो का गम्भीर अध्ययन करके प्रेमीजी ने उनका महत्त्व प्रकट किया। इस प्रकार के अध्ययन की बदौलत ही आराधना' की अनेक टीकाएं प्रकाशित हुई है। 'नीतिवाक्यामृत' का अनुशीलन केवल प्रेमीजी की उदार ममालोचक वृत्ति का ही परिचायक नहीं है, अपितु अन्य की महत्ता को भी सुस्पष्ट कर देता है। उन्होने इसकी कौटिल्य के अर्थशास्त्र के साथ जो तुलना की है, वह तो अपने ढग की एक ही है। इसी प्रकार लोकविभाग तिलोयपण्णत्ति तया जम्बूद्वीप पण्णत्ति के विश्लेषण जैनाचार्यों की तीक्ष्ण भौगोलिक अभिरुचि के परिचायक है। प्रेमीजी की बहुमुखी साहित्यिक एव ऐतिहासिक प्रवृत्तियो का इस लेख में विस्तृत परिचय देना सम्भव नही। प्राप्य, अप्रकाशित तथा अप्राप्य ग्रन्थो का परिचय देकर उन्होने साहित्य की महान सेवा की है। वे केवल सस्कृत तया प्राकृत के कवियो को ही ख्याति में नहीं लाये है, कर्णाटक आदि प्रान्तीय भाषाओ के कवियो को भी उन्होने प्रकाशित किया है । अतएव प्रेमीजी की कृतियो को स्व० विण्टरनित्य के जैन-साहित्य के इतिहास" का पूरक ही नही, परिवर्द्धक भी कहना उचित ही होगा। 'जनसाहित्य और इतिहास पृ० ३७० जैनसाहित्य और इतिहास पृ० ४७२ 'क्षत्रचूणामणि (भूमिका) १९१० "जनसाहित्य और इतिहास पृ० ४६४ "जनसाहित्य और इतिहास पृ० १२३ 'अनेकान्त १९३१ "जनसाहित्य और इतिहास पृ० ४८२ 'जनहितैषी १९२१ 'जनहितैषी १९१६ "विद्वद्रत्नमाला पृ० १५४ "जनसाहित्य और इतिहास पृ० २६७ ११ जनहितैषी १९२१ "जनसाहित्य सशोधक १९२३ "अनेकान्त १९४० "जनहितैषी १९१७ "जनसाहित्य और इतिहास पृ० २५१ "हिस्ट्री ऑव इण्डियन लिटरेचर कलकत्ता वि० वि० १९३३ “कर्णाटक जैन कवि, बम्बई १९१४ पहिस्ट्री प्राव इण्डियन लिटरेचर । वि०वि१९३३ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ ___स्ट तास्कृतिक इतिहास की ओर दृष्टिपात करने पर ज्ञात होता है कि प्रेमीजी ने सस्कृति के इनेगिने पगो का ही पोपण नहीं क्यिा है, बल्कि तीर्थक्षेत्र, वश, गोत्र आदि के नामो का विकास तथा व्युत्पत्ति, प्राचारसाल के निपनो का भाग्य विविध संस्कारो का विचार, दानिक मान्यताओ का विश्लेषण आदि सभी विषयो का ऐतिहानिक दृष्टि से विवेचन क्यिा है। "हमारे तीर्थक्षेत्र", "दक्षिण के तीर्थक्षेत्र तथा "तीर्थों के झगडो पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार " इन निवन्यो के द्वारा पौराणिक वर्णन, निर्वाणकाण्ड, शिलालेख, प्रतिष्णप्रशस्ति, तीर्थमाला गदि उपलब्ध नामत्री के आधार पर प्रेमीजी ने तीयों की तीर्थता का कारण, उनके भेद, मूल स्थान तथा प्राचीनता का विशद विवेचन किया है। इतना ही नहीं, ऐतिहासिक विकान की धारा का निरूपण करके यह भी सिद्ध कर दिया है कि उनके लिए झगडना सस्कृति-विरोधी ही नहीं है, सर्वया निस्सार भी है। ___ सिंघई, सिाई, सघवी, सी, साधु, साहु', पतिपली के समान नाम' आदि टिप्पणियां जितनी रोचक है उससे अधिक पव-प्रदर्शक भी हैं। उनसे गोत्र आदि के शुद्ध जैनस्वल्प को समझने की प्रेरणा मिलती है। परिरह परिमाण के दास-दानियो का प्रखर परीक्षण, जैनधर्म को अनीश्वरवादिता का पोषण तथा यज्ञोपवीत और जैनधर्म का सम्बन्ध-विचार प्रेमीजी की परिश्रमपूर्ण खोज के घोतक है। __ आचार्यों के समय, स्थान, प्रेरक, श्रोता, आदि के विवेचन के प्रसन मे प्रेमीजी ने अनेक राजाओ, शिलालेखो आदि का उल्लेख क्यिा है। यया-पाचार्य जिनतेन के साथ भण्डिकुल भूषण महाराज इन्द्रायप, राष्ट्रवशी श्री वल्लभ-गोविन्द द्वितीय, प्रतीहारवशी वत्सराज का विवेचन, मुनि शाकवायन के प्रकरण से महाराज अमोघवर्ष तया शक राजाओं का निरूपण, पण्डिताचार्य आगाधर जी के सम्बन्ध में परमार विन्ध्य वर्मा, सुमट वर्मा, अर्जुन वर्मा, देवपाल तथा जयसिंह द्वितीय का उल्लेख, भाचार्य सोमदेव के अनुसग से राष्ट्रकूट कृष्णराज तृतीय की सिंहल, चोल, वर विजयो का वर्णन, श्रीचन्द्र के साथ परमार भोज, आचार्य प्रभाचन्द्र के साथ परमार जयसिंह, मादि का विवेचन । इन खोजोसे केवल आचार्यों के समय तया त्यान, आदि का ही निर्णय नहीं हुआ है, अपितु इन आचार्यों के निर्देशो के द्वारा इन वशो के इतिहाच की अनेक मान्यताम्रो का पोषण, परिवर्तन और परिवर्द्धन भी हुमा है। इस प्रकार प्रेमीजी ने इतिहास की भी पर्याप्त सेवा की है। यापनीय साहित्य के विषय में प्रेमीजी की खोले अत्यन्त गम्भीर और प्रमाणो से परिपुष्ट हैं। यापनीय संघ के प्रारम्म, भेद, आचार्य-शिष्य परम्परा आदि सभी अगो का प्रेमी जी ने विविध दृष्टियो से विवेचन किया है। इसके अनुनग से पचस्तूप, सेन आदि अनेक अन्वय भी प्रकाश में आ गये हैं। 'जैन मिद्धान्त भास्कर १६३६ 'अनेकान्त १६४० 'जैन हितैषी १९२१ 'जन साहित्य और इतिहास पृ० ५४० 'जैन साहित्य और इतिहास पृ० ५४१ 'जन साहित्य और इतिहास पृ० ५४२ "जैन साहित्य और इतिहास पृ० ५४६ 'जैन साहित्य और इतिहात पृ० ५६२ 'जैन साहित्य और इतिहास पृ० ५२६ "इण्डियन एप्टोक्वायरी प्र० २७, १८९८, ६७-८१, ६२-१०४, १२२-१३६ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहासकार 'प्रेमीनी स्पष्ट है कि प्रेमी जी की प्रवृत्ति इस क्षेत्र में सर्वतोमुखी है। इतना होने पर भी प्रेमीजी शुद्ध जिज्ञासु रहे है। उन्हें किसी भी मान्यता में पक्षपात नहीं है। किसी भी मावन का उपयोग करते समय उनकी दृष्टि वस्तु-स्थिति पर ही रहती है, अपने अभीष्ट परिणाम पर नहीं। उनके सभी निष्कर्ष तटस्थ रहते है। दृष्टि उदार है, इसीलिए जाति, धर्म, देग, आदि का विचार उनके अनुशीलन को किमी प्रकार भी प्रभावित नहीं करता। नवीन सामग्री के प्रकाश में वे अपने प्राचीन मन्तव्यो को सहज ही परिवर्तित कर देते है। यही कारण है कि 'जैन-साहित्य तया इतिहास, में हम उनकी अधिकाम पूर्व प्रकाशित रचनाओं को सर्वथा नूतन तथा परिष्कृत रूप में पाते है। उनकी सरल, सुवोध और सरस शैली ने इतिहास जैसे शुष्क विषय को भी रोचक बना दिया है। प्रेमीजी की इन कृतियो से जैन-सस्कृति पर तो प्रकाग पडा ही है, साथ ही हिन्दी-साहित्य भी उनसे समृद्ध हुआ है। पारा] "हिन्दी-ग्रंथ-रत्नाकर-कार्यालय द्वारा प्रकाशित १९४२ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमीजी की देन १० देवकीनन्दन प्रेमीजी से मेरा बहुत पुराना परिचय है। मेरे विचार से उनके लेखो से जन-जनता की मनोवृत्ति में जितना परिवर्तन हुआ है, उतना अन्य कारणो से नहीं। उन्होंने किसी भी शिक्षा प्रेमी को, चाहे वह सुधारक हो, अथवा स्थितिपालक, अपनी दृष्टि से शिक्षा देने का प्रयत्न नहीं छोड़ा। उनका मत मान्य होता है या नहीं, इसकी उन्होने अधिक चिन्ता नहीं की। अपने मत की पुष्टि सयत ढग से निरन्तर करते रहे है। इन बातो से निष्कर्ष निकलता है कि प्रेमीजी अपने विचारो में दृढ है और प्रभावशाली ढग से उनका प्रचार करते है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि वे अपने विचारो का भाषण द्वारा नही, बल्कि वैयक्तिक परिचय एव सम्पर्क द्वारा दूसरो पर प्रभाव डालते है । जन-समाज में शायद ही कोई ऐसा विद्वान हो, जिसने प्रेमीजी के समान अपनी स्वाभाविक जिनामा एव प्रामाणिकता के द्वारा देश के विद्वानो मे इतना नाम कमाया हो। सन् १९०७ में प्रेमीजी अपने पुस्तक-सम्बन्धी किसी मामले में काशी गये थे। मै भी वहां पहुंचा। उस समय स्याद्वाद महाविद्यालय के छात्रो के समक्ष भाषण देते हुए प्रेमीजी ने कहा था-केवल अगेजी पढ-लिखकर ही कोई सुवारक नही बन सकता । सच्चा सुधारक तो वही हो सकता है, जो सस्कृति का तुलनात्मक अध्ययन करके अपने विचारो को पुष्ट करे। आज के ये पडित लोग कालान्तर में सुधारक बन जायेंगे। प्रेमीजी के इस कथन को इतने वर्ष वाद आज मै स्वय अपनी आँखो सत्य होते दे प्रेमीजी की सदा से यह भावना रही है कि विद्यालयो में प्राकृत और अपभ्रश का पठन-कम रक्खा जाय तथा इन भाषाओं के व्याकरण एव कोष छपाये जायें। इससे जिज्ञासुनो को जैनागमो का रहस्य समझने में वडी सहायता मिल सकती है। इस प्रयल में प्रेमीजी को पूरी सफलता तो नही मिली, लेकिन साहित्य-प्रेमियो का ध्यान भाषा और विज्ञान के अध्ययन की ओर अवश्य आकृष्ट हुआ है। प्रेमीजी ने अपने ज्ञान का अर्जन स्वय किया है। उनके जीवन की सबसे बडी खूबी यही है कि वे प्रारम्भ से ही स्वावलम्बी रहे है और सात्विक दृष्टि से विविध विषयो का अध्ययन करके लगन और परिश्रम के माथ उन्होने पाठको को स्वस्थ मानसिक भोजन प्रदान किया है। कारजा] Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार मुनि जिनविजय सुहृद्वर प्रेमीजी के साथ मेरा प्रथम परिचय सन् १९१२-१३ के लगभग पत्र-व्यवहार द्वारा हुआ। प्रेमीजी उस समय 'जनहितैषी' नामक छोटे-से हिन्दी मासिक पत्र का सम्पादन करते थे, जिसमें जैन-इतिहास और साहित्य-विषयक लेख विशेष ढग से लिखे जाते थे। मेरे प्रारम्भिक अध्ययन की रुचि भी इन्ही विषयो में अधिक थी। जव से मुझे पता चला तव से मैने प्रेमीजी द्वारा सम्पादित उस मासिक को नियमित रूप से पढना प्रारभ कर दिया और उसमें प्रेमीजी के साहित्य एव इतिहास-सम्बन्धी लेखो को मनन-पूर्वक पचाने का प्रयत्न करने लगा । ज्यो-ज्यो प्रेमीजी के लेख पढता था, मेरी उस विषय की जिज्ञासा वढती जाती थी। मै भी उस विषय मे कुछ लेखन और सशोधन करने का मनोरथ करने लगा, पर उस समय मेरी तद्विषयक अध्ययन-क्षमता बहुत ही स्वल्प थी और उसके बढाने की उत्कट अभिलाषा होने पर भी वैसी कोई साधन-सामग्री मुझे प्राप्य नही थी, लेकिन प्रेमीजी के लेख पढ कर जैन-साहित्य और इतिहास विषयक लेख हिन्दी में लिखने की योग्यता प्राप्त करना मेरे जीवन का ध्येय बन गया और मैने यथाशक्ति एव यथासाधन अपनी ज्ञान-साधना का लक्ष्य-विन्दु उस दिशा में स्थिर कर लिया। कसी अबोधावस्था में प्रेमीजी के लेखो ने मुझे प्रेरणा दी और किस प्रकार मै अपने जीवन-लक्ष्य के निकट पहुंचने की स्वल्प योग्यता प्राप्त कर सका, इसका स्मृतिचित्र मेरे मानस-पट पर, जब मै प्रेमीजी के बारे में अपने दीर्घकालीन स्मृति-चित्रो का सिंहावलोकन करने बैठता हूँ तो सबसे पहले उठ पाता है। मेरे हृदय के विशिष्ट कोने मे मेरे जीवन के प्रारम्भ से ही प्रेमीजी ने कैसा महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर रक्खा है, उसकी स्पष्ट कल्पना करने के लिए यहां कुछ निजी बातें अकित करना आवश्यक है। मैं उन दिनो सर्वथा प्रथमाभ्यासी की दशा में था। न हिन्दी लिखना जानता था और न गुजराती। कारण कि मेरा अध्ययन किसी स्कूल या पाठशाला में नही हुआ था। मेवाड के एक छोटे से गांव में एक अपढ राजपूत-घर में मैने जन्म पाया था और नी-दस वर्ष की अवस्था में मुझे वहां से उठा कर एक जैन यति की शरण में रख दिया गया था। , यति जी महाराज ने मुझे सर्व प्रथम 'प्रो नमः सिद्धम् सिखाया और वर्णमाला का परिचय कराया। उस जमाने में राजपूताने के ग्रामीण विद्यालयो मे सर्वत्र प्रचलित 'सिद्धो वर्णः' से प्रारम्भ होने वाला वह सूत्रपाठ रटाया जाता था, जो कातन्त्र व्याकरण का प्रथम पादरूप है और सस्कृतान्मिज्ञ शिक्षको की अज्ञानता के कारण इतना भ्रष्ट हो गया है कि उसका अर्थ न किसी शिक्षक की समझ मे आता था और न किसी शिष्य की। फिर मुझे पट्टी-पहाडे पढ़ाये गये। बस इतने ही मे मेरी प्राइमरी शिक्षा पूरी हो गई। अनन्तर यति जी ने जैनधर्म के 'णमोकार मन्त्र' आदि पढाना शुरू किये। साथ ही चाणक्य नीति के श्लोको का भी पाठ कराया। 'प्रज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मुन्मीलित येन' इस सुप्रसिद्ध श्लोक मे 'जिसे प्रथम गुरु बतलाया गया है, मेरे प्रथम गुरु वे यति जी ही थे। वस उतना-सा चक्षुरुन्मीलन कर वे स्वर्ग सिधार गये और मैं आश्रयहीन होकर किसी अन्य गुरु की शोध में इधर-उधर भटकने लगा। भटकते-भटकते स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय के एक साधु से भेंट हो गई, जिनके पास मैने दक्षिा ले ली। पांच-सात वर्ष तक उनकी सेवा की और जो कुछ ज्ञान-लाभ करने का अवसर मिला, प्राप्त किया। लेकिन यह ज्ञान केवल सम्प्रदायोपयोगी और सर्वथा एकदेशीय था। अत मेरी ज्ञानपिपासा यत्किंचित भी शान्त न होकर और भी अधिक तीव्र हो उठी। अन्त में मैने उस सम्प्रदाय का त्याग कर दिया और मूर्तिपूजक-सम्प्रदाय के एक प्रज्ञासपदधारक मुनि महाराज की सेवा में जा पहुंचा। इस सम्प्रदाय मे विद्याध्ययन का क्षेत्र अपेक्षाकृत कुछ विशाल था और उसके साधन भी कुछ अधिक रूप मे सुलभ होने से मैने अपनी ज्ञानपिपासा को अधिकाधिक सन्तुष्ट करने का प्रयत्न किया। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ ५८ अज्ञात को ज्ञात करने की मेरी उत्कट अभिलाषा ने मुझे इतिहास के विषय की ओर प्रेरित किया। जैनधर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय के स्थानकवासी और मूर्तिपूजक पक्ष के पारस्परिक मतभेदो का वास्तविक मूल क्या है और उसके साथ ही जैन-शास्त्रो में भारतवर्ष आदि के पुरातन युग के विषय में जो बाते लिखी हुई है उनका वास्तविक स्वरूप क्या है, इसके जानने की मुझे स्वाभाविक ही वडी उत्कठा होने लगी। उसके समाधान के लिए कौन-सा साहित्य है और वह कैसे प्राप्त किया जा सकता है, इसका मुझे कोई ज्ञान नही था। जैन साधुनो की तद्विपयक कोई पुस्तक मिलती तो मै उसका विचारपूर्वक मनन करता रहता था। इस समय तक में हिन्दी और गुजराती दोनो भाषाएँ ठीक-ठीक समझने लगा था, परन्तु अपने सम्प्रदाय के सिवाय इन भाषामो में लिखी गई अन्य पुस्तकें पढने या देखने का कोई अवसर नहीं मिला था। एक दिन अकस्मात एक बहुत ही विद्वान समझे जाने वाले महामुनिराज के अत्यन्त प्रिय शिष्य के पास हिन्दी-गुजराती की उक्त प्रकार को पुस्तको का ढेर पडा देखा, जिनमे टॉड के राजस्थान का हिन्दी रूपान्तर भी था। उस पुस्तक को मैने आद्योपान्त पढा और पढने पर ऐसा प्रतीत हुआ मानो मैने कोई अद्भुत ज्ञान प्राप्त कर लिया है। अपनी जाति के परमारवश तक का मुझे अबतक कुछ भी ज्ञान न था। टॉड का राजस्थान पढ़ कर मुझ में अपनी जाति के गौरव की अहन्ता जाग्रत होने लगी। इसी अन्य में जन-समाज और जैन-गर्म के इतिहास के भी कुछ उल्लेख यत्र-तत्र पढने मे पाये, जिससे जैन-जातियो और तीर्थों आदि के इतिहास की ओर भी मेरी जिज्ञासा बढ़ने लगी। इसके बाद से तो में इतिहास की पुस्तको के प्राप्त करने की कोशिश में निरन्तर लीन रहने लगा। उक्त साधु महाराज के पास से 'सरस्वती' के कुछ प्रक प्राप्त करके पढे । उनमें सभी विषय के अच्छे-अच्छे विद्वानो द्वारा लिखे लेख थे। यद्यपि उन सब लेखो को मै नही समझ सका तथापि जो भी मेरी समझ में आये, उन्हें मैंने कई बार पढ़ा। कुछ समय पश्चात् मुझे पाटण आदि के पुरातन जैन-भडारो का समुद्धार करने वाले इतिहाम-प्रेमी पूज्यपाद प्रवर्तक श्री कान्तिविजय जी महाराज की सेवा में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यहां मुझे पाटण के भडारो तथा 'सरस्वती' पत्रिका के अको को देखने का अवसर मिला। प्रेमीजी द्वारा सम्पादित 'जनहितैषी' मैने सर्वप्रथम यही पर देखा । उसके सब प्रक, जो वहाँ सुलभ हो सके, बडे चाव से पढ़ गया। तब से 'सरस्वती' और 'जनहितैषी' की हिन्दी को मैने अपनी भावी आदर्श भाषा के रूप में निश्चित किया। 'जैन-हितषी' मे जैन-इतिहास और साहित्य विषयक छोटे-बडे लेख प्रेमी जी नियमित रूप से लिखा करते थे। उन्हें पढ-पढ़ कर मै भी वैसे ही लेख लिसने का प्रयत्ल करने लगा। इस बीच प्रेमीजी का एक छोटा-सा लेख जैन शाकटायन व्याकरण पर लिखा हुआ मेरे पढने में आया। उन शाकटायनाचार्य के विषय में एक नवीन प्रमाण मुझे श्वेताम्बर ग्रन्थ में उपलब्ध हुआ था, जिसके आधार पर मैने एक छोटा-सा लेख तैयार किया। उस लेख को पहले तो 'जनहितैषी' में छपने के लिए भेजने की इच्छा हुई, लेकिन विचार हुआ कि प्रेमीजी दिगम्बर सम्प्रदायानुयायी होने के कारण शायद मेरा लेख अपने पत्र में छापना पसन्द न करें। प्रेमीजी से उस समय तक मेरा कोई विशेष परिचय न था। केवल इतना ही जानता था कि वे 'जैनहितपो' के सम्पादक है और हिन्दी के एक अच्छे लेखक माने जाते है। अत 'सरस्वती' में प्रकाशनार्थ वह लेख मैने प० महावीरप्रसाद जी द्विवेदी के पास भेज दिया। कोई दस-बारह दिन बाद मुझे द्विवेदी जी के हाथ का लिखा एक पोस्टकार्ड मिला। लिखा था "श्रीमन्, शाकटायनाचार्य पर का आपका लेख मिला । धन्यवाद । लेख अच्छा है। छापूगा। , विनीत म०प्र०द्विवेदी" Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राभार પૂર 'सरस्वती' के अगले अक मे वह लेख आ गया। उसके दो-एक महीने बाद प्रेमी जी का एक पोस्टकार्ड मिला, जिसमें लिखा था"मान्यवर मुनि महाराज, 'सरस्वती' मे शाकटायनाचार्य पर लिखा हुआ आपका लेख पढ कर मुझे बडी खुशी हुई । आपने बड़े अच्छे प्रमाण खोज निकाले है। कभी 'जनहितपी' में भी कोई लेख भेजने की कृपा करेंगे तो बहुत अनुग्रहीत हूँगा ।" बस इसी पोस्टकार्ड द्वारा प्रेमीजी से मेरे स्नेह-सम्बन्ध का सूत्रपात हुआ। प्रेमीजी का यह कार्ड मेरे लिए वहुत ही प्रेरणादायक और उत्साहवर्धक सिद्ध हआ। 'सरस्वती' में प्रकाशित उस प्रथम लेम्व के छापने की स्वीकृति की सूचना देने वाला प० महावीरप्रसाद जी द्विवेदी का पोस्टकार्ड प्राप्त कर जो मुझे अनिर्वचनीय आनन्द प्राप्त हुआ था, उससे कही अधिक प्रानन्द मुझे प्रेमीजी के इस पोस्टकार्ड से मिला। उससे मुझे विगिष्ट स्फूर्ति मिली, क्योकि मेरा आदर्श प्रेमी जो की तरह जैन-इतिहास और साहित्य के बारे में लिखना था। मुझ में आत्मविश्वास पैदा हुआ। इमके वाद प्रेमीजी के साथ मेरा पत्रव्यवहार प्रारम्भ हुआ। जैन-इतिहास और साहित्य के विषय में परस्पर विचारो का आदान-प्रदान होने लगा और दोनो के बीच काफी स्नेहभाव बढ़ गया। सन् १९१६ को जून मे श्री कान्तिविजय जी महाराज के साथ पादभ्रमण करता हुआ मै भी वम्बई में चातुर्मास करने के निमित्त आया। जिस दिन गोडी जी के जैनमन्दिर के उपाश्रय में हमने प्रवेश किया उसी दिन दोपहर को दो वजे प्रेमीजी मुझमे मिलने आये और वही उनसे प्रथम वार माक्षात्कार हुआ। उम वात को आज लगभग तीस वर्ष पूरे होने जा रहे है। इन तीस वर्षों में हम दोनो का पारस्परिक स्नेह सम्बन्ध दिन-प्रतिदिन बढता ही रहा है। प्रेमीजी मेरे निकट एक अत्यन्त यात्मीय जन जैसे बन गये है। इस सुदीर्घकालीन सम्बन्ध का सक्षिप्त परिचय देना भी यहाँ शक्य नहीं है। मेरे हृदय में प्रेमी जी का क्या स्थान है और मेरे जीवन के कार्य-क्षेत्र में उनका कौन-सा भाग है, यह सव इस लेख से स्वय स्पष्ट हो जाता है। बम्बई ] - - - - - D - Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधारक प्रेमीजी श्री कृष्णलाल वर्मा (१) सन् १९१२ में जब दिल्ली में पचम जार्ज का राज्यारोहण-उत्सव हुआ था, लाखो की भीड इकट्ठी हुई थी। जैनियो के भी अनेक विद्वान् आये थे। प्रेमीजी भी पधारे और गुरुवर्य स्व० अर्जुनलाल जी सेठी के साथ मै भी गया। इसी अवसर पर जैन-विद्वानो के स्वागतार्थ पहाडीधीरज पर ला जग्गीमल जी के मकान पर एक सभा हुई, जिसमे प्रेमीजी भी उपस्थित थे। उनसे प्रथम परिचय इसी सभा में हुआ। सभा की समाप्ति पर सब लोग बाहर आये। भोजन की उस दिन वही व्यवस्था की गई थी, लेकिन प्रेमीजी नही ठहरे। जाने लगे तो सेठी जी ने ला० जग्गीमल से कहा, "प्रेमीजी जा रहे है। उन्हें रोकिये।" प्रेमीजी आगे बढ गये थे। लाला जी ने अपने गुमाश्ते को उन्हे बुलाने के लिए भेजा। गुमाश्ते ने पुकारा, "ओ, म्याँ पडिज्जी । प्रो म्याँ पडिज्जी ।" लेकिन प्रेमीजी नही रुके। उन्हें क्या पता था कि 'म्यां पडिज्जी ।' कह कर उन्ही को पुकारा जा रहा है । अन्त में गुमाश्ता दौड कर प्रेमीजी के सामने गया और बोला, "अजी साहब, आपको लाला जी बुला रहे हैं।' प्रेमीजी लौट आये और 'म्यां पडिज्जी' सम्बोधन पर खासी दिल्लगी रही। x खास-खास जैनी भाइयो के लिए दिल्ली वालो ने एक स्थान पर भोजनशाला की व्यवस्था कर दी थी। पहले ही दिन बुन्देलखड के एक सिंघई को साथ लेकर भोजनशाला का पता लगा कर प्रेमीजी वहां पहुंचे तो देखते क्या है कि पाजामा पहने नगे बदन कई आदमी रसोई बना रहे है। उन्ही जैसे और भी आदमी काम में लगे थे। सिंघई जी को सन्देह हुआ। बोले, "अरे, यहाँ तो मुसलमान भरे हुए है। कही हम लोग भूल तो नही गये?" प्रेमीजी ने कहा, "नही, ये अग्रवाल जैनी है।" "जैनी "सिंघई जी आश्चर्य से वोले, "ये कैसे जैनी है कि जिनके सिर पर चोटी भी नहीं है और बदन पर धोती के बजाय पाजामा पहने है।" प्रेमीजी उन्हें मुश्किल से समझा सके। (२) x x सन् १९१३ की वात है । मैं उस समय वर्द्धमान विद्यालय जयपुर में पढता था। एक दिन स्व० अर्जुन लाल जी सेठी के स्व० पुत्र प्रकाशचन्द्र जी का जन्मोत्सव मनाया गया। उस अवसर पर समाज-सुधारक और राष्ट्रीय क्रान्तिकारी लोग ही सम्मिलित हुए थे। उनके प्रगतिशील विचारो के आधार पर एक लेख तैयार करके मैने 'जैन हितैषी' मे छपने के लिए प्रेमीजी के पास भेज दिया। आशा तो न थी कि छप जायगा , लेकिन कुछ दिन बाद ही प्रेमीजी का पत्र मिला। लिखा था_ "लेख मिला । छप जायगा। लिखते समय भाषा का ध्यान रक्खा करो। इस तरह के लेख जब मौका मिले, अवश्य भेजो।" Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधारक प्रेमीजी इस पत्र में यह भी बताया गया था कि लेख लिखने में किन-किन बातो का ध्यान रखना चाहिए। पूरे दो पन्ने की चिट्ठी थी। उससे मुझे अपने विकास का मार्ग निश्चित करने मे बडी सहायता मिली और मुझमें आत्म-निर्भरता उत्पन्न हुई। ___ जब वह लेख छपा तव मैने देखा कि मेरी भावना स्पी बेडौल मूर्ति को चतुर कारीगर ने छीलछाल कर सुडौल और सुन्दर बना दिया है और आश्चर्य यह कि मुझे ही उसका निर्माता बताया है । प्रेमी जी विधवा-विवाह और अन्तर्जातीय विवाह के प्रचारक और पोषक रहे है। उन्होने सर्वप्रथम विधवा-विवाह का आन्दोलन अमदावाद-निवामी स्व० मणिलाल नभूभाई द्विवेदी के एक गुजराती लेख का अनुवाद प्रकाशित करके प्रारभ किया। मुद्दत तक पक्ष-विपक्ष में लेख निकलते रहे। इन लेखो से प्रभावित होकर और अपनी विरादरी की कोई क्वारी लडकी शादी के लिए न मिलने के कारण स्व० प० उदयलाल जी काशलीवाल ने विधवा-विवाह करने का इरादा किया। उनके परमस्नेही वर्धा निवासी मेठ चिरजीलाल जी वडजात्या ने पहले तो क्वारी लडकी ही तलाश करने का प्रयत्न किया, लेकिन सफलता न मिली तो पडित जी ने एक विधवा से ही शादी कर ली। समारोह में श्वेताम्बर और दिगवर समाज के अनेक प्रतिष्ठित महानुभाव उपस्थित थे। प्रेमीजी ने भी पर्याप्त सहायता की। मम्कार-विधि सुप्रसिद्ध समाज-सुधारक स्व० प० अर्जुनलाल जी सेठी ने कराई। शादी तोहो गई, लेकिन तुरत ही भूलेश्वर (ववई) के दिगंवर जैनमदिर में खडेलवालो की पचायत हुई। विवाह में भाग लेने वाले सभी व्यक्तियो को आमन्त्रित किया गया था। स्व० सेठ सुखानन्द जी और प० धन्नालाल जी पचायत के मुखिया थे। ___ बहुत वाद-विवाद के बाद सेठ सुखानन्द जी ने पूछा, "अव हम लोगो के साथ आपका कसा वर्ताव रहेगा ?" सव चुप थे। जाति से अलग होने का साहस किसी में भी नही था। प्रेमीजी वोले, "हम गरीव आदमी धनिको के साथ कोई सवध नहीं रखना चाहते।" । ___ सेठ जी ने कहा, "अगर आप लोग माफी मांग लें और प्रतिज्ञा करें कि भविष्य में कभी ऐसे काम में शामिल न होगे तो आप लोगो को माफ किया जा सकता है।" ___इस पर प्रेमीजी से न रहा गया । बोले, "माफी | माफी वे मांगते है, जो कुछ गुनाह करते है। हमने कोई गुनाह नहीं किया। विधवा-विवाह को मै समाज के लिए कल्याणकारी समझता हूँ। जैन समाज में एक तरफ हजारो वाल-विधवाएं है और दूसरी तरफ हजारो गरीव युवक क्वारे फिर रहे है। उन्होने समाज के जीवन को कलुषित कर रक्खा है। आये दिन भ्रूण-हत्याए होती रहती है। इनसे छुटकारा पाने का सिर्फ एक ही इलाज है और वह है विधवा-विवाह।" ___ इतना कहकर प्रेमीजी वहां से चल दिये। कहना न होगा कि वे और उनके समर्थक पचायत से अलग कर दिये गये। कुछ समय पश्चात् प्रेमी जी ने अपने छोटे भाई नन्हें लाल की शादी एक विधवा से की। इस वार परवारो की पचायतों ने उन्हें भाई-सहित जाति-च्युत कर दिया। कुछ लोगो ने प्रेमीजी को सलाह दी कि कह दीजिये कि नन्हेंलाल के साथ आपका खानपान का सवध नही है। लेकिन प्रेमीजी ने कहा, "यद्यपि मै बबई में रहता हूँ और नन्हेंलाल अपने गाँव देवरी में, इससे साथ खानेपीने का प्रश्न ही नही उठता, तथापि मै ऐसी कोई घोषणा नही कर सकता। घोपणा करने का मतलब यह है कि मैं अपने सिद्धान्त पर कायम नहीं रह सकता हूँ। डरपोक हूँ और स्वय अपनी बात पर आचरण न कर समाज को गुमराह कर रहा हूँ।" Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनवन-पथ इतना ही नही, यह जाहिर करने के लिए कि उनका नन्हेलाल के साथ पहले जैसा ही सवध है, प्रेमीजी लगभग एक मास देवरी जाकर रहे । प्रेमी जी अतर्जातीय विवाह का भी आन्दोलन करते थे। जिस प्रकार विधवा-विवाह सवधी अपनी मान्यता को अमली जामा पहनाने का प्रश्न उनके सामने रहता था, उसी प्रकार अन्तर्जातीय विवाह सवधी अपनी मान्यता को भी व्यावहारिक रूप देने के लिए वे उत्सुक थे। अत जब उनके पुत्र स्व० हेमचन्द्र के विवाह की बात आई तो उन्होने इच्या प्रकट की कि उसके लिए परवार-समाज से बाहर की लडकी देखी जाय । लेकिन प्रेमीजी के मित्रो का आग्रह हुआ कि शादी परवार लड़की से ही की जाय। इससे विधवा-विवाह के विरोधी लोगो को पता लग जायगा कि वे चाहे जितना विरोध करें, चाहे जितने प्रस्ताव पास करें, लेकिन समाज विधवा-विवाह करने वालो के साथ है। प्रेमी जी बडे असमजस में पडे । एक ओर तो अपने सिद्धातो की रक्षा का प्रश्न था और दूसरी भोर यह प्रमाणित करने का प्रलोभन कि समाज विधवा-विवाह के समर्थको के साथ है। बहुत सोचा-विचारी के बाद उन्होने यही निश्चय किया कि परवार कन्या के साथ ही शादी की जाय और दमोह के चौधरी फूलचद जी की लडकी के साथ सगाई पक्की कर दी। जब यह समाचार बबई पहुंचा तो प्रेमी जी के एक अत्यन्त श्रद्धापात्र पडित जी ने परवार-समाज के एक नेता को लिखा कि आपको इस बात का प्रयत्ल करना चाहिए कि प्रेमीजी के समधी को भी विरादरी से अलग कर दिया जाय और शादी में परवार-समाज का एक बच्चा भी शामिल न हो। इस पर उन्होने विशेष रूप से दौरा करके सागर, दमोह और कटनी आदि की पचायतो में प्रस्ताव पास कराए कि शादी में कोई भी सम्मिलित न हो , लेकिन इसका कोई भी परिणाम न निकला। समाज और बाहर के कई सौ प्रतिष्ठित व्यक्ति सम्मिलित हुए और विवाह बडी धूमधाम से सम्पन्न हुआ। विरोधी मुंह ताकते रह गये । वम्बई | - Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : २: भाषा-विज्ञान और हिन्दी-साहित्य Page #85 --------------------------------------------------------------------------  Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय आर्य-भाषा में बहुभाषिता श्री सुनीतिकुमार चाटुा एम० ए० (कलकत्ता), डो०-लिट० (लदन) नव्य भारतीय आर्यभाषा के शब्द निम्नाकित वर्गों में से किसी एक के अतर्गत पाते है (१) उत्तराधिकार-सूत्र से प्राप्त भारतीय आर्य (इदो-यूरोपीय) गब्द' (शब्द, धातु तया प्रत्यय), जो प्राकृतज या तद्भव रूप मे मिलते है। (२) संस्कृत से उवार लिए हुए शब्द, जो तत्सम और पर्व-तत्सम शब्द कहलाते है। (३) भारतीय अनार्य शब्द, ठेठ देशी रूप, जो भारतीय आर्य-भाषा मे आद्य भारतीय आर्य-काल से लेकर नव्य भारतीय आर्य-भाषा के निर्माण-काल तक प्रचलित रहा। इस श्रेणी के अदर उन शब्दो का एक वडा समूह आता है, जिनकी उत्पत्ति वास्तव मे इदो-यूरोपीय नही है, और जिनके लिए उपयुक्त अनार्य (द्राविण तथा ऑस्ट्रिक) सबवो का पता लगाया गया है। (४) विदेशी भाषाओ के शब्द, जो आद्य भारतीय आर्य-काल से (जिसका प्रारभ वैदिक शब्दो मे कुछ मेसोपोटेमियन शब्दो के मिलने से होता है)लेकर वाद तक प्रचलित मिलते है। इन शब्दो मे प्राचीन ईरानी, प्राचीन ग्रीक, मध्य ईरानी, एक या दो प्राचीन चीनी, नवीन ईरानी (अथवा आधुनिक फारसी, जिनमें तुर्की और अरबी भी है) पुर्तगाली, फ्रेंच, डच और अग्रेज़ी गिने जाते है। (५) इनके अतिरिक्त कुछ अज्ञातमूलक शब्द है, जो न तो भारतीय आर्य-भाषा के है और न विदेशी है, किंतु जिनका सवय, जहाँ तक हमे ज्ञात है, भारत को अनार्य-भापानो के साथ भी निश्चय रूप से नहीं जोडा जा सकता। ऊपर के पाँच वर्गों में भारतीय आर्य-भाषा के सम्पूर्ण शब्द पा जाते है। नव्य भारतीय आर्य-भाषाप्रो के वे शब्द अपने या निजी है, जो वर्ग (१) के अन्तर्गत है, और भारतीय-उत्पत्ति-वाले उच्चकोटि के निजी सस्कृत-गर्भित शब्द द्वितीय वर्ग के अन्दर आते हैं। वर्ग (३), (४) और (५) के शब्द बाहरी बोलियो से लिये गये है, चाहे वे देशी हो या विदेशी। उत्तर भारत के अनार्यों ने प्रार्य-भाषामो को उस समय से अपनाना प्रारम्भ कर दिया था, जव आर्यभाषा-भाषी पजाव में वस कर अपने प्रभाव को फैला रहे थे और जब कि ब्राह्मण्य धर्म और सस्कृति की स्थिति पहली महस्राब्दी ई०पू० के प्रथम भाग में गगा की उपत्यका में दृढ हो गई थी। यह हालत आज तक जारी रही है, जब कि उत्तर भारत में अनार्य-भाषा-भाषी धीरे-धीरे आर्य-भाषाओ को अपना रहे है और जिसके फलस्वरूप कुछ शताब्दी में अनार्य-भाषा के सभी रूपो का लोप हो जाना अवश्यम्भावी दीख पड रहा है । जव पूर्व वैदिक काल में पार्यों और अनार्यों का सम्मिलन प्रारम्भ हो गया था तब यह अपरिहार्य था कि अनेक अनार्य शब्द तथा अनार्यों के कुछ बोलचाल के रीति-रिवाज; यदि प्रत्यक्ष नही तो परोक्ष या गुप्त रूप से, आर्य-भाषाओ में मिल जायें। आद्य तथा मध्य भारतीय आर्य-भापात्रो तया नव्य भारतीय आर्य-भापात्रो मे अनार्य शब्दो की उत्पत्ति इसी प्रकार हुई। उन विदेशी भाषाभाषियो से, जो भारत में विजेता के रूप में आकर यही बस गये, यहाँ के निवासियो का मेलजोल होने के कारण पारस्परिक सास्कृतिक सम्पर्क बढा, और इसके परिणाम स्वरूप भारतीय भाषायो मे अनेक विदेशी शब्दो का प्रादुर्भाव हो गया। ___ जो शब्द भाषा मे किमी कमी की पूर्ति करता है, वह प्राकृतिक रूप से शीघ्र ही उस भाषा का अग वन जाता है। जहाँ पर दो भाषा-भाषियो का सम्पर्क घनिष्ठ हो जाता है, वहां उस सम्पर्क के प्रभाव से एक दूसरे की भाषा के कुछ शब्दो से परिचित हो जाना स्वाभाविक ही है। इस प्रकार के भाषा-सम्वन्धी पारस्परिक प्रभाव के आरम्भ मे यह Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ ६६ आवश्यक या अपरिहार्यं है कि एक भाषा का प्रयोग करने वाले के लिए दूसरी भाषा के शब्दो के सम्वन्ध में कुछ व्याख्या दी जाय जिससे वह उन शब्दो को भली प्रकार समझ सकें। मान लीजिये कि किसी देशी भाषा-भाषी को कोई ऐमा विदेशी शब्द समझाना है, जिसे केवल उस विदेशी शब्द के उच्चारण- मात्र से वह नही समझ सकता, तव यह श्रावश्यक हो जाता है कि उस विदेशी शब्द का अनुवाद देशी भाषा में इस प्रकार दिया जाय कि देशी भाषा-भाषी उसे समझ सके। इस प्रकार के अनुवादमूलक समास या समस्त पद (Translation-compounds ) सभी भाषाओ मे मिलते है, जो किसी जीवित भाषा के सम्पर्क में आकर उनसे प्रभावित हुई है । उदाहरणार्थ अग्रेजी भाषा को लीजिए। प्राचीन मध्य-श्रग्रेजी-काल में, जब कि नार्मन फ्रेंच तथा अग्रेजी इग्लैड मे साथ-साथ वोली जाती थी, तत्कालीन लिखित साहित्य में इस प्रकार की व्याख्याएँ मिलती है —— जैसे कि लगभग १२२५ ईस्वी में लिखी हुई पुस्तक Anchene Rimile में – Cherité thet is luve; in desper anuce that is in unhope and in unbleave forte beon iboruwen, understondeth thet two manere temptaciuns-two kunne vondunges-beoth, pacience thet is tholemodnesse, lecher re thet is golnesse, ignorance that is wisdom and martenesse, इत्यादि (देखिए - Jespersen, ‘Growth and Structure of the English Language, Oxford, 1927, P 89 ) जव इग्लैंड मे फ्रेंच का विशेष चलन था और उसके शब्द अधिकाश में अपनाये जा रहे थे, तव शायद उपर्युक्त रीति अधिक प्रचलित हो गई थी, जिससे बाहरी भाषाओ के उपयुक्त शब्दो को भाषा में चालू किया जा सके । मध्यश्रग्रेज़ी काल के कवि (Chaucer) चॉसर ने ऐसे दर्जनो जुमले इस्तेमाल किये है, जिनमें कोई भाव फ्रेंच शब्द के द्वारा प्रकट किया गया है और फिर उसी की व्याख्या और अनुवाद एक अग्रेजी शब्द द्वारा किया गया है, या एक अग्रेजी शब्द की पुष्टि फेच शब्द के द्वारा करा दी गई है ( देखिए, येस्परसेन, वही पृ० ९8 ), उदाहरणार्थ - he coude songes make and wel endyte, faire and fetisly, sminken with his handes and labome, of studie took he most cure and most hede; poynaunt and sharp; lord and sire कैक्स्टन (Caxton) के ग्रंथो में — bonom and worship, olde and anmcyent, advenge and weke, feblest and wekest, good ne proffyt, fonwle and dishonestly, glasse or m11 01, इत्यादि । अग्रेजी में फ्रेंच शब्द विलकुल स्वाभाविक हो गये है, और श्रव इस बात की आवश्यकता नही है कि इन शब्दो को समझाने के लिए अग्रेजी में व्याख्या दी जाय । भारतीय आर्य भाषाओ में विदेशी शब्दो को किसी देशी या अन्य ज्ञात शब्द के द्वारा स्पष्ट करने की प्रथा मिलती है। इनमें अनेक समस्त - पद (Compounds) पाये जाते हैं, जिनमें दो शब्द होते है और दोनो प्राय एक ही अर्थ के सूचक होते हैं । नव्य भारतीय आर्य भाषा के अनुवाद-मूलक शब्दो मे वे पद स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते हैं, जिनमें एक शब्द विदेशी होता है, या एक ऐसा नया विदेशी शब्द होता है, जिसकी व्याख्या एक प्राचीन या प्रचलित शब्द के द्वारा दी होती है। इन अनुवादमूलक समस्त पदो में प्राय वडी शक्ति होती है और कभी-कभी वे किसी बात को विशिष्ट रूप से प्रकट कर देते है । विदेशी या नये शब्द किसी अभिप्राय के नवीन दृष्टिकोण को सूचित करते है । यहाँ वँगला भाषा से कुछ उदाहरण दिये जाते है - चा-खडी = चाक (ब्लैकवोर्ड पर लिखने के लिए) । यह अग्रेजी के उस चौक् या चोक शब्द का समस्तपद है, जो पहले-पहल आमतौर पर लोगोकी समझ में नही श्राता था, और जिसका अग्रेजी में उच्चारण चाकू तीन या चार पीढियो पहले था । इसके साथ बँगला की खडी (खडिया) शब्द मिलाने से चाक खडी या चाखडी हो गया । पाउँ-रुटी (= हिन्दी पाउँ-रोटी ) पुर्तगाली pac, paon पाओ (रोटी, उच्चारण पाउ) + वगला रुट्टी, हिन्दुस्तानी रोटी (चपाती) समास का पद अग्रेजी तन्दूर की रोटी या खमीर दी हुई रोटी के अभिप्राय मं श्राता है, जो हिन्दुस्तान में प्रचलित चपाती से भिन्न है । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय प्रार्य-भाषा में बहुभाषिता काज-घर बटन का छेद । casa (उच्चारण काम)=मकान+बंगला में घर मकान । अत घर (वटन के लिए)। सील-मोहर-किमी व्यक्ति की धातु की मोहर जिम पर उसका नाम या चिह्न अकित रहता है, अंग्रेजी के सोल+फाग्मी के मुहर के योग मे बना है, और वगला में सिर्फ मोहर के अयं में प्रयुक्त होने लगा है। __फारमी तथा भारतीय गब्दो के योग मै मिले हुए गन्द काफी मख्या में मिलते हैं। यहाँ बंगला से कुछ उदाहरण देना पर्याप्त होगा। (हिन्दुस्तानी तथा भारत की अन्य भाषाओं में ऐसे या इनसे मिलते-जुलते और कभीकभी बिलकुल एक जैसे ही रूप अवश्य मिलेंगे)। प्राशा-सोटा-गदा फ़ारसी-अरवी का शब्द असा+हिन्दुस्तानी सोटा सोटा डडा या गदा । खेल-तमाशा खेल-कूद आदि हिन्दुस्तानी खेल+फारसी तमाशा। शाक-सब्जी-हरी तरकारी मस्कृत शब्द शाफ-हरी तरकारी,जडी-बूटी+फारमी सन्जा-हरी भाजी। लाज-शरम या लज्जा-सरम हिन्दुन्नानी लाज (आर्य-भाषा का प्राकृतज गन्द) और लज्जा (संस्कृत)+ फाग्मी शर्म। दोनो गब्दो का एक ही अर्थ है। धन-दौलत सम्पत्ति हिन्दुन्नानी+फारमी (फारमी-अरबी)। जन्तु-जानवर भारतीय जंतु+फारमी जानवर । राजा-बादशाह राजा, गामक हिन्दुम्नानी राजा+फारमी वादशाह । लोक-लश्कर नौकर-चाकर हिन्दुस्तानी लोक (लोगो का समूह)+फारमी लश्कर (फौज, दल)। हाट-बाजार-बाजार, मेला हिन्दुस्तानी हाट+फारमी बाजार। दोनो का एक ही अर्थ है। झाडा-निशान-झडा, ध्वजा हिन्दुस्तानी झडा+फारमी निशान (वगना का झाडा-निशान, हिन्दी भडी-निशान)। हाडी-मुर्दफराश झाडू लगानेवाले, मसान या गोरम्यान में शवो के सत्कार करने वाले हिन्दुस्तानी हाडी (महनरो का अद्भूत वर्ग)+फारसी मुर्दा-फरोश मुर्दा ढोनेवाले। लेप-काया ढकने का वम्य, रजाई आदि लेप फारमी लिहाफ+बंगला काया-मस्कृत कथा (पुराने कपड़ी की मिली हुई कयरी)। प्रादाय-उसूल कर्ज या माडे का उगाहना मम्कृत प्रादाय-फारसी-अरवी का वसूल। काग्रज-पत्र काग़जात फारमी काग्रज+सस्कृत पत्र । गोमस्ता-कर्मचारी प्रतिभू या कर्मचारी फारमी गुमाश्ता+सस्कृत कर्मचारी। निरीह बेचारा-सीधा-सादा, गरीव व्यक्ति मस्कृत निरीह+फारसी वेचारा । ऊपर के उदाहृत अनुवाद-मूलक समस्त-पदो के अतिरिक्त जिनमें विदेशी प्रभाव स्पष्ट है, कुछ और पद है जिनके दोनो भागो में देशीपन मिलता है। उदाहरणार्थ पाहाड (पहाड) पर्वत=देशी पाहाड (उत्पत्ति का मूल अज्ञात)+ सस्कृत पर्वत । घर-बाडी-घर (मकान)+वाड़ी (Zगृह+वाटिका /वृत-)। गाछ-पाला-पोदे गाय/गच्य+पाला / पल्लव। हांडी-कुंडी मिट्टी के वर्तन, हांडी / भाण्ड+फुण्ड । ऐसे उदाहरण अन्य आधुनिक आर्य-मापानओ से बहुश दिये जा सकते है। इनमे से कुछ द्वन्द्व समास सरीखे है, जिनमें मयोग या सम्मेलन का भाव होता है। उदाहरणार्थ___कापड-चोपढ कपडे और डलियां कापड / फर्पट कपड़े, चीथडे+चोपड; मिलाओ चुपडी, चोपड़ी =डलिया। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय नवत पहले हन्द्वात्मक भावना यहाँ थी, किन्तु बहुत से स्थानो मे हम सब्दो को एकार्थी होने के कारण एक-दनको व्याल्या करते हुए पते हैं। जैने वंगला वास-पंजा-बकसे चोर पिटारे, प्रोजी bes (जिसका एन्चारण एक ताब्दी पहले baks पा)+वाला पेंटा, पेंड़ा/ पेटक-हिन्दी पेटो। न्ह दंगल के शब्दों में देनीपन ताफ नलकता है। उदाहरण के लिए वंगला पोला-पान-बच्चे (पूर्वी बंगला की बोली में पयुक्त)-पहाँ पोला सस्कृत पोत-तते है और पान आस्टिक गन्द पतीत होता है जो नपाली (को)में हॉपॉन पने मिलताहै पान इस शब्द का सादा प है। इसी प्रकार बंगला छले-पिले का भी प्रर्प लड-बच्चे हैं और इनकी उत्पत्तिप्राचीन वाला घालिया-पिलातेहैं। [धालिया या छावालिया प्राचीन भानीय पार्यशाव--साल+-इक-मार और पिला, जो स्नोस्प ने उडिया भापाने प्रयक्त होता है पौर जिनके । नाने तडका, बच्चा या जानवर कावन्चाइनका नव द्राविड भापा के साथ जोड दिया गया है (मिलामो तामिल पिल्लै गन्द)]। __ इन प्रकार नन्य भारतीय पार्य-भाषा नेहले मापा-सपीमिण का पता चलना है,जो पनलिन भाषामा में प्रयुक्त मिलता है। इन पगार के सब्दी-जैन ले-पिले, बाखडी, पाव-रोटी, राजा-बादशाह पादि के विश्लेषण में पता चलता है कि वे सपने समस्त-पद मूल्क मन्द हैं और वे अपने रूप को कायम रखते हुए भी एक मामूली बात कोही नूचित करते हैं। यह भी जात होता है कि दिन प्रकार विभिन्न भाषाओं के बन्दो ने मिलकर नर भारतीय पार्य-मापा के निमापने योग दिया है। भारतीय पाकृत तथा नन ने गये हुए गन्दो के पो के नाप-नाय यहाँ दगी या अनार्य भाषाओं के तपाफारती, परवी पुर्तगाली पोर मोजी के भी गन्दोका पडल्ले में प्रयोग पाते हैं। इन शब्दो में इस बात का स्पष्ट प्रमाण निल्ना है कि नव्य भारतीय पार्यकाल में भारतीय लोगो में बहुभाषिता प्रचलित हो गई थी। जब हम नध्य-भारतीय पार्य तथा पाच भारतीय आर्य-भापापों ने जिनका साहित्य अनेक प्रकार की प्राहतो तथा सन्कृत में है, उपर्युक्त वात का पता लगाते है तो उनमे भी वही स्थिति पाई जाती है। इस समय थोडे ही प्राकृत और सस्कृत गब्दो की वावत हीं मालूम है, जिनसे पता चलता है कि १५००, २००० या २५०० वर्ष पहले भी भारत में न केवल भारतीय भार्य-भाषाएँ ही प्रचलित पी, अपितु अनार्य-चोलियां तपा विदेशी वोलियां भी वोलो नतो थी, जो बहुत ही नातू हालाने थी, यार जिनका भारतीय मार्य-भाषा पर व्यापक प्रभाव पडा था। हम यहां कुछ ऐने नन्कृत और प्राकृत शब्दों पर विचार करेंगे, जो वास्तव ने अनुवादमूलक तमत्त-पद है। (३) मस्त कापिण=पाली कहापन, प्राकृत बहादप, बंगला काहन ‘एक प्रकार का बांट, 'एक कार्ष की तोत का सिक्का । यह भब्द दो मब्दो के योग ने बना है-कार्ष तथा पण । पहले गब्द का मूल कर्ष है, जिनका पर्व है एक नाप या तोल। मालून होता है कि कर्ष शब्द हवामनी (Achaemensan) ईरान का ह जिन देश का प्राचीन भारत की सजनैतिक तथा प्रार्थिक बक्त्या पर काफी प्रभाव पड़ा था। पण शब्द को डा० प्रबोधचद्र वागवी ने सत्यातूचक गन्द माना है, और इसकी उत्पत्ति ऑस्ट्रिक (कोल) भाषा से मानी है। इस प्रकार कापिण मन्द एक व्यात्यात्मक नमान-पद है, जिसमे प्राचीन ईरानी भाषा तया पार्य-भाषा-प्रभावित प्रॉन्टिक का सम्मिलित रूप दृष्टिगोचर है। (२) वालि होन-यह दूसरा मनोरजक मन्द है, जो नस्कृत से मिलता है। यह शब्द प्राचीन काव्य में अश्व का घोतक है, ऐना नानियर विलियम्स (Alonier-Williams) ने अपने संस्कृत अभियान मे लिखा है। पुराने हग के विद्वानो ने इतकी व्याल्या इस प्रकार की है कि घोडे का शालि-होत्र नाम इस कारण है कि उत्ते शालि (धान) भोजन (होत्र) के लिए अपित किया जाता है। अश्व को शालि-होत्रिन् भी कहा जाता है। पालतू दानवरों की बीमारियो के नवव में एक ऋषि ने एक प्रथ लिखा था, उन ऋषि का नाम भी शालिहोत्र मिलता है। इन अर्थ में यह गन्द भारतीय सेना में अब भी चालू है, जित्तमे घुडसवार सेना के घोडोका चिक्तिक सोलनी कहलाता Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय आर्य-भाषा में बहुभाषिता ६६ है। हिन्दुस्तानी मे यह शब्द शारोतरी या सालोतरी लिखा जाता है। शालिहोत्र गब्द द्वन्द्व है, और इसके दोनो शब्द भिन्न-भिन्न बोलियो के होते हुए भी एक ही अर्थ के सूचक है। संस्कृत शब्द शालि का, जिसका अर्थ चावल है, मूल दूसरा है। यहाँ शालि-होत्र का शालि शब्द निस्सदेह वही है, जो हमें शालि-वाहन मे मिलता है। शालि का दूसरा पाठ सात (सातवाहन) में भी मिलता है। भा पशेलुस्कि (Jean Przyluski) ने यह सिद्ध किया है कि शालि या सात शब्द प्राचीन कोल (प्रॉस्ट्रिक) का शब्द है, जिसका प्रयोग घोडे के अर्थ मे होता है (सयाली भापा मे इमे साद्-ओम्, सादोम वोला जाता है)। प्राचीन भारत की चालू वोलियो मे साद या सादि (घोडा) के प्रयुक्त होने का प्रमाण सस्कृत शब्द साद (घोडे की पीठ पर) वैठना या चढना' में मिलता है। इसके अन्य स्प सादि, सादिन्, सादित् (मिलायो प्रश्व-सादि-घोडे पर चढने वाला) भी मिलते है। यही गन्द निम्मदेह शालि-वाहन, सात-वाहन तथा शालिहोत्र के माथ जुड़ा हुआ है । अत यह स्पष्ट है कि शालि शब्द, जिसका अर्थ अश्व है, मूलत ऑस्ट्रिक भाषा का शब्द है। होत्री, होत्र गब्द का अर्थ भी मभवत यही होगा। यह शायद एक ऐया शब्द है, जिसे हम द्राविडो के साथ सवधित कर मकते है। घोडे के लिए इदो-यूरोपीय शब्द जो सस्कृत में मिलता है, वह अश्व ही है। बाद में , अश्व के लिए घोट शब्द भी प्रयुक्त होने लगा, जिसका मूल अज्ञात है। भारत के उत्तर-पश्चिम सीमान्त की पिगाच या दरद भापानो मे एक या दो को छोडकर भारत मे अश्व शब्द का प्रयोग अन्यत्र नहीं पाया जाता। घोट तथा उससे निकले हुए अन्य शब्द, जो अश्व के लिए प्रयुक्त होते है भारतीय आर्य तथा द्राविड भापायो में पाये जाते है। घोट गब्द मूलत प्राकृत का मालूम होता है। इसके प्राचीन रूप घुत्र और घोत्र थे। इन स्पो मे द्राविड भाषा के अश्व-वाचक शब्द काफी मिलते-जुलते है। उदाहरणार्थ, तामिल कुतिर, कन्नड फुदुरे, तेलगु 'गुरी-म। घुत्र, घोट तथा कुतिर शब्दों का मूल अनिश्चित है, पर ये काफी प्राचीन गब्द है और इनका प्रचलन पश्चिम-एगिया के देशो में बहुत अधिक है। घोडे के लिए प्राचीन मिस्त्री (Egyptian) भापा का एक शब्द, जो निस्सदेह एशिया (एगिया-माइनर या मैमोपोटेमिया) से आया है हतर (htr) है, जो घुत्र का एक दूसरा स्प प्रतीत होता है। गधे के लिए आधुनिक ग्रीक शब्द गरोस् (gadaros) तथा खच्चर के लिए तुर्की शब्द कातिर (Katyr) घुत्र-हतर शब्द मे ही मवधित जान पडते है । इस स्थान पर हम इस शब्द को भारत से बाहर का (एशिया-माइनर का ?) यानी अनार्य भापा का कह सकते है, जिसे सभवत द्राविड लोग यहाँ लाये । हो सकता है कि यह असली द्राविड शब्द है और यह भी विचारणीय है कि स्वय द्राविड शब्दो की मूल उत्पत्ति शायद भूमध्यमागर के आसपास या क्रीट द्वीप से हुई। शालिहोन शब्द के दूसरे पद में घोट का प्राचीन रूप घोत्र का विकार होत्र भी दिखाई पडता है। शालिहोत्र अश्वघोडे के लिए प्रयुक्त ऑस्ट्रिक शब्द साद+उसका समानार्थी द्राविड शब्द घोत्र । इस दशा में अश्व-सादि शब्द आर्य तथा प्रॉस्ट्रिक भाषाओ का सम्मिलित अनुवादमूलक समस्त-पद होगा। (३) पिछले मस्कृत-साहित्य में पालकाप्य मुनि का नाम हाथियो को शिक्षित करने के सवध मे लिखे हुए एक नथ के प्रणेता के रूप में आता है। उसके सवध में कुछ कथाएं भी मिलती है, जिनसे पता चलता है कि वे अग्रेजी औपन्यासिक रडियर्ड किपलिंग (Rudyard Kipling)द्वारा वर्णित एक प्रकार के मावग्ली (Mowglie) थे, मावग्ली ऐसा लडका था, जो कि वचपन से लक्कडवाघो के द्वारा पालित हुआ था, और पालकाप्य का भी हाथियो द्वारा पालन हुआ था, और वे हाथियो के बीच में रहा करते थे। पालकाप्य नाम की व्याख्या इस प्रकार दी गई है कि पाल वैयक्तिक नाम है और काप्य गोत्र का नाम है। काप्य की उत्पत्ति कपि से हुई है, जिसका सस्कृत में प्राय बदर के लिए प्रयोग होता है। परन्तु जान पडता है कि पालकाप्य एक अनुवादमूलक समस्त-पद है, जो बिलकुल शालि-होत्र शब्द के ही समान वना है। पालकाप्य के दोनो शब्द दो भिन्न भाषामो से लिये गये है और प्रत्येक शब्द हाथी के लिए 'देखिए JRAS , 1929, 2 273 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० प्रेमी-अभिनदन-प्रय प्रयुक्त हुआ है, और जिस प्रकार शालिहोत्र शब्द वैयक्तिक नाम का सूचक है, उसी प्रकार पाल-काप्य सज्ञा एक ऐसे ऋपि की दी हुई है, जो हाथी के पालन आदि के सवध में अच्छे ज्ञानी और अधिकारी लेखक समझे जाते थे। इस प्रकार हम देखते है कि शालि-होत्र और पाल-काप्य जैसे साधारण गन्द भी किस प्रकार व्यक्ति-विशेप के सूचक शब्द वन सकते है। द्राविड भाषाओं में पाल शब्द हाथी और हाथी-दांत का सूचक है। इनमे इस शब्द के अनेक रूप मिलते है। इस बारे मे एक बात और जान लेनी है कि पाल-काप्य ऋषि का एक अन्य नाम करण-भू ( हथिनी का पुत्र) भी मिलता है, जिससे पता चलता है कि ऋषि के नाम का कुछ सवध हाथियो से अवश्य है। काप्य शब्द की व्युत्पत्ति श्री प्रबोधचद्र वागची ने अपने लेख मे दी है और उन्होने यह साफ दिखा दिया है कि कपि शब्द हाथी का भी सूचक है, कम-मे-कम हाथी के समानार्थक शब्द के रूप में उसका प्रयोग मिलता है। डा० बागची ने गज-पिप्पली गन्द के लिए करि-पिप्पली, इभ-कण, कपि-वल्ली तथा कपिल्लिकामादि अनेक समानवाची शब्द दिये है, जिनमें गज, करि, इभ तथा कपि गन्द निस्सदेह एक ही अर्थ के बोधक है। जगली कथा का एक नाम कपित्य (मिलायो अश्वत्य =पीपल) पाया जाता है। इस फल को हाथी वडे शौक से खाते है सौर सस्कृत में एक लोकोक्ति है-ज-भुक्त कपित्यवत् (=एक ऐसे कपित्य फल के समान, जिसे हाथी ने खाया हो। यह कहा जाता है कि जब हाथी कपित्य फल को निगल लेता है तब उस फल का ऊपरी कडा गोला वैसे-का-वैसा ही बना रहता है और फल का गूदा हाथी के पेट में चला जाता है। इस प्रकार फल का ऊपरी ढक्कन ही वाहर रह जाता है।) क्या इस बात से हम यह कह सकते है कि कपित्य का कपि शब्द भी हाथी का सूचक है ? इस वात की पुष्टि इससे भी होती है कि कुछ पश्चिम एशियाई तथा आसपास के देशो की भापाओ-उदाहरणार्थ हिब्रू तथा प्राचीन मिस्री (Egyptian)-मे एक समानवाची शब्द हाथी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। हिन्दू में हाथीदांत के लिए शेन्-हव्वीम् (Shen-habbim) शब्द है। शेन का अर्थ 'दाँत' और हव्वीम का अर्थ 'हाथी' है यह शब्द हव्व् वन जायगा। प्राचीन मिस्री भाषा में हाथी के लिए हव् या हब्ब् शब्द है । हिब्रूतथा मिस्री गव्दी-हव्व् और हव की तुलना कपि शब्द से की जा सकती है। कपि-हव शब्द का मूल अज्ञात है। सभवत यह उसी प्रकार का है, जैसे घोट-धुत्र-कुतिर-हतर-गदैरोस्-कातिर शब्द । मेरा यह अनुमान है कि पाल-काप्य द्राविड तथा भारत-बहिर्भूत और किसी अनार्य भापा के दो पदो से मिलकर बना हुआ एक अनुवादमूलक समस्त-पद है, असगत न ठहरेगा। (४) गोपथ ब्राह्मण मे दन्तवाल घोन नामक एक ऋषि का उल्लेख है, जो जन्मेजय के समकालीन थे। यह नाम दन्ताल धीम्य से भिन्न है, जो जैमिनीय ब्राह्मण मे जनक विदेह के ममकालीन कहा गया है। घौम्र अपत्य नाम है, पर दन्तवाल शब्द का, जो कि एक वैयक्तिक नाम है, क्या अर्थ हो सकता है ? क्या यह दन्त-पाल के लिए प्रयुक्त हुआ है, जो दूसरा दन्ताल नाम है ? उसका अर्य'लवे या वडे दांतो वाला' हो सकता है। पर वाल/पाल प्रत्यय ('जो रखने वाला' या 'पालने वाला' के अर्थ को सूचित करता है) भारतीय आर्य-भाषा के इतिहास में अपभ्रश वाली स्थिति के पहले नहीं पाया जाता । अत वह बहुत प्राचीन नही है। मेरा अनुमान है कि दन्त-वाल शब्द दन्त-पाल के लिए ही प्रयुक्त हुआ है और आर्य तथा द्राविड भापानी में एक-एक पद मे मिल कर वना हुन्मा समस्त-पद है, जिसका अर्थ हायी या हाथी का दाँत है। इसमें न्त सस्कृत शब्द है, और पाल द्राविड । (५) भारतीय इतिहास के शक-काल मे अनेक शक (तथा अन्य ईरानी) नाम और विरुद को के द्वारा 'इस सवध में विशेष जानकारी के लिए देखिए-J_Przyluski, Notes Indrennes, Journal Asiatique, 1925, pp 46-57 am sit stateras amet * Indian Historical Quarterly, 1933. Pp 258 में प्रवध। 'डा. हेमचद्रराय चौधुरी का मै कृतज्ञ हूँ जिन्होने मेरा ध्यान इन नामों की ओर आकर्पित किया है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१ भारतीय प्राय-भाषा में बहुभाषिता भारत में लाये गये । एक ऐमा ही नाम मुरुण्ड है, जिसका अर्थ शक-भाषा मे राजा है। भारतीय शको के अभिलेखो में मुरुण्ड-स्वामिनी शब्द मिलता है, जो उपर्युक्त समानार्थक समास-पद का एक उदाहरण है। (६) इसी प्रकार कुछ अन्य गब्द भी विचारणीय है, परन्तु अभी तक उन शब्दो की उत्पत्ति तथा उनके तुलनात्मक विचार के सवध में विद्वानो का ध्यान नहीं गया। प्राग्ज्योतिप के राजा वैद्यदेव (११वी शती का उत्तरभाग) के कमौली से मिले हुए ताम्र-पत्र मे जउगल्ल नामक एक छोटी नदी का उल्लेस है । यह गब्द दो पदो से मिल कर वना है-जउ /सस्कृत जतु= लाख या लाह+गल्ल (बंगला का गाला), जिमका भी अर्थ लाख है (बंगला भाषा मे भी जतु-जउ का जो रूप मिलता है)। शायद गल्ल के माने पहले-पहल गलाई हुई लाख रहा हो, परन्तु ऊपर जो उदाहरण दिये जा चुके हैं, उनमें इस प्रकार नब्दो का गर्ल्डमड्ड समझ मे आ सकेगा। (७) महावस्तु में इक्षु-गड नामक एक शब्द ईग्य या गन्ने के लिए प्रयुक्त हुआ है । नव्य भारतीय आर्यभापायो में इक्ष के रूपमे ईख,पाख,पाउख,अख, ऊस मिलते है। गण्ड गब्द का नव्य भारतीय आर्य-भापा (हिंदुस्तानी) में गन्ना या गंडेरी रूप है । इस प्रकार हम यहां भी दो समानार्थक शब्दो को जो प्राचीन भारत में प्रचलित दो भिन्न भाषाओं में मे लिये गये है, सम्मिलित रूप में प्रयुक्त पाते हैं। (८) इमी प्रकार महावस्तु में एक दूसरा गव्द गच्छ-पिण्ड है। यह एक विचित्र समाम है और इसका अर्थ वृक्ष है। गच्छ शब्द बंगला में (तथा उगने सबधित पूर्व भारत की भाषा मे ) गाछ-'वृक्ष' के रूप मे पाना है। मूलत इस शब्द का अर्थ 'सवर्धन' है, जो एक पोदे के ऊँचे उठने या वढने का सूचक है (सस्कृत धातु /गम् गच्छ से)। पिण्ड का अर्थ समूह या ढेर है। इस प्रकार गच्छ पिण्ड का अर्थ 'बढता हुआ ढेर' बहुत विचित्र मालूम पडेगा। परन्तु एक पौदे या वृक्ष जैनी मामूली वस्तु के लिए ऐमा टेढे अर्थ वाला शब्द क्यो प्रयुक्त किया गया ? हमे याद रखना चाहिए कि पिण्ड शब्द का ही हिंदुस्तानी में प्रचलित स्प पेंड है, जो वृक्ष के लिए पाता है। इस पेंड शब्द का मूल क्या है ? नव्य भारतीय आर्य-भापा द्वारा हम इसी परिणाम पर पहुंचेंगे कि गच्च-पिण्ड का और कोई शाब्दिक अर्थ न होकर केवल 'वृक्ष-वृक्ष' है। (8) गच्छ-पिण्ड तया अन्य शब्दो के समान ही अपभ्रश का गब्द अच्छ-भल्ल है, जो रीछ या भालू के लिए प्रयुक्त होता है। अच्छ शब्द आर्य या इदो-यूरोपीय है। मस्कृत में ऋक्ष शब्द है (जिसका हिंदुस्तानी मे प्राचीन अर्धनत्सम रूप रीब है)। भल्ल नव्य भारतीय आर्य-भापायो के भल्लक वाचक कुछ शब्दो का मूल रूप है, जिसमे भालू (हिंदुस्तानी) तथा भालुक, भाल्लुक (वगला) शब्द बने, जिन मवका अर्थ 'रीछ' है। कुछ लोगो ने भल्ल को पाद्य भारतीय आर्य-भाषा के भद्र शब्द का स्प माना है। ऐमा मानने पर अच्छ-भल्ल का अर्थ अच्छा-या मीषा 'भालू होगा। वह भी असभव नही, क्योकि प्राय बुरे या भयकर जानवरो का केवल नाम लेना प्रशस्त नही समझा जाता (इस प्रकार के जानवरो का नाम लेने से यह माना जाता है कि वह जानवर निकट आ जायगा)। इसी विचार के आधार पर शायद रीछ का नाम भल्ल 'अच्छा या सीधा जानवर' रक्खा गया, और धीरे-धीरे यही नाम उम जानवर का हो गया। ऐमी ही वात रूमी भाषा मे है, जिसमे रीछ को मेवेद् ('मधु खाने वाला', मिलामो स० मध्वद्) कहते हैं। इस बात का अनुसघान कि भल्ल शब्द का सवध भारतीय आर्य-भाषाओ के बाहर किसी भाषा में मिलता है या नहीं, शायद मनोरजक सिद्ध होगा। (१०) मस्कृत के शब्द कञ्चूल, फञ्चूलिका (=कचुकी, जाकट) चोलिका शब्द से मिलाये जा सकते है, जिसका भी अर्थ वही है । ये शब्द भारत की आधुनिक प्रचलित भापामो में भी मिलते हैं। कञ्चूल या कञ्चुकी पहले पहल 'स्तनो के ऊपर वांधे जाने वाले वस्त्र' के सूचक थे । चोलिका पट्ट का अर्थ 'मध्य भाग के लिए प्रयुक्त वस्त्र' है । कञ्चूल, कञ्चूलिका-कन्+चोलिका इन दो शव्दी से मिल कर बने हुए जान पडते है । कन् ऑस्ट्रिक शब्द है जिसका बंगला का म्प कानि='चीथडा' है (मिलाओ मलायन शब्द काइन् =(Kain) कपडा)। चोल शब्द चेल (-वस्त्र) मे सवधित हो सकता है। चेल शब्द की उत्पत्ति अज्ञात है। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ (११) कायस्थ-प्रभु-महाराष्ट्र में यह एक जाति का नाम है। कायस्थ प्राचीन काल में लेखको के वर्ग का नाम था, राष्ट्र के कुछ अन्य दीवानी अफसर भी इसी जाति के होने थे, परतु कायस्थ शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई, यह अज्ञात है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह शब्द मूलन ईरानी है, प्राचीन फारसी मे राजा के लिए खपायथिय (Khshāyathiya) शब्द मिलता है। इससे प्राचीन प्राकृत का रूप खायथिय बना होगा, जिसमे कायस्थ बन सकता है, और उससे सस्कृत रूप कायस्थ हो गया होगा। एक केंद्रित शासन में छोटे अफसरी, क्लर्को तथा मनियो आदि के लिए सम्मानार्थ प्रयुक्त कायस्थ शब्द सभवत उम काल की ओर मकेत करता है जब उत्तर-पश्चिम भारत मे ईरानी शासन को प्रभुता थी। अत महाराष्ट्र में प्रचलित कायस्थ-प्रभु गन्द मुरुड-स्वामिनी शब्द की तरह, (ऊपर न०५), एक अनुवाद-मूलक समस्त-पद सिद्ध होगा। (१२) संस्कृत का गौर शब्द एक प्रकार की भैस के लिए प्रयुक्त होता है। गौर का शाब्दिक अर्थ 'सफेद' है। किंतु भैस काली होती है, और उसके साथ इस विशेषण को सबद्ध करना असगत प्रतीत होता है। गवय, गवल तथा गोण अन्य सस्कृत नाम है, जो भैस और वैल के लिए प्रयुक्त होते है। इनकी उत्पत्ति गी या गव से हुई है। हो सकता है कि गौर एक अनुवादमूलक समस्त-पद है, जो आर्य-भाषा के गौ, गो तथा ऑस्ट्रिक (कोल) के उर (=जानवर) शब्दो से मिलकर बना है । सथाली और मुडारी भाषामो मे उरि गब्द गाय और भैम के लिए प्रयुक्त होता है। (१३) सस्कृत तुडि-चेल='एक प्रकार का वस्त्र'। ऐसे वस्त्र का उल्लेस बौद्ध अथ 'दिव्यावदान' में मिलता है। चेल आर्य-भाषा का शब्द है, जिसका सवध चोर शब्द से है, जो उसी धातु से निकला है, जिससे हिंदी का चीरना और बैंगला का चिरा। इस प्रकार चोर, चेल का अभिप्राय 'वस्त्र के टुकडे' से है। तुडि-चेल के पहले पद का मूल रूप द्राविड भाषाओ मे मिलता है (तामिल तुटु या तुडु, कन्नड तुडु, तेलगु तुट='टुकडा, कपडे का एक छोटा टुकडा, तौलिया')। (१४) संस्कृत मुसार-गल्व'एक किस्म का मूगा, एक प्रकार का चमकीला कीमती पत्यर'। मैने अन्यत्र मुसार शब्द की व्युत्पत्ति के विषय मे विस्तार से लिखा है। मेरे मत से यह शब्द प्राचीन चीनी भाषा से भारत में आया है, जिसमें कीमती या मामूली पत्थर के लिए म्वा-सार (mwa-sar) शब्द आता है। प्राचीन चीनी भाषा में इस शब्द का मवव फारसी और अरवी के बिस्सद और बुस्सद (bissad, bussad) (=भूगा) शब्दो से जान पड़ता है। [आधुनिक चीनी में इसका उच्चारण है मू-सा (mu-sa) प्राचीन चीनी में इसका उच्चारण था म्वर-सार (mwa-sar) और ब्वा-साथ् (bwa-sadh) ] | दुसरा पद गल्व, जिसका रूप गल्ल भी मिलता है, मेरे विचार से पत्थर के लिए साधारणत प्रयुक्त द्राविड शब्द है। तामिल मे इसका रूप कल्, तेलगु मे कल्लु और जाहुई मे खल् मिलता है। सिंहली भापा मे गल्ल शब्द आता है, जो प्राचीन द्राविड भाषा के गल या गल्ल से लिया गया है। इस प्रकार मुसार-गल्ल शब्द चीनी तया द्राविड भाषामो का सम्मिलित अनुवादमूलक रूप है, जिसे प्राचीन भारत मे पहले प्राकृतो में और फिर सस्कृत में अपना लिया गया है। यद्यपि स्पष्ट तथा भलीभाति प्रमाणित उदाहरणो की संख्या बहुत नही है, तो भी आद्य भारतीय आर्य (संस्कृत) तथा मध्य भारतीय आर्य (प्राकृत) भाषाओ के जिन थोडे से शब्दो का विवेचन ऊपर किया गया है, उसमे हम इम उपपत्ति पर पहुंच सकते हैं कि प्राचीन भारत में विभिन्न भाषाओ के बीच आदान-प्रदान जारी था। अनार्य बोलियां भी प्रचलित थी और उनकी शक्ति दो सहस्र वर्ष पूर्व तथा उसके बाद तक बहुत प्रवल थी और भारतीय आर्यभापायो के ब्राह्मण्य, जैन तथा वौद्ध धर्म-सवधी साहित्य मे उनका प्रभाव दृष्टिगोचर है। इस अोर अभी तक विद्वानो का व्यान नहीं गया है। अनार्य भापानो से अनेक शब्दो और नामो का भारतीय आर्य-भाषामो मे आना जारी था। पीछे जव कि असली अनार्य भाषाओ का लोप हो गया, तब साथ ही उनके महत्त्व का भी प्रत हुना, सिवा इसके कि कही-कही भूले-भटके उनका अस्तित्व अव भी मिल जाता है। विदेशी भाषाएँ-ग्रीक, प्राचीन फारसी और अन्य अनेक Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय प्रार्य-भाषा में बहुभाषिता ७३ ईरानी भाषाएँ-लोग वडी सख्या मे वोलते थे और उनका प्रचलन बहुत विस्तृत था। इन भाषाओ से भी भारतीय आर्य-भाषामो में शब्द लिए जा रहे थे। निस्सदेह ऐसे शब्दो की सख्या तत्कालीन प्रचलित प्रान्तीय भाषाप्रो में उन शब्दो से कही अधिक थी, जिन्हें हम वर्तमान परिस्थिति मे सस्कृत तथा साहित्यिक प्राकृतो मे पा रहे है। वास्तव में, प्राचीन भारत में प्रचलित भाषाओ के सवध में भी यही बात कही जा सकती है, जैसी इस समय है। केवल उस समय अनार्य-भाषामो का क्षेत्र आजकल की अपेक्षा बहुत अधिक व्यापक था। जैसा कि आर्यावर्त में हम आज पाते है, सभवत प्राचीन काल मे भी जनता के अधिकाश भाग में अनार्य-भाषामो (द्राविड तथा ऑस्ट्रिक) का प्रभाव पार्य-भाषाओ की अपेक्षा कही अधिक था। वस्तुत दो सहस्र वर्ष पूर्व तथा उससे भी पहले भारत में बहुभाषिता का प्रचलन लगभग उतना ही था, जितना कि वर्तमान भारत में है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'बीच' की व्युत्पत्ति श्री आर्येन्द्र शर्मा एम० ए०, डी-फिल० हिन्दी का वीच' शब्द “मध्य, केन्द्र, अन्तर, अवकाश, स्थान" आदि अर्थों में तथा अधिकरण कारक मे, 'मे' के स्थान पर, प्रयुक्त होता है। अन्य आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में भी यह शब्द, इन्ही अर्थो मे, वर्तमान हैपजाबी में 'विच्च', गुजराती मे 'वचे', 'विचे', 'वच्चे', नेपाली में 'विच', इत्यादि । व्रजभाषा तथा अवधों में भी 'विच' अथवा 'वीच' का प्रयोग वरावर मिलता है। ___ इन सब शब्दो का मूल प्राकृत (तथा अपभ्रश) का 'विच्च', (सप्तमी एक० में 'विच्चम्मि', 'विच्चि', 'विच्चे') शब्द है । हेमचन्द्र के प्राकृत-व्याकरण' में दो स्थलो पर 'विच्च' शब्द का उल्लेख है-अध्याय ४, सून ३५० नथा सूत्र ४२१ । इनके अतिरिक्त, पाइयसद्दमहण्णवो' के अनुसार, पुष्पमाला प्रकरण ४२७, निगाविरामकुलक १६, कुमारपालचरित तथा भविसत्तकहा ५६ ११ में भी 'विच्च' शब्द मिलता है । पाइयसहमहण्णवो में 'विच्च' के दो अर्थ दिये गये है, "वीच, मध्य" तथा "मार्ग, रास्ता"। दूसरे अर्थ ("मार्ग") के उदाहरणो के लिए पा० स० म० ने हेमचन्द्र के उपर्युक्त दोनो सूत्रो तथा कुमारपालचरित और भविसत्तकहा के स्थलो का निर्देश किया है। वास्तव मे पा० स० म० ने "मार्ग" अर्थ हेमचन्द्र के "विषण्णोक्तवर्त्मनो बुन्नवृत्तविच्चम् । ४ ४२१ । (अपभ्रश में संस्कृत के 'विषण्ण', 'उक्त' तथा 'वर्त्मन्' शब्दो के स्थान पर क्रमश 'वुन्न', 'वुत्त' तथा 'विच्च' शब्दो का आदेश होता है)।" इम सूत्र के आधार पर दिया है। किन्तु, जैसा आल्सडोर्फ' ने सिद्ध किया है, इन सभी स्थलो पर प्रकरण, सन्दर्भ आदि की दृष्टि से 'विच्च' का अर्थ "मध्य" अथवा "अन्तर" ही हो सकता है, "गर्ग" नहीं। इसके अतिरिक्त हेमचन्द्र के स० 'वम' प्रा० 'विच्च', इस समीकरण में ध्वनि-गरिवर्तन सम्बन्धी कठिनता भी स्पष्ट है । '-' के स्थान पर 'वि-'आदेश और -म-के लोप को किसी भी तरह नियमानुकूल नही कहा जा सकता। 'वर्त्म-' के '-त्के स्थान पर 'च्- हो जाना भी सम्भव नहीं। नियम के अनुसार स० 'त-' का प्राकृत में 'ट्ट होना चाहिए। स्वय हेमचन्द्र ने अध्याय २, सूत्र ३० में यही नियम बता कर स० 'कैवर्त-'>प्रा० कवट्ट', स० 'वति->प्रा० वट्टी' आदि उदाहरण दिये है। फिर पाली में स० 'वर्त्म- का परिवर्तित रूप 'वटुम'- ("दीघनिकाय", भाग २, पृ० ८, तथा "सयुत्तनिकाय", भाग ४, पृ० ५२) पहले ही से वर्तमान है, जो, गाइगर ("पाली लितरातूर उद् प्राखे"५८ २) के अनुसार 'वम-' से * वट्टम', *वट्टम- से *वट्म', और 'वट्म-से स्वरभक्ति द्वारा 'वटुम-', इस प्रकार विकसित हुआ है। स्वय प्राकृत में भी स० 'वर्त्मन्- से सम्बद्ध 'वट्ट- (<*स० 'वर्त-, हिन्दी 'वाट') "पिशेल (Pischel) द्वारा सम्पादित, हाले (Halle), जर्मनी १८७७-८० । '५० हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द शेठ द्वारा सम्पादित, कलकत्ता, वि० स० १९७६-८५। "अपभ्रश-ष्टूडिएन', लाइप्सिश ((Apabhramsa-Studien, Leipzig), १९३७, पृष्ठ ७७-७८ । "पिशेल्, 'प्रामाटिक् देर प्राकृत-प्राजेन्, ष्ट्रास्बुर्ग (Pischel, 'Grammatik der PrakritSprachen,' Strassburg), १९००, १२१८-आदि, गाइगर, 'पाली लितरातूर उद् प्राखें' (Gciger, 'Pah Literatur und Sprache')-अग्रेजी अनुवाद डा० वटकृष्ण घोष, कलकत्ता, १९४३, और ६४। ४२ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ 'वीच' को व्युत्पत्ति शब्द उपलब्ध है। फलत प्रा० "विच्च-' स० 'वर्त्म-' का परिवर्तित रूप नही हो सकता। यह व्युत्पत्ति असम्भव है। पिशेल् ("ग्रामाटिक् देर् प्राकृत-पाखेन्" । २०२) प्रा० 'विच्च-' की व्युत्पत्ति एक दूसरे प्रकार से करते है। इनके अनुसार 'विच्च-' का विकास प्रा० 'वच्चई' (<स० 'व्रजति') "जाता है" से हुआ है । स्पष्ट है कि यह व्युत्पत्ति 'विच्च-' के "मार्ग" अर्थ के आधार पर ही सोची गई है। किन्तु, जैसा ऊपर कहा जा चुका है, 'विच्च-' का अर्थ "मार्ग" नही हो सकता। अत 'विच्च-' का उद्भव 'वच्चई' से होना भी नही माना जा सकता। "जाना" और "मध्य, अन्तर, अवकाश" अर्थों में कुछ भी सम्बन्ध नही बनता। एक तीसरी व्युत्पत्ति “हिन्दी-गब्द-सागर" तथा डा० धीरेन्द्र वर्मा के "हिन्दी भाषा का इतिहास" (इलाहावाद, १९३३, पृ. २४६) में बताई गई है। इनकी सम्मति में हिन्दी 'वीच' का सम्वन्ध मस्कृत की 'विच्' ("पृथक् करना") धातु से है । दोनो ग्रन्थो में केवल 'पिच्' धातु का सकेत किया गया है, "विच्' से 'वीच' का विकास, अर्थ और ध्वनिपरिवर्तन की दृष्टि से, कैसे हुआ, इसकी विवेचना नहीं की गई। अनुमानत , 'वीच' (मध्य) किसी वस्तु को दो भागो में पृथक् करता है, इस आवार पर, अथवा, 'वीच' के दूसरे अर्थ "अन्नर, अवकाश" के आधार पर, इसका सम्बन्ध 'विच्'="पृथक् करना" से जोडा गया है। किन्तु यह सम्बन्ध "खीचातानी" ही है । "मध्य" मे "पृथक् करने" का अर्थ असन्निहित है। पृथक् करना तो तीन या चार या अधिक भागो में भी हो सकता है। हाँ, “अन्तर, अवकाश" और "पृथक् करना"मे कुछ सम्बन्ध बन सकता है, किन्तु वीच'का मुख्य, प्रारम्भिक अर्थ"मध्य" है,"अन्तर, अवकाश" अर्थ का विकास वाद में हुआ है (देखिए, पृ० ६६) । इसके अतिरिक्त सस्कृत की 'विच्' धातु मामान्यतया किसी एक वस्तु का विभाग करने के अर्थ मे नही, अपितु दोसग्लिष्ट वस्तुप्रो (जैसे अन्न और भूसी) को एक-दूसरी से पृथक् करने (sift) के अर्थ में प्रयुक्त होती है।' मस्कृन के 'विवेक', 'विवेचन' आदि शब्दो के प्रयोग ('नीर-क्षीर-विवेक', 'गुण-दोष-विवेचन' आदि) पर ध्यान देने मे 'विच्' का तात्त्विक अर्थ स्पष्ट हो जाता है। 'वीच' में इस अर्थ की छाया अलभ्य है। ध्वनि-परिवर्तन की दृष्टि से, हिन्दी वीच' का विकास 'विच्' धातु से बने हुए किस सस्कृत-गब्द से हुआ, इसका स्पप्टीकरण भी आवश्यक है, किन्तु "हिन्दी-गब्द-सागर" अथवा "हिन्दी भाषा का इतिहास" मे इस विषय में कुछ भी सकेत नही किया गया। प्रा० 'विच्च' का तो दोनो ग्रन्यो में निर्देश भी नही है। फिर भी केवल ध्वनि की दृष्टि से हि० 'वीच' का सम्बन्ध स० 'विच्' से माना जा सकता है। किन्तु अर्थ-सम्वन्धी कठिनता के कारण अन्त मे इस व्युत्पत्ति को भी मान्य-कोटि में नही रक्वा जा सकता। हिन्दी 'वीच' के पूर्वज प्रा० 'विच्च' की एक अन्य व्युत्पनि टर्नर ने ("नेपाली डिक्शनरी") नेपाली 'विच' (=वीच) शब्द की विवेचना में दी है। इनकी सम्मति है कि प्रा. 'विच्च'का उद्गम स० वीच्य-' शब्द से होना सम्भव है । तुलना के लिए टर्नर ने स. के 'उरुव्यञ्च्-' ("सुविस्तृत, दूर तक फैला हुआ") तथा 'व्यवस्-' ("विस्तृत - स्थान") शब्दो का निर्देश किया है। साय ही उन्होने प्रा० 'विच्च' के अर्थ "मध्य" तथा "मार्ग" दोनो दिये है। ध्वनि-परिवर्तन की दृष्टि से स० *'वीच्य' का प्रा० "विच्च' हो जाने में कोई वाधा नही है । स० 'वीच्य' 'देखिये, “पाइयसद्दमहण्णवों" में 'वट्ट' नं० ४। हेमचन्द्र-कृत "देशीनाममाला" (पिशेल द्वारा सम्पादित, बम्बई, १९३८, द्वितीय सस्करण) के अनुसार 'वट्टा' (="मार्ग") शब्द देशी है। 'दे० पाल्स्डोर्फ, "अपभ्रश-प्टूडिएन" पृ० ७६ ।। 'देखिये मॉनियर विलियम्स कृत "संस्कृत-इग्लिश डिक्शनरी" (ऑक्सफोर्ड, द्वितीय सस्करण, १८६६), पृ० ६५८। "सं० स्पर्शव्यञ्जन+'य' के स्थान पर प्राकृत में सामान्यतया स्पर्शव्यञ्जन+स्पर्शव्यञ्जन हो जाता है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन- प्रथ ७६ को टर्नर स्पष्ट ही 'वि+अच् (अञ्च् ) ' धातु अथवा 'व्यच्-' धातु से बनाते हैं, क्योकि तुलना के लिए उनका दिया हुआ 'उरुव्यञ्च्-' शब्द ‘वि+अच् (ग्रञ्च् ) ' धातु से और 'व्यचस्'- 'त्र्यच्' धातु से बना हुआ है।' इनमे से 'वि + अच् (अञ्च्)' से 'वीच्य-' का बनाना सरल है, क्योकि “निर्वल" रूपो में 'अच्- (अञ्च् ) ' का 'थ' लुप्त हो जाता है, श्रीर उसके पूर्ववर्ती 'इ- 'उ' दीर्घं हो जाते है ।' किन्तु 'व्यच्' धातु से 'वीच्य'- बनाने में कुछ कठिनता है । 'व्यच्' का दूसरा, "निर्बल", रूप 'विच्' मिलता है, ' 'वीच्' नही, और 'विच्' से 'विन्य-' वन सकता है, 'वीच्य-' नही । हाँ, एक तरह से टर्नर को बात का समाधान भी हो सकता है। संस्कृत व्याकरण में 'व्यच्' एक स्वतन्न धातु है, किन्तु आधुनिक विद्वानो की सम्मति है कि यह धातु वास्तव में 'वि+अच् (अञ्च् )' का ही समस्त रूप है, पृथक् धातु नहो । 'व्यच्' का अर्थ है "अपने में समेट लेना, घेर लेना, अपने में समा जाने देना, अपने अन्दर अवकाश या स्थान देना " तथा "धोखा देना, छलना” । 'अच्' अथवा 'अञ्च्" का अर्थ है "जाना, चलना, मुडना, झुकना, रुझान होना” और 'वि+अच् (श्रञ्च्)' का अर्थ है "विविध दिशाओ में जाना, इधर-उधर हट जाना, विस्तार करना" तथा "इधरउघर चलना, दोहरी चाल चलना, धोखा देना" । इस प्रकार 'व्यच्' प्रोर 'वि+अच् (अञ्च् )' के अर्थों में पर्याप्त सादृश्य है | रूप में तो दोनो तुल्य है ही । अत इन दोनो को मूल मे एक मान लेने में कोई बाधा नही । इतनी वात अवश्य है कि संस्कृत भाषा में वैदिक काल से ही 'व्यच्' का अपना पृथक् अस्तित्व वन गया है । अस्तु । 'वि + अच् (अञ्च्)' अथवा 'व्यच्' धातु से स० * ' वीच्य-' और स० * ' वीच्य-' से प्रा० 'विच्च' की उत्पत्ति, ध्वनि-परिवर्तन की दृष्टि से, किसी न किसी तरह सम्भव मानी जा सकती है । किन्तु अर्थ की कठिनता टर्नर की व्युत्पत्ति में भी रह जाती 1 प्रा० 'विच्च' का अर्थ "मार्ग" करना ग्रमगत है, यह ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है । फिर " मार्ग" का 'व्यच्' अथवा 'वि + अच् (श्रञ्च् ) ' धातुग्रो के उपर्युक्त से कोई सीधा सम्बन्ध भी नही बनता और न इन धातुओं के अर्थो से "मध्य" अर्थ की ही सगति बनती है । 'विच्च' के अन्य अर्थं "अन्तर, अवकाश" से 'व्यच्' और 'वि + अच् (अञ्च् )' के "विस्तार करना, प्रवकाश देना " अर्थों का सम्वन्ध अवश्य वन सकता है । (तुलना के लिए दिये गय 'उरुव्यञ्च्-' तथा 'व्यचस्' शब्दो गे भी यही सकेत मिलता है)। किन्तु “अन्तर, अवकाश" विच्च' का मुख्य अर्थ नही है (दे० पृ० ६६) । अन्त में एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि टर्नर ने प्रा० 'विच्न' के दो चकारो के कारण इसके पूर्वज संस्कृत शब्द को *'वीच्य' कल्पित किया है, क्योकि संस्कृत के दीर्घस्वर -1 व्यञ्जनसयोग के स्थान पर प्राकृत मे ह्रस्वस्वर + व्यञ्जनसयोग, अथवा दीर्घस्वर + एक व्यञ्जन हो जाता है,' जैसे स० 'मार्ग' > प्रा० 'मग्ग-', स० 'दीर्घ' > प्रा० 'दीघ-' इत्यादि । किन्तु स० * 'विच्य -' का भी प्रा० मे 'विच्च' ही बनेगा। फिर "वीच्य-' की कल्पना करना सर्वथा अनावश्यक है । प्रत्युत 'व्यच्' धातु से *' विच्य -' बनाना ही सरल, नियमानुकूल है, 'वीच्य-' बनाने मे 'देखिये ग्रासमन्, "वुइर्तर्-बुख् त्सुम् ऋग्वेद" (Woeiter - buch zum Rig-Veda, लाइप्सिश, द्वितीय सस्करण, १९३६) में यही दोनों शब्द । ★ विशेष विवरण नीचे, पृ० ६६ पर । स० का 'वीचि'- ("छल, कपट, लहर, तरङ्ग" ) शब्द भी सम्भवत 'वि + श्रच्' धातु से बना है। देखिये, मॉनियर विलियम्स में 'वीचि' शब्द | देखिये, व्हिट्ने, "ऍ सस्कृत प्रेमर", १६८२ | * देखिये, व्हिट्ने,,'ऍ संस्कृत प्रेमर", १०८७ (f), तथा मॉनियर विलियम्स, "इग्लिश-स० डिक्शनरी" में 'व्यच्' धातु । 'वास्तव में 'अच्' और 'श्रञ्च' एक ही धातु है । 'अञ्च् "प्रबल" रूप है और 'श्रच्' "निर्बल"। देखिये, नीचे पृ० ६६ तथा मॉनियर विलियम्स में यही दोनो धातुएँ । 'देखिये, पिशेल "ग्रामाटिक, देर् प्राकृत-प्रास्तेन्” ६२-६५, ७४-७६ । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'वीच' की व्युत्पत्ति कठिनता है (देखिए पृष्ठ ६४ ) । और यदि प्रा० 'विच्च' के मूलभूत संस्कृत शब्द को 'व्यच्' धातु मे न वनाकर, 'वि+अच् (अञ्च्)' धातु से वनाना श्रावश्यक माना जाय, तो भी *" वीच्य' की कल्पना करना अनावश्यक है । प्रा० 'विच्च' का विकास स ० * ' बीच ' से भी हो सकता है, क्योकि मस्कृत के दीर्घस्वर + एक व्यञ्जन के स्थान पर भी कभीकभी प्राकृत में ह्रस्वस्वर + व्यञ्जनसयोग (द्वित्व) हो जाया करता है, जैसे स ० ' नीड - ' > प्रा० 'णिड्डू - ', स० 'पूजा -> प्रा० 'पुज्जा-' ।' 'विच्च' के अर्थ "अन्तर, अवकाश' से 'वि+अच् (ग्रञ्च ) ' धातु के अर्थ का सम्बन्ध वनाने के लिए भी * ' वीच्य-' की अपेक्षा 'वीच' ही अधिक उपयुक्त है । सामान्यतया * ' वीच्य-' का अर्थ होगा "विस्तार करने योग्य" श्रौर* 'वीच' का "विस्तार" । साराश यह कि प्रा० 'विच्च' के लिए *'विच्य-' ('व्यच्' धातु) अथवा * ' वीच ' ('वि + अच्' धातु) की ही कल्पना करना अधिक सरल मार्ग है । उपर्युक्त विवेचन से स्पप्ट है कि यद्यपि टर्नर की व्युत्पत्ति श्रव तक दी हुई सव व्युत्पत्तियो से अधिक सगत र भाषा-विज्ञान के नियमो के अनुकूल है, फिर भी इसे सर्वथा सन्तोष जनक नही कहा जा सकता । " इस प्रकार उपर्युक्त चारो व्युत्पत्तियो मे से कोई भी उपादेय सिद्ध नही होती। नीचे की पक्तियो में एक नई व्युत्पत्ति' विद्वानो के विचार के लिए उपस्थित की जाती है । ( किन्तु इन पक्तियो के लेखक को अपनी व्युत्पत्ति की 'मान्यता' के विषय में कोई श्राग्रह नही है । इस प्रकार की व्युत्पत्तियो के विषय में मतभेद होना स्वाभाविक है ) । संस्कृत में 'अच्' अथवा 'श्रञ्च्' ("जाना, मुडना, झुकना " ) धातु से वने हुए अनेक विशेपण वाचक शब्द हैं, जिनमें 'ग्रञ्च' का अर्थ " की ओर " अथवा " की ओर न ( या जाने वाला" होता है । उदाहरण के लिए 'अधराञ्च् -' ('घर + ञ्च) "नीचे वी थोर" अथवा "नीचे की ओर जाने वाला', 'ग्रन्वञ्च्-' ('अनु + अञ्च्') "किसी के पीछे जाने वाला, अनुगामी', 'उदञ्च्' ('उत् + अञ्च्') "ऊपर (उत्तर) की ओर" अथवा " ऊपर की श्रोर जाने वाला”, 'न्यञ्च्-' ('नि+ग्रञ्च्') "नीचे की ओर" अथवा "नीचे की ओर जाने वाला", 'प्राञ्-' ('प्र+ श्रच्') "आगे की ओर (पूर्व ) " अथवा " आगे की ओर जाने वाला", 'प्रत्यञ्च् -" ("प्रति + अञ्च् ) “विरुद्ध दिगा, पीछे की ओर (पश्चिम) " अथवा "विरुद्ध दिशा की ओर जाने वाला”, 'सम्यञ्च्' ('समि + अञ्च्', 'समि' = 'सम् ' ) ७७ 'वास्तव में यह परिवर्तन " भ्रम - मूलक" है । बात यह है कि पाली तथा प्राकृत का यह एक सामान्य नियम है कि दीर्घस्वर के बाद केवल एक व्यञ्जन रह सकता है, व्यञ्जनसयोग नहीं; किन्तु ह्रस्व स्वर के बाद एक व्यञ्जन भी रह सकता है, और व्यञ्जनसयोग भी । फलत संस्कृत के दीर्घस्वर + व्यञ्जनसयोग के स्थान पर ह्रस्वस्वर - + व्यञ्जनसयोग अथवा दीर्घस्वर + एक व्यञ्जन हो जाता है । संस्कृत का दीर्घस्वर + एक व्यञ्जन प्राकृत में भी दीर्घस्वर - + एक व्यञ्जन रह सकता है । किन्तु उपर्युक्त नियम को व्यापकता के कारण कभी-कभी इसका " दुरुपयोग" भी हो जाता है— सस्कृत के दीर्घस्वर + एक व्यञ्जन को प्राकृत में ज्यो का त्यो रखा जा सकने पर भी, ह्रस्वस्वर + दो व्यञ्जन में परिवर्तित कर दिया जाता है। फिर भी इस " दुरुपयोग" के आधार पर भी स० * 'वीच' को प्रा० 'विच्च' में परिवर्तित करना सम्भव है ही । विशेषत इसलिये कि श्रर्य की दृष्टि से 'वीच' - ( " विस्तार") अधिक उपयुक्त है । देखिये, ग्राल्स्डोर्फ, "अपभ्रंश - स्टूडिएन", पृ० ७६ - " टर्नर की व्युत्पत्ति मुझे मान्य नहीं जँचती । किन्तु इस स्थान पर कोई अन्य अधिक उचित, व्युत्पत्ति रखने में भी असमर्थ हूँ " । , यह व्युत्पत्ति यद्यपि टर्नर की व्युत्पत्ति से मिलती-जुलती है, और उसके आधार पर किसी को सूझ सकती है, फिर भी मैं इसे "नई" इसलिये कह सका हूँ कि मैने टर्नर की व्युत्पत्ति देखने से कई मास पूर्व इसे सोचा था और "नोट्" करके पड़ा रहने दिया था। इस लेख के लिये मसाला इकट्ठा करते समय हो मुझे टर्नर की व्युत्पत्ति का पता चला। इसके अतिरिक्त, टर्नर की व्युत्पत्ति और इस व्युत्पत्ति में, ध्वनि विकास की श्राशिक समानता होते हुए भी अर्थ-विकास का विवेचन बिलकुल भिन्न है । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन - प्रथ "एक साथ” अथवा “एक साथ जाने वाला", "विष्वञ्च्-' ('विपु+ श्रञ्च्') "विभिन्न दिशाश्रो की ओर, सब ओर" अथवा "विभिन्न दिशाओ में जाने वाला', 'देवाञ्च्-' ('देव + अञ्च्') "देवताओ की थोर" अथवा "देवताओ की ओर जाने वाला" इत्यादि । # ७८ इन शब्दो की विभिन्न विभक्ति आदिको में 'अञ्च' के तीन रूप मिलते है--' ग्रञ्च', 'अच्' और ' च्' । ‘-अञ्च' को “प्रबल” रूप, 'अच्' को "मध्यम" रूप श्रीर' च्' को " निर्बल" रूप कहा जाता है । "प्रवल" और "मध्यम" रूपो मे ‘-अञ्च् अथवा ‘-अच्' का '--' अपने पूर्ववर्ती स्वर मे मामान्य मन्धि-नियमो के अनुसार मिल जाता है, किन्तु " निर्बल" रूपो मे लुप्न हुआ 'अ- अपने से पूर्ववर्ती 'इ' 'उ' को दीर्घ वना जाता है । ऊपर दिये हुए शब्द "प्रवल" रूपो के हैं । "मध्यम" रूपो में यही शब्द 'घराच्', 'अन्वच्', 'न्यच्', 'प्रत्यच्' आदि वन जाते है श्रीर " निर्बल" रूपो में 'अधराच्', ' 'अनूच्', 'नीच्', 'प्रतीच्' आदि । इन शब्दो में से अधिकाश के पूर्व-पद उपसर्ग ('प्र, परा, नि, प्रति ग्रादि) है, किन्तु कुछ के पूर्वपद विशेषण अथवा सज्ञाएँ भी हैं, जैसे 'अघराञ्च्-' श्रौर 'देवाञ्च मे । सभी शब्द दिशा-वाचक प्रथवा आपेक्षिक-स्थिति-वाचक है, यह स्पष्ट ही है । इन विद्यमान 'अञ्च् -' विशेषणो के आधार पर अन्य विशेषण भी कल्पित किये जा सकते है । प्रा० 'विच्च' ( " मध्य") प्रापेक्षिक स्थिति - वाचक शब्द है । इसकी व्युत्पत्ति के लिए एक नया 'श्रञ्च विशेषण, 'द्वि--- श्रञ्च', कल्पित कर लेना शायद अभगत न होगा । उपर्युक्त नियम के अनुसार 'द्वि + प्रञ्च' का " निर्बल" रूप 'द्वोच्-' बनेगा जैसे 'नि+अञ्च्' का 'नीच्-' और 'प्रति + थञ्च' का 'प्रतीच्-' बनता है । 'द्वीच्-' के 'द्वी ' अश की तुलना स० 'द्वीप -' शब्द से की जा सकती है। 'द्वीप-' 'द्वि - अप्' ('जल') से बना है। 'अञ्च' की तरह 'अप्' के निर्बल स्पो में भी '--' का लोप हो जाता है और उसके पूर्ववर्ती 'इ', 'उ' दीर्घ हो जाते है, जैसे 'अनूप' ('अनु + श्रप्') श्रर 'नीप-' ('नि+अप्') मे।' इस प्रकार 'नीच' और 'द्वीप -' शब्दो के आधार पर 'द्वीच ' ('द्वि + श्रञ्च् + अ ' ) शब्द की कल्पना कर लेने में कुछ भी बाधा नही है । * 'द्वीच ' का अर्थ होगा "दोनो ओर जाने वाला, दोनो ओर पहुँचने वाला", अर्थात् "दोनो श्रोर (दोनो भागो से ) सम्बद्ध”, अर्थात् “मध्य”। “मध्य" अर्थ से "दो के मध्य मे स्थान, दो के बीच का अन्तर" यह अर्थ, और इस अर्थ से "अन्तर, अवकाश” आदि अर्थ सहज ही विकसित हो सकते हैं । ( किन्तु, ध्यान देने की बात है कि इसके विपरीत "अन्तर, श्रवकाश” ग्रथों से "मध्य" श्रर्थ का विकास होना कठिन है । इसका प्रमाण स्वय 'मध्य' शब्द के अर्थ-विकास का इतिहास है । 'मध्य' के अर्थ वेद ब्राह्मणादि ग्रन्थो में "वीच मे, बीच का, मध्यतम, केन्द्र" है । "दो के बीच का ग्रन्तर, अवकाश” अर्थ पहले-पहल महाभारत मे मिलता है । ") "दो का मध्य" से "अनेक का मध्य, केन्द्र ( बीचोबीच )" वन जाना भी स्वाभाविक ही है । । थों के विषय मे * द्वीच ' की तुलना उपर्युक्त 'श्रञ्चु ' विशेषण 'विष्वञ्च्-' और उससे सम्वद्ध 'विषुवत् ' शव्द से की जा सकती है । इन दोनो शब्दो के मूल में 'विषु-' गव्द है, जिसका अर्थ है "दोनो ओर, विविध श्रोर, सव ओर"।" 'देखिये, व्हिट्ने, "संस्कृत प्रेमर " [[४०७ - ४१० । 'अ' के पूर्व वाला शब्द यदि अकारान्त हो तो "मध्यम" और " निर्बल" रूप एक से बनते हैं । देखिये, मॉनियर विलियम्स में यही शब्द | 'दे० मॉ० वि० में 'मध्य' शब्द | ५ 'ग्रासमन् ("वुइतंरबुख् त्सुम ऋग्वेद" ) के अनुसार 'विषु' शब्द के मूल में 'वि' उपसर्ग है, और मॉ० वि० के अनुसार 'विषु' का सम्बन्ध 'विश्व' - ( " सब " ) शब्द से हैं । किन्तु क्या यह सम्भव नहीं कि 'विषु-' का सम्वन्ध ‘द्वि-' (>'चि-') शब्द से हो ? मॉ० वि० तो 'वि' उपसर्ग को भी 'द्वि-' से उद्भूत मानने को तैयार है । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'बीच' को व्युत्पत्ति ७६ फलत 'विप्वञ्च- का अर्थ होता है "दोनो ओर, सव ओर, सर्वत्र" अथवा "दोनो ओर (सव पोर) जाने वाला, सर्वत्र व्याप्त"। इसी प्रकार "विषुवत्- शब्द के अर्थ है "दोनो ओर तुल्य भाग वाला, दो के मध्य म स्थित, सबके मध्य मे स्थित, केन्द्र", जो 'द्वीच-' के उपर्युक्त अर्यों से पूरी-पूरी समानता रखते हैं और उनकी युक्ति-युवतता सिद्ध करने है। 'विषुवद्-रेखा-'"पृथ्वी की मध्यरेखा" और 'विपुवद्-दिन- "वह दिन जब सूर्य मध्यरेखा पर आता है, और रात तथा दिन बगवर होते है" भी ध्यान देने योग्य है। साराश यह कि अर्थ की दृष्टि से 'दीच-' को प्रा० "विच्च' का पूर्वस्प मानना सभी तरह से सगत और न्याय्य है। ध्वनि की दृष्टि से भी म० 'द्वीच-' का प्रा० "विच्च' में परिवर्तित हो जाना नियमानुकूल है। प्राकृत के अनेक गन्दो में सस्कृत के 'द्वि-' के स्थान पर 'वि-' अथवा 'वि-' और सस्कृत 'द्वा-' के स्थान पर 'वा-' अथवा 'वा-'हो गया है। उदाहरण के लिए म० द्वि-'>प्रा० "वि' ('वि') "दूसरा", म० "द्विक-'>प्रा० "विअ- ("विप्र-') "युग्म, जोडा", स० "द्वितीय-'>प्रा. 'विइज्ज-(विइज्ज-') "दूमग", स० 'द्वादग-'>प्रा० 'वारस-' 'वारस', 'वारह', 'वाह', म. द्वाविंग-'> प्रा० 'वावीस-', 'वावीम-' "वाईस", स० 'द्वार-' > प्रा० 'वार- ('बार-') "द्वार", स. द्वारका-'>प्रा० 'वारगा-' 'वारगा-' इत्यादि । फलत म० 'द्वीच-' का भी प्रा० मे * 'वीच-' अथवा 'वीचबन सकता है । इसके बाद 'नीड' > "णिहु' की तरह (पृ० ६५ तथा टि० १)* 'वीच-' का 'विच्च-' बन जाना भी सर्वथा सम्भव है। इस प्रकार अर्य और रूप दोनो दृष्टियो मे प्रा० "विच्च' को स०* 'द्वीच-' से विकसित माना जा सकता है। प्रा० "विच्च' का विकास आधुनिक भारतीय आर्य भापानो मे कई रूपो में हुआ है-हिन्दी मे 'बीच', 'विच', पजावी में 'विच्च',गुजराती में "विचे','वचे', 'वच्चे', नेपाली में "विच' इत्यादि। इनमें से 'विच्च'> 'वीच'तो,प्राकृत का ह्रत्वस्वर+व्यञ्जनसयोग > हिन्दी आदि में दीर्घस्वर+एक व्यञ्जन, इस अत्यन्त व्यापक नियम के अनुसार, स्वाभाविक ही है। पजावी 'विच्च' भी, पजावी भापा की, प्राकृत के ह्रस्वम्वर-+व्यञ्जनसयोग को अपरिवर्तित रखने की सामान्य प्रवृत्ति के अनुकूल है। इसी प्रकार बज०, अवधी और नेपाली के 'विच' में पूर्वस्वर को दीर्घ किये बिना एक 'न्-' का लोप भी अमाधारण नहीं है। गुजगती 'वच्चे' प्रा० "विच्चे' (='विच्च' में) का और 'वच' ('वच-मा'="वीच में") "विच' का परिवर्तित स्प है। 'वीच' और 'मे' के अर्थ में व्रज मे 'विमे, विम, विसें, विपे, विष, विसे, विस' और गुज० में 'विशे', 'विपे' का भी प्रयोग होता है। इस शब्द का प्रारम्भिक स्पयदि 'विप 'वि' है तब तो स्पष्ट ही इसका सम्बन्ध सस्कृत के 'विपय' 'पिशेल ४४३ आदि । प्राकृत में 'व' . 'व' का विनिमय सुप्रसिद्ध है। 'तुलना के लिये, प्रा० 'कम्म'>हि. 'काम',प्रा० 'हत्य'>हि. 'हाय', प्रा० 'विस'>हि. 'वीस' इत्यादि। इस ध्वनि-परिवर्तन का परिणाम कभी-कभी यह होता है कि प्राकृत से विकसित हिन्दी प्रादि के शब्द उलट कर फिर उन संस्कृत शब्दो के सरूप हो जाते है, जिनसे प्राकृत शब्द विकसित हुए थे, जैसे स० 'पूजा-'>प्रा० 'पुज्जा'>हि० 'पूजा', स० 'एक'>प्रा० 'ऍक्क' > हि० 'एक', स०'तैल->प्रा० "तिल्ल'>हि० 'तेल', स० 'नीच'>प्रा० "णिच' > हि० 'नीच' इत्यादि । इसी प्रकार का परिवर्तन 'वीच' में माना जा सकता है-स० * 'द्वीच-'> प्रा० *'वीच-'>"विच्च-'> हि० 'वीच', जो ठीक 'नीच'>'णिच्च' > 'नीच' के ही समान है। "देखिये, सुनीतिकुमार चाटुा , "इडो-आर्यन ऐंड हिन्दी" (अहमदावाद, १९४२), पृ० ११४,१७० । "देखिये, सु० चाटा , "प्रॉरिजिन ऐंड डेवलपमेंट ऑव् द वेंगाली लैंग्वेज" (कलकत्ता, १९२६), पृ० १६० । "किन्तु आश्चर्य है कि यह शब्द न तो "हिन्दी-शब्द-सागर" में और न डा० धीरेन्द्र वर्मा के "व्रजभाषा व्याकरण" (इलाहाबाद, १९३७) में दिया गया है । प्रयोग के उदाहरण के लिये देखिये "सतसई-सप्तक" (श्यामसुन्दरदास द्वारा सम्पादित, इलाहाबाद, १६३१), पृ० २८८, वोहा १६ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० प्रेमी-अभिनदन-प्रथ शब्द से है। किन्तु यदि विसे', 'विसें' को प्रारम्भिक रूप और 'विगे' 'वि' विर्ष' को 'विमे' फा "पडिता" रूप तया 'विखें "विखै' को इस “पडिता" रूप से परिवर्तित माना जाय, तो इस शब्द को भी प्रा० 'विच्च' मे सम्बद्ध किया जा सकता है। क्योकि 'च', 'छ' और 'स', 'श' के विनिमय के अनेक उदाहरण पाली, प्राकृत तथा आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओ में मिलते है। पाली प्राकृत मे स० च्च' तथा'छ' के स्थान पर 'स' अथवा 'म्म' देखने में प्राता है, जैसे स० पृच्छति'>प्रा० 'पुछई', 'पुसइ' तथा 'पुसइ',स० "चिकिला-'>प्रा० 'चिकिछा-'तपा'चिक्सिा -', न० 'उच्च-' >प्रा० 'उत्स' इत्यादि । आधुनिक भाषाओ मे वगाली, मराठी, गुजराती तथा राजस्थानी के अनेक गन्दो गे 'च' के स्थान पर 'स''त्त अथवा 'श' का उच्चारण प्रचलित है । उदाहरण के लिए न० 'चुक > व 'गुरु' (निगा), स० 'चोर'>म० 'लोर',सः 'उच्च'>गु० 'उनो', हि० 'अक्की'> राज 'सी' यादि। मिहली भाषा के तो प्राय सभी शब्दोमे 'च' के स्थान पर 'स'हो गया है-म० चत्वार'>मि० 'सतर',म० 'पञ्च'>मि० 'पर' इत्यादि। इसी प्रकार के विनिमय ने 'विचे' (="वीच में") को 'विसे' बना दिया हो, तो कोई पाश्चर्य नहीं। 'विमें' का विसे' 'विस', 'विमै' आदि वन जाना साधारण वात है। हैदरावाद] . - - %EM 'प्रारम्भिक रूप कौन सा है, इसका निर्णय तभी हो सकता है, जब इस शब्द के प्रयोग के समस्त उदाहरण प्रामाणिक हस्तलिखित प्रतियों से सगहीत किये जायें और उनकी विवेचना की जाय । इस सामग्री की अलभ्यता होते हुए प्रारम्भिक रूप का निर्णय करना मेरे वश के बाहर की बात है। विस्तृत विवेचना के लिए देखिये, सु० चाटुD "बंगाली " पृ० ४६६-६७, पिशेल्, 'ग्रामा० प्रा० प्रा०" ३२७ आदि। 'सु० चाटुा , "बंगालो- ", पृ० ४६६ । "सु० चाटुा , "बंगाली ", पृ० ५५१ । "दे० प्रियर्सन का लेख, "जर्नल ऑक् द रॉयल एशियाटिक सोसाइटी", १९१३, पृ० ३६१-। 'दे० गाइगर, "लितरातूर उद् प्राख्ने देर् सिंहालेजन" ष्ट्रासवर्ग (Literatur und Sprache der Singhalesen, Strassburg), १९००, 55 १४ (६), २३ (१) । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वों के कुछ विशिष्ट ( ई० पूर्व के १००० से १२०० तक) श्री पी० के० गोडे एम० ए० हेमचन्द्र (१०८८ से ११७२) ने अपने अभिधानचिन्तामणि शब्द-कोश में वर्णानुसार अश्वो के निम्नलिखित नामो का उल्लेख किया हैक्रम नाम वर्ण हेमचन्द्र की व्याख्या १ कर्क करोति प्रमोद कर्क "कृगो वा" (उणा-२३) इति क (अमरकोष में 'कर्क' का उल्लेख श्वेत अश्व के लिए आया है-"सित कर्क") कोकाह कोकवत् पाहन्ति भुव कोकाह (ज'-१) खोङ्गाह श्वेतपिङ्गल खमुद्गाहते खोङ्गाह , पृपोदरादित्वात्, श्वेतश्चासौ पिङ्ग(ज-२) लश्च श्वेतपिङ्गल सेराह पीयूषवर्ण पीयूष अमृत दुग्ध वा तद्वद्वर्णोऽस्य पीयूपवर्ण तत्र सीरव दाहन्ति भुव सेराह मित . . पीत हरिं वर्ण याति हरियः हरिया (ज-३) खुङ्गाह कृष्णवर्ण खुराहते खुङ्गाह. क्रियाह लोहित नीलक क्रिया न जहाति नील एव नीलक पानील (ज-८) (स-७) त्रियूह कपिल त्रीन् यूथानि त्रियूह अय त्रियूह. एव व्योम्नि उल्लघते वोल्लाह वोल्लाह (ज-२१) उराह (ज-१४) (स-१३) कपिल और पाण्डु केशर वालधि मनाक पाण्डु और कृष्णजघ उरसा आहन्ति उराह स-सोमेश्वर । 'ज--जयदत्त। ११ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ क्रम १२ १३ १४ १५ १६ १७ १५ १६ २० नाम सूरुहक (देखिये सरुराहक) (ज-२१) वोरुखान (ज-१५) कुलाह (ज-१३) उकनाह (ज-१६) शोण हरिक (ज-३) हालक पङ्गुल देखिये पिङ्गल (स-२० ) इलाह (ज-११) ( स - १८ ) वर्ण गर्दभाम पाटल मनापीत कृष्ण स्यात् यदि जानु नि पीतरक्तच्छाय और प्रेमी अभिनंदन ग्रंथ कृष्णरक्तच्छाय कोकनदच्छवि पीतहरितच्छाय " सितकाचाभ चित्रित हेमचन्द्र की व्याख्या सुखेन रोहति सुरूह वैरिण खनति वोरुखान कुलम् श्रजिहीते कुलाह उच्चे नह्यते उकनाह । सण्व उकनाह । कृष्णरक्तच्छाय सन् क्वचिदुच्यते । शोण. शोणवर्ण हरिदेव हरिक हलति क्ष्मा हालक पङ्गन् लाति पङ्गुल चित्रितो कर्पूरवर्णी हलवदाहन्ति हलाह हेमचन्द्र ने विभिन्न घोडो की उक्त सूची ( भूमिकाण्ड, छन्द ३०३ से ३०९ ) को निम्नलिखित टिप्पणी देकर पूर्ण कर दिया है -- "खोङ्गाहादय शब्दा देशोप्राया । व्युत्पत्तिस्त्वेषा वर्णानुपूर्वी निश्चयार्थम् " ( खोङ्गाह तथा दूसरे नाम प्राय देशी है । निश्चय अर्थ में उनकी व्युत्पत्ति घोडो के विभिन्न वर्णों के आधार पर की गई है ।) हेमचन्द्र के इस कथन से कि विभिन्न वर्णों के अश्वो के ये नाम 'देशीप्राया 'है, पता चलता है कि हेमचन्द्र विश्वस्त नही थे कि ये निश्चित रूप से देशी शब्द ही हैं । फिर भी यह स्पष्ट है कि इन नामो का प्रचलन हेमचन्द्र के समय अर्थात् ग्यारहवी शताब्दी में था । अब हम देखें कि ये नाम या इनमें से कुछ हेमचन्द्र के समय में अथवा उसके निकटवर्ती वर्षों मे रचे गये अन्य संस्कृत ग्रन्थो में मिलते हैं या नही । वस्तुत चालुक्य वशी राजा सोमेश्वर द्वारा सन् ११३० ई० के लगभग ( जबकि हेमचन्द्र करीव ४२ वर्ष के थे) रचित 'मानसोल्लास " ( अथवा 'अभिलषितार्थ चिन्तामणि' ) नामक विश्वकोश के पोलो- अध्याय में, जिसे 'वाजिवाह्याली विनोद' कहा गया है, हमें कुछ नामो का उल्लेख मिलता है । इस अध्याय मे अधिकारी अफसर द्वारा लाये गये अनेक प्रकार के घोड़ों, उनकी नस्लो और वर्णों की परीक्षा करने के लिए राजा को परामर्श दिये गये है । राजा को घोडो की नस्ल का निर्णय जिन देशो से वे आये थे, उनके आधार पर करना था । विभिन्न देशो के नाम, जिनमें घोडो की उत्पत्ति हुई थी, सोमेश्वर ने दिये है । उन्होने घोडो के शरीर के विशिष्ट चिह्नो का भी उल्लेख किया है और वर्गों तथा जाति के आधार पर, जो कि सस्या में चार है, वर्गीकरण किया है। उन्होने 'गायकवाड ओरियटल सीरीज बडोदा में प्रकाशित, भाग २ (१६३६) पू० २११ - - तथा भूमिका, पृ० ३४ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वो के कुछ विशिष्ट नाम विभिन्न प्रकार के घोडो की विशेषतानो पर भी, जिनमै घोडो के शरीर की गठन भी सम्मिलित है, प्रकाश डाला है। यहां उन्होने 'पचकल्याण' तथा 'अष्टमङ्गल' घोडो का उल्लेख किया है । तदनन्तर घोडो की गति-अधिक, मध्यम और धीमी-का विभाजन किया है । दोषपूर्ण घोडो के चिह्न भी उन्होने दिये है । घोडो को सजा देने तथा शिक्षण योग्य बनाने के तरीको को भी बताया है। शिक्षण पूर्ण हो जाने पर ये घोडे राजा के काम आते थे। सर्वोत्तम अश्वो को सर्वोत्तम जोन तथा आभूषणो से सुसज्जित किया जाता था और राजा उन पर सवारी करते थे। वर्गों के आधार पर घोडो के नाम देने के पूर्व सोमेश्वर लिखते है "श्वेतः कृष्णोऽरुणः पीत. शुद्धाश्चत्वार एव हि । मिश्रास्त्वनेकघा वर्णास्तेषां भेद प्रवक्ष्यते ॥५२॥" (अर्यात् सफेद, काले, लाल और पीले, ये ही चार विशुद्ध वर्ण है। उनके मिश्रण तो अनेक है। उनके भेदो को आगे बताया जायगा)। विभिन्न वर्गों तथा जातियो के घोडो के सोमेश्वर द्वारा उल्लिखित नामो का नीचे दी हुई तालिका पर एक निगाह मे ही आभास हो जायगान० नाम वर्ण जाति विवरण १ कक (क) श्वेत विप्र केशा वालाश्च रोमाणि वर्म चैव खुरास्तथा। श्वतरेतैर्भवेदश्व कका (ऊ) हो विप्रजातिज ॥३॥ २ कत्तल शुक्ल या श्वेत पूर्ववत्सर्वशुक्लाङ्गस्त्वचा कृष्णो भवेद्यदि । वर्णनाम्ना स विज्ञेय कत्तलोऽय तुरङ्गम ॥४॥ ३ काल कृष्ण शूद्र लोमभि केशवालश्च त्वचा कृष्णः खुरैरपि। काल इत्युच्यते वाजी शूद्रः शौर्याधिकस्तथा।।८।। ४ कपाह (कवाह) रोहित क्षत्रजाति केशप्रभृति वालान्त सर्वाङ्गे रोहितो यदि। (ह-७) कयाह इति विख्यात क्षत्रजाति तुरङ्गम ॥८६॥ सेराह काञ्चनाभ वैश्य केशस्तनुरुहर्वाल काञ्चनाभस्तुरङ्गम । सेराह इति विख्यात वैश्यजाति समुद्भव ॥७॥ ६ चोर सिल+लोहित सिललोहित रोमाणि सर्वाङ्गे मिश्रितानि च । मुखाङ्घ्रि वालकेशेषु लोहितश्चोर उच्यते ॥१८॥ । ७ नील सितकृष्ण केशवालाङ्घ्रितुण्डे च मेचको रुरुसन्निभ । नील इत्युच्यते वाजी सितकृष्णे तनूरुहे ॥८६॥ ८ क या(पा)ह कृष्ण इत्यादि पाटलीपुष्पसका (शो)शानलकेषु सितेतर । कृष्णन्थिकया(पा)होश्व सङ्ग्रामे विजयप्रद ॥६०॥ है मोह मधूक वल्कल मधूकवल्कलच्छायो मोह इत्युच्यते हय । १० जम्ब पक्वजम्बूफल पक्वजम्बूफलच्छायो जम्ब इत्यभिधीयते ॥६॥ ११ हरित (ह-५) पीत+लोहित केशवालेषु पीतश्च लोहितो हरितो मत । (ह-१७) १२ सप्त (प्ति) रुन्दीर उन्दुरवर्ण उन्दुरेण समच्छाय सप्त (प्ति) रुन्दीर उच्यते ॥१२॥ १३ उराह मेचक+पीत+ केशकेसर पुच्छे च जानुनोऽधश्च मेचकः । (ह-११). लोहित सर्वाङ्गलोहित पीतैरुराह. कथ्यते हय ॥६॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ वर्ण जाति विवरण न० नाम १४ गण्ठि (मण्ठ) वर्ण शोण इत्यादि वैश्य शेप (शोण)स्तेप्वेव देशेषु सर्वाङ्गे किञ्चिदुज्वल । रक्तरेखाङ्कित पृष्ठे गण्ठि (मण्ठ)वर्णस्तुरङ्गम ॥१४॥ १५ पञ्चकल्याण पाण्डुर येनकेनापि वर्णेन मुखे पुच्छे च (पादेषु)पाण्डुर ।। पञ्चकल्याण नामाय भापित सोमभूभुजा ॥६॥ १६ अष्टमठा (ङ्ग)ल पाण्डुर केशेषु वदने पुच्छे वशे पादे च पाण्डुर । अण्ट मण्ठा (ङ्ग)ल नामा च सर्ववर्णेपु शस्यते ॥६॥ १७ धौतपाद श्वेत इत्यादि श्वेत सर्वेषु पादेपु पादयोपि यो भवेत् । धौतपाद स विज्ञेय प्रशस्तो मुगपुण्डक ॥१७॥ १८ हलाह (ह-२०) श्वेत इत्यादि विगाले पट्टकै श्वेत स्थाने स्थाने विराजित । येन केनापि वर्णेन हलाह इति कथ्यते ॥९८|| १६ तरज चित्रित चित्रित पार्वदेशे च श्वेतविन्दुकदम्बके । यो वा को वा भवेद्वर्णस्तरज कथ्यते ह्य ॥१६॥ २० पिङ्गल सित+कृष्ण इत्यादि , सितस्य विन्दव कृष्णा स्यूला सूक्ष्मा समन्तत । दृश्यन्ते वाजिनो यस्य पिङ्गल स निगद्यते ॥१०॥ २१ बहुलया मलिन श्वेत+श्यामल , श्वेतस्य सर्वगात्रेषु श्यामला मण्डला यदि । ___ एके त वहुल प्राहुरपरे मलिन बुधा ॥१०१॥ सोमेश्वर की उक्त सूची की हेमचन्द्र की सूची से तुलना करने पर हमें पता चलता है कि निम्नलिसित नाम दोनों सूचियो में है (१) कर्क (२) सेराह (३) नील या नीलक (४) उराह (५) हलाह और सभवत (६) पिङ्गल या पङ्गल। ___ यह केवल सयोग की वात नही है । यद्यपि सोमेश्वर दक्षिण में राज्य करते थे और हेमचन्द्र गुजरात में रहते थे तथापि इन दोनो प्रान्तो में निरन्तर पारस्परिक सम्पर्क रहता था। हेमचन्द्र के आश्रयदाता महाराज कुमारपाल ने दो वार कोकन पर आक्रमण किया और शिलाहार वश का राजा मल्लिकार्जुन इन आक्रमणो मे से एक में मारा गया। यह बहुत सम्भव है कि दक्षिण की कुछ अश्वविद्या गुजरात पहुँची होगी और गुजरात की दक्षिण मे, क्योकि निरन्तर युद्ध में रत राजापो के लिए अश्वविद्या का वडा मूल्य था। सोमेश्वर और हेमचन्द्र ने जिन नामो का ग्यारहवी शताब्दी में उल्लेख किया है, उनमे से कुछ विजयदत्त के पुत्र महासामन्त जयदत्त के द्वारा घोडो के विषय मे लिखे 'अश्ववैद्यक नामक निवन्ध मे भी पाये जाते है। निवन्ध के अन्त मे कुछ मादक द्रव्यो के नाम भी आते है और सम्पादक का कथन है कि उनका जयदत्त ने उल्लेख किया है । उन नामो में मुझे पृष्ठ ३ पर 'अहिफैन' या 'अफीम' का नाम मिलता है। यदि यह कथन सही है तो मुझे कहना पडता है कि यह निबन्ध मुसलमानो के भारत में आगमन के पश्चात् लिखा गया है, क्योकि आठवी शताब्दी में मुसलमानो 'एस० चित्राव शास्त्री (पूना) रचित 'मध्ययुगीनचरित्रकोश' १९३७, पृ० २४० । प्राकृत व्याश्रयकाव्य (सर्ग ६) के ४१ से ७० तक छद देखिये, जिनमें कुमारपाल के कोंकण पर कूच का वर्णन है। सम्पादक उमेशचन्द्र गुप्त, विब० इडिका, कलकत्ता, १८८६ । तीसरे अध्याय के ९८-११० छन्दो में वर्गों के अनुसार घोडों की किस्मों का वर्णन है। (पृष्ठ ३८-४३)। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वो के कुछ विशिष्ट नाम ८५ के आने के पूर्व भारतीय साहित्य मे कही भी 'अफीम' का नाम नही था। सम्भवत यह निवन्ध सन् ८०० और १२०० के वीच लिखा गया था। नकुल द्वारा रचित 'अश्वचिकित्सित' नामक अश्व-सम्बन्धी निवन्ध में, जिसका सम्पादन सन् १९८७ मे विब्लिोथिका इडिका मे उल्लिखित जयदत्त के ग्रन्थ के सम्पादक ने किया था, हेमचन्द्र, सोमेश्वर और जयदत्त द्वारा बताये गये घोडो के नाम नही आते। फिर भी नकुल के ग्रन्थ के तीसरे अध्याय में वर्णों के आधार पर घोडो का उल्लेख है, पर उनके नाम भिन्न है। वे नाम सस्कृत मे है, 'देशी प्राया' नही है, जैसा कि हेमचन्द्र ने लिखा है। नीचे की तालिका मे मै सविस्तर वर्णों के हिसाब से घोडो के कुछ विशेप नाम देता हूँ, जिनका उल्लेख जयदत्त ने अपने 'अश्ववैद्यक' में किया है 20 नं० नाम नाम वर्ण १ कोकाह (ह-२) २ खुङ्गाह (पिङ्गाह) श्वेत कृष्ण विवरण श्वेत कोकाह इत्युक्त कृष्ण खुनाह उच्यते ३ हरित (ह-५-१७) पीतक पीतको हरित प्रोक्त ४ कषाय रक्तक कषायो रक्तक स्मृत ५ कयाह (स-८) पक्वतालनिभ पक्वतालनिभो वाजी कयाह परिकीर्तित । ६ सेराह (ह-४) (स-५) पीयूषवर्ण पीयूषवर्ण सेराह ७ सुरुहक (ह-१२) गईभाभ गईभाभ सुरुहक ८ नील (ह-८) (स-७) नीलक नीलो नीलक श्यावाश्व ६ त्रियूह (ह-६) कपिल त्रियूह. कपिल स्मृत १० खिलाह (शिलह) कपिल खिलाह कपिलो वाजी पाण्डुकेशरवालधि । ११ हलाह (ह-२०)(स-१८) चित्रल हलाह' चित्रलश्चैव १२ खड्गाह (खेगाह) श्वेतपीतक खगाह श्वेतपीतक १३ कुलाह (ह-१४) ईषत्पीत ईषत्पीत कुलाहस्तुयोभवेत्कृष्णजानुक १४ उराह (उरूह) कष्ण-पाण्डु कृष्णाचास्ये भवेल्लेखा पृष्ठवशानुगामिनी।। (ह-११) (स-१३) इत्यादि उराह कृष्णजानुस्तु मनाक्पाण्डु स्तु यो भवेत् ॥१०४॥ १५ वेरुहान (वीरहण) पाटल वेरुहानः स्मृतो वाजी पाटलो य प्रकीर्तित । (ह-१३) रक्तपीतकषायोत्यवर्णजो यश्च दृश्यते ॥१०॥ १६ उकनाह (दुकूलाह) देहज वर्ण उकनाह स विख्यातो वर्णों वाहस्य देहज । (ह-१५) १७ कोकुराह मुखपुण्ड्रक के साथ कोकाह पुण्डकेणाश्व कोकुराह प्रकीर्तित १८ खरराह खरराहश्च खड्गाहो (पुण्ड्रकेण) १६ हरिरोहक हरिको हरिरोहक (पुण्ड्रकेण) 'हेमचन्द्र के प्राश्रयदाता जयसिंह सिद्धराज (ई० १०९३-११४३) की राजधानी अणहिलपुर में अल इद्रिसी नामक भूगोल-विशेषज्ञ गया था। वह लिखता है-"शहर में बहुत से मुसलमान-व्यापारी है, जो यहां व्यापार करते है। राजा उनका खूब सत्कार करता है।". (देखिये पार० सी० पारीख कृत काव्यानुसार की भूमिका, पृष्ठ १९४, बम्बई, १९३८, । स-सोमेश्वर। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंय वर्ण १ विवरण न० नाम २० मुराह मुखपुण्ड्रक के साथ कुलाह मुराह (पुण्ड्रकेण) मुरगहन वोल्लाह सराहक (पुण्डकेण) मुन्हक (ह-१२) २२ वोल्गह वीराह वोराह (पुण्ड्रकेण) २३ दुराह दुकुलाह दुराह (पुण्डकेण) २४ त्रियुराह चित्रलाग त्रियह त्रियुराहश्च चित्रलाङ्गश्च यो भवेत् । मंने जयदत्त के 'अश्ववैद्यक' में मे घोडों को नामावली की तालिका जितनी अच्छी तरह से उसे समझकर बना सकता था, बना दी है। यह नामावली उम नामावली से भिन्न है, जो गालिहोत्र ने घोटो-मम्वन्धी अपने निवन्य में दी है और जिसका बार-बार जपढन ने उल्लेख किया है। जयदत्त के समय मे प्राचीन परिभाषा ग़लत नाबिन हो चुकी थी और इसी कारण जयदत्त ने अपने समय में प्रचलित नामावली को ही लिया, क्योकि इस प्रकार के उल्लेस की व्यावहारिक उपयोगिता थी। जयदत्त ने निम्निलिम्वित छन्दों में अपने इस ध्येय को व्यक्त किया है "वक्त्वाकादिभिर्वर्णे शालिहोत्रादिभि स्मृत । पाटलाद्यञ्च लोकस्य व्यवहारो न साम्प्रतम् ॥१८॥ तम्मात्प्रसिद्धकान्वर्णान् वाजिना देसम्भवान् । ममानेन यथायोग्य कथयाम्यनुपूर्वग ॥६॥ घोडो के वर्गों के आधार पर उनके नामो की तीनो मूचियो से पता चलता है कि जयदत्त और सोमेश्वर (११३०) की भूचियां हेमचन्द्र की अपेक्षा अधिक पूर्ण है । इन तीनो मूचियों में बहुत से नाम समान होने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ग्यारह्वी और वारहवी शताब्दी में अश्व-विद्या का खूब प्रचलन था। इस अश्व-विद्या का निश्चित व्प ने विदेशी अश्व-व्यापार से भी नम्बन्व था, जो लगभग ८०० ई० पू० के बाद भारतीय वन्दरगाहो के माय चल रहा था, जैसा मैने अन्यत्र लिखा है। हेमचन्द्र कहते है कि यह नामावली दगीप्राया है। मेरा यह विश्वास है कि इन नामो मे मे कुछ फारसी है और कुछ अरखी, और वे फारसी, अरवी, तुर्की तथा अन्य घोडो की नस्लो के भारत में आने के माय आय, जैना कि विस्तार से मार्को पोलो ने अपने यात्रा-विवरणो (१२९८ ई.) में लिखा है। घोटी के विदेगी आयात के सम्बन्ध में माकों पोलो के विवरण की पुष्टि डा० एम० के० एयगर के निम्नलिखित विवरण से हो जाती है, जो उन्होन 'कायल' नामक मलावार के बन्दरगाह में १६०० ई० के लगभग प्रचलित अश्व-व्यापार के बारे में तैयार किया था दक्षिण में मनार की खाडी मे तमरपर्णी के मुहाने पर कायल नामक एक बहुत ही सुरक्षित वन्दरगाह था, जो मुप्रसिद्ध 'कोरकार्ड' (जिसे यूनानी भूगोल-लेम्वको ने 'कोलखोड' कहा है) से दूर न था। १२६० ई० के लगभग कायल एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था और वहां पर 'किग के एक अरवी नरदार मलिकुलइस्लाम जमालुद्दीन ने, जो वाद में 'फा'का फार्मर जनरल हो गया था, एक एजेन्मी कायम की थी। 'वसफ के कथनानुसार इस समय लगभग दस हजार घोडे कायल और भारत के अन्य बन्दरगाहो में व्यापार के लिए बाहर से लाये गयेथे, जिनमें १४०० घोडे स्वय जमालुद्दीन के घोटो की नस्ल के थे। हर एक घोडे का औसत मूल्य चमकते हुए सोने के बने हुए २२० दीनार था। उन घोडो का मूल्य नी जो रास्ते में मर गये थे पाड्य राजा को, जिसके लिए वे लाये गये थे, देना पड़ा था। मालूम होता है, जमालुद्वान का एजेन्ट फ़क्रोरुहीन अब्दुर्रहमान मुहम्मदुतटयैवी का वेटा, जिसे मरजवान (मारग्रेव) के नाम से भी पुकारा 'भाडारकर ओरियटल रिसर्च इस्टीच्यूट की पत्रिका, भाग २६, पृ० ८९-१०५ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वो के कुछ विशिष्ट नाम गया है, जमालुद्दीन का भाई था। इस एजेन्ट का हेडक्वार्टर कायल मे था और 'फितान' और मालीफितान के अन्य वन्दरगाहो पर भी उसका नियन्त्रण था। इस वृत्तान्त से पता चलता है कि वह इस भू-प्रदेश में अरबवासियो के भारत मे आयात-व्यापार का एजेन्ट-जनरल था। इस आधार पर यह निश्चित है कि इस प्रदेश का व्यापार उस समय बहुत वढा-चढा था। वसफ के शब्दो मे मलावार लम्वाई में कुलम से नीलपर (नीलौर) तक लगभग तीन-सौ परसग समुद्र के किनारे-किनारे फैला हुआ है और उस देश की भाषा में राजा देवर' कहलाता है, जिसका अर्थ है राज्य का मालिक । 'चिन' और 'मचिन' की विशिष्ट चीजे तथा हिन्द और सिन्व की पैदावार से लदे हुए पर्वताकार जहाज़ (जिन्हें वे 'जक' कहते थे) वहाँ पानी की सतह पर इस प्रकार चले आते थे मानो उनके हवा के पख लगे हो। खास तौर पर फारस की खाडी के टापुमो की सम्पत्ति और ईराक और खुरासान तथा रुम और योरुप के बहुत-से भागो की सौन्दर्यपूर्ण तथा सजावट की चीजे 'मलावार' को ही पहुंचती है। मलावार की स्थिति ऐसी है कि उसे 'हिन्द की कुजी' कह सकते हैं। ___ उपर्युक्त १२६० ई० के भारत के विदेशी व्यापार और विशेषकर अश्व-व्यापार के विशद वर्णन से वर्णानुसार, जैसा हेमचन्द्र, सोमेश्वर और जयदत्त ने उल्लेख किया है, घोडो के नामो की उत्पत्ति स्पष्ट हो जायगी। यह वात ध्यानपूर्वक और दिलचस्पी के साथ देखने की है कि उन १०,००० घोडो में से, जो कायल मे वाहर से लाये गये थे, १४०० घोडे जमालुद्दीन के खुद के घोडो की नस्ल के थे। इस सम्बन्ध में मुझे यह कहना पडता है कि 'वोरुखान' घोडे का नाम, जिसका उल्लेख हेमचन्द्र ने किया है, 'वोरुखान' अश्वपालक के नाम पर ही रक्खा गया होगा। यदि वह अनुमान सत्य है तो हेमचन्द्र के "वैरिण खनति वोरुखान" नाम की व्याख्या उसकी अन्य घोडो के नाम की व्याख्या की तरह दिखावटी तथा काल्पनिक हो सकती है । हेमचन्द्र ने 'वोरुखान' घोडे का पाटल वर्ण बतलाया है । जयदत्त ने 'वेरुहान' या 'वीरहण' घोडे का पाटल रग वतलाया है। मेरे विचार से 'वोरुखान' और 'वेरूहान' दोनो शब्द एक ही है। वे इस नाम के किसी अरवी अश्वपालक की पोर ही सकेत करते है, जैसा कि ऊपर कह चुका हूँ। प्रस्तुत लेख में तीन अलग-अलग सस्कृत के समकालीन आधारो पर अश्वनामावली तैयार करने में मुझे कुछ सफलता मिली है। इस विषय में दिलचस्पी रखने वाले विद्वानो से मेरा अनुरोध है कि वे इतर-सस्कृत ग्रन्थो के आधार पर इस बारे में प्रकाश डालने की कृपा करें। सम्भवत इतर-सस्कृत ग्रन्यो मे, झेनोफोन का ग्रीक निबन्ध तथा शालिहोत्र, जयदत्त एव नकुल के सस्कृत निवन्ध भी इस विषय पर प्रकाश डाल सकते है। पूना] 3ill 'इलियट, ३, ३२, एस० के० ऐयगर, 'साउय इडिया एंड हर मुहैमेडन इनवैडर्स', प्राक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, १९२१, पृ० ७०-७१ 'हेमचन्द्र की सूची में प्रयुक्त बीस नामो में से पन्द्रह जयदत्त की सूची में पाये जाते है। इस प्रकार के सयोग से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि कालक्रम के अनुसार हेमचन्द्र और जयदत्त एक दूसरे से बहुत दूर नहीं है, विशेषकर जब हमें इस बात का स्मरण होता है कि हेमचन्द्र ने इन नामों का उल्लेख अपने समय के प्रचलित नामों के आधार पर ही किया है। दूसरे, जयदत्त ने स्पष्ट लिखा है कि उसने केवल अपने समय के पहले के प्रचलित नामो को ही लिया है, क्योंकि शालिहोत्र तथा अन्य व्यक्तियो द्वारा लिखी गई अश्वनामावलियों में पाये हुए नामों का प्रयोग उसके समय में बन्द हो गया था। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत व्याकरण में लकार-वाची संज्ञाएँ __ श्री क्षितीशचन्द्र चट्टोपाध्याय शास्त्री, एम० ए० पाणिनि में जो लकारवाची सज्ञाएँ प्रसिद्ध है, उनके सम्बन्ध मे यह नहीं जान पडता कि क्यो 'लट्' आदि नामो से वर्तमान आदि कालो का ही ग्रहण किया जाय? इस समय सस्कृत व्याकरण में काल-(भूत, भविष्य, वर्तमान) और भावो-(आज्ञा, आशीर्वाद, क्रियातिपत्ति आदि) का भेद नही पाया जाता। परन्तु पाणिनि मे पूर्ववर्ती व्याकरणो मे सम्भवत इस प्रकार का भेद विद्यमान था और दस लकार स्पष्टत दो भागो मे विभक्त ये, एक काल का बोध कराने वाले, जैसे वर्तमान, परोक्ष आदि और दूसरे आज्ञा आदि भाव-वाची । कातन्त्र व्याकरण में, जो अभी तक सुरक्षित है, कुछ पहली सज्ञाएँ वच गई है। 'काले' (३३१३१०) और 'तासाम् स्वसज्ञाभि कालविशेप ।' 'प्रयोगतश्च' (३६१ १५-१६), इन सूत्रो के अधिकार मे यह कहा गया है कि काल विशेष की वाचक अपनी-अपनी सज्ञानो का प्रयोग किया जाना चाहिए। सम्भवत 'काल' शब्द के 'ल' को अलग करके उसी के आधार पर स्वरो के क्रम से 'ट' और 'इ' की 'इत्' सज्ञा जोड कर पाणिनि ने लट्, लिट्, लुट्, लुट्, लेट, लोट्, लड्, लिड्, लुड् और लुड, इन सज्ञामो की रचना की। आशीर्वादात्मक भाव के लिए कोई विशेष सज्ञा न बनाकर पाणिनि ने केवल 'लिडाशिपि' नियम से ही काम चलाया है। यह भी विदित होगा कि प्रधान लकारो के नामो में 'ट्' अक्षर का प्रयोग किया गया है और गीण प्रत्ययो के लिए 'ड्' का। जहाँ 'ट' की 'इत्' सज्ञा है, उसका तात्पर्य यह है कि आगम उससे पहले रक्सा जायगा। इमी तरह से 'ड्' की 'इत्' सज्ञा यह बताती है कि आदेश अन्तिम अक्षर के स्थान में होता है । इस दृष्टि से यह उपयुक्त ही है कि प्रधान प्रत्ययो के नाम-वाची लकारो के लिए 'ट्' अनुवन्ध का प्रयोग किया गया और 'इ' अनुवन्ध अप्रधान या गीण प्रत्ययो वाले लकारो के लिए प्रयुक्त हुआ। सबसे पहले पाणिनि ने भूत, भविष्यत्, वर्तमान-वाची सज्ञाओ का नामकरण किया और उन्हे लट्, लिट्, लुट् कहा। इन सज्ञामो में अ, इ, उ, इन तीन स्वरो की सहायता ली गई है। उसके बाद लृट् श्राता है, जो कि सामान्य भविष्य काल की सज्ञा है । 'लुट्' सज्ञा 'लुट' के बाद इसलिए रक्खी गई है, क्योकि उसमे 'स्य' इतना अधिक जोडा जाता है। इसके बाद पाणिनि ने ए और ओ, इन दोसन्ध्यक्षरोका प्रयोग करके 'लेट्' और 'लोट्' सज्ञाएँ वनाई, जिनसे क्रियातिपत्ति और आज्ञा इन दो भावो का वोष होता है। क्योकि 'लेट्' लकार मे बहुत करके 'ति', 'तस्' आदि प्रत्यय यथावत् बने रहते है, इसलिए इस लकार को 'लोट्' से पहले रक्खा गया है, जिसमे कि प्रत्ययो में प्राय विकार हो जाता है। ड्कारान्त लकारो में लड़ और लिड् उसी प्रकार एक दूसरे से आगे-पीछे रक्खे गये है, जैसे लुटु और लोट एक दूसरे से । लङ् (अनद्यतन भूत) के वाद आचार्य को लुङ् (सामान्य भूत) कहना चाहिए था, लेकिन पाणिनि ने अब की क्रम बदल कर काल और भाव-वाची सज्ञानो को एक दूसरे के बाद बारी-बारी से रक्खा है। इसी कारण लड् के वाद लिड्, फिर लुङ् और उसके बाद लुङ् रक्खा गया है। चूंकि लुङ् लकार के रूपो में लड् और लुट्, इन दोनो का मेल देखा जाता है, इसलिए सूत्रकार ने लड़ को सबके अन्त मे रक्खा है। पाणिनि का सूत्र है-'वर्तमाने लट्' (३।२।१२३), अर्थात् वर्तमान काल मे लट् लकार का प्रयोग होता है । इसी को अनुकृति करके कातन्त्र व्याकरण ने लट् के लिए 'वर्तमाना' सज्ञा का प्रयोग किया है। कात्यायन के वार्तिक से (३।३।२११) ज्ञात होता है कि वर्तमान काल के लिए पूर्वाचार्यों के अनुसार 'भवन्ती' सज्ञा थी। उससे भी पहले की सज्ञा 'कुर्वत्' या 'कुर्वती' जान पडती है, क्योकि ऐतरेय ब्राह्मण में कुर्वत्, करिष्यत् और कृतम् ये वर्तमान, भविष्य और भूतकाल की सज्ञाएं है। बाद के शाखायन पारन्यक मे 'कृ' के स्थान पर 'भू' धातु को अपनाकर तीन कालो के लिए भवत्, भविष्यत् और भूतम्, ये सज्ञाएँ स्वीकृत हुई । बोपदेव के व्याकरण में 'भवत्', 'भूत' और 'भव्य' सज्ञानी Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ संस्कृत व्याकरण में लकार-वाची संज्ञाएँ ८६ का प्रयोग हुआ है, जो प्राचीन परम्परा के अधिक निकट है। शाकटायन के व्याकरण में 'भवत्' के स्थान पर 'सत्' और 'भविष्यत्' के लिए 'वर्तस्यत्' प्रयुक्त हुए है।। कातन्त्र में 'लिट्' के लिए 'परोक्षा' सज्ञा है, जो पाणिनि के सूत्र 'परोक्ष लिट्' (३।२।११५) से मिलती है । परोक्षा सज्ञा चतुरध्यायिका ग्रन्थ मे, जो अथर्ववेद का, प्रातिशाख्य है और कात्यायन के वार्तिको मे भी मिलती है (भाप्य श२।१८ पर श्लोक वार्तिक)। 'लुटु' (अनद्यतन भविष्य) के लिए कातन्त्र व्याकरण में 'श्वस्तनी' सज्ञा है, जो पाणिनि सूत्र 'अनद्यतने लुट् (३।३।१५) से मिलती है। इसी सूत्र पर कात्यायन के वार्तिक में भी यह सज्ञा पाई है-'परिदेवने श्वस्तनी भविज्यन्त्या अर्थे ।' लुट् (सामान्य भविप्य) के लिए कातन्त्र में भविष्यती सज्ञा का प्रयोग हुआ है। यह सज्ञा कात्यायन के ऊपर लिखे हुए वार्तिक मे आ चुकी है और पाणिनि के भविष्यति गम्यादय' एव 'लुट् शेपे च' सूत्रो से मिलती है।। 'लेट् लकार का केवल वेद में प्रयोग होता है। अतएव पाणिनि के उत्तरकालीन व्याकरणो में इसकी चर्चा नही है, किन्तु अथर्व प्रातिशास्य में इसके लिए 'नेगमी' सज्ञा का प्रयोग हुआ है (२३।२, चतुरध्यायिका)। 'नगमी' मज्ञा 'निगम' (वेद) से बनाई गई है। 'लोट्' (आज्ञा) का प्राचीन नाम कातन्त्र व्याकरण मे नही मिलता। वहां इसे 'पचमी' कहा गया है, क्योकि पाणिनि के लकारो मे इसका पांचवां स्थान है, यदि लेट्' को उस सूची से निकाल दिया जाय । यह भी सम्भव है कि किमी समय प्रथमा, द्वितीया, तृतीया विभक्तियो की तरह लकारो के भी वैसे ही नाम थे। प्रयोगरत्नमाला में (जो कातन्त्र सम्मत है) 'लोट्' नाम का ही ग्रहण किया गया है और कातन्त्र के रचयिता शर्ववर्मन द्वारा प्रयुक्त 'पचमी' इस सज्ञा का वहिष्कार हुआ है । ऊपर लिखे हुए अथर्व प्रातिशाख्य में (२।१।११, २।३।२१) 'लोट्' के लिए 'प्रेषणी' (पाठान्तर 'प्रेषणी') सजा का प्रयोग हुआ है, जो कि पाणिनि सूत्र ३।२।१६३ 'प्रैपाति सर्ग प्राप्त कालेषु कृत्याश्च' से मिलती है। __ लड् (अनद्यतन)-भूत के लिए कातन्त्र में 'ह्यस्तनी' सज्ञा का नाम आया है। यह नाम पाणिनि के 'अनद्यतने लड्' (२।१११) से मिलता है और 'श्वस्तनी' सज्ञा का उल्टा है । क्रिया के सम्बन्ध में 'ह्यस्तन' गव्द का महाभाष्य में प्रयोग हुआ है, [अथ कालविशेषान् अभि समीक्ष्य यश्चाद्यतन पाको यश्च शस्तनो यश्च श्वस्तन (महाभाष्य ३३१ ६७)] किन्तु कालवाची 'ह्यस्तनी' सज्ञा का उल्लेख वार्तिक और भाप्य में नहीं मिलता। 'लिड्' लकार के लिए भी प्राचीन नाम कातन्त्र में नही आता। वहाँ उसे सप्तमी कहा गया है, लेकिन प्रयोगरत्नमाला मे 'लिड्' नाम का ही ग्रहण हुआ है। 'लुड्' के लिए प्राचीन नाम 'अद्यतनी' था, जो कि कात्यायन के वार्तिको में कई वार आया है (२॥४॥३२२, ३२२१०२।६, ६४१११४१३)। 'लुड्' के लिए कातन्त्र व्याकरण में 'क्रियातिपत्ति' सज्ञा का प्रयोग हुआ है , जो कि पाणिनीय सूत्र 'लिड् क्रियातिपत्तो' (३।३।१३६) से लिया गया है। चन्द्रव्याकरण में भी पाणिनि के लकार-नामो का ग्रहण किया गया है। कालान्तर के व्याकरणो पर साम्प्रदायिकता की छाप पडी और सीधी-सादी व्याकरण की सज्ञानी को भी देवताओ के नामो के साथ जोड दिया गया। उदाहरण के लिए हरिनामामृत व्याकरण में दस समानाक्षरी के लिए विष्णु के दस अवतारो के नाम रक्खे गये है और दस लकारो के लिए भी अच्युत, अधोक्षज आदि सज्ञाएँ प्रयुक्त हुई है । शाक्तो के एक व्याकरण में तो दम लकारो के लिए काली, तारा, पोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, वगला, मातगी और कमला, इन दम महाविद्याओ के नाम ले लिये गये है। कलकत्ता ] १२ - Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'गो' शब्द के अर्थो का विकास श्री मङ्गलदेव शास्त्री, एम० ए०, डी० फिल ( श्रॉक्सन) अनेक शब्दो और उनके अर्थो का इतिहास कितना मनोरजक हो सकता है, इसी विषय को हम 'गो' शब्द के उदाहरण द्वारा दिखलाना चाहते है । इस दृष्टि से संस्कृत तथा तद्भव हिन्दी यादि भापात्रां में 'गो' शब्द से अधिक रोचक शब्द कदाचित् ही दूसरा होगा । कोशो के अनुसार 'गो' शब्द के वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में अनेक अर्थ है, यद्यपि उनमें से कई थयों के साहित्यिक उदाहरण कठिनता से मिलेंगे। प्रधानत हम वैदिक संस्कृत के अर्थी को लेकर ही विचार करेगे, क्योंकि उनके उदाहरण स्पष्टत मिल जाते हैं । लौकिक संस्कृत के विशिष्ट श्रर्यो पर सक्षिप्त रीति से ही लेख के अन्त में विचार किया जावेगा । निघण्टु निरुक्त के अनुसार 'गो' शब्द के निम्नलिखित श्रर्थ है (१) गो- पृथिवी । जैसे "श्रभवत् पूर्व्या भूमना गो" (ऋ० स० १० ३१।६) । (२) गो = द्युलोक श्रथवा सूर्य । जैसे “उताद परुपे गवि " (ऋ० स० ६ १५६१३) तथा " गवामसि गोपति' 11 (ऋ० स० ७८६) । (३) गो- रश्मि या किरण । जैसे " यत्र गावो भूरिशृङ्गा प्रयास " (ऋ० स० १११५४ | ६ ) | (४) गो = वाक्, अथवा अन्तरिक्षस्थानीया वाग्देवता, अथवा स्तुतिरूपा वाक् । जैसे "अय स शिङ्ङ्क्ते येन गौरभीवृता ( ऋ० स० १ १६४ (२९) | (५) गो = गो-पशु | इसके उदाहरण को श्रावश्यकता नहीं है । गो-पशुवाची 'गो' शब्द का प्रयोग निरुक्तकार ने गौणरूप से गो-सम्बन्धी या गौ के किसी अवयव से वने हुए पदार्थों के लिए भी वैदिक भाषा मे दिखलाया है । इस कारण 'गो' का अर्थ सगति के अनुसार (क) गो-दुग्ध, (ख) गोचर्म जिस पर बैठकर सोम का रस निकाला जाता था, (ग) गो की चर्बी, (घ) गौ की स्नायु या ताँत, (ङ) धनुष की ज्या या डोरी, चाहे वह गौ या अन्य पशु की ताँत से बनी हो । (६) गो =स्तोता । इस अर्थ का कोई वास्तविक उदाहरण नही दिया गया है । इन विभिन्न श्रर्थी के विषय में मुख्य प्रश्न यह उठता है कि कि क्या ये सब अर्थं स्वतन्त्र और परस्पर असम्बद्ध है, या इनमें से एक को मौलिक अर्थ मानकर अन्य अर्थो का विकास गोणवृत्ति के द्वारा उसी से दिखलाया जा सकता है। • सामान्य रूप से ऐसे श्रनेकार्थक शब्दो के विषय मे यही माना जाता है कि उनके विभिन्न अर्थ स्वतन्त्र तथा परस्पर असम्वद्ध है। पातञ्जल - महाभाष्य (११२२६४ ) में श्रनेकार्थक 'अक्ष', 'पाद', 'माप' शब्दो के उल्लेख के प्रकार से यही ध्वनि निकलती है। प्रसिद्ध वैयाकरण नागेश भट्ट ने भी अपने 'लघु-मजूषा' ग्रन्थ में इसी सिद्धान्त को लेकर विचार किया है, जैसे -- " तादात्म्यमूलकस्य सम्बन्धत्वेऽर्थभेदात्तत्तत्तादात्म्यापन्नशब्देषु भेदौचित्येनार्थभेदाच्छन्दभेद इत्युपपद्यते । समानाकारत्वमात्रेण तु एकोऽय शब्दो नानार्थं इति व्यवहार" ( शक्तिप्रकरण) । टीकाकारो के अनुसार महाभाष्य में दिये गये अनेकार्थक 'क्ष', 'पाद' जैसे शब्दो से ही यहाँ अभिप्राय है । उक्त सिद्धान्त का - सब नाम श्राख्यातज या व्युत्पन्न है या नही - इस विचार से कोई आवश्यक घनिष्ठ सम्वन्ध नहीं हैं। पर जो लोग समस्त नामो को श्राख्यातज मानते है, उनके सामने भी 'गो' जैसे अनेकार्थक शब्दो के विषय में यह सिद्धान्त-भेद हो सकता है कि वे ऐसे शब्द को एक मौलिक अर्थ में श्राख्यातज मानकर भी उसके अन्य Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' 'गों शब्द के अर्थों का विकास अनेक अर्थो को उस मूल अर्थ से ही परम्परया विकसित स्वीकार करें, या उन सव अर्थों को स्वतन्त्र मानकर एक या अनेक मौलिक धात्वर्थों से ही उनका साक्षात् सम्बन्ध माने। । निरुक्त में यास्क प्राचार्य ने अनेकार्थक शब्दो के विपय में उपर्युक्त सिद्धान्तभेद स्पष्टतया कही प्रतिपादित नही किया है । यद्यपि उनका झुकाव अनेक अर्थों को स्वतन्त्र मानने की ओर अधिक दीखता है, तो भी उनके “पाद पद्यते । तनिधानात्पदम् । पशुपादप्रकृति प्रभागपाद । प्रभागपादसामान्यादितराणि पदानि" (नि० २१७) जैसे कथनो से यह स्पष्ट है कि वे विभिन्न अर्थों के एक मौलिक.अर्थ से विकास के सिद्धान्त को भी स्वीकार करते थे। उक्त उद्धरण का अभिप्राय यही है कि गत्यर्थक 'पद' घातु से बने हुए ‘पाद' शब्द के मौलिक अर्थ पर से ही गौणी वृत्ति के द्वारा अन्य अर्थों का विकास हुआ है, जैसे (१) पाद(पर) जहाँ रक्खा जावे उस स्थान पर उसके चिह्न को या सामान्य रूप से स्थान मात्र को 'पद' कहते है, (२) पशु के पैर चार होते है, अत 'पाद' का अर्थ चौथा भाग हो गया, (३) वाक्य के अग या भाग होने से वाक्यगत शब्दो को भी 'पद' कहते है । यास्काचार्य के उक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि उनको अनेकार्थक शब्दो के विषय में उपर्युक्त सिद्धान्त भी स्वीकृत है। ऐसा होने पर भी उन्होने 'गो' शब्द के उपरिनिर्दिष्ट अर्थों को स्वतन्त्र रूप से ही दिखलाया है। पर आधुनिक भापा-विज्ञान में शब्दो की व्युत्पत्ति के विषय में यही सिद्धान्त माना जाता है कि अनेकार्थक व्युत्पन्न शब्दो के विभिन्न अर्थों का विकास किसी एक मौलिक अर्थ से ही मानना चाहिए। इसका अपवाद केवल उन थोडे-से शब्दो में माना जाता है, जिनका विकास विभिन्न स्रोतो से हुआ है और इसी कारण, वर्णानुपूर्वी के सादृश्य के रहने पर भी, वे विभिन्न अर्थों में वस्तुत स्वतन्त्र या निष्पन्न पृथक् शब्द ही माने जाने चाहिएँ।। ___यहाँ हम यही दिखलाना चाहते है कि 'गो' शब्द के अनेक अर्थों का विकास वास्तव में उसके मौलिक अर्थ गो-पशु से ही हुआ है । अनेकार्थक शब्दो का मौलिक अर्थ यथासम्भव ऐन्द्रियक या सन्निकट प्रत्यक्ष जगत् से सम्बन्ध रखने वाला होना चाहिए-इस सिद्धान्त के अनुसार 'गो' शब्द का मौलिक अर्थ गो-पशु ही मानना चाहिए। इस • अर्थ की साहित्यिक तथा व्यावहारिक व्यापकता से भी यही सिद्ध होता है। यही नही, 'गो' शब्द के भारतयूरोपीय भाषाओं में जो रूपान्तर दीख पडते है उनका प्रयोग भी 'गों पशु के ही अर्थ मे होता है, जैसे अग्रेजी में Cow या लैटिन में bos 'गो' शब्द स्पप्टतया गत्यर्थक 'गम' या 'गा' धातु से बना है और इस धात्वर्थ की सगति भी गो-पशु में ठीक वैठ जाती है। गौ=पृथिवी निघण्टु में पृथिवीवाचक २१ शब्दो में 'गो' सवसे प्रथम दिया है। यास्काचार्य इस पर अपनी व्याख्या में कहते है-"गौरिति पृथिव्या नामय यदुर गता भवति यच्चास्या भूतानि गच्छन्ति । गातेवाकारो नामकरण" (२१५) । - अर्थात् पृथिवी को गौ इसलिए कहते है, क्योकि वह वढी दूर तक फैली चली गई है या क्योकि उस पर प्राणी चलते है, अर्थात् उनके मत से पृथिवी अर्थ को रखने वाला 'गो' शब्द 'गम' या 'गा' धातु से स्वतन्त्र रूप से बना है। हमारे मत से पृथिवी के लिए 'गों' शब्द के प्रयोग का मुख्य कारण यही हो सकता है कि गौ के तुल्य पृथिवी से भी मनुष्य अपनी सव अन्नादिरूपी कामनाओ को दुहता है, अर्थात् उनकी प्राप्ति करता है। इस भाव के द्योतक अनेक प्रयोग भी वैदिक तथा लौकिक साहित्य में मिलते है । उदाहरणार्थ "दुदोह गा स यज्ञाय" (रघुवग श२६)= अर्थात्, दिलीप ने यज्ञसम्पादन के निमित्त पृथिवी-रूपी गौ को दुहा। शतपथब्राह्मण (२२२।१२१) में तो स्पष्टतया कहा है “धनुरिव वा इय (=पृथिवी) मनुष्येभ्य सर्वान् कामान् दुहे"। अर्थात्, यह पृथिवी गौ की तरह मनुष्यो की समस्त कामनायो को दुहती है। इसी परम्परागत विचार के कारण पुराणो में पृथिवी को प्राय गोरूपधरा दिखलाया गया है। शत० ब्राह्मण में 'धेनुरिव' (=गौ की तरह) इस कथन से तथा 'दुह' धातु के उक्त स्थलो मे प्रयोग से हमारे मत की प्रामाणिकता स्पष्ट हो जाती है। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन- प्रथ वर्षा द्वारा पृथिवी को गर्भवती करके अन्नादि को उत्पन्न करने वाले द्युलोक मे वृपभ (बैल) की कल्पना के द्वारा भी, जो वैदिक मन्त्रो में प्राय पाई जाती है, पृथिवी में गो की कल्पना को अवश्य ही और भी पुष्टि मिली होगी । गौ= द्युलोक तथा आदित्य 1 निघण्ट के अनुसार 'गो' शव्द द्युलोक तथा श्रादित्य दोनो अर्थो मे भी प्रयुक्त होता है । निरुक्त में 'गो' शब्द की व्याख्या इस प्रसग में इस प्रकार की है - "गौरादित्यो भवति । गमयति रसान्, गच्छत्यन्तरिक्षे । श्रथ द्यौर्यत्पृथिव्या श्रधि दूर गता भवति, यच्चास्या ज्योतीपि गच्छन्ति” (२:१४) । श्रर्थात् पृथिवी से रसो को ले जाने (या खीचने) के कारण अथवा अन्तरिक्ष में चलने के कारण श्रादित्य को गो कहते है और पृथिवी से दूर जाने के कारण या इसलिए कि नक्षत्रादि उसमे चलते हैं, द्युलोक को गो कहते हैं । टीकाकारो द्वारा उक्त दोनो अर्थों में दिये हुए 'गो' शब्द के उदाहरण असन्दिग्घ नही कहे जा सकते । तिस पर भी, यदि निघण्टुकार के प्रर्थों को मान लिया जावे तो उनकी व्याख्या, हमारी दृष्टि से, यही हो सकती है कि द्युलोक और आदित्य को गो कहने का हेतु वृष्टि करने के कारण उनका वृपभ या वृपन् (गो) होना ही है। श्रादित्य और द्युलोक का साहचर्य होने से वृष्टि कर्म का सम्वन्ध दोनो से है । यास्काचार्य ने “ श्रथैतान्यादित्यभवतीनि । श्रमौ लोक वर्षा (७११) इस प्रकार इसी साहचर्य को दिखलाया है। कालिदास के "दुदोह गास यज्ञाय सस्याय मघवा दिवम्” (रघुवग १।२६ ) इस पद्य में तो पृथिवी-स्पी गौ के समान द्यु-रूपी गौ को कल्पना भी स्पष्ट है । "आय गौ पृश्निरक्रमीत्" (ऋ० स० १० १८९१ ) इस मन्त्र में चित्र-विचित्र गो (पृथिवी/ या सूर्य) के लिए 'अक्रमीत्' में पैर उठाकर चलने के अर्थ मे आने वाली क्रम् धातु का प्रयोग भी यही सिद्ध करता है कि मन्त्रद्रष्टा की दृष्टि में सूर्य (या पृथिवी) के लिए 'गो' शब्द के प्रयोग का पारम्परिक श्राधार 'गो' पशु ही पर है । गौ- रश्मि या किरण ६२ 31 • रश्मि या किरण के अर्थं मे भी 'गो' शब्द का प्रयोग निघण्टु-निरुक्त के अनुसार होता है । इस अर्थ में निरुवतकार ने निम्नलिखित उदाहरण दिया है- "ता वां वास्तून्युश्मसि गमध्ये यत्र गावो भूरिशृङ्गा प्रयास । अत्राह तदुरुगायस्य वृष्ण परम पदमवभाति भूरि ||" (ऋ० १११५४६) अर्थात्, हम लोग तुम दोनो (यजमानदम्पती ) के लिए उस स्थान ( = द्युलोक ) की प्राप्ति की कामना करते है जहाँ घूमने-फिरने वाली या गमनशील अनेक सीगो वाली गौयें (= किरणें ) रहती है । और वहाँ महाशक्तिसम्पन्न वृपन् (वर्षा करने वाले विष्णु या सूर्य ) का उत्कृष्ट स्थान अत्यन्त प्रकाशमान है । यहाँ किरणो को गौ कहने के मूल में उनका गो-पशु के साथ कोई-न-कोई साम्य ही कारण है यह 'भूरिशृङ्गा' ( अनेक सींगो वाली) इस विशेषण से ही स्पष्ट है । उक्त साम्य का स्पष्टीकरण मन्त्र से ही हो जाता है । 'प्रयास' ( = गमनशील) इसका यही अभिप्राय है कि जिस प्रकार गौएँ रात्रि में गोष्ठ में अवरुद्ध रहती है और सूर्योदय के समय खोली जाने पर गोचर भूमि मे दौड जाती है, इसी तरह गो-रूपी किरणें रात्रि में सूर्य - मंडल में रहकर सूर्योदय के समय रसाहरणार्थं पृथिवी पर फैल जाती है । यह कल्पना अनेकत्र मन्त्रो में देखी जाती है और यही निस्सन्देह गौत्रो के साथ किरणो के साम्य का मूलकारण है । इसी कल्पना के आधार पर वैष्णवो के 'गोलोक' की कल्पना की गई है । गौ=वाक् निघण्टु में ५७ शब्द वाणी-वाची दिये है । उनमें 'गो' तथा 'घेनु' शब्द भी हैं। इस अर्थ में 'गो' शब्द का प्रयोग प्राय देखा जाता है । विद्युत् की कडक और वादलो की गरज में अपने को प्रकट करने वाली 'माध्यमिका वाक् Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'गो' शब्द के प्रयों का विकास ६३ या 'अन्तरिक्षस्थानीया देवता' के लिए भी 'गो' शब्द का प्रयोग वेद में प्राय देखने में आता है । इस अर्थ में 'गौ' का निर्वचन निघण्टु के टीकाकार देवराज यज्वन् ने "गच्छति यज्ञेष्वाहूता, गीयते 'स्तूयते वा" (जो यज्ञो में आहूत होकर जाती है या जो गाई जाती है या जिसकी स्तुति की जाती है) इस प्रकार दिया है । पर हमारी सम्मति मे तो वाणी (या माध्यमिका वाक् ) के लिए भी 'गो' शब्द के प्रयोग के मूल में वही गोपशु की कल्पना है । इस बात की पुष्टि अनेकानेक उदाहरणो से की जा सकती है, जैसे- “ गौरमीमेदनु वत्सम् हिडुकृणोत्. सृक्वाणम् अभिवावशाना मिमाति मायुम्" ( ऋ० १११६४/२८ ) । अर्थात् रसो को रश्मियो के द्वारा हरण करने वाले वत्सरूपी सूर्य के प्रति गौ (माध्यमिका वाक् ) हुकार करती है और (गौ की तरह) शब्द करती है | "उपह्वये सुदुर्धा धेनुम्" (ऋ० १|१६४।२६) । अर्थात्, मैं अच्छा दूध देने वाली माध्यमिका वाक् (रूपी गौ) को बुलाता हूँ । "दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु" (ऋ० ८।१००।११) । अर्थात्, दूध देने वाली सुस्तुता वाक् रूपी धेनु हमारे पास श्रावे । इस प्रसग में यास्काचार्य का कहना है कि " वागर्थेषु विधीयते" (११।२७), अर्थात् नाना प्रकार के श्रर्थों को वाणी द्वारा ही प्रकट किया जाता है । "अवेन्वा चरति माययैष वाच शुश्रुव अफलामपुष्पाम्" (ऋ० १०/७११५ ) इसकी व्याख्या में यास्काचार्य कहते है - 'नास्मै कामान् दुग्धे वाग्दोह्यान् देवमनुप्यस्थानेषु यो वाच श्रुतवान् भवत्यफलामपुष्पाम्” (१।२०), अर्थात् जो विना समझे वाणी को सुनता है उसके लिए वाणी रूपी गो लौकिक या पारलौकिक कामना को नही दुहती । गतपथब्राह्मण ( १४ | ८ | ६ | १ ) में स्पष्टतया वागुरुपी गौ के चार स्तनो का वर्णन किया है - "वाच घेनुमुपासीत तस्माश्चत्वार स्तना" इत्यादि । ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है कि अर्थरूपी दुग्ध के द्वारा नाना मनोरथो की पूर्ति करने के कारण ही वाणी मे गो-पशु की कल्पना मन्त्र- द्रष्टा ऋषियो ने की थी । यही वात महाकवि भवभूति ने "कामान् दुग्धे विप्रकर्षत्यलक्ष्मी धेनु घीरा सूनृता वाचमाहु" (उत्तररामचरित) इन शब्दो में प्रकट की है । माध्यमिका वाक् में गौ के साम्य को कल्पना का श्राधार एक और भी हो सकता है । प्राचीन वैदिक काल मे आदान-प्रदान का मुख्य सावन होने से गौ ही मुख्य घन समझा जाता था । इसलिए गौओ के लिए युद्धो का वर्णन और शत्रुओ द्वारा उनके अपहरण की कथाएँ वैदिक साहित्य तथा महाभारत में भी पाई जाती है । ऐसा प्रतीत होता है कि मेघरूपी वृत्र के द्वारा अवरुद्ध की हुई जलरूपी गोश्रो की परिचायक होने से कदाचित् माध्यमिका वाक् का वर्णन भी गौ के रूप में वेद में किया गया है। जो कुछ हो, ऊपर दिये हुए उदाहरणो से, जिनमें वत्स (गौ का बछडा ), मायु (= गौ का विशेप शब्द), वावशाना ( = गौ का शब्द ) जैसे शब्दो के साथ माध्यमिका वाक् का 'गो' शब्द से वर्णन किया गया है, यह निसन्देह सिद्ध हो जाता है कि माध्यमिका वाक् में गोत्व का व्यवहार गो-पशु-मूलक ही है । ऊपर हमने कहा है कि स्तुति के लिए भी 'गो' शब्द का प्रयोग होता है । इसका कारण स्पष्ट है । वैदिक मन्त्रो में जिस वाक् का वर्णन है वह प्राय स्तुतिरूप ही है । अत 'गौ' का अर्थ वाक् के साथ-साथ स्तुति भी देखा जाता है । गौ- स्तोता 1 निघण्टु में स्तोतावाची १३ शब्दो में 'गो' भी दिया है । इस अर्थ में इसकी व्युत्पत्ति निघण्टु के टीकाकार ने " गीयन्ते स्तूयन्तेऽनेन देवता " ( = जिसके द्वारा देवताओ की स्तुति की जाती है) इस प्रकार दी है । पर इस अर्थ के जो उदाहरण टीकाकार ने दिये है वहाँ स्तोता का अर्थ श्रावश्यक नहीं दीखता । इसलिए इस अर्थ को उदाहरणो द्वारा सिद्ध करना कठिन है । तिस पर भी, यदि इस श्रर्थ को मान ही लिया जावे तो भी उसका कारण वही है जो गौ के स्तुति अर्थ का ऊपर हमने दिखलाया है । P Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय लौकिक सस्कृत मे 'गो' शब्द • ऊपर हमने दिखलाया है कि वैदिक साहित्य मे 'गो' शब्द के जो विभिन्न अर्थ लिये जाते है उनका मौलिक आधार गो-पशु ही है । लौकिक सस्कृत के कोशो में उपर्युक्त अर्थों के अतिरिक्त 'गो' शब्द के और भी अनेक अर्थ दिये गये है । यहाँ हम केवल अमरकोश को ही लेते है। उसके अनुसार गो के अर्थ निम्नलिखित है स्वर्गेपुपशुवाग्वजदिड्नेत्रघृणिभूजले । .. लक्ष्यदृष्ट्या स्त्रिया पुसि गो (३।३।२५) अर्थात् 'गो' शब्द के अर्थ है--(१) स्वर्ग, (२) वाण, (३) पशु, (४) वाक्, (५) वज़, (६) दिशा, (७) नेन, (८) किरण, (९) पृथ्वी, और (१०) जल। इनमें से स्वर्ग (=वैदिक द्युलोक), वाल, किरण और पृथ्वी अर्थ तो उपर आ ही चुके है । पशु से अभिप्राय प्राय गो मे ही लिया जाता है। यदि इसका अभिप्राय पशुमात्र से है तव भी इसका आधार गो-भूयस्त्व पर ही होगा। वाण अर्थ का विकास उसी तरह गीणवृत्ति से हुआ होगा जिस तरह वाण की ज्या के लिए 'गो' शब्द का प्रयोग, यास्काचार्य के अनुसार, हम ऊपर दिखला चुके है । अनिरूप इन्द्र का 'वज' मायु (-गो का शब्द) करने वाली माध्यमिका वाक् का ही एक रूप है। दिशा के अर्थ का गौ के साथ साक्षात् या असाक्षात् सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है। हो सकता है कि इसका विकास किरण या धु या आदित्य इन अर्थों के द्वारा परम्परया हुआ हो। नेत्र अर्थ का प्राधार स्पष्टतया गौ जैसे गोचरभूमि मे जाती है उसी तरह नेन्द्रिय के स्वविपय की ओर जाने पर है। इन्द्रियो के विपयो को 'गोचर' कहने का मूल-कारण भी यही है। इसी आधार पर पिछले सस्कृत साहित्य में इन्द्रिय-मात्र के लिए 'गो' शब्द का व्यवहार हुआ है। उसी अर्थ को लेकर 'गोस्वामी' शब्द प्रचलित हुआ है। जल के अर्थ का मूल वादलरूपी वृत्र के द्वारा जल-रूपी गोप्रो के अवरोध की उपर्युक्त कल्पना ही प्रतीत होती है। ' इसी प्रकार के कुछ और अर्थ भी 'गो' शब्द के पिछले काल के सस्कृत के कोशो में मिलते है। उनका विकास. भी प्राय उपरि-निर्दिष्ट पद्धति से सहज ही दिखलाया जा सकता है। पर लौकिक सस्कृत के कोशो में दिये हुए अर्थों के विषय में सबसे मुख्य आपत्ति यह है कि उनका साहित्यिक प्रयोग दिखाना कठिन है। इसीलिए उन अर्थों का हमारी दृष्टि में महत्त्व, कम है। 'गो' शब्द के ऐतिहासिक महत्त्व को ठीक समझने के लिए उससे बने हुए अनेक शब्दो पर विचार करना भी आवश्यक है, पर विस्तार-भय से उसका इस लेख में समावेश करना सम्भव नहीं है। फाशी] - - - - - Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरण से श्री मैथिलीशरण गुप्त भुका सकेगा मुझे कभी तू ? कर्ता का केतन हूँ मैं, मरण, नित्य नव जीवन हूँ मै, तू जड़ है, चेतन हूँ मैं। __ मेरे पीछे लाख पड़ा रह, आगे पा न सकेगा तू , रोया कर जी चाहे जितना, मुझ-सा गा न सकेगा तू। छद्म रूप रखकर जा तो भी भव को भा न सकेगा तू , सड़ा-गला भी कभी पेट भर पामर, पा न सकेगा तू । रह रूखा-सूखा उजाड़ तू, हरा-भरा उपवन हूँ मैं; मरण, नित्य नव जीवन हूँ मैं, तू जड़ है, चेतन हूँ मै । नये नये पट-परिवर्तन कर प्रकट नाट्यशाला मेरी, वचित ही इस स्वर-लहरी के रस से रसनाएँ तेरी। फणि, कोई मणि है तो वह तो चोरी की ही हथफेरी, सरक वहीं तू जहाँ नरक से कूडे-घूडे की ढेरी। देख दूर से क्रूर रोग तू योग-सिद्ध जन-धन हूँ मैं, मरण, नित्य नव जीवन हूँ मै, तू जड़ है, चेतन हूँ मैं ! चिरगांव ] Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे पुराने साहित्य के इतिहास की सामग्री श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी हिन्दी-साहित्य का इतिहास केवल सयोग और सौभाग्यवश प्राप्त हुई पुस्तको के आधार पर नही लिखा जा सकता। हिन्दी का साहित्य सम्पूर्णत लोक-भाषा का साहित्य है। उसके लिए सयोग से मिली पुस्तके ही पर्याप्त नही है। पुस्तको मे लिखी बातो से हम समाज की किसी विशेष चिन्ताधारा का परिचय पा सकते है, पर उस विशेप चिन्ताधारा के विकास में जिन पार्श्ववर्ती विचारो और प्राचारो ने प्रभाव डाला था, वे, बहुत सम्भव है, पुस्तक रुप में कभी लिपिबद्ध हुए ही न हो और यदि लिपिवद्ध हुए भी हो तो सम्भवत प्राप्त न हो सके हो। कबीरदास का बीजक दीर्घकाल तक वुन्देलखड से झारखड और वहां से विहार होते हुए धनौती के मठ मे पडा रहा और बहुत बाद में प्रकाशित किया गया। उसकी रमैनियों से एक ऐसी धर्म-साधना का अनुमान होता है, जिसके प्रधान उपास्य निरजन या धर्मराज थे। उत्तरी उडीसा और झारखड में प्राप्त पुस्तको तथा स्थानीय जातियो की आधार-परम्परा के अध्ययन से यह अनुमान पुष्ट होता है। पश्चिमी वगाल और पूर्वी विहार में धर्म ठाकुर की परपरा अब भी जारी है। इस जीवित सम्प्रदाय तथा उडीसा के अर्द्धविस्मृत सम्प्रदायो के अध्ययन से वीजक के द्वारा अनुमित धर्मसाधना का समर्थन होता है। इस प्रकार कवीरदास का वीजक इस समय यद्यपि अपने पुराने विशुद्ध रूप मे प्राप्त नही है-उसमे वाद के अनेक पद प्रक्षिप्त हुए है-तथापि वह एक जनसमुदाय की विचार-परम्परा के अध्ययन में सहायक है। कवीर का वीजक केवल अपना ही परिचय देकर समाप्त नही होता। वह उस से अधिक है। वह अपने इर्दगिर्द के मनुष्यो का इतिहास बताता है। मैंने अपनी 'कवीरपथी साहित्य' नामक शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली पुस्तक में इसकी विस्तारपूर्वक चर्चा की है। भारतीय समाज ठीक वैसा ही हमेशा नहीं रहा है, जैसा आज है। नये-नये जनसमूह इस विशाल देश में वरावर आते रहे हैं और अपने-अपने विचारोऔर प्राचारो का प्रभाव छोडते रहे है। आज की समाज-व्यवस्था कोई सनातन व्यवस्था नहीं है। आज जो जातियाँ समाज के निचले स्तर में पड़ी हुई है । वे सदा वही रही है, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है। इसी प्रकार समाज के ऊपरी स्तर में रहने वाली जातियां भी नाना परिस्थितियो को पार करती हुई वहाँ पहुँची है । इस विराट जनसमुद्र का सामाजिक जीवन काफी स्थितिशील रहा है। फिर भी ऐसी धारापो का नितान्त प्रभाव भी नहीं रहा है , जिन्होने समाज को ऊपर से नीचे तक आलोडित कर दिया है। ऐसा भी एक जमाना था, जब इस देश का एक बहुत बडा जनसमाज ब्राह्मणधर्म को नहीं मानता था। उसकी अपनी अलग पौराणिक परम्परा थी, अपनी समाजव्यवस्था थी, अपनी लोक-परलोक-भावना थी। मुसलमानो के आने के पहले ये जातियां हिन्दू नहीं कही जाती थी। किसी विराट सामाजिक दवाव के फलस्वरुप एक वार समूचे जनसमाज को दो वडे-बडे कैम्पो मे विभक्त हो जाना पडा--हिन्दू और मुसलमान । गोरखनाथ के बारह सम्प्रदायो मे उनसे पूर्व काल के अनेक बौद्ध, जैन, शैव और शाक्त सम्प्रदाय सगठित हुए थे। उनमे कुछ ऐसे सम्प्रदाय, जो केन्द्र से अत्यन्त दूर पड गये थे, मुसलमान हो गये, कुछ हिन्दू । हिन्दी-साहित्य की पुस्तको से ही उस परम शक्तिशाली सामाजिक दवाव का अनुमान होता है। इतिहास में इसका कोई और प्रमाण नही है, परन्तु परिणाम देखकर निस्सन्देह इस नतीजे पर पहुंचना पडता है कि मुसलमानो के आगमन के समय इस देश में प्रत्येक जनसमूह को किसी-न-किसी वडे कैम्प मे शरण लेनी पड़ी थी। उत्तरी पजाब से लेकर वगाल की ढाका कमिश्नरी तक के अर्द्धचन्द्राकृति भूभाग में बसी हुई जुलाहा जाति को देख कर रिजलीने (पीपुल्स प्रॉव इन्डिया, पृ० १२६)अनुमान किया था कि इन्होने कभी सामूहिक रूप में मुसलमानी धर्म स्वीकार किया था। हाल की खोजोसे इस मत की पुष्टि हुई है। ये लोग ना-हिन्दू-ना-मुसलमान योगी सम्प्रदाय के शिष्य थे। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे पुराने साहित्य के इतिहास की सामग्री ६७ साहित्य का इतिहास पुस्तको, उनके लेजको और कवियो के उद्भव और विकास की कहानी नहीं है। वह वस्तुत अनादि काल-प्रवाह में निरन्तर प्रवहमान जीवित मानव-समाज की ही विकास-कथा है। अन्य और ग्रन्थकार, कवि और काव्य, सम्प्रदाय और उनके आचार्य उस परम शक्तिशाली प्राणवारा की और सिर्फ इशारा भर करते हैं। वेही मुख्य नहीं है। मुख्य है मनुष्य । जो प्राणवारा नाना अनुकूल-प्रतिकूल अवस्थानों से बहती हुई हमारे भीतर प्रवाहित हो रही है उसको समझने के लिए ही हम साहित्य का इतिहास पढते हैं। सातवीं-आठवीं शताब्दी के वाद से लेकर तेरहवी-चौदहवी शताब्दी का लोकभाषा का जो साहित्य वनता रहा, वह अविकाश उपेक्षित है । वहुत काल तक लोगो का व्यान इधर गया ही नहीं था। केवल लोकसाहित्य ही क्यो, वह विशाल शास्त्रीय साहित्य भी उपेक्षित ही रहा है, जो उस युग की समस्त साहित्यिक और मास्कृतिक चेतना का उत्स था। काश्मीर के शैव साहित्य, वैष्णव सहिताओ का विपुल साहित्य, पाशुपत शैवो का इतस्ततो विक्षिप्त साहित्य, तन्वतन्य, जैन और वौद्ध अपभ्रम ग्रन्य अभी केवल शुरू किये गये है। श्रेडर ने जमकर परिश्रम न किया होता तो सहितायो का वह विपुल साहित्य विद्वन्मडली के सामने उपस्थित ही नहीं होता, जिसने वाद में सारे भारतवर्ष के साहित्य को प्रभावित किया है। मेरा अनुमान है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने के पहले निम्नलिखित साहित्यो की जाँच कर लेना वडा उपयोगी होगा। इनकी अच्छी जानकारी के विना हम न तो भक्ति-काल के साहित्य को समझ __ सकेंगे और न वीरगाथा या रीतिकाल को। १ जैन और वौद्ध अपभ्रश का साहित्य । २ काश्मीर के शवो और दक्षिण तथा पूर्व के तान्त्रिको का साहित्य । ३ उत्तर और उत्तर-पश्चिम के नाथो का साहित्य । ४ वैष्णव आगम। ५ पुराण । ६ निवन्वग्रन्थ । . ७ पूर्व के प्रच्छन्न वौद्ध-वैष्णवो का साहित्य । ८ विविध लौकिक कथानी का साहित्य । जैन अपभ्रश का विपुल साहित्य अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है । जितना भी यह साहित्य प्रकाशित हुआ है, उतना हिन्दी के इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जोइन्दु (योगीन्द्र) और रामसिंह के दोहो के पाठक स्वीकार करेंगे कि क्या वौद्ध, क्या जैन और क्या गैव (नाथ) सभी सम्प्रदायो में एक रूढिविरोधी और अन्तर्मुखी साधना का दाना दसवीं शताब्दी के बहुत पहले बंध चुका था। वौद्ध अपभ्रंश के ग्रन्थ भी इसी बात को सिद्ध करते हैं। योग-प्रवणता, अन्तर्मुखी साधना और परम प्राप्तव्य का शरीर के भीतर ही पाया जा सकना इत्यादि वाते उस देशव्यापी मावना का केन्द्र थी। यही वातें आगे चलकर विविध निर्गुण सम्प्रदायो में अन्य भाव से स्थान पा गई । निर्गुण साहित्य तक ही यह साहित्य हमारी सहायता नहीं करेगा। काव्य के रूपो के विकास और तत्कालीन लोकचिन्ता का भी उससे परिचय मिलेगा। राहुल जी जैसे विद्वान तो स्वयम्भू की रामायण को हिन्दी का सबसे श्रेष्ठ काव्य मानते हैं। यद्यपि वह अपभ्रश का ही काव्य है, परन्तु महापुराण आदि ग्रन्यो को जिसने नही पढा, वह सचमुच ही एक महान् रसस्रोत से वचित रह गया। रीतिकाल के अध्ययन में भी यह साहित्य सहायक सिद्ध होगा। काश्मीर का शैव नाहित्य अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दी-साहित्य को प्रभावित करता है । यद्यपि श्री जगदीश वनर्जी और मुकुन्दराम गास्त्री आदि विद्वानो के प्रयत्न से वह प्रकाश में आया है, फिर भी उसकी ओर विद्वानी का जितना ध्यान जाना चाहिए उतना नहीं गया है। हिन्दी में पं० वलदेव उपाध्याय ने इसके और तन्त्रो के तत्त्ववाद का मक्षिप्त रूप में परिचय कराया है, पर इस विषय पर और भी पुस्तकें प्रकाशित होनी चाहिए। यह आश्चर्य की बात है कि Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ ६८ उत्तर का अद्वैत मत दक्षिण के परशुरामकल्पसूत्र के सिद्धान्तो से अत्यधिक मिलता है। साधना की अन्त प्रवाहित भावधारा ने देश और काल के व्यवधान को नहीं माना। हिन्दी में गोरखपन्थी साहित्य बहुत थोडा मिलता है। मध्ययुग में मत्स्येन्द्रनाथ एक ऐसे युगसन्धिकाल के आचार्य है कि अनेक सम्प्रदाय उन्हें अपना सिद्ध प्राचार्य मानते है । हिन्दी की पुस्तको मे इनका नाम 'मछन्दर' आता है। परवर्ती सस्कृत ग्रन्थो मे इसका शुद्धीकृत' सस्कृत रूप ही मिलता है । वह रूप है 'मत्स्येन्द्र', परन्तु साधारण योग मत्स्येन्द्र की अपेक्षा 'मच्छन्दर' नाम ही ज्यादा पसन्द करते है । श्री चन्द्रनाथ योगी जैसे गिक्षित और सुधारक योगियो को इन 'अशिक्षितो' की यह प्रवृत्ति अच्छी नहीं लगी है (योगिसम्प्रदायाविष्कृति, पृ० ४४८-९)। परन्तु हाल की शोधो से ऐसा लगता है कि मच्छन्दर' नाम काफी पुराना है और शायद यही सही नाम है । मत्स्येन्द्रनाथ (मच्छन्द) की लिखी हुई कई पुस्तकें नेपाल दरवार लाइब्रेरी मे सुरक्षित है । उनमे से एक का नाम है कौलज्ञान निर्णय। इसकी लिपि को देखकर स्वर्गीय महामहोपाध्याय प० हरप्रसाद शास्त्री ने अनुमान किया था कि यह पुस्तक सन् ईमवी की नवी शताब्दी की लिखी हुई है (नेपाल सूचीपत्र द्वितीय भाग, पृ० १९)। हाल ही में डा० प्रबोधचन्द्र वागची महोदय ने उस पुस्तक को मत्स्येन्द्रनाथ की अन्य पुस्तकों (अकुलवीरतन्त्र, कुलानन्द और ज्ञानकारिका) के साथ सम्पादित करके प्रकाशित किया है। इस पुस्तक की पुष्पिका में मच्छघ्र, मच्छन्द आदि नाम भी आते है। परन्तु लक्ष्य करने की वात यह है कि शव दार्शनिको मे श्रेष्ठ प्राचार्य अभिनवगुप्त पाद ने भी मच्छन्द नाम का ही प्रयोग किया है और रूपकात्मक अर्थ समझाकर उसकी व्याख्या भी की है। उनके मत से आतानवितान वृत्यात्मक जाल को बताने के कारण मच्छन्द कहलाए (तन्त्रलोक, पृ० २५) और यन्त्रालोक के टीकाकार जयद्रथ ने भी इसी से मिलता-जुलता एक श्लोक उद्धृत किया है, जिसके अनुसार मच्छ चपल चित्तवृत्तियो को कहते है। उन चपल वृत्तियो का छेदन किया था। इसीलिए वे मच्छन्द कहलाए। कबीरदास के सम्प्रदाय में आज भी मत्स्य, मच्छ आदि का साकेतिक अर्थ मन समझा जाता है (देखिए कवीर वीजक पर विचारदास की टीका, पृ० ४०)। यह परम्परा अभिनव गुप्त तक जाती है। उसके पहले भी नही रही होगी, ऐसा कहने का कोई कारण नही है। अधिकतर प्राचीन वौद्ध-सिद्धो के पदो से इस प्रकार के प्रमाण सग्रह किये जा सके है कि प्रज्ञा ही मत्स्य है (जर्नल ऑव रायल एशियाटिक सोसाइटी ऑव वगाल, जिल्द २६, १६३० ई०,न०१टुची का प्रबन्ध)। इस प्रकार यह आसानी से अनुमान किया जा सकता है कि मत्स्येन्द्रनाथ की जीवितावस्था में रूपक के अर्थ में उन्हें मच्छन्द कहा जाना नितान्त असगत नही है। इन छोटी-छोटी बातो से पता चलता है कि उन दिनो की ये धार्मिक साधनाएँ कितनी अन्त सम्बद्ध है। यह अत्यन्त खेद का विषय है कि भक्ति-साहित्य का अध्ययन अव भी बहुत उथला ही हुआ है । सगुण और निर्गुणधारा के अध्ययन से ही मध्ययुग के मनुष्य को अच्छी तरह समझा जा सकता है। भगवत्-प्रेम मध्ययुग की सवसे जीवन्त प्रेरणा रही है। यह भगवत्प्रेम इन्द्रियग्राह्य विषय नही है और मन और बुद्धि के भी अतीत समझा गया है। इसका प्रास्वादन केवल आचरण द्वारा ही हो सकता है । तर्क वहां तक नही पहुंच सकता, परन्तु फिर भी इस तत्त्व को अनुमान के द्वारा समझने-समझाने का प्रयल किया गया है और उन पाचरणो की तो विस्तृत सूची बनाई गई है, जिनके व्यवहार से इस अपूर्व भागवतरस का पास्वादन हो सकता है। प्रागमो मे से बहुत कम प्रकाशित हुए है। भागवत के व्याख्यापरक सग्रह-ग्रन्थ भी कम ही छपे है। तुलसीदास के 'रामचरितमानस' को प्राश्रय करके भक्ति-शास्त्र का जो विपुल साहित्य बना है, उसकी वहुत कम चर्चा हुई है। इन सब की चर्चा हुए विना और इनको जाने विना मध्ययुग के मनुष्य को ठीक-ठीक नही समझा जा सकता। तान्त्रिक प्राचारो के बारे में हिन्दी-साहित्य के इतिहास की पुस्तकें एकदम मौन है, परन्तु नाथमार्ग का विद्यार्थी मासानी से उस विषय के साहित्य और प्राचारो की बहुलता लक्ष्य कर सकता है। बहुत कम लोग जानते है कि कवीर द्वारा प्रभावित अनेक निर्गुण सम्प्रदायो में अब भी वे साधनाएं जी रही है जो पुराने तान्त्रिको के पचामृत, पचपवित्र और चतुश्चन्द्र की साधनायो के अवशेप है। यहां प्रसग नहीं है। इसलिए इस बात को विस्तार से नहीं लिखा गया, Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे पुराने साहित्य के इतिहास की सामग्री परन्तु इतना तो स्पष्ट है कि हमारे इस साहित्य के माध्यम से मनुष्य को पढने के अनेक मार्गों पर अभी चलना बाकी है। ay कबीरदास के बीजक में एक स्थान पर लिखा है कि "ब्राह्मन वैस्नव एकहि जाना" ( १२वी ध्वनि) । इससे ध्वनि निकलती है कि ब्राह्मण और वैष्णव परस्पर विरोधी मत है । मुझे पहले-पहल यह कुछ अजीब बात मालूम हुई । ज्यो-ज्यो मैं बीजक का अध्ययन करता गया, मेरा विश्वास दृढ होता गया कि बीजक के कुछ श्रश पूर्वी और दक्षिणी विहार के धर्ममत से प्रभावित है । मेरा अनुमान था कि कोई ऐसा प्रच्छन्न बौद्ध वैष्णव सम्प्रदाय उन दिनो उस प्रदेश में अवश्य रहा होगा, जिसे ब्राह्मण लोग सम्मान की दृष्टि से नही देखते होगे । श्री नगेन्द्रनाथ वसु ने उडीसा के पाँच वैष्णव कवियो की रचनाओ के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला है कि ये वैष्णव कवि वस्तुत' माध्यमिक मत के बौद्ध थे और केवल ब्राह्मण प्रधान राज्य के भय से अपने को वौद्ध कहते रहे । मैने अपनी नई पुस्तक 'कवीरपंथी साहित्य' में विस्तार पूर्वक इस बात की जाँच की है । यहाँ प्रसग केवल यह है कि हिन्दी - साहित्य के ग्रन्थो का अध्ययन अनेक लुप्त और सुप्त मानव-चिन्ता-प्रवाह का परिचय दे सकता है । केवल पुस्तको की तिथि-तारीख तक ही साहित्य का इतिहास सीमावद्ध नही किया जा सकता । मनुष्य-समाज वडी जटिल वस्तु है । साहित्य का अध्ययन उसकी अनेक गुत्थियो को सुलझा सकता है । परन्तु इन सवसे अधिक आवश्यक है विभिन्न जातियो, सम्प्रदायो और साधारण जनता मे प्रचलित दन्तकथाएँ । इनसे हम इतिहास के अनेक भूले हुए घटना-प्रसगो का ही परिचय नही पायेंगे, मध्ययुग के साहित्य को समझने का साघन भी पा सकेंगें । झारखड श्रौर उडीसा तथा पूर्वी मध्यप्रान्त की अनेक लोक प्रचलित दन्तकथाएँ उन अनेक गुत्थियो को सुलझा सकती है, जो कवीरपन्थ की बहुत गूढ और दुरूह वातें समझी जाती है । इस ओर वहुत अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है । विभिन्न आँकडो और नृतत्त्वशास्त्रीय पुस्तको में इतस्तस्तोविक्षिप्त बातो का संग्रह भी बहुत अच्छा नही हुआ है । ये सभी वातें हमारे साहित्य को समझने में सहायक है । इनके विना हमारा साहित्यिक इतिहास अधूरा ही रहेग शातिनिकेतन ] Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रजभाषा का गद्य - साहित्य [ प्रारंभिक काल से सन् १८०० तक ] श्री प्रेमनारायण टण्डन एम्० ए० वीरगाथाकाल में काव्यभाषा का ढाँचा प्राय शौरसेनी से विकसित पुरानी व्रजभाषा का ही था । काव्यभाषा के रूप में इसका प्रचार बहुत समय पूर्व से था और चौदहवी शताब्दी के प्रारम्भ तक तो इतना बढ गया था कि जिन पश्चिमी प्रदेशो की बोलचाल की भाषा खडीवोली थी वहाँ भी कविता के लिए व्रजभाषा का ही प्रयोग किया जाता था। फारसी के प्रसिद्ध लेखक अमीर खुसरो (मृत्यु सन् १३२५) के, जिनका रचनाकाल सन् १२८३ के ग्रासपास से प्रारम्भ होता है, गीत और दोहे इसी व्रजभाषा में हैं । 'वासो', 'भयो', 'वाको', 'मोहि अचम्भो प्रावत', 'वसत है', 'देखत मे', 'मेरो', 'सोवै', 'भयो है', 'डरावन लागे', 'डस- इस जाय', जैसे व्रजभाषा-रूप उनकी कविता में बराबर मिलते हैं । वीरगाथाकाल के प्राप्य ग्रन्थो मे कुछ गोरखपन्थी ग्रन्थो का सम्वन्ध, जिनके विषय प्राय हठयोग, ब्रह्मज्ञान आदि है, व्रजभाषा गद्य से है। इनमें एक के रचयिता का नाम कुमुटिपाव है और शेप गोरखनाथ श्रीर उनके शिष्यो के रचे श्रथवा सकलित है । वावा गोरखनाथ संस्कृत और हिन्दी के पडित और शैवमत के प्रवर्तक थे । कर्मकाड, उपासना और योग तीनो की कुछ बातें इनके पन्थ में प्रचलित है । तन्त्रवाद से भी इन्हें रुचि थी और उसी के सहारे अद्भुत चमत्कारों द्वारा ये जनता को प्रभावित करते थे । गोरखपुर इनका मुख्य स्थान है । उसके ग्रास-पास इनके अनुयायी पर्याप्त संख्या में वसे है। महाराष्ट्र में भी इनके मानने वाले पाये जाते है । बाबा गोरखनाथ प्रसिद्ध सिद्ध थे । इनका जन्म नैपाल अथवा उसकी तराई में हुआ था । श्रवतक इनका समय सन् १३५० माना जाता था । इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में इनका समय ईसवी सन् की वारहवी शताब्दी माना गया है । परन्तु इधर की खोज के आधार पर डाक्टर पीताम्वरदत्त जी वडथ्वाल' तथा श्रीयुत राहुल सांकृत्यायन' जी ने इनका समय सन् ६५० के लगभग सिद्ध किया है। कारण यह है कि इनके गुरु मछन्दरनाथ (मत्स्येन्द्रनाथ) के पिता मीनपा' का समय सन् ८७० के आस-पास माना गया है। श्री राहुल सांकृत्यायन जी के अनुसार भी इनके दादा गुरु जालन्धरपाद श्रथवा आदिनाथ का समय सन् ८६७ के पास ही श्राता है। इस हिसाब से मछन्दरनाथ का समय सन् १५० और गोरखनाथ का सन् १०५० के आस-पास समझना चाहिए। इस अनुमान की पुष्टि एक और प्रमाण से होती है । नाथपन्थी महात्मा ज्ञानदेव (ज्ञानेश्वर) का काल सन् १२३० के श्रासपास माना जाता अपने वडे भाई निवृत्तिनाथ से उपदेश ग्रहण किया था । इतिहासकारो ने इनका समय सन् १९७० के लगभग अनुमाना इन्होने है ।" निवृत्तिनाथ के गुरु ग्रैनीनाथ थे जो बाबा गोरखनाथ के शिष्य थे । इस तरह गैनीनाथ का समय १११० ओर वावाजी का १०५० के आसपास मान सकते है | 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका, नवीन सस्करण भाग ११ में डाक्टर साहब का "हिन्दी कविता में योग प्रवाह" शीर्षक लेख । 'गंगा' (पुरातवाक) भाग ३ अक १, श्री राहुल सांकृत्यायन जी का "मन्त्रयान, वज्रयान और चौरासी सिद्ध" शीर्षक लेख | 'मिश्रवन्धुविनोद - प्रथम भाग, पृ० १४० । * 'मिश्रवन्धुविनोद'१- प्रथम भाग, पृ० १४० 1 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का गद्य-साहित्य गोरखनाथ जी का समय जानने में जलन्धरनाथ, चौरंगीनाथ, कणेरीपाव, चरपटनाथ, चुणकरनाथ आदि के जीवनकाल की तिथियो से सहायता मिल सकती है। प्रथम महाशय उनके गुरु मछन्दरनाथ के गुरुभाई थे, द्वितीय और चतुर्थ उन्ही के गुरुभाई थे, तृतीय सज्जन प्रथम अर्थात् जलन्वरनाथ के शिष्य थे और प्रथम चुणकरनाथ के समकालीन थे। इन पांचो के समयो में लगभग ७५ वर्षों का अन्तर होना आवश्यक जान पडता है, परन्तु मिश्रवन्धुप्रो ने इन पाँचो का समय वावा गोरखनाथ का पूर्व-प्रचलित और मान्यकाल सवत् १३५० (सन् १४०७) मान लिया है।' वस्तुत ऐसा करना भ्रमोत्पादक है। प्रसिद्ध है कि इनके गुरु मछन्दरनाथ (मत्स्येन्द्रनाथ) अपने शिप्य को उपदेश देने के पश्चात् फिर सासारिक व्यवहार में लिप्त हो गये। उस समय गोरखनाथ ने उन्हें इस मायाजाल से छुडाया । इस किंवदन्ती से यह आशय निकाला जा सकता है कि गुरु से दीक्षा लेने के पश्चात् गोरखनाथ के ज्ञानोपदेश अपने गुरु मछन्दरनाथ से भी महत्त्व के होते थे, उनका जनता में पर्याप्त सम्मान था और शिप्य की गुरु से अधिक प्रसिद्धि उन्ही के जीवनकाल मे हो चली यी। कुछ विद्वानों का यह भी कहना है कि इन रचनाओ की जो हस्तलिखित प्रतियां मिली है वे इतनी पुरानी नही है। अतएव यह सन्दिग्व ही है कि ये कृतियां इन प्रतियो में अपने मूल रूप में पाई जाती है । परन्तु शुक्ल जी जैसे विद्वान् इन सव खोजो और विचारो की विवेचना करने के पश्चात् भी इनका समय निश्चित रूप से दसवी शताब्दी मानने को तैयार नहीं है।' जो हो, वावा गोरखनाथ के नाम से प्रचलित ४८ ग्रन्य अव तक खोज में प्राप्त हुए है। इनकी सूची किमी भी इतिहाम-ग्रन्थ मे देखी जा सकती है। इन ग्रन्यो की भाषा और वर्णनशैली की विभिन्नता देखकर अनुमान होता है कि उक्त ग्रन्यो में कुछ ही गोरखनाथ के बनाये हुए हो सकते है। शेप की रचना, उनका सकलन अथवा सम्पादन उनके शिष्यों ने किया होगा। यह कार्य उनकी सम्मति से हो सकता है और उनकी मृत्यु के बाद भी किया जाना सम्भव है। कारण, अपने जीवनकाल मे ही इनको पर्याप्त प्रसिद्धि प्राप्त हो गई थी और ऐसी दशा में शिष्यो का उनके नाम पर अन्य सकलित, सम्पादित करना अथवा रचना स्वाभाविक ही हो गया होगा। इन ग्रन्थो में कुछ गद्य के है। उनकी भाषा यह है (१) सो वह पुरुष सम्पूर्ण तीर्थ प्रस्नान करि चुको, अरु सम्पूर्ण पृथ्वी ब्राह्मननि को दे चुकौ, शरु सहस्र जज्ञ करि चुकौ, अरु देवता सर्व पूजि चुकौ, अरु पितरनि को सन्तुष्ट करि चुकौ, स्वर्गलोक प्राप्त करि चुकी, जा मनुष्य के मन छनमात्र ब्रह्म के विचार बैठो। (२) श्री गुरु परमानन्द तिनको दंडवत है । है कैसे परमानन्द ? अानन्द स्वरूप है शरीर जिन्हि को । जिन्हीं के नित्य गाव है सरीर चेतन्नि अरु आनन्दमय होतु है। मै जु हौं गोरष सो मछन्दरनाय को दडवत करत है। है कैसे वे मछन्दरनाथ ? आत्माजोति निश्चल है, अन्तहकरन जिन्हको अरु मूल द्वार ते छह चक जिन्हि नीकी तरह जान । अरु जुगकाल फल्पइनि की रचनातत्व जिनि गायो। सुगन्ध को समुद्र तिन्हि को मेरी दंडवत । स्वामी तुम्हें तो सतगुरु अम्ह तो सिप सवद एक पूछिवा दया करि कहिबा मनि न करिवा रोस। वावा गोरखनाथ के नाम से प्रचलित सभी ग्रन्थ ऐसी व्रजभाषा में लिखे गये है जिसमें सम्पूर्ण, प्राप्त, सर्व, स्वर्गलोक, सन्तुष्ट, मात्र, मनुष्य, स्वरूप, नित्य, आत्मा, निश्चल, चक्र, कल्प, तत्त्व, सुगन्व, आदि सस्कृत के तत्सम शब्दो का प्रयोग प्रचुरता से हुआ है। गोरखनाथ ने अपने पन्थ के प्रचार के लिए भारत के पश्चिमी भाग-पजाव, "मिश्रवंधु विनोद, प्रथम भाग, पृ०१६१-२ ।। "हिन्दुस्तानी भाग ५, अं० ३, पृ० २२९ में श्री नरोत्तम स्वामी एम० ए० का "हिन्दी का गद्यसाहित्य" शीर्षक लेख। "हिन्दी साहित्य का इतिहास (संशोधित और परिवद्धित संस्करण) स० १६७, पृ० १७ । *"हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास' (द्वितीय सस्करण) स० १६६७, पृ० ६३० । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ राजपूताना आदि प्रदेश-चुने थे। इसलिए उनकी व्रजभाषा मे 'अम्है', 'पूछिबा', कहिवा' 'करिवा', आदि राजस्थानी शब्द भी मिलते है। 'जा मनुष्य के मन छनमात्र ब्रह्म के विचार बैठो', जैसे वाक्याशो पर पूरबीपन की छाप भी स्पष्ट है । यद्यपि उक्त अवतरणो को देखकर शुक्ल जी को यह शका होती है कि यह किसी सस्कृत लेख का 'कथभूती' अनुवाद न हो, तथापि उन्होने निश्चयरूप से इसे स० १४०० के गद्य का नमूना माना है।' हिन्दी में प्रचलित तद्भव रूप भी इन ग्रथो में बहुत अधिक मिलते है । कही-कही तो तद्भव रूपो की अधिकता देखकर अनुमान होने लगता है कि लेखक का ध्यान शब्दो के सस्कृत रूप की ओर अधिक नही है। जज्ञ, अस्नान, छन, सर्व, पूजि चुकौ, पितरन आदि शब्द इसी रूप में इन ग्रन्थो मे मिलते है, सस्कृत के शुद्ध रूप में नहीं।' वस्तुत इन शब्द-रूपो के अपनाये जाने का एक कारण है। प्राचीन हिन्दी कविता में कुछ तो तुक की आवश्यकता से और कुछ भाषा की सरसता तथा व्यवहार की स्वाभाविकता के कारण सस्कृत शब्दो के हिन्दी स्पो का व्यवहार आरम्भ से ही किया गया है। गद्य-रचनाओ मे भी लेखको ने यही प्रवृत्ति अपनाना उचित समझा। वावा गोरखनाथ ही नही, उनके पश्चात् विट्ठलनाथ, गोकुलनाथ, नाभादास, बनारसीदास आदि सभी प्राचीन गद्यलेखको मे यह प्रवृत्ति समान है। __गोरखनाथ की भाषा के उदाहरण-रूप में जो उक्त अवतरण हमारे साहित्य-इतिहासो मे उद्धृत रहते है, व्रजभाषा-विकास की दृष्टि से वे प्राय सभी यह समस्या उपस्थित करते है कि यदि गोरखनाथ का समय ग्यारहवी शताब्दी माना जाय तो यह गद्य उनका लिखा हुआ नही हो सकता और यदि यह गद्य उन्ही का है तो चौदहवी शताब्दी से तीन सौ वर्ष पहले ऐसी साफ व्रजभाषा प्रचलित नही मानी जा सकती। मिश्रवन्धुओ ने बाबा गोरखनाथ को ही हिन्दी गद्य का प्रथम लेखक माना है, परन्तु उन्होने इस समस्या पर विचार नही किया। अन्य इतिहासकार भी प्रमाण के अभाव में अनुमान से काम चलाते है। श्री राहुल साकृत्यायन जी उनका समय ईसवी सन् की ग्यारहवी शताब्दी ही मानते है, परन्तु उनके गद्य के सम्बन्ध में स्पष्ट मत कदाचित उन्होने भी नही दिया है।" मत-विशेष के प्रचारकार्य से सम्बन्ध रखने के कारण गोरखनाथ का गद्य उपदेशपूर्ण हो गया है। इसलिए उससे हम केवल साधारण क्रिया-रूपो और हिन्दी गद्य पर सस्कृत के प्रभाव-मात्र को जान सकते है । सिद्धान्तो के वर्णन की चेष्टा होने के कारण कही-कही उसमें साहित्यिक भाषा की-सी झलक मिलती है। कुमुटिपाव के नाम पर मिला दूसरा ग्रन्थ भी हठयोग से सम्बन्ध रखता है। कुमुटिपाव सम्भवत चौरासी सिद्धि वाले कुमुरिपा है। इस ग्रन्थ में षट्चक्र और पच मुद्राओ का वर्णन है। इसका लिपिकाल सन् १८४० है और रचनाकाल ज्ञात नही है। इसकी भाषा के रूप को देखकर कहना पड़ता है कि यह ग्रन्थ चौदहवी शताब्दी के लगभग ही लिखा गया होगा और इस दृष्टि से इसकी भाषा का यह रूप विचारणीय है। नमूना देखिए अजया जयन्ती महामुनि इति ब्रह्मचक्र जाप प्रभाव वोलीये । ब्रह्मचक्र ऊपर गुह्यचक्र सीस मडल स्थाने बसै । इकईस ब्रह्माड बोलीये। ।परम सून्य स्थान ऊपर जे न विनसे न पावे न जाई योग योगेन्द्र हे समाई। सुनौ देवी पार्वती ईश्वर कथित महाज्ञान । इस अवतरण में एक ओर जयन्ती, स्थाने, कथित, ज्ञान आदि रूप है और दूसरी ओर बोलीये, बस, न विनसे, 'हिन्दी साहित्य का इतिहास (सशोधित और परिवर्तित सस्करण) स० १६९, पृ० ४७६ मिश्रबन्धुविनोद, प्रथम भाग-भूमिका पृष्ठ ५३ ॥ ॥ ॥ पृष्ठ १५७ ॥ ॥ ॥ ॥ १६१ 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा का अडतालीसवां वार्षिक विवरण, स० १९६७, पृ० १० Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रजभाषा का गद्य-साहित्य १०३ नावे न जाई, समाई, सुनी इत्यादि । इससे प्रकट होता है कि सिद्धो की रचनाओ मे सस्कृत के साथ लोकभाषा को भी स्थान मिलने लगा था। . वीरगाथाकाल के पश्चात् भक्तियुग में एक विशेप परिवर्तन यह हुआ कि साहित्य केन्द्र राजस्थान न रहकर व्रज और काशी के आसपास हो गया। फलत राजस्थानी के साथ-साथ व्रजभाषा और अवधी को भी काव्यभाषा होने का सौभाग्य प्राप्त हुया और कुछ ही वर्षों में दोनो भाषायो मे अनेक मुन्दर काव्य रचे गये। आगे चलकर धार्मिक उत्थान का आश्रय पा जाने के कारण व्रजभाषा का क्षेत्र अवघी से बहुत विस्तृत हो गया। काव्य की सर्वमान्य भापा के रूप में प्रतिष्ठित हो जाने के साथ-साथ अनेक गद्य-ग्रन्थ भी उममें रचे गये । भक्तिकाल मे लिखे हुए जितने गद्य-ग्रन्थ अव तक खोज मे प्राप्त हुए है, उनकी मख्या यद्यपि अधिक नहीं है, तथापि गद्य-रचना के क्रम का पता उनसे अवश्य चलता है। मोलहवी शताब्दी के अन्तिम वर्षों में लिखी एक चिट्ठी कुछ वर्ष हुए खोज मे प्राप्त हुई थी जो रावावल्लभी सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोसाई हितहरिवश की लिखी बताई जाती है। वह चिट्ठी' इस प्रकार है श्रीमुख पत्री लिखति । श्री सकल गुण सम्पन्न रसरीति वहावनि चिरंजीव मेरे प्राननि के प्रान बीठलदास जोज्ञ लिखति श्री वृन्दावन रजोपसेवी श्री हरिवश जोरी सुमिरन वचनी । जोरी सुमिरिन मत्त रही। जोरी जो है सुख वरखत है। तुम कुसल स्वरूप है । तिहारे हस्ताक्षर वारम्बार प्रावत है । सुख अमृत स्वरूप है। बांचत प्रानन्द उमडि चल है। मेरी वृद्धि की इतनी शक्ति नहीं कि कहि सकी। पर तोहि जानत हौं। श्री स्वामिनी जू तुम पर बहुत प्रसन्न है । हम कहा प्राशीर्वाद दैहि । हम यही प्राशीर्वाद देत है कि तिहारोपायुस बढ़ी। और तिहारी सकल सम्पत्ति वढौ। और तिहारे मन को मनोर्थ पूरन होहु । हम नेत्रन सुख देखें । हमारी भेंट यही है। यहां की काहू वात की चिन्ता मति करी। तेरी पहिचानि ते मोकी श्री श्यामाजू बहुत सुप देते है। तुम लिष्यो हो दिन दश में आवेगें। तेई पासा प्रान रहे है। श्री श्यामाजू वेगि लै प्राव । चिरजीव कृष्णदास की जोरी सुमिरन वाचनौ । गोविन्ददास सन्तदास की दडीत । गांगू मेदा को कृष्ण सुमिरन वांचनी । कृष्णदास मोहनदास को कृष्ण सुमिरन । रगा की दडीत । वनमाली धर्मसाला को कृष्ण सुमिरन बांचनी । यह चिट्ठी गोसाई श्री हरिवश जी ने अपने प्रिय शिष्य वीठलदास जी को लिखी थी। गोसाई जी का जन्म स० १५५६ है। शुक्ल जी ने इनका रचनाकाल स० १६०० से स० १६४० तक माना है। परन्तु “साहित्य समालोचक" का कहना है कि यह चिट्ठी सवत् १५६५ में लिखी गई थी।' स्पप्ट है कि यदि यह चिट्ठी वास्तव में गोसाई जी की लिखी हुई है तो सवत् लिखने में अवश्य भूल हुई है। हम समझते है कि यह सन् १५३८ (स० १५६५) के आसपास लिखी गई होगी। इसका गद्य विलकुल स्पष्ट है और यदि यह चिट्ठी ठीक है तो उन विद्वानो को वडे आश्चर्य में डालने वाली मिद्ध होगी जो व्रजभापा गद्य को विलकुल अस्पष्ट और अव्यवस्थित समझते है । इसमें सस्कृत शब्दो का प्रचुर प्रयोग हुआ है, यद्यपि तत्मम रूप उन्हें लिपिकार की कृपा से मिला जान पडता है। ___ सोलहवी शताब्दी के प्रारम्भ में महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी (सन् १४५८-१५३०) के पुत्र और उत्तराधिकारी गोसाई विट्ठलनाथ (सन् १५१५-१५८५) का गद्य सामने आता है । इन्होने 'शृगाररस मडन' और 'राधाकृष्णविहार' नामक दो ग्रन्थ व्रजभाषा मे लिखे थे। इन दोनो की भाषा का नमूना देखिए 'समालोचक' (त्रैमासिक) भाग १, अं० ४, पृ० ३२६ (अक्टूबर १९३५) हिन्दी साहित्य का इतिहास (सशोषित, परिवद्धित सस्करण) स० १९९७, पृ० २१६ 'समालोचक' (अक्टूवर '२५) १-४-३१६ - Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ (१) जम के सिर पर सब्दायमान करत है, विविध वायु वहत है, हे निसर्ग स्नेहार्द सखी कूँ सम्बोधन प्रिया नेत्र कमल कूं कछु मुद्रित दृष्टि होय के वारम्वार कछु सभी कहत भई, यह मेरो मन सहचरी एक छन ठाकुर को त्यजत भई । - 'राधाकृष्ण विहार' से । ' १०४ (२) प्रथम की सखी कहतु हैं । जो गोपीजन के चरन विषै सेवक को दासी करि जो इनको प्रेमामृत में वि के इनके मन्द हास्य ने जीते है । अमृत समूह ता करि निकुज विषै शृगाररस श्रेष्ठ रसना कोनो सो पूर्ण भई । - 'शृगाररसमडन' से ' यह गद्य गोरख-पन्थी ग्रन्थो के लगभग दो सौ वर्ष पश्चात् का नमूना है । भाषा के परिमार्जन के लिए दो शताब्दियो का समय श्राज बहुत होता है, परन्तु संस्कृत की प्रधानता के उस युग में, जब 'भाषा' की कविता भी सम्मान की दृष्टि से नही देखी जाती थी, गद्य में लिखने का चलन अधिक नही था । अत दो सौ वर्ष बाद भी गद्य को उसी प्रकार परिमार्जित और अव्यवस्थित देखकर हमें आश्चर्य नही होना चाहिए । ऊपर दिये हुए प्राय सभी अवतरणो में एक बात जो समान रूप से पाई जाती है वह है संस्कृत के तत्सम शब्दो का प्रयोग । 'योगाभ्यास मुद्रा' के गद्य में सिद्धो की वाणी मे संस्कृत पदावली के मध्य हिन्दी भाषा का अकुर देखा जाता है । गोरखपन्थी ग्रन्थो में तो सस्कृत के तत्सम शब्द प्रयुक्त हुए ही है । वही बात गोसाई विट्ठलनाथ की भाषा में भी देखने को मिलती है, जहाँ विविध, निसर्ग, स्नेहार्द्र, सम्वोधन, मुद्रित दृष्टि, सहचरी, क्षण, चरण, प्रेमामृत, मन्दहास्य, समूह, निकुज, श्रेष्ठ रसना, पूर्ण यादि शब्दो का स्वतन्त्रता के साथ प्रयोग किया गया है । 'हरिश्रोघ' जी की सम्मति' में, श्रीमद्भागवत का प्रचार और राधाकृष्णलीला का साहित्यक्षेत्र में विषय के रूप में प्रवेश करना ही इस संस्कृत शब्दावली की लोक-प्रियता तथा उसके फलस्वरूप हिन्दी गद्य में उसके स्थान पाने का कारण जान पडता है । प्रान्तीय भाषाओ के प्रभाव भी उक्त अवतरणो में दिखाई पडते है । 'पै' के स्थान पर 'पर' और 'को', 'को' अथवा 'कों' के स्थान पर 'कू' का प्रयोग ऐसे ही प्रभावो का परिणाम है ।' सत्रहवी शताब्दी के व्रजभाषा - गद्य लेखको में सबसे पहला नाम हरिराय का श्राता है । इनका जीवनकाल स० १६०७ माना गया है । ये महाप्रभु वल्लभाचार्य के शिष्य एव संस्कृत तथा हिन्दी के अच्छे ज्ञाता बताये गये है । इनके कई ग्रन्थो का विवरण सभा की पिछली कई रिपोर्टों में आया है। * सन् १९३२-३४ के त्रैवार्षिक विवरण में इनके रचे ग्रन्थ— - (१) कृष्णप्रेमामृत (२) पुष्टि दृढावन की वार्ता ( लिपिकाल सन् १८५६) (३) पुष्टि प्रवाहमर्यादा (४) सेवाविधि (लिपिकाल सन् १८०७ ) ( ५ ) वर्षोत्सव की भावना (६) वसन्त होरी की भावना (लिपिकाल सन् १८४५) (७) भाव-भावना । इन सात ग्रन्थो में अन्तिम गद्य का एक विशालकाय ग्रन्थ है, जिसमें 'रावाजी के चरण-चिह्नों की भावना, नित्य की सेवाविधि, वर्षोत्सव की भावनाएँ, डोल उत्सव की भावना, छप्पन भोग की रीति, हिंडोरादि की भावनाएं, सातो स्वरूप की भावना एव भोग की सामग्री आदि बनाने की रीति दी गई है | नीचे 'भाव-भावना' में से इनके गद्य का उदाहरण दिया जाता है सो पुष्टिमार्ग में जितनी क्रिया है, सो सब स्वामिनी जी के भावते है । तातें भगलाचरण गावें । प्रथम श्री स्वामिनी जी के चरण-कमल कों नमस्कार करत है । तिनकी उपमा देवे को मन दसो दिसा दोरयो । परन्तु 'हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास (द्वितीय सस्करण) स० १६६७, पृ० ६३१ 'हिन्दी साहित्य का इतिहास (सशोधित, परिवद्धित सस्करण) १९९७, 'हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास (द्वि० सस्करण) स० १९९७, पृ० ६३१-३२ ४७६ * देखिए-- रि० १६०० ई० स० ३८, १६०६-११ ई० स० ११५, १९१७-१६ ई० स०७४, १ε२३-२५ ई० स० १६०, १६२६-३१ ई०, १९३२-३४ ई० "प्राचीन हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थो की खोज का पन्द्रहवां त्रैवार्षिक विवरण (सन् १९३२-३४) पू० ३७६ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजभाषा का गद्य-साहित्य १०५ कह पायो नहीं। पाछे श्री स्वामिनी जी के चरण-कमल को आश्रय कियो है। तब उपमा देवे कू हृदय में स्फूर्ति भई । जैसे श्री ठाकार जी को अधरबिम्ब प्रारक्त है रसरूप । तेसेई श्री स्वामिनी जी के चरण पारक्त है । सो नाते श्री चरण-कमल को नमस्कार करत है। तिन में अनवट विछुमा नूपुर आदि आभूषण है। . यह गद्य बिलकुल स्पष्ट और व्यवस्थित है। इससे पता लगता है कि सन् १५५३ के लगभग गद्य का प्रयोग ग्रन्थरचना के लिए वरावर किया जाता था। उक्त अवतरण में सस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दो का प्रयोग प्रचुरता से किया गया है। 'पुष्टिमार्ग मे जितनी क्रिया है', 'श्री स्वामिनी जी के चरण आरक्त हैं', 'नूपुर आदि प्राभूषण है', इत्यादि प्रयोग राधावल्लभी सम्प्रदाय के प्रवर्तक गोमाई श्री हितहरिवश जी की चिट्ठी में आये हुए, 'सुख अमृत स्वरूप है' 'तुम पर बहुत प्रसन्न है', 'हमारी भेट यही है' आदि से मिलते-जुलते है। इसी समय के लगभग चौरासी वैष्णवो की वार्ता' और 'दो सौ बावन वैष्णवो की वार्ता' का गद्य सामने आता है। अब तक ये ग्रन्थ गोस्वामी विट्ठलनाथ के पुत्र गोस्वामी गोकुलनाथ के नाम पर, जिनका समय सन् १५६८ से १५९३ के आसपास है, प्रचलित थे। इधर अपने इतिहास के नये सस्करण में शुक्ल जी ने अपना यह मत दिया है कि प्रथम 'वार्ता' गोकुलनाथ के किसी शिष्य की लिखी जान पडती है, क्योकि इसमें गोकुलनाथ का कई जगह बडे भक्तिभाव से उल्लेख है । इसमे वैष्णव भक्तो तथा आचार्य श्री वल्लभाचार्य जी की महिमा प्रकट करने वाली कथाएँ लिखी गई है। इसका रचनाकाल विक्रम की सत्रहवी शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जा सकता है। दो सौ वैष्णवो की वार्ता' तो और भी पीछे औरगजेब के समय के लगभग लिखी गई जान पडती है । डाक्टर धीरेन्द्र वर्मा का भी यही मत है कि ये दोनो 'वार्ताएँ' एक ही लेखक की रचनाएँ नही है। इस सम्बन्ध मे हमे यह निवेदन करना है कि गोकुलनाथ जी का बडे भक्तिभाव से उल्लेख देखकर ही हम प्रथम 'वार्ता' को उनके किसी शिष्य की लिखी मानने के पक्ष मे नही है । सम्भव है, जिन स्थलो पर गोस्वामी जी की प्रशसा की गई है वे प्रक्षिप्त हो। गोकुलनाथ जी के समकालीन कवियो के काव्यो मे भी जव प्रक्षिप्त अश पाया जाता है-काव्यो मे कुछ जोडना गद्य की अपेक्षा स्वभावत कठिन हैतव गद्य में ऐसा होना असम्भव नही जान पडता है। जो हो, ये 'वार्ताएँ' सत्रहवी शताब्दी मे रची मानने के लिए प्राय सभी विद्वान तैयार है। इनकी भाषा का नमूना देखिए(१) चौरासी वैष्णवन की वार्ता (क) तब सूरदास जी अपने स्थल तें प्रायके श्री प्राचार्य महाप्रभून के दर्शन को पाये। तब श्री प्राचार्य महाप्रभून ने कह्यो जो सूर पावी बैठो। तव सूरदास जी श्री प्राचार्य जी महाप्रभून के दर्शन करिके आगे आय बैठे तब श्री प्राचार्य महाप्रभून ने कही जो सूर कछ भगवद्यश वर्णन करौ। तव सूरदास ने कही जो प्राज्ञा।' । (ख) सो सूरदास जी के पद देशाधिपति ने सुने । सो सुनि के यह बिचारी जो सूरदास जी काहू विधि सो मिले तो भलो । सो भगवदिच्छा ते सूरदास जी मिले । सो सूरदास जी सो को देशाधिपति ने जो सूरदास जी में सुन्यो है जो तुमने बिनयपद बहुत कीये हैं । जो मोको परमेश्वर ने राज्य दीयो है सो सब गुनीजन मेरौ जस गावत है ताते तुमहूँ कछु गावी । तव सूरदास जी ने देशाधिपति के आगे कीर्तन गायो।' "हिन्दी साहित्य का इतिहास (सशोधित और परिवद्धित सस्करण) स० १९६७, पृ० ४७९-८० देखिए 'हिन्दुस्तानी' अप्रैल १९३२, भाग २, स० २, पृ० १८३ "चौरासी वैष्णवों की वार्ता', पृ० २७४ "जो-कि । 'कि' का प्रयोग बहुत समय बाद होने लगा था। सम्भव है, वह फारसी से लिया गया हो। यद्याप कई विद्वानों की राय इसके प्रतिकूल है। वे इसकी उत्पत्ति 'किम्' से मानते है। देखिए-फुटनोट-हिन्दुस्तानी (५-३) पृ० २५४ "चौरासी वैष्णवों की वार्ता, पृ० २७६ १४ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन प्रथ १०६ (२) दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता -- (क) नन्ददास जी तुलसीदास जी के छोटे भाई हते । सो विनयूँ नाच-तमासा देखने को तथा गान सुनवे को शोक बहुत हतो । सो वा देश में सूँ एक सग द्वारका जात हतो । सो नन्ददास जी ऐसे विचार के में श्री रणछोड जो के दर्शन कूँ नाऊँ तो अच्छी है । जव विसने तुलसीदास जी सूं पूंछी तब तुलसीदास जी श्री रामचन्द्र जी के अनन्य भक्त हते ।" जासूं विनने द्वारका जायवे की नाहीं कही।" (ख) तब नन्ददास जी श्री गोकुल चले । तब तुलसीदास जी कूं सग सग आये । तव श्रायके नन्ददास जी ने श्री गुसाई जी के दर्शन करे । साष्टाग दडवत करी, और तुलसीदास जी ने दडवत करी नहीं । और नन्ददास जी फूँ तुलसीदास जी ने कही के जैसे दर्शन तुमने वहाँ कराये वैसे ही यहाँ कराओ । तव नन्ददास जी ने श्री गुसाई जी सो विनती करी ये मेरे भाई तुलसीदास हैं। श्री रामचन्द्र जी विना और कूं नहीं नमें है । तव श्री गुसाई जी ने कही तुलसीदास जी बैठो। इस भाषा के सम्बन्ध में दो वातें मुख्यत स्मरण रखनी चाहिए। पहली बात यह कि उक्त श्रवतरण जनसाधारण में प्रचलित ऐसी भाषा के है, जिनमें भाव व्यजना की सुन्दर शक्ति जान पडती है । इनके लेखक ने कही अपनी योग्यता अथवा किसी प्रकार का चमत्कार दिखाने का प्रयत्न नही किया है । सस्कृत के तत्सम तद्भव तथा श्रन्य प्रचलित शब्द भी इसमें प्रयुक्त हुए है । इससे जान पडता है कि संस्कृत के प्रभाव से मुक्त एक काव्य-भाषा उस समय गद्य-भाषा का रूप धारण करने की ओर पैर बढा रही थी। तीसरे अवतरण में प्रयुक्त 'तमासा', 'शोक' श्रादि शब्दो से ज्ञात होता है कि लेखक अरवी - फारसी के प्रचलित शब्दो को अपनाने के भी पक्ष में था। यही नही, मिश्रबन्धुओ की सम्मति में गुजराती मारवाडी बोलियो का भी इनको भाषा पर प्रभाव पडा है ।" दूसरी बात क्रियापदो के रूप से सम्वन्ध रखती है। बाबा गोरखनाथ, गोसाई विट्ठलनाथ, हरिराय आदि गद्यलेखको की भाषा की क्रियाएँ तथा कुछ अन्य शब्द इस बात के समर्थक है कि उनकी रचनाएँ व्रजभाषा की ही है । इस गद्य का क्रमश विकास होता गया । 'वार्ताओ' के लेखक की भाषा मे यद्यपि क्रियापदो का रूप बहुत कुछ पूर्ववत् ही बना रहा, तथापि कुछ ऐसे क्रियारूपो का प्रयोग भी उन्होने किया जो नये तो नही कहे जा सकते, पर जिनका प्रयोग पूर्ववर्ती लेखको के गद्य में वहुत कम हुआ है । उदाहरण के लिए हम निम्नलिखित पक्तियो में रेखांकित क्रियाओ की ओर पाठको का ध्यान आकर्षित करना चाहते है सो एक दिन नन्ददास जी के मन में ऐसी आई। जो जैसे तुलसीदास जी ने रामायण भाषा करी है। सो हमहूँ श्रीमद्भागवत भाषा करें। इन पक्तियो में श्राई, करी है, करें तथा 'ऊपर के श्रवतरणो में प्रयुक्त आये, वैठे, सुने, मिले, चले, करे कराओ, कराये, ग्रादि क्रियारूप प्राय वे ही है, जो वर्तमान खडीवोली में प्रयुक्त होते है। यही नही, 'वार्ताओ' की भाषा पूर्ववर्ती लेखको की भाषा से कुछ शुद्ध भी है । 'पूर्ण होत भई' की तरह पर ' त्यजत भई', 'कहत भई' आदि जो प्रयोग गोस्वामी विट्ठलनाथ आदि की भाषा में है उनके स्थान पर 'वार्ताओ' में हमें इनके व्रजभाषा के शुद्ध रूप मिलते है । इसके अतिरिक्त इनमें कारक चिह्नों का प्रयोग भी अपेक्षाकृत अधिक निश्चित रूप से हुआ है । 'वार्ताओ' में खटकने वाली एक बात है सर्वनाम का उचित प्रयोग न किया जाना। इसका फल यह हुआ कि मज्ञा शब्दो की भद्दी पुनरुक्ति हो गई है । विषय प्रतिपादन की दृष्टि से इनका गद्य सजीव और स्वाभाविक है । साधा 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, पृ० २८ दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, पृ० ३५ "मिश्रबन्धुविनोद प्रथम भाग, पृ० २८५ 'दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता, पृ० ३२ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रजभाषा का गद्य साहित्य १०७ रण वर्णन की प्रवृत्ति होने से लेखको ने भाषा को साहित्यिक और शुद्ध बनाने का कृत्रिम प्रयत्न नही किया । इन विशेषताओं को देखते हुए कहा जा सकता है कि 'वार्ताएँ' गद्य की सुन्दर रचनाएँ है और इनकी भाषा विषयानुकूल और व्यवस्थित है । यह तो हुई 'वार्ताओ' की बात । इनके अतिरिक्त स्वामी गोकुलनाथ के बनाये हुए छ ग्रन्थ - वनयात्रा, पुष्टिमार्ग के वचनामृत (लि० का० सन् १८४८), रहस्यभावना ( लि० का ० सन् १८५४), सर्वोत्तम स्तोत्र, सिद्धान्त - रहस्य, और वल्लभाष्टक - प्रकाश मे आये है । ये सव ग्रन्थ व्रजभाषा में हैं और इनमें पुष्टिमार्ग के सिद्धान्तो तथा भक्ति विषय का प्रतिपादन किया गया है। यदि 'वार्ताश्रो' का रचयिता गोस्वामी गोकुलनाथ को भी मानें तब भी उवत ग्रन्थो को देखकर डा० वडथ्वाल उन्हें अनेक गद्य -अन्थो का निर्माता, उत्कृष्ट विद्वान और श्रेष्ठ लेखक स्वीकार करते है । मत्रहवीं शताब्दी के अन्य गद्य-लेखको मे नन्ददास, नाभादास, तुलसीदास, बनारसीदास, किशोरीदास और वैकुठमणि शुक्ल के गद्यग्रन्थो का पता लगता है । ये ग्रन्थ साहित्यिक दृष्टि से तो विशेष महत्त्व के नही है, तथापि व्रजभाषा - विकास की दृष्टि से इनका मूल्य अवश्य है । इससे हमें तत्कालीन गद्य-भाषा के रूप का कुछ परिचय अवश्य मिलता है और हमे यह कहने का अवसर भी मिलता है कि हमारे कवि कभी-कभी गद्य में लिखा करते थे । अष्टछाप के प्रसिद्ध कवि नन्ददास के लिखे 'नासिकेत पुराण भाषा' और 'विज्ञानार्थ प्रवेशिका' नामक ग्रन्थ मिलते हैं । इनका रचनाकाल सन् १५६८ के ग्रासपास होना चाहिए, क्योकि इनके 'अनेकार्थनाममजरी' नामक ग्रन्थ का रचनाकाल सन् १५६७ है । उक्त दोनो ग्रन्थ व्रजभाषा गद्य में बताये जाते है । प्रथम ग्रन्थ उसी नाम की संस्कृत रचना का अनुवाद है और द्वितीय एक संस्कृत ग्रन्थ की व्रजभाषा-गद्य में टीका, जो मिश्रवन्धुओ ने छतरपुर मे देखी थी। इनके पश्चात् ‘भक्तमाल' के प्रसिद्ध कवि नाभादास जी ने सन् १६०३ के अासपास 'अप्टनाम' नामक एक पुस्तक व्रजभाषा - गद्य मे लिखी । उसमे भगवान राम की दिनचर्या का वर्णन है । इस पुस्तक की भाषा का नमूना' यह हैतव श्री महाराजकुमार प्रथम वशिष्ठ महाराज के चरन छुइ प्रनाम करत भये । फिर ऊपर वृद्ध समाज तिनकों प्रनाम करत भये । फिर श्री राजाधिराज कों जोहारि करिकं श्री महेन्द्रनाथ दशरथ जू के निकट बैठत भये 1 नाभादास जी का यह गद्य गोस्वामी विट्ठलनाथ की भाषा से मिलता-जुलता है । 'करत भये', 'बैठत भये', आदि से मिलते-जुलते रूप हम उनकी भाषा में देख चुके है । सन् १६०० के लगभग प्रेमदास नामक एक और गद्यलेखक के प्रादुर्भाव का पता इधर लगा है। इन्होने हितहरिवश जी (जन्म सन् १५०२ ) के 'हितचौरासी' नामक ग्रथ की टीका बडे विस्तार से लगभग ५०० पृष्ठो में की थी। प्रेमदास का समय पूर्णत निश्चित नही है । हितहरिवश जी का रचनाकाल सन् १५४० से १५८० तक मान्य । अत प्रेमदास की टीका इसके बाद लिखी गई होगी । इसी समय के लगभग का गोस्वामी तुलसीदास जी का लिखा हुआ एक पचनामा मिलता है । उसकी कुछ पक्तियाँ" इस प्रकार है स० १६६६ समये कुमार सुदी तेरसी बार शुभ दिने लिखीत पत्र आनन्दराम तथा कन्हई के प्रश विभाग पूर्व मु श्रागे जे श्राग्य दुनहु जने माँगा जे श्राग्य भै शे प्रमान माना दुनहु जने विदित तफसील अश टोडरमल के माह जे विभाग पदु होत रा । । मौजे भदेनी मह प्रश पाँच तेहि मँह श्रश दुइ श्रानन्दराम तथा लहरतारा सगरेउ तथा पितुपुरा श्रश टोडरमलुक तथा तमपुरा श्रश टोडरमल की हील हुज्जती नाश्ती । 'प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थो की खोज का पन्द्रहवां त्रैवार्षिक विवरण, पृ० ३६८ मिश्रवन्धुविनोद प्रथम भाग, पृ० २२६ २ , 'हिन्दुस्तानी-५-३, पृ० २५५ ४ * हिन्दी साहित्य का इतिहास --- सशोधित सस्करण, पृ० २१९ 7 ५ 'हिन्दी भाषा और साहित्य का विकास -- ( द्वि० सस्करण) स० १९६७, पृ० ६३५ T Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ १०८ इस पचनामे की भाषा व्रज नही, बोलचाल की अवधी है । परन्तु इसमें प्रयुक्त 'मांगा', 'माना' आदि शब्द ध्यान देने योग्य है। इसी प्रकार तफसील, हुज्जती, आदि फारसी के शब्द सम्भवत इस बात की याद दिलाते है कि टोडरमल की कृपा से राजकाज की भाषा फारसी हो गई थी और इसके फलस्वरूप पचनामे में ऐसे शब्दो का प्रयोग करना आवश्यक था। इस पचनामे की रचना सन् १६१२ में हुई थी। इसी समय के आसपास जौनपुर के वनारसीदास (जन्म सन् १५८६) नामक एक जैन मतावलम्बी कवि के लिखे हुए कुछ उपदेश बजभापा-गद्य में मिलते हैं। सन् १६१३ के लगभग इन्होंने एक पुस्तक लिखी थी। उसकी कुछ पक्तियाँ देखिए सम्यग् दृष्टि कहा ? सो सुनो । सशय, विमोह, विभ्रम तीन भाव जाम नाहीं सो सम्यग् वृष्टी । सशय, विमोह, विभ्रम कहाँ ? ताको स्वरूप दृष्टान्त करि दिखाइयतु है सो सुनो। ।। वैकुठमणि (सन् १६२५ के लगभग वर्तमान) की दो छोटी-छोटी पुस्तके 'अगहनमाहात्म्य' और 'वैशाखमाहात्म्य' मिलती है । ये पोरछा के महाराज जसवन्तसिंह की महारानी के लिए लिखी गई थी। यह वात द्वितीय पुस्तिका मे स्वय लेखक ने इस प्रकार लिखी है ___ सब देवतन की कृपा तें बैकठमनि सुकुल श्री महारानी श्री रानी चन्द्रावती के परम पढिवे के भरय यह जयरूप ग्रन्थ बैसाख-महात्म भाषा करत भये । इस वाक्य से हमें इन ग्रन्थो की भाषा का नमूना मिल जाता है और यह भी ज्ञात होता है कि ये अनुवाद मात्र है। इनकी रचना का समय सन् १६२५ के आसपास समझना चाहिए। वैकुठमणि के समकालीन विष्णुपुरी नामक लेखक ने सन् १६३३ मे भक्तिरलावली' नाम का एक अन्य व्रजभाषा में अनुवादित किया। इस काल की अन्य रचनाओ से यह वडा है । 'भुवनदीपिका' नामक एक ग्रन्थ इनके किसी समकालीन लेखक का बनाया जान पडता है, क्योकि इसका रचनाकाल सन् १६१४ है। वैकुठमणि के दोनो 'माहात्म्यो' के लगभग ८० वर्ष पश्चात् सन् १७०५ के आसपास 'नासिकेतोपाख्यान' नामक एक ग्रन्थ लिखा गया। इसकी भाषा का नमूना देखिए हे ऋषीश्वरों! और सुनो, देख्यो है सो फहूँ। काले वर्ण महादुख के रूप जकिकर देखें। सर्प, वोछ, रीछ, व्याघ्र, सिंह, वडे-बडे ग्रघ देखे । पन्थ में पापकर्मी को जमदूत चलाइ के मुग्दर अरु लोह के दड कर मार देत है। आगे और जीवन को त्रास देत देखे है। सु मेरो रोम-रोम खरोहोत है। इसके पांच-छ वर्ष बाद सन् १७१० में पागरें के सुरति मिश्र ने व्रजभापा में 'वैतालपचीमी' लिखी । इमका कथानक सस्कृत के 'वैतालपचविंशति' से लिया गया था। इसके अतिरिक्त "विहारीसतसई' की 'अमरचन्द्रिका' नाम से कविप्रिया तथा रसिकप्रिया की उन्ही नामो से टोकाएँ भी मिश्र जी ने की। 'अमरचन्द्रिका' का रचनाकाल सन् १७३४ है और शेष दोनो का सन् १७४० के आसपास। इन टोकाप्रो से इतना तो स्पष्ट है ही कि कभी-कभी शास्त्रीय विषयों के निस्पण के लिए हमारे प्राचार्य गद्य का भी उपयोग किया करते थे। इस सम्बन्ध में स्व० शुक्ल जी का मी यही मत है। __ सन् १७६५ मे, लगभग ८५ वर्ष पश्चात्, हीरालाल ने जयपुर-नरेश सवाई प्रतापसिंह की आज्ञा से 'प्राईन अकवरी की भापा वचनिका' तैयार की। इसकी भाषा का नमूना यह है 'देखिए फुटनोट-हिन्दुस्तानी-५०-३-२५५ 'इन्होंने स्वय लिखा है-सूरत मिश्र कनौजिया, नगर प्रागरे वास । 'हिन्दी साहित्य का इतिहास-सशो० सस्करण, पृ० ३४० हिन्दी साहित्य का इतिहास-संशो० सस्करण, पृ. २६६ "हिन्दी भाषा और माहित्य का विकास (द्वि० सस्करण) पृ० ६३६ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - व्रजभाषा का गद्य साहित्य . १०६ अब शेख अबुल फजल ग्रन्थ को करता प्रभु को निमस्कार करिकै अकबर वादस्याह की तारीफ लिखने को करुत करें है । अरु कहे है- -या की बड़ाई अरु चेष्टा श्ररु चिमत्कार कहाँ तक लिखूं । कही जात नाहीं । तें या पराकरम अरु भाँति भाँति के दस्तूर व मनसूबा दुनिया में प्रगट भये, ताको सखेप लिखत है । इन अवतरणी की भाषा बहुत कुछ व्यवस्थित होते हुए भी "वार्तायो" की भाषा का सो डेढ सौ वर्षों में विकसित रूप नही कहा जा मकता । इन्हें देखकर इतना अवश्य कहा जा मकता है कि व्रजभाषा में यदा-कदा गद्य-ग्रन्थ लिख लिये जाते थे । परन्तु उक्त लेखको के पश्चात् व्रजभाषा गद्य का विकास नही हुआ । रीतिकाल के लेखको ने तो इमका प्रयोग काव्य-प्रन्यो की केवल गाव्दी टीका करने के लिए किया, यहाँ तक कि एक भी स्वतन्त्र और प्रोढ व्रजभापा का ग्रथ इस समय नही लिखा गया। टीका और भाप्य इस समय के अवश्य मिलते है—एक बिहारी सतसई की ही कई टीकाएँ पाई जाती है, परन्तु भाषा-शैली के विकास की दृष्टि से इनका विशेष मूल्य नही है । कारण यह है कि इनकी भाषा प्राय श्रव्यावहारिक और अव्यवस्थित है तथा शैली अपरिमार्जित और पडिताऊ ढग की । 'रामचन्द्रिका' की मन् १८१५ के लगभग लिखी हुई टीका का एक उदाहरण देखिए राघव शर लाघव गति छत्र मुकुट यो हयो । हंस सवल असु सहित मानहु उडि के गयो ॥ टीका - सबल कह अनेक रग मिश्रित है प्रसु कहे किरण जाके ऐसे जे सूर्य हैं जिन सहित मानो कलिन्दागिरिसेहत समूह उडि गयो है । यहाँ जाहि विषै एक वचन है। हसन के सदृश स्वेत छत्र है और सूर्यानि के सदृश अनेक नभ-जटित मुकुट है । 'वार्ता' की भाषा से इस भाषा की तुलना करने पर स्पष्ट होता है कि व्रजभाषा के गद्य का विकास न होकर ह्रास होने लगा । यदि 'वार्ताओ' की भाषा में उमी प्रकार स्वतन्त्र रूप मे गद्य-ग्रन्थ रचना होती रहती तो कदाचित् भाषा की व्यजना-शक्ति बढती जाती, परन्तु एक तो विषय की परतन्त्रता और दूसरे टीकाकारो की सकुचित मनोवृत्ति के कारण ऐसा न हो सका । 'कविप्रिया', 'रसिकप्रिया', 'विहारीसतमई', 'शृगारगतक' आदि अनेक ग्रन्थो की टीकाएँ इम युग में हुईं और सुरति मिश्र, किशोरदास तथा सरदार कवि आदि अनेक व्यक्तियो ने इस क्षेत्र में काम किया, परन्तु प्राय सभी की भाषा ऊपर दिये हुए नमूने की तरह अनगढ़ और अनियन्त्रित ही है, जिमसे मूल पाठ टीकाओ में मरल और स्पष्ट न होकर दुर्वोव और अम्पष्ट हो गया है । टीकाओ का मूल्य कितना है, यह इम कथन से ठीकठीक ज्ञात हो जायगा कि मूल पढकर उसका अर्थ भले ही समझ लिया जाय, परन्तु इन टीकाओ का समझना एक कठिन समस्या है | C ब्रजभाषा-गद्य के विषय में जैसा ग्रव तक हम देख चुके है, पर्याप्त मामग्री मिलती है । फिर भी हमारे इतिहास-लेखको को जो गद्य का कोई विकास क्रम नही मिलता उसका कारण यह है कि उन्होने व्रजभाषा - गद्य के विकाम का क्षेत्र समझने का प्रयत्न नही किया । वस्तुत व्रजभाषा- गद्य का विकास दो साहित्यिक दलो ने स्वतन्त्र रूप से किया - ( १ ) भक्त कवि और आचार्यों ने (२) रीतिकालीन प्राचार्यों ने । भक्ताचार्यो ने गद्य में ग्रन्थ लिखने पहले आरम्भ कर दिये थे, क्योकि एक तो उनका प्रादुर्भाव पहले हुआ और दूसरे जन साधारण की भाषा अपनाने की आवश्यकता उन्हें अपेक्षाकृत अधिक थी । इन भक्तो का गद्य दो रूपो में विकसित हुआ । एक तो स्वान्त सुखाय ग्रन्थ रचना के लिए और दूसरे पडिताऊ ढग मे कथावार्ता के लिए । रीतिकालीन कवियो ने गद्य में ग्रन्यरचना बहुत देर मे प्रारम्भ की और दूमरे उन पर सस्कृत के पडिताऊ ढग का भी प्रभाव था । भक्तो के पडिताऊ ढग की भाषा से इनका गद्य वहुत-कुछ मिलता-जुलता है । 'हिन्दी साहित्य का इतिहास - पृ० ४८२ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० प्रेमी-अभिनदन-प्रय __ हिन्दी गद्य की तीन धारामो मे-दो भक्ताचार्यों को और एक रीत्याचार्यों की केवल प्रथम का विकास कुछ क्रम से हुआ और इसके प्रमाण-स्वस्प अन्य मिलते भी हैं। इन सव की भाषा क्रमश विकसित और व्यवस्थित होती गई है। अन्य दोनो रूपो की-भक्ताचार्यों की पडिताऊ और रीत्याचार्यों की शास्त्रीय भाषा अव्यवस्थित और शिथिल है। सोलहवी, सत्रहवी और अठारहवी शताब्दी में ऐसी भाषा के अन्य भी मिलते है और प्रथम प्रकार की व्यवस्थित और विकसित भाषा के भी। यही देखकर हमारे इतिहास लेखक आश्चर्य में पड़ जाते हैं और कभी-कभी लिख मारते है कि हिन्दी गद्य का क्रमश विकास नहीं हुआ। वस्तुत तथ्य यह है कि प्रत्येक शताब्दी मे गद्यग्रन्थ रचे तो अवश्य गये, परन्तु उनके लेखको का लक्ष्य गद्य-साहित्य की उन्नति करना नहीं था। वे ग्रन्य रचते थे और परोक्ष रूप से इस प्रकार गद्य की उन्नति होती गई। लखनऊ गीत श्री सोहनलाल द्विवेदी करुणा की वर्षा हो अविरला सन्तापित प्राणों के ऊपर लहरे प्रतिपल शीतल अंचल ! मलयानिल लाये नव मरन्द, विकसें मुरझाये सुमनवृन्द, सरसिज में मधु हो, मधुकर के मानस में मादक प्रीति तरल ! कोकिल को सुन कातर पुकार आये वसन्त ले मधुर भार, कानन की सूखी डालों में, फूटें नवनव पल्लव कोमल ! काली रजनी का उठे छोर । लेकर प्रकाश नव हसे भोर, अवनी के प्रांगन नें ऊषा, बरसाये मगल कुकमजल! करुणा की वर्षा हो अविरल! विदफी] Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फोर्ट विलियम कॉलेज और विलियम प्राइस श्री लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय एम्० ए०, डी० फिल्० प्राचीन काल से भारत का व्यापारिक सम्वन्ध विदेशो से रहा है । अँगरेजो से पहले यूनान, रोम तथा अन्य पश्चिमी राष्ट्रो के साथ इस व्यापार का पता चलता है। यह व्यापार फारस की खाडी, लालसागर और भारत के उत्तर-पश्चिम से मध्य - एशिया वाले मार्गों से होता था । व्यापारी लोग इन मार्गों द्वारा, विशेषत फारस की खाड़ी से होकर, भारतवर्ष श्राते थे और यहाँ से माल खरीद कर विदेश भेजते थे । इससे भारतीय व्यापारिक उन्नति के साथ-साथ विदेशी व्यापारी भी धनोपार्जन करते थे । किन्तु पन्द्रहवी शताब्दी के लगभग मध्य से कुछ राजनैतिक कारणो मे यूरोप के व्यापारियो को भारतवर्ष और व्यापार करने में असुविधा होने लगी। उस समय निकटस्थ मुसलमानी राष्ट्रो का समुद्री व्यापार पर श्राधिपत्य स्थापित हो गया था । इसलिए यूरोप - निवासी भारतवर्ष के लिए एक नया समुद्री मार्ग खोजने के लिए अग्रसर हुए। यह कार्य पन्द्रहवी शताब्दी के मध्य से ही शुरू हो गया था । ईसा की अठारहवी शताब्दी तक स्पेन, पुर्तगाल, फ्रास, हॉलैंड, ब्रिटेन, स्वीडन, डेनमार्क, आस्ट्रिया आदि राष्ट्रो ने भारतवर्ष में अपनी-अपनी कम्पनियाँ खोली श्रोर कर्मचारी भेजे, परन्तु अँगरेजो की शक्ति और उनके प्रवल विरोध एव कूटनीति के कारण अन्य व्यापारिक सस्थाओ को कोई विशेष लाभ न हुया और उन्होने अपना काम वन्द कर दिया । अंगरेज भारतवर्ष में व्यापार करने आये थे । उनसे उन्होने अपार धन -सचय भी किया। देश के शासक वन बैठने का उनका विचार नही था, किन्तु योरोपीय प्रौद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप ब्रिटेन के तत्कालीन राजनैतिक सचालको की वृहत्तर ब्रिटेन की श्राकाक्षा से प्रोत्साहन ग्रहण कर तथा साथ ही पतनोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की नाजुक परिस्थिति से लाभ उठाकर उन्होने देश में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया । प्रथमत वे अपनी व्यापारिक उन्नति में ही लगे रहे । १७५७ ई० में प्लासी युद्ध के फल-स्वरूप वगाल प्रान्त पर पूर्ण रूप से उनका अधिकार स्थापित हो गया । १७६४ ई० में वक्सर की लड़ाई के बाद उनकी सैनिक शक्ति और भी बढी । अवध और बिहार की दीवानी भी उनके हाथ में आ गई । इस प्रकार धीरे-धीरे उन्होने उत्तर भारत में अपने शासन की जड जमा ली । क्लाइव द्वारा स्थापित यह साम्राज्य देश के पूर्व प्रतिष्ठित साम्राज्यो से अनेकाश में भिन्न था। १७८७ ई० के वाद भारतवर्ष मे स्थापित ब्रिटिश आधिपत्य के सचालन का भार उन लोगो को सौपा जाने लगा, जिन्हें इस देश के सम्वन्ध में कुछ भी अनुभव ही था और जो इगलैड के शासक वर्ग के प्रतिनिधि थे । ये व्यक्ति वहाँ के मन्त्रि-मंडल द्वारा नियुक्त किये जाते थे । स्वभावत वे अपने देश में प्रचलित राजनैतिक विचार लेकर यहाँ आते थे । उन्होने भारत में स्थापित ब्रिटिश साम्राज्य का भारतीय प्रथा के अनुसार नही, वरन् 'बृहत्तर ब्रिटेन' की भावना से प्रेरित होकर शासन करना प्रारम्भ किया । इस नीति का अनुसरण कर और भारतीय नरेशो के सन्धि विग्रह में पडकर उन्होने भारतवर्ष में अँगरेज़ी साम्राज्य की नीव सुदृढ बना दी । ऐसे व्यक्तियो में लॉर्ड वेलेजली का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है । वे १७६८ ई० से १८०५ ई० तक गवर्नर-जनरल रहे । टीपू सुलतान, निज़ाम, फासीसियो और मरहठो को पराजित करने में उन्होने पूरी शक्ति लगा दी । उनके समय में कम्पनी की शक्ति भारतीय राजनैतिक गगन में सूर्य के समान चमक उठी । ' कम्पनी के राज्य में एक नवीन शासन प्रणाली और राजनीति का बीज बोया गया। भारतीय शासन व्यवस्था के इतिहास में यह एक युगान्तकारी घटना थी । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ ११२ कम्पनी की राजनैतिक सत्ता स्थापित करने मे तो वेलेजली तथा उनके पूर्ववर्ती शासको ने पूर्ण योग दिया था, किन्तु अभी तक कम्पनी के कर्मचारियो तथा उसके अपने शासन की ओर किसी ने ध्यान न दिया था। शुरू मे कम्पनी के कर्मचारियो की नियुक्ति डाइरेक्टरो के सम्बन्धियो में से होती थी। इन कर्मचारियो की सचाई और ईमानदारी में उन्हें पूरा-पूरा भरोसा रहता था। कोई काम बिगड जाने पर कर्मचारियो को केवल जुर्माना भर देना पड़ता था। नियुक्ति के समय केवल उनके व्यापारिक ज्ञान की परीक्षा ली जाती थी। परन्तु कुछ समय के वाद डाइरेक्टरो की नीति बदल गई। अब वे चौदह-पन्द्रह वर्ष के उन युवको को भारत भेजने लगे जो हिसाव लगाने में निपुण होते थे या अच्छी तरह पढ-लिख सकते थे। कर्मचारियो के भारतीय भाषाओ और आचार-विचार-सम्बन्धी ज्ञान की ओर भी उन्होने अधिक ध्यान न दिया। शिक्षा भी उनकी अपूर्ण रहती थी। कम्पनी के सचालको की यह नीति उस समय तक बनी रही जवतक कम्पनी प्रधान रूप से एक व्यापारिक सस्था मात्र थी। किन्तु इससे कर्मचारियो मे अनेक नैतिक और चारित्रिक दोष उत्पन्न हो गये, जिससे अंगरेज़ जाति की प्रतिष्ठा पर कलक का टीका लगने की आशका थी। शासन-सूत्र ग्रहण करते समय वेलेजली ने कर्मचारियो की शिक्षा, योग्यता, सदाचरण और अनुशासन की देख-रेख के प्रबन्ध के अभाव को साम्राज्य के हित के लिए घातक समझा। कम्पनी की उत्तरोत्तर बढती हुई राजनैतिक शक्ति के अनुरूप वे उन्हें चतुर और कूटनीतिज्ञ शासक बनाना चाहते थे। उन्हे कर्मचारियो की वणिक वृत्ति ब्रिटिश साम्राज्य की प्रतिष्ठा के सर्वथा विरुद्ध जंची। अतएव उन्होने उनके पाश्चात्य राजनीति एव ज्ञान-विज्ञान के साथ भारतीय इतिहास, रीति-रस्मो, कायदे-कानूनो और भाषाओ के ज्ञान की सगठित व्यवस्था के लिए १८०० ई० मे फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की। अन्य विषयो की शिक्षा व्यवस्था के साथ-साथ कॉलेज मे हिन्दुस्तानी भाषा तथा साहित्य के अध्ययन की आयोजना भी की गई। डॉ. जॉन वीर्यविक् गिलक्राइस्ट (१७५६-१८४१ ई०) हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष नियुक्त हुए। उनकी अध्यक्षता में अनेक मुशी और पडित रक्खे गये। यद्यपि वेलेजली की कॉलेज-सम्वन्धी वृहत् योजना कोर्ट के डाइरेक्टरो द्वारा, गवर्नर-जनरल की आर्थिक और राजनैतिक नीति से मतभेद होने के कारण अस्वीकृत ठहरी और २७ जनवरी, १८०२ ई० के पत्र में कॉलेज तोड देने की आज्ञा के बाद केवल 'वगाल सेमिनरी' (१८०५ के लगभग प्रारम्भ से) का सचालन होता रहा, तो भी भारतीय साहित्य और भाषाओ के इतिहास में कॉलेज का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कॉलेज की स्थापना राजनैतिक ध्येय को लेकर अवश्य हुई थी, किन्तु घुणाक्षर न्याय से भाषा, साहित्य, शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, नवीन विषयो के अध्ययन के सूत्रपात आदि की दृष्टि से भारतवासियो का हित-साधन ही हुआ। भाषा और साहित्य के क्षेत्र में, प्रेस की सहायता से, ऐसा सगठित प्रयास पूर्व समय में कभी न हुआ था। कॉलेज के कारण ही देश के विभिन्न भागो के विद्वान् वहां एकत्रित हुए और कलकत्ता एक प्रधान साहित्यिक केन्द्र बना। प्राचीन साहित्य और भाषाओ के पठन-पाठन के साथसाथ आधुनिक साहित्य और भाषाओ की उन्नति की ओर भी ध्यान दिया गया। कॉलेज के पाठ्यक्रम का यह द्वितीय पक्ष ही विशेष महत्त्वपूर्ण है। कॉलेज की स्थापना के पूर्व, अन्य अनेक यूरोपीय विद्वानो के अतिरिक्त, गिलक्राइस्ट भी हिन्दुस्तानी के पठनपाठन में सलग्न थे। १७८३ ई० में वे ईस्ट इडिया कम्पनी के सरक्षण में सहायक सर्जन नियुक्त होकर भारतवर्ष पाये थे। उस समय कम्पनी फारसी भाषा का प्रयोग करती थी, किन्तु गिलक्राइस्ट ने उसके स्थान पर हिन्दुस्तानी का चलन ही अधिक पाया। गवर्नर-जनरल की आज्ञा से तत्कालीन बनारस की जमीदारी में रहकर उन्होने हिन्दुस्तानी का अध्ययन भी किया और तत्पश्चात् अनेक ग्रन्थो की रचना की। कम्पनी के कर्मचारियो में उन्होने हिन्दुस्तानी का प्रचार किया। १७९८ ई० में जब वेलेजली कलकत्ता पहुंचे तो उन्होने गिलक्राइस्ट के परिश्रम की सराहना की और उनके अध्ययन से पूरा लाभ उठाना चाहा। उन्होने वैतनिक रूप से गिलक्राइस्ट तथा कुछ मुशियो को हिन्दुस्तानी और फारसी भाषामो की शिक्षा के लिए रक्खा। इस सस्था का नाम 'ऑरिएटल सेमिनरी' रक्खा गया। सरकारी Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फोर्ट विलियम कॉलेज और विलियम प्राइस ११३ आना के अनुसार गिलक्राइस्ट यहाँ का मासिक कार्य-विवरण ('जर्नल') सरकार के पास भेजते थे। कॉलेज की स्थापना के समय उन्हें हिन्दुस्तानी विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। हिन्दी साहित्य के अब तक लिखे गये इतिहानो में लल्लूलाल और उनके 'प्रेमसागर' के नाते गिलक्राइस्ट का हिन्दी गद्य के उन्नायक के रूप में नाम लिया जाता रहा है, किन्तु यदि हम उनके भाषा-सम्बन्धी विचारो का अध्ययन करें तो उनकी वास्तविक स्थिति का पता चलते देर न लगेगी। उन्होने अपने भाषा-सम्बन्धी विचार 'ऑरिएटल सेमिनरी' के 'जर्नल' के प्रथम विवरण तथा अपने ग्रन्यो में प्रकट किये है। गिलक्राइस्ट का हिन्दुस्तानी से उस भाषा से तात्पर्य था जिसके व्याकरण के सिद्धान्त, क्रिया-रूप आदि, तो हलहंड द्वारा कही जाने वाली विशुद्ध या मौलिक हिन्दुस्तानी ('प्योर और ओरिजिनल हिन्दुस्तानी') और स्वय उनके द्वारा कहीं जाने वाली 'हिन्दवी' या 'व्रजभाषा' के आधार पर स्थित थे, लेकिन जिसमें अरबी-फारसी के सज्ञा-गब्दो की भरमार रहती थी। इस भाषा को केवल वे ही हिन्दू और मुसलमान वोलते थे जो शिक्षित थे और जिनका सम्बन्ध राज-दरवारोमेथा,या जो सरकारी नौकर थे। लिखने में फारसी लिपि का प्रयोग किया जाता था। इसी हिन्दुस्तानी को उन्होंने हिन्दी', 'उर्दू, उर्दुवी' और 'रेख्ता' भी कहा है। 'हिन्दी के शब्दार्थ की दृष्टि से इस शब्द का प्रयोग उचित है। लल्लूलाल की भाषा हिन्दी नहीं, हिन्दवी' थी। 'हिन्दी' के स्थान पर 'हिन्दुस्तानी' शब्द उन्होने इसलिए पसन्द किया कि 'हिन्दुवी', 'हिन्दुई' या 'हिन्दवी' और 'हिन्दी' शब्दो से, जो बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं, कोई गडवडी पैदा न हो नके। यह 'हिन्दवी भाषा केवल हिन्दुओ की भाषा थी। मुसलमानी आक्रमण से पहले यही भाषा देश में प्रचलित थी। गिलक्राइस्टने 'हिन्दवी' और 'हिन्दुस्तानी का यह भेद करतीन प्रचलित शैलियाँ निर्धारित की-(१) दरवारी या फ़ारसी शैली, (२) हिन्दुस्तानी शैली और (३) हिन्दवी शैली। पहली शैली दुरुह, अतएव अग्राह्य थी। तीमरी शैली गॅवारू थी। इसलिए उनको दूसरी शैली पसन्द आई। इस शैली में दक्षता प्राप्त करने के लिए फारसी भापा और लिपि का ज्ञान अनिवार्य था। मीर, दर्द, सौदा आदि कवियो ने यही शैली ग्रहण की थी। हिन्दुस्तानी में पारिभाषिक शब्दावली भी इस प्रकार रक्खी गई, जैसे, इस्तिसार', 'इतिखाब', 'मफूल', 'सिफ़त', 'हर्फ जर्फ़', 'जर्फी जमान', 'जर्फी मुकान' आदि । वाक्य-विन्यास भी बहुत-कुछ फारसी का ही अपनाया गया। गिलक्राइस्ट के विचारो तथा अपने ग्रन्यो में दिये गये हिन्दुस्तानी भाषा के उदाहरणो' का अध्ययन करने पर हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हिन्दुस्तानी से गिलक्राइस्ट का तात्पर्य था हिन्दवी+अरवी+फारसी-हिन्दुस्तानी इमी भाषा को मुनीति वावू ने 'मुसलमानी हिन्दी' अथवा 'उर्दू' कहा है। लिपियो में देवनागरी लिपि को गिलक्राइस्ट ने अवन्य प्रश्रय दिया, किन्तु इससे भाषा के रूप और उसकी सास्कृतिक पीठिका में कोई अन्तर नहीं पड़ता। वस्तुत. उनके विचारो तथा व्यवहार में प्रयुक्त भाषा से उर्दू गद्य की उन्नति हुई, न कि हिन्दी गद्य की ।' लल्लूलाल कृत 'प्रेमसागर', सदल मित्र कृत 'नासिकेतोपाख्यान' तथा इन ग्रन्यो के अनुरूप भापा के प्राप्त अन्य स्फुट उदाहरणो का मुख्य प्रयोजन सिविलियन विद्यार्थियो को हिन्दुस्तानी की आधारभूत भाषा ('हिन्दवी') से परिचित कराना था। 'प्रेममागर', 'नासिकेतोपाख्यान' आदि रचनाओ ने हिन्दुस्तानी के ज्ञानोपार्जन में गारे-चूने का काम दिया। गिलक्राइस्ट के समय में तथा उनके वाद 'हिन्दुस्तानी' में प्रकाशित ग्रन्यो की संख्या ही अधिक है। हिन्दी (आधुनिक अर्थ मे) अथवा 'हिन्दवी' में रचे गये ग्रन्यो में प्रेमसागर', 'राजनीति' और 'नासिकेतोपाख्यान' का ही नाम लिया जा सकता है। 'नासिकेतोपाख्यान' तो कभी पाठ्य-क्रम में भी नहीं रखा गया। ये तथ्य भी हमारे कथन की पुष्टि करते है। 'देखिए, 'हिन्दुस्तानी', भाग १०, अंक ४, अक्टूबर १९४० में 'गिलक्राइस्ट और हिन्दी' शीर्षक लेख । 'गिलक्राइस्ट कृत "दि ओरिएंटल लिग्विस्ट' (१८०२ स०) भूमिका, पृ० १ ।। 'एडवर्ड वालफर : 'दि इन्साइक्लोपीडिया ऑव इडिया' (१८८५ ई०), जिल्द १, पृ० १२०३ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ ११४ किन्तु कॉलेज की यह भाषा-सम्बन्धी व्यवस्था कुछ वर्षों के बाद न चल सकी। इस समय तक अंगरेजी राज्य का विस्तार पूर्ण रूप से हिन्दी प्रदेश तक हो चुका था। फलत कॉलेज की भाषा-सम्बन्धी नीति में भी परिवर्तन होना अनिवार्य था। शासन के सुचारु रूप से चलने के लिए अधिकारियो को इधर ध्यान देना ही पडा। कॉलेज के २५ जुलाई, १८१५ ई० के वार्षिकोत्सव के दिन ऑन० एन० बी० एडमॉन्सटन, ऐक्टिग विजिटर, ने अध्यापको तथा अन्य उपस्थित व्यक्तियो का ध्यान इस ओर आकर्षित किया था। तत्कालीन पश्चिम प्रदेश से आने वाले भारतीय सैनिक अधिकाश में व्रजभाषा अथवा हिन्दी (आधुनिक अर्थ मे) भाषा का प्रयोग करते थे। इसलिए १८१५ ई० के बाद कॉलेज मे ब्रजभाषा की ओर अधिक ध्यान दिया जाने लगा, किन्तु इससे व्रजभापा अथवा हिन्दी गद्य के नये ग्रन्थो का निर्माण न हो सका और साथ ही कॉलेज मे हिन्दुस्तानी की प्रधानता बनी रही। यह व्यवस्था हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष जे० डब्ल्यू. टेलर के समय तक विद्यमान थी। २३ मई, १८२३ ई० के सरकारी आज्ञापत्र के अनुसार टेलर ने कॉलेज के कार्य से अवकाश गहण किया, क्योकि उस समय वे लेफ्टिनेंट कर्नल हो गये थे और सैनिक कार्य से उन्हें छुट्टी नही मिल पाती थी। इसलिए सपरिषद् गवर्नर जनरल ने उसी आज्ञापत्र के अनुसार कैप्टेन (वाद को मेजर) विलियम प्राइस को हिन्दुस्तानी विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया। विलियम प्राइस महोदय का सम्बन्ध नेटिव इन्फैट्री के बीसवे रेजीमेंट से था। १८१५ ई० से (उस समय वे केवल लेफ्टिनेट थे) अब तक वे व्रजभाषा, बंगला और सस्कृत के सहायक अध्यापक और हिन्दुस्तानी, फारसी आदि भाषाओ के परीक्षक की हैसियत से कॉलेज में कार्य कर रहे थे। जहाँ तक हिन्दी (आधुनिक अर्थ में) से सम्बन्ध है विलियम प्राइस का विशेष महत्त्व है, क्योकि इन्ही के समय में कॉलेज में हिन्दुस्तानी के स्थान पर हिन्दी का अध्ययन हुआ। कॉलेज के पत्रो मे 'हिन्दी' शब्द का प्राधुनिक अर्थ में प्रयोग प्रधानत प्राइस के समय (१८२४-२५ ई० के लगभग) से ही मिलता है। हिन्दुस्तानी विभाग भी अव केवल हिन्दी विभाग अथवा हिन्दी-हिन्दुस्तानी विभाग और प्राइस, हिन्दी प्रोफेसर अथवा हिन्दी-हिन्दुस्तानी प्रोफेसर कहलाये जाने लगे थे। विलियम प्राइस के अध्यक्ष होने के बाद ही २४ सितम्बर, १८२४ ई० को कॉलेज कौंसिल के मन्त्री रडेल ने सरकारी मन्त्री सी० लशिंगटन को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होने निम्नलिखित विचार प्रकट किये "हिन्दुस्तानी, जिस रूप में कॉलेज में पढ़ाई जाती है और जिसे उर्दू, दिल्ली जबान प्रादि या दिल्ली-दरबार की भाषा के नामो से पुकारा जाता है, समस्त भारतवर्ष में उच्च श्रेणी के देशी लोगो, विशेष रूप से मुसलमानो, द्वारा बोलचाल की भाषा के रूप में प्रयुक्त होती है। लेकिन क्योकि मुरालो ने इसे जन्म दिया था, इसलिए इसकी मूल स्रोत अरवी, फारसी तथा अन्य उत्तर-पश्चिमी भाषाएँ है। अधिकाश हिन्दू अब भी उसे एक विदेशी भाषा समझते है । "फारसी और अरबी से घनिष्ट सम्बन्ध होने के कारण यह स्पष्ट है कि प्राय प्रत्येक विद्यार्थी कॉलेज में विद्याध्ययन की अवधि कम करने की दृष्टि से फारसी और हिन्दुस्तानी भाषाएँ ले लेते है । फारसी के साधारण ज्ञान से वे शीघ्र ही हिन्दुस्तानी में आवश्यक दक्षता प्राप्त करने योग्य हो जाते है। किन्तु भारत की कम-से-कम तीन-चौथाई जनता के लिए उनको अरबी-फारसी शब्दावली उतनी ही दुरुह सिद्ध होती है जितनी स्वय उनके लिए सस्कृत, जो समस्त हिन्दू वोलियों की जननी है। ___साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि सस्कृत का एक विद्वान् हिन्दुओं में प्रचलित विभिन्न बोलियो के प्रत्येक शब्द की उत्पत्ति मूल संस्कृत स्रोत से सिद्ध कर सकता है। बंगला और उडिया लिपियो के अतिरिक्त उनकी लिपि भी नागरी है। व्याकरण के सिद्धान्त (शब्दो के रूप प्रादि) भी बहुत-कुछ समान है। अन्य भाषाम्रो का अध्ययन करने वाले व्यक्ति को अपेक्षा सस्कृत का साधारण ज्ञान-प्राप्त व्यक्ति इन भाषाम्रो पर अधिक अधिकार प्राप्त कर सकता है। x 'देखिए, 'एशियाटिक जर्नल', १८१६, में 'कॉलेज प्रॉव फोर्ट विलियम' शीर्षक विवरण । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फोर्ट विलियम कॉलेज और विलियम प्राइस ११५ "हमारा विश्वास है कि बंगला और उडिया अपने मूल उद्गम के अधिक समीप है। किन्तु खडीबोली, ठेठ हिन्दी, हिन्दुई आदि विभिन्न नामो से प्रचलित 'व्रजभाखा' का सामान्यतः समस्त भारतवर्ष में प्रचार है--विशेष रूप से जयपुर, उदयपुर और कोटा की राजपूत जातियो में। इसके अतिरिक्त यह उस श्रेणी के सब हिन्दुओ की भाषा है जहाँ से हमारी तथा अन्य देशी सेनाओ के सैनिक पाते है।" ___ कॉलेज कौंसिल ने सपरिषद् गवर्नर-जनरल से प्रार्थना की कि हिन्दुस्तानी भाषा के स्थान पर फारसी के अतिरिक्त बंगला अथवा 'व्रजभाखा' (जिसे ठेठ हिन्दी और हिन्दुई भी कहा जाता था) के पठन-पाठन के लिए कॉलेज के विधान में आवश्यक परिवर्तन किये जायें । सरकारी मन्त्री लशिंगटन ने ३० सितम्बर, १८२४ ई० के पत्र द्वारा गवर्नर-जनरल की स्वीकृति भेज दी। इस पत्र के अनुसार कौंसिल ने कॉलेज के विधान का नवीन-सातवाँ -परिच्छेद गवर्नर-जनरल के सम्मुख प्रस्तुत किया और साथ ही हर्टफोर्ड मे विद्यार्थियो को नागरी लिपि और हिन्दी तथा बंगला की शिक्षा देने के सम्बन्ध में कोर्ट को पत्र लिखने की प्रार्थना की। २८ अक्तूबर, १८२४ ई० को गवर्नरजनरल ने कॉलेज के नव-विधान पर अपनी स्वीकृति दे दी और कोर्ट को पत्र लिखने का वचन दिया। कॉलेज कौसिल ने नव-विधान के साथ विलियम प्राइस का लिखा एक पत्र भी भेजा था, जिसमें उन्होने अपने भापा-सम्वन्धी विचार प्रकट किये है । उनके और गिलक्राइस्ट के विचारोमें स्पष्ट अन्तर है। विलियम प्राइस का कहना है "उत्तरी प्रान्तों की भाषाओ को आपस में एक दूसरी से भिन्न समझी जाने और एक ही मूल रुप के विभिन्न रूप न समझे जाने के कारण उनके सम्बन्ध में बडी उलझन पैदा हो गई है। उन सब का विन्यास एक-सा है, यद्यपि उनमें कभी-कभी शब्द-वैभिन्य मिल जायगा। "यदि यह मान लिया जाय कि गगा की घाटी के हिन्दुस्तान की वोलचाल की भाषा और संस्कृत के सम्बन्ध पर विचार करने का समय अव नहीं रहा, तो आधुनिक भाषाओं का स्वतन्त्र व्याकरण कव वना ? आधुनिक भाषाओं के स्वतन्त्र व्याकरण के कारण सस्कृत और हिन्दी के विभिन्न रूपों के मुख्य-मुख्य भेद है। यद्यपि कुछ शब्दो के सन्तोषजनक सस्कृत रूप ज्ञात नहीं किये जा सकते, तो भी ऐसे शब्दो की संख्या बहुत कम है। अधिक अध्ययन करने पर ऐसे शब्दो की संख्या और भी कम रह जायगी। इतना तो निस्सन्देह है, किन्तु सहायक क्रिया होना' संस्कृत धातु 'भू' से निकली है, यह मानना कठिन है। "साथ ही ऐसे उदाहरण भी मिलते है कि क्रिया सस्कृत है, किन्तु सामान्य रूप को छोड कर उसकी विभक्तियाँ सस्कृत से नहीं मिलती। क्रियाओ के रूप और कारक-चिन्ह भी सामान्यत. बिलकुल अजीव है। वर्तमान काल और भूत-कृदन्त के साथ सहायक क्रिया का प्रयोग और पर-सर्ग लगा कर सज्ञानों के काल वनाना सस्कृत भाषा के सिद्धान्तो के विरुद्ध है। मूल रूप चाहे जो कुछ रहा हो, अव एक स्वतन्त्र हिन्दी व्याकरण है जो एक ओर तो अपने प्रदेश की मूल भाषा के व्याकरण से भिन्न है और दूसरी ओर सस्कृत से निकली भाषाओ, जैसे, बंगला और मराठी, से भिन्न है। इसलिए उस भाषा का स्वतन्त्र अस्तित्व मानने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती, जिसे हम सरलता-पूर्वक 'हिन्दी' नाम से पुकार सकते है, यद्यपि हिन्दुई-अपभ्रश हिन्दवी-शब्द अधिक उपयुक्त होता। ___ "विदेशी शब्दो के प्रचार ने हिन्दी का कुछ ऐसा रूप-परिवर्तन कर दिया है कि उसकी कुछ बोलियां एक-दूसरी से विलकुल भिन्न प्रतीत होती है। उर्दू के बडे-बड़े विद्वान् तो 'व्रजभाखा' का एक वाक्य भी नहीं पढ़ सकते । पण्डित या मुंशी और मुसलमान शहजादा या हिन्दू जमींदार के पारस्परिक सम्पर्क से बोलियां आपस में और घुल-मिल गई 'प्रोसीडिंग्ज प्राव दि कॉलेज ऑव फोर्ट विलियम, १५ दिसम्बर, १८२४, होम डिपार्टमेंट, मिसलेनियस, जिल्द ६, पृ० ४६६-४६७, इम्पीरियल रेकॉर्ड्स डिपार्टमेंट, नई दिल्ली।। वही, पृ० ५०१-५०३ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ है। इस पर भी प्राचीन और सञ्चित प्रान्तीय प्रवृत्तियों आदि ने इन परिवर्तनो को और भी वढा कर हिन्दी भाषा को अनन्त रूप प्रदान किये है। किन्तु इन विभिन्न रूपो का व्याकरण अपरिवर्तित रहा है। हिन्दी प्रधानत रही एक ही भाषा है। क्लिष्ट से क्लिष्ट उर्दू और सरल से सरल भाषा का विन्यास लगभग एक-सा है। उर्दू और भाषा के क्रमश 'का', 'की' और 'को', 'के 'की' सम्बन्ध कारक चिन्हों में कोई बहुत अधिक अन्तर नहीं है । भाषा का 'मै मारयो जातु हूँ' उर्दू के 'मै मारा जाता हूँ' के लगभग समान ही है। ___ व्रजभाषा और उर्दू का जो थोडा-सा भेद अभी दिखाया गया है वह केवल प्रादेशिकता मात्र है । अन्य वोलियो में ऐसी अन्य प्रादेशिकताएँ हो सकती है। किन्तु वे अस्थिर है और उनका महत्त्व भी विशेष नहीं है। वोलियों का प्रयोग भी कम हुआ है। उनका प्रचार अवश्य अधिक होने से वे हिन्दी के ही निकट है, जैसा कि हिन्दुस्तानी के सम्बन्ध में है। यह बात खडीबोली के विषय में भी लागू होती है। खडीबोली ही, न कि 'व्रजभाखा', जैसा कि डॉ. गिलक्राइस्ट का कहना है, हिन्दुस्तानी का आधार है, उसी के अनुरूप हिन्दुस्तानी का व्याकरण है। "अतएव प्रादेशिकता के अतिरिक्त अन्य समानान्तर विषयो की ओर विद्यार्थियो का ध्यान आकृष्ट किया जा सकता है। कॉलेज में जो भाषाएँ पढाई जाती है उनके व्याकरण में किसी प्रकार के परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। हाँ, अन्य दृष्टि से कुछ परिवर्तन आवश्यक है। __ "हिन्दी और हिन्दुस्तानी में सबसे बडा अन्तर शब्दो का है। हिन्दी के लगभग सभी शब्द संस्कृत के है। हिन्दुस्तानी के अधिकाश शब्द अरबी और फारसी के है । इस सम्बन्ध में डॉ० गिलक्राइस्ट कृत 'पॉलीग्लौट फैन्यूलिस्ट' से एक छोटा-सा उदाहरण लेकर हम सन्तोष कर सकते है __"हिन्दुस्तानी-"एक बार, किसी शहर में, यूं शुहरत हुई, कि उसके नजदीक के पहाड़ को जनने का दर्द उठा।" "हिन्दी-"एक समय, किसी नगर में, चर्चा फैली, कि उसके पडौस के पहाड को जनने का दर्द उठा।" "दोनो के शब्द कहां से लिये गये है, इस सम्बन्ध में बताने की कोई आवश्यकता नहीं है । दोनो के रूप को विगाडे बिना अन्तर और भी अधिक हो सकता था। "हिन्दी के सम्बन्ध में एक और महत्त्वपूर्ण विषय यह है कि वह नागरी अक्षरो में लिखी जानी चाहिए। सस्कृत-प्रधान रचना जव फारसी लिपि में लिखी जाती है तो शब्द कठिनता से वोधगम्य होते है। कॉलेज के पुस्तकालय में एक ऐसे हिन्दी काव्य, पद्मावत, की दो प्रतियाँ है जिनके पढ़ने में मेरा और भाषा मुशी का निरन्तर परिश्रम व्यर्थ गया है। "नई लिपि और नये शब्द सीखने में विद्यार्थियो को कठिनाई होगी। किन्तु इससे उनके ज्ञान की वास्तविक वृद्धि होगी। उनका हिन्दुस्तानी ज्ञान थोडे परिवर्तन के साथ फारसी-ज्ञान के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इससे वे न तो भाषा और न देश के विचारों के साथ ही परिचित हो पाते है। हिन्दी के अध्ययन में भी इससे कोई महायता नहीं मिलती। किन्तु हिन्दी के साथ-साथ फारसी-जान से विद्यार्थी हिन्दुस्तानी रचनाएँ सरलतापूर्वक पढ सकेंगे एव हिन्दुओ और उनके विचारो से परिचय प्राप्त करने में भी कोई कठिनाई न होगी।" विलियम प्राइस के विचारो तथा कॉलेज की पूर्ववर्ती भाषा-सम्बन्धी नीति में स्पष्ट अन्तर है। जहाँ तक हिन्दी-हिन्दुस्तानी के आधार से सम्बन्ध है, दोनो में कोई अन्तर नही है। किन्तु आगे चलकर दोनो ने दो भिन्न मार्गों का अवलम्वन ग्रहण किया। राजनैतिक कारणो से खडीबोली का प्रचार समस्त उत्तर भारत में हो चुका था । टीपू सुलतान इसे दक्षिण में भी ले गया था। अरबी-फारसी शिक्षित हिन्दू और मुसलमानो अथवा मुस्लिम राजदरबारो 'प्रोसीडिंग्ज प्राव दि कॉलेज ऑव फोर्ट विलियम, १५ दिसम्बर, १८२४, होम डिपार्टमेंट, मिसलेनियस, जिल्द ६, पृ० ५०३-५०६, इम्पीरियल रेकॉर्ड्स डिपार्टमेंट, नई दिल्ली। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फोर्ट विलियम कॉलेज और विलियम प्राइस ११७ से सम्वन्ध रखने वाले व्यक्तियो में फारसी-ज्ञान का प्रचार स्वय स्पष्ट है। इसलिए उनमे खडीबोली के अरबी-फारसी रूप का प्रचार होना कोई आश्चर्यजनक विषय नही है । अंगरेज़ो का सर्वप्रथम सम्पर्क ऐसे ही व्यक्तियो से स्थापित हुआ था। अत हिन्दुस्तानी (उर्दू अथवा खडीवोली के अरबी-फारसी रूप) को प्रश्रय देना उनके लिए स्वाभाविक ही था। प्रारम्भ में हिन्दी-प्रदेश से उनका अधिक घनिष्ट सम्बन्ध स्थापित न हो सका था, किन्तु ज्यो-ज्यो यह सम्बन्ध घनिष्ट होता गया त्यो त्यो उन्हें भाषा-सम्बन्धी वस्तुस्थिति का पता भी चलता गया और एक समय ऐसा आया जब उन्हें वास्तविक परिस्थिति की दृष्टि से भाषा-नीति में परिवर्तन करना पडा। गवर्नर-जनरल और कॉलेज के विजिटर राइट ऑनेबुल विलियम पिट, लॉर्ड ऐम्हर्स्ट, ने भी अपने १८२५ ई० के दीक्षान्त भाषण मे विलियम प्राइस के विचारो का पूर्ण समर्थन किया था। उनके विचारानुसार भी फारसी और उर्दू जनसाधारण के लिए उतनी ही विदेशी भाषाएँ थी जितनी अंगरेजी। इसलिए उन्होने पश्चिमी प्रान्तो की ओर जाने वाले सरकारी कर्मचारियो को हिन्दी का ज्ञान प्राप्त करने के लिए साग्रह आदेश दिया था।' इस नई भाषा-व्यवस्था के अनुसार कॉलेज के पुराने मुशियो से कार्य सिद्ध न हो सकता था। इन मुशियो के निकट हिन्दी और नागरी लिपि दोनो ही विदेशी वस्तुएँ थी। पहले कुछ सैनिक विद्यार्थी ऐसे अवश्य थे जो व्रजभाषा का अध्ययन करते थे। उनके लिए हिन्दू अध्यापक रक्खे भी गये थे, किन्तु नैपाल-युद्ध के छिडते ही उन विद्यार्थियो को सैनिक कार्य के कारण कॉलेज छोड देना पडा। फलस्वरूप अध्यापक भी इधर-उधर चले गये । अब कॉलेज के अधिकारियो को फिर हिन्दी-ज्ञान-प्राप्त अध्यापको की आवश्यकता हुई और साथ ही नवीन पाठ्य पुस्तको की भी। किन्तु इन दोनो विषयो के सम्बन्ध में विलियम प्राइस कोई नवीनता प्रदर्शित न कर सके। जो मुशी पहले से अध्यापनकार्य कर रहे थे उन्ही से हिन्दी भाषा और नागरी लिपि के ज्ञान की आशा की गई। इसके लिए उन्हें समय दिया गया और अन्त में परीक्षा ली गई। इस परीक्षा में लगभग सभी मुशी असफल रहे । जो सफल हुए उन्हें हिन्दी के अध्यापनकार्य के लिए रख लिया गया। शेष को यह चेतावनी देकर कुछ और समय दिया गया कि यदि निश्चित समय में वे हिन्दी-परीक्षा में उत्तीर्ण न हो सकेंगे तो उनके स्थान पर अन्य सुयोग्य व्यक्ति रख लिये जायंगे। भविष्य में हुआ भी ऐसा ही। अनेक पुराने मुशियो के स्थान पर नये अध्यापक रक्खे गये। पाठ्य पुस्तको के सम्बन्ध में उन्होने लल्लूलाल के ग्रन्यो तथा 'रामायण', बिहारी कृत 'सतसई' आदि पर निर्भर रहना ही उचित समझा । हिन्दी गद्य में वे नये ग्रन्थो का निर्माण न कर सके और न करा सके। . तो भी विलियम प्राइस की अध्यक्षता में भाषा के स्वरूप में परिवर्तन अवश्य हुआ। गिलक्राइस्ट की अध्यक्षता 1 प्रयुक्त भाषा से तुलना करने पर यह भेद स्पष्ट ज्ञात हो जायगा। निम्नलिखित उद्धरण गिलक्राइस्ट कृत 'दि प्रॉरिएटल लिंग्विस्ट' के १८०२ ई० के सस्करण से लिया गया है वाद अजान काजी मुफ्ती से पूछा, कहो अब इसकी क्या सजा है, उन्होंने अर्ज की, कि अगर इबरत के वास्ते ऐसा शख्स कत्ल किया जावे, तो दुरुस्त है। तब उसे कत्ल किया और उसके बेटे को उसकी जगह सर्फराज फर्माया, शहर-शहर के हाकिम इस अदालत का आवाज सुनकर जहां के तहाँ सरी हिसाब हो गये " गिलक्राइस्ट के शिष्य विलियम बटवर्थ बेली ने कॉलेज के नियमानुसार होने वाले वार्षिक वाद-विवाद मे ६ फरवरी, १८०२ ई० को 'हिन्दुस्तानी' पर एक दावा पढा था, जिसकी भाषा इस प्रकार है _ "अरब के सौदागरो की प्रामव ओरफ्त से और मुसलमानों को अकसर यूरिश और हुकूमति कामी के बाइस अलफाजि अरबी और फारसी उसी पुरानी बोली में बहुत मिल गये और ऐक जबान नई बन गई जैसे कि बुनियादि कदीम पर तामीरि नौ होवे।" 'दे० 'एशियाटिक जर्नल', १८२६, में 'कॉलेज ऑव फोर्ट विलियम' शीर्षक विवरण । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी - श्रभिनदन- प्रथ केवल लिपि नागरी है । किन्तु इससे हमारे कथन में कोई अन्तर नही पडता । इसके पश्चात्, जनवरी, १८१० में लल्लूलाल ने अपनी 'नक्लियात इ-हिन्दी' नामक रचना के सम्वन्ध में कॉलेज कौंसिल के पास एक प्रार्थनापत्र भेजा था, जो फारसी भाषा और लिपि में है ११८ "खुदावन्दान नैमतदाम इक़बाल अहम न लियात - इ - हिन्दी तसनीफ फिदवी वजवान रेखता मतजमन अकसर जरूब अल मिसाल व दोहा व लतायफ ओ नत्रात नक्लियात मरकूमत उल सदर वर प्रवुर्दा व तर्जुमा करदा जॉन विलियम टेलर व कप्तान इब्राहम लोकेट साहेव बजबान अँगरेजी अस्वल हुकुम साहिब मुदरंस जह ता साहवान-इमुसल्लमीन मुब्तदी मुन्तवह मेकर्दद व नक्लियात मजकूरा तबकती हुर्द ज्यादा अफताव दौलत तावाँ व दरख्शवाद श्ररजी फिदवी श्रीलाल कवि 12 सम्भव है विलियम प्राइस से पूर्व लिखे गये हिन्दी के उदाहरण मिलें, किन्तु उनका वही महत्त्व और मूल्य होगा जो हिन्दुस्तानी की प्रायोजना तथा हिन्दुस्तानी के अनेकानेक प्रकाशित ग्रन्थो के वीच 'प्रेमसागर', 'राजनीति' श्रीर 'नासिकेतोपाख्यान' का था—श्रर्थात् हिन्दुस्तानी (उर्दू) की श्राधारभूत भाषा का ज्ञान कराने की दृष्टि से । हमारे पथ-प्रदर्शक तो प्रधानत गिलक्राइस्ट के भाषा सम्वन्धी विचार होने चाहिए। अपने विचारो को ही उन्होने कार्यान्वित किया था । अव विलियम प्राइस की अध्यक्षता में भाषा के जिस रूप का प्रयोग हुआ वह ध्यान देने योग्य है । १५ जनवरी, १८२५ ई० की बैठक में कॉलेज कौंसिल ने ग्रन्थ- प्रकाशन के सम्बन्ध में भेजे जाने वाले प्रार्थना-पत्रो के लिए कुछ नियम बनाये थे । कॉलेज कौंसिल की आज्ञा से ये नियम फारसी, हिन्दी, बँगला और अँगरेज़ी में सव के सूचनार्थं प्रकाशित हुए थे । हिन्दी मे नागरी लिपि का प्रयोग हुआ है । सूचना इस प्रकार है " इस्तहार यह दिया जाता है कि जो कोई पोथी छपाने के लिए कालिज कौनसल से सहाय चाहता हो वह अपनी दरखास में यह लिखे १ कि पोयी में केत्ता पत्रा और पत्रे में कित्ती श्री पाति कित्ती लबी २ कितनी पोथिया छापेगा श्रौ कागद कैसा तिस लिए श्रक्षर और कागद का नमूना लावेगा ३ प्रो किस छापखाना में छापेगा श्रौ सव छप जाने में कित्ता खरच लगेगा ४ तयार हुए पर पोयी कित्ते दाम को वैगा ।"" अव्यवस्थित वाक्य-सगठन होते हुए भी यह हिन्दी है । उन्नीसवी शताब्दी पूर्वार्द्ध के गद्य से यह गद्य अधिक भिन्न नही है । गिलक्राइस्टी भाषा में शब्दावली ही नही वरन् वाक्य विन्यास भी विदेशी है । १८२५ ई० के उदाहरण में हम यह वात नही पाते। इसी प्रकार एक और उदाहरण प्राप्त है जो कॉलेज की परिवर्तित भाषा-नीति की थोर सकेत करता है । लल्लूलाल ने अपने ग्रन्थ 'नक्लियात - इ - हिन्दी' के लिए फारसी मे प्रार्थना पत्र लिखा था । जुलाई १८४१ ई० में गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज के पडित योगध्यान मिश्र 'प्रेमसागर' का एक नया सस्करण प्रकाशित करने के लिए सरकारी सहायता चाहते थे । उनका प्रार्थना-पत्र इस प्रकार है - 'प्रोसोडिग्ज नॉव दि कॉलेज ऑॉव फोर्ट विलियम, १ फरवरी, १८१०, होम डिपार्टमेंट, मिसलेनियस, जिल्द २, पृ० १८२, इम्पीरियल रेकॉर्ड्स डिपार्टमेंट, नई दिल्ली । 'प्रोसीडिंग्ज ऑॉय दि कॉलेज प्रॉव फोर्ट विलियम, १५ जनवरी, १८२५, होम डिपार्टमेंट, मिसलेनियस, जिल्द १०, पृ० ३१, इम्पीरियल रेकॉर्ड्स डिपार्टमेंट, नई दिल्ली । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फोर्ट विलियम कॉलेज और विलियम प्राइस "स्वस्ति श्रीयुत फोर्ट उलियम कालिज के नायक सकलगुणनिधान भागवान कपतान श्री मार्सल साहव के निकट मुज दीन की प्रार्थना f ११६ मैंने सुना कि कालिज में प्रेमसागर की अल्पता है इस कारण में छपवाने की इच्छा करता हु और मेरे यहां छापे का यन्त्र श्री उत्तम अक्षर नये (?) ढाले प्रस्तुत है इसलिए मैं चाहता हू कि जो मुझे आपकी आज्ञा होय तो में वही पुस्तक उत्तम विलायती कागज पर अच्छी श्याही से आपकी अनुमति के अनुसार छपवा दूं परंतु वह पुस्तक चार पेंची फरमें से अनुमान २६० दो सौ साठ पृष्ठ होगी जो ६) छ रुपैयो के लेखे २०० दो सौ पुस्तक श्राप लेवें तो छापे के व्यय का निर्वाह हो सके ॥ ॥ ॥ इति किमधिक ॥ ता० १ जुलाई श्री योगध्यान मिश्र ॥ " " स० १८४१ । यह लेख उन्नीसवी शताब्दी पूर्वार्द्ध के हिन्दी गद्य का एक उत्कृष्ट उदाहरण समझा जा सकता है । विलियम प्राइस दिसम्बर, १८३१ ई० में पद त्याग कर यूरोप चले गये थे । उनके वाद हिन्दी हिन्दुस्तानी विभाग का अध्यक्ष भी कोई नही हुआ । श्रतएव योगध्यान मिश्र का लेख उनसे दस वर्ष बाद का और उनकी भाषा नीति के निश्चित परिणाम का द्योतक है । प्रयाग ] यद्यपि विलियम प्राइस हमे कोई नया गद्य-ग्रन्थ न दे सके तो भी उनके विचारो ने कॉलेज की भाषा नीति में जो परिवर्तन किया वह गिलक्राइस्ट के विचारो की भ्रमात्मकता सिद्ध करने एव वर्तमान भाषा सम्वन्धी गुत्थी के सुलझाने की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण है । २४ जनवरी, १८५४ के सरकारी आज्ञा-पत्र के अनुसार कॉलेज तोड दिया गया । 'प्रोसीडिंग्ज नॉव दि कॉलेज प्रॉव फोर्ट विलियम, १८ नवम्बर, १८३७ - ३० अक्तूबर, १८४१, होम डिपार्टमेंट, मिसलेनियस जिल्व १६, पृ० ६०५, इम्पीरियल रेकॉर्ड्स डिपार्टमेंट, नई दिल्ली । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव और मैं श्री उदयशकर भट्ट तिमिर में, प्रलय में, न तूफान में भी कदम ये रुके है, न रुक पायेंगे ही। . जगत् की सुबह से चला चल पडा मैं, अडी चोटियां पर न पीछे मुडा मै, न मै रुक सका बादलों की घटा में , चला आ रहा हूँ, न पीछे हटा मै। अड़ी थीं शिलाएँ, खडी झाडियां थीं, नदी थी तरगित, उधर खाडियां थीं, उफनती हुई पार करता सरित् को, चमकती हुई प्यार करता तडित् को, गगन चूमती औं उछलती लहर को, लिया वांध दिन-रात को, पल-प्रहर को, कदम से कदम बांध कर साथ मेरे, चली मृत्यु दिन-रात, साय-सबेरे । प्रगति रोक दे जो भला कौन ऐसा?--अडें विघ्न उनको निगल जायेंगे ही। जिघर में चला, बन गई राह मेरी, जहाँ हाथ रक्खा, वहीं चाह मेरी, चला पा रहा आस दिल में छिपाये,, किरण ने उतर कर नये पथ बनाये , इघर एक मेरा बहुत बन गया जब, अंधेरा उषा में मिला हंस गया जब , सभी सृष्टि के साज़ मैने सजाये, उदधि ने गरज जीत के गीत गाये, लिए एक कर सृष्टि-सहार पाया, लिये दूसरे सृष्टि व्यापार आया, सचाई मिली प्यार में मोड़ डाला, अहकार को शक्ति मे जोड डाला , सभी खूद अभिशाप आगे चला मै, स्वय गर्व की आग में हूँ जला मै। न फिर भी हटे पैर पीछे हमारे-चले थे, चले है, चले जायंगे ही। लगी आज प्रासाद में आग मेरे, विरोधी हुए आज अनुराग मेरे, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव और मैं १२१ स्वय बन्धनो में बंधा मै व्यथा के, बदल भी गये रूप जीवन-कथा के, चला मै बुरे पन्थ पर, नेक पथ पर , प्रयोगी वना किन्तु बैठा न 'अर्थ' पर , चलूंगा भले ही बुरा मार्ग ही हो, चलूंगा भले ही भला मार्ग ही हो, मिलेगी बुराई उसे त्याग दूंगा, मिलेगी भलाई उसे भाग लूंगा , कहो मत कि ठहरूं, ठहरना नहीं है। चलूंगा उधर देर भी हो रही है, उछलता, उमडता तथा तोडता मै , नई सांस ले, स्वर नये जोडता मैं। कि हर भूल से है जुड़ा सत्य का पथ, रुकेंगे नहीं, लक्ष्य को पायेंगे ही। न मैं चाहता मुक्ति को प्राप्त करना , न मैं चाहता व्यक्ति-स्वातन्त्र्य हरना, सभी विश्व मेरा, सभी प्राण मेरे। चलूंगा सभी विश्व को साथ घेरे , सभी स्वप्न है देखते एक मजिल , सभी जागरण में निहित एक ही दिल , जहां फूलता विश्व खिलता रहेगा, लहर से जहां शशि मचलता रहेगा, नरक भी जहाँ स्वर्ग बनकर खिलेगा, प्रलय में जहां सृष्टि का स्वर मिलेगा, जहाँ अन्त में 'अर्थ' नये प्राण भर कर , प्रगति में प्रखर सत्य का ज्ञान भर कर, वहां सांस निर्माण का स्वर सुनाती , वहां भूल नवलक्ष्य का पथ दिखाती। नियत के, प्रगति के कदम दो बढ़ाकर, किसी दिन किसी लक्ष्य को पायेंगे ही। तिमिर में, प्रलय में, न तूफान में भी-कदम ये रुके है, न रुक पायेंगे ही ॥ लाहौर] Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-गद्य-निर्माण की द्वितीय अवस्था [ 'हिंदी-प्रदीप' के द्वारा] श्री सत्येन्द्र एम० ए० प० बालकृष्ण भट्ट जी ने 'हिन्दी-प्रदीप' मे भारतेन्दु जी की एक पुस्तक की आलोचना करते हुए उनकी प्रशसा मे लिखा था, "आखिर उस रसिक-शिरोमणि की चन्द्रिका है, जिस चन्द्र के प्रकाश से इस नये ढग की हिन्दी ने प्रकाश पाया है। भारतेन्दु जी ने तो यह घोषित किया ही था कि अव से हिन्दी नये ढग में ढली, उस समय के अन्य विद्वान् साहित्य-सेवी भी इस मत को मानते थे। पर यहाँ एक भ्रम को दूर रखने की आवश्यकता है। कुछ महानुभाव इन कथनो का अर्थ यह लगा सकते है कि भारतेन्दु के समय से आधुनिक हिन्दी का आरम्भ हुआ। जैसे इशाअल्लाखाँ के इस कथन का कि 'हिन्दी छुट' किसी और भाषा का पुट भी न हो, यह अर्थ लगाया जाता है कि उन्होने एक नई भाषा गढी और इसलिए उर्दू पुरानी भाषा है और हिन्दी नई अथवा लल्लूजीलाल के एक कथन का यह अर्थ लगाया जाता है कि उन्होने उर्दू भाषा के शब्दो को निकाल कर उनके स्थान पर सस्कृत के शब्दो का समावेश किया, जव कि यथार्थता इनसे विलकुल भिन्न थी। भारतेन्दु जी ने कोई नई भाषा नही बनाई थी। इसके एक नये ढग को अपना लिया था। वह नया ढग उनका बनाया हुआ नही था, न उसे सिखाने के लिए उन्होने कोई पाठशालाही स्थापित की थी। भारतेन्दुजी ने कोई पाठ्यपुस्तक भी नहीं बनाई थी। उनकी शैली का फिर भी बोलबाला हुआ। यथार्थत भारतेन्दु जी ने जिस शैली को अपनाया, वह लोक-प्रचलित शैली थी। इस समय तक साहित्य मे इस शैली का विशेष सम्मान न था। पहले राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' ने भी इसी शैली को अपनाया था। उनका 'राजा भोज का सपना' इस शैली का ही प्रमाण है और इसी शैली को भारतेन्दु जी ने साहित्य के लिए ग्राह्य बनाने के लिए अपने पत्रो की माध्यम बनाया। इमी शैली को जव राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द' छोडने लगे तभी से उनसे सघर्ष भी होना प्रारम्भ हुआ। भारतेन्दु की शैली को 'शुद्ध हिन्दी' नाम से विभूपित अवश्य किया गया, पर इस अर्थ वाला नाम उसे दिया नही जा सकता। इममे सब प्रकार के शब्द व्यवहृत हुए है । किसी भी शब्द से उस शब्द की जाति के कारण घृणा नही की गई। इसमें किसी तअस्सुव से काम नहीं लिया गया। वह एक प्रचलित और वलवती भाषा थी। अब तक वह शिष्ट जनो द्वारा त्याज्य थी। उमे ही उन्होने युग की पुकार के आधार पर उसके योग्य स्थान पर लाकर बिठा दिया। राजा शिवप्रसाद का मत भिन्नथा। वे जिस वर्ग में रहते थे, उस वर्ग को अधिकारी वर्ग और शिष्ट वर्ग कहा जायगा। उस वर्ग मे राजनैतिक दृष्टि से, व्यवस्था (Administration) की दृष्टि से और निजी सुरुचि और सस्कार की दृष्टि से भाषा-सम्बन्धी एक विशेष नफासत का भाव वद्धमूल था। जबतक साक्षरता के प्रसार का प्रश्न रहा, राजा साहब लोकभाषा के पक्ष में रहे, पर जैसे ही उसे साहित्य और उच्च क्षेत्र का माध्यम बनाने का प्रश्न उठा, वे पलायन करके अपने योग्य वर्गशोषक वर्ग के साथी हो गये। वे उसी पुरानी परिपाटी में चले गये, जो लोक-भाषा को 'गवारूकहकर घृणा और उपहाम करती थी। इस समय कांग्रेस आदि लोक-तन्त्र को पोषित करने वाली सस्थाएँ बन गई थीं। लोकभाषा का प्रदन मूलत राजनैतिक प्रश्न था । उसे राजा जैसे महानुभाव अधिक प्रोत्साहन कैसे देते ? उस लोकरुचि के अनुकूल ढली हुई लोकभाषा को भारतेन्दु जी ने ऊपर उठाया। उसकी यथास्थान प्रतिष्ठा की। उनकी भाषा यथार्थ लोकभाषा "हिन्दी प्रदीप अगस्त, १८७६, पृ० १६ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-गद्य-निर्माण की द्वितीय अवस्था १२३ हिन्दी थी। उन्होने कोई नई भाषा गढी नही थी। उन्होने यह दिशा-दर्शन किया कि सभी ने उसे स्वीकार कर लिया। उस भाषा का सबसे अधिक स्वाभाविक रूप प० प्रतापनारायण मिश्र मे मिलता है, अथवा प० बालकृष्ण भट्ट मे । प० बालकृष्ण भट्ट ने 'हिन्दी प्रदीप' का सम्पादन १८७८ सन् से करना प्रारम्भ किया था। इस समय भारतेन्दु जी जीवित थे। सर सैयद अहमदखां और स्वामी दयानन्द भी जीवित थे। ये सभी महानुभाव प० बालकृष्ण भट्ट के साहित्य-सेवा-काल में इह-लीला समाप्त कर गये । युग पलट गया। १६०० सन् मे 'सरस्वती' का प्रकाशन हुआ। शीघ्र ही 'द्विवेदीयुग' का प्रारम्भ होना प्रारम्भ हुआ। प० वालकृष्ण भट्ट का 'हिन्दीप्रदीप' भारतेन्दु काल और द्विवेदी काल की शृखला के बीच की कडी है। भाषा की दृष्टि से हमें स्पष्ट ही १८७८ या ७९ के अको की अपेक्षा १९०६-७-८ के अको मे बहुत अन्तर प्रतीत , होता है। सितम्बर १८७८ के 'प्रदीप' मे हमें प्राय यह भाषा मिलती है १. "हम लोगो का मुंह बन्द करने वाला प्रेस ऐक्ट के मुताबिले में जो लडाई लड़ी गई उसमें सुर्खरू हो फतहमाबी कामुख देखना यद्यपि हमें मयस्सर न हुआ पर एतने से हमें शिकस्तह दिल न होना चाहिए हम निश्चयपूर्वक कह सकते है कि यह पहिला हमारा प्रयास सर्वथा निष्फल नहीं हुआ क्योकि इसमें अनेक कार्यसिद्धि के चिह्न देख पडते है" (पृ० २, अक १) इसी काल में ऐसे भी वाक्य मिलेंगे २ "ऐसी उदार गवर्नमेण्ट जो अपने को प्रसिद्ध किये है कि हम न्याय का बाना बाँधे है वही जब अन्याय करने पर कमर कस लिया" इनके अध्ययन से कुछ वातें स्पष्ट प्रकट होती है। इस काल का लेखक विराम चिह्नो से अपरिचित है। उसकी रचनाओ मे एक साथ ही हिन्दी की दोनो शैलियो का सयोजन मिलता है । अवतरण का पूर्वार्द्ध जिस शैली मे है, उसका ही पराद्धं दूसरी शैली में है। कुछ शब्दो का उच्चारण अद्भुत है। वाक्य मे व्याकरण का कोई स्थिर नियम काम मे नही लाया गया। मुहाविरो की ओर जहाँ आकर्पण है, वहाँ भाषा में ढिलाई मिलती है। जहाँ मुहाविरो की ओर आकर्षण नही, वहाँ चुस्ती है । अव १६०८ के फरवरी अक में से एक उद्धरण लीजिए। तीस वर्ष वाद का "अस्तु अव यहां पर विचार यह है कि वह अपने मन से कोई काम न कर गुजरे जब तक सब की राय न ले ले और सबो का मन न टटोल ले। दूसरे उसमें शान्ति और गमखोरी की बड़ी जरूरत है । जिस काम के बनने पर उसका लक्ष्य है उस पर नजर भिडाये रहें दल में कुछ लोग ऐसे है जो उसके लक्ष्य के बडे विरोधी है, और वे हर तरह पर उस काम को बिगाडा चाहते है। अगुना को ऐसी २ बात कहेंगे और खार दिलायेंगे कि वह उधर से मुंह मोड बैठे और क्रोध में प्राप सर्वथा निरस्त हो जाय।" (पृ० ८) . ऊपर के उद्धरणो से तुलना करने पर अन्तर स्पष्ट हो जाता है। भाषा वह रूप ग्रहण करने लगी है, जिसमें विशेष सुरुचि और परिमार्जन का पुट लगा देने से वह 'द्विवेदी-काल' की वन जाय। यथार्थता इस समय से द्विवेदीकाल को प्रारम्भ होने के लिए केवल दस-पन्द्रह वर्ष ही रह गये थे। 'हिन्दी-प्रदीप' ही वह अकेला पत्र है, जो भारतेन्दु के समय से लेकर द्विवेदी-काल तक आया और जो आदि से अन्त तक एक व्यक्ति की रीति-नीति, शासन तथा सम्पादन मे चला। १९०८ में यह डेढ वर्ष के लिए बन्द हो गया था। पुन प्रकाशन पर भट्ट जी ने यह टिप्पणी दी थी “सर्वव्यापी सर्वशक्तिमान सच्चिदानन्द परमात्मा को कोटिश धन्यवाद है कि विघ्न बाहुल्य को Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन- प्रथ पार कर प्रदीप दीपमालिका की दीपावली के साथ प्राज फिर जगमगा उठा प्यारे पाठक ! आपसे विधुर इस डेढ़ वर्ष की अपनी ऊँची-नीची दशा की कहानी सुनाय हम आपके प्रेमपरिप्लुत चित्त को नहीं दुखाया चाहते। बस इतने ही से श्राप हमारे निकृष्ट जीवनयात्रा की टटोल कर सकते हैं कि देशसेवा मातृभूमि तथा मातृभाषा का प्रेम बडी कठिन तपस्या है ।" (जिल्द ३१, स० १, पृ० १-२ ) इसमें सन्देह नही कि इसकी यह दीर्घ आयु प० बालकृष्ण भट्ट की सम्पादन -कुशलता के कारण थी। साथ ही उनकी कष्ट-सहिष्णु और धीर-प्रवृत्ति भी इसमें सहायक थी, क्योकि ग्राहको की 'नादेहन्दगी' का रोना 'ब्राह्मण' पत्र की भाँति 'हिन्दी-प्रदीप' को भी रोना पडता रहा । फिर भी यह पत्र खूब चला, ऐसा कि जैसा उस काल का कोई दूसरा पत्र न चला। जव हम उन कारणो पर विचार करते है, जिनसे 'हिन्दी- प्रदीप' इतनी सेवा करने में सफल हो सका तो अन्य कारणो के साथ उसकी भाषा पर दृष्टि जाती है। उन्होने अपनी भाषा को उस समय के दो वर्गों के मध्य की भाषा रक्खा। एक नागरिक - शिष्ट --- पढा लिखा वर्ग था, दूसरा ग्रामीण - साधारण -- जिसे पढे-लिखे होने का गर्व नही था, यो पढा लिखा साधारणत वह भी था । शिष्ट वर्ग या तो संस्कृत का पड़ित था, या फारसी-उर्दू का कामिल । जैसा ऊपर दिये गये उदाहरणो से विदित होता है, इन्होने 'हिन्दी- प्रदीप' मे आवश्यकतानुसार दोनो वर्गों की भाषाशैलियों को अपनाया । फिर भी इनकी तथा भारतेन्दु जी की भाषा मे कोई विशेष अन्तर नही था । ये उसी हिन्दी का उपयोग कर रहे थे, जिसे भारतेन्दु जी ने नये रूप में ढाला था और जिसका इन्हें पूरा ज्ञान था । इन्होने एक बार नहीं, कई वार 'हिन्दी' भाषा के सम्बन्ध मे और उसकी दशा के सम्बन्ध मे टिप्पणियां लिखी है । इस समस्त चैतन्य के अतिरिक्त भी वे कभी अनुदार नही हुए । उनकी भाषा यथार्थत सार्वजनीन भाषा विदित होती है, जिसमे किसी भी प्रकार के शब्दो के लिए हिचकिचाहट या सकोच नही । उन्होने अप्रैल, १८८२ के अक मे "पश्चिमोत्तर और औष में हिन्दी की होन दशा" शीर्षक से जो टिप्पणी दी उसकी भाषा और उसके अर्थ दोनो ही दृष्टि में लाने योग्य है"इस बात को सब लोग मानते है कि हिन्दुस्तान में मुसल्मानो की अपेक्षा हिन्दू कहीं ज्यादा है और मुसलमानों में थोडे से शहर के रहनेवाले पढे-लिखे को छोड़ बाक़ी सब मुसल्मान हिन्दी ही बोलते है वरन दिहाती में बहुत से मुसल्मान ऐसे मिलते है जो उर्दू-फारसी एक अक्षर नहीं जानते । तो भी जनता " कभी रोके रुक सकती है किसके किसके गले में डाइरेक्टर साहब अँगुली देंगे कि तुम लोग अपनी मातृभाषा हिन्दी न वोलो | 33 १२४ लेखक भली प्रकार जानता है कि हिन्दी का विरोध केवल शहर के ही पढे-लिखो के द्वारा है। उसकी भाषा इसीलिए गाँव की ओर झुकी हुई है और आवश्यकतानुसार उसने उर्दू-फारसी से भी शब्द लेने में कही सकोच नही किया । इसमे सन्देह नही कि इनके समय की भाषा में बहुत परिवर्तन हो गया है । आज इनके समय के अनेको शब्द प्रयोग के बाहर हो गये है, मुहाविरे तो जैसे भाषा में से उठ ही गए है। इनकी भाषा की कसोटी श्रौर स्रोत साधारण जनता थी, विशेषत ग्रामीण । यहाँ हम कुछ ऐसे शब्द देते हैं और मुहाविरे भी, जो श्राज काम में नही आते, प्रयोग से बाहर हो गये हैवाना-धना, छोन-दीन, ऐकमत्य, यावत, वगेत, करमफुटी, गॅजिया की गंजिया लुढ़क जाय, लेसा डेहुडा, चूडा थाना, जथा बाँधकर, पेट सुतुही सा है, यहीं ( मैं ही के लिए), खज्ज प्रखज्ज, छलकमियो, लोक लेते, गबडाकर, खपगी, शेर की भुगत, पत, कुकुरिहाव, आशय (निबन्ध के लिए), कचरभोग, सदुपदेशकी, ककेदराजी, अॅझिट, एतनी, केतनी, जेतनी, हेलवाई । इन कुछ थोडे शब्दो का सकलन अनायास ही किया है, श्रन्यथा तो पूरा एक कोण छाँटा जा सकता है। ऐसे शब्दो को छाँटने की श्रावश्यकता भी है, पर अपना प्रकृत उद्देश्य कुछ और है । इन शब्दो पर एक दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्याकरण की बात तो दूर, शब्दो के उच्चारण का भी कोई श्रादर्श (Standard ) नियम नही Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-गद्य-निर्माण की द्वितीय अवस्था १२५ स्थापित हो पाया था। सभी शब्द साधारण बोल-चाल के उच्चारण के अनुकरण पर लिखे गये है। उपरोक्त शब्दो में से मै समझता हूँ कि सब नही तो अधिकाश ऐसे होगे, जो आज भी ग्रामीण बोलियो में प्रयोग में आते होगे। साहित्य ने उन्हें परिमार्जन की दृष्टि से और ग्राम्यत्व दोष से बचने के लिए त्याज्य ठहरा दिया है। भारतेन्दु युग में ऐसे शतश शब्द होगे, जो आज भूले जा चुके है। 'हिन्दी-प्रदीप' में, जैसा ऊपर कहा जा चुका है, तीन शैलियाँ शब्दप्रयोग की दृष्टि से काम में लाई गई थी और वे तीनो प्राय साथ मिलती चली जाती है । यो उनमें कोई नियम काम करता हुआ नही विदित होता, फिर भी जब वे साधारण टिप्पणियां लिखते हो तो वे ग्राम्यत्व की ओर झुकाव के साथ साधारण हिन्दी-सस्कृत-फारसी-उर्दू के शब्दो का प्रयोग करते चलते है। जब वे कोई विद्वत्ता की वात कहते होते है तो सस्कृत के शब्दो का प्रयोग बहुल हो उठता है और जव सरकारी व्यक्तियो की ओर दृष्टि डालकर कुछ लिखते है तो उर्दू-फारसी के शब्दो का पुट वढ जाता है। इससे भी विशेष नियम यह मिलता है कि जव लेखक मौज में आकर लिखता है तो शब्द की रगीनी पर उसकी दृष्टि रहती है और वह सभी ओर से विविध रग के शब्दो, मुहाविरो, कहावतो और उद्धरणो को लेकर अपने को सजा देता है। जब गम्भीर है तो सस्कृत और अंग्रेजी का पल्ला पकड लेता है। 'हिन्दी-प्रदीप' के मुखपृष्ठ पर यह सूचना रहती थी "विद्या, नाटक, समाचारावली, इतिहास, परिहास, साहित्य, दर्शन, राजसम्बन्धी इत्यादि के विषय में यो यह मासिक पत्रिका विविध विषय विभूपित थी। प्रत्येक अक में समाचार और परिहास तो प्राय आवश्यक से ही थे। राज-सम्बन्धी आलोचना भी अवश्य ही रहती थी। नाटक के एक-दो अंक भी रहते थे। कुछ काव्य भी रहता था। इसके अतिरिक्त कभी कोई विज्ञान की चर्चा, कभी आयुर्वेद या स्वास्थ्य विषयक, कभी धर्म या दर्शन-सम्बन्धी कमी इतिहास आदि सम्वन्धी निवन्य रहते थे। समाचारो के लिए एक या दो कालम रहते थे, इनमें समाचारो के साथ कभी-कभी सम्पादक मनोरजक टिप्पणी भी दे देता था । उदाहरणार्थ प्रयाग में दिवाली खूब मनाई जा रही है। इस समाचार को उसने यो दिया है ___"पुलिस इस्पेक्टर की कृपा से दिवाली यहां पन्दरहियो के पहिले से शुरू हो गई थी पर अव तो खूब ही गली-गली जुआ की धूम मची है, खैर लक्ष्मी तो रही न गई जो दीपमालिका कर महालक्ष्मी पूजनोत्सव हम लोग करते तो पूजनोत्साह कर लक्ष्मी को वहिन दरिद्रा ही का प्रावाहन सही। (पृ० १६, नवम्वर १८७८) ये समाचार कभी-कभी दूसरी पत्रिकाओ से उद्धृत करके भी दे दिये जाते थे, साथ मे उसका उल्लेख भी रहता था। इन अन्य पत्रो मे भी यही 'प्रदीप' जैसी शैली थी। समाचार मालोचना से परिवेष्टित रहता था "अंगरेजो के चरण-कमल जहां ही पधारेंगे वहां ही टैक्स की धूम मच जायगी। सइप्रेस अभी थोडे ही दिन इन्हें लिये हुआ पर टैक्स की असन्तोष ध्वनि सुन पडती है; टैक्स इनके जन्म का साथी है। वि०व०" किन्तु आलोचना करने की ओर अभिरुचि इतनी विशेष थी कि इस प्रकार समाचारो का सग्रह देना नियमित रूप से नहीं चल सकता था। पत्रिका में अधिकाश निवन्ध किसी-न-किसी विशेष घटना को लक्ष्य करके ही लिखा जाता था। इस काल के प्राय सभी निवन्धो में समय को बडी प्रवल छाप रहती थी। इस प्रकार सम्पादक अथवा लेखक के विचारो से श्रावृत होकर छोटे-छोटे लेखो का रूप धारण किये हुए समाचार पत्रिका में यत्र-तत्र विखरे मिलेंगे। शीर्षक देखकर आप जिसे कोई लेख या निवन्ध ममझेंगे, उसमे आगे पढने पर आपको किसी घटना की आलोचना मिलेगी, अथवा किसी वर्तमान तात्कालिक प्रवृत्ति पर छोटे। आपने शीर्षक देखा 'Fear and Respect' "भय और समुचितादर"-सोचा इस निवन्ध में भय और आदर पर दार्शनिक अथवा वैज्ञानिक विचार सामग्री उपलब्ध होगी। प्रारभ में कुछ ऐसी सामग्री मिली भी। आपने पढ़ा Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ "भय और समुचित आदर ये दोनो एक दूसरे से पृथक् हैं । भय का श्रकुर दिल की कमजोरी से फवकता है, जब हम दूसरे के रोव में श्राय भारे डर के हाँ में हाँ मिलावें और जी से यही समझें कि होचा है। काट ही लेगा इससे इसकी भरपूर पूजा-सम्मान करते जायें तभी भला है तो यह समुचित श्रादर की हद्द के बाहर निकल जाना हुआ, ( मई १८८०, पृ० ४) 21 पर आगे बढकर सिकन्दर - पोरस का उल्लेख कर लेखके जा पहुँचा "साहवान अँगरेज और हमारे अमीर श्रीर रियासतदारों की मुलाकात" पर T पर क्या मजाल जो चुहल और साहित्य-स्पर्श छूट जाय । "घडी घडी घडियाल पुकारै, कौन घडी धों कैसी श्रावे", यह शीर्षक है। इसमे समय की परिवर्तन-शीलता पर कोई विशेष व्यापक निवन्ध नही, लार्ड लिटन के अनायास ही पदत्याग करने की घटना का मनोरंजक वर्णन है १२६ "हमारे श्रीमान लार्ड लिटन कहाँ इस विचार में थे कि शिमला की शीतल वायु में चलकर स्वर्गसुख का अनुभव करेंगे और गवर्नरी के वो एक वर्ष जो बाक़ी रह गये है उनमें अपने दीक्षा गुरु डितरेली के बताये मन्त्र को सिद्ध कर जहाँ तक हो सकेगा दो एक और नये ऐक्ट पास कर निर्जीव हिन्दुस्तान की रही-सही कमर तोड़-फोड तब विलायत जायेंगे कहाँ एक वारगी लिबरल लोगो के विजय का ऐसा तार आ गिरा जिसने सब कुतार कर दिया " ( मई १८८०, पृ० १६ ) इस प्रकार एक शीर्षक है 'एक अनोखे ढंग की तहरीर उक्लैदिस' यह एक परिहारा है, जिसे श्राज कल 'पैरोडी' कहा जाता है । उक्लैदिस, ज्यामेट्रो की पैरोडी पर सरकार की नौकरी सम्वन्धी नीति का परिहास किया गया है । आज भी इससे मनोरजन हो सकता है "मिस्टर एडिटर रामराम प्रोफेसर उक्लेक्सि के नगरदादा ने सातऍ सरग से यह अनोखे ढङ्ग को युक्लिद तुम्हारे पास भेजा है इसे अपने पत्र में स्थान है श्राशा है ससार भर को इसके प्रचार से चिरवाधित कीजिएगा । परिभाषा सूत्र १ गवर्नमेंट को इखतियार है कि सरकारी नौकरी की सीमा जहाँ तक चाहे वहाँ तक महदूद कर सकती है ॥ २ उस सीमा का एक छोर जिसका नाम सिविलियन है जहाँ तक चाहो वढ भी जाय तो कुछ चिन्ता नहीं पर दूसरी सीमा सरकारी हिन्दुस्तानी नौकर वाली केवल २०० रुपये के भीतर रहे और उन्ही के वास्ते रिसर्वड की गई जो अनकवेनेण्टेड केरानी या यूरेशियन है || ३ उस सीमाबद्ध रेखा पर किसी नुखते से कोई दायरा हिन्दुस्तानियो के लिए गवर्नमेण्ट सरवेंट का नहीं खींचा जा सकता पहले अध्याय का ४९वाँ साध्य एक ऐसी रेखा जिसका एक छोर सीमाबद्ध अर्थात् महदूद नहीं किया गया और दूसरे के लिए भाँत - भाँत को क़ैद है उस पर जो लम्ब खींचा जायगा वह सम विषम दो कोण पैदा करेगा ॥ (मार्च १८८०, पृ० २३) 'हिन्दी- प्रदीप' की प्रधान प्रवृत्ति राजनीति की ओर अथवा राजकीय कार्यों की आलोचना की ओर थी । वह उम काल की जन-जाग्रति का प्रवल समर्थक था और सरकारी कामो की पर्याप्त उद्दड और तीखी समालोचना करता था । किन्तु उसको शैली चटपटी और अन्योक्ति जैसी थी। किसी अन्य विषय की वातें करते-करते और साथ ही इघर-उघर के विविध वृत्त देकर उनके साथ ही उदाहरणार्थं श्रथवा प्रसगानुकूल राजकीय कृत्य का भी उल्लेख कर दिया जाता था । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७. इस काल का कवि भी अपने समय को नही भूले हुए था । अनेको कविताएँ तत्कालीन स्थिति की आलोचना करते हुए लिखी गई थी । एक होली यो है— प्रह सूर्य 6 चन्द्रमा हिन्दी गद्य-निर्माण की द्वितीय श्रवस्था - वरस यहाँ बीत चल्यो री कहो सबै काह लख्यो री ॥ श्रावत प्रथम लख्यो रह्यो जैसो तैसोइ जातहु छोरी । बरस किकन बीतत ऐसे काबुल युध न मिटो री । भलो सुख लिटन दयो री ॥१॥ श्रर्वाह सुनं श्रफगान शान्त सब सब कछु ठीक भयो री । काहि उठि सुनियत लरिवे को फिर सबै दल जोरी । कियो इमि हानि न थोरी ॥२॥ दल को नव आह्वान उठ्यो री । कनसर्वेटिव भये पद हीना लिबरल स्वत्व लह्यो री । फेरि पालियामेण्ट के नन्द सुनि सबन कियो री ॥३॥ पलटन दल मान्यो हम सबहू भारत ग्रह पलटो री । श्राशालता डहडह होवै लगों हिय प्रति हरख बढ्यो री । मनहुँ धन खोयो मिल्यो री ॥४॥ जिन ठान्यो काबुल युध, प्रेस श्ररु श्रर्मसंक्ट गढ्यो री । तीनहि वरस माँहि भारत को जिन दियो क्लेश करोरी । ताप वढ़ावन लिटन लिटन सोई इतसो दूर बह्यो -री । ता सम नर फिर नहीं जगदीश्वर श्रावै भारत श्रोरी । यह सबै मिल विनयो री ॥५॥ इन सब उद्धरणो से यह स्पष्ट हो जाता है कि लेखक की समस्त स्फूर्ति समय के प्रवाह से प्राप्त होती थी । साधारणत वह प्रगति का ही पक्षपाती था । उसकी शैली में ताज़गी थी और एक प्रवाह था। साथ ही वह अनगढपन था, जो जीवन की स्वाभाविकता का पर्याय माना जाना चाहिए। चुहल और मनोरंजकता भी इस साहित्य का अश थी । उसमें एक तो मौलिक कल्पना का प्रभूत प्रदर्शन मिलता है, विनोद के ऐसे-ऐसे विविध और नवीन रूप प्रस्तुत किये गये है कि वे पद-पद पर जीवन में अनुभूत यथार्थ परिहास की प्रतिकृतियाँ प्रतीत होती है। युग की सजीवता का इतना प्रभाव था कि प० वालकृष्ण भट्ट के पाडित्य पर भी उसने अपनी पूरी छाप जमा ली है । उपरोक्त शैलियों के अतिरिक्त दो शैलियाँ और प्रमुख प्रतीत होती है । एक तो किसी विशेष वर्णन के लिए अलकार या रूपको का सहारा । उदाहरण के लिए "एक अनोखे पुत्र का भावी जन्म" में म्युनिसिपालिटी के गर्भिणी होने और 'हाउस टैक्स' नामक पुत्र को जन्म देने की भविष्यवाणी की गई है। साथ ही उसकी श्रालोचना भी है । इमी प्रकार एक चक्र बनाकर भारत के विविध अधिकारी का रूप ज्ञान कराया गया है "भारतीय महा नवग्रह दशा चक्रम" नाम ग्रह श्रीमान महामहिम लार्ड रिपन मिस्टर ह्यूम M श्रायुध न्याय सत्य दया प्रजाहित पर इल्वर्ट विल के आन्दोलन में एंग्लो इंडियन ग्रहण के समय सब गोठिल हो गए । न्याय सत्य अपक्षपात Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A १२८ ग्रह मङ्गल बुध शुक्र. गुरु वा बृहस्पति साक्षात् वाचस्पति स्वरूप -- शिक्षा कमिशन गुरु - हिन्दी के परम शत्रु-हटर साहव मनमानी व्यवस्था देने वाले काशी के पडितो मुखिया जो कोई हो शनैश्चर प्रेमी-अभिनदन-प्रथ राहु केतु नाम ग्रह महा अमगल की खान सकलगुणनिधान मेडराज विविध राजनीति विभूपित परम निर्दूषित सैयद अहमद खाँ बहादुर . श्रायुध खुशामद स्वार्थ साधन उर्दू की जड पुष्ट करने वाली उक्ति युक्ति काटछाँट चारो वेद अठारो पुराण सारा कोरान सारे साएन्स तथा अड वड सड अनर्गल विद्या सर ग्रेड डफ मद्रास के गवर्नर जो सेलम के धीग घोगा निरपराधी रईसो पर जन्म भर के लिए आए और उन्हें काले पानी के सप्त द्वीप दिखाए महामान्य रियर्स टाम्सन ल० ग० बगाल टाम्सन के सहयोगी महा ऐंग्लो इडियन अन्याय-अविद्या - जलन-कुढन इल्वर्ट विल में विरोध के हेतु पायोनियर इगलिश मैन आदि अँगरेजी अखबार ऐसी रचनाएँ श्राज के कार्टूनो का काम करती प्रतीत होती है । दूसरी शैली है नाटकीय सवादशीलता । मौज में लिखे गये इन निबन्धो में लेखक जैसे दो व्यक्तियो की उपस्थिति की कल्पना कर लेता है। कही कही इन दो व्यक्तियो में एक तो लेखक और दूसरा पाठक माना जा सकता है। कही कही तो इन दोनो का पृथकत्व वह ऐसे शब्दो को देकर प्रकट कर देता है जैसे कि "आप कहेंगे", कही केवल वर्णनशैली से ही यह अन्तर प्रकट होता है । 'पञ्च के पञ्च सरपञ्च' में ऐसी ही शैली मे दो कल्पितपात्र हैं । "नो अलबेले यहाँ अकेले बैठा क्या मक्खियाँ मार रहा है जरा मेले-ठेले की भी होश रक्खा कर, चल देख नावें मेला है झमेला है। शिवकोटी का मेला है कुछ नशापानी न किया हो तो ले यह एक बोतल रम श्राँख मीच ढाल जा, वाह गुरु क्यों न अब बन गया सब बहार नजर पडा विना इसके कहाँ दिल लगी, देख सम्हला रह कहीं पाँव लडखडाकर कीचडो में न फिसल पडे ।" इन सबके साथ यह पत्रिका चुटकलो, प्रद्भुत शब्द सयोजनो, अनोखी व्याख्याश्रो, चुभती परिहासमयी परिभाषाओ, ज्ञान और चुहल के सक्षिप्त सवादो, गद्य-पद्य के चुटीले परिहासो - पैरोडियो से युक्त मिलेगी । क्रमश प्रकाशित होने वाले उपन्यास तथा नाटक भी प्राय नियमत रहते थे । इस प्रकार विनोद हास्य- परिहास के क्षेत्र में तो इस युग के इन पत्रो से आज के पत्रकार भी कुछ सीख सकते हैं । ४ 0: इस काल की सम्पादकीय नीति विशेषत 'हिन्दी- प्रदीप' की बहुत ही श्लाघ्य मानी जानी चाहिए। सम्पादक ने सम्पादकीय ईमानदारी से कही हाथ नही धोया । सत्य को डके की चोट पर कहा है, पर विपक्षी के प्रति भी घृणा का भाव प्रकट नही किया, दुख भलेही प्रकट किया हो। पत्रो में उस समय भारतीय महत्त्वाकाक्षा और प्रगति का विरोधी मुख्यत 'पायोनियर' था। एक बार नही, अनेक बार उसका उल्लेख हुआ है, पर कही उसमें रोष अथवा घृणा नही । केवल एक आलोचनादृष्टि अथवा साधारण तथ्य कथन मिलेगा । पुरुषो में जन हित विरोधी राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' थे । इनका भी उल्लेख कई स्थानो पर कई प्रकार से हुआ है । यहाँ भी परिहास और फब्तियाँ तथा आलोचना तो मिलेंगी, पर मालिन्य अथवा द्वेष नही दीखेगा । 'किम्वदन्ती' शीर्षक से १८८३ जून के भक में यह टिप्पणी है Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी-गद्य-निर्माण की द्वितीय अवस्या १२६ "किम्बदन्ती है कि राजा शिवप्रसाद ने कौंसिल की मेम्बरी से इसतीफा दिया था पर लार्ड रिपन ने मंजूर नहीं किया; हम पूरा विश्वास करते हैं कि यह भी गुरुपों की गुरुनाई है समाज में अपना गौरव बनाये रखने को खासकर बनारस के लोगों के बीच राजा ही ने शायद इस अफवाह को उड़ा दिया है नहीं तो लार्ड रिपन साहब को ऐसा क्या मोग है कि राना भागते फिरते और लार्ड रिपन इन्हें धाय २ के पकड़ते। ठौर २ पुतला जलाया गया इस मुलाहिजे से रिपन साहब क्या इन्हें नहीं छोड़ा चाहते या हाँ में हां मिलाने इन्हें बहुत अच्छा आता है इससे इन पर उक्त महोदय बहुत प्रसन्न हैं या कि घर २ और आदिमी २ में इनकी अकोति की कालिमा छा रही इस अनुरोवन से इन्हें रखना ही उचित समझते हैं या कि जन्म पर्यन्त शरिस्ते तालीम रहकर मिवा मियाँगीरी के दूसरे काम के कभी डाँड़े नहीं गए इससे राजनीति का मर्म समझने वालो इस पश्चिमोत्तर और औव में दूसरा कोई पैदा ही नहीं हुआ इमलिए लाचार होइन पर हमारे वायसराय साहब की इन पर वजा आग्रह है नो हो वात निरी वेबुनियाद अफवाह मालूम होती है ।" (पृ० ५-६) वार्मिक क्षेत्र में वे सुवारो के पक्षपाती थे, पर अकारण ही प्रत्येक प्रया और आचरण का विरोध उन्हें सह्य नहीं था। यो उन्होने जाति-पांति का पन लिया है और कितने ही स्थानो पर यह बताया है कि 'जाति-पाति स्वय किसी उन्नति में वाधक नहीं, फिर भी साथ-साथ भोजन करने का पक्ष पोपित किया है। आर्यसमाज और स्वामी दयानन्द के सिद्धान्तो से वे पूर्णरूपेण सहमत नहीं हो पाये, फिर भी वाल-विवाह, वृद्ध-विवाह का विरोध किया है और स्वामी दयानन्द के व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धाजलि अर्पित की है। नई रोगनी को विप के रूप में उन्होंने माना है, पर इसलिए नहीं कि वे भारत की तमोवृत कुरीतियो को बनाये रखना चाहते थे। नई रोशनी की नवसे अविक खटकने वाली वाते उन्हें एक तो भक्ष्य-अभक्ष्य का ध्यान रखना, दूसरे गब्दो में मान-मदिरा का चस्का और दूसरी स्त्री-पुरुषो का स्वेच्छाचार, तीसरी नास्तिकता लगती थी। शोषक वर्ग और गासक वर्ग के प्रति नम्र रहते हुए भी कठोर आलोचना करते, उन पर फब्तियां कसने में 'हिन्दी-प्रदीप' के पृष्ठ चूकते न थे। एक स्थान पर मारवाडी को खटमल कल्पित किया है। वल्लभ-सम्प्रदाय पर छीटा कसने में कभी कसर नहीं छोड़ी। मथुरिया चौवो को भी और तीरथ के पडो को भी क्षमा नहीं किया गया। यद्यपि आस्तिकता और धर्म में विश्वास का पोपण उन्होने वार-बार किया है, पर इनके प्रवल उद्गारो में वे स्थल है जहां उन्होने धर्म-सम्प्रदायो और मजहबो को घोर अप्रगतिगामी बताया है। उन्होंने यद्यपि यह अनुभव किया था कि मुसलमान और सरकार हिन्दुओ पर मव प्रकार से अत्याचार कर रही है, इस मम्बन्ध में ययावसर सटिप्पण घटनाओं का भी उल्लेख करने में कभी कमी नहीं की, फिर भी 'हिन्दी-प्रदीप' प्रवानत हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रवल पोपक रहा है । "हह वही जो राम रच राखा" में उन्होंने स्पष्ट लिखा है "आगरे में हिन्दू मुसलमानो को आपस में लड़ाई भी वही बात है नहीं तो क्या अव यह होना चाहिए कि सरीहन देख रहे है कि प्रापस की फूट ही ने एक तीसरे को हमारे मानमर्दन के लिए सात समुद्र पार से लाय हमारे ऊपर खड़ा कर दिया चाहिए अव भी साहुत से चल आपस में मेल रक्खें हम दोनो का जो इसी भूनि के उदर से जन्मे हैं एक प्रकार का समुदाय हो जाने से ताकतें और बढे सो न होकर व्यर्थ को मजहवी झगडी के पीछे आपस ही में कटे मरते है यह ईश्वर की इच्छा नहीं तो क्या है ? हमने वहुत दिनो तक इस बेहूदगी के पीछे सिर पचाया और अनेक यत्न किया कि अपने भाइयों को समझाय-बुझाय उन्हें राह लगाएँ आदि - (नवम्बर १८८३, पृ० ५-६) "हिन्दी-प्रदीप' के पृष्ठो को उलटने से विदित हो जाता है कि उसने सदा न्याय का पक्ष ग्रहण किया है और अनेको मघों में होकर वह गया है, पर अपनी नतुलित लेखनी को कही कलकित नहीं होने दिया है। 'हिन्दी-प्रदीप ने इस प्रकार हिन्दी गद्य को भारतेन्दु से लेकर 'द्विवेदी-युग' तक पहुंचा दिया। आगरा ] १७ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वीराजरासो की विविध वाचनाएं श्री मूलराज जैन एम० ए०, एल-एल० वी० श्रव तक पृथ्वीराजरासो की निम्नलिखित प्रतियो' के अस्तित्व का पता लग सका है( १ ) बीकानेर फोर्ट लाइब्रेरी में आठ प्रतियाँ । (२) बीकानेर वृहद्ज्ञान भंडार में एक प्रति । (३) वीकानेर के श्री श्रगरचन्द नाहटा की एक प्रति । (४) पंजाब यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी, लाहौर में चार प्रतियाँ । (५) भडारकर श्रोरियटल रिसर्च इन्स्टिट्यूट, पूना मे दो प्रतियाँ । (६) रॉयल एशियाटिक सोसायटी, बम्बई शाखा मे तीन प्रतियाँ । (७) जोधपुर सुमेर लाइब्रेरी मे दो प्रतियां । (८) उदयपुर विक्टोरिया हाल लाइब्रेरी मे एक प्रति । (e) आगरा कालिज, श्रागरा मे चार भागो मे एक प्रति । (१०) कलकत्ता निवासी स्वर्गीय पूर्णचन्द नाहर की एक प्रति । (११) रॉयल एशियाटिक सोसायटी, वगाल में कुछ प्रतियाँ । ( १२ ) नागरी प्रचारिणी सभा, काशी की कुछ प्रतियाँ । (१३) किशनगढ़ स्टेट लाइब्रेरी की कुछ प्रतियाँ । (१४) अलवर लाइब्रेरी की प्रतियाँ । (१५) चन्द के वाघर नेनूराम की दो प्रतियाँ । (१६) यूरोप के भिन्न-भिन्न पुस्तकालयों में कतिपय प्रतियाँ । इन प्रतियो के निरीक्षण से ज्ञात होता है कि पृथ्वीराजरासो का पाठ हम तक मुख्यतया तीन वाचनाओ में पहुँचा है - (१) बृहद वाचना, (२) मध्यम वाचना और ( ३ ) लघु वाचना । बृहद्बाचना' मे ६४ से ६६ तक समय' श्री सोलह-सत्रह सहस्र पद्य है । इसका परिमाण एक लाख श्लोक माना गया है, किन्तु वास्तव में है पैंतीस हज़ार श्लोक के लगभग । यही वह वाचना है, जिसे नागरी प्रचारिणीसभा, काशी ने सम्पूर्णतया और कलकत्ते की एशियाटिक सोसायटी व बगाल ने आशिक रूप में मुद्रित किया था । विद्वानो ने रासो सम्वन्धी अपना ऊहापोह प्राय इसी वाचना के आधार पर किया है । 'इनमें से कुछ का विवरणात्मक परिचय छप चुका है। देखिए हस्तलिखित हिन्दी पुस्तकों की खोज की वार्षिक रिपोर्ट, टेसिटरी डिस्क्रिप्टिव कैटलॉग प्रॉव बार्डिक एड हिस्टोरिकल मैनस्क्रिप्ट्स, भाग २ (१), 'राजस्थानी' १९३६ में श्री अगरचन्व नाहटा का लेख; नागरी प्रचारिणी पत्रिका स० १६६६ में श्री दशरथ शर्मा का लेख श्रादि । १ बृहद्धाचना की प्रतियां यूरोप में तथा बम्बई, कलकत्ता, काशी, श्रागरा, बीकानेर आदि स्थानो में पर्याप्त सत्या में विद्यमान है । " " रासो में 'समय' शब्द का प्रयोग सर्ग, श्रध्याय या खड के अर्थ में हुआ है । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वीराजरासो को विविध वाचनाएं १३१ मध्यम वाचना' मे ४० से ४७ तक ममय है और इसका परिमाण दन-बारह सहन ग्लोक तक का है। इसके पहले दो समयो का सम्पादन महामहोपाध्याय प० मयुराप्रसाद दीक्षित ने लाहौर के अोरियटल कालिज मेगज़ीन (हिन्दी विभाग) में किया है । यह विद्वान् इने अमली रामो मानते है। . लघु वाचना' में १९ समय और दो सहन के लगभग पद्य है। इसका परिमाण केवल तीन हजार पाँच मौ ग्लोक के करीवही वैठता है। इसका पता टेमिटरी ने लगाया था, जिन्होने सन् १९१३ में सर्वप्रथम रामो की दो वाचनाओं को सम्भावना की और नकेत किया था। किन्तु विद्वानो ने इस ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। एक-दो प्रतियो में इन वाचनायो में से दो या तीनो ही के पाठ का सम्मिश्रण भी दृष्टिगोचर होता है, जैसे पूना की प्रति न० १४५५॥ १८८७-६१ में। ___वाचनाओं का विषय-विश्लेषण-रासो को लघु वाचना' में निम्नलिखित घटनाएं वर्णित है(१) दशावतार-वर्णन (कृष्णचरित विशेप विस्तृत है)। (२) चौहान वश का इतिहास और पृथ्वीराज का जन्म । (२) पृथ्वीराज का धन प्राप्त करना और दिल्ली गोद जाना। (४) सयोगिता का जन्म, विनय-मगल पाठ, पृथ्वीराज द्वारा जयचन्द के यज्ञ का विध्वम तया मयोगिता-अपहरण और दम्पति-विलाम। (५) पाटण के भोला भीम पर पृथ्वीराज की विजय । (६) कमास-वध। (७) जैतखभ-आरोपण और वीर का गोरी के हाथो पकड़ जाना। (८) पृथ्वीराज और गहाबुद्दीन गोरी के युद्ध (क) प्रयम युद्ध जव पृथ्वीराज भीम से लड रहा था। (ख) द्वितीय युद्ध जिसमें शहाबुद्दीन घोर के हाथो वन्दी हुआ। (ग) अन्तिम युद्ध जिनमे पृथ्वीराज स्वय वन्दी हुआ। (९) वाण-वेव । __ मध्यम वाचना में लघु वाचना का सारा विषय कुछ विस्तृत रूप में मिलता है और इसके अतिरिक्त कई अन्य घटनाओ का वर्णन भी मिलताहै, जैसे अग्निकुड से चौहान वनकी उत्पत्ति; पद्मावती, हमावती, गशिव्रता, पडिहारनी आदि अनेक राजकुमारियो से पृथ्वीराज का विवाह, पृथ्वीराज के विविध युद्ध, पृथ्वीराज और शहाबुद्दीन में अनेक वार युद्ध होना तथा हर वार शहाबुद्दीन का वन्दी होना, भीम द्वारा सोमेश्वर वव, आदि-आदि। ___ रामो की वृहद् वाचना में लघु वाचना का विषय विशेष विस्तार से मिलता है और इसके अतिरिक्त इसमें मध्यम वाचना की घटनाग्री तया ऐमी अनेक अन्य घटनाग्मो का समावेश भी है। 'मध्यम वाचना की प्रतियां बीकानेर, लाहौर, पूना तथा कलकत्ता में मिली है। 'फरवरी, मई, अगस्त सन् १९३५; फरवरी, मई सन् १९३८ । 'लघु वाचना को तीन प्रतियाँ बीकानेर फोर्ट लाइब्रेरी में उपलब्ध हुई है। इनमें से एक की प्राधुनिक प्रतिलिपि लाहौर को पजाव युनिवसिटी लाइब्रेरी में भी है। "टेसिटरो : उपर्युक्त, पोयी २४ का विवरण। "यह सं० १८०५ की लिखित है और प्रारम्भ में इसका पाठ प्राय. लघु वाचना से मिलता है, किन्तु हाँसी युद्ध तया कन्नौज खड वृहद् वाचना के आधार पर लिखित प्रतीत होते है। 'देखिए श्री वशरय शर्मा का उपरोक्त लेख । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय रासो के विषय विश्लेषण से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इसमे मुख्यतया दो ही घटनाओ का वर्णन है - एक तो पृथ्वीराज द्वारा सयोगिता-अपहरण का और दूसरे पृथ्वीराज तथा शहाबुद्दीन के अन्तिम युद्ध का । श्रन्य घटनाएँ तो गौण रूप से ही आई है । श्रत इनका वर्णन विस्तृत रूप से नही हुआ । लघु वाचना मे इन प्रधान घटनाओ का 'वर्णन कई-कई समयो में हुया है, किन्तु बृहद् वाचना में केवल एक-एक ही समय मे हुआ है और उसमे भी प्रक्षेप आ गये हैं । समय पाकर सयोगिता श्रपहरण की घटना इतनी लोकप्रिय हुई कि इसे एक विस्तृत स्वतन्त्र' ग्रन्थ का रूप मिल गया जो चन्दवरदाई की ही रचना मानी गई है। लघु वाचना में महोबा वाली घटना का उल्लेख मात्र ही है, ' परन्तु वृहद् वाचना में यह एक पूर्ण समय लेती है और फिर इसे कई खडो वाले ग्रन्थ का श्राकार मिला, जिसके रचयिता के रूप मे चन्दवरदाई का ही नाम लिया जाता है । सम्भव है कि इसमें चन्द का एक भी शब्द न हो, क्योकि इसकी भाषा वहुत अर्वाचीन है । १३२ वाचनाओं का काल - क्रम -- इन वाचनाची के काल-क्रम का निर्धारण इनको प्रतियो के लिपिकाल के श्राधार पर हो सकता है । लघु वाचना की किसी भी प्रति में उसका लिपिकाल नही दिया, किन्तु उनमे से एक का अनुमान हो सकता है, क्योंकि वह अकबर के समकालीन प्रसिद्ध मन्त्री कर्मचन्द के पुत्र भागचन्द के लिए लिखी गई थी। कर्मचन्द का देहान्त स० १६५७ मे हुआ और वह स० १६४७ में वीकानेर छोड चुके थे । उनके पुत्र स० १६७९ में काम प्राये । इसलिए हमारी यह प्रति कम-से-कम स० १६७६ से पूर्व की हैं। श्री अगरचन्द नाहटा के कथनानुसार इस वाचना की दूसरी प्रति भी १७वी शताब्दी विक्रम की लिखित है और तीसरी दूसरी की प्रतिलिपि मात्र है ।" मध्यम वाचना की कुछ प्रतियो का लिपिकाल मिलता है और कुछ का नही। जिनका मिलता है वे विक्रम की अठारहवी शताब्दी की या उसके आसपास की लिखित है, जैसे स० १७३८, १७३६, १७५८, १७९२ की लिखित प्रतियाँ विद्यमान है । जिनमें लिपिकाल नही मिलता, वे दो सौ वर्ष पुरानी प्रतीत होती हैं। बृहद् वाचना की प्रतियो का लिपिकाल प्राय १६ शताव्दी विक्रम में हैं, किन्तु एक का स० १७४७ भी है। इससे ज्ञात होता है कि लघु वाचना १७वी शताब्दी विक्रम मे, मध्यम वाचना १८वी शताव्दी में श्रीर वृहद् वाचना १९वी शताब्दी में या क्रमश इनसे कुछ पूर्व विशेष प्रसिद्ध तथा प्रचलित हुईं। कहते है कि काशी नागरी प्रचारिणी सभा १७वी श० वि० की लिपिकालकृत बृहद्बाचना की प्रतियाँ 'इसकी प्रतियाँ बनारस तथा कलकत्ता में उपलब्ध है । देखिए रासो लघु वाचना समय ६, पद्य ५६ आरनी अजमेरि घुम्मि घवनी कमड मडोवर । भोरा रा मुर मुड दड दवनो अग्गी उविष्ट कर ॥ रत्य भरि यभ सीस अहर नि जल जुष्ट कॉलजर | क्रिप्पान चहु वान जान घनयो घर्नो पि गोरी घरा ॥ यहाँ पर भी महोबा का उल्लेख नहीं, अपितु कालिंजर का है । ' इसे 'परमालरासो' के नाम से नागरी प्रचारिणी सभा ने प्रकाशित किया है । ४ 'इसकी अन्तिम पुष्पिका इस प्रकार है---- मन्त्रीश्वर मडन तिलक, वच्छा वश भर भाग । करमचन्द सुत करम वड भागचन्द स्रव जाण ॥ १॥ तसु कारण लिखियो सही, पृथ्वीराज चरित्र । पढता सुख सर्पति सकल, मन सुख होवं मित्र ॥ २ ॥ शुभ भवतु ॥ " श्री अगरचंद नाहटा का उपर्युक्त लेख, पृ० २२ । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृथ्वीराजरासो की विविध वाचनाए १३३ और नेनूराम' वाली स० १४५५ की प्रति इस नियम का अपवाद उपस्थित करती है, किन्तु कई विद्वानो के मतानुसार ___ इनका लिपिकाल सदिग्ध है । अत जवतक प्राच्यलिपिशास्त्रवेत्ता इनका निरीक्षण करके लिपिकाल निर्धारित नहीं करते, इनको इतना प्राचीन मानना उचित नहीं। . निम्नोक्त वाते भी इसी अनुमान की पुष्टि करती है (१) विषय-क्रम-कई स्थलो मे लघु वाचना का विषय-क्रम मध्यम अथवा वृहद् वाचना की अपेक्षा अधिक समीचीन दिखाई देता है । मध्यम तथा बृहद् वाचना के प्रथम समय में पहले मगलाचरण और फिर पृथ्वीराज के जन्म का वर्णन है और द्वितीय समय मे दशावतार-वर्णन है, किन्तु लघुवाचना में मंगलाचरण तथा दशावतार-वर्णन प्रथम समय में है और पृथ्वीराज का जन्म दूसरे मे । होना भी ऐसा ही चाहिए, क्योकि दशावतार-वर्णन मगलाचरण का रूपान्तर है और मगलाचरण सदा ग्रन्थ के प्रारम्भ में होता है । लघुवाचना के नायक पृथ्वीराज के जन्म-वृत्तान्त के पश्चात् ही तीसरे समय में नायिका सयोगिता के जन्म का वृत्तान्त पाता है, परन्तु मध्यम तथा बृहद्वाचनाओ मे इन दोनो वृत्तान्तो के बीच कई समयो का अन्तर है । वृहद्वाचना मे कन्नौज-खड के प्रारम्भ मे पृथ्वीराज का सयोगिता के लिए तडपना और साल भर तक एक-एक ऋतु में भिन्न-भिन्न रानियो द्वारा सयोगिता की प्राप्ति मे वाधाएँ उपस्थित करना कवि को षड्ऋतु-वर्णन का अवसर देते है, किन्तु लघु तथा मध्यम वाचनानो मे यही वर्णन पृथ्वीराज के सयोगिता को दिल्ली ले आने पर आता है। यह क्रम अधिक उचित प्रतीत होता है, क्योकि यदि पृथ्वीराज को सयोगिता से सच्ची लगन थी तो वह कदापि एक वर्ष तक उसे प्राप्त किये बिना न रुकता। (२) बढती अनैतिहासिकता-लघुवाचना की अपेक्षा मध्यम मे तथा मध्यम की अपेक्षा वृहत् मे अनैतिहासिक घटनामो का आधिक्य दृष्टिगोचर होता है, जैसे लघु वाचना में पृथ्वीराज तथा शहाबुद्दीन के तीन युद्धो का वर्णन है, मध्यम में लगभग आठ का और वृहत् में वीस का। वास्तव में इनके बीच दो ही युद्ध हुए थे। इसी प्रकार भीम द्वारा सोमेश्वरवध, पृथ्वीराज द्वारा भीमवध, जयचन्द का मेवाड-अधिपति समरसी तथा गुजरात-नरेश के साथ युद्ध, अग्नि कुड से चौहान-वश की उत्पत्ति आदि अनैतिहासिक घटनाओ का वर्णन मध्यम अथवा वृहद् वाचनाओ में ही मिलता है, लघु में नही। यह सम्भव नही कि चन्दवरदाई ने स्वय अपनी रचना में ऐसी अनैतिहासिक घटनाओ का समावेश किया हो; क्योंकि वह पृथ्वीराज के समकालीन तथा सखा थे। यह अधिक सगत प्रतीत होता है कि चन्द के परवर्ती भाटो ने इतिहास-क्रम की ओर ध्यान न देते हुए पृथ्वीराज के यशोगान के निमित्त इन घटनाओ का समावेश पृथ्वीराज रासो में कर दिया। (३) घटनाओं की संख्या में वृद्धि-इन वाचनामो में समान घटनामो की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है । जैसे लघुवाचना में पृथ्वीराज के केवल दो विवाहो का इच्छिनि तथा सयोगिता के साथ-वर्णन है, मध्यम में पांच का और बृहत में चौदह का। इसी प्रकार पृथ्वीराज-शहाबुद्दीन-युद्धो की संख्या लघुवाचना में तीन, मध्यम मे लगभग आठ तथा बृहत् में वीस के लगभग है। (४) वर्णन-विस्तार-इन वाचनामो में वर्णन-विस्तार भी क्रमश वृद्धि पर है । और लघुवाचना की अपेक्षा मध्यम और मध्यम की अपेक्षा वृहत मे दशावतार-वर्णन कन्नौज से लौटते समय का युद्ध-वर्णन तथा अन्तिम'युद्ध-वर्णन क्रमश अधिक विस्तृत है। (५) भाषा-यदि भाषा की दृष्टि से रासो की विविव वाचनामो की जांच की जाये तो भी उनको ऐसी ही परिस्थिति का ज्ञान होता है। जैसे लघु, मध्यम तथा वृहद् वाचनाओ मे भाषा के अर्वाचीन रूपो का प्रयोग क्रमश अधिक होता जाता है। ठीक यही वात रासो में विदेशी शब्दो के प्रयोग पर भी लागू होती है। 'श्री अगरचद नाहटा का उपर्युक्त लेख, पृ० ४५ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ प्रेनी-अभिनंदन-प्रच () पचतल्या लघु वाचना के भिन्न-भिन्न नमयो की पद्य-गल्या मे परस्पर भेद कम है, क्योकि इनमें ३१ १६ तापच है। वृवाचना नेतो यह भेद अत्यधिक हो जाता है। इसके समय की पदसल्या क्म-ने-कम १२ और अधिक-ने-अधिक २५५३ है। न्हाकाव्य के लक्षण के अनुसार ऐसा नहीं होना चाहिए। प्रत सम्भव नहीं कि चन्दवरदाई ने स्वय ऐसा किया हो । यह उनके परवर्ती भाटो काही प्रभाव प्रदर्शित करता है। उपरोक्त विचारधारा के आधार पर हम इस निफ्ष पर पहुंचते हैं कि पृथ्वीराजरातो का मूलप बहुत ही बोदाथा, किन्तु कालान्तर में प्रक्षेप मिलने के कारण इसका कलेवर वटता गया। इन्तीप्रक्षेपो के आधार पर ओमा जी जैसे उच्चकोटि के विद्वानो ने रानो को प्रानाणिकता में नन्देह प्रक्ट किया है। रानो को उपलब्ध वाचनाओं में से लघु वाचना शेष दोनों की अपेक्षा अधिक प्रामाणिक तया प्राचीन है। साहौर] 'इस वाचना में कम-से-कम पद्य-सल्या अर्यात् ३१ चतुर्य समय में है और अधिकाधिक अर्थात् १६६ प्रथम समय में है। शेष समयों का परिमाण इन दोनो सत्यानो के बीच है। 'वृहद् वाचना में लघुतम समय ६५वा है, जिसमें केवल १२ पद्य है तया ६१वा (फनवज्ज समय) दोयतम है और इसमें २५५३ पद्य है। 'देखिए । नातिस्वल्पा नातिवीर्घा सर्ना अष्टाधिका इह ॥ साहित्यदर्पण, परिच्छेद ६, श्लोक ३२० । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काफल-पाक्कू श्री चन्द्रकुंवर बाल [हिन्दी के इस अज्ञात पर प्रति श्रेष्ठ कवि के निम्नलिखित मुक्तक में पहली बार शेली की 'स्काईलार्क' का उल्लास प्राप्त हुआ है। वासुदेवशरण अग्रवाल] है मेरे प्रदेश के बासी! छा जाती वसन्त जाने से जब सर्वत्र उदासी झरते झर-झर कुसुम कभी, धरती बनती विधवा-सी गन्ध-अन्ध अलि होकर म्लान गाते प्रिय समाधि पर गान ! तट के अघरो से हट जाती जव कृश हो सरिताएँ । जब निर्मल उर में न खेलती चचल जल-मालाएँ ! हो जाते मीन नयन उदास लहरें पुकारती प्यास प्यास ! गलने लगती सकरुण-स्वर से जब हिम-भरी हिमानी जब शिखरो के प्राण पिघल कर वह जाते बन पानी ! वानी रहते पाषाणखड जिन पर तपता दिनकरप्रचड, सूखे पत्रों की शय्या पर, रोती अति विकल बनानी ! छाया कहीं खोजती फिरती बन-बन में वन-रानी ! जिसके ऊपर कुम्हला किसलय गिरते सुख-से हो करके क्षय उसी समय मरु के अन्तर में सरस्वती-धारा-सी ले कर तुम आते हो हे खग, हे नन्दन-बन-बासी ! प्लावित हो जाते उभय कूल । धरती उठती सुख-सहित फूल ! पी इस मधुर कंठ का अमृत खिल उठती बन-रानी लता-लता में होने लगती गुजित गई जवानी | . तुम शरच्चन्द्र से मधुर-किरण ! आलोक रूप, तुम अमृत-कण , किसलय की झुरमुट में छिप कर सुधा-धार करते वर्षण ! सुनती वसुधा ग्वाल-बालिका-सी हो कर के प्रेम-मगन ! 'काफल-पाक्कू एक पहाडी पक्षी का नाम है जो ग्रीष्म ऋतु में पर्वतप्रदेशों में प्राता है। उसकी बोली 'काफलपाक्कू, काफल पाक्कू होने के कारण उसका यह नाम पडा है। काफल एक पहाडी जगली फल का नाम है। बोली से समझा जाता है कि यह पक्षी काफल के पकने की सूचना दे रहा है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ २४ ३६ रख मृदुल हथेली पर धानन सुख से मूंदें वे मलिन नयन शैलो से उतरी प्राती नीरद निवासिनी परियां बजती मधुर स्वरों से जिनके चरणो की मजरियाँ ! ग्रामो से पाती, मुग्धाएँ कोकिल-कठी प्रिय लतिकाएँ क्षण भर में तुम कर देते इस पृथिवी को नन्दन ! जहाँ अप्सराएं करती हैं छाया में संचारण ! - फानो में वजते है ककण आंखों में करता रूप रमण ! फूले रहते है मदा फूल भौरे करते निशि-दिन गुजन ! (२) मेरे हिम-प्रदेश के वासी, जन्म-भूमि तज, दूर देश में रहने लगा प्रवासी मावन आया, दुख से मेरे, उमडी अतुल उदासी वरसी झर-झर झर अश्रुधार ! शैलों पर छाया अन्धकार ! लख उत्तर की दिशा जल-भरे मेघ मनोहर उडते पल-पल में चपला चमकाते, शैल-शैल पर रुकते पीछे को लखते बार-बार । बरसाते. रह-रह विन्दु-धार । मै घायल पर-हीन विहग-सा किसी विजन में मन मारे किसी तरह रहता था रो-रो फर निज जीवन धारे उर में उठती बातें अनेक मै कह पाता था पर न एक एक अँधेरी रात, बरसते थे जब मेघ गरजते जाग उठा था मै शय्या पर दुख से रोते-रोते,करता निज जननी का चिन्तन निज मातृभूमि का प्रेम-स्मरण उसी समय तम के भीतर से, मेरे घर के भीतर आकर लगा गूंजने धीरे एक मधुर परिचित स्वर, 'काफल पाक्कू', 'काफल पाक्कू स्वप्न न था वह, क्योंकि खोलकर वातायन मै बाहरदेख रहाथा, बार-वार सुनता वह ही परिचित स्वर । उर में उठता था हर्ष-ज्वार नयनों में थी आनन्द-धार ४३ ८ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LATION PALSEAN MalNAME . RWAIMARATSWALLinute continentmanKE... : LivingIOM - पोशित-भृत्तिका, [ कलाकार-श्री सुधीर खास्तगीर ] Page #159 --------------------------------------------------------------------------  Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ काफल पाक्कू मै तो विवश यहाँ पाया हूँ, पर यह कैसे पाया } क्या मुझको मेरी नननी का है संदेश कुछ लाया ? मुझमे कह्न को भान रात पाया जो यह पाशा-प्रभात अयवा क्या वे शल बह गये, जिनमें यह था रहता उखड़ गये वे पाटप प्यारे जिनमें यह था गाता? क्या उम वन में लग गई प्राग , जो यह पाया निन विपिन त्याग ? हिम पर्वत का क्या सव तुपार वन गया मलिल की तरल घार ? रह गये शेष नंगे पहाड़ हिम-हीन दीन मूखे चनाड नो यह पाया हिम-शेल त्याग ? हे मेरे प्रदेश के वासी! एक बार फिर कठ मिलाकर गाने का हूँ अभिलापी। अव कदम्ब की घन याया में व्याकुल-कंठ प्रवासी। होने पर भी जीवन समान क्यों रहते हो तुम दूर प्राण ? कितनी बार तुम्हें जीवन में मने पास बुलाया किन्तु न नाने तुम को भी क्यों पाना कभी न भाया! तुम मदा जानने हो कुमारकितना करता मै तुम्हें प्यार ! कल ही नव भाई अांधी तुम तरु पर से डरकर बोलेतुम्हें मार्ग देने को मने निज गवाक्ष-पट खोले। भीगे पसों में रख पानन क्यों दुरा दिये तुमने लोचन ? मेराकुम्हलाया श्रानन लख, लखकर मेरे साश्रु नयनहंसकर ग्राह! कर गये तुम क्यों विषम विवशवन्दी जीवन ? जीवन में मैने प्रथम वार जीवन भर को था किया प्यार भूल गया मै जननी के धीरे-धीरे प्रिय-चुंबन ! इन लहरों के साथ वह गया वह मेरा मृदु-जीवन ! तुममे सुन्दर था वाल्य-कालयह भी होता हे विहग-बालएक विपिन में रहकर भी तुम दूर रहे हैं प्यारे । अब यह हृदय-कुसुम फूलेगा फिस स्पर्श सहारे? १८ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ फैला ऊपर से वही गगनसंव को वह एक पवन छूता फिर क्यो मुझे श्राह । श्रकुलाहट, क्यो मुझको ही पीडा ? क्यो मुझको उन्मन पागलपन ? तुमको इतनी व्रीडा ? में जितना श्राता पास-पास तुम उड जाते हे श्वास- श्रास ? कहाँ खो दिया तुमने अपना सरल हृदय हे सुन्दर ? किस मानव ने तुम्हें दिखाया है सोने का पिंजर ? तुम दिन भर तर के कानो में अपनी विरह व्यथा कहते मुझे देखते ही सहसा क्यो रुक कर चुप हो जाते ? मेरी मानवता मुझे शाप मेरी मानवता मुझे पाप तुम्हें कभी विश्वास न होगा ऐसी मानवता पर ? मैं न तुम्हें क्या कभी देख पाऊँगा निज हाथो पर ? गायेंगे हम क्या फिर न कभी कठो में कठ मिलाकर काफल की छाया के नीचे में, तुम ऊँचे तरु पर एक साथ कहने हो --" काफल पाक्कू, काफल पाक्कू" मैने पाया है अविश्वास, भय, घृणा और दारुणोपहास ! श्रव कैसे मानव में तुमको, हे प्रिय, पास बुलाऊँगुजन स्वर में हृदय चीरकर कैसे श्राज बताऊँ ? होता भू पर में भरा फूल तज कर डाली के तीक्ष्ण शूल तव तो तुम आँसू भर मेरी सुख समाधि पर गातेतव तो दल उस रोमिल-उर का मृदु स्पर्श तो पाते ? पर में उन्मन रावण दानव ! मेरी तृष्णा वन जाती यदि वन में कोमल पल्लवित डालउस शय्या में रहकर निशि भर गाते तब तो तुम विहग-वाल 2 हो पाते मेरे आँसू यदि - मेघो के ये भरते लोचनधोते तब तो हे मेरे प्रिय मेरे आँसू तेरा श्रानन ? क्यो रोता में यो बार-वारक्यो होता में प्रतिपल अधीर । क्यो वहता अब तक अश्रु-नीर ! भगवन् मैं होऊँ खग-कुमार ! 2 } १०० १०४ ११३ १२१ १३४ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम और बेताल-कथा में तथ्यान्वेषण श्री सूर्यनारायण व्यास विक्रम सवत् की द्वि-सहस्राब्दी के उत्साह ने शिक्षित समुदाय मे एक सास्कृतिक चेतना ही जाग्रत कर दी है। साहित्य के विभिन्न अगो पर इस अवसर पर जितना विक्रम के विषय में लिखा गया है, उतना शायद ही किसी समय लिखा गया हो। यदि यह सव साहित्य एक जगह एकत्रित किया जावे तो निस्सन्देह पांच हजार से अधिक पृष्ठो की सामग्री हो जावेगी और उससे विक्रमादित्य-सम्बन्धी जिज्ञासा के समाधान में पर्याप्त सहायता मिलेगी। विक्रमादित्यविषयक विविध कल्पनाएँ हजारो मील दूर बसने वाले विदेशी विमर्शको ने तो जव-तव की भी है, पर हमारे देश का मुख्यत महाराष्ट्र प्रान्त तथा कुछ अशो में गुजरात और वगालही इन शास्त्रीय चर्चामो में रस लेते रहे है और विदेशियो की धारणामो को भ्रान्त सिद्ध करते रहे है। डा० जायसवाल या मजूमदार प्रभृति महानुभाव भी इस दिशा में सजग रहे है । महाराष्ट्रीय और वगीय विद्वानो की इस विवेचनात्मक प्रवृत्ति का परिचय विद्वद्वर स्व० महावीरप्रसाद जी द्विवेदी हिन्दी-भाषी-ससार को प्राय देते रहते थे, परन्तु इतर प्रान्तीय पडितो ने इस दिशा में कम ही अभिरुचि प्रकट की है। महाराष्ट्र की जागरूकता आज भी यथापूर्व है। विक्रम, कालिदास जैसी विश्व-वन्द्य विभूतियो के विपय में उनकी अध्ययन-शीलता नि सन्देह अभिनन्दनीय है। गुजरात और वगाल के ललित-साहित्य की आराधना में तत्पर रहते हुए भी वहाँ विक्रम और कालिदास के प्रति वडा अनुराग है । रवीन्द्रनाथ की विश्व-वन्दिता वाणी ने सहस्रो गीतोकी सृष्टिमे उज्जयिनी, विक्रम, कालिदास, शकतला, उर्वशी, कादम्बरी, वासवदत्ता को भुलाया नहीं, बल्कि उनका इतनासरस वर्णन किया है कि पाठको का मन उस मधुरिमा में मस्त हुए बिना नही रहता। राजनीति और योग की सतत् साधना मे अरविन्द ने भी अपनी प्रतिभा का प्रसाद उक्त विषय पर प्रदान किया है, परन्तु विक्रम की द्वि-सहस्राब्दी के अवसर पर आज तो अजस्र वारा ही प्रवाहित हो रही है। विगत दो वर्षों के अन्दर जो साहित्य-सृजन हुआ है, उसमें अध्ययन और मौलिकता के मान से यद्यपि विषय-वस्तु की अधिकता नही है, तथापि अधिकाश विदेशी विमर्शको के विभिन्न मतो का सकलन और अपने शब्दो मे प्रकटीकरण उसमें अवश्य है। यह विचारको के लिए विभिन्न दृष्टिकोणो का समन्वय-साधक साहित्य है और यह हमारे लिए मार्ग प्रशस्त कर देने और विचारको को प्रेरणा देने का कार्य सुलभ कर सकता है। विक्रमादित्य-विषयक सहस्रश दन्तकथाएँ और लोकोक्तियाँ विभिन्न प्रान्तो में विविध भाषामो में यत्र-तत्र फैली हुई है। उनका समीकरण किया जाय तो वह भी अवश्य अनेक तथ्यो को प्रकाश मे ला सकती है। प्राकृत, सस्कृत, जैन, पाली तथा कथा-अन्थो में भी अनेक विचित्र और विस्मयकारी गाथाओ, का संग्रह है। ये सभी केवल निराधार रचनाएँ है, ऐसा तो नही कहा जा सकता। कथा-गाथानो मे तथ्यान्वेषण की प्रवृत्ति से हमने काम ही कब लिया है ? इन कथा-किंवदन्तियो ने न जाने कितनी पुरातन परम्परामो और सास्कृतिक सूत्रो का पोषण किया है। विक्रमादित्य की शतश रोचक कथाओ का साहित्य जैन श्वेताम्बरीय ग्रन्थो में अत्यधिक भरा पडा है । उसका साम्प्रदायिक आवरण हटाकर वस्तु-विमर्शक दृष्टि से अन्वेषण किया जाय तो अनेक अभिनव तथ्यो का स्वरूप प्रत्यक्ष हो सकता है । सस्कृत-साहित्य की कथा-कृतियो में अभी तक हमने रोचकता की दृष्टि ही रक्खी है, अन्वेषण की प्रवृत्ति को प्रेरणा नही दी। 'सिहासन द्वाविंशति' का हिन्दी रूपान्तर ही नही, सभी विश्वभाषामो में अनुवाद होकर जगत् के सामने आ चुका है । यह "सिंहासन-बत्तीसी' अपनी आकर्षक कथा के कारण ही जन-मन में प्रविष्ट हुई है, परन्तु बत्तीस पुतलियो वाले सिंहासन पर आसीन होने वाले 'विक्रम' की इस कथा में लोक-रजन के अतिरिक्त उसकी लोकप्रियता का और भी कुछ कारण हो सकता है, यह सोचने का हमने प्रयल नही किया। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० - प्रेमी-अभिनंदन-प्रेय वताल-पत्रविमति' की भी यही स्थिति है। यहां हम इसी पर विचार करेंगे कि इन अतिरोचक कथा-पन्य के मूल में क्या है। 'वैतात-पव-विमति' नस्कृत-साहित्य का प्रसिद्ध क्या-प्रत्य है। इसका देश-विदेश की अनेक भापामोमें अनुवाद हो गया है, जो इसकी रोकता का प्रनाग है। यद्यपि कथा-कल्पनाएँ अपने निर्माण के पूर्व या समकालीन नमाज-स्थिति और सर्वप्रिय प्रत्रनित विषपो और वातावरणों पर ही निर्मित होती है तथापि कया-गाया-ग्रन्यो का मूचाक्न ऐतिहानिक आधार पर अवलम्बित नहीं न्यिा जाता। उक्त पचविंगति को भी इनी परम्परा के कारण 'कया' का नहत ही मिलना श रहा है। इनसे अधिक उजत पुलक की कयासो को इतिहास की कनोटी पर कमा गया या नहीं इनका हमें पता नहीं। 'वैताल पचविंशति का उत्तर प्रान्तो में कितना अधिक प्रचार है, यह भी हमें ठीक नालून नहीं, पर मालव-देन में तो ने अत्यधिक लोर-प्रियता प्राप्त है। नस्कृत के बाद जन-मापा मे वह वैतातपच्चोनी के रूप में सर्वान्य एव सर्वप्रिय स्थान पर अधिप्लिहै। वैताल को इन दिलचस्प कया-मालिका की निगेपता यह है कि हर एक कया के पूरेहोते न होने देताल अपने स्थान पर वापिस लौटाता है और णन अथवा श्रोता के मन में एक अतृप्त लालना बनी रहती है। वेतात की कया में विक्रमादित्य काही महत्त्व है। इस कया की प्रारम्भिक परम्परा कब से और किन कारणो से हुई, यह बतलाना कठिन है। ५. इतना स्पष्ट है कि यह अभिनव तो कदापि नहीं है। मतान्दियो पूर्व से इसका पर्याप्त प्रचार रहा है। ग्यारहवी शताब्दी में इस कथा का स्रोत थोडे फेर-फार नाय कयारिलागर में प्राप्त होता है, क्नुि कया सरित्सागर में इसका अवतरण तो पैशाची भाषा की वृहत्कथा सेही हुआहै, जो कि प्रथम गती की रचना थी। नी का ननेप क्यारिलागर है। मकर कवि के पश्चात् चौदहवी मती में जन-ति के सूत्रबद्ध-पर्ता जैन विद्वान मेस्तुग मूरि ने अपनी प्रवन्व-चिन्तामणि' में भी इस आगिक रूप में स्थान दिया है। इस प्रकार कई भतियो की परम्परा को लेकर यह अपने तथ्य-रूप में व्यापक लोक-प्रियता लिये हुए अधाववि निरजीवी है। ताल-पदिशति में विन के राज्यारोहण की कया रोचक रूप से वर्णित हुई है। उज्जैन के राजनिहासन पर दीर्ष काल पर्यन्त कोई भी एक राजा स्थायी रूप से नही बैठ पाता था। प्राय रात को कोई भक्ति ग्राक से अपना नक्ष्य बना लेती थी। फ्लत प्रतिदिन एक-एक व्यक्ति चुन कर लाया जाता और वह अयोग्य निश होकर उन मन्ति का भव्य वन पाया करता था। नारपुर-प्रान्त में ऐसा नात्त और आतक था कि कोई राजा बनने को तैयार ही नहीं होता था। इसी सिलसिले में एक दिन 'विक्रम नानक एक निर्धन व्यक्ति की वारी आई। वह सिंहासन पर पाकर बैग और उसने अपने बौद्धिक चातुर्य और माह से काम लिया। उसने विचार किया कि जो अज्ञात शक्ति मासक की बलि लेती है, उसे अन्य प्रकार से सन्तुष्ट कर लिया जाय और सतर्क रहकर उनका मुकाबला दिया जाय। यह सोच विविध रत के पकवानो की योजना करके विक्रम सङ्गहस्त हो एकान्त में धुत कड़ा हो गया। मध्य-निशा के निविडान्वकार में सहता द्वार से घूम-पटलो और लपटो के प्रवेश के बाद पन्त की भांति एक भयानक पुरष ने कक्ष में पदार्पण किया। आते ही खुवातुर हो उसने पकवानो पर हाथ डाला और तृप्ति की। आप की इस अभिनव योजना और वटिया स्वाद से उसे वडा नन्तोष हुआ। विम्रान्ति के बाद वेताल ने उन चतुरमानक को प्रकट हो जाने के लिए आमन्त्रित किया। अभय वचन लेकर विक्रम प्रत्यक्ष उपस्थित हो गया। ताल ने अपना परिचय 'अग्नि-बेतात के रूप में देकर आतिथ्य के उपलक्ष्य में विक्रम को उज्जैन का स्थायी नरेश घोषित कर दिया और अपने दैनिक आतिथ्य की उचित व्यवस्था का वचन ले लिया। तब से वेताल विक्रम का सहायक हो गया। यह कया बहुत सुन्दरता से प्रतिपादित हुई है। सक्षेप में कया का आशय यही है और विभिन्न कयामओ में विश्मको परीक्षा को गई है, जिनमें वह श्रेष्ठ सिद्ध होता गया है। कुछ भी हो, मालव मे इस कया में सत्य की विश्वस्त वारणा है और उसके कुछ कारण भी हैं। एक बात इन कया वे सष्ट हो जाती है कि विक्रमादित्य को वेताल जैसी महा शक्ति का सहयोग प्राप्त था Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम और बेताल-कथा में तथ्यान्वेषण १४१ और उस वेताल की दृष्टि में, जिसने अनेक शासको का अस्तित्व नामशेष कर दिया था और एक दिन से अधिक उन्हें शासक नही रहने दिया था, विक्रम तुल गया था और आगे के लिए वह स्थायी शासक वना दिया गया । वेताल का सहयोग भी विक्रम को प्राप्त रहा। इस कथा में से 'रूपक' का आवरण हटा दिया जाय तो भी इतना स्पष्ट हो जाता है कि विक्रम के निकट वेताल की अद्वितीय शक्ति थी । उसी के कारण कोई सिंहासन पर स्थायी रूप से नही बैठ सकता था और यदि विक्रम बैठा तो उसी की कृपा से । इससे यह विदित होता है कि बेताल अवश्य ही उज्जैन के शासन का वडा ही उग्र और तेजस्वी नेता रहा होगा । यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि केवल शासन तक ही वेताल का आतक था । इससे अनुमान होता है कि वह शुद्ध राजनैतिक नेता था । यही कारण है कि उसकी कथाओ में कही भी प्रजा उपद्रव की चर्चा नही है । इस सवसे हमारी मान्यता यही होती है कि वेताल श्राग की तरह तेजस्वी था । कोई आश्चर्य नही कि वह मानव- गणो मे से ही कोई प्रमुख हो । उसे व्यक्तिश शासक बनने का शौक नही था, किन्तु वह राजाओ का निर्माता (King-maker) और उनका सचालक बनना चाहता था । श्री विजय भट्ट जैसे विद्वान् ने अपने विक्रमादित्य चित्र-पट में वेताल को तेजस्वी श्रीर महान् देश-भक्त प्रवान अमात्य वनाकर उसके द्वारा जो कार्य सम्पादित उज्जैन के वेताल-मंदिर का एक दृश्य करवाया है, वह उचित ही प्रतीत होता है और उससे बेताल की वास्तविक स्थिति की प्रतिष्ठा होती है । वेताल को भूत-प्रेत आदि की श्रेणी में विठला देने का कार्य सम्भवत शक-काल में शक अथवा अन्य शासन के किसी श्राश्रित ने रूपक देकर किया होगा । यह तो जगद्विश्रुत है कि सवत् प्रवर्तक विक्रम का शासन उज्जैन पर रहा है । फिर चाहे वह कोई भी विक्रम हो, उसका सहायक वेताल भी था। क्षेमकर ने 'कथा - सरित्सागर' मे. वेताल का नाम 'अग्निशिख' बतलाया है और मेरुतुग सूरि ने उसे 'अग्निवर्ण', कहा है। दोनो से एक ही बात प्रकट होती है, अर्थात् वेताल 'अग्नि' की तरह उग्र तेजस्वी व्यक्ति था । मालवी भाषा में इसी को 'आगिया (अग्नितुल्य) वेताल' कहकर सम्बोधित किया है । इतना ही नही, Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ उज्जैन में अग्नि वेताल का मन्दिर भी बना हुआ है। समस्त नगरवासी उस मन्दिर को इसी नाम से पुकारते है। वेताल की कथा के अनुरूप उसके भक्ष्य की शर्त की पूर्ति विक्रम की तरह आज भी न जाने कब से प्रति वर्ष नवरात्रि में राज्य की ओर से बलि-प्रदान के रूप में की जाती है। इस वलि प्रथा और मन्दिर को प्रत्यक्ष देखते हुए यह ज्ञात होता है कि उक्त 'वेताल-कथा' की पृष्ठ-भूमि में कोई तथ्य-घटना अवश्य है, जिसकी स्मृति-स्वरूप वेताल का यह मन्दिर पौराणिक अस्तित्व की साक्षी देता हुआ आज भी इस नगरी में खडा है। यदि वेताल की उक्त कथा केवल गल्प ही है तो इस मन्दिर और वलि-प्रथा की परम्परा और अवन्ती-पुराण, स्कन्द-पुराण की कथा की सगति का क्या अर्थ है ? पुराणो को नवी शती की रचनाएँ ही स्वीकृत की जाये तो भी यह तो स्वीकार करना ही पडेगा कि उस समय विक्रम और वेताल की कथा को इतनी अधिक लोकप्रियता प्राप्त थी कि वे मन्दिर और पूजनीय स्थान की प्रतिष्ठा को प्राप्त कर सके। उक्त ख्याति के वशीभूत होकर ही वेताल की इस समाधि का पौराणिक वर्णन सम्भव हुआ होगा। एक बात और । विक्रम की नवरत्ल-मालिका में एक वेताल भट्ट का वर्णन पाया है। यह 'भट्ट' ब्राह्मण होना चाहिए। आश्चर्य नहीं कि वही वेताल, जो अप्रतिम सामर्थ्य रखता था, आगे विक्रम का सहायक हो जाने के कारण उसकी राज-सचालिका-सभा का एक विशिष्ट रत्न बन गया हो। ग्यारहवी सदी मे जिसे क्षेमकर और चौदहवी में जिसे मेस्तुग ने 'अग्निशिख' और 'अग्निवर्ण' वतलाया है, सभव है, यह वही वेताल-भट्ट हो। इतिहासान्वेपण-शील विद्वानों का ध्यान इस कथा और उज्जैन के वेताल मन्दिर के अस्तित्व की पोर तथ्यान्वेषक दृष्टि से आकर्षित होना आवश्यक है। यह अवन्ती का वेताल-स्मारक हमारा ध्यान सहसा आकृप्ट किये विना नही रहता। मेरुतुग-वणित-प्रवन्ध में विक्रम के एक मित्र का नाम भट्ट मात्र बतलाया गया है। सम्भव है, भट्ट मात्र का नाम वेताल भट्ट ही हो और शाक्त-परम्परा के मानने वालो मे से होने के कारण बलि प्रथा की परम्परा आजतक उसके साथ जुडी हुई हो। यह भी सम्भव है कि विक्रम ने उसकी देश-प्रेम की उन भावना के वशीभूत हो हिंसक प्रवृत्ति की सहज मान्यता दे दी हो। यही चीज़ उस ब्राह्मण-वर्चस्व काल में शायद वेताल को भूत-प्रेत की श्रेणी में रखने का कारण वन गई हो। कुछ भी हो, वेताल या वेताल भट्ट अथवा अग्निशिख या अग्निवर्ण केवल रोचक कथा का नायक ही नही, कल्पित पात्र ही नहीं, अवश्य ही विक्रम के साथ योजित होने वाली कोई अपूर्व ओजस्वी राजनैतिक शक्ति थी, जो अपने स्मृति-स्थल का उज्जैन में आज भी अस्तित्व धारण किये इतिहासान्वेपणशीलो को अपनी ओर आमन्त्रित कर रही है। उज्जैन] Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध हैं गान मेरे! श्री सुधीन्द्र एम्० ए० विविध गीतो में निरन्तर गा रहा मै प्रात्म-परिचय , भर उन्हीं में स्वगत सुख-दुख,प्रणय-परिणय, जय-पराजय । घोल देते विश्वजन है गान में अपनी व्यथाएँ , गूंथ देते है उन्हीं में सुख-दुखों की निज कथाएँ , गीत बनते विश्वजन के ये सरल पाख्यान मेरे। लक्ष्य कुछ गोपन लिये सब चल रहे अपने पथो से , एक ही पथ दीखता मुझको सभी के उन रथो से , रूप सवकी पुतलियो में मैं स्वय का ही निरखता, और अघरो पर सभी के प्रेम का पीयूष चखता , बन गये है गान ही ये आज अनुसन्धान मेरे ! श्वास जो दो वाहु से फैले कि लें निज प्रेय को भर, बांधने आये मुझे वे आज शत-शत पाश बनकर , एक तुमको बांधने को जो रचे ये रूप अगणित, रह गया उनमें स्वयं में आज पाठो याम परिमित , बस गये इन बन्धनो में आज मुक्ति-विधान मेरे । देखने तुमको यहां मैने मरण के द्वार खोले । "डूव लो मुझ में प्रथम" यो प्रलय-पारावार वोले । मरण जीवन-नाटय के है पट जिन्हें कि उठा रहे तुम अमर अभिनेता बने मुझ में 'स्व'रुप रचा रहे तुम | पा गये तुमको मुझी में आज प्रणयी प्राण मेरे ! साधना है गान मेरे ! वनस्थली ] Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समालोचना और हिन्दी में उसका विकास श्री विनयमोहन शर्मा एम० ए० साहित्य के यथार्थं दर्शन का नाम समालोचना है । वह स्वय 'साहित्य' है, जो श्रालोचक की वृद्धि, संस्कृति हृदय-वृत्ति से निर्मित होता है । बुद्धि में आलोचक की अध्ययन सीमा, सस्कृति में उसका विषयग्राही दृष्टिकोण और हृदय - वृत्ति में विषय के साथ समरस होने की ललक झलकती है। साहित्य की वर्तमान सर्वागीण अवस्था के साथ मूत-कालीन सस्कृति-सस्कार की श्रृंखला जुडी रहती है । अत साहित्य को समझने के लिए समाज, धर्म, राजनीति और साहित्य की तत्कालीन अवस्था तथा 'रूढियो' से परिचित होना आवश्यक है । यद्यपि मानव-भावनाओ -विकारो युग का हस्तक्षेप नही होता, परन्तु विचारो और परम्परानो में परिवर्तन का क्रम सदा जारी रहता है । इन परिवर्तनतत्त्वो के अध्ययन और विश्लेषण के प्रभाव में यह निर्णय देना कठिन होता है कि आलोच्य साहित्य अनुगामी है, अथवा पुरोगामी । अनुगामी से मेरा आशय उस साहित्य से हैं, जो समय के साथ है और भूत-कालीन साहित्य का ऋणी है । 'पुरोगामी' से भावी युग का सकेत करने वाले सजग प्रेरणामय साहित्य का अर्थ समझना चाहिए । इस प्रकार का साहित्य अनुकरण करता नही, कराता है । साहित्य-समालोचना के दो भाग होते हैं, एक 'शास्त्र' और दूसरा 'परीक्षण' । 'शास्त्र' श्रालोचना के सिद्धान्तो का निर्धारण और परीक्षण में 'साहित्य' का उन सिद्धान्तो के अनुसार या अन्य किसी प्रकार से मूल्याकन होता है । समय-समय पर मूल्याकन के माप-दड मे परिवर्तन होता रहता है । 'शास्त्र' में साहित्य के विभिन्न गोकाव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी, निवन्ध आदि के रचनातन्त्र - नियमो का वर्णन रहता है। ये नियम प्रतिभाशाली महान् साहित्यकारो की कृतियो के सूक्ष्म परिशीलन के पश्चात् उनकी अभिव्यजनाओ आदि की अधिक समानता पर आधारित और निर्धारित होते है । 'परीक्षण' में साहित्य की परख होती है, जो साहित्य-शास्त्र के नियमो को मापदड मानकर की जाती है और इस मापदढ की कुछ या सर्वथा उपेक्षा करके भी की जाती है । शास्त्रीय मापद को कितने अश में ग्रहण किया जाय और कितने अश में नही, इस प्रश्न को लेकर यूरोप में साहित्यालोचना की अनेक प्रणालियों का जन्म हुआ और होता जा रहा है। हिन्दी साहित्य की आधुनिक परीक्षण प्रणालियों पर पाश्चात्य प्रणालियो का प्रभाव - प्राधान्य होने से यहाँ उनकी चर्चा अप्रासंगिक न होगी । यूरोप में अरस्तू (Aristotle), होरेस (Horace) और बाइलू (Boileau) साहित्य - शास्त्र के आचार्य माने जाते है । "इन्होने साहित्य की व्याख्या की और महाकाव्य, ट्रेजेडी और दुखान्त नाटको के नियम बनाये ।" वर्षों तक साहित्य जगत् में इनके नियमो ने साहित्य सर्जन और उसकी समीक्षा में पथ प्रदर्शक का काम किया, पर उनमें गीतिकाव्य और रोमाचकारी रचनाओ (Romantic works) के नियमो का प्रभाव था । अत समय की प्रगति में वे शास्त्र साहित्य के कलात्मक पक्ष का निर्देश करने में असमर्थ हो गये । नाटककारो - शेक्सपियर आदि ने - शास्त्रियो को घता वताना प्रारम्भ कर दिया । इसके परिणामस्वरूप कुछ रूढिवादी आलोचको ने शेक्सपियर की शास्त्र- नियम-भगता की उपेक्षा तो नही की, पर यह कहकर क्षमा श्रवश्य कर दिया कि "वह झक्की —— श्रव्यवस्थित प्रतिभावान् है ।” रिनेसा के युग ने सोलहवी शताब्दी में अन्य रूढ़ियो के साथ समालोचना के शास्त्रीय बन्धनो को भी शिथिल कर डाला। उसके स्थान पर व्यक्तिगत रुचि को थोडा प्रश्रय दिया गया । परन्तु अठारहवी शताब्दी में इगलैंड मे ‘क्लासिकल-युग' ने पुन अरस्तू श्रोर होरेस को जीवित कर दिया। ड्राइडन, एडीसन, जॉनसन आदि ने उनके शास्त्रीय नियमो की कसौटी पर साहित्य को कसना प्रारम्भ कर दिया। बॉसवेल ने जब एक बार डा० जानसन से एक पद्य पर अपनी राय देते हुए कहा, "मेरी समझ मे यह बहुत सुन्दर है ।" तब डाक्टर ने झल्ला कर उत्तर दिया, Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समालोचना और हिन्दी में उसका विकास १४५ "महागय, आपके ममझने मात्र से यह पद्य मुन्दर नहीं वन जायगा।" उम ममय व्यक्तिगत रुचि का साहित्यालोचन में कोई मूल्य ही नही माना जाता था। उन्नीसवी शताब्दी के अस्त होते-होते साहित्य में रोमाटिक युग ने आँखें खोली, जिसका नेतृत्व जर्मनी मे लेसिंग, इगलैंड में वर्ड्सवर्थ और फ्रास मे मेट विउ (Beuve) ने ग्रहण किया। इस युग म 'व्यक्तिगत रुचि' और 'इतिहास' को साहित्य-परीक्षण का प्रावार माना गया। इगलैंड में सर्व-प्रथम कॉलहिल ने राष्ट्र के इतिहास और साहित्य मे सम्बन्ध देखने की चेष्टा की। जर्मन दार्शनिक फिशे (Fichte) और हीगल ने इस सिद्धान्त को वडा महत्त्व दिया। "साहित्य से हम इतिहास का ज्ञान प्राप्त कर सकते है और इतिहास से साहित्य प्रवाह की लहरें गिन सकते है। यद्यपि अरस्तू-होरेम के बन्धन से मुक्ति मिल गई, पर 'व्यक्तिगत रुचियो' ने साहित्यालोचन मे इतनी विभिन्नता और अव्यवस्था उपस्थित कर दी कि एक आग्ल आलोचक के गब्दो मे "उन्नीसवी शताब्दी की आलोचना में किसी तारतम्य को खोजना कठिन है।" अशास्त्रीय परीक्षण के विभिन्न रूपो में (१) प्रभाववादी आलोचना (Impressionist criticism), (२) सौन्दर्यवादी (Aesthetical) (३) प्रशसावादी (Appreciative) और (४) मार्क्सवादी (Marxian) __आलोचनाए यूरुप के आधुनिक माहित्य-जगत् को अभिभूत करती रही है। __'प्रभाववादी आलोचना' मे आलोचक अनातोले फ्रास के शब्दो मे, “साहित्य के बीच विचरण करने वाली अपनी आत्मा के अनुभवो का वर्णन करता है।" इस प्रकार की आलोचना "मै"-परक होती है। उसमें आलोचक का व्यक्ति प्रधान होकर बोलने लगता है। 'History of the People of Israel' की आलोचना मे आलोचक अनातोले फ्राम की आत्म-व्यजना का ही सुन्दर रूप मिलता है। 'प्रभाववादी आलोचना' में जहाँ आलोचक अपने को व्यक्त कर आत्मविभोर हो जाता है, वहाँ सौन्दर्यवादी आलोचना' में वह साहित्य में केवल 'सुन्दरम्' ही देखता है। यह सौन्दर्य शैली का हो सकता है और कल्पना का भी। 'प्रशसावादी आलोचना' मे शास्त्रीय,प्रभाववादी और सौन्दर्यवादी इन तीनो प्रकार की प्रणालियो का ममावेश होता है । इस प्रकार की आलोचना में न माहित्य की व्याख्या होती है और न किन्ही नियमो का माप-तोल । उसमे हर स्रोत मे 'पानन्द-रम' को सचित किया जाता है। अपने इस आनन्द को अपनी ही कल्पना के सहारे आलोचक चित्रित करता है।* __इस प्रकार की आलोचना की एकागिता स्पष्ट है। इन दिनो पाश्चात्य देशो में आलोचना का एक प्रकार और प्रचलित है, जो 'माक्र्सवादी आलोचना' के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें पालोचक कृति में देखता है कि 'क्या इसमें शोपक और गोपित' वर्गों का मघर्प है ? क्या शोषित वर्ग के प्रति लेखक की सहानुभूति है और क्या उसकी शोपक वर्ग पर विजय दिखाई गई है ? यदि इनका उत्तर "हाँ" है तो वह साहित्य की 'श्रेष्ठ कृति' है । यदि "नहीं" तो उसका मूल्य 'शून्य' है। यह बालोचना जीवन और माहित्य को एक मानकर चलती है। मोल्टन ने आधुनिक आलोचना के चार प्रकार प्रस्तुत किये है (१) व्याख्यात्मक (Inductive criticism) (२) निर्णयात्मक (Judicial method) (३) दार्शनिक पद्धति, जिसमें साहित्य की दार्शनिकता पर विचार किया जाता है और (४) स्वच्छन्द पालोचना (Free or subjective criticism), * The criticism is primarily not to explain and not to judge or dogmatize, but to enjoy, to realise the manifold charm the work of art has gathered into itself from all sources, and to interpret this charm imaginatively to the men of his own day and generation” (Studies and Appreciation ) १६ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी - अभिनदन- प्रथ मोल्टन ने व्याख्यात्मक आलोचना को शेष तीन प्रकार की आलोचनाओ का आधार माना है । विचेस्टर ने अपनी 'Some Principles of Literary criticism' में आलोचनाओ के विभिन्न भेदो की मीमासा न कर आलोचना के लिए तीन बातें आवश्यक बतलाई है । आपके मत से आलोचक को (१) साहित्य की ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि से अवगत हो जाना चाहिए, क्योकि कोई साहित्य अपने समय से सर्वथा अप्रभावित नही रह सकता । (२) साहित्यकार के व्यक्तिगत जीवन से भिज्ञ हो जाना चाहिए । इससे साहित्य को समझना आसान हो जाता है । पर इसी तत्त्व की ओर विशेष ध्यान देने से आलोचना का तोल विगड सकता है और (३) कृति की साहित्यिक विशेषताओ की उद्भावना की जानी चाहिए । विचेस्टर ने अन्तिम तत्त्व पर ही विशेष जोर दिया है । साहित्यिक विशेषताओ के अन्तर्गत कल्पना, भावना, भाषा आदि का विचार आता है। इस पद्धति को साहित्य की 'वैज्ञानिक परीक्षा' कहा जा सकता है, जिसमें शास्त्रीय नियमो के न रहते हुए भी कृति की परख 'नियम-रहित' नही है । नीचे वृक्ष द्वारा पाश्चात्य आलोचना की धाराओ का स्पष्टीकरण किया जाता है - समालोचना १४६ शास्त्र शास्त्रीय परीक्षण 1 अशास्त्रीय प्रभाववादी सौन्दर्यवादी प्रशसावादी विज्ञानवादी मार्क्सवादी हिन्दी मे आलोचना के परीक्षण --प्रग के दर्शन होने के पूर्व शास्त्र-ग्रन्थो का निर्माण संस्कृत शास्त्र-प्रन्यो के आधार पर प्रारम्भ हो गया था। संस्कृत में आलोचना शास्त्र के पाँच स्कूल थे १ - रस सम्प्रदाय ( स्कूल ) - यह सम्प्रदाय बहुत पुराना है । भरत के नाट्य शास्त्र में इसकी चर्चा है। हमारे यहाँ आचार्यों ने साहित्य की आत्मा 'रस' में देखी थी। ‘आनन्द’की परम अनुभूति का नाम ही 'रस' है । उसकी उत्पत्ति के विषय मे भरत का कहना है “ विभावानुभावव्यभिचारि सयोगाद्रसनिष्पत्ति ।" रूपक में 'रस' की सृष्टि दर्शको या पाठक मे होती है या पात्र या नाटक ( काव्य ) में, इस प्रश्न को लेकर भरत के बाद में होने वाले आचार्यों में काफी मतभेद रहा । पर अधिक मान्य मत यही है कि जब दर्शक या पाठक का मन पात्र या 'काव्य' के साथ 'समरस' हो जाता है -- ( जब साधारणीकरण की अवस्था उत्पन्न हो जाती है) तभी "रस" की निष्पत्ति होती है । रस की स्थिति वास्तव में दर्शक या पाठक के मन मे ही होती है। नाटक देखने-पढने से उसके मन के सोये हुए 'सस्कार' जाग उठते है और वह 'कृति' में अपना भान भूलकर श्रानन्द-विभोर हो जाता है । (२) रस सम्प्रदाय के साथ-साथ अलकार सम्प्रदाय का भी जन्म हुआ प्रतीत होता है । भामह को इस स्कूल का प्रथम ज्ञात आचार्य कहा जाता है। उनके बाद दडी, रुद्रटक, और उद्भट का नाम श्राता है । इन आचार्यो ने "अलकाराएव काव्ये प्रधानमिति प्राच्याना मत " कह कर काव्य में अलकारो को ही सब कुछ माना है। उक्त आचार्यो ने शव्द और अर्यालकारो की वावन सख्या तक व्याख्या की है, पर यह संख्या क्रमश वढती गई ।, (३) रीति-सम्प्रदाय में गुण (माधुर्य, ओज, और प्रसाद आदि) और रीति युक्त रचना को श्रेष्ठ माना गया है । आचार्य वामन ने गुणो की महत्ता में कहा है कि गुण-रहित काव्य मनोरजक नही हो सकता । गुण ही काव्य की शोभा है । वामन ने शब्द के दस और अर्थ के भी इतने ही गुण बतलाये हैं । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समालोचना और हिन्दी में उसका विकास १४७ (४) वक्रोक्ति सम्प्रदाय - कृतक ने वक्रोक्ति को ही काव्य का भूषण माना है । इसके पूर्व भामह ने इसकी 'चर्चा की थी । कुतक ने वक्रोक्ति में ही रस, अलकार और रीति सम्प्रदायो को सम्मिलित करने की चेष्टा की । कुछ आचार्य वक्रोक्ति को अलकार के अन्तर्गत मान कर मौन हो जाते हैं | (५) ध्वनि-सम्प्रदाय ने वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ से भिन्न अर्थ को, जो 'व्यगार्थ ' कहलाता है, महत्त्व दिया है । इसके प्रकट आचार्य श्रानन्द वर्धनाचार्य माने जाते है । इस सिद्धान्त ने संस्कृत - प्रलोचना साहित्य मे क्रान्ति मचा दी | ध्वनि में ही काव्य का सर्वस्व सुन पडने लगा । परिष्कृत भावक 'ध्वनि' - काव्य के ही ग्राहक होते है । श्रभिघापरक काव्य से उनमें रस की निष्पत्ति नही होती । हिन्दी में उक्त सम्प्रदायो में मे 'रस' और 'अलकार' - सम्प्रदायो को ही अपनाया गया । प्राज यह कहना कठिन है कि हिन्दी मे रस श्रौर अलकार - शाम्त्रो की रचना कब से हुई । केशवदास (स० १६१२) को (?) ही काव्य का आदि यांचा माना जा सकता है। उनके पश्चात् ( २ ) जसवन्तसिंह (भाषा - भूपण) (३) भूषण त्रिपाठी ( शिवराज भूषण) (४) मतिराम त्रिपाठी (ललित ललाम) (५) देव (भाव विलास ) (६) गोविन्द ( कर्णाभरण ) (७) भिखारीदास - ( काव्य निर्णय ) (८) दूलह (कठाभरण) (६) रामसिंह ( श्रलकार दर्पण) (१०) गोकुल कवि (चैत चन्द्रिका) (११) पद्माकर (पद्माभरण) (१२) लधिराम (१३) बाबूराम विस्थरिया ( नव-रस ) (१४) गुलावराय ( नव-रम) (१५) कन्हैयालाल पोद्दार (श्रलकार प्रकाश और काव्य कल्पद्रुम) (१६) अर्जुनदास केडिया ( भारतीभूषण ) ( १७ ) लाला भगवानदीन ( अलकार - मजूषा ) (१८) जगन्नाथप्रसाद 'भानु' (छन्द प्रभाकर ) (१९) श्यामसुन्दरदान (साहित्यालोचन) और (२०) जगन्नाथदाम रत्नाकर (समालोचनादर्श) श्रादि ने इस दिशा श्रम किया है। शास्त्र की रचना के साथ ममालोचना- प्रणालियों का हमारे यहाँ पाश्चात्य देशो की भाँति शीघ्र प्रचार नही हुआ । सवमे पहले सक्षिप्त सम्मति प्रदान की आशीर्वादात्मक प्रथा का जन्म हुआ । 'भक्तमाल' में ( विक्रम की सोलहवी शताब्दी मे ) " वाल्मीकि तुलमी भयो” जैसी सूत्रमय सम्मति मिल जाती है। साहित्य-कृति की अन्तरात्मा में प्रविष्ट हो उसके विवेचन का समय बहुत वाद में श्राता है । हरिश्चन्द्र- काल से कृति के गुण-दोप विवेचन की शास्त्रीय श्रालोचना का श्रीगणेश होता है । प० बद्रीनारायण चौधरी की 'आनन्द कादम्विनी' में 'सयोगता स्वयवर' की विस्तृत आलोचना ने हिन्दी में एक क्रान्ति का सन्देश दिया। पर जैसा कि आलोचना के प्रारम्भिक दिनो मे स्वाभाविक था, आलोचको का ध्यान 'दोपो' पर ही अधिक जाता था । मिश्रबन्धु लिखते है, " सवत् १९५६ में 'सरस्वती' निकली । मवत् '५७ में इसी पत्रिका के लिए हमने हम्मीर हठ और प० श्रीधर पाठक की रचनाओ पर समालोचनाएँ लिखी और हिन्दी - काव्य- श्रालोचना में साहित्य-प्रणाली के दोषो पर विचार किया । सवत् १९५८ मे उपर्युक्त लेखो में दोषारोपण करने वाले कुछ श्रालोचको के लेखो के उत्तर दिये गये । प० श्रीवर पाठक- सम्वन्धी लेख में दोषों के विशेष वर्णन हुए । हिन्दी काव्य-यालोचना के विषय में अखबारो मे एक वर्ष तक विवाद चलते रहे, जिसमे देवीप्रसाद 'पूर्ण' ने भी कुछ लेख लिखे ।" प० महावीरप्रसाद द्विवेदी ने भी 'दोष-निरूपक श्रालोचना' को विशेष प्रश्रय दिया । इम काल तक 'शास्त्रीय श्रालोचना' से आगे हमारे श्रालोचक नही बढे । मिश्र वन्धुओ ने जब 'हिन्दी - नव-रत्न' मे कवियो को वडा छोटा सिद्ध करने का प्रयत्न किया तव प० पद्मसिंह शर्मा ने विद्वत्तापूर्ण ढंग से 'बिहारी' की तुलना संस्कृत और उर्दू-फारसी के कवियो से कर हिन्दी मे तुलनात्मक आलोचना - प्रणाली को जन्म दिया। इस प्रणाली मे शास्त्रीय नियमो का सर्वथा वहिष्कार नही होता, पर उसमें आलोचक की व्यक्तिगत रुचि का प्राधान्य अवश्य हो जाता है । यूरुप में ऐसी तुलनात्मक आलोचना को महत्त्व नही दिया जाता, जिसमें लेखको-कवियो को 'घटिया-बढिया’ सिद्ध करने की चेष्टा की जाती हैं । , - शर्मा जी की इस आलोचना -पद्धति का अनुकरण हिन्दी मे कुछ समय तक होता रहा, पर चूँकि इसमें बहुभाषा - विज्ञता और साहित्य - शास्त्र के गम्भीर अध्ययन की अपेक्षा होती है, इसलिए इस दिशा मे बहुत कम व्यक्ति सफल हो सके । पत्र-पत्रिकाओ की सख्या बढ जाने के कारण सक्षिप्त सूचना और लेख - रूप में आलोचनाएँ अधिक Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ छपने लगी, जिनमें न तो आलोचको का व्यक्तित्व ही प्रतिविम्वित हो पाया और न कृति का यथार्थ दर्शन-विवेचनही। छायावाद काल मे प्रभाववादी समालोचनाओ का बाहुल्य रहा है । पर साथ ही 'साहित्य' की आत्मा से एकता स्थापित करने की चेष्टा भी कम नही हुई। इस युग में शास्त्रीय आलोचना का महत्त्व बहुत घट गया। नियमोवन्वनो के प्रति उसी प्रकार विद्रोह दीख पडा, जिस प्रकार यूरुप मे रोमाटिक युग में दोखा था। साहित्य के समान आलोचना भी निर्वन्ध होने लगी। कई बार साहित्य-कृति की अपेक्षा समालोचना में भाषा सौन्दर्य और कल्पना को सुकुमारता अधिक आकर्षक प्रतीत होती थी। छायावाद की अधिकाश रचनाओ को जिस प्रकार समझना कष्टकर होता था उसी प्रकार तत्कालीन कई आलोचनाएँ भाषा के आवरण मे छिप जाती है। इन छायावादी आलोचनाओ में सौन्दर्य-तत्त्व और (आलोचक का) रुचि-तत्त्व प्रमुख है। द्विवेदी-युग मे प० रामचन्द्र शुक्ल ने अग्रेज़ी आलोचनापद्धति के अनुसार हिन्दी में ऐतिहासिक पृष्ठ-भूमि पर कतिपय कवियो को शास्त्रीय आलोचना (अथ रूप में) प्रस्तुत कर मार्ग-दर्शन का कार्य किया। छायावाद-काल की शुद्ध प्रभाववादिनी आलोचनायो का अस्तित्व भी अधिक समय तक नही ठहर सका। सन् १९३४ के लगभग देश मे साम्यवादियो की लहर के फैलते ही साहित्य मे भी उसका अस्तित्व अनुभव होने लगा। प० सुमित्रानन्दन पन्त आदि ने मार्क्सवाद का अध्ययन किया और उसी के सिद्धान्तो की पोपक रचनाओ की सृष्टि की। आलोचना में भी एक प्रणाली उठ खडी हुई, जो अपने मे मार्क्सवादी दृष्टिकोण भर कर चलने लगी, परन्तु इममें भारतीय राजनैतिक स्थिति के वैषम्य और उसके दुष्परिणामो के तत्त्वो का भी समावेश कर दिया गया। इस प्रकार की आलोचना 'प्रगतिवादी' आलोचना भी कहलाती है। इसमे शास्त्रीय नियमो की अवहेलना और सौन्दर्य-तत्त्व का बहिष्कार कर 'व्यक्तिगत रुचि' का स्वीकार पाया जाता है। श्री हीरेन मुखर्जी के शब्दो मे प्रगतिशील पालोचना को सामान्यत दो वुराइयो के कारण क्षति उठानी पडतो है । एक ओर तो नकली मार्क्सवादी का असयम, जो अपने उत्साह में यह भूल जाता है कि लिखना एक शिल्प है, जिसकी अपनी लम्बी और अनूठो परम्परा है । और दूसरी ओर गरोवो और दीनो के दुखो के फोटो सदृश चित्रण की प्रशसा करते न थकने वाले और वाकी सारी चीज़ो को प्रतिगामी पुकारने वाले भावना-प्रधान व्यक्ति की कोरी भावुकता। यह लडकपन की वाते है, जिनसे साहित्य में प्रगति के इच्छुक सभी लोगो को अपना पीछा छुडाना चाहिए। आज हिन्दी का आलोचना-साहित्य समुन्नत नहीं दीखता। आलोचना के नाम पर जो निकलता है, उसका निन्यानवे प्रतिशत अग सच्ची परख से हीन होता है, साहित्यकार का अत्यधिक स्वीकार या तिरस्कार ही उसमे पाया जाता है। निर्भीकता और स्पष्टता उसमें बहुत कम मिलती है । इस अधकचरेपन मे न कोई आश्चर्य की बात है और न निराशा की ही। अभी 'साहित्य' के विभिन्न अंग ही अपरिपक्व है । कुछ उग रहे है, कुछ खिलना चाहते है और कुछ महक रहे है । ऐसी दशा मे साहित्य की सम्यक् आलोचना का समय आज से सौ, दो सौ वर्ष वाद ही आ सकता है। इस समय प्राचीन साहित्य के परीक्षण की दिशा मे कार्य होना आवश्यक है, पर प्राचीन साहित्य के समझने, परखने के लिए विभिन्न दृष्टियो से गम्भीर अध्ययन की ज़रूरत है। इसके लिए हमारे आलोचक कव तैयार होगे? नागपुर - Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नईगढ़ी अदृष्ट ठाकुर गोपालशरण सिंह क्या तुम छिप सकते हो मन में ? " 1 ललित लता के मृदु श्रञ्चल में, विकसित नव-प्रसून के दल में, प्रतिविम्वित हिमकण के जल में तुम्हें देखता हूँ में सन्तत " पिक- कूजित कुसुमित कानन में । क्या तुम छिप सकते हो मन में ? रत्नाकर, लिये सङ्ग में परम मनोहर, तारावलि - रूपी है नभ में छिप गया कलाधर, किन्तु देखता हूँ में तुमको चल-चपला मे ज्योतित धन में । क्या तुम छिप सकते हो मन में ? जल की ललनाओ के घर में, गाते हुए मरस मृदु स्वर में, तुम हो छिपे तल सागर में, में देखा करता हूँ तुम को चञ्चल लहरो के नर्त्तन में । क्या तुम छिप सकते हो मन में ? " जब में व्याकुल हो जाता हूँ, कहीं नहीं तुम को पाता हूँ। मिलनातुर हो घबराता हूँ, तब तुम श्राकर भर देते हो नव प्रकाश मेरे जीवन में । क्या तुम छिप सकते हो मन में ? X Create C Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी कविता के कला-मण्डप श्री सुधीन्द्र एम० ए० पिछली अर्धगताब्दी से हिन्दी कविता मे जो प्रगति हुई है वह निस्सन्देह उदीयमान भारत-राष्ट्र की वाणी हिन्दी के सर्वथा अनुरूप ही है । काव्य के अनेक उपकरणो पर समीक्षको और समालोचको ने यथावसर प्रकाश डाला है, किन्तु अभीतक किसी ने यह दिग्दर्शन कराने का प्रयत्न नही किया है कि हिन्दी के छन्द ने इस युग मे कितनी समृद्धि विभूति सचित की है। उसका मूल्याकन होना भी आवश्यक है । इस अर्ध शताब्दी मे हिन्दी कविता ने अपने विहार के लिए अत्यन्त मनोरम श्रौर भव्य कला-मडप संवारे है । कविता की रसात्मकता मे छन्दो का योग कम नही है । छन्द की गति ( लय) की मधुरिमा ऐसी मधुरिमा है, जो रसज्ञ Share भी 'गूंगे का गुड' ही रही है । हिन्दी के स्वनामधन्य कवि 'प्रसाद', पन्त, गुप्त, महादेवी तथा अन्य कविगणो की लेखनी से जो कविता प्रसूत हुई हैं, उसमे छन्द के इतने विविध प्रयोग हुए है कि उन्होने हिन्दी के 'छन्द प्रभाकर' कभी छोटा कर दिया है । कवि की दृष्टि 'प्रभाकर' की किरण से भी दूर पहुँची है और उसने छन्दो का एक नवीन छायालोक ही निर्मित कर दिया है । छन्द की मंदिर गति को स्वच्छन्द छन्द के कवि भी छोड नही सके, चाहे वे 'निराला' हो, चाहे सियारामशरण, या 'प्रसाद' या सोहनलाल द्विवेदी । इन छन्दो को प्रकृति में कई बातें विशेषत उल्लेखनीय है (१) ( मात्रिक छन्दो मे शास्त्रकारो ने लक्षण बताते समय उनके चरणान्त मे लघु गुरु आदि के क्रम का भी विधान कर दिया था, किन्तु कवि की प्रतिभा इस नियम में बद्ध न रह सकी और कला ने इन बन्धनो को सुघडता से दूर कर दिया । एक उदाहरण ले 'छन्दप्रभाकर' - कार 'हरिगीतिका' का लक्षण देते है--- । ऽ १२ . शृगार भूषण अन्त ल ग जन गाइए हरिगीतिका । अर्थात् १६, १२ पर यति और अन्त मे लघु गुरु होना चाहिए, किन्तु कवि (मैथिलीशरण गुप्त ) ने इस गति के नियम का भग करके भी इसकी सहज मधुरिमा को नष्ट नही होने दिया है, बढा ही दिया है मानस भवन में श्रार्यजन, जिसकी उतारें भारती । १४, १४, भगवान् भारतवर्ष में, गूंजे हमारी भारती । १४, १४, हे भद्रभावोद्भाविनी, हे भारती, हे भगवते ! १४, १४, सीतापते, सीतापते, गीतामते, गीतामते । १४, १४, ( भारतभारती ) इसी प्रकार वर्णिक छन्द सवैया मे भी लघु गुरु के कठिन वन्धन का त्याग कर कवि ने छन्द का सौन्दर्य द्विगुणित ही किया है · करने चले तग पतग जलाकर मिट्टी में मिट्टी मिला चुका हूँ । तम तोम का काम तमाम किया दुनिया को प्रकाश में ला चुका हूँ । नहीं चाह 'सनेही' सनेह की और सनेह में जो में जला चुका हूँ । ने का मुझे कुछ दुख नहीं, पथ सैकडो को दिखला चुका हूँ । - सनेही Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी कविता के कला-मण्डप १५१ आठ सगण (लघु-लघु-गुरु) के इम 'दुर्मिल' सवैया का गण विचार कीजिए । कवि ने कितनी स्वतन्त्रता ग्रहण की है, परन्तु सौष्ठव वढा ही है । (२) पिंगलकार यह भी विधान करने है कि छन्द ४ चरणो का होता है, (जैसे वह कोई चतुष्पद 'जन्तु' हो।) परन्तु इस रूढि को भी कवियो ने कई वार गांठ वाँधकर पौराणिको के लिए घर दिया । अव तो दो चरणो और तीन चरणो की रुचि प्राय देखी जाती है । कभी-कभी अन्त्यानुप्रास केवल पहले, दूसरे और चौथे चरण काही मिलाते है। जैसे(क) दो चरणो का अन्त्यानुप्रास तिमिर में वुझ खो रहे विद्युत भरे निश्वास मेरे निस्व होगे प्राण मेरे शून्य उर होगा सवेरे । ('दीपशिखा' महादेवी) (ख) तीन चरणो का अन्त्यानुप्रास कुटी खोल भीतर जाता हूँ। तो वैसा ही रह जाता हूँ। तुझको यह कहते पाता हूँ! ('झकार' गुप्त जी) (ग) प्रथम, द्वितीय तया चतुर्थ चरणो का अन्त्यानुप्रास रज में शूलों का मृदु चुम्बन , नभ में मेघो का धामन्त्रण, आज प्रलय का सिन्धु कर रहामेरी कम्पन का अभिनन्दन ! ('दीपशिखा' महादेवी) (३) कवि-प्रतिभा ने दो छन्दो के सयोग से नये छन्द की रचना करने की स्वतन्त्रता का भी उपयोग किया है । सवसे पहले सम्भवत 'अष्टछाप' के कवि नन्ददास ने इस दिशा में पदनिक्षेप किया था। उन्होने 'रोला' और 'दोहा' के सम्मिश्रण और अन्त में एक १० मात्रीय चरण और जोडकर छन्द को सवाया सुन्दर कर दिया। वर्ण-सकर होकर भी इस सन्तति ने अपने शील द्वारा हिन्दीभाषी जनता को इतना मुग्ध किया कि इस शताब्दी के कविवर सत्यनारायण ने भी वही मार्ग पकडा। एक उदाहरण लें नन्ददास जो मुख नाहिंन हतो, कहो किन माखन खायो, पायन विन गोसग कहो बन-वन को धायो, प्रांखिन में अजन दयो गोवर्धन लयो हाथ , नन्द जसोदा पूत है कुंवर कान्ह व्रजनाथ । सखा सुन स्याम के। ('भंवर गीत') Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ १५२ सत्यनारायण 'कविरत्न'-जे तजि मातृभूमि सो ममता होत प्रवासी। तिन्हें बिदेसी तग करत है बिपदा खासी। नहि प्राये निर्दय दई. प्राये गौरव जाय । सांप-छछूदर गति भई, मन ही मन अकुलाय । रहे सबके सवै। ('भ्रमर दूत') 'एक भारतीय प्रात्मा' ने भी 'पुष्प की अभिलाषा' कविता मे-'ताटक' और 'वीर' (अर्द्धाश) का सुन्दर सयोग करके नवीन पट्पदी प्रस्तुत की। ऐसी अनेक षट्पदियाँ लिखी, गई है और लिखी जायेगी। गीति-कारो ने तो इस परिपाटी को अपना ही लिया(१) आज इस यौवन के माधवी कुञ्ज में कोकिल बोल रहा! मधु पीकर पागल हुना, करता प्रेम-प्रलाप , शिथिल हुश्रा जाता हृदय जैसे अपने प्राप। लाज के वन्धन खोल रहा? ('चन्द्रगुप्त' 'प्रसाद') जड नीलम शृगो का वितान, मरकत की क्रूर शिला धरती, धेरै पाषाणी परिघि तुझे क्या मृदु तन में कम्पन भरती ? यह जल न सके यह गल न सके, यह मिटकर पग भर चल न सके तू मांग न इनसे पन्थदान ! ('दीपशिखा' महादेवी) 'सूरसागर' के सन पदो मे जितने भी छन्द प्रयुक्त हुए है क्या उनका कभी लेखा-जोखा हुआ है ? क्या हिन्दी के अभिनव शास्त्रकारो के सामने यह महान कार्य नही पडा है ? काव्य के पश्चात् पिंगल शास्त्र की सृष्टि होती है। हिन्दी का पिंगल अभी शपनी कविता से कितना पिछडा हुआ है | क्या उसके छन्दो का एक अद्यवत् वैज्ञानिक और शास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत नही किया जा सकता ? यह एक गम्भीर अनुसन्धान का महत्त्वपूर्ण विषय है। छन्दो के अध्ययन करनेवाले को अवश्य ही कई नये छन्दो के दर्शन होगे और उनका नामकरण हुए विना आगे गति नही होगी। इस लेखक को भी यह करना पड़ा, जिसका परिणाम नीचे प्रस्तुत है । करुणा १४ मात्रामो का छन्द लक्षण-सिद्धि राग यतिमय करुणा । उदाहरण-करुणा कञ्जारण्य रवे! गुण रत्नाकर आदि कवे! कविता-पित ! कृपा-वर दो, भाव-राशि मुझमें भर दो। ('साकेत') Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी कविता के कला-मण्डप . .१५३ मधुमाला . १६ मायानो का यन्द । लक्षण-वसु-वमु यति वर 'मधुमाला' गा। (८, ८ पर विराम, अन्त में गुरु) उदाहरण--में मधु-विक्रेता को प्यारी, मधु के घट मुझ पर बलिहारी। ('मवुवाला' 'वच्चन') कोकिल १६ मात्रानो का छन्द। लक्षण-सिद्धि मिद्धि घर गा चल 'कोकिल'' (८, ८ पर विगम अन्त में लघु) उदाहरण-गा कोकिल भर स्वर में कम्पन , झरें जाति-कुल वर्ण-पर्ण-घन , अन्धनीड मे रूढ़ रीति-छन , व्यक्ति राष्ट्रात राग-द्वेष-रण । झरें मरें विस्मृति में तत्क्षण ! गा कोकिल, बरसा पावक कण ! ('युगान्त' पन्त) 'मधुकर' १६ मात्राओं का छन्द । लक्षण-४ चोकल, अन्त में मगण उदाहरण-मै प्रेमी उच्चादर्शों का संस्कृति के स्वगिक स्पर्शों का, . जीवन के हर्ष-विमों का, ('गुजन' पन्त) 'यशोवरा' २२ मात्राओं का छन्द । लक्षण-मिद्धि मिद्धि रस यतिवर गानो 'यशोधरा' । (८,८, ६ पर यति, कुल २३ मात्राएँ, अन्त में 'गुरु') उदाहरण-यह जीवन भी यशोधरा का अंग हुआ, हाय, मरण भी पाज न मेरे सग हुआ! सखि वह था क्या, सभी स्वप्न जो भग हुआ, मेरा रस क्या हुना और क्या रग हुमा! ('यशोवरा' गुप्त) (१८, १० मानानो पर यति वाले,) २४ मात्राग्री के 'रूपमाला' का दूसरा नाम 'गीति' रखना उचित होगा, क्योंकि उगमे 'हग्गिीति', 'हरिगीतिका' और 'गीतिका' का अनुवन्य वैठ मकेगा'गीति' "अाज याया है दृगो में विभो पुण्य प्रकाशउपा-पाया से रंगा है आज हृदयाका !" Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ । "प्रियहरि २३ मात्रामो का छन्द । लक्षण-सप्त स्वर निधि यति अलकृत मजु 'प्रियहरि' गा । (७,७,६ पर यति, कुल २३ मात्राएँ, अन्त में गुरु) उदाहरण-"विश्वव्यापी वेदना यह प्रिय-विरह की है, अमित नभ में जो अगण्य स्वरूप रचती है !" (गीताजलि'-अनुवाद) 'हरिगीति' २६ मात्रात्रो का छन्द लक्षण-(गीति' के प्रारम्भ में एक गुरु) , • गुरु गीति के प्रारम्भ में घर, गाइए 'हरिगीति' । उदाहरण-"कुछ स्वर्ण सा, कुछ रजत सा, सित पीत असिताकाश ।" ('हरिगीतिका' का अन्त्य 'गुरु' हटाने पर यही छन्द बनता है ।) मधुमत २८ मात्रामो का छन्द १४४ लक्षण-आज विद्या-रल मधुव्रत अन्त में मधुमय लगा गा। (१४, १४ पर यति, अन्त मे मगण, यगण, या लघु या लघुगुरु या गुरु गुरु) उदाहरण-मै उषा सी ज्योति-रेखा कुसुम विकसित प्रात रे मन ! --'प्रसाद' मणिमाला २८ मात्रानो का छन्द लक्षण-विद्या, विद्या पर यतिघर गा युगल-सखी 'मणिमाला। (१४, १४ पर यति, अन्त में गुरु गुरु) उदाहरण-जग के उर्वर प्रांगन में बरसो ज्योतिर्मय जीवन । बरसो लघु-लघु तृण तरु पर, हे चिर अव्यय, नित नूतन! बरसो फुसुमों में मधु वन प्राणों में अमर प्रणयधनस्मिति-स्वप्न अपर पलको में, उर अगों में सुख यौवन ('गुजन' पत) ('आंसू' . 'प्रसाद' का छन्द यही है । यह १४ मात्रा वाले 'सखी' छन्द (कलभूवन सखी रचि माया) का दूना है।) मधुमालाहार २८ मात्रामो का छन्द (मधुमाता+हार) मधुमाला • (पीछे देखें) हार । १२ मात्रामो का एक चरण ___ दिनमणि सा हार लगा। उदाहरण-कोमल द्रुमदल निष्कम्प रहे, ठिठका-सा चन्द्र खडा माधव सुमनों में गूंथ रहा, तारो की किरन अनी (यद्यपि 'अन्त्यानुप्रास नहीं है, परन्तु छन्द वही है) ('चन्द्रगुप्त' प्रसाद) Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · शृगारताण्डव : २८ मात्रात्रों का छन्द शृगार और ताण्डव के योग से यह छन्द वनता है हिन्दी कविता के कला-मण्डप 1 शृगार (पादाकुलक का एक भेद श्रादि ३+२, अन्त = ३ • सजत सव ग्वाल वधू शृगार । १२ ताण्डव : तरणि 'ताण्डव' में गोल (१२ मात्राएँ, गुरुलघु अन्त में) उदाहरण - नारिका सी तुम दिव्याकार, चन्द्रिका की भङ्कार, प्रेम-पखो में उड़ अनिवार, अप्सरा-सी लघुभार स्वर्ग से उतरी क्या सोद्गार, प्रणय-हसिनि सुकुमार ? हृदय-सर में करने श्रभितार, रजत-रति, स्वर्ण-विहार 1 C माघवी कोकिल - ( पीछे देखिए ) धरणी - त्रमुगति वरणी-चडिका ( १३ मात्राएँ ) इसका दूसरा नाम 'चडिका' भी है । दोनो के योग से 'माववी' बनेगा । उदाहरण १ वैजयन्ती ३० मात्राग्री का छन्द २६ मात्राओ का छन्द लक्षण - 'कोकिल-वरणी मय कर प्रियवर गायो मधुमय माधवी ।' गूँज रहा सारे श्रम्बर में तेरा तीखा गान है ! रंग-विरगे श्रम् - स्मितिमय श्राशा जिसकी तान है ! हम दोनों के वृहद् प्रदर्शन से द्युत व्योम-वितान है। स्पंदित प्राण वायु को करती तेरी मेरी तान है | " 1 'छन्दप्रभाकर, पृ० ५३ शृङ्गार . ‘सजत सव ग्वालवधू श्रृंगार ।' गोपी कला तिथि, गा गा प्रिय गोपी ('गुजन') उदाहरण - "ब्रह्माण्ड में सब ओर जिसकी है फहरती वैजयन्ती ।" शृगारगोपिका ३१ मात्राओ का छन्द ( शृगार -+- गोपी) S लक्षण - शृगार, विद्या यतिमयी हरिगीतिका-गा, वैजयन्ती । ( १६, १४ पर यति, हरिगीतिका + 5) ( १५ मात्राएँ अन्त में दो गुरु) ( ' गीताजलि' - अनुवाद ) १५५ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ उदाहरण-"प्राज इस यौवन के माधवी कब्ज में कोकिल बोल रहा।" ('चन्द्रगुप्त' 'प्रसाद') वीरविम्बित ३२ मात्रामो का छन्द '('वीर' मे एक लघु वढा देने से यह छन्द वनता है) लक्षण-"चौपाई युग मिला मनोहर, कविवर वीर बिलम्वित गाओ।" उदाहरण-कॉप भूधर सागर कापे, तारक-लोक खमण्डल का , यह विराट भूमण्डल कापे, रविमण्डल आखण्डल कापे, परिवर्तन काक्रातिप्रलय का,गंज उठेसवोर घोर स्वर, देख दृष्टि हुकार श्रवणकर अन्ध गन्ध वह मण्डल कांपे ! ('प्रलयवीणा') (यह छन्द उपचित्रा' या 'मधुकर' का भी दुगुना होता है।) मुक्ताहार ३२ मात्रामो का छन्द । लक्षण-सजा दो शोभामय 'शृगार' उसे पहनायो मुक्ताहार।' ('शृगार' छन्द का दुगुना) उदाहरण-हिमालय के आंगन में उसे प्रथम किरणो का ये उपहार। उषा ने हंस अभिनन्दन किया और पहनाया हीरकहार । जगे हम लगे जगाने विश्व लोक में फैला फिर पालोक। व्योम-सम-पुञ्ज हुआ तब नष्ट अखिल ससति हो उठी अशोक । ('स्कन्दगुप्त' 'प्रसाद')' इस प्रकार शत-सहस्र नये-नये छन्दो के नूपुर हिन्दी-भारती ने अपने अगप्रत्यग में सजाये है, जिनके रुनुन-सुनन से हिन्दी-प्रेमियो की श्रुतियां रसमग्न हो रही है। वनस्थली - - - Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायसी का पक्षियों का ज्ञान श्री सुरेशसिंह __ "मूर मूर तुलमी ममी उडुगन केशवदास" के रचयिता ने भले ही जायसी को छोड दिया हो, लेकिन जिसको साहित्य का थोडा भी ज्ञान है वह भली भांति जानता है कि हमारे साहित्य-गगन मे जायसी आज भी ध्रुव की तरह अबल और अमन्द है। सूर की ब्रजमावुरी ने सारे देश को मवुमय अवश्य कर दिया और तुलसी ने अपनी भक्ति की मन्दाकिनी से समूचे राष्ट्र में चेतनता की एक लहर अवश्य दौडा दी, लेकिन इन दोनो भक्त महाकवियो के पूर्व ही जनता के इस कवि ने प्रेम का जो विशद वर्णन अपने 'पद्मावत' में किया है वह हमारे साहित्य की एक निधि है। जनता की सच्ची अनुभूति, उमके रहन-सहन, आचार-विचार और उसकी वास्तविक स्थिति का जैसा सजीव चित्र जायसी ने खींचा है, वसा चित्र खीचने में शायद ही किसी कवि को इतनी सफलता मिली हो।। व्रजभाषा अपने माधुर्य से देश के कोने-कोने में सांस के समान भले ही समाई रही हो, पर महाकाव्य रचे जाने का गौरव अवधी को ही मिला। 'रामचरितमानस' और 'पद्मावत' अवधी भापा के दो महाकाव्य है, जो हमारे लिए आज भी पथ-प्रदर्शक का काम कर रहे है। वीरगाथा के महाकाव्य पृथ्वीराज रासो का समय बीत चुका या। देश विजेता के सम्मुख नतमस्तक खडा था। वह राजनैतिक दासता की शृखला शिथिल होने से पहले ही मानसिक गुलामी की जंजीर में बंधने जा रहा था। देश की रक्षा करने वाले तलवार फेककर इम लोक की अपेक्षा परलोक की चिन्ता में पड़ गए थे। देश में एक प्रकार की अस्तव्यस्तता-सी फैली थी। ऐसे परिवर्तन के समय जायसी साहित्याकाश में एक प्रकाश पुज के समान उदित हुए। उन्होने अपनी प्रेमगाथा की लोरी सुनाकर देश को सुलाने का प्रयत्न किया, किन्तु देश में जो अशान्ति और क्षोभ के घने वादल घिरे थे वे गम-कृष्ण के प्रेम की शत-गत धाराओ से वरस पडे। सूर और तुलमी के भक्ति-प्रवाह के आगे कोई भी न ठहर सका और सारा देश राम-कृष्णमय हो उठा। उम प्रवल आँधी मे जायसी एकदम पीछे पड गये और यही कारण है कि आज हम उनकी अमर रचना के बारे में बहुत कम जानते हैं। ___यह सब होते हुए भी जायसी का महत्त्व किसी प्रकार कम नहीं होता। उनका 'पद्मावत' उर्दू-फारमी की ममनवियों के ढग का प्रेमगाथा काव्य भले ही हो, लेकिन यह तो मानना ही पडेगा कि उसका निर्वाह उन्होने हिन्दी म बहुत सफलता से किया है। प्रेम की रीति-नीति और लोक व्यवहार की ऐसी जानकारी इस कवि को थी कि जिस विषय पर उसने कलम उठाई है, उमे पूर्ण ही करके छोडा है।। ___क्या युद्धवर्णन, क्या नगरवर्णन और क्या प्राकृतिक सौन्दर्यवर्णन, सभी तो अपनी चरमसीमा तक पहुंच गये है। वादगाह-भोजबड तो जायमी की वहुमुखी प्रतिमा की वानगी ही है। इसके अलावा उनका पशु-पक्षी वर्णन तो इतना स्वाभाविक हुअा है कि वहाँ तक हिन्दी का कोई भी कवि आज तक नहीं पहुंच सका । प्रत्येक विषय का इतना नान कैमै एक व्यक्ति को प्राप्त हो गया, कभी-कभी यह मोच कर आश्चर्यचकित हो जाना पडता है। फिर पक्षिनास्त्र के अध्ययन का तो हमारे यहां कोई साधन भी नही था। हमारे कवि पक्षियो के काल्पनिक वर्णन में ही सदा ने तरह। उन्हें हस के क्षीरनीरविवेक, चक्रवाक के रात्रिवियोग, कोयल-पपीहे की विग्हपुकार, चकोर का चन्द्र के प्रयाग में आग खाने के खेल और तोता-मैना की कहानी से ही अवकाश नहीं मिलता था, अन्य पक्षियो का वास्तविक पन कसे करते । किन्तु जायमी ने इस साहित्यिक परिपाटी का निर्वाह करते हुए पक्षियो का बहुत ही स्वाभाविक कार मुन्दर वर्णन किया है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस विषय का उनका कितना व्यापक अध्ययन था। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ प्रेमी-अभिनवन-ग्रंथ __वस्तु-वर्णन-कौशल में भी जायसी भाषा के किसी कवि से पीछे नही रहे। कही-कही तो उन्होने सस्कृत कवियो तक मे टक्कर ली है। इसके लिए उन्होने कई ऐसे स्थलो को चुना है, जिनका विस्तृत वर्णन बहुत ही भावपूर्ण हुआ है। सिंघलद्वीप वर्णन में जहाँ वाग-बगीची, नगर-हाट और सरोवरो का वर्णन है, वही पशुपक्षियो की चर्चा भी छूटने नहीं पाई है। सिंघलद्वीप-यात्रा-वर्णन में कवि ने अतिशयोक्तियो से बहुत काम लिया है और समुद्रवर्णन में तो उन्होने पौराणिक कथाओ को वास्तविकता से अधिक महत्त्व दे दिया है। समुद्र के जीव-जन्तु प्राय काल्पनिक आधार पर ही रखे गये है, जिससे जान पडता है कि जायसी का इस विषय पर निज का कुछ भी अनुभव नहीं था। इसी प्रकार विवाहवर्णन, युद्धवर्णन, षट्ऋतुवर्णन तथा रूपमौन्दर्यवर्णन में कवि ने काफी ऊंची उडान भरी है, लेकिन साथ-ही-साथ जहाँ कही भी पक्षियो का उल्लेख पाया है, उसने इसी बात का प्रयत्न किया है कि उनकी काल्पनिक कथाओ की अपेक्षा उनका वास्तविक वर्णन ही अधिक रहे । देहात में रह कर पक्षियो का सूक्ष्म निरीक्षण करने के कारण जायसी ने पक्षियो के साहित्यिक नामो की अपेक्षा उनके लोकप्रसिद्ध नामो को ही रखना उचित समझा है। वैसे तो हमारे साहित्य-उपवन में हस, पिक, चातक, शुक, सारिका, काक, कपोत, खजन, चकोर, चक्रवाक, वक, सारस, मयूर प्राय इन्ही थोडे से पक्षियो का वर्णन मिलता है, जिनका अलग-अलग काम हमारे साहित्यकारो ने वांट रक्खाहै। इनमें से कुछ नखशिख वर्णन में, कुछ विरहवर्णन मे और कुछ प्रकृतिवर्णन के सिलसिले में याद किये जाते हैं। कुछ के वास्तविक गुणो को छोड कर उनके बारे में ऐसी काल्पनिक कथाएं गढ ली गई है, जो सुन्दर होने पर भी वास्तविकता से कोसो दूर है। हस का मोती चुनना और नीरक्षीर को अलग कर देना, चकवा-चकई का रात्रिकाल में अलग हो जाना, चातक का स्वातिजल के सिवा कोई दूसरा पानी न पीना और चकोर का चन्द्रमा के धोखे में अगार खाने की कथा जहाँ कवियो ने कितनी ही बार दुहराई है वही पिक और चातक की मीठी वोली को विरहाग्नि प्रज्वलित करने वाली कहा है। शुक-सारिका जैसे पिंजडे मे वन्द रहने के लिए ही बनाये गये है। इनसे प्राय किस्से सुनाने का काम लिया गया है। कपोत से कठ की, शुक की चोच से नासिका की और खजन से नेत्रो की उपमा अक्सर दी जाती है। सारस का जोडा आजीवन अभिन्नता के पाश में बंधे रहने के लिए प्रयुक्त होता है। काक और वक प्राय तुलनात्मक वर्णन में इस्तेमाल होते है और मयूर को वर्षागमन की सूचना देने के लिए स्मरण किया जाता है। इन सब पक्षियो के अलावा हमारे कवियो ने अन्य पक्षियो की ओर या तो ध्यान ही नहीं दिया, या उन्हें इतना अवकाश ही नहीं था कि वे अपनी साहित्यवाटिका से बाहर निकल कर प्रकृति के विशाल नीलाकाश में दिन भर उड़ने वाली अन्य चिडियो की ओर भी दृष्टिपात करते । लेकिन जायसी दरबारी कवि न होकर जनता के कवि थे। उनका दृष्टिकोण उन राजसभा के कवियो से भिन्न था, जो हस को विना देखे ही उसके वर्णन में नहीं हिचकते । जायसी ने पक्षियो का स्वय भलीभांति निरीक्षण करके उनका स्वाभाविक और सजीव वर्णन किया है। जायसी के 'पद्मावत' में लगभग साठ पक्षियो के नाम पाते है, जो हमारे आसपास रहने वाले परिचित पक्षी है। 'पद्मावत' में वैसे तो अनेको स्थानों पर चिडियो का वर्णन आया है, लेकिन कई स्थल ऐसे है जहाँ जायसी को तरह-तरह के पक्षियो को एकत्र करने का अवसर मिला है। पहला स्थल तो सिंघलद्वीप वर्णन के अन्तर्गत है। सिंघलद्वीप मे जहाँ अनेको प्रकार के वृक्ष मौजूद है, भला पक्षियो की कमी कैसे रहती। तभी तो वसहि पखि बोलाह बहु भाखा, करहिं हुलास देखि के साखा। भोर होत बोलहिं चुहचूही', बोलहिं पाडुक' "एक तू हो"। 'चुहचुही भुजगा पक्षी। . 'पाड़कपडकी, फ्रानता।' - Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ • जायसी का पक्षियों का ज्ञान सारौं' सुना जो रहचह फरहीं, कुरहिं परेवा श्री करबरहीं। "पीव पीव" कर लाग पपीहा, "तुही तुही" कर गडुरी जीहा। "कुहू कुह" करि कोइलि राखा, श्री भिंगराज बोल बहु भाखा । "दही दही" करि महरि' पुकारा, हारिल बिनवै प्रापन हारा। कुहकहिं मोर सुहावन लागा, होइ फुराहर बोलहिं कागा। जावत पखी जगत के, भरि बैठे अमराउँ, प्रापनि प्रापनि भाषा, लेहि दई कर नाउँ । कैसा सुन्दर और स्वाभाविक वर्णन है । जगत के जितने भी पक्षी है, अमराई मे बैठे है और अपनी-अपनी वोली में ईश्वर का नाम ले रहे है। सब पक्षियो को एकत्र करने का कैसा उपयुक्त स्थान जायसी ने चुना है। प्राम की घनी अमराई इन पक्षियो से भर गई है और इनके चहचहाने से गूज रही है। भोर होते ही चुहचुही बोलने लगती है। देहात के गीतो मे आजकल भी “भोर होत चुहचुहिया बोले" अक्सर सुनने को मिलता है। जायसी भला फिर सब कुछ जान-बूझ कर उसके इस अधिकार को कैसे छीन लेते ? पडकी या फाखता भी अपना “एक तूही" से मिलता-जुलता शब्द रटने लगती है-सारौं (सारिका) और सुश्रा अपने रहचह (चहचहाने) से एक प्रकार का ममाँ अलग ही वाँधे हुए है। कबूतर अपनी 'गुटरगू कर रहे है तो पपीहा अपनी 'पी कहाँ' और गुडरी 'तुही तुही' की धुन लगाये हुए है-कोयल तो सिवा 'कूऊ कूऊ' के और कुछ जानती ही नही, लेकिन भूगराज तो बोली के लिए प्रसिद्ध है। वह अनेक प्रकार की बोलियां बोलता है। महरि 'दही दही' पुकारती है और मोर कुहकता है, पर हारिल कुछ बोलना नही जानता। इससे वह हार मान कर अपनी दीनता प्रदर्शित करता है। कैसा स्वाभाविक वर्णन है । सव-के-सब पेड पर रहने वाले पक्षी है, जो अपनी बोलियो के लिए प्रसिद्ध है। जहाँ तक हो सका है, कवि ने पक्षियो की अनुकृति को ध्यान में रखा है। पडकी का 'एकै तुही', पपीहा का 'पीव कहाँ'--गुडरी की 'तुही तुही', कोयल की 'कुहू कुहू' और महरि का 'दही दही' तो बहुत प्रसिद्ध है, लेकिन मोर का कहकना भी कवि की पैनी दृष्टि से नही बच सका। ग्राम्यगीतो में मोर की बोली को "कुहकना" और कोयल की बोली को "पिहकना" आज भी कहते है। हारिल अपनी रगीन पोशाक के कारण छोडा नही जा सकता था। इससे कवि ने बडी खूबी से न बोलने की मजबूरी दिखा कर उसकी मौजूदगी का निवाह किया है। । थोडी दूर आगे चलने पर एक ताल मिलता है, जहाँ माथे कनक गागरी, पावहिं रूप अनूप , जेहि के अस पनिहारी, सो रानी केहि रूप । ऐसी सुन्दरियां उस ताल में पानी भरने आती है। ताल तलाव वरनि नहिं जाही, सूझे वार पार किछु नाहीं। , फूले कुमुद सेत उजियारे, मानहुँ उए गगन महें तारे। उतरहिं मेघ चढहिं ले पानी, चमकहिं मच्छ वीजु के बानी। • पौरहिं पंखि सुसहि सगा, सेत, पीत, राते बहु रगा। चकई चकवा केलि कराही, निसि के विछोह दिनहि मिलि जाही। 'सारौं सारिका, मैना। 'महरि पहाड़ी मुटरी। गडुरी-एक प्रकार का बटेर। 'पखि-पक्षी। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० प्रेमी अभिनवन पथ . कुररहिं सारस करहिं हुलासा, जीवन मरन सो एकहि पासा । वोलहिं सोन', ढेक', बग', लेदी, रही अबोल मीन जलभेदी। नग अमोल तेहि तालहि, दिनहि वरहिं जस दीप। जो मरजिया होइ तह, सो पावै- वह सीप ॥ वडा विस्तृत ताल है, जिमका ओरछोर नही दीख पडता, जिसके नील जल मे स्वेत कमल ऐसे लगते है, मानो आकाश में नक्षत्र विखर पडे है । वादल जव सरोवर से जल भर कर उठने लगते है तो उनमे मछलियो की चमक विद्युतरेखा-सी जान पडती है । तरह-तरह के सफेद, पीले और लाल पक्षी ताल में एक ही सग तैर रहे है। रात्रिवियोग के पश्चात दिन को मिलने पर चकई-चकवा जलक्रीडा में तल्लीन है। मारस अपने जोडे के साथ कर्कश वोली वोल कर पानन्दमग्न है। उनका जीवन और मरण इतना निकट रहता है कि उनको चिन्ता किस बात की? सोन, ढेक, वग और लेदी तो अपनी-अपनी बोली बोलती है, लेकिन जल में रहने वाली मछलियां बेचारी अवोल ही रह जाती है। उस ताल में कुछ अमूल्य रत्न भी है जो दिन में भी अपना प्रकाश फैलाये रहते है, लेकिन उसमें भी मीप वही ला सकता है, जो जान हथेली पर लिये फिरता हो। जायसी ने ताल की चिडियो को उस अमराई से दूर इस सरोवर मे जमा किया है। इनमे चक्रवाक, वत, ढेक, सारस, वक और लेदी सभी तालाव में रहने वाली प्रसिद्ध चिडियाँ है--चक्रवाक का चकई-चकवा, वत या काज़ का सोन, आँजन वगला का ढेक और छोटी मुरगावी का लेदी बहुत प्रचलित नाम है । जायसी ने इसी कारण इन्ही नामो को साहित्यिक नामो की अपेक्षा अधिक पसन्द किया है। सारस के लिए “जीवन मरन सो एकहि साथा" लिख करके कवि ने किस सुन्दर ढग से इस ओर सकेत किया है कि सारस का जोडा फूट जाने पर वचा हुमा दूसरा पक्षी अपनी जान दे देता है। सरोवर की अन्य वस्तुप्रो के वर्णन में अतिशयोक्ति से काम लेकर भी जायमी ने पक्षियो के वर्णन मे स्वाभाविकता से काम लिया है। दूसरा स्थल जहाँ जायसी को पक्षियो के सग्रह का अवसर प्राप्त हुआ है 'नागमती का वियोगखड' है। तुलसीदास जी ने तो श्री राम से "हे खग, मृग, हे मधुकर सेनी, कहुँ देखी सीता मृगननी।" केवल इतना ही कहला कर छुट्टी ले ली है, लेकिन जायसी ने नागमती को एक वर्ष तक रुलाने के बाद भी उसकी विरह वेदना कम नहीं होने दी। तभी तो वह बरस दिवस घनि रोइ के, हारि परी जिय झखि , मानुस घर घर बूझि के, वूझ निसरी पखि । एक वर्ष तक रोने के पश्चात् जी से हार कर वह पक्षियो से राजा को पता पूछने निकली, क्योकि मनुष्यो के घर-घर पूछने पर भी उसे कोई लाभ न हुमा। नागमती-के वियोग-खड का यह दो अर्थों वाला वर्णन भी कवित्वमय हुआ है। देखिये नागमती की कैसी दशा हो गई है भई पुछार लीन्ह वनबासू , बैरिनि सवति दीन्ह चिलवासू । होइ खरवान विरह तनु लागा, जो पिउ पावै उडहि तो कागा। हारिल भई पथ मै सेवा, अब 'तह पठवौं फोन परेवा। 'सोन=सवन, काज, बत, कलहस । 'बग-बगला । ढेक=प्रांजन बगला। "लेवी-एक छोटी बतख । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जायसी का पक्षियो का ज्ञान धौरी पड़क कहु पिउ नाऊँ, जौं चितरोख न दूसर ठाऊँ । जाहि वया होइ पिउ कठलवा, कर मेराव सोइ गौरवा । कोइल भई पुकारति रही, महरि पुकारे "लेइ लेह दही " । पेड तिलोरी श्री जलहसा, हिरदय पैठि विरह कटनसा । १६१ जेहि पखी के नियर हूं, कहँ विरह के बात । सोई पखी जाइ जरि, तरिवर होय निपात ॥ कुहुक हुकि जस कोइल रोई, रक्त प्रांसु घुंघची वन बोई । मै करमुखी नैन तनराती, को सेराव, विरहा दुख ताती । जह जह ठाढ होइ वनवासी, तहँ तहँ होइ घुंघुचि के रासी । बूँद बूँद महँ जानहु जीऊ, गुजा गूंजि करें "पिउ पीऊ" । तेंहि दुख भरे परास निपाते, लोहू वूडि उठे हूँ राते । राते बिंव भीजि तेहि लोहू, परवर पाक फाट हिय गोहू । देखों जहाँ होइ सोइ राता, जहाँ सो रतन कहै को बाता । नह पावस श्रोहि देसरा, नहि हेवन्त वसन्त । ना कोकिल न पपीहरा, जेहि सुनि श्रावै कन्त ॥ कितना सजीव वर्णन है । विरहाग्नि से पक्षियो के भस्म हो जाने में अतिशयोक्ति अवश्य है, लेकिन "रकत आँसु घुंघची वन बोर्ड” कैमी सुन्दर युक्ति वन पडी है । जायसी ने कोयल को बोली के लिए और कौए तथा हस को रग की तुलना के लिए नही याद किया है, बल्कि देहात में स्त्रियो को अपने प्रिय के आगमन के वारे में जो अन्धविश्वास है उसका स्वाभाविक वर्णन किया गया है। स्त्रियाँ कोएं को बैठा देख कर कहती है- "यदि मेरा प्रिय आने वाला हो तो उड जा ।” अगर सयोग से कौआ उस जगह से जल्द ही उड गया तो उनके हृदय में प्रिय के आने की आशा दृढ हो जाती है । कौए के लिए जायसी ने एक दूसरे स्थान पर और भी अनोखी उक्ति पेश की है भोर होइ जो लागे उठहि रोर के काग । मसि छूटे सब रैन के कागहि कर प्रभाग ॥ जब प्रभात होने लगता है तो कौआ इसी लिए काँव-काँव करता है कि रात्रि की सारी कालिमा तो छूट गई, लेकिन दुर्भाग्यवश उसकी स्याही पहले की तरह विद्यमान है । तीसरा स्थल है वादशाह भोज खड, जहाँ पक्षियों का वर्णन मिलता है । राजा ने वादशाह को दावत दी है। सभी, तरह के पकवान तैयार हो रहे हैं। बाग-बगीचे के पक्षियों का वर्णन श्रमराई में और जल के निकट रहने वाली चिडियो का वर्णन सरोवर के साथ हो ही चुका था । श्रत यहाँ जायसी ने सव प्रकार के शिकार के पक्षियो को एकत्र किया है । पुछार = (१) पूछने वाली (२) मोर, मयूर । चिलवाँस = चिडिया फँसाने का एक फन्दा । खरवान = (१) तीक्ष्ण वाण (२) एक पक्षी, खरबानक । हारिल = (१) हारी हुई, थकी हुई (२) हारिल पक्षी, हरियल धौरी == (१) सफेद (२) घवर पक्षी, फानता की एक जाति । पडुक= (१) पीला (२) पडकी । चितरोख= (१) चित्त में रोष (२) चितरोखा पक्षी, फासता की एक जाति । जाहि वया = सन्देस लेकर जा और फिर श्रा ( वया = ( श्रा) फारसी), (२) वया पक्षी । कठलवा = (१) गले में लगाने वाला (२) कठलवा पक्षी, लवा की एक जाति | गौरवा= (१) गौरवपूर्ण, वडा (२) गौरवा, चटक पक्षी । कोइल = (१) कोयला (२) कोयल पक्षी । दही - (१) दधि (२) दग्ध, जली । तिलोरी = तेलिया मैना । कटनासा = (१) काटता और नष्ट करता है (२) नीलकंठ, कटनास पक्षी । निपात = पत्रहीन । सेराव = ठढा करे । परास = पलाश । २१ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ तीतर बटई लवा न बांचे, सारस फूज पुछार जो नाचे। घरे परेवा पड़क हेरी, खेहा गुडरु उसर-बगेरी। ' हारिल चरग चाह बंदि परे, बन कुक्कुट जलकुक्कुट घरे । चकई चकवा और पिदारे, नकटा, लेदी, सोन, सलारे । कठ परी जब छूरी, रकत दुरा हांसु, कित आपन तन पोखा, भखा परावा मांसु । ऊपर के उद्धरण मे जिन चिडियो के नाम पाये है वे हमारे यहाँ के बहुत प्रसिद्ध शिकार के पक्षी है । चूकि भोज राजा की ओर से दिया गया है, इससे जायसी ने ग्रामकुक्कुट की जगह वन-कुक्कुट रक्या है । “आँसु दुरने" का माधुर्य वे ही समझ सकते है जिनका सम्बन्ध अभी देहात से नही छूटा है। "रहिमन असुश्रा नयन ढरि, निज दुख प्रगट करेहि , के "असुआ ढारि" से आँसु ढुरने मे कही ज्यादा मिठास है । आँसू वहने में वह वात कभी आ ही नही सकती। इसके अलावा पद्मावत मे खजन, हस, कौडिया, चकोर, रायमुनी, सचान, भुजेला, महोख, वूमट, सारी (सारिका) और कोकिला आदि पक्षियो का स्थान-स्थान पर बहुत ही स्वाभाविक वर्णन है । मुआ तो पद्मावत का एक मुख्य पात्र ही है। जायसी ने सस्कृत कवियो के हस को सन्देशा ले जाने का काम नही सौपा। हस सुन्दर भले ही हो और उसकी उडान चाहे कितनी ही लम्बी होती हो, लेकिन वह उस सफलता से सन्देशा नही सुना सकता, जिम खूबी से यह काम मनुष्य की वोली की नकल करने वाला तोता कर सकता है। इसीसे जायसी ने हस की जगह तोते को चुना है और उसको उसके लोकप्रचलित नाम 'सुप्रा' अथवा 'परवत्ता' से ही याद किया है। पहाडी तोते के लिए आज भी देहात में 'परबत्ता' शब्द प्रचलित है। फिर पद्मावत के हीरामन तोते का क्या कहना | उसके विना तो यह कथा ही अधूरी रह जाती। जायमी ने उसके लिए चार खड अलग कर दिये है-सुआखड, नागमती सुप्रासवादखड, राजा सुग्रासवादखड और पद्मावती सुआ टखड। इसके अतिरिक्त और कई जगहो पर भी हीरामन का वर्णन करने में जायसी नही चूके। नागमती सुप्रा को अपनी विरह दशा कैसे दीन शब्दो में सुनाती है चकई निस बिछुरै, दिन मिला, हौं दिन राति विरह कोकिला। रैनि अकेलि साथ नहिं सखी, फैसे जिय विछोही पखी। विरह सचान भएउ तन जाडा, जियत खाइ श्री मुए न छांडा। रकत दुरा मासूगरा हाड भएउ सब सख । घनि सारस होइ ररि मुई, पीउ समेटहि पख ॥ यह तो हुआ पद्मावत में वर्णित पक्षियो का एक सक्षिप्त वर्णन मात्र। इस महाकवि की अमरकृति का रसास्वादन करने के लिए उसका कोई प्रामाणिक अनुवाद प्रकाशित होना आवश्यक है। कालाकाकर ] बटई-बटेर । कूज-कुज, क्रौंच, कुलग पक्षी। पुछार-मोर । परेवा कबूतर। पडुकपडकी फाखता। खेहातीतर की जाति का एक पक्षी। उसर-बगेरी=एक भार्दूल जाति का छोटा पक्षी। चरग= चरत, केग्मोर, सोहन चिडिया जाति का मोर से छोटा पक्षी। चाह-चाहा पक्षी। बनकुक्कुट जगली मुरगी। जलकुक्कुट जलमुरगी, टिकरी। पिदारे-पिद्दा । नकटा एक प्रकार की बतख । लेदी-छोटी मुरगावी, एक छोटी बतख । सोन=सवन, बत, कलहस । सलारे मिलरी, या सिलहरी, एक प्रकार की बतख । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपेक्षित बाल-साहित्य श्री खद्दरजी और दबाजी हमारे भारतीय परिवारों में जिस प्रकार बच्चे उपेक्षित रहते है, उसी प्रकार हिन्दी-साहित्य में वाल-साहित्य उपेक्षित है। हमें यह लज्जापूर्वक स्वीकार करना पड़ता है कि हिन्दी में वाल-साहित्य का जितना अभाव है, उतना गायद ही किमी प्रान्तीय भापा मे हो । गुजराती का वाल-साहित्य तो इतना समृद्ध है कि देखकर जी आनन्दित हो उठता है । इस अभाव का एक कारण तो यह भी है कि बच्चो के अभिभावक इस ओर से अत्यन्त उदासीन है। उस रोज हम लोग दिल्ली के घटाघर के पास तांगे की तलाश में खडे थे। इतने मे एक मोटर वहाँ आकर रुकी। उसमे चार-पांच बच्चे थे और एक प्रौढ, जो उनके पिता प्रतीत होते थे। बच्चो ने हमारे हाथ मे वालको की कुछ पुस्तकें देखी। उनकी निगाह उन पर जम गई। पिता उन्हें फल और मिठाई खिलाना चाहते थे। बच्चे वाल-साहित्य के भूखे थे। पिताजी खाने का मामान लेने चले गये तो वच्चो ने मोटर से उतर कर हमे घेर लिया। वोले, “ये किताबें वेचते हो ?" हम उत्तर दे कि तवतक उन्होने जेव से पैसे निकाल कर इकट्ठे कर लिये। उनका ध्यान पुस्तको पर केन्द्रित था, पर भयभीत नेत्रो मे वे वार-बार पिता जी की ओर देख लेते थे। हमने उन्हें पुस्तकें विना पैसे लिये दे दी और वे तेजी से कार में जा बैठे। पिता जी आये और गाडी मे बैठ गये। वच्चो के हाथ में जव उन्होने पुस्तके देखी तो फटकार करवोले, "इनमें क्या रक्खाहै ? क्या फल और मिठाई से भी ज्यादा तुम्हें ये किताव पसन्द है ?" पिताजी कोष प्रकट कर रहे थे और हम खडे-खडे सोच रहे थे कि जिस देश में वडे-बूढे आदमी बच्चो की मानसिक भूख को नही समझ सकते, उस देश के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना कैसे की जा सकती है? . दिल्ली के एक सेठ जी को हम लोग विदा करने स्टेशन गये थे। उन्होने रास्ते मे पढने के लिए रेलवे वुक-स्टॉल से कुछ पुस्तकें मंगवाई। बच्चो ने देखी तो उन्होने भी अपने मतलव की कुछ पुस्तको की मांग की। सेठ जी ने पुन नौकर भेजा। थोड़ी देर में वह लौटा तो खाली हाथ । सेठ जी ने पूछा, “क्यो, कितावें नहीं लाये?" नौकर ने उत्तर दिया, "अग्रेजी में तो है, पर नागरी मे बच्चो की एक भी किताव नहीं मिली।" गार्ड ने सीटी बजाई और गाडी चल दी। सेठ जी नमस्कार कर रहे थे। हम लोगो ने भी हाथ जोड दिये, लेकिन हमारी आँखें उन डवडवाये नेत्रो को देख रही थी, जिनमें बडे-बडे लेखको के लिए भारी रोष था कि वे मोटेमोटे पोथे तो लिखते है, किन्तु कभी यह नहीं सोचते कि वटो की दुनिया के अतिरिक्त एक नन्ही दुनिया भी है, जिसमें मानमिक भूख से वच्चे दिनरात तडप रहे है। उस सात्विक क्रोध का, जो उन डवडवाई आँखो में था, क्या हम कभी प्रतिकार कर सकेंगे? शिक्षक वरावर इम कमी को महसूम करते है, पर वे किससे कहे ? देश के प्रकाशक और लेखक वाल-साहित्य को आवश्यक ही नहीं समझते। उन्हें शिकायत है कि हिन्दी में पुस्तकें कम विकती है, लेकिन कभी उन्होने इसके कारण पर भी ध्यान दिया है ? बच्चो को छोटी आयु से ही पुस्तकें पढने को मिलें तो कोई वजह नही कि आगे चलकर उनकी किताव पढने की आदत छट जाय। कठिनाई तो यह है कि बच्चो में पढते की आदत को पनपने देना तो दूर, उसे कुचल दिया जाता है। अत कल के बच्चे और आज के प्रौढ मे पुस्तको के प्रति अनुराग उत्पन्न हो तो कैसे ? यह कहना तो व्यर्य है कि हिन्दी जानने वालो की सख्या कम है । यदि लेखक तथा प्रकाशक वाल-साहित्य की ओर ध्यान देकर सुन्दर एव वैज्ञानिक वाल-साहित्य का निर्माण करे और बच्चो में उसके लिए रुचि पैदा कर दें तो हम देखेंगे कि यही वच्चे प्रौढ होकर भोजन और वस्त्र के समान पुस्तको पर भी खर्च करना आवश्यक समझेगे। तव निस्सन्देह वडी पुस्तकों का भी प्रचार धडल्ले के साथ होगा। हमारा निश्चित मत है कि जिस प्रकार विना जड Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ को सीचे महज़ पत्तो पर पानी छिडक देने से वृक्ष हरा-भरा नही रह सकता, उसी प्रकार वाल-साहित्य के विना हमारा प्रौढ-साहित्य भी पनप नहीं सकता। आज वाल-साहित्य के नाम पर जो कुछ निकल रहा है, उसे देखकर कष्ट होता है। छपाई और ऊपरी टीपटाप के अतिरिक्त उन पुस्तको मे सार कुछ भी नहीं होता। ऐसा प्रतीत होता है कि इन पुस्तको के अधिकाश लेखक वालमनोविज्ञान से अपरिचित है। कुछ ऐसे भी लेखक है, जिन्होने वाल-मनोविज्ञान का शास्त्रीय अध्ययन किया है, किन्तु वालको की दुनिया के निकट सम्पर्क में न रहने के कारण उसका व्यावहारिक ज्ञान उनमें नहीं है । यह निर्विवाद है कि विना व्यावहारिक ज्ञान के वाल-साहित्य का निर्माण नहीं किया जा सकता। ___ कुछ लोग ऐसे भी है, जो बच्चो के साथ काम करते है और व्यावहारिक वाल-मनोविज्ञान से भी परिचित है, लेकिन वाल-साहित्य मे प्रकाशको की रुचि न होने के कारण उन्हें निराश होना पडता है। यही कारण है कि हिन्दी में अवतक जो भी वाल-साहित्य लिखा गया है, उसमें निन्यानवे प्रतिशत अवैज्ञानिक, निकम्मा और वालक के अन्तरमन मे विषम ग्रन्थियां पैदा करने वाला सिद्ध हो रहा है। हमने अधिकाश वाल-साहित्य का विवेचनात्मक एव पालोचनात्मक रोति से अध्ययन किया है और उसे वाल-मनोविज्ञान की व्यावहारिक कसौटी पर खरे उतरते नही पाया है। यहां कुछ उदाहरण देना अप्रासगिक न होगा। __बच्चो की एक पुस्तक में हमने पढा था, "भोदूराम जी घर से थोडो दूर गये थे। एक स्त्री को जाते हुए आपने देखा, आप ठहरे रसिक, स्त्री पास से गुजरे और आप उसे न देखें, यह करो हो सकता था ?" लेखक भारत के एक बडे प्रकाशक है। हम नहीं समझ पाते कि वच्चो के लिए इस प्रकार के शब्द उनकी कलम से कैसे निकले? . एक दूसरी पुस्तक मे, जो प्रयाग से प्रकाशित हुई है, लेखक लिखते है, "यह पिछले कर्मों का फल है । ब्राह्मण ने पिछले जन्म में बुरे कर्म किये थे। आज फांसी मिलनी चाहिए थी। किन्तु इस जन्म में अच्छे कर्म करने के कारण सिर्फ कांटा लगा है।" हम समझते है कि कोई भी मनोविज्ञान का विद्यार्थी और समझदार शिक्षक इस प्रकार की पुस्तक वच्चो के हाथ में देकर उनके मन को पुनर्जन्म और भाग्य के भंवर मे नहीं फंसावेगा। हिन्दी के एक सुप्रसिद्ध विद्वान ने बच्चो के लिए एक पुस्तक लिखी है। उसमे वे लिखते है, "सव वस्तुनो के नष्ट हो जाने पर भी ईश्वर कायम रहता है। और मनुष्यों के पाप-पुण्य का न्याय करता है । ईश्वर का नाम बारवार जपने और उसका उपकार मानने से वह खुश होता है।" हमारी धारणा है कि बच्चो के कोमल हृदय पर पापपुण्य की विपम रेखाएँ खीच कर इन लेखक महोदय ने देश के आधार-स्तम्भ वाल-समाज का वडा अपकार किया है। हम नही समझते कि वच्चो को ऐसे तत्व-दर्शन का शिक्षण देने की कोई आवश्यकता है। स्पष्ट है कि आज वालको के लिए हिन्दी के बडे-बडे लेखको और प्रकाशको द्वारा इस प्रकार के अवैज्ञानिक और असामाजिक साहित्य का निर्माण किया जा रहा है और विवश होकर हमें यही कूड़ा-कचरा और विपैला साहित्य वच्चो के हाथ में देना पड़ता है। हमने देश के बडे-बडे राष्ट्रीय शिक्षालयो और पुस्तकालयो तक में वालको को ऐसा ही साहित्य पढते पाया है। यदि प्रौढ-साहित्य में अश्लील और असामाजिक पुस्तके प्रकाशित होती है तो वर्षों उन पर वाद-विवाद चलता है, लेकिन वाल-साहित्य इतना अनाथ है कि कोई कुछ भी लिखता रहे, किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। हमारा सुझाव है कि जिस प्रकार दादा गोर्की ने रूस में वहाँ के माता-पिता और शिक्षको को साथ लेकर वालमाहित्य के निर्माण के लिए सगठित प्रयत्न किया था, उसी प्रकार हम लोग भी इस दिशा मे प्रयल करें। मैक्सिम गोर्की ने रूस के बच्चो की साहित्य-सम्वन्धी अभिरुचि को जानने के लिए वहाँ के बच्चो से कुछ प्रश्न पूछे थे। प्रश्नो के जो उत्तर प्राये, उन्ही के आधार पर वहां के साहित्यिको ने वाल-साहित्य तैयार किया। प्राय बच्चो ने जगल के पशु-पक्षी और सताये हुए बच्चो की करुण कहानी सुनना अधिक पसन्द किया। कुछ ने साहसिक यात्रामो और वैज्ञानिक Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपेक्षित वाल-नाहित्य १६५ खोज-सम्बन्धी कहानियो नया महापुरुषो के जीवन की घटनाओं के पढने में अभिरुचि दिखाई। उम सब को ध्यान में रखकर पुस्तको की रचना की गई। हम लोग भी गत दस वर्षों में इस दिशा में लगे हुए है। अपने सूक्ष्म अध्ययन मे हम जिस परिणाम पर आये है, वह मक्षेप में इस प्रकार है १ हमें अवैज्ञानिक माहित्य वच्चो को नहीं देना चाहिए। न ऐमा साहित्य जिममें विवादास्पद चीजें हो। जमे पुनर्जन्म, ईश्वर, स्वर्ग, नर्क और भूत-प्रेत की कहानियाँ । ऐमा माहित्य, जो वच्चों के मन में भय उत्पन्न करता है, वच्ची के स्वास्थ्य और पाचन-क्रिया पर घातक प्रभाव डालता है। इमी के कारण बच्चे रात को विस्तरे पर पेशाव कर देते है। २ ऐनी अवास्तविक कहानियो ने बच्चो को दूर रखना चाहिए, जिन्हें पढकर मात वर्ष की उम्र के बाद भी वे काल्पनिक जगत् में विचरण करते रहे। ३ बच्चो को ऐसी कहानियां तथा नाहित्य दिया जाय, जो मत्य के आधार पर लिखा गया हो, भले ही उमम वर्णित घटनाएँ कल्पित हो । अर्थात् तर्क के द्वारा उन बच्चो को समझाया जा सके। जमे जादू के घोडे के स्थान पर हम एक ऐमे घोडे की कल्पना कर सकते है, जिसमें एक मगीन लगी हो। वटन दवाते ही घोडा श्राकाग में उड सके । यहां जादू के घोडे पीर कल के घोटे में यह अन्तर है कि जादू का घोडा वच्चे को गेखचिल्ली वनावेगा, जव कि मशीन का घोडा उमे इस प्रकार का घोडा बनाने की प्रेरणा देगा। ४ ऐमी कविताएँ और कहानियां नैयार की जायें, जो बच्चे के मन में रहने वाले भय, चिन्ता एव कुमम्कारजनित मिथ्या धाग्णाग्री को दूर कर सकें। ५ ऐमी कहानियां लिखी जाये, जिनमें दिखाया गया हो कि लोग जिन्हें भूत-प्रेत समझते थे, वह वास्तव में घोग्बा था। असत्य था। ६ ऐमी कहानियाँ बटी लाभदायक होती है, जो वच्ची को विकट परिस्थितियो मे वचने की शिक्षा दे मकं । ७ जिन कहानियो मे वच्चो को बडे-बट कार्य करने की प्रेरणा मिले, उनकी रचना उपयोगी होती है। ८ एमी कहानियाँ लिम्बी जायें, जिनमें उपेक्षित बच्चो का चरित्र-चित्रण किया गया हो। उन्हें मेवा-मिठाई, अच्छे कपडे तथा अन्य आवश्यक वस्तुएं, जो उन्हें वास्तविक जीवन में नहीं मिलती, किमी पाय द्वारा दिलवाई गई हो। ऐमी कहानियो को पढकर उपेक्षित वालक वडे यानन्द का अनुभव करते है। ९ वच्चो को ऐमी कहानियाँ दी जाये, जो उनमें मे हीनता की भावना को दूर करके उनमें श्रात्म-विश्वास पैदा करें। उनके चरित्र का निर्माण करें। हमारी अभिलापा है कि देश के प्रकाशक, लेखक, वच्चो के माता-पिता तथा शिक्षक मामूहिक रूप से विचार करें कि हमारे देश के बच्चों के लिए किस प्रकार का माहित्य उपयोगी होगा। एक ऐसे प्रगतिशील वाल-माहित्य-समालोचक मघ की स्थापना की जाय, जिसका उद्देश्य वाल-साहित्य के लेखको का पथ-प्रदर्शन और वे जो साहित्य तैयार करें, उसकी खरी आलोचना करना हो। यह मघ वच्चों के हाथ में देने योग्य वनानिक माहित्य की सूची तैयार करे और अवैज्ञानिक माहित्य के विरुद्ध सगठित रूप मे आवाज उठाने की प्रेरणा दे। इम पुनीत अवमर पर हम माधन-सम्पन्न प्रकागको, सुयोग्य लेखको, समझदार माता-पिता और शिक्षको को इम दिशा में व्यवस्थित रूप से कदम उठाने के लिए आमन्त्रित करते है। बच्चो पर देश की प्राशा केन्द्रित होती है और यदि हम अपने देश के बच्चो को योग्य बना सके तो हमारी दगा बदलते देर न लगेगी। नई दिल्ली ] Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इदोर मैं हूँ नित्य वर्तमान श्री वीरेन्द्रकुमार जैन एम्० ए० मै हूँ नित्य वर्तमान, चिरन्तन प्रवर्त्तमान् । दिगत का विषाद कैसा ? अनागत की शका कैसी ? जब कि हूँ निश्चित सनातन में वर्तमान । स्मृति के तारो की दूरागत झकार, क्षीण-सी टकराती चेतन के रुद्ध द्वार, होते ही श्रात्मा मुक्त, हो जाती हवा-सी वह खिडकियों के प्रारपार । चिद्रूप में है मव एक-मान, एक-तान । छाया - चलचित्रो की जगती यह, क्षण-क्षण नव-नवीन, क्षण-क्षण तिरोमान । इस सबके अन्तर में, मैं हूँ चिर वर्तमान ! खिडकी से झाँक रहा शरद के प्रभात का यह नीला आसमान, और इस नीलिमा में अथाह पीपल की डाल पर पल्लव वे चिकने गोल खेल रहे डोल-डोल, नवीन मधु किरणो के झूलन पर गाते वे अमर गान दिव्य मौन | इसी नित-नवीन लीलामयता में मं तो हूँ एक तान वर्तमान ! इस काल - सागर के तट पर खड़ा बालक-मा खेल रहा हूँ इन चचला लहरो को भर-भर अँगुलियों में, में उछाल देता, हवा इन चन्द्र-सूर्य, ग्रह-नक्षत्रो पर वार देता । इन तरग-फेनो को रंग देता हूँ अपने ही सपनो से ! अपनी ही इस चित्रसारी में अपने को नित्य में वना देता, मिटा देता । मै तो हूँ वर्तमान, निरन्तर प्रवर्तमान ! 3 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदुस्तान में छापेखाने का आरंभ ___ श्री अनन्त काकावा प्रियोळकर वी० ए० [इस निवन्ध के विद्वान् लेखक प्राचीन साहित्य की खोज करने वालो में अपना मुख्य स्थान रखते है। अब तक इन्होंने अनेक ग्रन्यो का सम्पादन किया है। बम्बई यूनीवर्सिटी ने सन् १९३५ में इनके द्वारा सम्पादित रघुनाथ पडित विरचित 'दमयन्ती स्वयवर' नामक ग्रन्थ को मराठी में सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ मानकर उसके लिए 'तरखडफर प्राइज', जो मराठी के सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ के लिए दिया जाता है, इन्हें प्रदान किया था। समय-समय पर मराठी एव गुजराती की साहित्यिक सस्थाओ में इनके व्याख्यान होते रहते है। प्राचीन शोध-सम्बन्धी इनके लगभग सौ निवन्ध अव तक पुस्तक रूप में या मासिक पत्रो में प्रकाशित हो चुके है।-सम्पादक] ___ यह बात विलकुल सही है कि जैसे लेखन-कला के प्रचार से ज्ञान-प्राप्ति का मार्ग सुलभ हुआ है, वैसे ही छापने की कला के प्रचार से यह मार्ग सहस्र गुना अधिक सुलभ और विस्तृत हो गया है। इसलिए छापेखाने का इतिहास जानना आवश्यक है। मुद्रणकलाछापाखाने-की शोध सबसे पहले चीन में हुई थी। वहां सन् १६०० में एक छपी हुई पुस्तक मिली थी, जिसमें छापने की ता० ११ मई सन् ८६८ थी। यह छपाई ब्लॉक-प्रिंटिंग में हुई थी। मगर कहा जाता है कि अलग-अलग टाइप वनाने और उनसे छापने की कला का प्राविप्कार पी० शेग (Pi Sheng) ने ईस्वी सन् १०४१ से १०४६ के बीच किया था। यूरुप के छापेखाने के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वहां छापने की कला की शोध और उसका विकास स्वतन्त्र रूप से हुआ था। ईस्वी सन् १४४० के पूर्व चित्रादि लकडी के ब्लॉक बनाकर छापे जाते थे। टाइप बनाकर उनसे छापने का कब से और कहां से प्रारम्भ हुआ, इस सम्बन्ध में विभिन्न मत है । जर्मनी, फ्रास, हॉलैंड और इटली इन देशो में से हरेक देश कहता है कि छपाई का प्रारम्भ हमारे यहाँ से हुआ था। मगर हमें इस वाद-विवाद में पड़ने की ज़रूरत नहीं है। अधिकाश लोगो का मत है कि सुप्रसिद्ध जर्मन मुद्रक 'जोन गटेनवर्ग' (Johann Gutenberg) ने, जिसका समय १३९८ से १४६८ माना जाता है, टाइप बनाकर छापने की कला का विकास किया था। इससे यह सिद्ध होता है कि पन्द्रहवीं सदी में जर्मनी में छपाई का श्रीगणेश हुआ। छापने की कला का प्रवेग हिन्दुस्तान मे इसके सौ वरस वाद हुआ। यह वात जेसुइट लोगो के पत्र-व्यवहार से मालूम होती है ।* २६ मार्च सन् १५५६ के दिन, जेमुइट मिशन की एक टुकडी अवीमीनिया जाने के लिए पुर्तगाल के वेले नामक वन्दर से जहाज़ पर चढी । इसके साथ ही मुद्रणकला का जानकार जुआन द वुस्तामाति (Juan de Bustamante) अपने एक सहयोगी के साथ गोवा जाने वाले जहाज़ पर मवार हुआ। वह ६ सितम्बर सन् १५५६ के दिन गोवा पहुंचा। वह अपने साथ छपाई के अविश्यक मापन लेकर आया था। इसलिए उसने गोवा पहुंचते ही 'मेंटपाल' नामक कॉलेज में छापाखाना खडा कर छापने का काम शुरू कर दिया। ६ नवम्बर सन् १५५६ को पाट्रियार्क का लिखा हुया एक पत्र मिला है। उसमें इस छापेखाने में तत्त्वज्ञान का निर्णय' (Conclusoes Philosophicas) नामक ग्रन्थ छपा था, इसका उल्लेख है। उसमें यह भी लिखा है कि सेंट जेवियर कृत 'ईमाई धर्म के सिद्धान्त' (Doutrina Christa) नामक अन्य छापने का विचार ' ' * Rerum Aethiopic Script, Vol x, pp 55-61 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ प्रेमी-अभिनदन-प्रय भी हो रहा था। यह ग्रन्थ सन् १५५७ में छपा था और प्रश्नोत्तर के रूप में मुद्रित हुआ था। इस 'ईसाई धर्म के सिद्धान्त' पुस्तक का उल्लेख फ्रासिस द सौज नाम के पादरी ने अपने पोर्तुगीज़ भाषा के गन्थ 'ओरिऐति कोकिस्तादु-श्रा जेसुस क्रिस्तु' (Oriente Conquistado a Jesus Christo) में किया है। परन्तु ये दोनो ग्रन्थ अव नही मिलते। मगर गोवा के प्रथम आर्चविशप दो गास्पार द लियाव ने 'कोपेदियु स्पिरितुआल द हिद क्रिस्ता' IESV. COMPENDIO SPIRIT VAL DA VIDA Chrittaa, tiradode muitos autores pello primeiJO ARCEBISPO de Goa, e per eltę prégado no pri meiro anno a seusfregue. ses, peraglona chórra de IESU CHRISTO nollo SALVADOR, e edi ficaçam de suas OVELHAS. Naleguinte folha se dostara o conccudo neste Tratado. कोपेंदियु पुस्तक का टायटिल पृष्ठ (१५६०) (Compendio Spiritual da vida Christa) नाम को पुस्तक लिखी थी। वह न्यूयार्क (अमेरिका) की पब्लिक लाइब्रेरी में मौजूद है । वह पुस्तक सेट पाल कॉलेज गोवा के इसी छापेखाने में सन् १५६० मे छपी थी। इसी तरह इग्लैंड के ब्रिटिश म्यूजियम में 'कोलोकियुस् दुस सिप्लिस् इ द्रॉगस्' (Coloquios dos simples edrogas) नामक पुस्तक है। यह भी इसी छापेखाने में सन् १५६३ मे छपी थी। इसका विषय वैद्यक-शास्त्र और लेखक गासिय द ऑर्त (Garcia de Orta) है। सेंट पॉल कॉलेज गोवा के छापेखाने में जो पुस्तकें छपी थी, वे प्राय इटेलियन या पोर्तुगीज भाषा में थी। इमलिए भारतीय भाषामो की दृष्टि से इस छापेखाने का खास महत्त्व नहीं है। इसका महत्त्व इसी में है कि यह हमको भारत में छापेखाने के आरम्भ का इतिहास बताता है।। कुछ समय बाद गोवा के रायतूर (Rachol) के सेंट इग्नेशस कॉलेज मे एक छापाखाना और प्रारम्भ हुआ, जिसमें भारतीय भाषाओं में पुस्तकें छपने लगी। + Con I, Div I, para 23. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ हिंदुस्तान में छापेखाने का प्रारंभ फादर थोमस स्टिफम (Father Thomas Stephens) नाम का अंग्रेज सबसे पहले हिन्दुस्तान में आया था। इसने 'ओवी" (छन्द विशेष) में 'क्राइस्ट पुराण' नामक अन्य मराठी भाषा में लिखा। उसमें करीव ग्यारह हजार प्रोवियाँ है। वह ग्रन्थ सेट इग्नेशस कॉलेज के छापेखाने में सन् १६१६ ईस्वी में छपा। उसकी भाषा मराठी है, परन्तु अक्षर रोमन लिपि के है। उसकी सन् १६४६ में दूसरी और सन् १६५४ में तीसरी आवृत्ति प्रकाशित हुई, परन्तु आश्चर्य तो इस बात का है कि इन तीन पावृत्तियो में से एक की भी प्रति कही नही मिलती। मैने पोर्तुगाल फ्रास, जर्मनी, रोम और इंग्लैंड में इसकी तलाश की, परन्तु कही नहीं मिली। हाँ, इस ग्रन्थ की रोमन, देवनागरी और कन्नडी लिपि में बहुत सी हस्त-लिखित प्रतियां मिलती है। विएन (Wien) के 'नेशनल वाइग्लियोथिक' (National Bibliothek) नामक सरकारी संग्रहालय में इम ग्रन्थ की देवनागरी में हस्तलिखित प्रति है। इसी तरह लन्दन के 'दी स्कूल ऑव अोरिअटल स्टडीज' (The school of Oriental Studies) के सग्रहालय में भी इसकी एक प्रति है। इस ग्रन्थ की चौथी श्रावृत्ति मन् १९०७ में मि० मालडाना ने प्रकाशित की थी। EngsVsMARIA TARTE-DAN LIN GOA CANAS COMPOSTA PELO PADRE Ihon az cstcoao d2 Con paobja die SE IESV $ & acrecentada pelo Padr PEDiogesbiroda midoa cipanthias El noucmcare rcuifta. Bomendada por el Dontrog gro Paaresdamelma Com k'' sol parhiz, HnipavasariERHERI - - care & Org EXComicacadas.Inqallie dinario Eco Rachol no Collegio de S. Ignacio led da Çompanhia de IESV Anno de 1640. 101. कानारी व्याकरणका टायटिल पृष्ठ (१६४०) रायतूर के छापाखाने मे सन् १६३४ में एक और अन्य मराठी भाषा में छपा था। इसका नाम है 'सेट पिटर पुराण' । इसमें वारह हजार के करीब प्रोवियाँ है। इसकी एक प्रति गोवे के विब्लिसोतेक नासियोनाल' (Biblioteca 'महाराष्ट्र के प्रसिद्ध महात्मा ज्ञानेश्वर का धार्मिक ग्रन्थ इसी 'ओवी'छन्द में लिखा गया है। महाराष्ट्र में इनकी प्रोवियां इसी तरह प्रसिद्ध है, जिस तरह उत्तर भारत में सन्त कबीरदास की साखियाँ और महात्मा तुलसीदाम की चौपाइयां। २२ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ १७० Nacional) नाम के सरकारी संग्रहालय में है। इस ग्रन्थ के प्रारम्भ के पच्चीस पृष्ठ नष्ट हो गये है। इसलिए यह निश्चय करना बडा कठिन है कि इसका बनाने वाला कौन था। मगर इस ग्रन्थ की छपी हुई एक प्रति पुर्तगाल में मिली है। इसीसे यह निश्चित हुआ है कि इसका निर्माणकर्ता 'फादर एतिएन द ला क्रुवा' (Fr. Etienne de la Crorx) था और यह सन् १६३४ में रायतूर के छापेखाने में छपी थी। इसी छापेखाने में छपी हुई एक दूसरी किताव लिस्वन के ग्रन्थ-सग्रहालय में मिली है। यह गोवे की मराठी वोली का व्याकरण है। इसका नाम 'प्राति द लिंग्व कानारी' (Arte de Lingua Canarim) है। इसको फादर स्टिफस ने बनाया है। इसका मुद्रण काल सन् १६४० है।' लिस्वन के सग्रहालय में तीसरी किताव रायतूर के छापेखाने में छपी हुई और है । वह मराठी भाषा में है। उसका नाम 'ख्रिस्ती धर्म सिद्धान्त' (Doutrina Christa) और बनाने वाला स्टिफस है। इसका मुद्रण काल सन् १६२२ ईस्वी है। इसी सग्रहालय में उक्त छापेखाने की छपी हुई चौथी किताव 'सेंट अटनी का पुराण' है। उसका लेखक 'फादर आन्तोनिय द सालदाज्य' (Fr Antonio de Saldanha) है । यह सन् १६५५ ईस्वी में छपी थी। गोवे के सरकारी ग्रन्थ-सग्रहालय में सन् १६५८ ईस्वी की छपी हुई एक और पुस्तक है । उसको 'फादर मिंगेल द आलमैद' (Fr Minguel de Almeida) ने बनाया है। इसका नाम है 'किसान का वाग' (Jardim dos Pastores)। इसकी भाषा कोकणी मराठी और लिपि रोमन है। गोवे के सग्रहालय में सन् १६६० में रायतूर के छापेखाने में छपी 'दैविक आत्मगत भाषण' (Sohloqulos Divinos) नामक पुस्तक और है, जिसके कर्ता जुझाव द पेंद्रोज (Joao de Pedroza) है । इसकी भाषा कोकणी मराठी और लिपि रोमन है। पोर्तुगीज़ के धर्म-प्रचारक ईसाई लोगो का मलावार में भी धर्म-प्रचार का प्रयत्न जोरो से चल रहा था। फादर फासिस्क द सीज अपने उपरिनिर्दिष्ट ग्रन्थ में लिखता है कि जुवाव गोसालविस् (Joao Gonsalves) ने मलावारी लिपि के टाइप बनाये थे। उसने कन्नडी लिपि के टाइप बनाने का भी इरादा किया था, परन्तु अक्षरो की विचित्र आकृति, उच्चारण निश्चित करने की कठिनाई और बोलने वाले लोगो की सख्या की कमी के कारण उसने यह इरादा छोड दिया। गोवे के अन्दर बोली जाने वाली मराठी को पोर्तुगीज 'कानारी' वोली कहते है। प्राचीन काल में मराठी भाषा कन्नडी लिपि में भी लिखी हुई मिलती है। ___ पहले छापेखाने को 'लिहित मडप' कहते थे। सन् १६५८ में छपी हुई 'किसान का वाग' नामक पुस्तक में लिखा है-"लिहित मडपी गसिला।" यह नाम सबसे पहले पोर्तुगीज़ लोगो ने छापेखाने को दिया था। इससे पहले छापने की मशीन का कोई देशी नाम नहीं था। x X हिन्दुस्तान में छापाखाना प्रारम्भ करने का दूसरा प्रयत्ल डेनिश मिशनरियो ने किया। ९ जुलाई सन् १७०६ को 'वारथोलोमेव जिजेनवल्ग' (Bartholomew Ziegenbalg) नामक मिशनरी अपने साथी 'हेनरी फुश्चान' (Henry Plutschan) के साथ हिन्दुस्तान में आया। उस समय फ्रेडरिक चतुर्थ राज्य करता था। उसने तजावर के पास आकर ट्राक्वेवार (Tranquebar) में ईसाई धर्म प्रचार करने का काम प्रारम्भ किया। शुरू-शुरू में उसे वडी कठिनाइयाँ झेलनी पडी, परन्तु पीछे उसको सफलता प्राप्त होने लगी। उसने 'तानावडी' नामक प्रसिद्ध तामिल कवि को ईसाई बनाया। इस कवि ने तामिल भाषा में महात्मा ईसा का पद्य में जीवनचरित लिखा। X 'इस सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए लेखक को 'मराठी व्याकरणाची कुलकथा' नामक पुस्तक देखिए । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदुस्तान में छापेखाने का प्रारभ १७१ यह मिशन मार्टिन लूथर के अनुयायी प्रोटेस्टैट लोगो का था। इसलिए डेन्मार्क की तरह जर्मनी व इग्लैंड के प्रोटेस्टेंट लोगो ने इस मिशन की सहायता की। वहाँ से 'जॉन फिन्के' (Jonas Fincke) नामक प्रेसमैन (Pressman) छापाखाना, टाइप और कुछ पोर्तुगीज भाषा में छपी हुई 'नये करार' की पुस्तको के साथ हिन्दुस्तान भेजा गया। मगर ब्रेज़िल के पास फ्रेंच लोगो ने उस जहाज़ पर हमला किया, जिसमें फिन्के आ रहा था। फिन्के युद्ध-वन्दी की तरह पकडा गया। कुछ समय के बाद वह छोड दिया गया। मगर दुर्भाग्य से वह रास्ते में ही ज्वर से पीडित होकर मर गया। छापाखाना हिन्दुस्तान में आया, परन्तु उसको चलाने वाला कोई न था। कुछ दिन वाद मालूम हुआ कि ईस्ट इडिया कम्पनी की फौज में एक सिपाही है। वह मुद्रणकला की कुछ जानकारी रखता है। वह बुलाया गया और उसकी सहायता से छापाखाना खडा किया गया। इसमें कुछ धार्मिक पुस्तके, प्रश्नोत्तर के रूप में और प्रार्थना के रूप में छापी गई। उनमें से एक भी पुस्तक अव नहीं मिलती। इसी मिशन में 'फ्रेडरिक स्क्वार्ट ज' (Frederick Schwartz) नामक एक पादरी था। उसने प्रयत्न करके नजावर के राजा सरफौजी से उसकी राजधानी में एक छापाखाना कायम कराया। इस छापेखाने मे मराठी और सस्कृत भाषा मे पुस्तकें छापी गईं। ब्रिटिश म्यूजियम में मराठी भाषा मे छपी हुई 'ईसप-नीति' नाम की सचित्र पुस्तक है। इसका अनुवाद सरफोजी महाराज के मुख्य मन्त्री सखण्णा पडित ने किया था। इसकी एक प्रति सरफौजी महाराज ने 'सर अलेक्जेंडर जॉनस्टोन' को, जब वे तजावर गये थे, भेंट में दी थी।' इससे स्पष्ट है कि यह पुस्तक सन् १८१७ के पूर्व किसी समय तजावर के छापेखाने में छपी थी। __ तजावर के 'सरस्वती महल' पुस्तकालय में इस छापेखाने में छपे हुए माघकाव्य, कारिकावली, व मुक्तावली नाम के सस्कृत ग्रन्थ मौजूद है। ये मूल ग्रन्थ न तो मैंने देखे है, न उनका कोई छाया-चित्र ही मेरे पास है। इसलिए उनके सम्बन्ध में विशेष रूप से कुछ नही कहा जा सकता, परन्तु इतना तो ज्ञात है ही कि छपाई ब्लॉक-प्रिंटिंग नहीं है, टाइप-प्रिंटिंग है। इस कथन का आधार यह है जिस 'ईसप नीति' का ऊपर जिक्र किया है, उस पर हाथ से लिखा है, "The present Raja of Tanjore procured a printing press from England, established it in his own palace and had a great many of the Brahmins, who held appointments near his person, instructed in printing with Marathi and Sanskrit types" (अर्थात्-तजावर के वर्तमान राजा ने इग्लैंड से एक प्रेम मंगवा कर अपने महल में खडा किया। उसके लिए कई आदमी (ब्राह्मण) रक्खे। उन्होने मराठी और सस्कृत टाइपो में छापना सिखाया।) सम्भवत यह वह प्रति होगी जिसे सरफौजी महाराज ने 'सर एलेक्जेंडर जॉनस्टोन' को भेट किया था और इसमें मर एलेक्जेंडर ने स्वय या उसके अन्य किसी व्यक्ति ने उपर्युक्त वात लिख दी होगी। फिर उसे ब्रिटिश म्यूजियम को भेट कर दिया होगा। सरफौजी महाराज की तरह ही पेशवाई के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ 'नाना फडनवीस' ने मुद्रण-कला की तरफ लक्ष किया था। उस समय लहिए ग्रन्थ लिखकर वेचते थे। गरीव ब्राह्मण ग्रन्थ नहीं खरीद सकते थे। इसलिए पनिक लोग ग्रन्थ खरीदते थे और ब्राह्मणो को दान में देते थे। जव 'नाना फडनवीस' ने अंग्रेजी में छपे ग्रन्थ देखे तव उनके मन में भी नागरी अक्षर वनवा कर उनमें गीता छपवाने की इच्छा जाग्रत हुई। उन्होने नागरी ब्लॉक तैयार करने History of Modern Marathi Literature by GC Bhate 1939, p 65 * The Journal of the Tanjore Saraswati Mahal Library, Vol I, No 2, 1939-40, P17 History of Modern Marathi Literature, p 65 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ को कारीगर नियुक्त किया, परन्तु यह काम अभी पूरा नही हुआ था कि दूसरे वाजीराव राजा हुए और 'नाना फडनवीस' को पूना छोडना पड़ा। कारीगर विचारा निराश हुआ। मगर भाग्य से उसकी मीरज के गुणग्राही राजा श्रीमन्त गगाधर राव गोविन्द पटवर्धन से मेंट हो गई। उन्होने कारीगर'को आश्रय दिया और गीता छापने का काम सन् १८०५ ईस्वी में पूरा हुआ। गीता की छपी हुई प्रति और जिन ब्लाको से वह छापी गई थी वे ब्लॉक अव भी मीरज रियासत के संग्रहालय में मौजूद है ।' कारीगर अंग्रेज़ी जैसा टाइप नही बना सका था। इसलिए उसने एक तांबे के पत्र में अक्षर खोदे, फिर उस पत्रे को दूसरे तांबे के पत्र में उल्टा जडा । उन्हे लकडी के प्रेस में ठोका और फिर लाख की स्याही से छापा। * গাজীগ্রাহগলীলা मंत्रोहमहोवाज्यमहानिइंदा । पितामध्यजगतोमातामातापितामहः । वेग्रंपवित्रमोंकाइनरकलामय होल्न र १७ गति तीमा साली निवास बालों गीता-जिसके मुद्रण का आदेश नाना फडनवीस ने दिया था। (ब्लाक प्रिंटिंग-१८०५) ई० स० १६७८ में ब्लॉक-प्रिंटिंग से छपा हुआ एक देवनागरी अक्षरो का लेख 'होरटस इडिकस, मलावारीकस' (Hortus Indicus Malabaricus) नामक लेटिन भाषा की पुस्तक के एक खड मे है । यह लेख कोकण की मराठी बोली में, कुछ पडितो द्वारा लिखा हुआ प्रमाणपत्र है। यह ऐसा दिखाई देता है कि जैसे ज़िक का ब्लॉक बनाकर छापा गया हो । ग्रन्य रॉयल एशियाटिक सोसायटी वम्बई के सग्रहालय में है। उन्नीसवी सदी मे छपे हुए देशी भाषा के अनेक पुराने ग्रन्थ लियो-प्रेस में छपे हुए मिलते है। इससे अनेक लोग यह समझने लगे है कि लिथोग्राफ-प्रिंटिंग टाइप-प्रिंटिंग की प्रथमावस्था है। मगर यह वात ठीक नहीं है । कारण, 'लिथोग्राफी' (Lythography) की शोध तो सन् १७९६ में 'स्टीनफेलडर' (Stenefelder) ने, जब वह फोटोग्राफी के आविष्कार में लगा हुआ था, की थी। टाइप-प्रिंटिंग की छपाई तो पहले से ही प्रारम्भ हो गई थी। प्रारम्भ में टाइप-प्रिंटिंग की अपेक्षा लिथो-प्रिंटिंग अधिक फैला। इसका मुख्य कारण यह है कि इसमें टाइप की कठिनता नहीं थी। गुजरात में लिथो-प्रेसो का प्रचार अधिक हुआ था। पोर्तुगीज या डेनिश मिशनरियो ने मुद्रणकला-प्रसार का प्रयत्न किया था। इनके सिवा एक दूसरे महानुभाव ने भी इसका प्रयत्ल किया था। भीमजी पारख नाम के एक गुजराती सज्जन ने सन् १६७० ईस्वी में कोर्ट ऑव डाइरेक्टस से प्रार्थना की कि हमें ब्राह्मण-ग्रन्य छापने है। इसलिए एक मुद्रक, छापाखाना और टाइप भिजवा दीजिए । तदनुसार 'हेनरी हिल' 'अधिक जानकारी के लिए रावबहादुर द० ब० पारसनीस और रा० सुन्दरराव वैद्य के 'नवयुग' (जून १९१५, पु०५६३ व जन १८१६, पृ०६२८) में प्रकाशित लेख देखिये। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदुस्तान में छापेखाने का श्रारंभ १७३ नामक एक अग्रेज बम्बई भेजा गया । परन्तु उसके साथ टाइप फाउडरी न थी । इसलिए वह यहाँ के (Bantan type) वनिया टाइप' न वना सका । अत कोर्ट ग्रॉव डाइरेक्टर्स से फिर प्रार्थना की गई और उन्होने एक टाइप फाउडरी भिजवाई | उपर्युक्त समाचार 'दी टाइम्स प्रॉव इंडिया' के १ जनवरी सन् १९३४ के शक में मि० श्रार० वी० पे मास्टर प्रकाशित किया था, परन्तु इस छापेखाने में कौन-कौन-सी पुस्तकें छपीं, इसका पता आजतक नही चला । इसके बाद करीव सौ वरम तक मुद्रणकला के सम्वन्ध में हिन्दुस्तान में कोई प्रयत्न हुआ हो, ऐसा मालूम नही होता । सन् १७७७ में रुस्तम जी कर्मा जी ने बाज़ार स्ट्रीट फोर्ट वम्बर्ड में एक छापाखाना शुरू किया और उसमें सन् १७८० ईस्त्री का बम्बई पचाग (Bombay Almanac ) छापा । लगभग इसी समय वगाल में छापाखाना शुरू किया गया और उसमें मि० नेथेनिएल हालहेड (Mr Nathenıel Halhed) का वगाली व्याकरण छापा गया। यह बात उसके मृत्यु-लेख में दी गई है ।" 533 Till following roots faccording to ml 509) take after the reduplicated confonant and fuch of them as contam a nalal may occa. Gomally drop it in the common, as in the profier funm यस् Fall शनीयम् शनोत्रस्ति or शनोग्रमीति, & Or, शनीयम, शनोग्रस्ति o शनीयंमीनि ४८ ध्वम् Fall, दनीध्वम्, दनीध्यसीति, &c. भ्रम् Fall, वनीम्, बनीभ्रस्ति or बनीभ्रमीनि, &c पन Move, fall, पनीपन, पनीपति or पनीपनीर्ति, &c पटू Go, flep, पनीपटू, पनीपनि or पनीपदीनि, &c. स्कन्द्र Jump, leap, चनीस्कद्, चनीस्कनि or चनीस्कदीनि, &c. वच् Deceive, वणीवच्, वणीयक्ति or वणीयचीनि, &c. * Or, according to lone, यणीवच्, पेणीवति or वणीवंचीनि, &ce कम् Go, move, चनकम्, चनीकस्ति or चनीक्सीनि, &c. 594 दंशू Bite, and भज Break, drop their nafals, aud, make दंदृष्टि, संस्कृत भाषा का व्याकरण (१८०८ ) इस व्याकरण को छापने में जिम टाइप का उपयोग किया गया था, वह मि० चार्ल्स विल्किन्स (फिर वे 'सर' हो गये थे) के बनाये हुए मेट्रिसेज से तैयार किया गया था। कहा जाता है कि देशी भाषा में छपी हुई यह सर्वप्रथम पुस्तक है । → विल्किंम ने भगवद्गीता का भी इग्लिश अनुवाद किया था। हिन्दुस्तान ही में दो कारीगरों की सहायता से विल्किस ने देवनागरी टाइप भी तैयार किया, परन्तु अचानक उसके कार्यालय में आग लग गई । इसलिए उसका १ 'सम्भवत वनिया टाइप से श्रभिप्राय गुजराती टाइप से है । The Bombay Calendar and Almanac 1856. * The Friend of India, 19th August 1838 * इसीलिए मि० विल्किंस को केक्सटन ऑव इंडिया (The Caxton of India) कहते हैं । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ प्रेमी-अभिनंदन-प्रय वह टाइप खराव हो गया और वह इस टाइप मे यहां कोई पुस्तक न छाप सका। परन्तु वह 'पच' और मट्रिस' इग्लैंड ले गया। वहां उसने देवनागरी टाइप डाला और उससे उसने अपनी पुस्तक 'संस्कृत भाषा का व्याकरण'(AGrammar of the Sanskrit Language) सन् १८०८ मे लन्दन मे छापी। यह किताव ईस्ट इंडिया कॉलेज, हॉर्टफ़ोर्ड (The East India College at Hertford) के सचालको के उत्साह से प्रकाशित कराई गई थी। यहनैयार तो भारत मे ही कर ली गई थी, मगर यहां छप नही सकी। इस बात का उल्लेख उन्होने अपने व्यावरण की प्रस्तावना में किया है। जिन दो सहायको का मि० विल्किन्स ने अपनी प्रस्तावना मे निर्देश किया है वे पचानन और मनोहर थे। उन्हें टाइप बनाने की कता प्राप्त हुई थी। मगर उस कला का उपयोग वे स्वय करने में असमर्थ थे। उनको विल्किस के जैसे कित्ती नियोजक की आवश्यकता थी। सौभाग्य से उन्हें डा० विलियम केरी नाम का एक सद्गृहस्थ मिला। यदि उन्हें डा० केरी न मिला होता तो सम्भव था कि यह कला दोनो कारीगरो के मार ही चली जाती और कई वर्ष तक हिन्दुस्तान में मुद्रणकला का प्रचार न होता। डा० केरी मिशनरी था। वह सन् १७६३ मे हिन्दुस्तान आया । उनका मुख्य उद्देश्य भारत मे ईमाइयो के प्रसिद्ध धर्म गन्य शुभवर्तमान का प्रचार करना था। उसको सस्कृत, वगाली, मराठी इत्यादि देशी भाषाओ का अच्छा ज्ञान था। फोर्ट विलियम कॉलेज, कलकत्ता में भी वह देशी भाषाएँ सिखाने का प्रोफेसर नियुक्त हुआ। जिस समय वह इत्त विचार में था कि किसी तरह देशी भाषानो के टाइप ढाले जाये और उसमें वाइविल छापी जाय, उसी समय मे उसकी पचानन से मुलाकात हुई और नीरामपुर के छापेखाने का उद्योग शुरू हुआ। सन् १८०७ में प्रकाशित 'अनुवाद के सस्मरण' (A memoir relative to the translations) नामक पुस्तक में डॉ० केरी ने लिखा है The first Section of the Shree Bhagvatu, आँ नैमिले इनिसियनेने अधयः शतकादयः सत्रं हाय लोकाव सहस्तममासत तएकदा तु मुनथः प्राततिजलाययः । सकतं सूत मासोनं अनछुरिमादरात् .. Im. Shouauku, aan the other sages, im Nircishu, thic, डा० केरी के सस्कृत भाषा का व्याकरण हमने सीरामपुर में काम आरभ किया। उसके कुछ ही दिन बाद, भगवान् की दया से हम वह प्रादमी मिला जिसने मि० विल्किस के साथ टाइप बनाने का काम किया था और जो इस काम में होशियार था। उसकी मदद से हमने एक टाइप फाउडरी बनाई। यद्यपि वह अव मर गया है। परन्तु वह बहुत से दूसरे प्रादमियो को यह काम सिखा गया है और वे टाप बनाने का काम किये जा रहे है। इतना ही नहीं, वे मेट्रिसेज भी बनाते हैं। वे इतनी Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदुस्तान में छापेखाने का प्रारंभ १७५ ठीक होती है कि यूरोपियन कारीगरों की बनावट से ममता करती है। इन्होंने हमारे लिए बंगाली के तीन-चार फाउट बनाये है। अब हमने उनको वर्तमान टाइप की साइज, जितनी कम करने के काम में लगाया है। उनके तैयार होने से वह जितना होगा। उससे कागज की बचत होगी और पुस्तक भी छोटी हो जायगी। मगर इस बात का पूरा खयाल रखा जायगा कि अक्षर ऐमे वर्ने जो छपने पर साफ-साफ पढे जा सकें। ____ हमने देवनागरी अक्षरो का भी एक फाउट बनाया है । इसके अक्षर हिन्दुस्तान में सबसे मुन्दर है । इसमें करीब १००० भिन्न-भिन्न अक्षरों का समूह है। इसको बनाने में केवल १५०० रुपया खर्च हुए है । इस खर्चे में टाइप ढालने की और दूसरी चीजों की कीमत शामिल नहीं है। पागारसे परमी पायी। पदा पर्य।- - उसमें रकमया घाउसदा मामायार पा पादमी पूरा धम्नी पा यार्थाारसे पधारापा बुरे कामतेम पर गहरा अवसावटेवा पोष रेटी जन्मी। उसको सपव साधावारपाची पार थापामा छ वा पांचवा भी या उडत परिवार उपसंती दिली धूर्य पपर L- सब खेगिसे दोन समेटे अपाये। घरमे परे थायमीभगाने भारोपे . दिन fear पार पाने भलेमपाले नियमित पाने याने पोशा वाचा वापर मिपावरकारने यादमी भक्के लोक | विषापासोर उठ मिनति मेवात । आम विभा शमायापले कामाने मेरे टाने पाय विषावागामार वा 1 दिया। प्रारयिषय परता- । विसी दिन वोट fulgeकास पर बाजे पाय वा वायभी उन्कगेच पाया। सद यसपने नाम कि कसे पाया प्रीतम 1. प्रवाप दे यह कहा कि शाम पिसे वार धर्म-पुस्तक (सुधरा हुमा टाइप) डॉ० केरी ने सस्कृत व्याकरण प्रकाशित कराया। उसका देवनागरी टाइप मोटा और ऊवड-खाबड है। सम्भवत यह उसका पहला प्रयत्न था। सुधारे हुए टाइपो का उपयोग उसने बाइबिल के हिन्दी अनुवाद में किया है, ऐसा इसकी छपाई से मालूम होता है। यद्यपि विल्किस ने देशी भाषाओ के टाइप बनाने का कार्य प्रारम्भ किया था, परन्तु टाइपो के सुधार और प्रचार का परिणाम तो डॉ० केरी का उद्योग ही है। नीचे उसके द्वारा प्रकाशित वाइबिलो के अनुवादो की सूची प्रकाशनसन् के साथ दी जाती है । उससे उसके महान् उद्योग की पाठक कल्पना कर सकेंगे The Life of William Carey by George Smith, 1887, p 213 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ १७६ सन् * सन् १८०१ १८११ १८२८ १८१५-१६ १८२४ १८१४-२४ १८०८ १९०६-११ १८२२-३२ १८१५-२२ १८२० १८२२ १८१५ १८२१ १५२१ १५२२ १८२३ करार भाषा करार नया करार बगाली १८०२-६ जूना करार उडिया १८१६ मागधी X X आसामी १९३२ जूना करार खासी X मणिपुरी १८११-१८ जूना करार सस्कृत हिन्दी १८१३-१८ जूना करार व्रजभाषा कन्नौजी x X नया करार खोसाली (इसमें केवल मेथ्यु की बातचीत (Gospel) ही छपी है।) उदयपुरी जयपुरी वघेली (Bhungeli) मारवाडी हाडोती १८२३ १८२४ बीकानेरी उज्जनी (मालवी) भाटी पालपा कुमायूं गढवाली नेपाली मराठी गुजराती कोकनी मराठी पजाबी मुल्तानी सिन्धी (केवल मेथ्यु का वार्तालाप) काश्मीरी ( , , , ) डोगरी ( . . . ) १८२० १८३२ १८२६ १८३२ १८२१ १५२१ १८२० १८१६ १८१५ १८१६ १८२५ १८२० १५२० १८१६ १८१५ १८१८ १८२२ जूना करार " , नया करार १८२१ १८२२ (Penta tench) (Penta fench) पश्तो वलची तेलगू - , कानडी " Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदुस्तान में छापेखाने का प्रारभ १७७ डॉ. केरी ने केवल वाइविल के अनुवादही प्रकाशित नहीं किये थे, बल्कि उसने भिन्न-भिन्न भाषाओं के व्याकरण कोश, लोक-कया आदि-अन्य भी हिन्दुस्तान के विद्वानो की सहायता से छापे थे। मीरामपुर प्रेम में वाइविल के मिवाय नीचे लिखी मराठी पुस्तकें भी मुद्रित हुई हैसन् पुस्तक का नाम १८०५ मराठी भाषा का व्याकरण १८०७ मगल ममाचार १८१० मराठी-इग्लिश कोश १८१४ सिंहासन बत्तीसी १८१५ हितोपदेश १८१८ राघोजी भोसले की वशावली प्रतापादित्य का चरित्र मारासगा पुलानचे पनपी पीननाशासाणं प्रपमराः प्राय • भानूपू मंगळाचनण पनीर यो मंगेचे प्रेणाचे प्रमाणे प्रभळा मादे प्रपाम , प्पो या मधपाने पानुग्रमने सामु मेम्न साथ. मर्म सोय घे/ पयनीम ग्रेगेसोपशव सरमरा गोरा पाणख । पाणी सर्पक गौधर पेयोना पाणी नोगा घ्या गो । • योपन मनप्प पावन प्यणी सामनाचे खासा भेजन - पीच्या पणो धन बोनामनो पणछीन यमाने शडी গদ্য ট যা সমাটা টন্ মাৰা মৰছু। प्पणो पापणे प्रमागणे पीध्या जनुभम प्रम में vडा र पो मा नीमोनान पीयेच खाणे सगर्योोगार्टन नोयरा पण साध्यास प्पणी पदाया यी पाणछन् पीच्या गन नीच । मनुष्याम घय रान साव् भनुप्पास् गुणाम्य नान्मार , हितोपदेश (१८१५) मराठी भाषा मे पुस्तके प्रकाशित कराने के काम में उसे नागपुर के वैजनाथ नामक पडित की पूरी सहायता मिली थी। __मराठी भाषा देवनागरी अक्षरों में ही लिखी जाती है । इसलिए इसमें ही मराठी पुस्तकें छपी थी, परन्तु महाराष्ट्र में लिखने के व्यवहार में अधिक प्रचलित 'मोडी' अक्षरो के टाइप भी उसने बनवाये। इसका कारण उमने स्वय बताया है - ०३ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ प्रेमी-अभिनदन-प्रय __ "यद्यपि महाराष्ट्र के पढ़े-लिखे लोग देवनागरी अच्छी तरह जानते है तथापि व्यापारी लोगो में ये (मोडी) असर अधिक प्रचलित है। ये देवनागरी से प्राकृति में छोटे और रूप में कुछ भिन्न है। सख्या इन अक्षरो की देवनागरी के समान ही है। हमने इस (मोडी) टाइप का एक फाउट वनवाया है और इसमें मराठी का 'नया करार' पीर मराठी कोश छपाना शुरू किया है। ये टाइप सुन्दर, स्पष्ट और मध्यम प्राकृति के है।" AMPUR अरे RAIPIgs माना मनापासनाने - (211 -- भार માદાર છે नाना kul negu भPHY भराम शर भरे -- अपमान पारपर मापासपेश निस्पमितपणे मतपस्याऐवाण पत्याने अपचारा महमपचार JHARAT पयागने - Hits में VRITI : They प्याRTERY TeTaste « ក nara वनिया गुजराती (पहला कॉलम) और मोडी मराठी (दूसरा कॉलम) टाइप के नमूने पचानन की मृत्यु के बाद उसके माथ काम करने वाला मनोहर लुहार उसकी जगह काम करने लगा। मनोहर एकनिष्ठ हिन्दू था। वह अपने पाराध्य देव के सामने बैठकर ही टाइप बनाने का काम कर सकता था। अन्यत्र उसमे काम नहीं होता था। इस बात का सन १८३६ मेंरेजेम्स ने उसकी स्थिति देखकर उल्लेख किया है। सीरामपुर मे अपने प्रेस के लिए ही टाइप नही ढाले जाते थे, बल्कि दूसरे प्रेसो के लिए भी यही से टाइप डालकर भेजे जाते थे। सन १८६० तक पूर्व में मीरामपुर को फाउडरी ही मुख्य थी। विल्किम और पचानन हिन्दुस्तान मे मुद्रण-कला के प्राद्य प्रवर्तक है और पूर्व मे उन्होंने इसका प्रारभ किया था, परन्तु अन्य प्रान्तो में यह कला कब और कैसे फैली, खास करके भारतीय लोगो के हाथ में यह काम कव आया, इसकी जानकारी मनोरजक होगी। यद्यपिइसका पूर्ण इतिहास उपलब्ध नहीं है, तथापि जो जानकारी प्राप्य है, वह यहाँ दी जाती है। वम्बई में सन् १८१७ ईस्वी में 'मेंट मेथ्यू का शुभ वर्तमान' नामक पुस्तक मगठी भाषा में छपी। इसका प्रकाशक अमेरिकन भिगन था। इसमेजो टाइप है, कहा जाता है, वह मीरामपुर की टाइप फाउडरी से लाया गया था। मगर सन् १८१६ मे सीरामपुर प्रेस द्वारा प्रकाशित 'जूना करार' और मन् १८१७ मे अमेरिकन प्रेस द्वारा प्रकाशित 'मेट मेथ्य काशुभ वर्तमान' दोनो के टाइपोमे वहुत फर्क है। मम्भव है, इसके लिए खास तरह से अलग टाइप वनवाया गया हो। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदुस्तान में छापेखाने का प्रारम वम्बई में टामस ग्रेहम ने सन् १८३६ मे रामजी व जीवनवल्लभ नाम के लुहार कारीगरो से देवनागरी टाइप वनवाया था और फिर घोरे-धीरे गुजराती टाइप भी। मगर इनका कोई नमूना आज सुलभ नही है । हाँ, कुरियर . -- -- -7 जो पुरुप दुसऱ्याचो अदेखायों करिननाही. कोणाचीही ज्यास दया येते. आपण दुर्बळ असोन समर्थाचा आव घालित नाही-कोणीही वाईट गे लिला तथापि साहतो.असा पुरूप प्रशसस योग्य होतों-जो उद्धटपणा करित नाही. आपला थो रपणा पुढेंकरून दुसयावा तिरस्कार करित ना ही कोणास कठिण बोलत नाही. अशा पुरुषा सर्वलोक हितव करिताहेत जो मागे पडलेले वैर पुनः उत्पन्न करित ना. विदुर नीति (नागरी लिपि में मुद्रित प्रथम मराठी पुस्तक-१८२३) प्रेस वम्बई में सन् १८२३ में देवनागरी अक्षरो में छपी हुई 'विदुरनीति' और सन् १८२४ में छपी हई 'सिंहासनवत्तीसी' नकियात नकु.1.1 ऐक बादशाह ने अपने वीरमे पूछा कि सब मे विहतर मेरे हक में क्या है। अर्ज को कि अट्ट करना और रयत का पालना । ऐक शरवम ने ऐक को कहा कि न तो आगे मुहताज था -ऐमा क्या काम किया जो दोलत मद होगया। जवाब दिया कि जो कोर अपने आकां को खरखाही करेगा - सो थोडे दिनों में माल दार होगा २--3 ऐक ने किसी से पूछा कि आगेत बहुत गरीब प्रथम हिन्दी पुस्तक, जो इग्लैंड में नागरी लिपि में छपी उपलब्ध है। ये टाइप विल्किस की फाउडरी के है । सम्भवत कुरियर प्रेस ने ये टाइप इग्लैंड से मंगवाये होगे। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० प्रेमी-अभिनदन-प्रय इस तरह देशो भाषाओ मे पुस्तके प्रकाशित होने के बाद यह स्वाभाविक था कि देश मे ममाचार-पत्रों का प्रकाशन भी प्रारम्भ हो और वह हुआ भी।। हिन्दुस्तान में सबसे पहला समाचार पत्र अग्रेजी में निकला। उनका नाम पा 'वेगाल-गजेट' (Bengal Gazette)। इसका प्रथम अक २६ जनवरी सन् १७८० के दिन निकला था। यह माप्ताहिक था। इसके सम्पादक मि० हिकी (Hickey) थे। यह पत्र प्राय इसके सम्पादक के नाम से ही पहचाना जाता था। .इसके बाद वगाल में 'वगाल हरकर' इत्यादि पत्र प्रकाशित हुए। इसी तरह वम्बई में सन् १७६० मे गैजेट' (Gazette) और सन् १७९१ में 'कोरियर' (Courner) प्रकाशित हुए। इन्ही इग्लिग पत्रो को देखकर मन् १८१८ मे बंगला भाषा में 'मनाचान्दन',नन् १८२० मैं गुजराती भाषा मे 'मुम्बई समाचार' सन् १८२६ में हिन्दी भाषा में 'उदन्त मार्तड', और नन् १८३२ मे मग भाषा में 'दर्पण' पत्र प्रकागित हुए। मरकारने जव शिक्षा का प्रारम्भ क्यिा तव शिक्षोपयोगी, भाषा, गणित, इतिहास और भूगोल इत्यादि विषयों को पुस्तकें भी प्रकाशित होने लगी। ___ इस तरह छयो पुस्तको और पत्रो का प्रचार देखकर पुराण-गन्यी चौंक उठे। उन्होनें छपी पुस्तको और पत्रों का विरोध प्रारम्भ किया। इस विरोध का कारण मम्भवत यह था कि इन छापे के प्राव प्रचारक मिशनरी थे। इन लिए उन्हें छपे कागजो में ईसाई-धर्म के प्रचार को बू पाने नगो। श्रीयुत गोविन्द नागयण माडगांवकर ने अपनी पुस्तक 'मुम्बई वर्णन', जो सन् १८६३ में प्रकाशित हुई थी, के प० २४८ पर लिखा है। हमारे कुछ भोले व नैष्ठिक ब्राह्मण छपे काग्रज का स्पर्श करते डरते थे और प्राज भी (सन् १८६३ में भी) डरते है । दम्बई में और बम्बई से बाहर भी ऐसे बहुन से लोग है, जो छपी हुई पुस्तक को पढना तो दूर रहा, इपे काराज का स्पर्श तक नहीं करते है। लोगो को कल्पना यो कि म्याही मे चरवी का प्रयोग किया जाता है, जो वजित है। इसलिए उन स्याही से छपी हुई पुस्तकें अमगलकारी है। छापना जव अनिवार्य समझा जाने लगा तव कुछ लोगों ने न्याही में घी का उपयोग करने को हिमायत की। गत शताब्दों के अन्त में पत्रो में 'तूपाचे (घो का) गुरुचरित्र' हैडिंग वाले विज्ञापन प्रकाशित होते थे, जिनमे यह बात प्रमाणित होती है कि लोग सचमुच हो चरवी को जगह स्याही में घी का उपयोग करते थे। "गुरुचरित्र" मराठी भाषा का एक धार्मिक ग्रन्य है। उसका चरवी को स्याही में छपना गुनाह माना गया। इसीलिए वह घी की स्याही मे छापा गया। मुना जाता है कि जैन-लोगो मे भी ऐसी ही भावना थी। कलकत्ते में करीव वीस वरस पहले प० पन्नालाल जी वाकलीवाल ने एक जन-निद्धान्त-प्रकाशिनी' सस्था कायम की थी। उसने अपना एक प्रेस प्रारम्भ किया । उस प्रेस में कही भी चरवो या दूसरो ऐमी चीज़ो का उपयोग नहीं किया जाता था, जो जैन-दृष्टि से अशुद्ध मानी जाती हो । वे उन चीज़ो की जगह किसी वनस्पति से बनी चीज काम में लाते थे और ग्रन्थ छापते थे। भारतियो के हृदयों में भी स्वतन्त्र रूप से छापाखाने चलाने की इच्छा का उत्पन्न होना स्वाभाविक था। उनको यह इच्छा पूरी भी हुई। सर्वप्रथम गणपत कृष्णाजी ने छापाखाना प्रारम्भ किया। ये पहले एक अमेरिकन मिशनरी प्रेस में प्रेममन थे। वही इन्होने मुद्रणालय से सम्बन्ध रखने वाली सारी बातें सीखी थी। इनके सम्बन्ध में गो० ना० माडगांवकर ने अपनी पुस्तक 'मुम्बई वर्णन' में लिखा है " अमेरिकन मिशनरियो ने सन् १८१३ में छापाखाना शुरू किया। लिथो प्रेस में ईसाई-धर्म से सम्बन्ध स्तने वाली अनेक पुस्तकें छपी। इन्हें देखकर परलोक-गत भडारी जाति के 'गणपत कृष्णाजी' के मन में (सन् Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदुस्तान में छापेखाने का आरंभ १८१ १८४०) आया कि मै भी इसी तरह का एक छापखाना आरभ कर हिन्दू-धर्म से सम्बन्ध रखने वाली तथा अन्य पुस्तकें छापूं, परन्तु न तो छापने के साधन उनके पास थे और न वम्बई में उस समय उसके साधन मिलते ही थे। इसलिए उन्होने खुद अमेरिकन प्रेम देखकर उसके जैसा प्रेस वनाने का उद्योग आरम्भ किया। प्रारम्भ मे उन्होने एक लकडी का साँचा तैयार किया और इधर-उघर से छापने लायक पत्थर के छोटे टुकडे जमा करके उन पर अक्षर कैसे उठते है यह जांच की। मगर छापने को स्याही नहीं थी। इसलिए स्याही तैयार करने के काम मे लगे। अनेक तरह के -एक्सपेरिमेंट (प्रयोग) के बाद वे स्याही वनाने में सफल हुए। उसके बाद उन्होंने लोहे का एक प्रेस वनवाया। फिर छापने का पत्थर खरीद कर छोटी-छोटी पुस्तकें छापने का काम प्रारम्भ किया। शके १७६३ (सन् १८४१) में उन्होने स्वत लिखकर मराठोपचाग छापकर प्रकाशित किया। उसकी कीमत आठ आने रक्खी। यह साफ छपा हुआ था । ज्योतिष को अनेक वाते उसमें तुरन्त मिल जाती थी। यह देखकर ब्राह्मण लोग, यद्यपि छपी पुस्तको के विरोधी थे, लेकिन इस पचाग को खरीदने लगे और उमीसे सवत्सर प्रतिपदा (चैत्र सुदी १) के दिन वर्ष-फल पढकर लोगो को सुनाने लगे। "इन्होने अपने छापाखाने मे छपी हुई कुछ पुस्तके ले जा कर डॉ. विलमन, पादरी गरेट और पादरी आलन को वताई। पुस्तके देखकर उन लोगो ने गणपत कृष्णाजो को बुद्धि को प्रशसा की और उनका उत्साह वढाने के लिए उन्हें कुछ छापने का काम देने लगे। फिर तो घोरे-धीरे उनके छापेखाने की बहुत प्रसिद्धि हुई और उन्हें छपाई का वहुत काम मिलने लगा। "शके १७६५ (सन् १८४३) में गणपत कृष्णाजी ने टाइप बनाने का उद्योग प्रारम्भ किया। सांचे तैयार करके अक्षर ढालो का कारखाना शुरू किया और सब तरह के टाइप तैयार करके टाइप का छापाखाना भो आरम्भ कर दिया और उसमे पुस्तकें छपने लगी। ___"इस तरह गणपत कृष्णाजो ने दोनो छापेखानो मे हजारो गुजराती और मराठो की पुस्तकें छापी। इस छापाखाने में मराठो छापने का जैसा सुन्दर काम होता है, वैसा अन्यत्र नहीं होता।" महाराष्ट्र में गणपत कृष्णाजो ने जैसा काम किया, वैसा उत्तर हिन्दुस्तान, वगाल, गुजरात आदि प्रातो के मुद्रको को विस्तृत जानकारी प्रकाशित होने से पाठको को वडा लाभ होगा। वम्बई] Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत में समाचार-पत्र और स्वाधीनता श्री अम्बिकाप्रसाद बाजपेयी आजकल जिसे समाचार पत्र कहते है, अगरेजो के यहाँ आने के पहले उसका अस्तित्व नही था। पहला पत्र जो इस देश मे निकला, वह भी अंगरेजी मे और अंगरेज़ नेही निकाला, क्योकि अंगरेज़ विचारस्वातन्त्र्य के पक्षपाती ही नही है, वे साधारणत अनाचार के विरोधी भी है । वे जानते है कि अनियन्त्रित राजसत्ता अनाचार की जननी है और अनाचार पर प्रकाश डालने के लिए समाचारपत्र की आवश्यकता है तथा जवतक अनाचार पर प्रकाण नही पडता तवतक अन्याय-अत्याचार का अन्धकार भी दूर नहीं होता। ऐसे विचारो की प्रेरणा से जेम्स ऑगस्ट हिकी ने १७८० में 'बंगाल गैजेट' वा 'कैलकटा जेनरल ऐडवरटाइजर' नामक पत्र निकाला था। इन्होने अपने प्रकागन-पत्र का उद्देश्य इस एक वाक्य मे ही बता दिया था-"I take a pleasure in enslaving my body in order to purchase freedom for my mind and soul " अर्थात्-"मुझे अपने मन और आत्मा के निमित्त स्वतन्त्रता मोल लेने के लिए अपने शरीर को दास बनाने मे आनन्द आता है।" उस समय वारेन हेस्टिंग्ज बगाल के गवर्नर-जनरल थे और इतिहास के विद्यार्थी जानते है कि वे कैमे शासक थे। हिकी कागैजेट साप्ताहिक था और दो तावो पर निकलता था, जिसका प्रत्येक पृष्ठ पाठ इच चौडाऔर बारह इच लम्बा होता था। जैसा उसके नाम से प्रकट है, वह समाचारपत्र की अपेक्षा विज्ञापन-पत्र अधिक था, परन्तु उसमें विज्ञापन हो नही रहते थे, विशिष्ट पुरुषो की प्राइवेट बातो पर टिप्पणियाँ भी रहती थी, जिनका मुख्य लक्ष्य वारेन हेस्टिग्ज ही होता था। हिकी बडे साहसी थे। इसलिए उन्होने अपनी नीति के विषय में पत्र पर छाप रक्खा था "A weekly political and commercial paper open to all paitics and influenced by none" अर्थात्-"एक साप्ताहिक राजनैतिक और व्यापारिक पत्र, जो खुला तो सव पार्टियो के लिए है, पर प्रभावित किसी से नही है।" हम समझते है कि हिकी के दोनो सिद्धान्त आज भो समाचार-पत्रो के सम्पादको और सचालको के सामने रहने चाहिए। हमारी समझ से आज के प्रलोभन उस समय से अधिक है। हिकी ने अपने सिद्धान्तो की रक्षा में जेल काटी और घाटा भी उठाया। __ - कलकत्ते की देखादेखी मद्रास और वम्बई के यूरोपियनो ने भी पत्र निकाले, परन्तु पत्रो के सचालन और सम्पादन में मानसिक, शारीरिक तथा आर्थिक हानि उठाने वालो मे अग्रणी कलकत्ते के ही अंगरेज़ रहे। देशी भाषा का पहला पत्र भी अंगरेजो ने ही निकाला, पर ये व्यापारी न थे, वैपटिस्ट मिशनरी थे। सीरामपुर के बैपटिस्ट मिशनरी केरी और मार्शमैन ने ईसाई धर्म के प्रचारार्थ बंगला मे कई पत्र निकाले। १८१८ में मासिक 'दिग्दर्शन' और 'समाचारदर्पण' नाम के पत्रो को जन्म इन मिशनरियो ने हो दिया। जोशमा मार्शमैन 'ममाचारदर्पण के सम्पादक थे। इसी समय 'आत्मीय सभा के सदस्य हरुचन्द्रराय और गङ्गाकिशोर भट्टाचार्य के सम्पादकत्व मे बँगला मे 'बगाल गैजेट' निकला। यह 'आत्मीय सभा' ब्राह्मसमाज का पूर्वरूप जान पडती है, क्योकि सम्पादकद्वय ब्राह्मसमाज के सस्थापक राजा राममोहन राय के मित्र थे। इस समय मुसलमानी अमलदारी का अन्त हो चुका था और अंगरेजी शासन की जड जम रही थी। आज जैसा अंगरेजो का वोलवाला है, वैसा ही मुसलमानी राज में फारसी का था। लोग शासको से सम्पर्क रखने के लिए फारसी पढते थे, इसलिए फ़ारसी एक प्रकार से उस समय के शिक्षित-समाज की अखिल भारतीय भाषा थी। राजा राममोहन राय ने अपने विचारो का अखिल भारतीय प्रचार करने के अभिप्राय से फारसी मे 'मोरात-उल-अखबार' निकाला था। कलकत्ते में अंगरेजी, बंगला और फारसी के ही पत्र प्रकाशित नहीं होते थे, पहला हिन्दी पत्र भी यही से निकला Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत में समाचार-पत्र और स्वाधीनता १८३ था। इसका नाम 'उदन्त मार्तण्ड' था। इसके सम्पादक और प्रकाशक युगुलकिशोर शुक्ल थे, जो सदर दीवानी अदालत में वकालत करते थे। यह साप्ताहिक पत्र था और इसकी पहलो सख्या ३० मई १८२६ को प्रकाशित हुई थी। इसका मासिक चन्दा दो रुपये था। इसी समय कलकत्ते से 'नामे जहांनुमा' नाम का जो फारसी पत्र निकलता था, उसे सरकार से सहायता मिलती थी। 'मार्तण्ड' के सम्पादक समझते थे कि उन्हें भी सहायता मिलेगी, पर जब न मिली और अपने वल पर वे पत्र न चला सके तो ४ दिसम्बर १८२७ को उसे वन्द कर दिया। वम्बई और मद्रास प्रेसीडेन्सियो का महत्त्व यद्यपि वगाल के समान न था, तथापि इनमें भी स्वतन्त्र विचार के व्यापारी अंगरेज़ थे और इन्होने समाचारपत्रो को जन्म दिया था। वम्बई से १७८६ मे 'वाम्बे हेरल्ड' और एक वर्ष वाद 'वाम्बे कोरियर' निकला, जिसका उत्तराधिकारी आज 'टाइम्स ऑव इडिया' है। 'कोरियर' के सचालक व्यवसायकुगल थे। इसलिए अंगरेजी में पत्र निकाल कर भी गुजराती भाषा-भाषी व्यापारियो को आकर्षित करने के लिए विज्ञापन गुजराती में निकालते थे। मद्रास में हम्फ्रीज़ ने १७९५ में 'मद्रास हेरल्ड' निकाला था। वम्बई मे गुजराती के पहले पत्र पारमियो ने प्रकाशित किये थे, पर इनका उद्देश्य पचागो की गणना का वाद-विवाद था। इसलिए ये बहुत दिन नही चले । अत 'मुम्बई वर्तमान' को ही गुजराती का पहला पत्र कहना चाहिए। यह १८३० में साप्ताहिक रूप से निकला था और साल भर वाद ही अर्द्ध-साप्ताहिक हो गया। १८३१ मे सनातनी पारसियो का मुखपत्र 'जामे जमशेद' निकला। देशी भाषा का इतना पुराना पत्र शायद कोई नहीं है। १८५१ में दादाभाई नवरोजी के सम्पादकत्व में "रास्त गुफ्तार' निकला। १८३१ तक उर्दू का कोई पत्र नहीं निकला था। गोलोकवासी वावू वालमुकुन्द गुप्त ने 'भारतमित्र' में लिखा था कि आवेहयात' मे मौ० मुहम्मदहुसैन आजाद का कथन है कि '१८३३ ईस्वी मे उर्दू का पहला अखवार दिल्ली में जारी हुआ' और आजाद साहव के अनुसार 'उनके पिता के कलम से निकला।' पर डा० कालीदास नाग ने समाचारपत्रो के इतिहास का जो सग्रह प्रकाशित किया है, उसमें लिखा है कि १८३७ में सर सैयद अहमद खां के भाई मुहम्मदखां ने उर्दू में पहला अखवार निकाला, जिसका नाम 'सैयदुल अखबार' था। १८३८ में 'देहली अखबार' प्रकाशित हुआ और इसके बाद ही 'फवायदे नाजरीन' और 'कुरान-उल-समादीन' नाम के दो उर्दू अखवार हिन्दुओ द्वारा सम्पादित और प्रकाशित होने लगे। - हिन्दी का दूसरा पत्र भी कलकत्ते से ही निकला। इसका नाम 'वनदूत था। यह वंगला, फारसी और हिन्दी तीन भाषाओं में प्रकाशित होता था। प्रथम अक ६ मई १८२६ को निकला था। इसके सम्पादक राजा राममोहन राय के मित्र और अनुयायी नीलरतन हलदार थे। यह राजा का ही पत्र था। इसके बहुत दिनो वाद तक हिन्दी का कोई पत्र कलकत्ते से नहीं निकला। हिन्दी का तीसरा पत्र 'बनारस अखबार' समझा जाता है, जिसे राजा शिवप्रसाद 'सितारे हिन्द' ने १८४४ मे जारी किया था। बनारस से और भी कई पत्र निकले थे, जिनमें एक 'सुधाकर' भी था, जिसके नाम पर प्रसिद्ध ज्योतिषी म० म० सुवाकर द्विवेदी का नामकरण हुआ था। इसे तारामोहन मित्र नामक वगाली सज्जन सम्पादित करते थे। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कारण बनारस बहुत दिनो तक हिन्दी का केन्द्र रहा, क्योकि ये लिखते और लिखाते ही नहीं थे, लेखको को धन भी देते थे। दिल्ली, अल्मोडा, लाहोर, कानपुर, मेरठ, अलीगढ, मिर्जापुर, कलकत्ता आदि अनेक स्थानो से हिन्दी पत्र निकले। ये वहुघा हिन्दी का ही आन्दोलन करते थे और उदार भाव व्यक्त करते थे। __ समाचारपत्रो के प्रतिवन्ध दूर करने में अंगरेज़ मम्पादको और मचालको ने जो त्याग और कष्ट-सहिष्णुता दिखाई है, उसके लिए समाचार-पत्र उनके सदा कृतज्ञ रहेगे। भारतवासियो ने जेलयातना पचास वर्ष पहले नहीं भोगी थी, पर अंगरेज सम्पादको ने जेल ही नही काटी, वे निर्वासित हुए और उनकी सम्पत्ति भी जब्त हुई। फिर भी अपने आदर्श का उन्होने त्याग नहीं किया। पहले सम्पादक हिकी थे, जो जेल गये और जिनको सरकार की इच्छा के विरुद्ध पत्र-प्रकाशन के कारण घाटा भी सहना पडा। दूसरे विलियम डुबानी थे, जिन्होने अपने 'इडियन वर्ल्ड' Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ प्रेमी-अभिनदन- प्रथ मे भडाफोड क्या किया, बैठी वरें उठाई। ये निर्वासित किये गये और इनकी तीस हजार की सम्पत्ति सरकार हडप गई। तीसरे सम्पादक मद्रास के हम्फ्रीज थे, जिन्होने सरकार से लाइसेन्स वा अधिकार-पत्र लिये विना ही पत्र प्रकाशित करना प्रारम्भ किया था। इनके लेखो से सरकार इतनी चिढ गई कि जहाज पर इन्हे इंग्लैंड के लिए चढा दिया । पर ये रास्ते से ही निकल भागे । लार्ड हेस्टिंग्ज़ के पहले नियम था कि छपने के पहले लेखादि देख लिये जायँ । पर इन्होने यह प्रि-सेन्सरशिप उठा दी। इस सुभीते के साथ ही एक वडा असुभीता यह हो गया कि १६८८ में 'विल प्रॉव राइट्स' द्वारा व्यक्तिस्वातन्त्र्य और भाषणस्वातन्त्र्य के जो अधिकार ब्रिटिश प्रजा को मिले थे, वे १८१८ के तीसरे रेगुलेशन द्वारा भारतीय प्रजा से छीन लिये गये, क्योकि इसके अनुसार कोई मनुष्य विना विचार के ही वर्षो कैद किया जाने लगा । यह रेगुलेशन आज भी व्यवहार में आता है और नौकरशाही के शस्त्रागार की शोभा बढा रहा है । पत्रो की पार्टियाँ जैसा ऊपर बताया गया है ईस्ट इंडिया कम्पनी के कर्मचारियो को निरकुशता से मोर्चा लेने के लिए अँगरेज सम्पादक ही सामने आते रहे और उन्होने वडे साहस, निष्ठा और त्याग से यह काम किया। इस ममय पत्रो की पार्टियों बन गई थी । एक पार्टी तो परम्परावादियो की थी और दूसरी मुवारको की। दूसरी के नेता राजा राममोहन राय थे । ये दोनो भारतवासियो की पार्टियां थी, परन्तु इनमें अँगरेज़ भी शामिल हो जाते थे । जो निरकुशता के समर्थक थे, वे परम्परावादियो की हाँ में हाँ मिलाते थे और जो उन्नतिशील विचारो के पक्षपाती थे, वे सुधारको के महायक थे । ये ही समाचार-पत्रो की स्वतन्त्रता के लिए लडते थे। पहले महासमर मे हम लोगो ने देखा था कि सरकार ने मि० बी० जी० (वेनजामिन गाइ) हार्निमैन को भारत से निर्वासित कर दिया था । पर उन दिनों यूरोपियन सम्पादको का निर्वासन साधारण घटना थी। हम्फ्रीज़ और नानी के बाद वगाल सरकार ने सिल्क वकिंघम को भी जहाज पर वैठाकर इंग्लैंड रवाना कर दिया था। ये राजा राममोहन राय के मित्र और आदर्श पत्रकार थे । सिल्क बकिंघम के 'कैलकटा जर्नल' का प्रभाव घटाने के लिए विपक्ष ने १०२१ में 'जान बुल' निकाला । पर सव उदारपत्र इसके विरोधी हो गये और यह नीम सरकारी पत्र समझा जाने लगा । लार्ड हेस्टिग्ज़ के जाते और जान ऐडम के अस्थायी गवर्नर जनरल बनते ही सिल्क बकिंघम पर ग्राफत आ गई । इन्होंने डा० ब्राइम की नियुक्ति का विरोध किया था । डा० ब्राइस स्काचचचं के चैपलेन थे और स्टेशनरी क्लर्क नियुक्त हुए थे। बस, बुकिंघम जहाज़ पर चढाकर इंग्लैंड भेज दिये गये । पर ब्राइस की नियुक्ति कोर्ट श्रॉप डाइरेक्टर्स को भी पसन्द न श्राई । इसलिए बकिंघम ने सरकार और कम्पनी दोनो को पेनशन देने के लिए लाचार किया और फिर वही से 'प्रोरियंटल हेरल्ड' निकाल दिया । फिर भी ऐडम अपनी हरकतो से बाज नही आये और उन्होने पत्रो और प्रेसो पर नये प्रतिबन्ध लगाये, जिनके फलस्वरूप राजा राममोहन राय को अपना फारसी पत्र 'मोरात-उल-अखबार' बन्द करना पडा । बेनटिक की उदारता · लार्ड ऐम्हटं ने रेगुलेशनो का कडाई से पालन किया, पर १८२८ में लार्ड विलियम वेनटिक के आते ही हवा बदल गई। इन्होने खुल्लम खुल्ला कहा, 'मैं समाचार पत्रों को मित्र मानता हूँ और सुशासन में सहायक समझता हूँ ।" जब राजा राममोहन को गवर्नर जनरल का यह रुख मालूम हुआ तव वे फिर पत्र प्रकाशन में प्रवृत्त हुए । १८२६ में उन्होंने 'बंगाल हेरल्ड' निकाला और अपने मित्र रावर्ट माटगोमरी मार्टिन को उसका सम्पादक नियुक्त किया । ये वही माटगोमरी मार्टिन थे, जिन्होने हिसाव लगाकर बताया था कि भारत से कितना धन इग्लैंड गया है और अवतक खिंचा चला जाता है । माटगोमरी मार्टिन के इस सिद्धान्त को ही दादाभाई नवरोजी ने अपनी 'Poverty and un-British Rule in India' में प्रमुख स्थान दिया था। राजा राममोहन और द्वारकानाथ ठाकुर ( कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ के पितामह) सतीप्रथा के भी विरुद्ध थे और जब लार्ड विलियम वेर्नाटक ने ब्रिटिश भारत से ( क्योकि वे Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत में समाचार-पत्र और स्वाधीनता १८५ बगाल के ही नही, ब्रिटिश भारत के भी गवर्नर जनरल नियुक्त हो चुके थे) सती प्रथा उठा दी तब सुधारवादी-पत्रो का बल बहुत वढ गया। समाचारपत्रो की स्वतत्रता लार्ड विलियम बेनटिक की उदारता के युग में भी प्रेसीडेन्सियो में कुछ मनमानी चलती ही थी। मद्रास सरकार ऐडम रेगुलेशन के ढगे पर प्रेस रेगुलेशन बनाने की सोच रही थी। उसने बगाल सरकार से इसकी प्रति भी मांगी थी। यद्यपि इसी समय लार्ड विलियम बेनटिक भारत के गवर्नर-जनरल बना दिये गये थे, उससे प्रेसीडेन्सियो की स्वेच्छाचारिता मे लगाम लग गई थी, तथापि इनका कार्यकाल समाप्तप्राय था। इसलिए ६ फरवरी १८३५ को ऐडम रेगुलेशन रद्द करने के लिए जो मेमोरियल गवर्नर-जनरल को दिया गया था, उस पर विचार भी लार्ड विलियम के चले जाने के बाद हुआ। नये गवर्नर-जनरल के आने में देर थी। इसलिए उनकी कौन्सिल के सीनियर मेम्बर सर चार्ल्स भेटकाफ अस्थायी गवर्नर-जनरल बना दिये गये। जो मेमोरियल इन्हे दिया गया, उस पर विलियम ऐडम, द्वारकानाथ ठाकुर, रसिकलाल मलिक, ई० एम० गार्डन, रसमय दत्त, एल० एल० क्लार्क, सी० हाग, टी० एच० बकिन यग, डेविड हेयर, टी० ई० एम० टर्टन-यग और जे० सदरलैंड के हस्ताक्षर थे। ३ अगस्त १८३५ को अपनी कौन्सिल के सर्वमतो से सर चार्ल्स ने ऐडम रेगुलेशन रद्द कर प्रेस को स्वतन्त्र कर दिया। इस विधान से बगाल का १८२३ का रेगुलेशन ही नही, बम्बई के १८२५ और मद्रास के १८२७ के रेगुलेशनो का भी सफाया हो गया। सर चार्ल्स ने इस सिद्धान्त पर प्रेस को स्वतन्त्र कर दिया कि सवको अपने विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। पहला दैनिक पत्र 'बगाल हरकारा' सबसे पुराना दैनिक पत्र अंगरेजी मे निकला था। सैमुएल स्मिथ नाम के एक अंगरेज ने इसे खरीद कर उदार विचारो के प्रचार में लगाया था। प्रिन्स द्वारकानाथ इसके सरक्षक थे और इसे आर्थिक सहायता दिया करते थे। 'बगाल-हरकारा' के साथ ही 'इडिया गैजेट' भी द्वारकानाथ के हाथ आ गया था और फिर ये दोनो आगे चलकर 'इडियन डेली न्यूज रूप से दैनिक में परिणत हो गये थे। अन्त समय तक डेली न्यूज' मे उदार विचार प्रकट किये जाते थे। इसके मालिक कलकत्ते के प्रसिद्ध वैरिस्टर मि० ग्रहम थे। अनुदार और अप्रगतिशील दो ही पत्र कलकत्ते में समाचार-पत्रो के स्वातन्त्र्य के समय थे-एक 'जान बुल' और दूसरी बगला की 'समाचार चन्द्रिका'। 'जान वुल' ने जे० एच० स्टोक्वेलर के हाथ मे पडकर अपना नाम 'इग्लिशमैन' धर लिया। किसी प्रकार कुछ वर्ष इसके वीते और अन्त में 'स्टेट्समैन' ने इसे खरीद कर वन्द कर दिया। गैगिंग ऐक्ट (गलाघोटू कानून) १८५७ के गदर के पहले भारत में बहुत से पत्र निकल चुके थे, पर इनका केन्द्र कलकत्ता ही था। १८५६ में लार्ड कैनिंग गवर्नर-जनरल होकर पाये थे और इसके एक वर्ष के अन्दर ही गदर हो गया था। अंगरेजो के अनुदार पत्र सरकार को हिन्दुस्तानियो के विरुद्ध भडकाते थे। यही नहीं, ठढे दिमाग से काम करने वाले लार्ड कैनिंग पर ऐसे कटाक्ष करते थे, मानो गदर के नेता यही थे । हिन्दुस्तानी पत्र भारतवासियो की निर्दोषिता सिद्ध करते थे। कलकत्ते के 'हिन्दू पैट्रियट' के सम्पादक हरिश्चन्द्र मुकर्जी और बम्बई के गुजराती पत्रो के सम्पादक विशेषकर दादाभाई नवरोजी अपने 'रास्त गुफ्तार' द्वारा सयत भाषा में सव आक्षेपो के उत्तर देते थे। फिर भी असाधारण उत्तेजना का वह समय था। इसलिए लार्ड कैनिंग ने सारे भारत के पत्रो पर १३ जून १८५७ को ऐडम रेगुलेशन लगा दिया, जो Gagging Act (गलाघोटू कानून) कहलाया। कलकत्ते के 'दूरबीन', 'सुलतान-उल-अखबार' और 'समाचार सुधावर्षण' पर मामले चले और 'फ्रेंड ऑव इडिया' को चेतावनी दी गई। इसने लिखा था कि आज भारत में आधा दर्जन भी यूरोपियन न होगे, जो लार्ड केनिंग के पक्ष मे हाथ उठावेंगे। २४ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ समाचारपत्रो की बाढ 'गलाघोट कानून' एक निश्चित अवधि के लिए जारी किया गया था, क्योकि लार्ड कैनिंग समाचारपत्रो की स्वाधीनता छीनना नही चाहते थे। यह अवधि बीतने पर समाचारपत्रो की वाढ आ गई। बम्बई के वाम्बे स्टैंडर्ड, टेलिग्राफ और कोरियर तीनो मिलकर 'बाम्बे टाइम्स' और फिर १८ सितम्बर १८६१ को 'टाइम्स प्रॉव इडिया' नाम से निकले । १८५८ मे 'वाम्बे टाइम्स' के सम्पादक रावर्ट नाइट नियुक्त हुए, जो वाद को १८७५ में कलकत्तापाइकपाडे के राजा इन्द्रचन्द्र सिंह की सहायता और धन से प्रकाशित होने वाले 'स्टेट्समैन' के सम्पादक हुए थे। १८६७ मे मेटकाफ ऐक्ट के बदले नया ऐक्ट बना, जिसमें छापाखानो और अखबारो के नियन्त्रण तथा छपी पुस्तको की व्यवस्था की गई। १८६८ समाचारपत्रो के इतिहास में महत्त्वपूर्ण वर्ष हुआ, क्योकि इसी वर्ष वगाल के जेमर जिले से शिशिरकुमार घोष और मोतीलाल घोष ने बँगला में 'अमृत बाजार पत्रिका' नाम से साप्ताहिक पत्र निकाला, जो आज भारतीय पत्र-पत्रिकाओ में सर्वश्रेष्ठ नही तो विशिष्ट अवश्य ही कहा जायगा। १८७० में ब्राह्म समाज के नेता केशवचन्द्र सेन ने जनता के हितार्थ एक पैसे का अखवार 'सुलभ समाचार' निकाला। हिन्दी पत्रो की वृद्धि - १८७१ से हिन्दी पत्रो में आशातीत वृद्धि हुई और ऐसे समय हुई, जव हिन्दी उपेक्षित भाषा थी। देश की भाषा रहनेपर भी वह दवी हुई थी, क्योकि सरकार ने उर्दू को हिन्दी प्रदेश की भापा का पद दे दिया था। गढवाल प्रदेश युक्त प्रदेश में सबसे पीछे अंगरेजी राज में शामिल हुया, पर पत्र प्रकाशन में किमी से पीछे न रहा । अल्मोडे से १८७१ में 'अल्मोडा अखवार' और कलकत्ते से १८७२ मे "विहारवन्धु' निकला। 'विहारवन्धु' पटना-जिले के विहार ग्राम निवासी मदनमोहन, साधोराम और केशवराम भट्ट ने कलकत्ते से प्रकाशित किया था। १८७० से १८८० तक लाहौर से कलकत्ते तक अनेको हिन्दी पत्र निकले। इन पत्रो में आगे चलकर विशेप प्रसिद्ध 'भारतमित्र हुआ, क्योंकि उस समय के प्रसिद्ध पुरुषो तक के लेख इसमें प्रकाशित होते थे। 'भारतमित्र' १८७८ मे पाक्षिक निकला था और वह थोडे ही दिनो वाद साप्ताहिक हो गया था। उन्नीसवी शताब्दी के अन्तिम दशक में वह दो वार दैनिक हुआ और एक साल से अधिक न रह सका। तीसरी वार १९११ में और चौथी बार १९१२ मे वह दैनिक हुआ। आगे चलकर उसका साप्ताहिक सस्करण बन्द हो गया और १९३४-३५ में भारत से 'भारतमित्र' का नामोनिशान मिट गया। परन्तु 'भारतमित्र' के दिखाये मार्ग पर अनेक दैनिक पत्र हिन्दी में निकले, जिनमें कुछ तो आज भी प्रकाशित हो रहे है और कुछ काल-कवलित हो गये। फिर भी इसमें सन्देह नहीं कि यह युग दैनिक पत्रो का है, साप्ताहिको का नहीं। वर्नाक्युलर प्रेस ऐक्ट १८७६ में लार्ड लिटन वायसराय बनकर आये । इस समय बंगला मे कई साप्ताहिक पत्र निकल रहे थे, जिनमें 'अमृतवाजारपत्रिका' का प्रभाव बढ रहा था। यह सरकारी कर्मचारियो का भडाफोड किया करती थी। इसलिए इसका प्रभाव नष्ट करने के उद्देश्य से देशी भाषायो के सभी पत्रो का दमन करने को लार्ड लिटन ने 'वर्नाक्यलर प्रेस ऐक्ट' वनाया। इस समय बम्बई प्रेसीडेन्सी से बासठ पत्र मराठी, गुजराती, फारसी और हिन्दुस्तानी में (पता नही यह हिन्दी थी या उर्दू), पश्चिमोत्तर प्रदेश वा वर्तमान युक्तप्रदेश से (अवध को छोडकर) साठ, मध्यप्रदेश से पचास, वगाल से पचास और मद्रास प्रेसीडेन्सी से उन्नीस पत्र निकलते थे। जो पत्र अंगरेजी मे निकलते थे, उन्हें तो लिटन ऐक्ट से कोई डर नही था। इसलिए कई नये अंगरेजी पत्र निकले, यथा २० सितम्बर १८७८ को मद्रास से 'हिन्दू, १८७६ में कलकत्ते से 'बंगाली और १८६० में बम्बई से 'इडियन सोशल रिफार्मर' प्रकाशित हुआ। पहिले के जनक जी० सुब्रह्मण्य ऐयर, दूसरे के सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और तीसरे के बैरामजी मलाबारी थे। सुरेन्द्रनाथ सिविलियन थे, पर कोई कागज Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत में समाचार-पत्र और स्वाधीनता १८७ भूल से दवा पडा रह गया था। इसलिए सिविल सर्विस से हटा दिये गये थे। ये अद्वितीय वक्ता थे और अपने भाषणो और लेखो से इन्होने देश की बडी सेवा की थी। एक वार कलकत्ता हाईकोर्ट में जस्टिस नौरिस ने हाईकोर्ट में शालग्राम शिला लाने की आज्ञा दी थी और काशी के पडित राममिश्र शास्त्री ने इसके समर्थन में व्यवस्था भी दे दी थी। परन्तु सुरेन्द्र वावू ने इसका विरोध किया और वदनाम अंगरेज़ जज जेफरीज़ से नौरिस की तुलना की। इस पर न्यायालय का अपमान करने के अपराध में इन्हें जेल भी जाना पडा। पर नौरिस की आज्ञा न चली। - 'अमृतवाजारपत्रिका' का कुछ अश इन दिनो बंगला में और कुछ अंगरेजी में निकलता था और इसे वन्द करना ही लिटन का लक्ष्य था। परन्तु पत्रिका के सम्पादक गिशिरकुमार घोप ने सारी पत्रिका अंगरेजी में ही कर दी और तवसे उसका बंगला अश सदा के लिए हट गया। लार्ड लिटन के कान इस प्रकार जव शिशिर वाबू ने काट लिये तव उनका मनोभाव कैसा हुअा होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। १४ मार्च १८७८ को लिटन का जो ऐक्ट पास हुया था, उममें सरकार को यह अधिकार दिया गया था कि वह देशी भाषा के किसी पत्र के मुद्रक और प्रकाशक से यह प्रतिज्ञा करा सकती है कि कोई ऐसा विपय न प्रकाशित किया जायगा, जिससे राजद्रोह फैल सकता हो। जो मुद्रकप्रकाशक इसके विरुद्ध आचरण करता, उसे पहले तो चेतावनी दी जाती और वाद में उसका प्रेस छीन लिया जाता। इससे बचने को लोग अपने पत्र की कापी सेन्सर करने के लिए दे सकते.थे । शिशिर वावू ने उसके बदले २१ मार्च १८७८ मे पत्रिकासँगरेज़ी में करदी और लार्ड लिटन अपना-सा मुंह लेकर रह गये। रिपन ने आकर इस ऐक्ट को रद्द किया। १९८१ मे पूने का 'केसरी' निकला, जो लो० तिलक के कारण भारत के देशभाषा के पत्रो में सबसे प्रसिद्ध हुआ। बङ्ग-भङ्ग का प्रभाव भारतीय पत्रो को सख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढने लगी और १९०५ में वग-भग के आन्दोलन से तो बहुत अधिक हो गई। इस आन्दोलन के दो रूप थे, एक हिंसात्मक और दूसरा अहिंसात्मक । खुल्लमखुल्ला हिंसा का प्रचार करने वाला पत्र क्रान्तिवादियो ने 'युगान्तर' नाम से बंगला मे निकाला था। इसके दमन के लिए १६०८ में हिंसा को उत्तेजन देने के सम्बन्ध का (Incitement to Violence) ऐक्ट बना। इसके साथ ही अंगरेजी का दैनिक पत्र 'वन्देमातरम्' भी इसी कानून से वन्द किया गया, यद्यपि इसकी नीति हिंसावाद की नही थी। इतने से ही सरकार को सन्तोप न हुआ और उसने १९१० में प्रेस ऐक्ट' बनाया, जो इतना व्यापक था कि 'कानेड' के मामले में कलकत्ता हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस सर लारेन्स जेनकिन्स ने कहा कि अच्छे-से-अच्या साहित्य प्रेस-ऐक्ट के अनुसार दूषित ठहर सकता है। यह प्रेस-ऐक्ट १९१६ में रद्द कर दिया गया, पर १९१६ में पजाव मे जो घटनाएं हुई, उन पर विचार करके सरकार ने १९२० से उसे फिर जारी कर दिया और आज भी वह देशी पत्रो की छाती पर मूंग दल रहा है। इसके पहले पीनल कोड वा ताजीरात हिन्द में दो धाराएँ और वढाई गई, एक १२४अ और दूसरी १५३अ । पहली के अनुसार राजद्रोह-प्रचारका अभियोग सम्पादको और लेखको पर लगने लगा और दूसरी के अनुसार जाति-द्वेषप्रचार के मामले उन पर चलाये जाने लगे। १८९७ में लोकमान्य तिलक पर राजद्रोह-प्रचार का मामला चलाया गया था। उसमें बम्बई हाईकोर्ट के दौरा-जज स्ट्रेची ने उक्त धारा में 'disaffection' शब्द का अर्थ 'want of affection' किया था। ऐसी अवस्था में उन्हें डेढ साल की सजा देना जस्टिस स्ट्रेची के लिए ठीक ही था। १९०८ में उन्हें छ वर्ष का दड वैसे ही अभियोग पर जस्टिस दावर ने दिया था, जो १८९७ वाले मामले में उनके बैरिस्टर थे। युद्धकाल में और विशेषकर गत महासमर में तो पत्रो की कोई स्वाधीनता ही नही थी और आज भी नही के बरावर ही है। उन्नीसवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध मे हिन्दी के जो पत्र जहाँ से और जिसके सम्पादकत्व मे निकले, उनका सक्षिप्त - विवरण नीचे दिया जाता है। १८७१ में 'अल्मोडा अखबार', १८७२ मे बिहारबन्धु, १८७४ में 'सदादर्श' (दिल्ली, सम्पादक लाला श्रीनिवासदास),१८७६ में भारतबन्धु' (अलीगढ, सम्पादक तोताराम वर्मा), १८७७ में 'मित्रविलास' Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ १८८ (लाहौर, प० मुकुन्दराम जो), 'हिन्दूबान्धव' (लाहौर, नवीनचन्द्र राय), १८७८ मे 'हिन्दीप्रदीप' (प्रयाग) अथवा उसके पहले 'शुभचिन्तक' (कानपुर), १८७८ 'भारतमित्र' (कलकत्ता), १८७६ 'सारसुधानिधि' (कलकत्ता), १८८० में 'उचितवक्ता (कलकत्ता), १८८६ मे 'राजस्थान-समाचार', (अजमेर), 'प्रयाग समाचार' (प्रयाग), १८८४ में 'भारत जीवन' (काशी), १८६० में 'हिन्दीवङ्गवासी' (कलकत्ता) श्रीर १८९४ मे 'वेंकटेश्वर समाचार' वम्बई से निकला । मिर्जापुर से उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' साप्ताहिक 'नागरी नीरद' और मासिक 'श्रानन्दकादम्बिनी प्रकाशित करते थे। और भी कई पत्र १६०० तक निकले। कुछ चले और कुछ वन्द हो गये। राज्यो से भी पत्र निकले जिनमे सर्वश्रेष्ठ पत्र उदयपुर का 'सज्जनकीतिसुधाकर' १८७४ मे निकला। पीछे चलकर चालीस वर्ष बाद इसमे प्रशसा योग्य कुछ नही रह गया था। उद्धृत लेख छपते थे और टाइप भी घिसा हुआ होता था। 'मारवाड गजट' जोधपुर से इससे आठ वर्ष पहले निकला था। १८८७ मे रीवा से 'भारतभ्राता' और १८६० में बूंदी से 'सर्वहित' निकला। राज्यो से ऐसे पत्र भी निकले, जो हिन्दी और उर्दू अथवा हिन्दी और अंगरेजो में निकलते थे। 'गवालियर गजट' और 'जयपुर गजट' दूसरी श्रेणी के थे । 'जयपुर गजट' तो १८७६ मे ही जारी हुआ था। जोधपुर का 'मारवाड गजट' और अजमेर का 'राजपूताना गजट' हिन्दी और उर्दू दोनो मे निकलते थे। आश्चर्य है कि जिन राज्यो में आज से साठ-सत्तर वर्ष पहले इन पत्रो का प्रकाश था, आज ग्वालियर को छोडकर जहाँ से 'जयाजी प्रताप अंगरेजी और हिन्दी में निकलता है, उक्त सभी राज्यो मे अन्धकार है। __ दैनिक पत्रो मे कालाकांकर का 'हिन्दोस्थान' सवसे पहला है । इग्लैंड में १८८३ से १८८५ तक राजा रामपाल सिंह ने प्रकाशित किया था। पहले यह अँगरेजी और हिन्दी मे और बाद को उर्दू में भी छपता था अर्थात् तीन भाषाओ में निकलता था। १ नवम्बर १८८५ से कालाकांकर से वह दैनिक हिन्दी मे निकलता था। इसके बाद बावूसीताराम ने कानपुर से एक दैनिक पत्र हिन्दी मे निकाला था, जो शायद छ महीने चलाया। 'राजस्थान-समाचार' जिसे मुशो समर्थराम ने अजमेर से निकाला था, शायद वोर युद्ध के समय पहले द्विदैनिक और वाद को दैनिक कर दिया था। इसका वार्षिक मूल्य दस रुपया था। यो तो 'भारतमित्र' एक वार १८६७ मे और दूसरी वार १८६८ में दैनिक हुआ, पर एक साल से अधिक वह दूसरी बार भी दैनिक न रहा । पर १९१२ से कोई वीस-पच्चीस वर्ष तक वह दैनिक रहा। आज तो हिन्दी में चार दैनिक कलकत्ते से, दो वम्बई से, चार दिल्ली से, दो लाहौर से, तीन कानपुर से, एक प्रयाग से, तीन काशी से और दो पटने से, इस प्रकार एक दर्जन से अधिक दैनिक, निकल रहे है। १६१३ तक दैनिक पत्रो में ताज़ा खवरो की कोई व्यवस्था न थी। इस साल 'भारतमित्र' मे पहले-पहल तार लिये गये । इसके बाद 'कलकत्ता समाचार' निकला। इसमे भी ताजा तारो का प्रवन्ध था। आजकल कई दैनिक पत्रो में टेलिप्रिंटर भी लगे हुए है। ऊपर से देखने में हिन्दी-समाचार-पत्रो की वडी उन्नति हुई है। किसी को घाटे-टोटे की शिकायत नहीं है, परन्तु लिखा-पढी में शिथिलता आ गई है। दैनिकपत्रो की भाषा में कुछ त्रुटि तो रहती ही है, पर सच तो यह है कि भाषा को अोर सम्पादको का ध्यान भी नहीं है । और तो क्या, कभी-कभी अंगरेजी का उल्था भो वडावेढगा होता है। मालिको को अर्थकष्ट होता तो वे इन त्रुटियो को दूर करते, पर उन्हे अर्थ की चिन्ता नही है। सम्पादको को शिक्षा का मुख्य कार्य भाषा और अनुवाद से प्रारम्भ होना चाहिए। इसके विना सम्पादक को शिक्षा व्यर्थ हो जायगी। सम्पादको को यह न समझना चाहिए कि हम सर्वज्ञ है, पर उन्हे सर्वज्ञता प्राप्त करने के लिए निरन्तर परिश्रम करना चाहिए। स्वाधीनता के अग्रदूत __ भारतीय समाचारपत्रस्वाधीनता के अग्रदूत है । आज जिस पूर्ण स्वराज्य वा स्वाधीनता के लिए आन्दोलन हो रहा है, उसको कल्पना पहले समाचारपत्र 'वन्देमातरम्' ने प्रकट की थी। मेरे आदरणीय मित्र स्वर्गीय वाबू विपिनचन्द्र पाल न अपने अगरेजो दैनिक 'वन्देमातरम्' द्वारा पूर्ण स्वाधीनता की पाकाक्षा व्यक्त की थी। इसे ही वावू अरविन्द Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ भारत में समाचार-पत्र और स्वाधीनता घोष ने अपने लेखो से पुष्ट किया था। उन्होने कहा कि हमे ऐसी स्वाधीनता चाहिए, जिसमें ब्रिटिश नियन्त्रण न हो। यह १९०५-६ की वात है, जब काग्रेस में स्वतन्त्रता, स्वाधीनता वा स्वराज्य जैसे किसी शब्द का प्रयोग नही हुआ था। १९०६ में दादाभाई नवरोजी ने काग्रेस के सभापति की हैसियत से पहले-पहल स्वराज की मांग पेश की। इसी समय से स्वराज काग्रेस का ध्येय हुआ। १९०७ मे स्वराज शब्द के प्रयोग पर वगाल सरकार को आपत्ति हुई तब कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस सारदाचरण मित्र और जस्टिस फ्लेचर ने निर्णय किया कि औपनिवेशिक शासन ही स्वराज है । इसलिए स्वराज का आन्दोलन करना राजद्रोह नही है । 'वन्देमातरम्' इस प्रकार के स्वराज्य का विरोवी था, क्योकि इसका कहना था कि औपनिवेशिक लोग तो अंगरेजो के भाईवन्द है, पर हमारा उनसे कोई नाता नही है । इसलिए हमें उनका स्वराज्य नही, पूर्ण स्वतन्त्रता चाहिए। १९०६ में 'वन्देमातरम्' बन्द हो गया और पूर्ण स्वतन्त्रता का आन्दोलन भी रुक गया । काग्रेस पर १९१६ तक माडरेटो का प्राधान्य रहा और ये पूर्ण स्वतन्त्रता का नाम लेना भी पाप समझते थे। इसके बाद ही लोकमान्य तिलक पर राजद्रोह का मामला न चलाकर सरकार ने राजद्रोह प्रचार न करने के लिए उनसे जमानतें लेने का मामला चलाया। पर लोकमान्य ने यह सिद्ध किया कि शासन में परिवर्तन कराने के लिए हमें वर्तमान शासन की त्रुटियाँ दिखाना आवश्यक है और ऐसा करना राजद्रोह प्रचार करना नही है । वम्बई हाईकोर्ट ने यह सिद्धान्त स्वीकार किया और इस समय से गामन को श्रुटियां दिखाने का हमारा अधिकार स्वीकार किया गया। १९२० से काग्रेस में पूर्ण स्वाधीनतावादी एक दल उत्पन्न हो रहा था। धीरे-धीरे यह बढने लगा और १९३० में काग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता वा स्वराज अपना ध्येय घोषित किया। महात्मा गान्धी भी इससे सहमत हुए। श्राज ब्रिटिश सरकार भी भारत का पूर्ण स्वाधीनता का अधिकार स्वीकार करती है, पर देती नही है । राजनैतिक आन्दोलन इधर कई वर्षों से काग्रेस चला रही है सही, परन्तु भारतीय सामाचार-पत्र ही उसके अग्रदूत रहे है और है । जहाँ समाचारपत्रो का प्रावल्य नहीं है, वही अनाचार, अत्याचार और अन्धकार है। इसलिए समाचार-पत्रो का वल वढाना प्रत्येक स्वाधीनताप्रेमी देशभक्त का कर्तव्य है। हमारे देश में एक भी ऐसा पत्र नही है, जिसकी एक लाख प्रतियाँ निकलती हो । यूरोप और अमेरिका मे ऐसे अनेको पत्र है जिनकी लाखो प्रतियां छपती है । हमारे देश में भी शहर-शहर और जिले-जिले में पत्र होने चाहिए। इससे हमारी स्वतन्त्रता बहुत निकट आ जायगी। काशी] Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अलीगढ़ ] गीत श्री गोकुलचन्द्र शर्मा एम० ए० काँपता रं, क्यो पुजारी ? 2 श्रारती में हाथ हिलते मन्त्र तेरे क्यो फिसलते ? क्यो न मन के मुकुल खिलते ? डर गया किस पाप से तू, हो रहा है हृदय भारी । भक्ति को यह रीति क्या है ? प्रीति है, फिर भीति क्या है ? नीति और अनीति क्या है ? सौंप सब उसका उसी को देख अपनी गैल न्यारी हँस उठे मन्दिर, मुना तू, राग अपना गुनगुना तू, छोड वाना अववना तू, घुन लगा दे या रहे 'हे, मुस्कराते मन - बिहारी । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति, पुरातत्त्व और इतिहास Page #215 --------------------------------------------------------------------------  Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति या सभ्यता ? श्री किशोरलाल घ० मश्रूवाला मेरी राय में सारी दुनिया में दो ही तरह की मानव-सस्कृतियां (Cultures) है। एक को मै भद्र-मस्कृति कहना हूँ और दूसरी को सन्त-नम्कृति ।) (भद्र-नकृति विभूति श्रर ऐवनयं प्रधान है। वह दुनियावी ज्ञान-विज्ञान, श्रधिकार, पराक्रम, वैभव आदि में श्रद्धा रखती है । स्वय को और अपने लोगो को दुनिया में महान-भूमा बनाना चाहती है । वह सब मनुष्यों का एक-ना विकार स्वीकार नहीं करती । उनमें ऊँच-नीच, अधिकारी-श्रनधिकारी आदि भेदो के लिए जगह है । टम्बर का शौक है | मन्त-मस्कृति गुण प्रधान हैं। उनकी ज्ञान में श्रद्धा है, पर उसमे भी अधिक सौजन्य श्रीर समदृष्टि में है । भोग और सम्पत्ति में मर्यादा और नमानता पर और ऊँच-नीच के भाव को मिटाने पर उसका जोर रहता है । श्राडम्बर को अच्छा नही समझती । नस्कृति की ऐसी दो धाराएं होने हुए भी वे दो बिलकुल भिन्न दिशाश्री में एक दूसरी से अलग नहीं वहती । एक दूसरी की मीमा कभी-कभी परपना मुश्किन होता है । लेकिन जगत् भर में इन दो के अलावा कोई नोमरी सस्कृति नहीं है । भारतीय मन्कृति, पाश्नात्य सस्कृति, इस्लामी सस्कृति, इतना ही नहीं, बल्कि वैदिक संस्कृति, जैन-सस्कृति, गुजरानी -नम्कृति, प्रान्ध्रकृति श्रादि श्रनेक नस्कृतियों का श्राज नाम लिया जाता है। इन्हें सभ्यता (Civilisation) कहे तो शायद श्रच्छा हो । मेरी राय में इन नव सभ्यताओं में कोई न्यायी तत्त्व नहीं है । देश, काल, शिक्षा, अभ्यास श्रादि के कारण बने हुए ये श्राचार, विचार श्रीर स्वभाव के भेद हैं । वे इनके बदलने में बदल जाते है । इनमें कोई चीज ऐसी नही है, जिसे बदल देना ग्रमम्भव हो । वे कभी-कभी प्रानुवधिक मे दिखाई देते हैं, पर वास्तव मे वे ग्रानुवशिक है नही । देश, काल, शिक्षा, अभ्यास यादि जवत एक मे रहने है तवतक कायम रहते है और एक देश या परिवार में उनका पीढियों तक एकमा रहना सम्भव है । इमलिए प्रानुवधिक मे मालूम होते हैं । इन सभ्यता या मानी हुई मम्कृतियों के श्राचार, विचार और स्वभाव अच्छे बुरे और ग्रगुण, तीनो तरह के होते हैं । इनका कट्टर आग्रह या अभिमान रखना में अच्छा नही समझता । ऐसी अलग-अलग मभ्यताएँ और विशिष्टताएँ टिकनी ही चाहिए, ऐमा में नही समझता । इनकी हर एक बात की हमें विवेक से तटन्य होकर जाँच करनी चाहिए और मानव हित के लिए जिन श्रशी को फेंक देने की आवश्यकता हो, उन्हें हिम्मत से फेक देना चाहिए। हम दूमरो से कुछ अलग ढंग के दीन पड़ें, ऐसी कोई जरुरत में अनुभव नही करता । जो कोई विशिष्टता हो, वह सारे मानव हित में आवश्यक हो तो ही वह निभाने योग्य समझनी चाहिए । विशिष्ट दीखना ही सिद्धान्त है, ऐसा नहीं समझना चाहिए । (मन्त-सम्कृति सारी दुनिया मे एक-मी है । भद्र-सस्कृतियो मे ही बहुत रूप-रग श्रीर झगडे है ।) सेवाग्राम ] / २५ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारी संस्कृति का अधिकरण निहालसिंह एक छोटी-सी मिट्टी की सिगडी, जो ऊँचाई में एक फुट भी न होगी, लाल मिट्टी से पुती विलकुल साफ-सुथरे फर्श के बीच में रक्खी थी । उसके ऊपर एक बेढगी लोहे की भभरी पर लम्बे और पतले हाथ के विने कोयले के कडे जमा थे। एक छोटी-सी दुबली-पतली स्त्री अपनी आश्चर्य जनक लुभावनी चितवन के साथ मिट्टी की भीतो वाले उस कमरे में प्रविष्ट हुई, जिसकी सादी छत को शहतूत की कडियाँ सँभाले हुए थी। एक तुर्की ढंग का लाल पुराना कपडा 'बाग', जो उस स्त्री की कला- प्रवीणता के कारण अपना 'वाग' नाम सार्थक कर रहा था, उसके कन्धो पर सुनहले ऊँचे मुकुट पर से गिर रहा था। अपने छोटे हाथो में, जो उतने ही दृढ थे, जितने कि सुन्दर, वह एक छोटी डलिया लिये थी । जलते हुए कोयले, जिन्हें उसने खुले हुए प्रांगन के पीछे रसोईघर की अँगीठी से निकालकर बाहर रख दिया था, धीमे-धीमे चमक रहे थे । सिगडी के पास बैठकर उसने डलिया नीचे रख दी और फुर्ती के साथ, जिसे उसने बहुत दिनो के अभ्यास से प्राप्त किया होगा, उसने सिगडी के कोयलो को इधर-उधर हटाकर बीच में थोडी जगह कर ली और वहाँ नये कोयलो को रख दिया । फिर झुककर अपने सुन्दर नोठो को खोलकर धीरे-धीरे आग को फूका । उसके फूले हुए गाल उन लाल सगमरमर के टुकडो -जैसे लगते थे, जिन्हें उसने कुछ समय पहले ही मुझे 'भला आदमी' होने के एवज में इनाम में दिया था । " बस, अब ठीक तरह से आग जलेगी ।" उसके पति ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा । अपनी उस छोटी-सी पत्नी से वह पूरा दो फुट ऊँचा था । उसका तुन्दिल पेट पत्नी द्वारा दिन में दो बार डटकर वढिया भोजन मिलने का ही परिणाम था । वह दूसरी ओर सिगडी के सामने बैठा था । उसकी लबी तोद सिगडी को लगभग छू रही थी। घर में सदा दुधारी भैस बनी रहती थी । पत्नी अपने हाथ से निकाले हुए ताज़े वर्फ से सफेद मक्खन से गेहूँ, मक्का या बाजरे की रोटियो को खूब तर कर देती थी। साथ ही दही, मट्ठा भी रहता था और मौसम में सरसो का साग । अपने लम्बे-चौडे और फुर्तीले हाथो में यह भूरी, दाढी वाला पुरुष एक लम्बी पीतल की फुंकनी लिये हुए था, जिस पर सुन्दर चित्रकारी अकित थी । जब वह अपनी प्यारी स्त्री को रसोईघर में भेज देता तो इसी फुंकनी से वह आग प्रज्वलित किये रहता था । एक या दो गज दूर बैठकर आश्चर्यचकित श्रांखो से में उसकी प्रत्येक कार्रवाई को देख रहा था । जव वह निश्चल हुआ और केवल फुंकनी की 'पफ-पफ' आवाज़ रह गई तो मैने आँख उठाकर उत्सुकता से उसके अवयवो की ओर देखा । उसका सिर कुछ वडा था और उम पर घर की बुनी और रगी हुई एक छोटी-सी पगडी बंधी थी । माथा ऊँचा, चौडा और वृत्ताकार था। उस पर गहरे विचार के कारण लकीरें पडी हुई थी। भूरी, जटीली मोहें उन आँखो के ऊपर छाई हुई थी, जो किसी अदृश्य दीप्ति से जगमगा रही थी । उसके गालो का रंग लाल था, मानो उन लाल गेहुँग्रो से प्राप्त हुआ हो, जिनके खाने का वह बहुत ही शौकीन था । ये गेहूँ उन खेतो में उगते थे, जो उसके कमरे से, जिसमें वह और में दोनो बैठे थे, एक फर्लांग भी दूर नही थे । X X X X Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारी संस्कृति का अधिकरण १९५ थोडी देर में वह उठकर मेरे बैठने के स्थान से परली तरफ गया, जहाँ क्षण भर पहले मै सिकुडकर बैठा था। अच्छी प्रकार से यह देखने के लिए कि अब वह क्या करने जा रहा है, मै दरी के टुकडे से उठकर दूसरी ओर चला गया। आगे जो कुछ मैने देखा वह मेरी स्थान परिवर्तन की तकलीफ के बदले में बहुत वहा आनद था। सफेद धातु की सडासी से उसने एक छोटा-सा पात्र उठाया और उसे आग पर रख दिया। यद्यपि मै अभी बच्चा था तो भी मैने यह भलीभांति देख लिया कि उसने कितनी सावधानी के साथ यह काम किया, मानो वह कोई धार्मिक कृत्य हो, जिसके करने में बडी तत्परता की आवश्यकता हो । उसने पात्र को उस समय तक नही छोडा जब तक कि उसे पूरा विश्वास नही हो गया कि वह भली भांति आग के बीच में स्थिर हो गया है। उसका ऐसा करने का अभिप्राय क्या था? वह क्या करने जा रहा था ? -आदि प्रश्न मेरे मस्तिष्क में भरने लगे। वे मेरे मुख से अवश्य निकल पडते, परन्तु बात यह थी कि उसने मुझे इस शर्त पर उस कमरे मे आने की आज्ञा दी थी कि मैं अपनी जवान बन्द रक्खू । उस उमर तक जितने व्यक्तियो से मेरा पाला पडा था, वह उनमें सबसे अधिक कडे मिजाज का आदमी था। जिस बात पर दृढ हो जाता, उससे उसे प्रार्थनाएं तो दूर, कोई रो-धोकर भी चाहे तो नही हटा सकता था। इसीलिए मुझे भी झख मारकर वह शर्त निभानी थी, जो मुझे उसके साथ करनी पडी थी-अर्थात् देखने को मै सब कुछ देख सकता था, परन्तु आग के पास अपने स्थान पर बिलकुल चुप्पी साधकर बैठना आवश्यक था। "देखो, प्रश्न एक भी नहीं करना । समय आवेगा तो इसकी वाबत मै स्वय ही तुम्हें सब कुछ बता दूगा।" यही उसका स्पष्ट निर्देश था, जिसको मै अच्छा न समझते हुए भी आदर के साथ पालन करता था। एक क्षण रुकने के बाद उसने यह भी कहा था-"देखो, तुम्हारे बाप ने मेरी ज़िन्दगी बर्बाद कर दी, लेकिन मै उसे अपनी इस प्रयोगशाला के अन्दर घुसने तक नहीं दूगा, यह बताना तो दूर रहा कि मै यहाँ काम क्या करता हूँ। मैं जानता हूँ कि वह इन बातो के जानने का वडा उत्सुक है। वह मेरे रहस्यो को जानना चाहता है, लेकिन मै उसे बताऊंगा नही, कदापि नही ।" इस 'कदापि नहीं' में वह स्पष्टवादिता थी, जिसे मैंने उसे छोडकर अपने अन्य परिचित जनो में बहुत कम पाया था। "पर तुम । तुम्हारी वात दूसरी है । तुम मेरे अपरिचित नहीं हो। तुम तो मेरे ही खून हो। इसलिए तुम्हें मै सिखाऊँगा। लेकिन देखो, तुम्हें मेरी बातो का आदर करना चाहिए । धैर्य रक्खो -धैर्य।" - ___ मुझे धर्म ही रखना पडा-बहुत अधिक, अन्यथा खाक भी न सीख पाता। मेरा गुरु किसी प्रकार भी अपने रहस्यो को न वताता। उस कमरे में इतनी द्रुतगति से क्रियाएं हो रही थी कि वस्तुत किसी बात पर विचार करने का समय ही न था। कोयलो पर वह छोटा-सा पात्र भलीभांति रक्खा ही गया था कि उसने एक भूरे रंग की थैली को सावधानी के साथ खोलकर उसमें से कोई चीज निकाल कर पात्र में डालना शुरू किया। कुछ काले और लम्बे टुकडे उस छोटे वर्तन में गिरे। वे पिघलें कि उन्होने एक गहरे हरे रंग के थैले को खोला, जो पहले से बडा नही था। उसमें से भी कोई वस्तु निकालकर पात्र में डाली। इसी प्रकार एक तीसरे थैले में से, जो उसके समीप ही दरी पर पड़ा था। यहाँ आकर क्रिया रुक गई। कम-से-कम मैने ऐसा ही सोचा और देखा कि पिघला हुआ तरल पदार्थ उबलकर पात्र के ऊपर तक आ गया है। . मेरा यह विचार ठीक था, क्योकि अब उन्होने फुकनी उठाकर बडे ही सधे हुए ढग से फूकना शुरू किया। कोयले अधिक तेजी से चमकने लगे और द्रव पदार्थ खौलने लगा। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय १६६ तव आश्चर्यजनक फुर्ती के साथ उन्होने अपना हाथ एक थैले में डाला, जो पहले के तीनो थैलो से वडा था और उममें से कोई सूखी जडी-बूटी निकालकर उसके छोटे-छोटे टुकडे किये। फिर उन टुकडो को अपनी बाई हथेली पर रख दाहिनी हथेली से दबाकर रगडा और वारीक कर डाला। उस पाउडर को बाई हथेली पर रखकर उन्होने दाहिने हाथ मे फुकनी उठाई और उसके द्वारा प्राग तेज़ की। जव द्रव में से नीले रंग का धुवां निकलने लगा तव उन्होने धीरे से फुकनी नीचे रख दी और बाएं हाथ वाला पाउडर पात्र में छोड़ दिया। उसके वर्णन में मुझे जितना समय लगे, उससे भी कम में एक विचित्र घटना हुई । ज्योही पाउडर के टुकडे उस द्रव में धुले कि पात्र के पदार्थ का रग ही वदल गया। काला रग बिलकुल गायव हो गया। एक क्षण पहले जहाँ ऐसा काला पानी था, जैसा कि पतीली का घोवन होता है, वहाँ अव बर्फ मे भी सफेद नमक मौजूद था। मैने नमक विचार कर ही लिखा है । न जाने किस जादू के जोर से उस उबलते द्रव की प्रत्येक वूद गायव हो गई और उसके स्थान पर एक प्रकार का पाउडर रह गया जो कि चाँदी की तरह चमक रहा था । xx ___ अपने कौतूहल को मै अधिक न रोक सका। मैने अव मौन रहने की अपनी वह प्रतिज्ञा तोड ही दी, जिसके द्वारा मुझे उस पुरानी किंतु ज्ञानपूर्ण प्रयोगशाला मे प्रविष्ट होने तथा वहां काम देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। भावुकता से भरी हुई आवाज़ मे मैने पूछा, "नाना, यह क्या हो गया ? सूखी लकडियाँ कहाँ चली गई ? धातु के काले टुकड़े क्या हुए ? पात्र का सारा द्रव पीकर बदले में यह चमकीला पाउडर कोन छोड गया ?" _ "वच्चे, ठहरों", नाना ने इस बार अपनी कठोर स्पष्टवादिता के स्थान मे आश्चर्यजनक सहानुभूति दिखाते हुए कहा-"इस पात्र की वस्तु को हानि पहुंचने के पहले ही खाली न कर दू तब तक धैर्य रक्खो। अग्निदेव आज अपने अनुकूल है। उन्होने मेरे कर्म पर प्रसन्न होकर उसे सफलता से मडित किया है।" हाथ के वने कडे और मटमैले कागज़ को फैलाकर उसने उस पर पात्र को औंधा दिया। फिर मुझसे कहा"इस पाउडर में से थोडा-सा लो और उसे अपने अंगूठे और तर्जनी उँगली के बीच रखकर रगडो, जैसे कि मै रगड रहा हूँ।" यह कहकर उन्होने मुझे रगडने की क्रिया दिखाई। मै वोला, "लेकिन नाना, इसे रगडने की क्या जरूरत है ?" यह तो उस मैदा से भी अधिक महीन है, जिसे हमारे नगर (रावलपिंडी, पजाव) का हलवाई मिठाइयां बनाने में इस्तेमाल करता है। ___मैं जानता हूँ कि इस पाउडर को अधिक महीन बनाने की इच्छा से रगडना व्यर्थ है", नाना ने कहा। उनके सेब-जैसे गुलाबी गाल सन्तोष से चमक रहे थे । “पहाडी नमक को इतना महीन पीसने वाली हाथ की मशीन आज तक ईजाद नही हुई। अग्निदेवता की शक्तियो को एक नाशवान् मानव कहाँ प्राप्त कर सकता है ? यदि कोई ऐसी धृष्टता करे भी तो उसका प्रयास व्यर्थ ही होगा। मेरे प्यारे बच्चे, मेरी इस बात को गांठ वांघ लो।" "लेकिन नाना, अग्निदेवता इतना ही तो कर सकते थे कि उन विभिन्न आकार के छोटे-बडे टुकडो को, जिन्हें आपने पात्र में रक्खा था, गला दें। उन्होने अवश्य ही द्रव को उबाल कर उसमें शब्द और धुवाँ उत्पन्न कर दिया। बस, इतना ही तो उन्होने किया। "पात्र का पदार्थ बडा भद्दा दीखता रहा जव नक कि आपने उममें वह जादू की जडी नही छोडी। तभी रूप और रग में परिवर्तन हुआ। सो यह तो मेरे नाना की ही करामात है कि यह अजीव वात पैदा हुई।" “अग्नि की ही सहायता से ऐसा हुआ, मेरे बच्चे।" उन्होने कहा । उनकी आवाज़ मन्द पड रही थी। अांखो का दूसराही रग था। उनमें वह दीप्ति थी, जो ज्ञान द्वारा अर्जित सफलता से प्राप्त होती है । "वे सुन्दर लकडी के टुकडे क्या थे, नाना?" Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ x हमारी संस्कृति का अधिकरण - १६७ "तुम अभी बच्चे हो। अच्छा, तुम्हारी उमर क्या है ? छ ? नही लगभग सात। इस उमर के बच्चे पर विश्वास नहीं किया जा सकता कि वह किसी रहस्य को गुप्त रख सके। खैर, कोई बात नही । मै तुम्हें किसी दिन वता ही दूगा । मैंने जो कुछ सीखा है वह सव तुम जान लोगे। विना कुछ छिपाये मै तुम्हें सब वता दूगा। लेकिन अभी नही, जव तुम बडे हो जाओगे और अपने ससार से विदा लेने से पहले ही। . X X मेरे नाना का जिस समय देहान्त हुआ, मै उनसे बहुत दूर था। उन्होने अपने पीछे कोई ऐसा लेख नही छोडा, जिससे मै यह जान पाता कि उन्होने किस प्रकार वह करामात दिखाई थी। और भी अनेक करामातें थी जिन्हें सीखने की मेरी वडी उत्कठा थी। यदि उन्होने मेरे शैशव की उन आँखो के लिए, जो उनका रहस्य देख सकी थी, कुछ लिखा भी होगा तो वह मुझे प्राप्त नहीं हो सका। आधी शताब्दी से अधिक मेरे जीवन काल में अनेक अवसर ऐसे आए जव में इस बात पर विचार करता रहा कि क्या ससार में मैं ही एक ऐसा अभागा व्यक्ति हू जो दुर्भाग्य से इस प्रकार ज्ञान प्राप्त कर सकने से वचित रह गया हो । मेरे नाना ने अपनी छोटी-सी प्रयोगशाला में रक्खी हुई सिगडी से सत्य का अनुभव किया। इस बात को सोचते-सोचते मेरे मस्तिष्क में आशा की एक किरण का उदय हुआ, जिसके द्वारा मुझे एक दूसरे पात्र का, जो नाना के पात्र से भी कही अधिक वडा और पुराना था, पता चला। वास्तव में यह पात्र इतना विशाल था कि न तो मै उसका पेंदा ही देख सकता था और न उसका ऊपरी भाग। यहां तक कि उसके किनारे जो वाहर की ओर उठे हुए थे, मुझे दिखलाई नही पडते थे। यह सव होते हुए भी मुझे उसका ज्ञान था। अपनी जाग्रत् अवस्था के प्रत्येक क्षण में मुझे उसका ध्यान रहता था। यहां तक कि स्वप्नावस्था मे भी मेरा विचार वरवस उसकी ओर आकृष्ट हो जाता था। मुझे सचमुच यह प्रतीत होता था कि उक्त पात्र मेरे चारो ओर है । वस्तुत मेरा सम्पूर्ण व्यक्तित्व उसी में था-मै उसीके अन्दर रहता और घूमता-फिरता था। केवल मै ही नहीं, मेरे साथी और कुटुम्बी भी। वे लडके भी जो कि किसी वास्तविक या काल्पनिक मनोमालिन्य के कारण मुझसे रूठे हुए थे, इसी पात्र के अन्दर थे और वे लडके-लडकियां, स्त्री-पुरुष भी, जो मेरे लिए विलकुल अपरिचित थे, इस पात्र की परिधि से वाहर न थे। यह पात्र स्वय भारतमाता थी। अज्ञात काल से ससार के कोने-कोने से लोग पाकर भारतभूमि पर चलतेफिरते और काम करते रहे। वे विभिन्न जातियो और विभिन्न धर्मों वाले थे। उनके रूप-रंग, भाषाएँ और आचारविचार भी एक दूसरे से भिन्न थे। उनमें से अधिकाश यहाँ खाली हाथ आये। लेकिन दिमाग उनका खाली नही था। प्रत्येक आगन्तुक का मस्तिष्क विचारो मे परिपूर्ण था और उसके हृदय में अपनी-अपनी जन्मभूमि में प्रचलित विचारो तथा सस्थाओ के प्रति विशेष श्रद्धा-भक्ति थी। ज्योही बाहरी लोग भारत-वासियो के सम्पर्क में आये और सबके भावो और विचार-परम्परागो में आदान-प्रदान होकर सब लोग आपस में घुल-मिल गये तब उस सस्कृति का उद्भव - हुआ, जिसे हम 'भारतीय संस्कृति' कहते है। यह सस्कृति इतनी विशिष्ट थी कि दूसरी मस्कृतियो से उसकी भिन्नता स्पष्ट दृष्टिगोचर हो सकती थी। इसमें इतनी जीवन-शक्ति थी कि उन प्रदेशो से भी, जो कि शताब्दियो से भारतभूमि से पृथक रहे है, वह नष्ट नहीं हो सकी। देहरादून ] Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादू और रहीम प्राचार्य क्षितिमोहन सेन शास्त्री, एम० ए० भक्तो के बीच यह प्रसिद्ध है कि अकबर के विख्यात सहकारी अब्दुर रहीम खानखाना के साथ, जो कि एक महापडित, भक्त और कवि थे, दादू का परिचय हुआ था। रहीम जैसे विद्वान्, उत्साही और अनुरागी के लिए दाद सरीखे महापुरुष को देखने की इच्छा न होना ही आश्चर्य की बात है। १५४४ ई० में दादू का जन्म हुआ था और १५५६ ई० मे रहीम का । इस हिसाव से रहीम, दादू से बारह वर्ष छोटे थे। कोई-कोई ऐसा भी कहते हैं कि रहीम का जन्म १५५३ ई० मे हुआ था। १५८६ ई० में जव प्रकवर के साथ दादू का मिलन हुआ, उस समय नाना काज मे व्यस्त रहने के कारण रहीम, दादू से वातचीत न कर सके। सम्भवत अन्य सभी लोगो के भीडभडक्के मे इस महापुरुष को देखने की इच्छा भी रहीम की न रही हो । जो हो, इसके कुछ समय के उपरान्त ही दादू के एकान्त पाश्रम में जाकर रहीम ने दादू का दर्शन किया और उनसे बातचीत की। भक्त लोगो का कहना है कि रहीम के कई-एक हिन्दी दोहो मे इस साक्षात्कार की छाप रह गई है। दादू के निकट रहीम के जाने पर परब्रह्म के सम्बन्ध मे बातचीत चली। दादू ने कहा, "जो ज्ञान बुद्धि के लिए अगम्य है, उनकी वात वाक्य में कैसे प्रकट की जा सकती है ? यदि कोई प्रेम और आनन्द से उनकी उपलब्धि भी करे तो उसे प्रकट करने के लिए उसके पास भाषा कहाँ है ?" इसी प्रकार के भाव कवीर और दादू की वाणी मे अनेक स्थानो पर पाये जाते है। __ मौन गहे ते बावरे बोले खरे अयान । (साच अग, १०६) ___अर्थात्-"जो मौन रहता है, वह पागल है, और जो बोलता है वह विलकुल प्रज्ञान है।" वही रहीम के दोहे में भी पाया जाता है रहिमन वात अगम्य को कहन सुनन की नाहिं। जे जानत ते कहत नहिं कहत ते जानत नाहिं ॥ । अर्थात्- "हे रहीम, उस अगम्य की वात न कही जाती है और न सुनी जाती है। जो जानते है वे कहते नही और जो कहते है वे जानते नहीं।" प्रसग के क्रम मे दादू ने कहा, "उनको विषय अर्थात् पर मानकर देखने से नहीं चलेगा, उनको अपना बनाकर देखना होगा। यदि मैं और वे एकात्म न हो, एक दूसरे से भिन्न रहें तो इस विश्व-ब्रह्माण्ड मे ऐसा कोई स्थान नही जो हमी दोनो जनो को अपने मे रख सके।" इसीलिए दादू ने कहा-"जहाँ भगवान् है, वहां हमारा (और कोई स्वतन्त्र) स्थान नहीं । जहाँ हम है वहाँ उनकी जगह नहीं। दादू कहते है कि वह मन्दिर सकीर्ण है, दो जन होने से ही वहाँ और स्थान नहीं रहता।" जहाँ राम तह में नहीं, मै तह नाहीं राम । दादू महल बारीक है द्वै को नाही ठाम ॥ (परचा अग, ४४) "वह मन्दिर सूक्ष्म और सकीर्ण है।" मिहीं महल बारीक है। (परचा अग, ४१) दादू कहते है "हे दादू, मेरे हृदय में हरि वास करते है, वहाँ और दूसरा कोई नही । वहाँ और दूसरे किसी के लिए स्थान ही नही है, दूसरे को वहां रक्खू तो कहाँ रक्खू ?" Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादू और रहीम मेरे हृदय हरि वसै दूजा नाहीं और। कहो कहाँ ध राखिये नहीं आन कीं ठौर ॥ (निहकर्मी पतिव्रता अग, २१) रहीम के दोहों में भी हम देखते है रहिमन गली है साँकरो, जो ना ठहराहि । पु है तो हरि नहीं, हरि तो आपु नाहि ॥ अर्थात्- "हे रहीम, सकीर्ण है वह मार्ग, दो जनो का खडा होना वहाँ असम्भव है । आपा रहने से हरि नही रहता और हरि रहने से आपा नहीं ।" उनके साथ इस प्रकार एकात्म होने से भजन, त्यजन सव एक हो जाता है । उनके साथ कोई भेद तो है नही । इमोलिए भजन करने पर भी और किसी दूसरे का भजन नहीं किया जाता । भजा जाय तो किसे और तजा जाय तो किर्म ? दादू ने इसी प्रश्न को और इसी समय को अगवन् सग्रह के विरह अग ( २१४ - २६७ ) में व्यक्त किया है। उनकी अडाना रागिणी का ११६वाँ गान इस प्रसग में स्मरण किया जा सकता हैभाई रे तव का कथिसि गियानां, जब दूसर नाहीं श्रानाँ ।. अर्थात्–“अरे भाई, जव कोई दूसरा है ही नही तो फिर क्या ज्ञान की बात छाँट रहा है ।" रहीम की वाणी में भी इस भाव का दोहा है . भर्जी तो काको भर्जी, तज तो काको थान, १६६ भजन तजन ते विलग है, तेहि रहीम तू जान । अर्थात् — “हे रहीम, अगर भजना ही चाहते हो तो किसे भजोगे और तजना ही चाहते हो तो किसे तजोगे । भजन और वजन के जो अतीत है, तुम उनको ही जानो ।" और रहीम ने भी कहा है मसार के साथ साधना का और विश्व के साथ व्यक्ति का कोई विरोध नही है । इस विश्व के समान ही हमारे भी जिन प्रकार आत्मा है उसी प्रकार देह भी है । इसीलिए दादू ने कहा है, "देह यदि ससार में रहे और अन्तर यदि भगवान् के पाम तो ऐसे भक्त को काल की ज्वाला, दु ख और त्रास कुछ भी व्याप नही सकते ।” देह रहें संसार में, जीव राम के पास । दाहू कुछ व्यापे नहीं, काल झाल दुख त्रास ॥ ( विचार अग, २७ ) तन रहीम है कर्म वस, मन राखो हि श्रोर । जल में उलटी नाव ज्यो, खैचत गुन के जोर ॥ मन जव इस प्रकार भगवान् में भरपूर रहता है तब ससार उस पर कोई प्रभाव नही डाल सकता। उस समय सारिकता को हटाने के लिए किमी बनावटी आयोजन की जरूरत नही पडती । भगवद्भाव से भरे हुए चित्त में से सांसारिक वासना स्वय दूर हो जाती है। दादू मेरे हृदय हरि वसै दूजा नाहीं और । कही कहाँ ध राखिए नहीं श्रान को ठौर ॥ ( निहकर्मी पतिव्रता अग, २४) अर्थात् -"दादू कहते है कि मेरे हृदय में एकमात्र हरि ही वास करते हैं और कोई दूसरा नही । और मैं भला किसको रक्खूँ यहाँ ? दूसरे के लिए जगह कहाँ हैं. " दूजा देखत जाइगा एक रहा भरिपूर । ( निहकर्मी पतिव्रता अग, २४) एक ही इस प्रकार परिपूर्ण होकर विराजमान है कि दूसरा उसे देखते ही हट जायगा । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ ठीक दादू की तरह ही रहीम ने भी कहा है, "प्रियतम की छवि, प्रियतम की शोभा आंखो मे भरपूर होकर वसी है। दूसरे की छवि के प्रवेश करने की जगह कहाँ है । हे रहीम, भरी हुई पान्यशाला को देखकर दूसरे पथिक स्वय ही लौट जाते है।" प्रीतम छवि नैनन बसी, पर छवि कहाँ बसाय । भरी सराय रहीम लखि, पथिक प्राप फिरि जाय॥ ऐसी अवस्था मे कृत्रिम वेश और साज-सज्जा कुछ भी अच्छा नहीं लगता। जो जीवन भगवान से परिपूर्ण है, वह क्या कोई कृत्रिम साज-सज्जा सह सकता है ? दादू ने कहा है विरहिन को सिंगार न भावे विसरे अजन मजन चीरा, विरह व्यथा बहु व्यापै पीरा। (राग, गोडी २०) और आगे चलकर दादू ने कहा है_ जिनके हृदय हरि बस मै चलिहारी जाऊँ। (साय अग, ६३) रहीम ने इसीसे मिलता-जुलता दोहा कहा है, "जिन आँखो में अजन दिया है उनमें किरकिग सुरमा नही दिया जा सकता। जिन आंखो मे श्री भगवान् का रूप देखा है, वलिहारी है उन आँखो की ।" अजन दिया तो किरकिरी, सुरमा दियो न जाय । जिन आँखिन से हरि लख्यो, रहिमन बलि बलि जाय ॥ दादू ने कहा है, "ऐसी आँख सारे ससार में भगवान् की नित्य रास-लीला को देखती है। ऐसी आंख देखती है कि घट-घट मे वही लीला चल रही है। प्रत्येक घट महातीर्थ है। घट-घट मे गोपी है। घट-घट में कृष्ण । घट-घट में राम की अमरपुरी है। प्रत्येक अन्तर मे गगा-यमुना वह रही है और प्रत्येक में सरस्वती का पवित्र जल स्पन्दित है । वहां प्रत्येक घट में कुजकेलि की नित्यलीला चल रही है, सखियो का नित्यराम खेला जा रहा है । विना वेणु के ही वहाँ वमी वज रही है और सहज ही सूर्य, चन्द्र और कमल विकसित हो रहे है । घट-घट मे पूर्ण ब्रह्म का पूर्ण प्रकाश विकीर्ण हो रहा है और दास दादू अपनी शोभा देख रहा है। घटि घटि गोपी घरि घटि कान्ह । घटि घटि राम अमर प्रस्थान ।। गगा यमुना अन्तरवेद । सरसुति नीर वह परनेद ॥ कुज केलि तह परम विलास । सव सगी मिलि खेल रास । तह विनु वेन वाजे तूर । विगस कमल चन्द अरु सूर ।। पूरण ब्रह्म परम परकास । तह निज देखै दादू दास ॥ अवतार का तत्त्व समझाते हुए रहीम कहते है, "हे रहीम, यदि प्रेम का स्मरणं निरन्तर एकतान भाव से होता रहे तो वही सर्वश्रेष्ठ है । खोये हुए प्रियतम को चित्त में फिर से पा लेना ही तो अवतार है।" रहिमन सुघि सव ते भली, लाग जो इकतार । बिछरै प्रीतम चित मिल, यह जान अवतार ॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादू और रहीम २०१ • बराबरी का न होने से प्रेम की लीला नही चल सकती । प्रेम के लिए भगवान् ने भक्त को अपने समान बना लिया है, यह मानो विन्दु का सिन्धु के समान हो जाना है । रहीम ने आश्चर्य के साथ कहा है कि इस अद्भुत प्रेम-लीला में हेरनहार अपने में ही हेरा जाता है (खो जाता है)। बिन्दु भो सिन्धु समान, को अचरज कासों कहै। हेरनहार हेरान, रहिमन अपने आप तें॥ दादू ने कहा है, "भीतर ही रोप्रो। मनहि माहि झूरना, (विरह अग, १८) और वहाँ वाक्य की अपेक्षा ही कहाँ है । वहां मौन रहने में हानि ही क्या है ? भला जिसने हृदय मे ही घर बना लिया है, उससे कहने को वच ही क्या रहा?" जिहि रहीम तन मन लियो, कियौ हिये विच भौन । तासो सुख दुख कहन को रही बात अव कौन ॥ यह प्रेम के भाव में भगवान् और भक्त का जो अभेद है, उसका परिचय नाना भाव से कबीर, दादू आदि महापुरुषो की वाणी में पाया जाता है । यहाँ उनका विस्तार करना निष्प्रयोजन है। दादू के साथ रहीम की बातचीत एक ही वार हुई थी, या कई बार दोनो का मिलना हुआ था, यह कहना कठिन है। लेकिन इन सव साधको के मत का प्रभाव उनकी कविता पर पड़ा है, यह वात स्पष्ट है। लेकिन यह भी सच है कि दुख का आघात पाये विना मनुष्य भगवान् की ओर नही झुकता। इसीलिए रहीम ने बडे दुख के साथ कहा है कि विषय-वासना में लिपटा हुआ मनुष्य राम को हृदय में नहीं धारण कर सकता। पशु तिनका तो वडे प्रेम से खाता है, लेकिन गुड उसे गुलिया कर खिलाया जाता है। रहिमन राम न उर धरै, रहत विषय लपटाय । • पशु खड खात मवाद सो, गुड गुलियाये खाय ॥ अकवर जवतक जीवित थे, रहीम सुखपूर्वक थे । नाना प्रकार के दान और प्रौदार्य से उनकी ख्याति देश भर में व्याप्त हो गई थी। वाद मे जब रहीम पर दुख और दुर्दिन पाया तो दादू परलोक सिधार चुके थे। इसीलिए उन दिनो रहीम को दादू जैसे महापुरुष के पास जाकर सान्त्वना पाने का अवसर नहीं मिला। उस अवस्था में रहीम, दादू के पुत्र गरीवदास के पास गये थे और उनसे अपने मन की व्यथा कहीं थी। गरीबदास बडे ही भगवप्रेमी थे। कहते है कि इनके ससर्ग में आने पर ही रहीम का चित्त भगवद्भक्ति से भर उठा था और उन्होने गद्गद होकर कहा था समय दसा कुल देखि के, सर्व करत सन्मान । रहिमन दीन अनाथ को, तुम बिन को भगवान ॥ गरीवदास के सम्पर्क में आने के बाद ही रहीम ने अनुभव किया था कि दुख दुर्दशा होने से यदि प्रियतम का मिलना सुलभ होता है तो दुख दुर्दशा ही अच्छी है। प्रिय से मिलाने वाली रात अकेले-अकेले कटने वाले दिन की अपेक्षा कही अच्छी है। रहिमन रजनी ही भली, पिय सों होय मिलाप । खरो दिवस किहि काम को, रहिबो प्रापुहि श्राप ॥ इसी बात को एक और ढग से रहीम ने कहा है काह करौं बैकुठ ले, कल्प बृच्छ की छाँह । रहिमन ढाक सुहावनो, जो गल पीतम वह ॥ शान्तिनिकेतन] २६ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर भारत के नाथ सम्प्रदाय की परम्परा में बंगाली प्रभाव श्री सुकमार सेन एम० ए०, पी-एच० डी० (फलकत्ता) यह वात बहुत समय से विचारग्रस्त रही है कि सभवत बगाल मे ही नाथ--योग सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई है। गोईचद या गोपीचद तथा उनकी माता मैनावती की पौराणिक कथा, जो कि इस मप्रदाय से सवधित कथाओ में सबसे अधिक मनोरजक है, वगाल से उठकर उत्तर नथा पश्चिम के कोनो तक फैल गई है। इस कथा का प्रसार आधुनिक नहीं है, क्योकि मलिक मुहम्मद जायसी के ग्रथ पद्मावती में भी हमे इसका एक मे अधिक बार उल्लेख मिलता है, परन्तु कथा का बगालीपन विलकुल गायव नहीं हो सका है। बहुत पुराने काल से योगी या नाथ-सप्रदाय का गहरा सवध वगाल प्रान्त के विशेष लौकिक संप्रदाय से, जो कि धर्म-मप्रदाय कहलाता है, रहा है। यह एक अग्य प्रमाण है, जिसमे पुष्ट होना है कि नाथ-सप्रदाय की उत्पत्ति वगाल में ही हुई। , इस नाथ-सप्रदाय की दूसरी महत्त्वपूर्ण कथा, जिसमें इस बात का वर्णन है कि किस प्रकार योगी मत्स्येन्द्रनाथ कदली नामक देश की स्त्रियों के मोह में फस गए, तथा अत में किस प्रकार उनका उद्धार उनके शिष्य गोरक्षनाथ ने किया, बगाल के वाहर इतनी अधिक प्रसिद्ध नहीं है, परन्तु कथा का सार अर्यात् किस प्रकार शिष्य से गुरु को ज्ञान की प्राप्ति हुई, उत्तर तथा पश्चिम भारत के योगियो के पारम्परिक उपदेशो में तथा उनके प्रश्नोत्तर सवयी गयो मे वारवार मिलता है। इन सबका सग्रह डा० पीताम्वरदत्त बड़थ्वाल ने गोरख-बानी नामक एक अच्छे ग्रथ के रूप में सम्पादित किया है जो हिन्दी माहित्य-सम्मेलन, प्रयाग से प्रकाशित हुआ है। इस सुन्दर सग्रह मे न केवल वानियो के रूप तथा उनके मुहावरो पर, अपितु पूरे-पूरे वाक्यागो तथा अन्य तुलनात्मक वातो पर निस्सदेह वगाली प्रगाव प्रकट होता है। गोरख-वानी के दोहो तथा पदो मे यदि सभी नहीं तो अधिकाश पहले-पहल बगला में लिखे गये थे, इसकी पुष्टि मे कितने ही शब्दो के भूतकालिक आदि रूप दिए जा सकते है, जिससे वगला भाषा का प्रभाव स्पष्ट होगा (क) भूतकालिक रूप-इल-(उदा०-पाइला, रहिला, जाइला, कहिला, विमाइला, करिला, मरिली, तजिली, तजिला, राखिले, मुडाइले आदि) । (ख) भविष्यत्-रूप-इब-(उदा०--खेलिवा, गाइवा, देखिवा, पाइबा, मुडाइवा आदि)। (ग) कुछ मुहावरे---दिढ फरि (मजबूती से, पृष्ठ ३), दया करि (पृष्ठ १८६), मस्तक मुडाइले (सिर मुडालिया, पृष्ठ ४५)। (घ) कुछ वाक्याश-कोट्या मधे गुरुदेवा गोटा एक बुझे (हे गुरुदेव, करोड में से कोई एक समझे, पृष्ठ १५१) आदि। नीचे की समानताएँ भी ध्यान देने योग्य है। (१) फुची ताली (नाला) सुषमन करे (पृष्ठ ४६), मिलाओ पुरानी बगला-सासु घरे, घालि, कोचा ताल (सास के घर को ताला और कुजी देना, चर्यापद ४)। 'जो भल होत राज श्री भोगू । गोपिचन्द नहिं साधत जोगू ॥ जोगीखड ५, गोपिचन्द तुइ जीता जोगू-सिहलद्वीपखड १; मानत भोग गोपिचन्द भोगी। लेइ अपसवा जलन्धर जोगी। नागमतीवियोगखड, १, इत्यादि । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर भारत के नाथ सम्प्रदाय की परम्परा में बगाली प्रभाव २०३ (२) गगन शिखर पाछ अम्बर पानी (पृष्ठ ६१), मिलानो पुरानी वगला-मइ अहारिल गणत पनिमा (मेरे द्वारा गगन का पानी पिया गया है, चर्यापद ३५) । (३) ऊंचे ऊंचे परबत विषम के घाट। तिहां गोरखनाथ के लिया से वाट ॥ (पृष्ठ १३४), मिलामो पुगनी बगला-ऊँचाऊंचा पावत तहि बसइ शबरी बाली (ऊँचे-ऊँचे पर्वतो पर शवरी वालिका वसती है, चर्यापद २८)। (४) गिनान ची डालिला पालखु (पृष्ठ १४०); मिलामो पुरानी वगला-तिम धाउ खाट पडिला (त्रिधातु की खाट पडी है, चर्यापद २८)। (५) माया (-माअ, माता) मारिली, मावसी (मौसी), तजिली, तजिला कुटम्ब वन्धु । सहस्रदल कवल तहां गोरख मन सन्धू ॥' (पृष्ठ १४१), मिलानो पुरानी बगला मारिअ शासु ननन्द घरे शाली। मान मारिआ कान्ह भइम कवाली ॥ (साम, ननद और साली को तथा माता को मार कर कान्ह कापालिक हो गया, चर्यापद ११)। (६) ग्यान गुरु नाउ' तूबा अम्हार मनसा चेतनि डाडी (पृष्ठ १०६) मिलानो पुरानी बगलासूज लाउ शशी लागेलो ताती, अणहा दाडी (सूर्य वीणा की लौकी बन गया, चद्रमा तात वना, और अनहद की डण्डी हो गई, चर्यापद १७)। (७) गावडी के मुख में बाघला विनाइला' (पृष्ठ १२७), मिलानो पुरानी बगला-वलद विनाइल गविना वाझे (वैल के तो बछडा उत्पन्न हुआ और बाझ गाय से, चर्यापद ३३), मध्यकालीन बगला-व्याघ्रर समुखे जेन समर्पिला गोरू (मानो व्याघ्र के सम्मुख एक गाय सौंपी गई, गोरक्ष-विजय पृष्ठ १२१)। (८) नाचत गोरखनाथ धुघरी चै घात (पृष्ठ ८७), बगला से मिलायो नाचति ने गोर्खनाय घुघरेर रोले (गोरखनाथ घुघुरुयो के गले या गब्द पर नृत्य करते है, गोरक्ष-विजय पृष्ठ १८७) । (९) दिवसइ बाधणी मन मोहइ, राति सरोवर सोपइ । जाणि बुझि रे मुरिख लोया घरि घरि बाधणी पोषइ ॥ (पृ० १३७) । मिलामो मध्यकालीन बंगला प्रभागिया नरलोके किछुइ नाहि बुझे रे, घरे घरे पालन बाधिनी । दिवा हैले वाघिनी जगतमोहिनी रे, रात्रि हले सवाग शोषे। (गोरक्ष-विजय पृ० १८७) (१०) पुरिल वकनालि (पृ० १५५), मिलानो मध्यकालीन बँगला-बांका नाले साघो गुरु (हे गुरुदेव, चक्रनाल अर्थात् सुषम्ना योग को साधना करिए, गोरक्ष-विजय पृ० १५)। 'गोरख-बानी' के कुछ छदो का वृत्त प्राय स्पष्टरूप मे बगला का छद पयार है। इन छदो की भाषा में भी वगला प्रभाव दृष्टिगोचर है। ऊपर के उद्धरणो मे कुछ उदाहरण द्रष्टव्य है। अन्य उदाहरण नीचे दिए जाते है - (क) एते कछु कहिला गरु सबै भेला भोले । सर्वरस खोइला गुरु वाघनी के कोल ॥ (पृ० ८८), मिलानो-सर्वधन हाराइला कामिनीरे कोले (तुमने कामिनी की गोद में सव धन नष्ट कर दिया, गोरक्ष-विजय पृ० ६६)। 'इस पक्ति का पाठ अशुद्ध है । शुद्ध पाठ 'महसर कवल तहाँ गोरख वाला जहाँ मन मनसा सुर सन्धू' होगा। पाठातर-दो'। 'पाठभेद-बिवाइला'। 'पाठातर-कप्यिला। "पाठातर-पोईला, निस्सदेह बगला का 'खोयाइला'। 'पाठातर-बोले। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ प्रेमी-अभिनदन-प्रय (ख) बदत गोरखनाय, जाति मेरी तेली। तेल गोटा पीडि लिया, खलि' दोई मेली ॥ (पृ० ११७) (ग) कैसे वोली पडिता, देव कौने ठाई। निज तत निहारता, अम्हे तुम्हे नाही ॥ (पृ० १३१) (घ) वारह कला रवि पोलह कला ससी। चारि कला गुरुदेव निरतर वसी । (पृ० २४१) वगाल के धर्मदेव-सम्प्रदाय की विचित्र सृष्टि-उत्पत्ति में यह कथन है कि मत्स्येन्द्रनाथ (मीननाथ) चार अन्य सिद्धो के सहित आदि देव या आदिनाथ के गडे हुए मृत गरीर में से उत्पन्न हुए थे। गोरख-बानी में कई जगह मच्छिन्द्र को आदिनाथ (निरजन या धर्म) तया मनसा का पुत्र कहा गया है।' वगाली परम्परा में भी (जैसा कि धर्मसम्प्रदाय की सृष्टि-उत्पत्ति में कथित है) केतका को (जो वाद में 'शिव की पुत्री' तथा 'सो की देवी' कही गई है) प्राविदेवी कहा गया है, तथा वह आदिदेव की पली है। ___बेहुला (विपुला), लखिन्दर (लक्ष्मीधर) तथा देवी नेता (नित्या या नेत्रा) जो त्रिवेणी के घाट पर कपडे पोया करता था-इन सव की कथा का जन्म-स्थान वगाल ही है, जहाँ यह कथा पच्टिम में वनारस तथा सभवत उसके आगे के प्रदेश तक फैली। वगाल के योगियो ने इम कथा के कुछ अग को अपने गुप्त योग को प्रकट करने के स्वरूप में अपना लिया, तथा उनसे भारत के अन्य प्रदेशो के योगियो ने उसे ग्रहण किया। गोरख-बानी के दो या तीन पदो में इस प्राध्यात्मिक कथा की ओर सकेत पाया जाता है। चाद गोटा खुटा करिले, सुरिज फरिल पाटि । अहनिसि घोबी घोव, त्रिवेणी का घाटि ॥ (पृ० १५१) चाद करिल खुटा, सुरजि करिलै पाट । नित उठि घोवी घोवै, त्रिवेणी के घाट ।। (पृ० १५१) झलकत्ता] 'पाठ-भेद-पाल। पाठातर-दोवी। पिता बोलिये निरजन निराकार (पृ० २०२) । 'उदाहरणार्य, 'माता हमारो मनमा बोलिये Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दू-मुस्लिम-स आध्यात्मिक पहलू पंडित सुन्दरलाल आदमी की जिन्दगी के हर सवाल को कई तरह से और कई पहलु से देखा जा सकता है। जितने अलग-अलग पहलू हम जिन्दगी के है, या हो सकते हैं, उतने ही तरह के सब सवालो के हो सकते हैं। मोटे तौर पर इन्सान की जिन्दगी के तीन पहलू हमें दिखाई देते हैं । एक तारीखी या इतिहामी पहलू । दूसरा समाजी, कल्चरल यानी आए दिन की जिन्दगी और रहन-सहन का पहलू और तीसरा श्राध्यात्मिक या रूहानी पहलू । जिस सवाल की हम इस लेख में चर्चा करेंगे उस का एक और चौथा सियासी यानी राजकाजी पहलू भी एक खास पहलू है । इन सब पहलुओ, खासकर आध्यात्मिक पहलू को सामने रखकर ही हम श्राजकल के हिन्दू-मुस्लिम- सवाल पर एक सरसरी निगाह डालना चाहते है । यूँ तो यह सवाल उस जमाने से चला आता है, जव से इस देश के अन्दर हिन्दू और मुसलमान दोनो धर्मों के मानने वाले साथ-साथ रहने लगे, पर वीसवी सदी ईस्वी के शुरू से इस सवाल का जो रूप बनता जा रहा है, वह एक दर्जे तक नया रूप है। 'प्रेमी-श्रभिनन्दन-प्रन्य' एक ऐसा ग्रन्थ है, जो मुमकिन है, हिन्दू-मुस्लिम सवाल के मौजूदा रूप के मिट जाने या हल हो जाने के बाद भी लोगो के हाथो में दिखाई दे और उन्हें अपनी और अपने देश की आगे की तरक्की का रास्ता दिखाता रहे। ऐसी मूरत में इस लेख के कुछ हिस्से का मोल सिर्फ इतिहासी मोल ही रह जायगा, लेकिन कुछ हिस्सा ऐसा भी होगा जो ज्यादा देर तक काम का सावित हो । इस सवाल का इतिहासी पहलू एक लम्बी चीज़ है । थोडे से में उसका निचोड यह है । देश में कई अलग-अलग मजहवी ख्यालो के लोग रहते थे। उनकी मानताओ, मजहवी उसूलो और रहन-सहन के तरीको में काफी फरक था । कोई निराकार के पूजने वाले, कोई साकार के । कोई मूर्तिपूजक, कोई मूर्ति पूजा को पाप समझने वाले । कोई ईश्वर को जगत का कर्ता मानने वाले और कोई किसी भी कर्त्ता के होने से इन्कार करने वाले । कोई मास खाने को अपने धर्म का जरूरी हिस्सा मानने वाले और कोई उसे पाप समझने वाले । कोई देवी के सामने हवन में मदिरा चढ़ाने वाले और कोई मदिरा छूने तक को गुनाह समझने वाले । वग़ैरह-वगैरह । लेकिन ये सब लोग किसी तरह एक गिरोह में गिन लिए जाते थे, जिसे हिन्दू कहा जाता था। थोडे से ईसाई और यहूदी भी देश के किसी-किसी कोने में थे, पर देश की ग्राम जिन्दगी पर उनका असर नहीं के वरावर था । ऐसी हालत में एक नया मजहव इस देश में आया, इस्लाम । इस नए धर्म के मानने वाले एक ईश्वर को मानते थे । जात-पात और छुआछूत, जो हिन्दू धर्म का एक खास हिस्सा बन चुकी थी, उनमें विल्कुल न थी । मूर्ति-पूजा को वे गुनाह समझते थे । वे एक निराकार के उपासक थे । उनमें मामूली ग्रादमियो र ईश्वर के बीच किसी पुरोहित की ज़रूरत न थी । श्रादमी -श्रादमी सव वरावर । लेकिन उनके धर्मं को जन्म देने वाले महापुरुष हजरत मुहम्मद अरव में जन्मे थे, हिन्दुस्तान में नही । उनकी खास मजहवी किताव क़ुरान रवी में लिखी हुई थी, मस्कृत या किमी हिन्दुस्तानी जवान में नही । हिन्दू-धर्म के साथ इस्लाम की थोडी-बहुत टक्कर होना कुदरती था । यह टक्कर कोई नई चीज नही थी । इस देश के इतिहास में इस से पहले पुराने द्राविड- धर्म और नए श्रार्य धर्म में कई हज़ार वरस तक टक्कर रह चुकी थी । हजारी वरस तक वेदो के मानने वाले श्रार्यं अपने वैदिक देवताओ जैसे मित्र, वरुण और इन्द्र की पूजा को मुख्य समझते थे । यहाँ के अमली वाशिन्दे अपने पुराने देवताओ, शिव और चतुर्भुज विष्णु की पूजा को ही जारी रखना चाहते थे । वहसें हुईं, गिरोह के गिरोह मिटा डाले गए । आखीर में कई हज़ार वरम को टक्करो के वाद जव दोनी धाराएँ गंगा थोर जमुना की तरह एक दूसरे में मिल गई तो आज यह पता लगाना भी मुश्किल है कि इस मिली-जुली जीवन-धारा का कौन सा कण आर्य है और कौन सा द्राविड । मित्र, वरुण और इन्द्र के मन्दिर हिन्दुस्तान भर में आज ढूंढे से भी मिलने मुश्किल है, 4 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ पर द्राविड जाति के शिवाज करोडो के देव देव महादेव वन कर लगभग हर मन्दिर के अन्दर मौजूद है। चतुर्भुज विष्णु इतने अपना लिए गए कि हिन्दुओ के सब अवतार विष्णु के अवतार गिने जाते है। यह उस महान समन्वय की सिर्फ एक छोटी-सी मिमाल है। जिस तरह की टक्कर मार्यों और द्राविडो में रही, उसी तरह की थोडी-बहुत उसके बाद के ज़माने मे हिन्दुओ और जैनियो में और आठवी सदी ईस्वी तक शवो और शाक्तो में, यहां तक कि राम के भक्तो और कृष्ण के उपासको में वरावर होती रही। इन टक्करो में एक दूसरे का बहिष्कार भी हुआ और लाठियां और तलवारे भी चली। आजतक'हस्तिनापीड्यमानोऽपिन गच्छत जैनमन्दिरम्' जैसे फिकरे देश के साहित्य से मिटे नहीं है। ये सव टक्करेंएक कुदरती ढग से पैदा हुई और उतने ही कुदरती ढग से मिट गई। पुराने जमाने के ये सब सवाल आज इतिहास की एक कहानी रह गए है। इस्लाम के आने के साथ देश में नई टक्करो का होना कुदरती था। टक्करें शुरू हुई। देश के अलग-अलग हिस्से में और जिन्दगी के अलग-अलग पहलुओ में उन्होने अलग-अलग रूप लिये। फिर भी सात सौ-पाठ सौ बरस तक देश के इस सिरे से उस सिरे तक सैकडो शहरोऔर हज़ारो गांवो में हिन्दू और मुसलमान प्रेम के साथ मिलजुल कर रहते रहे। इस सारे समय में वाहर से आकर देश में बस जाने वाले मुसलमानो की तादाद कुछ हजार से ज्यादा नहीं थी। वाकी सब लाखो और करोडो आदमी, जिन्होने इस्लाम धर्म को अपनाया, यही के रहने वाले और यही के हिन्दू माता-पिता की पोलाद थे। हर गांव और हर शहर में हिन्दू और मुसलमान एक ही जवान बोलते थे। एक-दूसरे के त्यौहारो और तकरीवो, व्याह-शादियो और रीति-रिवाजो में शरीक होते थे। एक-दूसरे को 'चाचा','ताया','मामा', 'भाई' वगैरह कहकर पुकारते थे। ज्यादातर मुसलमान घरानो में आजतक सैकडो हिन्दू-रस्में पालन की जाती है । जैसे दसूठन, सालगिरह, कनछेदन, नकछेदन, शादी में दरवाजे का चार, तेल चढाना, हल्दी चढ़ाना, कलेवा वाँधना, कंगना वाँधना, मंडवा। ऐसे ही हिन्दुओ ने काफी रस्में मुसलमानो से ली। जैसे, घोडी चढ़ना, जामा, सेहरा, शहवाला। दोनो ने मिलकर इस देश की कारीगरी, चित्रकारी, उद्योग-धन्धे, कला-कौशल, तिजारत, संगीत वगैरह को अपूर्व उन्नति दी। मुगलो की सल्तनत का ज़माना इन सब वातों में इस देश का सबसे ज्यादा तरक्की का ज़माना माना जाता है। सत्तरहवी सदी ईस्वी के आखीर और अठारहवी सदी के शुरू के सब विदेशी यात्री, जो समय-समय पर इस देश में पाये, इस बात में एक राय है कि उस जमाने मे दुनिया का कोई देश धन-धान्य, सुख-समृद्धि, तिजारत और उद्योगधन्धो में हिन्दुस्तान का मुकाविला नही कर सकता था। राजामओ राजानो में लडाइयाँ होती थी, पर जिस तरह कहीकही हिन्दू और मुसलमान लडे है, उसी तरह हिन्दू हिन्दू और मुसलमान मुसलमान भी आपस में लडे है । वाहर से हमला करने वाले मुसलमानो के खिलाफ देश के मुसलमान हुकमरानो का डटकर लडना और यहाँ के हिन्दू राजाओं का उनका साथ देना एक मामूली घटना थी। मुसलमान बादशाहो की फौज में हिन्दू सिपाही और हिन्दू सेनापति, और हिन्दू राजाओ की सेना में मुसलमान सिपाही और मुसलमान सेनापति, ऐसे ही हिन्दू राजाप्रो के मुसलमान प्रधान मन्त्री और मुसलमान बादशाहो के हिन्दू वजीरे-आज़म सात सौ वरस के भारतीय इतिहास में कदम-कदम पर देखने को मिलते है। ___ उम सारे जमाने में हमें मुल्क के जीवन में तीन साफ अलग-अलग लहरें बहती हुई दिखाई देती है । एक इस्लाम के आने से पहले को ब्राह्मणो के प्रभुत्व, जात-पात और छुवाछूत की तग हिन्दू लहर । दूसरी फिकह (कर्मकाड) का कट्टरता से पालन करने वाली तग इस्लामी लहर और तीसरी दोनों के मेल-जोल की वह प्रेम की लहर, जो दोनो की तग-प्यालियों से ऊपर उठकर दोनो के गुणो को अपने अन्दर लिये हुए थी। रहन-सहन, खान-पान, चित्रकारी, मकानो का बनाना, धर्म और सस्कृति, सव में ये तीनो लहरें साफ दिखाई दे रही थी। इनमें धीरे-धीरे तग-ख्याली की दोनो लहरे मूखती जानी थी और मेल-मिलाप की लहर बढती और फैलती जा रही थी। आशा होती थी कि देश में ममन्वय की पुरानी परम्परा को कायम रखते हुए एक दिन यह प्रेम की लहर सारे मैदान को ढक लेगी और देश के अन्दर Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दू-मुस्लिम-सवाल का आध्यात्मिक पहलू २०७ 'उस नई सस्कृति, नये समाज और नई धार्मिक कल्पना को जन्म देगी, जो अलग-अलग सकीर्ण कल्पनामो से वढकर और उनसे ऊंची होगी। इन तीनो अलग-अलग लहरो की हम एक छोटी-सी मिसाल ईंट-पत्थरो की ठोस शकल में देना चाहते है। फन्ने तामीर यानी गृह-निर्माण-कला में अगर हमे एक तरफ इस्लाम से पहले के पुराने हिन्दू प्रादर्शो को देखना हो तो दक्षिण के मन्दिर है। कुर्सी के ऊपर कुर्सी, कगूरे के ऊपर कगूरा, ठोस पत्थर, आसमान से बात करते हुए कलश और मन्दिर के चारो तरफ की दीवारो की एक-एक इच जगह मूर्तियो से ढकी, ठीक उसी तरह जिस तरह हिन्दुस्तान के घने जगल । इन इमारतो का अपना एक गौरव है। दूसरी तरफ वाहर से आने वाले इस्लामी आदर्श का नमूनाअजमेर और दिल्ली की मसजिदें, साफ-सफाचट दीवारे, जिनमें मिवाय अल्लाह के कोई चीज़ दिखाई न दे, गोल सफेद गुम्बद और ऊँचे मीनार, अरव के बयावान रेगिस्तान की याद दिलाने वाले । इनकी भी अपनी एक अलग शान है। तीसरे इन दोनो आदों का मेल, इनकी एक दूसरे पर कलम, इनका प्रेमालिंगन अगर देखना हो तो आगरे का ताज, जो दुनिया की सबसे सुन्दर इमारतो मे गिना जाता है और जो आज भी इस देश के सडे-गले जिस्म पर झूमर की तरह लटक रहा है। यही हाल हमें और सब कलाओ और विद्याओं में दिखाई देता है । मुगल सल्तनत के ज़माने में न जाने कितने नये पौधे, कितनी नई तरह के फल, नये फूल, नये-नये जानवर, नई तरह के कपडे इस मुल्क मे आये और न जाने कितने नये-नये खाने और नई-नई मिठाइयां जारी हुई। आजकल के दिल्ली या प्रागरे या मथुरा के किसी भी हलवाई की दुकान की मिठाइयाँ तथा ढाका और मुर्शिदावाद के रेशमी और सूती कपडो के नाम हमे अपनी ईजाद के समय की याद दिला रहे है। यह मेल-मिलाप की लहर हमारे रूहानी यानी आध्यात्मिक जीवन मे भी गहरी चली गई थी। कवीर, दादू, नानक, पल्टू, चैतन्य, तुकाराम, वावा फरीद, वुल्लेशाह, मुईनुद्दीन चिश्ती और यारी साहव जैसे सैकडो हिन्दू और मुसलमान फकीर हिन्दू धर्म और इस्लाम, दोनो के ऊपरी कर्म-काण्डो से ऊपर उठकर हमे प्रेम-धर्म का सन्देश सुना रहे थे और देशभर में चारो ओर प्रेम के सोते बहा रहे थे। हिन्दू धर्म ने इस्लाम के सम्पर्क से अपने अन्दर अनेक सुधार की लहरें पैदा की। अनेक हिन्दू प्राचार्यों ने जात-पात और छुवाछूत को तोडने और प्रादमी आदमी के बीच वरावरी कायम करने का उपदेश दिया। हिन्दू धर्म के सम्पर्क से इस्लाम का जरूरत से ज्यादा नुकीलापन या कटीलापन भी टूटा । मुसलमान फकीरो और महात्माग्रो के मजारो पर वसन्त के दिन वसन्ती चादरे चढाई जाने लगी। मुसलमान वादशाहो के दरवारो में होली, दिवाली, रक्षावन्वन और दशहरा जगह-जगह उसी प्रेम, उसी जोश और उसी उमग से मनाया जाता था, जिस तरह हिन्दू दरवारो में। कोई सन्देह नहीं कि अगर थोडा-सा और समय मिल गया होता तो यह देश उस जमाने के हिन्दू धर्म और इस्लाम के मेल से अपने अन्दर उसी तरह एक नया मिलाजुला और ज्यादा ऊंचा जीवन पैदा करके दिखला देता, जिस तरह इससे पहले की सव टक्करो के वाद दिखला चुका था, पर उस शुभ दिन के आने से ठीक पहले देश में एक तीसरी ताकत ने कदम रक्खा । इस नई विदेशीताकत को अपना भला इसी मे दिखाई दिया कि देश की इन दोनो जमातो को एक दूसरे से मिलने से रोके । इन दोनो को फाडे रखने में ही उसे अपनी ज़िन्दगी दिखाई दी। सन् १७५७ से लेकर आजतक तरह-तरह की चालो, कूटनीतियो और सियासी तदवीरो के जरिये देश के हिन्दू और मुसलमानो को एक दूसरे से अलग रखने के पूरे जतन किये गये। रोग बीज रूप में शरीर के अन्दर मौजूद थाही। उसे सिर्फ भडकाने और वढाने की जरूरत थी। सरकारी नौकरियो में होड,म्यूनिसपैलिटियो और एसेम्बलियो के चुनाव,पृथक् निर्वाचन (Separate electorate), अलग-अलग यूनीवर्सिटियों, महासभा और लीग, अखड भारत और पाकिस्तान, इन सब ने देश की इस कठिन समस्या को उलझाने में हिस्सा लिया है। पर ये राजकाजी हथकडे हमें सिर्फ इसीलिए नुकसान पहुंचा सके, क्योकि फूट, अलहदगी और दुई के वीज हमारे अन्दर मौजूद थे। बाहर के कीटाणु या जर्स उस समय तक रोग पैदा नही कर सकते, Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ प्रेमी-पमिनंदन-प्रयवाककिजिन के अन्दर का समतोलन बिगड़ा हो, चबतक कि खून के अन्दर कोई-न-कोई इस तरह की कमजोरी कमी पावेशीपदान हो गई हो, वो उनकीवाणुओं को वहां टिकने और पनपने का मौका दे।, ".., . हमारी इस तहको प्रादाबें, इस तरह के विचार जैसे हिन्दूवाति और हिन्दू संस्कृति को वचावरखने की बन्दरत है, इस्लाम मोर मुस्लिम कल्वर खतरे में है', हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए हिन्दू संगन्न जरूरी है इस्लाम की हिशाप दे दिए मुभवम्गों की अत्म नदीम नाज़िमी है, वृद्धि और तवलीग,बोलने वालने और लिखने पहनी को जवान को एक तरफ नस्कृत के और दूसरी तरफारसी और अखो के ज्यादा नदीक लाने की कोशिशें, राष्ट्रीय कालोपीन राष्ट्रीय प्रत्याओं तक में हिन्दू रंग-ढंग और हिन्दूतास्वरोकों को वरखने और चमकाने की लालसा ये सब वो इन रात को साबित कर रही है कि हमने अभी तक ारो रीति-रिवाजों के फरकों से कर एक मिली-चुनी कौनी जिन्दगीकार करने के उदक को पूरी तरह नहीं सीखा, बोकुदरत हमें इनदोनों धर्मों को एक बरहलाकर सिखाना चाहती थी। रोग का इलाव ने साफ है। इस सारी भूल-मुलइयों में से हम चाहें तो अपना रास्ता साफ देख सकते। हैं। रास्ता नहीं है, वो इससे पहले की टक्करों में से निकलने का रास्ताया। वक्तक आदमी आदमी है। सम तरह-तरह के विचारों का पैदा होना, उसके तरह-तरह के विश्वास और तरह-तरह की मानताएं होना कुदरती है। यहचौध वैसोही युदरती है, जी एक विशाल वन या सुन्दर उपवन के अन्दर तरह-तरह की वनसतियों और रग-विरल फूलों काउगना । हरेकका अपना सौन्दर्य । हरेक की अपनी पयोगिता । विनके मॉडे हैं, उन्हें इस निचिश्ता में ही, इस रणविरले-पन में ही, कुदरत के वार का असली सौन्दर्य दिखाई देगा। इस विचित्रता में ही मानव विकास का रास्ता मिलता है। कोई देश नमव तक उम्प नहीं कहा जा सकता, बक्तक किसके, रहने वालों को अपने विचारों और विश्वाश में, अपनी पूना और इबादत के तरीकों में पूरी आबादी हासिल नहो। हमारे देश के अन्दर नीतहह के विचारों का हजारों वरखने एक दूसरे के साथ रहना और पाखीर में घुल-मित दाना इस बात को साबित कर रहा है कि हम जिन्दगी के इस सुनहले उसूल को काफी चानते और समम् रहे है ।। वहन-सी बान में हिन्दुओं और नियों, वैष्णवों और शान्तों, सनातनधर्मियों मोर मार्यसमावियों, वर्माधमियों, और ब्राहपों में विना मूली फरक है, भाव-समावियों और मुसलमानों या मानूली हिन्दुओं मौर मुसनमानों में उससे कहीं कम है। बात नि इतनी है, वैसा हम पर कह चुके हैं, कि हमारे इतिहास कायहाजिरी उमन्वय अभी पूरा नहीं हो पाया था कि बाहरी ताज्ञों ने छेडकर हमारी हालत को घोड़ा-साटिल कर दिया और कुछ देर के लिए देश में एक कट पैदा हो गया। हमें प्रव तिथं दो बातें समम्नी है। एक यह कि मबहवी रोनिखिाओं या पूजा-पानके तरीकों के प्रता अलग होते हुए भी हमें देश में एक मिली-जुली चनाजी जिन्दगी, मिला-जुला रहन-चल, मिली-जुली जवान पनाकली है, कानी है और उसे कायम रखना है। रीति-रिवाव सबमरी चौवें हैं। हर देश में वे बदलते रहे है और बदलते रहेंगे। सितह शरीर का बदलना बव-तब जरूरी हो वाता है, उसी तरह इन परी रीति-रिवालों का बदले रहना नी समादी विन्दगो के लिए वरूरी होता है। हिन्दुओं की चन्मना वाति, वातपात भोर छुमास्त, किसी भी दूसरे के छूने से किसी के भोजन और पानी का नापाक हो जाना, एक ऐसी सड़ी-गली और हानिकररूढ़ि है, जिसका अन्त करना हमारे समावी वीवन को कायम रखने के लिए उरूरी है। बुद्ध भगवान् के समय से लेकरचीच के जमाने के सन्तों, कबीर और दादू तक सब हमें यही उपदेश देते चले आये हैं। ऐसे ही वोलचाल में या किताबों और भवन में आवश्यकता' की बगह 'वात' या 'चरूरत' की जगह 'आवश्यकता' पर चोर देना, नुमाइश से भामफहम शब्द को बदल कर प्रदशिनों करला, हवाईजहाद' को वायुयान' या 'यार' कहने की कोशिकलाएकवीमाये है, वो हमारी समावी जिन्दगी को टुकड़े-टुकड़े कर रही है और हमारी प्रालाओं को संकीर्ण बना रही है। एक सौषौशादों, मिला-बुली, आमव्हम बोली की वाह संस्कृत भरी हिन्दी या फारती अरवी भरी ज्र्दू को तरस जाने Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ranine L का एक EX म 1. -- InHERERANI .' -REAM . १ F . . . . ............. waad a n - - - .. . देवगढ का विष्णुमंदिर Page #233 --------------------------------------------------------------------------  Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दू-मुस्लिम सवाल का आध्यात्मिक पहलू २०६ को स्वाहिग उन चीज़ो में मे है, जिन्होंने हिन्दू-मुस्लिम-मवाल को पैदा किया और बढाया। हमें हिन्दी और उर्दू दोनो को हिन्दुस्तानी भाषा मानना होगा। दोनो से प्रेम करना होगा और दोनो के मच्चे मगम मे एक राष्ट्र-मापा हिन्दुस्तानी को रूप देना, वढाना और मालामाल करना होगा। इसी तरह अपनी राष्ट्रीय मस्थानो, काग्रेसो, कान्फ्रमो, स्कूलो, कालेजो वगैरह मे हम मिले-जुले तरीके और इस तरह के ढग वरतने होगे, जो सब धर्मो और मजहबो के देशवामियों को एक-से प्यारे लगें। हम ऊपर लिख चुके है कि हम आज से चन्द पीढी तक इसी तरह की एक मिली-जुली समाजो जिन्दगी और मिली-जुली कल्चर की तरफ बढ रहे थे। हमे अपनी उस योटे दिन पहले की प्रवृत्ति को फिर से ताजा करना होगा। __दूसरी वात,जो हमे समझनी है, वह इसमे भी ज्यादा गहरी है । और वह इस हिन्दू-मुस्लिम सवाल का प्राध्यात्मिक यानी रूहानी पहलू । दुनिया के अलग-अलग धर्मों के कायम करने वाली ने अगर किमी बात पर सबसे ज्यादा जोर दिया है तो वह यही है कि सब इन्सान एक कोम है, हम सब मिलकर एक छोटा-सा कुटुम्ब है, सब एक जिम्म के अलग-अलग अगो की नरह है। सव का एक ही ईश्वर या अल्लाह है। ईश्वर एक है और मव उसी के वन्दे है तो जाहिर है कि सबका धर्म भी एक ही है। फिर ये अलग-अलग धर्मों के फरक क्यो? इन धर्मों के इतिहास और उनकी पाक कितावो को प्रेम के साथ देखने में माफ़ पता चलता है कि इन मव धर्मों और मत-मतान्तरो के मूल तत्त्व एक है। इनमें फरक सिर्फ या तो उन अटकली वातो मे है, जिनमें आदमी का दिमाग पाखिरी फैमले नहीं कर पाता, जमे जीव और ब्रह्म का एक होना या दो होना, नरक और स्वग की कल्पनाएं वगैरह, और या ऊपरी रीति-रिवाजो और कर्मकाण्डो में है, जैमे पूरब की तरफ मुंह करके पूजा करना या पच्छिम की तरफ मुंह करके, सस्कृत में दुग्ना मांगना या अरवी में। ये सवं फरक गौण है। हमे इनमे ऊपर उठकर और इनके भीतर मे मव धर्मों की मौलिक एकता को माक्षात् करना होगा। इतना ही नहीं, हम यह समझना होगा कि खुदा की नज़रो में दुनिया की कोई भापा दूसरी भाषा में ज्यादा पवित्र नहीं है। कोई कारो रीति-रिवाज दूसरे रीति-रिवाज मे ज्यादा पाक नहीं है। आदमी, आदमी है। हमें मत्र धर्मों के कायम करने वाले महापुरुषों को इज्ज़त करनी होगी, उन सब को अपनाना और उन्हें मानवममाज के सच्चे हितचिन्तक और मार्ग-प्रदर्शक मानना होगा, मव धर्म-पुस्तको को प्रेम के साथ पढना और उनमे सवक हासिल करना होगा । इन धर्मों और कितावी के फरक मव देश और काल के फरक है। हमे इनसे ऊपर उठकर मव धर्मों के मार यानी उम मानव-वर्म, उस प्रेम-धर्म, उम मजहवे-इश्क, उस मजहवे-इमानियत को माक्षात् करना होगा, जो अाजकल के मव मन-मतान्तरो को जगह भावी मानव-समाज का एकमात्र धर्म होगा, जिसकी बुनियादे सच्चाई, सदाचार और प्रेम पर होगी और जो सव के अन्दर एक ईश्वर के दर्शन करते हुए आध्यात्मिक जीवन की उन गहराइयो तक पहुँचने और उन समस्याओं के हल करने की कोशिश करेगा, जिन तक पहुंचना और जिनका हल करना इस पृथ्वी पर मनुष्य के जीवन का अन्तिम और अमला लक्ष्य है। यही वह कीमती सवक है, जो कुदरत हम आजकल की इस छोटो मी हिन्दू-मुस्लिम समस्या के जरिये मिखाना चाहती है। हमारा देश इम ममय इसी सच्चे मानवधर्म को पैदा करने को प्रसववेदना में से होकर निकल रहा है । मारा मसार शुभ दिन की बाट जोह रहा है। इलाहाबाद २७ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन आर्यों का जलयात्रा-प्रेम श्री कृष्णदत्त बाजपेयी एम्० ए० ぼく ससार के अन्य देशो से सम्बन्ध स्थापित करके उनको अपनी संस्कृति से प्रभावित करने के लिए भारतीय आर्यों ने बहुत प्राचीन काल से ही विदेश यात्रा को उपादेय समझा था । इस सम्बन्ध से सास्कृतिक लाभ के साथ-साथ व्यापार द्वारा आर्थिक लाभ का महत्त्व भारतीयों को सुविदित था । इसीलिए उन्होंने दूर- देशों को जाने के लिए जलमार्गों को खोज निकाला और फिर अनेक प्रकार के निर्मित जहाजों और नौकाओं पर आरूढ होकर वे स्वदेश का गौरव खाने के लिए विस्तृत समुद्रों में निकल पड़े। अपने महान् उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमारे पूर्वव भायों में मार्ग की कठि नाइयो की परवाह न की । उनके दृढ अध्यवसाय के कारण भारत शताब्दियों तक ससार के व्यापार का केन्द्र बना रहा और सुदूर पश्चिम तथा सुदूर पूर्व तक इस देश के नेतृत्व की धाक जमी रही। आर्यों को नौका-निर्माण- कला तथा उनके जलयात्रा-प्रेम का परिचय हमारे सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद प्राप्त होता है । इस ग्रन्थ में नौकाओं तथा समुद्र- यात्राभो के मनोरंजक वर्णन अनेक स्थानों पर मिलते हैं। एक जंगह ऋषि अपने इष्टदेव से प्रार्थना करते है- "हे देव, हमारे आनन्द भौर कल्याण के लिए हमको जहाज के द्वारा समुद्रपार से चर्चा" (१९७८) विष्णु के साथ मशिष्ठ की समुद्र यात्रा का वर्णन बहा रोचक है Keeee प भार्यों की जलयात्रा वरुण के लिए कहा गया है कि वे समुद्र का पूरा ज्ञान रखते हैं और उनके सिपाही समुद्र में चारो घोर फिरा करते हैं, (११२७) । कई स्थलों पर वरुण को जल का अधिपति कहा गया है । सम्भवत इसी आधार पर पौराणिक काल में वरुण के स्वरूप में जल-पूजन का महत्त्व हुआ और कालान्तर में जल ( सागर, सरिता और सर) के समीप बसे हुए स्थानो को तीर्थों के रूप में वडा गौरव प्रदान किया गया। I ऋग्वेद में लम्बी यात्राघ्रो में जाने वाले जहाजो के भी उल्लेख मिलते हैं। ऋषि तुप ने अपने लड़के भुज्य को एक बहुत बडे जहाज में बैठाकर शत्रुओं से लडने को भेजा था (१।११६३३) । बहुत सम्भव है कि वैदिक काल में, ऐसे ही बढे जहाजों पर बैठकर विश् ('पणि') लोग पश्चिमी देशो तक जाते थे और वहाँ से व्यापार-विनिमय करते کا Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन पार्यों का जलयात्रा-प्रेम २११ थे। इस काल में व्यापारिक यात्राओ के प्रचलित होने के प्रमाण वैदिक माहित्य मे पाये जाते है। ऐसे पणियो या व्यापारियो के उल्लेख मिलते है जो लोभवश अधिक धन-प्राप्ति के लिए अपने जहाज़ विदेशो को भेजते थे (ऋ० ॥४८॥३)। ऐसे लोगो की यह कहकर निन्दा की गई है कि 'ये धन के लालच से अपने जहाजो द्वारा सारे समुद्र को मथ डालते है' (११५६।२)। ऐसा अनुमान होता है कि वैदिक काल में भारत का समुद्री व्यापार चाल्डिया, मिश्र तथा बेबीलोन से होता था, क्योकि पश्चिमी जगत् में मिश्र की सभ्यता तथा सुमेरी लोगो की सभ्यता इस काल में उन्नत थी। आर्य-व्यापारियो के लिए 'देवपणि' शब्द प्रयुक्त हुआ है, जिससे ज्ञात होता है कि 'पणि' शब्द शायद द्राविड या अनार्य व्यापारियो का सूचक है । पिछले वैदिक काल तथा महाकाव्य युग मे भी आर्यों के जलयात्रा-सम्बन्धी उल्लेख मिलते है । रामायण में जहाज़ो के द्वारा दक्षिण तथा पूर्व के द्वीपो और देशो में जाने के वर्णन मिलते है । किष्किन्धा काड मे सुग्रीव बानरो को पूर्व के द्वीपो में जाने का आदेश देता है (रामा० ४१४०।२३-५) । यही कोषकार द्वीप (?), यवद्वीप (जावा) तथा सुवर्ण द्वीप (सुमात्रा) में भी जाने को कहा गया है। आधुनिक लालसागर का प्राचीन नाम रामायण मे लोहितसागर आया है। इसी ग्रन्थ में एक जहाजी वेडे के युद्ध का वर्णन है, जिसमे कई सौ छोटी-बडी नौकाएँ प्रत्येक पक्ष में थी (रामा०४१८४१७८)। महाभारत मे भी जहाजो और नौकाओ के द्वारा जल-यात्रां के उल्लेख मिलते है। बौद्ध ग्रन्थो मे जल-यात्राओ के अनेक मनोरजक वर्णन मिलते है। वाबेरु जातक में भारत से बाबेरु (वेवीलोन) को भारतीय व्यापारियो के जाने का कथन है। समुद्दवनिज जातक, जनक जातक और बलाहस्स जातक में व्यापारियो की दीर्घ यात्राओ के आकर्षक वर्णन मिलते है। दीघनिकाय (१२२२२) मे छ महीने की लम्बी समुद्रयात्रा का वर्णन है। इन यात्रामो मे माझो लोग एक विशेष प्रकार के समुद्री-पक्षी अपने साथ रखते थे, जो समुद्री किनारो का पता अपने स्वामियो को देते थे। कुतुबनुमा का इस प्राचीन काल मे आविष्कार नही हुआ था और ये पक्षी ही कुतुबनुमा का काम देते थे। जातक ग्रन्थो से विदित होता है कि बौद्धकाल मे देश समृद्ध और धनधान्यपूर्ण था। इसका श्रेय देशी तथा विदेशी व्यापार को था। नगरो मे सब प्रकार की वस्तुएँ–अन्न, वस्त्र, तेल, सुगन्धित द्रव्य, सोना, चांदी, रत्ल आदि-थी। नगरो में व्यापारियो के सघ बन गये थे, जो "निगम' कहलाते थे और उनके मुखिया 'सेट्ठी' (श्रेष्ठी) कहाते थे। इस काल मे जहाजो के आकार और परिमाण के भी उल्लेख बौद्धग्रन्थो मे मिलते है। जनक जातक मे ऐसे जहाजो के वर्णन है, जिनमें सात-मात सौ यात्री बैठकर यात्रा के लिए गये थे। वि० पू० ४०० के लगभग सिंहलद्वीप से वहाँ का राजा विजय सात सौ यात्रियो को एक जहाज़ में बैठाकर बगाल के राजा सिंहबाहु के यहाँ गया। इन सख्याओ से जहाजो के आकार के बहुत बडे होने मे सन्देह नही। महावश, सुत्तपिटक, सयुक्तनिकाय, अगुत्तरनिकाय आदि ग्रन्थो मे भी बडे आकार वाले जहाजो तथा उन पर बैठकर यात्रार्थ जाने वाले वणिको के वर्णन मिलते है। मौर्य-शुग काल (३२५ ई० पू०-१०० ई० पू०) मे भारत की जल-यात्रा बहुत बढी। इस काल में मिश्र के टालेमी शासको ने पूर्वी देशो-विशेषत भारत-से व्यापार बढाने के लिए स्वेज नहर खोली, जिससे भारत से पश्चिमी देशो का यातायात लाल सागर के मार्ग से होने लगा। इस युग में भारत में देशी जहाजो तथा नौकायो का निर्माण बडी सख्या मे होता था। निअर्कस ने अपनी यात्रा के लिए उत्तरी पजाब की जातियो से नावे तैयार करवाई थी। टालेमी के कथनानुसार इन नौकाओ की सख्या दो हजार थी, जिन पर आठ सहस्र यात्री, सहस्रो घोडे तथा अन्य सामान लादकर इतनी दूर की यात्रा मे गये थे। मेगास्थनीज़ ने मौर्य-साम्राज्य के जहाज-निर्माताओ के समूह का उल्लेख किया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र (२।२८) से भी विदित होता है कि व्यापार के लिए एक अलग महकमा था, जिसकी व्यवस्था अन्य मुख्य महकमो की तरह अच्छे ढग से होती थी। शक सातवाहन तथा गुप्त-काल में भारत का विदेशो से व्यापार बहुत उन्नत हुआ। तत्कालीन साहित्य तथा विदेशी यात्रियो के वर्णन से भारतीयो के यात्रा-प्रेम, उनको व्यापार-कुशलता तथा तज्जनित भारतीय समृद्धि का पता Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी अभिनंदन ग्रंथ २१२ चलता है। स्ट्रेबो नामक यूनानी यात्री ने अरव और फारस के किनारो से मिश्र को जाते हुए एक सौ वीस जहाज़ी के भारती बेडे को देखा था (स्ट्रेबो, २।५।१२) । प्लिनी ने सिन्धु और पत्तल से उत्तर-पश्चिम के देशी को जाते हुए वडे जहाजो के समूह को देखा । साँची और कन्हेरी तथा श्रजन्ता की गुफाओ मे अनेक बडे जहाजो के भित्ति चित्र मिलते है । मदुरा के मन्दिर मे भी एक विशाल जहाज चित्रित है। कोरोमंडल से मिले हुए यज्ञश्रीशातकणि के कुछ सिक्को पर दो मस्तूल वाले जहाज़ो के चित्र है । मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, नारद स्मृति तथा बृहत्सहिता आदि ग्रन्थो से अनेक प्रकार की जल-यात्राओ के वर्णन पाये जाते हैं । अजन्ता मे विहार यात्राओ के लिए प्रयुक्त अनेक सुन्दर नौकाओ के भी चित्र है । मध्यकाल में भारतीयो की जलयात्रा को देश की समृद्धि के कारण अधिक प्रोत्साहन मिला। इस युग में भारत और अरव के बीच व्यापारिक सम्वन्ध घनिष्ठ हुए । अल इद्रिसी आदि अरवी यात्रियो के वर्णनो से भारत की व्यापारिक उन्नति तथा भारतीय बन्दरगाहो की वृद्धि का हाल ज्ञात होता है । दक्षिण-पूर्व के देशो और द्वीपो में भारतीय उपनिवेश गुप्त काल के पहले ही स्थापित हो चुके थे । मध्यकाल मे श्रीक्षेत्र, कवुजराष्ट्र (कवोडिया), चम्पा ( अनाम ), स्वर्णद्वीप (सुमात्रा) तथा सुवर्णभूमि (बर्मा) आदि देशो से भारत के सास्कृतिक और व्यापारिक सम्वन्ध अधिक घनिष्ठ हुए। चीन तथा जापान से भी ये सम्बन्ध दृढ हुए । तत्कालीन चीनी ग्रन्थो तथा ह्वेन्त्याग, इत्सिंग, सुगयुन आदि चीनी यात्रियो के वर्णनो से विदित होता है कि भारत तथा चीन के पडितो तथा दोनो देशो के प्रणिधि-वर्ग का पारस्परिक आवागमन पूर्ववत् द्रुतगति से जारी रहा। भारत से चीन तक का मारा समुद्र- प्रदेश भारतीय उपनिवेशो तथा बन्दरगाहो से भरा पडा था । इत्सिंग ने ऐसे दस भारतीय उपनिवेशो का वर्णन किया है, जहाँ मम्कृत के माथ साथ भारतीय रीति-रिवाजो का प्रचलन था । माघ - रचित 'शिशुपालवध' में माल से लदे हुए जहाज़ो के विदेश जाने और पश्चिम से द्वारका की ओर श्राते हुए जहाज़ो के वर्णन है । राजतरगिणी तथा कथा-मरित्सागर आदि में भी भारतीयो की समुद्री यात्राओ का पता चलता है । लगभग १००० ई० मे मालवे के परमार राजा भोज ने 'युक्तिकल्पतरु' नामक ग्रन्थ की रचना की । नौ-शास्त्र का यह ग्रन्थ अपने विषय का बेजोड और अनमोल है । इसमे भारतीय जहाज़ो श्रौर नौकाओ के अनेक रूपो के निर्माण और सचालन आदि का विशद वर्णन है । इसमे प्रकट होता है कि भारतीय जहाजी-कला कितनी प्राचीन तथा उन्नतिशील रही है । विभिन्न प्रकार के जहाजो के लिए उपयुक्त लकडियो, जहाजो के स्वरूपो तथा निर्माण सम्बन्धी विधियो के जो विस्तृत वर्णन इस ग्रन्थ-रत्न में है उनसे भारतीय मस्तिष्क के वैज्ञानिक विकास का पता चलता है, साथ ही भारतीयो के जल-यात्रा विषयक प्रेम का भी प्रमाण मिलता है । मुसलमानो के राज्य-काल में भी भारतीयो की यह रुचि वृद्धगत रही । मार्कोपोलो, श्रोडरिक (१३२१ ई० ), इब्नवतूता (१३२५-४६ ई०), अब्दुर्रज्जाक आदि ने जो यात्रा-वर्णन लिखे है, उनसे भारत की अतुल जहाजी शक्ति तथा व्यापार-प्रवीणता का पता चलता है । वह प्रवृत्ति मराठा काल (लग० १७२५-१८०० ई०) तक चलती रही, जिसके प्रमाण शिवाजी, कान्होजी अगिरा तथा शम्भूजी यादि के द्वारा नौ- शक्ति - सगठन मे मिलते है । मध्यकाल के अन्त में लगभग ई० १२वी शताब्दी में समाज का कुछ वर्ग समुद्र यात्रा का विरोधी हो गया था । इसका प्रधान कारण इस काल में जाति बन्धनो का कडा हो जाना था । पर वणिक् समाज तथा अन्य व्यापारी लोग इन नव-निर्मित स्मृतियों के जल-यात्रा - विरोधी वचनो से विचलित नही हुए। वे बाह्य देशो से बरावर आवागमनसम्वन्ध वनाये रहे, क्योकि इससे उन्हें श्रार्थिक और सास्कृतिक लाभ थे और इन लोगो से भारतीय जनता शताब्दियो से परिचित थी । परन्तु सत्रहवी शताब्दी के अन्त मे निर्मित कुछ धर्मशास्त्र निबन्ध ग्रन्थो मे समुद्रयात्रा को निन्दित कहा गया और जातीय प्रथा के सकुचित हो जाने से जनता बहुत बड़ी संख्या में समुद्रयात्रा से विमुख हो गई। इसका फल प्रत्यक्ष हुआ है और देश को विदेश यात्रा के अनेक लाभो से वचित रहना पडा है । श्रव वह समय आ गया है कि भारतवासी अपने पूर्वजो का अनुकरण कर अन्य सभ्य देशो से ज्ञान-विज्ञान- सम्वन्धी आदान-प्रदान कर अपने देश को उन्नत और समृद्ध बनावें । लखनऊ ] Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्यूान्-चुआ और उनके भारतीय मित्रों के बीच का पत्रव्यवहार श्री प्रबोधचन्द्र बागची एम० ए०, डी० लिट० महान् चीनीयात्री श्यूप्रान्-चुआड भारत में सोलह वर्ष तक (६३०-६४५ ई०) रहा। उसका अधिकाश समय नालन्दा मे तत्कालीन आचार्य शीलभद्र के पास वौद्ध दर्शन का अध्ययन करने में बीता। सम्राट हर्षवर्धन ने तीन वार उसे राजधानी में आने का निमन्त्रण दिया, पर उसने स्वीकार नही किया। बाद मे जव हर्ष से भेट हुई तव उसने इसका कारण पूछा। श्यूआन्-चुपाड् ने उत्तर दिया कि वह इतनी दूर से बौद्धधर्म को जिज्ञासा और बौद्ध दर्शन के अध्ययन का ध्येय लेकर आया था और क्योकि उसका वह उद्देश्य तवतक पूरा नही हुआ था, इसलिए वह सम्राट से मिलने न आ मका (बील, श्यूप्रान्-चुनाड् का जीवनचरित, पृ० १७३-१७४) । इससे नालन्दा मे अध्ययन के प्रति उसकी गहरी आसक्ति प्रकट होती है। अपने गुरु शीलभद्र और अपने सहपाठियो के, विशेषकर ज्ञानप्रभ के लिए जो शीलभद्र के प्रधान शिष्य थे, उसके मन मे ऐसा ही गहरा प्रेम था। श्यूमान्-चुप्राइ के भारतीय मित्रो के मन में भी उसके लिए वैसे ही भाव थे। नालन्दा से उसके विदा लेते ममय जो घटना घटी उसमे इसका कुछ परिचय मिलता है। यह सुनकर कि वह चीन लौटने के लिए तैयार था, नालन्दा विहार के मव भिक्षु मिलकर उसके पास आये और यही रह जाने के लिए अनुरोध करने लगे। उन्होने कहा कि भारतवर्ष भगवान् वुद्ध को जन्मभूमि है, चीन इस तरह की तोर्य-भूमि नहीं है। उन्होने वातचीत के सिलसिले मे यहाँ तक कह डाला कि बुद्ध का जन्म चीन में कभी न हो सकता था, और इसलिए चीन के निवासियो में वह धर्म-भाव कहाँ सम्भव है । किन्तु श्यूअान्-चुअाड् ने उत्तर दिया कि बुद्ध का धर्म सारे समार मे फैलने के लिए है, इसलिए चीन देश को वुद्ध के अनुग्रह मे वचित नही रखा जा सकता। जव मव युक्तियाँ व्यर्थ हुई तव उन्होने यह दुखद समाचार प्राचार्य शीलभद्र के पास पहुंचाया। तव शीलभद्र ने म्यूग्रान्-चुआड को बुलाकर कहा-"क्यो भद्र, तुमने ऐसा निश्चय किस कारण से किया है ?" श्यूपान्-चुवाड् ने उत्तर दिया-"यह देश वुद्ध की जन्मभूमि है। इसके प्रति प्रेम न हो सकना असम्भव है। लेकिन यहां आने का मेरा उद्देश्य यही था कि अपने भाइयो के हित के लिए मै भगवान् के महान् धर्म की खोज करूं __ मेरा यहाँ आना बहुत ही लाभदायक सिद्ध हुआ है। अव यहाँ से वापिस जाकर मेरी इच्छा है कि जो मैने पढा-सुना है, उमे दूसरो के हितार्थ वताऊँ और अनुवाद रूप मे लाऊँ, जिसके फलस्वरूप अन्य मनुष्य भी आपके प्रति उसी प्रकार - कृतज्ञ हो सकें, जिस प्रकार मैहुआ है।" इस उत्तर से शीलभद्र को वडी प्रसन्नता हुई और उन्होने कहा-"ये उदात्त विचार तो वोधिसत्वो जैसे है। मेरा हृदय भी तुम्हारी सदागानो का समर्थन करता है।" तव उन्होने उसकी विदाई का सव प्रवन्ध करा दिया (वील-वही, पृ० १६६)। उस विछुडने में दोनो पक्षो ने ही वडे दुःख का अनुभव किया होगा। चीन को लौट जाने के बाद भी उस यात्री का अपने भारतीय मित्रो के साथ वैसा ही घनिष्ट सम्वन्ध बना रहा । हुअइ-ली (Hut-1) ने जो श्यूमान-चुनाइ का जीवनचरित लिखा है (मूल ची० पुस्तक, अध्याय ७) उसमें तीन ऐसे पत्र सुरक्षित है, जो मूल सस्कृत भाषा में थे और श्यूप्रान्-चुना और उसके भारतीय मित्रो के बीच लिखे गये थे। उनमें से दो पाशिक रूप से चीन के वौद्ध विश्वकोष फो-चु-लि-ताय्-थुङ्-चाय नामक ग्रन्थ मे सन्निविष्ट है, जिनका शावान (Chavannes) ने फिरगी भाषा में अनुवाद किया था। (वोधगया के चीनी लेख, 'ल इस्क्रिप्त्सिा शिनुमा 'अग्रेजी और फ्रेंच हिज्जे के कारण जिस नाम को हम हिन्दी में प्राय युअन च्वाइ या हुअन-साग लिखते है उसका शुद्ध चीनी उच्चारण 'श्यूप्रान्-चुनाइ' है ।-अनुवादक (वासुदेवशरण अग्रवाल) Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ प्रेमी - श्रभिनदन-प्रथ द बोधगया', १८९६) । यहाँ पर हम उन तीनो पत्रो का पूरा अनुवाद दे रहे हैं, क्योकि इनसे उस प्राचीन समय में भी भारतीय और विदेशी विद्वानो के पारस्परिक घनिष्ट सम्वन्धो पर पर्याप्त प्रकाश पडता है । श्यूनान्-चुनाडु के दो सस्कृत नाम थे । महायानी उसे 'महायानदेव' कहते थे और हीनयान के अनुयायी उसे ‘मोक्षदेव' या ‘मोक्षाचार्य' कहकर पुकारते थे । नीचे के पत्रो में यही दूसरा नाम प्रयुक्त हुआ है । ( १ ) प्रज्ञादेव और ज्ञानप्रभ का श्यूआन्- चुआड के नाम पत्र · (श्यूनान्-चुनाडु का जीवनचरित्र, नानकिड् मस्करण, तृतीय, अध्याय ७, पृ० १५ अ -१५ श्रा) (3 सवत् ७१२ (६५५ ई०) के पचम महीने मे ग्रीष्म ऋतु के समय, श्रार्यभिक्षु ज्ञानप्रभ (चीनी नाम च- कुशाडु), प्रज्ञादेव' (चीनी रूप हुअइ-थिश्रान्) तथा मध्य देश के महाबोधि विहार के दूसरे भिक्षुग्रो ने मोक्षाचार्य के पास एक पत्र भेजा । ज्ञानप्रभ हीनयान और महायान दोनो साहित्यो के तथा अन्य धर्मों के साहित्य जैसे चार वेद और पांचो विद्याओ के भी प्रका विद्वान् थे । महान् आचार्य शीलभद्र के सव शिष्यो में ज्ञानप्रभ सवसे मुख्य थे । प्रज्ञादेव हीनयान बौद्ध धर्म के अठारह सम्प्रदायो के समस्त माहित्य से परिचित और उसमे निष्णात थे । अपनी विद्या श्रोर चरित्रवल के कारण उन्हे सव का आदर प्राप्त था । भारत मे रहते हुए श्यूनान्-चुआ को हीनयान के विद्वानो के खडन के विरुद्ध महायान के सिद्धान्तो का पक्ष लेना पडा था, किन्तु भद्रता से किये हुए उन शास्त्रार्थी के कारण उसके प्रति उनके मन मे जो आदर और प्रेम का भाव था, उसमें तनिक भी अन्तर नही पडा । इसलिए प्रज्ञादेव ने उसी विहार के भिक्षु धर्मवर्धन' (फा-चाड्) के हस्ते अपने रचे हुए एक स्तोत्र और धौतवस्त्र युगल के साथ एक पत्र श्यूग्रान्-चुाड् के पास भेजा । वह पत्र इस प्रकार था -- " स्थविर प्रज्ञादेव, जिसने महाबोधि मन्दिर मे भगवान् बुद्ध के वज्रासन के पास रहने वाले विद्वानो का सत्सग किया है, यह पत्र महाचीन के उन मोक्षाचार्य महोदय की सेवा मे भेजते हैं, जो सूत्र, विनय श्रीर शास्त्रो के सूक्ष्म ज्ञाता है । मेरी प्रार्थना है कि आप सदा रोग श्रीर दुखो से मुक्त रहें । ● मै- भिक्षु प्रज्ञादेव - ने अव बुद्ध के महान और दिव्य रूपान्तरो पर एक स्तोत्र ( निकायस्तोन ? ) तथा एक दूसरा ग्रन्थ ‘सूत्रो और शास्त्रो का तुलनात्मक विचार' विषय पर बनाया है। उन्हें में भिक्षु फा चाड़ को श्रापके पास पहुँचाने के लिए दे रहा हूँ । मेरे साथ आचार्य आर्य भदन्त ज्ञानप्रभ, जो बहुश्रुत और गम्भीरवेत्ता है, श्रापका कुशल समाचार जानना चाहते है । यहाँ के उपासक आपके लिए अपना अभिवादन भेजते है । सब की ओर से एक धीतवस्त्र युगल आपकी सेवा में अर्पित करते है । कृपया इससे यह विचारे कि हम आपको भूले नही है । मार्ग लम्बा है । श्रतएव इस भेट की अल्पता पर कृपया ध्यान न कर हमारी प्रार्थना है कि श्राप इसे स्वीकार करे। जो सूत्र और ग्रथ गास्न चाहिए कृपया उनकी एक सूची भिजवा दें। हम उनकी प्रतिलिपि करके श्राप के पास भेज देगे । प्रिय मोक्षाचार्य, हमारा इतना निवेदन है ।" ( २ ) श्यूआन्- चुआड का उत्तर ज्ञानप्रभ के नाम- फा-चाड् (धर्मवर्धन) दूसरे मास में वसन्त-काल ( यूङ्-हुइ वर्ष में ) विक्रम संवत् में वापिस गए। उसी वर्षं श्यूआन्-चुप्राङ्ने ज्ञानप्रभ के नाम नीचे लिखा पत्र धर्मवर्धन के हाथ भेजा— ''प्रज्ञादेव' नाम चीनी से उल्था किया गया है, पर इसके सही होने का निश्चय नहीं है । मूल चीनी शब्दों का अर्थ है - मतिदेव । किन्तु चीनी भाषा में 'हुनइ' पद के दो श्रर्थ है-मति और प्रज्ञा और दोनो में कभी-कभी गडबड हो जाता है । चीनी फा-चा का अर्थ है 'धर्म- लम्बा' । इसका सस्कृत रूप धर्मवर्धन हो सकता है । एक चीनी मित्र की सम्मति में 'फा-चा' का मूल धर्मनायक भी सम्भव है । ( अनुवादक की टिप्पणी ) Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्यूनान्- चुना और उनके भारतीय मित्रो के बीच का पत्रव्यवहार २१५ "महान् थाडु वशी राजाओ के देश का निवासी भिक्षु श्यूत्रान् चुम्राङ् मध्य देश में मगध के धर्माचार्य त्रिपिटकाचार्य भदन्त ज्ञानप्रभ की सेवा मे नम्रता पूर्वक लिखता है । मुझे लौटे हुए दश वर्ष से अधिक हो चुके । हमारे उभय देशो की सीमाएँ एक दूसरे से बहुत दूर है। मुझे द्यापका कुछ समाचार नहीं मिला। इसलिए मेरी चिन्ता बढ रही थी । अव भिक्षु फा चाङ् से पूछने पर ज्ञात हुआ कि आप सब कुगल मे है। इस समाचार से मुझे जितना हर्प हुआ, लेखनी उसका वर्णन नहीं कर सकती । वहाँ की जलवायु अव उष्ण होती जा रही होगी और में कह नही सकता कि श्रागे चल कर क्या हाल होगा ।" । भारतवर्ष से हाल ही में लौटे हुए एक सन्देशहर से मुझे पता चला है कि पूज्य श्राचार्य शोलभद्र श्रव इस लोक में नहीं रहे। यह समाचार पाकर मुझे अपार दुख हुआ गोक है, इस दुखमय भवसागर की वह नौका डूब गई, मनुष्यो श्रीर देवताओ का नेत्र मुद गया। उनके न रहने के दुख को किस प्रकार प्रकट करूँ ? पुराकाल में जब भगवान बुद्ध ने अपना प्रकाश समेट लिया था, कश्यप ने उनके कार्य को जारी रक्खा और वढाया। शोणवास के इस समार से विदा हो लेने पर उपगुप्त ने उनके सुन्दर धर्म के उपदेश का सिलसिला बनाए रक्खा । श्रव धर्म का एक सेनानी अपने सच्चे वाम को चला गया है, अतएव उसके वाद में रहे धर्माचार्यों को चाहिए कि अपने कर्त्तव्य का पालन करें। "मेरी तो यही अभिलापा है कि ( धर्म के) पवित्र उपदेशो और सूक्ष्म विचारो की महोर्मियाँ चार समुद्रो की लहरो की तरह फैलती रहे और पवित्र ज्ञान पाँच पर्वतों के समान सदा स्थिर रहे । जो सूत्र और शास्त्र में इयूमान् चुग्राङ् ग्रपने साथ लाया था उनमे से योगाचार - भूमि - शास्त्र का तथा अन्य ग्रन्थो का अनुवाद तीस जिल्दों में में समाप्त कर चुका हूँ । कोप श्रीर न्यायानुमार शास्त्र' का अनुवाद अभी पूरा नही हुआ है, पर इस साल वे श्रवश्य पूरे हो जाएगे । इम समय यहाँ थाडु वश के देवपुत्र सम्राट् अपने धर्माचरण और अनेक कल्याणो के द्वारा देश का शासन कर रहे है और प्रजा को सुख शान्ति दे रहे है । चक्रवर्ती के तुल्य अपनी भक्ति से और धर्मराज की भाँति वे धर्म के दूर-दूर तक प्रचार में सहायक हो रहे है। जिन सूत्रो और शास्त्रो का हमने श्रनुवाद किया है उन के लिए सम्राट् ने अपनी पवित्र लेखनी से एक भूमिका लिख देने का अनुग्रह किया है । उन के विषय में अधिकारियो को यह भी आदेश मिला कि वे इन ग्रन्यो का सब देशो मे प्रचार करे। जिस समय इस श्रादेश पर पूरी तरह अमल होगा, हमारे पडोमी देशो मे भो सव ग्रन्थ पहुँच जाएगे । यद्यपि कल्प के अन्त होने के दिन निकट है, फिर भी धर्म का फैला हुआ प्रकाश श्रभी तक बडा मवुर और पूर्ण है। श्रावस्ती के जेतवन में जो धर्म का श्राविर्भाव हुआ था उस से यह प्रकाश विल्कुल भिन्न नही है । मै नम्रता-पूर्वक आपको यह भी सूचित कर देना चाहता हूँ कि सिन्धु नद पार करते समय साथ लाए हुए धर्मग्रन्थो को एक गठरी उसमें गिर पडी थी । श्रव इस पत्र के साथ उनकी एक सूची नत्यी कर रहा हूँ। मेरी प्रार्थना है कि अवसर मिलते ही कृपया उन्हें भेज दीजिएगा। मेरी थोर से कुछ तुच्छ भेट प्रेषित है। कृपया उन्हें स्वीकार करें। मार्ग इतना लम्बा है कि अधिक कुछ भेजना सम्भव ही नही है । कृपया इस से श्रवज्ञा न मानिएगा । श्यूआन्-चुनाडु का प्रणाम ।" 'यहाँ भारतवर्ष की करारी गर्मी की ओर सकेत है । * कोप का तात्पर्य वसुबन्ध के तीस श्रध्यायात्मक श्रभिधर्म कोषव्याख्या नामक ग्रन्थ (नन्जिनो का सूचीपत्र स० १२६७) से है । इमका अनुवाद ६५१ ६० के पाँचवें महीने की १० तारीख को शुरू किया गया और सन् ६५४ के सातवें मास को २७ ता० को समाप्त हुआ। दूसरा ग्रन्य सघभद्र विरचित 'न्यायानुसार शास्त्र' (नन्जिन्नो, स० १२६५) है। इसका अनुवाद सन् ६५३ में पहले महीने की पहली तारीख को शुरू हुआ और सन् ६५४ में वें मास की १० ता० को समाप्त हुआ । यह पत्र सन् ६५४ के पांचवें मास में लिखा गया था । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी - श्रभिनदन- प्रथ ( ३ ) प्रज्ञादेव के नाम श्यूआन्- चुआड का पत्र "महान् था देश के भिक्षु इम्रान्-चुआ महावोधि विहार के धर्माचार्य, त्रिपिटकाचार्य, प्रज्ञादेव से सादर निवेदन करते है-वहुत समय व्यतीत हो गया । आपका कोई समाचार न मिला था, जिसके कारण में बहुत चिन्तित था । इस चिन्ता को दूर करने का कोई साधन भी न था । जव भिक्षु धर्म-वर्धन ( फा - चाड् ) श्राप का पत्र ले कर पहुँचा तो मुझे मालूम हुआ कि आप सब कुशल से है। इस से मुझे बडा हर्ष हुआ । श्राप के भेजे हुए वस्त्र युगल और स्तोत्र संग्रह मुझे मिल गए। यह ऐसा वडा सम्मान आप ने किया, जिस के में योग्य नही था । इसके कारण में लज्जित हूँ । ऋतु धीरे-धीरे गर्म हो रही है । मैं नही जानता कि कुछ दिन बाद यह कितनी गर्म हो जायगी और आप सब किस प्रकार रहेंगे। आप ने सैकडो सम्प्रदायो के शास्त्रो की धज्जियाँ उड़ा दी है और नवाग बुद्ध शासन के सूत्र ग्रन्थो की सत्यता प्रमाणित कर दी है । सत्यधर्म की ध्वजा को ग्रापने ऊँचा उठा दिया है और सव को लक्ष्य तक पहुँचने में सहायता दी है। अपने विजय की दुन्दुभि बजा कर विपक्षियों को परास्त कर दिया है। श्रापने ज्ञान के एकच्छव अधिकार से सव राजाश्रो को भी चुनौती दे डाली है। सचमुच आप इसके कारण महान् श्रानन्द का अनुभव करते होगे । • मै इयूमान् चुना प्रबुध हूँ । इस समय बुढापा था रहा है और मेरी शक्ति घट रही है । में श्रापके गुणो का स्मरण करता हूँ और आपकी कृपा के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है । फिर, इन विचारो से मुझे और भी खेद हो रहा है । जब मैं भारत मे था, मेरी आपसे कान्यकुब्ज की सभा में भेट हुई । उस समय अनेक राजाओ और धर्मानुयायियो के सामने सिद्धान्तो का निश्चय करने के लिए मैंने आपसे शास्त्रार्थ किया । एक पक्ष महायान का पोपण कर रहा था और दूसरा पक्ष हीनयान (श्र-पूर्ण धर्म) का समर्थन । शास्त्रार्थ के समय कभी वातावरण बडा उग्र हो जाता था और कभी शान्त । मेरा उद्देश्य केवल युक्ति और तर्क को ग्रहण करना था, किसी प्रकार का पक्षपात दिखाना नही। इसी कारण हम दोनो एक दूसरे के विरुद्ध थे। जब वह सभा समाप्त हुई, हमारा विरोध भी उसी के साथ समाप्त हो गया । अव सन्देशहर के हाथ आपने अपना पत्र और क्षमाप्रार्थना भेजी है। श्राप उस बात को मन मे क्यो रख रहे है ? आप अगाध विद्वान् हैं, आपकी शैली स्पष्ट हैं, ग्रापका निश्चय दृढ है और श्रापका चरित्र उच्च | अनवतप्त सरोवर में उठने वाली लहरो की भी तुलना श्रापकी प्रवृत्तियो से नही की जा सकती। मणि की स्वच्छता भी आपकी वरावरी नही कर सकती । आप अपने शिष्यो के लिए उज्ज्वल आदर्श है। मै चाहता हूँ कि धर्म के व्याख्यान में आपने भी महायान का आश्रय लिया होता। जब युक्ति अविकल होती है तो उसको प्रकट करने वाले शब्द भी अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त कर लेते है । महायान से बढकर अन्य कुछ नही है । मुझे खेद है कि आपकी श्रद्धा उसमे गहरी न हो सकी । आप घौली गाय को छोडकर बकरी और हिरन को ले रहे है और मणि के स्थान पर स्फटिक से सन्तुष्ट है । आप तो स्वय प्रकाश और उदात्त गुणो के आगार है। फिर महायान की उपेक्षा कैसे कर रहे है ? मिट्टी के घट की तरह आपका शरीर नश्वर और अल्पस्थायी है। कृपया सम्यक् दृष्टि निष्पन्न कीजिए जिससे मृत्यु से पहले पछताना न पडे । यह सन्देशहर अब भारत को लौटेगा । मैं यह सम्मति आपके प्रति अपने प्रेम को प्रकट करने के लिए ही दे रहा हूँ । आपके उपहार के प्रति निजी कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिए में भी एक तुच्छ भेंट भेज रहा हूँ । श्रापके लिए मेरे मन में जो गहरा सम्मान हैं, उसे यह व्यक्त नही कर सकता । आशा है कि आप मेरा भाव समझते हैं | वापिसी यात्रा में सिन्धु पार करते समय धर्मग्रन्थो की एक गठरी नदी में गिर गई थी। उनकी एक सूची इस पत्र के साथ भेजता हूँ । प्रार्थना है कि उन्हें भेजने की कृपा करे । भिक्षु धान्-चुआ का प्रणाम ।" शातिनिकेतन ] २१६ 'इयूनान्-चुनाडु ने जिस क्षमाप्रार्थना का सकेत किया है वह प्रज्ञादेव के पत्र में उल्लिखित 'सूत्रों और शास्त्रो का तुलनात्मक अध्ययन' इस ग्रन्थ में रही होगी । श्यूनान् चुनाई की कुछ युक्तियो का उत्तर देने के लिए ही स्पष्टत इस ग्रन्थ की रचना हुई थी । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिनि हुधा गीतम् श्री वासुदेवशरण अग्रवाल एम० ए०, पी०एच० डी० भारत जैसे विशाल देश के लिए विचारजगत् का एक ही अमृतसूत्र हो सकता था और उसे यहाँ के विचारशील विद्वानो ने तत्त्व-मन्थन के मार्ग पर चलते हुए आरम्भ में ही ढूंढ निकाला । वह सूत्र इस प्रकार है एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति (ऋग्वेद १११६४१४६) ‘एक सत् तत्त्व का मननशील विप्र लोग बहुत प्रकार से वर्णन करते है ।' ___ इस निचोड पर जितना ही विचार किया जाय उतनी ही अधिक श्रद्धा इसके मूलद्रष्टा के प्रति मन में जागती है। सचमुच वह व्यक्ति अपने मन के अपरिमित औदार्य के कारण भारतीय दार्शनिको के भूत और भावी सघ का एकमात्र सघपति होने के योग्य था। भारतीय देश में दार्शनिक चिन्तन की जो बहुमुखी धाराएँ वही है, जिन्होने युगयुगान्तर में स्वच्छन्दता से देश के मानस-क्षेत्र को सीचा है, उनका पहला स्रोत ‘एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' के 'बहुधा पद में प्रस्फुटित हुआ था। हमारे राष्ट्रीय मानस-भवन का जो वहिरितोरण है उसके उतरगे पर हमें यह मन्त्र लिखा हुआ दिखाई पडता है। मन्त्र का वहुधा' पद उसकी प्राणशक्ति का भडार है, जिसके कारण हमारे चिन्तन की हलचल सघर्ष के बीच में होकर भी अपनी प्रगति बनाये रख सकी। अपने ही वोझ से जब कभी उसका मार्ग अवरुद्ध या कुठित होने लगा है तभी उस अवरोध पर विजय पाकर 'बहुधा' पद के प्राणवन्त वेग ने उसे आगे बढाने का रास्ता दिया। ' ‘एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' यह विचार-सूत्र न केवल हमारे विस्तृत देश की आवश्यकता की पूर्ति करता है, किन्तु विचार के जगत् में हमारे मनीषी जितना ऊँचा उठ सके थे उसके भी मानदड को प्रकट करता है। - इस विशाल देश में अनेको प्रकार के जन, विविध भाषा, अनमिल विचार, नाना भांति की रहन-सहन, अनमिल धार्मिक विश्वास और रीति-रिवाजो के कारण परस्पर रगड खाते हुए एक साथ बसते रहे है। किन्तु जिस प्रकार हिमालय में गगा नदी अपने उदर में पडे हुए खड-पत्थरोकी कोर छाँटकर उन्हे गोल गगलोढो में बदल देती है, उसी से मिलतीजुलती समन्वय की प्रक्रिया हमारे देश के इतिहास में भी पाई जाती है। न जाने कैसी-कैसी खड-जातियां यहाँ आकर वसी, कैसे-कैसे अक्खड विचार इस देश मे फैले, किन्तु इतिहास की दुर्धर्ष टक्करो ने सव की कोर छांट कर उन्हें एक राष्ट्रीय सस्कृति के प्रवाह मे डाल दिया। उनकी आपसी रगड से विभिन्न विचार भी घुल-मिलकर एक होते गये. ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार गगा के घण्ट में पिसी हुई वालू, जिसके कणो में भेद की अपेक्षा साम्य अधिक है। सौभाग्य से हमारे इतिहास के सुनहले उप काल में ही समन्वय और सहिष्णुता के भाव सूर्य-रश्मियो की तरह हमारे ज्ञानाकाश में भर गये। राष्ट्रीय जन की प्राकृतिक विभिन्नता की ओर सकेत करते हुए 'पृथिवी सूक्त' का ऋषि कहता है जन विभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माण पृथिवी यथोकसम् (अथर्व, १२।१।४५) अर्थात "भिन्न-भिन्न भाषा वाले, नाना धर्मों वालेजन को यह पृथिवी अपनी-अपनी जगह पर धारण कर रही है, और सब के लिए दुधार गाय की भाँति धन की सहस्रो धाराएं वहा रही है।" हमारे राष्ट्रीय जन को प्रकृति की ओर से ही वहधापन' मिला है। पर मानवी मस्तिष्क ने उन भौतिक भेदो के भीतर पैठकर उनमें पिरोई हुई भावमयी एकता २८ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ प्रेमी-अभिनंदन-प्रय को ढूंढ निकाला। राष्ट्रनवर्वन के मार्ग में मनुष्य की यह विजय ही सच्ची विजय है । इनी का हमारे नित्य जीवन के लिए वास्तविक मूल्य है । मौलिक एकता और समन्वय पर बल देने वाले विचार अनेक रूपो में हमारे माहित्य और इतिहास में प्रक्ट होते रहे है। अथर्ववेद (२०१३) में कहा है पश्यन्त्यस्याश्चरित पृथिव्या पृथइ नरो वहुधा मीमासमानाः। अर्यात-"इस विश्व का निर्माण करने वाली जो प्राणवारा है, उसकी बहुत प्रकार की अलग-अलग मीमासा विचारनील लोग करते हैं, पर उनमें विरोव या विप्रतित्ति नहीं है। कारण कि वे नव मन्तव्य विचारों के विकल्प मात्र हैं, मूलगत गक्ति या तत्त्व एक ही है।" उत्तरकालीन दर्शन इमी भेद को समन्वय प्रदान करने के लिए अनेक प्रकार से प्रयत्न करते हैं। ऐना प्रतीत होता है, जैसे भेद ने वित्रन से खिन्न होकर एकता की वाणी वार-बार प्रत्येक युग में ऊंचे स्वर ने पुकार उठनी है। अनेक देवताओं के जजाल में जब वुद्धि को कर्तव्याकर्तव्य की याह न लगी तो किनी तत्त्वदर्गी ने उस युग का समन्वयप्रवान गीत इन प्रकार प्रकट किया 'आकाग ने गिरा हुआ जल जैसे समुद्र की ओर वह जाता है, उसी प्रकार चाहे जिन देवता को प्रणाम करो नव का पर्यवनान केगव की भक्ति में है" आकाशात्पतित तोय यया गच्छति सागरम्। सर्वदेवनमस्कार. केशव प्रतिगच्छति ॥ अवश्य ही इन ग्लोक का केशव पद निजी इष्ट देवी का समन्वय करने वाले उसी एक महान् देव के लिए है, जिसके लिए प्रारम्भ मे ही कहा गया था--एक्मेवाद्वितीयम् । वह एक ही है, दूसरा, तीसरा, चौथा, पांचवां नहीं है । वही एक आत्मा वह सुपर्ण या पक्षी है जिने विद्वान् (विप्र) कवियों ने नाना नामो ने कहा है सुपणं विप्रा कवयो वचोभिरेक सन्त बहुधा कल्पयन्ति । शव और वैष्णवो के पारस्परिक ववडरो ने इतिहास को काफी क्षुब्ध किया, परन्तु उस मन्यन के बीच मे भी युग की गणी ने प्रकट होकर पुकारा एकात्मने नमस्तुभ्यं हरये च हराय च अयवा कालिदास के शब्दो में___ एकव मूतिविभिदे त्रिधा सा सामान्यमेषा प्रयमावरत्वम् । (कुमार० ७४४४) "मच्ची बात तो यह है कि ब्रह्मा, विष्णु और शिव एक ही मूर्ति के तीन रूप हो गये है। इन सव में छोटेवडे की कल्पना निमार है।" परन्तु ममन्वय की यह प्रवृत्ति हिन्दू धर्म के सम्प्रदायो तक ही सीमित नहीं रही। वौद्ध और जैन धर्मों के प्रागण मे भी इस भाव ने अपना पूरा प्रभाव फैलाया। सर्वप्रथम तो हमारे इतिहास के स्वर्ण-युग के मवसे उत्कृष्ट और मेवावी विद्वान् महाकवि कालिदास ने ही युगवाणी के रूप में यह घोषणा की बहुधाप्यागमभिन्नाः पन्थान सिद्धिहतव.। त्वय्येव निपतन्त्योघा जाह्नवीया इवार्णवे ॥ __ (रघु० १०१२६) "जैसे गगाजी के सभी प्रवाह समुद्र में जा मिलते है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न गास्त्रो में कहे हुए सिद्धि प्राप्त कराने वाले अनेक मार्ग आप में ही जा पहुंचते है।" Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषिभिर्वहुधा गीतम् २१६ भिन्न-भिन्न आगमो के प्रति समन्वय और सहिष्णुता का भाव - यही तो सस्कृत युग अथवा विक्रम की प्रथम सहस्राब्दी का सवमे महान् रचनात्मक भाव है, जिसने राष्ट्रीय संस्कृति के वैचित्र्य को एकता के साँचे में ढाला । जैनदर्शन के परम उद्भट ऋषि श्री मिद्वसेन दिवाकर ने अपने 'वेदवादद्वात्रिंशिका (बत्तीसी ) ' नामक ग्रन्थ मे उपनिषदो केमरस ज्ञान के प्रति भरपूर आस्था प्रकट की है। विक्रम की अष्टम शताब्दी के दिग्गज विद्वान् श्री हरिभद्र सूरि ने, जिनके पाडित्य का लोहा आज तक माना जाता है, स्पष्ट और निश्चित शब्दो में अपने निष्पक्षपात और ऋजुभाव को व्यक्त किया है पक्षपातो न मे वीरे न द्वेष. कपिलादिषु । युक्तिमद्वचन यस्य तस्य कार्य परिग्रह | "महावीर की वाणी के प्रति मेरा पक्षपात नही और न कपिल आदि दार्शनिक ऋषियो के प्रति मेरे मन में वैर भाव है । मेरा तो यही कहना है कि जिसका वचन युक्ति-पूर्वक हो उसे ही स्वीकार करो ।" परन्तु इस भाव का सबसे ऊँचा शिखर तो श्री हेमचन्द्राचार्य में मिलता है । हेमचन्द्र मध्यकालीन साहित्यिक मस्कृति के चमकते हुए होरे हैं। विक्रम को बारहवी शताब्दी में जैसी तेज आँख उनको प्राप्त हुई, वैसी अन्य किसी को नही । वस्तुत वे हिन्दी युग के प्रादि प्राचार्य है । उनकी 'देशी नाममाला' संस्कृत और प्राकृत के अतिरिक्त ठेठ भाषा या हिन्दी के शब्दो का विलक्षण संग्रह-ग्रन्थ है । यह वडे हर्ष और सौभाग्य की बात है कि हेमचन्द्र इस प्रकार का एक देशी गब्दसग्रह हमारे लिए तैयार कर गये । हिन्दी के पूर्व युग अथवा भाषाओ के सन्धिकाल में रचे जाने के कारण उसका महत्त्व अत्यधिक है । विचार के क्षेत्र में भी एक प्रकार से हेमचन्द्र आगे आने वाले युग के ऋषि थे । हेमचन्द्र की समन्वय बुद्धि में हिन्दी के ग्राठ सौ वर्षो का रहस्य ढूंढा जा सकता है। प्रसिद्ध है कि महाराज कुमारपाल के साथ जिम समय हेमचन्द्र सोमनाथ के मन्दिर मे गये, उनके मुख से यह अमर उद्गार निकल पडा भववीजाकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥ "समार रूपी वीज के अकुर को हरा करने वाले राग-द्वेष यादिक विकार, जिसके मिट चुके है, नेरा प्रणाम उसके लिए है, फिर वह ब्रह्मा, विष्णु, शिव या तीर्थकर, इनमें से कोई क्यो न हो ।" इस प्रकार की उदात्त वाणी धन्य है । जिन हृदयो में इस प्रकार की उदारता प्रकट हो वे धन्य है । इस प्रकार की भावना राष्ट्र के लिए अमृत वरसाती है । नई दिल्ली ] १ ऊपर लिखे हुए श्री हरिभद्र सूरि और हेमचन्द्राचार्य के वचनो के लिए हम श्री साराभाई मणिलाल नवाब के ऋणी है । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो महान संस्कृतियों का समन्वय श्री शान्तिप्रसाद वर्मा एम० ए० मुसलमानो के सम्पर्क में आने के पहले हिन्दू-सभ्यता विकास के एक ऊंचे शिखर तक पहुंच चुकी थी। धर्म और सस्कृति, कला और विज्ञान, साहित्य और सदाचार, मभो मे उसने एक अभूतपूर्व महानता प्राप्त कर ली थी। उवर अरव में इस्लाम को स्थापना के साथ-ही-साथ एक ऐसी सभ्यता का जन्म हुआ जो अपने जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में ही एक के बाद एक नई सभ्यता के सम्पर्क मे पाती गई और धीरे-धीरे कई मृतप्राय सस्कृतियो को पुनर्जीवित करतो हुई और स्वय अपने मे नये-नये तत्त्वो का समावेश करती हुई स्पेन के पश्चिम से चीन के दक्षिण तक फैल गई। हिन्दुस्तान को जमीन पर इन दो महान् मस्कृतियो का सम्पर्क मुस्लिम राज्य की स्थापना के बहुत पहले से प्रारम्भ हो चुका था। इम सम्पर्क का सूत्रपात दक्षिण भारत में हुआ । दक्षिण भारत से अरव-वामियो के व्यापारिक सम्बन्ध शताब्दियो पहले से चले आ रहे थे। उनके मुस्लिम-धर्म स्वीकार कर लेने से इन सम्बन्धों में किसी प्रकार की रुकावट नही पडी। दक्षिण भारत के हिन्दू-निवासी उसी प्रेम और आदर से अरव वालो का स्वागत करते रहे, जैमा वह पहले किया करते थे। मुसलमानो के लिए स्थान-स्थान पर मस्जिदें वना दी गई। मलावार के कई राजाओ ने इस्लाम धर्म को दीक्षा ले लो थी। दक्षिण के प्राय सभी राज्यो में मुसलमान उच्च पदो पर नियुक्त किये जाते थे।' मलिक काफूर ने जव दक्षिणभारत पर आक्रमण किया तो वोर वल्लाल को जिस सेना ने उसका मुकाविला किया था उसमें वास हजार मुसलमान भी थे। खलीफा उमर ने बहुत पहले यह फनवा दे दिया था कि हिन्दुस्तान ऐसा देश नहीं है जिसे जोतने को आवश्यकता हो, क्योकि यहां के निवासी विनम्र और सहिष्णु माने जाते थे और यह विश्वाम किया जाता था कि वे मुसलमानो के धार्मिक कृत्यो मे किसी प्रकार की रुकावट नहीं डालेगे। आने वाली शताब्दियो मे जव मुसलमानो ने उत्तरी भारत पर आक्रमण किया तो उनका उद्देश्य इस देश में इस्लाम-धर्म का प्रचार करने का नहीं था। वे या तो लूटमार के उद्देश्य से आये थे, या मध्य एशिया की आर्थिक और राजनैतिक परिस्थितियो ने उन्हें मजबूर कर दिया था कि वे यहाँ पाकर आश्रय खोजें। मुहम्मद गजनी का स्पष्ट उद्देश्य हमारे मन्दिरो और तीर्थ-स्यानो में एकत्रित की गई धन-राशि को लूट ले जाने का था। उससे वह ग़ज़नी को समृद्धि को वढाना चाहता था और साथ ही अपनी विजय से प्राप्त प्रतिष्ठा को वह मध्य एशिया में अपनी राजनैतिक स्थिति को मजबूत बनाने में लगाना चाहता था। मोहम्मद गोरी और उसके साथियो के सामने यह आकाक्षा भी 'मसूदी ने,जो दसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में दक्षिण भारत में पाया था, मलावार के एक ही नगर में दस हजार मुसलमानो को बसे हुए पाया। अदुलफ मुहाल्हिल इन्न सईद व मार्को पोलो ने भी इसी प्रकार का वर्णन किया है। इन्न बतूता ने चौदहवीं शताब्दी में समस्त मलावार-प्रदेश को मुसलमानो से भरा हुआ पाया। उसने स्थान-स्थान पर उनकी बस्तियां व मस्जिदो के होने का जिक्र किया है। -इलियट और डॉसन, पहला भाग 'लोगन · मलावार, श्ला भाग, पृ० २४५ 'सुन्दर पाडय के शासन काल में तक़ीउद्दीन को मन्त्रित्व का भार सौंपा गया और कई पीढियों तक यह पद उसी के कुटुम्ब में रहा। -इलियट और डॉसन, तीसरा भाग 'इन्न दतूता ने इस घटना का जिक्र किया है। "विस्तृत अध्ययन के लिए देखिए Tarachand Influence of Islam on Indian Culture Habib Mahmud of Ghazni Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो महान संस्कृतियो का समन्वय २२१ नहीं थी। मध्य एशिया में उनके लिए कोई स्थान नहीं रह गया था। यहां की उस समय की राजनैतिक दुरवस्या का लाभ उठाकर वे लोग यहां बस रहना चाहते थे। इन विजेताओं में न तो इम्लाम को समझने की शक्ति थी, न उसे फैलाने का जोग । स्वभावत ही उनके साथ इस्लाम जिम रूप में हिन्दुस्तान में आया, वह उसके उम रूप से बहुत भिन्न था, जो दक्षिण भारत के रहने वालो ने-अरव व्यापारियो के विश्वास में देखा था। इस्लाम का यह रूप हज़रत महम्मद माहिव के शिक्षण और प्रारम्भिक खलीफाओ के जीवन मे विलकुल भिन्न था-दोनो के बीच कई शताब्दियां का अन्तर था-शताब्दियां जिन्होने इस्लाम के इतिहास में कई उतार-चढाव देखे थे, उमय्यद-काल की प्रचडना और अब्बासी-काल का वैभव, मभ्य ईरान की वार्मिक कट्टरना और वर्वर मगोलो की पाशविक रक्त-पिपासा। यही कारण था कि उत्तरी भारत में हिन्दू और मुस्लिम सस्कृतियां एक माय, विना किमी व्यवधान के, बहुत निकट सम्पर्क में नया मकी। हिन्दू, राजनैतिक मगठन की कमी के कारण मुसलमानों की विजय के पथ में तो कोई वडी रुकावटें खडी नहीं कर सके, पर उनकी वर्वरता और धार्मिक असहिष्णुता मे खीझ कर उन्होंने अपने धार्मिक और मामाजिक जीवन के चारों ओर एक मजबूत किलेबन्दी कर ली। मुमलमान देश को जीत सकते थे, पर उमके निवासियों के मामाजिक जीवन में उनका प्रवेश विलकुल निपिद्ध था। वह हमारे खान-पान और विवाह-सम्बन्वो मे वहिप्कृत थे। यह पहला मौका था जव हिन्दू समाज ने अपने चारो ओर निषेध की इतनी मजबूत दीवारें बडी कर ली थीं। इसके पहले सदा ही वाहर वालो के लिए उनके द्वार खुले रहा करते थे। दूसरी ओर भी यह पहला ही अवमर था जव मुमलमानो ने किसी देश पर विजय प्राप्त की थी, पर वे उसके मामाजिक जीवन में इस प्रकार अलहदा फेंक दिये गये थे। कुछ ऐतिहामिक परिस्थितियों ने, जो बहुत कम दिन टिक सकी, सामाजिक असहयोग की इस भावना को मजबूत बनाया । मुसलमान बहुत थोडी मख्या में इस देश में आये थे। थोडे ही दिनो में वह अांधी की तरह चारो ओर फैल गये थे और महासागर में दूर-दूर फैले हुए द्वीपो के ममान उन्होने अपने छोटे-छोटे राज्य खडे कर लिये थे। जनता के मगठित तिरस्कार के सामने उनके लिए भी यह जरूरी हो गया कि वे मुस्लिम समाज के सभी तत्त्वो और विवाह-सम्बन्वो से उन्हें वहिप्कृत त्तीऔर विवाह-सम्बन्वो से उन्हे वहिप्कृत करें। यह पहला मौका था जव हिन्द-समाज ने अपने चारोमोर नामाजिक वहिष्कार की इननी मजबूत शृखलाएं गढना आरम्भ की। इसके पहले सदा ही बाहर वालो के लिए उनके द्वार खुले रहा करते थे। दूसरी ओर भी, यह पहलाही अवसर था, जब मुसलमान किमी देश में घुस तो पडे, पर उसके मामाजिक जीवन में लेग-मात्र भी प्रभाव न डाल सके। कुछ ऐतिहासिक परिस्थितियो ने इस सामाजिक भावना को दृढ वनाया। मुसलमान आंवी की तरह समस्त उत्तरी हिन्दुस्तान में फैल तो गये थे, पर मख्या की दृष्टि अमहयोग की से उनकी स्थिति ऐमीही थी जैमे कि एक महासागर में फैले हुए छोटे-छोटे द्वीपो की होती है। इसलिए हिन्दुनो के सामाजिक वहिप्कार के सामने, उनके लिए भी यह जरूरी हुआ कि वह अपना सगठन मजबूत बनाएँ। इमी कारण हम मुस्लिम समाज के कई तत्त्वो, गासक वर्ग, वार्मिक नेतागो और मुस्लिम मतानुयायियो को एक दूसरे के बहुत निकट सम्पर्क में आते हुए पाते है। पर यह स्थिति अप्राकृतिक थी और अधिक दिनो तक टिक नहीं सकती थी। दो जीवित, जाग्रत, उन्नतिशील समाज इतना नज़दीक रहकर एक दूसरे के सम्पर्क मे अपने को बचा नहीं सकते थे। इसी कारण हम देखते है कि इल्तुनमिग ने मुसलमानो के आन्तरिक मगठन की जिम नीति की नीव डाली थी और जिसके प्रावार पर ही वह उत्तरी भारत में मुस्लिम-माम्राज्य की स्थापना कर सका था, वह उसकी मृत्यु के बाद कुछ दिनो भी टिक न सकी। वलवन ने उसकी उपेक्षा की, अलाउद्दीन खिलजी ने धर्म और राजनीति के भेद को अधिक स्पष्ट किया और मुहम्मद तुग़लक ने एक विरोवी नोति को विकाम की चरम-मीमा तक पहुंचा दिया। इस मकुचित नीति के टूट जाने का कारण स्पष्ट या। मुमलमान-विजेताओं के माथ-माथ, उनके पीछे-पीछे, कमी उनके पाश्रय में और कभी स्वाधीन रूप से, मुसलमान वर्म-प्रचारको को एक अनवरत शृखला भी इस देश में दाखिल होती रही। आज जो हम अपने देश की आवादी का चतुर्याश इस्लाम के अनुयायियों को पाते है, उसका कारण इन प्रचारको का प्रयत्न है, न कि मुसलमान शासको की Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ २२२ जवर्दस्ती।* दसवी शताब्दी मे मसूर अल हल्लाज, ग्यारहवी में वावारीहान और उनके दर्वेशो का दल, शेख इन्माइल वुबारी और वारहवी में फरीदुद्दीन अत्तार और तजाकिरत-उल-औलिया तेरहवी मे त्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती और शेख जलालुद्दोन तवरेजी, नैयद जलालुद्दीन बुखारी और वावा फरीद, चौदहवी मे अब्दुल करीम अल्जीलो-और इनके साथ और असत्य छोटे-मोटे प्रचारक-इन सबका एक तांता-सा बन गया। उनके तेजस्वी व्यक्तित्व और आकर्षक प्रचार ने असख्य हिन्दुओ को अपनी ओर आकर्षित किया। दोनो समाजो का आपनी सम्पर्क दृढ से दृढ़तर होता गया । व्यवधान की प्राचीरे एक-एक करके ढह चली। ___सामाजिक सहयोग यहाँ हमें इन वात को भी भुला नहीं देना है कि जो मुसलमान वाहर से इस देश में पाये उनमे वे लोग नही थे, जिन्होने पैगम्बर मे अथवा प्रारम्भिक खलीफागो के नेतृत्व में इस्लाम का झडा दूर-दूर देशो मे गाडा था और जिनकी आत्मा एक महान् आदर्श से प्रज्वलित हो उठी थी, बल्कि वे लोग थे जिनके नामने कोई वडा आदर्श नहीं था, जो भिन्नभिन्न फिरको में बंटे हुए थे और जिन्हें लूट-मार की भावना ने प्रेरित कुछ स्वार्थी नेताओं ने भिन्न-भिन्न देशो ने बटोर लिया था। विजय का मद उनमे था, पर वह कब तक टिक पाता ? धार्मिक प्रचारक केवल धम का सन्देश लाये थे। सामाजिक संगठन की विभिन्नता को सुरक्षित रखने पर उनका आग्रह नहीं था। उनके प्रभाव में जिन लावो व्यक्तियो ने इस्लाम को दीक्षा लो, उन्हें उम नमाज-व्यवस्था को तनिक भी जानकारी नहीं थी, जिमका निर्माण मुसलमानो ने हिन्दुस्तान के बाहर के देशो में किया था। ऐसी परिस्थिति में वही हुआ जो कि स्वाभाविक था। मुसलमान धर्म के द्वारा इस देश की ननातन परम्परा से पलहदा हो गये, पर उन्होने न तो इस देश की नमाज-व्यवस्था को नष्ट-भ्रष्ट करने को चेष्टा को और न उसके मुकाविले मे किसी अन्य समाज-व्यवस्था का निर्माण किया। हिन्दू-मन्याएं कायम रही और घोरे-धोरे मुसलमान उन्हें स्वीकृत करते गये। इस प्रकार यामीण अर्थ-व्यवस्था की छत्रछाया मे एक नये समाज का निर्माण हुआ, जिनमे विभिन्न मतावलम्बी तो थे, पर जो एक ही समाज-व्यवस्था को मानते थे। दशहरो मे मगठन को दिया कुछ भिन्न यो, पर वहां भी हिन्दू और मुसलमान वाणिज्य और व्यापार के डोरो द्वारा एक दूसरे ने बंधते गये। गासन-व्यवस्था में भी हिन्दू पदाधिकारियो की सख्या वढने लगी। चारो ओर सहयोग, साह्वर्य और नौहार्द्र की भावना ने जोर पकडा। जो वर्वर विजेता के रूप में आये थे, वे हमारे सामाजिक जीवन के एक अग वन गये। केवल एक चीज़ व्यवधान बनकर उनके बीच में जडी रह गई थी। वह था उनका धार्मिक मतभेद, पर धर्म धोरे-धीरे व्यक्ति के विश्वास और प्राचार की वस्तु बन गया। हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के धार्मिक प्रचार और व्यवहार के प्रति सहिष्णु बन गये और मामाजिक घरातल पर उन्होने एक दूसरे के धार्मिक कृत्यो मे भी उदारता से भाग लेना आरम्भ कर दिया। धार्मिक सहिष्णुता सामाजिक सहयोग के साथ-साथ धार्मिक सहिष्णुता की भावना भी प्रवल होती चली। ऊपर से देखने से तो यह जान पडता है कि मूत्ति-पूजक हिन्दू-धर्म और मूत्ति-भजक इस्लाम मे कही तादात्म्य हैही नहीं, पर कई शताब्दियो पहले से वौद्ध धर्म और हिन्दू वेदान्त के प्रचारक मुस्लिम देशो में फैल गये थे और सूफी मत के विकास पर उनका प्रभाव स्पष्ट ही पड रहा था, यद्यपि यह भी सच है कि सूफी सिद्धान्तो की बुनियाद हमे कुरान-शरीफ की कुछ आस्तो में ही मिल जाती है । सूफो-मत के वाद के सिद्धान्तो पर हिन्दू-दर्शन का प्रभाव पड़ा। निर्वाण, साधना, भोग आदि ने ही फना, तरीका, मराक़वा का रूप ले लिया। दूसरी ओर इस्लाम के सिद्धान्तो का बहुत वडा प्रभाव हिन्दू-दर्शन पर भी पड़ा । सुवार को नई धारा का प्रारम्भ दक्षिण-भारत से ही हुआ था, जहां हिन्दू-दर्शन पहली बार इस्लाम *T W. Arnold Preaching of Islam . Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो महान सस्कृतियो का समन्वय २२३ के मिद्धान्तों के सम्पर्क में आया था। दक्षिण-भारत में ही बौद्ध और जैन धर्मों के रूखे अध्यात्म की प्रतिक्रिया के रूप में गव और वैष्णव पन्यो का प्रारम्भ हुआ। इनका आग्रह प्रारम्भ मे ही जीवन के उपासना-पक्ष पर था। उपासना के आधार के लिए मगुण-ब्रह्म की आवश्यकता पडी। यह कहना कठिन है कि सगुण-ब्रह्म की कल्पना के पीछे इस्लाम के नये सिद्धान्तो का प्रभाव कितना था, पर गकराचार्य के अध्यात्म-दर्शन पर इस्लाम का प्रभाव, जो उनकी जन्म-भूमि के आसपाम पूरे जोर पर था, बिलकुल भी नही पदा, यह मानना भी आसान नहीं है। मध्य-काल का हिन्दू-दर्शन ज्योज्या विकाम पाता गया, इम्लाम का प्रभाव उस पर अधिक स्पष्ट होता गया। शकराचार्य के अद्वैतवाद ने धीरे-धीरे गमानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत का रूप लिया, और तब वह वल्लभाचार्य के द्वैतवाद में विकसित हुया । द्वैतवाद की मनोरम कल्पना के पीछे मे, सूफी-मत के अधिक सीधे सम्पर्क के परिणाम स्वरूप, भक्ति की धारा का फूट निकलना तो महज-स्वाभाविक ही था। उत्तरी-भारत में तेरहवी, चौदहवी और पन्द्रहवी शताब्दियों में जो सिद्धान्त फैले उन पर तो मुस्लिम प्रभाव बहुत सीधा ही पड रहा था। गमानन्द ने विष्णु की कल्पना को और भी महज-सुलभ बनाकर राम का रूप दिया। उन्होंने भक्ति की दीक्षा चारी वर्गों को दी। कबीर ने तो रीति-रिवाज और जात-पात को उठा कर एक ओर रख दिया और राम और रहीम की एकता पर पूरा जोर दिया। उनके मिद्धान्तो पर तो मौलाना स्मी, शेख सादी और दूसरे मूफी कवियों और मन्ती का प्रभाव बहुत स्पष्ट है। नानक और दादू की माखियो मे हिन्दू और मुसलमान धमों के मामजन्य के इस प्रयत्न को हम और भी बढा हुआ पाते है। नानक तो सूफी-रग में इतने रंग गये थे कि यह कहना कठिन हो जाता है कि हिन्दू-धर्म का उन पर कितना प्रभाव था। वैदिक और पौराणिक सिद्धान्तो की उन्हे कम ही जानकारी थी। दादू का भी यही हाल था। दो-तीन गताब्दियों तक देश भक्ति की उत्ताल तरगो मे एक नई प्रेरणा से न्पन्दित-विभोनित होकर इवता-उतराता रहा । हिन्दुप्रो में भक्ति-आन्दोलन अपने पूरे जोर पर था और मुसलमानों में मूफियो की नई-नई जमातें, चिश्ती, सुहरावर्दी, नक्शवन्दी आदि 'प्रेम की पीर' का प्रचार कर म्ही यो। भावना के इम व्यापक प्रदेश में हिन्दू और मुमलमानो का एक दूसरे के समीप से समीपतर आते जाना स्वाभाविक ही था। उससे भी नीचे नर पर, जहां माधारण जनता के आचार-विचार, रीति-रिवाज, पीर-पूजा और मानता-मनौती का सम्बन्ध था, हिन्दू और मुमलमानो में भेद करना असम्भव ही था। एक ही पीर या साचुकी परस्तिम-गाह पर हिन्दू और मुसलमान मभी इकट्ठा होते थे। राजनैतिक समझौता हृदय की इम एकता के आधार पर राजनैतिक समझौते की भावना का विकास पाना भी सहज और स्वाभाविक ही था। यह एक ऐतिहासिक मत्य है कि भारतीय इतिहास के समस्त मुस्लिम-काल मे, केवल दो मुसलमान-गामक, फाराज तुग्रनक और पोरगजेब, ऐसे हुए है जिन्होने अपने गामन-काल में धार्मिक असहिष्णुता की नीति का पालन किया, और वह भी थोडे वर्षों के लिए और विशेप राजनैतिक परिस्थितियों के कारण। अन्य शासको ने, और इन दोनो गामका ने भी, अपने गासन-काल के शेप भाग में धार्मिक मामलो में हस्तक्षेप न करने की नीति का ही पालन किया। धन इस्लाम का पक्ष लिया, पर हिन्दू-धर्म के साथ दुर्भावना नहीं रक्खी। अकबर के बहुत पहले कश्मीर का सुल्तान विदान अपनी धार्मिक महिप्णता की नीति के लिए प्रसिद्ध था। उसने जजिया हटा दिया और सस्कृत क कई अन्यो का फारसी में अनुवाद किया । वगाल में अलाउद्दीन हुसैन शाह की भी वही नीति रही। शेरशाह हिन्दू जनता म वक्फ वांटा करता था। सम्राट अकबर के शासनकाल में यह प्रवृत्ति अपनी चरमसीमा तक जा पहुंची। गल सम्राटी ने समस्त गासन का सगठन जिन सिद्धान्तो पर किया वे भारतीय पहले थे, सैरेसेनिक, ईरानी या मुस्लिम वाद मे । मस्थानो मे थोडा हेर-फेर हया, पर मलत वे वही रही जो सनातन काल से चली आ रही थी। वामिक महिष्णुता की नीति ने भारतवर्ष के मम्लिम शामन मे धर्म का स्थान ले लिया था। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ प्रेमी-अभिनदन-प्रय धार्मिक सहिष्णुता की इस नीति का ही यह परिणाम था कि मुस्लिम-शासन इस देन मे इतना अधिक लोकप्रिय होगया कि मुगल साम्राज्य के पतन के डेढ सौवरत के वाद भी, १८५७ के गदर में, मुगल-वग के ही किसी उत्तराधिकारी को समस्त देश का भासक बनाने का प्रयत्न किया गया। वीच में भी लगातार इस प्रकार के प्रयत्न चलते रहे। उत्तर भारत में १७७२ से १७९४ तक महादाजी सिन्धिया का आधिपत्य रहा, पर अपने शासन के लिए नैतिक बल प्राप्त कराने की दृष्टि ने उसके लिए यह आवश्यक हुया कि वह मुग़ल-वग के माह आलम को अग्रेजो की कैद से छडा कर दिल्ली की गद्दी परविठाए और जवगुलाम कादिर के द्वारा गाह पालम की प्रांखें फोड दी गई तव भी तो महादाजी उने शाहगाहे आलम मानता न्हा । सच तो यह है कि हिन्दू और मुसलमानो के नौ सौ वर्षों के नम्पर्क मे यद्यपि राजनैतिक क्षेत्र में काफी सघर्ष रहा, पर उस सघर्ष ने कभी, धार्मिक अथवा नास्कृतिक सावार लेकर, साम्प्रदायिक सघर्ष का रूप नहीं लिया। चौदहवी और पन्द्रहवी शताब्दियो मे मध्य-भारत में, गुजरात, मेवाड और मालवा में लगातार सघर्ष रहा, पर इनमे गुजरात के सुल्तान प्राय उतनी ही वार मेवाड के राणा के पक्ष मे, और मालवा के सुल्तान के खिलाफ लडे, जितनी बार वह मालवा के सुल्तान के पक्ष मे, मेवाड के राणा के जिलाफ, लडे । वावर और हुमायू ने, पठानो के खिलाफ, राजपूतो का साथ दिया। मुग़ल-माम्राज्य के पतन के बाद भी निजाम मराग-नानाज्य के अन्तर्गत था, न कि मैसूर के सुल्तान के साथ और राजपूतो की सहानुभूति मराठो के नाप कम और रुहेलो के साथ ज्यादा रही। यह एक ऐतिहानिक नत्य है कि बीसवीं शताब्दी के पहले हिन्दू और मुनलमान कभी एक दूसरे के खिलाफ धार्मिक अथवा साम्प्रदायिक मतभेद के आधार पर नहीं लडे थे। सास्कृतिक समन्वय राजनैतिक एकता का सहारा लेकर सास्कृतिक समन्वय की स्थापना हुई। इस प्रवृत्ति का प्रारम्भ तो एक सामान्य भाषा की उत्पत्ति के साथ ही हो चुका था। हिन्दी ब्रजभाषा और फारसी के सम्मिश्रण का परिणाम थी। उसका शब्दकोष, वाक्य-विन्यास, व्याकरण, सभी दोनो भाषायो की सामान्य देन है। हिन्दू और मुसलमान दोनो ने इस भाषा को धनी बनाया। अमीर खुसरो हिन्दी भी उतनीही धाराप्रवाह लिखनकताथा जितना फारसी। अकवर ने उसे प्रोत्साहन दिया। खानखाना, रसखान और जायसी, हिन्दी साहित्य के गौरव है। जायनी तो मध्य-कालीन हिदी के तीन सर्वश्रेष्ठ लेखको में है और हृदय की सूक्ष्मतम भावनाओ की अभिव्यक्ति में कई स्थलो पर तुलती और नूर से भी वाजी मार ले गये हैं। अन्य प्रान्तीय भाषाओ, मराठी, बंगला, गुजराती, सिन्धी आदि पर भी मुसलमानो का प्रभाव उतना ही पूर्ण पडा । मराठी तो वहमनी-वश के सरक्षण में ही माहित्यिकता की सतह तक उठ सकी। बंगला का विकास भी मुस्लिम-गासन की स्थापना के परिणामस्वरूप ही हुआ। दिनेशचन्द्र सेन का मत है कि “यदि हिन्दू मामक स्वाधीन बने रहते तो (सस्कृत के प्रति उनका अधिक ध्यान होने के कारण) बंगला को गाही दरवार तक पहुंचने का मौका कभी नहीं मिलता।" सास्कृतिक समन्वय की यह प्रवृत्ति वास्तुकला और चित्र-कला के क्षेत्रो में अपनी चरम-सीमा तक पहुंची है। मुस्लिम वान्नुकला का सर्वोच्च विकास इसी देश में हुआ। काहिरा की मस्जिदो में भी फैज़ पाशा के शब्दो में “कला की सम्पूर्ण मनोरमता नहीं है । सामंजस्य, अभिव्यक्ति, सजावट, सभी मे एक ऐसी अपूर्णता है, जो अधिकाश उत्तरी आलोचको का ध्यान वरवस अपनी ओर खीचती है।" ईरान की मुस्लिम कला में भी हम यही वात-भव्य मजावट और वैज्ञानिक कौशल का अभाव-पाते है। ताजमहल हिन्दुस्तान में मुस्लिम वास्तुकला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है, परन्तु वह ससार की अन्य इस्लामी इमारतो से विलकुल भिन्न है। उसके निर्माण में हिन्दू शिल्प-शास्त्रो के सिद्धान्तो का अधिक पालन किया गया है। बीच मे एक वडा गुम्बद और उसके आसपास चार छोटे-छोटे गुम्बद देखकर पचरत्न की कल्पना का स्मरण हो आता है। गुम्वदो की जडो में कमल की खुली हुई पखडियां है जो मानो गुम्बद को धारण किये हुए हैं। शिखर के समीप कमल की उल्टी पखड़ियां है। शिखर के ऊपर त्रिशूल है। हैवल ने Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्य विभाग मोराय ( देवगढ) विष्णुमदिर का प्रवेश-द्वार E sya . . --. " 1 tr" - - 34 - HTML - पा 31Hnde । " ... . M .FER, P awrechinethament S " atire २ kommmmmunimate , - - --- • - mtarpramaneumonial - i n tE-TA . . 'A' . . . 1.1 4 1 .alisa . प Y Sax - 10. Fund R aj . . .. ar hrPAL S Page #251 --------------------------------------------------------------------------  Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो महान संस्कृतियो का समन्वय २२५ ठीक ही लिखा है कि सेटपाल का गिरजा और वैस्टमिन्स्टर एवे अग्रेजी कला के उतने सच्चे नमूने नही है जितना ताज हिन्दुस्तानी कला का । लेकिन हैवल के इस मत से मै महमत नही हूँ कि हिन्दुस्तान में मुस्लिम वास्तुकला इस कारण ही महान हो सकी कि उसका विकाम उन हिन्दू कारीगरी के हाथी हुआ जो हिन्दू-संस्कृति मे डूबे हुए थे । इस देश में आने के पहले ही मुसलमान इस क्षेत्र में बहुत महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त कर चुके थे । मुस्लिम काल की भारतीय वास्तुकल। के पीछे इस्लामी प्रेरणा भी उतनी ही प्रवल है जितना हिन्दू प्रभाव । यह मुस्लिम प्रेरणा का ही परिणाम था कि उनके शासनकाल में वास्तुकला का इतना विकास हो सका । सर जॉन मार्शल का मत है कि पुरानी दिल्ली की कुव्वनुल इस्लाम मस्जिद और ताज के पवित्र और भव्य मकवरे की कल्पना मुस्लिम प्रभाव के विना नही की जा सकती । भारत की मुस्लिम कला की महानता इसी में है कि वह दो महान् सस्कृतियों के सम्मिश्रण का परिणाम है । चित्रकला के क्षेत्र में भी हम यही बात पाते हैं। मुगल चित्रकारो के सामने एक ओर तो अजन्ता की पद्धति थी, दूमरी थोर समरकन्द और हिरात, इस्सहान श्रीर वग़दाद के चित्रकारो की कृतियाँ थीं। दोनो के समन्वय से मुग़ल-कला का जन्म हुआ । अजन्ता की कला में एक विचित्र जीवन-शक्ति थी । समरकन्द और हिरात की कला में समन्वर, मन्तुलन और सामजस्य की भावना प्रमुख थी । दोनी के मिश्रण में जहाँ एक ओर दोनों की मूल प्रेरणाओ को कुछ क्षति पहुँची, वहाँ रग का रूप और रेखा की सवेदनशीलता निखर उठी । * शाहजहाँ के प्रमुख चित्रकारों में हमें एक ओर तो कल्याणदान, अनूप चतर और मनोहर के नाम मिलते है और दूसरी ओर मुहम्मद नादिर ममरक़न्दी मीर हाशिम और मुहम्मद फक़ीरुल्ला खां के । हिन्दू और मुसलमान कलाकारो ने मिलकर मुगल- चित्रकला को जन्म दिया था। डॉ० कुमारस्वामी और कुछ अन्य लेखको ने मुग़ल और राजपूत कलाओ में कुछ मूलभूत भेद बताने की चेष्टा की है, पर गहराई मे देखा जाये तो राजपूत कला, एक विभिन्न वातावरण में, मुग़ल-कला के सिद्धान्तो के प्रयोग का ही उदाहरण है । सत्रहवी शताब्दी मतभेद का प्रारभ हिन्दू और मुस्लिम सस्कृतियो मे सहयोग और समन्वय की जो प्रवृत्ति शताव्दियो की सीमाओ को लांघती हु दृढ़तर होती जा रही थी, सनहवी शताब्दी मे उसमे एक गहरी ठेस पहुँची । एक ओर तो कवीर, दादू और दूसरे सन्तों की वाणी द्वारा रूढिप्रियता और कट्टरता पर जो श्राक्रमण किया जा रहा था और दूसरी ओर भक्ति के आवेग में जो उच्छृङ्खलता फैलती जा रही थी, उसका प्रभाव सामाजिक सगठन पर अच्छा नही पड रहा था । इसकी प्रतिक्रियास्वरूप समाज की मर्यादा पर जोर देने वाले विचारक हमारे सामने याये । महाराष्ट्र के सन्तो का जोर समाज की मर्यादाओं को तोड फेंकने पर नही था, परन्तु उसमें रहते हुए सुधार करते रहने पर था। तुलसीदास और उनका रामचरितमानस तो सामाजिक उच्छृङ्खलता की प्रतिक्रिया के मानो प्रतीक ही है । धर्म का श्रावार लेकर समाज में सुबार करने की जो प्रवृत्ति बढती जा रही थी, उनका राजनैतिक स्तर पर आ जाना सहज-स्वाभाविक इसलिए था कि मुस्लिम शासन उन उदार प्रवृत्तियों के साथ, जिनका विरोध किया जा रहा था, इतना अधिक सम्वद्ध हो गया था कि उन्हें एक दूसरे से अलग नही कियी जा सकता था। इसी कारण मराठो और बुन्देलो, राजपूतो और सिखो में जो नई धार्मिक और सामाजिक प्रवृत्तियाँ जन्म ले रही थी, वे प्रवल होते ही मुगल साम्राज्य से जा टकराई । हिन्दू समाज में उत्तरोत्तर वढती हुई इन प्रवृत्तियो ने मुगल साम्राज्य को एक अजीव उलझन में डाल दिया । श्रवतक उमे हिन्दुओ का पूरा महयोग मिल रहा था, पर अब वे उससे न केवल कुछ खिच से चले, अपितु उन्होने अपने स्वतन्त्र राज्यों की स्थापना करना प्रारम्भ किया । इसकी प्रतिक्रिया यह हुई कि मुग़ल शासन में मुसलमानो का एक ऐमा दल उठ खडा हुग्रा जिसने उसे कट्टर मुसलमानो की सस्था बनाने का प्रयत्न किया। इस विचार धारा का आरम्भ *P Brown Indian Painting २६ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ प्रेमी - अभिनंदन ग्रंथ तो जहाँगीर के शासन काल में ही हो चुका था, पर शाहजहाँ के कमजोर शासन में उसे अपना सगठन करने का अवसर मिल गया । शाहजहाँ के जीवन के अन्तिम वर्षों में उसके योग्य पुत्र श्रोरगजेव ने इस दल का नेतृत्व अपने हाथो में लिया । औरगजेब कट्टर मुसलमान तो था ही, शासन के अनुभव और योग्यता मे भी अपने सव भाइयो से अधिक बढा-चढा था । गद्दी पर बैठने के बाद कुछ वर्षों तक औरगजेव ने हिन्दू स्वत्वो का विरोध न करते हुए इसलाम के सिद्धान्तो पर शासन का पुनर्निर्माण करने की चेष्टा की, पर विचारो का वेग श्रोर उसके जोर में घटनाओ का चक्र, इतनी तेजी से चल रहा था कि औरगजेव इस कठिन सिद्धान्त का अधिक दिनो तक पोलन न कर सका । ज्यो-ज्यो मराठो और सिखो का सगठित विशेष अधिक तीव्र होता गया, औरगजेब को विवश होकर हिन्दू-विरोधी नीति का पालन करना पडा । जजिया फिर से लगा दिया गया । हिन्दू-मन्दिर तोडे जाने लगे । परिस्थितियो ने मुस्लिमशासन को फिर एक बार उसी स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया था, जहां से उसका प्रारम्भ हुआ था । उसने फिर एक कट्टर मुसलमानो की सस्था का रूप ले लिया था । इस सम्बन्ध में कई बातें ध्यान में रखना जरूरी है। मुस्लिम शासन को भारतीय जीवन धारा से अलहदा कर लेने का यह प्रयत्न बहुत थोडे मुसलमानो तक और केवल राजनैतिक क्षेत्र तक ही सीमित था । वह एक गलत श्रीर अस्वाभाविक प्रयत्न था, इसमें तो शक ही नही। इसी कारण हम यह देखते है कि १७०७ ई० मे श्रोरगजेव की मृत्यु होने के साथ ही इस प्रयत्न का भी अन्त हो गया। भारतीय जीवन की दो प्रमुख धाराएँ हिन्दू और मुसलमान, फिर एक दूसरे के साथ-साथ वह चली। औरगजेव के उत्तराधिकारियो के लिए हिन्दू जनता का समर्थन प्राप्त कर लेना जरूरी हो गया। शासन को फिर उदारता की नीति वरतनी पडी। पर इस बीच हिन्दू और मुसलमान समाजो की विभिन्नता बहुत स्पष्ट हो गई थी । हिन्दी और उर्दू के अलहदा हो जाने से इस प्रवृत्ति को और भी सहारा मिला। इसी बीच कुछ कारण ऐसे हुए जिन के परिणाम स्वरूप मुस्लिम समाज पतन की ओर बढ चला। बाहर के मुस्लिम जगत का सम्पर्क बिल्कुल समाप्त हो चुका था। ईरान के सफवी राजवंश के पतन के वाद ईरानी सभ्यता भी पतन की ओर बढ रही थी। इस कारण उस से प्रेरणा पाना भी सम्भव नही रह गया था । निम्न श्रेणियो के हिन्दुओ का अधिक सख्या में मुसलमान हो जाने का भी अच्छा असर नही पड रहा था। मुसलमानो में गरीबी और शिक्षा का प्रभाव दोनो वढ रहे थे। राजनैतिक सत्ता हाथो से जा रही थी। सभव है कि मुग़ल साम्राज्य यदि अपने प्राचीन वल और वैभव को प्राप्त कर पाता तो दोनो सस्कृतियों के समन्वय की धारा एक बार फिर अपने प्रवल वेग से वह निकलती, पर राजनैतिक परिस्थितियाँ प्रतिकूल थी। जो तार एक वार टूटा वह फिर जुड़ न सका। पर यह सोचना कि धक्का बहुत गहरा अथवा साघातिक लगा, इतिहास की सचाई को ठुकराना है। समाज के अन्तराल में शताब्दियों में जिस समन्वय की जड जम चुकी थी, वह आसानी से उखाड़ कर फेंकी नही जा सकती थी। डा० वेनी प्रसाद के शब्दों में, "निकट भूतकाल के अनुभव भुलाए नही जा सके, हिन्दू-मुस्लिम-संस्कृति का जो ढाँचा पाँच शताब्दियो के ज्ञात अथवा अज्ञात सहयोग प्रयत्नो द्वारा बनाया गया था वह न सिर्फ क़ायम ही रहा, और मजबूत बना। वह कडी से कडी परीक्षा में खरा उतर चुका था और देश की पूंजी का वन चुका था।"* अग्रेजी शासन का प्रभाव पतन और अनिश्चय की उस सक्रमण घडी में अग्रेज़ इस देश में आए। वे अपने साथ एक नई सभ्यता लाए थे, हिन्दू-समाज जो पतनोन्मुख तो था, पर मुस्लिम समाज जितना गिरा हुआ नही था, पश्चिम के नए विचारो के सम्पर्क से पुनर्जीवित हो उठा। इस काल के बगाल के हिन्दू युवको में हम पश्चिम के कला और विज्ञान, सभ्यता और सस्कृति से अधिक-से-अधिक सीख लेने की प्रवृत्ति को अपने पूरे वेग पर पाते हैं। ईसाई मिशनरियो द्वारा खोले गए स्कूल और छात्रा * Beni Prasad • Hindu Muslim Questions Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो महान सस्कृतियों का समन्वय २२७ वासों, कम्पनी के नौकरी के लिए खोले गए फोर्ट विलियम कॉलेज व शेलवर्न, डेरोजियो आदि विदेशी शिक्षको के सपों के परिणाम स्वरूप हिन्दू समाज मे जीवन और जाग्रति की एक नई चेतना लहर उठी । अग्नेजी तहजीव के प्रति मुसलमानो का दृष्टि-कोण विल्कुल भिन्न था। उनमें कट्टरता की मात्रा बढी हुई थी। सैकडो वर्ष तक इस देश पर शासन करने के मद को वे भूले नही थे। उनके लिए गुलामी के नए तौक को स्वीकार कर लेना उतना आसान नही था। राज्य के वडे-बडे मोहदे उनके हाथ से चले ही गए थे। जो कला-कौशल उनके हाथ में थे, ईस्ट-इडिया कम्पनी की भारतीय उद्योग-धधो को खत्म कर देने की नीति से उन पर वडा धक्का लगा। अग्रेज़ी शासक भी उनके प्रति सशक ही थे। इन सब बातो का परिणाम यह हुआ कि काफी लम्बे अर्से तक मुसलमान अग्रेज़ी-सभ्यता से विमुख और अंग्रेजी-शासन से खिंचे रहे। इसी कारण हम देखते है कि एक ओर जहां हिन्दू समाज मे ब्रह्म-समाज, प्रार्थना-समाज आदि धार्मिक और सामाजिक प्रवृत्तियो ने जन्म लिया, जो पश्चिम की सभ्यता के अच्छे गुण ले लेने के पक्ष में थी, मुस्लिम समाज में फरजी और वहावी आदि आन्दोलन, जो मूलत अग्रेज़ी शासन के खिलाफ थे, फैले। मुसलमानो का अग्रेजी-शासन के प्रति क्या रुख था, इसका अच्छा परिचय हमें मिर्जा अबूतालिव की 'अग्रेज़ी अहद में हिन्दुस्तानी तमदुन की तारीख' में मिलता है। मुसलिम समाज में नई प्रवृत्तियो का सूत्रपात, हिन्दू-समाज के मुकाविले में, बहुत देर से हुआ। नवयुग और प्राचीन का पुननिर्माण नवीन जीवन की जो चेतना भारतीय समाज मे, चाहे वह हिन्दू हो अथवा मुसलमान, व्यापक होती जा रही थी, उसके दो पक्ष थे, जिन्हें कभी हम एक दूसरेसे मिलते हुए, कभी साथ-साथ विकसित होते हुए और कभी विरोध में पाते है। आधुनिक भारत का नया जीवन कुछ तो पश्चिम के प्रभाव में विकसित हुआ है, कुछ उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप। धार्मिक विचारो में, साहित्य में, चित्रकला में, सभी जगह एक विचार-धारा ऐसी पाते है जो पश्चिम के रग में डूबी हुई है और दूसरीजोभारतीय परम्पराकासीधा विकास है। राम मोहन पर, उपनिषदो में उनका दृढ विश्वास होते हुए भी, पश्चिमी • विचारोका गहरा प्रभाव स्पष्ट था। दूसरी ओर राधाकान्त देव और राम कोमल सेन कट्टर हिन्दू-सिद्धान्तो में विश्वास रखते थे। प्रेमचन्द ने आज की समस्याओ का विश्लेषण प्राज के ढग से किया है। जय शकर 'प्रसाद' की आँखों में प्राचीन के स्वप्न नाचा करते थे। वम्बई के चित्रकार पश्चिम से प्रेरणा प्राप्त करते है, बगाल की चित्रकला अजन्ता की भीतो से प्ररणा प्राप्त करती है, भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में, नवीनता का खुले हाथो स्वागत करने वाली और प्राचीनता के पुननिर्माण में व्यस्त ये दोनो प्रवृत्तियां एक साथ पाई जाती है, यद्यपि यह कहना गलत नही होगा कि हमारी राष्ट्रीयता को मुख्य आधार-भित्ति आज भीपापनिकताकी नीव पर उतनी स्थापित नहीं है, जितनी प्राचीनता के स्तम्भो पर। हिन्दू-समाज में जिन अनेक धार्मिक और सामाजिक सुधार-प्रवृत्तियो ने जन्म लिया, उनके पीछे प्राचीनता के पुननिर्माण को यह भावना स्पष्ट ही है। राम मोहन राय द्वारा १८२८ ई० में स्थापित किए जानेवाले ब्रह्म-समाज में हम इस भावना को पाते है। दयानन्द सरस्वती द्वारा १८७५ ई० मे प्रस्थापित आर्य-समाज का तो वह मूल-आधारही थी। आप समाज वेदो को ब्रह्म-वाक्य मानकर चला था। स्वामी दयानन्द ने स्मृतियो और पुराणो को उस हद तक अमान्य हराया जहाँ उनमें वेदो का विरोध पाया जाता था। आर्य समाज ने तो समस्त देश को एक बार आर्य-सस्कृति के भाडे तल ला खडा करने का महान् आयोजन किया था। उसमें से सभी विदेशीतत्वोको निकाल फेंकने का उनका निश्चय का आय-समाज हिन्दुस्तान में पश्चिमी सस्कृति के सघातक प्रभावको हटाना तो चाहता ही था, वह उसे एक हजार वरस के गहरे मुसलिम प्रभाव से भी आजाद करा लेना चाहता था। पॉल्कॉट की थियोसिफिकल सोसाइटी ने इस भावना को और भी पुष्ट किया। उसकी दष्टि में हर वस्तु और हर विचार जिसका विकास, इस देश में हुआ था, सुख शानिक और चिरन्तन सत्य था। यही भावना नए वेदान्त का समर्थन करने वाली सस्थामो द्वारा एक भोर सार सनातन धर्म महामण्डल आदि रूढिवादी सस्थानो द्वारा दूसरी ओर से, दृढ वनाई जाने लगी। सव जगह Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ प्रेमी-अभिनंदन-प्रय प्राचीनता की ओर लौटने की पुकार थी-बीच के अंधेरे युग को चीरते हुए प्राचीनता के स्वप्नो को आत्मसात् कर लेने की ललक। मुस्लिम समाज मे भी इसी प्रकार की प्रवृत्ति जोर पर थी। इस्लाम में भी एक विभिन्न वातावरण के प्रभाव और एक विभिन्न नेतृत्व में इसी प्रकार के प्रतिक्रियावादी आन्दोलन उठ खडे हुए। इसका प्राधार भी प्राचीन की ओर लौटने-कुरान, पैगम्बर और हदीस को स्वीकार करने पर था। इन 'कुरान की ओर लोटो' आन्दोलनो में, दिल्ली के शाह अब्दुल अजीज ने इस्लाम को उन अधविश्वासो और रूढियो से मुक्त करने का प्रयत्न किया जो उसने हिन्दू-समाज मे ली थी और प्राचीन इस्लाम के उन सिद्धान्तो का प्रचार करने की चेष्टा की जो पैगम्बर द्वारा निर्धारित किए गए थे। वरेली के सैयद अहमद ने हिन्दुस्तान को 'दारुल हर्व' करार दिया, जहां कि मुसलमानो को 'जिहाद' (पृथक धर्म-युद्ध) करते रहना आवश्यक था। इस प्रवृत्ति का नाम, 'तरीकए मोहम्मदिया' अथवा मुहम्मद के तरीके की ओर लोटना था। जौनपुर के शाह करामत अली इतने उग्र विचारो के नहीं थे, पर उन्होने भी प्रसस्य मुसलमानो को शुद्ध इस्लामी जीवन की ओर लौटने में बडी सहायता पहुंचाई। फरीदपुर के, हाजी गरीयतुल्ला ने फरदी-आन्दोलन को जन्म दिया, जो अर्द्ध-धार्मिक और अर्द्ध राजनैतिक था। उनके पुत्र दूधू मियाँ के नेतृत्व में यह आन्दोलन बहुत प्रवल हो गया था। अहले हदीस और मिर्जा गुलाम अहमद कादियानी के अनुयायियो में भी यही प्रवृत्ति काम कर रही थी। प्राचीन के पुननिर्माण की यह प्रवृत्ति प्रत्येक देश के नवयुग का एक मुस्य अग है। यूरुप में भी पन्द्रहवी शताब्दी में नए जीवन की जिस चेतना ने अपनी उत्ताल तरगो के प्रबल प्राघातो से मध्य-काल के ध्वस-चिन्हो को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला उमके पीछे भी ईसा के पहिले की यूनानी सभ्यता के जीर्णोद्धार का प्रयत्न काम कर रहा था। हिन्दुस्तान में भी इस प्रवृत्ति की उपस्थिति स्वाभाविक ही थी। जव कोई राष्ट्र निराशा के गढे में गिराहोता है, जब वर्तमान से उसका विश्वास उठ गया होता है तव प्राचीन महानता की स्मृति ही उसे भविष्य की नई आशागो और नए स्वप्नो को जानत करने में सहायक होती है। यह सच है कि ऐसी स्थिति मे कल्पना कभी-कभी इतनी प्रवल हो जाती है कि ऐतिहासिक सत्य उसकेतूफानी सत्य परनि सहाय-सा डूबने उतराने लगता है। दूर के तो बादल भी सुहावने लगते है, विशेषकर उस समय जव उसके पीछे से डूबते हुए सूरज की किरणे फूट निकलती है। हिन्दू और मुसलमान दोनो समाजो के लिए तोप्राचीन मे विश्वास रखने का यथेष्ट कारण भी था। इस प्रवृत्ति का परिणाम यह हुआ कि हमारे देश में हिन्दू और मुसलमान दोनो समाजो पर नवयुग की चेतना का प्रभाव दो विभिन्न रूपो में पडा। हिन्दुप्रोकी दृष्टि उम प्राचीन संस्कृति पर पडी जिसका विकास गगा और जमुना के किनारे,आर्य-ऋषियो द्वारा उन शताब्दियो में हुआ था जव भारतवर्षमुस्लिम सपर्क से विल्कुल अछूता था। दूसरी ओर मुसलमानो की दृष्टि उनकी अपनी प्राचीन सभ्यता की ओर गई, जिसका विकास अरव के मरुस्थल में, पैगम्बर और उनके साथी खलीफाओद्वारा हुअा था,और जो अपनी चरम सीमा का स्पर्श, और उसे पार कर चुकी थी, हिन्दुस्तान के सपर्क मे आने के शताब्दियो पहिले । वेदोनो भूल गए-जैसे किसी दूर की वस्तु को देखने को तल्लीनता और तन्मयता में कभी-कभी पास की वस्तु को भूल जाते है-कि उन दोनो ने इस देश के सैकडो वर्षों के सामान्य जीवन में और साथ में प्राप्त किए गए सुख और दुख के सहस्र-सहस्र अनुभवो मे एक महान् सामान्य सभ्यता का निर्माण किया था, सामान्य सामाजिक सस्थाओ और धर्म-सिद्धान्तो और कला और साहित्य की सामान्य पृष्ठ-भूमि पर जिसके लिए वे दोनो उतनाही गौरव अनुभव कर सकते थे, जितना किसी अन्य सभ्यता के सम्बन्ध में। मेरठ] Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ जैन अनुश्रुतियां और पुरातत्त्व श्री मोतीचन्द्र एम० ए०, पी-एच० डी० ( लदन) भारतीय इतिहास के विद्यार्थियो को ऐतिहासिक अनुश्रुतियो का महत्त्व भली भाँति विदित है । ब्राह्मण, वौद्ध और जैन अनुश्रुतियो से इतिहास के ऐसे धुंधले पहलुओ पर भी प्रकाश पडता है, जिनका पता भी पुरातत्त्व की खुदाइयो से अभी तक नहीं चला है । अशोक के पूर्व और बाद भी गुप्त काल तक पौराणिक अनुश्रुतियाँ हमें भिन्नभिन्न कुलो के राजाओ के नाम तथा उनके सम्बन्ध की और भी जानकारी की वातें बताती है । ई० की चौथी शताब्दी के वाद से लेकर हमे पुरातत्त्व की तरह-तरह की सामग्रियाँ इतिहास निर्माण के लिए मिलती है फिर भी रूखे इतिहा की कठोरता में सजीवता लाने के लिए हमे पुराणो तथा ऐतिहासिक काव्यो में वर्णित प्रासंगिक गाथाओ का सहारा भी लेना पडता है । पुरातत्त्व ही एक ऐसी विद्या है जिसके सहारे हम भारतवर्ष के रीति-रिवाज, रहन-सहन, व्यापार तथा भारतीय जीवन के और पहलुओ का भी क्रमबद्ध इतिहास निर्माण कर सकते हैं, पर दुख के साथ कहना पडता है कि सिन्ध और पजाब की प्रागैतिहासिक खुदाई को छोडकर, वैज्ञानिक अन्वेषण की ओर भारतीय पुरातत्त्व ने अभी नाम मात्र के लिए ही कदम उठाया है । ऐसी अवस्था में भी लाचार होकर हमें साहित्य की सहायता से ही समाज के इतिहास का ढाँचा खडा करना पडता है, यह ढाँचा चाहे सही हो या गलत, क्योकि अभी तक हम सदिग्ध रूप से अपने साहित्य के श्रमररत्नो का भी काल ठीक-ठीक निर्णय नही कर सके है । 1 ऐतिहासिक अनुश्रुतियो की खोज में पुराणो, काव्यो और नाटको की काफी छान-बीन की जा चुकी है । वौद्धसाहित्य के त्रिपिटक, अट्टकथाओ, महावस और दीघवस तथा संस्कृत वौद्ध साहित्य की और भी बहुत सी कथाओ से भारतीय इतिहास र पुरातत्त्व पर काफी प्रकाश डाला जा चुका है । क्या ही अच्छा होता कि हम जैन साहित्य के बारे में भी यही बात कह सकते । कुछ विदेशी विद्वानो ने जिनमें वेबर, याकोवी, लॉयमान तथा शुवरिंग मुख्य है जैन साहित्य का सर्वांगीण अध्ययन करने का प्रयत्न किया है, लेकिन जो कुछ भी काम अवतक हुआ है वह क्षेत्र की व्यापकता देखते हुए नही-सा है । विदेशी और भारतीय विद्वानो की कृपा से हम जैन-दर्शन और धर्म की रूप-रेखा से अवगत हो गये है, पर जैन-साहित्य में जो भारत के सास्कृतिक इतिहास का मसाला भरा पडा है उसकी ओर बिरलो ही का ध्यान गया है। अगर हम ध्यान से देखे तो इस उदासीनता का कारण अच्छी तरह सम्पादित जैन-प्रन्थो का अभाव है । न तो जैन आगमो में टिप्पणियाँ ही देख पडती है, न प्रस्तावनाएँ । अनुक्रमणिकाओं का तो सर्वथा अभाव रहता है । सम्प्रदाय विशेष के ग्रन्थ होने से सब को इनके मिलने मे भी वडी कठिनाई होती है, यहाँ तक कि बडे-बडे विश्वविद्यालयो के पुस्तकालयो में भी जैन-अग या छेद-सूत्र वडी कठिनता से ही प्राप्त होते है । इन कठिनाइयो के साथ-साथ भाषा का भी प्रश्न है । महाराष्ट्री प्राकृत जो जैन ग्रन्थो की भाषा है अक्सर लोगो के समझ में नही आती और बहुत से स्थल ऐसे श्राते है जो विशेष अध्ययन के विना समझ ही में नही आते। इन सब कठिनाइयो को ध्यान में रखते हुए विद्वानो ने जैन-शास्त्रो को जबतक उनके उपादेय सस्करण न निकल चुकें अलग ही छोड दिया है । लेकिन वास्तव में ऐसा करना नही चाहिए। अशुद्ध टीका श्रो, चूर्णियो और छेद-सूत्रों में भी हमे ऐसे मार्के की सामग्रियाँ मिलती है जो और कही उपलब्ध नही है । इन श्रनुश्रुतियो का महत्त्व, जैसा हम आगे चलकर देखेंगे, इसलिए श्रोर भी वढ जाता है कि वे पुरातत्त्व की बहुत सी खोजो पर प्रकाश डालकर उनकी ऐतिहासिक नीव को और भी मजबूत बनाती है । यहाँ यह भी प्रश्न उठता है कि ऐतिहासिक अनुश्रुतियो और पुरातत्त्व की खोजो का पारस्परिक सम्वन्ध क्या है ? पुरातत्त्व वैज्ञानिक श्राश्रयो पर अवलम्बित है और पुरातत्त्व का विद्यार्थी तबतक किसी सिद्धान्त पर नही पहुँचता जवतक वह खुदाई के प्रत्येक स्तर से निकली हुई वस्तुयो का वैज्ञानिक रीति से अध्ययन न कर ले । अपने सिद्धान्तो Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० प्रेमी-प्रभिनंदन-प्रेय को और अधिक वैज्ञानिक बनाने के लिए वह एक जगह से मिली सामग्रियो को ठीक उसी स्तर पर दूसरी जगहों से मिली सामप्रियो से तुलना करके तव किसी विशेष निष्कर्ष पर पहुँचता है। इसके विपरीत अनुश्रुतियां सैकडो पुश्तो से जवानी चली आती है और पेश्तर इनके कि वे लिख ली जावें, मौखिक आदान-प्रदान के कारण उनमे बहुत से फेरफार और व्यर्थ की बातो का समावेश हो जाता है, जिनसे उनकी सचाई में काफी सन्देह की जगह रह जाती है। इन सच वातो से यह स्वाभाविक ही हैं कि पुरातत्त्व की वैज्ञानिक पद्धति मौखिक अनुश्रुतियो को सन्देह की दृष्टि से देखे और उनकी सत्यता को तभी माने जब खुदाइयो से या अभिलेखो से भी उनकी पुष्टि होती हो । विद्वानो ने पुरातत्त्व की अवहेलना और 'साहित्यिक प्रातत्त्व' पर विश्वास की काफ़ी जोरदार समालोचना की है। लेकिन इस विवाद से यह न नमभ लेना चाहिए कि अनुश्रुतियो में कुछ तत्त्व ही नहीं हैं । ठोस ऐतिहासिक सामग्रियों के अभाव में केवल अनुश्रुतियाँ ही कुछ जटिल प्रश्नो को सुलझाने में नमर्थ हो सकती है। लेकिन अनुश्रुतियो का मूल्य समझते हुए भी यह बात आवश्यक हैं कि उनका प्रयोग विज्ञान की तराजू पर तौल कर हो । अगर पुरातत्त्व से अनुश्रुतियो का सम्वन्ध है तो दोनो के नामजस्य ने ही एक विशेष निर्णय पर पहुँचना चाहिए। अनुश्रुतियो के अध्ययन के लिए यह भी आवश्यक है कि एक ही तरह की भिन्न-भिन्न अनुश्रुतियों को पढकर उनकी जड तक पहुँचा जाये। ऐसा करने से स्वय ही विदित होने लगेगा कि कौन सी बातें पुरानी और असल है और कौन सी वाद में जोड दी गई हैं । जैन - शास्त्र की घोडी नी अनुश्रुतियो का प्रव्ययन करते हुए हमने इस वात का पूर्ण ध्यान रक्खा है कि पुरातत्त्व से उन पर क्या प्रकाण पडता है । इस छान-बीन से हमें पता चला कि अनुश्रुतियों में किस तरह एक सत्य की रेखा निहित रहती है और किम तरह धीरे-धीरे कपोलकल्पनाएँ उसके चारो ओर इकट्ठी होकर सत्य को ढक देने की कोशिश करती रहती हैं। पुरातत्त्व के सहारे ते यह सत्य पुन निखर उठना है। नीचे के पृष्ठो में पुरातत्त्व के प्रकाश में कुछ जैन अनुश्रुतियो की जांचपडताल की गई है और यह दिखलाने का प्रयत्न किया गया है कि किस प्रकार अनुश्रुतियां और पुरातत्त्व एक दूसरे के सहारे से इतिहास - निर्माण में हाथ बँटाते हैं । ( १ ) जिन्हें उत्तर-भारत को बडी नदियो से परिचय है उन्हें यह भी मालूम होगा कि अनवरत वर्षा से इन नदियो में कैनै प्रलयकारी पूर आ सकते है । गरमी में जो नदियां सूखकर केवल नाला वन जाती है वे ही नदियां घनघोर वरसात के बाद बड़ी गरज-तरज के साथ उफनती हुई वस्तियो और खेतो को बहाने के लिए तैयार दिखलाई पडती है । हमारे होश में ही ऐसी बहुत सी वाढे ना चुकी है जिनने घन-जन का काफी नुकसान हुआ था । प्राचीन भारत में भी बहुत सी ऐसी बातें आया करती थी, जिनमे से बहुत बडो को याद अनुश्रुतियो में बच गई है। प्राय धनुश्रुतियो में इन वाढ़ों का कारण ऋषि-मुनियो का श्राप या राजा का अत्याचार माना जाता है । इस प्रकार की एक वाढ का वर्णन, जिसने पाटलिपुत्र को तहस नहस कर दिया 'तित्त्योगाली पइण्णय' में दिया हुआ है । इस अनुश्रुति का सम्बन्ध पाटलिपुत्र की खुदाई से समझाने के लिए मुनि कल्याणविजय जी द्वारा तित्योगाली के कुछ अवतरणो का अनुवाद नीचे दिया जाता है - कल्की का जव जन्म होगा तव मथुरा में राम और कृष्ण के मन्दिर गिरेंगे और विष्णु के उत्थान के दिन (कार्तिक सुदी ११) वहाँ जन-महारक घटना होगी। इस जगत्-प्रसिद्ध पाटलिपुत्र नगर में ही 'चतुर्मुख' नाम का राजा होगा । वह इतना अभिमानी होगा कि दूसरे राजाओ को तृण समान गिनेगा । नगरचर्या में निकला हुआ वह नन्दो के पाँच स्तूपो को देखेगा और उनके सम्बन्ध 'मुनि कल्याणविजय, वीर निर्वाण संवत् और जैन काल गणना, पृ० ३७-४०, मूल, ४१-४५ जालोर सं० १६८७ । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ जैन अनुभुतियां और पुरातत्त्व २३१ में पछ-ताछ करेगा, तव उसे उत्तर में कहा जायेगा कि यहां पर बल, रूप, धन और यश से समृद्ध नन्द राजा बहुत समय तक राज कर गया है, उसी के बनवाये हुए ये स्तूप है। इनमें उसने सुवर्ण गाडा है, जिसे कोई दूसरा राजा ग्रहण नही कर सकता । यह सुन कल्की उन स्तूपो को खुदवायेगा और उनमें का तमाम सुवर्ण ग्रहण कर लेगा। इस द्रव्यप्राप्ति से उसका लालच वढेगा और द्रव्य प्राप्ति की आशा से वह सारे नगर को खुदवा देगा। तव जमीन में से एक पत्थर की गौ निकलेगी, जो 'लोणदेवी' कहलाएगी। लोणदेवी आम रास्ते मे खडी रहेगी और भिक्षा निमित्त आते-जाते साधुप्रो को मार गिरावेगी, जिससे उनके भिक्षापात्र टूट जायेंगे तथा हाथ-पैर और शिर भी फूटेगे और उनका नगर में चलना-फिरना मुश्किल हो जायगा। तव महत्तर (साधुओ के मुखिया) कहेंगे-श्रमणो, यह अनागत दोष की-जिसे भगवान् बर्द्धमानस्वामी ने अपने ज्ञान से पहले ही देखा था-अग्न सूचना है। साधुओ। यह गौ वास्तव में अपनी हितचिन्तिका है। भावी सकट की सूचना करती है । इस वास्ते चलिए, जल्दी हम दूसरे देशो मे चले जायें। ___ गौ के उपसर्ग से जिन्होने जिन-वचन सत्य होने की सम्भावना की वे पाटलिपुत्र को छोडकर अन्य देश को चले गये। पर बहुतेरे नही भी गये। गगा-शोण के उपद्रव विषयक जिन-वचन को जिन्होने सुना वे वहाँ से अन्य देश को चले गये। पर वहुतेरे नही भी गये। "भिक्षा यथेच्छ मिल रही है, फिर हमें भागने की क्या जरूरत है ?" यह कहते हुए कई साधू वहाँ से नही गये। दूर गये भी पूर्वभविक कर्मों के तो निकट ही है। नियमित काल में फलने वाले कर्मों से कौन दूर भाग सकता है ? मनुष्य समझता है, मै भाग जाऊँ ताकि शान्ति प्राप्त हो, पर उसे मालूम नहीं कि उसके भी पहले कर्म वहां पहुंच कर उसकी राह देखते है। वह दुर्मुख और अधर्म्यमुख राजा चतुर्मुख (कल्की) साधुग्री को इकट्ठा करके उनसे कर मांगेगा और न देने पर श्रवण-सघ तथा अन्य मत के साधुओ को कैद करेगा। तब जो सोना-चांदी आदि परिग्रह रखने वाले साधु होगे वे सब 'कर' देकर छटेंगे। कल्की उन पाखडियो का जवरन् वेष छिनवा लेगा। लोभग्रस्त होकर वह साधुनो को भी तग करेगा। तव साधुनो का मुखिया कहेगा-'हे राजन् । हम अकिंचन हैं, हमारे पास क्या चीज है जो तुझे कर-स्वरूप दी जाय?' इस पर भी कल्की उन्हें नही छोडेगा और श्रमणसघ कई दिनो तक वैसा ही रोका हुआ रहेगा। तव नगर-देवता आकर कहेगा-'अरे निर्दय राजन् । तू श्रमणसघ को हैरान करके क्यो मरने की जल्दी तैयारी करता है ? जरा सवर कर। तेरी इस अनीति का आखिरी परिणाम तैयार है।' नगरदेवता की इस धमकी से कल्की धवरा जायगा और आर्द्र वस्त्र पहिन कर श्रमणसघ के पैरो में गिरकर कहेगाहे भगवन् । कोप देख लिया । अव प्रसाद चाहता हूँ।' इस प्रकार कल्की का उत्पात मिट जाने पर भी अधिकतर साधु वहाँ रहना नही चाहेंगे, क्योकि उन्हें मालूम हो जायगा कि यहां पर निरन्तर घोर वृष्टि से जल प्रलय होने वाला है। तव वहां नगर की नाश की सूचना करने वाले दिव्य, मान्तरिक्ष और भौम उत्पात शुरू होगे कि जिनसे साधुसाध्वियो को पीडा होगी। इन उत्पातो से और अतिशायी ज्ञान से यह जानकर कि-'सावत्सरिक पारणा के दिन भयकर उपद्रव होने वाला है ?'-साधु वहाँ से विहार कर चले जायेंगे। पर उपकरण, मकानो और श्रावको का प्रतिवन्ध रखने वाले तथा भविष्य पर भरोसा रखने वाले साधु वहाँ से जा नही सकेंगे। तव सत्रह रात-दिन तक निरन्तर वृष्टि होगी, जिससे गगा और शोण में बाढ आयेंगी। गगा की वाढ और शाण के दुर्घर वेग से यह रमणीय पाटलिपुत्र नगर चारो ओर से बह जायगा। साधु जो धीर होगे वे आलोचना प्रायश्चित्त करते हुए और जो श्रावक तथा वसति के मोह में फंसे हुए होगे वे सकरुण दृष्टि से देखते हुए मकानो के साथ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ प्रेमी-अभिनंदन - प्रथ ही गंगा के प्रवाह मे वह जायँगे । जल में बहते हुए वे कहेंगे - 'हे स्वामि सनत्कुमार । तू श्रमणसघ का शरण हो, यह वैयावृत्य करने का समय है।' इसी प्रकार साध्वियाँ भी सनत्कुमार की सहायता माँगती हुई मकानो के साथ वह जायँगी । इनमें कोई-कोई श्राचार्य और साधु-साध्वियाँ फलक आदि के सहारे तैरते हुए गंगा के दूसरे तट पर उतर जायेंगे । यही दशा नगरवासियो की भी होगी। जिनको नाव - फलक श्रादि की मदद मिलेगी वे बच जायँगे, बाकी मर जायेंगे। राजा का खजाना पाडिवत आचार्य और कल्की राजा यादि किसी तरह बचेंगे, पर अधिकतर बह जायँगे । बहुत कम मनुष्य ही इस प्रलय से वचने पायेंगे । इस प्रकार पाटलिपुत्र के बह जाने पर धन और कीर्ति का लोभी कल्की दूसरा नगर वसायेगा और बाग-बगीचे लगवा कर उसे देवनगर-तुल्य रमणीय बना देगा । फिर वहाँ देव मन्दिर बनेगे श्रीर साधुओ का विहार शुरू होगा । नुकूल वृष्टि होगी और अनाज वगैरह इतना उपजेगा कि उसे खरीदने वाला नही मिलेगा। इस प्रकार पचास वर्ष सुभिक्ष से प्रजा अमन-चैन में रहेगी । इसके बाद फिर कल्की उत्पात मचायेगा । पाखडियो के वेप छिनवा लेगा और श्रमणो पर अत्याचार करेगा । उस समय कल्पव्यवहारधारी तपस्वी युग प्रधान पाडिवत और दूसरे साधु दु ख की निवृत्ति के लिए छट्ट अट्टम का तप करेगे । तब कुछ समय के बाद नगरदेवता कल्की से कहेगा- 'अरे निर्दयी । तू श्रमणसघ को तकलीफ देकर क्यो जल्दी मरने की तैयारी कर रहा है ? जरा सवर कर, तेरे पापो का घडा भर गया है ।' नगरदेवता की इस धमकी की कुछ भी परवाह न करता हुआ वह साधुग्रो से भिक्षा का षष्ठाश वसूल करने के लिए उन्हें वाडे में कैद करेगा । साघुगण सहायतार्थ इन्द्र का ध्यान करेगे । तव श्रम्वा और यक्ष कल्की को चेतायेंगे, पर वह किसी की भी नही सुनेगा । आाखिर में सघ के कायोत्सर्ग ध्यान के प्रभाव से इन्द्र का श्रासन कँपेगा और वह ज्ञान से सघ का उपसर्ग देखकर जल्दी वहीं श्रायेगा | धर्म की बुद्धिवाला और अधर्म का विरोधी वह दक्षिण लोकपति ( इद्र ) जिन-प्रवचन के विरोधी कल्की का तत्काल नाश करेगा । उग्रकर्मा कल्की उग्र नीति से राज करके छियासी वर्ष की उमर में निर्वाण से दो हजार वर्ष बीतने पर इन्द्र के हाथ से मृत्यु पायेगा । तब इन्द्र कल्की के पुत्र दत्त को शिक्षा दे श्रमणसघ की पूजा करके अपने स्थान चला जायेगा । इस अनुश्रुति की अच्छी तरह से जाँच पडताल के बाद हम निम्नलिखित तथ्यो पर पहुँचते है । (१) पाटलिपुत्र में चतुर्मुख अथवा कल्की नाम का एक लालची राजा राज करता था। गडे धन की खोज में उसने नन्दो के पाँच स्तूप उखडवा डाले और नगर का एक भाग खुदवा डाला । जैन तथा जैनेतर साधुयो पर वह कर इत्यादि लगा कर वडा अत्याचार करता था । उसके अत्याचारो से तग श्राकर अधिकतर सावु देश छोड़कर चले गये । (२) उसके राजकाल मे एक वार सत्रह रात और दिन बरावर पानी वरसता रहा। गंगा और सोन में भयकर बाढ़ श्रा गई, जिसके फलस्वरूप पाटलिपुत्र वह गया, केवल थोडे से लोग तख्तो और नावो के सहारे अपनी जान बचा सके । (३) राजा कल्की पाडिवत् आचार्य के साथ वच गया और बाद मे उसने एक सुन्दर नगर बसाया। कुछ दिनो तक कल्की चुप बैठा रहा, पर बाद में उसके अत्याचारो का वेग और भी वढा । जैन साधुओं को, जिनमें पाडिवत् प्राचार्य भी थे, उसने षष्टमाश कर वसूल करने के लिए वडे-बडे कष्ट दिये ।, (४) इन्द्र ने, जिसे यहाँ दक्षिणाधिपति कहा है, साधुओ की रक्षा के लिए छियासी वर्ष उमर वाले कल्की को नष्ट कर दिया । (५) चतुर्मुख के बाद उसका पुत्र दत्त गद्दी पर बैठा । पहली बात पर विचार करने से यह भास होता है कि चतुर्मुख या कल्की नाम का एक अत्याचारी राजा तो था, परन्तु उनकी ऐतिहासिकता कितनी है, यह कहना कठिन है। जैन सिद्धान्त के अनुसार कल्की और उपकल्की दुसमा में वरावर होते आये है, हज़ार बरस में कल्की होता है और पाँच सौ वरस में उपकल्की (श्रावेग, मेसीयास ग्लाउवे इन इण्डियन उण्ड ईरान, पृ० १४० ) । लेकिन इन कल्कियो और उपकल्कियो का सम्वन्ध ऐतिहासिक न होकर कलियुग Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ जैन अनुश्रुतिया और पुरातत्त्व २३३ की कल्पना से सम्बन्ध रखता है। फिर भी जैन-साहित्य से यह पता लगता है कि वास्तव में कोई ऐसा अत्याचारी राजा था, जो अपनी करनी से कल्की बन गया। मुनि कल्यानविजय जी ने (वही, ३७-३८) चतुर्मुख कल्की के वारे में तमाम उद्धरण एकत्रित कर दिये है, जो यहां उद्धृत किये जाते है। (१) तित्थोगाली-शक से १३२३ (वीरनिर्वाण १९२८) व्यतीत होगे तब कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) मे दुष्ट वुद्धि कल्की का जन्म होगा। (२) काल सप्ततिका प्रकरणवीरनिर्वाण से १९१२ वर्ष ५ मास बीतने पर पाटलिपुत्र नगर में चडाल के कुल मे चैत्र की अष्टमी के दिन श्रमणो का विरोधी जन्मेगा, जिसके तीन नाम होगे१ कल्की , २ रुद्र और ३ चतुर्मुख। (२) द्वीपमालाकल्प-'वीरनिर्वाण से १६१४ वर्ष व्यतीत होगे तव पाटलिपुत्र में म्लेच्छ कुल मे यश की स्त्री यशोदा की कुक्षि से चैत्र शु० ८ की रात मे कल्की का जन्म होगा।' (४) दीपमालाकल्प (उपाध्याय क्षमाश्रमण)। 'मुझसे (वीरनिर्वाण से १७५ वर्ष बीतने पर) विक्रमादित्य नाम का राजा होगा। उसके बाद १२४ वर्ष के भीतर (नि० स० ५६६ में) पाटलिपुत्र नाम नगर में xxx चतुर्मुख (कल्की).का जन्म होगा।' (५) तिलोयसार (दिगम्बराचार्य नेमिचन्द्र)। वीरनिर्वाण से ६०५ वर्ष और ५ मास बीतने पर 'शक राजा' होगा और उसके वाद ३९४ वर्ष और सात मास में अर्थात् निर्वाण सवत् १००० में कल्की होगा। उपरोक्त उद्धरणो में नेमिचन्द्र को छोडकर केवल श्वेताम्बर आचार्यों का कल्की के समय के बारे मे मत है। कल्को और उपकल्की वाला सिद्धान्त दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थो में भी पाया जाता है (जदिवसह, तिलोय पण्णती, पृ० ३४३)। तिलोयपण्णत्तो को अनुश्रुति के अनुमार (वही, पृ० ३४२) इन्द्र-पुत्र कल्की की उमर ७७ वर्ष की थी और उसने ४२ वर्ष राज्य किया। वह जैन-साधुओ से कर लेता था। उसकी मृत्यु किसी असुरदेव के हाथो हुई। उसके पुत्र का नाम अतिञ्जय कहा गया है। अब हम देख सकते हैं कि कल्की के समय के बारे में दो भिन्न मत है और जहां तक पता लगता है इन मतो की उत्पत्ति मध्यकाल में हुई होगी। दिगम्वर-मत कल्की से कलयुग का सम्बन्ध जोडने तथा १००० वर्ष पर कल्की की उत्पत्ति वाले सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिए कल्की का समय वीरनिर्वाण से १००० वर्ष पर मानता है। इसके विपरीत श्वेताम्बर-मत इस समय को करोव-करीव दूना कर देता है। इन सवसे कल्की की वास्तविकता में सन्देह होने लगता है। केवल क्षमाश्रमण कल्की का समय वीरनिर्वाण ५६६ देते है, लेकिन इस समय का आधार कौन सी अनुश्रुति थी, इसका हमें पता नहीं है, पर आगे चलकर हम देखेंगे कि केवल यही एक ऐसा मत है, जो सचाई से बहुत पास तक पहुंच पाता है। यहां यह जानने योग्य बात है कि तित्थोगाली की कल्की सम्वन्धी अनुश्रुति का प्रचार आचार्य हेमचन्द्र के समय तक अच्छी तरह हो चुका था, क्योकि महावीरचरित के १३वें सर्ग में उन्होने कल्की-आख्यान करीव-करीव तित्थोगाली के शब्दो मेंही दिया है (इन्डियन एन्टिक्वेरी, १९१६, पृ० १२८-३०)। कल्की का जन्म म्लेच्छ कुल में बतलाया गया है और उसका जन्मकाल वीरनिर्वाण स० १६१४ । पाख्यान के और बहुत से अग जैसे धन के लिए नन्दो के स्तूपो की खुदाई, जन-साधुओ पर अत्याचार तित्योगाली और महावीर-चरित में ज्यो-के-त्यो है । वाढ का भी वर्णन है, पर सोन नदी का नाम नही आया है.। सब कुछ साम्यता होते हुए भी महावीर-चरित के कल्की-आख्यान मे तित्थोगाली की-सी सजीवता नही है। महावीर-चरित में आचार्य पाडिवत् का भी नाम नहीं है। वाढ के बाद नगर का पुननिर्माण, वाद में जैन-साधुप्रो पर अत्याचार तथा अन्त में इन्द्र द्वारा कल्की का वघ, ये सब घटनाएँ दोनो अनुश्रुतियो मे समान रूप मे वर्णित है। दोनो की तुलना करते हुए यह मानना पडता है कि तित्थोगाली वाली अनुश्रुति पुरानी Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ है और ऐसा मालूम पडता है कि आचार्य हेमचन्द्र ने भी इसी का सहारा लेकर महावीर चरित का कल्कीकथानक लिखा । इन सब अनुश्रुतियो से पता चलता है कि कल्की महावीर के १००० या २००० वर्ष बाद हुआ । इस बात पर नव सहमत है कि कल्को पाटलिपुत्र का राजा था। कुछ इसे चाडाल कूल में पैदा हुआ और म्लेच्छ कुल का मानते हैं । लेकिन इसके ऐतिहासिक अस्तित्व पर किसी ने कुछ प्रकाश नही डाला है । इस अवस्था में पुरातत्त्व हमारी बडी मदद करता है । हमने देखा ही है कि तित्थोगाली में पाटलिपुत्र की वाढ का कितना सजीव वर्णन है । प्रसन्नता की बात है। कि पाटलिपुत्र की खुदाई से भी इन वडी वाढ का पता चलता है और इससे तित्थोगाली की अनुश्रुति की सत्यता का आधार और भी मजबूत हो जाता है । डा० डी० वी० स्पूनर ने कुम्हार (प्राचीन पाटलिपुत्र ) की खुदाई में मौर्य स्तर और राखो वाले स्तर के वी कोरी मिट्टी का स्तर पाया। उस स्तर में उन्हें ऐसी कोई वस्तु न मिली जिससे यह साबित हो सके कि उस स्तर कभी वस्ती थी । इस जमी हुई मिट्टी का कारण डा० स्पूनर वाढ वतलाते है । डा० स्पूनर के शब्दों मे "कोरी मिट्टी की आठ या नौ फुट मोटी तह जो वस्तियो के दो स्तरो में पड गई है इसका और कोई दूसरा कारण न मैं सोच सकता हूँ, न दे सकता हूँ । हमें इस बात का पता है कि ऐसी ही वाढें पटने के आस-पास आती रही है और वखरा के अशोककालीन स्तम्भ की जड में भी एक ऐसी ही कोरी मिट्टी की तह मिलती है ।" डा० स्पूनर के मतानुसार पाटलिपुत्र की यह वाढ उम समय आई जब अशोक का प्रासाद खडा था, तथा बाढ की रेतीली मिट्टी ने न केवल महल के फर्श को ही नौ फुट ऊँची लदान से ढाक लिया, बल्कि महल के स्तम्भों को भी करीव करीव उनकी प्राधी ऊंचाई तक ढाक दिया, (आर्कियोलोजिक सर्वे ऑव इडिया, एनुअल रिपोर्ट, १९१२-१३, पृ० ६१-६२) । डा० स्पूनर इस बात का पता न चला सके कि वाढ कितने दिनो तक चली, न उनको इस बात का ठीक-ठीक अन्दाजा लग सका कि वाढ आई कव ? "यह बात सम्भव है कि हम आखिरी बात का अटकल लगा सके। हमने ऊपर देखा है कि राख वाली स्तर में या उसी के आसपास खुदाई से हमें ई० प्रथम शताब्दी के सिक्के और कुछ वस्तुएँ मिली हैं। ये प्राचीन चिह्न गुप्त-कालीन ईंट की दीवारो से तो जरूर ही पुराने है । अगर ई० सन् की पहली कुछ सदियो में aist आई होती तो इन अवशेषो और सिक्को का यहाँ मिलना आश्चर्यजनक होता । इस अवस्था में उन्हे मौर्यकालीन फ़र्ज़ पर या उसके कुछ ऊपर मिलना चाहिए था। अगर इमारत सिक्को के चलन -काल में बरावर व्यवहार मे थी तो वाढ सिक्को के काल और गुप्त काल के बीच में आई थी। इन सब बातो से और जो सबूत हमारे पास हैं उनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि वाढ ईसा की प्रथम शताब्दी मे या उससे दो एक सदी हट कर आई, तथा इस काल के सिक्के और वस्तुएँ जो गुप्तकाल की दीवार के नीचे मिले है इस बात के द्योतक है कि मौर्यकालीन महल का थोडाबहुत व्यवहार वाढ हट जाने पर भी वराबर होता रहा । मिट्टी के स्तर का सिरा फर्श का काम देता रहा होगा । इमारत बहुत कुछ टूट-फूट गई होगी तथा उसकी भव्यता में भी बहुत कुछ फरक पड गया होगा, लेकिन इसका कोई कारण नही देख पडता कि वह बसने लायक न रही हो । अगर खम्भो की ऊंचाई वीस फुट थी (शायद वे इससे उँचे ही थे) तो रेतीली मिट्टी ने उन्हें करीब ग्यारह फुट छोड दिया होगा और यह कोई बिलकुल साधारण ऊंचाई नही है । इसलिए यह सम्भव हैं कि वाढ के सैकडो वर्ष वाद तक भी मौर्यकालीन प्रस्थानमडप व्यवहार मे आता रहा ” (वही, पृ० ६२ ) । खुदाई से इस बात का भी पता चलता है कि रेतीली मिट्टी जमने के बाद पूरी इमारत जल गई, क्योकि गुप्तकालीन इमारतो के भग्नावशेष सीवी राख की तह पर खडे पाये गये, जिससे हम इस बात का अनुमान कर सकते है कि आग कदाचित् ई० म० चौथो या पांचवी में लगी हो । डा० स्पूनर की राय मे गुप्तकालीन दीवारें चलवी शताब्दी के बाद की नहीं हो सकती और इस वात की सम्भावना अधिक है कि वे इसके पहले की हो । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ जैन अनुश्रुतिया और पुरातत्त्व २३५ डा० स्पूनर की खुदाई -सम्बन्धी वक्तव्यो की विवेचना करने पर हम निम्नलिखित तथ्यो पर पहुँचते हैं - (१) पाटलिपुत्र में उस समय बाढ आई जव अशोक का महल समूचा खडा था । वाढ से उस पर नौ फुट मिट्टी लद गई । (२) ई० म० की प्रारम्भिक शताब्दियों के सिक्के इत्यादि गुप्त स्तर और रेतीली मिट्टी के बीच में मिलने से डा० स्पूनर ने यह राय कायम की कि वाढ ई० प्रथम शताब्दी या एकाच सदी वाद श्राई होगी। (३) वाढ के वाद भी पुरानी इमारत कुछ-कुछ काम में लाई जाती थी । ग्रन्तिम कथन का समर्थन तित्योगाली द्वारा होता है, जिसमें कहा गया है कि वाढ के बाद चतुर्मुख ने एक नया नगर पुराने को छोड़कर बसाया । श्रव हम देख सकते है कि तित्योगाली ने पाटलिपुत्र को भोपण वाढ का, जो ई० पहली दूसरी शताब्दी में श्राई थी, कैसा उपादेय और विशद वर्णन जीवित रक्ता हैं । तित्योगाली के कल्की-प्रकरण के आरम्भ में ही यह कहा गया है कि कल्की ने नन्दो के वनवाये पाँच जैन- स्तूपो को गढे घन की खोज में खुदवा डाला । युवान च्याग इस कथा का समर्थन करते हैं । युवान च्वाग को पाटलिपुत्र के पास छोटी पहाडी के दक्षिण-पश्चिम में पांच स्तूपो के भग्नावशेष देख पडे । इनके पत्र कई मौ कदमो के थे और इनके ऊपर बाद के लोगो ने छोटे-छोटे स्तूप बना दिये थे । इन स्तूपो के सम्वन्ध युवा च्याग दो अनुश्रुतियो का उल्लेख करता है । एक प्राचीन अनुश्रुति के अनुसार प्रशोक द्वारा ८४००० स्तूप वनवाये जाने के बाद बुद्धचिह्न के पाँच भाग बच गये और अशोक ने इन पर पाँच स्तूप बनवाये । दूमरो अनुश्रुति, जिसको युवान च्याग होनयानियो की कहता है, इन पाँचो स्तूप में नदराजा की पाँच निधियों और मात रत्न गडे थे । बहुत दिनो बाद एक अवौद्ध राजा अपनी सेना के माथ श्राया और स्तूपो को खोदकर धन निकाल लेना चाहा। इतने भूकम्प आया, सूर्य वादलों से ढक गया और सिपाही मरकर गिर पडे । इसके बाद किसी ने उन स्नूपो को नही छ्या (वाट, युवान च्चाग, २, पृ० १६-६८ ) । मं पाटलिपुत्र की खुदाई से मात लकडी के बने चबूतरे मौर्य स्तर से निकले है । इनमें हर एक की लम्बाई ३० फुट, चौडाई ५४" और ऊंचाई ४१' है । नवकी बनावट भी प्राय एक मी है । इनके दोनो श्रोर लकडी के खूंटे, जिनके ठूंठ वच गये हैं, लगे थे । चबूतरो के वीच मे भी कुछ लकडी के खम्भे देख पडते हैं, पर इनका चबूतरों से क्या सम्वन्ध था, कहा नही जा सकता (श्रा० स०रि०, वही, पृ० ७३) । स्पूनर का पहले ध्यान था कि शायद चबूतरे भारी खम्भो के सँभालने के लिए वने हो, पर डा० म्यूनर ने इम राय को स्वय ही ठीक नही माना। एक चबूतरे में वनावट कुछ ऐसी थी जिन पर डा० स्पूनर का ध्यान गया। दूसरे चबूतरो की तरह यह चबूतरा पुख्ता नही है और उसके बीच में खडा अर्ध-चन्द्राकार कटाव हैं, जिसमे चबूतरा दो विचित्र भागो में बँट जाता है । इस विभाजित चबूतरे के पश्चिम छोर पर और पाम के चबूतरे के पूर्वी छोर पर जमीन की सतह पर एक ईंट की बनी हुई गोल खात है । इस तरह के नक़ों का कुछ तात्पर्यं तो जरूर था, पर उसका पता नही चलता । डा० म्यूनर की पहली सूझ यह थी कि चबूतरे शायद वेदियो का काम देते थे और वलिकर्म खात में होता था । पर इस मूझ को सहारा देने के लिए साहित्य से उन्हें कोई प्रमाण नही मिला और न वौद्धों के प्रभाव के कारण पाटलिपुत्र में बलिकर्म सम्भव ही था। इस अन्तिम कारण का स्वय उत्तर देते हुए उनका कहना है चबूतरे जो मौर्यकाल की सतह से कई फुट नीचे है शायद स्तम्भ म - मौर्यं ग्रास्थान मडप से पुराने हो, लेकिन इम राय पर भी वे न जम सके (वही, पृ० ७५) । इन लकडी के चबूतरो का ठीक-ठीक तात्पर्य क्या था, यह कहना तो कठिन है, लेकिन यह सम्भव है कि इनका सम्वव नन्दो के स्तूपो से रहा हो। जो हो, इम वात का ठीक-ठीक निपटारा तवतक नही हो सकता जवतक कुम्रहार की खुदाई और भी न बढाई जावे । तित्योगाली में चतुर्मुख कल्को श्रौर पाडिवत् श्राचार्य की ममकालीनता भी ऐतिहासिक दृष्टि से एक विशेष महत्त्व रखती है । हमें इम वात का पता नही कि पाडिवत् श्राचार्य कौन थे, पर इसमें कोई शक नही कि वे अपने काल के एक महान् जैन - प्राचार्य थे और हो सकता है कि पादलिप्ताचार्य, जिनके सम्बन्ध में जैन साहित्य में अनेक Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रय २३६ किंवदन्तियों मिलती है, और तित्थोगाली के पाडिवत् एक ही रहे हो। अगर हमारा यह अनुमान राही है तो पादलिप्त के काल के सम्बन्ध में कुछ अनुश्रुतियाँ उपलब्ध होने से हम पाटलिपुत्र की बाढ का समय निश्चित कर सकते हैं। ___'प्रभावक-चरित' में (गुजराती भाषान्तर, प्रस्तावना लेखक कल्याणविजय जी,भावनगर, स.१९८७), जिसे प्रभाचन्द्र सूरी ने स० १३३४ (ई० १२७७) में लिखा, बहुत से जैन-साधुओ की जीवनियां दी हुई है। सकलन परिपाटो के अनुसार प्राचीन जैन-प्राचार्यों की जीवनियो में बहुत सी बाद को किंवदन्तियो का भी समावेश हो गया है। लेकिन साथ-ही-साथ उनमें बहुत सी ऐसी ऐतिहासिक अनुश्रुतियो का सकलन भी है, जिनकी मचाई का पता हमें दूसरी जगहो से भी मिलता है। ___ 'प्रभावक-चरित' में इसका उल्लेख मिलता है कि पादलिप्त के गुरु ने उन्हें मथुरा जन-सघ की उन्नति के लिए भेजा। कुछ दिनो मथुरा ठहर कर वे पाटलिपुत्र गए, जहां राजा मुरुण्ड राज्य करता था। एक गुथी हुई डोरे की पेचक को सुलझा कर तथा राजा की शिर पीडा शात करके पादलिप्ताचार्य ने पाटलिपुत्र मे तथा राज-दरवार में अपना प्रभाव जमा लिया (वही०पू०४८-४६)। पादलिप्ताचार्य रुद्रदेव सूरी, श्रमणसिंह सूरि, आर्य खपट और महेन्द्र उपाध्याय के समसामयिक थे। पहले दो प्राचार्यों से पादलिप्त के सबन्ध का केवल इसी बात से पता लगता है कि जिस समय पादलिप्त मान्यखेट गए थे तो उस समय दोनोप्राचार्य वहाँ उपस्थित थे। खपट तथा महेन्द्र के साथ पादलिप्त की समकालीनता का वर्णन कुछ धुंधला सा है। खपट को जोवनी के अन्त में यह कहा गया है कि पादलिप्त ने खपटाचार्य से मनशास्त्र की शिक्षा पाई थी (वही प्रस्तावना, पृ० ३२-३३)। खपटाचार्य का समय विजयसिंह सूरि प्रवन्ध की एक गाथा के अनुसार वीर निर्वाण स० ४८४ या ४० ई० पू० है जो कल्याणविजय जी के मतानुसार खपट का मृत्यु काल होना चाहिए (वही, पृ० ३३)। चाहे जोहो, खपट को ऐतिहासिकता में कोई शक करने की जगह नहीं है, क्योकि प्राचीन जैन-साहित्य मे "निषीथ चूणि' में उनका नाम बराबर पाया है (वही, पृ० ३३)। खपट के शिष्य महेन्द्र के बारे में एक कथा प्रचलित है, जिसमें कहा गया है कि महेन्द्र के समय पाटलिपुत्र का राजा दाहड सब मतो के साधुओको तग करता था। वह बौद्ध भिक्षुओ को अनावृत्त करवा देता था, शैव साधुलो की जटाएं मुंडवा देता था, वैष्णव साघुप्रो को मूर्ति-पूजा छोडने पर वाध्य करता था और जन-साधुओ को सुरा-पान पर मजबूर करता था। राजा के व्यवहार से घबराकर जैन-सघ ने महेन्द्र की, जो उन दिनो भरुकच्छ में रहते थे, सहायता चाही। कहा जाता है कि महेन्द्र ने राजा को अपने वश में करके पाटलिपुत्र के ग्राह्मणो को जैन-दीक्षा दिलवा दी (वही, पृ० ५७-५६)। मुनि कल्याणविजय जी का कहना है कि दाहड शायद शुग राजा देवभूति था और ब्राह्मण-धर्म का पक्षपाती होने के कारण उसने जैनो से ब्राह्मणो को नमस्कार करवाया और इसी बुनियाद पर वे खपट और महेन्द्र का नाम समय विक्रम कोप्रथम शताब्दी या उसके कुछ और पहले निर्धारित करते है (वही, पृ० ३३)। पादलिप्त का समय निर्धारित करते हुए कल्याणविजय जी उनके मुरुण्ड राजा के समकालीन होने पर जोर देते है। मुरुड राजा कल्याणविजयजी के अनुसार कुषाण थे और पादलिप्त के समकालीन मुरुड राजा कुषाणो के राजस्थानीय थे और इनका नाम पुराणो के अनुसार विनस्फणि (अशुद्ध विश्वस्फटिक 'स्फणि स्फूर्ति' इत्यादि) था (वही, पृ० ३४)। इस आधार पर वे पादलिप्त का समय विक्रम की दूसरी शताब्दी का अन्त या तीसरी का प्रारम्भ मानते है। नागहस्ति पादलिप्त के गुरु थे और नन्दिनी पट्टावलि और युग प्रधान पट्टावलियो के अनुसार उनको समय विक्रम स० १५१ और २१६ के बीच में था। इस बात से भी मुनि कल्याणविजय पादलिप्त के समय के बारे में स्व-निर्धारित मत की पुष्टि मानते है (पृ० ३४)। श्री० एम० वी० झबेरी मुनि कल्याणविजय द्वारा निर्धारित पादलिप्त के समय को ठोक नही मानते (कपरेटिव एड क्रिटिकल स्टडी भाव मन्त्र-शास्त्र, पृ० १७६ फुट नोट)। उनका कहना है कि पार्य-रक्षित के अनुयोग Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ जैन अनुश्रुतिया और पुरातत्त्व २३७ द्वार मे पादलिप्त का सम्वोधन तरग वैक्कार से किया गया है। श्रार्य रक्षित का निधन -काल वि० स० १२७ माना गया ह ( ११४ कल्याणविजय जी के अनुसार) और अगर यह बात सच है तो आर्य - रक्षित के बाद पादलिप्त का नाम उनके ग्रन्थ में से या सकता है । जैसा ऊपर कहा जा चुका है जैन-धनुश्रुतियाँ एक स्वर से पादलिप्त और मुरुण्डो की समकालीनता पर जोर देती है । पादलिप्त का समय निर्धारित करने के लिए यह आवश्यक है कि हम मुरुण्डो का इतिहास जानें । डा० वागची ने इंडियन हिस्ट्री काग्रेस के प्राचीन इतिहास विभाग के सभापति की हैसियत से जो भाषण दिया था (दि प्रोसीडिंग्स at इडियन हिस्ट्री काग्रेस, सिक्स्थ सेशन, १९४३) उससे मुरुण्डो के इतिहास पर काफी प्रकाश पडता है । डा० वागची स्टेन कोनो के इस विचार से सहमत नही है कि मुरुण्ड शक थे । वे पुराणो के इस मत का समर्थन करते है, जिसके अनुसार मुरुण्ड शको से भिन्न माने गए है (वही, ३६-४० ) । मुण्डो का पता समुद्रगुप्त के इलाहावाद के अभिलेख से चलता है । इस लेख में मुरुण्ड गुप्त भृत्य माने गए है | मुरुड शव्द खोह के छठवी शताब्दी वाले ताम्रपत्र में भी आता है । इसमें कहा गया है कि उच्छकल्प के महाराज सर्वनाथ की माता मुरुण्ड देवी या मुरुण्ड स्वामिनी थी (वही, पृ० ४० ) । प्रो० सिलवेन लेवी को खोजो के अनुसार प्राचीन चीनी इतिहास में भी मुरुण्डो का नाम श्राता है । सन् २२२-२७७ के वीच एक दूत-मण्डल फुनान के राजा द्वारा भारतवर्षं भेजा गया । करीव ७००० ली की यात्रा समाप्त करके मडल इच्छित स्थान को पहुँचा । तत्कालीन भारतीय सम्राट ने यूनान के राजा को बहुत सी भेंट की वस्तुए भेजी, जिनमें यूवी देश के चार घोडे भी थे। फूनान जाने वाले भारतीय दूत - मण्डल की मुलाकात चीनी दूत से फूनान दरबार में हुई। भारत के सम्वन्ध में पूछे जाने पर दूत- मण्डल ने बतलाया कि भारत के सम्राट की पदवी मिउ-लुन थी और उसको राजधानी, जहाँ वह रहता था, दो शहर पनाहो में घिरी थी और शहर की खातो में पानी नदी की नहरो से आता था । यह वर्णन हमें पाटलिपुत्र की याद दिलाता है (वही, पृ० ४० ) । उपरोक्त वर्णन में श्राया हुआ मिउ-लून चीनी भाषा में मुरुण्ड शब्द का रूपान्तर मात्र है । बहुत से पक्के सबूतो के न होते हुए भी यह तो कहा ही जा सकता है कि कुषाण और गुप्त काल के वीच मुरुण्ड राज्य करते थे। टालेमी की भूगोल और चीनी इतिहास के प्राधारो से यह विदित होता है कि ईसा की दूसरी और तीसरी गताव्दी में मुरुण्ड पूर्वी भारत में राज्य करते थे (वही पृ० ४१) । इन सबूतो के आधार पर प्रो० वागची निम्न लिखित निर्णय पर पहुँचते है "यह कहने में कोई हिचक न होनी चाहिए कि मुरुण्ड तुखारो के साथ भारत श्राए और उन्होने पूर्वी भारत में पहले तुखारो के भृत्यो के रूप मे और बाद मे स्वतन्त्र रूप से राज्य स्थापना की। यू-ची लोगो के साथ उनका सम्वन्ध उन चार यू-ची देश के घोडो से प्रकट होता है जो मुरुड द्वारा नान के राजा को भेट दिए गए: । जव हेमचन्द्र अभिवान - चिन्तामणि मे लम्पाको धौर मुरुण्डो को एक मानते हैं तो इससे यह न मान लेना चाहिए कि मुरुण्डो से हेमचन्द्र के समय मे भी लोग परिचित थे । हेमचन्द्र का श्रावार कोई प्राचीन स्रोत था जिसे यह विदित था कि मुरुण्ड लमधान होकर आए । भारतवर्ष पर चढाई करते हुए शको ने यह रास्ता नही पकडा था। शक पूर्वी भारत तक पहुँचे भी न थे और कोई भी पुराना ग्रन्थ पाटलिपुत्र के माथ शको का सम्वन्ध नही बतलाता। इन सब बातो पर ध्यान रखते हुए यह कहा जा सकता है कि मुरुण्ड कुपाणी की तरह तुखारो का एक कवीला था, जो कुषाणो के पतन और गुप्तो के अभ्युत्थान के इतिहास के बीच में खाली हिस्से की खानापूरी करता है । यह बात पुराणकारो को मालूम थी ।" "हम मुरुण्डो की स्थिति का तुखारो के साथ-साथ मध्य एशिया मे अध्ययन कर सकते हैं । ग्रीक श्रीर रोमन लेखक, जैसे स्त्रावो, प्लिनी और पेरिगेट एक फिनोई नाम के कवीले का नाम लेते हैं, जो तुखारो के श्रासपास रहता था। अगर प्लिनी की बात हमें स्वीकार है तो फिनोड या फुनि प्रत्तकोरिस पर्वत के दक्षिण में रहते थे, तुम्हार या तोखरि फिनोइ के दक्षिण में और कमिरि या कश्मीर तुखारो के दक्षिण मे । फिनोइ का संस्कृत मे Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय २३८ मुरुण्ड रूपान्तर अच्छी तरह हो सकता है। पुराण वालो को मुरुण्ड शब्द लिखने में कुछ हिचक सी लगती थी। उदाहरणार्थ 'वायु पुराण' जिसके पाठ काफी प्रामाणिक है, मुरुण्ड न लिख के पुरुण्ड या पुरण्ड लिखता है" (वही, पृ०४१)। 'मत्स्य','वायु' और 'ब्रह्माड' पुराणो के आधार पर चौदह तुखार राजामो के वाद, जिनका राज्य-काल १०७ या १०५ वर्षों तक सीमित था, १३ गुरुण्ड या मुरुण्ड राजाओ ने मत्स्य पुराण के अनुसार २०० बरस तक और वायु तथा ब्रह्माड के अनुसार ३५० वरस तक राज्य किया। लेकिन पाजिटर के अनुसार ३५० वर्प २०० वर्ष का अपवाद है, क्यो कि विष्णु और भागवत पुराणो मे मुरुण्डो का राज्य-काल ठीक-ठोक १९६ वर्ष दिया है (पाजिटर, डायनेस्टोज़ आँव कलि एज, पृ० ४४-४५, लन्डन १९१३) । अव पौराणिक काल-गणना के अनुसार तुखारोने १०७ या १०५ वर्ष राज्य किया और अगर तुखार और कुषाण एक ही है तो कुपाणो का राज्य १८३ या १८५ ई० तक पाता है। अगर इस गणना में हम मुरुण्ड राज्य-काल के भो २०० वर्ष जोड दें तो मुरुण्डो का अन्त करीव ३८५ ई० मे पडता है। समुद्रगुप्त द्वारा मुरुण्ड विजय भी इसी काल के पास-पास आकर पड़ता है। अव एक कठिन प्रश्न यह उठता है कि मुरुण्डराज्य-काल के किस भाग में पादलिप्त हुए, क्योकि मुरुण्डो का राज्य काल १८५ ई० से ३८५ ई० तक रहा और मुरुण्ड राजाओ मे किसी का नाम से सम्बोधन नहीं हुआ है। अनुयोगद्वार को अनुश्रुति के अनुसार, जिसका वर्णन ऊपर हो चुका है, पादलिप्तका समय ईस्वी पहली शताब्दी पाता है जव मुरुण्ड स्वतन्त्र शासक न होकर कुषाणो के सेवक मात्र थे। पाटलिपुत्र के मुरुण्डो और पुरुषपुर के (पेशावर) कुषाण राजानो मे काफी घनिष्ठ सम्वन्ध था। बृहत्कल्प-सूत्रभाष्य (भा० ३, २२६१-६३) मे एक कथा है जिसमे वतलाया गया है कि मुरुण्ड राजद्वारा प्रेषित दूत पुरुषपुर के राजा से तीन दिनो तक न मिल सका, क्योकि जब वह राजा से मिलने निकलता था उसे कोई-न-कोई बौद्ध भिक्षु मिल जाता था और इसे अपशकुन मान कर वह आगे न बढ सकता था। अन्त मे वडे वन्दोवस्त के बाद दूत राजा से मिल पाया। इस घटना के प्रासगिक रूप से हम जैनो और वौद्धो के वर-भाव का पता पाते है, जिसकी झलक हम चीनी भाषा में अनुवादित अश्वघोष के सूत्रालकार की उस कथा में पाते है, जिसमें कनिष्क धार्मिक होने के नाते एक स्तूप को प्रणाम करता है, लेकिन स्तूप वास्तव मे जैन था जो कनिष्क के प्रणाम करते ही टूट गया, क्यो कि उसे राजा के प्रणाम करने का उच्च अधिकार ही न प्राप्त था। (जी० के० नरीमान, लिटरेरी हिस्ट्री प्रॉव सस्कृत बुधिजम, पृ० १६७, बम्बई १९२३)। अगर महेन्द्र और पादलिप्त की समसामयिकता भी ठीक मान ली जाय तो भी पादलिप्त का समय ई० पहली सदी ठहरता है। उस समय दाहड़ नाम का एक पापी राजा था जो किसी धर्म की परवाह नही करता था। महेन्द्र ने उसे दीक्षित किया। प्रभावक-चरित के दाहड मे और तित्थोगाली के कल्कि चतुर्मुख मे बहुत समानता पाई जाती है और अगर ये दोनो एक ही है तो पादलिप्त का समय ई० की पहली शताब्दी हो सकती है जब शायद कुषाणो के धार्मिक पक्षपात से जैनो को अनेक कष्ट झेलने पडे हो। पर इस बारे में ठीक-ठीक नही कहा जा सकता, क्योकि मथुरा मे ककाली टोला के मिले जैन स्तूप के अभिलेखो से यह पता चलता है कि कनिष्क से लेकर वासुदेव के काल तक जैन स्वतत्रता के साथ अपने देवो और स्तूप की पूजा कर सकते थे। मुनि कल्याणविजय जी ने मजबूत तर्को द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि पादलिप्त ई० शताब्दी दूसरी या तीसरी मे हुए जव कुषाणो का महामात्र विश्वस्फाणि का विहार पर राज था। डा. जायसवाल (हिस्ट्री ऑव इडिया, पृ०४२) के अनुसार पुराणो का विश्वस्फाणि, जिसे विश्व स्फाटि और विवस्फाटि भी कहा गया है, वनस्फर या वनस्परथा जिसका उल्लेख कनिष्ककालीन अभिलेखोमेाया है (एपि० इडि०८, पृ० १७३) कनिष्क के राज्य के तीसरे वर्ष के लेख में जिस विषय में वनारस था उसका वनस्फर क्षत्रप था और महाक्षत्रप था खरपल्लाण । वनस्फर वाद में ई० स० ६०-१२० के दमियान महाक्षत्रप हो गया होगा, ऐसा डा० जायसवाल का अनुमान है। वायु और ब्रह्माड पुराण तोमरो शताब्दी के राजकुलो का वर्णन करते हुए विश्वफाणि का निम्नलिखित शब्दो में उल्लेख करते है "मागधो का Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ जैन अनुश्रुतिया और पुरातत्त्व २३६ राजा विश्वस्फाणि (भागवत, विश्वस्फूर्ति, वायु, विश्वस्फटिक) बहुत बडा वीर होगा। सव राजाओ का उन्मूलन करके वह निम्न जाति के लोगो को जैसे कंवों, पचको (ब्रह्माड, मद्रक, विष्णु, यदु) पुलिन्दो और ब्राह्मणो को राजा बनाएगा। उन जातियो के लोगो को वह वहुत से देशो का शासक नियुक्त करेगा। युद्ध मे वह विष्णु के समान पराक्रमी होगा। (भागवत के अनुसार उसकी राजधानी प्रभावती होगी)। राजा विश्वस्फाणि का रूप षण्ड की तरह होगा। क्षत्रियो का उन्मूलन करके वह दूसरी क्षत्रिय जाति बनाएगा। देव, पितृ और ब्राह्मणो को तुष्ट करता हुआ वह गगा के तीर जाकर तप करता हुआ शरीर छोड कर इन्द्रलोक को जाएगा (पाजिटर वही, पृ०७३)। विश्वस्फाणि का तित्योगाली के केलि से मेल खाता है । पुराणो के मतानुसार वह ब्राह्मणो का आदर करने वाला कहा गया है, लेकिन यह केवल पुराणो की ब्राह्मण श्रेष्ठता स्वीकार कराने वाली कपोल-कल्पना मालूम होती है, क्योकि वनस्फर जाति नहीं मानता था और क्षत्रियो का तो वह कट्टर वैरी था। अगर जायसवाल की राय ठीक है तो वनस्फर का समय ई० सन् ८१-१२० तक था और अगर तित्थोगाली के कल्की और वनस्फर एक थे तो पाटलिपुत्र के वाढ का समय दूसरी शताब्दी के पहले चरण में रक्खा जा सकता है। पुराण-साहित्य, जैन-साहित्य तथा चीनी-साहित्य से हमे विहार पर विदेशी मुरुण्डो के अधिकार का पता चलता है, लेकिन विहार में पुरातत्त्व की प्रगति सीमित रहने से उसके द्वारा मुरुण्डो के प्रश्न पर विशेष प्रकाश नही पड सका है। वैशाली की खुदाई से यह तो पता चलता है कि ईरानी सभ्यता का प्रभाव बिहार पर पड रहा था, पर इसके लाने वाले खास ईरानी थे या शक-तुखार, इस प्रश्न पर विशेष प्रकाश अभी तक नही पड सका है। वैशाली से चौथी या पांचवी शताब्दी की एक मुद्रा मिली है, जिस पर ईरानी अग्निवेदी बनी हुई है तथा गुप्तब्राह्मी का लेख भी उस पर है। ऐसी मुद्राएँ सर जान मार्शलको भीटा की खुदाई से भी मिली थी। डा० स्पूनर का अनुमान है कि इन मुद्रामो से यह पता चलता है कि वे इक्की-दुक्की न होकर उस ईरानी प्रभाव की द्योतक है जिसका सम्बन्ध काबुल के किसी राजकुल से न होकर विहार में स्वतन्त्र रूप से फले-फूले ईरानी प्रभाव से है। इस मुद्रा पर भगवत आदित्यस्य लेख होने से इस मुद्रा का सम्बन्व किसी सूर्य के मन्दिर से हो सकता है और शायद यह मन्दिर भारत में वसे ईरानियो का हो, क्योकि अगर मन्दिर हिन्दुओ का होता तो मुद्रा पर ईरानी अग्निवेदी न होती। डा० स्पूनर का कहना है कि ईरानी प्रभाव और सूर्य-पूजा पटना और गया जिलो मे गुप्त काल से बहुत अधिक पुरानी थी और इसका सम्बन्ध काबुल के चौथी शताब्दी के कुषाणो से न होकर उन परदार मिट्टी की मूर्तियो से है, जिनका काल मौर्य या शुग है (एन० रि० प्र० स० इ०, १९१३-१४, १० ११८-१२०)। वसाढ के मिट्टी की मूर्तियो पर ईरानी प्रभाव'जानने के लिए हमें उन मूर्तियो के बारे में भी कुछ जान लेना चाहिए। खुदाई मे दो मिट्टी के सर मिले है। उनमें एक वर्तुलाकार टोप पहने है और दूसरा चोगेदार टोपी। दोनो विदेशी मालूम पड़ते है। इन मूर्तियो का काल शुग या मौर्य माना गया है (वही, पृ० १०८)। डा. गॉर्डन इस काल से सहमत नहीं है (जर्नल ऑव दी इडियन सोसायटी ऑव ओरियटल आर्ट, बा०९, पृ० १६४)। उनका कहना है कि उनमें चक्करदार (radiate) शिरोवस्त्र वाला शिर गन्धार कला के सुवर्ण युग का द्योतक है और उसका काल इसा पू० प्रथम शताव्दी है। दूसरा शिर साँचे में ढली हुई इडोसिदियन या इडोपार्थियन मूर्तियो से समता रखता है आर इसका समय भी ई०पू० प्रथम शताब्दी है। डा० गॉर्डन इन शिरो को इसलिए मौर्य नहीं मानते कि इनका सम्बन्ध माय कालीन मिट्टी की मूर्तियो से न होकर ई०प० प्रथम शताब्दी की भारत में जगह-जगह पाई गई मृणन्मूर्तियो से है। पसाट म खिलौनो की तस्तियां भी मिली है, जिनमे स्त्री-मूर्ति को पख लगा दिये गये है। डा० स्पूनर इन परो को बाबुल का दन मानते है और उनका विचार है पसिपोलिस की ईरानी कला से होता हुआ यह प्रभाव भारत में आया। ये माया ईरान से सीधी न पाकर बसाढ में ही बनी थी और इस बात से डाक्टर स्पूनर यह निष्कर्ष निकालते है कि मौर्य काल में भी ईरानी प्रभाव विहार में विद्यमान था (ग्रा० स० रि०, वही, पृ० ११६)। पर डा० गॉर्डन श्री काड्रिंगटन सहमत होते हुए इन पख वाली स्त्री-मूर्तियो का समय मांचीकला के बाद वाला युग अर्थात् ई० पू० प्रथम शताब्दी Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० प्रेमी-अभिनदन-प्रथ मानते है (गॉर्डन, वही, पृ० १५७)। इन मूर्तियो का समय तबतक ठोक निश्चित नहीं हो सकता जवतक खुदाई विलकुल वैज्ञानिक ढग से न की जाय। लगता है कि वसाढ के स्तरो मे कुछ उलट-पुलट हो जाने मे ऊपर-नीचे की वस्तुएँ बहुधा मिल गई है (सूनर, वही, पृ० ११४)। रही ईरानी प्रभाव की प्राचीनता की वात । मौर्यकाल में विशेषकर अशोककाल की कली मे कुछ अलकरण ईरानीकला से लिये गये, लेकिन पाया कि वह प्रभाव क्षणिक था या उसका विस्तार हुना, इसका अभी हमें विशेष पता नही है । लेकिन ईरानी या यो कहिए पूर्व ईरानी भाषा बोलने वाले शक ई० पू० प्रथम शताब्दी मे मथुरा तक आ धमके, व्यापारी या यात्री के रूप में नहीं, वरन् विजेता होकर । तव उनके साथ आई हुई ईरानीकला की भारतीयकला पर छाप पडना अवश्यम्भावी था और इसी के फलस्वरूप हम भारतीयकला में विदेशी वस्त्रो मे आच्छादित टोपी पहने हुए मध्य एशिया के लोगो के दर्शन करते है । कुषाण काल में एक ऐसे वर्ग की मृणन्मतियो का प्रचलन हुना जो केवल विदेशियो का प्रदर्शन मात्र करती है। डा० गॉर्डन ने बडे सूक्ष्म अध्ययन के बाद ऐसी मृणन्मूर्तियो का समय ई० पू० पहलो शताब्दी से ई० सन् तीसरी शताब्दी तक रक्खा है। वमाढ के ईरानी प्रभाव से प्रभावित मृणन्मूर्तियाँ भी इसी समय की है और विहार पर मुरुण्ड-कुपाण राज्य की एक मात्र प्राचीन निगानी है। भविष्य के पुरातत्त्ववेत्ताओ का यह कर्तव्य होना चाहिए कि उन सबूतो को इकट्ठा करे, जिनसे पूर्व भारत का शको और कुषाणो मे सम्बन्ध प्रकट होता है। ऐसा करने मे इतिहास की बहुत सी भूली बातें हमारे सामने आ जायेंगी तथा जैन ऐतिहासिक अनुश्रुतियो के कुछ अवोध्य प्रशो पर भी प्रकाश पडेगा।। पाटलिपुत्र के वाढ-सम्वन्धी प्रमाणो की जांच करने पर हम निम्नलिखित निष्कर्षों पर पहुंचते है-(१) वाढ राजा कल्की के राज्यकाल में आई । वह सब धर्मों के माधुओ और भिक्षुओ को सताता था। (२) वह कौन सा ऐतिहासिक राजा था, इसके सम्बन्ध में ऐतिहासिको की एक राय नही है। उसका पुष्यमित्र होना, जैसी मुनि पुण्यविजय जी को राय है, सम्भव नहीं है, क्योकि पुरातत्त्व के प्रमाण के अनुसार वाढ ई० सन् की पहली या दूसरी शताब्दी में आई। शायद कल्की पुराणो का विश्वस्फर या कुषाण लेखो का वनस्फर रहा हो। (३) अगर तित्थोगाली के आचार्य पाडिवत् और चूणियो और भाष्यो के पादलिप्त एक ही है तव वाढ ईसा की पहली या दूसरी शताब्दी मे आई, क्योकि यही पादलिप्त का समय माना जाता है। (४) पुराणो और चीनी-साहित्य के प्रमाणो के आधार पर मुरुण्ड, जो पादलिप्त के समकालीन थे, इसी काल में हुए। (५) यह सम्भव है कि वाढ वाली घटना कुषाण राज्य के प्रारम्भ में घटी हो, क्योकि एक वाह्य सस्कृति का देश की प्राचीन संस्कृति से द्वन्द्व होने से धार्मिक असहिष्णुता और उसके फलस्वरूप प्राचीन धर्म के अनुयायियो पर अत्याचार होना कोई अनहोनी घटना नहीं है। तित्योगाली के कल्कि का - अत्याचार तथा पौराणिक विश्वस्फाणि, जो शायद कुषाण अभिलेखो का वनस्फर था, के अनार्य कर्म शायद ईसा की पहली शताब्दियो की राजनैतिक और सास्कृतिक उथल-पुथल के प्रतीक है। (६) पुरातत्त्व से अभी तक मुरुण्ड और कुषाणो का पूर्व भारत मे सम्बन्ध पर विशेष प्रकाश नही पडा है। फिर भी कुछ मृणन्मूर्तियो के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शक सस्कृति का प्रभाव विहार में ई० पू० प्रथम शताब्दी में पड चुका था और वाद मे वह और वढा। जैन-साहित्य में कुणाला या श्रावस्ती में भी एक बडी वाढ पाने की अनुश्रुति है। आवश्यक-चूणि (पृ० ४६५, रतलाम, १९२८) मे इसकी कथा इस भांति दी हुई है "कुणाला में कुरुण्ट और उत्कुरुण्ट नाम के दो आचार्य नगर की नालियो के मुहाने पर रहा करते थे। वर्पा-काल में नागरिको ने उन्हें वहाँ से निकाल भगाया। क्रोध में आकर कुरुण्ट ने श्राप दिया, "हे देव | कुणाला पर वरसो।" छूटते ही उत्कुरुण्ट ने कहा, "पन्द्रह दिन तक।" कुरुण्ट ने दुहराया, "रात और दिन।" इस तरह श्राप देकर दोनो नगर छोडकर चले गये। पन्द्रह दिनो तक घनघोर बरसात होती रही और इसके फलस्वरूप कुणाला नगरी और तमाम जनपद बह गये। कुणाला की वाढ के १३ वरस वाद महावीर स्वामी केवली हुए।" मुनि कल्याणविजय की गणना के अनुसार ४३ वर्ष की अवस्था में महावीर केवली Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . BAR SHIVA FACE AS DAEner - . . -n Neer MASTERROREAFF ARRUST २१. Treasure . R5E. S - 3 ASSIG CRIBE Pay SVEY EMPIRESHEE 22VCANMALA FULLSEX. मा -NEL . RO TARA RAJE 57UPAY NiHETERATRE TORS + Via RPIOR T chuad - -. . शेषशायी विष्णु विष्णुमदिर का दक्षिण दिशा का शिलापट्ट [पुरातत्त्व विभाग के सौजन्य से Page #269 --------------------------------------------------------------------------  Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ जैन अनुश्रुतिया और पुरातत्त्व २४१ हुए और उस समय महात्मा बुद्ध ६५ वरस के थे (कल्याणविजय, वीरनिर्वाण सवत् और जैन कालगणना, पू० ४३)। लका की अनुश्रुति के अनुसार बुद्ध का निर्वाण ८० वर्ष की अवस्था में ई० पू० ५४३-४४ में हुआ और इसलिए महावीर को केवलज्ञान की प्राप्ति ई० पू० ५५८-५६ में हुई। महावीर के केवलज्ञान के तेरह वरस पहले यानी ई० पू० ५७१७२ में कुणाला की वाढ आई। श्रावस्ती की इस वाढ का जिक्र धम्मपद अट्ठकथा में भी आया है। कहते है कि अनाथपिण्डिक के अठारह करोड रुपये अचिरावती (आधुनिक राप्ती) के किनारे गडे हुए थे। नदी में एक वार वाढ आई और पूरा खजाना वह गया (वरलिंगेम, वुधिस्ट लीजेडस्, वा० २, पृ० २६८)। खेद की वात है कि प्राचीन श्रावस्ती (आधुनिक सहेट-महेट) की जांच-पड़ताल ऊपर ही ऊपर हुई है, खाई खोद कर स्तरो की खोज भी अभी तक नहीं हुई है। यह जानने की हमें बडी उत्सुकता है कि पाटलिपुत्र की तरह यहाँ भी पुरातत्त्व एक प्राचीन अनुश्रुति का समर्थन करता है अथवा नही। अगर पुरातत्त्व से अनुश्रुति सही निकलती है तो हमें प्राग् मौर्यकाल की एक स्तर का ठीक-ठीक काल मिल जायगा और यह पुरातत्त्ववेत्ताओ के एक वडे काम की बात होगी। ( ३ ) जैनो का कार्यक्षेत्र विशेषकर विहार, युक्तप्रान्त, दक्षिण तथा गुजरात रहा है । जैन-साहित्य में पजाव का उल्लेख केवल प्रासगिक रूप से आया है। तक्षशिला, जिसका उल्लेख वौद्ध-साहित्य में काफी तौर से आया है, जैनसाहित्य में बहुत कम वार आई है। प्राचीन टीका साहित्य मे तक्षशिला को जैन धम्मचक्र भूमि कहा गया है (बृहत्कल्पसूत्र, १७७४) । आवश्यक चूणि (पृ० १६२, आ०नि० ३२२) में कहा गया है कि ऋषभ देव वहाँ अक्सर चारिका किया करते थे। एक समय वाहुबलि को खवर लगी कि ऋषभ देव वहाँ आये हुए है। उनके दर्शनार्थ वे दूसरे दिन वहां पहुंचे, लेकिन ऋषभदेव वहां से चल चुके थे। बाहुबलि ने भगवान् के चरण-चिह्नो पर एक धर्मचक्र स्थापित कर दिया। प्रभावकचरित में मानदेव सूरि की कथा के अन्तर्गत तक्षशिला का वर्णन आया है । कथा हम नीचे उद्धृत करते है, क्योकि उसके कुछ प्रशो से तक्षशिला की खुदाई की सत्यता पर प्रकाश पडता है मानदेव सूरि ने युवावस्था मे मुनि प्रद्योतन मूरि से जैन-धर्म की दीक्षा ली। कुछ दिनो मे वे मूल सूत्रो मे निष्णात हो गये और उनके तप से प्रभावित होकर लोगो ने उन्हें प्राचार्य पद पर अधिष्ठित किया। उसी समय धर्मक्षेत्र रूप और पांच सौ चैत्यो मे युक्त तक्षशिला नगरी में भारी उपद्रव उठ खडा हुआ। भयकर रोगो से ग्रस्त होकर लोग अकाल मृत्यु पाने लगे और औषधियों रोग-शमन में सर्वदा असमर्थ रही। रोग का इतना वेग वढा कि नगर के वाहर हजारो चिताएँ लगने लगी और पुजारियो के प्रभाव से देव पूजा अटक गई। श्रावको मे से थोडे बहुत जो वच गये थे इकट्ठा होकर अपने भाग्य को कोसने और देवी-देवतानो की स्वार्थपरता की आलोचना करने लगे। उनकी यह अवस्था देखकर शासन देवी ने आकर कहा, "आप सन्ताप क्यो करते है । म्लेच्छो के प्रचड व्यन्तर ने सव देवी-देवताओ को दूर कर दिया है। ऐसी अवस्था में वतलाइए, हम क्या कर सकते ह' आज से तीन वर्ष वाद तरुष्को के हाथ नगर भग हो जावेगा, यह सब समझ कर आप जो चाहें करें, पर मै आपको एक उपाय बताती है जिसे आप सावधान होकर सुनिए, जिससे सघ की रक्षा हो। इस उपद्रव के शान्त होते ही आप हमारी वात मानकर इस नगर को छोडकर दूसरी जगह चले जायें।" देवी की बात मानकर श्रावको ने अपनी रक्षा का उपाय पूछा। देवी ने नगर के मकानो को मानदेव के पदधोवन स पवित्र करने को राय दी। उसकी राय में उपद्रव शान्ति का एकमात्र यही उपाय था। ... गुरु को बुलाने को वीरदत्त नाम का श्रावक भेजा गया। मानदेव के पास जया विजया नाम की दो देवियो गावठ देख उसे प्राचार्य के चरित्र पर कछ सन्देह हा और इसके लिए देवियो ने उसकी काफी लानत-मलामत की। तक्षशिला जाने से इनकार किया. पर उपद्रव के शमन के लिए कछ मन्त्र बतला दिये। वीरदत्त ने तक्षशिला "आकर लोगो को शान्तिस्तव वतलाया और उसके प्रभाव से कुछ ही दिनो में उपद्रव गान्त हो गया। उसके ३१ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ वाद लोग अपनी इच्छा से नगर छोडकर दूसरी जगह चले गये। तीन वर्ष बीतने पर तुरुष्को ने इस महा नगरी को नष्ट कर दिया। वहाँ अव तक (१३वी शताब्दी तक) पाषाण तथापीतल की मूर्तियां तहखानो में मिलती है (प्रभावकचरित, भूमिकालेखक कल्याणविजय जी, पृ० १८४-१८७, भावनगर, १६३०)। मुनि कल्याणविजय जी के अनुसार पट्टावलियो में दो मानदेवो का वर्णन है। मानदेव प्रथम २०वे पट्टधर थे और मानदेव दूसरे २८वे पट्टधर थे जो प्राचार्य हरिभद्र के परम मित्र थे। पट्टावलियो के अनुसार मानदेव प्रथम वीरनिर्वाण सवत् की आठवी शताब्दी मे हुए। अचल गच्छ की वृहत् पट्टावली में मानदेव सूरी को २१वा पट्टधर माना गया है और उनका समय ७३१ वीरनिर्वाण सवत् (वि० स० २६१, ई० सन् २०४) दिया है । पट्टावलियो की राय से मानदेव ई० सन् की तीसरी शताब्दी में हुए । लेकिन इन मानदेव सूरी का या इनके अनुयायियो का भाष्यो और चूर्णियो में जिक्र तक नहीं है (वही, भूमिका, पृ०७२)। तक्षशिला पर तुरुष्को के आक्रमण पर विचार करते हुए मुनि कल्याणविजय जी इस बात की ओर मकेत करते है कि यह घटना मानदेव के जीवन-काल में अर्थात् ई० सन् २०७ के पहले घटी होगी। उनका कहना है कि शायद ससानी राजा आदेशर ने ही तक्षशिला का नाश किया होगा, पर इसके लिए कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है (वही, पृ०७२-७३)। इस लडाई के पहले ही जैनसघ वहाँ से चल दिया और कल्याणविजय जी के मतानुसार पोसवाल जाति तक्षशिला इत्यादि पश्चिम पजाव के नगरो के जैनसघो से निकली हुई है। इस जाति की कई खासियतो को देखते हुए, जिनमें उनका और शाकद्वीपी ब्राह्मणो (सेवकों) का सम्बन्ध भी है, यह कहा जा सकता है कि प्रोसवालो के पूर्व पुरुष पश्चिम भारत से आये थे। तक्षशिला की चढाई का तीसरी शताब्दी के प्रारम्भ में होने का प्रमाण केवल इस घटना का मानदेव सूरि के समय मे होना ही है। अगर हम मानदेव सूरि की कथा की भली भांति जांच-पड़ताल करेंतो उनका तक्षशिला से केवल इतना ही सम्बन्ध देख पडता है कि उन्होने महामारी के शमन के लिए एक शान्तिस्तव भेजा और यह कथा पीछे से भी गढ ली जा सकती है। प्रभावकचरित्र में अनेक स्थल ऐसे है जहां पुराना नया सव मिला दिया गया है। पादलिप्ताचार्य की जीवनी में उनकी मान्यखेट के राष्टकूट राजा कृष्ण प्रथम (सन् ८१४-८७६) से मुलाकात लिखी है (वही पृ० ३५) जो नितान्त असम्भव है । बात यह है कि मुनियों के चरित्र कोई ऐतिहासिक दृष्टिविन्दुलेकर तो लिखे नही गये थे । इन परम्परागत चरित्रो के अधिकतर मौखिक होने के कारण अगर वाद के बडे-बडे राजामो के नाम उसमे जुटते गये हो तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लगता ऐसा है कि बहुत सी ऐतिहासिक अनुश्रुतियाँ किसी शास्त्र विशेष से सम्बन्धित न होकर केवल मौखिक थी। कालान्तर में घटना का समय तो लोगो को भूल गया, पर घटना ज्यो-की-त्यो रही। मुनियों के चरित मे उनका किसी घटनाविशेष से सम्बन्ध दिखला कर उनके अलौकिक गुणो को प्रकाश में लाना था, इसलिए पुरानी अनुश्रुतियो को किसी बाद के प्राचार्य के नाम के साथ जोड देना कोई ऐसी अनहोनी बात नहीं है। यह सब कहने का तात्पर्य केवल यही है कि पुरातत्त्व की खुदाई से जो प्रमाण मिले है उनसे तक्षशिला कुषाणो द्वारा ईसा की पहली शताब्दी में नष्ट हुआ और अनुश्रुति इस घटना का समय ईसा की तीसरी शताब्दी मानती है। पुरातत्त्व के प्रमाण अकाट्य है, इसलिए इस घटना का वास्तविक काल ईसा की पहली शताब्दी का अन्त ही मानना ठीक होगा । हाँ, अगर हम कनिष्क के काल को ई० सन् १२७ या उसके पीछे मान लें, जैसा बहुत से विद्वानो ने माना है तो शायद अनुश्रुति की ही वात ठीक रहे, क्योकि अधिकतर पट्टावलियो ने मानदेव को २०वा पट्टधर माना है और उनका समय वीरनिर्वाण का आठवां सैका है, जो ईसा की दूसरी शताब्दी के अन्त में पड़ता है। अब हमे देखना चाहिए कि तक्षशिला की खुदाई से तक्षशिला नगर का कुषाणो द्वारा नाश होने के प्रश्न पर क्या प्रकाश पडता है, और साथ ही हमें इस बात की भी पडताल करनी चाहिए कि जैनो का तक्षशिला से तथाकथित सम्बन्ध ठीक है या कोरी कल्पना। इस जांच के लिए हमें तक्षशिला के सिरकप नगर की खुदाई पर विशेष ध्यान देना होगा। सर जान मार्शल के कथनानुसार ई० पू० दूसरी शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में इडोग्रीक राजाओ ने नगर Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ जैन अनुश्रुतिया और पुरातत्त्व २४३ भौड के टोले मे हटाकर मिरकप में वसाया और यह नगर वरावर ग्रीक-शक, पल्लव और कुपाण काल तक अर्थात् वेम कदफिस (ई० सन् की पहली गताळी के अन्त तक) तक वरावर वमा था (माल, गाइट टु तक्षिला, पृ० ७८, तृतीय सम्करण)। शहरपनाह के अन्दर से जो भग्नावर्गप मिले है उनमें ऊपर के दो स्तर तो पह्नव और प्रारम्भिक कुषाण काल के है (ईमा की पहली शताब्दी)। उनके नीचे तीसरे और चौथे स्तर गक-पह्नव काल के है और उनके भी नीचे पांचवें और छठे स्तर ग्रोक काल के है (वही, पृ०७६)। सरकप के राजमार्ग के आसपास कुछ छोटेछोटे मन्दिर मिले हैं जिन्हेंसर जान मार्गल ने जैन मन्दिर बतलाया है (वही, पृ०८०)। ब्लाक 'जी' में, जो राजमार्ग के दाहिनी ओर स्थित है, वहुत मे बडे मकानो के भग्नावशेष मिले है जिनकी खास विशेषता यह थी कि उनके माथ-साथ निजी ठोटे मन्दिर भी बने होते थे। ये मन्दिर मटक की तरफ खुले होते थे जिसमें भक्तों को दर्शन में सुविधा होती यो।लाक 'जी' के एक वडे मकान में, जो ईया को पहली शताब्दी के मध्य में वना था, एक चैत्य पाया गया है जो सर जान माल के अनुमार जैन-धर्म का है। अपने इस सिद्धान्त की पुष्टि में मर जान का कहना है कि इन चैत्य-स्तूपी को बनावट मथुरा के अर्वचित्रो में अकित जैन-स्तूपो से बहुत मिलती-जुलती है (वही, पृ० ८७)। पुरातत्त्व की नहायता से अब हमें मालूम पड़ता है कि वास्तव में तक्षगिला के सम्बन्ध में जैन-अनुश्रुति ठीक है। एक समय तक्षशिला जनो का भी एक वटा केन्द्र रहा होगा, इसमें मगय करने की अव गुजाइश नहीं। ईया के प्रथम शताब्दी के अन्त में कपाणीने मिरकप पर धावा मारकर उसे तहस-नहम कर दिया और बाद में तक्षमिला का नया नगर मिग्मुख मे वमाया। कुपाणो का इस व्वमात्मक क्रिया का प्रमाण सिरकप की खुदाई में मिला है। ब्लाक 'डो' में प्रकठक (Apsidal temple) मन्दिर की पिछली दीवार से सटे हुए एक छोटे कमरे के फर्म में मोने-बांदी के बहुत मे गहने और वरतन मिले है। भर जान मार्शल का कहना है कि बहुत सम्भव है कि मरकप का यह खजाना तया और भी बहुत मे खजाने, जो खुदाई में मिले है, कुपाणी के नगर पर धावा बोलने पर जल्दी मे जमीन में गाट दिये गये थे (वही, पृ०१७)। ___ अब हम पुन तक्षशिला वाली जैन-अनुश्रुति पर ध्यान देना चाहिए और देखना चाहिए कि उममें जो दो-तीन बात कही गई है क्या वे इतिहास और पुरातत्त्व के प्रकाश में ठीक वैठती है ? पहली बात जो इस अनुश्रुति में हमारा ध्यान आकर्षित करती है वह है तुरुको द्वाग तक्षशिला का विध्वम । हमें मालूम है कि पश्चिमी तुरप्को का गज्य मानवी शताब्दी में तुम्बारिस्तान में आया जब तक्षशिला का नगर के म्प में पराभव हो चुका था, क्योंकि सातवी शताब्दी में ही जव युवान च्वाग ने उसे देखा तो अधिकतर वौद्धविहार नष्ट हो चुके थे और वहुत थोडे मे महायान वादमिनु वहाँ रहते थे (वाटर्म, युवान च्वाग, भाग १, पृ० २४०)। फिर ऐमी गडवट क्यों ? कारण माफ़ है। तुरुप्क आधिपत्य के समय के लेखको ने तुम्वार और तुरुष्क गब्दो को एक ही मान लिया है । डा० वागची के अनुसार नुवारा या कुपाणी का देश तोखारिस्तान मातवी गताब्दी में पश्चिमी तुर्कों के हाथ में चला गया। तब यह स्वाभाविक पाकि बाद के सस्कृत लेखक तुखारी और तुमको में गडबड कर बैठे (दी प्रोसीटिंग्स प्रॉव दीइडियन हिस्टोरिकल स, मिक्स्य मेगन, पृ० ३९) । तेरहवी सदी के अन्त के लेखक प्रभावकचरित के कर्ता प्रभाचन्द्र मुरि का भी इस पुरानो भूल का गिकार हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।। . दूसरी बात को ध्यान देने को है वह यह कि जन-मूर्तियो का तमगिला के मुइवरो मे तेरहवी शताब्दी तक मिलना। वरा का उलेख पाने से हमारे मामने फौरन सिरकप के वास्तुशास्त्र की एक विशेपता या खडी होती है, जिसका विवचन मर जान मार्गल ने अच्छी तरह किया है। मिरकप के घरो की एक खाम विशेषता यह है उनमें से कुछ में एक कमर मे दूसरे कमरे में जाने के रास्ते है, लेकिन उनमें एमे दरवाजा का पता मुश्किल में लगता है जिनमें पाचौक से प्रादमी भीतर जा सके। इसका कारण यह है कि मकान ऊँचे अविष्ठानो पर बनते थे और और ऐमा होने पर वे मिट्टी से भर दिये जाते जाअव दिन्बलाई देते है या तोनीव का काम देते थे कातहम्वानों के ऐसा उपयोग होता होगा, जिनमें पहुंचने के लिए अपर के कमरों मे सीढियां नगी होती होकर मडक मे या चौक से आदमी भीतरज मकान के ग्वड जो अब दिखलाई देते है या र हॉगया उनका तहखानो के एसा Page #273 --------------------------------------------------------------------------  Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ जैन अनुश्रुतिया और पुरातत्त्व २४५ मेरु यात्रा कर ली है और अगर देवता सर्वसघ को ले जाने में असमर्थ है तो वे भी नही जायेगे। लज्जित होकर देवता ने तत्काल देवो सहित मेरु-मन्दिर बनाने की प्रतिज्ञा की, जहाँ साधु गणसघ के सहित पूजा कर सके। रातोरात देवता ने सुवर्ण का रत्नजटित स्तूप बनाया, जो देवमूर्तियो से और तोरण, माला, ध्वजा, और त्रिछत्र से अलकृत था और तीन मेखलामो मे विभाजित था। प्रत्येक मेखला मे चारो ओर रत्नजटित देवमूर्तियां थी, जिनमें प्रधान मूर्ति सुपार्श्वनाथ को थो। प्रात काल जव नगरवासी जागे तो स्तूप देखकर आपस मे लडने लगे। कुछ ने मूर्ति को वासुकि-लाछन स्वयभूदेव को बतलाया, दूसरो ने शेषशायी नारायण से इसकी तुलना की। औरो ने इसे ब्रह्मा, धरणीन्द्र, सूर्य या चन्द्र वतलाया। बौद्धो ने इसे जैन-स्तूप न मानकर बुद्धमडल (बुद्धउण्ड) माना । बीच-बचाव करने वालो ने लोगो को लडने से रोका और कहा कि स्तूप देवनिर्मित है और वही देव सब की शकाओ का समाधान करेगा। बाद में प्रत्येक मत के अनुयायियो से अपने आराध्य देव के चित्रपट के साथ एक निश्चित समय इकट्ठे होने को कहा गया और यह बतलाया गया कि देव प्रेरित घटना से वही पट वच जायेगा जिस देव की स्तूप में मूर्ति है और वाकी तितर-बितर हो जायेंगे। सव मतो के अनुयायी अपने देवताओ के चित्रपटो के साथ नवमी को इकट्ठा होकर गायन-वादन करते हुए ठहर गये। आधी रात में वडे जोरो का अन्धड वहने लगा, जिससे पट उड गये और लोगो ने चारो ओर भाग कर अपनी जान बचाई। केवल सुपार्श्व का चित्रपट जहां-का-तहां स्थित रहा। लोगो ने पटयात्रा निकाली। अभिषेक प्रारम्भ होने पर पहले अभिषेक करने के लिए लोगो में लडाई होने लगी। इस पर वृद्धो ने एक कुमारी कन्या द्वारा एक सन्दूक से नाम निकलवाने की वात कही और यह भी निश्चित किया कि गरीब हो या अमीर जिसका भी नाम पहले निकलेगा वही अभिषेक का अधिकारी होगा। यह घटना दशमी को घटी। एकादशी के दिन मूर्ति का दूध,दही,घी, केशर और चन्दन भरे हजारो घट से अभिषेक हुआ। अभिषेक में अलक्ष्य देवो ने भी भाग लिया। वाद मे हजारो ने अभिषेक करके मूर्ति को धूप-वस्त्र और अलकारो से पूजा की। साधुओ को वस्त्र, घृत और गुड की भिक्षा दी गई। द्वादशी को मूर्ति को माला पहनाई गई। इस प्रकार साधु धर्मरुचि और धर्मघोष मूर्ति की पूजा करते हुए चातुर्मास वहाँ विताकर अन्यत्र पारणा करके अपने कर्मों को छिन्न करते हुए मुक्ति को प्राप्त हुए और मथुरा उसी दिन से सिद्धक्षेत्र हो गई। साधुओ की मृत्यु से दुखी वह देवी अर्धपल्योपम जीवन विता कर मनुष्य योनि में पैदा हुई और एक पीढी के बाद दूसरी पीढी में जो भी देवियाँ उस स्थान पर आई कुवेर नाम से सम्वोधित हुई। पार्वस्वामी के जन्म तक स्तूप अनावृत पडा रहा। इसी बीच मे मयुरा के राजा ने लालच मे आकर स्तूप को तोड देने की और उसका माल-मता खजाने मे दाखिल कर देने कोआज्ञा दी। कुल्हाडे ले-लेकर आदमी उसे तोडने लगे, पर उसका कुछ न विगडा, प्रत्युत तोडने वालो को चोटें लगी। इस पर राजा ने स्तूप पर स्वय कुल्हाडा चलाया और कुल्हाडे ने हाथ से फिसल कर राजा का सिर काट दिया। इस पर देवो क्रुद्ध होकर स्वय प्रकट हुई और लोगो को पापी कहकर नष्ट कर देने की धमकी दी। धमकी से डर कर लोगो ने देवता को प्रारावना की और उसने नाश से बचने का उपाय जिन की आराधना वतलाई । उसी दिन से वृहत्कल्पसूत्र के अनुसार मथुरा में घर के पालो मे मगल चैत्य की स्थापना आरम्भ हुई। उस समय से प्रत्येक वर्ष सुपार्श्व के चित्रपट को रथयात्रा होती थी और केवल वही राजा जीवित रह सकता था जो गद्दी चढने पर विना भोजन किये हुए जिन की पूजा करता था। एक समय पार्श्वनाथ विहार करते हुए मथुरा पधारे और सघ को उपदेश देते हुए उन्होने दुषमा काल मे आने वाली कठिनाइयो और विपत्तियो को बताया। अहंत के चले जाने पर देवी कुवेर ने सघ को आमन्त्रित करके पार्श्वनाथ को दुषमा काल सम्बन्धी भविष्यवाणी बतलाई, जिसमे आने वाले राजा प्रजा सहित लालची वतलाये गये थे। देवी ने यह भी कहा कि उसका सर्वदा जीवित रह कर स्तूप की रक्षा करना असम्भव था, इसलिए उसने सघ से स्तूप को इंटो से ढक देने की आज्ञा चाही । सघ के सदस्य वाहर से पार्श्वनाथ की पूजा कर सकते थे और सरक्षिका देवीस्तूप के भीतर थी। महावीर से १३०० वर्षों से भी अधिक समय वाद (करीव ७५० ई० सन्) वप्पट्टि का जन्म हुआ। उन्होने तीर्थ का जीर्णोद्धार करवाया तथा पूजा की सुविधा के लिए अनेक उपवन, कूएँ और भडार बनवाए। गिरती हुई ईटो को देखकर उसने जब स्तूप मरम्मत के लिए खोलना चाहा तो देवी ने स्वप्न मे उसे ऐसा Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ प्रेमी-अभिनंदन-प्रय करने से रोका। देवी की बात मानकर उन्होंने स्तूप पर चौकोर पत्थरो का श्रावरण लगवा दिया। आज दिन तक देव उसमे सुरक्षित है। हजारों मूर्तियो, देवकुलो, विहारो और गन्धकुटियो से सुसज्जित यह जिन भवन चिल्लणिका, अम्वार क्षेत्रपाली की सरक्षता में आज दिन भी विद्यमान है । श्रुति की व्यवहारभाष्य वाली अनुश्रुति से तुलना करने पर यह बात साफ हो जाती है कि व्यवहार माय वाली अनुश्रुति विविधतीर्थंकल्प की अनुश्रुति से कही अधिक पुरानी है । कुछ खास वातो में दोनो में भेद भी है। व्यवहारभाष्य में स्तूप का निर्माण साधुओ को उनकी ग्रहमन्यता का दंड देने के लिए हुआ था, लेकिन विविधतीर्थकल्प में उनकी रचना साघुग्रो को प्रसन्न करने के लिए दिखाई गई हैं । वाद की अनुश्रुति में स्तूप के बारे में भिन्न-भिन्न मतावलम्बियों की आपस की लडाई का विस्तृत वर्णन करके जैनो की अलोकिक शक्ति की मदद से जीत बतलाई गई हैं । व्यवहारसूत्र में इसका कोई उल्लेख नही है । उसमें तो केवल यही बतलाया गया है कि वौद्धो द्वारा जैन स्तूप अधिकृत होने पर मदद के लिए दैवीशक्ति का आह्वान किया गया और राजा ने जैनो द्वारा प्रस्तावित एक सीधे-सादे उपाय को मानकर न्याय किया और स्तूप जैनो को लौटा दिया । विविधतीर्थकल्प मे मथुरा के राजा को लालची कहकर उसे स्तूप लूटने की इच्छा रखने वाला बतलाया है और अलौकिक शक्ति द्वारा उसके शिरोच्छेद की भी कथा कही है। प्राचीन अनुश्रुति में इन नव वातो का पता तक नहीं है । विविघतीर्थंकल्प में जो वर्णन जैन स्तूप का है, वह व्यवहार मे नही आता । आगे चलकर हम उसकी उपादेयता दिखलायेंगे । दिगम्बर प्राचार्यों ने भी मथुरा के सम्वन्ध में कुछ अनुश्रुतियो का उल्लेख किया है । हरिषेणाचार्य रचित वृहत्कथाकोश में, जिसका रचनाकाल १३२ ई० है ( देखिए, डा० उपाध्ये, वृहत्कथाकोग, पृ० १२१, बम्बई, १९४३), वरकुमार की कथा में मथुरा के पचस्तूपों का वर्णन आया है। उनके निर्माण की कथा इस भांति दी है एक समय मथुरा का राजा पूतिमुख एक वौद्ध प्राचार्य द्वारा पालित एक रूपवती कन्या को देखकर मोहित हो गया। राजा ने बहुत सी दान-दक्षिणा वौद्ध साबुन को देकर उस सुन्दरी से विवाह करके उसे पटरानी बना दिया । फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को उर्विल्ला रानी ने जैन रथ-यात्रा निकालनी चाही। इस पर ईर्ष्या से श्रभिभूत होकर वौद्ध पटरानी ने राजा को इस बात पर मना लिया कि बोद्धरथ के बाद जैनरथ निकले। इससे दुखी होकर रानी उविल्ला जैन मुनि सोमदत्त के पास पहुँची और जिन के अपमान की बात कह सुनाई। सोमदत्त वरकुमार के पास पहुँचे और वैरकुमार उन्हें सान्त्वना देकर सोधे श्रमरावती पहुँचे । वहाँ दिवाकरादि देवो और विद्याधरो ने उनका स्वागत किया। यह पूछने पर कि सव कुशल तो है वैरकुमार ने बतलाया कि मथुरा में जिन-पूजा में किस तरह विघ्न हो गया है। यह सुनकर विद्याघर वडे ही कुपित होकर चल पडे । मथुरा में आकर सोमदत्त श्रादि मुनियों को उन्होने प्रणाम किया और मथुरान्त प्रदेश और पुर के आकाश में खेचरेश्वर भीषण रूप धारण कर छा गये तथा उन रथो को जिन पर बुद्ध की पूजा हो रही थी नष्ट कर डाला तथा उर्विल्ला का सोने का जडाऊ जैनरथ उन्होने वडे गाजे-बाजे के साथ पुर मे घुमाया तथा चाँदी के जडाऊदार पाँच स्तूप जिनवेश्म के सामने वनाये ('महारजतनिर्माणान् खचितान् मणिनायकै पचस्तूपान् विधायाग्रे समुच्च- जिनवेश्मनाम्', वही, १२१३२) । वाद धूप-दीप, पुष्प से नाच-गाकर जिन की पूजा करके विद्याधर स्वर्ग वापस चले गये (वृहत्कथाकोश, १२, १०१-१४३) । जाते हुए वे जिन-पूजा न करने वालो को नष्ट कर देने की धमकी भी देते गये । सोमदेव सूरी के यशस्तिलक चम्पू मे भी, जिसका समय शक स० ८८१ है ( ई० स० ६५९), यह अनुश्रुति प्राय बहुत मामूली हेर-फेर के साथ ज्यों-की-त्यो मिलती है (यशस्तिलक भाग २, पृ० ३१३-३१५, काव्यमाला, बम्बई, १९०३) । इसमें भास्करदेव का वस्त्रकुमार और देव सेना के साथ मथुरा आना लिखा है और जिनरथ को घुमाकर जिन प्रतिविम्वाकित एक स्तूप के स्थापना का भी जिक्र है । सोमदेव के समय तक उस तीर्थं का नाम देवनिर्मित था ('अत एवाद्यापि तत्तीर्थ देवनिर्मिताख्यया प्रयते', वही, पृ० ३१५) । " इन दिगम्बराचार्यो की मथुरा के जैन स्तूप विषयक अनुश्रुतियो की जाँच पडताल करने से पता चलता है कि " Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ जैन अनुभुतिया और पुरातत्त्व २४७ दोनो अनुश्रुतियाँ स्तूप के देवनिर्मित मानने में एक है । दोनो के अनुसार दिवाकरादि देवो की मदद से स्तूप बना । पर स्तूप एक था या पाँच इसके बारे में हरिषेण श्रौर सोमदेव की अनुश्रुतियो में भिन्नता है । हरिषेण स्तूपो की सख्या पाँच मानते है और सोमदेव केवल एक । जान पडता है कि सोमदेव प्राचीन श्वेताम्बर अनुश्रुति की ओर इशारा करते है और हरिषेण उसके वाद की किसी अनुश्रुति की ओर, जव स्तूप एक से पांच हो गये थे। रायपसेणइय सुत्त मे सूर्याभदेव द्वारा जो महावीर-वन्दना तथा स्तूप आदि का उल्लेख है शायद वही इन दोनो अनुश्रुतियो की पृष्ठ-भूमिका है । पचस्तूप कव वने इसका तो कोई वर्णन नही मिलता, पर ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सबसे पहले इसका पता पहाडपुर से मिले गुप्त सवत् के १५९ वर्ष ( ई० स० ४७९ ) के एक ताम्रपत्र से मिलता है ( एपि० इण्डि०, २०, पृ० ५६ से ) । इसमें नगर के अधिकरणअधिष्ठान के पास एक ब्राह्मण और उसकी पत्नी द्वारा तीन दीनारों के जमा किये जाने का जिक्र है, जिनके द्वारा कुछ जमीन खरीद कर उसकी आमदनी से वट- गोहाली विहार की जैन प्रतिमा का पूजन हो सके । इस विहार का प्रवन्ध प्राचार्य गुहनन्दिन् के शिष्य-प्रशिष्य करते थे । प्राचार्य गुहनन्दिन् काशी के थे और पचस्तूपान्वय थे (वही, पृ० ६० ) । ताम्रपत्र के सम्पादक के कथनानुसार गुहनन्दिन् दिगम्वर आचार्य थे । दिगम्बर जैन-सम्प्रदाय के तीन महान् प्राचार्य वीरसेन, जिनसेन और गुणभद्र मूल-सघ के पचस्तूप नामक अन्वय में हुए है, जो आगे चलकर सेनान्वय या सेनसघ के नाम से विख्यात हुआ । धवला, जयधवला और उत्तरपुराण के आधार पर प० नाथूराम जी प्रेमी का कहना है कि स्वामी वीरसेन और जिनसेन तो अपने वश को पचस्तूपान्वय लिखते है, पर गुणभद्रस्वामी ने उसे सेनान्वय लिखा है, और वीरसेन जिनसेन के बाद अन्य किसी भी आचार्य ने किसी ग्रन्थ मे पचस्तूपान्वय का उल्लेख नही किया है (प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ४९७, वम्बई, १९४२) । स्वामी वीरसेन का स्वर्गवास प्रेमीजी के अनुसार श० स० ७४५ (सन् ८२३) के लगभग ८५ वर्ष की अवस्था में हुआ (वही, पृ० ५१२ ) । जिनसेन की मृत्यु उन्होने ६० वर्ष की अवस्था मे ग० स०७६५ ( ई० स० ७६३) में मानी है । इन सब प्रमाणो से यह पता चलता है कि पचस्तूपकान्वयवश ईसा की पाँचवी शताब्दी में विद्यमान था और इसका अन्त ईसा की नवी शताब्दी में हो गया और फिर इसका सेनान्वय नाम पडा । श्रुतावतार के अनुसार, जो पचस्तूपनिकाय से आये, उन मुनियों में किसी को सेन और किसी को भद्र नाम दिया गया और कुछ लोगो के मत से सेन नाम ही दिया गया । अव प्रश्न यह उठता है। कि दिगम्बरो का पचस्तूपनिकाय कव से चला ? इस प्रश्न के उत्तर के लिए काफी खोज की जरूरत है । मथुरा मे ककाली टीले की खुदाई से मिले बहुत से उत्कीर्ण लेखो से श्वेताम्बर जैन कुल, शाखाग्रो, गणो और आचार्यों के नाम मिलते हैं, पर उनमें पचस्तूपान्वय निकाय का कही वर्णन नही है । ई० पू० द्वितीय शताब्दी और उसके वाद, महाक्षत्रपो के राज्यकाल के मिले हुए अभिलेखो से यह सिद्ध हो जाता है कि कम-से-कम ई० पू० २०० तक तो मथुरा में जैनस्तूप वन चुका था (एपि० इडि० २, पृ० १९५-९६) । कुषाण काल के स० ५ से सवत् १८ तक के तो बहुत से जैन-अभिलेख मिले है, जिनका समय शायद ई० सन् ८३ से लेकर ई० सन् १७६ तक हम मान सकते है (विसेंट स्मिथ जैनस्तूप आँव मथुरा, पृ० ५), पर इन लेखो से न तो पचस्तूपनिकाय का ही पता चलता है न श्वेताम्बर दिगम्बरो के भेद का ही । स० ७९ मे एक लेख से तो यह भी पता चलता है कि वासुदेव के राज्यकाल तक इस स्तूप का नाम देवनिर्मित था (वही, पृ० १२ ) । डा० फुहरर का कहना है कि ककाली टीला पर वीच वाला मन्दिर तो श्वेताम्वरो का था, पर दूसरा मन्दिर दिगम्बरो का था, जो वही पर मिले एक लेख के अनुसार वि० स० १०८० या ई० सन् ' १०२३ तक दिगम्बरो के हाथ में या (वही, पृ० ६) । पर इस कथन में प्रमाणो का सर्वदा अभाव है, क्योकि तथाकथित दिगम्बर मन्दिर से मिले हुए अभिलेख और मूर्तियाँ तथाकथित श्वेताम्बर मन्दिर से मिले हुए मूर्तियो और अभिलेखो से सर्वथा अभिन्न है । इन सव प्रमाणो को देखते हुए तो यही कहना पड़ता है कि जहाँ तक मथुरा का सम्वन्ध है वहाँ तक तो ईसा की दूसरी शताब्दी तक श्वेताम्बरो दिगम्बरो का भेद नही मिलता । हम देख श्राये है कि दिगम्बर-मत मथुरा के स्तूप को पचस्तूप मानने में एक नहीं है, सोमदेव उसे देवनिर्मितस्तूप और हरिषेण पचस्तूप मानते है । वास्तव में मथुरा के पुराने स्तूप का नाम देवनिर्मित था । लगता है कि ईसा की दूसरी शताब्दी Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ के बाद जब जैनधर्म से दिगम्बर श्वेताम्बर शाखाएं फूटी तो श्वेताम्बर देवनिर्मितस्तूप को ही मानते रहे, लेकिन दिगम्बरो ने मथुरा के किन्ही पांच स्तूपो को अपना मानकर उनके नाम पर एक निकाय चला दिया और देवनिर्मितस्तूप की प्राचीन अनुश्रुति को एक नया रग देकर एक देवनिर्मित स्तूप की जगह पांच स्तूप कर दिये। फिर भी सव दिगम्वरो ने इसे न माना, जैसा सोमदेव के यशस्तिलक से मालूम होता है। अभी तक हम स्तूप सम्वन्धी अनुश्रुतियो की जांच करते रहे है और उनसे यह पता चलता है कि स्तूप का नाम देवनिर्मित स्तूप था। वाद मे मतान्तर होने पर दिगम्बरो ने उसी स्तूप को या आस-पास के पांच स्तूपो को पचस्तूप नाम दिया। व्यवहारभाष्य से यह भी पता चलता है कि स्तूप पर वौद्धो ने छ महीने दखल कर लिया था जो वाद मे राजा को न्यायप्रियता से जैनो को लौटा दिया गया। दिगम्वरो की स्तूप सम्बन्धी अनुश्रुतियो से यह ध्वनि निकलती है कि बौद्धो ने जिनपूजा में कुछ गडवड की और राजा भी उनके पक्ष में था। चैत्य की रक्षा इन अनुश्रुतियो के अनुसार देवताओ ने की। स्तूप सम्बन्धी अनुश्रुतियो की भरपूर जांच कर लेने के बाद अब हमें देखना चाहिए कि पुरातत्त्व मथुरा के जैनस्तूप पर क्या प्रकाश डालता है । कनिंघम, पाउस और फुहरर की खोजो से यह पता चल गया कि मथुरा के दक्खिन-पच्छिम कोने में स्थित ककालीटीलाही प्राचीन काल में मथुरा का जैनस्तूप था,क्योकि वहाँ से स्तूप का भग्नावशेष वहुत सी जैन-मूर्तियां, आयागपट्ट और उत्कीर्ण लेख पाये गये। सन् १८६०-६१ की खुदाई में डा० फुहरर को एक टूटी मूर्ति की बैठक पर एकलेख मिला, जिसमे इस बात का उल्लेख है कि श्राविका दिना ने कोट्टियगण और वैरशाखा के अनुयायी प्राचार्य वृद्धहस्ति की सलाह से अरहत् नन्द्यावर्त की प्रतिमा देवनिर्मित वोद्व स्तूप मे स० ७६ में स्थापित को (स्मिथ, वही, पृ० १२)। इस अभिलेख की विशेषता यह है कि पुरातत्त्व की दृष्टिकोण से देवनिर्मित स्तूप का नाम सबसे पहले इसी लेख में मिलता है और इससे मथुरा के देवनिर्मित जैनस्तूप वाली प्राचीन अनुश्रुति की सचाई की भी पुष्टि होती है । डा० स्मिथ के मतानुसार इस लेख से, जो शायद १५७ ई० के वाद का नहीं है, यह पता चलता है कि उस समय तक स्तूप इतना अधिक पुराना हो चुका था कि लोग उसके वनाने वाले का नाम भूलकर उसे देवनिर्मित कहन लगे थे। इस बात से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि शायद स्तूप ईसा के कई मदियो पहले वना और शायद पुराने से पुराने बौद्धस्तूप के इतना पुराना वह रहा होगा (वही, पृ० १३)। इस स्तूप से श्री० ग्राउस को कई वौद्धमूर्तियां मिली (ग्राउस, मथुरा, पृ० ११६-११८, तृतीय सस्करण, १८८३) लेकिन ऐसा होना आश्चर्यजनक था, क्योकि ककाली टीला वास्तविक रूप से जैन-स्थान है और ऐसी जगह बौद्ध मूर्तियाँ कैसे आई यह किसी के समझ मे नही प्राता था, क्योकि बौद्धो और जैनो की धार्मिक प्रतिस्पर्धा बडे प्राचीन काल से चली आई है। डा० वुहलर ने फुहरर के पत्र का हवाला देते हुए लिखा है कि डा० फुहरर ने कंकाली टीला की खुदाई में कई मतो के धार्मिक चिह्नो को पाया, जिनमे दो जैन मन्दिर और बौद्ध स्तूप थे (जी० बुहलर, वियेना जर्नल, ४, पृ० ३१३-१४)। लगता है कि डा० वुहलर किसी तरह ककाली टीले से मिले हुए ईट के बडे स्तूप को वौद्ध स्तूप समझ गये, पर वास्तव में वह जैन है । डा० फुहरर ने डा० बुहलर को जो पत्र लिखा था उसमें बौद्ध स्तूप का जिक्र नही है (वही, पृ० १६६) । डा० बुहलर कथित बौद्ध स्तूप पाये जाने के आधार पर इस सिद्धान्त को पहुँचे कि ककाली टीला के ऊपरी स्तरो से जैन और बौद्ध मूर्तियो का मिलना वहाँ बौद्ध स्तूप का होना साबित करता है । अभाग्यवश डा० फुहरर ने ककाली टोला की खुदाई इतनी अवैज्ञानिक ढग से की है कि यह कहना विलकुल असम्भव है कि बौद्ध मूर्तियां टीले के किस भाग से मिली और उनका किसी इमारत विशेष से सम्वन्ध था या नहीं, लेकिन ककालीटीला से मिली हुई वौद्ध मूर्तियो की कम सख्या इस बात को बतलाती है कि कम-से-कम ककाली टीला पर वौद्ध प्रभाव थोडे ही दिनो के लिए था और उस थोडे से समय में या तो वौद्धों ने अपना कोई चैत्य वनवा लिया होगा या जवर्दस्ती किसी जैन चैत्य पर अपना अधिकार जमा कर उसमें बौद्ध मूर्तियां बैठा दी होगी। व्यवहारभाष्य की अनुश्रुति से इस भेद का पता साफ-साफ लग जाता है । अनुश्रुति में यह बात स्पष्ट है कि देवनिर्मित स्तूप बौद्धो के कब्जे में छ महीनो तक रहा और बौद्ध Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ जैन अनुश्रुतियां और पुरातत्त्व २४६ मूर्तियो का वहाँ होना इम कब्जे को मावित करता है । यह घटना कब हुई यह कहना तो कठिन है, लेकिन बुद्ध की मूर्तियो का वहाँ से मिलना ही यह बात सिद्ध करता है कि ईमा की पहली या दूसरी शताब्दी में यह घटना घटी होगी, क्योकि इसके पहले बुद्ध की कल्पना बुद्ध से सम्वन्धित पवित्र चिह्नो मे की जाती थी, जैसा कि भरहुत और साँची के चित्रो से प्रकट है । इस समय की पुष्टि ककाली टीले से मिले हुए छ वौद्ध मूर्तियो के अधिष्ठानो पर प्रति लेखी से भी होती है । ये लेख कनिष्क, हुविष्क और वामुदेव के राजत्व काल के है और वोविसत्व श्रमोघसिद्धार्थ की मूर्ति ईसा की पहली शताब्दी की है (स्मिथ द्वारा उद्धृत फुहरर, वही, पृ० ३ ) । जैन स्तूप के पास कुछ गडवडी हुई थी, इसका पता डा० * फुहरर के निम्नलिखित वात मे लगता है " एक खम्भा जिस पर शक काल का लेख उत्कीर्ण है एक प्राचीन जिनमूर्ति की पीठ काट कर बनाया गया है। एक दूसरी मूर्ति, जिस पर वैसा ही लेख है, एक अर्ध चित्रित पट को काट कर बनाया गया है जिसके पीछे एक प्राचीन लिपि में लेख है । इन बातो से इस बात की पुष्टि होती है कि शक राजत्व काल के जैन अपने प्राचीन मन्दिर की टूटी-फूटी मूर्तियो का व्यवहार नई मूर्तियों के बनाने में करते थे । वहुत प्राचीन अक्षरों में उत्कीर्ण लेख वाले तोरण के मिलने से यह पता चल जाता है कि ईसा पूर्व १५० में भी मथुरा में जैन मन्दिर था" (वही, पृ० ३) । श्रभाग्यवश अभिलेखो को देकर डा० फुहरर ने यह सिद्ध नही किया है कि वास्तव में पुरानी मूर्तियाँ बनाने वाले जैन थे, वे वौद्ध भी हो सकते है । फुहरर का यह विश्वास कि कुपाण काल के जैन अपनी पुरानी मूर्तियो को काट-छांट कर नई मूर्तियाँ बनाते थे हमे ठीक नही जँचता, क्योकि स्थापना के बाद टूट-फूट जाने पर भी देव मूर्ति श्रादर की दृष्टि मे सारे भारत में देखी जाती है और उसका उपयोग दूसरे काल में करना धार्मिक दृष्टि से ठीक नही समझा जाता । जैन-मूर्तियो की तोडफोड र पुनर्निर्माण का कारण वौद्धो का जैन स्तूप पर दखल हो सकता है । बई 1 ३२ ill |||| Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथों में भौगोलि सामग्री और भारतवर्ष में जैन-धर्म प्रसार श्री जगदीशचन्द्र जैन एम० ए०, पी-एच० डी० यह बताने की आवश्यकता नही कि भारतीय पुरातत्त्व की खोज में जैन-ग्रन्थो का, विशेषकर जैन- श्रागमो और उन पर लिखी हुई टीका-टिप्पणियो का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है, यद्यपि सबसे कम अध्ययन शायद इन्ही ग्रन्थो का हुआ है । इन ग्रन्थो में पुरातत्त्व सम्वन्धी, ऐतिहासिक, भौगोलिक तथा सामाजिक विपुल सामग्री भरी पडी है, जिससे भारत के प्राचीन इतिहास की अनेक गुत्थियाँ सुलझती है । प्रस्तुत लेख में हम इन ग्रन्थो की भौगोलिक सामग्री के विषय में चर्चा करेंगे । प्राचीन भारत में इतिहास की तरह भूगोल भी एक बडी जटिल समस्या रही है। मालूम होता है कि यह समस्या पूर्व समय में काफी जटिलता धारण कर चुकी थी और यही कारण है कि जव भूगोल- विषयक शकाओ का यथोचित समाधान न हुआ तो अध्यात्म-शास्त्र की तरह भूगोल-शास्त्र भी धर्म का एक अग वन गया और एतद्विषयक ऊहापोह वन्द कर भूगोल को सदा के लिए एक कोठरी में वन्द कर दिया गया । फल यह हुआ कि भूगोल विषयक ज्ञान अधूरा रह गया और उसका विकास न हो सका । यह बात केवल जैन- शास्त्रकारों के विषय में ही नही, वल्कि वौद्ध और ब्राह्मण-शास्त्रकारो के लिए भी लागू होती है । जैन-मान्यता के अनुसार मध्य-लोक अनेक द्वीप और समुद्रो से परिपूर्ण है। सबसे पहला जम्बूद्वीप हैं, जो हिमवन्, महाहिमवन्, निषेध, नील, रुक्मि और शिखरिन्, इन छ पर्वतो के कारण भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हरण्यवत और ऐरावतइन सात क्षेत्रो में विभाजित है । उक्त छ पर्वतो से गंगा - सिन्धु आदि चौदह नदियाँ निकलती हैं। जम्बूद्वीप को चारो ओर से घेरे हुए लवणसमुद्र है, तत्पश्चात् घातकीखड द्वीप, कालोदसमुद्र, पुष्करवर द्वीप आदि अनगिनत द्वीप और समुद्र है, जो एक दूसरे को वलय की तरह घेरे हुए है । सक्षेप में यही जैन पौराणिक भूगोल है । दुर्भाग्य से इस पौराणिक भूगोल का उस समय क्या आधार रहा होगा, यह जानने के हमारे पास इस समय कोई साधन नही है । परन्तु छानवीन करने पर इतना अवश्य मालूम होता है कि जिस भूगोल को हम पौराणिक अथवा काल्पनिक कहते हैं, वह सर्वथा काल्पनिक नही कहा जा सकता। उदाहरण के लिए जैन-भूगोल की नील पर्वत से निकल कर पूर्व समुद्र में गिरने वाली सीता नदी को लीजिए। चीनी लोग इस नदी को सितो ( S1-to) कहते है, यद्यपि यह किसी समुद्र में नही मिलती तथा काशगर की रेती में जाकर विलुप्त हो जाती है । बहुत सम्भव है कि ये दोनो नदियाँ एक हो । वौद्ध ग्रन्थो के अनुसार भारतवर्ष का ही दूसरा नाम जम्बूद्वीप है । इसी तरह वर्तमान हिमालय का दूसरा नाम हिमवत है जिसका उल्लेख पालि-ग्रन्थो में भी मिलता है । निषघ पर्वत की पहचान हिन्दुकुश से की जाती है तथा पूर्व विदेह, जिसे ब्रह्माण्ड पुराण में भद्राश्व के नाम से कहा गया है, पूर्वीय तुर्किस्तान और उत्तर चीन का हिस्सा माना जाता है ।" नायाघम्मकथा के उल्लेखो से मालूम होता है कि हिन्दमहासागर का ही दूसरा नाम लवणसमुद्र था । तथा कुछ विद्वानो के अनुसार मध्य एशिया के एक हिस्से का नाम पुष्करद्वीप था । * ' ज्यॉग्रेफिकल डिक्शनरी, नन्दलाल डे, पृ० १४१ 'स्टडीज इन इन्डियन ऐन्टिक्विटीज, रायचौधुरी, पू० ७५-६ देखिए श्रध्याय ८, ६ और १७ 'ज्यॉप्रेफिकल डिक्शनरी, पृ० १६३ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-ग्रयों में भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जैन-धर्म का प्रसार २५१ असल में वात यह हुई कि प्राचीन काल में आजकल की तरह यात्रा के साधन सुलभ न होने से लोगो का भूगोलविषयक ज्ञान विकसित न हो सका। परन्तु इसके साथ ही श्रद्धालु भक्तों को यह भी समझाना जरूरी था कि हम भगोल-विज्ञान में भी पीछे नहीं हैं। इसके अतिरिक्त विविध देश, पर्वत, नदी आदि के ठीक-ठीक मापने आदि के साधन भी प्राचीन काल मे इतने सुलभ न थे। इतना होने पर भी आँखो-देखे स्थानो के विषय में सम्भवत हमारे पूर्व पुरुषो का ज्ञान ठीक कहा जा सकता हो, परन्तु जहाँ अदृष्ट स्थानो का प्रश्न आया वहाँ तो उनकी कल्पनाओ ने खूब उड़ानें मारी, और सख्यात-असख्यात योजन आदि की कल्पनाएँ कर विषय को खूब सज्जित और अलकृत बनाया गया। ___इतिहास बताता है कि अन्य विज्ञानो की तरह भूगोल-विज्ञान का भी शन-शनै विकास हुआ। ज्यो-ज्यो भारत का अन्य देशो के साथ व्यापार-सम्बन्ध वढा और व्यापारी लोग वाणिज्य के लिए अन्य देशो में गये, उन्हें दूसरे देशो के रीति-रिवाज आदि जानने का अवसर मिला और उन्होने स्वदेश लौटकर उस ज्ञान का प्रचार किया। इसी प्रकार धर्मोपदेश के लिए जनपद-विहार करने वाले जैन-श्रमणो ने भी भूगोल-विषयक ज्ञान को बढाया। वृहत्कल्पभाष्य में कहा गया है कि देश-देशान्तर अमगा करने से साबुन की दर्शन-शुद्धि होती है तथा महान् आचार्य आदि की सगति से वे अपने आपको धर्म में अधिक स्थिर और विद्या-मन्त्र आदि की प्राप्ति कर सकते है। धर्मोपदेश के लिए साघु को नाना देशो की भाषा में कुशल होना चाहिए, जिससे वह उन-उन देशो के लोगो को उनकी भाषा में उपदेश दे सके। जनपद-परीक्षा करते समय कहा गया है कि साधु इस बात की जानकारी प्राप्त करे कि कौन से देश में किस प्रकार से धान्य की उत्पत्ति होती है कहां वर्षा से धान्य होते हैं, कहां नदी के पानी से होते है, कहां तालाव के पानी से होते है, कहाँ कुएं के पानी से होते है, कहां नदी की वाढ से होते हैं और कहाँ धान्य नाव में रोपे जाते हैं। इसी प्रकार साधु को यह जानना आवश्यक है कि कौन से देश में वाणिज्य से आजीविका चलती है और कहाँ के लोग खेती पर जीवित रहते हैं तथा कहाँ लोग मास-भक्षण करते है और कहां पुष्प-फल आदि का बहुतायत से उपयोग होता है। जैन-अन्थो से पता चलता है कि देश-विदेशो में जन-श्रमणो का विहार क्रम-क्रम से वढा। महावीर का जन्म कुडग्राम अथवा कुडपुर (आधुनिक वसुकुड) में हुआ था और उनका कार्यक्षेत्र अधिकतर मगध (विहार) ही रहा है। एक बार महावीर साकेत (अयोध्या)में सुभूमिभाग उद्यान में विहार कर रहे थे। उस समय उन्होने निम्नलिखित सूत्र कहा-"निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थिनी साकेत के पूर्व में अग-मगध तक विहार कर सकते हैं, दक्षिण में कौशाम्बी तक विहार कर सकते है, पश्चिम में स्थूणा (स्थानेश्वर) तक विहार कर सकते है तथा उत्तर में कुणाला तक विहार कर सकते है। इतने ही क्षेत्र आर्यक्षेत्र है, इसके आगे नहीं। इतने ही क्षेत्रो मे साधुओ के ज्ञान-दर्शन और चारित्र अक्षुण्ण रह सकते है। इस उल्लेख से स्पष्ट है कि प्रारम्भ में जैन-श्रमणो का विहार आधुनिक विहार और पूर्वीय और पश्चिमीय सयुक्तप्रान्त के कुछ भागो तक ही सीमित था, इसके वाहर उन्होने पाँव नही वढाया था। परन्तु कुछ समय पश्चात् राजा सम्प्रति के समय में जैन-श्रमणसघ के इतिहास में एक अद्भुत क्रान्ति हुई और जैन-श्रमण मगध की सीमा छोडकर दूर-दूर तक विहार करने लगे। राजा सम्प्रति नेत्रहीन कुणाल का पुत्र था, जो - चन्द्रगुप्त का प्रपौत्र, विन्दुसार का पौत्र तथा अशोक का पुत्र था। कहते हैं कि जब राजा अशोक पाटलिपुत्र में राज्य करते थे और कुमार कुणाल उज्जयिनी के सूवेदार थे तो अशोक ने कुणाल को एक पत्र लिखा कि "कुमार अव आठ वर्ष के हो गये है, इसलिए वे शीघ्र विद्याध्ययन आरम्भ करें (शीघ्रमधीयता कुमार)।" सयोगवश कुणाल की सौतेली ११-१२२६-१२३६ 'बृहत्कल्पसूत्र १.५० Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ प्रेमी-अभिनंदन-प्रय मां उस समय वहीं बैठी हुई थी। उसने एक सलाई लेकर अपने थूक द्वारा 'अ' के ऊपर अनुस्वार लगा दिया और अव 'अघीयता' के स्थान पर अघीयता' हो गया। पत्र कुणाल के पास पहुंचा। जब उसने खोलकर पढा तो उसमें लिखा था कि कुमार शीघ्र अन्धे हो जाये (अधीयतां कुमार) मौर्यवश की आज्ञा का उल्लंघन करना अशक्य था। अतएव कुणाल ने तपती हुई एक लोहे की सलाई द्वारा अपनी आँखें आंज लीं और सदा के लिए नेत्रहीन हो गया। कुछ समय पश्चात् कुणाल अज्ञातवेष में पाटलिपुत्र पहुंचा और राजसमा में जाकर यवनिका के भीतर गन्धर्व किया। राजा अशोक कुणाल का गन्धर्व देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसने उसे वर मांगने को कहा। कुणाल ने 'काकिणी" के वहाने राज्यश्री की याचना की और अपने पुत्र सम्प्रति को राजगद्दी पर बैठाया। सम्प्रति उज्जयिनी का बड़ा प्रभावशालीराजा हुआ। जन-ग्रन्यो में सम्प्रति की बहुत महिमा गाई गई है। सम्प्रति आर्य-सुहस्तिन् तथा आर्य-महागिरि का समकालीन था। सम्प्रति के विषय में कहा है कि उसने नगर के चारो दरवाजो पर दानशालाएं खुलवाई और श्रमणो को वस्त्र आदि देने की व्यवस्था की। उसने अपने रसोइयो को जन-श्रमणों का भक्त और पान से सत्कार करने का आदेश दिया और प्रात्यन्तिक राजाओ को बुलाकर श्रमणसघ की भक्ति करने को कहा। अवन्तिपति सम्प्रति दड, भट और भोजिक आदि को साथ लेकर रथयात्रा में सम्मिलित होता था और रथ के आगे विविध पुष्प, फल, खाद्य, कौडियां और वस्त्र आदि चढाकर अपने को धन्य मानता था। सम्प्रति ने अपने योद्धाओ को शिक्षा देकर साधु के वेष में सीमान्त देशों में भेजा, जिससे इन देशों में जैन-श्रमणो को शुद्ध भक्तपान की प्राप्ति हो सके। इस प्रकार राजा सम्प्रति ने आन्ध्र, द्रविड, महाराष्ट्र और कुडुक्क (कुर्ग) आदि जैसे अनार्य देशो को जैन-श्रमणो के सुखपूर्वक विहार करने योग्य बनाया। इसके अतिरिक्त सम्प्रति के समय से निम्नलिखित साढ़े पचीस देश आर्यदेश-माने गये, अर्थात् इन देशो में जैनधर्म का प्रचार हुमा देश राजधानी १ मगष २ अम ३ वग ४ कलिंग ५ काशी ६ कोशल ८ कुशार्त ६ पाचाल १० जागल ११ सौराष्ट्र १२ विदेह १३ वत्स १४ शाडिल्य १५ मलय १६ मत्स्य राजगृह चम्पा ताम्रलिप्ति कांचनपुर वाराणसी साकेत गजपुर सोरिय (शौरिपुर) कापिल्यपुर अहिच्छत्रा - द्वारवती मिथिला कौशाम्बी नन्दिपुर भद्रिलपुर वैराट 'एक रुपये के प्रस्सी भाग को 'काकिणी कहते है। यह एक प्रकार का सिक्का था । 'बृहत्कल्पसूत्रमाष्य १.३२७५-३२८९ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जननायों में भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जैन धर्म का प्रसार राजधानी श्रच्छा मृत्तिकावती शुक्तिमती वीनिमय देग १७ वरणा १८ १६ चंदि २० विधुन्नीर २१ मन २२ भगि २३ नट्टा (१) २८ गान २५ नाव २ मयुग पापा भानपुरी श्रावन्नि कोटिवर्ष दवेतिका' २५३ १ मगव ( राजगृह) मग एक प्राचीन देश गिना जाता है। उनकी गणना सोलह जनपद में की गई है। शेष जनपद है-ग, वर्ग, माप, मानव, ग्रन्छ, बन्छ, बन्छ, पाट, नार, बज्जि, मोलि, कामी, कोमल, श्रवाह (१), श्रीर मम्नुत्तर (१) । मग महावीर और वृद्ध की धर्म-प्रवृत्तियों का एर सामरेन्द्र था। मगर, प्रभान और वरदाम इनकी गणना भारत के माननीयों में की गई है जो श्रम से पूर्व पश्चिम और दक्षिण में अवस्थित थे, यद्यपि ब्राह्मण प्रन्या में मगध को पारभूमि बनाया है । श्राधूनिक पटना और गया जिलों को प्राचीन मगर कहा जाता है। मगन की राजधानी राजगृह (ग्रामुनिग राजगिर) थी, जिनकी गणना चम्पा, मथुरा, वागणमी, श्रावस्ति, नान कापल्यपुर, शाम्बी, मिथिना और हस्तिनापुर इन प्राचीन राजधानियों के साथ की गई है। राजगृह न महानगीपनीरप्रनय नामय गरम पानी के कूट के होने या उल्लेख मिलता है । यह कुड लम्बाई में पाँच मी धनुप था श्री भार पर्वत के पास बहना था । राजगृह व्यापार का बड़ा भारी केन्द्र था और यहां दूर-दूर से लोग माल बेचने श्रौर उरीदने के लिए श्राते थे । राजगृह में महावीर भगवान् के चौदह वर्षावास व्यनीत करने का उल्लेख आता है ।` प्रसिद्ध नान्या विश्वविद्यालय राजगृह के समीप था। बौद्ध ग्रन्थी के अनुसार पाण्डव, गिज्नकूट, वेभार, इनिगिलि तया वैपुन्न इन पांच पहाडियों से घिरे रहने के कारण राजगृह का दूसरा नाम गिरित्रज था। इन पांच पहाडियां में वैभार श्री विनाच पहाडियां का जैन ग्रन्थों में विशेष महत्त्व बनाया गया है और यहाँ मे अनेक निर्तन्य और निर्ग्रन्थिनियो ने तपश्चर्या कर मोदा-साघन किया है । मगव की राजधानी होने के कारण गजगृह का दूसरा नाम मगवपुर भी था। गाविपति राजा श्रेणिक ( भभमार) राजगृह में राज्य करता था । 'बृहत्कल्पसूत्रभाष्य १३२६३ वृत्ति । भगवती १५ 'ठाणाग ३ १४२; श्रावश्यक चूणि, पृष्ठ १८६ 'ठाणांग १०७१७; निशीय सूत्र ६ १६ * भगवती २५ पालि ग्रन्थों में इसका तपोदा के नाम से उल्लेख है (डिक्शनरी श्रॉव पालि प्रॉपर नेम्स, मलालमेकर, देखिए 'तपोदा') । 'कल्पसूत्र ५ १२३ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ २ अग (चम्पा) प्राचीन काल मे अग मगध देश के ही अन्तर्गत माना जाता था। अगलोक की गिनती सिंहल (सीलोन), बब्बर, चिलात लोक, जवणदीव, आरबक, रोमक, अलसन्द (एलेक्जेन्डिया) तथा कच्छ इन देशो के साथ की गई है। कहा जाता है कि भरत-चक्रवर्ती ने दिग्विजय के समय इन देशो को जीतकर इन पर अपना अधिकार किया था।' भागलपुर तथा मुगेर जिलो को प्राचीन अग माना जाता है। चम्पा (भागलपुर) अग देश की राजधानी थी, जिसकी गणना दस राजधानियो में की गई है। प्राचीन भारत में चम्पा एक अत्यन्त सुन्दर और समृद्ध नगर था। यह व्यापार का एक बहुत बडा केन्द्र था और यहाँ वणिक् लोग बडी दूर-दूर से माल खरीदने आते थे। चम्पा के व्यापारी अपना माल लेकर मिथिला, अहिच्छत्रा, पिहुड (चिकाकोल और कलिंगपट्टम का एक प्रदेश) आदि अनेक स्थानो में व्यापार के लिए जाते थे। राजगृह की तरह महावीर ने चम्पा में भी अनेक चतुर्मास किये थे और महावीर के अनेक शिष्यो ने यहाँ विहार किया था। सम्मेदशिखर की तरह जैन-ग्रन्थो में चम्पा एक पवित्र तीर्थ माना गया है, जहाँ से अनेक निर्ग्रन्थ तथा निर्गन्थिनियो ने मुक्ति पाई। श्रेणिक की मृत्यु के पश्चात् कूणिक (अजातशत्रु) को राजगृह में रहना अच्छा न लगा और उसने चम्पा को अपनी राजधानी बनाया। दधिवाहन चम्पा का दूसरा उल्लेखनीय राजा था। चेटक की कन्या पद्मावती इसकी रानी थी। एक बार कौशाम्बी के राजा शतानीक ने दधिवाहन पर चढाई की और दधिवाहन अपनी रानी और वसुमती नामक कन्या को छोडकर भाग गया। शतानीक का एक ऊँट-सवार वसुमती को कोशाम्बी ले आया और उसे वहां के एक समृद्ध व्यापारी के हाथ बेच दिया। आगे जाकर यही वसुमती चन्दनबाला के नाम से प्रसिद्ध हुई, जो महावीर की सर्वप्रथम शिष्या बनी और जो बहुत काल तक जैन-श्रमणियो की अग्रणी रही। भग-मगध का दूसरा प्रसिद्ध नगर था पाटलिपुत्र अथवा कुसुमपुत्र (पटना)। चम्पा में कूणिक का देहान्त हो जाने के पश्चात् उसके पुत्र उदायी को चम्पा में रहना अच्छा न लगा और उसने पाटलिपुत्र को मगध की राजधानी बनाया। पाटलिपुत्र जैन-श्रमणो का केन्द्र था, जहाँ जैनसूत्रो का उद्धार करने के लिए जन-साधुनो का प्रथम सम्मेलन हुआ था। ३ वग (ताम्रलिप्ति) वग (पूर्वीय बगाल) की गणना सोलह जनपदो में की गई है। वग एक वडा व्यापारिक केन्द्र समझा जाता था। 'जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ५२ पृ० २१७ चूणि पृ० १६१ 'प्रोपपातिकसूत्र १ 'नायाघम्मकहा ८, ६, १५; उत्तराध्ययनसूत्र २१.२ "कल्पसूत्र ५.१२३ "बृहत्कल्पभाष्य १.१२२७ 'आवश्यकचूणि, २, पृ० १७१ 'आवश्यक नियुक्ति ५२० इत्यादि; कल्पसूत्र ५.१३५ 'आवश्यफ चूणि, २, पृ० १७६ 'वही, पृ० १८७ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ग्रंथों में भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जैन धर्म का प्रसार २५५ ताम्रलिप्ति (तामलुक) एक व्यापारिक केन्द्र था और यह खासकर कपडे के लिए प्रसिद्ध था । यहाँ जलमार्ग और स्थलमार्ग दोनी प्रकार से माल आता-जाता था । यहाँ मच्छरों का वहृत प्रकोप था । तामलित्तिया नामक जैन श्रमणो की एक प्रसिद्ध शाखा थी जिससे मालूम होता है कि ताम्रलिप्ति जैन श्रमणो का केन्द्र रहा होगा । * इसके अतिरिक्त, वगाल में पुंड्रवर्धन (राजगाही जिला) जैन श्रमणी का केन्द्रस्थल रहा है । पुडवद्धणिया नामक जैन श्रमणो की शाखा का उल्लेख कल्पसूत्र में आता है ।" चीनी यात्री हुइनत्याग ने पुडूवन में बहुत मे दिगम्बर निर्ग्रन्यो के पाये जाने का उल्लेख किया है ।' वगाल का दूसरा महत्त्वपूर्ण स्थान कोमला ( कोमिला ) था । खीमलिज्जिया नाम की शाखा का उल्लेख कल्पसूत्र में मिलता है। इसमे मालूम होता है कि यह स्थान प्राचीन समय में काफ़ी महत्त्व रखता था । ४ कलिंग (कचनपुर) कलिंग (उडीसा ) के राजा खारवेल ने अंग-मगव से जिन प्रतिमा वापिस लाकर यहाँ स्थापित की थी । कलिंग की राजवानी कंचनपुर (भुवनेश्वर ) थी । यह नगर एक व्यापारिक केन्द्र था और यहाँ के व्यापारी लका तक जाते थे।' कचनपुर जैन साधुओ का विहार-स्थल था । इसके अतिरिक्त कलिंग में पुरी ( जगन्नाथपुरी) जैनी का खास केन्द्र था । यहाँ जीवन्तस्वामी प्रतिमा होने का उल्लेख जैन-ग्रन्थों में आता है ।" श्रावको के यहाँ अनेक घर थे । वज्रस्वामी ने यहाँ उत्तरापथ से आकर माहेसरी (माहिष्मती) के लिए विहार किया था। उस समय यहाँ का राजा वौद्धधर्मानुयायी था । वौद्धो का यहाँ जोर था । " पुरी व्यापार का एक वडा केन्द्र था, और यहाँ जलमार्ग से माल आता-जाता था ।" कलिंग का दूसरा महत्त्वपूर्ण म्यान तोसलि था । यहाँ महावीर ने विहार किया था। उन्हें यहाँ सात वार पकडा गया, परन्तु यहाँ के तोमलिक क्षत्रिय ने उन्हें छुड़ा दिया ।" तोसलि में एक सुन्दर जिनप्रतिमा थी, जिसकी देखरेख तोसलिक नामक राजा किया करता था।" यहाँ के लोग फल-फूल के बहुत शौकीन थे ।" यहाँ वर्षा के प्रभाव में नदी के पानी से खेती १ 'व्यवहारभाष्य ७.६ १ 'बृहत्कल्पभाष्य १.१०६० 'सूत्रकृतांग टीका ३.१ कल्पसूत्र ८, पृ० २२७ अ । ५ ' वही । "युवान च्वांगस ट्रैवेल्स इन इन्डिया, वाटर्स, जिल्द २, पृ० १८४ " कल्पसूत्र ८, पृ० २३१ C 'वसुदेवहडी, पृ० १११. * श्रोषनिर्युक्तिभाष्य ३० १० 'प्रोघनियुक्ति टीका. ११६ 'श्रावश्यक नियुक्ति ७७२: श्रावश्यक चूर्णि, पृ० ३६० निशीय चूर्णि ५, पृ० ३४ ( पुण्यविजय जो की प्रति ) । १३ 'श्रावश्यक नियुक्ति ५१० ११ व्यवहारभाष्य ६.११५ इत्यादि 'बृहत्कल्पभाष्य १-१२३६, विशेष चूर्णि । १५ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ प्रेमी-अभिनंदन-मंथ, होती थी। कभी-कभी यहाँ अत्यधिक वर्षा के कारण फसल नष्ट हो जाती थी और जन-साधुओं को ताड के फलो पर रहकर गुजर करनी पडती थी। तीसलि में बडी-बडी भयानक भैसें होती थी। कहते है कि एक बार इन्होने तोसलि प्राचार्य को मार डाला था।''डॉक्टर सिल्वेन'लेवी कटके में धौलि नामक ग्राम को प्राचीन तीसलि मानते है। ५ काशी (वाराणसी) काशी व्यापार का एक बडा केन्द्र था। काशी और कोशल के अठारह गणराजा,वैशाली के राजा चेटक की अोर से कूणिक के विरुद्ध लडे थे। काशी के राजा शख का उल्लेख जैन-ग्रन्थो में प्राता है, जो महावीर का समकालीन था और जिसने महावीर के समीप दीक्षा ग्रहण की थी। जैनदीक्षा ग्रहण करने वाले अन्य राजानो से वीरागक, वीरयश, सजय, एणेयक, श्वेत (सेय), शिव और उदायन ये राजा मुख्यरूप से गिनाये गये है। दुर्भाग्यवश इन राजानो के विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती। वाराणसी (बनारस) पार्श्वनाथ का जन्मस्थान था। महावीर और बुद्ध ने यहाँ अनेक बार विहार किया या। हेमचन्द्र के समय काशी और वाराणसी एक समझे जाते थे। ६ कोशल (साकेत) । कोशल अथवा कोशलपुर (अवध) जैन लोगो का एक प्राचीन स्थान, था। जैसे वैशाली में जन्म होने के कारण महावीर को वैशालिक कहा जाता है, वैसे ही ऋषभनाथ को कोशलिक (कोसलिय) कहा जाता है। ऋषभनाथ ने कोशल में विहार किया था और इस देश की गणना भारत के मध्यदेशो में की जाती थी। कोशल का प्राचीन नाम विनीता था। कहते है विनीता के निवासी नाना प्रकार की कलानी में कुशल थे, इसलिए लोग विनीता को कुशला नाम से कहने लो।' दशपुर तथा उज्जयिनी के समान, कोशल देश जीवन्तस्वामीप्रतिमा-के-लिए-प्रसिद्ध था। कोशल के लोग सोवीर (एक प्रकार की मदिरा) और कूर (चावल) के बहुत शौकीन होते थे। बौद्ध-ग्रन्थों के अनुसार श्रावस्ति और साकेत ये कोशल की दो राजधानियां थी तथा सरयू नदी बीच में श्रा-जाने के कारण यह-देश उत्तर कोशल और दक्षिण कोशल में विभक्त था। साकेत में पाश्वनाथ और महावीर ने अनेक बार विहार किया था। कहा जाता है कि यहाँ कोटिवर्ष के राजा चिलात को महावीर ने दीक्षा दी थी। साकेत की पहचान उन्नाव जिले में साई नदी पर सुजानकोट के ध्वसावशेषो से की जाती है। 'बृहत्कल्पभाष्य १.१०६० चूणि, पृ० २४७ 'प्री आर्यन एड विडियन इन इन्डिया, बागची, पृ० ६३-७२ *निरयावलि १ 'स्थानांग २.६२१ 'जम्बूद्वीपप्राप्ति ३.७० * टीका (मलयगिरि), पृ० २१४ 'बृहत्कल्पभाष्य ५.५८२४ "पिडनियुक्ति ६१६ नियुक्ति १३०५ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . WAY Dawns 12 KAM प " .. 6 . r LEVAN S Ji.. . , V F १ EMALE ER. SHIVRAamare 19 . 0 5 saniyS MP: A - EHTAS 14. . .. नर-नारायण तपश्चर्या विष्णुमदिर का पूर्व की ओर का शिलापट्ट [पुरातत्त्व विभाग के मौजन्य से Page #287 --------------------------------------------------------------------------  Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर कालीन भारत बाहल (गम्य विला जवन % •पुरितपुर धिारतेस - तकससिला जंगल (तिवेट) -- - - सिरोटीर स्वीतिमय 3D मिहिमा P पुदिन ' वासिय मा यु मगध, की भाणीmaAAPus. nिg मोरेशीम कोमिला । जेणों मलयाम धमि मरियम + । खभात गराव CHAR anta ) ममिति Mrwa भात भयपुर ) मर- दगक तगरा नि पाल सोmyam द1ि8 काका घT 334 ਯੇ ੧੨ ADMAA ल IITUTATNTS. ३१ दयपुर का श्री सन्मति पुस्तकालय 24 जैन ग्रयो में भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जैन धर्म का प्रसार Page #289 --------------------------------------------------------------------------  Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-प्रथो में भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जैन-धर्म का प्रसार २५७ ७ कुरु (गजपुर) कुरु (थानेश्वर) की राजधानी का नाम गजपुर अथवा हस्तिनापुर था। कहते है कि यहाँ के शिव राजा को महावीर ने दीक्षा दी थी। गजपुर जैन लोगो का एक प्राचीन तीर्थ माना जाता है। ८ कुशात (शौरिपुर) आनट्ठ (आनर्त), कुसट्ठ (कुशावर्त), सुरट्ट (सौराष्ट्र) तथा सुक्कर? (शुष्कराष्ट्र) ये चार प्रदेश पश्चिमी समुद्र के किनारे अवस्थित थे और वारवई (द्वारका) इनका सर्वश्रेष्ठ नगर था। इससे मालूम होता है कि यह प्रदेश पश्चिम में सौराष्ट्र के आसपास कही होना चाहिए। परन्तु सोरिय अथवा शौरिपुर जमुना नदी के किनारे अवस्थित था तथा शौरि राजा ने अपना मथुरा का राज्य अपने लघु भ्राता सुवीर को देकर स्वय कुशावर्त देश में जाकर शौरिपुर नगर बसाया' और जरासन्ध के भय से शौरिपुर और मथुरा के यादव लोग अपने-अपने नगर छोडकर पश्चिम दिशा मे द्वारका में जाकर रहे इन उल्लेखो से मालूम होता है कि कशावर्त शरसेन के आसपास का प्रदेश होना चाहिए। सम्भव है दो कुशावर्त रहे हो-एक पश्चिम में और दूसरा उत्तर में। जैन-ग्रन्थो के अनुसार शौरिपुर कृष्ण और नेमिनाथ की जन्मभूमि है। प्राचीन तीर्थमाला के अनुसार आगरा जिले में शकुराबाद स्टेशन के पास वटेसर नामक गाँव प्राचीन सौर्यपुर माना जाता है । ९ पाचाल (कापिल्यपुर) पाचाल (रुहेलखड) की राजधानी कापिल्यपुर (कपिल) थी, जो गगा के किनारे अवस्थित थी। प्राचीन काल में पाचाल उत्तर और दक्षिण भागो में विभक्त था। महाभारत के अनुसार उत्तर पाचाल की राजाधानी अहिच्छत्रा थी और दक्षिण की कापिल्य। १० जागल (अहिच्छत्रा) जागल या कुरुजागल की पहचान गगा और उत्तर पाचाल के बीच के प्रदेश से की जाती है। इसकी राजधानी अहिच्छत्रा (रामनगर) थी,जो चम्पा के उत्तर-पूर्व (१) (उत्तर-पश्चिम) में अवस्थित थी। चम्पा और अहिच्छत्रा में परस्पर व्यापारिक सम्बन्ध था। अहिच्छत्रा एक पवित्र स्थान था, जिसकी गणना अष्टापद, उज्जयन्त (रेवतक), गजानपुर, धर्मचक्र (तक्षशिला) तथा रथावर्त पर्वत के साथ की गई है । विविधतीर्थकल्प के अनुसार अहिच्छत्रा का दूसरा नाम शखवती था। यह नगरी प्रत्यग्ररथ अथवा शिवपर" नाम से भी प्रसिद्ध थी। 'भगवती ११६ 'वसुदेवहिंडी, पृ० ७७ 'कल्पसूत्र टीका ६, पृ० १७१ "वही पृ० १७६ "उत्तराध्ययन २२ 'भाग १, भूमिका, पृ० ३८ 'नायाधम्मकहा १५ 'प्राचाराग नियुक्ति ३३५ "अभिधानचिन्तामणि ४.२६ 'वही, पृ० १४ " . टीका ५.१२३ ३३ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन-ग्रय २५८ ११ सुराष्ट्र (द्वारका) मौराष्ट्र (काठियावाड) की गणना महाराष्ट्र, आन्ध्र और कुडुक्क (कुर्ग) देशो के साथ की गई है, जिन्हें सम्प्रति राजा ने जैन-श्रमणो के विहार योग्य बनाया। कहते है कि कालकाचार्य यहाँ पारसकूल (पशिया) से छियानवें शाहो को लेकर आये और इस कारण यह देश छियानवे मडलो मे विभाजित किया गया। सुराष्ट्र व्यापार का एक वडा केन्द्रस्थल था और यहाँ दूर-दूर के व्यापारी माल खरीदने आते थे।' द्वारका एक अत्यन्त सुन्दर और समृद्ध नगर गिना जाता था। इस नगर के उत्तर-पश्चिम में प्रसिद्ध रेवतक (गिरनार) पर्वत अवस्थित था, जो दशाह राजाप्रो को अत्यन्त प्रिय था। यहाँ अरिष्टनेमि ने मुक्ति पाई थी। कहते है कि यादवो के अत्यधिक मदिरापान से द्वारका का नाश हुआ। द्वारका व्यापार का एक बडा केन्द्र था और व्यापारी लोग यहाँ नेपाल पट्टण से नाव द्वारा आते-जाते थे। कुछ विद्वान् आधुनिक द्वारका को द्वारका न मानकर जूनागढ को प्राचीन द्वारका बताते हैं।' १२ विदेह (मिथिला) विदेह (तिरहुत) में महावीर का जन्म हुआ था। विदेह-निवासी होने के कारण महावीर की माता त्रिशला विदेहदत्ता (विदेहदिन्ना) कही जाती थी तथा रानी चेलना के पुत्र कूणिक को विदेहपुत्र कहा जाता था। विदेह व्यापार का केन्द्र था। मिथिला (जनकपुर) मे महावीर द्वारा छ चातुर्मास किये जाने का उल्लेख आता है ।" मैथिलिया नाम को एक जैन-श्रमणो की प्राचीन शाखा थी।" यहाँ आर्य महागिरि का विहार हुआ था। जिनप्रभ मूरि के समय मिथिला नगरी 'जगड' के नाम से प्रसिद्ध थी।" बौद्ध-ग्रन्थो के अनुसार वैशाली (वसाढ) विदेह की राजधानी थी और यह मध्यदेश का एक प्रधान नगर माना जाता था। वैशाली लिच्छवी लोगो का केन्द्र था। जैन-ग्रन्थो मे वैशाली का राजा चेटक एक वडा प्रभावशाली राजा हो गया है। वह गणराजानो का मुखिया था और उसने अपनी सात कन्याओं को विभिन्न राज-धरानो में देकर उनसे सम्बन्ध स्थापित किया था। चेटक की कन्या प्रभावती वीतिभय के राजा उदायन के साथ, पद्मावती चम्पा के राजा दधिवाहन के साथ, मृगावती कौशाम्बी के राजा शतानीक के साथ, 'बृहत्कल्पभाष्य १.३२८९ 'वही १९४३ दशवकालिक चूणि, पृ० ४० 'नायाधम्मकहा ५ 'अन्तगडदसानो ५ 'निशीय चूणि पीठिका (एनसाइक्लोस्टाइल की हुई प्रति), पृ० ६१ "इन्डियन हिस्टोरिकल क्वारटर्ली, १९३४, पृ० ५४१-५० 'कल्पसूत्र ५.१०६ 'भगवतीसूत्र ७६ "कल्पसूत्र ५१२३ "वही, पृ० २३१ "प्रावश्यक नियुक्ति ७८२ "विविधतीय, पृ० ३२ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-प्रयों में भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जन-धर्म का प्रसार २५९ शिवा उज्जयिनी के राजा प्रद्योत के माथ, ज्येष्ठा महावीर के बडे भाई नन्दिवर्वन के माय और चेल्लना राजगृह के राजा श्रेणिक के नाय व्याही गई थी। चेटक की वहिन त्रिगला महावीर की मां थी। महावीर के वैगाली में वारह चातुर्मान किये जाने का उल्लेख कल्पमूत्र में आता है। डॉक्टर होनाल के अनुसार वाणियगाम वैशाली का इमरा नाम है। __ १३ वत्स (कौगांवी) वत्स को वौद्ध ग्रन्यो में वग के नाम से कहा गया है। प्रयाग के आसपास की भूमि को वत्स देश माना जाता है। कौशाम्बी (कोनम) जमना के किनारे अवस्थित या। यहां महावीर, आर्य मुहस्तिन् और आर्य महागिरि ने विहार किया था। कोसबिया नामक एक जैन-श्रमणो को प्राचीन भाता थी। राजा शतानीक कौशाम्बी में राज्य करता था। एक बार उज्जयिनी के राजा प्रद्योत ने कौशाम्बी पर चढाई की। राजा शतानीक अतिमार से मर गया और रानी मृगावती ने प्रद्योत की मलाह से अपने पुत्र उदयन को राजगद्दी पर बैठाकर स्वय महावीर के पास जाकर जैनदीना वारण की। १४ गाडिल्य (नन्दिपुर) नडिन्म अथवा नाडिल्य को राजधानी नन्दिपुर थी। नन्दिपुर का उल्लेख विपाकमूत्र म मिलता है। कथाकोग के अनुसार मन्दर्भ देश में अवस्थित नन्दिपुर के राजा का नाम पद्मानन वताया गया है। अवध में हरदोई जिले में नडीला नामक एक स्थान है, यह प्राचीन गाडिल्य हो मक्ता है। १५ मलय (भद्दिलपुर) मलय मगव के उत्तर में अवस्थित था और मम्भवत यहां कपडे बहुत अच्छे बनते थे।' मलय देश की पहचान पटना के दक्षिण और गया के दक्षिण-पश्चिमी प्रदेश में की जाती है। गया जिले में अवस्थित हरवारिया और दन्तारा गांवो के पाम के प्रदेश को भद्रिलपुर माना जाता है।" १६ मत्स्य (वैराट) मल्य (अलवर) की राजधानी वैराट थी। देहली से दक्षिण-पश्चिम की ओर १०५ मील तथा जयपुर से ४१ मील उत्तर में अवस्थित प्रदेश को वैराट माना जाता है। 'आवश्यक चूणि, २, पृ० १६४ इत्यादि 'वही पृ० ५.१२३ 'उवासकदसा प्रो, पृ० ३ नोट * निशीथ चूणि, ५, पृ० ४३७ "कल्पसूत्र ८, पृ० २२६अ। 'अावश्यक टोका (मलय०), पृ० १०२ 'टॉनी (Tavney), पृ० १२४ ‘निशीथ चूणि ७, पृ० ४६७; अनुयोगद्वारसूत्र ३७ 'श्रमण भगवान महावीर, कल्याणविजय, पृ० ३८१ "वही, पृ० ३८० Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कल्पसूत्र, पृ० २३० अ । कल्पसूत्र में वारण के स्थान पर चारण पाठ है, परन्तु यह पाठ अशुद्ध है । देखिए बिना पोरिडियल जरनत, भाग ३, १८०६, पृ० २३४, डॉ० बहलर का लेख * ज्याग्रफिक्त क्र्त्स्न्येन्यून प्रॉव दो महामायूरी, डॉ० सिल्वेन लेवी, अनुवादक डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल, रतन आंत्र दी यू०पी० हित्वोरिकल सोसायटी, जिल्द १५, भाग २ 1 'आवश्यक चूर्णि, पृ० ४७६ 'आवश्यक चूपि. पू० १५६ निशीय चूर्णि ५० पू० ३४ ( पुप्यविजय जी की हस्तलिखित प्रति ) आचारांग चूर्ण, पृ० २२६ 'वीर निर्वाण और कालगणना, मुनिक्ल्याणविजय, पृ० १० ८ 'मरणतमाथि ४७०, ४७२. पृ० १२८१ आवश्यक टीका (मलय), पृ० ३६५ प्र 'आवश्यक चूर्णि, पृ० ३६४, ४०२ 1 . १० बृहत्कल्पभाष्य १.३२७७ 72 'वही, ६.६१०३ इत्यादि 'प्रावश्यक चूपि, पृ० ३९४, ४०३ 'शबैकासिक चूमि, पृ० ३६ १३ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन प्रथो में भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जैन-धर्म का प्रसार २६१ आदि जैन श्रमणो ने इस नगर में विहार किया था । उज्जयनी व्यापार का वडा केन्द्र था और वडे-बडे व्यापारी लोग यहाँ वाणिज्य के लिए श्राते थे ।' आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार यह नगर विशाला, अवन्ति और पुष्पकरण्डिनी नाम से भी प्रख्यात था । प्रद्योत और सम्प्रति उज्जयिनी के वडे प्रभावशाली राजा हो गये है । १९ चेदि (शुक्तिमती) चेदि (बुन्देलखड) की राजधानी शुक्तिमती थी । मध्यप्रान्त मे अवस्थित बाँदा जिले के पास का प्रदेश शुक्तिमती माना जाता है । शुक्तिमती का उल्लेख महाभारत में आता है । २० सिन्धुसौवीर (वीतिभय ) अभयदेव के अनुसार सौवीर देग (सिन्ध) सिन्धु नदी के पास होने के कारण सिन्धुसौवीर कहा जाने लगा ।' सिन्धु देश में जैन-श्रमणो को विहार करना निषिद्ध कहा गया है । इस देश मे बहुत बाढ आने के कारण खतरा रहता था तथा यह चरिका, परिव्राजिका, कार्पाटिका, तच्चन्निका (बौद्धसाध्वी) तथा भागवी आदि अनेक पाखडी श्रमणियो का निवास स्थान था । अतएव यह बताया गया है कि यदि दुष्काल, विरुद्ध - राज्यातिक्रम या अन्य किसी अपरिहार्य पत्ति के कारण जैन साधु को वहाँ जाना ही पडे तो यथाशीघ्र लौट आना चाहिए। इसके अतिरिक्त इस देश में खान-पान की शुद्धता न थी । यहाँ मास भक्षण का रिवाज था और उसे निन्दनीय न समझा जाता था । यहाँ के लोग शराव पीते थे और शराब पीने के बरतन से ही पानी पी लिया करते थे।' इस देश में फटे-पुराने वस्त्र पहन कर भिक्षा पाना कठिन था । उसके लिए साफ वस्त्रो की आवश्यकता होती थी ।' जैनसूत्रो से ज्ञात होता है कि राजा सम्प्रति ने सर्वप्रथम इस देश को जैन श्रमणो के विहार-योग्य बनाया। इसका मतलब यह है कि इसके पूर्व यह देश अनार्य माना जाता था । हमारी समझ से भगवान् महावीर का मगध देश से सिन्धुसौवीर देश में जाकर राजा उदायन को प्रतिबोध देने का जो उल्लेख है, उसका उक्त उल्लेख के साथ मेल न खाने से वह सगत नही मालूम होता । जैसा हम पहले कह आये है, महावीर ने साकेत के पूर्व में अग-मगघ तक, दक्षिण में कौशाम्बी तक, पश्चिम में स्थूणा तक और उत्तर में कुणाला तक के प्रदेश को ही श्रार्यक्षेत्र माना है, फिर उनका सिन्धु- सौवीर जैसे अत्यन्त अनार्य और सुदूरवर्ती प्रदेश जाना कैसे सम्भावित है ? यद्यपि इन देशो के बाहर महावीर ने लाढ जैसे अनार्य देश मे विहार किया है, परन्तु उसका विस्तृत वर्णन जैनसूत्रो में मिलता है और वह प्रदेश बिहार के पास बगाल में ही था । वौद्धो के दिव्यावदान के अन्तर्गत उद्रायण-अवदान में राजा उद्रायण की जो कथा श्राती है, वह बहुत कुछ जैन-ग्रन्थो की कथा से मिलती-जुलती है । सम्भ है, जैन-ग्रन्थकारो ने उस कथा को अपनाकर जहाँ उदायन की दीक्षा की बात आई वहाँ उसे महावीर के हाथ से दीक्षा दिलवाकर कथा के प्रवशिष्ट भाग को पूरा किया हो। इसके अतिरिक्त, कल्पसूत्र मे महावीर ने जो बयालीस चातुर्मास व्यतीत किये, उनमें (छद्यस्थ अवस्था में) पहला चातुर्मास अस्थिकग्राम मे, तीन चम्पा और पृष्ठ- चम्पा में, आठ वैशाली और वाणियगाम में, (उपदेशक अवस्था में) चार वैशाली और वाणियगाम मे, चौदह राजगृह और नालन्दा में, छ चूर्णि २, पृ० १५४, 'श्रभिधानचिन्तामणि ४.४२ भगवती टीका १३६ बृहत्कल्पभाव्य १.२८८१; ४५४४१ इत्यादि ५ निर्युक्ति १२७६ वही १-१२३ε निशीय चूर्णि १५, पृ० १२१ (पुण्यविजय जी की प्रति) Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन-ग्रय २६२ मिथिला में, दो भद्दिय में, एक पालभिया में, एक पणियभूमि में, एक श्रावस्ती में और एक पावा में व्यतीत किये है। इस उल्लेख से स्पष्ट मालूम होता है कि महावीर का विहारक्षेत्र बिहार, उत्तर-पश्चिमी वगाल और पूर्वीय युक्तप्रान्त का कुछ भाग ही रहा है। ऐसी हालत में उनका सिन्धुसौवीर देश में जाकर उदायन को प्रतिवोध देना नही जंचता। यदि महावीर मगध से सिन्धुसौवीर गये और वहाँ से वापिस मगध लौटकर आये तो मगध और सिन्धुसौवीर के बीच में कही-न-कही उनके चतुर्मास करने का या विहार करने का तो उल्लेख अवश्य पाता, परन्तु इनकी विहारस्थली में सिन्धुसौवीर के आसपास या मगध और सिन्धुसौवीर के मध्य के प्रदेशो का कही उल्लेख नही है। मालूम होता है कि जैसे बौद्ध-ग्रन्थकारो ने आगे चलकर वुद्ध की विहारस्थली में पजाव आदि प्रदेश समाविष्ट कर लिये, वही वात समय वोतने पर जैन-लेखको ने महावीर के विषय में की। वस्तुत हमारी समझ से ये दोनो महापुरुप विहार, वगाल और सयुक्तप्रान्त के बाहर नही गये। ___ वोतिभय, जिसका दूसरा नाम कुमारपक्खेव (कुभारप्रक्षेप) भी है, सिन्धुसौवीर की राजधानी था। कहते है कि एक बार जैनदीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् उदायन राजर्षि किसी कुम्हार के घर ठहरे हुए थे। उस समय उन्हें उनके भानजे ने विप दे दिया और उनका प्राणान्त हो गया। तत्पश्चात् वहां देवो ने धूल की घोर वृष्टि की, जिसके फलस्वरूप कुम्हार के घर को छोडकर समस्त नगर नष्ट हो गया। अतएव इस नगर का दूसरा नाम कुभारपक्खेव पड़ा। कुभारपक्खेव सिणवल्लि में अवस्थित था। सिणवल्लि एक वडा विकट रेगिस्तान था, जहां व्यापारी अक्मर मार्गभ्रष्ट हो जाते थे और क्षुधा-तृपा से पीडित हो अनेको को अपने जीवन से हाथ धोना पडता था। पजाव में मुजफ्फरगढ जिले में सनावन या सिनावत नामक एक स्थान है, जहां की जमीन ऊसर है । सम्भवत यही सिणवल्लि हो अथवा सिन्ध या पजाव का कोई अन्य रेतीला स्थान प्राचीन सिणवल्लि होना चाहिए। अभयदेव के अनुसार कुछ लोग विदर्भ देश को वोतिभय कहते हैं, परन्तु यह ठोक नही। २१ शूरसेन (मथुरा) मथुरा के आसपास का प्रदेश शूरसेन कहा जाता था। मथुरा एक अत्यन्त प्राचीन नगरी मानी जाती है, जहाँ जैन-श्रमणो का बहुत प्रभाव था। उत्तरापथ मे मथुरा एक महत्त्वपूर्ण नगर था, जिसके अन्तर्गत छियानवे ग्रामी मे लोग अपने घरो मे और चौरायो (चच्चर-चत्वर) पर जिनमूत्ति की स्थापना करते थे। मथुरा में एक देवनिर्मित स्तूप या, जिसके लिए जैन और बौद्धो में झगडा हुआ था। कहा जाता है कि अन्त मे जैनो की जीत हुई और स्तूप पर उनका अधिकार हो गया।" मथुरा आर्यमगु और आर्यरक्षित आदि अनेक जैन-श्रमणो का विहार 'कल्पसूत्र ५१२३ 'प्रावश्यक चूणि २, पृ० ३७ 'वही, पृ० ३४, ५५३ *भगवती टीका १३६ 'उत्तरा० चूर्णि, पृ० ८२ 'वृहत्कल्पभाष्य ११७७४ इत्यादि "व्यवहारभाष्य ५२७ इत्यादि । मथुरा के ककाली टोले की जो खुदाई हुई है, उसके शिलालेखो में गण, कुल, और शाखाम्रो का उल्लेख है। वह उल्लेख भद्रबाहु के कल्पसूत्र में ज्यो-का-त्यो मिल जाता है। इससे ज्ञात होता है कि ईसा की प्रयम शताब्दी में मथुरा में जैनो का काफी जोर था (देखिए आकियोलॉजिकल सर्वे रिपोर्ट, भाग ३, प्लेट्स १३-१५, बुहलर, दो इन्डियन सेक्ट ऑव दी जैन्स पृ० ४२-६०, वियना ओरिन्टियल जरनल, जिल्द ३, पृ० २३३-२४०; जिल्द ४, पृ० ३१३-३३१) 'मावश्यक पूणि २, पृ०० 'मावश्यक पूणि, पृ० ४११ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन प्रथो में भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जैन-धर्म का प्रसार २६३ स्थल था । यहाँ अनेक पाखडी साधु रहते थे । श्रतएव मथुरा को पाखडिगर्भ कहा जाता था ।' जैनसूत्रो का सस्करण करने के लिए मथुरा में अनेक जैन श्रमणो का सघ उपस्थित हुआ था । यह सम्मेलन माथुरी वाचना के नाम से प्रसिद्ध है । मथुरा भडीरयक्ष की यात्रा के लिए प्रसिद्ध था । यह नगर व्यापार का बडा भारी केन्द्र था और विशेषकर वस्त्र के लिए प्रसिद्ध था । यहाँ के लोग व्यापार पर ही जीवित रहते थे, खेती-बाडी पर नही ।" यहाँ स्थलमार्ग से माल आता-जाता था । मथुरा के दक्षिण-पश्चिम की ओर महोली नामक ग्राम को प्राचीन मथुरा बतलाया जाता है । २२ भाग (पापा) सम्मेदशिखर के आसपास का प्रदेश, जिसमें हज़ारीबाग और मानभून जिले गर्भित है, प्राचीन समय में भगदेश कहा जाता था । इसकी राजधानी पापा थी, जो कुशीनारा के पास अवस्थित मल्लो की पापा नगरी से तथा बिहार के पास की महावीर की मोक्षभूमि मज्झिमपावा अथवा पावापुरी से भिन्न है । २३ वट्टा ( माषपुरी) माषपुरी जैन श्रमणो की एक शाखा थी ।" इस प्रदेश का ठीक-ठीक पता नही चलता । २४ कुणाल (श्रावस्ती ) जैन-ग्रन्थो के अनुसार कुणाल नगरी अचिरावती नदी मे वाढ आ जाने के कारण नष्ट हो गई थी, जिसकी पुष्टि वौद्ध ग्रन्थो से होती है ।" कहते हैं कि इस घटना के तेरह वर्ष पश्चात् महावीर ने केवलज्ञान प्राप्त किया । श्रावस्ती में पार्श्वनाथ के अनुयायी केशिकुमार तथा महावीर के अनुयायी गौतम का सम्मेलन हुआ था, जिसमें पार्श्व और महावीर के सिद्धान्त - सम्वन्धी अनेक प्रश्नो पर चर्चा होने के पश्चात् दोनो धर्मप्रवर्त्तको के सिद्धान्तो में समन्वय किया गया था ।" महावीर ने अनेक बार श्रावस्ती मे विहार किया । बुद्ध ने भी यहाँ बहुत-सा काल व्यतीत किया था । अचिरावती (राप्ती) नदी के किनारे सहेट-महेट नामक स्थान को प्राचीन श्रावस्ती माना जाता है, जिसका उल्लेख जिनप्रभ सूरि ने अपने विविधतीर्थंकल्प में 'महेठि' नाम से किया है । " २५ लाढ (कोडिवरिस ) लाढ अथवा राढ देश दो भागो में विभक्त था - एक वज्रभूमि ( वीरभूमि), दूसरा शुभ्रभूमि ( सिंहभूम ) । महावीर ने इन दोनो प्रदेशो मे विहार किया, जहाँ उन्हें अनेक कष्ट सहन करने पडे थे । लाढ में बहुत अल्प गाँव थे, १ 'श्राचाराग चूर्णि, पृ० १६३ नन्दि चूर्ण, पृ० ८ 'श्रावश्यक टीका (हरिभद्र ), पृ० ३०७ 'बृहत्कल्पभाष्य ११२३६ 'श्रमण भगवान् महावीर, पृ० ३७ε कल्पसूत्र ८, पृ० २३० देखिए श्रावस्ती इन एनशिएन्ट लिटरेचर, ि ११ 'उत्तराध्ययनसूत्र २३ ३ इत्यादि १० चूर्णि, पृ० २८० चूर्ण, पृ० २८१ चूर्ण, पू० ६०१ लॉ, पृ० ३१ १२०७० Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ २६४ अतएव यहाँ महावीर को वसति मिलना भी मुश्किल होता था। वज्रभूमि के निवामी रूक्ष भोजन करने के कारण म्वभावत क्रोधी होते थे और वे महावीर को कुत्तो से कटवाते थे। आधुनिक हुगली, हावडा, वाकुरा, बर्दवान और मिदनापुर के पूर्वीय भाग को प्राचीन लाढ देश वताया जाता है । ___कोटिवर्प जैन-श्रमणो की एक मुख्य शाखा बताई गई है। इसमे मालूम होता है कि बाद मे चलकर यह प्रदेश जैन-श्रमणो का केन्द्र बन गया था। यहां के राजा चिलात के महावीर द्वारा जैनदीक्षा लिये जाने का उल्लेख पहले किया जा चुका है। कुछ विद्वान् दीनाजपुर जिले मे वरीगढ को प्राचीन कोटिवर्ष मानते है। २५६ केकयी अर्ध (श्वेतिका) केकयी देश के आधे भाग को आर्यक्षेत्रो मे गिना गया है। इससे मालूम होता है कि समस्त केकयी मे जैनधर्म का प्रचार नहीं हुआ था। यह देश श्रावस्ती के उत्तर-पूर्व मेनपाल की तराई मे अवस्थित था तथा इसे उत्तर के केकयी देग से भिन्न समझना चाहिए। श्वेतिका से गगा नदी पार कर महावीर के सुरभिपुर पहुंचने का उल्लेख जन-ग्रन्थो मे आता है । बौद्धग्रन्थो में इसे सेतव्या नाम से कहा गया है। यह स्थान कोशल में था। जैन-श्रमणो का प्रवेश नेपाल मे भी हुआ था। इस प्रान्त में भद्रबाहु, स्थूलभद्र आदि जैन-साधुओ ने विहार किया था। नेपाल में रहकर स्थूलभद्र ने भद्रबाहु स्वामी से पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया था। नेपाल में चोरो का भय नही था तथा यहाँ जन-साधु कृत्स्न वस्त्र धारण कर रह सकते थे। यह स्थान रूबेदार कम्वलो के लिए प्रसिद्ध था। इन साढे पचीस प्रार्यक्षेत्रो के अतिरिक्त, अन्य स्थलो मे भी जैन-श्रमण धर्मप्रचार के लिए पहुंचे थे। जैसा पहले कहा जा चुका है, राजा सम्प्रति ने दक्षिणापथ में जैनधर्म का प्रसार किया। जान पडता है कि इसके पूर्व जैनधर्म दक्षिण में नहीं पहुंचा था। यही कारण है कि उक्त साढे पच्चीस आर्यक्षेत्रो में दक्षिण का एक भी प्रदेश नही आया है। परन्तु जैमा जैन-ग्रन्थो से पता चलता है, कुछ समय बाद दक्षिणापथ जैन-श्रमणो का वडा भारी केन्द्र बन गया था और भिक्षा आदि की सुविधा होने से जैन-साधु इस प्रान्त में विहार करना प्रिय समझते थे। इस प्रान्त में श्रावको के अनेक घर थे।" राजा मम्प्रति ने दक्षिणापथ को जीतकर उसके सीमात राजानो को अपने वश मे किया था। प्राचीन काल में अवन्ति नगरी दक्षिणापथ मे सम्मिलित की जाती थी। गगा के दक्षिण और गोदावरी के उत्तर का हिस्सा दक्षिणापथ कहा जाता है। 'प्रावश्यक नियुक्ति ८४३, प्राचाराग सूत्र ६३ पावश्यक नियुक्ति ४६२, प्राचारागसूत्र ६३ 'कल्पसूत्र ८, पृ० २२७ अ *डी लहरे डर जैनास, शूब्रिड् पृ० ३६ "आवश्यक नियुक्ति ४६६ 'दीघनिकाय, २, पृ० ३२६ "आवश्यक चूणि २, पृ० १८७ 'बृहत्कल्पभाष्य ३.३९१२ 'वही ३३८२४ "बृहत्कल्पभाष्य १.२६९७ "निशीय चूणि १५, पृ० ६६६ "वृहत्कल्पभाष्य १३२७६ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-ग्रंथों में भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जन-धर्म का प्रसार २६५ दक्षिण भारत के अन्य प्रदेशो में सवमे प्रथम आन्ध्र देश का नाम आता है, जहाँ जैन-श्रमणो ने पहुंच कर अपने धर्म का प्रचार किया था। आन्ध्रदेश की राजधानी धनकटक (वेजवाडा) मानी जाती है। गोदावरी तथा कृष्णा नदी के बीच के प्रदेश को प्राचीन आन्ध्र देश मानते है । प्रान्ध्र के पश्चात् दमिल अथवा द्रविड देश का नाम आता है। इस देश में प्रारम्भ मे जैन-माधुओ को वसति मिलना बहुत दुर्लभ था। अतएव उन्हें लाचार होकर वृक्ष आदि के नीचे ठहरना पडता था। काचीपुरी (काजीवरम) द्रविड का प्रसिद्ध नगर था, जहां का 'नेलक' सिक्का दूर-दूर तक चलता था। काची के दो नेलक कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) के एक-एक नेलक के वरावर होते थे।' कवेरीपट्टन द्रविड का एक बन्दरगाह था, जिसकी पहचान मलावार तट या उत्तर सीलोन से की जाती है। तत्पश्चात् महाराष्ट्र और कुडुक्क देशो का नाम आता है। कुडुक्क प्राचार्य का व्यवहारमाप्य में उल्लेख मिलता है। इससे पता लगता है कि गन-गन कुडुक्क (कुर्ग) जैन-श्रमणो का एक वडा केन्द्र बन गया था। महाराष्ट्र के अनेक रीति-रिवाजो का उल्लेख जैनमूत्रो मे मिलता है। इससे मालूम होता है कि जैन-श्रमणोने इमप्रान्त मे खूब परिभ्रमण किया था। महाराष्ट्र मे नग्न जैन साधु अपने लिंग में वेंटक (एक प्रकार की अंगूठी) पहनते थे। महाराष्ट्र का प्रधान नगर प्रतिष्ठान या पोतनपुर (पैठन) गोदावरी के किनारे स्थित था। मालूम होता है कि प्राचीन समय में यहां के राजाओ पर जैनश्रमणो का काफी प्रभाव था। पादलिप्त मूरिने पइट्टान के राजा को गिरोवंदना को दूर किया था। कालकाचार्य ने भी इस नगर में विहार किया था। एक बार कालकाचार्य यहां उज्जयिनी से पधारे और राजा सातवाहन (शालिवाहन) के कहने पर पर्युषण पर्व की तिथि पचमी से चतुर्थी कर दी, जिससे इस पर्व में जनता ने भाग लिया। उसी समय से महाराष्ट्र में समणपूय (श्रमणपूजा) नाम का उत्सव प्रचलित हुआ। उक्त स्थानो के सिवाय दक्षिण भारत में अन्य भी अनेक स्थान थे, जहां जैनधर्म का प्रचार हुया था। उदाहरण के लिए कोकण जैन-श्रमणो का एक विशाल केन्द्र था। इस देश में अत्यधिक वृष्टि होने के कारण जन-साधु छतरी रख सकते थे। कोकण में मच्छरो का वडा प्रकोप था, जिसके कारण एक जनसाधु को अपने प्राण खो देने पडे थे। इस देश में बडी भयानक अटवी थी, जिसे पार करते समय जैन-श्रमण-सघ की रक्षा करने के लिए एक साधु को तीन शेर मारने पड़े थे।" पश्चिमी घाट तथा समुद्र के वीच का स्थल प्राचीन कोकण माना जाता है। कोकण देश में सोप्पारय (सोपारा) व्यापार का वडा केन्द्र था और यहां बहुत से वडे-बडे व्यापारी रहते थे।" वज्रसेन, प्रार्यसमुद्र तया आर्यमगु" ने इस प्रदेश में विहार किया था। तत्पश्चात् गोल्ल देश का उल्लेख जैन-ग्रन्यो में अनेक 'वृहतकल्पभाष्य १३२८६ 'वही ३३७४६ 'वही ३.३८९२ *४.२८३, १, पृ० १२१ प्रा। "वृहत्कल्पभाष्य १२६३७ "पिंड नियुक्ति ४६७ इत्यादि "निशीयचूणि १०, पृ० ६३२ 'आचाराग चूणि, पृ० ३६६ सूत्रकृताग टीका ३.१ "निशीथ चूणि पीठिका, पृ० ६० "बृहत्कल्पभाज्य १२५०६ "प्रावश्यक चूर्णि, पृ० ४०६ "व्यवहारभाष्य ६२४० इत्यादि Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ प्रेमी - अभिनंदन ग्रंथ स्थलो पर आता है । यहाँ अत्यधिक शीत होने के कारण जैन साधुओ को वस्त्र धारण करने की अनुमति दी गई थी । ' श्रवणबेलगोला के गिलालेखो में गोल्ल और गोल्लाचार्य का उल्लेख होने से सम्भवत यह देश दक्षिण में ही होना चाहिए । गुन्टूर जिले मे गल्लर नदी पर स्थित गोलि प्राचीन गोल्ल देश मालूम होता है । इसके पश्चात् दक्षिण में तगरा नगरी जैन दृष्टि से महत्त्व की है। यहाँ राढाचार्य ने विहार किया था। उनके शिष्य उज्जयिनी से उनसे मिलने यहाँ आये थे । करकण्डूचरिय में इस नगरी का इतिहास मिलता है । हैद्राबाद रियासत के उस्मानाबाद जिले मे तेर नामक ग्राम को प्राचीन तगरा माना जाता है । तगरा आभीर देश की राजधानी थी।' इस देश में श्रार्य समित* और वज्रस्वामी ने' विहार किया था । यहाँ कण्हा ( कन्हन) और वेण्णा (वेन) नदियो के बीच में ब्रह्मद्वीप नामक द्वीप था, जहाँ पाँचसो तापस रहते थे । इन तापसो ने जैन-दीक्षा धारण की थी और कल्पसूत्र मे जो वभदीविया शाखा का उल्लेख मिलता है," वह सम्भवत इन्ही श्रमणो द्वारा आरम्भ हुई थी । गुजरात और कच्छ मे प्राचीन काल मे जैनधर्म का वहुत कम प्रभाव मालूम होता है । भृगुकच्छ ( भरोच) को लाट देण का सौन्दर्य माना जाता था । यहाँ आचार्य वस्त्रभूति का विहार हुआ था ।' भृगुकच्छ व्यापार का केन्द्र था और यहाँ जल और स्थल दोनो मार्गो से माल आता-जाता था ।' बाद मे चलकर वलभि ( वाला) जैनश्रमणो का केन्द्र बना और यहाँ देवधिगणि क्षमाश्रमण के अधिपतित्व में जैन आगम ग्रन्थो का अन्तिम संस्करण तैयार किया गया ।" उत्तर गुजरात मे श्रानन्दपुर ( वडनगर ) जैन- श्रमणो का केन्द्र था । यहाँ से जैन श्रमण मथुरा तक विहार किया करते थे ।" कच्छ मे भी जैन साधुओ का प्रवेश हुआ था । यहाँ साधु गृहस्थ के साथ ठहर सकते थे । " इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्म का जन्म विहार प्रान्त हुआ और वही वह फूला - फला । विहार में जैनधर्म पटना, बिहार, राजगिर, नालन्दा, गया, हजारीबाग, मानभूम, मुगेर, भागलपुर, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, मोतीहारी तथा सीतामढी आदि स्थानो में होता हुआ नेपाल पहुँचा । तत्पश्चात् उडीसा में कटक, भुवनेश्वर, पुरी आदि प्रदेशो से होकर बगाल में राजशाही, मुर्शिदाबाद, बर्दवान, बाकुरा, हुगली, हावडा, दलभूम, मिदनापुर, तामलुक आदि उत्तरपश्चिमी जिलो मे फैलकर कोमिल्ला तक पहुँच गया। इधर पूर्वीय सयुक्तप्रान्त में बनारस, अलाहावाद से आरम्भ होकर अयोध्या, गोरखपुर, गोडा, हरदोई, रामपुर आदि जिलो में फैलता हुआ मेरठ, बुलन्दशहर, मथुरा, आगरा प्रादि सयुक्तप्रान्त के पश्चिमी जिलो मे होकर रुहेलखंड मे फर्रुखाबाद, कन्नौज आदि तक चला गया । उत्तर मे तक्षशिला आदि प्रदेशो में पहुँचा और सिन्ध में फैला । राजपूताने मे जोधपुर, जयपुर, अलवर आदि प्रदेशो मे इसका प्रचार हुआ । तत्पश्चात् ग्वालियर, झाँसी तथा मध्य भारत मे भेलसा, मन्दसोर, उज्जैन आदि प्रदेशो में फैल गया। इसके बाद १ 'आचाराग चूर्णि, पृ० २७४ २ 'उत्तराध्ययन टीका २, पृ० २५ 'बृहत्कथाकोष, डॉ० उपाध्ये, १३८ ३६ 'आवश्यक टीका (मलय), पृ० ५१४ श्र । 'श्रावश्यक चूणि, पृ० ३६७ 'श्रावश्यक टीका (मलय) पृ० ५१४ श्र । कल्पसूत्र ८, पृ० २३३ ८ व्यवहारभाष्य ३ ५८ ९ 'वृहत्कल्पभाष्य १.१०६० १० 'ज्योतिष्करड टीका, पृ० ४१ " निशीय चूर्ण, ५, पृ० ४३४ १२ 'बृहत्कल्पभाष्य १.१२३६, विशेष चूर्णि । Y ५ $ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथो में भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जैन-धर्म का प्रसार २६७ गुजरात में भरोच, वडनगर, भात, आदि स्थानो मे पहुँच कर काठियावाड मे भावनगर, जूनागढ श्रादि स्थानो में होता हुग्रा कच्छ तक चला गया । वरार मे एलिचपुर, महाराष्ट्र, कोकण तथा दक्षिण में हैद्राबाद, मद्रास में वेजवाडा, गुन्टूर, काजीवरम आदि प्रदेशो मे होकर कुर्ग और मलावार तट तक पहुँच गया । इस तरह जैनधर्म का प्रसार लगभग समस्त हिन्दुस्तान में हुआ । परन्तु जहाँ तक मालूम हुआ है, जैनधर्म ने वौद्धधर्म की नाई हिन्दुस्तान से बाहर कदम नही रक्खा । इसका मुख्य कारण था खान-पान के नियमो की कडाई | महावीर का धर्म त्यागप्रधान होने से जैनश्रमणो के आचार-विचार में काफी कठोरता रही और इसका परिणाम यह हुआ कि उनमे बहुत काल तक वौद्ध साधुओ की तरह शिथिलता नही श्रा पाई, जिसके फलस्वरूप जैनधर्म हिन्दुस्तान मे टिका रहा। राजा सम्प्रति के पश्चात् जैनधर्मानुयायी इतना प्रभावशाली कोई राजा नही हुआ और इसलिए जिस प्रचंड वेग के साथ जैनधर्म का प्रसार होना आरम्भ हुआ था, वह वेग अधिक काल तक कायम न रह सका। वारहवी शताब्दी में कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र श्राचार्य के युग मे गुजरात के राजा कुमारपाल के समय में एक बार फिर से जैनधर्म चमका, परन्तु फिर वह सदा के लिए सो गया। आजकल जैनधर्म अपने उद्भवस्थान विहार और वगाल से लुप्तप्राय हो चुका है। उसके अनुयायी विशेषकर गुजरात, काठियावाड, कच्छ, राजपूताना, सयुक्तप्रान्त तथा दक्षिण के कुछ भाग मे पाये जाते है । अन्त मे यहाँ कुछ अनार्य देशो के विषय में भी कह देना उचित होगा । जैन ग्रन्थो में अनार्य देशो की कई सूचियाँ श्राती है। दुर्भाग्य से ये मूचियाँ इतनी विकृत हो गई है कि ग्राज उन स्थलो का पता लगाना अत्यन्त कठिन हो गया है । इन ग्रन्थो मे लगभग ७५ अनार्य देशो अथवा उन देशो मे रहने वाली जातियो का उल्लेख आता है । ' उनमे से कुछ प्रदेश निम्नलिखित थे. वाहल अथवा वाह्लीक देश की राजधानी तक्षशिला थी । कहते है कि ऋषभनाथ वहलि, अडम्व ' ( अम्वड) और इल्ला नामक अनार्य देशो में विहार करते हुए गजपुर ( हस्तिनापुर ) पहुँचे। इस देश के घोडे वहुत अच्छे होते थे । इस देश की पहचान वाल्ख से की जाती हैं, जो वैक्ट्रिया की राजवानी थी । चिलात (किरात) का दूसरा नाम ग्रावाड था । ये लोग उत्तर में रहते थे और प्रासाद, शख, सवारी, दास, पशु, सोना, चाँदी से खूब सम्पन्न थे । चिलात बहुत शक्तिशाली थे और युद्ध की कला में अत्यन्त कुशल थे । कहते हैं, भरत चक्रवर्ती श्रीर चिलातो की सेना मे परस्पर सग्राम हुआ, जिसमे चिलात लोग हार गये ।' जवण ( यवन) एक बहुत सुन्दर देश माना गया है, जो विविध रत्न, मणि और सुवर्ण का खजाना था । भरत की दिग्विजय में इस देश का उल्लेख श्राता है ।' कवोज देश के घोडे प्रसिद्ध होते थे । काश्मीर के उत्तर में घालछा प्रदेश को प्राचीन कवोज माना जाता है ।' पारस (पगिया) व्यापार का एक वडा केन्द्र था, जहाँ व्यापारी लोग दूर-दूर से व्यापार के लिए श्राते थे ।' इस देश मे 'देखिए भगवती ३.२, प्रश्नव्याकरण, पृ० ४१; प्रज्ञापनासूत्र १६४, सूत्रकृताग टीका ५.१, पृ० १२२ श्र, उत्तराध्ययन टीका १०, पृ० १६१ श्र, प्रवचनसारोद्वार पृ० ४४५, नायाधम्मका १, पृ० २१, रायपसेणियसूत्र २१०, श्रपपातिकसूत्र ३३, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ४३, पृ० १८५: निशीथ चूर्णि ८, पृ० ५२३ २ श्रावश्यक चूर्ण, पृ० १८० वही पृ० १६२ 'श्रावश्यक निर्युक्ति ६७६ 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ५६, पृ० २३१ ५ श्रावश्यक चूणि, पृ० १६१ 'रायपसेणियसूत्र १६० 'भारतभूमि और उसके निवासी, प० जयचन्द्र विद्यालकार, पृ० १६२ 'श्रावश्यक चूर्णि, पृ० ४४८ ५ 13 १ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ कालकाचार्य ने विहार किया था, जैसा पहले कहा जा चुका है। इस देश के लोग भैसो के सीगो की माला बनाते थे। मीहल (सिलोन) में कोकण देश की तरह समुद्र की लहरो से वाढ नही आती थी। भरत की दिग्विजय में इस देश का उल्लेख आता है। टकण मलेच्छ उत्तरापथ मे रहते थे और वे सोना, हाथीदांत आदि कीमती वस्तुएँ लेकर दक्षिण देश में व्यापार के लिए जाया करते थे। ये लोग दक्षिण की भाषा नहीं समझते थे। अतएव माल की कीमत तय करने के लिए उन्हें अनेक इशारो से काम चलाना पडता था । तगणो का उल्लेख महाभारत में आता है। आन्ध्र, द्रविड, कोकण, महाराष्ट्र, केकय आदि अनार्य देशो के विषय में पहले कहा जा चुका है। इसके अतिरिक्त प्रवड (-अवष्ठ, पारजिटर के अनुसार अवष्ठ लोग अवाला और सतलज के बीच के प्रदेश में रहते थे), आरवक (यह प्रदेश बलूचिस्तान के उत्तर मे अरविप्रोस नदी पर अवस्थित था), आलसड (एलेक्जेन्डिया), बब्बर (वारवैरिकम या वारवैरिकन), भडग (-भद्रक, यह जाति दिल्ली और मथुरा के मध्य में यमुना नदी के पश्चिम मे रहती थी भुत्तुत्र (भोटिय), चीन, चुचुक (डा. सिल्वेन लेवी के अनुसार यह प्रदेश गाजीपुर के पास अवस्थित था), गन्धार (पेशावर और रावलपिंडी के ज़िले),"हूण, काकविषय, कनक (ट्रावनकोर), खस (काश्मीर के नीचे वितस्ता घाटी की खास जाति)," खासिय (आसाम की आदिम जाति)," मुड (छोटा नागपुरकी एक जाति), मुरुड (डॉ० स्टाइन कोनोव के अनुसार मुरुड शक का एक प्रकार है जिसका अर्थ होता है स्वामी)। . पक्कणिय (फरधना जो पामीर अथवा प्राचीन कवोज के उत्तर में था), रमढ (यह प्रदेश गजनी (जागुड) और वस्वान के मध्य मे स्थित था), वोक्कण (वखान) आदि अनार्य देशो का उल्लेख जैन-ग्रथो में मिलता है। इन सव का गवेषणापूर्ण अध्ययन होने से भारत के प्राचीन इतिहास पर काफी प्रकाश पड सकता है। वम्बई] 'निशीथ चूणि, ७, पृ० ४६४ 'प्राचाराग टीका, ६३, पृ० २२३ । 'प्रावश्यक चूर्णि, पृ० १६१ 'श्रावश्यक टीका (मलय), पृ० १४० प्र। "मार्कण्डेय पुराण, पाजिटर, पृ० ३७६ 'मैकक्रिन्डल्स दी इनवेजन ऑव इन्डिया, पृ० १६७ " इन्डियन हिस्टोरिकल क्वार्टी, १९३६, पृ० १२१ 'एशिएन्ट ज्यॉग्रफी प्रॉव इन्डिया, पृ० ६९३ 'मार्कण्डेय पुराण, पाजिटर, पृ० ३०६ - " मेमोरियल सिल्वन लेवी, १९३७, पृ० २४२-३ "ज्यांग्रफिकल डिक्शनरी, डे, पु० ६० १२ वही, पृ० १८ "राजतरगिणी, जिल्द २, स्टाइन, पृ० ४३० "देखिए इम्पीरियल गजेटियर "खासिय" शब्द । "ट्राइस प्राव एशिएन्ट इन्डिया, पृ० ६४ नोट "जरनल प्रॉव यू०पी० हिस्टोरिकल सोसायटी, जिल्द १६, भाग १, पृ० २८ "वही, जिल्द १५, भाग २, पृ० ४६ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदू राजनीति में राष्ट्र की उत्पत्ति श्री कृष्ण घोष एम० ए०, पी-एच० डी०, डी० लिट् यह श्राश्चर्य की बात है कि हमारा प्राचीन साहित्य, जिसमें राष्ट्र की व्यवस्था के सम्वन्ध में अनेक लम्बेचोडे वर्णन मिलते है, इस वातपर प्राय मीन है कि व्यवस्थित समाज की उत्पत्ति किस प्रकार हुई। कौटिल्य ने भी, जिससे इस सम्बन्ध में बहुत कुछ श्राशा थी, इसके बाबत कुछ नही लिखा । यद्यपि कौटिल्य के समय में, जैसा हम अभी देखेंगे, राष्ट्र की उत्पत्ति के विषय मे कुछ मत प्रचलित थे तथापि उसने अपने ग्रंथ में किसी का उल्लेख नहीं किया, क्योकि वह उन बातो पर माथापच्ची करना ठीक नहीं समझता था, जो केवल अनुमान पर प्राश्रित हो । कोटिल्य ने मत्स्यन्याय तक का कथन ( श्रयं ० १, ४) इम दृष्टि से नहीं किया कि वह उस प्राचीन समाज की दशा सूचित करता है, जब सृष्टि प्रारम्भ के कुछ समय बाद वैसी परिस्थिति उत्पन्न ही गई थी। उसने मत्म्य-न्याय से यह भाव ग्रहण किया हैं कि किमी भी राष्ट्र की ऐमी भयावह और अरक्षित दगा हो सकती है, यदि उसकी शासन विधि कठोर व्यवस्था मे नियमित न की जाय । कौटिल्य, रूसो (Rousseau ) के विपरीत, एक यथार्थवादी राजनीतिज्ञ था । श्रत उसने केवल कल्पना पर आश्रित मतो को महत्त्व नही दिया । भारत के श्रगणित आदर्शवादी तत्त्ववेत्ताओ मे केवल एक व्यक्ति ऐमा मिला है, जिसने प्रप्रासंगिक रूप में राष्ट्र की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुछ बाते दी है, जिन्हें यदि रूसो जान पाता तो वह श्रानन्द-विभोर हो उठता । वह व्यक्ति वसुबन्धु है, जिसका समय ईसा की पांचवी शताब्दी है । सृष्टि सम्बन्धी एक पाडित्यपूर्ण व्याख्या के बीच में वसुबन्धु' एकाएक यह प्रश्न उपस्थित करता है - "क्या सृष्टि प्रारम्भ के समय मनुष्यों का कोई राजा था ?" इसका उत्तर वह नकार में देता है, क्योकि "सृष्टि के प्रारम्भकाल में सभी जीव देव-रूप थे। फिर धीरे-धीरे लोभ और श्रालस्य के वढने से लोगो ने आराम की वस्तुएँ इकट्ठी करना सीख लिया और सम्मिलित वस्तुम्रो के भागहारियो ने अपनी क्षेत्र सम्पत्ति की रक्षा के लिए एक रक्षक रखना शुरू कर दिया ।" पौसिन ने जो नीचे का अस्पष्ट श्लोक उद्धृत किया है, उसका उपर्युक्त अर्थ ही सगत जान पडता हैप्रागासन् रूपिवत् सत्वा रसरागात् तत शनैः । श्रालस्यात्सग्रह कृत्वा भागादै क्षेत्रपोभूत. ॥ अपने प्राचीन देवतुल्य शान्ति के मार्ग से हटने पर जीवो की अधोगति होने लगी। "तव गर्ने - शनै पृथिवी - रस की उत्पत्ति हुई, जो मघुस्वादुरम के समान कहा गया है। किसी जीव ने अपने स्वभाव-लोलुप्य के कारण इस रस को मूघा और फिर चखकर उमे खा लिया। इसके वाद अन्य जीवो ने भी ऐसा ही किया । मुख द्वारा उदर-पोषण का यह प्रारम्भिक रूप था। इस प्रकार के पोषण द्वारा कुछ काल वाद जीव-गण पार्थिव तथा शरीर से स्थूल हो गये और उनका प्रकाश-रूप नष्ट होने लगा । श्रन्त में तमस् का प्रसार हो गया, परन्तु कालान्तर में सूर्य और चन्द्र की उत्पत्ति हुई । " एक भारतीय मिल्टन के मस्तिष्क पर हमारी पृथिवी पर जीवोत्पत्ति की इम उत्कृष्ट श्रौर मनोरंजक कहानी को सुनकर कैमा प्रभाव पडता, यह विचारणीय है । किन्तु वसुवन्वु भी, जो एक शुष्क तत्त्वज्ञानी था, ठोस कल्पना के वरदान से विलकुल वचित न था । श्रादि देव-रूप जीवो के प्रकाशमान् सुपार्थिव शरीरो का पापस्पर्श के कारण रुविर और मास के शरीरी के रूप में परिणत होने का तात्त्विक विवेचन करने के बाद वसुवन्धु मानव समाज की उत्पत्ति ' देखिए 'ला अभिधर्मकोष व वसुबन्धु', १९२६, पृ० २०३ तथा उसके श्रागे । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० प्रेमी-अभिनदन-प्रथ के सम्बन्ध मे एक ऐसे महत्त्वपूर्ण मत का वर्णन करता है, जो रूसो या यूगेल्स (Eugels) के लिए वडा गौरवयुक्त सिद्ध होता। वसुवन्यु ने आगे लिखा कि पार्थिव शरीर वाले वे प्राचीन जीव धीरे-धीरे पार्थिव गुणो से अधिक प्रभावित होने लगे, स्त्री-पुरुष के लिंग-भेद का भी सृजन होने लगा, जिससे काम-सम्बन्धी नियमो की उत्पत्ति हुई। जीवो में सग्रह की भावना तया भविष्य के लिए आवश्यक वस्तुओ को वटोर रखने का विचार भी घर करने लगा। पहले तो ऐसा होता था कि प्रात कालीन भोजन के लिए पर्याप्त अन्न सवेरे तथा सायकालीन के लिए उतना ही शाम को एकत्र किया जाता था, परन्तु सृष्टि के एक आलमी व्यक्ति ने भविष्य के लिए भी अन्न जुटाना प्रारम्भ कर दिया और उसका अनुकरण कैमरे भी करने लगे। इकट्ठे करने की इस भावना ने 'अपनेपन' अर्थात् स्वत्व के विचार को उत्पन्न कर दिया। "स्वत्व या अधिकार की भावना से राष्ट्र की उत्पत्ति अवश्यम्भावी हो गई, क्योकि लोगो ने सारे क्षेत्रो को अपने वीच में वांट लिया और हर एक व्यक्ति एक-एक क्षेत्र का स्वामी बन बैठा | परन्तु इसके साथ-साथ लोगो ने दूसरे की भी सम्पत्ति को बलपूर्वक हथियाना शुरू कर दिया। इस प्रकार चोरी का प्रारम्भ हुआ। इस चोरी को रोकने के लिए लोगो ने मिलकर यह त किया कि वे किसी मनुष्यविशेष को अपनी-अपनी आय का छठवां भाग इसलिए देंगे कि वह उनके क्षेत्रो की रक्षा करे। उन्होने इस पुरुषविशेष का नाम क्षेत्रप (क्षेत्रो की रक्षा करने वाला) रक्खा। क्षेत्रप होने के कारण उसे क्षत्रिय की उपाधि प्रदान की गई। एक वडे जनसमूह (महाजन) के द्वारा वह बहुत सम्मानित (सम्मत) होने लगा और लोगो का रजन करने के कारण उसकी सज्ञा राज महासम्मत हो गई। यही राजवशो की उत्पत्ति का मूलरूप था।" __ इस प्रकार वसुवन्यु के मस्तिष्क में एक विशाल कल्पना का उदय हुआ। किन्तु यह वात नही है कि केवल वसुवन्धु ने ही या सवसे पहले उसी ने राष्ट्र की उत्पत्ति के विषय में कल्पना की हो। इस सम्बन्ध मे शायद सबसे पहले 'महाभारत' (१२, ६७, १७-) मे कुछ विचार पाये जाते है, जिसमें कहा गया है कि प्रारम्भ मे जब कोई शासक नही था तव लोगो की दशा बहुत दयनीय थी, क्योकि आदिम अव्यवस्था के उस युग में प्रत्येक मनुष्य अपने समीप में रहने वाले कमजोर व्यक्ति को उसी प्रकार नष्ट करने की ताक में रहता था, जिस प्रकार पानी मे सबल और कमजोर मछलियो की दशा होती है (परस्पर भक्षयन्तो मत्स्या इव जले कृशान् ॥१७॥)। यह वात ध्यान देने की है कि 'महाभारत' मे उल्लिखित यह मत्स्यन्याय की दशा किसी आगे आने वाली स्थिति की ओर सकेत नहीं करती, जैसा कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कहा है, किन्तु यह उस प्राचीन समाज को सूचित करती है, जिसमें मनुष्य-जाति को वास्तव मे कष्ट था। इसके पहले वाले श्लोक में इस प्रकार का कथन मिलता है कि “यदि पृथिवी पर दड देने वाला राजा न हो तो वलवान् लोग दुर्वलो को उसी प्रकार नष्ट कर दें जिस प्रकार जल में सबल मछलियाँ कमजोरो का भक्षण कर डालती है" (जले मत्स्यानिवाभक्षयन् दुर्वल बलवत्तरा)। यदि इस अन्तिम श्लोक का पाठ शुद्ध है और 'अभक्षयन्' शब्द को 'भक्ष' धातु के 'लुड्' लकारका रूप माना जाय तो हमको मत्स्यन्याय के सम्बन्ध में वही स्थिति माननी पडेगी, जो कौटिल्य ने दी है, अर्थात् वह राजनीतिज्ञ शास्त्रकारो की केवल एक ऐसी धारणा सिद्ध होगी कि मत्स्यन्याय की भयावह किन्तु हटाई जाने योग्य दशा भविष्य में किसी भी अनियन्त्रित राष्ट्र की हो सकती है, न कि ऐसी दशा किसी राष्ट्र के विकास में अनिवार्यत पहले रही थी। अव यह प्रश्न उठता है कि आदिम मनुष्यो ने ऐसी प्रशान्त स्थिति से कैसे छुटकारा पाया? इसका उत्तर यह दिया गया है कि समाज को नियमित करने के लिए वे सब आपस में इकट्ठे हुए और उन्होने सब को कुछ नियम पालन करने के लिए वाध्य किया (समेत्यतास्तत चक्रु समयान्) और यह स्थिर किया कि "जो कोई किसी दूसरे को वाचिक या कायिक कष्ट देगा, दूसरे की स्त्री को छीनेगा या दूसरे के स्वत्व का अपहरण करेगा, उसे हम लोग दड देंगे" (वाफ्शूरो दण्डपरुषो यश्च स्यात् पारजायिक , य परस्वमथाऽदद्यात् त्याज्या नस्तादृशा इति, श्लो० १८-१९); किन्तु शीघ्र ही इस बात का अनुभव किया गया कि केवल नियम बनाने से ही समाज व्यवस्थित नहीं हो जाता। उन Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ हिंदू राजनीति में राष्ट्र की उत्पत्ति नियमो को, जो सर्वसम्मति से स्वीकृत किये गये है, लागू करने के लिए एक शक्ति होनी चाहिए। यह विचार होने पर लोगो ने करुणामय ब्रह्मा के पास जाकर निवेदन किया-“हे भगवन्, एक शासक के अभाव के कारण हम लोग नागकोप्राप्त हो जायेंगे । हमारे लिए एक शासक प्रदान करो (अनीश्वरा विनश्यामो भगवनीश्वर दिश-श्लो०२०), जिसके प्रति हम सब लोग अपना सम्मान प्रदर्शित करेंगे और जो हम लोगो का प्रतिपालन करेगा" (य पूजयेम सम्भूय यश्च न प्रतिपालयेत-श्लो०२१)। इस प्रार्थना से द्रवित होकर ब्रह्मा ने मन से कहा कि वे मर्त्य लोक का शासक होना स्वीकार कर ले, परन्तु मनु को मरणशील जीवो के प्रति कोई सहानुभूति नही थी और साथ ही उन्हें प्रसन्न या सन्तुष्ट रखना एक पहेली थी। उन्होने जवाव दिया-"मै पापकर्मों से बहुत डरता हूँ (और शासन-कर्म में पाप होना निश्चित है)। शासन की वागडोर अपने हाथो में लेना बहुत ही दुष्कर होता है" (विभेमि कर्मण पापाद्राज्य हि भृशदुस्तरम्) । उन्होने यह भी कहा-"मनुष्य-वर्ग के ऊपर राज्य करना तो और भी कठिन है, क्योकि वे सदा मिथ्यापरायण होते है" (विशेषतो मनुष्येषु मिथ्यावृत्तेषु नित्यदा-श्लो० २२) । इस पर मनु से प्रार्थना करते हुए लोगो ने उन्हें विश्वास दिलाया कि पाप से उनको विलकुल न डरना चाहिए, क्योकि “पाप का भागी उन्ही लोगो को होना पडेगा, जो उसे करेगे" (कर्तृनव गमिष्यति)। परन्तु चतुराई से भरा हुआ लोगो का यह विश्वास दिलाना मनु पर असर न कर सका। इसलिए उनके चित्त को दिलासा देने के लिए मनुष्यो ने उन्हें लम्बे-चौडे अधिकार देने के वचन दिये, जिनमे हिन्दू राजाओ के उन सभी अधिकारो का मूल पाया जाता है, जिन्हे राजनीतिशास्त्र में उनकी शक्ति के अन्दर बताया गया है। मनु से लोगो ने प्रतिज्ञा की कि उन्हे जानवरो और सुवर्ण की सम्पत्ति का पचासवां हिस्सा और अन्न का छठा हिस्सा दिया जायगा (पशूनामधिपञ्चाशद्धिरण्यस्य तथव च, धान्यस्य दशम भागम्-श्लो० २३-२४)। राजा के विशेषाधिकारो मे जो अन्तिम शर्त थी वह नीचे के (अशुद्ध) पाठ में कथित है कन्या शुल्के चाररूपा विवाहेऽद्यतासु च (श्लो० २४)। नीलकठ ने यही पाठ माना है। उन्होने विवादेषु ततासु च पाठ भी दिया है, और उसे प्राच्यो का पाठ कहा है। तीसरा पाठ नीलकठ ने विवादे धूततासु च दिया है, जिसे हिलबेड ने इस अर्थ में स्वीकार किया है कि यहाँ विवादे शब्द विवादेषु के लिए आया है (अल्टिडिरचे पोलिटिक, पृ० १७३) । हिलब्रेड ने सारे वाक्य का अर्थ यह दिया है-'जव दासियो को खरीदने के लिए बाजार में ग्राहक लोग यह पुकारपुकार कर एक दूसरे के ऊपर बोली बोलते हैं कि “मैं इस लडकी को खरीदता हूँ, मै इस लडकी को खरीदता हूँ", तब राजा के भाग के लिये एक दासी कन्या अलग रख लेनी चाहिए।' परतु नीलकठ ने जो पाठ दिये है, उनमें से किसी का यह अर्थ नही निकलता और हिलबेड द्वारा दिया हुआ अर्थ किसी प्रकार युक्तिसगत नही माना जा सकता। उक्त श्लोक का अभिप्राय बहुत प्राचीन काल की रीति से है जव राजा लोगो के लिए भार्यानो तथा दासी कन्याओ के रखने के सम्बन्ध में विशेषाधिकार थे, किन्तु जिस समय 'महाभारत' अपने वर्तमान रूप को प्राप्त हुआ, उस समय तक उपर्युक्त रोति विलकुल वन्द हो गई थी। इतना भारतीय राज्यतन्त्र मे राष्ट्र की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा गया है। __ अव नैतिक दृष्टिकोण पर विचार करना है। प्लेटो का यह आदर्शवाद कि राष्ट्र का शासन स्वार्थ-रहित तत्त्वज्ञानियो के हाथ में होना चाहिए, भारतीय राजनीति में भी मिलता है। एक आदर्श भारतीय राज्यप्रणाली मे क्षत्रिय को यज्ञ से बचे हुए अन्न के भक्षण द्वारा जीवन-निर्वाह का आदेश है तथा राजा को शास्त्रार्थ के तत्त्व को जानना अनिवार्य कहा गया है (महाभारत १२-२१-१४-क्षत्रियो यज्ञशिष्टाशी राजा शास्त्रार्थतत्त्ववित्), परन्तु इससे अधिक महत्त्व की बात, जो भारतीय राजनीतिज्ञो के मस्तिष्क में थी, वह हॉन्स के मत की तरह अनवरुद्ध युद्ध-नीति थी। अग्रेजी तत्त्वज्ञान के इस बडे प्रचारक ने लिखा है (लेविप्रथन, १११), "सबसे पहले मै सारी मानव-जाति की 'देखिए मनुस्मृति, अ० १२, १३०-१३१ । कौटिल्य (अर्थ०, प्रकरण ३३) ने भूमि-कर उपज का छठा अश बताया है (पिंडकर षड्भाग)। इतना ही बाद के ग्रन्थो में भी मिलता है । कालिदास के 'रघुवंश' से ज्ञात होता है कि वन के मुनियो को भी अपने एकत्रित अन्न का छठा प्रश कर-स्वरूप देना पडता था। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ इच्छा को बताऊँगा। यह इच्छा-शक्ति को अधिक वढाने के लिए निरतर अथकरूप से दूसरो के प्रति युद्ध करते रहना है, जिसका अन्त केवल मृत्यु मे होता है । इस लगातार युद्ध की इच्छा का सदा यह कारण नहीं होता कि मनुष्य प्राप्त सुख से कही अधिक सुख प्राप्त करने की कामना करता है या कि वह एक निश्चित शक्ति से सन्तोष-लाभ नहीं कर सकता। किन्तु इसका यह कारण है कि उसे विश्वास नहीं होता कि किसी निश्चित शक्ति या साधनो से उसका जीवन ययेच्छ सन्तोषमय हो सकता है। इस प्रकार उसे अपनी वर्तमान परिस्थिति से सन्तोष न होकर सदा अधिक-अधिक प्राप्ति की इच्छा बनी रहती है ।" इस प्रकार के भाव वाले वाक्य किसी भी काल के सस्कृत-साहित्य में मिल सकते है। आदि-सृष्टि के मनुष्यो का चित्रण उस आदर्श तथा उच्च ढग पर किया हुआ नहीं मिलता, जैसा कि हम वसुवन्धु मे पाते है । प्राय उनका वर्णन प्राकृतिक रूप से दुष्ट मनुष्यो के रूप में किया गया है, जो सदैव एक-दूसरे का गला काटने के लिए तैयार रहते है, जो केवल दूसरे के द्वारा वदला लिये जाने के भय से ही दूसरे पर अत्याचार करने से रुक सकते है, (महाभारत, १२, १५, ६-परस्परभयादेके पापात् पाप न कुर्वते) या फिर दड के डर से ऐसा नही कर सकते (१२, १५, ७-दण्डस्यैवभयादेके न खादन्ति परस्परम्) । इस सम्बन्ध में यह वात विचारणीय है कि यहाँ 'दड' शब्द कम-से-कम प्राचीन साहित्य में, उस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, जिसमें 'लॉ' या 'कानून' शब्द होते है । वह केवल दड देने का सूचक नही है। महाभारत (१२, १५, १०) मे यह साफ-साफ लिखा है कि 'दड' का अर्थ 'मर्यादा है। राजा इस दड (नियम, कानून) का स्वरूप कहा गया है, जैसा कि महाभारत मे मत्स्यन्याय सम्वन्धी वर्णन से प्रकट होता है, जिसमे दड तया राजन् शब्द एक-दूसरे के द्योतक सिद्ध होते है (मिलामो 'महाभारत' १२, १५, ३० और १२, ६७, १६) । यही बात महाभारत में आये हुए एक पाठ-भेद से, जिसका जिक्र ऊपर हो चुका है, सिद्ध होती है (प्रजा राजभयादेव न खादन्ति परस्परम्-महा०, १२, ६८,८)। ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट है कि भारतीय राजनीतिशास्त्र में राजा का प्रभुत्व उसके व्यक्तिगत रूप में न माना जाकर शासन-नियमो के सरक्षक के रूप में स्वीकार किया गया है। क्रिश्चियन (यूरोपीय) राज्यतन्त्र के अनुमार प्रजा राजा की आज्ञामो का पालन करने के लिए वाध्य है, क्योकि राजा ईश्वर के द्वारा अभिषिक्त होता है, परन्तु प्राचीन भारत के राजनीति-साहित्य मे कही पर भी ऐसा कथन नही पाया जाता, जिससे राजा का ऐसा प्रभुत्व मूचित हो। भारत की राजनीति धर्म-प्रधान थी। वह कभी राजा के अनियन्त्रित अधिकारो के अधीन नही हुई और कम-से-कम राजनैतिक नियम-व्यवस्था में राजा को कभी स्वेच्छाचारी या प्रजा-पीडन का अधिकारी नही घोषित किया गया। मेधातिथि जैसे एक वाद के राजनीतिज्ञ लेखक तक ने यह लिखा है कि धर्म के मामलो में राजा सर्वोच्च नही है (मनुस्मृति, ७, १३ पर टीका)। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भारतीय सामाजिक जीवन में धर्म का क्षेत्र बहुत व्यापक है । अत इस बात में कोई आश्चर्य न मानना चाहिए कि राजा को इस देश में वह ईश्वर-तुल्य पूज्यभाव नहीं दिया गया, जो रोम में पाया जाता है। इतना ही नहीं, भारत के प्राचीन साहित्य में कुछ ऐसे भी कथन है, जिनमें प्रजा को इतना तक अधिकार दिया गया है कि वह कर्तव्यविमुख राजा को हटा सकती है। रामायण (३, ३३, १६) मे यह स्पष्ट घोषित किया गया है कि यदि राजा दुराचारी है तो उसके स्वजनो द्वारा ही उसका वध कर देना विहित है। कलकत्ता Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... : . - R ...S -20% Ammammmmmmmmmmmmmmmomeya म ummer and M E m irmireon : . द्वान गजेन्द्र-मोक्ष विष्णु मदिर का उत्तर की ओर का शिलापट्ट [पुरातत्त्व विभाग के सौजन्य से Page #307 --------------------------------------------------------------------------  Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास का शिक्षण प्रो० रसिकलाल छोटालाल पारीक शिक्षण क्रम मे किसी भी विषय पर विचार करते समय इस बात पर ध्यान रखना होता है कि वह विषय विद्यार्थी को क्या मिखलाता है और उसे किस तरह के मनोव्यापार मे अभ्यस्त बनाता है। सिखलाने से अधिक महत्त्व की बात यह है कि वह विद्यार्थी में किस प्रकार के सस्कारो को जन्म देता है। शिक्षण-गास्त्र के इस सिद्धान्त को इतिहाम मे स्वीकार करने पर प्रश्न उठता है कि इतिहास में शिक्षणीय और उमसे किस प्रकार के मानमिक सस्कारो का निर्माण होता है ? विद्यार्थी वचपन मे ही कहानी सुनता है। अपने शिक्षण-क्रम में भी उसे कथा-कहानी पढनी पड़ती है। उन्हे पढकर उनके कथानक की मत्यता में विद्यार्थी का विश्वास हो जाता है । यदि उसकी निमग्नना में व्याघात करने वाली कोई घटना आ जाती है तो वह अवश्य कुछ सोचने लग जाता है, अन्यथा यदि कथा की परी उमे प्रमन्न करने में मफल होती है तो फिर वह कैमे ही विकट और दुर्गम गढ में क्यो न वद हो, उसका अस्तित्व स्वीकार करने मे विद्यार्थी को आपत्ति नहीं होती। कहने का तात्पर्य यह कि जहां नक भावना की अनुकूलता सुरक्षित रहता है वहां तक मन को विघ्न नही मालूम होता और कथानक को यथार्थता को जांच-पडचाल की अपेक्षा नहीं होती। माहित्य और कलापो का शिक्षण विद्यार्थी मे ऐमी ही मनोवृनि उत्पन्न करता है । इस प्रकार के अभ्यस्त छात्रो को दतिहास की शिक्षा देने के लिए कथा पद्धति का उपयाग किया जाता है। यहां सवाल होता है कि क्या यह पद्धति उपयुक्त है? क्या इम पति से विषय मनोजक ढग मे उपस्थित किया जा सकता है और इतिहास की घटनाएँ मुगमता स हृदयगम कराई जा सकती है ? कुछ लोगो का कहना है कि हाँ, कथाओ के माध्यम द्वारा इतिहास का शिक्षण दिया जा सकता है। श्राखिर गणित की समस्या को भास्कराचार्य 'लीलावती' ग्रन्थ मे सुन्दर श्लोको में उपस्थित करते ही है। क्या इसमे गणित की शिक्षा नही मिलती? इसके विपरीत यह भी कहा जा सकता है कि उन इलोको की हरिणाक्षियो या वराननायो मे लालायित हो कर विद्यार्थी गुत्थियों में भले ही फंस जाय, उनसे बाहर निकलने के लिए तो उसे गणित का ही अभ्यास करना पड़ेगा। यदि हम कथानो के विषय में कह दे कि वे कथा नही, इतिहास है तो ऐसा कहने मात्र में ही क्या वह इतिहास हो जायगा। यदि शिक्षक कहता कि यह तो सत्य घटना है, कल्पिन नही, तो क्या उसका इतना कह देना ही काफी है ? घटना की वास्तविकता और कल्पना का भेद करने वाली उमके पास कमोटो क्या है ? कल्पित कथा और इतिहास को व्यक्त करने वाली कथा का वाहरी रूप इतना समान होता है कि दोनो मे अतर करना कठिन हो जाता है। यह समानता इतनी अधिक होती है कि कथा-पद्धति से इतिहास की शिक्षा देने का परिणाम यह होता है कि वालक अपनी पसन्द की कल्पित कथा को भी सत्य घटना के रूप में समझने ल लगता है। इतिहास के कथा-कहानी द्वारा शिक्षण देने की यह वडी ही विकट समस्या है। परम्परा मे इतिहास के साहित्य का अनचर होने के कारण यह कठिनाई और भी बढे गई है। इस विषय में वाद-विवाद करते हुए किसी किमी शिक्षक का यह भी मत है कि इतनी रूढिप्रियता रखने से क्या लाभ? ऐतिहासिक कही जानेवाली घटनाओ में भी निश्चितता कहां होती है। कल्पना का व्यापार उनमें भी नो रहता ही है । ऐसी दशा में हम छात्रो की रुचि के लिए इतिहास की कथाप्रो में सिद्धराज और मीनलदेवी का वार्तालाप रक्खें तो उससे आपका क्या बिगडता है ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि इम्स इतिहास विगडता है। यह सच है कि इतिहास के रूप में वर्णित कथानो की घटनाओं में अनिश्चितता होती है, उनमें कल्पना भी होती है, फिर भी इतिहास और कल्पित साहित्य दोनो भिन्न चीजें है। कारण कि वे दोनो भिन्न-भिन्न मनोवृत्तियो के परिणाम है । साहित्य-सर्जक मनोवृत्ति और इतिहास-गोधक मनोवृत्ति दो भिन्न चीजें है । सक्षेप में, शिक्षक को इतिहाम का सम्यक ज्ञान होना चाहिए। उसे यह मालूम होना Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ प्रेमी-अभिनंदन-प्रय चाहिए कि साहित्य, गणित एव भौतिक ज्ञान आदि मे इतिहास में कितनी भिन्नता है और कितना साम्य । इस लेख मे मै इतिहास का थोडा सा दिग्दर्शन शिक्षको के उपयोग के लिए करा देना उचित समझता हूँ। अग्रेजी शब्दकोष में हिस्ट्री' शब्द देखने मे मालूम होता है कि वह ग्रीक शब्द 'हिम्टोरिया' (Historia)का नद्भव है । उमका अर्थ है 'तलाग', 'खोज' (Inquiry)। अनुमधान (Research), खोज (Exploration)तया सूचना (Information)पर्याय इनसाइक्लोपीडिया व मोगल साइन्सेज़ में दिये है। वाद में गोध-वोज के परिणामो के लिए भी इस शब्द का प्रयोग होने लगा है । इसमे थोडा भिन्न जर्मन शब्द 'गैशिष्टे' (Geschichte) है, जो 'गेशेरेन' (Gescherhen=to take place, to happen)धातु म बना है । उन्नीसवी शताब्दी में 'गशिप्टे' शब्द 'मानव कृत वास्तविकतारोका मग्रह और उनका विकास' (Collection of human facts and their evolution) के अर्थ में प्रयुक्त होता था। ममान अर्थ में व्यवहृत होने पर भी 'हिस्ट्री' और 'गेशिष्टे' की ध्वनि मे वडा अतर है। 'हिस्ट्री' 'मन जिमे पैदा करे वह इस बात पर जोर देती है जव कि गेशिष्टे का जोर घटना (event) पर होता है। जोहो, इतना तो स्पष्ट ही है कि पाश्चात्य परम्परा के अनुसार हिस्ट्री व गेगिष्टे शब्द प्रमाण-व्यापार के द्योतक है, कल्पना-न्यापार के नही। विज्ञान में प्रमाण-वृत्ति की आवश्यकता होती है और हम दृष्टि ने इतिहास भी विज्ञान की कोटि में आ जाता है। लेकिन विज्ञान के अनुसन्धान तथा इतिहास के अनुसन्धान में वटा अन्तर है। भौतिक आदि विज्ञानो में अनुमन्धान-कर्ना पदार्थ को प्रत्यक्ष देखना है, उसके ऊपर प्रयोग करता है और अनेक तत्वो तथा तत्व-मवों को खोज निकालता है। अर्थात् उमका ज्ञातव्य विषय उसके सामने रहता है, लेकिन इतिहासकार जिस विषय को जानना चाहता है वह उसके मामने नहीं होता। वह न तो उमका पृथक्करण कर सकता है और न उसके ऊपर प्रयोग ही कर मकना है। इतिहासकार का पदार्थ काल मे है, स्थल में नहीं । फिर भी उसे स्थलकाल विशिष्ट पदार्थ का ययार्थ जान प्राप्त करना ही होता है। उसके लिए स्थल मे तो केवल अवशेष मात्र ही है। अर्थात पदार्यों का अन्तिम कालरूप उमके ममक्ष वर्तमान में विद्यमान होता है । इस अन्तिम काल रूप के आधार पर भृतकालीन स्थलकाल विशिष्ट स्पो का उमे अनुमान करना होता है। कहने का तात्पर्य यह कि इतिहास की वास्तविकता मानने में भी विशिष्ट तत्वदृष्टि अभिप्रेत है। इतिहास का पदार्थ अनुमान से फलित करने का है। अत इतिहास विज्ञान की पहली क्रिया वर्तमानकालीन पदार्थ स्थिति के द्वारा उनके भूनकालीन तत्वो की खोज करना है। इस दृष्टि मे भू-स्तर विद्या आदि इतिहास के प्रकार है। पर यहाँ पर हम मनुप्य में प्रादुर्भूत पदार्थों तक ही इनिहाम मना को सीमित करते है। इसलिए वर्तमान कालीन पदार्थों को अवशेप रूप मान कर उन्हें भूत कालीन पदार्थों के चिह्न बनाने का वैज्ञानिक कौगल इतिहास मगोषक को सर्वप्रथम मुघटित करना होती है। वेर व फेने के कथनानुसार "प्राचीन तथ्यो के केवल अवशेप स्मारक और कागन-पत्तरही शेप रह जाते है। ये स्मारक, जिनस इतिहामन को अपने विषय का ज्ञान प्राप्त करने में सहायता मिलती है, मव प्रकार के होते है। इसी से कहा जाता है कि इतिहाम के माधन विभिन्न प्रकार के होते है।" कहने का मतलव यह कि विविध प्रकार के अवगेपी के आधार पर इतिहासकार का प्रथम कार्य वास्तविकता को निश्चित करना है। वर्तमान कालीन तथ्यों के अनुसार पदार्थ इतिहास की घटनाएं बनती है। ऐसी घटनाग्रा का समूह सिद्ध होने के पश्चात् उन्हें कालत्रम की शृखला में ग्वाला जाता है। अधिक उपयुक्त शब्दों में कहा जाय तो काल-प्रवाह में घटनायो म एकरूपता या जाने के वाद उमके आधार पर अन्य नियमो का अनुमान किया जाता है। ऐसे अनुमाना में से एक विशिष्ट प्रकार की तन्वदृष्टि फलित होती है । इसे इनिहामप्रदत्त तत्वदृष्टि कह सकते है। इस प्रकार की नत्वदृष्टि प्राप्त विश्व इतिहाम लिम्बने के पूर्व प्रादेगिक इतिहाम, भूगोल के प्रदेश काल के विभाग, वन्नुओ के अशो 'सातवा भाग पृष्ठ ३५७ इन्साइक्लोपीडिया ऑव सोशल साइन्सेज ७वा भाग पृष्ठ ३५७ । 'इन्माइक्लोपीडिया प्राव सोशल साइन्सेज़ भाग ७, पृष्ठ ३५८ । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहास का शिक्षण २७५ का इतिहास, यह नव निश्चित हो जाने चाहिए। इस कठिनाई के कारण कितने ही इतिहास-मशोधक इतिहास को मर्यादा भूतकाल के प्रवाह में घटनामो को निर्णत कर देने के लिए आगे रखने है। इतने मात्र ने इतिहास-विज्ञान की अनुमान-प्रक्रिया अन्यान्य विज्ञानी की प्रक्रिया में किस प्रकार भिन्न होती है, इसका अन्दाज नहीं हो पाता, पर काल-प्रवाह में वन्नुओ के परिवर्तन को यथार्थ रूप में देखने की मनोवृत्ति पैदा हो जाती है। इस प्रकार भूमिति के प्रमेयो मे जो अनुमान-प्रक्रिया घटित हो या भौतिक विज्ञानो के गणितबद्ध कार्य कारणादि मवधो के ग्रहण में जो अनुमान-प्रक्रिया मस्कारित हो उसमे भिन्न प्रकार को अनुमान-पत्रिया इतिहास को घटनाएं निश्चित करने में-उसे प्रवाह-बद्ध करने मे-और उनके आवार पर व्यक्तियो तया नम्याओं को लाक्षणिकना का ग्रनुमान करने में मस्कारित होती है। जैसा कि मैं ऊपर बह चुका है, इतिहास का विषय मिखलाते समय इन प्रकार की मनोवृत्ति विद्यार्थी में उत्पन्न हो यह उमकी घटनाओं के ज्ञान की अपेक्षा अविक महत्त्व को वात है। इस प्रकार शिक्षा पाये हुये विद्यार्थी मे दुनिया को समझने की वस्तु-नत्त्व को पहचानने की-यक्ति पैदा होती है। वस्तुतत्त्व को, जिम अनेक पहलू है, पूर्णन्य मै समझने के लिए अनेक दृष्टियां आवश्यक है । इतिहास-दृष्टि भी इनमे एक है और प्रगति को अपना लक्ष्य माननेवाले व्यक्तियो के लिए उमका शिक्षण अत्यन्त आवश्यक है। इतिहास मिखलाने का उद्देश्य चरित्र-निर्माण और गष्ट्रीय अभिमान जाग्रत करना है, अयवा क्या? ऐसे प्रश्नो पर दिनारभय मे इस लेख में विचार करना सभव नहीं है, पर इतना तो निश्चय है हो कि सत्य ममभने मे अयवा सत्य ननझने की इच्छा ने प्रेरित मनोव्यापार को शिक्षा से चरित्र स्वय ही वन जाता है और राष्ट्र अभिमान अपने आप जास्त हो उठना है। लेनलाई और नाइनोवो (Langloss and Seignobos) ने अपनी इतिहाम शास्त्र प्रवेगिका के ३२० मे ३२२ तक के पृष्ठों में इतिहास मोवने, मिवलाने तथा उनका सगोवन करने का मुख्य लाभ निम्नलिखित गन्दो में बतलाया है "इनिहाम का मुख्य गुण यह है कि वह मानसिक मस्कार के निर्माण का एक माधन होता है। ऐमा भिन्नभिन्न प्रकार ने होता है। प्रथम तो यह कि ऐतिहासिक अनुसन्धानोको पद्धति का अभ्यास चित्त को ग्रारोग्य प्रदान करता है और वोजो पर महज-विश्वास (Credulity) कर लेने की मानमिक वृनि को दूर कर देता है। दूसरे इतिहास नाना प्रकार के समाजो का दिग्दर्शन करा कर हमें इस बात के लिए तैयार करता है कि हम भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रथायो को समझ सकें और उन्हें निभा सकें। इतिहास हमें यह भी दिखाता है कि समाज में प्राय परिवर्तन होते रहते है और परिवर्तन के भय को हमारे हृदय मे दूर कर देता है। अन्तिम लाभ यह कि भूतकालीन विकामो के चिन्नन से हमें वह दृष्टि प्राप्त होती है, जिससे हम यह वात भलोभाति समझ सकते हैं कि स्वभाव-परिवर्तन तया नवीन पीडियो के पुनरुत्यान ने किस प्रकार प्राणिशास्त्रही वदल जाता है। इसमे हम जीव-विज्ञान के नियमो का सामाजिक विकास के नियमों के माथ तारतम्य वैठाने के प्रलोभन से वच जाते है । इतिहास से हमें यह भी पता चल जाता है कि मामाजिक विकास का कारण वही चीजें नहीं होती, जिनमे जीवो का विकास होता है।" भृगु ऋषि अथर्ववेद में कहते है कालो अश्वो वहति सप्तरश्मि सहस्राक्षो अजरो भूरिरेता । तमारोहन्ति कवयो विपश्चित. तस्य चक्रा भुवनानि विश्वा ॥ अर्थात्-सहन्त्र नेत्रो वाला नित्य युवा, अति प्रकाशमान, मप्न प्रकार को लगामो (किरणों) वाला काल रूपो अश्व चलता ही रहता है और जानी कविजन उस पर सवार होते है। समूचा विश्व उस अश्व के लिए भ्रमण मार्ग है। उछल-कूद करने, काल-अश्वके ऊपर सवार होने के लिए जानी कवि वनना पडता है। इतिहास का ज्ञान भी ऐमा ही कौशल प्रदान करता है। अहमदाबाद] Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगढ़ का गुप्तकालीन मंदिर श्री माधवस्वरूप 'वत्स' एम० ए० गुप्त-युग प्राचीन भारत का 'स्वर्ण युग' कहा गया है । भारत के राजनैतिक, सास्कृतिक, वैज्ञानिक, धार्मिक, कलात्मक तथा वास्तु-सवधी कार्यों पर गुप्त-युग ने एक अमिट छाप लगा दी है । प्रतापी मौर्य सम्राट् अशोक के राज्य-काल मे वौद्धधर्म की पताका फहरने लगी थी, परतु उसके बाद ही ब्राह्मण धर्म को जाग्रति होने लगी और गुप्त काल मे इस धर्मं ने महान् उत्कर्ष प्राप्त किया । यद्यपि राजनैतिक क्षेत्र मे गुप्त साम्राज्य को प्रभुता पाँचवी शती के वाद नही रही तथापि सास्कृतिक क्षेत्रो मे वह साम्राज्य के नष्ट होने के डेढ सौ वर्ष बाद तक बनी रही । इस युग की मूर्तिकला की भाति चित्र कला में भी जो समन्वय तथा सयम की भावना, कारीगरी की पूर्णता तथा श्रग प्रत्यगो का सुपुष्ट सयोजन देखने को मिलता है उससे बढिया अन्यत्र दुर्लभ है । अजता (अचित्य ) और बाघ, वादामो तथा सित्तन्नवासल आदि के कलाकोष तथा सारे भारत भर में बिखरी हुई इस युग की अनेकानेक मूर्तियाँ जो वास्तव मे आदर्श कला-प्रदर्शन के कारण बहुमूल्य है, कला - कोविदो की प्रशसा का पात्र वन चुकी है। वास्तुकला के क्षेत्र मे भी इस युग में भारतीय मंदिर निर्माण को दो रोतियो का प्रादुर्भाव पाया जाता है -- एक नागर रोति और दूसरी द्राविड । पहली का विस्तार उत्तर भारत में शिखरो के रूप में हुआ और दूसरो दक्षिण भारत में विमानो के रूप में विकसित हुई । ये दोनो शैलियाँ दक्षिण में ऐहोल के दुर्गा और लादखा के मंदिरो मे साथ-साथ पाई जाती है । देवगढ तथा भोतरगॉव के मदिरो मे चौरस छत के ऊपर शिखर का निर्माण मिलता है, जैसा कि साँचो, तिगवा, नचना कुठारा तथा उत्तर भारत के अन्य मदिरो मे पाया जाता है । वोरे-धीरे मध्यकाल मे उक्त दोनो शैलियाँ क्रमश उत्तर तथा दक्षिण भारत की मंदिर निर्माण - कला का प्रतीक हो गई । पत्थर के बने हुए प्राचीन शिखर का नमूना उत्तर भारत मे केवल एक मिलता है और वह देवगढ (जिला झासी) का दशावतार मंदिर है, जिसका समय छठी शताब्दी ई० का प्रारम्भ माना जा सकता है । यद्यपि इस मंदिर के शिखर का ऊपरी भाग बहुत समय पहले नष्ट हो गया, तथापि हाल में मुझे सौभाग्य से शिखर के अलकृत द्वार- स्तभ के बाहरी शोर्षमाल के ऊपर पत्थर की कुछ श्रनुकृतियाँ मिली, जिन्हे मैं इसी मंदिर या इससे मिलते हुए किसी अन्य समकालीन मंदिर के छाया- श्रश समझता हू । ऐसा मालूम पडता है कि देवगढ का मंदिर सीधी रेखाओ से निर्मित एडूक ( पिरामिड) के समान था, जिसकी मेधियाँ क्रमश छोटो होती चली गई थी। मंदिर की प्रत्येक दीवार के बीच मे जो बाहर निकला हुआा वडा हिस्सा था, जिसमें एक चौडा, गहरा खुदा हुआ याला दो खभो के बीच में बनाया गया था, वह शिखर के ऊपर तक पहुँचता था और उस पर प्रधान अलकरण की वस्तु प्राचीन चैत्यो में उपलब्ध वातायन की रचना थी। मंदिर के द्वार - स्तभ पर शिखर को प्रतिकृति बना हुई है। उससे यह भी पता चलता है कि कोनो मे तथा सिरे पर श्रामलक बनाये गये थे । अत देवगढ मे हमको गुप्त कालोन शिखर का एक विकसित रूप देखने को मिलता है, जो बाद में समय के अनुसार अधिक ऊँचा, पिरामिड को शक्ल का, अडाकार, अधिक विकसित तथा अलकृत होता गया । कुछ कारणो से, जिन्हे में यहाँ देना नही चाहता, कनिंघम के इस कथन से मैं सहमत नही हूँ कि चूंकि चबूतरे के ऊपर कुछ खभे पडे मिले थे, अत चबूतरे के चारो तरफ एक-एक स्तम्भयुक्त मडप रहा होगा, जो उन्ही खभो पर सधा था । राखालदास बनर्जी का भी यह मत कि सारे चबूतरे के ऊपर एक समतल छत थी, ठीक नही प्रतीत होता । जैसा कि कनिघम ने लिखा है, चबूतरे के ऊपर का उठा हुआ मंदिर का हिस्सा नौ वर्गों में विभक्त था और उनके बीचोबीच गर्भगृह स्थित था। अधिष्ठान की जो खुदाई रायबहादुर दयाराम सहानी ने करवाई है, उससे प्रत्येक कोने मे एक छोटे वर्गाकृति मदिर का पता चला है । इस प्रकार मदिर के मध्य भाग (गर्भगृह) को मिलाकर दशावतार मंदिर उत्तर भारत में प्रचलित पंचरत्न शैली का सबसे प्राचीन 1 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवगढ का गुप्तकालीन मदिर २७७ उदाहरण प्रदर्शित करता है। मदिर का जगतीपीठ मूर्तिखचित गिलापट्टी की कम-से-कम दो श्रेणियो से अलकृत या, जिनमे मे छोटो कतार बडी वाली के ऊपर बनाई गई थी। वडे शिलापट्टी में मे दो अव भी अपने पुराने स्थान पर स्थित है । अब हम इस महत्त्वपूर्ण मुन्दर मदिर के विषय में कुछ जानकारी के लिए उसका अति मक्षिप्त वर्णन यहां दंगे। ___ ऊँचे चबूतरे तक पहुँचने के लिए मीढियो पर से जाना पडता है, जो हर बाजू के बीचोवीच मीढियां बनी हुई है। चबूतरे की लवाई हर तरफ ५५ फोट : इच है और उसके प्रत्येक कोने पर एक-एक छोटेछोटे मदिर है जो ११ फोट वर्गाकृति में है। इन मदिरो के अब केवल चिह्न अवगिप्ट है । मोठियो के कारण पोठ को लवाई हर तरफ दो भागों में बंट गई है। उनमें से भी हर एक भाग को लबान को बीचोबीच निकलते हुए पोठ से विभक्त किया गया है, जिस पर उन्कीर्ण गिलापट्ट आथित है। ये गिलापट्ट जगतीपोठ के अन्य पट्टो मे कुछ बडे है और नीनो तरफ उन्कीर्ण है। अविष्ठान अव बहुत नष्ट हो चुका है, यद्यपि यह वात स्पष्ट है कि वह मदिर के दरवाजे को देहलो को मतह तक उठा रहा होगा। यह मतह मोढियो के अन में रक्खी हुई चन्द्रगिला मे करीब नौ फीट ऊंचाई पर थो। उसके ऊपर चारदीवारी के किनारे को निचली दोवाल करीब दो फोट और ऊंचो उठो रही होगा। मदिर का गर्भगृह मादा और चौकोर (१८' "x१८'६") है। इसका मुख पश्चिम को ओर है तथा उममे एक बहुत बढिया उकेरा हुग्रा द्वार है । शेप तोनो तरफ एक-एक चौडा मूर्ति-खचित गिलापट्ट है, जो एक गहरं पाले में जडाहै। इस आले या 'रथिका' के दोनो ओर दो निकलते हुए गान्बास्तभ या वाजू है । मदिर-द्वार और रविकाओं (niches) के उतरगं (lintel) को ऊंचाई पर भारतुला (entablature) थो, जिस पर अत्यन्न मादा नोग्णाकृति गवानी (arched window pattern) का अलकरण बना हुआ था। इसमे भो ऊपर चागेयो दौटता हुया रज्जा था, जो चार कोनो मे निकली हुई वरनो पर टिका था। हज्जे मे द्वार और रयिकाविम्बी को रक्षा होनी था और उनके दर्शन में भी वाया न पहुंचती थो। गिखर ने जो स्प ग्रहण किया, उसके विषय में हम ऊपर लिख चुके हैं। दरवाजे की चौखट (११२"x१०'९") के चार मूर्ति-खचित पहल है, जो चौग्वट के चारो ओर बने हुए है। प्रत्येक पहलू पर नीचे एक ग्वडी हुई मूर्ति है। सबमे भीतर के पहलू पर पहलो मूनि एक प्रभामडल-युक्त पुरुष की है, जिसके दोनो ओर एक-एक स्त्री-मूर्ति है। चौखट के बाहरों किनारो पर एक खडा हुअा बडी तोद का बीना (कीचक) है, जो अपने दोनो हाथों मे एक चिपटा घडा (मगलघट) थामे हुए है। गुप्त-कला के अनुरूप बने हुए दम घट में एक सुन्दर लतावलि निकलती हुई दिखाई गई है, जो पत्तियो और पुप्पो मे युक्त है। उप्णोश को ऊंचाई नक पहुंचकर यह लता-वितान १० इच पोछे विमकता हुआ दिखाया गया है, जिससे ठोक दाहिने गगा की मूर्ति और वाएं यमुना की मूर्ति को यथोचित स्थान दिया जा सके। इन दोनो मूर्तियों के ऊपर छत्र है और दोनो अपने-अपने वाहनो पर आस्ढ दिखाई गई है। नदी देवताओं का इस प्रकार सिरदल के किनारो पर चित्रण गुप्त-कालोन अन्य प्राचीन मदिरो में भी मिलता है । मिरदल के मध्य में विष्णु भगवान अनत के ऊपर बैठे दिखाये गये है। ऐमा प्रतीत होता है कि ये वही देव है, जिनके लिए मदिर का निर्माण किया गया था। वाए से दाहिनी ओर की परिक्रमा करते हए हम उन मूनियुक्त शिलापट्टो के पास पहुँचते है, जिनके दृश्य भारतीय कला में अपना विशिष्ट स्थान रखते है। उत्तर की ओर का पट्ट गजेन्द्रमोक्ष की व्यया प्रगित करता है। पूर्व को ओर वाला नर और नारायण की तपस्या का सूचक है तथा दक्षिण की ओर वाले पट्ट पर अनन्तगायी विष्णु विराजमान है। जमा कि मैने ऊपर कहा है, मदिर का अधिष्ठान दो कतारों में लगे हुए गिलापट्टो मे अलकृत था, जिनमे गमायण और महाभारत के दृश्य अकित किये गये थे। दुख की बात है कि मूर्तियो का बहुत थोडा अग वच पाया है। किंतु जो मूर्तियां इम ममय उपलब्ध है, वे वडे मनोरजक अध्ययन का विषय है । वे वही के एक गोदाम में सुरक्षित है। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ प्रेमी-अभिनदन-ग्रथ गमावण गरी गिलापट्टी मे अहल्या-उद्धार, वन-गमन, अगस्त्याश्रम मे राम, लक्ष्मण और मीता का जाना, शूर्पणखा केनाक-कान काटना, वालि-मुग्रीव-युद्ध, लक्ष्मण के द्वारा सुग्रीव का अभिषेक, लक्ष्मण तथा सुग्रीव श्रादि का पुन सम्मिलन, नटमण को जोक्ति करने के लिए हनुमान का प्रोपधि लेकर द्रुतगामी होना आदि है। महाभारत के कुछ दृश्यो मे से कृष्ण-जन्म, नद-यशोदा के द्वारा वलदेव और कृष्ण को खिलाना, तथा शकट-लीला आदि है । एक विगडे हुए शिलापट्ट पर, जो अवमी अपने पुराने स्थान पर स्थित है, वामनावतार का दश्य है। मदिर के अधिष्ठान पर विष्ण के अन्य कौन-कौन अवतार बने हुए थे, यह अब नहीं कहा जा सकता। यह विगाल मदिर अव इतना अधिक नष्ट हो चुका है कि इसका काल्पनिक पूर्ण मान-चित्र बनाने के लिए पाफो पग्थिम की आवश्यकता है। केवल ऐसे चित्र के द्वारा ही न केवल इस मदिर का साकाही समझ में आ सकता है, अपितु उसके प्राचीन सौदर्य का भी अनुमान हो सकता है । इस दिशा में कार्य करने की मेरी अपनी धारणा है । अत म मै विद्वानो नया अपने सहयोगियो से हार्दिक प्रार्थना करूँगा कि वे गुप्त-कला की अवशिष्ट कृतियो का, जो इस देश की अमूल्य रत्न-राशि है, अधिक मनोयोग के साथ अध्ययन, सरक्षण और प्रकारान करें। प्रागरा] Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा जैन स्तूप और मूर्तियाँ श्री मदनमोहन नागर एम० ए० भारतवर्ष के इतिहास मे मथुरा जिस प्रकार हिन्दू और वौद्ध धर्म के लिए अग्रणी रहा उसी प्रकार जैन धर्म और कला का भी अत्यन्त प्राचीन काल से प्रमुख स्थान था। ईसा से लगभग दो सौ वर्ष पूर्व से ही यहाँ के स्वच्छन्द वातावरण में जैन धर्मानुयायी हिन्दू और बौद्धो के साथ प्रीतिपूर्वक अपने उच्च जीवन को विता रहे थे। वौद्धो के वुद्ध और वोधिमत्व तया हिन्दुओ के ब्रह्मा, विष्णु आदि की तरह जनो के तीर्थकरो की भी मूर्तियो का सर्वप्रथम निर्माण मयुरा में हुआ और इस प्रकार इस पवित्र नगरी कोही भारतवर्ष के तीनो प्रधान धर्मो के देवी-देवताओ को मूर्तिमान करने का श्रेय प्राप्त हुआ । यदि उत्तरी भारत में कोई भी ऐसा स्थान है, जहां प्राचीन जैन-कला तया मूर्ति-विज्ञान का विशिष्ट तथा सम्यग् अध्ययन किया जा सकता है तो वह मथुरा ही है। जैन धर्म की जो कुछ पुरातत्त्व मामग्री हमें मथुरा से प्राप्त हुई है वह अधिकाश ककाली टीले से है। यह टीला नगर मे वाहर दो मील की दूरी पर आगरा-दिल्ली रोड पर बसा है। ककाली टोला मथुरा के बहुत ही धनी टोलो मे से है और प्राचीन काल में उत्तरी भारत में जैन धर्म और स्थापत्य कला का सबमे वडा केन्द्र था। इस टीले से कुछ हिन्दू और वौद्ध मूर्तियाँ भी मिली है, जिनसे मभवत यह ज्ञात होता है कि जैन धर्म की वढती देखकर हिन्दुप्रो और वौद्धोने भी उनके समीप अपना केन्द्र बना लिया था। इस टोले की चोटी पर एक नक्काशीदार खभाहै जिसे आजकल लोग ककाली देवी कर के पूजते है और जिसके कारण इस टोले का नाम 'ककाली' टीला पडा है। किन्तु वास्तव मे इस स्थान पर एक प्राचीन जैन स्तूप था जो 'वोद्व स्तूप' के नाम से प्रसिद्ध था। यह स्तूप ईस्वी दूसरी गती मे इतना प्राचीन समझा जाने लगा था कि लोग इसके वास्तविक बनाने वालो को नितान्त भूल गये थे और इसे देवो का बनाया हुआ मानने लगे थे। इमसे यह प्रतीत होता है कि 'वोद्व स्तूप' वहुत ही प्राचीन स्तूप था, जिसका निर्माण कम-से-कम ईस्वी पूर्व पाँचवी-छठी शताब्दी में हुआ होगा। इस अनुमान की पुष्टि का दूसरा प्रमाण यह भी है कि तिब्वतीय विद्वान् तारानाथ ने लिखा है कि मौर्य काल की कला यक्ष-कला कहलाती थी और उससे पूर्व की कला देव-निर्मित कला । अत यह सिद्ध होता है कि ककाली टोले का जैन स्तूप कम-से-कम मौर्य काल मे पहले अवश्य बना था। कहा जाता लेखक महाशय की यह धारणा कि हिन्दू और बौद्ध मूर्तियों के समान जैन तीर्थंकरों की मूर्तिया भी कुषाण काल में मथुरा में ही बननी शुरू हुई, कुछ युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होती, क्योकि ईसा पूर्व की दूसरी सदी (१७३ वी० सी०-१६० वी० सी०) के उडीसा प्रान्त वाले सम्राट् खारवेल के हाथी गुम्फ शिलालेख के आधार पर डा० जायसवाल के मतानुसार यह साफ विदित है कि खारवेल के समय से भी पहले उदयगिरि पर जैन अर्हन्तो के मदिर वने हुए थे। सम्राट् खारवेल ने मगध साम्राज्य को परास्त कर आदि-जिन ऋषभदेव की उस मूति को, जो तीन सौ वर्ष पहले मगध राज नन्दिवर्धन उदयगिरि से उठा कर ले गया था, ला कर पुन स्थापित किया था। इसके अतिरिक्त १४ फरवरी १९३७ को पटना जकशन स्टेशन से एक मील की दूरी पर लोहियापुर से पृथ्वी खोदते समय जो ढाई फुट ऊँचा नग्न मूर्तिखड मिला है और आजकल पटना अजायबघर में रक्खा हुआ है वह डा० काशीप्रसाद जायसवाल के मतानुसार उपलब्ध जैन-मूर्तियों में प्राचीनतम जैनमूर्ति है और ईसा से लगभग ३०० वर्ष पूर्व पुरानी है। डा० जाय सवाल का उपरोक्त मत २० फरवरी १९३७ वाले 'सर्चलाइट' में प्रकाशित और जैन ऐंटिक्वेरी, जून १९३७ में उद्धृत हुआ है। इन दोनो शिलालेख और पुरातत्त्व के उदाहरणो से स्पष्ट है कि जैन तीर्थंकरो की मूर्तिया कुषाण काल से कई सदी पहले भारत के विभिन्न भागो में मौजूद थीं।-सपादक । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० प्रेमी - अभिनंदन ग्रंथ है कि मथुरा का यह स्तूप प्रारभ मे स्वर्ण-जटित था और इसे 'कुवेरा' नाम की देवी ने सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की पुण्य स्मृति में वनवाया था । तत्पश्चात् तेईसवे तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जी के समय मे इसका निर्माण ईंटो से हुआ । इसके बाद लगभग आठवी शताब्दी मे वप्पभट्टसूरि ने इसकी मरम्मत कराई । इस अनुश्रुति के आधार पर भी मयुरा के प्राचीन जैन स्तूप का निर्माण काल लगभग ईस्वी पूर्व की छठी शताब्दी ठहरता है । इस प्रकार भारतवर्ष के इतिहास में यह स्तूप सबसे पुराना समझा जाता है । यह स्तूप कुषाण काल में वेदिकाग्रो, तोरणी आदि मे अलकृत था और इसमे कोट्टिय गण की वज्री शाखा के वाचक आर्य वृद्धहस्ति की प्रेरणा से एक श्राविका ने न की मूर्ति स्थापना की थी । चित्र १ - - श्रायागपट्ट, जिस पर 'वौद्ध स्तूप का नक्शा बना है (?) । 'वौद्ध स्तूप' के समीप में दो बडे-बडे देव प्रासादो के भग्नावशेष भी मिले हैं। इनमें से एक मंदिर में एक तोरण काभा मिला है, जिसे महारक्षित प्राचार्य के शिष्य उत्तरदासक ने बनवाया था। इस पर के लेख के अक्षर भारहूत से पाये गये ई० पू० १५० के लगभग के घनभूति के तोरण के लेख के अक्षरो से पुराने है । ग्रत विद्वानो के Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मथुरा का जैन स्तूप और मूर्तियां २८१ मत मे इन मंदिरो का समय ईस्वी पूर्व दूसरी शताब्दी का है। इन मंदिरो मे ई० पू० दूसरी शताब्दी मे लेकर ईमा की वारहवी शताब्दी तक के शिलालेख और शिल्प के उदाहरण मिले है, जिनसे यह ज्ञात होता है कि लगभग १४०० वर्ष तक जैन धर्म के अनुयायी यहाँ निरतर तरह-तरह के सुन्दर शिल्प की सृष्टि करते रहे । ककाली टीले मे अव तक प्राय ममिला और डेढ हजार पत्थर की मूर्तियां मिली हैं। इनमें वेदिकाएँ, तोरण, ग्रायागपट्ट, तीर्थकर मूर्तियाँ, सर्वतोभद्रका प्रतिमाएँ आदि प्रमुख हैं, जो अपनी उत्कृष्ट कारीगरी के कारण आज भी भारतीय कला के गौरव समझे जाते है । बौद्ध स्तूपों की तरह मथुरा का जैन स्नूप भी चारो ओर एक प्रकार की वेष्टनि या चहारदीवारी मे मज्जित था, जिसके चार ग्रस्नम्भ, सूची, ग्रालवन और उष्णीप— थे । इन वेदिकाश्री के स्तभो पर अनेको चित्र २ -- उत्तर गुप्तकालीन तीर्थंकर-मूर्तियां सुभग गात्र वालो वनिताएँ अकित है, जो माथुरी कला को अनुपम देन है । इनकी सुन्दर पोशाको तथा भाति भाति के रत्नजटित त्राभूषणों को देखकर दाँतो तले अगुली दवानी पड़ती है । अशोक, वकुल, ग्राम्र और चपक के उद्यानों मे पुष्पचयन, गालभजिका श्रादि क्रीडाग्री मे प्रसक्त अथवा कदुक, खड्ग आदि के खेलो में मलग्न अथवा स्नान और प्रभावन में लगी हुई कुलागनाथो को देखकर कौन विना मुग्ध हुए रह सकता है ? इन पर बने हुए भक्ति भाव से पूजा के लिए फूल-मालाओ की भेट लाने वाले उपानको को शोभा निराली है । सुपर्ण और किन्नर यादि श्रर्द्ध देवो की पूजा के दृश्यों से इन वेदिकाओं की सुन्दरता तथा महिमा और भी भावगम्य हो गई है । ऐमी ही वेदिकानों से सुमज्जित एक स्नूप का दृष्य हमें मयुग के अजायबघर में प्रदर्शित एक प्रयागपट्ट (चित्र १ ) पर मिलता है । बीच में एक गोलाकार स्तूप है, जिस पर पहुँचने के लिए मोढियाँ बनी है । स्तूप के चारो ओर वेदिकाएँ ( Railings) है । चारो दिशाओ में तोरणो मे मुमज्जित वहिर्द्वार ( Gateways ) बने हैं । इन वहिर्द्वारो के भो को सभालने के लिए तुडियाएँ (Brackets) दी गई है, जिन पर चापभुग्नगात्रो वाली यक्षियाँ उत्कीर्ण है । श्रायागपट्ट (Tablet of homage) पत्थर के उम चौकोर टुकडो को कहते है, जो अनेको प्रकार के मागलिक चिह्नों ने श्रकित कर के किमी तीर्थकर को चढाया गया हो। ककाली टीले से इम प्रकार के कई ग्रायागपट्ट ૩૬ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ पाये गये है, जो जैन-कला मे अपना विशेष स्थान रखते हैं। इन पर नांद्यावर्त, कमल, बेलबूटे, अष्ट मागलिक चिह्न, वच्च, स्वस्तिक आदि अकित है और इनके बीच मे समाधिमुद्रा में कोई तीर्थकर विराजमान रहते है। जैन-मूर्तिविज्ञान में ये आयागपट्ट सबसे प्राचीन और प्रसिद्ध अवशेष माने गये है। कारण, इन पर हमे सर्व प्रथम तीर्थकरो की मूर्तियाँ मिलती है। इससे पहिले वौद्ध कला की भाति जैन-कला मे भी भगवान् की पूजा केवल चिह्नो द्वारा होती थी। अधिकाश पायागपट्टो पर तो चिह्न तया मानुषीरूप दोनो का अनुपम सम्मिश्रण है। - - - -- . A . . . . . FORY चित्र ३--गुप्तकालीन तीर्थकर-मूर्ति ई० म० प्रथम शताब्दी में जैन धर्म मे तीर्थकरो की पृथक् मूर्तियो का वनना प्रारभ हुआ। ये मूर्तियाँ बडे सादे ढग से बनाई जाती थी। इनमे जिन-लोग या तो सगासन में खडे रहते थे या समाधिमुद्रा में बैठे। ये मूर्तियाँ दिगम्बर सप्रदाय की होने के कारण वस्त्र-विहीन है । इनमें केवल आदिनाथ, पार्श्वनाथ या सुपार्श्वनाथ, अजितनाथ और महावीर स्वामी का चित्रण ही मिलता है। मूर्ति-विज्ञान पूर्णरूप से विकसित न होने के कारण इस समय तक चौवीसो तीर्थकरो के चिह्न, लाछन आदि ठीक-ठीक नियत नही हुए थे। इसलिए कुषाण काल की तीर्थकर मूर्तियो में एक दूमरे का भेद नही किया जा सकता है। हां, आदिनाथ के वाल (चित्र २) तथा पार्श्व और सुपार्श्वनाथ के सर्प-फण हमें केवल इनको पहिचानने में सहायता देते हैं । जैन तीर्थकरो की मूर्तियो के कलेजे पर के श्रीवत्स के कारण और सिर पर उणीप के प्रभाव के कारण हम इन्हे इस काल की बुद्ध-मूर्तियो से अलग आसानी से पहिचान सकते है। मथुरा के कलाविदो ने इसी समय से एक प्रकार की चौमुखी मूर्तियो को भी वनाना शुरू किया, जो सर्वतोभद्रिका प्रतिमा अर्थात् Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयुरा का जैन स्तूप और मूर्तियां २८३ वह शुभ मूर्ति जो चारो ओर ने देखी जा सके, कहलाती थीं। इन मूर्तियों में चारो दिशाओं मे एक तीर्थंकर की मूर्ति बनी हुई है। इन चौमुग्वी मूर्तियो में आदिनाथ, महावीर, सुपार्श्वनाथ अवय्य होते है । इस प्रकार की मूर्तियाँ मथुरा में कुषाण और गुप्त काल में बहुतायत मे वनती थी और उनके अनेको सुन्दर उदाहरण इस समय अजायबघर में प्रदर्शित है। किन्तु सभ्यता और गान्ति की यह दशा वहुत दिनो तक न टिक सकी और ईस्वी ४७५ के लगभग से उत्तरी भारत पर हूणो के भयानक आक्रमण होने लगे। इन अाक्रमणो मे मथुग की स्थापत्य कला को वडा धक्का लगा और वह फिर कभी उस पुराने चोटी के स्थान को प्राप्त नहीं कर सकी। अन ई० छठी शताब्दी के पश्चात् के जो नमूने हमें मिले है वे भोडे और महे है और उनमे पहिले की मी सजीवता नही है। इमी काल से मथुरा में श्वेताम्बर मप्रदाय का भी सिक्का जमा और विना कपडेवाली मूर्तियो में कपडे दिवाये जाने लगे। वेताम्बग्यिो की ही कृपा से इन मूर्तियों में पहिले-पहल राजसिंहासन, यक्ष, यक्षिणी, त्रिरत्र, गजेंद्र आदि दगांये गये, जो उत्तर गुप्त काल और उसके बाद की जैन मूर्तियो के विशेप लक्षण है। इन्ही के साथ-साथ मध्य काल के मायुरी तक्षको ने यम-यक्षिणियो और जैन मातृकाओ की भी पृथक् मूर्तियाँ वनाना प्रारम किया। मथुरा अजायबघर में प्रदर्शित जैन यम वरणेद्र (न० १३६) की मूर्ति इमी काल की है। इनके हाथ में एक चक्र है और मिर पर मापों के फण। ये मुपाश्वनाथ की सेवा में रहते हैं। ऋषभनाथ की यक्षिणी चक्रेश्वरी की भी एक सुन्दर मूर्ति मिली है। इसमें देवी गरुट पर सवार है और इसके प्राठी हाथों में चक्र है। गोद में बच्चो को लिये हुए और कल्प वृक्ष के नीचे बैठी हुई मातृकानो की भी कई मूर्तियां हमे ककाली टोले से मिली है। तीर्थकर मूर्तियों के अतिरिक्त कृपाण काल की एक विशेषता थी भगवान नैमेप की पूजा । नैमेप, नैगमेप या हरिनंगमेप जैन पथ मे मतानोत्पत्ति के प्रमुख देवता थे। इनकी पुरुष और स्त्री दोनो विग्रहों में मूर्तियां मिली है। मभक्त पुरुप विग्रह की मूर्तियाँ पुरुपो के पूजने के लिए थी और स्त्री विग्रह की मूर्तियां स्त्रियो के लिए। मूर्तियो में नंगमेप का मुख वकरे का दिखाया गया है। गले मे लत्री मोती की माला भी है, जो इनका विशेष चिह्न है। मथुरा में प्राप्न जैन मूर्तियो पर के लेब ऐतिहासिक, धार्मिक तथा सामाजिक दृष्टि मे बटे महत्त्व के है। इनमें पाये गये कृपाण गजायो के नाम तथा तिथियो मे हमे उनके ऋमिक इतिहास (Chronological history) तथा गज्य काल की अवधि का पता चलता है। यदि ये लेम्ब न मिले होते तो कनिप्क, हुविक जैसे देवतुल्य प्रतापी मम्राटी का ज्ञान हम केवल नाममात्र काही रहता। इन लेग्यो से हमे विदित होता है कि इनकी दाता अविकाश स्त्रियाँ थीं, जो बडे गर्व के माय अपने पुण्य का भागवेय अपने माता, पिता, मास, समुर, पुत्र, भाई, पुत्री आदि आत्मीयो को वनाती थी। ऐसा प्रतीत होता है कि आज की तरह उस समय भी धर्म की स्तभ स्त्रियाँ ही थी। इन स्त्रियो में बहुत मी विधवाएं होती थी, जो इस गोकजनक अवस्था के कारण घर-गृहस्थी छोडकर मन्याम ले लेती थी और जन-मघ में भिक्षुणी वन जाती थी। ऐसी ही एक स्त्री कुमारमित्रा थी, जिसने वैधव्य के दुख मे दुखी होकर सन्यास ले लिया था और जिनके पुत्र ने एक वर्षमान प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। लेख में कुमारमित्रा को सगित, मोखित पीर बोषित (Whetted, polished and awakened) कहा गया है। इन लेखो मे जो गण, कुल, मघ,गोत्र, ग.खा, सभोक आदि गद आये है इनमे उस समय के जैन ममाज के विभिन्न धार्मिक दलो का पता चलता है। अभाग्यवश इन शब्दो का ठीक-ठीक अर्थ अव तक विद्वानो की समझ में नहीं आया, पर ऐसा प्रतीत होता है कि ये दल भिन्न-भिन्न गुस्यो के अपने स्थापित किये हुए थे अथवा यह भी मभव है कि ये शब्द वैदिक काल के प्रवर, गोत्र, गाखा आदि के प्रतिरूप हो। लेखो की भाषा मिली-जुली प्राकृत और संस्कृत है, जो भापा-विज्ञान (Philology) की दृष्टि से बडे महत्त्व उक्त लेखों में जो सघ, गण, गच्छ, शाखा आदि शब्द आये है, उनका सकेत जैन श्रमणो के उन विभिन्न संघो की पोर है, जो ईसा पूर्व की पहली सदी के फरीव जैन-श्रमणो में अपनी-अपनी आचार्य-परम्परा और पर्यटनभूमि की विभिन्नता के कारण पैदा होने शुरू हो गये थे।-सपादक । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ की है। कारण, यह प्राचीन संस्कृत और आजकल की हिन्दी, मराठी, बगला-गुजराती आदि प्रान्तीय भाषायो के बीच एक कडी-मी है। इनकी भाषा मे सस्कृत के शब्दो के वे स्वस्प है, जिनके माध्यम से आजकल की उत्तर भारत की प्रान्तीय भापात्रो के मूल शब्द को हम ढूढ निकालते है। इन लेखो में से एक लेख से हमें पता चलता है कि मथुरा में ईमवी पहली शताब्दी में नाचने और नाटक खेलने वालो के कुछ घर थे, जो इन कामो को पेशे के तौर पर करते थे। भगत, नाच, राम आदि प्राचीन परपरा से मथुरा में चले आ रहे है और इन पर अनुसधान करने वालो के लिए यह लेस अवश्य ही वडे महत्त्व का है। लखनऊ ] Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराज मानसिंह और 'मान - कौतूहल' श्री हरिहरनिवास द्विवेदी एम्० ए० एल० एल० वी० एक बार दिल्ली जो तोमरो के हाथ से निकली तो फिर प्रयास करने के बाद भी कभी उननी न हो सकी । यद्यपि चारण भाट कहते ही रहे— "फिर फिर दिल्ली तोरो की, तोर गये तब श्रीरों की " परन्तु दिल्ली श्रौरी की हो गई और तौरो को श्राश्रय मिला ग्वालियर के किले और उसके निकट के प्रदेश में, जिसका आज भी 'तीरघार' नाम प्रसिद्ध है । तोमरो का सूर्य एक बार दिल्ली में ग्रस्त होकर पुन चौदहवी शताब्दी के अन्त मे ग्वालियर-गढ पर उदय हुआ, जब वीर्गमदेव तोमर ने तैमूर के हमले के बाद अपने श्रापको स्वतन्त्र महाराजा घोपित Mee I 24 Joh 14. hi Jamia Srawa CRIRE 3. महाराज मानसिंह तोमर द्वारा निर्मित मानमंदिर के भित्ति चित्र और पत्थर की कारीगरी कर ग्वालियर के तोमर वंश की स्थापना की । प्राय एक शताब्दी तक इस वश ने धर्म-मीरु, कला र साहित्य-प्रेमी नरेशो को उत्पन्न किया । गणपतिदेव, डूंगरेन्द्रदेव, कीर्तिसिंह, कल्याणमल्ल ऐसे नाम है, जिन्हें ग्वालियर किले का दर्शक अनेक पर्वताकार जैन-मूर्तियों की चरण-चोकियो तथा अन्य कला-कृतियो पर श्रकित देखता है । तोमरो का राज्य अपनी पराकाष्ठा को महाराज मानसिंह तोमर के काल मे पहुँचा, परन्तु इस पूर्णचन्द्र के ग्रहण के लिए लोदी -वश रूपी राहु प्रबल हुआ। इन महाराज ने सन् १४८६ में गही मँभाली और तभी इन पर Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ बहलोल लोदी ने आक्रमण कर दिया । वडी कठिनाई से महाराज अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा कर सके, परन्तु बाद मे इनकी शक्ति बढती ही गई और सन् १४८६ ईसवी मे वहलोल की मृत्यु के पश्चात् जव सिकन्दर लोदी गद्दी पर बैठा तो वह इनकी शक्ति से बहुत प्रभावित हुआ और इनको घोडा तथा वस्त्रो की भेंट भेजी । महाराज ने भी बदले में भेंट भेजी । कुछ समय पश्चात् फिर विद्वेष प्रारम्भ हुआ और सिकन्दर लोदी के सामने महाराज मानसिंह तोमर को अपनी शक्ति और ग्वालियर - गढ की अजेयता की अनेक बार मफल परीक्षा देनी पडी । सिकन्दर लोदी की मृत्यु के बाद इब्राहीम लोदी गद्दी पर बैठा और उसने अपने साम्राज्य की सम्पूर्ण शक्ति के साथ ग्वालियर के मान के विरुद्ध हल्ला बोल दिया । तीस हजार घोडे, तीन सौ हाथी और अगणित पैदल सैना मे गढ को घिरा छोड कर महाराज मानसिंह अपनी कीर्ति-कौमुदी की छटा छोड सन् १५१६ ईसवी में मुरधाम पवारे । ܘ महाराज मानसिंह के पूर्वज डूंगरेन्द्रदेव द्वारा निर्मित ग्वालियर - गढ की तीर्थंकरो की विशाल मूर्तियाँ अपने राज्य-काल में महाराज मानसिंह ने अनेक झीलो का निर्माण कराया। ग्वालियर की मोतीझील, जहाँ आज विशाल वाटर वर्क्स है, इन्ही महाराज की बनवाई हुई है और जटवारे और तौरघार में अनेको सिंचाई की झीलो के निर्माण का श्रेय भी इन्ही को है । इनके राज्य मे प्रजा सुखी और सन्तुष्ट थी । यही कारण है कि आज राजा मान का नाम इस प्रदेश मे 'वीर विकरमाजीत' के नाम के ममान ही समादृत है । ये महाराज कला के अत्यधिक प्रेमी थे । नाज भी ग्वालियर-गढ का प्रत्येक दर्शक गूजरी महल और मानमन्दिर के निर्माना के वास्तु कला-प्रेम की स्थायी छाप लेकर जाता है। गूजरी मृगनयना और उसके लिए राई ग्राम से जल का नल लगवाने की किवदन्ती ज्ञात होने पर उसके प्रेम का प्रमाण भी मिल जाता है । वे सगीत-कला के भी वहुत बडे प्रेमी थे, यह कम लोगो को ज्ञात है । इनके द्वारा निर्मित सगीत की 'मानकौतूहल' नामक पुस्तक की सूचना हमे काशी के श्री चन्द्रवली पाडे ने दी थी । यह जानकारी होते ही हमने उसकी खोज प्रारम्भ की। 'मध्ययुगीन - चरित्र - कोष' ग्रन्थ में यह उल्लेख प्राप्त Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराज मानसह और 'मान - कौतूहल' Tripur २८७ हुआ कि इसकी एक प्रति रामपुर के राजपुस्तकालय में है । कर्नल राजराजेन्द्र श्रीमन्त मालोजी राव नृसिंहराव गितोले के श्राग्रह से रामपुर राज्य के दीवान जनाव सैयद वी० एल० जैदी सी० प्राई० ई०, वार-एट-लॉ ने कृपा कर उसकी प्रतिलिपि भेजने का वचन दिया । वडी उत्सुकता मे उसकी वाट देख रहे थे कि एक दिन हमें फारसी भाषा की पाडुलिपि रामपुर राज्य से प्राप्त हो गई । यद्यपि मूल- 'मानकौनूहल' न प्राप्त कर सकने के कारण हमे कुछ खेद हुग्रा, परन्तु हमे जो कुछ प्राप्त हुआ वह मास्कृतिक इतिहास की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था । सम्राट् आलमगीर के काश्मीर के सूबेदार फकीरुल्ला का सन् १०७३ हिजरी (ई० सन् १६९९) में किया गया 'मानकौतूहन' का फारसी - रूपान्तर हमे भेजा गया था । मानमदिर की विशाल हथिया पौर उस ममय हिन्दू और मुसलमानो का सास्कृतिक मेल कितना अधिक हो गया था, यह इस पुस्तक से स्पष्ट है । संगीत की अनेक पारिभाषिक वातो के साथ-साथ उस समय के सामाजिक एव राजनैतिक इतिहास पर भी इस पुस्तक से काफी प्रकाश पडता है । महाराज मानसिंह द्वारा ग्वालियर के गौरव में जो वृद्धि हुई, वह न केवल वास्तुकला तक ही सीमित समझी जायगी, अपितु उसे ध्रुव सप्रमाण सगीत के क्षेत्र मे भी स्वीकार करना पडेगा । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ प्रेमी-प्रभिनदन-ग्रंथ इस पुस्तक का साराश यहाँ प्रस्तुत करना अप्रासंगिक न होगा। इस पुस्तक में दम अध्याय है। पहले अध्याय मे लेखक (अनुवादक) ने अपना नाम फकीरुल्ला दिया है और लिखा है कि सन् १०७३ हि० मे एक पुरानी किताव मेरे देखने मे आई, जिसका नाम 'मानकौतूहल' था। इस पुस्तक का कर्ता ग्वालियराधीश राजा मानसिंह को लिखा है। मानसिंह गान-विद्या में निपुण थे और प्रसिद्ध तो यह है कि ध्रुवपद का आविष्कार इसी राजा ने किया । एक वार सयोग से नायक बख्शू पाडवीय, जो तैलगाना देश मे कुरुक्षेत्र स्नान करने आया था, देव आग (दत्य के से स्वर वाला)नायक महमूद और नायक करण इस राजा की सभा में उपस्थित हुए। राजा ने इसे स्वर्ण-सयोग समझा। शिक्षार्थियो को सुलभ करने के लिए राजा ने इन गायनाचार्यों से वाद-विवाद करके रागरागनियो के लक्षणो पर पुस्तक लिखवाई। यह पुस्तक ऐसी वनी कि जिस पर भरोसा किया जा सकता है और इसलिए मैने इसका अनुवाद फारसी मे किया। यह पुस्तक 'भरत' मत को मानती है। अनुवाद के साथ-साथ कुछ आवश्यक वाते 'भरतसगोत', 'सगीत-दर्पण' और 'रत्नाकर' से चुनकर इसमे वढा दी गई है, ताकि सीखनेवालो को उन पुस्तको के देखने की आवश्यकता न पडे । इस पुस्तक का नाम मैने 'रागदर्पण' रक्खा है, क्योकि एक छोटे-मे दर्पण में पहाड और जगल सवका दृश्य दिखाई दे जाता है । कुछ राग इसमे 'नृत्यनृत्यो' और 'चन्द्रावली' के मत मे भी लिखे है। महाराज मानसिंह द्वारा गुजरी रानी 'मृगनयना' के लिए वनवाया गया 'गूजरी महल' दूसरे अध्याय में राग-रागनियो का विवरण है और कुछ पारिभापिक शब्दो की व्याख्या की गई है। इस अध्याय मे यह भी ज्ञात होता है कि मालवा का प्रसिद्ध नवाव वाजवहादुर, अमीर खुशरो, शेख वहीउद्दीन, जकरिया मुल्तानी, सुल्तान हुसैन शर्की जौनपुरी गान-विद्या मे 'उस्ताद' का पद रखते थे। अनुवादक भी अपने को इस विद्या का 'आमिल' (निपुण) लिखता है। तीसरे अध्याय म वताया गया है कि किस ऋतु में कौनमा राग, रागिनी या उनके पुत्र गाये जाने है और उनके वोलो में कौनसे अक्षर प्रारम्भ मे नहीं रखना चाहिए। साथ ही ग्रामो का भी वर्णन है। 'इस पुस्तक के पदो की भाषा वह प्राचीन हिन्दी होगी, जिसे ग्वालियरी कहा जा सकता है। इसी 'ग्वालियरी' के अध्ययन के लिए इस पुस्तक की खोज हमने की थी, परन्तु वह अध्ययन तभी हो सकेगा, जब मूल 'मानकोतूहल' प्राप्त हो जायगा-लेखक । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाराज मानसिंह और 'मान-कौतूहल २८६ चौथे अध्याय मे लिखा है कि शरीर के किस भाग में से कौनसा स्वर उत्पन्न होता है और 'ध्रुवपद', 'विष्णुपद', 'ख्याल', 'माहरा' आदि के रूपो का भी वर्णन है। उनके रसो का भी विवेचन किया गया है। पांचवे अध्याय मे वाद्यो का उल्लेख है । तार, ताँत या खाल के योग मे बने बाजो के अतिरिक्त जलतरग का भी विस्तृत वर्णन है। इसके पश्चात् नायिका-भेद दिया गया है। छठे अध्याय में गायको के ऐवो का चित्रण है। सातवे अध्याय में गायको का गला आदि कैसा हो, इस पर प्रकाश डाला गया है। पाठवे अध्याय मे गायन के 'उस्ताद' की पहिचानें वतलाई गई है। भरत मत के अनुसार उस्ताद को सस्कृत का पडित होना चाहिए। कोष पर उसका अधिकार हो, शास्त्री हो, बुद्धि ऐसी कुशाग्न हो कि दूसरो से विवाद कर मके और नवीन चीजें पैदा कर सके। नवे अध्याय मे वतलाया है कि गान-मडली किम प्रकार सयोजित की जाये । गान-मडली के तीन प्रकार बतलाये है, उत्तम, मध्यम और निकृष्ट । उत्तम गान-मडली वह है, जिसमे चार गायक उच्च श्रेणी के, आठ मध्यम श्रेणी के, बारह सुकठ स्त्रियां, चार वांसुरी वाले और चार मृदग वाले हो। मध्यम सगोन-मडली में इसकी आधी सख्या रह जाती है । निकृष्ट मे एक गायक, तीन उसके सहायक, चार सुकठ स्त्रियाँ, दो वांसुरी वाले तथा दो मृदग वजाने वाले हो। इम अध्याय मे यह भी लिखा है कि सम्राट अकवर के काल में 'रागमागर' नामक एक पुस्तक निखी गई थी। उममे अनेक राग ‘मानकौतूहल' के विरुद्ध लिखे गये और वे गलत है।। दमवे अध्याय में अनुवादक के समय के प्रसिद्ध गायको का उल्लेख है । शेख वहीउद्दीन, सुलतान हुसैन शर्की, डालू ढाडी, लालखां उर्फ समन्दरखाँ (जिसे तानमैन के पुत्र विलासखां को लडको व्याही थी), जगन्नाथ, मिश्रीखां ढाडी, किशनसेन, तुलसीराम कलावन्त, भगवाना अन्धा आदि का हाल लिखा है । अन्त में कुछ आपवीती भो लिखी है। अनुवादक ने लिखा है कि सन् १०७१ मे सम्राट् किमी कारण से मुझसे अप्रसन्न हो गये और मैने 'गोशानशोनो' अस्तियार कर ली। मन् १०७६ मे मुझे पुन बुलाया गया और सम्राट् अपने साथ काश्मीर ले गये। यदि पृथ्वी पर स्वर्ग हो सकता है तो काश्मीर ही है। सम्राट् ने मुझे काश्मीर की मूवेदारी प्रदान की। शासन वास्तव मे भक्ति काही दूसरा नाम है और भक्ति का कोई दूसरा प्रकार इसको नही पहुँचता, क्योकि शासन जनता की सच्ची सेवा का नाम है। अनुवादक ने आगे लिखा है कि मुझे दो लडाइयां भी लडनी पडी। फिर रागो की फारसी नज़मो से तुलना करके समानता स्थापना का प्रयत्न है। ___इस पुस्तक से मध्यकालीन भारतीय सगीत के इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पडता है और आगे खोज के लिए सामग्री का मकेत भी मिलता है। इसमे हम प्रदेश के सास्कृतिक इतिहास पर भी प्रकाश पडेगा, इस आशा से यह सक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया गया है। ग्वालियर ] Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और वैष्यावों के पारस्परिक मेल-मिलाप का एक शासन-पत्र श्री वासुदेवशरण अग्रवाल इतिहास से सिद्ध है कि मौर्य सम्राट् उदार वेता महाराज अशोक ने सव सम्प्रदायो के बीच समन्वय और शान्ति की शिक्षा देने के लिए विशेष आज्ञाएँ जारी को थी, जो उनकी धर्म-लिपियो में आज तक उत्कीर्ण है । अशोक के भाव विविध धर्मों वाले इस विशाल देश के लिए प्रमृत के समान हितकर है। अशोक से लगभग सोलह शताब्दी वाद विजयनगर साम्राज्य के प्रतापी सम्राट् श्री बुक्कराय प्रथम ने जैन और वैष्णवो में पारस्परिक मेल और शान्ति की स्थापना के लिए १३६८ ई० (शक वर्ष १२६०) में एक लेख खुदवाया । यह लेख दक्षिण के श्रवण बेलगोल स्थान के सबसे विशाल मंदिर में, जिसका नाम 'भडारी वस्ती' है, खुदा हुआ है ।" लेख के प्रारम्भ में मगलाचरण का एक श्लोक है, जिसमें वैष्णवी के परम गुरु श्री रामानुजाचार्य की स्तुति हैं । लेख का सारांश यह है कि जैन धर्मानुयायी लोगो ने श्री बुक्कराय से वैष्णवो की ओर से होने वाले अत्याचार की शिकायत की। इस पर बुक्कराय ने जैन और वैष्णव दोनो सम्प्रदायो के प्रभावशाली व्यक्तियो को एकत्र किया और जैन भक्तो का हाथ वैष्णवी के हाथो में रखकर दोनो मे मेल कराया। साथ ही घोषणा की कि जैन श्रीर वैष्णव दोनो मत अभिन्न है श्रीर दोनो एक ही शरीर के अग है। पूरा लेख इस प्रकार है मूल कन्नड़ लेख स्वस्ति समस्त प्रशस्ति सहितम् ॥ पाषण्डसागरमहा वडवामुखाग्नि श्रीरङ्गराजचरणाम्बुजमूलदास । श्री विष्णुलोकमणिमण्टपमार्गदायी रामानुजो विजयते यतिराजराज ॥ शक वर्ष १२६० ने कोलक सवत्सरद भाद्रपदशु १० बृ स्वस्ति श्रीमन्महामण्डलेश्वर आरिराय विभाड भाषेगे तनु रायगड श्रीवीर बुक्करायन पृथ्वी राज्यव माडव काल दल्लि जैनरिगू भक्तरिगू सवाजव श्रदल्लि श्रानेयगोन्दि होसपट्टा पेनुगुण्डे कल्ले हदपट्टणव प्रोलगाद समस्तनाड भव्य जनङ्गल प्रा बुक्कराय भक्तरु माडुव अन्यायगलतू बिनह माडल आगि कोविल तिरुमले पेरुमाल कोविल तिरुनारायणपुरमुख्यवाद सकलप्राचार्य्यरू सकलसमयिगलू लसाविक मोण्टकर तिरुवणि तिरुविडि तनीरवर नात्वत्तेष्टुजनङ्गलु सावन्तबोवक्कलु तिरिकूल जाम्बुव कूल पोलाद हदिने नाड श्रीवैष्णवर कैय्यलु महारायनु वैष्णप्रदर्शनऊ जैनदर्शनक्केऊ भेदव इल्लव एन्दु रायनु वैष्णवर कैम्यलु जैनर कैविडिवु कोट्टु यी जैनदर्शनक्के मरियादेयलु पञ्चमहावाद्यगलू कलशवु सलुबुद जैनदर्शनक्के नक्र देसेन्दिहा निवृद्धिवादरू वैष्णवहानि वृद्धिपरागि पालिसुवरुयी मर्यादेयलु यल्ला राज्यदोलग उल्लान्तह बस्तिगलिगे श्रीवैष्णव शासनव नट्टु पालिसुवरु चन्द्रावर्क स्थायियानि वैष्णव समयो जैनदर्शनव रक्षिसिकोण्डु वहेउ वैणरू जैन वोन्दु भेदवागि कागज श्रागड श्रीतिरुमलेय तातय्यगलु समस्तराज्यद भव्यजनङ्गल अनुमतदिन्द बेलुगुलद तिर्त्यदल्लि वैष्णव अङ्ग रक्षेगोसुक समस्तराज्यदोलग उल्लन्तह जैनर नागिलु गट्टलेयागि मने मनेगे वर्ष के 'देखिए एपिग्राकिया कर्नाटिका, भाग २, पृ० २६ ( भडारी बस्ती मंदिर का वर्णन ), पृ० ६३ ( लेख का मग्रेजी में साराश), पु० १५६ (मूल कन्नड भाषा का लेख, सख्या ३४४), पृ० १४६ ( लेख का अग्रेजी अनुवाद) । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और वैष्णवो के पारस्परिक मेल-मिलाप का एक शासन-पत्र १ हण कोट्टु श्रायेत्तिद होनिङ्गे देवर अङ्गरक्षेत्रेय इप्पत्तालतू सन्तविट्टु मिक्क होसिङ्गे जीणं जिनालयङ्गलिगे सोयेयन इकू यो मरियादेयलु चन्द्राकर्करुल्लन्न तप्पलीयदे वर्ष वर्षक्के कोट्टु कीर्तियन् पुण्यवनू उपाज्जसिकोम्बुदु यो माडिद कट्टलेयन आवन् श्रन्वन मोॠदवन राजद्रोहि सघ सम्दायक्के द्रोहि तपस्विय श्रागलि ग्रामिणयागलि यो घव केड सिदर प्रादडे गगेय तडियल्लि कपिलेयनू ब्राह्मणननू कोन्द पापदल्लि होहरु | श्लो ॥ स्वदत्त परदत्तं वा यो हेरेति वसुन्धराम् । पष्ठि वर्णसहस्राणि विष्टाया जायते कृमि ॥ २६१ (बाद मे जोडा हुआ भाग ) कल्लेहद हव्विशेट्टिय सुपुत्र वसुवि सेट्टि बुक्क रायरिंग विन्नमादि तिरुमलेय तातय्यङ्गल विजय गैसि तरन्दु नीन्तद्वारव माडिसिदरु उभय समयवू कूडि वसुवि सेट्टियरिंग सङ्घ-नायक पट्टव कट्टिदरु || हिन्दी अनुवाद स्वस्ति । समस्त प्रशस्त सहित । पाखड रूपी समुद्र को सुखाने के लिये महान् वडवानल, श्री रंगनाथ देव के चरण-कमलो के सेवक और भगवान विष्णु के धाम मे निर्मित रत्न जटित मडप तक पहुँचने का मार्ग वताने वाले, यतिराज राजश्री रामानुज की जय हो । शक वर्ष १२९० । कीलक सवत्सर भाद्रपद शुक्ल दशमी बृहस्पतिवार —— श्री मन्महामडलेश्वर, शत्रु नाशन, वचनो का अतिक्रमण करने वाले राजाओ के दड-कर्त्ता, श्री वुक्कराय के शासन काल मे जैन और भक्तो ( वैष्णवो) मे विवाद उठने पर आनेयगोन्दि, होसपट्टन, पेनुगुण्डे और कल्लेह पत्तन आदि समस्त नाडो के भव्य जन अर्थात् जैनो ने मिलकर महाराज वुक्कराय से भक्तो (वैष्णवो) के अन्याय के बारे में विनती की। इस पर महाराज ने जैनो का हाथ पकड कर श्री वैष्णवो के हाथो मे रख दिया, जिसमें कि कोविल ( श्री रगम् ), तिरुमले ( तिरुपति ), पेरुमाल कोविल (काचीपुर ) और तिरुनारायणपुर (मेलकोटे) आदि अट्ठारह राष्ट्रो (नाड) के सकल आचार्य, सकल समयी, सकल सात्त्विक, मौष्टिक (मुट्ठी भर अन्न से निर्वाह करने वाले), श्री पूजनीय, पवित्र चरण और पवित्र अर्घ्य के पात्र, अडतालीस जन, सावन्त वोव, तिरुकुल और जाम्वव कुल सम्मिलित थे। साथ ही महाराज ने यह कहते हुये कि वैष्णव-दर्शन और जैन दर्शन मे भेद नही है, इस प्रकार घोषणा की यह जैन दर्शन पूर्व की भाति पत्र महा वाद्य और कलश का अधिकारी रहेगा । यदि भक्तो (वैष्णवो) के द्वारा जैन दर्शन की हानि या वृद्धि की जायगी तो वैष्णव उसे अपने ही धर्म की हानि या वृद्धि समझेंगे । इस मर्यादा को स्थापित करने वाला एक शासन राष्ट्र की सब बस्तियो मे श्री वैष्णव लोग कृपया जारी करेगे । जब तक चन्द्र और सूर्य कायम हे तव तक वैष्णव- समय जैनदर्शन की रक्षा करता रहेगा। वैष्णव और जैन एक है। उन्हे अलग नही समझना चाहिए । तिरुमलै अर्थात् तिरुपति के तातय्य नामक सज्जन समस्त राज्य के भव्य जनो (जैन) की अनुमति Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ प्रेमी-अभिनदन-प्रय से प्रति वर्ष प्रत्येक जैन घर से एक हण के हिसाब से कर उगाह कर उस आय में से वेलुगुल तीर्थ के देव की रक्षा के लिये वीस अग-रक्षक नियुक्त करेगे । ये अग-रक्षक वैष्णवो द्वारा अनुमोदित होगे । शेप धन से जीर्ण जिन-मन्दिरो की लिपाई-पुताई और मरम्मत का काम किया जायगा। जब तक चन्द्र-सूर्य है, इसी मर्यादा के अनुसार वे लोग प्रति वर्प देते रहेगे और यश और पुण्य का उपार्जन करेगे। जो इसका उल्लघन करेगा वह राज-द्रोही तथा सघ और समुदाय का द्रोही समझा जायगा । यदि कोई तपस्वी या ग्रामीण इस धर्म की हानि करेगा तो उसे गगा तट पर गो-वध और ब्राह्मण-वध के जैसा पाप लगेगा । कल्लेह स्थान के हव्विश्रेष्ठी के सुपुत्र बुसुविश्रेष्ठी ने वुक्कराय के यहा विनती की और तिरुमलय के तातय्य को बुलाकर पुन शासन का जीर्णोद्धार कराया। दोनो समयो (सम्प्रदायो) ने मिलकर बुसुविसेठ को 'सघनायक' की पदवी प्रदान की ॥ नई दिल्ली] - - - - - Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-दर्शन Page #329 --------------------------------------------------------------------------  Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तत्त्वज्ञान प० सुखलाल सघवी व्याख्या विश्व के वाह्य और आन्तरिक स्वरूप के सम्बन्ध मे तथा उसके सामान्य एव व्यापक नियमो के सम्बन्ध मे जो तात्त्विक दृष्टि से विचार किये जाते हैं उनका नाम तत्त्वज्ञान है। ऐसे विचार किसी एक ही देश, एक ही जाति या एक ही प्रजा मे उद्भूत होते है और क्रमश विकसित होते है, ऐसा नही है, परन्तु इस प्रकार का विचार करना यह मनुष्यत्व का विगिप्ट स्वरूप है । अतएव जल्दी या देरी में प्रत्येक देश में निवास करने वाली प्रत्येक प्रकार की मानव-प्रजा मे ये विचार अल्प या अधिक अश में उद्भूत होते है और वैसे विचार विभिन्न प्रजापो के पारस्परिक ससर्ग , के कारण और किसी समय विलकुल स्वतन्त्ररुप मे भी विशेष विकसित होते है तथा सामान्य भूमिका मे आगे बढ कर अनेक जुदे-जुदे प्रवाह रूप से फैलते है। पहले से आज तक मनुष्य-जाति ने भूखड के ऊपर जो तात्त्विक विचार किये है वे सव आज उपस्थित नही है तथा उन सब विचारो का क्रमिक इतिहास भी पूर्णरूप से हमारे सामने नही है। फिर भी इस समय इस विषय में जो कुछ सामग्री हमारे सामने है और इस विषय मे जो कुछ थोडा-बहुत हम जानते हैं, उस से इतना तो निर्विवाद रूप से कह सकते है कि तत्त्वचिन्तन की भिन्न-भिन्न और परस्परविरोधी दिखाई देने वाली चाहे जितनी धाराएँ हो, फिर भी इन सव विचार-धारामो का सामान्य स्वरूप एक है । और वह यह कि विश्व के वाह्य तथा आन्तरिक स्वरूप के सामान्य और व्यापक नियमो का रहस्य ढूढ निकालना। तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति का मूल कोई एक मनुष्य पहले से ही पूर्ण नही होता, परन्तु वह वाल्य आदि विभिन्न अवस्थामो मे से गुजरने के साथ ही अपने अनुभवो को वढा करके क्रमश पूर्णता की दिशा में आगे बढता है । यही बात मनुष्य जाति के विपय में भी है। मनुष्यजाति की भी बाल्य आदि क्रमिक अवस्थाएँ अपेक्षा विशेष से होती है। उसका जीवन व्यक्ति के जीवन की अपेक्षा बहुत अधिक लम्बा और विशाल होता है । अतएव उसकी वाल्य आदि अवस्थाम्रो का ममय भी उतना ही अधिक लम्बा हो, यह स्वाभाविक है । मनुप्य जाति जव प्रकृति की गोद में आई और उमने पहले गह्य विश्व की ओर अाँख खोली तव उसके मागने अद्भुत और चमत्कारी वस्तुएँ तथा घटनाएँ उपस्थित हुई। एक ओर सूर्य, चन्द्र और अगणित तारामडल और दूसरी ओर समुद्र, पर्वत, विशाल नदीप्रवाह, मेघ गर्जनाएँ और विद्यतचमत्कारो ने उसका ध्यान आकर्षित किया। मनुष्य का मानस इन सव स्थूल पदार्थो के मूक्ष्म चिन्तन में प्रवृत्त हा और उसके हृदय मे इस सम्बन्ध मे अनेक प्रश्न उद्भूत हुए। जिस प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क मे वाह्य विश्व के गढ तथा अतिसूक्ष्म स्वरूप के विषय मे और उसके सामान्य नियमो के विपय में विविध प्रश्न उत्पन्न हुए उमी प्रकार आन्तरिक विश्व के गूढ और अतिसूक्ष्म स्वरूप के विषय में भी उसके मन मे विविध प्रश्न उठे। इन प्रश्नो की उत्पत्ति ही तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति का प्रथम सोपान है। ये प्रश्न चाहे जितने हो और कालक्रम मे उसमे से दूसरे मुख्य और उपप्रश्न भी चाहे जितने पैदा हो फिर भी उन सव प्रश्नो को सक्षेप में निम्नप्रकार से मकलित कर सकते है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन ग्रंथ तात्त्विक प्रश्न प्रत्यक्ष रूप मे सतत परिवर्तनशील यह वाह्य विश्व कव उत्पन्न हुआ होगा ? किसमे से उत्पन्न हुया होगा ? स्वय उत्पन्न हुआ होगा या किसी ने उत्पन्न किया होगा ? और उत्पन्न नही हुआ हो तो क्या यह विश्व ऐसे ही था श्रीर है ? यदि उसके कारण हो तो वे स्त्रय परिवर्तनविहीन नित्य ही होने चाहिए या परिवर्तनशील होने चाहिए ? ये कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के होगे या समग्र वाह्य विश्व का कारण केवल एकरूप ही होगा ? इस विश्व की व्यवस्थित और नियमवद्ध जो सचालना और रचना दृष्टिगोचर होती है वह बुद्धिपूर्वक होनी चाहिए या यत्रवत् अनादि सिद्ध होनी चाहिए ? यदि बुद्धिपूर्वक विश्वव्यवस्था हो तो वह किसकी बुद्धि की आभारी है ? क्या वह वुद्धिमान् तत्त्व स्वय तटस्थ रह करके विश्व का नियमन करता है या वह स्वयं ही विश्व रूप से परिणमता है या श्राभासित मात्र होता है ? २६६ उपर्युक्त प्रणाली के अनुसार आन्तरिक विश्व के सम्वन्ध मे भी प्रश्न हुए कि जो यह वाह्य विश्व का उपभोग करता है या जो वाह्य विश्व के विषय में और अपने विषय में विचार करता है वह तत्त्व क्या है ? क्या यह अहरूप से भामित होने वाला तत्त्व वाह्य विश्व जैमी ही प्रकृति वाला है या किसी भिन्न स्वभाव वाला है ? यह श्रान्तरिक तत्त्व अनादि है या वह भी कभी किसी अन्य कारण मे से उत्पन्न हुआ है ? अहरूप से भासित होने वाले अनेक तत्त्व वस्तुत free ही है ? या किमी एक मूल तत्त्व की निर्मितियां है ? ये सभी सजीव तत्त्व वस्तुत भिन्न ही है तो क्या वे परिवर्तनशील है ? या मात्र कूटस्थ है ? इन तत्त्वो का कभी अन्त आने वाला है या ये काल की दृष्टि मे अन्तरहित ही हे ? इसी प्रकार ये सव देहमर्यादिन तत्त्व वस्तुत देश की दृष्टि से व्यापक है या मर्यादित है ये और इसके जैसे दूसरे बहुत मे प्रश्न तत्त्वचिन्तन के प्रदेश में उपस्थित हुए। इन सव प्रश्नो का या इनमें मे कुछ का उत्तर हम विभिन्न प्रजा के तात्त्विक चिन्तन के इतिहास में अनेक प्रकार से देखते है । ग्रीक विचारको बहुत प्राचीन काल से इन प्रश्नो की ओर दृष्टिपात करना प्रारम्भ किया । उनका चिन्तन अनेक प्रकार से विकमित हुआ, जिसका कि पाश्चात्य तत्त्वज्ञान में महत्त्वपूर्ण भाग है । आर्यावर्त के विचारको ने तो ग्रीक चिन्तको के पूर्व हज़ारो वप पहले से इन प्रश्नो के उत्तर प्राप्त करने के लिए विविध प्रयत्न किये, जिनका इतिहास हमारे सामने ? स्पष्ट I उत्तरो का सक्षिप्त वर्गीकरण आर्य विचारको के द्वारा एक-एक प्रश्न के सम्वन्ध मे दिये हुए भिन्न-भिन्न उत्तर और उनके विषय में भी मतभेद की शाखाएँ अपार है, परन्तु मामान्य रीति से हम सक्षेप मे उन उत्तरो का वर्गीकरण करें तो इस प्रकार कर सकते हैं । एक विचार प्रवाह ऐसा प्रारम्भ हुआ कि वह वाह्य विश्व को जन्य मानता था । परन्तु वह विश्व किसी कारण मे मे बिलकुल नया हो-- पहले ही ही नही, वैसे उत्पन्न होने का निषेध करता था और यह कहता कि जिस प्रकार दूध में मक्खन छिपा रहता है और कभी केवल आविर्भाव होता रहता है, उसी प्रकार यह सारा स्थूल विश्व किमी सूक्ष्म कारण मे मे केवल आविर्भाव होता रहता है और यह मूल कारण तो स्वत सिद्ध अनादि है । दूसरा विचार प्रवाह यह मानता था कि यह वाह्य विश्व किसी एक कारण में से उत्पन्न नही हुआ है, परन्तु स्वभाव से ही विभिन्न ऐसे उसके अनेक कारण है और इन कारणो में भी विश्व दूध मे मक्खन की तरह छिपा नही रहता है, परन्तु भिन्न-भिन्न काष्ठ खडो के सयोग से एक गाडी नवीन ही तैयार होती है, उसी प्रकार उन भिन्न-भिन्न प्रकार के मूल कारणो के सश्लेषण विश्लेषण में से यह वाह्य विश्व विलकुल नवीन ही उत्पन्न होता है । पहला परिणामवादी है और दूसरा कार्यवादी । ये दोनो विचारप्रवाह बाह्य विश्व के आविर्भाव या उत्पत्ति के सम्वन्ध में मतभेद रखने वाले होने पर भी प्रान्तरिक विश्व के स्वरूप के सम्बन्ध मे सामान्यरूप से एकमत थे । दोनो यह मानते थे कि अहू नाम का श्रात्म-तत्त्व अनादि है । वह न तो किसी का परिणाम है और न किसी कारण मे से उत्पन्न हुआ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तत्त्वज्ञान २६७ है। जिस प्रकार वह आत्मतत्त्व अनादि है, उसी प्रकार देश और काल दोनो दृष्टियो से अनन्त भी है और वह आत्मतत्त्व देहभेद से भिन्न-भिन्न है, वास्तविक रीति से एक नही है। तीसरा विचारप्रवाह ऐसा भी था कि जो बाह्य विश्व और आन्तरिक जीवजगत् दोनो को किसी एक अखड सत् तत्त्व का परिणाम मानता और मूल मे वाह्य या आन्तरिक जगत की प्रकृति अथवा कारण में किसी भी प्रकार का भेद नही मानता था। जैन विचारप्रवाह का स्वरूप ऊपर के तीनो विचारप्रवाहो को क्रमय हम यहाँ प्रकृतिवादी, परमाणुवादी और ब्रह्मवादी के नाम से पहचानेगे। इनमें से पहले के दो विचारप्रवाहो से विशेष मिलता-जुलता और फिर भी उनसे भिन्न ऐसा एक चौथा विचारप्रवाह भी साथ-साथ मे प्रवृत्त था। यह विचारप्रवाह था तो परमाणुवादी, परन्तु वह दूसरे विचार-प्रवाह की तरह वाह्य विश्व के कारणभूत परमाणुगो को मूल मे ही भिन्न-भिन्न प्रकार के मानने की तरफदारी नहीं करता था, परन्तु मूल में सभी परमाणु एक समान प्रकृति के है, यह मानता था और परमाणुवाद स्वीकार करने पर भी उसमें मे केवल विश्व उत्पन्न होता है यह नही मानता था। वह प्रकृतिवादी की तरह परिणाम और आविर्भाव मानता था। इसलिए वह यह कहता था कि परमाणु पुज मे मे वाह्य विश्व अपने आप परिणमता है। इस प्रकार इस चौथे विचार-प्रवाह का झुकाव परमाणुवाद की भूमिका के ऊपर प्रकृतिवाद के परिणाम की मान्यता की ओर था। उमकी एक विशेषता यह भी थी कि वह समग्र वाह्य विश्व को आविर्भाव वाला न मान करके उसमें के कितने हो कार्यों को उत्पत्तिशील भी मानता था। वह यह कहता था कि बाह्य विश्व में कितनी ही वस्तुएं ऐसी है, जो किसी पुरुष के प्रयत्ल के सिवाय अपने परमाणुरूप कारणो मे से उत्पन्न होती है। वैसी वस्तुएँ तिल में से तैल की तरह अपने कारण में में केवल आविर्भूत होती है, परन्तु विलकुल नवीन उत्पन्न नही होती है । जव कि वाह्य विश्व में वहुतसी वस्तएं एमी भी है कि जो अपने जड कारणो मे से उत्पन्न होती है, परन्त अपनी उत्पत्ति में किसी परुष के प्रयल की अपेक्षा रखती है। जो वस्तुएं पुरुप के प्रयत्ल की सहायता से जन्म लेती है, वे वस्तुएं अपने जड कारणो में तिल मे तैल की तरह छिपी हुई नहीं रहती है, परन्तु वे तो विलकुल नवीन ही उत्पन्न होती है। जिस प्रकार कोई सुतार विभिन्न काष्ठखडो को एकत्रित करके उनसे एक घोडे का निर्माण करता है, तव वह घोडा काष्ठखटो में छिपा नही रहना है, जैसे कि तिल मे तैल होता है। परन्तु घोडा बनाने वाले सुतार की बुद्धि में वह कल्पनाम्प से होता है और वह काप्ठ-वडी के द्वारा मूर्तम्प धारण करता है। यदि मुतार चाहता तो इन्ही काष्ठ-खडो से घोडा न बना कर गाय, गाडी अथवा दूसरी वैमी वस्तु बना सकता था। निल मे मे तेल निकालने की बात इससे विलकुल भिन्न है। कोई तेली चाहे जितना विचार करे या इच्छा करे फिर भी वह तिल मे से घी या मक्खन तो नहीं निकाल सकता है। इस प्रकार चतुर्थ विचार प्रवाह परमाणुवादी होने पर भी एक ओर परिणाम और आविर्भाव मानने के विषय में प्रकृतिवादी चिार-प्रवाह के साथ मिलता था और दूसरी ओर कार्य तथा उत्पत्ति के विषय मे परमाणुवादी दूसरे विचार-प्रवाह से मिलता था। यह तो वाह्य विश्व के सम्बन्ध में चतुर्थ विचार-प्रवाह की मान्यता हुई, परन्तु आत्मतत्त्व के सम्बन्ध में तो इसकी मान्यता ऊपर के तीनो विचारप्रवाही की अपेक्षा भिन्न थी। वह मानता था कि देहभेद से प्रात्मा भिन्न है। परन्तु ये सव आत्माएं देशदृष्टि में व्यापक नही है तथा केवल कूटस्थ भी नहीं है । वह यह मानता था कि जिस प्रकार वाह्य विश्व परिवर्तनशील है उसी प्रकार आत्माएं भी परिणामी होने से सतत परिवर्तनशील है और आत्मतत्त्व मकोच-विस्ताग्शील है, इसलिए वह देहप्रमाण है। यह चतुर्थ विचारप्रवाह ही जैन तत्त्वज्ञान का प्राचीन मूल है। भगवान् महावीर मे बहुत समय पहले से यह विचारप्रवाह चला पाता था और वह अपने ढग से विकसित होता तथा स्थिर होता जाता था। आज इस चतुर्थ ३८ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह यह २६८ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ विचारप्रवाह का जो स्पष्ट विकसित और स्थिर म्प हमको प्राचीन या अर्वाचीन उपलब्ध जैनशास्त्रो में दृष्टिगोचर होता है, वह अधिकाश मे भगवान् महावीर के चिन्तन का आभारी है। जैन मत की श्वेताम्बर और दिगम्बर दो मुख्य शाखाएं है। दोनो का साहित्य भिन्न-भिन्न है, परन्तु जैन तत्त्वज्ञान का जो स्वरूप स्थिर हुआ है, वह दोनो गाखाओ मे थोडे-से फेरफार के सिवाय एक समान है। यहाँ एक बात खास तौर से अकित करने योग्य है और कि वैदिक तथा बौद्ध मत के छोटे-बडे अनेक फिरके है। उनमें से कितने ही तो एक दूसरे से बिलकुल विरोधी मन्तव्य भी रखने वाले है। इन सभी 'फिरको' के बीच मे विशेषता यह है कि जब वैदिक और बौद्ध मत के सभी 'फिरके' आचार विषयक मतभेद के अतिरिक्त तत्त्वचिन्तन के विषय मे भी कुछ मतभेद रखते है तब जैनमत के तमाम फिरके केवल आचारभेद के ऊपर अवलम्बित है। उनमे तत्त्वचिन्तन की दृष्टि से कोई मौलिक भेद हो तो वह अभी तक अकित नही है। मानवीय तत्त्वचिन्तन के ममग्न इतिहास में यह एक ही दृष्टान्त ऐसा है कि इतने अधिक लम्बे समय का इतिहास रखने पर भी जिसके तत्त्वचिन्तन का प्रवाह मौलिकरूप से अखडित ही रहा हो। पूर्वीय और पश्चिमीय तत्त्वज्ञान की प्रकृति की तुलना __तत्त्वज्ञान पूर्वीय हो या पश्चिमीय, सभी तत्त्वज्ञान के इतिहास में हम देखते है, कि तत्त्वज्ञान केवल जगत्, जीव और ईश्वर के स्वरूप-चिन्तन मे ही पूर्ण नहीं होता, परन्तु वह अपने प्रदेश मे चारित्र का प्रश्न भी हाथ मे लेता है। अल्प या अधिक अश मे, एक या दूसरी रीति से, प्रत्येक तत्त्वज्ञान अपने में जीवनशोधन की मीमासा का समावेश करता है । अलवत्ता पूर्वीय और पश्चिमीय तत्त्वज्ञान के विकास मे हम थोडी भिन्नता भी देखते है। ग्रीक तत्त्वचिन्तन की शुरुवात केवल विश्व के स्वरूप सम्बन्धी प्रश्नो मे से होती है और आगे जाने पर क्रिश्चियानिटी के साथ मे इसका सम्बन्ध होने पर इसमे जीवनशोधन का भी प्रश्न समाविष्ट होता है। और पीछे इम पश्चिमीय तत्त्वचिन्तन की एक शाखा में जीवनशोधन की मीमामा महत्त्वपूर्ण भाग लेती है । अर्वाचीन समय तक भी रोमन कैथोलिक सम्प्रदाय में हम तत्त्वचिन्तन को जीवनशोधन के विचार के साथ सकलित देखते है । परन्तु आर्य तत्त्वज्ञान के इतिहास में हम एक खास विशेषता देखते है । वह यह कि मानो आर्य तत्त्वज्ञान का प्रारम्भ ही जीवनशोधन के पश्न में से हुआ हो, ऐसा प्रतीत होता है। क्योकि आर्य तत्त्वज्ञान की वैदिक, वौद्ध और जैन इन तीन मुख्य शाखाओ मे एक समान रीति से विश्वचिन्तन के साथ ही जीवनशोधन का चिन्तन सकलित है। आर्यावर्त का कोई भी दर्शन ऐसा नहीं है, जो केवल विश्वचिन्तन करके सन्तोष धारण करता हो। परन्तु उससे विपरीत हम यह देखते है कि प्रत्येक मुख्य या उसका शाखारूप दर्शन जगत्, जीव और ईश्वर सम्बन्धी अपने विशिष्ट विचार दिखला कर अन्त में जीवनशोधन के प्रश्न को ही लेता है और जीवनशोधन की प्रक्रिया दिखला कर विश्रान्ति लेता है। इसलिए हम प्रत्येक आर्यदर्शन के मूल ग्रन्थ में प्रारम्भ मे मोक्ष का उद्देश और अन्त मे उसका ही उपसहार देखते है। इसी कारण मे साख्यदर्शन जिस प्रकार अपना विशिष्ट योग रखता है और वह योगदर्शन से अभिन्न है, उसी प्रकार न्याय, वैशेषिक और वेदान्त दर्शन में भी योग के मूल सिद्धान्त है । बौद्धदर्शन में भी उसकी विशिष्ट योगप्रक्रिया ने खास स्थान ले रक्खा है। इसी प्रकार जैनदर्शन भी योगप्रक्रिया के विषय मे पूरे विचार रखता है। जीवनशोधन के मौलिक प्रश्नो की एकता इस प्रकार हमने देखा कि जैनदर्शन के मुख्य दो भाग है, एक तत्त्वचिन्तन का और दूसरा जीवनशोधन का। यहां एक वात खास तौर मे अकित करने योग्य है और वह यह कि वैदिकदर्शन की कोई भी परम्परा लो या बौद्धदर्शन की कोई परम्परा लो और उसकी जैनदर्शन की परम्परा के साथ तुलना करो नो एक वस्तु स्पष्ट प्रतीत होगी कि इन सब परम्परामो मे जो भेद है वह दो वातो मे है । एक तो जगत, जीव और ईश्वर के स्वरूपचिन्तन के सम्बन्ध में और दूमरा प्राचार के स्थूल तथा वाह्य विधि-विधान और स्थूल रहन-सहन के सम्बन्ध में। परन्तु आर्यदर्शन की प्रत्येक Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तत्त्वज्ञान २६३ परम्परा मे जीवनशोधन से सम्बन्ध रम्बने वाले मौलिक प्रश्न और उनके उत्तरी मे बिलकुल भी भेद नहीं है। कोई ईश्वर को माने या नहीं, कोई प्रकृतिगदी हो या कोई परमाणुवादी, कोई यात्मभेद स्वीकार करे या आत्मा का एकत्व स्वीकार करे, कोई आत्मा को व्यापक और नित्य माने या कोई उससे विपरीत माने, इसी प्रकार कोई यन-याग द्वारा भक्ति के ऊपर भार देता हो या कोई ब्रह्ममाक्षात्कार के ज्ञानमार्ग के ऊपर भार देना हो, कोई मध्यममार्ग स्वीकार करके अनगारधर्म और भिक्षाजीवन के ऊपर भार दे या कोई अधिक कठोर नियमो का अवलम्बन करके त्याग के ऊपर भार दे, परन्तु प्रत्येक परम्परा मे इतने प्रश्न एक समान हैं-दुख है या नहीं? यदि है तो उसका कारण क्या है ? उम कारण का नाश शक्य है ? यदि शक्य है तो वह किस प्रकार ? अन्तिम साध्य क्या होना चाहिए ? इन प्रश्नो के उत्तर भी प्रत्येक परम्परा मे एक ही है। चाहे गव्दभेद हो, सक्षेप या विस्तार हो, पर प्रत्येक का उत्तर यह है कि अविद्या और तृष्णा ये दुख के कारण है । इनका नाग सम्भव है। विद्या से और तृष्णाछेद के द्वारा दु ख के कारणो का नाश होते ही दुख अपने आप नष्ट हो जाता है। और यही जीवन का मुख्य साध्य है। आर्यदर्शनो की प्रत्येक परम्परा जीवनशोधन के मौलिक विचार के विषय में और उसके नियमो के विषय में विलकुल एकमत है । इसलिए यहाँ जनदर्शन के विषय में कुछ भी कहते समय मुख्यरूप से उसकी जीवनगोधन की मीमासा का ही मक्षेप में कथन करना अधिक प्रासगिक है। जीवनशोधन की जैन-प्रक्रिया जैनदर्शन कहता है कि आत्मा स्वाभाविक रीति मे शुद्ध और सच्चिदानन्दस्प है। इसमे जो अशुद्धि, विकार या दु खपता दृष्टिगोचर होती है वह अज्ञान और मोह के अनादि प्रवाह के कारण से है। ज्ञान को कम करने और विलकुल नष्ट करने के लिए तथा मोह का विलय करने के लिए जैनदर्शन एक ओर विवेकशक्ति को विकसित करने के लिए कहता है और दूसरी ओर वह रागद्वेप के मस्कारो को नष्ट करने के लिए कहता है । जैनदर्शन प्रात्मा को तीन भूमिकाओं में विभाजित करता है। जव अज्ञान और मोह के प्रवल प्रावल्य के कारण आत्मा वास्तविक तत्त्व का विचार न कर सके तथा सत्य और स्थायी सुख की दिशा में एक भी कदम उठाने की इच्छा न कर सके तव वह वहिरात्मा कहलाता है। यह जीव की प्रथम भूमिका हुई। यह भूमिका जव तक चलती रहती है तब तक पुनर्जन्म के चक्र के वन्द होने की कोई सम्भावना नहीं तथा लौकिक दृष्टि मे चाहे जितना विकास दिखाई देता हो फिर भी वास्तविक रीति से वह आत्मा अविकसित ही होता है। जव विवेकशक्ति का प्रादुर्भाव होता है और जब रागद्वेष के सस्कारो का बल कम होने लगता है नव दूसरी भूमिका प्रारम्भ होती है। इसको जैनदर्शन अन्तरात्मा कहता है। यद्यपि इस भूमिका के समय देधारण के लिए उपयोगी सभी सामारिक प्रवृत्ति अल्प या अधिक अश में चलती रहती है, फिर भी विवेकशक्ति के विकास के प्रमाण में और रागद्वेष की मन्दता के प्रमाण मे यह प्रवृत्ति अनासक्ति वाली होती है। इस दूसरी भूमिका मे प्रवृत्ति होने पर भी उसमें अन्तर मे निवृत्ति का नत्त्व होता है। दूसरी भूमिका के कितने ही मोपानो का अतिक्रमण करने के वाद आत्मा परमात्मा की दशा को प्राप्त करता है। यह जीवनशोधन की अन्तिम और पूर्ण भूमिका है। जैनदर्शन कहता है कि इस भूमिका पर पहुंचने के वाद पुनर्जन्म का चक्र सदा के लिए विलकुल वन्द हो जाता है। हम ऊपर के मक्षिप्त वर्णन से यह देख मकते है कि अविवेक (मिथ्यावृष्टि) और मोह (तृष्णा) ये दो ही ममार है अथवा ममार के कारण है। इसके विपरीत विवेक (सम्यग्दर्शन) और वीतरागत्व यही मोक्ष है अथवा मोक्ष का मार्ग है। यही जीवनशोधन की सक्षिप्त जैनमीमामा अनेक जैनान्यो मे अनेक रीति से, मक्षेप या विस्तार से, विभिन्न परिभाषामो में वर्णित है। और यही जीवनमीमासा वैदिक तथा वौद्धदर्शन में जगह-जगह अक्षरग दृष्टिगोचर होती है। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ कुछ विशेष तुलना ऊपर तत्त्वज्ञान की मौलिक जैन विचारसरणी और आध्यात्मिक विकासक्रम की जैन विचारसरणी का वहुत ही सक्षेप में निर्देश किया है। इस सक्षिप्त लेख में उसके प्रति विस्तार को स्थान नही, फिर भी इसी विचार को अधिक स्पष्ट करने के लिए यहाँ दूसरे भारतीय दर्शनों के विचारो के साथ तुलना करना योग्य है । ३०० (क) जैनदर्शन जगत् को मायावादी की तरह केवल भास या केवल काल्पनिक नही मानता है परन्तु वह जगन् को सत्य मानता हूँ। फिर भी जैनदर्शन-समत सत् चार्वाक की तरह केवल जड अर्थात् सहज चैतन्यरहित नही है । इसी प्रकार जैनदर्शन समत सत् तत्त्व शाकरवेदान्तानुसार केवल चैतन्य मात्र भी नही है, परन्तु जिस प्रकार साख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्वमीमासा और बौद्धदर्शन सत् तत्त्व को बिलकुल स्वतन्त्र तथा परस्पर भिन्न ऐसे जड श्रौर चेतन दो भागो में विभाजित कर डालते है, उसी प्रकार जैनदर्शन भी सत् तत्त्व की अनादिसिद्ध जड तथा चेतन ऐसी दो प्रकृति स्वीकार करता है जो कि देश और काल के प्रवाह में साथ रहने पर भी मूल में विलकुल स्वतन्त्र है । जिस प्रकार न्याय, वैशेपिक और योगदर्शन आदि यह स्वीकार करते है कि इस जगत का विशिष्ट कार्य स्वरूप चाहे जड र चेतन इन दो पदार्थों से बनता हो फिर भी इस कार्य के पीछे किसी अनादिसिद्ध, समर्थ, चेतनशक्ति का हाथ है, इम ईश्वरीय हाथ के सिवाय ऐसे अद्भुत कार्य का सम्भव नही हो सकता है । जैनदर्शन इस प्रकार से नही मानता है । वह प्राचीन साख्य, पूर्व मीमासा और बौद्ध आदि की तरह मानता है कि जड और चेतन ये दो सत् प्रवाह अपने आप किमी तृतीय विशिष्ट शक्ति के हस्तक्षेप के सिवाय ही चलते रहते हैं । इसलिए वह इस जगत् की उत्पत्ति या व्यवस्था के लिए ईश्वर जैसी स्वतन्त्र श्रनादिसिद्ध व्यक्ति स्वीकार नही करता है । यद्यपि जैनदर्शन न्याय, वैशेषिक Satara की तरह सत् तत्त्व को अनादिसिद्ध अनन्त व्यक्तिरूप स्वीकार करता है और साख्य की तरह एक व्यक्तिरूप नही स्वीकार करना, फिर भी वह साख्य के प्रकृतिगामी सहज परिणामवाद को अनन्त परमाणु नामक जड सत् तत्त्वो में स्थान देता है । इस प्रकार जैन मान्यतानुसार जगत् का परिवर्तन प्रवाह अपने श्राप ही चलता रहता है। फिर भी जैनदर्शन इतना तो स्पष्ट कहता है कि विश्व की जो-जो घटनाएँ किसी की बुद्धि और प्रयत्न की प्रभारी होती है उन घटनाओ के पीछे ईश्वर का नही, परन्तु उन घटनाओ के परिणाम में भागीदार होने वाले ससारी जीव का हाथ रहता है, अर्थात् वैसी घटनाएँ जान में या अनजान में किसी न किसी ससारी जीव की वृद्धि और प्रयत्न की आभारी होती है । इस सम्वन्ध मे प्राचीन साख्य और बौद्धदर्शन, जैनदर्शन जैसे ही विचार रखते है । वेदान्तदर्शन की तरह जैनदर्शन सचेतन तत्त्व को एक या अखड नही मानता है, परन्तु साख्य, योग, न्याय, वैशेषिक तथा बौद्ध श्रादि की तरह वह सचेतन तत्त्व अनेक व्यक्तिरूप मानता है। फिर भी इन दर्शनो के साथ जैनदर्शन का थोडा मतभेद है । और वह यह है कि जैनदर्शन की मान्यतानुसार सचेतन तत्त्व वौद्ध मान्यता की तरह केवल परिवर्तनप्रवाह नही है तथा साख्य, न्याय आदि की तरह केवल कूटस्थ भी नही है । किन्तु जैनदर्शन कहता है कि मूल में सचेतनतत्त्व ध्रुव अर्थात् श्रनादि अनन्त होने पर भी वह देश काल का असर धारण किये बिना नही रह सकता । इसलिए जैन मतानुसार जीव भी जड की तरह परिणामी नित्य है । जैनदर्शन ईश्वर जैमी किसी व्यक्ति को बिलकुल स्वतन्त्ररूप से नही मानता है फिर भी वह ईश्वर के समग्र गुणो को जीवमात्र में स्वीकार करता है । इसलिए जैनदर्शनानुसार प्रत्येक जीव मे ईश्वरत्व की शक्ति है। चाहे वह शक्ति आवरण से दबी हुई हो, परन्तु यदि जीव योग्य दिशा में प्रयत्न करे तो वह अपने में रही हुई ईश्वरीय शक्ति का पूर्णरूप से विकास करके स्वय ही ईश्वर बनता है । इस प्रकार जैन मान्यतानुसार ईश्वरतत्त्व को भिन्न स्थान नही होने पर भी वह ईश्वरत्व की मान्यता रखता है श्रोर उसकी उपासना भी स्वीकार करता है। जो-जो जीवात्माएँ कर्मवासनाओ से पूर्णरूप से मुक्त हुए हैं वे सभी ममानभाव स ईश्वर है । उनका आदर्श सामने रख करके अपने में रही हुई पूर्ण शक्ति को प्रकट करना यह जैन Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तत्त्वज्ञान ३०१ उपासना का ध्येय है। जिस प्रकार याकर वंदान्त मानता है कि जीव म्वय ही ब्रह्म है, उसी प्रकार जनदर्शन कहता है कि जीव स्वर ही ईश्वर या परमात्मा है। वेदान्तदर्शनानुसार जीव का ब्रह्मभाव अविद्या मे आवृत है और अविद्या के दूर होते ही वह अनुभव में आता है, उसी प्रकार जनदर्शनानुनार जीव का परमात्मभाव कर्म में आवृत है और उम आवरण के दूर होते ही वह पूर्णत्प ने अनुभव में आता है। इस सम्बन्ध में वस्तुन जैन और वेदान्त के बीच में व्यक्तिवहुल के सिवाय कुछ भी भेद नहीं है। (ख) जनशास्त्र में जिन मात तत्त्वो का उल्लेख है उनमें से मूल जीव और अजीव इन दो तत्त्वो की ऊपर तुलना की है। अब वस्नुत पांच में मे चार ही तत्त्व अवगिप्ट रहते है। ये चार तत्व जीवनगोवन मे मम्बन्व रखने वाले अर्थात् आध्यात्मिक विकासक्रम ने सम्बन्ध न्वने वाले हैं, जिनको चारित्रीय तत्त्व भी कह सकते है। वन्य, पाचव, मवर और मोक्ष ये चार तत्त्व हैं। ये तत्त्व बौद्धशास्त्रो में क्रमग दुख, दुखहेतु, निर्वाणमार्ग और निर्वाण इन चार आर्यमन्यो के नाम से वर्णित है। मान्य और योगशास्त्र में इनको ही हेय, हेयहेतु, हानोपाय और हान कह करके इनका चतुह म्प से वर्णन है। न्याय और वैगेषिकदर्शन में भी इसी वस्तु का मसार, मिथ्यानान, नत्त्वनान और अपवर्ग के नाम ने वर्णन है। वेदान्नदर्शन में ममार, अविद्या, ब्रह्मभावना और ब्रह्मसाक्षात्कार के नाम मे यही वस्तु दिवलाई गई है। जनदर्शन में वहिरात्मा, अन्नगत्मा और परमात्मा की नीन मक्षिप्त भूमिकाओ का कुछ विम्नार मे चौदह भूमिकाओं के रूप में भी वर्णन किया गया है, जो जैन परम्परा में गुणम्यान के नाम ने प्रसिद्ध है। योगवागिप्ठ जैसे वेदान्न के ग्रन्यो में भी मात अन्नान की और मान नान की चौदह आत्मिक भूमिकाओ का वर्णन है। साख्य योगदर्शन की क्षिप्त, मूट, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्द ये पांच चिनभूमिकाएं भी इन्ही चौदह भूमिकाओं का मक्षिप्त वर्गीकरण मात्र है। वौद्धदर्शन में भी इसी आध्यात्मिक विकासक्रम को पृथग्जन, मोनापन्न आदि रूप मे पांच भूमिकामो में विभाजित करके वर्णन किया गया है । इस प्रकार जब हम सभी भारतीय दर्शनो में ममार में मोक्ष तक की स्थिति, उमके क्रम और उसके कारणों के विषय में एक मत और एक विचार पढत है तव प्रश्न होता है कि जब सनी दर्शनी के विचारों में मौलिक एकता है तब पन्य-पन्य के बीच में कभी भी मेल नहीं हो ऐसा और इतना अधिक भेद क्यो दिखाई देता है ? इमका उत्तर स्पष्ट है। पन्यो की भिन्नता में मुख्य दो वस्तुएं कारण है । तत्त्वज्ञान की भिन्नता और वाह्य आचार-विचार की भिन्नता। क्तिने ही पन्थ तो ऐसे भी है कि जिनके वाह्य आचार-विचार में भिन्नता होने के अतिरिक्त तत्त्वज्ञान की विचाग्नपणी में भी अमुक भेट होता है। जैसे कि वेदान्त, वौद्ध और जैन श्रादि पन्य । कितने ही पन्य या उनकी गान्वाएँ ऐसी भी होती है कि जिनकी तत्त्वज्ञान विषयक विचारसरणी में खाम भेद नही होता है। उनका भेट मुन्न्य रूप ने बाह्य प्राचार का अवलम्बन लेकर उपस्थित और पोपित होता है। उदाहरण के तौर पर जैनदर्शन की वेताम्बर, दिगम्बर और स्थानकवामी इन तीन शाखायो को गिना मकते है। आत्मा को कोई एक माने या कोई अनेक माने, क्रोई ईम्वर को माने या कोई नहीं माने-इत्यादि तात्त्विक विचारणा का भेद बुद्धि के नग्नमभाव के ऊपर निर्भर है। इसी प्रकार वाह्य आचार और नियमो के भेद वुद्धि, रुचि नया परिस्थिति के भेट मे मे उत्पन्न होते है। कोई कागी जाकर गगा म्नान और विश्वनाथ के दर्शन में पवित्रता माने.कोई बद्धगया और मारनाथ जाकर बदन में कृतकृत्यता माने, कोई शत्रजय की यात्रा में सफलता माने, कोई मक्का और कोई जेम्मलेम जाकर धन्यता मान । इमी प्रकार काई एदादगी के तप-उपवाम को अति पवित्र गिनं, दूसरा कोई अष्टमी और चतुर्दशी के व्रन को महत्त्व प्रदान करे, कोई तप के ऊपर बहुत भार नहीं देकर के दान के पर भार दे, दूसरा कोई तप के ऊपर भी अधिक भार दे, इस प्रकार परम्परागत भिन्न-भिन्न मम्कारी का पोपण और विभेद का मानमिक वातावरण अनिवार्य होने मे वाद्याचार और प्रवत्ति का भेद कभी मिटने वाला नहीं है। भेद की उत्पादक और पापक इतनी अधिक वस्तुएं होने पर भी सत्य ऐमा है कि वह वस्तुत खडित नहीं होता है । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ इमलिए हम ऊपर की प्राध्यात्मिक विकासक्रम मे सम्बन्ध रखने वाली तुलना में देखते है कि चाहे जिस रीति से, चाहे जिस भाषा में और चाहे जिस रूप मे जीवन का सत्य एक समान ही सभी अनुभवी तत्त्वज्ञो के ग्रनुभव मे प्रकट हुग्रा है । प्रस्तुत वक्तव्य को पूर्ण करने के पहले जैनदर्शन की सर्वमान्य दो विशेषताओ का उल्लेख करना उचित है । अनेकान्त और ग्रहिमा इन दो मुद्दो की चर्चा पर ही सम्पूर्ण जैनसाहित्य का निर्माण है। जैन ग्राचार और सम्प्रदाय की विशेषता इन दो विषयो से ही बनाई जा सकती है । सत्य वस्तुत एक ही होता है, परन्तु मनुष्य की दृष्टि उसको एक रूप में ग्रहण नहीं कर सकती है । इसलिए सत्यदर्शन के लिए मनुष्य को अपनी दृष्टिमर्यादा विकसित करनी चाहिए और उसमे सत्यग्रहण की सभी सभवनीय दृष्टियो को स्थान होना चाहिए। इस उदात्त और विशाल भावना मे से श्रनेकान्त विचारसरणी का जन्म हुआ है । इस विचारसरणी की योजना किसी वादविवाद में जय प्राप्त करने के लिए या विवाद को माठमारीचकव्यूह या दावपेच खेलने के लिए और शब्दछल को शतरज खेलने के लिए नही हुई है, परन्नु इसकी योजना तो जीवनगोधन के एक भाग स्वरूप विवेकशक्ति को विकसित करने के लिए और मत्यदर्शन की दिशा में आगे बढने के लिए हुई हैं । इसलिए ग्रनेकान्त विचारसरणी का सच्चा श्रर्थ यह है कि सत्यदर्शन को लक्ष्य में रस करके उसके सभी शो और भागो को एक विशाल मानस वर्तुल मे योग्य रीति से स्थान देना । जैसे जैसे मनुष्य की विवेकशक्ति बढती है वैसे वैसे उनकी दृष्टिमर्यादा बढने के कारण उसको अपने भीतर रही हुई मकुचितताओ और वामनाग्रो के दवावो के सामने होना पडता है । जव तक मनुष्य सकुचितता और वासनाओ के साथ विग्रह नही करता तब तक वह अपने जीवन में अनेकान्त को वास्तविक स्थान नही दे सकता है । इसलिए अनेकान्त विचार की रक्षा और वृद्धि के प्रश्न मे से ही श्रहिंसा का प्रश्न प्राता है । जैन श्रहिंसा केवल चुपचाप बैठे रहने मे या उद्योग-धन्धा छोड देने में अथवा काष्ठ जैसी निश्चेप्ट स्थिति करने मे ही पूर्ण नही होती, परन्तु वह श्रहिंसा वास्तविक ग्रात्मिक वल की अपेक्षा रखती है। कोई भी विकार उद्भूत हुआ, किसी वासना ने सिर ऊंचा किया अथवा कोई मकुचिता मन में प्रज्वलित हो उठी वहाँ जैन ग्रहिमा यह कहती है कि तू इन विकारो, इन वासनाओ और इन कुचितता से हनन को प्राप्त मत हो, पराभव प्राप्त न कर और इनकी सत्ता श्रगीकार न कर, तू इनका वलपूर्वक सामना कर और इन विरोधी बलो को जीत । श्राध्यात्मिक जय प्राप्त करने के लिए यह प्रयत्न ही मुख्य जैन हिमा है । इसको फिर सयम कहो, तप कहो, ध्यान कहो या कोई भी वैमा आध्यात्मिक नाम प्रदान करो, परन्तु वह वस्तुत अहिंसा ही है। श्रीर जैनदर्शन यह कहता है कि अहिसा केवल प्रचार नही है, परन्तु वह शुद्ध विचार के परिपाक रूप से अवतरित जीवनोत्कर्षक ग्राचार है । ऊपर वर्णन किये गये श्रहंसा के सूक्ष्म और वास्तविक रूप मे मे कोई भी वाह्याचार उत्पन्न हुआ हो अथवा उम सूक्ष्म रूप की पुष्टि के लिए किसी ग्राचार का निर्माण हुआ हो तो उसका जैनतत्त्वज्ञान में अहिंसा के रूप में स्थान है । इसके विपरीत, ऊपर ऊपर से दिखाई देने वाले अहिंसामय आचार या व्यवहार के मूल मे यदि ऊपर के अहिंसातत्त्व का सम्बन्ध नही हो तो वह आचार और वह व्यवहार जैन दृष्टि मे श्रहिंसा है या अहिंसा का पोषक है यह नही कह सकते है । यहाँ जैनतत्त्वज्ञान मे सम्बन्ध रखने वाले विचार में प्रमेय चर्चा का जान बूझकर विस्तार नही किया है । इस विषय की जैन विचारसरणी का केवल मकेत किया है । आचार के विषय मे भी वाह्य नियमो और विधानो सम्बन्धी चर्चा जानबूझ कर छोड़ दी है, परन्तु प्राचार के मूलतत्त्वो की जीवनगोधन के म्प में सहज चर्चा की है, जिनको कि जैन परिभाषा मे श्राम्रव, सवर श्रादि तत्त्व कहते है । यागा है कि यह सक्षिप्त वर्णन जैनदर्शन की विशेष जिज्ञामा उत्पन्न करने में सहायक होगा । बबई ] [ गुजराती से अनूदित Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन श्री दलसुख मालवणिया प्रस्तावना भगवान् महावीर से लेकर अब तक के जैनदार्शनिक नाहित्य का सिंहावलोकन करना यहाँ इष्ट है। नमा साहित्य को विकाग्म की दृष्टि ने न चार युगो में विभक्त कर सकते हैं-(१) आगमयुग, (२) अनेकान्तस्यापनयुग, (३) प्रमाणगान्त्रव्यवन्या युग और (८) नवीनन्याययुग । युगो के लक्षण युग के नाम से ही न्यप्ट है। फिर भी थोडा काल की दृष्टि से स्पष्टीकरण आवश्यक है। प्रथम युग की मर्यादा भगगन् महावीर के निर्वाण (वि० पूर्व ४३०) ने लेकर करीव एक हजार वर्ष की है अर्थात् वि० पांचवीं शताब्दी तक है। दूसरा पांचवी ने पानी शताब्दी तक । तीनरा आठवी मे मत्रह्वी तक और चौथा अठाह्री ने प्रावुनिक स्मय-पर्यन्त । यहाँ इनना कह देना आवश्यक है कि पूर्व युग की विशेषताएँ उत्तर युग मे कायम रही हैं और उन युग का जो नया कार्य है उनी को ध्यान में न्वकर उन युग का नामकरण हुआ है। पूर्व युग में उत्तर युग का वीज प्रवच्य है; परन्तु पल्लवन नहीं। पल्लवन की दृष्टि मे ही युग का नामकरण हुआ है। ग्रन्यकारी का क्रम प्राय गताब्दी को ध्यान में रखकर क्यिा गया है। जहाँ तक हो सका है, यह प्रयत्न क्यिा गया है कि उनका पौपिर्य मुख्य रूप मे व्यान में रखकरही उनकी कृतियो का वर्णन किया जाय । दशको का विचार रखकर वर्णन मम्भव नहीं। आगम-युग के नाहित्य पर जो टीका-टिप्पणियाँ हुई है, उनका वर्णन मुभीते की दृष्टि ने उनी युग के वर्णन के माय कर दिया है, यद्यपि ये टीकाएँ उस युग की नहीं हैं। समा माहित्य के अवलोकन ने यह पता लगता है कि जैनदार्गनिक माहित्यगगा इन पचीस शताब्दियो में नवन प्रवाहित रही है। प्रवाह कभी गम्भीर हुअा, कभी विस्तीर्ण हुआ, कभी मन्द हुआ, कभी तेज हुआ, किन्नु रुका कमी नही। (१) आगमयुग भगवान् महावीर ने जो उपदेन दिया, वह आज श्रुतल्प में जैन-आगमो में सुरक्षित है। प्राचार्य भद्रवाहु ने श्रुत की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए एक सुन्दर पक का उपयोग किया है -"तप-नियम-जानन्प वृक्ष के ऊपर आन्दु होकर अनन्नाती केवली भगवान् भव्यजनो के हित के लिए जानकमुम की वृष्टि करते है। गणवर अपने वृद्धि-पट में टन नकल कुनुमो को झेलने हैं और प्रवचनमाला गूयते है।" यही प्रवचन-नाला आचार्य परम्परा से, कालक्रम मे, हमे जैनी भी ट्टी फूटी अवस्था में प्राप्त हुई है, आज जैनागम' के नाम से प्रसिद्ध है। जैन आगमिक माहित्य, जो अगोपागादि भेदो मे विभक्त है, उसका अन्तिम नम्कग्ण वलभी में वीरनिर्वाण ने ८० वर्ष के बाद और मतान्तर ने 86 वर्ष के बाद हुआ । यही मकरण आज उपलब्ध है। इसका मतलव यह नहीं है कि आगमो में जो कुछ बातें है वे प्राचीन समय की नहीं है। यत्र-नत्र थोडा-बहुत परिवर्तन और परिवर्धन 'आवश्यक नियुक्ति गाथा "तवनियमनाणरक्त पात्ढो केवली अमियनाणी । तो मुयइ नाणवर्दिछ भवियजणविवोहणट्ठाए ॥" Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ है इस बात को मानते हुए भी शैली और विषय वर्णन के आधार पर कहा जा सकता है कि आगमो का अधिकाश ईस्वी सन् के पूर्व का होने मे सन्देह को कोई अवकाश नही । जैनदार्शनिक साहित्य के विकास का मूलाधार ये ही प्राकृत भाषा निवद्ध आगम रहे है । अतएव सक्षेप मे इनका वर्गीकरण नीचे दिया जाता है १ अग- १ - आचार, २-~~-सूत्रकृत, ३ – – स्थान, ४ – समवाय, ५ – भगवती, ६– जातृधर्मकथा, ७ –– उपासकदणा, ८--अन्तकृदृशा, ε--- अनुत्तरोपपातिकदशा, १० - प्रश्नव्याकरण, ११ - विपाक, १२ - दृष्टिवाद ( लुप्त है ) । २ उभाग- १ – औपपातिक, २ -- राजप्रश्नीय, ३ - जीवाभिगम, ४ – प्रज्ञापना, ५- सूर्यप्रज्ञप्ति, ६ - जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ७- चन्द्रप्रज्ञप्ति, ८—कल्पिका, ६– कल्पावतसिका, १० - पुष्पिका, ११ - पुप्पचूलिका, १२ - वृष्णि दशा । ३ मूल- १ –—–— ग्रावश्यक, २ दशवैकालिक, ३ – उत्तराध्ययन, ४ – पिंडनिर्युक्ति ( ४ – किमी के मत से प्रोघ निर्युक्ति) । ४ नन्दीसूत्र- ५ अनुयोगद्वारसूत्र- ६ छेदसूत्र - १ - निशीथ, २ - महानिशीथ, ३ – बृहत्कल्प, ४ - व्यवहार, ५ -- दशाश्रुतस्कन्ध, ६ – पचकल्प । ७ प्रकीर्णक १ – चतु शरण, २ – आतुरप्रत्याख्यान, ३ - - भक्तपरिज्ञा, ४ – सस्तारक, ५ – तन्दुल वैचारिक, ६– चन्द्रवेध्यक, ७ —— देवेन्द्रस्तव, गणिविद्या, ६ - महाप्रत्यास्यान, १० - वीरस्तव । इन सूत्रो में से कुछ तो ऐसे हैं, जिनके कर्त्ता का नाम भी उपलब्ध होता है जैसे- दगवैकालिक गय्यभवकृत है, प्रज्ञापना श्यामाचार्य कृत है । दशाश्रुत, बृहत्कत्प और व्यवहार के कर्त्ता भद्रवाहु है । इन सभी सूत्रो का सम्वन्ध दर्शन से नही है । कुछ तो ऐसे हैं, जो जैन आचार के साथ सम्बन्ध रखते है जैसे--- आचाराग, दशवैकालिक श्रादि । कुछ उपदेशात्मक है जैसे उत्तरात्ययन, प्रकीर्णक, आदि । कुछ तत्कालीन भूगोल और खगोल आदि सम्बन्धी मान्यताओ का वर्णन करते हैं, जैसे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि । छेदसूत्रो का प्रधान विषय जैनसाधुत्रो के प्रचारसम्बन्धी श्रौत्सर्गिक और आपवादिक नियमो का वर्णन व प्रायश्चित्तो का विधान करना है | कुछ ग्रन्थ ऐसे हैं, जिनमे जिनमार्ग के अनुयायियो का चरित्र दिया गया है जैसे उपासकदशा, अनुत्तरोपपपातिकदशा आदि । कुछ में कल्पित कथाएँ देकर उपदेश दिया गया है, जैसे ज्ञातृधर्मकथा आदि । विपाक मे शुभ और अशुभ कर्म का विपाक कथाश्री द्वारा बताया गया है । भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर के साथ हुए सवादो का सग्रह है । वौद्ध सुत्तपिटक की तरह नाना विषय के प्रश्नोत्तर भगवती में सगृहीत है । दर्शन के साथ सम्बन्ध रखने वालो में खास कर सूत्रकृत, प्रज्ञापना, राजप्रश्नीय, भगवती, नन्दी, स्थानाग, समवाय और अनुयोग मुरय है । सूत्रकृत में तत्कालीन मन्तव्यो का निराकरण करके स्वमत की प्ररूपणा की गई है । भूतवादियों का निराकरण करके आत्मा का पृथग्-अस्तित्व बताया है । ब्रह्मवाद के स्थान में नानात्मवाद स्थिर किया है । जीव और Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन ३०५ शरीर को पृथक बताया है। कर्म और उनके फल की सत्ता स्थिर की है । जगदुत्पत्ति के विषय में नानावादी का निराकरण करके विश्व को किसी ईश्वर या ऐसी ही किसी व्यक्ति ने नहीं बनाया, वह तो अनादि अनन्त है, इस बात की स्थापना की गई है । तत्कालीन क्रियावाद, श्रक्रियावाद, विनयवाद और अज्ञानवाद का निराकरण करके मुमस्कृत क्रियावाद की स्थापना की गई है । प्रज्ञापना में जीव के विविध भावो को लेकर विस्तार से विचार किया गया है । राजप्रश्नीय में पार्श्वनाथ की परम्परा में हुए केशी श्रमण ने श्रावस्ती के राजा पएसी के प्रश्नों के उत्तर में नास्तिकवाद का निराकरण करके ग्रात्मा और तन्मम्वन्धी अनेक वाती को दृष्टान्त और युक्तिपूर्वक समझाया है । भगवतीमूत्र के नेक प्रश्नोत्तरी मे नय, प्रमाण यादि अनेक दार्शनिक विचार विखरे पड़े है । नन्दी जैनदृष्टि में ज्ञान के स्वम्प और भेदों का विश्लेषण करने वाली एक मुन्दर कृति है । स्थानाग और समवायाग की रचना वौद्धों के अगुत्तरनिकाय के ढंग की है। इन दोनो म भी श्रात्मा, पुद्गल, ज्ञान, नय, प्रमाण यादि विषयी की चर्चा आाई हुँ । भगवान् महावीर के शासन में हुए निह्नवी का वर्णन स्थानाग में है । ऐसे सात व्यक्ति बनाए गए है जिन्होंने कालक्रम से भगवान् महावीर के सिद्धान्तो की भिन्न भिन्न बात को लेकर अपना मतभेद प्रकट किया है। ये ही निह्नव कह गये है । अनुयोग में शब्दार्थ करने की प्रक्रिया का वर्णन मुग्य है, किन्तु प्रसंग मे उसमे प्रमाण और नय का तथा तत्त्व का निरूपण भी अच्छे ढंग से हुआ है । आगमो की टीकाएँ 1 इन ग्रामों की टीकाएँ प्राकृत और सस्कृत में हुई है । प्राकृत टीकाएँ निर्युक्ति, भाप्य श्रोर चूर्णि के नाम से लिखी गई है। निर्युचिन और भाव्य पद्यमय है और चूर्णी गद्य में उपलब्ध नियुक्तियाँ भद्रबाहु द्वितीय की रचना हैं। उनका समय विक्रम पाँचवी या छठी शताब्दी है । निर्युक्तियों में भद्रवाहु ने कई प्रसग मे दार्शनिक चर्चाएँ बढे सुन्दर ढग में की है । खाम कर वीद्धी तथा चावको के विषय में नियुक्ति मे जहाँ कही अवसर मिला, उन्होने अवश्य लिखा है । श्रात्मा का अस्तित्व उन्होने सिद्ध किया है। ज्ञान का सूक्ष्म निरुपण तथा ग्रहिमा का तात्त्विक विवेचन किया | शब्द के अर्थ करने की पद्धति के तो वे निष्णात थे ही। प्रमाण, नय श्रीर निक्षेप के विषय में लिख कर भद्रबाहु ने जैनदर्शन की भूमिका पक्की की है । । किसी भी विषय की चर्चा का अपने समय तक का पूर्णरूप देखना हो तो भाष्य देखना चाहिए । भाष्यकारो में प्रसिद्ध सघदामगणी और जिनभद्र है। इनका समय मातवी गतादी है । जिनभद्र ने विशेपावश्यक भाष्य मे श्रागमिक पदार्थो का तर्कसंगत विवेचन किया है । प्रमाण, नय, निक्षेप की सम्पूर्ण चर्चा तो उन्होने की ही है । इसके लावा तत्त्वो का भी तात्त्विक युक्तिसगत विवेचन उन्होने किया है । ऐसा कहा जा सकता है कि दार्शनिक चर्चा का कोई ऐसा विषय नही है, जिस पर जिनभद्र ने अपनी कलम न चलाई हो । वृहत्कल्पभाष्य में सघदास गणी ने माधु के आहार-विहार आदि नियमो के उत्सर्ग अपवाद मार्ग की चर्चा दार्शनिक ढंग से की है । इन्होने भी प्रसन से प्रमाण, नय श्रोर निक्षेप के विषय में लिखा है । करीब सातवी-आठवी शताब्दी की चूर्णियां मिलती है । चूर्णिकारो मे जिनदाम महत्तर प्रसिद्ध है । इन्होने नन्दी की चूर्णी के अलावा और भी चूर्णियां लिखी है । चूर्णियो मे भाष्य के ही विषय को सक्षेप में गद्य में लिखा गया है । जातक के ढंग की प्राकृत कथाएँ इनकी विशेषता है । जैन श्रागमो की सबसे प्राचीन संस्कृत टीका ग्रा० हरिभद्र ने की है। उनका समय वि० ७५७ से ८५७ के वीच का है । हरिभद्र ने प्राकृत चूर्णियो का प्राय संस्कृत में अनुवाद ही किया है और यत्र-तत्र अपन दार्शनिक ज्ञान का उपयोग करना भी उन्होनं उचित समझा है । इसीलिए हम उनकी टीकाओं में सभी दर्शनो की पूर्व -पक्षरुप से ३६ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी अभिनंदन ग्रंथ चर्चा पाते है । इतना ही नहीं, किन्तु जैन-तत्त्व को भी दार्शनिक ज्ञान के बल से सुनिश्चित रूप में स्थिर करने का प्रयत्न भी देखते है । ३०६ हरिभद्र के बाद गीलाक मूरि ने ( दगवी शताब्दी) संस्कृत टीकाओ की रचना की । शीलाक के बाद प्रसिद्ध टीकाकार शाक्याचार्य हुए। उन्होने उत्तराध्ययन की बृहत्टीका लिखी है । इसके वाद प्रसिद्ध टीकाकार अभयदेव हुए, जिन्होने नव गो पर मस्कृत मे टीकाएँ रची। उनका जन्म १०७२ और स्वर्गवास विक्रम ११३५ हुआ है । इन दोनो टीकाकारो ने पूर्व टोकाओ का पूरा उपयोग किया ही है और अपनी ओर से नई दार्शनिक चर्चा भी की है । यहाँ पर ऐसे ही टीकाकार मलवारी हेमचन्द्र का भी नाम उल्लेख योग्य है । वे बारहवी शताब्दी के विद्वान ये । किन्तु आगमों की संस्कृत टीका करने वालो मे सर्वश्रेष्ठ स्थान तो मलयगिरि का ही है । प्राजल भाषा मे दार्शनिक चर्चा मे प्रचुर टीकाएँ यदि देखना हो तो मलयगिरि की टीकाएँ देखना चाहिए। उनकी टीका पढने मे शुद्ध दार्शनिक ग्रन्थ पढने का यानन्द आता है । जैनगास्त्र के कर्म, आचार, भूगोल -खगोल आदि सभी विषयो मे उनकी कलम धाराप्रवाह ने चलती है और विषय को इतना म्पष्ट करके रखती है कि फिर उस विषय मे दूसरा कुछ देखने की अपेक्षा नही रहती । जैने वाचस्पति मिश्र ने जो भी दर्शन लिया तन्मय होकर उसे लिखा, उमी प्रकार मलयगिरि ने भी किया है । वे प्राचार्य हेमचन्द्र के समकालीन थे । अतएव उन्हें बारहवी शताब्दी का विद्वान समझना चाहिए । मस्कृत - प्राकृत टीकाओ का परिमाण इतना वडा था और विषयो की चर्चा इतनी गहन - गहनतर हो गई थी कि बाद में यह आवश्यक समझा गया कि आगमो की गब्दार्थ बताने वाली सक्षिप्त टीकाएँ को जायँ । समय की गति नं सस्कृत और प्राकृत भाषाओ को वोलचाल की भाषा से हटाकर मात्र साहित्यिक भाषा वना दिया था । तब तत्कालीन अपभ्रग अर्थात् प्राचीन गुजराती भाषा में वालाववोधो की रचना हुई। इन्हे 'टवा' कहते हैं । ऐसे वालाववोवो की रचना करने वाले कई हुए हैं, किन्तु १८वी सदी में हुए लोकागच्छ के धर्मसिंह मुनि विशेष रूप मे उल्लेख योग्य है । क्योकि इनकी दृष्टि प्राचीन टीकात्रो के अर्थ को छोड़ कर कही कही स्वसम्प्रदाय समत अर्थ करने की रही है । उनका सम्प्रदाय मूर्तिपूजा के विरोध मे उत्थित हुआ था । दिगम्बरागम उपर्युक्त आगम और उसकी टीकाऍ श्वेताम्वर सम्प्रदाय को ही मान्य है । दिगम्बर सम्प्रदाय अगादि प्राचीन श्रागम को लुप्त ही मानता है, किन्तु उनके आधार से और खासकर दृष्टिवाद के आधार से प्राचार्यो द्वारा ग्रथित कुछ ग्रन्थों को आगम रूप से वह स्वीकार करता है । ऐसे आगम ग्रन्थो मे षट्खडागम, कषायपाहुड और महावन्ध है । इन तीनो का विषय जीव और कर्म से विशेष सम्वन्ध रखता है । दार्शनिक खडन-मडन मूल में नही, किन्तु बाद में होने वाली उनकी बडी-बडी टीकात्रो मे विशेषतया पाया जाता है । पट्खडागम और कपायपाहुड मूल की रचना विक्रम की दूसरी शताब्दी में हुई है और उन पर वृहत्काय टोका घवला - जयघवला की रचना वीरसेनाचार्य ने विक्रम की नवमी शताब्दी में की है । महान् अभी प्रसिद्ध है । दिगम्बर ग्राम्नाय मे कुन्दकुन्दाचार्य नाम के महान् प्रभावक श्राचार्य हुए है । उनका समय अभी विद्वानो में विवाद का विषय है । डा० ए० एन० उपाध्ये ने अनेक प्रमाणी से उनका समय ईसा की प्रथम शताब्दी निश्चित किया है। मुनि श्री कल्याणविजयजी उन्हें पाँचवी - छठी शताब्दी से पूर्व नही मानते। उनके ग्रन्थ दिगम्वर मम्प्रदाय में आगम के समान ही प्रमाणित माने जाते हैं । प्रवचनमार, पचास्तिकाय, समयसार, श्रष्टपाहुड, नियमसार आदि उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ है। उन्होंने ग्रात्मा का नैश्चयिक और व्यावहारिक दृष्टि से सुविवेचन किया है। मप्तभगी का निम्पण भी उन्होने किया है । उनके ग्रन्थो पर अमृतचन्द्र आदि प्रसिद्ध विद्वानो ने सस्कृत मे तथा अन्य विद्वानो ने हिन्दी में व्याख्याएं की है । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ जैन दार्शनिक साहित्य का सिहावलोकन तत्त्वार्थसूत्र और उस की टीकाएँ प्रागमो मे जैनप्रमेयो का वर्णन विप्रकीर्ण या। अतएव जनतत्त्वज्ञान, प्राचार, भूगोल, खगोल, जीवविद्या, पदार्थविज्ञान इत्यादि नाना प्रकार के विषयो का सक्षेप मे निरूपण करने वाले एक ग्रन्थ की प्रावश्यकता की पूर्ति प्राचार्य उमास्वाति ने की। उनका समय अभी अनिश्चित ही है, किन्तु उन्हें तीसरी-चौथी शताब्दी का विद्वान माना जा सकना है। अपने सम्प्रदाय के विपय में भी उन्होने कुछ निर्देश नही किया, किन्तु अभी-अभी श्री नाथूराम जी प्रेमी ने एक लेख लिख कर यह सिद्ध करने की चेप्टा की है कि वे यापनीय थे। उनका यापनीय होना युक्तिसगत मालूम देता है। उनका 'तत्त्वाधिगमसूत्र' श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनो सम्प्रदाय मे मान्य हुया है। इतना ही नही, वरिक जव मे वह बना है तव मे अभी तक उनका अादर और महत्त्व दोनो सम्प्रदायो मे बरावर बना रहा है। यही कारण है कि छठी शताब्दी के दिगम्बराचार्य पूज्यपाद ने उस पर 'सर्वार्थमिति' नामक टीका की रचना की। आठवी-नवी शताब्दी मे तो इसकी टीका की होड-सी लगी है। अकलक और विद्यानन्द ने क्रमश 'राजवार्तिक' और 'श्लोकवार्तिक' की रचना की। सिद्वमेन और हरिभद्र ने क्रमश बृहत्काय और लघुकाय वृत्तियो की रचना की। पूर्वोक्त दो दिगम्बर है और अन्तिम दोनो श्वेताम्बर है। ये पाँचो कृतियों दार्शनिक ही है। जैनदर्शन मम्मत प्रत्येक प्रमेय का निरूपण अन्य दर्शन के उम-उस विषयक मन्तव्य का निराकरण करके ही किया गया है। यदि हम कहे कि अधिकाग जैनदार्गनिक साहित्य का विकान और वृद्धि एक तत्त्वार्थ को केन्द्र में रख कर ही हुआ है तो अत्युक्ति नही होगी। दिग्नाग के प्रमाण समुच्चय के ऊपर धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक लिखा और जिस प्रकार उमी को केन्द्र मे रख कर ममग्न बौद्धदर्शन विकसित और वृद्विगत हुआ उसी प्रकार तत्त्वार्थ के आसपास जैनदार्शनिक माहित्य का विकास और वृद्धि हुई है। बारहवी शताब्दी में मतयगिरि ने और चौदहवी शताब्दी मे किसी चिरन्तन मुनि ने भी टीकाएँ बनाई। आखिर में अठारवी शताब्दी में यशोविजयजी ने भी अपनी नव्य परिभाषा मे इसकी टीका करना उचित समझा और इस प्रकार पूर्व की मत्रहवी शताब्दी तक के दार्शनिक विकास का भी अन्तर्भाव इसमे हुआ। एक दूसरे यशोविजयगणी ने प्राचीन गुजराती में इसका बालावबोध बना कर इस कृति को भापा की दृष्टि से आधुनिक भी बना दिया। ये सभी श्वेताम्बर थे। दिगम्बरो मे भी श्रुतसागर (सोलहवी शताब्दी), विबुधसेन, योगीन्द्रदेव, योगदेव, लक्ष्मीदेव, अभयनन्दी सूरि आदि ने भी मस्कृत मे टीकाएँ वनाई है। और कुछ दिगम्बर विद्वानो ने प्राचीन हिन्दी मे लिस कर उसे आधुनिक बना दिया है। अभी-अभी वीसवी शताब्दी में भी उसी तत्त्वार्थ का अनुवाद भी कई विद्वानो ने किया है और विवेचन भी हिन्दी तथा गुजराती आदि प्रान्तीय भाषाओ में हुआ है। ऐसी महत्त्वपूर्ण कृति का सक्षेप में विपय-निर्देश करना आवश्यक है। ज्ञानमीमासा "पहले अध्याय मे ज्ञान से सम्बन्ध रखने वाली मुख्य आठ बाते है और वे इस प्रकार है-१-नय और प्रमाणरूप से ज्ञान का विभाग। २–मति आदि आगम प्रसिद्ध पाँच ज्ञान और उनका प्रत्यक्ष-परोक्ष दो प्रमाणो मे विभाजन । ३-मतिज्ञान की उत्पत्ति के साधन, उनके भेद प्रभेद और उनकी उत्पत्ति के क्रमसूचक प्रकार । ४-जन परम्परा मे प्रमाण माने जाने वाले आगम शास्त्र का श्रुतज्ञानरूप से वर्णन। ५-अवधि आदि तीन दिव्य प्रत्यक्ष और उनके भेद-प्रभेद तथा पारस्परिक अन्तर। ६-इन पांचो ज्ञानो का तारतम्य बतलाते हुए उनका विषयनिर्देश और उनकी एक साथ सम्भवनीयता। ७-कितने ज्ञान भ्रमात्मक भी हो सकते है यह, और ज्ञान की यथार्थता और अयथार्थता के कारण। -नय के भेदप्रभेद। 'देखो प० सुखलाल जी कृत 'विवेचन' की प्रस्तावना पृ० ६७ । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ ज्ञेयमीमासा "ज्ञेयमीमासा मे मुख्य मोलह बात आती है जो इस प्रकार है-दूसरे अध्याय में-१-जीवतत्त्व का स्वरूप। २-ससारी जीव के भेद। ३---इन्द्रिय के भेद-प्रभेद, उनके नाम, उनके विषय और जीवराशि में इन्द्रियो का विभाजन। ४-मृत्यु और जन्म के बीच की स्थिति । ५-जन्मो के और उनके स्थानो के भेद तथा उनका जाति की दृष्टि से विभाग। ६-शरीर के भेद, उनके तारतम्य, उनके स्वामी और एक साथ उनका सम्भव। ७--जातियो का लिगविभाग और न टूट सके ऐसे आयुष्य को भोगने वालो का निर्देश । तीसरे और चौथे अध्याय में-८-अधोलोक के विभाग, उसमें वसने वाले नारकजीव और उनकी दशा तथा जीवनमर्यादा वगैरह। ६-द्वीप, समुद्र, पर्वत, क्षेत्र आदि द्वारा मध्यलोक का भौगोलिक वर्णन, तथा उसमें बसने वाले मनुष्य, पशु, पक्षी आदि का जीवनकाल। १०-देवो की विविध जातियाँ, उनके परिवार, भोग, स्थान, समृद्धि, जीवनकाल और ज्योतिमंडल द्वारा खगोल का वर्णन। पांचवे अध्याय मे-११-द्रव्य के भेद, उनका परस्पर साधर्म्य-वैधर्म्य, उनका स्थितिक्षेत्र और प्रत्येक का कार्य। १२पुद्गल का स्वरूप, उनके भेद और उमकी उत्पत्ति के कारण। १३-सत् और नित्य का महेतुक स्वरूप । १४-पौद्गलिकबन्ध की योग्यता और अयोग्यता। १५--द्रव्यसामान्य का लक्षण, काल को द्रव्य मानने वाला मतान्तर और उसकी दृष्टि से काल का स्वरूप। १६-गुण और परिणाम के लक्षण और परिणाम के भेद । चारित्र मीमासा "चारित्रमीमासा की मुख्य ग्यारह वाते है-छठे अध्याय मे-१-पासव का स्वरूप, उसके भेद और किसकिस प्रास्रवसेवन से कौन-कौन कर्म बंधते है उसका वर्णन है। सातवें अध्याय में-२-व्रत का स्वरूप व्रत लेने वाले अधिकारियो के भेद और व्रत की स्थिरता के मार्ग। ३-हिंसा आदि दोषो का स्वरूप। ४-व्रत में सम्भवित दोष। ५-दान का स्वरूप और उसके तारतम्य के हेतु। आठवे अध्याय मे-६-कर्मवन्धन के मूल हेतु और कर्मवन्धन के भेद। नववे अध्याय में-७-सवर और उसके विविध उपाय तथा उसके भेदप्रभेद। ५-निर्जरा और उसके उपाय। ६-जुदे-जुदे अधिकार वाले साधक और उनकी मर्यादा का तारतम्य । दसवे अध्याय में-१०-केवल ज्ञान के हेतु और मोक्ष का स्वरूप । ११-मुक्ति प्राप्त करने वाले आत्मा की किस रीति से कहाँ गति होती है उसका वर्णन।" इस सक्षिप्त सूची से यह पता लग जायगा कि तत्कालीन ज्ञानविज्ञान की एक भी शाखा अछूती नही रही है । तत्त्वविद्या, आध्यात्मिकविद्या, तर्कशास्त्र, मानसशास्त्र, भूगोल-खगोल, भौतिक विज्ञान, रसायनविज्ञान, भूस्तरविद्या, जीवविद्या आदि सभी के विषय मे उमास्वाति ने तत्कालीन जैन मन्तव्य का सग्रह किया है। यही कारण है कि टीकाकारो ने अपनी दार्शनिक विचारधारा को बहाने के लिए इसी ग्रन्थ को चुना है और फलत यह एक जैनदर्शन का अमूल्य रत्न सिद्ध हुआ है। ___ इस प्रकार ज्ञानविज्ञान की सभी शाखाप्रो को लेकर तत्त्वार्थ और उसकी टीकाओ मे विवेचना होने से किसी एक दार्शनिक मुद्दे पर सक्षेप में चर्चा का होना उसमे अनिवार्य है अतएव जैनदर्शन के मौलिक सिद्धान्त अनेकान्तवाद और उसीसे सम्बन्ध रखने वाले प्रमाण और नय का स्वतन्त्र विस्तृत विवेचन उसमे सम्भव न होने से जैन आचार्यों ने इन विषयो पर स्वतन्त्र प्रकरण ग्रन्थ भी लिखना शुरू किया। (२) अनेकान्त स्थापन युग सिद्धसेन और समन्तभद्र दार्शनिक क्षेत्र में जब से नागार्जुन ने पदार्पण किया है तब से सभी भारतीय दर्शनो में नव जागरण हुआ है। मभी दार्शनिको ने अपने-अपने दर्शन को तर्क के वल से सुसगत करने का प्रयत्न किया है। जो बातें केवल मान्यता Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन ३०६ की थी उनका भी स्थिरीकरण युक्तियो के वल से होने लगा। पारस्परिक मतभेदो का खडन-मडन जब होता है है तब सिद्धान्तो का और युक्तियो का आदान-प्रदान होना भी स्वाभाविक है। फल यही हुआ कि दार्शनिक प्रवाह इस सघर्ष में पड कर पुष्ट हुआ। प्रारम्भ मे तो जैनाचार्यों ने तटस्थरूप से इस संघर्ष को देखा ही है किन्नु परिस्थिति ने जव उन्हे वाधित किया, अपने अस्तित्व का ही खतरा जव उपस्थित हुआ, तब समय की पुकार ने ही सिद्धसेन और समन्तभद्र जैसे प्रमुख ताकिको को उपस्थित किया। इनका समय करीब पांचवी-छठवी शताब्दी है। सिद्धसेन श्वेताम्बर और समन्तभद्र दिगम्वर थे। जैनधर्म के अन्तिम प्रवर्तक भगवान् महावीर ने नयोका उपदेश दिया ही था। किसी भी तत्त्व का निरूपण करने के लिए किसी एक दृष्टि से नही, किन्तु शक्य सभी नय-दृष्टिबिन्दुओ से उसका विचार करना सिखाया था। उन्होने कई प्रसग में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-इन चार दृष्टियो से तत्त्व का विचार समकालीन दार्शनिक मतवादियो के सामने उपस्थित किया था। इस प्रकार अनेकान्तवाद-स्यावाद की नीव उन्होने डाल ही दी थी। किन्तु जब तक नागार्जुन के द्वारा सभी दार्शनिको के सामने अपने-अपने सिद्धान्त की सिद्धि तर्क के बल से करने के लिए आवाज़ नही उठी थी, जैन दार्शनिक भी सोये हुए थे। सभी दार्शनिको ने जव अपने-अपने सिद्धान्तो को पुष्ट कर लिया तव जैनदार्शनिक जागे। वस्तुत यही समय उनके लिए उपयुक्त भी था, क्योकि सभी दार्शनिक अपने-अपने सिद्धान्त की सत्यता और दूसरे के सिद्धान्त की असत्यता स्थापित करने पर तुले हुए होने से वे अभिनिवेश के कारण दूसरे के सिद्धान्त की खूवियाँ और अपनी कमजोरियां देख नही सकते थे। उन सभी की समालोचना करने वाले की अत्यन्त आवश्यकता ऐसे ही समय में हो सकती है। यही कार्य जैन-दार्शनिको ने किया। शून्यवादियो ने कहा था कि तत्त्व न मत् है, न असत्, न उभयरूप है, न अनुभयरूप, अर्थात् वस्तु मे कोई विशेषण देकर उसका निर्वचन किया नही जा सकता। इसके विरुद्ध माख्यो ने और प्राचीन औपनिषदिक दार्शनिको ने सव को सत् रूप ही स्थिर किया। नैयायिक-वैशेपिको ने कुछ को सत् और कुछ को असत् ही सिद्ध किया। विज्ञानवादी वौद्धो ने तत्त्व को विज्ञानात्मक ही कहा और वाह्यार्थ का अपलाप किया। इसके विरुद्ध नैयायिकवैशेषिको ने और मीमासको ने विज्ञानव्यतिरिक्त वाह्यार्थ को भी सिद्ध किया। बौद्धो ने सभी तत्त्वो को क्षणिक ही सिद्व किया तव मीमासको ने शब्द और ऐसे ही दूसरे अनेक पदार्थों को अक्षणिक सिद्ध किया। नैयायिको ने शब्दादि जैसे अनेक को क्षणिक और आकाश आत्मादि जैसे अनेक को अक्षणिक सिद्ध किया। बौद्धो ने और मीमासको ने ईश्वरकर्तृत्व का निषेध किया और नैयायिको ने ईश्वरकर्तृत्व सिद्ध किया। मीमासकभिन्न सभी ने वेदापौरुषेयत्व का विरोध किया तब मीमासक ने उसीका समर्थन किया। इस प्रकार इस सघर्ष के परिणामस्वरुप नाना प्रकार के वादविवाद दार्शनिक क्षेत्र में उपस्थित थे। इन सभी वादो को जैनदार्शनिको ने तटस्थ होकर देखा और फिर अपनी समालोचना शुरू की। उनके पास भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट नयवाद और द्रव्यादि चार दृष्टियाँ थीही। उनके प्रकाश में जव उन्होने ये वाद देखे तव उन्हें अपने अनेकान्तवाद-स्याद्वाद की स्थापना का अच्छा मौका मिला। सिद्धसेन ने सन्मतितर्क में नयवाद का विवेचन किया है क्योकि अनेकान्तवाद का मलाधार नयवाद ही है। उनका कहना है कि सभी नयो का समावेश दो मूलनयो मे-द्रव्याथिक और पर्यायाथिक मे हो जाता है । दृष्टि यदि द्रव्य, अभेद,मामान्य,एकत्व की ओर होती है तो सर्वत्र अभेद दिखाई देता है और यदि पर्याय, भेद, विशेषगामी होती है तो सर्वत्र भेद ही भेद नजर आता है। तत्त्वदर्शन किसी भी प्रकार का क्यो न हो वह आखिर मे जाकर इन दो दृष्टियो में से किसी एक मे ही मम्मिलित हो जायगा। या तो वह द्रव्याथिक दृष्टि से होगा या पर्यायार्थिक दृष्टि से होगा। अनेकान्तवाद इन दोनो दृष्टियो के समन्वय मे है न कि विरोध में। मिद्धसेन का कहना है कि दार्शनिको मे परस्पर विरोध इसलिए है कि या तो वे द्रव्याथिक दृष्टि को ही सच मान कर चलते है या पर्यायार्थिक दृष्टि को ही। किन्तु यदि वे अपनी दृष्टि का राग छोड कर दूसरे की दृष्टि का विरोध न करके उस ओर उपेक्षाभाव धारण करें तव अपनी Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० प्रेमी-अभिनदन-प्रय दृष्टि में स्थिर रह कर भी उनका दर्शन सम्यग्दर्शन है, चाहे वह पूर्ण न भी हो। पूर्ण सम्यग्दर्शन तो सभी उपयुक्त दृष्टियो के स्वीकार से ही हो सकता है। किन्तु सभी दार्शनिक अपना दृष्टिराग छोड नहीं सकते। अतएव वे मिथ्या है और उन्ही की बात को लेकर चलने वाला अनेकान्तवाद मिथ्या न होकर सम्यक हो जाता है। क्योकि अनेकान्तवाद सर्वदर्शनो का जो तथ्याश है, जो अश युक्तिसिद्ध है उसे स्वीकार करता है और तत्त्व के पूर्ण दर्शन में उस अश को भी यथास्थान सनिविष्ट करता है। सिद्धसेन का तो यहां तक कहना है कि किसी एक दृष्टि की मुख्यता यदि मानी जाय तो सर्वदर्शनो का प्रयोजन जो मोक्ष है वही नहीं घट सकेगा। अतएव दार्शनिको को अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए भी अनेकान्तवाद का आश्रयण करना चाहिए और दृष्टिमोह से दूर रहना चाहिए। महामूल्यवान् मुक्तामणियो को भी जब तक किसी एक सूत्र में बाँधा न जाय तव तक गले का हार नहीं बन सकता है। उनमें समन्वय की कमी है। अतएव उनका खास उपयोग भी नहीं। किन्तु वे ही मणियाँ जब सूत्रबद्ध हो जाती है, उनमें समन्वय हो जाता है तव उनका पार्थक्य होते हुए भी एक उपयुक्त चीज़ बन जाती है। इसी दृष्टान्त के बल से सिद्धमेन ने सभी दार्शनिको को अपनी-अपनी दृष्टि में समन्वय की भावना रखने का आदेश दिया है। और कहा है कि यदि ऐसा समन्वय हो तभी दर्शन सम्यग्दर्शन कहा जा सकता है अन्यथा नहीं। कार्यकारण के भेदाभेद को लेकर दार्शनिको में नाना विवाद चलते थे। कार्य और कारण का एकान्त भेद ही है, ऐसा न्याय-वैशेषिक मत है । सास्य का मत है कि कार्य कारणरूप ही है। अद्वैतवादियो का मत है कि ससार मे दृश्यमान कार्यकारणभाव मिथ्या है, किन्तु एक द्रव्य-अद्वैत ब्रह्म ही सत् है। इन सभी वादियो को सिद्धसेन ने एक ही बात कही है कि यदि वे परस्पर समन्वय न स्थापित कर सके तो उनका वाद मिथ्या ही होगा। वस्तुत अभेदगामी दृष्टि से विचार करने पर कार्य-कारण मे अभेद है, और भेदगामी दृष्टि से देखने पर भेद है, अतएव एकान्त को परित्याग करके कार्य-कारण में भेदाभेद मानना चाहिए। भगवान महावीर ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से किसी वस्तु पर विचार करना सिखाया था, यह कहा जा चुका है। इसी को मूलाधार वना कर किसी भी वस्तु मे स्वद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से सत् और परद्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से असत् इत्यादि सप्तभगो की योजनास्प स्याद्वाद का प्रतिपादन भी सिद्धसेन ने विशदरूप से किया है। सदसत् की सप्तभगी की तरह एकानेक, नित्यानित्य, भेदाभेद इत्यादि दार्शनिकवादो के विषय में भी द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक दृष्टि को मूलाधार बना कर स्याद्वाद दृष्टि का प्रयोग करने का सिद्धसेन ने सूचन किया वौद्धो ने वस्तु को विशेषरूप ही माना , अद्वैतवादियो ने सामान्यरूप ही माना और वैशेषिको ने सामान्य और विशेप को स्वतन्त्र और आधारभूत वस्तु से अत्यन्त भिन्न ही माना। दार्शनिको के इस विवाद को भी सिद्धसेन ने द्रव्याथिक और पर्यायाथिक का झगडा ही कहा और वस्तु तत्त्व को सामान्य-विशेषात्मक सिद्ध करके ममन्वय किया। बौद्ध ने वस्तु को गुण रूप हीष्माना, गुणभिन्न कोई द्रव्य माना ही नहीं। नैयायिको ने द्रव्य और गुण का भेद ही माना। तव सिद्धसेन ने कहा कि एक ही वस्तु सम्बन्ध के भेद से नाना रूप धारण करती है अर्थात् जव वह चक्षुरिन्द्रिय का विषय होती है तव रूप कही जाती है और रसनेन्द्रिय का विषय होती है तव रस कही जाती है, जैन कि एक ही पुरुष सम्बन्ध के भेद से पिता, मामा आदि व्यपदेशो को धारण करता है। इस प्रकार गुण और द्रव्य का अभेद सिह करके भीएकान्ताभेद नही है ऐसा स्थिर करने के लिए फिर कहा कि वस्तु मे विशेषताएं केवल परसम्बन्ध कृत है यह वात नहीं है। उसमे तत्तद्रूप से स्वपरिणति भी मानना आवश्यक है। इन परिणामो मे भेद विना मान व्यवपदेशभेद भी सम्भव नहीं। अतएव द्रव्य और गुण का भेद ही या अभेद ही है, यह वात नही, किन्तु भेदाभेद है। यही उक्त वादो का समन्वय है। सिद्धसेन तर्कवादी अवश्य थे, किन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि तर्क को वे अप्रतिहतगति समझते थे। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन ३११ तर्क की मर्यादा का पूरा ज्ञान उनको था । इमीलिए तो उन्होने स्पष्ट कह दिया है कि श्रहेतुवाद के क्षेत्र में तर्क को दखल न देना चाहिए। श्रागमिक बातो मे केवल श्रद्धागम्य वातो में श्रद्धा से ही काम लेना चाहिए श्रीर जो तर्क का विषय हो उमी मे तर्क करना चाहिए । दूसरे दार्शनिको की त्रुटि दिखा कर ही सिद्धमेन मन्तुष्ट न हुए। उन्होने अपना घर भी ठीक किया । जैनो की उन श्रागमिक मान्यताओं के ऊपर भी उन्होने प्रहार किया है, जिनको उन्होने तर्क से प्रसगत समझा । जैसे सर्वज्ञ के ज्ञान और दर्शन को भिन्न मानने की प्रागमिक परम्परा थी, उनके स्थान में उन्होने दोनो के अभेद की नई परम्परा कायम की । तर्क के वल पर उन्होंने मति श्रोर श्रुत के भेद को भी मिटाया । अवधि श्रौर मन पर्यय ज्ञान को एक बताया तथा दर्शन - श्रद्वा श्रीर ज्ञान का भी ऐक्य सिद्ध किया । जैन श्रागमो में नैगमादि सात नय प्रसिद्ध थे । उसके स्थान में उन्होने उनमे से नैगम का समावेश सग्रह-व्यवहार में कर दिया और मूल नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक मान कर उन्ही दो के अवान्तर भेद रूप से छ नयो की व्यवस्था कर दी । श्रवान्तर भेदो की व्यवस्था में भी उन्होने अपना स्वातन्त्र्य दिखाया है । इतना ही नही किन्तु उस समय के प्रमुख जैनसघ को युगधर्म की भी शिक्षा उन्होने यह कह कर दी है कि मिर्फ सूत्रपाठ याद करके तथा उस पर चिन्तन और मनन न करके मात्र वाह्य श्रनुष्ठान के वल पर अव शामन की रक्षा होना कठिन है। नयवाद के विषय में गम्भीर चिन्तन-मनन करके अनुष्ठान किया जाय तव ही ज्ञान का फल विरति और मोक्ष मिल सकता है । और इम प्रकार शासनरक्षा भी हो सकती है । मिन की कृतियो में सन्मतितर्क, वत्तीमीयाँ और न्यायावतार है । सम्मतितर्क प्राकृत मे श्रीर शेष संस्कृत में है । सिद्धमेन के विषय मे कुछ विस्तार अवश्य हो गया है, किन्तु वह आवश्यक है, क्योकि अनेकान्तवादरूपी महाप्रामाद के निर्माता प्रारम्भिक शिल्पियो में उनका स्थान महत्त्वपूर्ण है । सिद्धसेन के समकक्ष विद्वान् समन्तभद्र है । उनको स्याद्वाद का प्रतिष्ठापक कहना चाहिए। अपने समय में प्रसिद्ध सभी वादो की ऐकान्तिकता मे दोप दिखा कर उन सभी का समन्वय अनेकान्तवाद में किस प्रकार होता है, यह उन्होने खूबी के माथ विस्तार से बताया है। उन्होने स्वयभूस्तोत्र मे चौविसो तीर्थकरो की स्तुति की है । वह स्तुति स्तोत्र साहित्य में श्रनोग्वा स्थान रखती है । वह प्रालकारिक एक स्तुतिकाव्य तो है ही, किन्तु उसकी विशेषता उसमे मन्निहित दार्शनिक तत्त्व में हैं । प्रत्येक तीर्थंकर की स्तुति मे किसी न किसी दार्शनिकवाद का श्राकारिक निर्देश अवश्य किया है । युक्त्यनुशासन भी एक स्तुति के रूप मे दार्शनिक कृति है । प्रचलित सभी वादो में दोप दिखा कर यह सिद्ध किया गया है कि भगवान् के उपदेशो मे उन दोपो का प्रभाव है । इतना ही नही, किन्तु भगवान् के उपदेश में जो गुण है उन गुणो का सद्भाव अन्य किसी के उपदेश में नही । तथापि उनकी श्रेष्ठ कृति तो श्राप्नमीमासा ही है । हम त की ही स्तुति क्यो करते हैं और दूसरो की क्यो नही करते ? इस प्रश्न को लेकर उन्होने प्राप्त की मीमांसा की है। प्राप्त कौन हो सकता है इस प्रश्न के उत्तर में उन्होने सर्वप्रथम तो महत्ता की सच्ची कसोटी क्या हो सकती है, इसका विचार किया है । जो लोग वाह्य आडम्वर या ऋद्धि देख कर किसी को महान् समझ कर अपना प्राप्त या पूज्य मान लेते है उन्हें शिक्षा देने के लिए उन्होने अरिहन्त को सम्बोधन करके कहा है— देवागमनभोयानचामरादिविभूतय । मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ॥ देवो का ग्रागमन, नभोयान और चामरादि विभूतियाँ तो मायावि पुरुपो में भी दिखाई देती है । अतएव इतने मात्र मे तुम हमारे लिए महान नही हो । फलितार्थ यह है कि श्रद्धाशील लोगो के लिए तो ये बातें महत्ता की कसौटी हो सकती है, किन्तु तार्किको के सामने यह कसौटी चल नहीं सकती। इसी प्रकार शारीरिक महोदय भी Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ प्रेमी-अभिनंदन-प्रय महत्ता की कसौटी नहीं, क्योकि देवलोक के निवासियो में भी शारीरिक महोदय होते हुए भी वे महान् नही, क्योकि उनमें रागादि दोष है । तव प्रश्न हुआ कि क्या जो तीर्थकर या धर्मप्रवर्तक कहे जाते है जैसे बुद्ध, कपिल, गौतम, कणाद, जैमिनी आदि-उन्हें महान् और प्राप्त माना जाय ? इसका उत्तर उन्होने दिया है कि ये तीर्थंकर कहे तो जाते है किन्तु सिद्धान्त परस्पर विरुद्ध होने से वे सभी तो प्राप्त हो नहीं सकते। किसी एक को ही प्राप्त मानना होगा। वह एक कोन है, जिसे प्राप्त माना जाय? इसके उत्तर में उन्होने कहा है कि जिसके मोहादि दोषो का अभाव हो गया है और जो सर्वज्ञ हो गया है वही प्राप्त हो सकता है। ऐसा निर्दोष और सर्वज्ञ व्यक्ति आप अर्थात भगवान् वर्धमान आदि अर्हन्त ही है, क्योकि आपका उपदेश प्रमाण से अवाधित है। दूसरे कपिलादि आप्त नही हो सकते क्योकि उनका जो उपदेश है, वह ऐकान्तिक होने से ही प्रत्यक्ष वाधित है। प्राप्त की मीमासा के लिए ऐसी पूर्वभूमिका वाँध करके आचार्य समन्तभद्र ने क्रमश सभी प्रकार के ऐकान्तिक वादो में प्रमाणवाधा दिखा कर समन्वयवाद, अनेकान्तवाद जो कि भगवान् महावीर के द्वारा उपदिष्ट है उसी को प्रमाण से अवाधित सिद्ध करने का सफल प्रयत्ल किया है। सिद्धसेन के समान समन्तभद्र का भी यही कहना है कि एकान्तवाद का आश्रयण करने पर कुशलाकुशल कर्म की व्यवस्था और परलोक ये बाते असगत हो जाती है। समन्तभद्र ने प्राप्तमीमासा में दो विरोधी एकान्तवादो में क्रमश दोपो को दिखा कर यह बताने का सफल प्रयत्न किया है कि इन्ही दो विरोवी एकान्तवादो का समन्वय यदि स्याद्वाद के रूप में किया जाता है, अर्थात् इन्ही दो विरोधी वादो को मूल में रख कर सप्तभगी की योजना की जाती है तो ये विरोधीवाद भी अविरुद्ध हो जाते है, निर्दोष हो जाते है। भगवान् के प्रवचन की यही विशेषता है। सर्वप्रथम ऐसा समन्वय उन्होने भावकान्त और अभावकान्तवाद को लेकर किया है। अर्थात् सत् और असत् को लेकर सप्तभगी का समर्थन करके उन्होने सिद्ध किया है कि ये सदद्वैत और शून्यवाद तभी तक विरोधी है जव तक वे अलग-अलग है किन्तु जब वे अनेकान्तरूपी मुक्ताहार के एक अगरूप हो जाते है तव उनमें कोई विरोध नही। इसी प्रकार द्वैतवाद और अद्वैतवाद आदि का भी समन्वय कर लेने की सूचना उन्होने की है। सिद्धसेन ने नयो का सुन्दर विश्लेषण किया तो समन्तभद्र ने उन्ही नयो के आधार पर प्रत्येक वादो मे स्याद्वाद की सगति कैसे बिठाना चाहिये इसे विस्तार से युक्तिपूर्वक सिद्ध किया है। प्रत्येक दो विरोवी वादो को लेकर सप्तभगो की योजना किस प्रकार करना चाहिए इसके स्पष्टीकरण मे ही समन्तभद्र की विशेपता है। उक्त वादो के अलावा नित्यकान्त और अनित्यकान्त, कार्य कारण का भेदैकान्त और अभेदैकान्त, गुण-गुणी का भेदैकान्त और अभेदकान्त, सामान्य सामान्यवत् का भेदैकान्त और अभेदैकान्त, सापेक्षवाद और निरपेक्षवाद, हेतुवाद और अहेतुवाद, विज्ञप्तिमात्रवाद और वहिरगार्थतैकान्तवाद, दैववाद और पुरुषार्थवाद, पर को सुख देने से पुण्य हो, दुख देने से पाप हो-ऐसा एकान्तवाद और स्व को दुख देने से पुण्य हो, सुख देने से पाप हो ऐसा एकान्तवाद, अजान से वन्ध हो ऐसा एकान्त और स्तोकज्ञान से मोक्ष ऐसा एकान्त, वाक्यार्थ के विषय मे विधिवाद और निपेधवाद-इन सभी वादो में युक्ति के वल से सक्षेप में दोप दिखा कर अनेकान्तवाद की निर्दोषता सिद्ध की है, प्रसग से प्रमाण, सुनय और दुर्नय, स्याद्वाद इत्यादि अनेक विपयो का लक्षण करके उत्तर काल के प्राचार्यों के लिए विस्तृत चर्चा का वीजवपन किया है। 1 "तीर्यकृत्समयाना च परस्पर विरोधत । सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद् गुरु ॥" • “स त्वमेयासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्ट ते प्रसिद्धन न वाध्यते ॥" Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन ३१३ मल्लवादी और सिंहगणी सिद्धसेन के समकालीन विद्वान् मल्लवादी हुए है। वे वादप्रवीण थे अतएव उनका नाम मल्लवादी था। उन्होने सन्मतितर्क की टीका की है। तदुपरान्त नयचक्र नामक एक अद्भुत अन्य की रचना की। ये श्वेताम्बराचार्य थे। किन्तु अकलकादि दिगम्वर आचार्यों ने भी इनके नयचक्र का बहुमान किया है। तत्कालीन मभी दार्शनिकवादो को सात नयो के अन्तर्गत वता करके उन्होने एक वादचक्र की रचना की है । उस चक्र में उत्तर उत्तर वाद पूर्व पूर्व वाद का विरोध करके अपने-अपने पक्ष को सवल सिद्ध करता है। ग्रन्थकार का तो उद्देश्य यह है कि ये सभी एकान्तवाद अपने आपको पूर्ववाद से प्रवल समझते हैं किन्नु अपने वाद से दूसरे उत्तरवाद के अस्तित्व का खयाल वे नहीं रखते। एक तटस्य व्यक्ति ही इस चक्रान्तर्गत प्रत्येक वाद की आपेक्षिक मवलता या निर्बलता जान सकता है। और वह तभी जव उसे पूरा चक्र मालूम हो। इन वादो को पक्तिवद्ध न करके चक्रबद्ध करने का उद्देश्य यह है कि पक्ति मे तो किसी एक वाद को प्रथम स्यान देना पड़ता है और किसी एक को अन्तिम । उत्तरोत्तर खडन करने पर अन्तिम वाद को विजयी घोपित करना प्राप्त हो जाता है। किन्तु यदि इन वादो को चक्रवद्ध किया जाय तो वादो का अन्त भी नहीं और आदि भी नहीं। सुभीते के लिए किसी एक वाद की स्थापना प्रयम की जा सकती है और अन्त में किमी एक पक्ष को रक्खा जा सकता है, किन्तु चक्रवद्ध होने से उस अन्तिम के भी उत्तर मे प्रथमवाद ही ठहरता है और वही उस अन्तिम का खडन करता है और इस प्रकार एकान्तवादियो का खडन-मडन का चक्र चलता है। अनेकान्तवाद ही इन सभी वादो का समन्वय कर सकता है। आचार्य ने इन सभी को चबद्ध करके यही सूचित किया है कि अपनी-अपनी दृष्टि मे वे सभी वाद सच्चे हैं, किन्तु दूसरो की दृष्टि में मिथ्या ठहरते है । अतएव नयवाद का उपयोग करके इन सभी वादो का समन्वय करना चाहिए। और उनकी सच्चाई यदि है तो किस नय की दृष्टि से है उसे विचारना चाहिए। मल्लवादि ने प्रत्येक वाद को किसी न किसी नयान्तर्गत करके सभी वादो के स्रोत को अनेकान्तवाद त्पी महासमुद्र में मिलाया है, जहाँ जाकर उनका पृथगस्तित्व मिट जाता है और सभी वादो के समन्वयरूप एक महाममुद्र ही दिखाई देता है। नयचक्र की एक और भी विशेषता है और वह यह कि उसमे इतर दर्शनो मे भी किस प्रकार अनेकान्तवाद को अपनाया गया है उसे दिखाया है। इस नयचक्र के ऊपर सिंह क्षमाश्रमण ने १८००० श्लोक प्रमाण वृहत्काय टीका की है। उनका समय सातवी शताब्दी से उत्तर में हो नहीं सकता क्योकि उन्होने दिग्नाग और भर्तृहरि के तो कई उद्धरण दिये है किन्तु धर्मकीर्ति के ग्रन्थ का कोई उद्धरण नहीं। और न कुमारिल का ही उसमे कही नाम है। आश्चर्य है कि उसमें समन्तभद्र का भी कोई उद्धरण नही, किन्तु सिद्धमेन और उनके ग्रन्यो का उद्धरण वार-बार है। नयचक्रटीका गायकवाड़ मिरीज़ में छप रही है। पात्रकेसरी इमी युग में एक और तेजस्वी दिगम्बर विद्वान् पात्रस्वामी, जिनका दूसरा नाम पात्रकेसरी था, हुए। इन्होने 'त्रिलक्षण कदर्थन' नामक एक ग्रन्थ लिखा है। इस युग में प्रमाणशास्त्र से मीषा सम्बन्ध रखने वाली दो कृतियाँ हुई एक सिद्धसेनकृत न्यायावतार और दूसरी यह त्रिलक्षणकदर्थन । इसमें दिग्नाग समर्थित हेतु के विलक्षण का खड्न किया गया है और जनदृष्टि से अन्ययानुपपत्ति रूप एक ही हेतुलमण सिद्ध किया गया है । जैन न्यायशास्त्र मे हेतु का यही लक्षण न्यायावतार में और अन्यत्र मान्य है। यह ग्रन्य उपलब्ध नहीं है। ४० Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी - अभिनंदन ग्रंथ (३) प्रमाणशास्त्र व्यवस्थायुग हरिभद्र और अकलक असग-वसुबन्धु ने विज्ञानवाद की स्थापना की थी, किन्तु स्वतन्त्र वौद्ध दृष्टि से प्रमाणशास्त्र की रचना व स्थापना का कार्य तो दिग्नाग ने ही किया । अतएव वह वौद्ध तर्कशास्त्र का पिता माना जाता है । उन्होने तत्कालीन नैयायिक, वैशेषिक, साख्य, मीमासक आदि दर्शनों के प्रमेयो का तो खडन किया ही किन्तु साथ ही उनके प्रमाणलक्षणो का भी खडन किया । इसके उत्तर मे प्रशस्त उद्द्योतकर, कुमारिल, सिद्वमेन, मल्लवादी, सिंहगणी, पूज्यपाद, समन्तभद्र, ईश्वरसेन, अविद्धकर्ण आदि ने अपने अपने दर्शन और प्रमाणशास्त्र का समर्थन किया । तव दिग्नाग के टीकाकार और भारतीय दार्शनिको में सूर्य के समान तेजस्वी ऐसे धर्मकीर्ति का पदार्पण हुआ । उन्होने उन पूर्वोक्त सभी दार्शनिको को उत्तर दिया और दिग्नाग के दर्शन की रक्षा की और नये प्रकाश में उसका परिष्कार भी किया । इस तरह बौद्ध दर्शन और खास कर वोद्वप्रमाणशास्त्र की भूमिका पक्की कर दी। इसके वाद एक पोर तो धर्मकीर्ति की शिष्यपरम्परा के दार्शनिक धर्मोत्तर, अर्चंट, शान्तरक्षित, पज्ञाकर आदि हुए जिन्होने उत्तरोत्तर धर्मकीर्ति के पक्ष की रक्षा की और इस प्रकार बौद्ध प्रमाणशास्त्र को स्थिर किया । और दूसरी ओर प्रभाकर, उम्वेक, व्योमशिव, भाविविक्त, जयन्त, सुमति, पात्रस्वामी, मडन आदि वौद्धेतर दार्शनिक हुए, जिन्होने वौद्ध पक्ष का सडन किया और अपने दर्शन की रक्षा की। ३१४ चार शताब्दी तक चलने वाले इस सघर्ष के फल स्वरूप आठवी-नवी शताब्दी में जैनदार्शनिको में हरिभद्र और अकलक हुए। हरिभद्र ने अनेकान्तजयपताका के द्वारा बौद्ध और इतर सभी दार्शनिको के प्राक्षेपो का उत्तर दिया और उस दीर्घकालीन सघर्ष के मन्धन में से अनेकान्तवादरूप नवनीत सभी के सामने रक्खा, किन्तु इस युग का अपूर्व फल तो प्रमाणशास्त्र ही है और उसे तो अकलक की ही देन समझना चाहिए। दिग्नाग मे लेकर वौद्ध और वौद्धेतर प्रमाणशास्त्र मे जो सघर्ष चला उसके फलस्वरूप अकलक ने स्वतन्त्र जैन दृष्टि से अपने पूर्वाचार्यो की परम्परा को ख्याल में रख कर जैन प्रमाणशास्त्र का व्यवस्थित निर्माण और स्थापन किया। उनके प्रमाणसग्रह न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रय आदि जन्य इसके ज्वलन्त उदाहरण है । अकलक के पहले न्यायावतार और त्रिलक्षणकदर्थन न्यायशास्त्र के ग्रन्थ थे । हरिभद्र की तरह उन्होने भी अनेकान्तवाद का समर्थन विपक्षियो को उत्तर दे करके आप्तमीमासा की टीका अष्टशती मे तथा सिद्धिविनिश्चय में किया है । और नयचक्र की तरह यह भी अनेक प्रस में दिखाने का यत्न किया है कि दूसरे दार्शनिक भी प्रच्छन्नरूप मे अनेकान्तवाद को मानते ही है । हरिभद्र ने स्वतन्त्ररूप से प्रमाणशास्त्र की रचना नही की किन्तु दिग्नागकृत ( ? ) न्यायप्रवेश की टीका करके उन्होने यह सूचित तो किया ही है कि जैन आचार्यों की प्रवृत्ति न्यायशास्त्र की ओर होना चाहिए तथा ज्ञानक्षेत्र मे चौकावाजी नही होना चाहिए। फल यह हुआ कि जैनदृष्टि से प्रमाणशास्त्र लिखा जाने लगा और जैनाचार्यो के द्वारा जैनेतर दार्शनिक या अन्य कृतियो पर टीका भी लिखी जाने लगी। इसके विषय मे भागे प्रसगात् अधिक कहा जायगा । अकलकदेव ने प्रमाणशास्त्र की व्यवस्था इस युग में की यह कहा जा चुका है । प्रमाणशास्त्र का मुख्य विषय प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता और प्रमिति है । इसमे से प्रमाणो की व्यवस्था अकलक ने इस प्रकार की है- प्रमाण अवधि ० प्रत्यक्ष मस्य मन पर्यय० केवल ० साव्यवहारिक इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्ष ( मतिज्ञान ) परोक्ष स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क अनुमान आगम (सज्ञा ) (चिन्ता) (अभिनिबोध ) ( श्रुत) Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन अकलक की इस व्यवस्था का मूलाधार आगम और तत्त्वार्थसूत्र है । आगमो में मति, श्रुत, अवधि, मन पर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान बताये गये है । इनमें से प्रथम के दो इन्द्रिय और मन की अपेक्षा से ही उत्पन्न हो सकते हैं और अन्तिम तीनो की मात्र आत्मसापेक्ष ही उत्पत्ति है । उसमें इन्द्रिय और मन की अपेक्षा नही । अतएव सर्वप्रथम प्राचीन काल में श्रागम में इन पाँचो ज्ञानो का वर्गीकरण निम्न प्रकार हुआ जिसका अनुसरण तत्त्वार्थ और पचास्तिकाय में भी हुआ देखा जाता है प्रत्यक्ष इन्द्रियप्रत्यक्ष प्रत्यक्ष ज्ञान T अवधि मन पर्यय केवल मति श्रुत किन्तु बाद में इस विभागीकरण में परिवर्तन भी करना पडा । उसका कारण लोकानुसरण ही मालूम पडता है, क्योकि लोक मे प्राय सभी दार्शनिक इन्द्रियो से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष ही मानते थे । अतएव जैनाचार्यों आगमकाल में ही ज्ञान के वर्गीकरण में थोडा परिवर्तन लोकानुकूल होने के लिए किया, इसका पता हमें नन्दीसूत्र से चलता है श्रोत्र० घ्राण० जिह्वा० स्पर्शन० चक्षु० (निर्विकल्पक प्रत्यक्ष ) अवधि ० ज्ञान नोइन्द्रियप्रत्यक्ष श्रुतनिश्रित (सविकल्पक प्रत्यक्ष ) मन ० परोक्ष केवल ० मति परोक्ष ३१५ श्रुतनिश्रित । श्रुत उत्पत्तिकी वैनयिकी कार्यिकी पारिणामिकी इससे स्पष्ट है कि नन्दीकार ने इन्द्रियसापेक्ष ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनो में रक्खा । ज्ञान द्विरूप तो हो नही सकता अतएव जिनभद्र ने स्पष्टीकरण किया है कि इन्द्रिय ज्ञान को साव्यवहारिक प्रत्यक्ष मान करके नन्दीकार ने उसे प्रत्यक्ष में भी गिना है वस्तुत वह परोक्ष ही है । नन्दीकार से पहले भी इन्द्रिय ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाणान्तर्गत करने की प्रथा चल पडी थी इसका पता नन्दीसूत्र से भी प्राचीन ऐसे अनुयोगद्वारसूत्र से चलता है— नन्दीकार ने तो उसीका अनुकरण मात्र किया है ऐसा जान पडता है। अनुयोग में प्रमाण विवेचन के प्रसग में निम्न प्रकार से वर्गीकरण है Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ ज्ञानप्रमाण प्रत्यक्ष ___ अनुमान उपमान प्रागम उपमान इन्द्रियप्रत्यक्ष नोइन्द्रियप्रत्यक्ष श्रोत्रेन्द्रियप्र आदि पाँच अवधि मन० केवल इससे स्पष्ट है कि अकलक ने प्रत्यक्ष का जो साव्यवहारिक भेद बताया है, वह आगमानुकूल ही है, वह उनकी नई सूझ नही। किन्तु स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम रूप परोक्ष के पांच भेदो का मति, सज्ञा, चिन्ता, अभिनिवोध और श्रुत के साथ समीकरण ही उनकी मौलिक सूझ है। मति, सज्ञा आदि शब्दो को उमाम्वाति ने एकार्थ बताया है और भद्रबाहु ने भी वैसा ही किया है। किन्तु जिनभद्र ने उन शब्दो को विकल्प से नानार्थक मान कर मत्यादि को ज्ञानविशेष भी सिद्ध किया है। कुछ ऐसी ही परम्परा के आधार पर अकलक ने ऐसा समीकरण उचित समझा होगा। ____ इस प्रकार समीकरण करके अकलक ने प्रमाण के भेदोपभेद की तया प्रमाण के लक्षण, फल, प्रमाता और प्रमेय की व्यवस्था की, वही अभी तक मान्य हुई है । अपवाद सिर्फ है तो न्यायावतार और उसके टीकाकारो का है। न्यायावतार मे प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द ये तीन प्रमाण माने गये थे अतएव उसके टीकाकार भी इन तीनो के ही पृथक् प्रामाण्य का समर्थन करते है। हरिभद्र ने स्वतन्त्र प्रमाणशास्त्र का कोई ग्रन्थ नही बनाया, किन्तु शास्त्रवार्तासमुच्चय में तथा पड्दर्शनसमुच्चय में उन्होने तत्कालीन सभी दर्शनो के प्रमाणो के विषय मे भी विचार किया है। इसके अलावा षोडशक, अष्टक आदि ग्रन्यो मे भी दार्शनिक चर्चा उन्होने की है । लोकतत्त्वनिर्णय समन्वयदृष्टि से लिखी गई उनकी छोटी-सी कृति है। योगमार्ग के विपय में वैदिक और बौद्धवाड्मय में जो कुछ लिखा गया था उसका जैनदृष्टि से समन्वय करना हरिभद्र की जैनशास्त्र को खास देन है। इस विषय के योगविन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविशिका, षोडशक आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध है। उन्होने प्राकृतभाषा में भी धर्मसग्रहणी मे जैनदर्शन का प्रतिपादन किया है। उनकी प्रागमो के ऊपर लिखी गई दार्शनिक टीकाओ का उल्लेख हो चुका है। तत्त्वार्थटीका के विषय में भी लिखा जा चुका है। हरिभद्र की प्रकृति के अनुरूप उनका यह वचन सभी को उनके प्रति आदरशील बनाता है "पक्षपातो न मे वीरे न द्वेष. कपिलादिषु। युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्य. परिग्रहः ॥" -लोकतत्त्वनिर्णय विद्यानन्द इसी काल मे विद्यानन्द हुए। यह युग यद्यपि प्रमाणशास्त्र का था, तथापि इस युग मे पूर्व भूमिका के ऊपर अनेकान्तवाद का विकास भी हुआ है। इस विकास में विद्यानन्दकृत अष्टसहस्री अपना खास स्थान रखती है। विद्यानन्द ने तत्कालीन सभी दार्शनिको के द्वारा अनेकान्तवाद के ऊपर किये गये आक्षेपो का तर्कसंगत उत्तर दिया है। अष्टसहनी कष्टसहस्री के नाम से विद्वानो में प्रसिद्ध है। विद्यानन्द की विशेषता यह है कि प्रत्येक बादी को उत्तर देने के लिए प्रतिवादी खडा कर देना। यदि प्रतिवादी उत्तर दे और तटस्थ व्यक्ति वादिप्रतिवादि दोनों का Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन ३१७ निर्बलता को जब समझ जाय तब ही विद्यानन्द अनेकान्तवाद के पक्ष को समर्थित करता है इससे वाचक के मन पर अनेकान्तवाद का औचित्य पूर्णरूप से जँच जाता है । विद्यानन्द ने इस युग के अनुरूप प्रमाणशास्त्र के विषय में भी लिखा है । इस विषय मे उनका स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रमाणपरीक्षा है । तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक में भी उन्होने प्रमाणशास्त्रसे सम्बद्ध अनेक विषयो की चर्चा की है। इसके अलावा आप्तपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, युक्त्यनुशासनटीका आदि ग्रन्थ भी विद्यानन्द ने लिखे है । वस्तुत प्रकलक का भाष्यकार विद्यानन्द है । अनन्तकीर्ति इन्ही के समकालीन प्राचार्य अनन्तकीर्ति है । उन्होने सिद्धिविनिश्चय के अाधार से सिद्धयन्त ग्रन्थो की रचना की है । सिद्धिविनिश्चय में सर्वज्ञसिद्धि एक प्रकरण है। मालूम होता है उसीके आधार पर उन्होने लघुसर्वज्ञसिद्धि श्रीर वृहत्सर्वज्ञसिद्ध नामक दो प्रकरण ग्रन्थ बनाये । और सिद्धिविनिश्चय के जीवसिद्धिप्रकरण के आधार पर जीवसिद्धि नामक ग्रन्थ बनाया । जीवसिद्धि उपलब्ध नही । सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार अनन्तवीर्यं द्वारा उल्लिखित अनन्त कीर्ति यही हो तो कोई श्राश्चर्य की बात नही । वादिराज ने भी एक जीव सिद्धि के कर्ता अनन्तकीर्ति का उल्लेख किया है । शाकटायन इसी युग की एक और विशेषता पर भी विद्वानो का ध्यान दिलाना आवश्यक है । जैनदार्शनिक जब वादप्रवीण हुए तब जिस प्रकार उन्होने अन्य दार्शनिको के साथ वादविवाद में उतरना शुरू किया इसी प्रकार जैनसम्प्रदाय गत मतभेदो को लेकर आपस मे भी वादविवाद शुरू कर दिया । परिणामस्वरूप इसी युग में यापनीय शाकटायन ने स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्ति नामक स्वतन्त्र प्रकरणो की रचना की जिनके आधार पर श्वेताम्बरो और दिगम्बरो के पारस्परिक खडन ने अधिक जोर पकडा । शाकटायन अमोघवर्ष का समकालीन है क्योकि इन्ही की स्मृति में शाकटायन ने अपने व्याकरण की अमोघवृत्ति बनाई है । अमोघवर्ष का राज्यकाल वि० ८७१-९३४ है । अनन्तवीर्य अकलक के सिद्धिविनिश्चय की टीका ग्रनन्तवीर्य ने लिख कर अनेक विद्वानो के लिए कटकाकीर्ण मार्ग को प्रशस्त किया है । प्रभाचन्द्र ने इनका स्मरण किया है । तथा शान्त्याचार्य ने भी इनका उल्लेख किया है । इनके विवरण के अभाव में अकलक के सक्षिप्त और सारगर्भ सूत्रवाक्य का अर्थ समझना ही दुस्तर हो जाता । जो कार्य अष्टशती की टीका प्रष्टसहस्री लिख कर विद्यानन्द ने किया वही कार्य सिद्धिविनिश्चय का विवरण लिख कर अनन्तवीर्य ने किया, इसी भूमिका के बल से प्राचार्य प्रभाचन्द्र का अकलक के ग्रन्थो मे प्रवेश हुआ और न्यायकुमुदचन्द्र जैसा सुप्रसन्न और गम्भीर ग्रन्थ अकलककृत लघीयस्त्र्य की टीकारूप से उपलब्ध हुआ । माणिक्यनदी - सिद्धर्षि अकलक ने जैनप्रमाणशास्त्र - जैनन्यायशास्त्र को पक्की स्वतन्त्रभूमिका पर स्थिर किया यह कहा जा चुका है । माणिक्यनन्दी ने दसवी शताब्दी में अकलक के वाड्मय के आधार पर ही एक 'परीक्षामुख' नामक सूत्रग्रन्थ की रचना की । परीक्षामुख ग्रन्थ जैन न्यायशास्त्र के प्रवेश के लिए अत्यन्त उपयुक्त ग्रन्थ है, इतना ही नही किन्तु उसके वाद होनेवाले कई सूत्रात्मक या अन्य जैन प्रमाण ग्रन्थो के लिए आदर्शरूप भी सिद्ध हुआ है, यह नि सन्देह है । सिद्धर्षि ने इसी युग मे न्यायावतार टीका लिख कर सक्षेप में प्रमाणशास्त्र का सरल और मर्मग्राही ग्रन्थ विद्वानो के सामने रखा है । किन्तु इसमें प्रमाणभेदो की व्यवस्था अकलक से भिन्न प्रकार की है। इसमे परोक्ष के मात्र अनुमान और आगम ये दो भेद ही माने गये है । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन - प्रथ अभयदेव अभयदेव ने सम्मतिटीका में अनेकान्तवाद का विस्तार और विशदीकरण किया है क्योकि यही विषय मूल सम्मति मे है । उन्होने प्रत्येक विषय को लेकर लम्बे-लम्बे वादविवादो की योजना करके तत्कालीन दार्शनिक सभी वादो का संग्रह विस्तारपूर्वक किया है। योजना मे क्रम यह रक्खा है कि सर्वप्रथम निर्बलतम पक्ष उपस्थित करके उसके प्रतिवाद में उत्तरोत्तर ऐसे पक्षो को स्थान दिया है, जो क्रमश निर्वलतर, निर्बल, सवल और सवलतर हो । अन्त में सवलतम अनेकान्तवाद के पक्ष को उपस्थित करके उन्होने उम वाद का स्पष्ट ही श्रेष्ठत्व सिद्ध किया है । सन्मतिटीका को तत्कालीन सभी दार्शनिक ग्रन्थो के दोहनरूप कहें तो उचित ही है । अनेकान्तवाद के अतिरिक्त तत्कालीन प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता और फलविषयक प्रमाणशास्त्र की चर्चा को भी उन्होने उक्त क्रम से ही रख कर जैनदृष्टि से होनेवाले प्रमाणादि के विवेचन को उत्कृप्ट सिद्ध किया है । इस प्रकार इस युग की प्रमाणशास्त्र की प्रतिष्ठा मे भी उन्होने अपना हिस्सा अदा किया है। अभयदेव का समय वि० १०५४ मे पूर्व ही सिद्ध होता है क्योकि उनका शिष्य श्राचार्य धनेश्वर मुज की सभा मे मान्य था और इसीके कारण धनेश्वर का गच्छ राजगच्छ कहलाया है । मुज की मृत्यु वि० १०५४ के आमपास हुई है । ३१८ प्रभाचन्द्र किन्तु इस युग का प्रमाणशास्त्र का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ प्रमेयकमलमातंड ही है इसमें तो मन्देह नही । इसके कर्ता प्रतिभासम्पन्न दार्शनिक प्रभाचन्द्र है । प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र की रचना लघीयस्त्रय की टीकास्प से की है उसमे भी मुख्यरूप से प्रमाणशास्त्र की चर्चा हैं । परीक्षामुखग्रन्थ जिसकी टीका प्रमेयकमलमार्तंड है, लघीयम्नय, न्यायविनिश्चय आदि अकलक की कृतियो का व्यवस्थित दोहन करके लिखा गया है। उसमे अकलकोक्त विप्रकीर्ण प्रमाणशास्त्रसम्बद्ध विषयो को क्रमवद्ध किया गया है। अतएव इसकी टीका में भी व्यवस्था का होना स्वाभाविक है । न्यायकुमुदचन्द्र में यद्यपि प्रमाण शास्त्रसम्बद्ध सभी विषयो की सम्पूर्ण और विस्तृत चर्चा का यत्रतत्र समावेश प्रभाचन्द्र ने किया है और नाम से भी उन्होने इसे ही न्यायशास्त्र का मुख्यग्रन्थ होना सूचित किया है, फिर भी प्रमाणशास्त्र की दृष्टि से क्रमवद्ध विषयपरिज्ञान प्रमेयकमलमार्तड से ही हो सकता है, न्यायकुमुदचन्द्र से नहीं । अनेकान्तवाद का भी विवेचन पद-पद पर इन दोनो ग्रन्थो मे हुआ है । शाकटायन के स्त्रीमुक्ति और केवलिभुक्तिप्रकरण के आधार से अभयदेव ने स्त्रीमोक्ष और केवलिकवलाहार सिद्ध करके श्वेताम्वरपक्ष को पुष्ट किया और प्रभाचन्द्र ने शाकटायन की प्रत्येक दलील का खडन करके केवलिकवलाहार और स्त्रीमोक्ष का निषेध करके दिगम्बर पक्ष को पुष्ट किया । इस युग के अन्य श्वेताम्वरदिगम्वराचार्यो ने भी इन विषयो की चर्चा अपने ग्रन्थो में की है । प्रभाचन्द्र मुज के बाद होनेवाले धाराधीश भोज और जयसिंह का समकालीन है क्योकि अपने ग्रन्थो की प्रशस्तियो मे वह इन दोनो राजाओ का उल्लेख करता है । प० महेन्द्र कुमारजी ने प्रभाचन्द्र का समय वि० १०३७ से ११२२ अनुमानित किया है । वादिराज वादिराज और प्रभाचन्द्र समकालीन विद्वान है । सम्भव है वादिराज कुछ बडे हो । वादिराज ने अकलक के न्यायविनिश्चय का विवरण किया है । किसी भी वाद की चर्चा मे कजूसी करना वादिराज का काम नही । सैकडो ग्रन्थो के उद्धरण देकर वादिराज ने अपने ग्रन्थ को पुष्ट किया है । न्यायविनिश्चय मूल ग्रन्थ भी प्रमाणशास्त्र का Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन ३१६ ग्रन्थ है । श्रतएव न्यायविनिश्चयविवरण भी प्रमाणशास्त्र का ही ग्रन्थ है । उसमे अनेकान्तवाद की पुष्टि भी पर्याप्त मात्रा में की गई है । प्रज्ञाकरकृत प्रमाणवार्तिकालकार का उपयोग और खडन दोनो इसमे मौजद है । जिनेश्वर, चन्द्रप्रभ और अनन्तवीर्य कुमारिल ने मीमामा श्लोकवार्तिक लिखा, धर्मकीर्ति ने प्रमाणवार्तिक, अकलक ने राजवार्तिक और विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक लिखा । किन्तु श्वेताम्वराचार्यों में से किमी ने वार्तिक की रचना की 'न थी । यद्यपि हरिभद्र ने गद्य और पद्य दोनो में लिखा था । अभयदेव ने तो सन्मति को इतनी बडी टीका लिखी कि वह वादमहार्णव के नाम यात हुई । किन्तु वार्तिक नामक कृति का अभाव ही था । इसीसे कोई नासमझ यह प्राक्षेप करते होंगे कि श्वेताम्बरो के पास अपना कोई वार्तिक नही । इमी ग्राक्षेप के उत्तर मे जिनेश्वर ने वि० १०६५ के आसपास मालक्ष्म नामक न्यायावत ।र के वार्तिक की रचना की । इसमें अन्य दर्शनी के प्रमाणभेद और लक्षणो का खडन करके न्यायावतार समत परोक्ष के दो भेद स्थिर किये गये है । यह कृति प्रमेयरत्नकोप जितनी मक्षिप्त नही और न वादमहार्णव जितनी वडी । किन्तु मध्यमपरिमाण की है । विद्यानन्द के श्लोकवार्तिक की तरह इसकी व्याख्या भी स्वोपज्ञ ही है । वि० म० ११४९ मे पौर्णमिकगच्छ के म्यापक प्राचार्य चन्द्रप्रभमूरि ने प्रमेयरत्नकोष नामक एक सक्षिप्त ग्रन्थ लिखा है । विस्तीर्णसमुद्र के श्रवगाहन में जो गक्त है ऐसे मन्दबुद्धि अभ्यासी के लिए यह ग्रन्थ नौका का कार्य देने वाला है । इसमें कुछ वादो को सरल और सक्षिप्त रुप मे ग्रथित किया गया है । चन्द्रप्रभसूरि के ही समकालीन प्राचार्य अनन्तवीर्य ने भी प्रमेयकमलमार्तंड के प्रखर प्रकाश से चकाचौंध हो जाने वाले अल्पशक्ति जिज्ञासु के हितार्थ सौम्यप्रभायुक्त छोटी-सी प्रमेयरत्नमाला का परीक्षामुख की टीका के रूप में गुम्फन किया । वादी देवसूरि अपने समय तक प्रमाणशास्त्र और अनेकान्तवाद में जितना विकास हुआ था तथा अन्य दर्शन में जितनी दार्शनिक चर्चाएँ हुई थी उन सभी का सग्रह करके स्याद्वादरत्नाकर नामक वृहत्काय टीका वादी देवसूरि ने स्वोपज्ञ प्रमाणनयतत्त्वालोक नामक मूत्रात्मक ग्रन्थ के ऊपर लिखी । इस ग्रन्थ को पढने मे न्यायमजरी के समान काव्य का रसास्वाद मिलता है । वादीदेव ने प्रभाचन्द्रकृत स्त्रीमुक्ति और केवलिमुक्ति की साप्रदायिक चर्चा का भी श्वेताम्बर दृष्टि से उत्तर दिया है। उनका प्रमाणनयतत्वालोक परीक्षामुख का अनुकरण तो है ही, किन्तु नय परिच्छेद और वाद परिच्छेद नामक दो प्रकरण जो परीक्षामुख मे नही थे, उनका इसमें सन्निवेश इसकी विशेषता भी है । स्याद्वादरत्नाकर मे प्रमेयकमलमार्तंडादि अन्य ग्रन्थगत वादो का शव्दत या अर्थत उद्धरण करके ही वादि देवसूरि सन्तुष्ट नही हुए है किन्तु प्रभाचन्द्रादि अन्य श्राचार्यों ने जिन दार्शनिको के पूर्वपक्षो का उत्तर नही दिया था, उनका भी समावेश करके उनको उत्तर दिया है और इस प्रकार अपने समय तक की चर्चा को सर्वाश मे सम्पूर्ण करने का प्रयत्न किया है । इनका जन्म वि० ११४३ और मृत्यु १२२६ में हुई । हेमचन्द्र वादी देवसूरि के जन्म के दो वर्ष बाद १९४५ में सर्वशास्त्रविशारद आचार्य हेमचन्द्र का जन्म और वादि देवसूरि की मृत्यु के तीन वर्ष वाद उनकी मृत्यु हुई है ( १२२९) । आचार्य हेमचन्द्र ने अपने समय तक के विकसित प्रमाणशास्त्र की सारभूत वाते लेकर प्रमाणमीमासा की सूत्रबद्ध ग्रन्थ के रूप में रचना की है । और स्वयं उसकी व्याख्या की है । हेमचन्द्र ने अपनी प्रतिभा के कारण कई जगह अपना विचारस्वातन्त्र्य भी दिखाया है । व्याख्या में भी उन्होने प्रति सक्षेप या प्रति विस्तार का त्याग करके मध्यममार्ग का अनुसरण किया है। जैनन्यायशास्त्र के Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन - प्रथ ३२० प्रवेश के लिए यह अतीव उपयुक्त ग्रन्थ है । दुर्भाग्यवश यह ग्रन्थ प्रपूर्ण ही उपलब्ध होता है । आचार्य हेमचन्द्र ने समन्तभद्र के युक्त्यनुशासन का अनुकरण करके अयोगव्यवच्छेदिका और श्रन्ययोगव्यवच्छेदिका नामक दो दार्शनिक द्वात्रिंशिकाएँ रची। उनमें से गन्ययोगव्यवच्छेदिका की टीका मल्लिषेणकृत स्याद्वादमजरी अपनी प्रसन्न गम्भीर शैली के कारण तथा सर्वदर्शनसारसग्रह के कारण प्रसिद्ध है । शान्त्याचार्य इस युग में हेमचन्द्र के समकालीन और उत्तरकालीन कई श्राचार्यों ने प्रमाणशास्त्र के विषय में लिखा है उसमे शान्त्याचार्य जो १२वी शताब्दी मे हुए अपना खास स्थान रखते है । उन्होने न्यायावतार का वार्तिक स्वोपज्ञ टीका के साथ रचा। और अकलक स्थापित प्रमाणभेदो का खडन करके न्यायावतार की परम्परा को फिर से स्थापित किया । रत्नप्रभ देवसूरि के ही शिष्य और स्याद्वादरत्नाकर के लेखन में सहायक रत्नप्रभरि ने स्याद्वादरत्नाकर मे प्रवेश सुगमता की दृष्टि से अवतारिका बनाई । उसमे सक्षेप से दार्शनिक गहनवादो की चर्चा की गई है । इस दृष्टि से अवतारका नाम सफल है, किन्तु भाषा की आडम्बरपूर्णता ने उमे रत्नाकर से भी कठिन बना दिया है। फिर भी वह अभ्यासियो के लिए काफी आकर्षण की वस्तु रही है। इसका अन्दाजा उसको टोकोपटीका की रचना मे लगाना सहज है । इसी रत्नाकरावतारिका के बन जाने मे श्वेताम्बराम्नाय से म्याद्वादरत्नाकर का पठन-पाठन बन्द हो गया । फलत आज स्याद्वादरत्नाकर जैसे महत्त्वपूर्ण गन्य की सम्पूर्ण एक भी प्रति प्रयत्न करने पर भी अभी तक उपलब्ध नही हो सकी है । सिंह - व्याघ्र शिशु वादीदेव के ही समकालीन आनन्दसूरि और श्रमरसूरि हुए जो अपनी वाल्यावस्था से ही वाद में प्रवीण थे और उन्होने कई वादियो को बाद में पराजित किया था । इसीके कारण दोनो को सिद्धराज ने क्रमश 'व्याघ्रणिशुक' और 'सिंहशिशुक' की उपाधि दी थी । इनका कोई ग्रन्थ अभी उपलब्ध नही यद्यपि श्रमरचन्द्र का सिद्धान्तार्णव ग्रन्थ था। सतीशचन्द्र विद्याभूषण का अनुमान है कि गगेश ने सिंह-व्याघ्र व्याप्तिलक्षण नामकरण में इन्ही दोनो का उल्लेख किया हो, यह सम्भव है । रामचन्द्र आदि आचार्य हेमचन्द्र के विद्वान शिष्यमडल मे से रामचन्द्र - गुणचन्द्र ने सयुक्तभाव से द्रव्यालकार नामक दार्शनिक कृति का निर्माण किया है, जो अभी अप्रकाशित है । स० १२०७ मे उत्पादादिसिद्धि की रचना श्री चन्द्रसेन प्राचार्य ने की। इसमे वस्तु का उत्पादव्यय धौव्यरूप त्रिलक्षण का समर्थन कर अनेकान्तवाद की स्थापना की गई है । १४ वी शताब्दी के आरम्भ मे अभयतिलक ने न्यायालकार टिप्पण लिख कर हरिभद्र के समान उदारता का परिचय दिया । यह टिप्पण न्यायसूत्र की क्रमिक पाँचो टीका भाष्य, वार्तिक, तात्पर्य, परिशुद्धि और श्रीककृत न्यायालकार का टिप्पण है । सोमतिलक की षड्दर्शन समुच्चय टीका वि० १३८६ मे वनी । किन्तु पन्द्रहवी शताब्दी मे होने वाले गुणरत्न ने जो षड्दर्शन की टीका लिखी वही उपादेय बनी है । इसी शताब्दी में मेरुतुग ने भी पड्दर्शन निर्णय नामक ग्रन्थ लिखा । राजशेखर जो पन्द्रहवी के प्रारम्भ में हुए उन्होने षड्दर्शनसमुच्चय, स्याद्वादकलिका, रत्नाकरावतारिका पजिका इत्यादि ग्रन्थ लिखे । और ज्ञानचन्द्र ने रत्नाकरावतारिका पजिकाटिप्पण लिखा । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दार्शनिक साहित्य का सिंहावलोकन ३२१ राजशेखर जैनदर्शन के अन्य लिख कर ही सन्तुष्ट नही हुए। उन्होने प्रशस्तपादभाष्य की टीका कदली के पर भी पजिका लिख कर हरिभद्र और अभयतिलक के मार्ग का अनुसरण किया। १५वी शताब्दी में साधुविजय ने वादविजयप्रकरण और हेतुखडन ये दो ग्रन्थ लिखे। इस प्रकार अकलक के द्वारा प्रमाणशास्त्र की प्रतिष्ठा होने पर इस क्षेत्र में जो जैनदार्शनिको की सतत साधना रही है इसका दिग्दर्शन पूर्ण होता है। और साथ ही नये युग का प्रारम्भ होता है। भट्टारक धर्मभूषण ने 'न्यायदीपिका' इसी युग में लिखी है। (४) नवीनन्याय युग वि० तेरहवी सदी में गगेश नामक प्रतिभासम्पन्न तार्किक महान् नैयायिक हुए । न्यायशास्त्र में नवीन न्याय का युग इन्ही मे प्रारम्भ होता है। इन्होने नवीन परिभाषा मे नूतनशैली मे तत्वचिन्तामणि नामक ग्रन्य की रचना की। इसका मुख्य विषय प्रत्यक्षादि नैयायिक प्रसिद्ध चार प्रमाण है। चिन्तामणि के टोकाकारो ने इस नवीनन्याय के अन्य का उत्तरोत्तर इतना महत्त्व वढाया कि न्यायशास्त्र अव प्राचीन और नवीन इन दो विभागो मे विभक्त हो गया। इतना ही नहीं अन्य वेदान्ती, वैशेषिक, मीमासक आदि दार्शनिको ने भी अपने-अपने दर्शन को इस नवीन शैली का उपयोग करके परिष्कृत किया। स्थिति ने इतना पलटा खाया कि इस नवीन न्याय की शैली मे प्रवीण हुए बिना कोई भी दार्शनिक मभी दर्शनो के इस विकाम का पारगामी हो नही मकता। इतना होते हुए भी जैन दार्शनिको मेसे किमी का ध्यान इस ओर वि० सत्रहवी शताब्दी के अन्त तक गया नहीं। वादी देवसूरि की मृत्यु के ३१ वर्ष वाद गगेम का जन्म वि० १२५७ मे हुआ और उन्होने शैली का परिवर्तन किया। किन्तु जैन दार्शनिको ने गगेश के बाद भी जो कुछ वादी देव सूरि ने किया था उसी के गीत गाये। फल यही हुआ कि जनदर्शन इन पांच शताब्दियो मे होने वाले दार्शनिक विकास से वचित ही रहा । इन पांच शताब्दियो मे इस नवीन प्रकाश मे अन्य दार्शनिको ने तो अपने दर्शन का परिष्कार कर दिया किन्तु जैनदर्शन इस नवीन शैली को न अपनाने के कारण अपरिष्कृत ही रह गया। यशोविजय सत्रहवी शताब्दी के अन्त के साथ ही जनसघ की इस घोर निद्रा का भी अन्त हुआ। स. १६६६ में अहमदावाद के सघ ने प० यशोविजय मे उस प्रतिभा का दर्शन किया जिस से जैनदर्शन की इस क्षति की पूर्ति होना सम्भव था। शेठ धनजी सुराकी विनति मे प० यशोविजय को लेकर उनके गुरु आचार्य नयविजय ने विद्यावाम काशी की ओर विहार किया। वहाँ यशोविजयजी ने सभी दर्शनो का तया अन्य शास्त्रो का पाण्डित्य प्राप्त करके न्यायविशारद की पदवी प्राप्त की। और उन्होने अकेले ही जैनदर्शन की उक्त क्षति की पूर्ति की। अनेकान्तव्यवस्था नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ नवीन न्यायशैली में लिखकर जैनदर्शन के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त अनेकान्तवाद का परिष्कार किया। इसी प्रकार जैनतर्कभाषा और ज्ञानविन्दु लिख कर जैनदर्शन की ज्ञानविषयक और प्रमाणविषयक परिभाषा को परिष्कृत किया। नयप्रदीप, नयरहस्य और नयामृततरगिणी नामक स्वोपज्ञ टोका के साथ नयोपदेश लिख कर नयवाद का परिष्कार किया। न्यायखडखाद्य और न्यायालोक में नवीनशैली मे ही नैयायिकादि दार्शनिको के मिद्धान्तो का खडन किया। इसके अलावा अनेकान्तवाद का उत्कृष्ट प्राचीन ग्रन्थ अष्टसहस्री का विवरण लिख कर तथा हरिभद्रकृत शास्त्रवासिमुच्चय की टीका स्याद्वादकल्पलता लिख कर इन दोनो ग्रन्यो को अद्यतन रूप दे दिया। भाषारहस्य, प्रमाणरहस्य, वादरहस्य आदि रहस्यान्त अनेक ग्रन्य नवीन न्याय की परिभापा मे लिख कर जैनदर्शन मे नये प्राण का सचार कर दिया। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૨૨ प्रेमी-अभिनदन-प्रय पगोरिजय ने एप सिर्फ दर्शन के विषय में ही लिखा हो यह बात नहीं। आगमिक अनेक गहन विषयो पीनान ना, अध्यान्नमात्र की चर्चा, योगशाल, अलकार और आचारशास्त्र को चर्चा करने वाले भी अनेक पाहिल्या प्रन्या की रचना करके जैनवाड्मय को उन्नत भूमिका के ऊपर स्थापित करके सर्वशास्त्रवैशारद्य का न दिया है। नदगंनमान्य वा नवीनन्याय का यह युग यशोविजययुग कहा जा सकता है, क्योकि अकेले यशोविजय के ही माहित मे उन यग का दागनिक नाहित्य भडार पुष्ट हुआ है। दूसरे विद्वानो ने कुछ छोटी-मोटी गिनती की पुस्तको पी ग्नना दागंनियक्षम मे को है सही किन्तु यशोविजय-साहित्य के सामने उन सभी का मूल्य नगण्य है । यशस्वत्सागरादि इस युग म म० १७५७ में विद्यमान यशस्वनसागर ने सप्तपदार्या, प्रामाण्यवादार्थ, वादार्थनिरूपण, म्याद्वादगुलावली जैसे दार्गनिक गन्यो की रचना की। दिगम्बर विद्वान् विमलदास ने 'सप्तभगी तरगिणी' नामक ग्रन्थ का प्रणयन नवीन न्याय की शैली में दिया है। यगोविजयन्यापित परम्परा का इस वीमवी सदी में फिर से उद्धार हुना है। प्रा. विजयनेमि का मिप्यगण नवीनन्याय का अध्ययन करके यशोविजय के साहित्य की टोकारो का निर्माण करने लगा है। सामो] - - - - - - - Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम सांख्य श्री जैनेंद्रकुमार आदमी ने जव से अपने होने को अनुभव किया तभी से यह भी पाया कि उसके अतिरिक्त शेष भी है । उसकी अपेक्षा मे वह स्वय क्या है और क्यो है ? अथवा कि जगत् ही उसकी अपेक्षा में क्या है और क्यो है ? दोनो में क्या परस्परता और तरतमता है ?--द्वैत-बोध के साथ ये सब प्रश्न उसके मन में उठने लगे। प्रश्न में से प्रयत्न आया। आदमी मे सतत प्रयत्न रहा कि प्रश्न को अपने मे हल कर ले। पर हर उत्तर नया प्रश्न पैदा कर देता रहा और जीवन, अपनी सुलझन मे और उलझन मे, इसी तरह वढता रहा । सत्य यदि है तो आकलन में नही जमेगा । ऐमे सत्य सात और जड हो जायगा। जिसका अन्त है, वह और कुछ हो, सत्य वह नही रहता। पर मनुष्य अपने साथ क्या करे? चेष्टा उससे छूट नही सकती। उसके चारो ओर होकर जो है, उससे निरपेक्ष बनकर वह जी नही सकता। प्रत्येक व्यापार उसे शेप के प्रति उन्मुख करता है। वह देखता है तो वर्ण, सुनता है तो शब्द, छूता है तो वस्तु। इस तरह हर क्षग के हर व्यापार मे वह अनुभव करता है कि कुछ है, जो वह नहीं है । वह अन्य है और अज्ञात है । प्राप्त है और अप्राप्त है। यदि सत्य है तो हर पल वन-मिट रहा है। यदि माया है तो हर क्षण प्रत्यक्ष है। __ अपने माथ लगे इस शेष के प्रति मनुष्य की कामना और क्रीडा, उसकी जिज्ञासा और जिघासा, कभी भी मन्द नही हुई है। आदमी ने चाहा है कि वह सबको अपनी समझ में विठा ले, या समझ से मिटा दे। किसी तरह सब मे, या सव से, वह मुक्त हो । उसके अपने प्रात्म के बाहर यह जो अनात्म है, इसको स्वीकृति से, सत्ता से, परता से किसी तरह वह उत्तीर्ण हो जाये। या तो उसे बाँध कर वश में कर ले, या तर्क के ज़ोर से गायब कर दे, या नही तो फिर अपने को ही उसमेखो दे। अनात्म के मध्य आत्म अवरुद्ध है। या तो परत्व मिटे, या सव स्व-गत हो, या फिर स्वत्व ही मिट जाय। अपने चारो ओर के नाना रूपाकार जगत् को मनुष्य ने चाहा कि पा ले, पकड ले, और ठहरा कर अपने में ले ले। सत्य को अपने से पर रहने दे कर वह चैन से नहीं जी सका। छटपटाता ही रहा कि उसे म्वकीय करे। इस मुक्ति की या पूर्णता को अकुलाहट मे मनुष्य ने नाना धर्मो, साधनाओ और दर्शनो को जन्म दिया। मुक्ति की अोर का प्रयल जव मनुष्य का सर्वांगीण और पूर्ण प्राणपण से हुआ तव दर्शन उत्पन्न नहीं हुआ। तव व्यक्तित्व को ही परिष्कार मिला। सीमाएँ मिट कर उसमे समष्टि को विराटता आई। दर्शन नब उससे स्वत फूटा । धर्मों के आदि स्रोत ऐसे ही पुरुष हुए। उन्होने दर्शन दिया नही। देने को उनके पास अपनी आत्मरूपता ही रही। परिणाम में वे एकसाथ सव दर्शनो के लिए सुगम और अगम वन गये। दर्शन वनता और मिलता है तब जब प्राणो की विकलता की जगह बुद्धि की तीव्रता से प्रयत्न किया जाता है। स्पष्ट ही यह प्रयत्न अविकल न होकर एकागी होता है। इसमें व्यक्ति 'असल नहीं उसकी तस्वीर' ही पाता है। इस तरह वह स्वय (सत्य का) प्रकाश नहीं होता, या प्रकाश नहीं देता, बल्कि शब्दो अथवा तों के सयोजन द्वारा उस प्रकाशनीय तत्त्व का वर्णन देता है। । अत दर्शनकार वे है जो सत्य जीते नही, जानते है । जीने द्वारा सत्य सिद्ध होता है। वैसा सत्य जीवन को भी सिद्धि देता है। पर जानने द्वारा सत्य सीमित होता है और ऐसा सत्य जीवन को भी सीमा देता है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ प्रेमी-अभिनंदन-प्रय जीवन में से धर्म प्राप्त होता है। प्रयत्न मे से दर्शन । यह दर्शन भी द्विविध । एक सीधा देखा गया। दूसरा अनुमाना गया। प्राच्य और पाश्चात्य दर्शनो में अधिकाश यह अन्तर है। पहले प्रादर्श की एकता से ययार्थ को अनेकता पर उतरते है। दूसरे तल को विविधता से आरम्भ करके तर्कश शिखर की एकता की ओर उठते है। प्राच्य दर्शनो का आरम्भ इसीसे ऋषियो से होता है, जो जानने से अधिक सावते थे। यहाँ के दर्शनो की पूर्व-पीठिका है उपनिषद्, जो काव्य है। उनमें प्रतिपादन अथवा अकन नहीं है। उनमे केवल अभिव्यजन और गायन है। हृदय द्वारा जब हम निखिल को पुकारते और पाते है तव शब्द अपनी सार्थकता का अतिक्रमण करके छद और लय का रूप ले उठते है। तब उनमें से बोध और अर्थ उतना नही प्राप्त होता, जितना चैतन्य और स्पन्दन प्राप्त होता है। वे बाहर का परिचय नहीं देते, भीतर एक स्फूर्ति भर देते है। किन्तु सबुद्धि मानव उसे अखड रूप से अनुभूति में लेकर स्वय अभिभूत हो रहने से अधिक उसे शब्द में नापआक कर लेना चाहता है। ऐसे सत्य उसका स्वत्व बन जाता है । शब्द में नपतुल कर वह मानो सग्रहणीय और उपयोगी वनता है। उसे अको में फैला कर हम अपना हिसाव चला सकते है और विज्ञान बना सकते है । शिशु ने ऊपर आसमान में देखा और वह विह्वल हो रहा । शास्त्री ने धरती पर नकशा खीचा और उसके सहारे आकाश को ग्रह-नक्षत्रो मे बाँट कर उसने अपने काबू कर लिया। ___ शब्दो का और अको का यह गणित हुआ आयुध जिससे बौद्धिक ने सत्य को कीलित करके वश मे कर लिया। असख्य को सख्या दे दी, अनन्त को परिमाण दे दिया, अछोर को प्राकार पहनाया और जो अनिर्वचनीय या शब्दो द्वारा उसी को धारणा में जड लिया। उद्भट बौद्धिको का यह प्रयत्न तपस्वी साधको की साधना के साथ-साथ चलता रहा। मेरा मानना है कि जैन धर्म से अधिक दर्शन है, और वह दर्शन परम साख्य और परम वौद्ध है। उसका आरम्भ श्रद्धा एव स्वीकृति से नही, पश्चिम के दर्शनो की भाँति तर्क से है । सम्पूर्ण मत्य को गन्द और अक में विठा देने की स्पर्धा यदि किसी ने अटूट और अथक अध्यवसाय से की है तो वह जैन-दर्शन ने। वह दर्शन गणित की अभूतपूर्व विजय का स्मारक है।। जगत् अखड होकर अज्ञेय है। जैन-तत्त्व ने उसे खड-खड करके सम्पूर्णता के साथ ज्ञात बना दिया है । "जगत् क्या है ?" चेतन-अचेतन का समवाय । "चेतन क्या है ?" हम सब जीव। "जीव क्या है ?" जीव है आत्मा। असख्य जीव सब अलग-अलग प्रात्मा है। "अचेतन क्या है ?" मुख्यता से वह पुद्गल है। "पुद्गल क्या है ?" वह अणु रूप है। "पुद्गल से शेष अजीवतत्त्व क्या है ?" काल, आकाश आदि। "काल क्या है ?" Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम साख्य ३२५ वह भी अणु रूप है। "आकाश क्या है ?" अनन्त प्रदेशी है। "आदि क्या?" "चलना ठहरना जो दीखता है, उसके कारण रूप तत्त्व इस आदि में आते है।" इस तरह सम्पूर्ण सत्ता को, जो एक और इकट्ठी होकर हमारी चेतना को अभिभूत कर लेती है, अनन्त अनेकता मे बाँट कर मनुष्य की बुद्धि के मानो वशीभूत कर दिया गया है । आत्मा असख्य है, अणु असख्य और अनन्त है। उनकी अपनी सत्यता मानो सीमित और परिमित है । यह जो अपरिसीम सत्ता दिखाई देती है केवल-मात्र उम सीमित सत्यता का ही गुणानुगुणित रूप है। __ जैन-दर्शन इस तरह शब्द और अक के सहारे उस भीति को और विस्मय को समाप्त कर देता है, जो व्यक्ति सीधी आँखो इस महाब्रह्माड को देख कर अपने भीतर अनुभव करता है। उसी महापुलक, विस्मय और भीति के नीचे मनुष्य ने जगत्- कर्ता, जगद्धत्ता, परमात्मा, परमेश्वर आदि रूपो की शरण ली है। जैन-दर्शन उसको मनुष्य के निकट अनावश्यक वना देना चाहता है। परमात्मत्व को इसलिए उसने असख्य जीवो मे बखेर कर उसका मानो प्रातक और महत्त्व हर लिया है। ब्रह्माड की महामहिमता को भी उसी प्रकार पुद्गल के अणुप्रो मे छितरा कर मानो मनुष्य की मुट्ठी मे कर देने का प्रयास किया है। जैन-दर्शन की इस असीम स्पर्धा पर कोई कुछ भी कहे, पर गणित और तर्कशास्त्र के प्रति उसको ईमानदारी अपूर्व है। मूल मे सीधी मान्यताओ को लेकर उमी आधार पर नर्क-शुद्ध उस दर्शन की स्तूपाकार रचना खडी की गई। मै हूँ, यह सबुद्धि मनुष्य का प्रादि सत्य है । मै क्या हूँ? निश्चय हाथ-पांव आदि अवयव नही हूँ, इस तरह शरीर नही हूँ। जरूर, कुछ इससे भिन्न हूँ। भिन्न न होऊँ तो शरीर को मेरा कहने वाला कौन रहे ? इसमे मै हूँ आत्मा। मेरे होने के माथ तुम भी हो। तुम अलग हो, मै अलग हूँ। तुम भी प्रात्मा हो और तुम अलग आत्मा हो । इस तरह आत्मा अनेक है। अव शरीर मै नही हूँ। फिर भी शरीर तो है। और मै आत्म हूँ। इससे शरीर अनात्म है। अनात्म अर्थात् अजोव, अर्थात् जड। . इस आत्म और अनात्म, जड और चेतन के भेद, जड की अणुता और आत्मा को अनेकता-इन प्राथमिक मान्यताप्रो के आधार पर जो और जितना कुछ होता हुआ दीखता है, उस सव को जैन-तत्त्व-शाम्प ने खोलने को और कारण-कार्य को कडी में विटाने की कोशिश की है । इस कोशिश पर युग-युगो मे कितनी मेघा-बुद्धि व्यय हुई है, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता। वर्तमान में उपलब्ध जैन-साहित्य पर्वताकार है। कितना ही प्रकाश मे नही आया है। उससे कितने गुना नष्ट हो गया, कहना कठिन है। इस समूचे साहित्य मे उन्ही मूल मान्यताओ के आधार पर जीवन की और जगत् की पहेली की गूढ से गूढ उलझनो को सुलझाया गया और भाग्य आदि की तमाम अतयंताओ को तर्क-सूत्र में पिरोया गया है। आत्म और अनात्म यदि सर्वथा दो है नो उनमें सबध किस प्रकार होने में आया- इस प्रश्न को बेशक नही छूआ गया है। उस सम्बन्ध के बारे में मान लेने को कह दिया गया है कि वह अनादि है। पर उसके बाद अनात्म, यानी पुद्गल, पाल्म के साथ कैसे, क्यो, कब, किस प्रकार लगता है, किस प्रकार कर्म का आस्रव होता और वन्ध होता है, किस प्रकार कर्म-बन्ध फल उत्पन्न करता है, प्रादि-आदि की इतनी जटिल और सूक्ष्म विवेचना है कि वडे-से-बडे अध्यवसायो के छक्के छूट जा सकते है । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी - श्रभिनंदन - प्रथ फिर उस कर्म-वन्ध की निर्जरा यानी क्षय किस प्रकार होगा, आसव ( आने) का सबर ( रुकना) कैसे होगा और अन्त में अनात्म आत्म पूरी तरह शुद्ध होकर कैसे बुद्ध और मुक्त होगा, इसकी पूर्ण प्ररूपणा है । ३२६ इतना ही नही, जैन- शास्त्र आरम्भ करके रुकता अन्त से पहले नही । मुक्त होकर आत्मा लोक के किस भाग मे, किस रूप में, किस विधि रहता है, इसका भी चित्र है । सक्षेप में वह सब जो रहस्य है, इससे खीचता है, अज्ञात है, इससे डराता है, असीम है, इससे सहमाता है, अद्भुत है, इससे विस्मित करता है, अतर्क्य है, इससे निरुत्तर करता है - ऐसे सब को जैन - शास्त्र ने मानो शब्दो की और अको की सहायता से वशीभूत करके घर की साकल से वाँध लिया है। इसी अर्थ में में इस दर्शन को परम वौद्ध और परम साख्य का रूप मानता हूँ । गणना-बुद्धि की उसमे पराकाष्ठा है । उस बुद्धि के अपूर्व अध्यवसाय और स्पर्धा और प्रागल्भ्य पर चित्त सहसा स्तब्ध हो जाता है । दिल्ली ] Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन का इतिहास और विकास प० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य 'दर्शन' शब्द का सीधा अर्थ देखना या साक्षात्कार करना होता है, पर यदि दर्शनशास्त्र के 'दर्शन' शब्द अर्थ साक्षात्कार होता तो दर्शनों में परस्पर इतना मतभेद नही हो सकता था । प्रत्यक्ष तो मतभेदो का श्रत कर देता है । 'आत्मा नित्य है या अनित्य' इन दो पक्षो में से यदि किसी पक्ष का दर्शन साक्षात्कारात्मक होता तो आत्मा का नित्यत्व या अनित्यत्व सिद्ध करने के लिए साख्य और बौद्धो को दिमागी कसरत न करनी पडती । अत दर्शनशास्त्र का दर्शन शब्द 'दृष्टिकोण' के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ जान पडता है । वल्कि सत्य तो यह है कि पदार्थ के जिस अग का प्रत्यक्ष हो सकता है, उस प्रश की चर्चा दर्शनशास्त्रो में बहुत कम है । जिन श्रात्मा, परमात्मा, जगत् का पूर्ण रूप परलोक आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का प्रत्यक्ष नही हो सकता, उन्ही पदार्थों के विचार में विभिन्न दर्शनो ने अपने-अपने दृष्टिकोण रक्खे है और उनके समर्थन में पर्याप्त कल्पनाओ का विकास किया है । विशेष बात तो यह है कि प्रत्येक दर्शन अपने-अपने आदि पुरुष को उनमें बताये गये अतीन्द्रिय पदार्थों के स्वरूप का द्रष्टा साक्षात्कर्ता-मानता है, और दर्शन शब्द के 'दृष्टिकोण, विचार की दिशा' इन अर्थों को गौण करके उसके साक्षात्कार अर्थ की आड में अपनी सत्यता की छाप लगाने का प्रयत्न करता है । दर्शन शब्द के अर्थ में यह घुटाला होने से एक ओर जहाँ तर्क बल से पदार्थके स्वरूप की सिद्धि करने में तर्क का सार्वत्रिक प्रयोग किया जाता है तो 'तक प्रतिष्ठानात्' जैसे सूत्रो द्वारा उसकी अप्रतिष्ठा कर दी जाती है और वस्तु के स्वरूप को अनुभवगम्य या शास्त्रगम्य कह दिया जाता है । दूसरी ओर जव पदार्थ का उस रूप से अनुभव नही होता तब अधूरे तर्कों का आश्रय लिया जाता है । अत दर्शनशास्त्र की निर्णयरेखाएँ उतनी स्पष्ट और सुनिर्णीत नही है, जितनी विज्ञान की । श्राचार्य हरिभद्र' तो अतीन्द्रिय पदार्थों मे तर्कवाद निरर्थकता ही एक प्रकार से बताते है । इस तरह दर्शनशास्त्र के 'दर्शन' शब्द के अर्थ की पेचीदगी ने भारतवर्ष के विचारको में जबर्दस्त वुद्धिभेद उत्पन्न किया था । एक ही वस्तु को एकवादी 'सत्' मानता था तो दूसरा 'असत्' तीसरा 'सदसत्' तो चौथा 'अनिर्वचनीय' । इन मतभेदो ने अपना विरोध विचार के क्षेत्र तक ही नही फैलाया था, किन्तु वह कार्यक्षेत्र मे भी पूरी तरह से जम गया था। एक-एक विचारदृष्टि ने दर्शन का रूप लेकर दूसरी विचारदृष्टि का खन करके अहकार का दुर्दम मूर्तिरूप लेना प्रारंभ कर दिया था। प्रत्येक दर्शन को जब धार्मिक रूप मिल गया तो उसके सरक्षण और प्रचार के लिए वहुत से प्रवाछनीय कार्य करने पडे । प्रचार के नाम पर शास्त्रार्थं शुरू हुए। शास्त्रार्थों में पराजित विरोधी को कोल्हू मे पेल डालना, तप्त तेल के कडाहो में डाल देना जैसी कठोर शर्तें लगाई जाने लगी । राजाश्रय पाकर इन शास्त्रार्थियो ने भारतीय जल्पकथा के इतिहास को भीषण हिंसाकाडो द्वारा रक्तरजित कर दिया था । आज से ढाई हजार वर्षं पूर्व भारत के आध्यात्मिक क्षितिज पर भगवान् महावीर और बुद्ध दो महान् नक्षत्रो का उदय हुआ। इन्होने उस समय के धार्मिक वातावरण मे सर्वतोमुखी अद्भुत क्रान्ति की। उस समय धर्म के नियमउपनियमो के विषय मे वेद और तदुपजीवी स्मृतियो का ही एक मात्र निर्वाध अधिकार था । उसमें पुरुष के अनुभव का कोई स्थान नही था और इसी आधार से धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के मेव, जिनमें अजमेध से नरमव तक "ज्ञायेरन् हेतुवादेन पदार्था यद्यतीन्द्रिया । कालेनैतावता तेषा कृत स्यादर्थनिर्णय ॥" श्रर्यात् यदि तर्कवाद से प्रतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान किया जा सकता होता तो इतने काल में अनेको प्रखर तर्कवादी हुए उनके द्वारा श्रतीन्द्रिय पदार्थों का निर्णय कभी का हो गया होता । पर ख़ुदा की बात जहाँ की तहां है । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ शामिल थे, रक्तवती और चर्मण्वती जैसी सार्थक नामवाली नदियो की सृष्टि कर रहे थे। इन दो महापुरुषो ने धर्म के नाम पर होने वाली विडम्वना के विरुद्ध आवाज उठाई और स्पष्ट शब्दो मे घोषित किया, "धर्म का साक्षात्कार किया जा सकता है, वह अनुभव के आधार पर रचा जा सकता है।" उन्होने प्राणिमात्र को सुख, सन्तोष और शान्ति देनेवाली अहिंसा' की पुन प्रतिष्ठा की। 'वीतरागी और तत्त्वज्ञ व्यक्ति अनुभव से धर्म और उसके नियमोपनियम का यथार्थ ज्ञान कर सकता है', इस प्रकार की अनुभव-प्रतिष्ठा के वल से वेद-धर्म के नाम पर होने वाले क्रियाकाडो का तात्त्विक और व्यावहारिक विरोध हुआ। अहिंसक वातावरण से जगत् को शान्ति की सास लेने का क्षण मिला। महात्मा बुद्ध ने आत्मा आदि अनेक अतीन्द्रिय पदार्थों के विषय मे प्रश्न किए जाने पर उन्हें अव्याकृत या अव्याकरणीय बताया। उन्होने सीधी सादी भाषा में जगत् को दुःख, समुदय, निरोध और मार्ग इन चार आर्यसत्यो के स्वरूप का स्पष्ट निरूपण किया और दुःखसन्तप्त जगत् को निराकुलता की ओर ले जाने का अतुल प्रयत्न किया। उन्होने जगत् को शून्य, क्षणिक, मायोपम, जलबुद्बुदोपम बता कर प्राणियो को विज्ञानरूप अन्तर्मुख होने की ओर प्रेरित किया। आगे जाकर इन्ही क्षणिक, शून्य आदि भावनात्मक शब्दो ने क्षणिकवाद, शून्यवाद, विज्ञानवाद आदि वादो का रूप धारण किया। ___भगवान् महावीर अहिंसा के उत्कट साधक थे। वे मातृहृदय बुद्ध की तरह मृदुमार्गी न होकर पितृचेतस्क दीर्घतपस्वी थे। अहिंसा के कायिक, वाचिक तथा मानसिक स्वरूपो को आत्मसात् करना तथा सघ मे उसका ही जीवन्तरूप लाना उनका जीवन-कार्य था। विषय-कपायज्वालामओ से झुलसे हुए इस जगत् को सर्वाङ्गीण अहिंसा द्वारा स्थायी शान्ति की ओर ले जाना उनका जीवन-व्रत था। कायिक अहिंसा के लिए जिस प्रकार व्यक्तिगत् सम्यक् प्रवृत्ति, अप्रमत्त आचरण की आवश्यकता होती है उसी प्रकार वाचनिक अहिंसा के लिए वचन की अमुक शैली तथा मानसिक अहिंसा के लिए विचारसहिष्णुता एव पदार्थ के विराट्स्वरूप के यथार्थ ज्ञान की विशेष आवश्यकता होती है । भगवान् महावीर ने वस्तु के विराट्स्वरूप का अनुभव करके बताया कि अचेतन जगत् का प्रत्येक अणु तथा चेतन जगत् का हर एक आत्मा अनन्त धर्मवाला है। उसके पूर्णस्प को पूर्णज्ञान ही जान सकता है। उसके अनन्तस्वरूप को हमारा क्षुद्र ज्ञानकण अगत ही स्पर्ण कर सकता है । उस समय के प्रचलित सत्, असत्, प्रवक्तव्य, क्रिया, प्रक्रिया, नियति, यदृच्छा, काल अादि वादो का उन्होने अपने पूर्ण ज्ञान मेठीक स्वरूप देखा और वस्तुस्थिति के आधार से विचार की उस मानस-अहिंसा-पोपिणी दिशा की ओर ध्यान दिलाया, जिससे वस्तु के यथार्थ ज्ञान के साथ ही साथ चित्त मे समता और विचार-साहिष्णुता जैसे अहिंसा के अकुरो का प्रारोपण हो सकता था। उन्होने आत्मा, परलोक आदि के विषय मे प्रश्न होने पर मौनावलम्वन नहीं किया और न उन्हे अव्याकरणीय वताया किन्तु उन पदार्थों के यथार्थस्वरूप का विवेचन किया। उन्होने अपनी पहिलो देशना मे "उपन्नइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा" (स्थानाग-स्थान १०) इस त्रिपदी का उच्चारण किया था। यह मातृकात्रिपदी कही जाती है। इसका तात्पर्य है कि जगत् का प्रत्येक चेतन अचेतन पदार्थ उत्पन्न भी होता है, नष्ट भी होता है और स्थिर भी रहता है। मूल अस्तित्व स्थिर रहता है, अवस्थानो मे उत्पाद और विनाशरूप परिवर्तन होता रहता है। सास्य और योग परपरा मे ऐसा परिणामवाद केवल अचेतन प्रकृतितत्त्व मे माना है। पुरुषतत्त्व इस परिणाम से सर्वथा अछूता कूटस्थ नित्य स्वीकार किया गया है। भगवान् महावीर के उपदेशो का अतिम सग्रह देवर्धिगणिक्षमाश्रमण ने वि० स० ५१० में किया था। ये अागम उस समय की लोकभापा अर्धमागधी में रचे हुए है। भगवान महावीर और बुद्ध ने अपने उपदेश जनता की वोली में ही दिये थे। भागमो की रचनाशैली में तर्क के स्थल-स्थल पर दर्शन होते है। महावीर के मुख्य गणधर गौतम स्वामी भगवान् के हर एक उपदेशो में तर्क करते है, "से केणठेण भन्ते, एवमुच्चइ" अर्थात्-'भगवन्, ऐसा क्यों कहते है ?' इस तर्कगर्भ प्रश्न के उत्तर में महावीर अपने द्वारा उपदिष्ट मार्ग को सत्यता तथा प्रामाणिकता को युक्तियों से सिद्ध करते है। इस तरह आगमो में जैनदर्शन के बीज विखरे हुए है। उनका सस्कृतभाषा में सर्वप्रयम सग्रह प्रा० उमास्वाति Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन का इतिहास और विकास ३२६ ने तत्त्वार्थसूत्र मे किया । तत्त्वार्थसूत्र के "प्रमाणनयैरधिगम " "उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्त सत्" "अपितानपतसिद्धे " “गुणपर्यायवद्द्द्रव्यम्” इत्यादि सूत्र ऐसे है जिनपर जैनदर्शन का महाप्रासाद खडा किया गया है । इनके समय की उत्तरावधि वि० स० ४०० तक हो सकती है। इनका 'तत्त्वार्थसूत्र' ग्रन्थ जैनमत की दिगम्बर श्वेतावर उभय शाखाश्रो को मान्य है । जैनदर्शन के विकास का कुछ विचार हम (१) उपाय या ज्ञापक तत्त्व (२) उपेय या ज्ञेयतत्त्व इन दो स्थूल भागो में विभाजित कर करते है । । ज्ञापक तत्त्व (१) श्रागमिक परपरा में मति, श्रुत, अवधि, मन पर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान मुख्यतया ज्ञेय के जानने के सावन माने गये है । 'उत्तराध्ययनसूत्र' ( २८|२४ ) मे प्रमाण और नय को भी उपायतत्त्व वताया है । श्रागमिक काल ज्ञान की सत्यता और श्रमत्यता वाह्य पदार्थों को ठीक प्रकार से जानने और न जानने के ऊपर निर्भर नही थी, किन्तु जो ज्ञान आत्मसशोधन और अन्तत मोक्षमार्गोपयोगी होते थे, वे सच्चे तथा जो मोक्षमार्गोपयोगी नही थे, वे झूठे कहे जाते थे । लौकिक दृष्टि से गतप्रतिशत सत्यज्ञान भी यदि मोक्षमार्गोपयोगी नही है तो वह झूठा और लौकिक दृष्टि मे मिथ्या ज्ञान भी यदि मोक्षमार्गोपयोगी है तो वह सच्चा । इस तरह सत्यता और असत्यता की कसौटी बाह्यपदार्थो के ग्राधीन न होकर उसको मोक्षमार्गोपयोगिता के अधीन थी । इसीलिए सम्यकदृष्टि के सभी ज्ञान सच्चे और मिथ्यादृष्टि के सभी ज्ञान झूठं कहलाते थे । वैशेषिक सूत्र मे विद्या और अविद्या शब्द के प्रयोग कुछ इसी भूमिका पर है । इन पाँच ज्ञानो का प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से विभाजन श्रागमकाल मे एक विभिन्न आधार पर ही था । वह श्रावार था आत्ममात्रसापेक्षत्व । अर्थात् जो ज्ञान ग्रात्ममात्र सापेक्ष था वह प्रत्यक्ष तथा जिनमे इन्द्रिय और मन की हायता अपेक्षित होती थी वे परोक्ष । लोक में जिन इन्द्रियजन्य ज्ञानो को प्रत्यक्ष कहते थे, वे ज्ञान प्रागमिक परपरा मे परोक्ष थे । यागमो में प्रमाण नय निक्षेप आदि साधन बताए तो गए हैं, पर उनकी विभाजक रेखाएं इस काल में उतनी स्पष्ट नही थी, जितनी कि श्रागे जाकर हुई । कुन्दकुन्द और उमास्वाति - - उमास्वाति के 'तत्त्वार्थसूत्र' श्रौर कुन्दकुन्द के 'प्रवचनसार' में 'स्थानागसूत्र' (२।११७१) को तरह ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष विभाग स्पष्ट है । इनके युग में ज्ञान की सत्यासत्यता का आधार तथा लौकिक प्रत्यक्ष को परोक्ष कहने की परम्परा जैसी-की-तंसी चालू रही । कुन्दकुन्द के 'प्रवचनसार' और 'पचास्तिकाय' ग्रंथ तर्कगर्भ श्रागमिक शैली के सुन्दर नमूने है । इनके युग की भी उत्तरावधि चौथी शताब्दी तक मानी जा सकती है । समन्तभद्र - सिद्धसेन -- जब बौद्धदर्शन में नागार्जुन, वसुबन्धु, श्रसग तथा वौद्धन्याय के पिता दिडनाग का युग श्रा गया और दर्शनशा स्त्रियो में वौद्धदार्शनिको के प्रवल तर्क-पहारो से वैचैनी पैदा हो रही थी, वह एक तरह से दर्श के तार्किक श्रम या परपक्षखडन श्रश का प्रारंभकाल था । उस समय जैनपरम्परा में सिद्धसेन दिवाकर और स्वामी समन्तभद्र का उदय हुआ । इनके सामने आगमिक परिभाषाश्रो और शब्दो को तर्कशास्त्र के चौखटे में बैठाने का महत्त्वपूर्ण कार्य था । इस युग मे जो धर्म सस्था प्रतिवादियो के आक्षेपो का निराकरण कर स्वदर्शन प्रभावना नही कर सकती थी उसका अस्तित्व ही खतरे में था । अत परचक्र से रक्षा के लिए अपना दुर्ग स्वत सवृत करने के महत्त्वपूर्ण कार्य का प्रारंभ इन दो आचार्यों ने किया । दिङ्नाग ने बौद्वन्याय में प्रवेश पाने के लिए 'न्यायप्रवेश' ग्रथ तथा 'प्रमाणसमुच्चय' आदि प्रकरणो की रचना को । सिद्धसेन दिवाकर ने जैनंन्याय का अवतार स्वरूप 'न्यायावतार' ग्रय तथा 'सन्मतितर्क' और 'द्वात्रिंशत्द्वात्रिगतिका' की रचना की । इन्होने 'न्यायावतार' में प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद करके परोक्ष का वर्णन अनुमान और आगम इन दो विभागो मे किया । अर्थात् इनके मत से साख्य परम्परा की तरह प्रत्यक्ष, अनुमान और १] त० सू० ५१३० " त० सू० ५१३२ 'त० सू० ५३३८ त० सू० ११६ ४२ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ आगम ये तीन प्रमाण फलित होते है । यह प्रमाणत्रित्ववाद सिद्धसेन दिवाकर से प्रारभ हुआ और यही तक सीमित रहा। उत्तरकालीन प्राचार्यों ने इसे नहीं अपनाया। इन्होने न्यायावतार के प्रथम श्लोक मे ही ज्ञान को प्रमाणता का प्राधार मोक्षमार्गोपयोगिता के स्थान मे 'मेयविनिश्चय' बताया है। अर्थात् जो ज्ञान पदार्थों का ययार्थ निश्चय करे वह प्रमाण, अन्य अप्रमाण । स्वामी समन्तभद्र ने 'आप्तमीमासा' (का० ६७) मे 'वुद्धि और शब्द की प्रमाणता और अप्रमाणता वाहार्य को प्राप्ति और अप्राप्ति से होती है, यह लिखा है। अर्थात् जिस बुद्धि के द्वारा प्रतिभामित पदार्थ ठोक उसी रूप में उपलब्ध हो जाय वह प्रमाण अन्य अप्रमाण । इस तरह सिद्धसेन और ममन्तभद्र के युग मे ज्ञान की सत्यता का आधार मोक्षमार्गोपयोगिता के स्थान में मेयविनिश्चय या अर्याप्त्यनाप्ति--अर्थ की प्राप्ति और अत्राप्ति-वनी। जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण (वि० ७वी शताब्दी) ने लौकिक इन्द्रिय प्रत्यक्ष को जिसे अभी तक परोक्ष ही कहा जाता था और इससे एक प्रकार से लोक व्यवहार मे असमजगता आती थी, अपने 'विशेपावश्यकभाष्य (गा०६५) मे सव्यवहारप्रत्यक्ष सज्ञा दी, अर्थात् आगमिक परिभाषा के अनुसार यद्यपि इन्द्रियजन्य ज्ञान परोक्ष ही है, पर लोकव्यवहार के निर्वाहार्थ इन्द्रियजन्य ज्ञान को सव्यवहारप्रत्यक्ष कह सकते है। इस तरह आगमिक तया दर्शनान्तरीय एव लौकिक परम्परा का समन्वय किया गया। भट्टारक अकलङ्कदेव ने (वि० ८वी), जो सचमुच ही जैन प्रमाण शास्त्र के सजीव प्रतिष्ठापक कहे जाते हैं अपने 'लघीयस्त्रय' (का० ३, १०) मे प्रथमत प्रमाण के दो भेद करके फिर प्रत्यक्ष के स्पष्टत मुख्यप्रत्यक्ष और सव्यवहार प्रत्यक्ष ये दो भेद किये है। और परोक्ष प्रमाण के भेदो में स्मृति प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और पागम इन पांच को स्थान दिया। इस तरह प्रमाण शास्त्र की व्यवस्थित रुपरेखा यहाँ से प्रारभ होती है। ___ 'अयोगद्वार' 'स्थानाग' और 'भगवतीसूत्र' मे प्रत्यक्ष अनुमान, उपमान, और आगम इन चार प्रमाणो का निर्देश है । यह परम्परा न्यायसूत्र की है। पर तत्त्वार्थाधिगमभाष्य मे इस परम्परा को 'नयवादान्तरेण' कहकर जैन परम्परा के रूप में स्पष्ट स्वीकार नहीं किया है, और न उत्तरकालीन किसी जैनतर्कग्रथ में इसका कुछ भी विवरण या निर्देश ही है। समस्त उत्तरकालीन जैनदार्शनिको ने अकलकदेव द्वारा प्रतिष्ठापित प्रमाणपद्धति को पल्लवित और पुष्पित करके जैनन्यायाराम को सुवासित किया है। उपायतत्त्व उपायतत्त्व में महत्त्वपूर्ण स्थान नय तथा स्याद्वाद का है। नय एक जैन पारिभाषिक शब्द है जो सापेक्ष दृष्टि का नामान्तर है । स्याद्वाद, भाषा का वह निर्दोष प्रकार है जिसके द्वारा वस्तु के परिपूर्ण या यथार्थरूप के अधिक से अधिक समीप पहुंचा जा सकता है। मै पहिले लिख पाया हूँ कि भगवान् महावीर ने वस्तु के अनन्त धमत्मिक विराटप के दर्शन किये और उन्हें उस समय के प्रचलित सभी सद्वाद और असद्वाद या अनिर्वचनीय आदि वाद वस्तु के एक-एक अश को स्पर्श करने वाले प्रतीत हुए। यहां तक तो ठीक था, पर जब महावीर ने उन वादियो को अपने-अपने वाद की सत्यता को चौराहो पर उद्घोषण कर दूसरो का प्रतिक्षेप करते देखा तो उनका तत्त्वद्रष्टा अहिंसक हृदय इस अज्ञान एव हिंसा से अनुकपित हुआ। उन्होने उन सब के लिए वस्तु के विराटस्वरूप का निरूपण किया। कहा, देखो, वस्तु के अनन्तधर्मह, लोगो का ज्ञान स्वल्प है, वह वस्तु के एक प्रश को स्पर्श करता है, अपने दृष्टिकोण को ही सत्य मान कर या अपने ज्ञान पल्वल मे वस्तु के अनन्तरूप को समाया समझकर दूसरे वादी के दृष्टिकोण का प्रतिक्षेप करना मिथ्यात्व है। उसका भी दृष्टिकोण वस्तु के दूसरे अश को स्पर्श करता है। अत अपनी-अपनी दृष्टि में पूर्णसत्य का मिथ्या अहकार करके दूसरो के प्रति असत्यता का आरोप करके उनसे हिसक व्यवहार करना तत्त्वज्ञो का कार्य नही है। उसके स्वरूप का वर्णन करने वाली प्रत्येक दृष्टि नय है और वह अपने में उतनी ही सत्य है जितनी कि उसको विरुद्ध दृष्टि। शर्त यह है कि कोई भी दृष्टि दूसरो दृष्टि का प्रतिक्षेप न करे उसके प्रति सापेक्ष भाव रक्खें। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन का इतिहास और विकास यह नयदृष्टि विचार का निर्दोषप्रकार है तथा स्याद्वाद भाषा की समता का प्रतीक है । स्याद्वाद मे 'स्यात्' शब्द एक 'निश्चितदृष्टिकोण' का प्रतिपादन करता है अर्थात् अमुक निश्चित दृष्टिकोण से वस्तु सत् है अमुक निश्चित दृष्टिकोण से असत् । स्यात् को शायद का पर्यायवाची कहकर उमे ढुलमुल यकीनी की कक्षा मे डालना उसके ठीक स्वरूप के अज्ञान का फल है । मालूम होता है शकराचार्य जी ने भी स्यात् और शायद को पर्यायवाची समझकर उसमें समय दूपण देने का विफल प्रयास किया है। भगवतीसूत्र मे हम “सिय अत्थि, सिय णत्थि, सिय अवत्तव्व' इन तीन भगो का निर्देश पाते है। अर्थात् वस्तुएक दृष्टिकोण से सत् है, दूसरे दृष्टिकोण से असत् तथा तीसरे दृष्टिकोण से अवक्तव्य। वस्तुत मनुष्य एक विराट् अखड अनन्त वस्तु को पहिले सद्रूप से वर्णन करने का प्रयत्न करता है और देखता है कि उसकी दूसरी बाजू अभी वर्णन में नही आई तब उसका असद्रूप से विवेचन करता है। पर जब वह देखता है कि सद् और असत् जैसे अनन्त विरोधी धर्मों की लहरे वस्तु के असीम समुद्र में लहरा रही है जिन्हें एक साथ वर्णन करना वचनो की शक्ति के वाहर है तो वह कह उठता है 'यतो वाचो निवर्तन्ते'। इस तरह वस्तु का परिपूर्णरुप अवक्तव्य है, उसका एक-एक रूप से आशिक वर्णन होता है । जैनदर्शन मे प्रवक्तव्य को भी एक दृष्टि माना है, जिस प्रकार वक्तव्य को। प्रा० कुन्दकुन्द के पचास्तिकाय में सर्वप्रथम सत् अमत् प्रवक्तव्य के सयोग से बनने वाले सात भगो का उल्लेख है। इसे सप्तभगीनय कहते है। स्वामी समन्तभद्र की प्राप्तमीमासा मे इसी सप्तभगी का अनेक दृष्टियो से विवेचन है । उसमें सत् असत्, एक अनेक, नित्य अनित्य, द्वैत अद्वैत, देव पुरुपार्थ आदि अनेक दृष्टिकोणो का जनदृष्टि से सुन्दर समन्वय किया है। सिद्धसेन के सन्मतितर्क मे अनेकान्त और नय का विशद वर्णन है। इन युगप्रधान आचार्यों ने उपलब्ध समस्त जनेतर दृष्टियो का नय या स्याद्वाद दृष्टि से वस्तुस्पर्शी समन्वय किया। देव और पुरुपार्थ का जो विवाद उस समय दृढमूल था, उसके विषय में स्वामी समन्तभद्र ने प्राप्तमीमासा (७वा परिच्छेद) में हृदयग्राही सापेक्ष विवेचन किया है। उन्होने लिखा है कि कोई भी कार्य न केवल देव से होता है और न केवल पुरुषार्थ से। दोनो रस्सियो से दधिमथन होता है। हाँ, जहां वुद्धिपूर्वक प्रयत्न के अभाव मे फलप्राप्ति हो, वहाँ देव को प्रधान मानना चाहिए तथा पुरुषार्थ को गौण तथा जहां बुद्धिपूर्वक प्रयत्न से कार्यमिद्धि हो वहाँ पुरुपार्थ प्रधान तथा देव गौण। किसी एक का निराकरण नही किया जा सकता इन मे गौण मुख्यभाव है। इस तरह सिद्धमेन और समन्तभद्र के युग में नय, सप्तभगी, अनेकान्त आदि जैनदर्शन के आधारभूत पदार्थों का सागोपाग विवेचन हुआ। इन्होने उस समय के प्रचलित सभी वादो का नय दृष्टि से जैन दर्शन में ममन्वय किया। और सभी वादियो में परस्पर विचार महिष्णुता और समता लाने का प्रयत्न किया। इसी युग मे न्यायभाष्य, योगभाष्य, शावरभाष्य आदि भाष्य रचे गए है । यह युग भारतीय तर्कशास्त्र के विकास का प्रारभयुग था। इसमें सभी दर्शन अपनी अपनी तैयारियां कर रहे थे। अपने अपने तर्कशास्त्र रूपी शस्त्र पैना कर रहे थे। सवसे पहिला आक्रमण बौद्धो की भोर मे हुआ जिसमें मुख्य सेनापति का कार्य प्राचार्य दिडनाग ने किया। इसी समय वैदिक दार्शनिक परम्परा मे न्यायवार्तिककार उद्योतकर, मीमासाश्लोकवार्तिककार कुमारिलभट्ट आदि हुए। इन्होने वैदिकदर्शन के सरक्षण मे पर्याप्त प्रयत्न किया। इसके बाद (वि० ६वी सदी) पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि तथा मल्लवादि ने नयचक्र नामक महान् आकर अथ बनाए। नयचक्र में नय के विविधभगो द्वारा जनेतर दृष्टियो के समन्वय का सफल प्रयत्न हुआ। यह अथ आज मूलरूप मे उपलब्ध नहीं है। इसकी सिंहगणि क्षमाश्रमण की टीका मिलती है। इसी युग मे सुमति, श्रीदत्त, पात्रस्वामि आदि आचार्यों ने जैनन्याय के विविध अगो में स्वतन्त्र तथा व्याख्यारूप ग्रथो का निर्माण किया। वि० ७वी ८वी सदी दर्शनशास्त्र के इतिहास में विप्लव का युग था। इस समय नालन्दा विश्वविद्यालय के आचार्य धर्मपाल के शिष्य धर्मकीति का मपरिवार उदय हुआ। शास्त्रार्थों की धूम थी। धर्मकीर्ति तथा उनकी शिष्यमडली ने प्रवल तर्कवल से वैदिक दर्शनो पर प्रचड प्रहार किए। जैनदर्शन पर भी आक्षेप किए जाते थे। यद्यपि अनेक मुद्दो मे जनदर्शन और बौद्धदर्शन समानतन्त्रीय थे पर क्षणिकवाद, नैरात्म्यवाद, शून्यवाद, विज्ञानवाद आदि Page #367 --------------------------------------------------------------------------  Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन का इतिहास और विकास जेय तत्त्व जनदर्शन में प्रमेयतत्त्व है। १ जीव, २ पुद्गल, ३ धर्म, ४ अधर्म, ५ अाकाग, ६ लाल । जीव अनन्त है ज्ञानदर्शन सुख प्रादि उनके स्वभावभूत गुण है, यह मध्यम परिमाण वाला या शरीर परिमाण वाला है, कर्ता है, भोक्ता है। स्प रस गव सर्ग वाले सभी पदार्थ पुद्गल है। ये पुद्गल अणुरूप है, अनन्त है । जीवपुद्गल को गति का माध्यम धर्मद्रव्य तथा स्थिति का माध्यम अधर्मद्रव्य होता है । ये लोकपरिमाण है, एक एक द्रव्य है, अमूर्तीक है। प्राकाश अनन्त है, अमूर्तीक है। काल अणुस्प अमन्यात द्रव्य है। श्वे० परम्परा में कुछ प्राचार्य कालद्रव्य को नहीं मानते। इस तरह प्रमेय तत्त्वो का प्रारभ से ही एक जैमा निरूपण मभी दार्शनिक ग्रयो में है । जैन लोग महावीर की पाद्य उपदेश वाणी "उपनेड वा विगमेड वा बेड वा" के अनुमार प्रत्येक द्रव्य में पर्याय-अवस्था की दृष्टि में उत्पाद और व्यय तया द्रव्यमूल अग्नित्व की दृष्टि से घोव्य स्वीकार करते है। जो भी मन् है वह परिवर्तनशील है, परिवर्तनशील होने पर भी वह अपनी मौलिकता नहीं खोता, अपना द्रव्यत्व कायम रखता है । जैसे एक पुद्गल मिट्टी के पिंड की हालत में घडे को शकल में पाया घडा फूटकर खपरियां वनी, वपरियां चूर्ण होकर खेत मे जा पडी, उमके कुछ परमाणु गेहूं बने। इस तरह अवस्थाप्रो में परिवर्तन होते हुए भी मूल अणुत्व का नाश नही हुआ । यही परिणाम जैनियो के प्रत्येक पदार्थ का स्वस्प है। गीता का यह मिद्धान्त-"नाऽसतो विद्यते भाव नाभावो विद्यते मत" अर्थात् असत् का उत्पाद नहीं और मत् का सर्वथा अभाव नहीं होता। इसी परिणामवाद को सूचित करता है । जगत् म कोई नया द्रव्य उत्पन्न नहीं होता जिनने द्रव्य है उनमे में एक अणु का भी मर्वथा विनाश नहीं होता। उनकी अवस्थाओ में परिवर्तन होते रहते है एक दूसरे केमयोग मे विचित्र प्रकार के भौतिक अभौतिक परिवर्तन हमारी दृष्टि से छिपे नहीं है। इस तरह उत्पादव्यय प्रौव्यवाद या परिणामवाद जैनतार्किको को प्रारभ मे ही इष्ट रहा है और इमी का द्रव्यपर्यायवाद, गुणपर्यायवाद आदि नामो ने प्रत्येक ग्रय मे उत्कट समर्थन है । नयदृष्टि में पर्यायदृष्टि मे वौद्धो के क्षणिकवाद का तथा द्रव्यदृष्टि से सात्यो के कूटस्यनित्यवाद तक का समन्वय जैनाचार्यों ने किया है। यहां तक कि चार्वाक मत का भी सग्रह किया गया है। साराग यह कि जैनाचार्यों ने यद्यपि परपक्ष का वडन किया है फिर भी उनमे समन्वय की अहिंसक उदारता वरावर जागृत रही, जो भारत के अन्य दार्शनिको मे कम देखी जाती है । इसी ममन्वयशालिता के कारण उन्होने नयदृष्टि या स्याद्वाद के द्वारा प्रत्येक मत का समन्वय कर अपनी विशाल दृष्टि तथा तटस्थता का परिचय दिया है। मूलत जैन धर्म प्राचारप्रधान है, इसमें तत्त्वज्ञान का उपयोग भी प्राचारशुद्धि के लिए ही है। और यही कारण है कि तर्कशास्त्र जमे शास्त्र का उपयोग भी जैनाचार्यों ने समन्वय और समता के स्थापन मे किया। इसका अनेकान्तवाद या स्याद्वादमति सहिष्णुता की ही प्रेरणा देता है । दार्शनिक कटाकटी के युग में भी इस प्रकार की समता उदारता तथा एकता के लिए प्रयोजक समन्वय दृष्टि का कायम रखना अहिंसा के पुजारियो का ही कार्य रहा । इस स्याबाद के स्वरूप निरूपण तथा प्रयोग करने के प्रकारो का विवेचन करने के लिए भी जैनाचार्यों ने अनेक ग्रथ लिखे है। इस तरह दार्गनिकएकता स्यापित करने मे जैन दर्शन का अद्भुत और स्थायी प्रयत्न रहा है । इस जैसी उदार सूक्तियाँ अन्यत्र कम मिलती है। यया "भववीजाङ्कुरजलदा रागाद्या क्षयमुपागता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै ॥" ___ अर्थात् जिसके मसार को पुष्ट करने वाले रागादि दोष विनष्ट हो गए है चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शिव हो या जिन, उसे नमस्कार हो। "पक्षपातो न मे वीरे न द्वेष कपिलादिषु । युक्तिमद्वचन यस्य तस्य कार्य परिग्रह ॥" अर्थात् मुझे महावीर से राग नहीं है और न कपिल आदि से द्वेप, जिमके भी युक्तियुक्त वचन हो उनकी शरण जाना चाहिए। (लोक तत्त्वनिर्णय) काशी ] 1 जाना Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री समार में समय-समय पर कुछ ऐसे महापुरुष जन्म लेते हैं, जो इस दृश्यमान जगत् के माया जाल में न फँस कर उनके भीतर छिपे हुए सत्य का रहस्योद्घाटन करने के लिए अपने जीवन का उत्सर्ग कर देते है । सत्य को जानना और जनता उसका प्रचार करना ही उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य होता है, किन्तु उनमे से बिरले ही पूर्ण सत्य तक पहुँचने में समर्थ होते है । अधिकाश व्यक्ति सत्य के एक प्रश को ही पूर्ण सत्य समझ भ्रम में पड कर अपने लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाते है । इस प्रकार समार में दो तरह के उपदेष्टा पाये जाते है -- एक पूर्णदर्शी और दूसरे प्रपूर्णदर्शी या एकाशदर्शी । पूर्णदर्शी के द्वारा प्रकाशित सत्य ही 'अनेकान्तवाद' के नाम से ख्यात होता है, क्योंकि जो पूर्ण है वह अनेकान्त हैं और जो अनेकान्त है वही पूर्ण है— पूर्णता और अनेकान्तता का अभेद्य सवध है । इसके विपरीत, एकान्तदर्शी जिस सत्याश का प्रकाशन करता है वह एकान्त है, अत अपूर्ण है- -सत्य होते हुए भी असत्य है । कारण, सत्य के एक प्रण का दर्शी मनुष्य तभी प्राणिक सत्यदर्शी कहा जा सकता है जब वह उसे आशिक सत्य के रूप में स्वीकार करे । यदि कोई मनुष्य वस्तु के एक अक्ष को ही पूर्ण वस्तु सिद्ध करने की घृष्टता करता है तो न तो वह सत्यदर्शी है और न सत्यवादी ही कहा जा सकता है । सत्य का जानना जितना कष्ट साध्य है, उसका प्रकाशित करना भी अधिक नही तो उतना ही कठिन अवश्य है । इस पर भी यदि वह सत्य अनेकान्त रूप हो-एक ही वस्तु मे अस्ति नास्ति, नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि विरोधी कहे जाने वाले धर्मो को स्वीकार करता हो, भिन्न-भिन्न अशो का सुन्दर रूप में समन्वय करने में तत्पर हो तो वक्ता की कठिनाइयाँ और भी वढ जाती है । उक्त कठिनाइयो के होते हुए भी यदि सत्य को प्रकाशित करने के साधन पर्याप्त हो तो उनका सामना किसी तरह किया जा सकता है, किंतु साधन भी पर्याप्त नही है । कारण, शब्द एक समय में वस्तु के एक ही धर्म का प्रशिक व्याख्यान कर सकता है। मत्य को प्रकाशित करने के एकमात्र साधन शब्द की इस अपरिहार्य कमजोरी को अनुभव करके पूर्णदर्शी महापुरुषो ने स्याद्वाद का आविष्कार किया । शब्द की प्रवृत्ति वक्ता के अधीन है। इसलिए वक्ता वस्तु के अनेक धर्मो मे से किसी एक धर्म की मुख्यता से वचन प्रयोग करता है, किन्तु इसका यह अर्थ नही है कि वह वस्तु सर्वथा उस एक धर्म स्वरूप ही है । अत यह कहना बेहतर होगा कि यहाँ पर विवक्षित धर्म की मुख्यता और शेष धर्मो की गौणता है। इसीलिए गौण धर्मो का द्योतक " स्यात् " शब्द समस्त वाक्यो के साथ गुप्त रूप से सम्बद्ध रहता है । 'स्यात्' शब्द का अभिप्राय " कथचित्" या "किसी अपेक्षा से' है, जैसा कि स्वामी समन्तभद्र के इस वाक्य से प्रकट है--"स्थाद्वाद सर्वयैकान्तत्यागात् किवृत्तचिद्विधि. " ( प्राप्त मीमासा ) भगवान् महावीर ने अपने अनुपम वचनो के द्वारा पूर्ण सत्य का उपदेश किया और उनका उपदेश ससार में 'श्रुत' के नाम से ख्यात हुआ । भगवान् महावीर के उपदेश का प्रत्येक वाक्य 'स्यात्' 'कथचित' या 'किसी अपेक्षा' से होता था, क्योकि उसके विना पूर्ण सत्य का प्रकाशन नही हो सकता । अत उनके उपदेश 'श्रुत' को प्राचार्य समन्तभद्र नेस्याद्वाद' के नाम से सर्वोोधित किया है । "स्याद्वादकेवलज्ञाने वस्तुतत्त्वप्रकाशने । भेद साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतम भवेत्” ॥ -आप्तमीमासा Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद और सप्तभगी ३३५ श्रुत' उपदेश या वाक्य तीन प्रकार का होता है, स्यावाद श्रुत, नयश्रुत, और मिथ्याश्रुत। ' स्याद्वादश्रुत-एक धर्म के द्वारा अनन्तधर्मात्मक वस्तु का बोध कराने वाले वाक्य को कहते है। यह वाक्य अनेक धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन करता है। इसलिए इसे सकलादेश' भी कहते है और अनेक धर्मात्मक वस्तु का ज्ञाता ही ऐसे वाक्य का प्रयोग कर सकता है। इसलिए उसे प्रमाणवाक्य भी कहते है, क्योकि जैनदर्शन मे अनेक धर्मात्मक वस्तु का सच्चा ज्ञान ही प्रमाण कहा जाता है । नयश्रुत-अनेक धर्मात्मक वस्तु के एक धर्म का बोध कराने वाले वाक्य को कहते है। इसे विकलादेश या नयवाक्य भी कहते है। ऐसे वाक्य के प्रयोग करने वाले वक्ता का ज्ञान 'नय' कहलाता है, क्योकि वस्तु के एकाशग्राही ज्ञान को नय कहते है। मिथ्याश्रुत-वस्तु मे किसी एक धर्म को मान कर, अन्य प्रतिपक्षी धर्मों का निराकरण करनेवाले वाक्य को कहते हैं। ऐसे वाक्य के प्रयोग करने वाले वक्ता का ज्ञान 'दुर्नय' कहलाता है। यहां प्रश्न हो सकता है कि क्या ज्ञान एकाशग्राही और शब्द अनेक धर्मात्मक वस्तु का वाचक हो सकता है ? विचार करने पर दोनो ही वाते असगत जान पडती है-न तो ज्ञान एकाशग्राही हो सकता है और न एक शब्द एक समय मे अनेक धर्मात्मक वस्तु का वाचक । प्रमाण और नय प्र०-अनेक धर्मात्मक वस्तु के ज्ञान को 'प्रमाण' कहते है और एक धर्म के ग्रहण करनेवाले ज्ञान को 'नय' कहते है। तव आप ज्ञान का एकाशग्राही होना कसे अस्वीकार करते है। ___ उ०-प्रमाण और नय की व्यवस्था सापेक्ष है। प्रमाण के दो भेद है-स्वार्थ और परार्थ । मतिज्ञान स्वार्थ प्रमाण है। इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है उसे मतिज्ञान कहते है। यथार्य में कोई भी इन्द्रियजन्य ज्ञान पूर्ण वस्तु को विषय नही कर सकता। चक्षू रूप के द्वारा वस्तु को जानती है, रसना रस के द्वारा और घ्राण गन्ध के द्वारा। फिर भी जैन दर्शन मे इन ज्ञानो को प्रमाण यानी अनेक धर्मात्मक वस्तु का ग्राही कहा जाता है। इसका कारण ज्ञाता की दृष्टि है। एक धर्म को जानते हुए भी ज्ञाता की दृष्टि, वस्तु के अन्य धर्मों की ओर से उदासीन नहीं हो जाती। कारण, बुद्धिमान ज्ञाता जानता है कि इन्द्रियो मे इतनी शक्ति नही है कि वे एक समय में वस्तु के अनेक धर्मों का प्रतिभासन करा सकें। यदि ज्ञाता इन्द्रियो की इस अशक्ति को ध्यान मे न रख कर इन्द्रिय वस्तु के जिस धर्म का बोध कराती है केवल उसी एक धर्म को पूर्ण वस्तु समझ लेता है तो उसका ज्ञान अप्रमाण कहा जाता है। जव ज्ञाता शब्दो के द्वारा दूसरो पर अपने ज्ञान को प्रकट करने के लिए तत्पर होता है तब उसका वह शब्दोन्मुख अस्पष्ट ज्ञान स्वार्थ श्रुतप्रमाण कहा जाता है और ज्ञाता जो वचन बोलता है वे वचन परार्थश्रुत कहे जाते है। श्रुतप्रमाण के ही भेद नय' कहलाते है। "इह त्रिविध श्रुत-मिथ्याश्रुत, नयश्रुत, स्याद्वादश्रुतम्"-न्यायावतार टी०, पृ० ६३ २ "सम्पूर्णार्थविनिश्चापि स्याद्वादश्रुतमुच्यते"।-न्यायावतार, कारि० ३० "स्याद्वाद सकलादेश'-लघीयस्त्रय। "सकलादेश प्रमाणवाक्यम्'। -श्लोकवातिक पृ० १८१ ५'अर्थस्यानेकरूपस्य धी प्रमाण'।-अष्टशती। "विकलादेशो नयवाक्यम्'। लो० वा०, पृ० १३७ । "जैनदर्शन में इन्द्रियजन्यज्ञान को अस्पष्ट कहा जाता है। "प्राङनामयोजनाच्छेष श्रुत शब्दानुयोजनात्"। -लघीयस्त्रय "न केवल नामयोजनात्पूर्व यदस्पष्टज्ञानमुपजायते तदेव श्रुत, किन्तु शब्दानुयोजनाच्च यदुपजायते तदपि सगृहीत भवति"।ज्यायफमुदचन्द्रोदय।। "श्रुत स्वार्थ भवति परार्थ च , ज्ञानात्मक स्वार्थ वचनात्मक परार्थ, तद्भवा नया"। सर्वार्थसिद्धि Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ जिस प्रकार एक इन्द्रिय एक समय में वस्तु के अनेक धमों का बोध नहीं करा सकती, उसी प्रकार एक शब्द एक समय में वन्तु के अनेक वर्मों का वोव नहीं करा सकता। इसलिए वक्ता किमी एक धर्म का अवलवन लेकर ही वचनव्यवहार करता है। यदि वक्ता एक वर्म के द्वाग पूर्ण वस्तु का बोध कराना चाहता है तो उसका वाक्य 'प्रमाण वाक्य' कहा जाता है। और यदि एक ही धर्म का बोध कराना चाहता है-शेप वर्मों में उसकी दृष्टि उदासीन है तो उमका वाक्य 'नयवाक्य' कहा प्रमाणवाक्य और नयवाक्य जैसे प्रमाण और नय की व्यवस्था सापेक्ष है, ज्ञाता की दृष्टि पर निर्भर है, उसी तरह प्रमाणवाक्य और नयवाक्य की व्यवस्या भी सापेक्ष है-वक्ता की विवक्षा पर अवलम्वित है । इस अपेक्षावाद को यदि दूर कर दिया जाय तो प्रमाणवाक्य किमी भी हालत में नहीं वन मकता। प्रमाणवाक्य की कल्पना तो दूर की बात है। ययार्थ में प्रमाण का विषय वचन के अगोचर है, अवक्तव्य है। अयवा हम उमे अवक्तव्य भी नहीं कह सकते, क्योकि प्रवक्तव्य भी वस्तु का एक धर्म है। अत यह कहना उचित होगा कि प्रमाण मूक है और उसका विपय स्वसवेद्य है। कैसे ? मुनिए-वस्तु, परस्पर विरोधी कहे जाने वाले अनेक धर्मों का अखड पिंड है जो प्रमाण का विपय है। ममार मे एक भी ऐना शब्द नहीं मिलता, जो उम अनेक धमों के पिंड को, जैसे जान एक समय में एक साथ जान लेता है उम तरह, एक समय में एक माय प्रतिपादन कर सके । 'सत्' शब्द केवल अस्तित्व धर्म का ही प्रतिपादन करता है। 'द्रव्य' शब्द केवल द्रव्य की ओर ही सकेत करताहै,पर्याय की ओर से उदासीन है। इसी लिए मन और द्रव्यमग्रह नय के विपय कहे जाते है। इसी तरह घट पट आदि शब्द भी घटत्व और पटत्व की ओर ही मकेत करते है गेप वमों के प्रति मूक है । इमी से इन्हें व्यवहार नय का विषय कहा जाता है। अधिक क्या कहें-जितना भी शब्द व्यवहार है वह मव नय है । इमी मे निद्धमेन दिवाकर ने नयो के भेद बतलाते हुए कहा है -"जितना वचन व्यवहार है और वह जिम जिस तरह मे हो सकता है वह मव नयवाद है।" श्रुतज्ञान के अतिरिक्त अन्य ज्ञानो का स्वार्थ प्रमाण यानी मूक कहा जाना भी उक्त समस्या पर अच्छा प्रकाग डालता है। वचन व्यवहार, जो नयवाद है, श्रुत प्रमाण में ही होता है। इसी लिए नयो को श्रुत प्रमाण के भेद कहा जाता है। ___आचार्य समन्तभद्र ने प्राप्तमीमामा में केवल नय सप्तभगी का वर्णन किया है। प्रमाण सप्तभगी का वर्णन नहीं किया और अन्त मे लिख दिया--"एकत्व अनेकत्व आदि विकल्पो में भी, नय विशारद को उक्त सप्तभगो की योजना उचित रीति से कर लेनी चाहिए'। इमी तरह मिद्धसेन दिवाकर ने सन्मतितर्क के नयकाण्ड मे नयसप्तभगी का ही वर्णन किया है। स्याद्वाद और मप्नभगीवाद की जो कुछ स्परेखा वर्तमान मे उपलब्ध है उसका श्रेय इन्ही दोनो प्राचार्यों को प्राप्त है । अत उक्त दो महान् प्राचार्यों के द्वारा प्रमाण मतभगी का वर्णन न किया जाना रहस्य से खाली नहीं कहा जा सकता। किन्तु एक वात अवश्य है। दोनो प्राचार्यों के ग्रथो का मूक्ष्म दृष्टि मे अध्ययन करने पर प्रमाण सप्तभगी के वीजभूत वाक्यो का कुछ आभास मा होता है। अकलकदेव सरीखे प्रमाण नय विशारद की दृष्टि में यह विशकलित वाक्याग कैसे छिप सकते थे? हमारा मत है कि उपलब्ध दिगवर जैन साहित्य में प्रमाण मप्तमगी का मर्वप्रथम स्पष्ट निर्देश करने का श्रेय भट्टाकलक को ही प्राप्त है। "जावइया वयणवहा तावइया चेव होति णयवाया ॥"३-४७ सन्मतितर्क। ३ "एकानेकविफल्पादावुत्तरत्रापि योजयेत् । प्रक्रिया भङ्गिनीमेना नयैर्नयविशारद" ॥२३॥ "तत्त्वज्ञान प्रमाण ते युगपत् सर्वभासनम् । क्रमभावि च यज्नान स्याद्वादनयसस्कृतम्"॥१०१॥ प्राप्तमीमासा नयानामेकनिप्ठाना प्रवृत्ते श्रुतवम॑नि । सम्पूणार्यविनिश्चापि स्याद्वादश्रुतमुच्यते ॥३०॥-न्यायावतार Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सप्तभगी प्रमाणवाक्य और नयवाक्य में मौलिक भेद प्रमाण वाक्य और नय वाक्य के प्रयोग में ज्ञाता की विवक्षा के अतिरिक्त भी कोई मौलिक भेद है या नहीं? इस प्रश्न के समाधान के लिए जैनाचार्यों के द्वारा दिए गये उदाहरणो पर एक आलोचनात्मक दृष्टि डालना श्रावश्यक है। दिगम्बराचार्यों में, अकलकदेव राजवातिक' में और विद्यानद श्लोकवार्तिक' में 'प्रमाण सप्तभगी,' और 'नयमप्तभगी' का पृथक् पृथक् व्यास्यान करते है। किन्तु दोनो वाक्यो में एक ही उदाहरण 'स्यादस्त्येवजीव' (किसी अपेक्षा से जीव सत्स्वरूप ही है) देते है। किन्तु लघीयस्त्रय के स्वोपज्ञ भाष्य' मे वे ही अकलक देव दोनो मे जुदे-जुदे उदाहरण देते है । प्रमाण वाक्य का उदाहरण-स्याज्जीव एव (स्यात् जीव ही है) और नय वाक्य का उदाहरण-स्यादस्त्येव जीव (स्यात् जीव सत् स्वरूप ही है) है। प्राचार्य प्रभाचन्द्र भी दोनो वाक्यो मे एक ही उदाहरण देते है-"स्यादस्ति जीवादि वस्तु" (जीवादि वस्तु कचित् सत्स्वरूप है)। आचार्य कुन्दकुन्द ने पञ्चास्तिकाय तथा प्रवचनसार में एक-एक गाथा देकर सात भग के नाम मात्र गिना दिये है। दोनो अन्थो में भगो के क्रम में तो अन्तर है ही, इसके अतिरिक्त एक दूसरा भी अन्तर है । पञ्चास्तिकाय मे 'प्रादेसवसेण' लिखा हुआ है जव कि प्रवचनसार मे 'पज्जायण टु फेणवि' पाठ दिया गया है । प्रवचनसार के पाठ से दोनो टीकाकारो ने एवकार (ही) का ग्रहण किया है। प्राचार्य अमृतचन्द्र उदाहरण देते हुए, पञ्चास्तिकाय की टीका मे 'स्यादस्ति द्रव्य' (स्यात्द्रव्य है) लिखते है और प्रवचनसार की टीका मे 'स्यादस्त्येव' (कथचित है ही) लिखते हैं। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने अपने दो ग्रन्थो मे भिन्न-भिन्न दृष्टियो से क्यो व्याख्यान किया, इस प्रश्न का समाधान अमृतचन्द्र ने नही किया। उनके वाद के द्वितीय टीकाकार जयमेन ने इस रहस्य को खोला है। वे लिखते है–स्यादस्ति' यह वाक्य सकल वस्तु का वोध कराता है, अत प्रमाण वाक्य है । और 'स्यावस्त्येव द्रव्य' यह वाक्य वस्तु के एक धर्म का वाचक है, अत नयवाक्य है। वे और भी लिखते है:-'पञ्चास्तिकाय' मे 'स्यादस्ति' आदि प्रमाण वाक्य से प्रमाण सप्तभगी का व्याख्यान किया। यहां 'स्यावस्त्येव' वाक्य में एवकार ग्रहण किया है वह नय सप्तभगी को बतलाने के लिए कहा गया है। सप्तभगीतरगिणी के कर्ता भी दोनो वाक्यो में एक ही उदाहरण देते है-'स्यास्त्येव घट' (घट कथचित् सत्स्वरूप ही है)। यह तो हुआ दिगम्बराचार्यों के मतो का उल्लेख, अव श्वेताम्वराचार्यों के मत भी सुनिए। अभयदेवसूरि लिखते है-'स्यादस्ति' (कथचित् है) यह प्रमाणवाक्य है। 'अस्त्येव' (सत्स्वरूप ही है) यह दुर्नय है। 'अस्ति' (है) यह सुनय है, किन्तु व्यवहार मे प्रयोजक नहीं है । "स्यादस्त्येव" (कथचित् सत्स्वरूप ही है)यह सुनय वाक्य ही व्यवहार में कारण है। 'देखो--राजवातिक, पृ० १८१। देखो-श्लोकवातिक, पृ० १३८ । 'स्याज्जीव एव इत्युक्ते नैकान्तविषय स्याच्छब्द , स्यादस्त्येव जीव इत्युक्ते एकान्तविषय. स्याच्छब्द.' । "देखो-प्रमेयकमलमातंड, पृ० २०६ । ५ "स्यादस्तीति सकलवस्तुग्राहकत्वात् प्रमाणवाक्य, स्यादस्त्येव द्रव्यमिति वस्त्वेकदेशग्राहकत्वानयवाक्यम्"। --पञ्चास्तिकायटीका, पृ० ३२। "पूर्व पञ्चास्तिकाये स्यादस्तीत्यादि प्रमाणवाक्येन प्रमाणसप्तभगी व्याख्याता, अत्र तु स्यादस्त्येव यदेवकारग्रहण तन्नयसप्तभगीज्ञापनार्थमिति भावार्थ'-प्रवचनसारटीका पृ० १६२। "स्यादस्ति" इत्यादि प्रमाण, "अस्त्येव" इत्यादि दुर्नय , "अस्ति" इत्यादिक सुनयो न तु सव्यवहाराङ्गम्, "स्यादस्त्येव" इत्यादिस्सुनय एव व्यवहारकारणम् ।-"सम्मतितर्फ" टी०, पृ० ४४६ ।। ४३ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ वादिदेवरि' ने 'स्यावस्त्येव सर्व' (नव वन्तु कयचित् सत्स्वरूप ही है) एक ही उदाहरण दिया है। मल्लिषेणमूरिने भी वादिदेव काही अनुसरण किया है। प्राचार्यों के उक्त मत दो भागो मे विभाजित किये जा सकते है-प्रथम, जो दोनो वाक्यों के प्रयोगो में कोई अन्तर नहीं मानते है, दूसरे, जो अन्तर मानते है। अन्नर मानने गलो में लचीयन्त्रय के कर्ता अकलकदेव, जयमेन तया अभयदेवसूरि का नाम उल्लेखनीय है। किन्तु इन अन्तर मानने वालो में भी परस्पर मे मतैक्य नहीं है। अकलकदेव प्रमाण वाक्य और नय वाक्य दोनो मे स्यात्कार और एवनार का प्रयोग आवश्यक समझने है। किन्तु जयनेन और अभयदेव स्यात्कार का प्रयोग तो आवश्यक ममझते है, पर एवकार का प्रयोग केवल नयगक्य मे ही मानते है । अकलकदेव के मत से यदि जीव, पुद्गल, धर्म अधर्म, घट, पट प्रादि वस्तु वाचक शब्दों के साथ स्यात्कार और एवकार का प्रयोग किया जाता है तो वह प्रमाण वाक्य है, और यदि अग्नि, नास्ति, एक, अनेक आदि धर्मगचक गब्दो के माथ उनका प्रयोग किया जाता है तो वह नयवाक्य है। इनके विपरीत जयमेन और अभयदेव के मत से किनी भी गव्द के साथ, वह भन्द धर्मवाचक हो या धमिवाचक हो, यदि एक्कार का प्रयोग किया गया है तो वह नयवाक्य है और यदि एक्कार का प्रयोग नहीं किया गया केवल स्यान् गब्द का प्रयोग किया गया है तो वह प्रमाण वाक्य कहा जाता है। उक्त दो मतो मे दो प्रश्न पैदा होते है१ प्रश्न--क्या धर्मिवाचक शब्द मकलादेशी और धर्मवाचक शव्द विकलादेशी होते है ? २ प्रश्न-क्या प्रत्येक वाक्य के साथ एक्कार का प्रयोग आवश्यक है ? प्रश्नो पर विचार विद्यानन्दि स्वामी ने प्रथम प्रश्न पर प्रकाग डालते हुए लिखा है-'किसी धर्म के अवलम्बन विना धर्मी का व्याख्यान नहीं हो नक्ता। जीव गन्द भी जीवत्वधर्म के द्वारा ही जीववस्तु का प्रतिपादन करता है।' विद्यानन्दि के मत ने समस्त गन्द क्निी न किसी धर्म की अपेक्षा से ही व्यवहृत होते है । आश्चर्य है कि अकलकदेव भी राजवातिक मै इसी मत का नमर्थन करते है। दूसरे प्रश्न पर अनेक आचार्यों ने प्रकाश डाला है। प्राय अधिकाग जैनाचार्य वाक्य के नाथ एवकार का प्रयोग उतना ही आवश्यक समझते है जितना स्यात्कार का। अत यद्यपि भिन्न-भिन्न आचार्यों के मतो पर निर्भर न्ह का न तो उक्त दोनो प्रश्नों का ही ठीक समाधान हो सकता है और न प्रमाणवाक्य और नयवाक्य का निश्चित वत्प ही निर्धारित होता है, फिर भी वस्तु विवेचन के लिए उस पर विचार करना आवश्यक है। यह सत्य है कि प्रत्येक शब्द वस्तु के किसी न किसी धर्म को लेकर ही व्यवहृत होता है। किन्तु कुछ शब्द वस्तु के अर्थ में इतने रुट हो जाते है कि उनमे किसी एक धर्म का वोध न होकर अनेक धर्मात्मक वस्तु का ही बोध होता है। जैन, जीव शब्द जीवनगुण की अपेक्षा से व्यवहृत होता है, किन्तु जीव गब्द के सुनने से श्रोता को केवल जीवनगण का वोष न होकर अनेक धर्मात्मक आत्मा का वोध होता है। इसी तरह पुद्गल, काल, आकाश आदि वन्नुवाचक शब्दो के विपय में भी समझना चाहिए। ससार मे वोलचाल के व्यवहार में आनेवाले पुस्तक, घट, वस्त्र, मकान यादि शब्द भी वस्तु का बोध कराते है। ऐमी दशा मे यदि अकलकदेव के मत के अनुसार धमिवाचक शब्दो को सकतादेगी और वर्मवाचक शब्दो को विकलादेशी कहा जाये तो कोई वाचा दृष्टिगोचर नहीं होती। किन्तु यहां पर भी हमे नर्वधा एकान्तवाद से काम नहीं लेना चाहिए, वर्मीवाचक भब्द सकलादेशी ही होते है और धर्मवाचक शब्द विकलादेगी ही होते है, ऐमा एकान्त मानने से सत्य का अपलाप होगा, कारण, वक्ता धमिवाचक शब्द के द्वारा 'देखो-प्रमाणनय तत्त्वालोक, परिच्छेद ४ सूत्र १५, तया परि० ७ सू० ५३। 'देसो-स्याद्वादमजरो, पृ० १८६। 'देखो-इलोकवातिक पृ० १३७, कारिका ५६। 'देखो-राजवातिक, पृ० १८१, वार्तिक १८।। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी ३३६ वस्तु के एक धर्म का भी प्रतिपादन कर सकता है और कभी एक धर्म के द्वारा पूर्ण वस्तु का भी वोध करा सकता है, क्योकि शब्द की प्रवृत्ति वक्ता के ग्राधीन है। जीव शब्द केवल जीवनगुण का भी वोध करा सकता है और 'अस्ति' शव्द अस्तित्व गुण विशिष्ट पूर्ण वस्तु का भी प्रतिपादन कर सकता है । अत " वर्मिवाचक शब्द सकलादेशी ही होते हैं और धर्मवाचक शब्द विकलादेशी ही होते है" यह कहना असगत जान पड़ता है। जैसा कि हम पहिले विद्यानन्दि का मत बतला श्राये है, दोनो गब्द दोनो का प्रतिपादन कर सकते है । क्या प्रत्येक वाक्य के साथ एवकार का प्रयोग आवश्यक है ? दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न एवकार के विषय मे है । एवकार वादियों का मत है कि शब्द के साथ एवकार (हिन्दी में उमे "ही" कहते है ) यदि न लगाया जाये तो सुनने वाले को निश्चित अर्थ का बोध नही होता । जैसे किमीने कहा--' घट लाओ'। सुनने वाले के चित्त में यह विचार पैदा होता है कि घट पर कोई खाम जोर नही दिया गया है, अत यदि घट के बदले लोटा ले जाऊँ तव भो काम चल सकता है । किन्तु यदि 'घट ही लायो' कहा जाये तो श्रोता को अन्य कुछ मोचने की जगह नहीं रहती और वह तुरन्त घट ले याता । अत निश्चित पदार्थ का बोध कराने के लिए प्रत्येक वाक्य में अवधारण होना आवश्यक है । इस मत पर टोका टिप्पणी करने से पहले, प्रमाण वाक्य और नय वाक्य के विषय में, हम पाठको को एक वात बतला देना आवश्यक समझते है । प्रमाण वाक्य मे वस्तु के सब धर्मों की मुख्यता रहती है और नयवाक्य मे जिस धर्म का नाम लिया जाता है केवल वही धर्म मुख्य होता है और गेव वर्म गौण समझे जाते है । दोनो वाक्यो के इस आन्तरिक भेद को, जिभे ममम्त जैनाचार्य एक स्वर मे स्वीकार करते हैं, दृष्टि में रख कर 'प्रमाणवाक्य में एवकार का प्रयोग होना चाहिए या नहीं' इम प्रश्न को मीमासा करने में सरलता होगी। "स्यादस्त्ये व जीव ” (स्यात् जीव सत् ही है) एवकारवादियो के मत से यह प्रमाणवाक्य है । अत इसमे मुख्यता का सूक्ष्म-मा भी मव धर्मो की मुख्यता रहनी चाहिए। किन्तु विचार करने मे इस वाक्य मे सब धर्मों की श्राभाम नही मिलता । कारण, एवकार अर्थात् 'ही' जिम गब्द के साथ प्रयुक्त होता है केवल उमी धर्म पर ज़ोर देता है और शेष धर्मो का निराकरण करता है । इमीमे मस्कृत मे उसे अवधारणक और अन्य व्यवच्छेदक के नाम से पुकारा जाता है । जव वक्ता सत् पर जोर देता है तब केवल सत् धर्म को ही प्रधानता रह जाती है, शेष धर्मों की प्रधानता को एवकार निगल जाता है । इमीमे स्वामी विद्यानन्दि ने लिखा है ' 'म्यात्कार के विना श्रनेकान्त की सिद्धि नही हो मकती, जैमे एवकार के विना यथार्थ एकान्त का अवधारण नहीं हो सकता ।' एवकार को हटा कर यदि 'स्यादस्ति जीव. ' कहा जाए तो किमी एक धर्म पर जोर न होने से सव धर्मों की प्रधानता सूचित होती है और इस दशा मे हम उसे प्रमाणवाक्य कह सकते है । शायद यहाँ पर आपत्ति की जाये कि एवकार के न होने से सुनने वाले को निश्चित धर्म का बोध नही होगा । श्रत श्रोता अस्तित्व धर्म के साथ नास्तित्व आदि धर्मो का भी ज्ञान करने में स्वतन्त्र होगा। यह प्रपत्ति हमें इप्ट ही । प्रमाणवाक्य से श्रोता को वस्तु के किसी एक ग्रश का भान नही होना चाहिए। यह कार्य तो नय वाक्य का है । अत प्रमाणवाक्य और नयवाक्य के लक्षण की रक्षा करते हुए, हम इसी निर्णय पर पहुँचते हैं कि दोनो वाक्यो का आन्तरिक भेद वक्ता की विवक्षा पर अवलम्वित: । और बाह्य भेद एवकार के होने न होने से जाना जा सकता है । जो श्राचार्य प्रमाण वाक्य और नय वाक्य के प्रयोग में कोई अन्तर नही मानते हैं उनके मत से वस्तु के समस्त गुणो मे काल, आत्मा, अर्थ, गुणिदेश, ससर्ग, सम्बन्व, उपकार श्रौर शब्द की अपेक्षा श्रभेदविवक्षा मान कर एक धर्मं को भी अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादक कहा जाता है । १ "न हि स्यात्कारप्रयोगमन्तरेणानेकान्तात्मकत्वसिद्धि, एवकारप्रयोगमन्तरेण सम्यगेकान्तावधारणसिद्धिवत्" । — युक्त्यनुशासन पृ० १०५ । टीका Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ यह तो हुआ वाक्यो का शास्त्रीय विवेचन । साधारण रीति से सम्पूर्ण द्वादशाग वाणी प्रमाणश्रुत और उसका प्रत्येक अग नयश्रुत है । या प्रत्येक ग्रग प्रमाणश्रुत है और उस श्रग का प्रत्येक श्रुत स्कन्ध नयश्रुत है । या सम्पूर्ण ग्रन्थ प्रमाणश्रुत है और उसका प्रत्येक वाक्य नयश्रुत हैं । इसी तरह वक्ता एक वस्तु के विषय में जितना विचार रखता है वह पूर्ण विचार प्रमाण है और उस विचार का प्रत्येक अश नय है । इस तरह प्रमाण और नय की व्यवस्था सापेक्ष समझनी चाहिए । सप्तभगीवाद वस्तु और उसके प्रत्येक धर्म की विधि, प्रतिषेध सापेक्ष होने के कारण, वस्तु और उसके धर्म का प्रतिपादन सात प्रकार से हो सकता है। वे सात प्रकार निम्नलिखित है - ३४० १ - स्यादस्ति २ स्यात् नास्ति ३ - स्यादस्ति नास्ति ४ - स्यादवक्तव्य कथचित् है । ५- स्यादस्ति वक्तव्य, च ६ -- स्यान्नास्ति अवक्तव्य, च ७ - स्यादस्ति नास्ति, अवक्तव्य, च " 33 33 "1 11 नही है । है और नही है । श्रवाच्य है । है और श्रवाच्य है । नही है और श्रवाच्य है । है, नही है, और अवाच्य है । 11 इन सातो प्रकारो के समूह को सप्तभगी कहते है । इन सात वाक्यो का मूल विधि और प्रतिषेध है'। इसलिए आधुनिक विद्वान् इसे विधिप्रतिषेधमूलक पद्धति के नाम से भी पुकारते है । उपलब्ध समस्त जैन वाङ्मय में, आचार्य कुन्दकुन्द के पचास्तिकाय और प्रवचनसार मे सबसे प्रथम सात भगी का उल्लेख पाया जाता है। जैनेतर दर्शनो में, वैदिक दर्शन में यद्यपि अनेकान्तवाद के समर्थक अनेक विचार मिलते हैं और इसीलिए सत् असत् उभय और अनिर्वचनीय भगो का आशय भिन्न-भिन्न वैदिक दर्शनो में देखा जाता है, फिर भी उक्त सात भगो में से किसी भी भग का सिलसिलेवार उल्लेख नही है । बौद्धदर्शन मे तो स्थान स्थान पर सत्, असत् उभय और अनुभय का उल्लेख मिलता है जो चतुष्कोटि के नाम से ख्यात है । माध्यमिकदर्शन का प्रतिष्ठापक प्रार्य नागार्जुन उक्त चतुष्कोटि से शून्य तत्त्व की व्यवस्थापना करता है । जैनो की श्रागमिक पद्धति मे वचनयोग के भी चार ही भेद किये गये है- सत्य ( सत्), असत्य (असत्), उभय और अनुभय । जैन श्रागमिक पद्धति मे तथा बौद्धदर्शन मे जिसे अनुभय के नाम से पुकारा गया है, जैनदार्शनिक पद्धति में उसे ही अवक्तव्य या अवाच्य का रूप दिया गया है । अत मप्तभगी के मूल स्तम्भ उक्त चार भग ही है, जिन्हे जैनो की आगमिक पद्धति तथा जैनेतर दर्शनों में स्वीकार किया गया है। शेष तीन भग, जो उक्त चार भगो के मेल से तैयार किये गये है, शुद्ध जैन दार्शनिक मस्तिष्क की उपज है । 'विधिकल्पना (१) प्रतिषेधकल्पना (२) क्रमतो विधिप्रतिषेधकल्पना (३) सह विधिप्रतिषेधकल्पना (४) विधिकल्पना, सह विधिप्रतिषेधकल्पना (५) प्रतिषेधकल्पना, सह विधिप्रतिषेधकल्पना (६) क्रमाक्रमाभ्या विधिप्रतिवेधकल्पना (७) अष्टसहस्री, पृ० १२५ । "न सन्नासन्न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम् । चतुष्कोटिविनिर्मुक्त तत्त्व माध्यमिका विदु ॥" -- माध्यमिककारिका Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद और सप्तभगी ३४१ सप्तभगी के मूल-आधार चार भगो का स्पष्टीकरण यह सप्त भगी सुनने वाले को कुछ व्यर्थ सी जचती है, किन्तु प्रतिदिन बोलचाल की भाषा में हम जो शब्द व्यवहार करते है, यह उसी का दार्शनिक विकास है । यहा हम गुरु शिष्य के प्रश्नोत्तर के रूप में उस पर प्रकाश डालते है। गुरु-एक मनुप्य अपने सेवक को आज्ञा देता है-'घट लाओ' तो सेवक तुरन्त घट ले आता है और जब वस्त्र लाने की आज्ञा देता है तो वह वस्त्र उठा लाता है, यह आप व्यवहार में प्रति दिन देखते है, किन्तु क्या कभी आपने इस वात पर विचार किया है कि सुनने वाला घट शब्द सुन कर घट ही क्यो लाता है, और वस्त्र शब्द सुन कर वस्त्र ही क्यो लाता है ? शिष्य-घट को घट कहते है और वस्त्र को वस्त्र कहते है, इसलिए जिस वस्तु का नाम लिया जाता है सेवक उसे ही ले आता है। गु०-घट को ही घट क्यो कहते है ? वस्त्र को घट क्यो नही कहते ? शि०-घट का काम घट ही दे सकता है, वस्त्र नहीं दे सकता। गु०-घट का काम घट ही क्यो देता है ? वस्त्र क्यो नही देता? शि०-यह तो वस्तु का स्वभाव है। इसमें प्रश्न के लिए स्थान नहीं है। गु०-क्या तुम्हारे कहने का यह आशय है कि घट मे जो स्वभाव है वह वस्त्र में नहीं है और वस्त्र मे जो स्वभाव है वह घट मे नही है ? शि०-हाँ, प्रत्येक वस्तु अपना जुदा-जुदा स्वभाव रखती है। गु०-ठीक है, किन्तु अब तुम यह बतलायो कि क्या हम घट को असत् कह सकते है । शि०–हाँ, घडे के फूट जाने पर उसे असत् कहते ही है । __ गु०-टूट-फूट जाने पर तो प्रत्येक वस्तु असत् कही जाती है। हमारा मतलव है कि क्या घट के मौजूद रहते हुए भी उसे असत् कहा जा सकता है ? शि०-नही, कभी नही। जो "है", वह "नहीं" कैसे हो सकता है ? गु०-किनारे के पास आकर फिर वहाव मे बहना चाहते हो। अभी तुम स्वय स्वीकार कर चुके हो कि प्रत्येक वस्तु का स्वभाव जुदा-जुदा होता है और वह स्वभाव अपनी ही वस्तु मे रहता है, दूसरी वस्तु में नही रहता। शिo हाँ, यह तो मै अव भी स्वीकार करता हूँ। क्योकि यदि ऐसा न माना जायेगा तो प्राग पानी हो जायगी और पानी आग हो जायेगा । कपडा मिट्टी हो जायेगा और मिट्टी कपडा बन जायेगी। कोई भी वस्तु अपने स्वभाव में स्थिर न रह सकेगी। गु०- यदि हम तुम्हारी ही बात को इस तरह से कहें, कि प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव से है और पर स्वभाव से नही है, तो तुम्हें कोई आपत्ति तो नही है ? शि०-नही, इसमे किसको आपत्ति हो सकती है ? गु०-अब फिर तुमसे पहला प्रश्न किया जाता है, क्या मौजूद घट को असतू कह सकते है ? शि०-(चुप)। गुरु-चुप क्यो हो ? क्या फिर भी भ्रम में पड गये? शि०-परस्वभाव की अपेक्षा से मौजूद घट को भी असत् कह सकते है। गुल-अव रास्ते पर आए हो। जव हम किसी वस्तु को सत् कहते हैं तो हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि उस वस्तु के स्वरूप की अपेक्षा से ही उसे सत् कहा जाता है। पर वस्तु के स्वरूप की अपेक्षा से दुनिया की प्रत्येक Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ प्रेमी - श्रभिनदन- प्रथ वस्तु असत् है । देवदत्त का पुत्र दुनिया भर के मनुष्यो का पुत्र नही और न देवदत्त ससार भर के पुत्रो का पिता है । यदि देवदत्त अपने को ससार भर के पुत्रो का पिता कहने लगे तो उस पर वह मार पडे जो जीवन भर भुलाये से भी न भूले। क्या इसमे हम यह नतीजा नही निकाल सकते है कि देवदत्त पिता है और नहीं भी है । प्रत ससार में जो कुछ 'है', वह किसी अपेक्षा मे नही भी है । सर्वथा सत् या सर्वथा श्रसत् कोई वस्तु हो नही सकती । इसी अपेक्षावाद का सूचक " स्यात्" गब्द है जिसे जैन तत्त्वज्ञानी अपने वचन व्यवहार में प्रयुक्त करता है । उसी को दार्शनिक भाषा में "स्यात् सत्" और " स्यात् असत्" कहा जाता है । हम ऊपर लिखा है कि शब्द की प्रवृत्ति वक्ता के अधीन है, अत प्रत्येक वस्तु में दोनो धर्मों के रहने पर भी वक्ता अपने अपने दृष्टिकोण से उसका उल्लेख करते हैं । जैसे दो आदमी सामान खरीदने के लिए बाज़ार जाते है । वहाँ किसी वस्तु को एक अच्छी वतलाता है, दूसरा उसे बुरी बतलाता है । दोनो मे बात वढ जाती है । तब दुकानदार या कोई राहगीर उन्हें समझाते हुए कहता है, 'भई, क्यो झगडते हो ? यह चीज अच्छी भी है और बुरी भी है । तुम्हारे लिए अच्छी हैं और इनके लिए बुरी है। अपनी अपनी निगाह ही तो है' । यह तीनो व्यक्ति तीन तरह का वचन व्यवहार करते है - पहला विधि करता है, दूसरा निषेध और तीसरा दोनो । वस्तु के उक्त दोनो धर्मों को यदि कोई एक साथ कहने का प्रयत्न करे तो वह कभी भी नही कह सकता । क्योकि गब्द एक समय में एक ही धर्म का कथन कर सकता है। ऐसी दशा मे वस्तु श्रवाच्य कही जाती है । उक्त चार वचन व्यवहारो को दार्शनिक भाषा मे 'स्यात् सत्', 'स्यात् असत्', 'स्यात् सदसत्' और 'स्यादवक्तव्य' कहते है । सप्तभगी के मूल यही चार भग है । इन्ही में से चतुर्थ भग के साथ क्रमश पहले, दूसरे और तीसरे भग को मिलाने से पाँचवाँ छठा और सातवाँ भग वनता है । किन्तु लोक व्यवहार में मूल चार तरह के वचनो का ही व्यवहार देखा जाता है । सप्तभगी का उपयोग सप्तभगीवाद का विकास दार्शनिक क्षेत्र मे हुआ था, इसलिए उसका उपयोग भी वही हुआ हो तो कोई आश्चर्य नही है । उपलब्ध जैन वाड्मय मे, दार्शनिक क्षेत्र मे सप्तभगीवाद को चरितार्थ करने का श्रेय स्वामी समन्तभद्र को ही प्राप्त है । किन्तु उन्होने 'प्राप्तमीमासा' में अपने समय के सदैकान्तवादी साख्य, असदैकान्तवादी माध्यमिक, सर्वथा उभयवादी वैशेषिक और अवाच्यैकान्तवादी बौद्ध के दुराग्रहवाद का निराकरण करके मूल चार भगो का ही उपयोग किया है। और शेष तीन भगो के उपयोग करने का सकेत मात्र कर दिया है। 'आप्तमीमासा' पर 'अप्टशती' नामक भाप्य के रचयिता श्री अकलकदेव ने उस कमी को पूरा कर दिया है । उनके मत से, शकर का अनिर्वचनीयवाद सदवक्तव्य, वौद्धो का अन्यापोहवाद असदवक्तव्य, और योग का पदार्थवाद सदसद वक्तव्य कोटि मे सम्मिलित होता है ।" सात भगो मे सकलादेश और विकलादेश का भेद सप्नभगीवाद के सकलादेशित्व श्रौर विकलादेशित्व की चर्चा हम 'प्रमाण वाक्य और नय वाक्य' मे कर है और यह भी सि श्राये है कि इसमें श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनो एक मत है, किन्तु श्वेताम्बर साहित्य मं एक ऐसे मत का उल्लेख मिलता है जो मात भगो में मे सत्, प्रसत् और अवक्तव्य इन तीनो भगो को सकलादेशी "शेयभगाश्च नेतव्या यथोक्तनययोगत " । प्राप्तमीमासा विशेष जानने के लिए देखो प्रष्टसहस्री, पृ० १३६ । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याहाद और सप्तभंगी ३४३ तथा शेष चार भगो को विकलादेशी स्वीकार करता है। विगेपावश्यक भाष्यकार' इमी मत के पोपक जान पडते है। विन्नु उनका यह म्वतन्त्र म्न है या उन्होंने अपने पूर्ववर्ती किमी प्राचार्य मे लिया है, इस विषय में हम अभी कुछ नहीं कह सकते। सन्मति नर्क में टीकाकार अभयदेवमूनि उक्त मन का उल्लेख 'इनि केचिन्' के नाम से करते है। वे लिन्न है-'उक्त तीन मग गौणता और प्रवानना ने सन्न वात्मक एक वन्नु का प्रतिपादन करते हैं, इमलिए नकलादा है और मेष चार भग भी यद्यपि सक्न धर्मान्मक वस्तु का प्रतिपादन करते हैं फिर भी साग वस्तु के वोवक होने में विक्लादेश कहे जाते है ऐमा किन्ही का मत है। मालून नहीं, इस मन के अनुयायी प्रमाण मनभगी और नयमनमगी को मानते थे या नहीं? दिगम्बगवार्यों मे ने क्मिी ने नी इन मत न उल्लेख तक नहीं दिया है। किन्तु एक मत का उल्लेख अवश्य मिलता है जो उक्त मत ने दिलकुल विपरीत है। विद्यानन्दि तया मप्नभनी तरगिणी के कर्ता ने उसका निराकरण किया है। विद्यानन्दि लिने हैं-'कोर्ड विद्वान अनेक धर्मान्मक वस्तु के प्रतिपादक गक्य को नकलादेग और एक धर्मात्मक वस्तु के प्रतिपादक वाञ्च को विकलादेश कहते है। किन्तु ऐसा मानने से प्रमाण नप्तमगी और नयमप्तमगी नहीं बन सकती। कारण, तीन भग-नन्, अनन् और अवनव्य-वन्नु के एक वर्म का ही प्रतिपादन करते है, अन वे विकलादेश कहे जायेगे, और ग्रेप त्रार मग अनेक धर्मान्मक वन्नु का प्रतिपादन करते हैं, इसलिए मकलादेश कहे जायेंगे। मात भगो में नेतीनगेनयवाक्य और गेपचार को प्रमाण वाक्य मानना मिद्धान्त विरुद्ध है। भगो के क्रम में भेद मप्नभगी के विषय मे एक अन्य बात नी ध्यान देने योग्य है, वह है भगो के क्रम में मतभेद का होना । कुछ ग्रन्यकारें'प्रवक्तव्य' को तीमरा और 'न्यान् सदसत्' को चतुर्थ भग न्वीकार करते है और कुछ स्यात् सदमत् को तीमग और अवक्तव्य को चतुर्य भग पढ़ने है। इस क्रम भेद में दोनो सम्प्रदायो के प्राचार्य मम्मिलित है। कुछ आचार्यों ने अपने ग्रन्यो में दोनो पाठों को स्थान दिया है। अकलकदेव राजवातिक में दो स्थलो पर सप्तमगी का वर्णन करते है और दोनो पाठ देते है। उक्त दोनो क्रमों में मे मूल क्रम कौन-सा है, यह बतलाने मे हम असमर्थ है। कारण, मान भगो का सर्वप्रथम उल्लेख करने वाले आचार्य कुन्दकुन्द है और उन्होने अपने दो ग्रन्यो मे दोनो पाठो को न्यान दिया है। ग्यारह्वी यताब्दी तक के विद्वानों ने इस क्रम भेद के विपय में एक भी भब्द नहीं लिखा है। वारहवी शताब्दी के एक स्वताम्बर विद्वान ने इस ओर ध्यान दिया है। वे लिखते है -"कोई-कोई इम (अवक्तव्य) भग को तीनरेभग के न्यान में पड़ने हैं और तीसरे को इसके म्यान में। उस पाठ में भी कोई दोष नहीं है, क्योकि वस्तु विवेचन में कोई अन्तर नहीं पटता।" '"एते त्रय सकलादेशा । चत्वारोऽपि विकलादेशा. प्रोच्यते" । विशे० भा० गा० २२३२ ॥ २सन्मतितकं टी०, पृ० ४४५, ५० ३० । 'श्लोकवा०, पृ० १३७, पं० १३-१७ "सभाष्य तत्त्वार्याधिगम, प्रा० ५, सू० ३१, पृ० ४०६ प० २०, तया पृ० ४१०५० २६ । विशेषा० भा० गा० २२३२ । प्रवचनसार पृ० १६१ । तत्त्वार्यराजवा० पृ० १८१। प्रमाणनय तत्वालोक, परि० ४, सू० १७-१८ । स्याद्वाद म० पृ० १८६ । नयोपदेश पृ० १२ । पञ्चास्तिकाय पृ० ३०। प्राप्तमीका० १४। तत्त्वा०रा०पृ० २४, वा०५। तत्त्वा० श्लो० पृ० १२८ । सप्तभ० पृ० २। प्रमेय० मा० पृ० २०६ । -लेखक "अयं च भग कश्चित्तृतीयभंगस्याने पठ्यते, तृतीयश्चतम्य स्थाने । नचवमपि कश्चिद्दोष , अर्थविशेषस्याभावात्” -रत्नकरावता० परि० ४, सू० १८ । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ यथार्य में विधि और प्रतिषेध को कम से और एक साथ कथन करने की अपेक्षा से तीसरे और चौथे भग की सृष्टि हुई है । अत पहले दोनो का एक साथ कथन करके बाद को क्रम से कथन किया जाये, या पहले क्रम से उल्लेख करके पीछे एक साथ किया जाये तो वस्तु विवेचन मे कोई अन्तर दृष्टिगोचर नहीं होता। किन्तु अवक्तव्य को चतुर्थ भग पढने का ही अधिक प्रचार पाया जाता है। सप्तभगीवाद के खडन में लेखनी चलाने वाले शकराचार्य और रामानुज ने भी इसी पाठ को स्थान दिया है। . स्याद्वाद और उसके फलिताश सप्तभगीवाद के विषय मे जैनाचार्यों के मन्तव्यो का दिग्दर्शन कराकर हम इस निवन्ध को समाप्त करते है। काशी] - - - - - - - - - - - Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञता के इतिहास की एक झलक प० फूलचन्द्र जैन सिद्धान्तशास्त्री तीर्थकर सर्वज्ञ हो जाने पर ही मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं, ऐसा नियम है, किन्तु मध्यकाल मे सर्वजत्व के विषय में विवाद चल रहा है । अत मेरी इच्छा इसे समझने की रही है । यद्यपि दर्शन और न्याय के ग्रन्थो मे इसकी विस्तृत चर्चा मिलती है, तथापि इस विषय को समझने का मेरा दृष्टिकोण सर्वथा भिन्न है । मेरी इच्छा रही है कि जैन व अन्य धर्मों में सर्वज्ञता के विषय में प्राचीन काल मे क्या माना जाता रहा है, इसका प्रामाणिक सकलन किया जाय । यह प्रयाम उसीका फल है । (१) जैन मान्यता और उसका कारण जीव अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन श्रादि ग्रनन्त गुणो का पिंड है। इसके ससारी और मुक्त ये दो भेद है । जो जन्म-मरण की बाधा ने पीडित है वह ससारी श्रीर जिसके यह बाबा दूर हो गई है वह मुक्त है। मुक्त अवस्था में जीव की सब स्वाभाविक शक्तियाँ प्रकट हो जाती है, जो कि ममार-प्रवस्था मे कर्मों के कारण घातित रहती है । जीव के और मव गुणी में ज्ञान मुख्य है । इसके पांच भेद है -- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, श्रवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान और केवलज्ञान । यद्यपि प्रत्येक ग्रात्मा में एक ही ज्ञान' है जिसे कि 'केवलज्ञान' कहते हैं, किन्तु आवरण करने वाले कर्मों के भेद से उसके पांच भेद हो गये है । बात यह है कि श्रात्मा के मूल ज्ञान को केवलज्ञानावरण कर्म रोके हुए हैं। तो भी कुछ ऐसे प्रतिमन्द ज्ञानाश शेष रह जाते हैं जिन्हे केवलज्ञानावरण कर्म प्रकट होने से नही रोक सकता । मतिजनावरण आदि कर्म इन्ही ज्ञानागो को श्रावृत करते है और इसलिए ज्ञान के पाँच भेद हो जाते हैं । अन्य प्रकार में ज्ञान के दो भेद हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । जिम ज्ञान की प्रवृत्ति में आत्मा स्वय कारण है, उसे अन्य किमी बाह्य साधन की सहायता नही लेनी पडती उमे प्रत्यक्ष कहते हैं तथा जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता मे उत्पन होता है, उसे परोक्ष कहते हैं । यद्यपि ज्ञान मे स्वत जानने की शक्ति है, इसलिए मुख्य ज्ञान प्रत्यक्ष ही है, किन्तु ससारी अवस्था में श्रावरण के कारण यह शक्ति पगु बनी रहती है । अत ज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद हो जाते हैं । परोक्षज्ञान के दो भेद है मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । मतिज्ञान का दूसरा नाम श्राभिनिवोधिकज्ञान भी है । जो श्रभिमुख और नियमित पदार्थों को जानता है उसे मतिज्ञान या श्राभिनिवोधिकज्ञान कहते है । जो पदार्थ इन्द्रिय और मन से ग्रहण करने योग्य हो वह श्रभिमुख अर्थ कहलाता है । यह ज्ञान नियम से ऐसे हो अर्य को ग्रहण करता है । त इमे ग्राभिनिवोधिकज्ञान कहते हैं । सज्ञा, स्मृति, मति और चिन्ता ये चारो ग्राभिनिवोधिकज्ञान के पर्याय नाम है । ग्रामो मे इम ज्ञान के लिए 'अभि'निवोधिक' नाम मुख्य रूप से आया है । यद्यपि 'मति' इसका पर्याय - वाची है, फिर भी इस शब्द का मुख्य रूप से उपयोग पीछे से हुआ जान पडता है । सबसे पहले हम 'मतिज्ञान' शब्द का उपयोग श्राचार्य कुन्दकुन्द के 'नियमसार" मे देसते है । तत्त्वार्थसूत्र मे भी इसी शब्द का मुख्य रूप से उपयोग १ जीवो केवलणाणसहावो चेव । धवला श्रारा पत्र ८६६ ' णाणावरणीयस्स कम्मस्स पच पयडीओ आभिणिवोहियणाणावरणीय -- | धवला आरा पत्र ८६५ । ३ सण्णाण चउभेय मदिसुदश्रोही XX | गाथा १२ मतिश्रुतावधि - XX। सूत्र ε ४ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ हुआ है। कुछ विद्वानो का मत है कि साव्यवहारिक प्रत्यक्ष और मतिज्ञान एक है, परन्तु उपर्युक्त लक्षण को देखते हुए उनका यह मत असमीचीन प्रतीत होता है। वास्तव मे साव्यवहारिक प्रत्यक्ष मतिज्ञान का भेद है। मतिज्ञान के द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थ के निमित्त से जो अन्य पदार्थ का ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। जैसे, धूम को देख कर जो अग्नि का ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है। यह ज्ञान नियम से मतिज्ञान पूर्वक ही होता है। इन्द्रियाँ वर्तमान अर्थ को ही ग्रहण करती है, किन्तु मन त्रैकालिक पदार्थों को ग्रहण करता है। प्रत्यक्ष के तीन भेद है-अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान और केवलज्ञान । जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा लिये हुए विना किसी की सहायता के केवल मूर्तिक पदार्थों को जानता है, उमे अवधिज्ञान कहते है। इसके दो भेद है भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । जो जन्म लेते ही प्रकट हो जाता है, वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है और जो व्रत नियम आदि के निमित्त से होता है उसे गुणप्रत्यय अवधिज्ञान कहते है। पहले जो परोक्ष ज्ञान के दो भेद बतलाये गये है, वे सब ससारी जीवो के होते है, किन्तु यह ज्ञान सज्ञी पचेन्द्रियो मे से कुछ के ही सम्भव है। जो दूमरे के मनोगत अर्थ को जानता है उसे मन पर्ययज्ञान कहते है। यह ज्ञान सयमी जीवो के ही हो सकता है, अन्य के नहीं। तथा जो ज्ञान त्रिकालवर्ती सव पदार्थों को जानता है, उसे केवलज्ञान कहते है। यह ज्ञान करण, क्रम और व्यवधान से रहित है। जव यह प्रात्मा ज्ञान का आवरण करने वाले कर्मों का सर्वथा क्षय कर देता है तव इस ज्ञान की उत्पत्ति होती है। इस अवस्था के प्राप्त हो जाने पर जीव सर्वज्ञ, अरहन्त, सयोगिकेवली, जिन और भगवान आदि अनेक नामो से पुकारा जाता है । जैन-मतानुसार इस अवस्था के बाद ही जीव मोक्ष मार्ग के उपदेश का अधिकारी होता है । प्रकृति अनुयोगद्वार में लिखा है सइ भयवं उप्पण्णणाणदरिसी सदेवासुरमाणुस्सलोगस्स आदि गदि चयणोववाद बधमोक्ख इद्धि दिदि जुदि अणुभाग तक्क कल मण माणसिय भुत्त कद पडिसेविद आदिकम्म अरहकम्म सव्वलोए सव्वजीवे सब्वभावे सम्म सम जाणदि पस्सदि विहरदि त्ति। __ अर्थात्-"केवलज्ञान और केवलदर्शन के प्राप्त होने पर जिनदेव देवलोक, मनुष्यलोक और असुरलोक की गति और आगति का तथा चयन, उपपाद, वन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति, अनुभाग, तर्क, कल, मन, मानसिक, भूक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदि कर्म, अर्हकर्म, सब लोक, सव जीव और सब भाव इनको भले प्रकार एक साथ स्वय जानते और देखते हुए विहार करते है।" स्थानागसूत्र के स्थान २ उद्देश्य १ में भी लिखा है 'त समासो चउन्विह पण्णत । त जहा-दव्वनो खेत्तो कालो भावनो। तत्थ दव्वनो ण केवलणाणी सव्वदम्वाइ जाणइ पासइ । खित्तो ण केवलणाणी सव्व खेत्त जाणइ पासइ । कालो ण केवलणाणी सव्व काल जाणइ पासइ । भावनो ण केवलणाणी सब्चे भावे जाणइ पासइ।' ___ अर्थात्-"केवलज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा सक्षेप से चार प्रकार का है। सो द्रव्य की अपेक्षा केवलज्ञानी सव द्रव्यो को जानता और देखता है। क्षेत्र की अपेक्षा केवलज्ञानी सव क्षेत्रो को जानता और देखता है। काल की अपेक्षा केवलज्ञानी सव कालो को जानता और देखता है तथा भाव की अपेक्षा केवलज्ञानी सव भावो को जानता और देखता है।" __यहाँ तक हमने ज्ञान, ज्ञान के भेद, उनका स्वरूप व स्वामी इन सबके विषय में जैन मान्यता क्या है, इसका सक्षेप में सप्रमाण विचार किया। अब इस बात का विचार करते है कि जैन-परम्परा में केवलज्ञानी को सव पदार्थों का जानने और देखने वाला क्यो माना गया है ? इसके लिए हमे विविध धर्मों और दर्शनो मे आत्मा के स्वरूप के विषय मे क्या लिखा है और उससे जैनधर्म की मान्यता का कहाँ तक मेल बैठता है, इसका विचार कर लेना आवश्यक है। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञता के प्रतीत इतिहास की एक झलक ३४७ । उपनिपदो मे श्रात्मा के चार स्तर' बतलाये है -- शरीरचैतन्य, स्वप्नचैतन्य, सुपुप्तिचैतन्य और शुद्धचैतन्य | इनमे से प्रारम्भ के तीन चैतन्यो में आत्मा की उपलब्धि न होकर शुद्धचैतन्य में उनकी उपलब्धि बतलाई है, किन्तु वहाँ म शुद्धचैतन्य का विशेष स्पष्टीकरण नही मिलता । उपनिपदो मे ब्रह्मतत्त्व की भी पर्यालोचना की गई है । वहाँ इसके दो रूप बतलाये है - सगुणब्रह्म और निर्गुणब्रह्म । सगुणब्रह्म का परिचय देते हुए लिखा है कि ब्रह्म' सत्य, ज्ञान तथा अनन्तरूप है तथा वह विज्ञान श्रीर श्रानन्दमय है । निर्गुणब्रह्म नेति पदवाच्य वतलाया है । नैयायिक और वैशेषिको की मान्यता है कि श्रात्मा नित्य है और उसमे बुद्धि, सुख, दुस, इच्छा, द्वेप आदि विशेष गुण निवास करते है । मुक्तावस्था में उसके ये गुण नष्ट हो जाते हैं सास्य ग्रात्मा को सर्वथा नित्य श्रीर भोक्ता मानते है । बौद्ध श्रात्मा की स्वतन्त्र सत्ता को ही स्वीकार नही करते। वे उसे नामरूपात्मक मानते हैं । नामम्प मे वेदना, सज्ञा, सस्कार, विज्ञान और रूप लिये जाते हैं । उनके मत से श्रात्मा इन पाँचो का पुञ्जमात्र है । इस प्रकार हम देखते है कि ज्ञान और दर्शन आत्मा का स्वभाव है । उसे किसी ने स्वीकार नही किया, किन्तु जैन परम्परा ने प्रारम्भ से ही श्रात्मा को ज्ञायक माना है । उसका मत है कि ज्ञान और दर्शन श्रात्मा के अनपायी धर्म है— उनका कभी भी नाग नही होता । जैन-धर्म में जीव के दो प्रकार के गुण माने है -- अनुजीवीगुण और प्रतिजीवीगुण । जिनसे जीव का जीवन कायम रहता है और जो उसे छोड़ कर अन्यत्र नही पाये जाते हैं, वे श्रनुजीवीगुण है । चेतना की चेतनता इन्ही गुणो मे है । जिनसे जीव का जीवन कायम नहीं हैं, किन्तु जो जीव को छोड़ कर अन्य द्रव्यो मे भी पाये जाते हैं वे प्रतिजीवीगुण है । इन श्रनुजीवी गुणी में ज्ञान और दर्शन मुख्य है । यही कारण है कि प्रारम्भ से सभी शास्त्रकारो ने जीव को ज्ञान दर्शनस्वम्प मानने पर अधिक जोर दिया है। नियमसार' में बतलाया है कि जीव उपयोगमयी है । उपयोग के दो भेद है— ज्ञान श्रीर दर्शन । ज्ञान के भी दो भेद है— स्वभाव ज्ञान और विभावज्ञान । इन्द्रियातीत और असहाय ऐसे केवलज्ञान को स्वभावज्ञान कहते हैं और शेष मति श्रादि विभावज्ञान है । समयप्राभृत मे वतलाया है कि जो नाघु मोह का त्याग करके ग्रात्मा को ज्ञानम्वरूप मानता है वही साधु परमार्थ का जानकार है। कार्मिक ग्रन्थो में कर्म के आठ भेद किये है, उनमें ज्ञानावरण और दर्शनावरण ये दो स्वतन्त्र कर्म है । इससे भी जीव के ज्ञान-दर्शन स्वभाव की सिद्धि होती है । इम प्रकार जब हम इम रहस्य को जान लेते हैं कि अन्य मत-मतान्तरो में जो श्रात्मा का स्वरूप स्वीकार किया गया है उनमे जैन धर्म की मान्यता अपनी एक विशेष मौलिकता को लिये हुए है तब हमें इस सत्य के समझने में देर नही लगती कि जैन परम्परा में केवल ज्ञानी को मव पदार्थों का जानने श्रीर देखने वाला क्यो माना गया है ? वन्धनमुक्त श्रात्मा की दो ही अवस्थाएँ हो सकती है । एक तो यह कि वह किसी को भी न जाने और न देखे और दूसरी यह कि वह सव को जाने और देखे । पहली अवस्था श्रात्मा को ज्ञान स्वभाव न मानने पर प्राप्त होती है । किन्तु तब यह प्रश्न होता है कि ममारी आत्मा के ज्ञान कैसे होता है ? मास्य इसका यह उत्तर देते हैं कि बुद्धि स्वभावत अचेतन है और उसके निमित्त मे जो अध्यवसाय और सुखादिक उत्पन्न होते हैं वे भी अचेतन है, परन्तु वुद्धि के समर्ग से पुरुष अपने को ज्ञानवान अनुभव करता है और बुद्धि अपने को चेतन ग्रनुभव करती है तथा नैयायिक और वैशेषिक इस प्रश्न का यह उत्तर देते हैं कि यद्यपि ज्ञान का निवास श्रात्मा में ही हैं किन्तु जीव के मुक्त होने पर वह उससे अलग हो जाता है । ये दोनो ही उत्तर पर्याप्त है । इनमे मूल प्रश्न का समाधान नही होता, क्योकि बुद्धि का श्रन्वय जिस प्रकार चेतन के साथ देखा जाता है, वैसा जड के साथ नही । दूसरी अवस्था आत्मा को ज्ञान स्वभाव ' भारतीय दर्शन पत्र ७५ भारतीय दर्शन पत्र ८० 1 गाथा १० व ११ * गाथा ३७ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ प्रेमी अभिनंदन ग्रंथ मानने पर प्राप्त होती है । चूकि जैन परम्परा में आत्मा को ज्ञान स्वभाव माना है, श्रत वन्धनमुक्त आत्मा सब पदार्थों का ज्ञाता और दृष्टा ही सिद्ध होता है । यहाँ यह कहा जा सकता है कि जव वन्वनमुक्त श्रात्मा सवको जानता श्रौर देखता है तव श्रविशुद्ध अवस्था में उसे ऐसा मान लेने में क्या आपत्ति है ? ऋपियो ने इसका यह समाधान किया है। कि जीव मे श्रविशुद्धता विजातीय द्रव्य के सयोग से आती है और इमीलिए उसकी जानने की शक्ति भी पगु हो जाती है । कभी वह इन्द्रियो की सहायता से जानता है - विना इन्द्रियो की सहायता के नही जानता । कभी वह स्थूल को जानता है - सूक्ष्म को नही जानता । श्रादि । किन्तु जव श्रावरण का प्रभाव हो जाता है श्रीर श्रात्मा की मूलशक्ति प्रकट हो जाती है तब वह वर्तमान को जानता है, भूत और भविष्यत को नही, म्यूल को जानता हूँ सूक्ष्म को नहीं, अव्यवहित को जानता है व्यवहित को नही, स्व को जानता है पर को नहीं, यह नियम कैसे किया जा सकता है ? अर्थात् नही किया जा सकता । यही कारण है कि जैन परम्परा में केवल ज्ञानी को सवका जानने वाला और देखने वाला स्वीकार किया है । (२) इतर धर्मो व दर्शनो मे सर्वज्ञता का स्वीकार यहाँ तक हमने जैन मान्यता के अनुसार सर्वज्ञता और उसके कारण का विचार किया । श्रव हमे यह देखना है कि अन्य धर्मो या दर्शनो का सर्वज्ञता के विषय में क्या अभिमत हैं ? । बौद्ध साहित्य में 'धम्मपद' एक प्रकाशमान हीरा है, जिसका समार के सभी विचारको ने ग्रादर किया है । इसका मकलन बुद्ध भगवान के कुछ ही काल बाद हो गया था इसमें कुल ४२३ गाथाएं हैं, जो २६ वर्गों में विभक्त हैं । इसके १४वे वर्ग का नाम 'बुद्धवर्ग' है। इसकी पहली गाथा में बतलाया है कि "जिसकी जीत हार में परिणतं नही हो सकती, जिसकी जीत को लोक में कोई नही पहुँच सकता, उस पद अनन्तज्ञानी बुद्ध को तुम किस उपाय मे अस्थिर कर सकोगे ?" इसमे स्पष्ट है कि वौद्धो ने दर्शन-युग के पहले ही सर्वज्ञता को स्वीकार किया है। धर्मकीर्ति ने सर्वज्ञता की अपेक्षा जो मार्गज्ञता पर अधिक जोर दिया है, इसका कारण भिन्न है, जिसका हम यथावसर विचार करेंगे । न्यायदर्शन में सर्वज्ञता के स्थान मे योगिज्ञान को स्वीकार किया है। वहाँ बतलाया है कि सूक्ष्म (परमाणु आदि) व्यवहित ( दीवार ग्रादि के द्वारा व्यवधान वाली) तथा विप्रकृष्ट (काल तथा देव उभयरूप से दूरस्थ ) वस्तुग्रो ग्रहण लोक प्रत्यक्ष के द्वारा कथमपि नही हो मकता, परन्तु ऐसी वस्तुओ का ज्ञान अवश्य होता है । यत इससे योगिप्रत्यक्ष की सिद्धि होती है । इसके अतिरिक्त न्यायदर्शन मे एक नित्य ईश्वर श्रीर माना है, जो नित्य सर्वज्ञ है। वैशेपिक दर्शन का मत न्यायदर्शन से मिलता हुआ है । हाँ, प्रारंभ में वैशेषिक दर्शन ने नित्य ईश्वर की कल्पना पर जोर नही दिया । योगदर्शन मे योगी चार प्रकार के बतलाये है -- प्रथमकल्पिक, मधुकल्पिक, प्रज्ञाज्योति और प्रतिक्रान्तभावनीय । ये योगी की क्रम से विकसित होने वाली चार अवस्थाऐं है । पहली अवस्था मे श्रष्टाग योग की साधना, दूसरी मे चित्तशुद्धि और तीसरी में भूतजयी तथा इन्द्रियजयी होना मुख्य है । इन तीन अवस्थाओं के बाद योगी लोग अस्मिता में प्रतिष्ठित होकर सर्वज्ञता को प्राप्त करते है । और तब जाकर अतिक्रान्त भावनीय दशा को क्रम से प्राप्त होते हैं । इतना ही नही, प्रत्युत इस दर्शन मे भी अनादि ईश्वर की कल्पना की गई है । यहाँ ईश्वर का अर्थ ऐश्वर्य और ज्ञान की पराकाष्ठा लिया गया है । मीमांसादर्शन में यद्यपि लौकिक ज्ञान के लिए ही प्राप्त पुरुष प्रमाण माना गया है, पर धर्म का कथन केवल पौरुषेय वेद ही करते हैं । मीमासको के इस मत का क्या कारण है, इसका विचार तो हम आगे करेंगे, पर इतना t 'यस्य जित' इत्यादि गाथा का वह अनुवाद जो भवन्त श्रानन्द कौसल्यायन ने किया है । भारतीयदर्शन, पृष्ठ ३६७ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञता के प्रतीत इतिहास की एक झलक ३४६ सुनिश्चित है कि मीमामक भी सर्वजता के सर्वथा विरोधी न थे, क्योकि मीमामको ने आगम के द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थों का जान स्वीकार किया ही है। शवरऋपि अपने गावर भाप्य में लिखते है कि वेद के द्वारा भूत, भविष्यत, वर्तमान, सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थों का ज्ञान किया जा सकता है। गीताधर्म तो ईश्वर के अवतारवाद को प्रतिष्ठित करने और मजीवन देने के ही लिए लिखा गया है। अत उसके प्रत्येक वाक्य में सर्वज्ञता की झलक है, यह वात गीता के स्वाध्याय प्रेमियो मे छिपी हुई नहीं है। ___इस प्रकार जिन धर्मी या दर्शनो मे ज्ञान को प्रात्मा का स्वभाव नही माना है, उन्होने जव किमी-न-किसी रूप मे मर्वजता को स्वीकार किया है तव जो जैन धर्म प्रारम्भ से ही केवल ज्ञान को आत्मा का स्वभाव मानता पाया है, वह यदि मर्वज्ञता को स्वीकार करता है तो इममे क्या प्राश्चर्य है । पाश्चर्य तो तव होता जब वह आत्मा को ज्ञान स्वभाव मान कर भी सर्वज्ञता को नही स्वीकार करता। वास्तव मे सर्वजता यह जैन सस्कृति की आत्मा है। हमें यहां यह न भूल जाना चाहिए कि जिस प्रकार वैदिक संस्कृति का मूल आधार वेद है, उसी प्रकार जैन या श्रमण सस्कृति का मूल आधार सर्वज्ञता है ।। (३) सर्वजता का विरोध क्यो? जव मीमासक लोग किसी भी पुरुप के वेदो के द्वारा सब पदार्थों का ज्ञान होना मानते है तव यह प्रश्न होता है कि उन्होंने पुरुप की सर्वजता का विरोध क्यो किया? आगे हम इमी विषय पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे। जैमिनि ने वेद से सूचित होने वाले अर्थ को धर्म वतलाया है। इसलिए हम पहले वेदो में किस विषय का विवेचन है, यह जान लेना जरूरी है। सामान्यत वेदो के विषय' को विधि, मन्त्र, नामधेय, निषेध और अर्थवाद इन पांच भागो मे विभक्त किया जा सकता है। 'स्वर्ग की कामना वाला पुरुष यन करें' इस प्रकार के वचनो को विधि कहते हैं। अनुष्ठान के प्रयोजक वचनो को मत्र कहते है । अश्वमेघ, गोमेव, आदि नाम नामधेय कहलाते है । अनुचित कामो मे विरत होने को निषेध कहते है। तथा स्तुतिपरक कथन को अर्थवाद कहते है। फिर भी वेद मे विधिवाक्यो की मुस्यता है । इस विषय-विभाग को देखने मे हमे उस वैदिक धर्म की स्मृति हो पाती है, जिससे उत्पीडित प्राणियो के कप्ट निवारणार्थ जैनधर्म को बहुत-कुछ प्रयत्न करना पडा। किन्तु इसमे वैदिको को सन्तोष न हुआ। उनकी सर्वदा यह इच्छा रही कि जैन धर्म (श्रमणधर्म) नाम गेप हो जाय और उसके स्थान मे वैदिक धर्म की प्रतिष्ठा हो। जनता ज्ञान की उपासक न होकर यज्ञादि अनुप्फानो मेही अमिरुचि रक्खे। प्रारभ से ही श्रमणो ने अहिंसा को धर्म माना है, जब कि वैदिक लोग हिमा और अहिंमा का विभाग न करके वेदविहित कर्मों को धर्म मानते आये है। वास्तव मे यही समस्त झगडे की जड है। मीमासको ने जो यह घोषणा की कि 'धर्म मे वेद ही प्रमाण है, धर्म जैसे अतीन्द्रिय अर्थ को पुरुप नही जान सकता।' इसका मुख्य कारण धर्म में हिंसा का ही प्रवेश है। अव यदि मीमासक लोग पुरुप की स्वत मर्वज्ञता को स्वीकार कर लेते तो उनका यह मारा प्रयत्न धूलि में मिल जाता। यही कारण है कि मीमामको ने पुरुप की स्वत सर्वज्ञता का विरोध किया। इस विरोध का एक पक्ष और भी है। जैसा कि हम पहले लिख आये है कि श्रमण धर्म का मूल आधार सर्वज्ञता है, किन्तु मीमासक लोग श्रमणधर्म का उच्चाटन करना चाहते थे। सर्वज्ञता के जीवित रहते वह सभव न था। इसलिए भी मीमासकोने सर्वज्ञता का विरोध किया। यह कोरी कल्पना नहीं है। मीमासको को छोडकर और किसी ने सर्वजता का विरोध नहीं किया, इमी से यह सिद्ध है। 'चोदनालक्षणोऽर्थों धर्म । भारतीयदर्शन, पृष्ठ ३०३। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनंदन - ग्रथ ( ४ ) सर्वज्ञता का गौरवमय अतीत अभी तक हमने यह बतलाया है कि जैन परम्परा में सर्वज्ञता को किम रुप मे स्वीकार किया गया है और इतर धर्मो या दर्शनो मे उसे कहाँ तक स्थान प्राप्त है। साथ ही, यह भी बतलाया कि मीमासक लोग सर्वज्ञता का क्यो निषेध करते हैं । अव भी यह वात विचारणीय है कि दर्शनयुग के पहले भी क्या नर्वज्ञता का यही स्वरूप माना जाता था अथवा धर्मज्ञता या आत्मज्ञता की क्रमिक परिभाषाओ ने सर्वज्ञता के वर्तमान रूप की सृष्टि की ? गवर ऋषि अपने शावरभाष्य मे 'अयातो धर्म जिज्ञासा' सूत्र की व्याख्या करते हुए लिखते है कि "धर्म" के विषय में विद्वानो मे वडा विवाद है । किसी ने किसी को धर्म कहा है, किसी ने किसी को । सो विना विचारे धर्म मे प्रवृत्ति करने वाले मनुष्य को लाभ के स्थान मे हानि की ही अधिक संभावना है । प्रत धर्म का ज्ञान कराना आवश्यक है।” यहाँ प्रश्न उत्पन्न होता है कि मोमानको के मत मे जब पुरुष धर्म जैसे सूक्ष्म तत्त्व को जान ही नही सकना तब वह धर्म का क्या ज्ञान कराएगा ? थोडी देर को हम इस प्रश्न के उत्तर का भार कुमारिल पर ही छोड़ दे तो भी शवर ऋषि के इस कथन से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि शवर ऋषि यह जानते थे कि जैमिनि के समय में धर्म के विषय मे बडा वाद-विवाद हुआ था । जैमिनि को वैदिक धर्म की ही प्रतिष्ठा करनी थी । अत उन्होने 'चोदना लक्षणोऽर्थो धर्म ' कहकर वेद से सूचित होने वाले अर्थ को धर्म वतलाया । यह तो सव कोई जानता है कि जिस प्रकार वैदिक धर्म का मूल आधार वेद माने गये है उस प्रकार अन्य धर्मों का मूल आधार उम धर्म के प्रवर्त्तक पुरुष माने गये है । वेदो को एक या एक से अधिक पुरुषो ने रचा होगा । अत वैदिक धर्म का प्रवर्त्तक पुरुष ही सिद्ध होता है, पर यहाँ इसका विचार मुल्य नही है । इससे निश्चित होता है। कि जिस प्रकार वैदिक धर्म वेदो की प्रमाणता पर अवलम्वित है, उसी प्रकार अन्य धर्म उस धर्म के प्रवर्तक पुरुषो की प्रमाणता पर अवलम्वित है । पर प्रमाणता की कसौटी क्या ? कोई भी पुरुष चौपथ पर खड़ा होकर कह सकता है। कि मैं या यह पोथी प्रमाण है । इनके द्वारा वतलाये गये मार्ग पर चलो, इससे सबका कल्याण होगा । तो क्या जनता इतने कहने मात्र से उनका अनुसरण करने लगेगी ? यदि नही तो हमे फिर देखना चाहिए कि वह प्रमाणता कैसे प्राप्त होती है ? ३५० " गवर ऋपि आगे ‘चोदनालक्षणोऽर्थो धर्म' सूत्र का व्यास्यान करते हुए लिखते हैं कि "जो अर्थ' वेद से सूचित होता है, उस पर चलने से पुरुष का कल्याण होता है ।" प्रश्न हुआ यह कैसे जाना ? इस पर गवर ऋषि कहते है कि भाई | देखो चूकि 'वेद' भूत, वर्तमान भविष्य, सूक्ष्म, व्यवहित और दूरवर्ती सभी पदार्थों का ज्ञान कराने मे समर्थ है, पर इन्द्रियो से यह काम नही हो सकता ।" अत ज्ञात होता है कि वेद से सूचित होने वाला अर्थ ही पुरुष का कल्याणकारी है । थोडा वर ऋषि के इस कथन पर ध्यान दीजिये । कितने अच्छे ढंग से वे उसी बात को कह रहे है, जिसे सर्वज्ञवादी कहते हैं । सर्वज्ञवादी भी तो यही कहते हैं कि "अमुक धर्म प्राणीमात्र का हितकारी है, क्योकि उसका वक्ता सूक्ष्मादि पदार्थों का ज्ञाता, अर्थात् सर्वज्ञ है ।” इतने विवेचन से कम-से-कम हमे इतना पता तो लग जाता है कि गवर ऋषि के समय मे धर्म में कल्याणकारित्व सिद्धि के लिए सर्वार्थप्रतिपादनक्षमता या सर्वज्ञता का माना जाना आवश्यक था । 'धर्म प्रति हि विप्रतिपन्ना बहुविद । केचिदन्य धर्ममाहु केचिदन्यम् । सोऽयमविचार्य प्रवर्त्तमान कञ्चिदेवोपाददानो विहन्येत अनर्थं च ऋच्छेत् तस्माद्धर्मो जिज्ञासितव्य इति ।' शावरभाष्य १ श्र० १ सू० पृ० ३ सोऽर्थ पुरुष नि श्रेयसेन संय्युनक्तीति प्रतिजानीमहे । * चोदना हि भूत भवन्त भविष्यन्त सूक्ष्म व्यवहित विप्रकृष्टमित्येवञ्जातीयकमर्थं शक्नोत्यवगमयितु नान्यत् किञ्चनेन्द्रियम् । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञता के प्रतीत इतिहास की एक झलक ३५१ साधारणत गवर ऋपि का वास्तव्य काल ईसवी सन् २०० के लगभग माना जाता है । इमलिए इतना तो निश्चयपूर्वक ही कहा जा सकता है कि वेदो मे इस प्रकार की योग्यता ईमवी सन् २०० के लगभग मानी जाने लगी थी। पुरुप की मर्वज्ञता के निषेध के बीज भी तभी में बोए गए, यह भी इममे फलित होता है। मालूम होता है कि गवर ऋपि ने यह युक्ति मर्वनवादियो मे ली होगी, किन्तु यह वात निश्चयपूर्वक तो तव कही जा सकती है जब यह बतलाया जा सके कि पुरुप की मर्वजता की मान्यता इममे बहुत पुरानी है । अत पहले इसी का विचार किया जाता है। दिगम्बर परम्परा मे पट्खण्डागम और कपायप्राभृत मूलश्रुत के अगभूत माने जाते है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुमार तो अगमाहित्य अब भी विद्यमान है। इस नाहित्य के देखने से मालूम होता है कि जैन परम्परा में 'सच्चे जाणई' मवची मान्यता बहुत पुरानी है। यतिवृपभ प्राचार्य जो स्पप्टत ईमवी मन् पूर्व के है, कपायप्राभूत के चूर्णिसूत्रो में लिखते है 'तदो अणतकेवलणाणदसणवीरियजुत्तो जिणो केवली सचण्हो सम्वदरिसी भवदि सजोगिजिणो त्ति भण्णइ । असखेज्जगुणाए मेढीए पदेसग्ग णिज्जरमाणो विहरदि त्ति ।' अर्थात्-"घाति चप्तुष्टय के क्षय होने पर अनन्त केवल ज्ञान, केवल दर्शन और वीर्य में युक्त हो कर केवली जिन मर्वज्ञ और मर्वदर्गी होते है जिन्हें मयोगी जिन कहते है। ये मयोगी जिन अमस्यात गुणित येणीस्प मे कर्मप्रदेशो की निर्जग करते हुए विहार करते है।" पहले प्रकृति अनुयोगद्वार और स्थानाग सूत्र के जो उद्धरण दे पाये हैं, उनमे भी इमी वात की पुष्टि होती है । बौद्ध माहित्य में 'धम्मपद' मुत्तपिटक के अन्तर्गत ही है। इसके अरहन्तवर्ग मे वतलाया है'गतद्धिनो विसोकस्स विप्पमुत्तस्स सबधि । मब्बगन्यप्पहीणस्स परिलाहो न विज्जति ॥' अर्थात्-"जिमका मार्ग समाप्त हो गया है, जो शोक रहित है, जो सर्वथा विमुक्त है, जो सर्वज्ञ है और जिमकी मभी ग्रन्थिया क्षीण हो गई, उसके लिये परिताप नहीं।" इन प्रमाणो के आधार मे सर्वन की 'सब्वे जाणई' वाली मान्यता बहुत प्राचीन है, ऐमा मान लेने मे किसी प्रकार का सन्देह नहीं रहता। उपनिपदी के जो दो एक उल्लेस हमे प्राप्त हुए है, उनके देखने से मालूम होता है कि पहले ब्राह्मण लोग आत्मा की उक्रान्ति, पग्लोक और पुनर्जन्म आदि विद्यालो से परिचित न थे। उन्हें यह विद्या क्षत्रियों में प्राप्त हुई है । छान्दोग्य उपनिपद में एक कया आई है जिसमे उक्त कथन की पुष्टि होती है। कथा इस प्रकार है "किमी ममय' श्रमण के पुत्र श्वेतकेतु पाचालो की परिपद् में पहुंचे। वहाँ क्षत्रिय राजा प्रवाहण जैविलि ने उनसे जीव की उत्क्रान्ति, परलोकगति और जन्मान्तर के सवध में एक-के-बाद-एक पांच प्रश्न किये, किन्तु ग्वेतकेतु उन प्रश्नों में से एक का भी उत्तर न दे सके । इममे बहुत ही लज्जित हो कर श्वेतकेतु ने अपने पिता अरुण के पाम जाकर उनके इन पांची प्रश्नी का उत्तर मांगा। पिता ने कहा उन्हें तो हम भी नहीं जानते । तव वाप और बेटा दोनो ही राजा जैविलि के पास गये । जाकर श्वेतकेतु के पिता ने राजा मे कहा कि श्रापन मेरे लटके से जो प्रश्न किये ये उनका उत्तर दीजिये। गौतम की प्रार्थना मुनकर राजा चिन्तित हुए। उन्होने ऋपि से कुछ समय ठहरने के लिए कहा। फिर कहा-हे गौतम | आप हममे जो विद्या मीखना चाहते है वह विद्या आपमे पहले किमी ब्राह्मण को नही प्राप्त हुई है।" वृहदारण्यक उपनिषद् के छठे अध्याय में भी इसी प्रकार का एक उरलेस पाया है । यथा'इयं विद्या' इत. पूर्व न कस्मिश्चित् ब्राह्मणे उवास । ता त्वह तुभ्य वक्ष्यामि ।' 'कर्मवाद और जन्मान्तर, पृ० १८६ . कर्मवाद और जन्मान्तर, पृष्ठ १८८ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ पन्-ि "यह विद्या इसके पहले किनी ब्राह्मण को नहीं मिली उसी का उपदेश मै तुमको करता हूँ।' उपनिषदो के इन उल्लेखो मे रहस्य मालूम होता है। इनसे मुझे इन्द्र और गौतम गणधर के सवाद का स्मरण हो जाता है। मालूम होता है कि सारी अध्यात्म विद्या वैदिको को श्रमणो से प्राप्त हुई है। मोमासा के दो भेद है-पूर्व मीमासा और उत्तर मीमासा। पूर्व मीमाना मे यज्ञादि कर्गे की विधि और मन्न प्रादि का वर्णन है। इनलिए इसे कर्मकाण्ड कहते है। उत्तर मीमामा में अध्यात्म विद्या का वर्णन है। इसलिए इसे ज्ञानकाण्ड कहते है। कर्मकाण्ड का सीधा सबध वेदो मे है और ज्ञानकाण्ड का उपनिषदो से। उपनिषदो का सकलन वेदो के बहुत काल बाद हुअा है। वैदिको ने कर्मकाण्ड से अपना काम चलता न देखकर ही इस पध्यात्म विद्या को अपनाया। फिर भी शुद्ध मीमामा मे इसे महत्व का स्थान प्राप्त नहीं। ब्राह्मणधर्म मे यज्ञादि क्रियाकाण्डकी जो श्रेष्ठता है वह मोक्ष की नहीं। भ्रमणधर्म और ब्राह्मणधर्म का अतर इसी से समझ में आ जाता है। इस प्रकार हम देखते है कि ब्राह्मणो ने श्रमणो की अध्यात्म विद्या को अपनाया तो मही, किन्तु वे उसके सारे तत्वो को ययावत् रूप मे न अपना मके। उनके सामने वेदो की प्रतिष्ठा का सवाल खडा हो रहा । इमलिए उन्होने श्रमणो को महत्व देना उचित न समझा। बस यही एक प्रेरणा है, जिससे उन्होने पुरुष की मर्वज्ञता का निषेध किया। किन्तु जब हम उपनिषदो मे 'य पात्मवित् स सर्ववित्' इत्त प्रकार के वाक्य देतते है तो मालूम होता है कि सर्वज की 'सव्वे जाणइ' वाली मान्यता बहुत पुरानी है। इतना ही नहीं, बल्कि वह श्रमणधर्म की आत्मा है । ___ इतने विवेचन ने यद्यपि हम इस निर्गय पर तो पहुँच जाते हैं कि दर्शन युग के पहले सर्वज्ञता का वही स्वरूप माना जाता था, जिसका दार्शनिको ने विस्तार से उहापोह किया है तथा इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि धर्मज्ञता या ग्रात्मजताको क्रमिक परिभापानो ने नर्वज्ञता के वर्तमान रूप की मृष्टि नहीं की। अब देखना यह है कि वौद्ध-गुरु धर्मकीति ने नर्वज्ञता की अपेक्षा धर्मज्ञता पर ही अधिक जोर क्यो दिया ? जब वह सर्वज्ञता का विरोधी नहीं था और यह जानता था कि नर्वज्ञता के भीतर धर्मज्ञता का अन्तर्भाव हो ही जाता है तब उसे यह कहने का क्या कारण था कि “कोई नसार' के नव पदार्थों का साक्षात्कार करता है कि नहीं, इससे हमे प्रयोजन नही ? प्रकृत मे हमे यह देखना है कि उसने धर्म को जाना या नहीं। यदि उसने धर्म को जाना है तो हमारा काम चल जाता है।" बात यह है कि पहले कुमारिल ने यह स्वीकार कर लिया है कि "यदि कोई धर्मातिरिक्त अन्य सब पदार्थों को जानता है तो इसका कौन निराकरण करता है। हमारा तो कहना केवल इतना ही है कि पुरुष धर्म का ज्ञाता नही हो सकता।" धर्मकीति ने कुमारिल के इसी कधन का उत्तर दिया है। कुमारिल के सामने जहाँ वेद की प्रतिष्ठा का प्रश्न रहा है वहाँ धर्मकीर्ति के सामने पुरुष की प्रतिष्ठा का प्रश्न रहा है। एक बार एक आदमी ने अपने एक साथी से कहा, "आपमे और तो सब गुण है, किन्तु माप झूठ बहुत वोलते हो।' तो इसका उसने उत्तर दिया, "मुझमे योर गुण हो या न हो, किन्तु इतना मन है कि मैं झूठ कभी नहीं वोलता।' वम इसी प्रकार का यह कुमारिल और धर्मकीर्ति का सवाद है। कुमारिल चाहता है कि किसी-न-किसी प्रकार सर्वज्ञवादियो के तीर्थकर को अप्रमाण ठहराया जाय। इसके लिए वह प्रलोभन भी देता है। कहता है कि आपका पुरुष और सवको जानता है, इससे हमें क्या प्रापत्ति है। यहाँ कुमारिल पदार्थों के मूक्ष्म और न्यूल भेदो को भी भुला देता है। लेकिन धर्मकीर्ति कुमारिल के कहने की इम चतुराई को समझ लेता है इसलिए वह ऐसा उत्तर देता है, जिसका कोई प्रत्युत्तरही नहीं हो सकता। धर्मकीति के इस उत्तर के बाद उत्तर-प्रत्युत्तरो 'सर्व पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्ट तु पश्यतु । कोटतरयापरिक्षान तस्य न क्वोपयुज्यते ॥ प्रमाणवार्तिक २, ३३ 'धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते। सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुष केन वार्यते ॥ यह फारिका तत्त्वसाह पृष्ठ ८१७ में कुमारिल के नाम ते उद्धृत है। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञता के प्रतीत इतिहास की एक झलक ३५३ की दिशा ही बदल जाती है । यह है धर्मकीर्ति का मानम, जिमसे उसने सर्वज्ञता की अपेक्षा धर्मज्ञता पर अधिक जोर दिया । (५) आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि मे इतने विवेचन के बाद भी भगवान कुन्दकुन्द ने केवल ज्ञान के विषय में क्या लिखा है, यह जानना श्रावश्यक हैं, क्योकि उन्होने प्रत्येक वस्तु के स्वरूप को समझने के लिए जो मार्ग सुनिश्चित किया है उसमे सत्य तक पहुँचने बढी सहायता मिलती हैं । भगवान् कुन्दकुन्द की व्याख्यानशैली व्यवहारनय और निश्चयनय पर श्राश्रित है । श्रुत पहले उन्ही के वचनो में इन दोनो नयो को ममझ लेना जरूरी है । 'समयप्राभृत' में वे लिखते है ववहारोऽभूदत्यो भूदत्यो देसिदो दु सुद्धणश्रो । भूदत्यमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ॥१३॥ श्रर्थात् — "ममय में व्यवहारनय को प्रभूतार्थ श्रीर शुद्वनय को भूतार्थ बतलाया है । इनमें से भूतार्थं का श्राश्रय करनेवाला जीव सम्यग्दृष्टि है ।" इसमे व्यवहार र निश्चयनय के स्वम्प पर तो प्रकाश पड जाता है। तब भी भूतार्थ और प्रभूतार्थ का समझना गप रहता है । उन्होने श्रभूतार्थं श्रौर भूतार्थ की मर्यादा का स्वय निर्दण नही किया है, फिर भी उनकी व्यायन शैली से इसका पता लग जाता है । अत यहाँ इसका निर्देश कर देना ही श्रावश्यक प्रतीत होता है । उनकी व्याम्यानशैली में निम्न बातो को अपनाया गया जान पडता है- (१) जीव' और देह एक है यह व्यवहारनय है । जीव श्रीर देह एक नही, किन्तु पृथक्-पृथक् है, यह निश्चयनय है । (२) वर्णादिक' जीव के है यह व्यवहारनय है । तथा ये जीव के नही है यह निश्चयनय है । (३) रागादिक जीव के हैं यह व्यवहारनय है । श्रोर ये जीव के नहीं है यह निश्चयनय है । (४) क्षायिक * श्रादि भाव जीव के है यह व्यवहारनय है । किन्तु शुद्ध जीव के न क्षायिक भाव होते श्रीर न अन्य कोई यह निश्चयनय है । (५) केवली भगवान् सबको जानते श्रीर देखते है,' यह व्यहारनय है, किन्तु अपने श्रापको जानते श्रीर देखते है, यह निश्चयनय है । (६) शरीर' जीव का है ऐसा मानना व्यवहार है और शरीर जीव से भिन्न है ऐसा मानना निश्चय है । म प्रकार ऊपर जो हमने छ बातें उपस्थित की है उनसे व्यवहार श्रीर निश्चय की कथनी पर पर्याप्त प्रकाश पड जाता है । यहाँ इनसे भिन्न और भी उदाहरण उपस्थित किये जा सकते हैं, पर इससे लेख का कलेवर वढ जायगा और यह स्वतन्त्र विषय है । इन सब उदाहरणों से एक ही बात फलित होती है कि जहाँ 'स्व' से भिन्न 'पर' का किसी भी प्रकार का मवध श्रा गया उमे श्रात्मा का मानना व्यवहार है । यद्यपि क्षायिक ज्ञान और केवलज्ञान मे कोई ग्रन्तर नही है परन्तु केवलज्ञान को श्रात्मा का कहना निश्चयनय है और क्षायिकज्ञान को ग्रात्मा का कहना व्यवहारनय है । यहाँ मे भेदाभेद को ध्यान में रखकर विचार नही कर रहा हूँ । इमसे वस्तु के विवेचन करने में और भी सूक्ष्मता श्रा जाती है, जो प्रकृत मे गौण है । यहाँ तो केवल देखना यह है कि भगवान् कुन्दकुन्द ने कितने ग्रंथ म व्यवहार और निश्चय का प्रयोग किया है । 'देखो समयप्राभत गाथा ३२ देखो समयप्राभृत गाथा ५१ ५ 'देखो नियमसार गाथा १५८ ૪૫ देखो समयप्राभृत गाया ६१ * देखो नियमसार गाथा ४१ ६ 'देखो समयप्राभूत गाथा ५५ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनंदन ग्रंथ पहले उदाहरण में एकत्व मे दो का सयोग व्यवहार का प्रयोजक है । दूसरे उदाहरण मे सबध के कारण जीव मे भिन्न द्रव्य के गुणो का आरोप व्यवहार का प्रयोजक है । तीमरे उदाहरण मे निमित्त की प्रधानता व्यवहार का प्रयोज्क हैं । चौथे उदाहरण मे निमित्त की अपेक्षा नामकरण व्यवहार का प्रयोजक है। पांचवे उदाहरण में ज्ञायक ने शेयों की भिन्नता व्यवहार का प्रयोजक है और छठ उदाहरण में नवध व्यवहार का प्रयोजक है । ३५४ इनमे ने पहला, दूसरा और छठा ये अद्भूत व्यवहार के उदाहरण है, वयोकि वास्तव मे जीव वैसा तो न्हीं हैं । नयोग ने जीव में उन धर्मो का आरोप किया गया है । तीसरा, चौथा और पाँचवाँ ये नद्भूत व्यवहार के उदाहरण हैं, क्याकि यद्यपि ये नव अवस्थाएँ जीव की ही है । फिर भी इनके होने में पर की अपेक्षा रहती है । इमलिए ये व्यव्हार कोटि मे चली जाती है । निश्चयनय की अपेक्षा उनकी व्याख्यानशैली मुरयत दो भागो मे वॅट जाती है। एक मे जानादि गुणो द्वारा आत्मा का कथन किया गया है और दूसरी मे अन्य द्रव्यो के गुणो या सयोगी भावो के निषेध द्वारा आत्मा का कथन किया गया है । इनसे हमारी आँखो के सामने सगुण और निर्गुण ब्रह्म की कल्पना साकार रूप धारण करके या उपस्थित होती है । व्यवहार और निश्चयनय के इस विवेचन से प्रभूतार्थत्व और भूतार्थत्व के स्वरुप पर पर्याप्त पकाग पड जाता है । यहाँ 'भूत' शब्द उपलक्षण है । अत यह अर्थ हुआ कि वन्तु जिस रूप न थी, न है, और न रहेगी, तद्रूप उसको मानना अभूतार्थनय है तथा जो वस्तु जिस रूप थी, है और रहेगी तद्रूप उसको मानना भूतार्थनय है । पयोजन मूल वस्तु का ज्ञान कराना है । अत जिन धर्मो का उपादान जीव है, किन्तु जो अन्य निमित्तो की अपेक्षा से होते हैं, उन्हे भी भूतार्थंनय जीव का स्वीकार नही करता । किन्तु इससे वे 'वर्णादिक जीव के है' इस कथनी की कोटि मे तो पहुँच नही जाते । कार्य उपादान रूप ही होता है । इसलिए उसे उपादान का ही मानना होगा । किन्तु भूतार्थनय निमित्त को तो देखना नही । उसकी दृष्टि मे तो कारण परमात्मा और कार्य परमात्मा एक ही वस्तु है । अत वह इन्हें जीव का स्वीकार नहीं करता । यह इसका मथितार्थ है । तभी तो भगवान् कुन्दकुन्द नियमसार की गाथा ४७ और ४८ मे लिखते है, "जिस प्रकार सिद्धात्मा जन्म, जग और मरण में रहित है, ग्राठ गुण सहित है, अशरीर है, अविनाशी है आदि उसी प्रकार ससार मे स्थित जीव भी जानने चाहिए ।" इस प्रकार नूतार्थ और प्रभूतार्थ का निर्णय कर लेने के वाद अव हम प्रकृत विषय केवलज्ञान पर आते है । आचार्यं कुन्दकुन्द 'प्रवचनसार' की गाथा ४७ मे लिखते हैं, "जो' त्रैकालिक विचित्र और विषम सब पदार्थो को एक नाथ जानता है, वह क्षायिक ज्ञान है ।' तदनन्तर इस तत्व का ऊहापोह करते हुए वे गाथा ४= और ४६ मे लिखते हैं कि “जो त्रैकालिक सव पदार्थों को नही जानता है वह पूरी तरह एक पदार्थ को भी नही जानता है और जो पूरी तरह से एक पदार्थ को नही जानता है वह सव पदार्थो को कैसे जान सकता है ? ' उनका यह विवेचन 'आचाराग' के 'जो एक को जानता है वह सव को जानता है और जो सव को जानता है वह एक को जानता है ।" इस कथन से मिलता हुआ है । इसमे तो मदेह नही कि इन दोनो सूत्रग्रथों के ये समर्थन वाक्य है, जिनके द्वारा सर्वज्ञत्व का ही नमर्थन किया गया प्रतीत होता है । किन्तु जब हम नियमसार की गाथा १५ = पर दृष्टिपात करते है तब हमे वहाँ किसी दूसरी वस्तु के ही दर्शन होते हैं । वहाँ आचार्य कुन्दकुन्द की सर्वज्ञत्व के समर्थन वाली दृष्टि बदल कर आत्मतत्त्व के 'जारसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीव तारिता होति | नियमसार गाथा ४७-४८ । 'ज तक्कालियमिदर जाणदि जुगव समंतदो सव्व । श्रत्यं विचित्तविसम तं णाण खाइय भणिय ।' * जो ण विजाणदि जुगव श्रत्ये तिक्कालिगे तिहुवणत्ये । गादु तस्स ण सक्क सपज्जय दव्वमेग वा ॥ ४८ ॥ ‘दव्व प्रगतपज्जयमेगमणताणि दव्वजादीणि । ण विजानदि जदि जुगव किघ सो सव्वाणि जाणादि ॥ ४६ ॥ * जे एग जाइ से सव्व जाणइ । जे सव्व जाणह से एग जाणइ । आचारांग सूत्र १२३ । 1 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वज्ञता के प्रतीत इतिहास की एक झलक ३५५ विश्लेषण मे लीन हो जाती है। तभी तो वे वहाँ लिखते है, "यद्यपि' व्यवहारनय की अपक्षा केवली सव को जानते और देखते है, किन्तु निरंचयनय की अपेक्षा वे अपने को ही जानते और देखते है ।" अात्मस्वरूप का कितना सुन्दर विश्लपण है। जायक भाव आत्मा का स्वभाव है, किन्तु वह आत्मनिष्ठ है। अत फलित हुआ कि निश्चयनय मे प्रात्मा 'स्व' को ही जानता और देखता है तथा व्यवहार द्विविधामय है। उसका अनेक के विना काम नही चलता। अत फलित हुआ कि व्यवहारनय से आत्मा सवको जानता और देखता है। वात यह है कि कार्यकारण व्यवहार, जिसकी लीक पर सारा समार चक्र प्रतिक्षण घूम रहा है, केवल स्वस्प के विश्लेपण करने तक सीमित नहीं है, क्योकि वह द्विविधामय है। हम देखते हैं कि जब दो या दो से अधिक परमाणुमो के मिलने से स्कन्ध बनता है और फिर उनसे मिट्टी आदि विविध तत्त्वो की उत्पत्ति होती है। तदनन्तर उन्हें ज्ञान भेदरूप से ग्रहण करता है। तव इन सब को मिथ्या कैमे कहा जा सकता है ? मत्य और मिथ्या ये शन्द सापेक्ष है। ऋषियो का प्रयोजन मूल वस्तु का ज्ञान कराना रहा है। अत उन्होने व्यवहार को मिथ्या आदि जो कुछ जी में पाया सो कहा। वेदान्तियो ने तो इस द्विविधामय जगत के अस्तित्त्व को ही मिटा देना चाहा, पर क्या इसमे व्यवहार नाम शेप हुआ? यदि निश्चय सत्याधिष्ठित है तो वह अपनी अपेक्षा से ही। यदि व्यवहार की अपेक्षा से ही उसे वैसा मान लिया जाय तो वन्ध मोक्ष की चर्चा करना ही छोड देना चाहिए। कविवर प० वनारसीदास जी ने ऐसा किया था, पर अन्त मे उन्हे एकान्त निश्चय का त्याग करके व्यवहार की शरण मे आना पडा। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने जो व्यवहार को अभूतार्थ कहा है वह व्यवहार की अपेक्षा नहीं, किन्तु निश्चय की अपेक्षा से कहा है। व्यवहार अपने अर्थ में उतना ही सत्य है, जितना कि निश्चय। जिस प्रकार हम विविध पदार्थों को जानते हैं, किन्तु हमारा वह सव जानना झूठा नहीं है फिर भी वह ज्ञान ज्ञान स्वरुप ही रहता है। उसी प्रकार केवली भगवान् सव पदार्थों को जानते और देखते है, किन्तु उनका वह जानना असत्य नहीं है। फिर भी वह उनका ज्ञायकभाव पात्मनिष्ठ ही है । उपर्युक्त व्यवहार और निश्चय की कथनी का यही मथितार्थ है।। उपनिपद मे जो 'य प्रात्मवित् स सर्ववित्', 'य सर्ववित् स आत्मवित्' इत्यादि वचन मिलते है उनका मेल अधिकतर प्रवचनमार के कथन से ही बैठता है । 'नियममार' के कथन से नहीं, क्योकि 'नियमसार में पृथक् पृथक् दो दृष्टियाँ काम कर रही है जब कि प्रवचनमार मे दृष्टिभेद से कथन करने की मुख्यता न होकर सर्वज्ञत्व के समर्थन की मुस्यता है। उपनिषद् मे भी हमे यही वात दिखाई देती है। हाँ, उपनिषद्में 'एक' शब्द के स्थान में 'आत्म' शब्द का प्रयोग अवश्य मिलता है पर इमसे विवेचन करने की दृष्टि नहीं बदली है, जव कि 'नियमसार' में विवेचन करने की दृष्टि ही वदल गई है। इतने विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि 'प्रवचनसार, 'आचाराग सूत्र' और 'उपनिषद्'इनकी कथनी का प्रयोजन एक है और 'नियमसार' की कथनी का प्रयोजन इससे भिन्न है । 'प्रवचनमार' मे जहां सिद्धात के उद्घाटन करने की ओर झुकाव है, वहाँ 'नियमसार' में मुख्यत मूलभूत तत्त्व की मीमासा करते हुए फलितार्थरूप से उसका कार्यभाग स्वीकार किया गया है। यहां यह कार्यभाग ही अभूतार्थ है क्योकि वह जीव की अशेष ज्ञेयो के निमित्त से होने वाली दशा है और मीमासित तत्त्व ही भूतार्य है, क्योकि जीव में नायकभाव अन्य निमित्तो से उत्पन्न नही होता किन्तु वह उसका स्वभाव है । तात्पर्य यह है कि आचार्य कुन्दकुन्द कारण रूप से प्रात्मनिष्ठ ज्ञायकभाव और कार्यरूप से सर्वज्ञता को स्वीकार करते है जिसका उन्होने अपने 'प्रवचनसार' आदि ग्रथो में बहुत ही सुन्दरता से विवेचन किया है। काशी] "जाणदि पस्सदि सन्न ववहारणएण केवली भगव । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाण ॥१५॥' Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - मान्यता में धर्म का आदि समय और उसकी मर्यादा पं० वशीधर व्याकरणाचार्य प्राय धर्म को सभी मान्यताओ मे अमर्यादित काल को मर्यादित अनन्त कल्पो के रूप मे विभक्त किया गया है, लेकिन किन्ही- किन्ही मान्यताओ में जहाँ इम दृष्यमान् जगत् की अस्तित्त्व स्वरूप सृष्टि और प्रभाव स्वरूप प्रलय को श्राधार मान कर एक कल्प की सीमा निर्धारित की गई हैं, वहाँ जैन मान्यता मे प्राणियो के दुख के साधनो की क्रमिक हानि होते-होते मुख के साघनो की क्रमिक वृद्धिस्वरूप उत्सर्पण और प्राणियो के सुख के साधनो की क्रमिक हानि होतेहोते दुख के साधनो की क्रमिक वृद्धिस्वरूप श्रवसर्पण को श्राधार मान कर एक कल्प की सीमा निर्धारित की गई है। तात्पर्य यह कि धर्म की किन्ही- किन्ही जैनेतर मान्यताओ के अनुसार उनके माने हुए कारणो द्वारा पहिले तो यह जगत् उत्पन्न होता है और पश्चात् यह विनष्ट हो जाता है । उत्पत्ति के अनन्तर जव तक जगत् का सद्भाव बना रहता है उतने काल का नाम सृष्टिकाल और विनष्ट हो जाने पर जब तक उसका प्रभाव बना रहता है उतने काल का नाम प्रलयकाल माना गया है । इस तरह से एक सृष्टिकाल और उसके अनन्तर होने वाले एक प्रलयकाल को मिलाकर इन मान्यताओ के अनुसार एक कल्पकाल हो जाता है । जैन मान्यता में इन मान्यताओ की तरह जगत् का उत्पाद और विनाश नही स्वीकार किया गया है। जैन मान्यता में जगत् तो श्रनादि श्रर अनिधन है, परन्तु रात्रि के वारह बजे से अन्यकार का क्रमपूर्वक ह्रास होते-होते दिन के वारह बजे तक प्रकाश की क्रमपूर्वक होने वाली वृद्धि के समान जैन मान्यता मे जितना' काल जगत् के प्राणियो के दुख के साधनो का क्रमपूर्वक ह्रास होते-होते सुख के साधनो की क्रमपूर्वक होने वाली वृद्धिस्वरूप उत्सर्पण का बतलाया गया है उतने काल का नाम उत्सर्पिणी काल और दिन के वारह बजे से प्रकाश का क्रमपूर्वक ह्रास होते-होते रात्रि के वारह बजे तक अन्धकार की क्रमपूर्वक होने वाली वृद्धि के समान वहाँ पर (जैन मान्यता मे ) जितना काल' जगत् के प्राणियो के सुख के साधनो का क्रमपूर्वक ह्रास होते-होते दु ख के मानो की क्रमपूर्वक होने वाली वृद्धिस्वरूप अवसर्पण का वतलाया गया है उतने काल का नाम अवसर्पिणी काल स्वीकार किया गया है । एक उत्सर्पिणी काल और उसके अनन्तर होने वाले एक अवसर्पिणी काल को मिला कर जैन मान्यता का एक कल्पकाल हो जाता है।' चूकि उक्त दूसरी मान्यताओ में सृष्टिकाल और प्रलयकाल की परपरा को पूर्वोक्त सृष्टि के बाद प्रलय और प्रलय के वाद सृष्टि के रूप में तथा जैन मान्यता में उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल की परपरा को पूर्वोक्त उत्सर्पण के वाद श्रवसर्पण और श्रवसर्पण के वाद उत्सर्पण के रूप में अनादि श्रोर अनन्त १ यह फाल जैन ग्रन्थों के आधार पर दश कोटीकोटी सागरोपम समय प्रमाण है। कोटी (करोड) को कोटी (फरोड) से गुणा कर देने पर फोटो कोटी का प्रमाण निकलता है और सागरोपम जैनमान्यता के असंख्यात वर्ष प्रमाण काल विशेष की सज्ञा है । " यह फाल भी जैन ग्रन्थों में दश कोटीकोटी सागरोपम समय प्रमाण हो बतलाया गया है । * काल का वर्णन करते हुए आदि पुराण में लिखा है उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो दो भेदी तस्य फोर्तिती । उत्सर्पादवसर्पाच्च बलायुर्देहवर्मणाम् ॥१४॥ कोटीकोटी दर्शकस्य प्रमासागरसख्यया । शेषस्याप्येवमेवेष्टा तावुभौ फल्प इष्यते ॥ १५॥ ( आदि पुराण पर्व ३) Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - मान्यता में धर्म का श्रादि समय और उसकी मर्यादा ३५७ स्वीकार किया गया है, इसलिए उभय मान्यताओ मे ( जैन और उक्त जैनेतर मान्यताओ में ) कल्पो की अनन्तता समान रूप से मान ली गई है । जैन मान्यता मे प्रत्येक कल्प के उत्सर्पिणी काल श्रीर अवसर्पिणी काल को उत्सर्पण और श्रवसपण के खड करके निम्नलिखित छह-हछ विभागो में विभक्त कर दिया गया है -- (१) दु षम' -दुषमा ( अत्यन्त दुखमय काल) (२) दुपमा' (साधारण दुखमय काल ) ३ –दु षम -सुषमा' ( दुख प्रधान सुखमय काल ) ४ - सुषम - दु षमा' (सुखप्रधान दुखमय काल ) ५ – मुषमा' (साधारण सुखमय काल) और ६ - सुषम - सुषमा' ( श्रत्यन्त सुखमय काल ) । ये छह विभाग उत्सर्पिणी कालके तथा इनके ठीक विपरीत क्रम को लेकर अर्थात् १ - सुषमा - सुषमा' (अत्यन्त सुखमय काल) २ – सुषमा' (साधारण सुखमय काल ) ३ - सुषम-दुषमा ( सुखप्रवान दुखमय काल ) ४ – दुषमासुषमा" (दुख प्रधान सुखमय काल ) ५ दुपमा" (साधारण दुखमय काल) और ६ - दु षम दु षमा " ( अत्यन्त दुखमय काल ) ये छह विभाग अवसर्पिणी काल के स्वीकार किये गये है । १० तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सूर्य की गति के दक्षिण से उत्तर और उत्तर से दक्षिण की ओर होने वाले परिवर्तन के आधार पर स्वीकृत वर्ष के उत्तरायण और दक्षिणायन विभाग गतिक्रम के अनुसार तीन-तीन ऋतु में विभक्त होकर सतत चालू रहते हैं उसी प्रकार एक दूसरे से बिलकुल उलटे पूर्वोक्त उत्मर्पण और श्रवसर्पण के आधार 'इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण । 'इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण । , ब्यालीस हजार वर्ष कम एक कोटीकोटी सागरोपम समय प्रमाण । * दो कोटीकोटी सागरोपम समय प्रमाण । " तीन कोटीकोटी सागरोपम समय प्रमाण । 'चार कोटीकोटी सागरोपम समय प्रमाण । 'श्रवसर्पिणी काल के समाप्त हो जाने पर जब उत्सर्पिणी काल का प्रारम्भ होता है उस समय का यह वर्णन है तत्तो पविसदि रम्मो कालो उस्सप्पिणि त्ति विक्वादो । पढ़मो इदुस्समो दुइज्जन दुस्समा णामा ॥ ॥ १५५५ ॥ दुस्समसुसमो तदिश्रो चउत्थश्रो सुसमदुस्समो णाम । पचमत्र तह सुसमो जणप्पियो सुसमसुसमन छट्ठो ॥१५५६ ॥ ७ ८ चार कोटीकोटी सागरोपम समय प्रमाण । ་ 'तीन कोटी कोटी सागरोपम समय प्रमाण । (तिलोयपण्णत्ती चौथा महा अधिकार ) "दो कोटी कोटी सागरोपम समय प्रमाण । "व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोटी कोटी सागरोपम समय प्रमाण । "इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण । "इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण । " द्विरुक्तसुषमाऽऽद्याऽऽसीत् द्वितीया सुषमा मता । सुषमा दु.षमान्तान्या सुषमान्ता च दुषमा ॥१७॥ पञ्चमी दुषमा ज्ञेया समा षष्ठ्चतिदुषमा । भेदा इमेऽवसर्पिण्या उत्सर्पिण्या विपर्यया ॥ १८ ॥ प्रादि पुराण पर्व ३ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ पर स्वीकृत कल्प के उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी विभाग भी उत्सर्पणक्रम और अवसर्पणक्रम के अनुसार पूर्वोक्त छहछह विभागो में विभक्त होकर अविच्छिन्न रूप से सतत चालू रहते है ।' अथवा रात्रि के वारह बजे से दिन के वारह वजे तक अन्धकार को क्रम से हानि होते-होते क्रम से होने वाली प्रकाश की वृद्धि के आधार पर और दिन के बारह बजे से रात्रि के वारह बजे तक प्रकाश की क्रम से हानि होते-होते क्रम से होने वाली अन्धकार की वृद्धि के आधार पर जिस प्रकार चार-चार प्रहरो की व्यवस्था पाई जाती है उसी प्रकार उत्सर्पिणी काल और अवपिणी काल में भी पूर्वोक्त छह-छह विभागो की व्यवस्था जैन मान्यता मे स्वीकृत की गई है। जैन मान्यता के अनुसार प्रत्येक उमर्पिणी काल के तीसरे और प्रत्येक अवसर्पिणी काल के चौथे दुषमा-सुषमा नामक विभाग मे धर्म को प्रकाश में लाने वाले एक के बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा इस प्रकार क्रम से नियमपूर्वक चौबीस तीर्थकर (धर्मप्रवर्तक महापुरुष) उत्पन्न होते रहते है। इस समय जैन मान्यता के अनुमार कल्प का दूसरा विभाग अवसर्पिणी काल चालू है और उसके (अवसर्पिणी काल के) पाँचवे दुपमा नामक विभाग में से हम गुजर रहे है। आज से करीब ढाई हजार (२५००) वर्ष पहिले इस अवसर्पिणी काल का दुपमा-सुपमा नामक चतुर्थ विभाग ममाप्त हुआ है । उस समय धर्म को प्रकाश में लाने वाले और इस अवसर्पिणी काल के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर इस धरातल पर मौजूद थे तथा उनके भी पहले पूर्वपरपरा में तेईसवे तीर्थकर भगवान् पार्श्वनाथ से प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋपभदेव तक तेईस तीर्थकर धर्म का प्रकाश कर चुके थे। तात्पर्य यह है कि जैन मान्यता में उत्सर्पिणीकाल के चौथे, पांचवें और छठे तथा अवमर्पिणी काल के पहिले, दूसरे और तीसरे विभागो के समुदाय को भोगयुग एव अवसर्पिणी काल के चौथे, पांचवें और छठवे नथा उत्सर्पिणीकाल के पहिले, दूसरे और तीसरे विभागो के समुदाय को कर्मयुग वतलाया गया है। भोगयुग का मतलव यह है कि इस युग में मनुष्य अपने जीवन का सचालन करने के लिए साधन सामग्री के सचय और सरक्षण की ओर ध्यान देना अनावश्यक ही नहीं, व्यर्थ और यहां तक कि मानवसमष्टि के जीवन निर्वाह के लिए अत्यन्त घातक समझता है । इसलिए प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन का सचालन निश्चिन्तता और सतोपपूर्वक सर्वत्र विखरे हुए प्राकृतिक साधनो द्वारा विना किसी भेद-भाव के समान रूप से किया करता है। उस समय मानव-जीवन के किसी भी क्षेत्र मे आजकल जैसी विषमता नहीं रहती है। उस काल मे कोई मनुष्य न तो अमीर और न गरीब ही रहता है और न ऊंच-नीच का भेद ही उस समय के मनुष्यो मे पाया जाता है। आहार-विहार तथा रहन-महन की समानता के कारण उस काल के मनुष्यो मे न तो क्रोध, मान, माया और लोभ रूप मानसिक दुर्वलताएँ ही पाई जाती है और न हिसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार तथा पदार्थों का सचय रूप परिग्रह मे ही उनकी प्रवृत्ति होती है। लेकिन उत्सर्पिणी काल में जीवन सचालन की साधन 'उत्सर्पिण्यवसर्पियो कालो सान्तर्भिदाविमौ। स्थित्युत्सयसभ्यिा लब्धान्वर्थाभिधानको ॥२०॥ कालचक्रपरिभ्रान्त्या षट्समापरिवर्तनै ।। तावुभौ परिवर्तेते तामिस्नेतरपक्षवत् ॥२॥ आदि पुराण पर्व ३ 'उत्सर्पिणी काल के तीसरे दुषमसुषमा कालका वर्णन करते हुए यह कथन हैतक्काले तित्ययरा चउवीस हवति ॥१५७८॥ (तिलोयपण्णत्ती चौया महाधिकार) 'भगवान ऋषभदेव से लेकर भगवान महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकर इस अवसर्पिणीकाल के चौथे दुषमसुषमा काल में ही हुए है। * भोगयुग और कर्मयुग का विस्तृत वर्णन आदि पुराण के तीसरे पर्व में तथा तिलोयपण्णत्तो के चतुर्य महाधिकार में किया गया है। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-मान्यता में धर्म का प्रादि समय और उसकी मर्यादा ३५६ सामग्री मे उत्तरोत्तर वृद्धि होते-होते उसके पराकाष्ठा पर पहुंच जाने के बाद जब इस अवसर्पिणी काल मे उसका ह्रास होने लगा और वह ह्रास जव इस सीमा तक पहुंच गया कि मनुष्यो को अपने जीवन-सचालन में कमी का अनुभव होने लगा तो मवसे पहिले मनुष्यो मे साधन सामग्री के सग्रह करने का लोभ पैदा हुआ तथा उसका सवरण न कर सकने के कारण धीरे-धीरे माया, मान और क्रोध रूप दुर्वलताएँ भी उनके अन्त करण मे उदित हुई और इनके परिणामस्वस्प हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह इन पांच पापो की ओर यथासभव उनका झुकाव होने लगा। अर्थात् सवसे पहिले जीवन-सचालन की साधन सामग्री के सचय करने में जब किन्ही-किन्ही मनुष्यो की प्रवृत्ति देखने में आई तो उस समय के विशेष विचारक व्यक्तियो ने इसे मानव-ममष्टि के जीवन-सचालन के लिए जवरदस्त खतरा समझा। इसलिए इसके दूर करने के लिए उन्होने जनमत की सम्मतिपूर्वक उन लोगो के विरुद्ध 'हा" नामक दण्ड कायम किया। अर्थात् उस समय जो लोग जीवन-सचालन की साधन-सामग्री के सचय करने में प्रवृत्त होते थे उन्हें इस दड विधान के अनुसार "हमे खेद है कि तुमने मानव-समष्टि के हित के विरुद्ध यह अनुचित कार्य किया है।"-इस प्रकार दडित किया जाने लगा और उस समय का मानव-हृदय बहुत ही सरल होने के कारण उस पर इस दडविधान का यद्यपि बहुत अशो में असर भी हुआ लेकिन धीरे-धीरे ऐसे अपराधी लोगो की संख्या वढती ही गई। साथ ही उनमे कुछ घृष्टता भी आने लगी। तव इस दडविधान को निरुपयोगी समझ कर इसमे कुछ कठोर 'मा" नामक दड विधान तैयार किया गया। अर्थात् खेद प्रकाश करने मात्र से जब लोगो ने जीवन सचालन की माधन सामग्री का सचय करना नही छोडा तो उन्हें इस अनुचित प्रवृत्ति से शक्तिपूर्वक रोका जाने लगा। अन्त में जब इस दड विधान से भी ऐसे अपराधी लोगो की वाढ न घटी तो फिर 'धिक" नाम का बहुत ही कठोर दड विधान लागू कर दिया गया। अर्थात् ऐसे लोगो को उस समय की सामाजिक श्रेणी से वहिष्कृत किया जाने लगा, लेकिन यह दड विधान भी जव असफल होने लगा, साथ ही इसके द्वारा ऊंच और नीच के भेद की कल्पना भी लोगो के हृदय में उदित हो गई तो इस विषम परिस्थिति में राजा नाभि के पुत्र भगवान ऋषभदेव इस पृथ्वीतलपर अवतीर्ण हुए, इन्होने बहुत ही गभीर चिन्तन के बाद एक ओर तो कर्मयुग का प्रारम किया अर्थात् तत्कालीन मानव-समाज मे वर्णव्यवस्था कायम करके परस्पर 'सुरतरु लुद्धा जुगला अण्णोण्ण ते कुणति सवाद ॥ ॥४५॥ (तिलोयपण्णत्ती चौया महाधिकार) २ सिक्ख कुणति ताण पडिसुदिपहुदी कुलकरा पच । सिक्खणकम्मणिमित्त दड कुन्वति हाकार ॥४५२॥ (तिलोयपण्णत्ती चौथा महाधिकार) 'लोभेणाभिहदाण सीमकरपहुदिकुलकरा पच ।। ताण सिक्खण हेदू हा-मा-कार कुणति दंडत्य ॥४७४॥ (तिलोयपण्णती चौथा महाधिकार) * तत्राद्यै पञ्चभिर्नृणा कुलभृद्धि कृतागसाम् ॥ हाकारलक्षणो दण्ड समवस्थापितस्तदा ॥२१४॥ हामाकारो च दण्डोऽन्य पञ्चभि सप्रवर्तित ॥ पञ्चभिस्तु तत शेषा-मा-धिक्-कारलक्षण ॥२१॥ (आदि पुराण पर्व ३) ५ उत्पादितास्त्रयोवर्णास्तदा तेनादिवेधसा। क्षत्रिया वणिज शूद्रा ॥१५३॥ (आदि पुराण पर्व १६) Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० प्रेमी-अभिनदन-प्रथ सहयोग की भावना भरते हुए उसको जीवन-मचालन के लिए यथायोग्य प्रसि', मषि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य आदि कार्यों के करने की प्रेरणा की तथा दूसरी ओर लोगो की अनुचित प्रवृत्ति को रोकने के लिए धार्मिक दड विधान चालू किया । श्रर्थात् मनुष्यो को स्वय ही अपनी- क्रोध, मान, माया और लोभ स्प-मानमिक दुर्बलताथो को नष्ट करने तथा हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह स्वरूप प्रवृत्ति को अधिक-से-अधिक कम करने का उपदेश दिया । जैन-मान्यता के अनुसार वर्मोत्पत्ति का श्रादि समय यही है । धर्मोत्पत्ति के बारे में जैन-मान्यता के अनुसार किये गये इस विवेचन से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि मानव समाज मे व्यवस्था कायम करने के लिए यद्यपि सर्वप्रथम पहिले प्रजातंत्र के रूप में श्रीर वाद में राजतत्र के रूप मे शासनतत्र ही प्रकाश मे श्राया था, परन्तु इसमे श्रधूरेपन का अनुभव करके भगवान ऋषभदेव ने इसके साथ ans को भी जोड़ दिया था। इस तरह शासनतत्र और वर्मतत्र ये दोनो तव से एक दूसरे का बल पाकर फूलतेफलते हुए आज तक जीवित है | यद्यपि भगवान ऋषभदेव ने तत्कालीन मानव-समाज के सम्मुख धर्म के ऐहिक श्रीर प्राध्यात्मिक दो पहलू उपस्थित किये थे और दूसरे (आध्यात्मिक) पहलू को पहिले ही से स्वय अपना कर जनता के सामने महान् आदर्श उपस्थित किया था -- श्राज भी हमे भारतवर्ष मे साघुवर्ग के रूप में धर्म के इस श्राध्यात्मिक पहलू की झाकी देखने को मिलती है परन्तु श्राज मानव-जीवन जव धर्म के ऐहिक पहलू से ही शून्य है तो वहाँ पर उसके श्राध्यात्मिक पहलू का प्रकुरित होना असंभव ही है । यही कारण है कि प्राय सभी धर्मग्रथो में आज के समय में मुक्ति प्राप्ति की असभवता को स्वीकार किया गया है । इसलिए इस लेख में हम धर्म के ऐहिक पहलू पर ही विचार करेंगे । श्राध्यात्मिक पहलू का उद्देश्य जहाँ जन्म-मरण रूप ससार से मुक्ति पाकर श्रविनाशी अनन्तसुख प्राप्त करना है वहाँ उसके ( धर्म के) ऐहिक पहलू का उद्देश्य अपने वर्तमान जीवन को सुखी बनाते हुए श्राध्यात्मिक पहलू की ओर अग्रसर होना है। यह तभी हो सकता है जब कि मानव समाज में सुख श्रीर शान्ति का साम्राज्य 1 कारण कि मनुष्य स्वभाव से ममष्टिगत प्राणी है । इसलिए उसका जीवन मानव समाज के साथ गुथा हुआ है । अर्थात् व्यक्ति तभी मुखी हो मकता है जव कि उसका कुटुम्ब सुखी हो, कुटुम्व भी तव सुखी हो सकेगा जव कि उसके मुहल्ले में अमन-चैन हो। इसी क्रम से आगे भी मुहल्ले का अमन-चैन ग्राम के अमन-चैन पर ग्राम का अमन-चैन प्रान्त अमन-चैन पर और प्रान्त का ग्रमन-चैन देश के श्रमन-चैन पर ही निर्भर है तथा याज तो प्रत्येक देश के ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय सवध स्थापित हो चुके है कि एक देश का अमन-चैन दूसरे देश के अमन-चैन पर निर्भर हो गया है । यही कारण है कि आज दुनिया के विशेषज्ञ विश्व- सघ की स्थापना की बात करने लगे है, लेकिन विश्वसघ तभी स्थापित एव सार्थक हो सकता है जब कि मानव अपनी क्रोध, मान, माया और लोभ रूप मानसिक दुर्बलताओ को नष्ट करना अपना १ (क) असिमंषि. कृषिविद्या वाणिज्य शिल्पमेव च । कर्माणीमानि षोढा स्यु' प्रजाजीवनहेतवे ॥ १७९ ॥ तत्र वृत्ति प्रजाना स भगवान् मतिकीशलात् ॥ उपादिशत् सरागो हि स तवासीज्जगद्गुरुः ॥ १८०॥ (आदि पुराण पर्व १६ ) (ख) प्रजापतियं. प्रथम जिजीविषू शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजा || 重 'विहाय य सागरवारिवासस वघूमिवेमा वसुधावर्षं सतीम् । मुमुक्षुरिक्ष्वाकुकुलादिरात्मवान् प्रभु प्रवव्राज सहिष्णुरच्युत ॥ ( स्वयंभू स्तोत्र ) (east स्तोत्र ) Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-मान्यता में धर्म का प्रादि समय और उसकी मर्यादा कर्तव्य समझ ले । साथ ही अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहता को अपने जीवन में समाविष्ट कर ले। इसके बिना न तो विश्वमघ की स्थापना हो सकती है और न दुनिया में मुखशान्ति का माम्राज्य ही कायम हो मकता है। विश्ववद्य महात्मा गाँधी विश्व मे शान्ति स्थापित करने के लिए इसी बात को आज विश्व के सामने रख रहे है, परन्तु यह विश्व का दुर्भाग्य है कि उसका लक्ष्य अभी इस पोर नहीं है। इम प्रकार भगवान ऋपमदेव ने जिम धर्म को आत्मकल्याण और विश्व में व्यवस्था कायम करने के लिए चुना था, वह क्रोव, मान, माया, लोभ आदि विकागे से गन्य मानमिक पवित्रता तथा अहिमा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहता विशिष्ट वाह्य प्रवृत्ति स्वस्प है । हम देखते है कि आज भी इसकी उपयोगिता नष्ट नहीं हुई है और भविष्य में तो मानव-ममष्टि में मानवता के विकास का यही एक अद्वितीय चिह्न माना जायगा। भगवान ऋषभदेव मे लेकर चौबीसवे तीर्थकर भगवान महावीर पर्यन्त मव तीर्थंकरी ने भगवान ऋपभदेव द्वारा प्रतिपादित इमी धर्म का प्रकाग एव ममुत्यान किया है। इनके अतिरिक्त आगे या पीछे जिन महापुरुषो ने धर्म के बारे में कुछ गोव की है वह भी इममे परे नहीं है। अर्थात् न केवल भारतवर्ष के,अपितु विश्व के किमी भी महापुरुप द्वागजब कभी धर्म की आवाज बुलन्द की गई हो, उम धर्म की परिभापा भगवान ऋपभदेव द्वारा प्रतिपादित धर्म की परिभाषा मे भिन्न नहीं हो मकती है। इसका कारण यह है कि एक ही देश में रहने वाली भिन्न-भिन्न मानव ममप्टियों की तो बात ही क्या, दुनिया के किमी भी कोने में रहने वाले मनुप्यो के जीवन मवधी आवश्यकतानो में जव भेद नहीं किया जा सकता है तो उनके धर्म में भेद करना मानव समष्टि के माय घोर अन्याय करना है। इसलिए वर्म के जैन, बौद्ध, वैदिक, इम्लाम, क्रिश्चियन इत्यादि जो भेद किये जाने है, ये मव किमी हालत में वर्म के भेद नहीं माने जा सकते हैं। वर्मम्प वस्तु तो इन सव के अन्दर एक म्प ही मिलेगी और हम इनके अन्दर जो कुछ भेद दिग्वलाई देता है वह भेद या तो धर्म का प्रतिपादन करने या उसके प्राप्त करने के तरीको का है या फिर वह अधर्म ही कहा जायगा। इस तरह अपने जीवन को मुख-गान्तिमय बनाने के उद्देश्य मे मानव-ममप्टि में सुख-शान्ति का वातावरण लाने के लिए प्रत्येक मनुष्य को जिस प्रकार अपनी कोष, मान, माया, लोभ श्रादि मानसिक दुर्वलतानो को कम करना तथा हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह स्त्रम्प प्रवृनि को रोकना पादश्यक है उसी प्रकार परम्पर मोहाई,महानुभनि और महायता प्रादि बातें भी आवश्यक है। इसलिए इन सब बातों का ममावेग भी धर्म केही अन्दर किया गया है। इसके अतिरिक्त अपने जीवन को सुखी बनाने में शारीरिक स्वास्थ्य को भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। अत शारीरिक स्वास्थ्य मपादन के लिए जो नियम-उपनियम उपयोगी सिद्ध होते है उन्हें भी जैन-मान्यता के अनुमार धर्म की कोटि में रक्वा गया है। जैसे पानी छानकर पीना, रात्रि में भोजन नही करना, मद्य, मांस और मधु का मेवन नहीं करना, अमावधानी मे तैयार किया हृया भोजन नहीं करना, भोजन में ताजा और ममत्त्व प्राटा, चावल, मागफल आदि का उपयोग करना, उपवास या एकागन करना, उत्तम मगति करना आदि इन सब प्रवृत्तियो को धर्म रूप ही मान लिया गया है नया ऐमी प्रवृत्तियो को अधर्म या पाप मान लिया गया है, जिनके द्वारा माक्षात् या परपरा से हमारे गारीरिक स्वास्थ्य को हानि पहुंचने की सभावना हो या जो हमारे जीवन को लोकनिंद्य और कप्टमय बना रही हो । जुवा खेलना, गिकार गेलना और वेश्यागमन आदि प्रवृत्तियाँ इस अधर्म की ही कोटि में आ जाती है। जैन मान्यता के अनुसार अभक्ष्यममण को भी अधर्म कहा गया है और अभक्ष्य की परिमापा म उन चीजों को सम्मिलित किया गया है, जिनके खाने से हम कोई लाभ न हो अथवा जिनके तैयार करने में या साने में हिमा का प्राधान्य हो अयवा जो प्रकृति विरुद्ध हो या लौकिक दृष्टि में अनुपमेव्य हो। जैन मान्यता के अनुसार अधिक खाना भी अधर्म है और अनिच्यापूर्वक कम ग्वाना भी अधर्म है । तात्पर्य यह है कि मानव-जीवन की प्रत्येक प्रवृत्ति को जन-मान्यता में धर्म और अधर्म की कमोटी पर कम दिया गया है । आज भले ही पचडा कहकर इन मव वातो के महत्व को कम करने की कोगिग की जाय, परन्तु इन सब बातो की उपयोगिता स्पष्ट है । पूज्य गाँधी जी का भोजन में हाथ-चक्की से पिमे हुए ताजे पाटे का और हाथ से फूटे गये चावल का उपयोग करने पर जोर देना तथा प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रत्येक Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ प्रेमी-अभिनवन - ग्रथ प्रवृत्ति मे आवश्यकता, सादगी, स्वच्छता, सच्चाई श्रादि बातो पर ध्यान रसने का उपदेश देना इन बातो की उपयोगिता काही दिग्दर्शक है । इस प्रकार जैन समाज जहाँ इस बात पर गर्व कर सकती है कि उसकी मान्यता मे मानव-जीवन की छोटी-छोटी श्रीर वडी-से-वडी प्रत्येक प्रवृत्ति को धर्म और अधर्म की मर्यादा में वॉकर विश्व को सुपथ पर चलने के लिए सुगमता पैदा की गई है, वहाँ उसके लिए यह वडे सताप की बात है कि उन सब बातो का जैन समाज के जीवन में प्राय प्रभाव मा हो गया है श्रोर दिन प्रतिदिन होता जा रहा है तथा जैन समाज की क्रोधादि कपायम्प परिणति हिमादि पापमय पवृत्ति श्राज शायद ही दूसरे समाजो की अपेक्षा कम हो । जो कुछ भी धार्मिक प्रवृत्ति श्राज जैन समाज में मौजूद है वह इतनी श्रव्यवस्थित एव श्रज्ञानमूलक हो गई है कि उम प्रवृत्ति को धर्म का रूप देने में मकोच होता है । मे मा पूर्वोक्त धर्म को अपने जीवन में न उतारने की यह एक बुराई तो वर्तमान है ही, इसके प्रतिरिक्त दूसरी बुराई जो जैन ममाज में पाई जाती है, वह है खाने-पीने इत्यादि मे छुग्रा-छूत के भेद की । जैन गमाज में वह व्यक्ति अपने को मवसे अधिक धार्मिक समझता है, जो खाने-पीने आदि में अधिक-से-अधिक छुआ-छूत का विचार रसता हो, परन्तु भगवान ऋषभदेव द्वारा स्थापित और शेप तीर्थंकरो द्वारा पुनरुज्जीवित धर्म में इस प्रकार के छुआछूत को कतई स्थान प्राप्त नही है । कारण कि धर्म मानव-मानव में भेद करना नहीं मिसलाता है और यदि किसी धर्म से ऐसी शिक्षा मिलती हो तो उसके बरावर श्रधर्म दुनिया में दूसरा कोई नही हो सकता । हम गर्वपूर्वक कह सकते हैं कि जैन तीर्थकरो द्वारा प्रोक्त धर्म न केवल राष्ट्रवर्म ही हो सकता है, श्रपितु वह विश्वधर्म कहलाने के योग्य है । परन्तु छुआछूत के इस सकुचित दायरे मे पडकर वह एक व्यक्ति का भी धर्म कहलाने योग्य नही रह गया है, क्योकि यह भेद केवल राष्ट्रीयता का ही विरोधी है, बल्कि मानवता का भी विरोधी है श्रोर जहाँ मानवता को स्थान नही, वहाँ धर्म को स्थान मिलना असंभव ही है । यद्यपि ये सब दीप जैन समाज के समान अन्य धार्मिक समष्टियो मे भी पाये जाते हैं, परन्तु प्रस्तुत लेख केवल जैन मान्यता के अनुसार प्रतिपादित धर्म के बारे में लिखा गया है । इसलिए दूसरी धार्मिक ममप्टियो की ओर विशेष ध्यान नही दिया गया है। हमे आश्चर्य होता है कि क्या जैन समप्टि और क्या दूसरी धार्मिक रामप्टियाँ, सभी अपने द्वारा मान्य धर्म को ही राष्ट्रधर्म तथा विश्वधर्म कहने का साहस करती है, परन्तु उनका धर्म किस ढंग से राष्ट्र का उत्थान एव विश्व का कल्याण करने में सहायक हो सकता है और हमे इसके लिए अपनी वर्तमान दुष्प्रवृत्तियो के कितने वलिदान की जरूरत है, इसकी ओर किसी का भी लक्ष्य नही है । बीना ] Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत, प्राकृत और जैन-साहित्य Page #399 --------------------------------------------------------------------------  Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमित्रा दशी श्री बहादुरचद्र छाबडा एम० ए०, पी-एच्० डी० [मैलापुर, मदरास की सस्कृत एकेडेमी ने ८ अप्रैल १९४३ को वाल्मीकि-दिवस मनाया था और घोषणा की थी कि सुमित्रा पर पन्द्रह अथवा उससे कम पदो की संस्कृत की सर्वोत्तम मौलिक रचना पर पुरस्कार दिया जायगा । उसी के लिए श्री बहादुरचद्र जी छाबडा ने 'सुमित्रा पचदशी' शीर्षक पन्द्रह श्लोक भेजे थे, जो पुरस्कार के योग्य निर्धारित हुए थे।-सपादक] जयति सुमित्रा साध्वी पुत्रवतीना ललामभूता सा। लक्ष्मण सदृश वीर जितेन्द्रिय या सुत सुषुवे ॥१॥ राम दशरथ विद्धि मा विद्धि इत्यादि यादिशत्पुत्र सा सुमित्रा महीयते ॥२॥ यमी सुमित्रा तनया वजीजनत्प्रशस्तवीर्यों भुवि यो मनस्विनौ । निजाग्रजादेशवशवदी स्वक कुल कुलीनी प्रथयाम्बभूवतु ॥३॥ लक्ष्मणशत्रुघ्नौ तौ क्रमशो बाल्याद्धि रामभरताभ्याम् । प्रायः सौमित्रगुणरास्ता नखमासवत् स्यूतौ ॥४॥ रामाय लक्ष्मण दत्त्वा शत्रुघ्न भरताय च। कौसल्यामिव कैकेयी सुमित्रारञ्जयत्सती ॥५॥ कैकेयी प्रति मत्सर न भेजे कौसल्या प्रति नाति । दुष्टादुष्टमचिन्वती सपन्यो सौमित्रं समवर्शयत्सुमित्रा ॥६॥ हन्त सुमित्रा व्याजीदुदारताया. परा काष्ठाम् । परकीयेषु निजेभ्य. प्रकाशयन्ती गरीयसीं ममताम् ॥७॥ धन्यासि त्व सुमित्रे कृतमतिकठिन कर्म धम्यं त्वया वै दास्ये सूनो. सपत्न्याश्चिरवनवसति यास्यतो राघवस्य । ज्यायास यत्ययुद्धथा प्रमुदितमनसा लक्ष्मण कुक्षिज स्व यत्सोप्याज्ञा यथावत्तव खलु कृतवास्तेन भूयोसि धन्या ॥८॥ पिता राममेवादिशद्वानवास स्वतन्त्रोपि यल्लक्ष्मणस्तेन साकम् । गतोमुक्त दुःखानि भूयासि साघु सुमित्रोपदेशस्तु तत्राग्यहेतु ॥६॥ कथ बालोम्बाया सरसमुपदेशैर्गुणगण कथ माता कीति सुतगुणमहिम्ना च लभते । सुमित्रा सौमित्री इदमुभयमच्छ विवृणुत' सरस्यम्भोजी वाप्रतिफलितशोभी खलु मिथ ॥१०॥ रामेरण्य यातवत्यार्तिमग्ना कौसल्या यत्सर्वदासान्त्वयत्सा। न्यक्कुर्वाणा स्व विषादं सुमित्रा निर्व्याज तत्सौभगिन्य सपन्याम् ॥११॥ पत्यूराजर्षित्वादृषिपत्न्यो पल्ल्योपि । किन्तु सुमित्रा तासामूषिपन्यासीद्विशेषेण ॥१२॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BE प्रेमी-पभिनंदन-प्रंय अनसूया तपोनिष्ठा नत्रता समदर्शिता। एभिरागुगरातीत् सुमित्रा सुतरामपि. ॥१३॥ पात्नत्यागसुनीततानलजला शोलावोद्यतटा। सत्यनेहनहिष्णुतोत्पलचया भक्तिप्रवाहोद्धरा। प्रत्युत्लाह विवेक्वीचिरुचिरा घोरुमत्त्वान्विता सेयं मानवपावनी विजयने चित्रा सुमित्रा नदी ॥१४॥ वाल्नीकपूर्वपरिकोनितमचरित्राम् प्राधिन्य लक्ष्मणपतेर्जननी सुमित्राम् । गीर्वाणगौरभिनिवेशजुषा प्रशस्ति केनापि भावत्वरेण कृतेयमस्ति ॥१५॥ उटकनड (क्षिण भारत) ] Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रमसिंह रचित पारसी-संस्कृत कोष __ श्री बनारसीदास जैन एम० ए०, पी-एच्० डी० जव भारतवर्ष मे मुसलमानो का राज्य स्थापित हो गया तो यहाँ के मरकारी दफ्तरो मे भारतीय भाषा के साथ-साथ फारसी का प्रयोग भी होने लगा। अत दफ्तरो मे काम करने वाले हिन्दू लोग फारसी से कुछ-कुछ परिचित हो गये होगे, लेकिन मम्राट अकवर के मत्री राजा टोडरमल ने केवल फारसी को ही दफ्तरी भापा बना दिया। अत अव सरकारी नौकरी पाने के लिए फारसी का ज्ञान अनिवार्य हो गया। इस कारण हिन्दुओ मे अव इसका प्रचार अधिक होने लगा। धीरे-धीरे उनकी प्रवृत्ति फारसी साहित्य मे हो गई और उन्होने अपनी विविध रचनामो से इस माहित्य की उल्लेखनीय वृद्धि की।' मुसलमाना को भी यहाँ की प्रचलित भापाएँ सीखनी पडी, क्योकि इनके बिना सीखे जीवन का काम नहीं चल सकता था। इन्होने हिन्दी साहित्य की काफी वृद्धि की। पजावी साहित्य की तो नीव ही इन्होने डाली। प्रारभ मे इन्होने सस्कृत को नही मीसा । मभव है कि पडितो ने इनको सस्कृत सिखाने से मकोच किया हो और इन्होने उसे सीखने से। लेकिन अकवर ने सस्कृत का वडा आदर किया। उमकी प्रेरणा से अबुल फजल, फैजी आदि ने सम्कृत सीखकर उसके अनेक ग्रथो का फारसी में अनुवाद किया।' अकबर के दरवार मे जैन साधुनो का वडा सम्मान था। जैन साहित्य मे इस विषय पर प्रचुर सामग्री मिलती है। सिद्धिचन्द्र तो महल मे जाकर जहांगीर (कुंवर सलीम या शेख वावा) के माथ फारसी सीखा करता था। यद्यपि तत्कालीन देशी भाषामो और साहित्य पर फारसी का पर्याप्त प्रभाव पटा, तथापि कतिपय सज्ञाओ के प्रयोग को छोडकर सस्कृत पर इसका कुछ प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता। अभी तक किसी भी फारसी गथ का सस्कृत अनुवाद उपलब्ध नहीं हुआ। हाँ, ज्योतिप के ताजिक ग्रथो का मूल विदेशी जान पडता है, क्योकि उनकी बहुत सी परिभाषाएँ अरबी की है, जो सभवत हिंदुओं ने फारसी द्वारा मीखी हो।' नानाविध-भाषा-ज्ञान जैनाचार्यों का एक प्रधान गुण रहा है। वे संस्कृत के अतिरिक्त प्राकृत, अपभ्रश और एक-दो देशी भाषाएं जाना ही करते थे। अवसर मिलने पर विदेशी भाषा भी सीख लेते थे। जैनाचार्यों द्वारा 'देखिये-सैयद अब्दुल्ला कृत "अद्वियाते फारसी में हिन्दुओ का हिस्सा", वेहली, सन् १९४२ । देखिये-'हिन्दी के मुसलमान कवि"। ''पञ्चास्तिकाय' और 'कर्मकाण्ड' नामक दो जैन ग्रन्यो का भी मुशी दिलाराम कृत फारसी अनुवाद मिलता है। सैयद अब्दुल्ला, पृ० १२५ । "विद्याविजय कृत "सूरीश्वर अने सम्राट्," भावनगर, स० १९७६ । ५भूयो भूयस्त मित्याह प्रसन्नवदन प्रभु । 'त्वया मत्सूनुभि साद्धं स्थेयमत्रव नित्यश' ॥८६॥ अध्यष्ट सर्वशास्त्राणि स्तोकरेव दिनस्तत । शाहिना प्रेरितोऽत्यन्त सत्वर पारसीमपि ॥६॥ पठन्त (पठत ?) पारसी ग्रन्यास्तत्तनूजाङ्गजै समम् । प्रात पूर्वदिनाभ्यस्त पुर श्रावयत प्रभो ॥१०४॥ भानुचन्द्रगणिचरित, चतुर्थ प्रकाश। सिद्धिचन्द्र विरचित, मोहनलाल दलीचद देशाई द्वारा सपादित सिंघी जैन ग्रन्थमाला-१५। 'म्लेच्छेषु विस्तृत लग्न कलिकाल प्रभावत । प्रभुप्रसादमासाद्य जैने धर्मेवतार्यते ॥६॥ हेमप्रभसूरि रचित 'त्रैलोक्यप्रकाश' । 'जैन सत्य प्रकाश' वर्ष ६, अक ६, पृ० ४०६ । Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ प्रेमी अभिनंदन ग्रंथ विविध भाषाओ में रचे हुए अनेक स्तोत्र मिलते हैं। जिन प्रभरचित पारसी का ऋषभस्तोत्र प्रसिद्ध है । इसी प्रकार मह० विक्रमसिंह विरचित 'पारसी भाषानुशासन' नाम का फारसी संस्कृत कोप हैं। इसकी एक प्रति अम्बाला शहर के श्वेताम्बर भडार में विद्यमान है । प्रस्तुत लेखक ने इस पर एक नोट प्रकाशित किया था, जिसे पढकर गायकवाड ओरियटल इन्स्टिच्यूट, वडोद्रा के डाइरेक्टर महोदय ने इस प्रति को मगवा कर इसके फोटो वनवा लिये। इससे इस प्रति के महत्त्व का अनुमान लग सकता है। यहाँ उसी प्रति के आधार पर इस कोष का परिचय कराया जाता है । अम्बाले के भडार की सूची में इस प्रति का नवर २५८ (ख) है। इसके आठ पत्र है, जो १० इच लबे और ४१ इच चौडे है । प्रत्येक पृष्ठ पर पद्रह पक्तियाँ है और प्रति पक्ति मे पचास के लगभग अक्षर है। इसके अक्षर साधारण श्वेताम्वर लिपि के है । यद्यपि इममें लिपिकाल का निर्देश नही है, तथापि कागज और अक्षरो की श्राकृति मे तीन मो वर्ष पुरानी प्रतीत होती है । 'जैन गथावली' और मोहनलाल दलीचद देमाई कृत 'जैन साहित्य नो सक्षिप्त इतिहाम' मे इस कोष का उल्लेख नही, परन्तु प्रो० एच० डी० वेलकर ने अपने 'जिनरत्न समुच्चय' में इसी प्रति के आधार पर इन कोष का नाम निर्देश किया है । प्रगस्ति के अनुसार कोष के रचयिता का नाम मह० विक्रमसिंह है, जो मदनपाल का पुत्र और ठक्कुर जागज का पौत्र था । यह जागज प्राग्वाट वग रूपी आकाश मे पूर्ण चन्द्र के समान था तथा धर्मात्मा और बुद्धिमान था । उसका वेटा मदनपाल अपनी सुजनता, नीति और नम्रता आदि गुणो के लिए प्रसिद्ध था । स्वय विक्रमसिंह श्रानन्दमूरि का अनन्य भक्त था । पारसी भाषा का शुद्ध प्रयोग सीखकर उसने इस कोष को रचा। खेद है कि विक्रमसिंह ने कोप का रचना -काल और रचना-स्थान नही वतलाया । इसके अपने तथा पिता और पितामह के नाम का उल्लेख भी कही नही मिला और न श्रानन्दसूरि का नाम ही इस विषय में कुछ सहायता कर सकता है, क्योकि इस नाम के कई आचार्य हो चुके है और विक्रमसिंह ने अपने ग्रानन्दमूरि की गुरु परपरा नही वतलाई । हाँ, 'जैन साहित्य सशोधक, खड ३, पृ० २१ - २६ २ * वल्नर कर्ममोरेशन वॉल्युम्, लाहौर सन् १९४०, पृ० ११६-२२ । * कंटालॉग व मैन्यस्क्रिप्ट्स् इन दि पजाव जैन भडार, लाहौर, सन् १६३६, न० १६४६ ॥ ' इति मह० विक्रमसिंह विरचिते पारसी भाषानुशासने सामान्यप्रकरण पञ्चम समाप्तम् । प्राग्वाट वशगगनाङ्गण पूर्णचन्द्र सर्द्धमबुद्धिरिह ठक्कुरजागजोस्ति । तन्नन्दनो मदनपाल इति प्रसिद्ध सौजन्य नीतिविनयादि गुणैकगेह. ॥१॥ श्रानन्द सूरिपद पद्मयुगक भृङ्गस्तत्सूनुरेष ननु विक्रमसिंह नामा | आम्नाय शुद्धमववृष्य स पारसोक --- भाषानुशासनमिद रचयाचकार ॥२॥ ५ (१) इस नाम के एक आचार्य स० २३० में हुए। पूरणचन्द्र नाहर जैन लेख सग्रह, नं० ८७२, ८७३ ॥ (२) जिनेश्वरसूरि के शिष्य । जैन ग्रन्थावली, पृ० १२६ ॥ (३) नागेन्द्रगच्छीय शान्ति सूरि के शिष्य । पोटर्सन, रि० ३, परिशिष्ट पू० १७ । (४) वृहद्गच्छ के । पीटर्सन, रि० ३, परिशिष्ट पृ० ८० । (५) एक और आचार्य । पीटर्सन, रि० ३, परिशिष्ट पृ० ८७ । (६) अमरप्रभसूरि के गुरु (स० १३४४) पीटर्सन रि० ५, परिशिष्ट पृ० ११० । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रमसिंह रचित पारसी - सस्कृत कोष ३६६ कोप के प्रथम प्रकरण के श्लोक २६ से, जहाँ नगर शब्द का फारमी पर्याय देकर अणहिलपाटक (पाटण) का फारसी रुप 'निहरवल' दिया यह अनुमान किया जा सकता है कि विक्रमसिंह पाटण का रहने वाला था, क्योकि फारमी मे कई नगरो के विशेष नाम है--प्रयाग का अलाहाबाद, राजनगर का अहमदावाद, परन्तु विक्रमसिंह ने पाटण कोही लिया है। कोपकर्ता की उपाधि म० महतो ( गुजराती = महेतो) भी इस बात की सूचक है कि वह गुजराती था । यह कोप जैनो मे काफी प्रचलित रहा होगा । इसके दो पद्य जिनप्रभसूरि विरचित पारमी भाषा के प भम्तव की टीका में उद्धृत किये गये है ।' यह टीका शायद लावण्यसमुद्र गणी की रचना है, जिसे उनके शिष्य मुद्र ने लिपिबद्ध किया। यदि ये उदयममुद्र खरतर गच्छीय है तो इनका सत्ताकाल म० १७२८ के आसपास है ।" अत इम कोप की रचना तीन सौ वरस से पहिले की होनी चाहिए । कोप में अनुमानत १,००० फारसी शब्दो के मस्कृत पर्याय दिये है । कर्ता के कथनानुसार इसका परिमाण ३६० ग्रंथ (३२ प्रक्षर का श्लोक ) है ।" यह पाँच प्रकरणो में विभक्त है - ( १ ) जाति प्रकरण (२) द्रव्य प्रकरण, (३) गुण प्रकरण, (४) क्रिया प्रकरण और (५) सामान्य प्रकरण, जिन मे क्रम मे १११, ६६, १५, ३१ और ३५ श्लोक है । इम कोप में सन्धि-नियमो का प्रयोग वैकल्पिक रूप मे किया गया है । कभी-कभी फारसी शब्द के साथ प्रथमा विभक्ति लगा कर मन्धि कर दी गई है । इसमे प्राय पहिले फारसी शब्द देकर फिर मम्कृत पर्याय दिया है, लेकिन कही-कही इस क्रम का व्यत्यय हो गया है । फारसी में लिंग के कारण गब्दो में भेद नही पडता, श्रीर न इसमें तीन वचन ही होते है ।" हम यह तो निर्णय नहीं कर सकते कि फारमी भाषा के इतिहास में इसका कितना उपयोग है, लेकिन कई अन्य दृष्टियों से इन कोप का वडा महत्त्व है । जैसे 'वसुन्धरा दुनीए स्यात् पत्तन सहरु स्मृतम् ग्रामो दिहस्तथा देश उलातु परिकीर्तिति ॥ २५ ॥ तस्मिन् निहरवलो श्रीमदणहिल्लपाटकम् लोक कसस्तया प्रोक्तो बुधखाना सुरालय ॥ २६ ॥ , ''जैनमत्यप्रकाश', खड६, श्रक ८, पृ० ३८८-६० । 'मोहनलाल दलीचद देशाई कृत जैन साहित्यनो सक्षिप्त इतिहास, पैरा० ६७६ । ४ प्रत्यक्षरगणनात शतानि त्रीण्यनुष्टुभाम् । ( कोप - प्रशस्ति) पण्यधिकानि विज्ञेय प्रमाण तस्य निश्चितम् ॥३॥ शब्दस्य भेदाश्चत्वारो जातिद्रव्यगुणक्रिया । ततस्तदनुसारेण वच्मि किंचिद् यथामति ॥ ३ ॥ प्रायो दुरवबोधत्वात् सधिकार्यं कृत न हि । अन्यथा स्यादपभ्रश कष्टं सस्कृतयोजितु ॥४॥ सस्कृतोक्ति क्वचित् पूर्वं ततः स्यादनु पारसी । पारस्यपि क्वचित् पूर्वं संस्कृतोक्तिस्तत कृता ॥ ५॥ पुस्त्रीनपुसकत्वाद्यैलिङ्गर्भेदो न दृश्यते । एक द्वि agरूपैश्च वचनंरत्र न निश्चितम् ॥ ६ ॥ ४७ ५ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-पभिनदन-प्रथ ३७० १-फारसी-सस्कृत कोषो की नख्या अति अल्प है । इस समय इसके अतिरिक्त केवल चार कोष ज्ञात है। अत एक नये कोप की उपलब्धि हर्ष का विषय है। २-तस्कृत-प्राकृत मिश्रण का अद्भुत उदाहरण । इस कोप का मगलाचरण सस्कृत-प्राकृत मे रचा हुआ है, अर्थात् इसका पयम पाद नस्कृत मे, हिलोय महाराष्ट्री मे, तृतीय शौरसेनी मे और चतुर्थ मागधी मे। एक ही पद्य में विभिन्न भाषाओ का प्रयोग अन्य भापाओ मे भी हुआ है। जैसे-हिन्दवी और फारमी का रेखता, जिसमे अमीर खुसरो ने रचना की। सस्कृत और द्राविडी भाषाओ (कण्णड, मलयालम प्रादि)का मिश्रण, जिसे 'मणि प्रवालम् कहते है। इस शैली में जैनाचार्यों ने अनेक स्तोत्र रचे है। भीमकुमार कथा तो सारी ही मस्कृतमहाराष्ट्री मिश्रण में है। लेकिन चारो पदो में विभिन्न भाषाओ के उदाहरण वहुत थोडे है। ३-इस कोप का दूसरा पद्य फारसी भाषा और गार्दूल विक्रीडित छन्द में है। अम्बाला वाली प्रति के अन्तिम पृष्ठ पर इस पत्र की नस्कृत व्याख्या दी है, जो शायद किसी अन्य लेखक की कृति है। इस व्याख्या में 'रहमाण शब्द को सस्कृत प्रकृति प्रत्यय से निह करके इसका अर्थ 'वीतराग किया है। इसमे किमी कुरानकार '(१) पारसी-नाममाला या-शब्दविलास । स० १४२२ में सलक्षमत्री द्वारा रचित । परिमाण ६०० अन्य । जैन ग्रन्यावली पृ० ३११ । (२) पारसी प्रकाश । प्रकवर के समय में कृष्णदास द्वारा रचित । इसने सत्कृत सूत्रो में पारसी व्याकरण भी रचा। ए० वेबर द्वारा सपादित, कोष १८८७, व्याकरण १८८६ (जर्मनी)। (३) पारती प्रकाश । स० १७०० में वेदाङ्गराय द्वारा रचित । (४) पारसी विनोद । स० १७१६ में रघुनाथ-सनु व्रजभूषण द्वारा रचित । 'यद्गौरातिदेह सुन्दररदज्योत्स्नाजलौघे मुदा दछृणासण सेयपकमिण नूण सर माणस । एय चितिय झत्ति एस करदे न्हाणनि हसो मदि सा पक्खालदु भालदी भयवदी जड्डाणुलित मण ॥१॥ अर्य-जिस (भारती) की गौरवर्ण देह और सुन्दर दन्त (पक्ति) को ज्योत्स्ना रूपी जलसमूह में (उसके) प्रासन रूपी श्वेत कमल को देख कर और ऐसा विचार कर कि 'सचमुच यह मानसरोवर है', (उसका वाहन) हस स्नान करने की सोचता है, वह भगवती भारती (हमारे) जडता से लिप्त मन का प्रक्षालन करे। जैन सत्य प्रकाश-वर्ष ८, अक १२, पृ० ३६२-६४ । 'दोस्ती ब्वाद तुरा न वासय कुया हामाचुनी द्रोग हसि, चीजे आमद पेसि तो दिलुसुरा बूदी चुनी कीम्बर । त वाला रहमाण वासइ चिरा दोस्ती निसस्ती इरा, अल्लाल्लाहि तुरा सलामु बुजिरुक् रोजी मरा मे देहि ॥ अर्य-हेल्वामिन् । 'तेरा किसी में अनुराग नहीं है, यह सब झूठ है। जो कोई तेरे सामने भक्तिभाव से आता है, चाहे वह किंकर ही हो, हे वीतराग । तू उससे क्यो अनुराग करता है ? इसलिए हे अल्लाह | तुझे नमस्कार हो । मुझे भी महतो विभूति दे। 'रहमाण शब्दस्य कृता व्युत्पत्तिर्यथा--रह त्यागे इति चौरादिको विकल्पेनन्तो धातु । रहयति रागद्वेष कामक्रोवादिकान् परित्यजतीत्येव शक्त इति विग्रह शक्तिवयस्ताच्छोल्य इति शानड् प्रान्मोन्त आने इति मोन्त । रवणेभ्योति॒र्णेत्यादिना णत्वम् इति रहमाण ।कोर्थ रागद्देष विनिर्मुक्त श्रीमान् वीतरागो रहमाण । नान्यः कश्चित्, तस्य सम्बोधनम् । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रमसिंह रचित पारसी-सस्कृत कोष ३७१ का उद्धरण है जो मभवत फारसी का व्याकरण था। यह उद्धरण ऋषभस्तोत्र की टीका में भी मिलता है। ४-कोष के दूसरे पद्य की भाषा शुद्ध माहित्यिक फारसी नहीं है। इस कारण से इसका सन्तोषजनक समन्वय नहीं किया जा सकता। कई शब्द ऐसे है जिनका प्रयोग फारसी में नही मिलता। स्वाभाविक वात है कि री में लिखते समय और सस्कृत-छन्द में इसकी रचना करते समय उसके गब्दो के असली रूप में कुछ-न-कुछ परिवर्तन अवश्य हो गया होगा, लेकिन वह इतना नहीं हो सकता कि उनके असली रूप का अनुमान भी न किया जा सके। सभव है कि कोष की भाषा फारसी का कोई रूपान्तर हो। इस बात का निर्णय तो कोष का सूक्ष्म रीति से निरीक्षण करने पर ही हो सकता है कि जिस प्रदेश और काल मे इसकी रचना हुई थी वहां उस समय किस प्रकार की फारसी प्रचलित थी। ५-कोप के रचयिता अथवा उसके लिपिकार ने फारसी उच्चारण की विशेपतानो को देवनागरी मे प्रकट करने का प्रयत्न किया है । फारसी के 'खे' को नागरी 'क' के ऊपर जिह्वामूलीय लिखकर और 'फे' को 'फ' के पूर्व उपध्मानीय लगाकर जाहिर किया है । लेकिन कही-कही 'खे' के लिए 'क', 'ख' या 'प' भी लिखा है। इसी तरह 'फे' के लिए केवल 'फ' लिखा है। 'जे' के लिए 'ज' या 'य' पाया है। कभी 'जीम' के लिए भी 'य' का प्रयोग हुआ है। 'ज्वाद' को 'द' से और 'से' को 'थ' से प्रकट किया है। कभी 'ते' के लिए भी 'थ' आया है।' लाहोर ] H 'तुरा' 'मरा' इति सर्वत्र सबन्धे सप्रदाने च ज्ञातव्यम् । तथा च कुरानकारअज इत्यन्वयादान सवन्धसप्रदानयो । रा सर्वत्र प्रयुज्येतान्यत्र वाच्य सु रूपत ॥ आनि मानि अस्मदीय किंचित् कियच्चदिरीदृशम् । चुनी हमचनी तादृश् चदिन इयदेव च ॥ चीजे किमपि इत्यादि कुरानोक्त लक्षणम् । सर्वत्र विज्ञेय सप्रदायाच्च ॥ जैन सत्यप्रकाश, वर्ष ६, अक ८, पृ० ३८६ । लेखक के एक सहाध्यापक मराको (अफ्रिका) के रहने वाले है। उनकी अपनी भाषा के 'ते' का उच्चारण . हिन्दी 'थ' से मिलता है । वे अरवी शब्द 'तरतीब को 'थरथीब' कहते है। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि के समय का संस्कृत - साहित्य श्री बलदेव उपाध्याय एम० ए०, साहित्याचार्य महर्षि पाणिनि की अष्टाध्यायी मुरयत व्याकरण का सर्वश्रेष्ठ गय है । उसका सवध प्रधानतया संस्कृतभाषा तया उसकी सूक्ष्मभाषा सववी वारोकियो से है । संस्कृत साहित्य का इतिहास इसका विषय न होते हुए भी भाषा की खूबियों को अच्छी तरह से दिखलाने में विद्या के अन्य विभागो का स्थान-स्थान पर उल्लेख करना पडा है । वह इतने महत्व का है कि संस्कृत - माहित्य के अनेक अज्ञात गघरत्नो का इससे परिचय मिल जाता है । पाचीनकाल से लेकर पाणिनि के समय तक के साहित्य पर इसमे थोडा ही प्रकाश डाला गया है। इन गयो के उल्लेख से पाणिनि के विशाल साहित्यिक ज्ञान पर आश्चर्य होता है । प्राचीन 'दृष्ट' श्रुतियो से लेकर ऋषि प्रणीत भिन्न-भिन्न विषयो पर अनेक ग्रथो तक का पता इनसे भलीभाति लग जाता है । पाणिनि के नमय में केवल श्रुतियो का ही अध्ययन नही होता था, वल्कि ब्राह्मणगयो का पठनपाठन भी अच्छे ढग से पचलित था । उन समय संस्कृत साहित्य विशाल होने के अतिरिक्त विभिन्न विषयो के ग्रथो से सुशोभित था । केवल एक ही विषय - धार्मिक साहित्य का ही प्रभ्युदय न था, प्रत्युत अन्य ऐहलौकिक विषयो पर भी रचनाएँ थी। इससे तत्कालीन साहित्य का महत्त्व सहज मे ही नमझा जा सकता है । पाणिनि ने तत्कालीन साहित्य के जो विभाग किये है उसमे उनकी वैज्ञानिक बुद्धि का ययेष्ट परिचय मिलता है । यह विभागोकरण इतना वैज्ञानिक है कि यदि इसका प्रयोग साहित्य के इतिहास गथो मे किया जाय तो उससे अनेक लाभ होने की सभावना है । पाणिनि को प्रखर प्रतिभा ने साहित्य के निम्नलिखित विभागो का निर्देश किया - (१) दृष्ट साहित्य - अर्थात् वे गथ, जिन्हे 'अपौरुषेय' कहा जा सकता है। ये ईश्वर प्रदत्त है, किनी मनुष्य की रचनाएँ नही है । इन ग्रंथो का ज्ञान पहिलेपहिल 'मनदृष्टा' 'ऋषियों' को हुआ था । सूत्रो मे वैदिक नियमो के निर्देश से पाणिनि का वेदसबधी ज्ञान अत्यन्त विस्तृत प्रतीत होता है । यदि उनका वैदिक अध्ययन प्रत्यन्त गभीर न होता तो उन्हें इतने सूक्ष्म नियमो की कल्पना ही नही हो सकती थी । पाणिनि ने दृष्ट माहित्य के उदाहरण में तीनो वेदो का विना नाम के ( ४, ३, १२६) साधारण रूप से उल्लेख किया है तथा अलग-अलग ऋग्वेद (६, ३, ५५, ५, ४, ७७ आदि), सामवेद (५, ४, ७७, ५, २, ५६ ) तया यजुर्वेद (२ ४ ४, ५, ४, ७७, ६ १ ११७ ) का प्रध्वर्यु वेद के नाम से (४ २ ६० ) उल्लेस किया गया है । एकश्रुति के विषय में लिखते हुए पाणिनि ने स्पष्ट ही लिखा है कि साम मे इस नियम का निषेध होता है ( १२३४), जिससे उनके सामगायन-सबधी सूक्ष्म ज्ञान का परिचय मिलता है । ऋग्वेद की शाखा के विषय मे पाणिनि को शाकलशाला (४३ १२८), उसके पदपाठ (६ १ ११५, ७ १ ५७ ) और क्रमपाठ (४ २ ६१ ) का ज्ञान भलोभाति था । उन्हें वेद के कई विभागो, सूक्त अध्याय तथा अनुचाक (५, २६०), का भी यथेष्ट परिचय था । वेदो के 'प्रगाथ' का उल्लेख (४ २ ५५ ) पाया जाता है। जहाँ दो ऋचाएँ प्रथित होकर तीन वन जाती है वहां 'प्रगाथ' होता है ('यत्र द्वे ऋचो पगधनेन तिस्र क्रियन्ते स प्रगाथनात् प्रकर्षगानाद्वा प्रगाय इत्युच्यते' पूर्वसूत्र की काशिकावृत्ति ) । वेदो के कुछ खास भागो का भी स्पष्ट उल्लेख है । 'न्यूख' सोलह प्रोकारो का सम्मिलित नाम है, जिन्हे भिन्न-भिन्न श्रुतियो से उच्चारण करना पडता था ( १, २ ३४ न्यूखा ओकारा षोडश तेषु केचिदुदात्ता केचिदनुदात्ता, काशिका) । 'सुब्रह्मण्या ' नामक कतिपय मत्रो में भी एकश्रुति का निषेध किया गया है (१, २, ३७) । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि के समय का सस्कृत-साहित्य ३७३ मत्रद्रष्टा ऋषियो के नाम निर्देश भी यत्रतत्र पाये जाते है। माममत्र के द्रष्टा ऋषियो मे 'वामदेव' (४२ ६) तथा 'कलि' का नाम पाया जाता है (४ २८)। इसी सूत्र के वार्तिक मे 'अग्नि' तथा 'उगनस्' के उल्लेख सामद्रष्टा ऋपि के रूप में पाये जाते है। वहुतो का कहना है कि 'अथर्व' केवल गण में ही पाया जाता है, सूत्र में नहीं। अतएव गोल्डस्टुकर ने पाणिनि को वेदत्रयी मे ही परिचित बतलाकर अथर्ववेद की रचना से पूर्ववर्ती बतलाया है, परन्तु हमारी सम्मति मे पाणिनि को इस वेद तथा इसके वशीकरण मत्रो का परिचय पूरी तरह मे था। आथर्वणिकस्येक् लोपश्च (४ ३ १३३) मे पाणिनि ने 'आथर्वण' की व्युत्पत्ति वतलाई है। __ उक्तसूत्र की काशिका में "आथर्वणिकस्यायम् पाथर्वणो धर्म आम्नायो वा। चरणाद्धर्माम्नाययो" लिखा हुया है, जिससे अथर्वण के द्रप्टा ऋषि तथा उनके खास आम्नाय अर्थात् अथर्वण वेद के नाम उल्लिखित है। इस सगयरहित उल्लेज से इस चतुर्थ वेद को पाणिनि के अनन्तर का मानना सर्वथा भूल है। एक अन्य मूत्र से अवशिष्ट सन्देह भी दूर हो जाता है। पाणिनि ने (४,४ ६६ मे) पुरुषो के हृदय को वश में करने वाले मत्रो का उल्लेख किया है तथा उन्हें हृद्य' मजादी है । काशिका के अनुमार पाणिनि को वशीकरण मत्र से पूरा परिचय था। (ऋषिर्वेदो गृह्यते। हृदयस्य बन्वनमृषि हृद्य । परहृदय येन वद्धयते वशीक्रियते स वशीकरण मत्रो हृद्य इत्युच्यते) । ४ ३ ७२ मे न केवल पुरश्चरण' नामक क्रिया का उल्लेख है, अपितु उसके व्याख्यान ग्रथो अर्थात् उमको टीका-टिप्पणी का भी परिचय पाया जाता है । जहाँ तक हमारा विचार है, वशीकरण मत्र तथा पुरश्चरण आदि मारणोच्चाटन क्रियायो का वर्णन पहिले-पहल अथर्ववेद मे ही पाया जाता है । अतएव पाणिनि को इस वेद से अनभिज्ञ मानना भयकर ऐतिहासिक भूल के सिवाय और क्या कहा जा सकता है ? पूर्वोक्त सूत्रो के प्रमाण पर पाणिनि केवल अथर्व से परिचित ही नहीं जान पडते, बल्कि अन्य वेदो की भाति उनका अथर्व सवधी ज्ञान तथा अध्ययन भी उन्नत कोटि का था। इन पवित्र श्रुतियो के अतिरिक्त पाणिनि ने इनके मर्मज्ञो का भी उल्लेख किया है , जिन्हें यज्ञो मे भिन्न-भिन्न कार्य ममर्पित किये जाते थे। जान पडता है कि पाणिनि के ममय में ऐसे बहुत से नाना प्रकार के चरण तथा मप्रदाय विद्यमान थे, जो अपनी शाखा के अध्ययन तथा रक्षा मे दत्तचित्त थे । विभिन्न वैदिको का एक साथ पाणिनि ने वर्णन किया है। वे थे छन्दोग, प्रोक्थिक, याज्ञिक तथा वह्वच (४।३।१२६) 'छन्दोग' विद्वान तो यज्ञ के समय छन्दो को गाते थे। 'उक्य' साम का ही एक विशेष प्रकार है, जो केवल लगातार सुना दिया जाता था। साम की भाति न तो यह स्वर में गाया जाता था और न यजुप की तरह केवल धीरे से उच्चरित होता था। इम विगिप्ट साम को जानने वालो की मना 'प्रोक्थिक' थी। 'याज्ञिक विद्वानो का मवध यजुर्वेद से था और यज्ञ के काम कराने वाले वे ही होते थे। 'वहवृच' यज्ञ के समय ऋग्वेद की ऋचाएँ सुनाते थे। इसमे स्पष्ट है कि उस समय इन वेदो के विभिन्न सम्प्रदायो तथा शाखायो की उन्नति यथेप्ट थी। (२) प्रोक्त अर्थात् वह साहित्य, जो ऋपियो द्वारा पहिले-पहल कहा गया हो या वर्णित हो, परन्तु जो 'दृष्ट' न हो। (४ ३ १०१)। (क) छन्दम् अथ जो तित्तिरि, वरतन्तु, खण्डिक तथा उख से कहे गये है (४ ३ १०२), काश्यप तथा कौगिक ऋषि से प्रोक्त अथ (४ ३ १०३), कलापि ऋपि तथा वैशम्पायन के 'अन्तेवासी' शिष्यो द्वारा प्रोक्त (४ ३ १०४)। काशिका मे कलापि के चार शिष्यो के (हरिद्रु, छगली, तुम्वुरु तथा उलप) तथा वैशम्पायन के नव शिष्यो के (प्रालम्बि, पलङ्ग, कमल, ऋत्राभ, आरुणि, ताण्ड्य, श्यामायन, कठ तथा कलापी)नाम स्पष्टत उल्लिखित है। न केवल इन ऋपियो के शिष्यो द्वारा ही ग्रथो की रचना की गई थी, बल्कि इन प्राचार्यों के लिखे हुए ग्रथो का पता पाणिनि ने स्वय ही दिया है। वात ठीक भी है। जव इनके शिष्यो ने अनेक ग्रथो की रचना की तव इन आचार्यों ने अवश्य ही कुछ-न-कुछ लिखा होगा। कलापी (४ ३ १०८) तथा चरक (वैशम्पायन) (४ ३ १०७) (चरक इति वैशम्पायनस्य प्रास्या, इति काशिका) के प्रोक्त ग्रथ का उल्लेख है। इनके शिष्यो मे से कठ तथा छगली (४ ३ १०६) Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ प्रेमी-प्रभिनंदन ग्रंथ द्वारा रचित ग्रंथो का वर्णन पाणिनि ने स्वय किया है । शाकल द्वारा प्रोक्त ग्रथ का उल्लेख ४ ३ १०६ मे किया गया । (ख) ब्राह्मण -- यह ध्यान मे रखना चाहिए कि पाणिनि ने ब्राह्मणग्रथो को वैदिक महिताओ की भाति 'दृष्ट' नही माना है, वल्कि उन्हें 'प्रोक्तग्रयों' की सूची मे अन्तर्भुक्त किया है । आजकल तो ब्राह्मण श्रुति के अन्तर्गत माने जाते हैं तथा वेद की भाति उनकी अपौरुषेयता भी प्रामाणिक मानी जाती है, परन्तु यह वर्णन माहित्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । ब्राह्मणग्रथो को पाणिनि ने 'छन्दम्' से भिन्न वतलाया है । पाणिनि ने ब्राह्मणो के विषय मे केवल इसी बात का उल्लेख किया है कि कुछ एक प्राचीन मुनियो द्वारा प्रोक्त थे । इसके अतिरिक्त किसी का व्यक्तिगत नाम नही दिया गया है (४ ३।१०५ ) | काशिका ने 'पुराणमुनियों से पाणिनि का आशय ' भत्लव' 'गाट्यायन' तथा 'ऐतरेय' से वतलाया है । अवश्य ही पाणिनि ने तीस या चालीस अध्याय वाले ब्राह्मणो की मज्ञा 'श' तथा ' चत्वारिंग' है ( ५ १६२ ) । ब्राह्मणो के अनुकरण पर वनने वाले 'अनुब्राह्मण' ग्रंथो का भी उल्लेख किया गया है (४/२/६३) । मत्रो की किसी प्रकार की अनुक्रमणिका का पता भी ( ४ ४ १२५-२७) लगता है, जो यज्ञो की सुविधा के लिए वनाई गई थी । उदाहरणार्थं जिनमे 'वयस्यान्' शब्द (४|४|१२७) तथा 'अश्विमान' शब्द पाये जाते है ( ४/४४१२६) उन मत्रो की एक पृथक् सूची थी । पूर्वोक्त बातो से तत्कालीन ब्राह्मण ग्रंथो के विषय में बहुत कुछ जानकारी की वातो का पता चलता है । पाणिनि के समकालीन ग्रथकारो मे वार्तिककार तथा उसके आधार पर काशिकाकार ने 'याज्ञवल्क्य' का नामोल्लेख किया है । (ग) उपनिषद् -- यद्यपि पाणिनि ने गथ के अर्थ मे 'उपनिषद्' शब्द का व्यवहार नही किया है, तथापि १४ ७९ से ज्ञात होता है कि उनका परिचय इन ग्रंथो से अवश्य था । पूर्वोक्त सूत्र का अर्थ है कि जीविका तथा उपनिषद् शब्द को औपम्य ( सादृश्य) के अर्थ मे गतिसज्ञा होती है । यदि ग्रंथकार को गब्दो के मूल अर्थ का पता नही होता तो उसे उनके उपमामूचक अर्थ में व्यवहार करना उचित नही था । जीविका के मूल अर्थ को जाने विना 'जीविका के तुल्य' का अर्थ स्पष्ट नही होता । इससे मेरी सम्मति मे उक्त मूत्र मे 'उपनिषद्' शब्द को श्रौपम्यार्थ - (रहम्यभूत के अर्थ ) में प्रयुक्त होने से पाणिनि की इन दार्शनिक ग्रथो से श्रभिज्ञता का पूरा पता चलता है । (घ) कल्पसूत्र---यज्ञ के अगभूत इन आवश्यक ग्रंथो का उल्लेख केवल साधारणतया ही ( ४ ३ १०५ ) किया गया है । इनमे प्राचीन मुनियो से प्रोक्त कल्पग्रथो का ही हाल दिया गया है, यद्यपि गयो के व्यक्तिगत नाम नहीं दिये गये हैं । काशिका ने 'पिङ्ग' तथा 'ग्ररुणपराज' नामक प्राचीन कल्पग्रथो के रचयिताओं के नाम दिये है जिनके द्वारा रचित कल्पसूत्र क्रमश 'सी' तथा 'अरुणपराजी' कहे जाते हैं । श्राधुनिक कल्प के कर्ता मुनियों में 'अमरय' का उल्लेख काशिकाकार ने किया है (सू० ४।३।१०५) । (ड) सूत्रग्रन्थ - पाणिनि के समय में सूत्रग्रथों की रचना का प्रचार खूब हो चला था । अनेक स्थानो पर सूत्रो का उल्लेख पाया जाता है। इनमें 'पराग' तथा 'कर्मन्द' के द्वारा प्रोक्त भिक्षु सूत्रो का नाम दिया गया है । 'भिक्षुसूत्र' सन्यासियो के प्रचार के द्योतक उनके जीवन दिशा को बतलाने वाले तथा उनके ध्यान मनन को बतलाने वाले—प्रय थे । इन सूत्रो का नाम पाणिनि को छोड कर और कही नही मिलता । भामतीकार वाचम्पति मिश्र की सम्मति मे पूर्वोक्त 'पराग' भिक्षुसूत्र से वादरायण व्यास रचित 'ब्रह्मसूत्र' से आगय है । उस काल में नाटककला की उत्पत्ति ही नही हुई थी वरन् विशेष उन्नति भी हो चुकी थी। नाटक करने वाले नट तथा उनके कार्य का उल्लेख स्पष्ट बतला रहा है कि जन साधारण में इसका प्रचार खूब था । 'शिलालि' तया 'कृशाश्व' द्वारा प्रोक्त नटसूत्रो के उल्लेख से भी नाटकीय कला की विशेष उन्नति तथा प्रचार का अनुमान सहज में ही लगाया जा सकता है (४३११०-१११) । सभवत भरत नाट्यशास्त्र वहुल प्रचार के कारण इन सूत्रो का लोप ही हो गया और आज तो वे अतीत काल के गर्भ मे सदा के लिए धँस गये है । (३) उपज्ञात - ( ४ ३ ११५ ) -- नये उपजवाले ग्रंथो के लिए यह शब्द प्रयुक्त किया जाता था । जो ग्रन्थ विलकुल ही मौलिक हो, जिसकी विना किसी के उपदेश से रचना की गई हो (विनोपदेशेन ज्ञातमुपज्ञात स्वयमभि Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाणिनि के समय का सस्कृत साहित्य ३७५ सम्वद्धमित्यर्थ - का० ) तथा नवीनता लिये हो उन्हें उपज्ञा या 'उपज्ञात' कहते थे । पाणिनि ने उपज्ञात ग्रन्थो का नाम निर्देश नही किया है, परन्तु काशिकाकार ने ही काशकृस्न, आपालि तथा पाणिनि के व्याकरण को इसके अन्तर्गत माना है । जिस प्रकार मान तथा तौल के नाप पहिले-पहल नन्द (राजा) ने चलाये थे। उसी प्रकार पाणिनि ने भी 'अकालक' व्याकरण की रचना की । पाणिनि के पहिले काल सूचित करने के लिए 'भवन्ती' (लट् ), परोक्षा (लिट् ), ह्यस्तनी (लड्), अद्यतनी (लुड्) आदि नाम पाये जाते थे । पाणिनि ने सबसे पहिले इन्हें हटाकर लकार के वारहखडी के साथ 'ट' या 'ड्' जोडकर अपनी मौलिक बुद्धि का परिचय दिया । इसीलिए पाणिनि का व्याकरण 'अकालक' ' कहा गया है । पाणिनि के फुफेरे भाई 'सग्रहकार' व्याडि ने भी दस लकारो के 'इ' 'ट्' के स्थान पर 'हुष' जोडकर नई पद्धति चलाई थी। अतएव इस नवीनता के कारण काशिका ने व्याड्युपज्ञ हुष्करणम् (दुष्करणम् नही) लिखा है । (४) कृत — (४३८७ ) – किसी ग्रन्थकार द्वारा बनाए गये ग्रन्थ के अर्थ मे इस शब्द का प्रयोग पाणिनि ने किया है । इस विभाग में अनेक ग्रन्थो का नाम पाया जाता है. (१) शिशुक्रन्दीय अर्थात् बच्चो के रोने के विषय मे लिखे गये ग्रन्थ । (२) यमसभीय - - यमराज की सभा विषयक रचना । (३) इन्द्रजननीय इन्द्र की उत्पत्ति के बारे में रचा ग्रन्थ ४|३|८८ | (४) श्लोक - ( इसके कर्ता को 'श्लोककार' कहते थे ) ३ २२३ । (५) गाया । (६) सूत्र | (७) पद 1 (८) 'महाभारत' शब्द का निर्देश ६ २ ३८ में किया गया है। सूत्रो मे जान पडता है कि पाणिनि को महाभारत युद्ध के प्रधान प्रधान पात्रो से पूरा परिचय था । पाणिनि ने ८ ३६५ में ज्येष्ठ पाण्डव नाम की व्युत्पत्ति बतलाई है और ४ ३ ६८ में न केवल वामुदेव और अर्जुन के ही नाम पाये जाते हैं भक्ति करने वाले लोगो की भी चर्चा पाई जाती है । श्रत पाणिनि 'महाभारत' को भलीभांति जानते थे । (१) ऋतुओ के विषय में लिखे गये ग्रन्थ ४ २ ६३ में वसन्त विपयक ग्रन्थ के पढने वाले का नाम 'वासन्तिक' कहा गया है । युधिष्ठिर के वरन् इनकी (४ ४ १०२) में 'कथन' तथा 'कथा' में प्रवीण 'काथिक' लोगो का उल्लेख पाया जाता है, परन्तु मूत्र से यह नही जान पडता कि 'कथा' रचित ग्रन्थ थे वरन् यह केवल कहानियाँ थी, जो साधारणतया लोगो मे प्रसिद्ध रहती है। ४ ४ ११६ में 'कृतग्रन्य' का उल्लेख है । काशिका वृत्ति में वररुचि कृत श्लोक, हैकुपाद तथा भैकुराट ग्रन्थो के नाम दिये गये है । 'वाररुच काव्य' ( ४ | ३ | १०१ का भाष्य) का नाम महाभाष्य में भी पाया जाता है । सुभाषितावलि आदि सूक्तिग्रन्थो में भी 'वररुचि' के नाम मे श्लोक उद्धृत किये गये है । काशिका मे भी वररुचि के कवि होने की बात मत्य प्रमाणित होती है। राजशेखर ने वररुचि के काव्य का नाम कण्ठाभरण दिया है। बहुत सभव है कि महाभाष्य में उल्लिखित वाररुच काव्य यही हो -- यथार्थता कय नाम्नि मा भूद् वररुचेरिह | व्यधत्त कण्ठाभरण य सदारोहण प्रिय ॥ नन्दोपक्रमाणि मानानि । 'पाणिनीयमकालक व्याकरणन् । -- काशिका । तेन तत्प्रथमत प्रणीतम् । स स्वस्मिन् व्याकरणे कालाधिकार न कृतवान् यास । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनवन-प्रथ (५) व्याख्यानग्रन्य --- (४३६६ ) इन रचनाओ में ग्रन्थो की व्याख्या या टीका होती थी । (क) सोमयाग तथा अनेक यज्ञो की व्यास्या (४ ३ ६८) । (ख) ऋषि के द्वारा व्याख्यात अध्याय ( ४ ३ ६९ ) काशिकाकार ने वसिष्ठ तथा विश्वामित्र द्वारा व्याख्यात अध्यायो के नाम दिये है । 1 ३७६ (ग) पौरोडाश तथा पुरोडाश विषयक व्याख्यान ( ४ ३ ७० ) । (घ) छन्दस् की व्याख्या जिन्हे 'छन्दस्य ' तथा 'छान्दस ' कहते थे (४ ३ ७१) । (ड) ब्राह्मण, प्रथम, अध्वर, ऋच्, पुरश्चरण, नाम तथा आख्यात के व्याख्यान ग्रन्थ ( ४ ३ ७२ ) । (च) 'ऋगयन' नामक ग्रन्थ की व्याख्या जिसे 'आर्गायन' कहा गया है ( ४ ३ ७३) । इस गण में काशिकाकार ने न्याय, उपनिषद्, शिक्षा आदि अनेक ग्रन्थो का उल्लेख किया है । इन ग्रन्थो के नामोल्लेख के अतिरिक्त पाणिनि ने अपने पूर्ववर्ती व्याकरण रचयिताओ के नाम तथा मत स्थान स्थान पर उल्लिखित किये है। पाणिनि की अष्टाध्यायी मे प्रापिशलि (६ १९२), काश्यप (१, २, २५), गार्ग्य ( ८ ३ २०), गालव ( ७ १७४), चाक्रवर्मण (६।१।१३०), भारद्वाज ( ७१२ ६७), शाकटायन ( ३४१११ ) शाकल्य ( १|१|१६), सेनक ( ५/४१ ११२ ), स्फोटायन ( ६।१।१२३ ) --- --इन दम वैयाकरणो की मम्मतियाँ उल्लिखित है । ' यास्कादिभ्यो गोत्रे' मे निरुक्तकार 'यास्क' का भी नाम दिया गया है। इनमें ऋग्वेद प्रतिशास्य के रचयिता गाकल्प का नाम प्रति प्रसिद्ध है । अन्य ग्रन्थकारो के वारे में हमे कुछ भी ज्ञात नही है । वार्तिककार कात्यायन ने भी 'पौष्करसादि' नामक व्याकरण के प्राचार्य का उल्लेख किया है (चयो द्वितीया शरि पौष्करसादेरिति वाच्यम्) । पतञ्जलि ने भी अपने महाभाष्य मे भारद्वाजीय ( ३ १ ८१ ), शौनग, कुणरवादव, सौर्य भागवत तथा कुणि का उल्लेख किया है, परन्तु इन सबसे अधिक महत्त्व की वाती का पता काशिका मे लगता हूं। ४ २ ६५ के ऊपर काशिका वृत्ति से 'व्याघ्रपद' तथा 'काशकृत्स्न' नामक व्याकरण के प्राचार्यो का पता लगता है । व्याघ्रपद ने सूत्रों मे ही अपना गन्थ लिखा था, जो दस श्रध्यायो का था। काशकृत्स्न का नाम (४ ३ ११५ ) की वृत्ति मे उपज्ञात के उदाहरण मे उल्लिखित है । इन्होने भी सूत्र में ही व्याकरणग्रन्थ रचा था, जो तीन अध्यायो मे समाप्त हुआ था । (पाणिनीयमष्टक' सूत्र तदधीते अष्टका पाणिनीया, दगका वैयाघ्रपदीया त्रिका कामकृत्स्ना ) । छन्द शास्त्र की भी विशेष उन्नति का पता सूत्रो से लगता है । ( ३३ ३४) में 'विप्टार' शब्द की सिद्धि छन्द के नाम के अर्थ में की गई है। काशिकाकार ने स्पष्ट लिखा है कि सूत्र के छन्दोनाम मे मत्र -- ब्राह्मण का अथ नही है, बल्कि गायत्री आदि विशेष छन्दो से हैं'। उन्होने विष्टार पक्ति तथा विष्टार बृहती का नाम उदाहरण के लिए दिया है । अष्टाध्यायी तथा उसके व्याख्याग्रन्थो के अध्ययन करने से प्राचीन संस्कृत साहित्य के विषय मे अनेक ज्ञातव्य बातें जानी जा सकती है। यहाँ केवल पाणिनि के द्वारा निर्दिष्ट साहित्य का सामान्य -- परिचय मात्र दिया गया। 1 काशी ] 'इस उदाहरण में 'श्रष्टक सूत्रम्' से प्राशय आठ सूत्रों का नहीं है बल्कि 'आठ श्रध्यायो में रचे गये सूत्रो से है ।' भट्टोजिदीक्षित द्वारा की गई 'अष्टौ अध्याया परिमाणमस्य तदष्टक पाणिने सूत्रम्' अष्टक शब्द की व्युत्पत्ति से उक्त सिद्धान्त की पुष्टि होती है । सख्याया सज्ञा सघसूत्राध्ययनेषु (५२११५८ ) के अधिकार में सख्याया प्रतिशदन्ताया कन् ( ५३११२२) से अष्ट शब्द से कन् प्रत्यय करने पर 'अष्टक' निष्पन्न हुआ है । श्रतएव काशिका के उदाहरण से यही जान पडता है कि व्याघ्रपद का सूत्रप्रन्य दस श्रध्यायों में तथा 'काशकृत्स्न' का तीन अध्यायो में था । इनसे सूत्रो की सख्या समझना भूल हैं । 'वृत्तमन्त्र छन्दो गृह्यते, यत्र गायत्रपादयो विशेषा । न मन्त्र ब्राह्मणेनाम ग्रहणात् । काशिका । Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिभा-मूर्ति सिद्धसेन दिवाकर १० सुखलाल सघवी भारतीय दर्शन अध्यात्मलक्षी है। पश्चिमीय दर्शनो की तरह वे मात्र बुद्विप्रधान नहीं है। उनका उद्गम ही आत्मशुद्धि की दृष्टि मे हुया है। वे प्रात्मतत्त्व को और उसकी गुद्धि को लक्ष्य में रखकर ही वाह्य जगत् का विचार करते है । इमलिए सभी ग्रास्तिक भारतीय दर्शनो के मौलिक नत्त्व एक से है। जैनदर्शन का बोत भगवान महावीर और पार्श्वनाथ के पहले से ही किमी-न-किसी रूप में चला आ रहा है, यह वस्नु इतिहाम निट है । जैन दर्शन की दिशा चारित्र-प्रधान है, जो कि मूल आधार प्रात्मशुद्धि की दृष्टि से विशेष मगत है । उममे जान, भक्ति प्रादि तत्त्वो का स्थान अवश्य है, पर वे नभी तत्त्व चारित्र-पर्यवमायी हो तभी जैनत्व के माय मगत है। केवल जन परम्परा मेही नहीं, बल्कि वैदिक, बौद्व आदि मभी परम्परामो मे जव तक आध्यात्मिकता का प्राधान्य ग्हा या वस्नुत उनमें आध्यात्मिकता जीवित रही तब तक उन दर्शनो मे तर्क और वाद का स्थान होते हुए भी उमका प्राधान्य न रहा । इसलिए हम सब परम्परानो के प्राचीन ग्रन्यो मे उतना तर्क और वाद-ताण्डव नही पाते है, जितना उत्तरकालीन ग्रन्यो म । आध्यात्मिकता और त्याग की मर्वमाधारण मे नि सीम प्रतिष्ठा जम चुकी थी। अतएव आध्यात्मिक पुरुपो के आसपास सम्प्रदाय भी अपने आप जमने लगते थे। जहाँ मम्प्रदाय वने कि फिर उनमे मूलतत्त्व मे भेद न रहने पर भी छोटी-छोटी बातो में और अवान्तर प्रश्नों में मतभेद और तज्जन्य अवान्तर विवादो का होते रहना स्वाभाविक है। जैसे-जैसे सम्प्रदायो की नीव गहरी होती गई और वे फैलने लगे, उनमे परम्पर सघर्प भी वढता चला, जमे अनेक छोटे-बडे राज्यों के बीच चढा-उतरी का मघर्प होता रहता है। राजकीय मघों ने लोकजीवन मे जितना क्षोभ उत्पन्न किया है, उतना ही क्षोभ, वल्कि उसमे भी अधिक माम्प्रदायिक मर्प ने किया है। इस संघर्ष में पड़ने के कारण मभी आध्यात्मिक दर्शन तर्कप्रधान बनने लगे। कोई आगे तो कोई पीछे, पर मभी दर्शनो मे तर्क और न्याय का बल वढना गुन हुना। प्राचीन समय में आन्वीक्षिकी एक सर्वमाधारण खाम विद्या थी, उमका आधार लेकर धीरे-धीरे मव मप्रदायो ने अपने दर्शन के अनुकूल प्रान्वीक्षिकी की रचना की। मूल आन्वीक्षिकी विद्या वैशेषिक दर्शन के साथ घुल मिल गई। पर उमके आधार मे कभी वौद्ध परम्परा ने तो कभी मीमासको ने, कभी साख्य ने तो कभी जैनोने, कभी अद्वैत वेदान्त ने तो कभी अन्य वेदान्त परम्परानो ने अपनी स्वतन्त्र आन्वीक्षिकी की रचना शुरू कर दी। इस प्रकार इस देश में प्रत्येक प्रधान दर्शन के साथ एक या दूसरे स्प मे तर्कविद्या का सवध अनिवार्य हो गया। जव प्राचीन प्रान्वीक्षिकी का विशेष बल देखा तव वौद्धो ने मभवत सर्वप्रथम अलग स्वानुकूल आन्वीक्षिकी का खाका तैयार करना शुरू किया, सभवत उमके वाद ही मीमासको ने। जनसम्प्रदाय अपनी मूल प्रकृति के अनुसार अधिकतर सयम, त्याग, तपस्या आदि पर विशेप जोर देता आ रहा था, पर आसपास के वातावरण ने उसे भी तर्कविद्या की ओर झुकाया । जहाँ तक हम जान पाये है, उससे मालूम पड़ता है कि विक्रम की पांचवी शताब्दी तक जनदर्शन का स्वतन्त्र तर्कविद्या की ओर ग्वास झुकाव न था। उसमे जैसे-जैसे सस्कृत भाषा का अध्ययन प्रवल होता गया वैसे-वैमे तर्क-विद्या का प्रार्पण भी बढता गया। पांचवी शताब्दी के पहले के जैन वाड्मय और इसके बाद के जैन वाड्मय मे म स्पप्ट भेद देखते है । अब देखना यह है कि जैन वाड्मय के इस परिवर्तन का आदि सूत्रधार कौन है ? और उमका स्थान भारतीय विद्वानो मे कैसा है ? ४८ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ आदि जैन तार्किक जहां तक मैं जानता हूँ, जैन परम्परा में तर्कविद्या का और तर्कप्रधान सस्कृत वाड्मय का आदि प्रणेता है सिद्धसेन दिवाकर । मैने दिवाकर के जीवन और कार्यों के सम्बन्ध मे अन्यत्र विस्तृत ऊहापोह किया है। यहाँ तो यथासभव सक्षेप में उनके व्यक्तित्व का सोदाहरण परिचय कराना है। सिद्धसेन का सम्वन्ध उनके जीवन-कथानको के अनुसार उज्जैनी और उसके अधिपति विक्रम के साथ अवश्य रहा है, पर वह विक्रम कौन सा था, यह एक विचारणीय प्रश्न है। अभी तक के निश्चित प्रमाणो से जो सिद्धसेन का समय विक्रम की पचम शताब्दी का उत्तरार्ध और बहुत हुआ तो छठी का कुछ प्रारम्भिक अश जान पडता है, उसे देखते हुए अधिक सभव यह है कि उज्जनी का वह राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय या उसका पौत्र स्कन्दगुप्त होगा, जो कि विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। सभी नये-पुराने उल्लेख यही कहते है कि सिद्धसेन जन्म से ब्राह्मण थे। यह कथन विलकुल सत्य जान पडता है, क्योकि उन्होने प्राकृत जैन वाड्मय को सस्कृत मे रुपान्तरित करने का जो विचार निर्भयता से सर्वप्रथम किया वह ब्राह्मण-सुलभ शक्ति और रुचि का ही द्योतक है । उन्होने उस युग में जैन दर्शन तथा दूसरे दर्शनो को लक्ष्य करके जो अत्यन्त चमत्कारपूर्ण संस्कृत पद्यवद्ध कृतियाँ दी है, वह भी जन्मसिद्ध ब्राह्मणत्व को ही द्योतक है । उनकी जो कुछ थोडी-बहुत कृतियाँ प्राप्त है, उनका एक-एक पद और वाक्य उनकी कवित्वविषयक, तर्कविषयक, और समग्न भारतीयदर्शन विषयक तलस्पर्शी पतिभा को व्यक्त करता है। आदि जैन कवि और आदि जैन स्तुतिकार हम जव उनका कवित्व देखते है तव अश्वघोष, कालिदास आदि याद आ जाते है। ब्राह्मणधर्म मे प्रतिष्ठित आश्रम व्यवस्था के अनुगामी कालिदास ने विवाह भावना का औचित्य बतलाने के लिए विवाह-कालीन नगरप्रवेश का प्रसङ्ग लेकर उस प्रसङ्ग से हर्षोत्सुक स्त्रियो के अवलोकन-कौतुक का जैसा मार्मिक शब्द-चित्र खीचा है वैसा चित्र अश्वघोप के काव्य मे और सिद्धसेन की स्तुति मे भी है । अन्तर केवल इतना ही है कि अश्वघोप और सिद्धसेन दोनो श्रमणधर्म में प्रतिष्ठित एकमात्र त्यागाश्रम के अनुगामी है । इसलिए उनका वह चित्र वैराग्य और गृहत्याग के साथ मेल खाता है। अत उसमे बुद्ध और महावीर के गृहत्याग से खिन्न और उदास स्त्रियो की शोकजनित चेष्टायो का वर्णन है, न कि हर्षोत्सुक स्त्रियो की चेष्टाओ का । तुलना के लिए नीचे के पद्यो को देखिए "अपूर्वशोकोपनतक्लमानि नेत्रोदकक्लिनविशेषकाणि । विविक्तशोभान्यबलाननानि विलापदाक्षिण्यपरायणानि ॥ मुग्धोन्मुखाक्षाण्युपदिष्टवाक्यसदिग्धजल्पानि पुर सराणि । बालानि मार्गाचरणक्रियाणि प्रलबवस्त्रान्तविकर्षणानि ॥ अकृत्रिमस्नेहमयप्रदीर्घदीनेक्षणा साश्रुमुखाश्च पौरा। ससारसात्म्यज्ञजनैकवन्धो न भावशुद्ध जगृहुर्मनस्ते ॥" (सिद्ध० ५-१०, ११, १२) "अतिप्रहर्षादथ शोकमूछिता कुमारसदर्शनलोललोचना । गृहाद्विनिश्चक्रमुराशया स्त्रिय शरत्पयोदादिव विद्युतश्चला ॥ 'देखिए भारतीय विद्या, वा० श्री बहादुरसिंहजी सिंघी स्मृतिग्रन्थ पृ० १५२-१५४ । तथा सन्मतितर्कप्रकरण भाग। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिभा मूर्ति सिद्धसेन दिवाकर विलम्बकेश्यो मलिनाशुकाम्वरा निरञ्जनैर्वाष्पहतेक्षणैर्मुखे । स्त्रियो न रेजुर्मृजया बिना कृता दिवीव तारा रजनीक्षयारुणा ॥ अरक्ततास्त्रैश्चरणैरनूपुरैह कुण्डलैरार्जवकन्धरैर्मुखं । स्वभावपीनैर्जघनैरमेखलैरहारयोक्त्रैर्मुषितैरिव स्तनं ॥" ( अश्व० बुद्ध० सर्ग ८ - २०, २१, २२) " तस्मिन्मुहूर्ते पुरसुन्दरीणामीशानसदर्शनलालसानाम् । प्रासादमालासु वभूवुरित्य त्यक्तान्यकार्याणि विचेष्टितानि ॥ ५६ ॥ विलोचनं दक्षिणमञ्जनेन सभाव्य तद्वञ्चितवामनेत्रा । तथैव वातायनस निकर्ष ययो शलाकामपरा वहन्ती ॥ ५६ ॥ तासा मुखैरासवगन्धगभर्व्याप्तान्तरा सान्द्रकुतूहलानाम् । विलोलनेत्र भ्रमरंगवाक्षा सहस्रपत्राभरणा इवासन् ॥ ६३॥ | " (कालि० कुमार० स० ७ ) ३७६ सिद्धसेन ने गद्य में कुछ लिखा हो तो पता नही है । उन्होने मस्कृत मे वत्तीस वत्तीसियाँ रची थी, जिनमे मे इक्कीम अभी लभ्य है। उनका प्राकृत में रचा 'सम्मति प्रकरण' जैनदृष्टि और जैनमन्तव्यो को तर्कशैली से स्पष्ट करने तथा स्थापित करने वाला जैनवाङ्मय मे सर्व प्रथम ग्रन्थ है, जिसका श्राश्रय उत्तरवर्ती सभी श्वेताम्बर दिगम्बर विद्वानो ने किया है । कृत वत्तीयो मे शुरू की पाँच और ग्यारहवी स्तुतिरूप हैं । प्रथम की पाँच में महावीर स्तुति है, जब कि ग्यारहवी मे किमी पराक्रमी और विजेता राजा की स्तुति है । ये स्तुतियां अश्वघोष - समकालीन वौद्ध-स्तुतिकार मातृचंट के ‘अध्यर्धशतक' तथा पश्चाद्वर्ती आर्यदेव के चतु शतक की शैली को याद दिलाती है । सिद्धसेन ही जैन-परम्परा का श्राद्य मस्कृत स्तुतिकार है । श्राचार्य हेमचन्द्र ने जो कहा है "क्व सिद्धसेनस्तुतयो महार्था श्रशिक्षितालापकला क्व चैया" वह बिलकुल सही है । स्वामी समन्तभद्र की 'स्वयभूस्तोत्र' और 'युक्त्यनुशासन' नामक दो दार्शनिक स्तुतियाँ मिट्टमेन की कृतियों का अनुकरण जान पडती है । हेमचन्द्र ने भी उन दोनो का अपनी दो वत्तीमियो के द्वारा अनुकरण किया है । 1 बारहवी शताब्दी के प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में उदाहरण रूप से लिखा है कि 'अनुसिद्धसेन कवय ' । का भाव यदि यह हो कि जैन-परम्परा के मस्कृत कवियो में सिद्धसेन का स्थान सर्वप्रथम है ( समय की दृष्टि से और गुणवत्ता की दृष्टि मे अन्य सभी जैनकवियो का स्थान सिद्धसेन के वाद आता है) तो यह कथन आज तक के जैनवाङ्मय की दृष्टि मे अक्षरग मत्य है । उनकी स्तुति और कविता के कुछ नमूने देखिये । भूतसहस्रनेत्रमनेकमेकाक्षरभावलिङ्गम् । "स्वयभुव श्रव्यक्तमव्याहत विश्वलोकमनादिमध्यान्तमपुण्यपापम् ॥ समन्तमर्वाक्षगुण निरक्ष स्वयप्रभ सर्वगतावभासम् । श्रतीतसख्यानमनन्तकल्पमचिन्त्यमाहात्म्यमलोकलोकम् ॥ कुहेतुतर्को परतप्रपञ्चसद्भावशुद्धाप्रतिवादवादम् । प्रणम्य सच्छासनवर्धमान स्तोष्ये यतीन्द्र जिनवर्धमानम् ॥ " - सिद्ध० १, १–३ स्तुति का यह आरम्भ उपनिषद् की भाषा और परिभाषा में विरोधालकार गर्भित है । " एकान्त निर्गुणभावन्तमुपेत्य सन्तो यत्नार्जितानपि गुणान् जहति क्षणेन । क्लीवादरस्त्वयि पुनर्व्यसनोल्वणानि भुक्ते चिर गुणफलानि हितापनष्ट ॥” – सिद्ध० २.२३ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० प्रेमी-अभिनदन-प्रथ इसमें साख्य परिभाषा के द्वारा विरोवाभास गर्भित स्तुति है । "क्वचिन्नियतिपक्षपातगुरु गम्यते ते वच, स्वभावनियता प्रजा समयतत्रवृत्ता क्वचित् । स्वय कृतभुज क्वचित् परकृतोपभोगा. पुन नंवा विषदवाददोषमलिनोऽस्यहो विस्मय ॥" सिद्ध० ३८ इसमे श्वेताश्वतर उपनिषद् के भिन्न-भिन्न कारणवाद के समन्वय द्वारा वीर के लोकोत्तरत्व का सूचन है । "कुलिशेन सहस्रलोचन सविता चाशुसहस्रलोचन । न विदारयितु यदीश्वरो जगतस्तद्भवता हत तम ॥" सिद्ध ४ ३ इसमे इन्द्र र सूर्य से उत्कृष्टत्व दिखा कर वीर के लोकोत्तरत्व का व्यजन किया है। "न सद सु वदन्न शिक्षितो लभते वक्तृविशेषगौरवम् । अनुपास्य गुरु त्वया पुनर्जगदाचार्यकमेव निर्जितम् ॥” सिद्ध ०४७ इसमे व्यतिरेक के द्वारा स्तुति की है कि हे भगवन् । आप ने गुरु सेवा के बिना किये भी जगत का प्राचार्य पद पाया है जो दूसरो के लिए सम्भव नही । "उदघाविव सर्वसिन्धव समुदीर्णास्त्वयि सर्वदृष्टय । न च तासु भवानुदीक्ष्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधि ॥" सिद्ध० ४.१५. इस सरिता और ममुद्र की उपमा के द्वारा भगवान् में सव दृष्टियो के अस्तित्व का कथन है जो अनेकान्तवाद की जड़ है । "गतिमानथ चापि पुमान् कुरुते कर्म फलैर्न युज्यते । फलभुक् च न चार्जनक्षमो विदितो यैविदितोऽसि तैर्मुने ॥" सिद्ध० ४२६ इमे विभावना विशेपोक्ति के द्वारा श्रात्म-विषयक जैन-मन्तव्य प्रकट किया है । किसी विजेता और पराक्रमी नृपति के गुणो की समग्र स्तुति लोकोत्तर कवित्व पूर्ण है । एक ही उदाहरण देखिए- " एका दिश व्रजति यग्दतिमद्गत च तत्रस्यमेव च विभाति दिगन्तरेषु । यात कथ दशदिगन्तविभक्तमूर्ति युज्येत वक्तुमुत वा न गत यशस्ते ॥ " सिद्ध० ११३ आद्य जैन वादी दिवाकर ग्राद्य जैनवादी है । वे वादविद्या के सम्पूर्ण विशारद जान पडते हैं, क्योकि एक ओर उन्होने सातवी वादोपनिपद् वत्तीमी मे वादकालीन सव नियमोपनियमो का वर्णन करके कैसे विजय पाना यह बतलाया है तो दूसरी श्रोर थाठवी वत्तीसी मे वाद का पूरा परिहास भी किया है । दिवाकर प्राध्यात्मिक पथ के त्यागी पथिक थे और वादकथा के भी रसिक थे । इसलिए उन्हें अपने अनुभव मे जो आध्यात्मिकता और वाद-विवाद में असगति दीख पडी, उसका मार्मिक चित्रण म लुब्ध और लडने वाले दो कुत्तो मे तो कभी मैत्री की सम्भावना कहते है, पर दो सम्भव नही देखते । इम भाव का उनका चमत्कारी उद्गार देखिये - किया है । वे एक मास पिण्ड सहोदर वादियो में कभी सख्य --- "ग्रामान्तरोपगतयोरेकामिपसगजातमत्सरयो । स्यात्सीत्यमपि शुनोर्भ्रात्रोरपि वादिनोनं स्यात् ॥ ८ १ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिभा-मूर्ति सिद्धसेन दिवाकर ३५१ वे स्पष्ट कहते है कि कल्याण का मार्ग अन्य है और वादी का मार्ग अन्य, क्योकि किसी मुनि ने वाग्युद्ध को शिव का उपाय नही कहा है। "अन्यत एवं श्रेयास्यन्यत एव विचरन्ति वादिवृषा । वाफ्सरभ क्वचिदपि न जगाद मुनि शिवोपायम् ॥" ८७ आद्य जैन दाशनिक व आद्य सर्वदर्शनसग्राहक दिवाकर पाद्य जैनदार्शनिक तो है ही, पर साथ ही वे आद्य सर्व भारतीय दर्शनो के सग्राहक भी है। सिद्धमेन के पहले किसी भी अन्य भारतीय विद्वान् ने सक्षेप में सभी भारतीय दर्शनो का वास्तविक निस्पण यदि किया हो तो उसका पता अभी तक इतिहास को नही है। एक बार सिद्धमेन के द्वारा सव दर्शनो के वर्णन की प्रथा प्रारम्भ हुई कि फिर आगे उसका अनुकरण किया जाने लगा। आठवी मदी के हरिभद्र ने 'पड्दर्शनसमुच्चय' लिखा, चौदहवी सदी के माधवाचार्य ने 'सर्वदर्शन-सग्रह' लिखा, जो सिद्धमेन के द्वारा प्रारम्भ की हुई प्रथा काही विकास है। जान पडता है, सिद्धसेन ने चार्वाक, मीमासक आदि प्रत्येक दर्शन का वर्णन किया होगा। परन्तु अभी जो बत्तीसियाँ लभ्य है, उनमे न्याय, वैशेषिक, साख्य, वौद्ध, आजीवक और जैनदर्शन की निरुपक वत्तीसियाँ ही है । जैनदर्शन का निरूपण तो एकाधिक वत्तीमियो में हुआ है। पर किसी भी जैन-जनंतर विद्वान् को आश्चर्यचकित करने वाली सिद्धसेन की प्रतिभा का स्पष्ट दर्शन तव होता है जब हम उनकी पुरातनत्व समालोचना विषयक और वेदवाद विषयक दो वत्तीसियो को पढते है। मैं नहीं जानता कि भारत मे ऐसा कोई विद्वान् हुआ हो जिसने पुरातनत्व और नवीनत्व की इतनी क्रान्तिकारिणी तथा हृदयहारिणी एव तलस्पगिनी निर्भय समालोचना की हो। मै ऐसे विद्वान् को भी नहीं जानता कि जिम अकेले ने एक बत्तीसी में प्राचीन सब उपनिषदो तथा गीता का मार वैदिक और औपनिषद भाषा मे ही शाब्दिक और आर्थिक अलकार युक्त चमत्कारिणी सरणी से वर्णित किया हो। जैनपरम्परा मे तो सिद्धसेन के पहले और पीछे आज तक ऐसा कोई विद्वान् हुआ ही नहीं है जो इतना गहरा उपनिपदो का अभ्यासी रहा हो और प्रौपनिषद भाषा मे ही तत्त्व का वर्णन कर मके । पर जिस परम्परा में मदा एकमात्र उपनिपदो की तथा गीता की प्रतिष्ठा है, उस ग्रोपनिषद वैदिक परम्परा के विद्वान् भी यदि मिद्धसेन की उक्त बत्तीसी को देखेगे तो उनकी प्रतिमा के कायल होकर यही कह उठेंगे कि आज तक यह ग्रन्थरत्न दृष्टिपथ में आने से क्यो रह गया। मेरा विश्वास है कि प्रस्तुत बत्तीसी की ओर किमी भीतीक्ष्ण-प्रज्ञ वैदिक विद्वान् का ध्यान जाता तो वह उस पर कुछ-न-कुछ विना लिखे न रहता। मेरा यह भी विश्वास है कि यदि कोई मूल उपनिपदो का माम्नाय अध्येता जैन विद्वान् होता तो भी उस पर कुछ-न-कुछ लिखता। जो कछ हो, मै यहां सिद्धसेन की प्रतिभा के निदर्शकरूप से उम पुरातनत्व समालोचना विषयक द्वात्रिशिका , में मे कछ ही पद्य भावसहित देता हूँ और सविवेचन समूची वेदवादद्वात्रिंशिका स्वतन्त्र रूप से अलग दूगा, जिसके प्रारम्भ में उसमें प्रवेश करने के लिए समुचित प्रास्ताविक वक्तव्य भी है। कभी-कभी सम्प्रदायाभिनिवेश वश अपढ व्यक्ति भी, आज ही की तरह उस समय भी विद्वानो के सम्मुख चर्चा करने की धृष्टता करते होगे। इस स्थिति का मजाक करते हुए सिद्धसेन कहते है कि विना ही पढे पण्डितमन्य व्यक्ति विद्वानो के सामने बोलने की इच्छा करता है फिर भी उमी क्षण वह नही फट पडता तो प्रश्न होता है कि क्या कोई देवता दुनिया पर शासन करने वाले है ? अर्थात् यदि कोई न्यायकारी देव होता तो ऐसे व्यक्ति को तत्क्षण ही सीधा क्यो नही करता? "यदशिक्षितपण्डितो जनो विदुषामिच्छति वक्तुमग्रत ? न च तत्क्षणमेव शीर्यते जगत किं प्रभवन्ति देवता" (६ १) विरोधी वढ जाने के भय से सच्ची बात भी कहने में बहुत से समालोचक हिचकिचाते है । इस भीरु मनोदशा Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ का जवाब देते हुए दिवाकर कहते है कि पुराने पुरुषो ने जो व्यवस्था स्थिर की है, क्या वह सोचने पर वैसी ही सिद्ध होगी? अर्थात् सोचने पर उसमे भी त्रुटि दिखेगी तव केवल उन मृत पुरुखो की जमी प्रतिष्ठा के कारण हाँ मे हाँ मिलाने के लिए मेरा जन्म नही हुआ है । यदि विद्वेषी वढते हो तो वढे । "पुरातनैर्या नियता व्यवस्थितिस्तत्रैव सा किं परिचिन्त्य सेत्स्यति । तथेति वक्तु मृतरूढगौरवादहन्न जात प्रथयन्तु विद्विष. ॥" (६. २) हमेशा पुरातन प्रेमी, परस्पर विरुद्ध अनेक व्यवहारो को देखते हुए भी अपने इष्ट किसी एक को यथार्थ और वाकी को अयथार्थ करार देते है। इस दशा से ऊब कर दिवाकर कहते है कि सिद्धान्त और व्यवहार अनेक प्रकार के है, वे परस्पर विरुद्ध भी देखे जाते है । फिर उनमे से किसी एक की सिद्धि का निर्णय जल्दी कैसे हो सकता है ? तथापि यही मर्यादा है, दूसरी नही, ऐसा एक तरफ निर्णय कर लेना यह तो पुरातन प्रेम से जड बने हुए व्यक्तियो को ही शोभा देता है, मुझ जैसे को नही-- "बहुप्रकारा स्थितय परस्पर विरोधयुक्ता कथमाशु निश्चय । विशेषसिद्धावियमेव नेति वा पुरातनप्रेमजडस्य युज्यते ॥" (६ ४) जव कोई नई चीज आई तो चट से सनातन सस्कारी कह देते है कि, यह तो पुराना नहीं है। इसी तरह किसी पुरातन वात की कोई योग्य समीक्षा करे तव भी वे कह देते है कि यह तो बहुत पुराना है। इसकी टीका न कीजिये। इस अविवेकी मानम को देख कर मालविकाग्निमित्र में कालिदास को कहना पडा है कि "पुराणमित्येव न साधु सर्व न चापि काव्य नवमित्यवद्यम् । सन्त परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते मूढ परप्रत्ययनेयबुद्धि ॥" ठीक इसी तरह दिवाकर ने भी भाष्यरूप से कहा है कि यह जीवित वर्तमान व्यक्ति भी मरने पर आगे की पीढी की दृष्टि से पुराना होगा, तव वह भी पुरातनो की ही गिनती मे आ जायगा। जब इस तरह पुरातनता अनवस्थित है अर्थात् नवीन भी कभी पुरातन है और पुराने भी कभी नवीन रहे, तब फिर अमुक वचन पुरातन कथित है ऐसा मान कर परीक्षा विना किये उस पर कौन विश्वास करेगा? "जनोऽयमन्यस्य मृत पुरातन पुरातनरेव समो भविष्यति । पुरातनेष्वित्यनस्थितेषु क पुरातनोक्तान्यपरीक्ष्य रोचयेत् ॥" (६ ५) पुरातन प्रेम के कारण परीक्षा करने में आलसी बन कर कई लोग ज्यो-ज्यो सम्यग् निश्चय कर नही पाते है, त्यो त्यो वे उलटे मानो सम्यग् निश्चय कर लिया हो इतने प्रसन्न होते है और कहते है कि पुराने गुरुजन मिथ्याभाषी थोडे हो सकते हैं ? मैं मन्दमति हूँ। उनका प्राशय नही समझता तो क्या हुआ? ऐसा सोचने वालो को लक्ष्य में रख कर दिवाकर कहते है कि वैसे लोग आत्मनाश की ओर ही दौडते है "विनिश्चय नैति यथा यथालसस्तथा तथा निश्चितवत्प्रसीदति । अवन्ध्यवाक्या गुरवोऽहमल्पधीरिति व्यवस्यन् स्ववधाय धावति ॥” (६. ६) शास्त्र और पुराणो मे दैवी चमत्कारो और असम्बद्ध घटनामो को देख कर जव कोई उनकी समीक्षा करता है तब अन्धश्रद्धालु कह देते हैं कि भाई । हम ठहरे मनुष्य और शास्त्र तो देवरचित है। फिर उनमे हमारी गति ही क्या? इस सर्व सम्प्रदाय-साधारण अनुभव को लक्ष्य में रख कर दिवाकर कहते है कि हम जैसे मनुष्यरूपधारियो न ही, मनुष्यो के ही चरित, मनुष्य अधिकारी के ही निमित्त ग्रथित किये है। वे परीक्षा में असमर्थ पुरुषो के लिए अपार और गहन भले ही हो, पर कोई हृदयवान् विद्वान् उन्हे अगाध मान कर कैसे मान लेगा? यह तो परीक्षापूर्वक ही उनका स्वीकार-अस्वीकार करेगा Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८३ प्रतिभा-मूर्ति सिद्धसेन दिवाकर "मनुष्यवृतानि मनुष्यलक्षणैर्मनुष्यहेतोनियतानि ते स्वयम् । अलव्यपाराण्यलसेषु कर्णवानगावपाराणि कय ग्रहीष्यति ॥" (६ ७) हम सभी का यह अनुभव है कि कोई मुमगन अद्यतन मानवकृति हुई तो उमे पुराणप्रेमी नहीं छूते जब कि वे ही किमी अम्न-व्यस्त और अमवद्ध तथा समझ में न ा नके, ऐसे विचार वाले गास्त्र के प्राचीनो के द्वारा कहे जाने के कारण प्रगमा करते नही अघाते । इस अनुभव के लिए दिवाकर इतना ही कहते है कि वह मात्र स्मृति मोह है, उसमें कोई विवेकपटुता नहीं-- "यदेव किंचिद्विपमप्रकल्पित पुरातनरुक्तमिति प्रशस्यते।। विनिश्चिताऽप्यद्य मनुष्यवाक्कृतिर्न पठ्यते यत्स्मृतिमोह एव स ॥" (६८) हम अन्त में इस परीक्षाप्रवान वत्तीमी का एक ही पद्य भावमहित देते है "न गौरवाक्रान्तमतिविगाहते किमत्र युक्तं किमयुक्तमयंत । गुणाववोचप्रभवं हि गौरव कुलागनावृत्तमतोऽन्यथा भवेत् ॥” (६ २८) भाव यह है कि लोग किमी-न-किमी प्रकार के वडप्पन के प्रावेश ने, प्रस्तुत में क्या युक्त है और क्या अयुक्त है इसे तत्त्वत नहीं देखते। परन्तु मत्य बात तो यह है कि वडप्पन गुणदृष्टि मे ही है । इसके अतिरिक्त और जो बडप्पन है वह निरा कुलागना चरित है। कोई अगना मात्र अपने खानदान के नाम पर सद्वृत्त मिद्ध नहीं हो सकती। उपसहार में मिद्धसेन का एक पद्य उद्धृत करता हूं, जिसमें उन्होने वार्ट्यपूर्ण वक्तृत्व या पाण्डित्य का उपहाम किया है "देवखात च वदनं प्रात्मायत्त च वाङ्मयम् । श्रोतार सन्ति चोक्तस्य निर्लज्ज. को न पण्डित ॥" (२२.१) माराग यह है कि मुख का गड्ढा नो देव ने ही खोद रक्खा है। प्रयल यह अपने हाय की बात है और सुनने वाले सर्वत्र मुलभ है। इसलिए वक्ता या पडित बनने के लिए यदि जरूरत है तो केवल निर्लज्जता की है। एक वार वृष्ट वन कर वोलिए फिर मव कुछ सरल है। वंबई ] Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिंशिका प० सुखलाल सघवी प्रास्ताविक यहाँ जिस बत्तीसी का विवेचन करना इष्ट है, वह वत्तीसी अपने नाम के अनुसार वैदिक परम्परा के तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखती है । सिद्धसेन दिवाकर ने जैन परम्परा के साथ खास सम्वन्ध रखने वाले विषयो के ऊपर जिनजिन कृतियो की रचना की है सम्भावना यह है कि वे सब उन्होने जैन- दीक्षा स्वीकार करने के बाद ही लिखी होगी । क्योकि वे जन्म से और मस्कार से ब्राह्मण- परम्परा के थे इसलिए जैनसघ में प्रविष्ट होने के पहले जैन - परम्परा से सम्बन्ध रखने वाली गम्भीर और प्रभावक कृति निर्माण कर सके ऐसा ज्ञान तो शायद ही प्राप्त कर सकते । परन्तु उनकी जो-जो सस्कृत कृतियाँ जैनेतर विषयो के ऊपर या सर्वसामान्य विषयो के ऊपर है, उनकी रचना उन्होने जैन-दीक्षा स्वीकार करने के पहले भी की होगी ऐसा सम्भव है । चाहे जो हो, फिर भी ब्राह्मण-परम्परा के अनुसार मिसेन का छोटी अवस्था से ही वेदो, उपनिषदो, गीता और पुराणो का बलवद् अध्ययन और परिशीलन था - इस बात की माक्षी तो प्रस्तुत वेदवादद्वात्रिशिका ही अकेली दे सकती है । सिद्धसेन मे कवित्व और प्रतिभा के चाहे जैमे स्फुट : वीज जन्मसिद्ध होते, परन्तु यदि उनका मानस वेद-वेदान्त आदि ब्राह्मण ग्रन्यो का अध्ययन और परिशीलनजन्य मस्कारो से परिपूर्ण न होता तो वे कभी वैदिक भाषा, वैदिक छन्द, वैदिक शैली और वैदिक रूपको तथा कल्पनात्रो के द्वारा वेद तथा उपनिषद्गत मान्यता या तत्त्वज्ञान को इस एक ही बत्तीसी मे इतनी सफलता से ग्रथित नही कर सकते । प्रस्तुत बत्तीसी का विवेचन करने के पहले यह जानना आवश्यक है कि इसमे सिद्धसेन ने सामान्यरूप से किस विषय का प्रतिपादन किया है । यद्यपि बत्तीसी के ऊपर कोई टीका या सक्षिप्त टिप्पणी भी नही है, इसलिए मिद्धमेन के विवक्षित अर्थ को जानने का माघन केवल मूल बत्तीमी ही है । परन्तु इस बत्तीसी की तुलना जब वेद के मन्त्र, ब्राह्मण और उपनिपभाग के साथ तथा गीता आदि इतर वैदिक माने जाने वाले ग्रन्थो के साथ करते है तब इसका सामान्य भाव क्या है, वह स्पष्ट हुए बिना नही रहता । प्रस्तुत वत्तीसी का हृदय समझने के लिए उपर्युक्त ग्रन्थो के साथ उसकी पुन -पुन तुलना और विचारणा करते समय मेरे मन पर ऐसी छाप पडी है कि सिद्धसेन ने प्रस्तुत वत्तीसी में मुख्यरूप से साख्य-योग के तत्त्वज्ञान का उपयोग करके ब्रह्म अथवा श्रौपनिषद' पुरुष का वर्णन किया है । प्रस्तुत वत्तीसी का प्रत्येक पद, प्रत्येक पाद या तद्गत प्रत्येक 'ब्रह्म शब्द के अनेक अर्थों की तरह पुरुष शब्द के भी अनेक अर्थ है । उनमें से श्वेताश्वतर में प्रयुक्त 'त्रिविध ब्रह्ममेतत्' (१, १२) यह पद ध्यान में लेने जैसा है। प्रधानात्मक भोग्य ब्रह्म जीवात्मक भोक्तृ ब्रह्म और ईश्वरस्य प्रेरक ब्रह्म - यह त्रिविधि ब्रह्म है । और यही त्रिविध ब्रह्म गीता ( १५ १६, १७ ) का क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और पुरुषोत्तम यह त्रिविधि ब्रह्म है । उनमें से जो पुरुषोत्तमरूप प्रतिम ब्रह्म है, जिसको सेश्वर साख्य में पुरुषविशेष कहा है उसका ही बत्तीसी में मुख्यरूप से वर्णन है । यह वस्तु ३१ वें पद्य के 'तेनेद पूर्ण पुरुषेण सर्वम्' इस पाद से स्पष्ट सूचित होती है । यही पुरुष श्रौपनिषद है । उपनिषद्काल के समग्र चिंतन के परिणामरूप से जो एक स्वतन्त्र चेतन तत्त्व सिद्ध हुआ है वही श्रीपनिषद पुरुष है । इस तत्त्व के लिए श्रौपनिषद विशेषण बृहदारण्यक ( ३. ε२६) में दिया हुआ है वह यह सूचित करता है कि उपनिषद् के चिंतन के पहिले ऐसा चेतनतत्त्व सुनिश्चितरूप से सिद्ध नहीं हुआ था और इस तत्त्व की मान्यता उपनिषद् की ही प्रभारी है । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेन दिवाकरकृत देदवादद्वात्रिंशिका ३८५ विचार देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्धसेन के कविमानस मे कोई एक ही ग्रन्थ रममाण नही था, फिर भी यह प्रतीत होता है कि तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले जो प्राचीन उपनिषद् है और मन्त्र-ब्राह्मण में तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले जो प्रसिद्ध सूक्त है उन सब में से श्वेताश्वतर उपनिषद् का प्रभाव कविमानस के ऊपर अधिक प्रमाण में पड़ा है। यह सत्य है कि श्वेताश्वतर उपनिषद् की रचना केवल पाशुपत सम्प्रदाय का अनुसरण करके हुई है जब कि बत्तीसी केवल पाशुपत सम्प्रदाय मे बद्ध न रह कर पौराणिक त्रिमूर्तिवाद का भी आश्रय लेती है। साख्य के विकास की भूमिकाएँ इस वत्तीसी में औपनिषद पुरुष का साख्य-योग तत्त्वज्ञान की प्रक्रिया और परिभाषा द्वारा पौराणिक त्रिमूर्ति रूप से वर्णन हुआ है। इसलिए बत्तीसी और उसका विवेचन सरलता से समझा जा सके तदर्थ प्रास्ताविक रूप में साख्य-योग तत्त्वज्ञान का विशिष्ट स्वरूप उसके विकासक्रम के अनुसार यहां दिखलाना आवश्यक है। साख्य-परम्परा के प्रवाह से सम्बन्ध रखने वाले विचार के भिन्न-भिन्न स्तरो का सुनिश्चित कालक्रम दिखलाना किसी के लिए शक्य नही है। फिर भी मानवबुद्धि के विकास की भूमिकाओ के विचार से और भिन्न-भिन्न साहित्यिक प्रमाणो के ऊपर से हम उस परम्परा के तत्त्वज्ञान की भूमिकाओ का पौर्वापर्य ठीक-ठीक निश्चित कर सकते है । विशाल अर्थ मे साख्य परम्परा दूसरी किसी भी भारतीय तत्त्वज्ञान की परम्परा की अपेक्षा अधिक प्राचीन और व्यापक है। प्राचीनता तो इससे भी सिद्ध है कि उसके जितने स्तर प्राचीन भारतीय वाड़मय में प्राप्त होते है उतने स्तर दूसरी किसी एक भी परम्परा के प्राप्त नहीं होते। उसकी व्यापकता का ख्याल तो इससे ही आ सकता है कि वेद, उपनिषद्, महाभारत, गीता, पुराण, वैद्यक, काव्य-नाटक आदि सस्कृत वाड्मय तथा सन्त साहित्य और जैन-बौद्ध परम्परा के प्राचीन ग्रन्थ, इन सब में एक अथवा दूसरे रूप से अल्प या अधिक प्रमाण मे साख्य परिभाषा और साख्य तत्त्वज्ञान दृष्टिगोचर हुए बिना नहीं रहता। इतना ही नही, प्राचीन औपनिषद चिन्तन या दर्शन और वौद्ध दर्शन की भूमिका तया वैष्णव-शैव आदि आगमावलम्बी परम्पराएँ और उत्तरकालीन वेदान्त की सभी परम्पराओ की मूल भूमिका साख्य परिभाषा, साख्य प्रक्रिया और साख्य विचार से ही बनी है। ऐसा प्रतीत होता है कि साख्यविचार के प्रथम स्तर का निर्माण भौतिक जगत अथवा प्रकृति के स्थूल भाग का आश्रय लेकर हुआ होगा, जो एक अथवा दूसरे रूप से चार्वाक के नाम से अथवा भौतिकवाद के नाम से आज तक साहित्य में सुरक्षित रहा है। इस स्तर में प्रकृति का चिन्तन सूक्ष्म या अव्यक्त रूप में प्रारम्भ नही हुआ था, परन्तु वह पृथ्वी, जल आदि स्थूल और व्यक्त रूप का अवलम्बन लेकर ही चलता था। पुरुष या आत्मा की कल्पना इस स्तर में विनश्वर स्थूल भूतो के मिश्रण जन्य एक प्रकार से आगे नही बढी थी। दूसरा स्तर इस स्थल भूत के कारणविषयक चिन्तन में से उत्पन्न हुआ हो ऐसा प्रतीत होता है । स्थूल और व्यक्त दिखाई देने वाले तत्त्वो का कारण क्या है ? उसका कछ कारण तो होना ही चाहिए-इस प्रश्न के उत्तररूप से सूक्ष्म भौतिक तत्त्व की कल्पना अव्यक्त-प्रकृतिरूप मे स्थिर हुई और इस कल्पना के साथ ही पुरुष का अर्थ स्थूल और क्षर भौतिक परिणाम मे वद्ध न रह करके वह अव्यक्त-प्रकृति पर्यन्त विस्तृत हुआ और जो व्यक्त जगत् का अव्यक्त या अदृश्य कारण है, वही पुरुषरूप में माना जाने लगा। व्यक्त या स्थूल भौतिक जगत् क्षर, चर या विनश्वर है तो क्या उसके कारण अव्यक्त को भी वैसा ही मानना चाहिए ? यदि वह भी वैसा ही क्षर हो तो पुन उसका मूल कारण दूसरा मानना पडेगा और इस प्रकार से तो किसी वस्तु का अन्त नही आवेगा। इस विचार मे से व्यक्त और क्षर जगत् के कारणरूप से माना गया अव्यक्त तत्त्व अक्षर, नित्य, अविनश्वर कल्पित हुआ। और यही पुरुष या आत्मा या जीव तत्त्व है ऐसी विचार सरणी Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ मे मे पुरुष तत्त्व भी क्षर मे से अक्षर बना । लो० तिलक जो व्याख्या करते है उसको मान्य रक्खे तो ऊपर सूचित भरपुरुषवाद और अक्षरपुरुषवाद ये दोनो स्तर गीता के 'क्षर सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते' इस पद्य मे सूचित किये गये है। अव्यक्त प्रकृति यही अन्तिम तत्त्व पुरुष है और उससे आगे दूसरा कुछ भी नहीं है, ऐसी २४ तत्त्व वाली मास्यतत्त्वज्ञानकी दूसरी भूमिका महाभारत मे, उसके बाद की २५ और २६ तत्त्व वाली दो भूमिकाओ की तरह वणित प्राप्त होती है। परन्तु इस २४ तत्व वाली भूमिका का साख्यदर्शन उसके सच्चे भाव में चरक नामक आयुर्वेदग्रन्थ मे विस्तृत वणित' है। उसमे अव्यक्त-प्रकृति का ही आत्मा, पुरुष, चेतन, परमात्मा, कर्ता, भोक्ता, ब्रह्म आदि स्प से वर्णन है । और उसका ही आश्रय लेकर पुनर्जन्म घटा करके निरात्मवाद का निरसन किया गया है। यह निगत्मवाद ही स्थूल और क्षर भूतराशिविशेष को पुरुष मानने वाली पहली भूमिका है। दूसरी भूमिका मे अविनश्वर प्रकृति तत्त्व के प्रविष्ट होते ही उसमें पुनर्जन्म की प्रक्रिया घटाई गई और उसके साथ ही पहली भूमिका के क्षरपुरुषवाद को नास्तिक कह करके निन्दा की गई। यह कहने की तो शायद ही जरूरत होगी कि व्यक्त क्षर तत्त्वमय पुरुप और अव्यक्त अक्षर प्रकृतिमय पुरुष इन दोनो मान्यताप्रो के समय पुरुष या आत्मा में अनुभव किये जाने वाले ज्ञान सुख-दुःख आदि गुण व्यक्त क्षर तत्त्व के तथा अव्यक्त-प्रकृति तत्त्व के ही है ऐसा माना जाता था और यह मान्यता भी साख्य विचार का आगे चाहे जितना विकास हुआ हो फिर भी वह उसके तत्त्वज्ञान मे स्पष्ट रूप से सुरक्षित है । साख्यतत्त्वज्ञान ने जब प्रकृति से पृथक् और स्वतन्त्र पुरुष का अस्तित्व स्वीकार किया तव भी वह अपनी इस प्राचीन मान्यता को तो पकडे ही रहा कि ज्ञान, सुख-दुख, धर्माधर्म आदि गुण या धर्म ये पुरुष के गुण नही है परन्तु वे तो अव्यक्त या प्रकृति के कार्यप्रपच मे ही आ जाते है। क्योकि वे प्राकृत अन्त करण के ही धर्म है। अप्राकृत चेतनावाद की भूमिका का अवलम्बन लेकर विचार करने वाले दर्शनो में से जैन और न्याय-वैशेषिक दर्शन ने ज्ञान, सुख-दुख, धर्म-अधर्म आदि गुणो को प्राकृत भूमिका से बाहर निकाल करके अप्राकृत स्वतन्त्र चेतन तत्त्व में स्थान दिया। फिर भी अप्राकृत चेतनवाद की भूमिका का स्पर्ण करके विचार करने वाले साख्यदर्शन ने तो उन गुणो को प्राकृत ही माना और अप्राकृत चेतन में उनके अस्तित्व का सर्वथा निषेध किया। इस मौलिक मतभेद का बीज मेरी कल्पनानुसार साख्य तत्त्वज्ञान की ऊपर वर्णित व्यक्त तत्त्वमय और अव्यक्त प्रकृतिमय पुरुष कीन्दो क्रमिक भूमिकामो मे समाविष्ट है, क्योकि यदि जैन, न्याय-वैशेषिक आदि दर्शन की तरह साख्यदर्शन मे अप्राकृत आत्मतत्त्व की भूमिका पहली ही होती तो उसमे भी ज्ञान, सुख-दुःखादि ये गुण आत्मा के ही माने जाते और उसी प्रकार से प्राकृत भाग से अप्राकृत आत्मा का विलक्षणत्व बताया जाता तथा उन गुणो को प्राकृत अन्त करण के मानने को आवश्यकता नहीं रहती। अव्यक्त प्रकृति यही पुरुष या चेतन है ऐसा जब माना जाने लगा तब उस भूमिका के सामने भी प्रश्न हुआ कि चाहे व्यक्त की अपेक्षा अव्यक्त का स्थान ऊँचा हो, परन्तु अन्त मे तो वह भी व्यक्त का कारण होने से व्यक्त कोटि का अर्थात् भौतिक या जड ही है और यदि ऐसा हो तो पुरुष, आत्मा या चेतन भी भौतिक या जड ही सिद्ध होता है । 'मेरा अभिप्राय यह है कि लो० तिलक के द्वारा की हुई व्याख्या ठीक नहीं है । 'कूटस्थोऽक्षर उच्यते' इसमें कूटस्थ अक्षररूप से साख्य समत जीवात्मा ही लेना चाहिए, न कि प्रकृति, क्योकि प्रकृति कूटस्थ नहीं मानी जाती है, और पुरुष ही फूटस्थ माना जाता है। प्रकृति का समावेश 'क्षर सर्वाणि भूतानि' इस क्षर भाग में होता है, क्योकि वह अक्षर होने पर भी कार्यरूप से क्षर भी है। ऐसा अर्थ करने पर गीता के प्रस्तुत (१५ १६, १७) त्रिविधि पुरुष वर्णन में सेश्वर साख्य को चारो भूमिकाओं का समावेश हो जाताहै। जब कि तिलक की व्याख्यामानने पर जीवात्मा कासनह उस वर्णन में रह जाताहै। गोताकार प्रकृति का सग्रह करे और जीवात्माको छोड दे, यह नहीं बन सकता। 'History of Indian philosophy, p 217 महाभारत, शातिपर्व, अध्याय ३१८ 'शारीरस्थानम् । प्रथम अध्याय । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेन दिवाकरकृत वेववादद्वात्रिशिका ३८७ इमलिए इस जड प्रात्मा मे चैतन्य का कैसे सम्भव है ? और यदि अव्यक्त प्रकृति मे चैतन्य का सम्भव माना जाता है तो उसके प्रपचरूप व्यक्त भूतो में भी चैतन्य मानना पडेगा । और यदि यह स्वीकार किया जाय तो अन्त मे भौतिक चेतनवाद ही फलित होता है। वैसी स्थिति में अव्यक्त प्रकृतिमय पुरुष की कल्पना व्यर्थ क्यो न गिनी जाय? इम प्रश्न के स्पष्टीकरण की विचारणा में से स्वतन्त्र चेतनवाद को नवीन भूमिका साख्य तत्त्वज्ञान में आई हो ऐसा प्रतीत होता है। उसके बाद तो साख्य विचारको ने अव्यक्त प्रकृति से आगे बढ करके एक दूसरा तत्त्व स्वीकार किया, जो प्रकृति की तरह अव्यक्त तो माना गया, परन्तु उसे प्रकृति की अपेक्षा विकसित और विलक्षण माना गया। वह तत्त्व स्वतन्त्र और प्रकृति से पृथक् ऐसा चेतन तत्त्व है। यह साख्य तत्त्वज्ञान की तीसरी भूमिका है, जो आज तक साख्यदर्शन और तदनुसारो दूसरे सव दर्शनो में प्रधानरूप से रही है । इस भूमिका में यह कल्पना की गई है कि चेतना प्रकृति या उसके व्यक्त कार्यों में नही हो सकती है। वे सब तो जड और भौतिक कोटि के है। चैतन्य उसके बाहर की वस्तु है। और वह जिस तत्त्व मे होता है वही चेतन, पुरुष या प्रात्मा हो सकता है। अव्यक्त प्रकृति और उसके व्यक्त कार्य चाहे जितने क्रियाशील और परिणामजनक हो, फिर भी उन सब को तटस्थ और अलिप्त भाव से मौन प्रेरणा देने वाला चेतन तत्त्व तो विलकुल स्वतन्त्र और भिन्न ही है । और वही तत्त्व वास्तविक रूप मे पुरुप या आत्मा नाम के योग्य है । इस प्रकार कभी व्यक्त कभी अव्यक्त-प्रकृति और कभी उससे पर चेतन तत्व, इन तीन भूमिकामो में पुरुष की कल्पना उत्तरोत्तर आगे बढती गई। साख्य तत्त्वज्ञान ने जव अव्यक्त-प्रकृति की कल्पना की यो तब उसने उसे परिणमनशील होने पर भी अज-अजन्मा, अनादि या नित्य माना या। परन्तु अव जव उसने पुरुप तत्त्व बिलकुल भिन्न स्वीकार किया तब उसको कैसा मानना, यह प्रश्न उद्भत हया और उसके उत्तर रूप से यह माना जाने लगा कि स्वतन्त्र चेतन तत्त्व केवल प्रकृति के जैसा अजन्मा, अनादि या नित्य ही नही है परन्तु वह तो कूटस्थ भी है । अर्थात् जैसे वह उत्पन्न नहीं होता है वैसे उसमें से किसी का आविर्भाव भी नही होता है। प्रकृति नित्य होने पर भी प्रसवशील होने से अजा है, जब कि स्वतन्त्र कल्पित चेतन प्रसवधर्मा नही है, परन्तु तटस्थ रूप से प्रकृति के प्रसव का निमित्त या उसके प्रसव का साक्षी होने से वह सच्चे अर्थ मे पुरुष-प्रेरक और अज भी है। जव इस तीसरी भूमिका मे स्वतन्त्र पुरुप तत्त्व की कल्पना हुई तब मानसिक भूमिका के अनुसार प्रत्येक देह में प्रत्येक भिन्न पुरुष ऐसा पुरुपवहुत्ववाद ही था। उस समय अद्वैत या एक पुरुष की कल्पना अवतीर्ण ही नही हुई थी। दूसरी ओर अनेक झुडो मे विभक्त मनुष्य जाति मे अपने अपने वर्तुल को पसन्द हो ऐसी विभिन्न देव-देवियो को कल्पना ने गहरी जड जमा रक्खी यो। कोई भी तत्त्वज्ञ सरलता से इन देव-देवियो का स्थान मिटा सके ऐसा नही था। इसलिए तत्त्वज्ञो के लिए भी अपने चिन्तनक्षेत्र में इन देव देवियो का स्थान रखना अनिवार्य या । प्रत्येक झुड अपने ही इष्ट और मान्य देव या देवी को ही सर्वेसर्वा मानता था। जो झुड प्रभावशाली वनता था उसका इष्टदेव भी वैसा ही प्रभावशाली बनता था। परिवर्तन की यह क्रिया दीर्घकाल से चली आती थी और इस लिए तत्त्वज्ञ भी एक प्रकार से असमजस में पडता जाता था। तत्त्वज्ञ उस समय यह कहने का तो साहस नही कर सकता था कि कोई सर्वेसर्वा नही है । परन्तु तत्त्वज्ञ की प्रतिभा मे एक तत्त्व प्रकाशित होने का अवसर पक गया था। इसलिए किसी अप्रतिम प्रतिभाशील और साहसी-चिन्तक ने विचार प्रकट किया कि अनेक देव और देवियाँ हो तो वे परिमित शक्ति वाली ही हो सकती है जैसे कि उनके अनुयायीगण । और जो सर्वनियामक, सर्वशक्तिमान् नही होता है वह सच्चा या महान् देव तो नही हो सकता है। इसलिए सब का नियन्त्रण करने वाला ऐमा एक ही महान् देव या देवाधिप है कि जिसके नियमन के अनुसार ही सारा विश्वचक्र चलता है। इम महेश्वर की कल्पना साख्य तत्त्वज्ञान ने खुद उत्पन्न की हो या फिर उमने दूसरे के पास से ली हो परन्तु वह साख्य तत्त्वज्ञान की मुख्य चीयो और अन्तिम भूमिका है । ईश्वररूप से जो तत्त्व स्वीकार किया गया वह चेतनरूप ही हो यह तो स्वाभाविक था। परन्तु दूसरे चेतनो की अपेक्षा ईश्वर चेतन की विशेषता स्वीकार न की जाय तो वैसी मान्यता का कछ अर्थ ही नही रहता। इसलिए साख्य चिन्तको ने ईश्वर को चेतन मानने पर भी उसके स्थान की कल्पना Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ दूसरे चेतनो की अपेक्षा ऊंची की। दूसरे चेतन कूटस्थ होने पर भी प्रकृति के पाश मे आते है और कभी जम पाश मे मुक्त भी होते है, परन्तु ईश्वर चेतन तो कभी इस पाश के स्पर्श का अनुभव करता ही नहीं है इसलिए उसके लिए उस पाश से युक्त होने का प्रसग भी नही रहता है। यह विशिष्ट पुरुष या ईश्वर ही गीता में वर्णित पुरुषोत्तम और परब्रह्म है और वही योग सूत्र' मे प्रतिपादित पुरुष विशेष है। इस प्रकार साख्य तत्त्वज्ञान की चार भूमिकाएं फलित हुई। (१) व्यक्त क्षर पुरुष (२) अव्यक्त प्रकृत्यात्मक पुरुष (३) प्रकृतिभिन्न स्वतन्त्र पुरुष (४) स्वतन्त्र पुरुषो मे भी मूर्धन्य ऐसा एक पुरुषोत्तम ईश्वर, महेश्वर शिव या पशुपति । जिसमे विशिष्ट पुरुषरूप से ईश्वर की मान्यता स्थिर हुई वह ऊपर वर्णित साख्यतत्त्वज्ञान की चतुर्थ भूमिका है । यही भूमिका माख्य-योग दर्शन के रूप में पहले से आज तक दार्शनिक साहित्य में सुविदित है। निरीश्वर साख्यदर्शन परस्पर भिन्न ऐमे प्रकृति और पुरुष सहित पच्चीस तत्त्व स्वीकार करता है । जब कि सेश्वर माना जाने वाला मान्य-योगदर्शन इसमे ईश्वर तत्त्व का प्रवेश करके छब्बीस तत्त्व स्वीकार करता है । सिद्धसेन ने इसी साख्य-योगदर्शन की भूमिका का अवलम्बन लेकर के उसके ऊपर कवित्व के कलामय छीटे छिडक करके प्रस्तुत कृति की रचना की है। यह सत्य है कि सिद्धसेन ने प्रस्तुत बत्तीसी मे चौबीस, पच्चीस या छब्बीस मे से एक भी तत्त्वसख्या का निर्देश नही किया है। फिर भी यह वात इतनी सत्य है कि साख्य-योग के छब्बीस तत्त्वो का सक्षेप मे जिन चार विभागो में वर्गीकरण होता है वे चार विभाग प्रस्तुत बत्तीसी में एक अथवा दूसरे रूप में गर्भित है, इसलिए वे स्पष्टरूप से सूचित होते है । वे चार विभाग इस प्रकार है-(१) व्यक्त-क्षर या दृश्य चराचर भौतिक विश्व, (२) अव्यक्तअक्षर भौतिक मूल कारण सर्वान्तिम सूक्ष्म द्रव्य या प्रकृति, (३) कूटस्थ--अपरिणामी नित्य एव निर्गुण चेतन पुरुषगण, (४) पहले से ही सदा क्लेश-कर्मादि वन्धन के प्रभाव से विहीन ऐसा एक ईश्वर या विशिष्ट पुरुष । प्राप्त व्याख्याओ की समीक्षा आज तक के अध्ययन और चिंतन के परिणाम स्वरूप जो एक बात मेरे ध्यान मे सविशेष आती है उसका यहाँ निर्देश करना योग्य है, जिससे दूसरे अभ्यासी उसके ऊपर विचार कर सके और उस मुद्दे को परीक्षक की दृष्टि से कसौटी पर कस के देख सके। इस समय लगभग सभी तत्त्वचिंतक उपलब्ध व्याख्यानो के आधार से ऋग्वेद के तत्त्वविषयक कुछ मूक्तो और वैसे ही अन्य वेद के सूक्तो तथा अति प्राचीन कहे जा सके ऐसे उपनिषदो के भागो को प्रह्मपरक समझते है और उसके अनुसार ही अर्थ करते है । अयात् सभी चिंतक और व्याख्याकार चौवीस तत्त्ववाली साग्यदर्शन की भूमिका के बाद की अव्यक्त से भिन्न ऐसे चेतन और परब्रह्म मानने वाली भूमिका का अवलम्बन लेकर ही उन-उन सूक्तो और उपनिषदो का अर्थ घटाते है । परन्तु मुझे प्रतीत होता है कि यदि वे भाग अति प्राचीन है तो उनमे परब्रह्म का वर्णन नही है, लेकिन चोवीस तत्त्व वाली भूमिका मे अतिम तत्त्वरूप से स्वीकृत और उस समय, अत्यन्त प्रतिष्ठा प्राप्त ऐसे मूल कारणरूप अव्यक्त का ही अनेक प्रकार से वर्णन है । ऋग्वेद में सत् रूप से हिरण्यगर्भ स्प से,पुरुष रूप से या अनिर्वचनीय रूप से, इसी अव्यक्त की महिमा गाई गई है और उपनिषदो के प्राचीन स्तरो में भी असत्, सत्, ब्रह्म या पुरुष रूप से यही अव्यक्त गाया गया है। फिर भी व्याख्याकार और भाष्यकार इन सभी स्थलो मे परब्रह्म ऐसा अर्थ करते है उसका क्या कारण है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वे सब उपलब्ध व्याख्याएँ और भाष्य जव लिखे गए तव परब्रह्म को प्रतिष्ठा विलकुल सुस्थापित हो चुकी थी। इसलिए व्याख्याकारो का अध्ययन तया चितन सस्कार एक मात्र परब्रह्मलक्षी था। उस समय इतिहास और क्रम विकास को दृष्टि से व्याख्या लिखने ""उत्तम पुरुषस्त्वन्य परमात्मेत्युदाहृत । __ यो लोकत्रयमाविश्य वविभर्त्यव्यय ईश्वर ॥" 'योगसूत्र १ २४। गीता १५, १७ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिशिका ३८६ प्रथा ही नही थी । इसलिए व्याख्याकारो और भाष्यकारो ने प्रामाणिक रूप से उनको प्राप्त सस्कारो के अनुसार ही उन उन स्थलो की व्याख्या की । अव्यक्त — प्रकृतिपरक वाक्यो का परब्रह्मपरक अर्थ करने में भूल होने का खास कारण यह भी था कि प्रारम्भ में अव्यक्त को अतिम तत्त्व के रूप मे प्रतिष्ठा देने वाले समय मे उसके लिए जिन-जिन अक्षर, स्वयभू, आत्मा, परमात्मा, चेतन, विभु, ब्रह्म आदि विशेषणो का प्रयोग किया जाता था उन्ही विशेषणो का प्रयोग अव्यक्त से भिन्न स्वीकृत चेतन या ईश्वर के लिए भी किया जाता था । इसलिए परब्रह्म की मान्यता के युग में हुए व्याख्याकार श्रव्यक्त की मान्यता वाले युग के वर्णनो का परब्रह्मपरक वर्णन करें यह बिलकुल स्वाभाविक था । परब्रह्म अथवा चेतनतत्त्व के स्वीकार वाली छवोस या पच्चीस तत्त्व मानने वाली भूमिकाएँ प्रथम प्रतिष्ठित हुई होगी, और अव्यक्तको प्रतिम तत्त्व मानने वाली चौबीस तत्त्व की भूमिका उसके बाद भारतीय दर्शनो में आई हो ऐसा नही कह सकते हैं । आगे जाकर जिसका अनात्मवाद या जडवाद के रूप से वर्णन किया गया है वह चौबीस तत्त्व भूमिका पहले की ही है इस विषय में शका के लिए कोई स्थान नही है । महाभारत और गाता में इन भूमिका के अवशेष जहाँ-तहाँ दृष्टिगोचर होते हैं और मूल चरक मे तो इसका स्पष्टरूप से स्वीकार है । फिर भी यह हुआ है कि पिछले व्याख्याकारो ने मूल चरक के इप प्राचीन भाग को अपने सस्कार के अनुमार भिन्न ग्रात्मपरक मान लिया और तदनुसार व्याख्या की है । इपलिए मूल और व्याख्या के बीच में वहत सो असगतियाँ भी दिखाई देती है । पृथक् चेतन और परब्रह्म की मान्यता के युग मे रचं गये और संकलित हुए उपनिषदो, महाभारत नया गोता आदि में इस अव्यक्त प्रकृति को ही अतिम तत्त्व मानने वाली भूमिका का एक मतान्तर के रूप में या पूर्वपक्ष के रूप से उल्लेख हुआ है । आगे जाकर केवलाद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत या शुद्धाद्वैत के साम्प्रदायिक विचार प्रकट होने लगे तव उन-उन पुरस्कर्ताश्रो ने जैसे उपनिषदो और गीता आदि का अपनी दृष्टि से ऐकान्तिक व्याख्यान किया, और इन ग्रन्थो में दूसरे कौन कौन से विरोधी मन्तव्य स्पष्ट है इसका विचार तक न किया वैसे ही परब्रह्म या पृथक् चेतनतत्त्व की स्थापना और प्रतिष्ठा होने के बाद के व्याख्याकारो ने प्राचीन अथवा चाहे जिस भाग को एकमात्र परब्रह्म या पृथक् चेतनपरक मान लिया । यह मानता हूँ कि ऋग्वेद और उपनिषदों के कुछ भागो मे बहुत प्राचीन तत्त्वचिंतन समाविष्ट है जिस समय कि इस दृष्टि से उन उन प्राचीन भागो के ऊपर विचार बीच मे यत्र तत्र दृष्टिगोचर होने वाली असगतियां न मै पृथक् चेतन और परब्रह्म की कल्पना उदय में नही आई थी। करने पर विचारको के लिए मूल और पीछे की व्याख्या के रहेगी यह मैं मानता हूँ । प्राचीन उपनिषदो और गीता में अद्वैत - परब्रह्मगामी चिंतन की ओर स्पष्ट झुकाव है । परन्तु प्रारम्भ से लगाकर त पर्यन्त उन उपनिषदो और गीता मे से मध्वाचार्य के ऐकान्तिक द्वैत मत को फलित करना यह जितने श्रश में खीच. त. नी की अपेक्षा रखता है उतने ही अग मे उनमें से प्रयेति शकराचार्य के मायावाद या केवलाद्वैत को फलित करने का काम भी खीचातानी वाला है । यह मुद्दा प्राचीन उपनिषदो और गीता को मूल रूप से पढते समय तुरत दृष्टिगोचर होता है । इसीलिए तत्त्वचितक श्री नर्मदाशकर मेहता उपनिषद्विचारणा मे और सर राधाकृष्णन जैसे भी 'इडियन फिलोसोफी' मे इस बात की माक्षी देते है । प्राचीन उपनिषदो और गीता के बहुत से भाग विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत और शुद्धाद्वैत को ओर जायँ, ऐसे है । परन्तु श्वेताश्वतर स्पष्टरूप से द्वैतवादी है क्योकि उसमें प्रकृति, पुरुष और महेश्वर इस त्रिविध ब्रह्म का स्पष्टरूप से स्वीकार है । और इसी ईश्वर, महेश्वर या परमपुरुष की पशुपति रूप से वर्णना या स्तुति की गई है । 'उदाहरणार्थ गोता २२८ 'अव्यक्तादीनि भूनानि' यह विचार श्रव्यक्तप्रकृति को ही चरम तत्त्व मानने वाली भूमिका का है, न कि पृथक् चेतन मानने वाली भूमिका का । इसी प्रकार छान्दोग्य का 'श्रसदेवेदमग्र आसीत् तत् सदासीत् तत् समभवत्' (३ १६ १ ) इत्यादि भाग प्रकृतिचेतनाभेदवाद की साख्य तत्त्वज्ञान की भूमिका का सूचक है, न कि अतिरिक्त ब्रह्मवाद की मान्यता की भूमिका का सूचक । जब कि 'तर्द्धक प्रहरसदेवेदमग्र आसीत्' (६२.१) इत्यादि छान्दोग्य का भाग अतिरिक्त ब्रह्मवाद की मान्यता की भूमिका का सूचक है । " Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ सिद्धसेन का झुकाव सिद्धसेन मुख्यरूप से श्वेताश्वतर का उपजीवन करते हो ऐसा प्रतीत होता है, फिर भी श्वेताश्वतर की अपेक्षा सिद्धसेन की स्तुति में अद्वैत या समन्वय की छाट कुछ अधिक है । यद्यपि वह भी प्रकृति, पुरुष और परम पुरुष इन तीनो को स्वीकार करते हो, ऐसा प्रतीत होता है। दोनो के बीच के इस अन्तर का कारण यह है कि एक तो सिद्धसेन के समय तक श्रनेक प्रकार के श्रद्वैत मत स्थिर हो गये थे और दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि सिद्धसेन ने श्वेताश्वतरीय केवल पाशुपत सम्प्रदाय मे बद्ध नही रह करके उपनिषदो, गीता और पुराणो की समन्वय पद्धति का ही अनुसरण किया हो । ३६० सिद्धमेन के वर्णन की एक खास विशेषता की ओर वाचकवृन्द का ध्यान पहले ही आकर्षित कर देना श्रावश्यक है । वह यह है कि पुरुषतत्त्व की अव्यक्त से भिन्न कल्पना होने के बाद किसी निपुण ससारानुभवी रसिक और तत्त्वज्ञ प्रतिभासम्पन्न कविने पच्चीस तत्त्ववाले साख्य की भूमिका मे अव्यक्त और पुरुष की भिन्न-भिन्न कल्पना होने के वाद मूल कारण व्यक्त को प्रकृति श्रीर कूटस्थ चेतन तत्त्व को पुरुष नाम प्रदान किया और जीवसृष्टि के उत्पादक दो विजातीय ( स्त्री-पुरुष ) तत्त्वों के युगल का रूपक लेकर चराचर जगत् के उत्पादक दो विजातीय तत्त्वो को स्वीकार करके उस युगल का प्रकृति - पुरुष रूप से वर्णन किया, जब कि श्वेताश्वतर ऋषि ने इस प्रकृति-पुरुष स्वरूप दो तत्त्वो का विजातीयत्व कायम रख करके उस युगल का 'अजा' और 'अज' के रूपक से वर्णन किया । इस रूपक में खूबी यह है कि सतति के जन्म और सवर्धन क्रिया मे अनुभवसिद्ध पुरुष के तटस्थपने की छाया, साख्य विचार सरणी के अनुसार चेतन तत्त्व में थी उसको, और मातृसुलभ सपूर्ण जन सवर्धन की जवाबदारी और चिंता की जो छाया प्रकृति मे थी, उसका क्रमण 'अज' और 'अजा' के रूपक में वर्णन किया । जब कि सिद्धसेन ने बत्तीसी मे केवल 'अज' का ही उल्लेख किया है और 'अजा' का उल्लेख छोड दिया है । इतना ही नही, परन्तु उसने ऋग्वेद और शुक्लयजुर्वेद तथा मनुस्मृति आदि की तरह गर्भ के प्रधान स्थान का निर्देश किये बिना ही श्रज - ईश्वर या चेतन का गर्भ के जनक रूप से वर्णन किया है । --- व्याख्यान पद्धति किस पद्धति मे बत्तीसी का अर्थ किया जाय, यह एक समस्या थी। फिलहाल मैने इसका जो निराकरण किया है उमका सूचन यहाँ करना योग्य है, जिससे अभ्यासी अथवा दूसरे व्याख्याकारो को उससे कुछ ग्रागे वढने का ख्याल श्रावे और इसमे रह गई त्रुटियाँ क्रमग दूर हो। मेरी व्याख्यान पद्धति मुख्य रूप से तीन भागो में विभाजित हो जाती है (१) वत्तीसीगत पद, वाक्य, पाद, सारा का सारा पद्य, रूपक, कल्पना आदि वेदो, उपनिषदो और गोता में से जैसे के तैसे या कुछ परिवर्तन के साथ मिलें उनका सग्रह करके अर्थ और विवेचन मे उपयोग करना, (२) उन-उन सग्रहीत भागो के मूल द्वारा या टीकाओ द्वारा जो अर्थ होता हो और जो अधिक योग्य प्रतीत होता हो उसका प्रस्तुत विवेचन में उपयोग करना, (३) वेद आदि प्राचीन ग्रन्थो मे से एकत्रित तुलनात्मक भाग और उसका अर्थ इन दोनो का विवेचन मे ययासभव तुलना रूप से उपयोग करने पर भी जहाँ सगति ठीक नही बैठी वहाँ स्वाधीन बुद्धि से अर्थ और विवेचन करना । प्रस्तुत बत्तीसी अन्य बत्तीसियो के साथ विक्रम स० १९६५ में भावनगर से प्रकाशित हुई है । वही मुद्रित प्रति ग्राज मेरे सामने है । इनमें अनेक स्थलो मे भ्रान्त पाठ है । प्रस्तुत बत्तीसी मे ऐसे अशुद्ध पाठो के स्थान में मुझको जो पाठ कल्पना से ठीक जँचे, उन्ही को उस उस स्थान पर रख कर विवेचन मे गृहीत किया है और जो पाठभेद मुद्रित प्रति है वह उस स्थान मे पाद टिप्पण में मैने दिया है । मैने अपनी दृष्टि के अनुसार जिन-जिन पाठभेदो की कल्पना अन्तिम ही है यह निश्चयपूर्वक नही कहा जा सकता । परन्तु भाषा, अर्थ, छन्द, और अन्य ग्रन्थो में प्राप्त Page #426 --------------------------------------------------------------------------  Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ ३६२ जव कि व्यावहारिक दृष्टि से वह आत्मा को कर्म के सम्बन्ध से शवल तथा नानारूपधारी मानती है । अद्वैत, परब्रह्म, और जीवभेद इन दोनो के सम्बन्ध का जो स्पष्टीकरण वेदान्त करता है वही स्पष्टीकरण जैनदृष्टि से प्रत्येक स्वतन्त्र चेतन के तात्त्विक और व्यावहारिक स्वरूप के सम्बन्ध के विषय मे है। ऋग्वेद मण्डल १ सूक्त १६४ के मत्र २० में सेश्वर साख्य का बीज प्रतीत होता है। उसमें एक ही वृक्ष के ऊपर रहे हुए दो पक्षियो का रूपक करके विश्वगत जीवात्मा और परमात्मा का वर्णन किया गया है। दो समान स्वभाव सहचारी मित्र जैसे पक्षी एक ही वृक्ष को आश्रय वना कर रहते हैं। उनमे से एक-जीवात्मा स्वादुफल (कर्मफल) वाले को चखता है, जव कि दूसरा पक्षी-परमात्मा ऐसे फल को विना चखेही प्रकाशित होता है। इसके बाद के दो अगले मत्रो मे भी वृक्ष और पक्षियो का रूपक विस्तृत करके सहज भगीभेद से पुन जीवात्माओ का वर्णन किया है। यह रूपक इतना अधिक सचोट और आकर्षक है कि उसकी रचना हुए हजारो वर्ष व्यतीत हो गये फिर भी वह चिंतकगण और सामान्य लोगो के विचारप्रदेश मे से हटने के बजाय तत्त्वज्ञान के विकास के साथ अर्थ से विकसित होता गया। अथर्ववेद काण्ड ६ सूक्त ६ मे ऋग्वेद के ये ही तीनो मत्र है । जब कि मुण्डक उपनिषद मु० ३ ख० १ में दो पक्षियो के स्पक का मत्र तो यही है, परन्तु उसके बाद दूसरे मन में यह कहा गया है कि वृक्ष के एक होने पर भी उसमें लुब्ध पुरुष दीनता के कारण मोह को प्राप्त करके हर्ष-विषाद का अनुभव करता है । परन्तु वह लुब्ध पुरुष जव उसी वृक्ष पर रहे हुए दूसरे समर्थ-अलुब्ध और निर्मोह पुरुष का दर्शन करता है तब वह स्वय भी निर्मोह बनता है। एक ही वृक्ष पर आश्रित दो पक्षियो के रूपक द्वारा ऋग्वेद या अथर्ववेद मे जो अर्थ विवक्षित था उसको ही मुण्डककार ने दूसरे मत्रो मे स्पष्ट किया हो ऐसा प्रतीत होता है। क्योकि वह कहता है कि जो पुरुष वृक्ष में लुब्ध है वह मोह मे दुखी होता है, दूसरा पुरुष समर्थ होने से उसमे लुब्ध नही है। इसलिए लुब्ध को अलुब्ध के स्वरूप का दर्षन होते ही वह भी निर्मोह बनता है । श्वेताश्वतर ने (अ० ४) मुण्डक के इन दोनो मत्रो को लेकर जीवात्मा और परमात्मा के स्वरूप का तया उनके पारस्परिक सम्बन्ध का वर्णन तो किया ही है, परन्तु इसके सिवाय भी उसने एक नवीन आकर्षक रूपक को योजना करके बद्ध और मुक्त ऐसे दो पुरुषो का वर्णन किया है। उसने अज-बकरे का रूपक करके कहा है कि एक अज-बद्ध जीव भोगाभिमुख प्रकृति रूप अजा के ऊपर प्रीति करने से दुखी होता है जब कि दूसरा अज---मुक्त जीव भोगपराड्मुख अजा को छोड देता है। इस प्रकार ऋग्वेद से श्वेताश्वतर तक के रूपको द्वारा किया हुआ वर्णन इतना सूचित करता है कि प्रकृति, वद्धपुरुष, मुक्तपुरुष और परमात्मा ये चार तत्त्व विचारप्रदेश में स्थिर हो गये है जो कि सेश्वरसाव्य या सास्य-योग की भूमिका स्वरूप है। सिद्धसेन ने प्रस्तुत पद्य मे पुराने रूपको का त्याग करके थोडे से परिवर्तन के साथ दूसरी रोति से इसी वस्तु का वर्णन किया है। वह वद्ध और मुक्त दो पुरुषो मे से केवल वद्धपुरुष का ही एक अज रूप से वर्णन करता है और मुक्त पुरुष का अज रूपक तया परमात्मा का पक्षी रूपक छोड करके परमात्मा का सृष्टि और जीवात्मा के अध्यक्षरूप मे 'योऽस्याध्यक्ष अकल सर्ववान्य वेदातीत वेद वेद्यस वेद' यह कह करके वर्णन करता है। इसके इस कथन मे ऋग्वेद के नामदीयसूक्तगत मत्र ७ के 'योऽम्याध्यक्ष परमे व्योमन् मो अङ्ग वेद यदि वा न वेद' इस पद की ध्वनि गुजित होती है। सिद्धमेन के पीछे लगभग हजार वर्ष के बाद हुए ग्रानदघन नामक जैनसत ने हिदी भाषा मे इस वैदिक और औपनिषद रूपक का बहुत खूबी से वर्णन किया है। वह कहता है कि एक वृक्ष के ऊपर दो पक्षो वैठे हुए है। उनमे एक गुरु और दूसरा शिष्य है। शिष्य चुन चुन करके फल खाता है, पर गुरु तो सदा मस्त होने से हमेशा आत्मतुष्ट है । आनदधन ने इस रूपक के द्वारा जैनपरम्परासम्मत बद्ध और मुक्त जीव का वर्णन किया है जो साख्यपरम्परा 'तरुवर एक पछी दोउ बैठे, एक गुरू एक चेला। चेले ने जग चुण चुण खाया, गुरू निरतर खेला ॥पद० ६८॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धमेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिशिका ३६३ सम्मत वद्ध और मुक्त दो अज के वर्णन जैसा ही है अथवा वैदिक रूपक अनुसार जीवात्मा और परमात्मा के वर्णन जैसा ही है । गीता में 'मयाध्यक्षण प्रकृति सूयते सचराचरम् ( ६-१० ) । इस पद्य में परमात्मारूप से कृष्ण को अध्यक्ष कह करके चराचर सृष्टि की जन्मदात्री रूप से स्त्रीलिंग प्रकृति का निर्देश है । स्त्री ही गर्भ धारण करती है और पुरुष तो केवल निमित्त है - इस व्यावहारिक अनुभव को साख्य-परम्परा के अनुसार यथावत् व्यक्त करने के लिए गीताकार ने स्त्रीलिंग प्रकृति का प्रसवकर्त्री रूप मे वर्णन किया है और श्वेताश्वतर ने इसी प्रकृति का स्त्रीलिंगी प्रजा --- बकरी रूप से वर्णन किया है (श्वे० प्र० ४ ) । पर सिद्धसेन तो चराचर गर्भ के वारक रूप से पुरुष श्रज का वर्णन करता है, यह प्रत्यक्ष विरोध है । इसका परिहार दो प्रकार से मभव है एक तो यह कि सिद्धसेन 'गर्भधत्ते' इस शब्द के द्वारा गर्भ को आधान करने वाले पुरुष का ही वर्णन करता है नही कि उसको धारण करने वाली स्त्री का । दूसरा सिद्धसेन का आगय कदाचित् इस विरोधाभामी वर्णन के द्वारा माख्यपरम्परा से भिन्न होकर यह सूचित करना हो कि साख्य प्रकृति को कर्ता और पुरुष को अकर्ता होने पर भी भोक्ता मानता है, परन्तु वस्तुत कर्ता और भोक्ता भिन्न-भिन्न नही होते हैं । इसलिए पुरुष को ही भोक्ता की तरह कर्ता मानना चाहिए चाहे वह कर्तृत्व में अन्य तत्त्व का सहकार ले । पुरुष मे सर्वया कर्तृत्व मानने वाली सास्य परम्परा के विरुद्ध न्याय-वैशेषिक, जैन आदि बहुत मी परम्पराएँ है । इतना ही नही परन्तु वेदान्त की प्रत्येक शाखा ब्रह्म का ही कर्तृत्व स्थापित करके साख्यसम्मत प्रकृति के तत्त्व को विलकुल गौण वना देती है । इसी भाव को सिद्धमेन कहना चाहते हो यह भी सभव है । क्योकि सिद्धसेन ने आगे पद्य में भी बहुत से स्थलो पर साख्य की प्राचीन प्रणालिकाओ से भिन्न रुप मे वर्णन किया है । अज शब्द का रूढ अर्थ है वकरा और यौगिक अर्थ है अजन्मा । ऐसा प्रतीत होता है कि अति प्राचीन समय मे वकरो के झुंड से अतिपरिचित और उनके बीच में रहने वाले ऋषि कवियो ने रूपकरूप से श्रज का प्रयोग किया होगा । पर धीरे-धीरे वह उपमेय देव, आत्मा, परमात्मा आदि में व्यवहृत होने लगा और तब उसका अर्थ अजन्मा ऐसा यौगिक किया गया, जो कि उपनिषदो और गीता आदि मे सर्वत्र 'अजो नित्य शाश्वतोऽय पुराण' ( गी० २-२० ) इत्यादि उक्ति मे दृष्टिगोचर होता है । प्रस्तुत पद्य का पूर्वार्ध पढते समय श्वेताश्वनर का 'नील पतङ्गो हरितो लोहिताक्ष ( ४-४ ) इत्यादि पाद का स्मरण होता है । स एवैतद्विश्वमधितिष्ठत्येकस्तमेवैत विश्वमधितिष्ठत्येकम् । स एवैतद्वेद यदिहास्ति वेद्य तमेवैतद्वेद यदिहास्ति वेद्यम् ॥२॥ अर्थ --त्रही एक -- परमात्मा इस विश्व का अधिष्ठान करता है। यह एक विश्व उसका--नरमात्मा का अधिष्ठान करता है । वही -- परमात्मा यहाँ जो कुछ वेद्य है उसको जानता है । यहाँ जो वेद्य है वह उसको -- परमात्मा को ही जानता है । भावार्थ——इस पद्य में चराचर विश्व और परमात्मा इन दोनो के पारस्परिक अधिष्ठातृत्व का वर्णन है, जो वैदिक, श्रोपनिपद और गीता आदि के वर्णन से भिन्न | क्योकि 'तस्मिन्ना तस्युर्भुवनानि विश्वा' यह ऋग्वेद ( १ १ ६४ १३ ) मे तथा 'य कारणानि निखिलानि तानि कालात्मयुक्तान्यवितिष्ठत्येक ' (१३), 'यो योनि योनिमधितिष्ठत्येक ' ( ४ ११ ) इत्यादि श्वेताश्वतर मे और गीता मे 'प्रकृति स्वामविष्ठाय सभवाम्यात्ममायया ' ( गीता ४ ६) मात्र परमात्मा का ही विश्व के अधिष्ठान रूप से वर्णन किया गया है नही कि विश्व का भी परमात्मा के अधिष्ठान रूप से वर्णन है । प्राचीन शैली के विरुद्ध दिखाई देने वाली शैली का अवलम्वन लेने के पीछे मिद्धमेन का दृष्टिबिंदु यह प्रतीत होता है कि जो दो तत्त्व अनत है, उनमे से एक को ही दूसरे का आधार कैसे कहा जा मकता है ? यदि एक को दूसरे का आधार माना जाय तो दूसरा पहले का आधार क्यो नही माना जाय ? इसलिए दोनो को एक दूसरे का आधार मानना यही युक्तिमगत है । ५० Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ यदि अगम्य तथा अमेय तत्त्वो का वर्णन शक्य हो तो वह अधिक ठीक तरह से विरोधाभास के द्वारा ही हो सकता है। ऐसी विरोधाभास शैली का आश्रय वैदिक ऋषियो से पारम्भ करके अत तक के सभी तत्त्वज्ञ कवियो ने लिया है। इसीलिए सिद्धसेन परमात्मा और विश्व दोनो का परस्पर के ज्ञाता और ज्ञेय रूप से वर्णन करता है। परमेश्वर विश्व को जानता है, यह सत्य है, परन्तु विश्व जो कि ज्ञेय माना जाता है और जिसमेंजीवात्मा का भी समावेश होता है, वह परमात्मा को नहीं जाने तो दूसरा कौन जाने ? इसीलिए गीता मे अर्जुन-जीवात्मा कृष्ण-परमात्मा को कहता है कि ज्ञाता भी तू है और ज्ञेय ऐसा अतिम धाम भी तू ही है (गीता ११-३८) । स एवैतद्भूवन सृजति विश्वरूप तमेवैतत्सृजति भुवन विश्वरूम् । न चैवैन सृजति कश्चिन्नित्यजात न चासौसृजति भुवन नित्यजातम् ॥३॥ अर्य--वही नानारूप परमात्मा इस विश्वका सर्जन करता है और यही नानारूप विश्व उसको--परमात्मा को सरजता है । और इस नित्यजात परमात्मा को कोई सरजता नहीं है तथा यह परमात्मा नित्यजात भुवन को सरजता नही है। भावार्थ-इस पद्य मे नानारूप भुवन और परमात्मा का एक दूसरे के सर्जकरूप से वर्णन किया गया है। और भुवन तथा परमात्मा को नित्यजात--सदोत्पन्न कह करके कोई किसी का सर्जन नहीं करता है यह भी कहा है । इस प्रत्यक्ष विरोध का परिहार दृष्टिभेद से हो जाता है । जैन परम्परा मे द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक ये दो दृष्टियाँ प्रसिद्ध है और वे सब तत्त्वो को लागू होती है। उसके अनुसार यह कह सकते है कि चेतन या अचेतन प्रत्येक तत्व पपने मूल स्वरूप मे शाश्वत और अनुत्पन्न है अतएव उनमें से कोई एक दूसरे का सर्जन नहीं करता है। जब यही प्रत्येक तत्त्व स्व-स्व-रूप से नित्य होने पर भी अवस्थाभेद का अनुभव करता है और वह अवस्थाभेद पारस्परिक सयोग सापेक्ष है इसलिए दोनो चेतन-अचेतन तत्त्व एक दूसरे का सर्जन भी करते हैं। साग्य-योग या वेदान्त की दृष्टि से भी.कवि का वर्णन असगत नही है । परमेश्वर नानारूप विश्व का सर्जन करता है । यह मन्तव्य तो श्वेताश्वतर की 'अस्मान्मायी सजते विश्वमेतत्' इस उक्ति मे स्पष्ट है ।' और 'प्रभु लोक के कर्तृत्व आदि किसी का सर्जन नहीं करता है स्वभाव ही स्वयमेव प्रवृत्त होता है । इस गीतावचन मे परमात्मा का असर्जकत्व भी स्पष्ट है तया नानारूप विश्व परमेश्वर का आभारी है अतएव वह जिस प्रकार उसका-विश्वका मर्जक कहा जाता है उसी प्रकार परमेश्वर के नानारूप भी प्राकृत यामायिक नानारूप विश्व के प्राभारो है अतएव विश्व को भी परमात्मा का सर्जक कहा जा सकता है। केवल प्रकृति ही नहीं परन्तु चेतन परमात्मा भी नित्यजात-सनातन है । इसलिए दोनो मे से कोई एक दूसरे का सर्जन नहीं करता है ऐसा कह सकते है । सर्जन-पसर्जन यह सव प्रापेक्षिक अथवा मायिक है यह कह कर कवि अत मे तत्त्व की अगम्यता का ही सूचन करता है । एकायनशतात्मानमेक विश्वात्मानममृत जायमानम् । यस्त न वेद किमृचा करिष्यति यस्त च 'वेद किमृचा करिष्यति ॥४॥ अर्थ--एक प्राश्रयरुपएव शतात्मरूप तथा एक एव विश्वात्मरूप तथा अमृत एव जन्म लेनेवाले ऐसे उसको-- परमात्मा को जो नही जानताहै वह ऋचा से क्या करने वाला है और जो उस परमात्मा को जानता है वह भी ऋचा से क्या करने वाला है। 'श्वेताश्वतर ४ ।। 'न कर्तृत्व न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु । न कर्मफ्लसयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥गीता ५. १४ 'यस्त न वेद-मु० Page #430 --------------------------------------------------------------------------  Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन-प्रंय ३६६ व्यक्तियों को ही आवृत करनी है जब कि अविद्या तो समग्र विश्व को आवृत करती है, क्योकि सम्पूर्ण जगत का प्रभव और प्रलय स्थान यही है । पर्वतीय गुफा में वेदो के लिए स्थान ही नहीं है जव कि यज समर्थक सभी वेद वासनापोपक होने के कारण अत में अविद्या में ही पर्यवमित होते है । 'भावोऽभावो नि स्वतत्त्व [सतत्त्वो निरजनो[रजनो]य प्रकार । गुणात्मको निर्गुणो निष्प्रभावो विश्वेश्वर सर्वमयो न सर्व ॥६॥ अर्थ-जो प्रकार भावस्प है और प्रभावरूप है, स्वतत्त्वरहित है और सतत्त्व है, निरञ्जन है और रजन है, गणात्मक है और निर्गुण है, प्रभावरहित है और विश्व का ईश्वर-प्रभु है, सर्वमय है और सर्व नहीं है। भावार्थ-उपनिपदो में "तदेजति तनैजनि तदरे तद्वन्तिके। तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य वाह्यत । (मा०५), 'अणोणीयान्महतो महीयान् ।' (कठ० १ अ० २ व० २० श्लो०) इत्यादि जिस प्रकार परमात्मा का विगेवाभामी वर्णन है । और गीता में जिस प्रकार “मन्द्रियगुणाभाम मन्द्रियविवर्जितम् । अमक्त सर्वभृच्चव निगण गुणभोक्तृ च ।।' (१३ १८) इत्यादि विरोधाभासी वर्णन है उसी प्रकार कवि ने यहां परमात्मा का एक अलौकिक प्रकार मूचित करने के लिए वर्णन किया है जो अपेक्षा और दृष्टिभेद ने युक्तिसगत है । भावस्प इसलिए है कि वह एक पारमार्थिक तत्त्व है, अभावस्प इमलिए है कि वह सर्व सामारिक भावो से पर है, नि स्वतत्त्व इसलिए है कि उनका स्वतत्त्व सर्वगम्य नहीं है और फिर भी वह वस्तुत स्वतत्त्व रखता है । वह मलमुक्त होने से निरञ्जन है और फिर भी वह तत्त्वज्ञो और ध्यानियो का रजन भी करता है। वह सर्व स्वाभाविक गुणो की मूर्ति है, परन्तुप्राकृत गुणों से रहित है। वह भयप्रद प्रभाव से मुक्त है और इमोलिए विश्व का प्रभु है । वह सर्वव्यापी होने से सर्वमय है और फिर भी वह अकेला होने ने वहुत्वभित है मर्व नहीं है।। सृष्ट्वा सृष्ट्वा स्वयमेवोपभुक्ते सर्वश्चाय भूतसर्गो यतश्च । न चास्यान्यत्कारण सर्गसिद्धौ न चात्मान सृजते नापि चान्यान् ॥७॥ श्रय--जिससे यह सर्वभूत सृष्टि प्रवृत्त है वह स्वय ही सर्जन कर करके उसका उपभोग करता है। सृष्टि की रचना करने में इसका दूसरा कोई सहकारी कारण नहीं है और वह खुद को, दूसरे को, या अन्य को नहीं सरजता है। भावार्य-यहाँ पर कवि ने लौकिक कर्ता और भोक्ता की अपेक्षा विलक्षण रूप से परमात्मा का भूतमर्ग के का और उपभोक्ता के रूप से वर्णन किया है। कोई भी लौकिक कर्ता किसी वस्तु का सर्जन करता है तो उसको नहकारी कारण की अवश्य अपेक्षा रहती है जब कि कवि कहता है परमात्मा के लिए सर्गसिद्धि मे अन्य किसी कारण को अपेक्षा नहीं है। इसमे आगे बढकर कवि कहता है कि दरअसल मे परमात्मा न तो अपना ही सर्जन करता है और न दूनगे का ही मर्जन करता है । यह सारा विरोधाभान अपेक्षाभेद से समाधेय है। कवि के इस सारे पद्य मे ग्वनाश्वतर का 'न तम्य कार्य कंग्ण च विद्यते' (६८) इत्यादि मन्त्र का सार भाप्यस्प से रम रहा है। निरिन्द्रियश्चक्षुपा वेत्ति शब्दान् श्रोत्रेण रूप जिघ्रति जिह्वया च । पादैर्ब्रवीति शिरसा याति तिष्ठन् सर्वेण सर्व कुरते मन्यते च ॥८॥ अर्थ--जो निरिन्द्रिय होने पर भी नेत्र से शब्दों को जानता है, कान से स्प को जानता है और जीभ से सूघता है। पांव से बोलना है, मन्तक से खडा रहने पर भी चलता है, सर्व से सर्व करता है और जानता है। भावार्थ-यहाँ कवि परमात्मा को निरिन्द्रिय कहता है और फिर इन्द्रियो द्वारा उस उस विषय को वह जानता है ऐमा भी कहना है, यह एक विरोध है । उममे विशेष विरोध तो इसके इस कथन मे है कि नेत्र आदि ज्ञानेन्द्रियां कर्ण 'भावाभायो नि सतत्त्वो (वितत्त्वो) निरजनो रजनो य प्रकार--म० । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिशिका ३६७ आदि अन्य इन्द्रियो के नियत विषय शब्द आदि को जानती है और पाँव इत्यादि कर्मेन्द्रियाँ भी वाक् आदि अन्य कर्मेन्द्रियो का कार्य करती है । परमात्मा मस्तक मे खड़े रहने और चलने का पाँव का कार्य करता है । यह कह कर कवि श्रत में वह तक जाता है कि परमात्मा के लिए कोई श्रमुक माघन किसी अमुक कार्य के लिए ही नहीं है, परन्तु उसके लिए तो सर्व साधन सर्व कार्यकारी है । इन प्रकार के प्रत्यन्त विरुद्ध दिखाई देने वाले वर्णन का तात्पर्य इतना ही है कि परमात्मा का स्वरूप लौकिक वस्तुग्री में निराला है और उसकी विभूति भी लौकिक विभूति में भिन्न है । योगशास्त्र के विभूतिपाद में जिन विभूतियों का वणन है वे विभूतिया योगी की होने पर भी प्रद्भुत है। गीता के ग्यारहवे श्रध्याय कृष्ण ने अर्जुन को अपना घोर विश्वम्प बताया है यह भी योग की महिमा है । यहाँ तो कवि योगी मे भी भिन्न परमात्मा की स्तुति करता है । इमीलिए उसने चमत्कारी विरुद्वाभास वर्णन द्वारा अलोकिकत्व सूचित किया है । निङ्कोन का प्रस्तुत वर्णन बहुत पुराकाल ने चली थाने वाली कविप्रया के कितने ही मोपानो का अतिक्रमण करके श्रागे बढ़ा है। ऋग्वेद के कवि गण इन्द्र या ग्रग्नि आदि देवो की स्तुति करते है तव सहस्राक्ष जैसे विशेषण का उपयोग करके अपने अपने इष्टदेव को हजार आंखवाले के रूप मे महत्त्व अर्पित करते है । परन्तु पुरुषसूक्त का ऋषि पुरुष का वर्णन करते समय उसके माथ में केवन सहस्राक्ष विशेषण का प्रयोग करके ही सतुष्ट नही होता, वह तो पुरुष को महशीष श्री मनपाद भी कहता है । विश्वकर्मा मूक्त का प्रणेता हजार नेन, हजार पाँव, या हजार मस्तक ने नष्ट नहीं होता, वह तो विश्वसृष्टा देव को 'विश्वतश्चक्षुरुत विश्यतो मुखो विश्वतो वाहुरुन विश्वत यात् (ऋ० १०८१३) कहकर हजार या उसमें भी किसी बडी संख्या की श्रवगणना करता है। ऋग्वेद के विशेषण विकाम में कालनम की गन्य आती है । उसके बाद यजुर्वेद और अथववेद आदि गन्यो में इसी ऋग्वेद के विशेषण यत्र-तत्र प्राप्त होते है । उन विशेपणी का कालक्रम सूचक विकास चाहे जितना हुग्रा हो या विस्तृत हुआ हो फिर भी वेदो की स्तुतियां नगुण भूमिका ने श्रागे नही वही थी ऐसा कह सकते हैं । परन्तु धीरे-धीरं चिनव सगुण रूप मे श्रागे वढ करके निर्गुण चिंतन की ओर अग्रसर होते जाते थे । इसके लक्षण प्राचीन उपनिषदों और गीता में दृष्टिगोचर होते हैं । जब परब्रह्म की स्थापना हुई तव निर्गुण स्वरूप का चिंतन पराकाष्ठा को पहुँच चुका था। फिर भी तत्त्वचितको और कवियों ने पुरानी मगुण वर्णन की प्रथा को भी चालू रखी । इसीलिए श्वेताश्वतर और गीताकार ने निर्गुण वर्णन करने पर भी 'महस्रशीर्षा पुरुष सहस्राक्ष सहस्रपात् ।' (०३-१८) उत्यादि रूप मे और 'सवंत पाणिपाद तत् मनोऽक्षिशिरोमुग्वम्' (ग्वे० ३ १६ ) इत्यादि रूप मे सगुण वणन भी किया है । छादोग्य प्रादि के अमरीग्ल वर्णन का (छादो ८-१२-१) अनुकरण करके मुण्डक परब्रह्म का यत्तददृष्यमग्राह्यमगोत्रमवणमचक्षु श्रोत्र तदपाणिपादम् ।' (मु० १-६) यादि म्प मे वर्णन करता है । जब कि श्वेताश्वतर उनका 'पाणिपादी जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षु स शृणोत्यकर्ण' (वे० ३-१६) आदि रूप मे विरोधाभासी मगुणस्वरूप वर्णन करता है । सिद्धमेन भी प्रस्तुत स्तुति में परमात्मा का निर्गुण और सगुण स्वरूप से स्तव करता है। इस पद्य में तो इन उभय स्त्रम्पी के वर्णन के अतिरिक्त एक ऐसा प्रतिभाजनित चमत्कार दृष्टिगोचर होता है कि जो उसके पूर्व के वेद, उपनिषद् और गोता आदि में नहीं दिखाई देता है। यह चमत्कार केवल विरोधाभास ही नही है परन्तु विरोधाभास की पराकाष्ठा भी है। मिद्धमेन जहाँ तक परमात्मा को निरिन्द्रिय होने पर भी इन्द्रियो के कार्यकर्ता कहता है वहाँ तक तो वह मुण्डक और श्वेताश्वतर मे आगे नही वढता है, परन्तु जब वह यह कहता है कि निरिन्द्रिय परमात्मा इन्द्रियो के कार्यं तो करता ही है, परन्तु इसके अतिरिक्त भी वह कान का काम आँख मे, आँख का काम कान से, नाक का जीभ से, वाणी का काम पाँव से और पाँव का काम मस्तक से करता है, किंबहुना उसके लिए कोई एक काम किसी एक साधन ॠग्वेद १.२३. ३ । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ ३९८ के द्वारा ही करन का बन्धन नहीं है, नव वह श्रोताओं के मन के ऊपर चमत्कारिक प्रभाव पैदा करके उसे परमात्मा की लोकोत्तर चमत्कारिता में श्रद्धालु वना करके कविकृत्य सिद्ध करता है। शब्दातीत कथ्यते वावदूकै नातीतो ज्ञायते ज्ञानवद्भि'। बन्धातीतो वध्यते क्लेशपाशैर्मोक्षातीतो मुच्यते निर्विकल्प ॥९॥ अथ शब्द से प्रतीत होने पर भी वह वादियो के वाद का विषय बनता है, ज्ञान से प्रतीत होने पर भी वह ज्ञानियों के ज्ञान का विषय बनता है । बधन से प्रतीत होने पर भी क्लेश पाश से वधता है और मोक्षातीत होने पर भी निर्वकल्प होकर मुक्त होता है। भावार्थ-तैत्तिरीय आदि उपनिषदो मे “यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।" (० २-६) जैसे वर्णन है उनमे आत्मा का शब्दातीतत्व और मनोऽगम्यत्व रूप से प्रतिपादन किया गया है। दूसरी ओर ये ही उपनिषद् पुन आत्मा का निरूपण करते है और ज्ञानियो को आत्मज्ञान के लिए प्रोत्साहित करते है। जैसे कि 'श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य' (बृ० २ ४ ५) इत्यादि । आत्मब्रह्म को कूटस्थ मानकर बवमोक्ष से अतीत कहा गया है और 'सोऽकामयत बहु स्या प्रजायेयेति ।' (० २ ६) तया 'तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् ।' (तै० २ ६) इत्यादि द्वारा आत्मब्रह्म को सृष्टिवद्ध भी कहा है। उपनिपदो और दूसरे सभी अध्यात्मशास्त्रो का कथन यही है कि निर्विकल्पसमाधि प्राप्त करने वाला आत्मा मुक्त होता है । ऐसे परस्पर विरुद्ध दिखाई देने वाले उपदेशवाक्यो का अवलम्वन लेकर के कवि ने आत्मा की पारस्परिक विरुद्ध अवस्थाओ का आलकारिक भाषा मे वर्णन किया है, परन्तु उसका तात्पर्य तो यह है कि ये विविध वर्णन परस्पर असगत नही है किंतु दृष्टिभेद से प्रवृत्त हुए है। इसी वस्तु को जैन परिभाषा मे कहना हो तो इस प्रकार कह सकते है कि पारमार्थिक-कर्मनिरपेक्ष स्वाभाविक-दृष्टि से प्रात्मा न तो वाच्य है, न तय है, न वद्ध है और न मुक्त है परन्तु व्यावहारिक और कर्मसापेक्ष वैभाविक दृष्टि से आत्मा शब्दगम्य, ज्ञानध्यानगम्य, बद्ध और मुक्त भी है। प्राचीन जैनश्रुत मे अति महत्त्व रखने वाले प्राचाराग सूत्र में आत्मा की स्वाभाविक स्थिति का जो वर्णन है वह उपनिषदो में वर्णित निर्गुणब्रह्म की याद दिलाता है। वह कहता है कि-"सव्वे सरा नियट्टन्ति, तक्का तत्थ न विज्जइ, मई तत्य न गहिया, मे न दोहे, न हस्से, न कोण्हे, न नीले न लोहिए, न सुरभिगन्धे न दुरभिगन्धे, न तित्ते, न कडए, न गरुए न लहए, न इत्थी न पुरिसे न अन्नहा परिन्ने सन्ने उवमा न विज्जए।" (५ ६ १७०) । नाय ब्रह्मा न कपर्दी न विष्णुर्ब्रह्मा चाय शकरश्चाच्युतश्च । अस्मिन मढा प्रतिमा कल्पयन्ते ज्ञातश्चाय न च भुयो नमोऽस्ति ॥१०॥ अय-यह परमात्मा न ब्रह्मा है, न शकर है, और न विष्णु है, और फिर भी यह ब्रह्मा, शकर और विष्णु भो है। मूढ़ मनुष्य ही परमात्मा के विषय में विविध प्रकार की प्रतिमानो की कल्पना करते है, जब यह प्रात्मा ज्ञात हो जाता है तब फिर नमस्कार करना शेष नहीं रहता है। ___ भावार्थ-लोक परम्परा और पौराणिक मान्यताप्रो मे ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर की त्रिमूर्ति पूजी तथा मानी जाती है और उपासक अपनी रुचि या सस्कार के अनुसार परमात्मा को ही ब्रह्मा, शकर या विष्णु रूप से भजता है । लोक और बहुत बार शास्त्र भी इस त्रिमूर्ति को परस्पर विरुद्ध मानते है तया मनवाते है। इस वस्तुस्थिति को ध्यान मे लेकर के कवि परमात्मा का ययार्य-निर्गुण- वर्णन करने के लिए और लोक तथा शास्त्र में रूट विरोधी भावना को निर्मल करके उसके स्थान पर समन्वयदृष्टि से सगुण वर्णन करते समय कहता है कि परमात्मा न तो ब्रह्मा है, न शकर है और न विष्णु है फिर भी वह तीनो रूप है--कोई एक रूप तो नहीं है। 'ज्ञानविद्धि-मु०। कल्पयन्तो-मु० । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिंशिका ३६६ लोग परमात्मा की उपासना करने के लिए अनेक प्रकार के प्रतीको की कल्पना करते हैं, अनेक नाम से अनेक प्रकार की मूर्तियो की रचना करते हैं और पीछे उसी मे डूब कर मूल ध्येय को भूल जाते हैं । ऐसे लोगो की र करके कवि 'न तस्य प्रतिमा अस्ति ।' (श्वे० ४-१६) श्वेताश्वतर के इस कथन का मानो भाष्य करके सच ही कहता है कि जो मूढ होते है वे परमात्मा की अनेक प्रतिमाओ की कल्पना करते है । वस्तुस्थिति तो यह है कि जिनको परमात्मा का स्वरूप अवगत होता है उनके लिए परमात्मा पुन अधिक नमस्कार करने के योग्य नही रहता है । वे स्वय परमात्मारूप बनते है और उनके ऊपर का तम नि शेष हो जाता है । आपो वह्निर्मातरिश्वा हुताश सत्य मिथ्या वसुधा मेघयानम् । ब्रह्मा कीट शकरस्तार्क्ष्यकेतु सर्वं सर्वं सर्वथा सर्वतोऽयम् ॥ ११ ॥ अर्थ -- परमात्मा ही पानी और वह्नि है, पवन और हुताशन है, सत्य और मिथ्या है, पृथ्वी और आकाश है, ब्रह्मा और कोटक है शकर और गरुडध्वज - विष्णु है । यह सर्व - - परमात्मा प्रत्येक प्रकार से प्रत्येक स्थल पर सर्वरूप से है । भावार्थ - कितने ही वैदिक मंत्रो, उपनिषदो और गीता मे यह भावना सुप्रसिद्व है कि एक ही परमात्मा नानारूप धारण करता है और नानारूप से विलसित होता है । यहाँ पर कवि ने इसी भावना को परस्पर विरुद्ध दिखाई देनेवाले श्रधिभौतिक और आधिदैविक द्वन्द्वो से अभिन्नरूप मे परमात्मा का वर्णन करके व्यक्त किया है । श्वेताश्वतर के ‘तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमा । तदेव शुक्र तद्ब्रह्म तदापस्तत्प्रजापति || ' ( ४ २ ) इस मंत्र की तुलना प्रस्तुत पद्य के साथ कर सकते हैं । तैत्तिरीय (२६) में ब्रह्म के नानारूप धारण करने का वर्णन है उसमे अनेक विरोधी द्वद्वो के माय मे 'सत्य चानृत चाभवत्' इस वाक्य के द्वारा जिस सत्यानृत द्वद्व का उल्लेख है उसे ही कवि ने यहाँ सत्य मृषा कहा है । शुक्ल यजुर्वेद (१९७७) के 'दृष्ट्वा रूपे व्याकरोत्सत्यानृते प्रजापति ।' इस मंत्र में प्रजापति ने मत्य और अनृत इन दो रूपो का व्याकरण किया था इस बात का प्राचीन प्रघात है । यहाँ वह्नि और हुताश इन दो पदो के समानार्थक होने से पुनरुक्ति का भास होता है, परन्तु वस्तुत वैसा नही है । वह्नि से जिस श्रग्नि को समझना चाहिए वह जल विरोधी सामान्य अग्नि लेना चाहिए और हुतारा पद से आहुति द्रव्य को ग्रहण करने वाले यज्ञीय विशिष्ट वह्नि को लेना चाहिए जिसको कि मातरिश्वा से विरोधी कहा गया है । मातरिश्वा का अर्थ वैदिक मंत्रो मे मॉनसून किया है । चतुर्मास का तूफानी पवन या उससे सूचित होने वाला चतुर्मास यह हुताशन विरोधी इसलिए माना गया होगा सामान्य रूप से चतुर्मास में यज्ञप्रथा नही होती है । स एवाय विभृता येन सत्त्वा शश्वदु खा दुखमेवापियन्ति । स एवायमृषयो य विदित्वा व्यतीत्य नाकममृत स्वादयन्ति ॥ १२ ॥ अर्थ -- यह वही परमात्मा है जिसके द्वारा भरे हुए और व्याप्त प्राणी सतत दुखी होकर दुख ही प्राप्त करते रहते है । यह वही परमात्मा है जिसका जान कर ऋषिगण स्वर्ग का अतिक्रमण करके श्रमृत का श्रास्वाद लेते है । भावार्थ -- सभी प्राणी परमात्मभाव से भरे हुए है तथा व्याप्त है । फिर भी वे निरन्तर दुखी रह करके दुख ही प्राप्त करते रहते है । यह कथन विरुद्ध है, क्योकि प्राणी परमात्मरूप हो तो उनको दु ख का स्पर्श ही कैसे हो सकता है ? इस विरोध का परिहार प्रसिद्ध है । तात्त्विक दृष्टि से सभी जीवात्मा परमात्मा रूप है परन्तु अपने सच्चे स्वरूप का भान नही होने से वे दुख प्राप्त करते हैं । इसी वस्तु को कवि ने उत्तरार्ध में व्यतिरेक के द्वारा कही है कि जिन ऋषियो को आत्मज्ञान है वे अमृत ही बनते है । स्वर्ग का अतिक्रमण करके अमृत का आस्वादन करते हैं इस वर्णन में स्पष्ट विरोध है क्योकि स्वर्ग में ही अमृत के अस्तित्व की मान्यता है तो फिर स्वर्ग को प्रतिक्रमण करने वाला उसका आस्वाद कैसे ले सकता है ? इसका समाधान यह है कि स्वर्गीय अमृत वास्तविक अमृत नही है वास्तविक अमृत तो आत्मा का स्वाभाविक स्वरूप है जो स्वर्ग को अतिक्रमण करने वाले को ही प्राप्त होता है । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० प्रेमी-अभिनवन-पथ इम पच म सनिदिष्ट भाव श्वेताश्वतर के 'ततो यदुत्तरतर तदरुपमनामयम् । त एतद्विदुरमृतास्ते भवन्त्यथेतरे दुखमेवापियन्ति ।' (३-१०) मन्त्र में स्पष्ट है। विद्याविद्ये यत्र नो सभवेते यन्नासन्न नो दवीयो न गम्यम् । यस्मिन्मृत्युर्नेहते नो तु काम ' स सोऽक्षर परम ब्रह्म वेद्यम् ॥१३॥ अर्य-जिसमें विद्या और प्रविद्या का सभव नहीं है, जो न समीप, न दूरतर और न गम्य है, जिसमें न तो मृत्यु प्रवृत्त होता है और न काम प्रवृत्त होता है वह और वही अक्षर-अविनाशी है और ज्ञेय ऐसा परब्रह्म है। ___ भावार्य कवि ने यहाँ परमात्मा के निर्गुण स्वरूप का वर्णन किया है । इसीलिए वह अविद्या अर्थात् कर्ममार्ग और विद्या अर्थान् आत्मलक्षी शास्त्र इन दोनो के सभव से परमात्मा को पर कहता है। परमात्मा न तो दूर है और न आसन्न यह वर्णन ईशावास्य के 'तदेजति तन्नेजति तद्रे तद्वन्तिके' (५) इस वर्णन की याद दिलाता है। प्रस्तुत पद्य मे श्वेताश्वतर के 'T अक्षरे ब्रह्मपरे त्वनन्ते विद्याविद्ये निहिते यत्र गूढ । क्षर त्वविद्या ह्यमृत तु विद्या विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्य ।' (५ १) इस मत्र का भाव रममाण हो रहा है। ओतप्रोता पशवो येन सर्वे ओत प्रोत पशुभिश्चैष सर्वे । सर्वे चेमे पशवस्तस्य होम्य तेषा चायमीश्वर सवरेण्य ॥१४॥ अर्य-जिसके द्वारा ये सब पशु-जीवात्माएँ श्रोतप्रोत है और यह स्वय सभी पशुओं--जीवात्मानो द्वारा प्रोत-प्रोत है । ये सभी पशु उसका हव्य है और इन सभी पशुप्रो के लिए यह वरने योग्य ईश्वर है । भावार्थ-कवि यहाँ पाशुपत परम्परा का अनुसरण करके 'पशु' पद का जीवात्मा के अर्थ में प्रयोग करता है और उस जीवात्मापरमात्मा के सम्बन्ध को यहाँ आलकारिक रीति से व्यक्त करता है। कवि जीवात्मा और परमात्मा को एक दूसरे से ओतप्रोत कह करके उन दोनो के बीच मे अभेद सम्बन्ध दिखलाता है और वह अभेद विशिष्टाद्वत कोटि का हो ऐसा रूपक से प्रतीत होता है। यज्ञ मे पशु होमे जाते थे इसलिए वे उद्दिष्ट देवता के होम्य-हव्य द्रव्य कहलाते थे और वह उद्दिष्ट देवताहोम्य पशुप्रो का आराध्य माना जाता है। इस वस्तु को कवि ने जीवात्मा और परमात्मा के बीच का आध्यात्मिक सम्बन्ध स्पष्ट करते समय रूपक में कहा है कि जीवात्माएँ परमात्मा के होम्य है अर्थात् परमात्मभाव को प्राप्त करने के ध्येय रखने वाले जीवात्मानो को अपने आपका-जीवभाव का बलिदान करना ही चाहिए। तस्यैवैता रश्मय कामधेनोर्या पाप्मानमदुहान क्षरन्ति । येनाध्याता पच जना स्वपन्ति प्रोबुद्धास्ते स्व परिवर्तमाना ॥१५॥ अर्य-जिसके द्वारा प्राध्यात-जिसके सकल्प के विषय बने हुए पचजन--निषाद और चार वर्ण मिल कर पांच जन या पांच इन्द्रियां सोती है और जिसके द्वारा उद्बोध प्राप्त करके वे पांच जन स्वय अपने प्रति पुन प्रवृत्त होते है। उसी परमात्मा रूप कामधेनु को ये रश्मियां है जो अपने पाप पाप को नहीं दूझती हुई झरती है। भावार्थ-यहाँ कवि ने दो विरोधाभासो द्वारा चमत्कारिक रीति से परमात्मा की विभूति का वर्णन किया है। वह कहता है कि परमात्मा की अभिमुखता रूप प्राध्यान का स्पर्श होते ही मनुष्यमात्र तथा इन्द्रियाँ स्वप्नवश बनती है अर्थात् वे परमात्मस्पर्शरूप निद्रामत्र के प्रभाव से भान भूल कर निद्रावश बनती है और जब वे जगती है तब वे अपने कार्यप्रदेश के प्रति पुन फिरती है। 'नोतुकामा-मु० Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ सिद्धसेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिशिका यह स्पष्ट विरोध है, क्योकि परमात्मा का स्पर्श तो चाहे जिसको जागृत करता है इसके विपरीत वह मनुष्य को प्रवृत्तिक्षेत्र से दूर करके निद्रावश और भानरहित कैसे बनावेगा । यदि वह ऐसा करता है तो फिर परमात्मस्पर्श के स्थान पर उसको चोरो के द्वारा प्रयोजित निद्रामत्र का स्पर्श ही कहना चाहिएं ? इस प्रापञ्चिक विरोध का परिहार आध्यात्मिक दृष्टि के विचार में है । आध्यात्मिक दृष्टि यह कहती है कि जव मनुष्य और उसकी इन्द्रियाँ अपने अपने प्रवृत्तिक्षेत्र में रममाण होते है तभी वह तात्त्विक दृष्टि से निद्रावग होते है । हृदय में परमात्मा का स्पदन होते ही मनुष्य और इन्द्रियो की यह दगा चली जाती है और वह प्रवृत्तिक्षेत्र के स्थूलरस की निद्रा छोड कर किसी नव जागरण का अनुभव करते है। ऐसे जागरण का ही परमात्मस्पर्शजनित निद्रारूप से यहाँ वर्णन किया गया है । और जव ऐसी निद्रा से मनुष्य और उसकी इन्द्रियाँ जागते है तव वे पीछे अपने अपने विषय की ओर झुक कर भोगाभिमुख वनते है । उक्त निद्रा और जागरण समझने के लिए 'या निशा सर्वभूताना तस्या जार्गात सयमी' ( गीता २६९) गीता का यह श्लोक और उसका प्राचार्य हेमचन्द्र के द्वारा काव्यानुशासन मे किया हुआ विवरण ( पृ० ७०) उपयोगी है । कवि परमात्मा की कामधेनु के रूप से कल्पना करके और उसके चारो ओर फैली हुई विभूतियो को स्तन' का रूपक देकर कहता है कि वे स्वय भरती तो है, किन्तु अपने आप पाप को नही दूझती है । यहाँ यह विरोध है कि परमात्मा की विभूतियो को यदि स्वय भरने दिया जाय अर्थात् उनको स्वयं अपना अपना काम करने दिया जाय तो वे सदैव भला करती है, परन्तु यदि उनको प्रयत्न से दुहना शुरू करो वा उन्हें प्रयत्न से निचोडना शुरू करो तो उसमें से पाप ही भरता है बुराई ही प्रकट होती है । यह स्पष्ट विरोध है । कामधेनु के स्तनो को हाथ से निचोत्रो या उनको दूध स्वय झरने दो तो भी उनमें से एक समान ही दूध भरता है । जव कि यहाँ पर तो प्रयत्न से निचोडने पर बुराई प्रकट होती है ऐसा कहा गया है । इस विरोध का परिहार इस प्रकार हो सकता है कि प्राविभौतिक, प्राधिदैविक और अध्यात्मिक सभी परमात्मा की विभूतियो को जब मनुष्य अपने ग्राहकारिक प्रयत्न से भोगदृष्टि से निचोता है अर्थात् उनके साहजिक प्रवाह को अपने लोभ से कुठित करता है तव वह विभूतियो में से कल्याण सिद्ध करने के वदले अकल्याण सिद्ध है । यदि कोई सूर्य के साहजिक प्रकाश प्रवाह को रोकने के लिए प्रयत्न करता है या वरसते मेघ को रोकता है तो उसमे उसका और दूसरो का अहित ही होने वाला है । कवि का तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि जगत् में जो-जो विभूतिरूप है उसमे से प्रयत्न के बिना ही सबका कल्याण सिद्ध होता है । परन्तु यदि इन विभूतियो को निचोना शुरू करो तो उनमें से अकल्याण ही प्रकट होता है । कामधेनु के स्तन अपने श्राप दूध की वर्षा करते हैं परन्तु अधिक लालच से उनको निचोना शुरू करो तो उनमें से रुधिर ही भरता है । यही न्याय परमात्मा की सहज विभूतियो को भी लागू पडता है। तमेवाश्वत्थमृषयो वामनन्ति हिरण्मय व्यस्तसहस्रशीर्षम् मन शय शतशाखप्रशाख यस्मिन् वीज विश्वमोत प्रजानाम् ॥१६॥ श्रयं -- जिसमें प्रजानों का सपूर्ण बीज रहा हुआ है उसी का ऋषि लोग श्रश्वत्थ वृक्ष रूप से वर्णन करते है, उसी का विस्तृत हजार मस्तकधारी ब्रह्मारूप से वर्णन करते है और उसी का सैकडो शाखा और प्रशाखा वाले कामरूप से वर्णन करते हैं । १ मूल में रश्मि शब्द है उसका सीधा अर्थ स्तन नहीं है परन्तु यहाँ प्रसग देखकर किरण की समानता की कल्पना करके वह श्रर्थ किया गया है । ५१ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ भावार्थ-सास्यपरम्परा के अनुसार सृष्टिमात्र या प्राणीवर्ग का जन्मवीज अव्यक्त प्रकृति में समाविष्ट है जव कि ब्रह्मवादी परम्परानुसार यह जननवीजशक्ति परब्रह्म परमेश्वर में निहित है। यहां कवि ईश्वरवादी परम्परा को लक्ष्य करके परमात्मा का ही समग्न प्राणीवर्ग की जननशक्ति के आधाररूप से निर्देश करता है। और साथ-साथ में वह कहता है कि ऋषि लोग इसी परमात्मा का वेद, उपनिषद्, महाभारत, गीता आदि में अश्वत्य रूप से, हिरण्यगर्भ रूप से तथा कामरूप से वर्णन करते है। ऋग्वेद के सूक्त में (१२४७) वरुण के वृक्ष का वर्णन है । अथर्ववेद में (५४३) अश्वत्यवृक्ष का वर्णन है, कठ में (६१) और गीता में (१५ १) इसी अश्वत्यवृक्ष का 'ऊर्ध्वमूलमध शाख' इत्यादि स्प से सविशेष वर्णन है और गीता में तो कठ से भी अधिक 'अधश्चोर्ध्व प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवाला' (१५२) इत्यादि रूप से वर्णन है। श्वेताश्वतर (६६) अश्वत्थ नाम नही दे करके केवल वृक्ष शब्द से इसका निर्देश करता है। ऋषियो ने दृश्यससार के विस्तार का ही इस वक्ष या अश्वत्य के रूपक मे वर्णन किया है। कवि उस रुपक को उद्देश करके ही कहता है कि ऋषि लोग परमात्मा का ही अश्वत्यरूप से वर्णन करते है। यहाँ कवि ससार और परमात्मा का अभेद वर्णन करता है। जव ब्रह्म ही जगत का कारण माना गया तब ब्रह्मवादियो ने इस ब्रह्म का ही अश्वत्यरूप से वर्णन किया। पुरुषसूक्त मे (१०-६०-१) सहस्रशीर्ष रूप से पुरुष का वर्णन है। वह पुरुप अर्थात् लोकपुरुष या ब्रह्मा, प्रजापति अथवा हिरण्यगर्भ । इसी ऋपिकृत वर्णन को लक्ष्य में रख कर कवि कहता है कि वही हिरण्यगर्भ परमात्मा है। प्राचीनकाल में प्रजा का मूल हिरण्यगर्भ या ब्रह्मा में माना जाता था। ब्रह्मवाद की प्रतिष्ठा के समय में यह मूल परमात्मा मे माना गया। कवि इस प्राचीन और नवीन विचारधारा का एकीकरण करके कहता है कि हिरण्यगर्भ ही परमात्मा है। काम-तृष्णा-सकल्प या वासना यही ससार का दोज है। उसमे से ही सृष्टि की छोटी बडी सैकडो शाखाएँ प्रवृत्त होती है। इस वस्तु का 'सोऽकामयत वहु स्या प्रजायेयेति' (०२-६) इत्यादि स्प से ऋषियो ने वर्णन किया है। उसको लक्ष्य करके कवि कहता है कि यह काम दूसरा और कोई नहीं है परन्तु परमात्मा ही है। 'कामोऽस्मि भरतर्षभ' (गी० ७-११) की तरह काम और परमात्मा का अभेद दिखलाने में कवि का तात्पर्य इतना ही है कि सबके प्रभवरूप से जो जो माना जाता है वह परमात्मा ही है। इस प्रकार प्राचीन ऋपियो के द्वारा नाना रूप से गाई हुई महिमा परमात्मा की ही है, ऐसा कवि सूचित करता है। स गीयते वीयते चार्ध्वरेषु मन्त्रान्तरात्मा ऋग्यजु सामशाख । अध शयो विततागो गुहाध्यक्ष स विश्वयोनि पुरुषो नैकवर्ण ॥१७॥ अर्थ-ऋग्, यजु और सामरूप शाखावाला ऐसा मत्रों का अन्तरात्मा ही यज्ञो में गाया जाता है और स्तुतिपात्र बनता है । गुहा का अध्यक्ष अघ शायी और विस्तृताग ऐसा वही अनेकवर्ण विश्वयोनि पुरुष है । भावार्थ-यहां कर्मकाण्ड में प्रयुक्त मन्त्री और विधिमओ के हार्दरूप में तथा ज्ञानकाण्ड के चिन्तन में सिद्ध हुए आध्यात्मिक तत्त्वरूप मे परमात्मा का एकीकरण किया गया है। यज्ञो में वैदिक मन्त्र विधिपूर्वक उच्चरित होते थे और विभिन्न देवो की स्तुति द्वारा प्रार्थना होती थी। स्तुति किये जाने वाले इन अनेक देवो मे से एक देव का विचार फलित होता गया तव ऐसा माना जाने लगा कि सभी मन्त्र फिर वे ऋग्वेद, यजुर्वेद या सामवेद रूप में विभक्त हुए हो और उनकी भिन्न-भिन्न शाखाएँ पडी हो फिर भी उनका परमार्थ या उनमें रहा हा अन्तर्गत सार तत्त्व तो एक ही है और वही अनेक यज्ञो में गाया जाता है तथा उसीकी विनय की जाती है। कर्मकाण्ड के वाद की दूसरी भूमिका ज्ञानकाण्ड की है। उसमें तत्त्वचिंतक और सन्त मुख्यरूप से जगत् के मूलतत्त्व के पीछे पडे हुए थे। इसके परिणाम स्वरूप उनको एक ऐसा आध्यात्मिक तत्त्व प्राप्त हुआ जिसको उन्होने Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिशिका 403 विश्वयोनि के रूप में माना तथा वर्णन किया। उन तत्त्वचिन्तक सन्तो ने इस तत्त्व का अनेक प्रकार के विरोधाभासी वर्णनो द्वारा अलौकिक प्रकार से वर्णन किया है। इन दोनो भूमिकामो के फलितार्थ का एकीकरण करके कवि यहाँ कहता है कि यज्ञो में भिन्न-भिन्न शाखामो के द्वारा गाया जाने वाला, स्तुति किया जाने वाला पुरुप और तत्त्वज्ञ मन्तो मे गुहाध्यक्ष तथा विश्वयोनि रूप में प्रसिद्ध पुरुष यह एक ही है / ___ कोई योगी पुरुष गुफावासी और गुहा-अध्यक्ष हो वह हाथ पांव इत्यादि अग विस्तृत करके पडा रहता है, परन्तु वैसा पुरुष विश्वयोनि और अनेकवर्ण कैसे हो सकता है ? यह एक प्रकार का विरोध है, पर उसका परिहार आध्यात्मिक दृष्टि मे है / आध्यात्मिक दृष्टि से परमात्मा ही मुख्य पुरुष है, वह दृश्य जगत् के नीचे उसके उस छोर पर रहने के कारण अघ शायी भी है / और वह अपने शक्तिरुप अग प्रकृति के पट के ऊपर चारो ओर फैलने के कारण वितताङ्ग भी है / वह बुद्धिरूप गुफा मे स्फुरित होता है और हृदय गुफा का नियन्त्रण करता है इसलिए वह गुफा अध्यक्ष कहलाता है। और फिर भी वह विश्वयोनि तो है ही। वह पुरुप मूल मै अवर्ण या एकवर्ण होने पर भी विश्व में अनेक रूप से विलसता है इसलिए वह अनेकवर्ण भी है। प्रस्तुत पद्य के उत्तरार्ध के साथ में श्वेताश्वतर के नीचे के दो मन्त्र तुलना करने योग्य है। "यच्च स्वभाव पचति विश्वयोनि पाच्याश्च सर्वान्परिणामयेद्य" (55), “य एकोऽवर्णो वहुधा शक्तियोगाद्वर्णाननेकान्निहितार्थो दधाति" (41) / तेनैवैतद्वितत ब्रह्मजाल दुराचर दृष्टयुपसर्गपागम्'। . अस्मिन्मग्ना मानवा' मानशल्यैर्विवेष्यन्ते पशवो जायमाना // 18 // अर्य-उसके द्वारा ही यह ब्रह्मजाल विस्तृत है जो कि दुष्प्रवेश है और दृष्टि को उपसर्ग करने वाला है। इस ब्रह्मजाल में मग्न पुरुष पशु बन करके मानरूपी शल्य से विधे जाते है। भावार्य-यहाँ कवि ने ब्रह्माण्ड की जालरूप से कल्पना करके उसको फैलाने वाले के रूप मे परमात्मा का निर्देश करके सूचित किया है कि ब्रह्मजाल को फैलाने वाला जो जाली, धीवर या पारधी है वह परमात्मा ही है / जाल और ब्रह्माण्ड का माम्य स्पष्ट है। जाल में फंस जाने के बाद उसमें चलना, फिरना तया उसमें से निकलना कठिन हो जाता है। ब्रह्माण्ड भी ऐसा ही है। जाल में फंसने वाले को दृष्टि बन्द हो जाती है उसे कुछ भी दिखाई नही देता है। ब्रह्माण्ड में पडे हुए की दशा भी ऐमी ही होती है / जाल मे लुब्ध हो करके फंसे हुए मृग इत्यादि पशु उसके कण्टको और वन्धनो से घिरे जाकर विद्ध होते है / ब्रह्माण्ड में भी आसक्त होकर गर्क हुए पुरुष पशु की तरह से लाचार बन करके मानापमान के शल्यो से विधे जाते है। तुलना-प्रस्तुत पद्य मे जाली के रूप में परमात्मा का जैसा वर्णन है वैसा श्वेताश्वतर मे भी है। जैसे कि “य एको जालवानीगत ईशनीभि सर्वाल्लोकानीशत ईशनीभि / ' (31) “एकक जाल बहुधा विकुर्वन्नस्मिन्क्षेत्रे सचरत्येप देव / (53) / परन्तु यहाँ कवि ने 'दुराचर दृष्टयुपसर्गपाशम् / ' जैसे विशेषणो से जाल का स्पष्टीकरण विशेप किया है। और इसमे फंसने वाले मनुष्य पशु की तरह से किस प्रकार जकडे जाते है उसका सूचन किया है। यहां ब्रह्म जाल सूत्र (दीघनिकाय) याद आता है जिसमें 62 मिथ्यादृष्टियो के जाल का वर्णन है। अयमेवान्तश्चरति देवतानामस्मिन्देवा अधिविश्वे निषेदु / अयमुद्दण्ड प्राणभुक प्रेतयानरेप त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति // 19 // अर्य--यही देवताओं के अन्दर विचरण करता है, और सभी देव इसी के अन्दर रहे हुए है, यही दण्ड धारण करके प्रेतयानो से प्राणभोजी बनता है और यही तीन प्रकार से बद्ध होकर के वृषभरूप से वूम मारता है। 'पासम्म 0 'माननामा(न) शल्य-मु० Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ भावार्थ-मन्त्र, ब्राह्मण और उपनिषद् आदि में जो चमत्कारी वर्णन है उनमे से कुछ ले करके यहाँ कवि उनको परमात्मा की स्तुति के रूप मे गूथता है । ऋग्वेद में 'चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा। वे शीर्षे सप्तहस्तासो अस्य । त्रिधा वद्धो वृषभो रोरवीति ।' (४५८३) यह मन्त्र है। उसका सायण ने यास्क निरुक्तभाष्य का अनुसरण करके यज्ञाग्नि और सूर्यपरक व्याख्यान किया है। शाब्दिक पतजलि ने महाभाप्य में इस मन्त्र को शब्दपरक व्याख्या की है जब कि सिद्धसेन यहाँ उसका केवल एक पाद लेकर परमात्मा रुप से उसकी योजना करता है। उसका तात्पर्य यहां परमात्मा के सगुणरूप वर्णन का हो ऐसा प्रतीत होता है। परमात्मा है तो वृषभ अर्थात् उत्तम अथवा कल्याणगुणवर्षण करने वाला-स्वतन्त्र, परन्तु जब वह सत्त्व, रजस और तम इन तीन गुणो से बंधता है अथवा रागद्वेष-मोह के बन्धन में पडता है तब वह नासिका, ग्रीवा और पांव मे विधा बंधे हुए साड की तरह से बूमावूम मचा करके परेशान कर डालता है। "यश्चायमादित्ये तेजोमयोऽमृतमय' (बृह० २२५) इत्यादि रूप से उपनिषदो मे परमात्मा का वर्णन है। वैसे वर्णनो को लक्ष्य में रख करके कवि ने यहाँ परमात्मा का देवतायो के अन्तश्चारी के रूप मे वर्णन किया है। सभी देव परमात्मा मे रहे हुए है इस अर्थ का प्रस्तुत पद्य का द्वितीय पाद तो जैसा का तैसा श्वेताश्वतर में 'अस्मिन्देवा अधिविश्व निषेदु। (४८) है। प्राणियो को प्रेतलोक में ले जाने का काम दण्डवर यम के अधीन है ऐसा पौराणिक वर्णन है । यम प्रेतलोक में जाने वाले प्राणियो का शासन करता है इसलिए वह दण्डधर और भयानक गिना जाता है। वैसे यम के रूप मे भी परमात्मा का निर्देश करके कवि सूचित करता है कि परमात्मा पुण्यशाली के प्रति जितना कोमल है उतना ही पापियो के प्रति कठोर है। अपा गर्भ सविता वह्निरेष हिरण्मयश्चान्तरात्मा देवयान । एतेन स्तभिता सुभगा द्यौर्नभश्च गुर्वी चोर्वी सप्तच भीमयादस ॥२०॥ अर्य-चन्द्र, सूर्य, वह्नि, हिरण्मय, अन्तरात्मा और देवयान यही है। इसी के द्वारा सुन्दर स्वर्ग, आकाश, महती अथवा वजनदार पृथ्वी और सात समुद्र स्थित है। भावार्थ-तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमा । तदेव शुक्र तद्ब्रह्म तदापस्तत्प्रजापति ॥" (४२) इस मन्त्र मे श्वेताश्वतर ने ब्रह्म का जैसे अनेक देवो के रूप मे वर्णन किया है वैसे ही कवि ने यहाँ पूर्वार्ध में अनेक देवो के रूप में परमात्मा का वर्णन किया है और उसके वाद जिस प्रकार ऋग्वेद तथा यजुर्वेद के “येन द्यौरुग्रा पृथ्वी च दृढा येन स्व स्तभित येन नाक । योऽन्तरिक्षे रजसो मिमान कस्मै देवाय हविषा विधेम।" (ऋ० १०-१२१-५, शु० य० ३२-६) इस मन्त्र में हिरण्यगर्भ प्रजापति का सवके आधारस्तम्भ के रूप में वर्णन है और जैसे वृहदारण्यक में "एतस्य वै अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विघृतौ तिष्ठत एतस्य वै अक्षरस्य प्रशासने गागि द्यावापृथिव्यो विघृतौ तिष्ठत" (३८६) इत्यादि द्वारा सूर्य, चन्द्र आदि की नियमित स्थिति के नियामक रूप में अक्षर परमात्मा का वर्णन है और जैसे मुण्डक में "अत समुद्रा गिरयश्च सर्वेऽस्मात्स्यन्दन्ते सिन्धव सर्वरूपा" (२१६) समुद्र, पर्वत, नदी इत्यादि के नियमित कार्य के कारण के रूप में वर्णन है वैसे ही यहाँ उत्तरार्च मे कवि ने स्वर्ग, अाकाश, पृथ्वी और सात समुद्र की स्थिति परमात्मा के कारण है, ऐसा वर्णन किया है। जो शाब्दिक दृष्टि से ऋग्वेद के ऊपर निर्दिष्ट मन्त्र का प्रतिविम्ब मात्र है। पुराणो और लोको मे समुद्र की सात सख्या प्रसिद्ध है इसलिए सप्तद्वीप-समुद्रा वसुमती कहलाती है । यहाँ पूर्वार्ध में तो सव कुछ परमात्मारूप है ऐसा कारण भेद वर्णन है जब कि उत्तरार्ध मे सारा जगत परमात्मा के कारण ही स्थित है ऐसा माहात्म्य वर्णन है। जिस लोक मे जाने के बाद पुनरावृत्ति नही होती है वह देवयान कहलाता है । पितृयान लोक इससे भिन्न है क्योकि वहां से पुनरावृत्ति होती है। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिशिका मन सोम सविता चक्षुरस्य घ्राण प्राणो 'मुखमस्याज्यपिव । दिग श्रोत्र नाभिरन्ध्रमन्दयान पादाविला सुरसा सर्वमाप ॥२१॥ अर्थ-- चन्द्र इसका -- परमात्मा का मुख है, सूर्य नेत्र है, प्राणवायु घ्राण- नासिका है, घृतपायी - अग्नि इसका मुख है, दिशाएँ श्रोत्र हैं, श्राकाश नाभि है, पृथ्वी पाँव है और सरस जल सब कुछ है । भावार्थ — ऋग्वेद जैसे प्राचीन ग्रन्थो मे लोकपुरुष का वर्णन करते समय ऋषि ने विवक्षित पुरुष के उन-उन श्रवयवो मे से आधिभौतिक और आधिदैविक विभूतियो की उत्पत्ति का वर्णन करके लोकपुरुष का महत्त्व गाया है ।' जैसे कि मन से चन्द्र उत्पन्न हुआ, चक्षु से सूर्य, मुख से इन्द्र और अग्नि, प्राण से 'वायु, नाभि से अन्तरिक्ष, मस्तक से स्वर्ग और पाँव से पृथ्वी हुई इत्यादि (ऋ० १०६० १३ १४) । शुक्लयजुर्वेद में इसी वर्णन का थोडा विकास हुआ है । आगे जाकर भिन्न-भिन्न उपनिपदो में यह प्रक्रिया अनेक प्रकार से बतलाई गई है । उदाहरण के रूप में बृहदारण्यक मे (१११) मेध्य अश्व के सिर आदि अनेक प्रगो के रूप में उपा आदि प्राकृतिक वस्तुओं की कल्पना की गई है और फिर इमी उपनिषद् में विभिन्न स्थलो पर यही वस्तु भिन्न-भिन्न रूपको मे थोडे बहुत फेरफार के साथ आती है । ऐतरेय मे (१ १४) मुख से वाणी की, वाणी से अग्नि और नामिका की, नामिका से प्राण की, प्राण से वायु और नेत्र की इत्यादि रूप से उत्पत्ति वर्णित है । आगे जाकर भागवत मे (२१२६-३९) तो इतना अधिक विकास हुआ है। कि प्रकृतिगत छोटी वडी सख्यावद्ध वस्तुओ का प्रभुशरीर के अग प्रत्यग के रूप में वर्णन है । इस प्रथा का उपयोग करके कवि यहाँ आधिभौतिक या आधिदैविक वस्तुप्रो का परमात्मा के श्रग प्रत्यग के रूप मे वर्णन करता है और इस प्रकार दृश्यमान समग्र जगत को परमात्मा का शरीर कह करके उसकी सर्वव्यापकता की महिमा गाता है । कवि ने चन्द्र, सूर्य, प्राण, अग्नि, दिशा, आकाश, पृथ्वी और पानी का परमात्मा के उन उन श्रवयवो के रूप मे वर्णन किया है जो बराबर वेद और उपनिपदो की कल्पना का अनुकरण है । कवि सुरस पानी को सब कुछ कहता है यह रूपक कवि का अपना ही हो ऐसा प्रतीत होता है । विष्णुर्वीजमभोजगर्भ शम्भुश्चाय कारण लोकसृष्टी । नैन देवा विद्रते नो मनुष्या देवाश्चन विदुरितरेतराश्च ॥२२॥ ४०५ श्रर्य -- यह परमात्मा विष्णु है और फिर भी लोक के सर्जन में ब्रह्मारूप बीज है । यह शकर है और फिर भी लोकसृष्टि का कारण है । इसको न तो देव जानते है और न मनुष्य जानते है और इसको अन्यान्य देव जानते भी हैं । भावार्थ -- एक ही परमात्मा की ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर रूप त्रिमूर्ति प्रसिद्ध है, परन्तु उस त्रिमूर्ति की पौराणिक कल्पना क्रमश रजस्, सत्त्व और तमस् इन गुणो की प्रवानता की प्रभारी है। रजोगुण का अवलम्वन लेकर के सृष्टि की रचना करने वाला ब्रह्मा, सत्त्वगुण का अवलम्वन लेकर के उसका पालन करने वाला विष्णु और तमोगुण का प्रवलम्वन लेकर के उसका सहार करने वाला शकर है । इस प्रकार तीनो मूर्तियो का भिन्न-भिन्न कार्यप्रदेश है । फिर भी कवि यहाँ इस त्रिमूर्ति का अभिन्नरूप मे वर्णन करता है जो पौराणिक कल्पना से विरुद्ध है । कवि परमात्मा का विष्णु और शकर कह करके ब्रह्मा की तरह सृष्टि के कारण के रूप मे वर्णन करता है । इस विरोध 'मुखमस्याद्यपि दिश । श्रोत्रनाभिरन्ध्राभादयान पादाविला -- मु० २ 'चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षो सूर्या प्रजायत । श्रोत्राद्वायुश्च प्राणश्च मुखादग्निरजायत | नाभ्या प्रसीदन्तरिक्ष शीष्ण द्यौ समवर्तत । पद्भ्या भूमिदेश श्रोत्रात्तया लोका अकल्पयन् ॥३१ १२ १३ शु० य० बृहदा० २५ १-१४।३. १।३ २ १३ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ प्रेमी-अभिनंदन ग्रंथ का परिहार स्पष्ट है, वह यह कि त्रिमूर्ति के कार्यप्रदेश की कल्पना पुराणो मे चाहे भिन्न-भिन्न रूप से की गई हो फिर भी वस्तुत यह त्रिमूर्ति परमात्मा ही है और इसलिए तीनो मूर्तियाँ सृष्टि की कारण भी है । इस प्रकार विरोधाभासी सगुण वर्णन करने के बाद कवि परमात्मा की अज्ञेयता सूचित करने के लिए कहता है कि उसे देवता या मनुष्य नही जानते है । और साथ ही ज्ञेयता सूचित करने के लिए कहता है कि अन्यान्य देव जानते हैं । परमात्मा या मूलतत्त्व को कोई जानता है या नही इस प्रश्न की चर्चा ऋग्वेद के समय से होती रही है । नासदीयसूक्त में कहा गया है कि देव' इसको जानते होगे। पर ऋषि कहता है कि देव तो पीछे हुए वे अपने पूर्ववर्ती मूलतत्त्व को किस प्रकार जान सकेंगे ? यह उत्तर आगे जाकर परमात्मा के ज्ञेय-प्रज्ञेय स्वरूप में परिणत हुआ उसीका कवि ने यहाँ वर्णन किया है । अस्मिन्नुदेति सविता लोकचक्षुरमिन्नस्त गच्छति चाशुगर्भ । एषोऽजस्र वर्तते कालचक्रमेतेनाय जीवते जीवलोक ||२३|| अर्थ--इस परमात्मा में ही सूर्य जो कि नेत्र की तरह लोक को प्रकाशदायक होने से लोकचक्षु कहलाता है वह उदय होता है और इसी परमात्मा में वह सूर्य फिर अशुगर्भ - किरणो को अपने अदर गर्भ की तरह सकुचित करके अस्त होता है । यही परमात्मा सतत कालचक्र के रूप में प्रवृत्त होता है । और इसी के द्वारा यह जीवलोक जी रहा है । भावार्थ - वृहदारण्यक (३ ८ ९) में याज्ञवल्क्य ने वाचक्नवी गार्गी को उत्तर देते हुए कहा है कि "एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गागि सूर्याचन्द्रमसो विधृतो" अर्थात् सूर्य-चन्द्र ये परमात्मा की महिमा से ही है और नियमित रूप से अपना-अपना काम करते है । इस कथन का मानो भाष्य करके ऋषि कठोपनिषद् में कहता है कि 'यतश्चोदेति सूर्योऽस्त यत्र च गच्छति ।' (४९) इसी वस्तु को यहाँ पूर्वार्ध मे कह करके सिद्धसेन परमात्मा को महिमा गाता है । उत्तरार्ध में वह परमात्मा का निरन्तर फिरने वाले कालचक्र के रूप में वर्णन करता है । कालकारणवादी समग्र विश्व के कारण के रूप से काल को ही मानते थे । इस मत का उल्लेख अथर्ववेद के ( काण्ड १९ सूक्त ५३-५४ ) कालसूक्त में स्पष्ट है । कवि यहाँ परमात्मा को ही विश्व का कारण मानता है इसलिए वह परमात्मा और काल दोनो के अभेद की कल्पना करके कहता है कि जिस कालचक्र की निरन्तर प्रवर्तमान होने की मान्यता है वह कालचक वस्तुत परमात्मा ही है । काल को जो चक्र कहा गया है वह यह सूचित करने के लिए कि जैसे चक्र सदैव फिरता रहता है वैसे काल भी सदैव गति करता रहता है । काल के चक्र कहने में यह भी आशय है कि चन्द्र के छ या वारह आरो की तरह काल के भी छ ऋतु और वारह महीनारूप आरे है । जैनपरम्परा में भी कालचक्र की कल्पना है परन्तु उसमे ऋतु या मास के स्थान मे दूसरे ही प्रकार के छ और वारह विभागो की कल्पना करके उनको आरा कहा गया है । वे छ या बारह कालविभाग ब्रह्म के दिवस और रात की पौराणिक कल्पना से भी आगे बढ जाते है । चढती के क्रम को सूचित करने वाले छ नारे उत्सर्पिणी और हास के क्रम को सूचित करने वाले छ आरे अवसर्पिणी कहलाते है । यह ऋतुचक्र और मासचक्र नियमित रूप से एक भी क्षण ठहरे विना पुन -पुन आता जाता रहता है । इसकी गति वरावर चक्र जैसी ही है, इसलिए काल के लिए चक्र की उपमा वरावर लागू होती है । अन्त मे कवि कहता है कि समय जोवलोक का जीवन परमात्मा का ही आभारी है । कवि का यह कथन कठ के "न प्राणेन नापानेन मत्यों जीवति कश्चन । इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेतावुपाश्रितौ।” (५५) इस विचार का प्रतिविम्व है । 1 'को श्रद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आाजाता कुत इय विसृष्टि' । अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाऽथा को वेद यत श्राबभूव ॥ ६ ॥ इय विसृष्टिर्यत श्राबभूव यदि वा दघे यदि वा न । यो श्रस्याध्यक्ष. परमे व्योमन् सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद्र ॥७ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिशिका ४०७ अस्मिन् प्राणा प्रतिबद्धा प्रजानाम् अस्मिन्नस्ता रथनाभाविवारा ।। अस्मिन् प्रीते शीर्णमूला पतन्ति प्राणाशसा' फलमिव मुक्तवृन्तम् ॥२४॥ अर्य-इस परमात्मा में ही प्रजा के प्राण प्रतिबद्ध है इसी में ही वे प्राण रथ को नाभि में पारे की तरह अर्पित हुए है। जब यह परमात्मा प्रसन्न होता है तभी प्राण की एषणा डठल से छुटे हुए फल की तरह शिथिलमूल बन करके खिर जाती है। भावार्थ-शुक्लयजुर्वेद मे जैसे मन के विषय में कहा गया है “यस्मिन्नृच साम यजूषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवारा । यस्मिश्चित्त सर्वमोत प्रजानाम् ।।" (३४५) वैसे ही कवि यहाँ परमात्मा को लक्ष्य में रख कर कहता है कि प्रजा के प्राण परमात्मा में ही बद्ध है और वे नामि में पारे की तरह व्यवस्थित है अर्थात् प्राणीजीवन परमात्मा के साथ ही सकलित है उससे भिन्न नहीं है। फिर भी जब परमात्मा का अनुग्रह होता है तब यह प्राण धारण करने की वृत्ति, इसके मूल अविद्या के नष्ट होते ही अपने आप वन्द हो जाती है। इस कथन में विरोध भासित होता है, क्योकि यदि प्रजाप्राण परमात्मा के साथ मे ग्रथित हो तो वह परमात्मा के प्रसन्न होने से खिर कैसे जाता है ? परन्तु इसका परिहार इस प्रकार करना चाहिए कि प्राणियो को जिजीविषा अज्ञान के कारण है। जब तक प्राणी अपने परमात्मारूप को नही जानते है तभी तक वह जिजीविषा स्थिर रहती है और तभी तक परमात्मा मे प्राण सकलित रहते है। परमात्मास्वरूप का भान होते ही इस अज्ञान का मूल शिथिल होने से जिजीविषा अपने आप चली जाती है। नाभि में आरो को जमाने की उपमा वेद काल से प्रसिद्ध है और वह वृहदारण्यक, मुण्डक, कौषीतको आदि उपनिषदो में भी बहुत प्रचारित हुई है। मुण्डकोपनिषद् के 'तस्मिन् दृष्टे परावरे' (२२८) इस पद्य मे ज्ञानयाग की महिमा है जव कि यहाँ 'अस्मिन् प्रीते' इस उत्तरार्ध मे भक्तियोग का माहात्म्य है, जिस प्रकार 'यमेवैष वृणुते तेन लभ्य ।' (कठ २ २२) इत्यादि में है। पके फल की डठल से छट जाने की उपमा भो बहुत प्राचीन है-"उवारुकमिव बन्धनात्"-शुक्ल यजुर्वेद ३६० । कालिदास ने भी इसका उपयोग किया है। अस्मिन्नेकशत निहित मस्तकानामस्मिन् सर्वा भूतयश्चेतयश्च । महान्तमेन पुरुप वेद वेद्य आदित्यवर्ण तमस परस्तात् ॥२५॥ अर्थ-इसमें सौ मस्तक रहे हुए है, इसमें सभी सम्पत्तियां और विपत्तियां है । अन्धकार से पर सूर्य जैसे प्रकाशमान वर्ण वाले इस ज्ञेय महान् पुरुष को मैं जानता हूँ। भावार्थ-पुरुषसूक्त में (ऋ० १०-६०-१) पुरुष का वर्णन करते समय 'सहस्रशीर्षा' पद से हजार मस्तक का निर्देश है जिसका अनुकरण शुक्लयजुर्वेद (३११) तथा श्वेताश्वतर (३ १४) आदि में है। यहां तो कवि ने पुरुषरूप से वर्णन करते समय सो मस्तक का निर्देश किया है। सौ या हजार यह केवल सख्याभेद है। इसका तात्पर्य तो इतना ही है कि लोक पुरुषरूप परमात्मा के अनेक मुख है, जब कि मनुष्य पुरुष या किसी भी प्राणी पुरुष को केवल एक ही मुख होता है। परमात्मा की विशेषता यह है कि तमाम प्राणियो के मुख इसके ही मुख है। शुक्लयजुर्वेद में (२५ १३) मृत्यु और अमरत्व दोनो का परमात्मा की छाया के रूप मे वर्णन है। इसी तत्त्व को कवि यहाँ भिन्न प्रकार से कहता है कि सभी विभूतियां लोकपुरुषरूप परमात्मा में ही है। ऐसे परमात्मपुरुष का वर्णन 'वेदाहमेत पुरुष 'रथनामा विचारा-मु०। 'शसाफ-मू०। 'शुक्ल यजुर्वेद ३४.५। "बृहदा० २. ५. १५.. मुण्डक० २.२.६ । कौषी ३.६। "पुरुषवेल-मू०। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन ग्रंथ महान्तनादित्यवर्णं तमसः परस्तात् । इत्यादि रूप ने शुक्लयजुर्वेद (३१.१८) और श्वेताश्वतर (३८) में है । उनी को ही थोडे परिवर्तन के साथ कवि यहाँ यथित करना है । ४०८ गरे पद्य का तात्पर्य परमात्ना की लोकोत्तरता सूचित करना है । सामान्य लौकिक पुरुष के एक मुख होता हैं, जब कि परमात्मपुरुष के अनेक मुख होते हैं । लौकिक पुरुष के पास सम्पत्ति या विपत्ति होती है, पर वह सब प्रकार की नहीं। जब कि परमात्य पुरुष ने सब प्रकार को नम्पत्ति विपत्तियो का नमान हो जाता है । लौकिक पुरुष अज्ञानान्त्रकार ने आवृत होता है जब कि परमात्न पुरुष इनसे पर है । विद्वानज्ञञ्चेतनोऽचेतनो वा स्रष्टा निरीहः सह पुमानात्मतन्त्र । क्षराकारः ततत चाक्षरात्मा विशीर्यन्ते वाचो युक्तयोऽस्मिन् ॥२६॥ अयं -- वह प्रात्मतन्त्र पुरुष विद्वान् है और अज्ञ है, चेतन है और अचेतन है, कर्ता है और अकती है, परिवर्तिष्णु परि है। ऐसे इस परमात्मा के विषय में सब वाणीविलास विराम ले लेते हैं । भावार्थ-इन पद्य में अनेक परस्पर विरोधी विशेषणद्वन्दो के द्वारा परमात्मा का अनेकरूपत्व तथा लोकोत्तरत्व नूचित किया गया है । कवि अन्त में ऐसे विरोवी द्वन्द्वो के वर्णन से थक कर कहता है कि सत्य बात तो यह है कि कोई भी वान्युक्ति परमात्मा का निरूपण करने में असमर्थ है । विरोवी विशेषणो के द्वारा परमात्मा के सगुण स्वरूप का वर्णन करके कवि अन्त ने उनके निर्गुण स्वरूप की ओर ही झुकता है । विशेषणान विशेषाभास का परिहार अपेक्षा विशेष ने हो जाता है । यहाँ परमात्मा सर्वात्मकरूप से विवक्षित है अतएव अज्ञानी-ज्ञानी, ज्ड-चेतन, कर्ता-कर्ता, विनश्वर-अविनश्वर जो कुछ है वह सव परमात्मरूप होने से उनमे नमी विरोधी विशेषण घट सकते हैं । विशिष्टाद्वैतवाद में परमात्मा का शरीर चिचिद् उभय रूप से कल्पित हैं, इसलिए उनमें जैने परमात्मा चित् शरीर और अचित् शरीर कहा जा सकता है उसी तरह यहाँ भी कह सकते हैं । शुद्धाद्वैन के अविकृत परिणामवाद में जो कुछ जड चेतन जगत में हैं वह नव परमात्मा का परिणामरूप माना जाता है इसलिए उन मत के अनुसार जड या चेतन जो कुछ है वह सव परमात्मारूप ही है । उन विचारो को छाया इस पद्य ने हैं। फिर भी कवि 'यतो वाचो निवर्तन्ते इस तैत्तिरीयोपनिषद् (२४) के वाक्य का अनुसरण करके अन्त ने परमात्ना के निर्गुण स्वरुप को सूचित करता है । वुद्धिवोद्धा वोघनीयोऽन्तरात्मा बाह्यश्चाय स परात्मा दुरात्मा । नासावेक नापृथग् नाभि' नोभौ सर्वं चैतत् पावो य द्विषन्ति ॥२७॥ अर्थ ——यह परमात्मा बुद्धि का बोद्धा और बुद्धि का विषय है। वह अन्दर है और वाह्य है, यह श्रेष्ठ श्रात्मा और कनिष्ठ श्रात्मा है, यह नहीं तो एक है और नहीं अनेक है और फिर भी वह उभयरूप नहीं है ऐसा भी नहीं है तथा यह सर्वरूप है जिनका कि पशु — जीवात्माएँ द्वेष करते हैं । भावार्य—नाख्यतत्त्वज्ञान का अनुकरण करके आत्मा और परमात्मा को लागू हो ऐसे जो विरोधाभासी विचार वेद उपनिषद् और गोना आदि में अनेक प्रकार से प्रकट हुए हैं उन्हीं विचारो मे ने कुछ विचारो को कवि ने इन पद्य में विरोवाभासी विशेषण हद्वरूप ने रथित किये हैं और उनके द्वारा परमात्मा की लोकोत्तरता सूचित की है। नान्यदर्शन यान्ना-परमात्मा को वृद्धि-अन्त करण का साक्षी मान करके तथा बुद्धिगत बोष को छायावाला कल्पित करके कूटम्य होने पर भी उनको बोद्धा कहता है, और नाथ ही वह 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्य श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यानितव्य' (वृदा० ४ ५ ६ ) इत्यादि बन्दो के द्वारा आत्मा को बुद्धिवृत्ति का विषय भी कहता है । इस विचार युगल को कवि ने बोद्धा और वोवनीय कह करके प्रकट किया है । 'तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य वाह्यत' (ईशा० 'नाभितोभी -म० । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धसेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिशिका ૪૨ ५), 'स' वाह्याभ्यन्तरो ह्यज' (मुण्ड० २१२) जैसे शब्दो में जो विचार उपनिषदो ने व्यक्त किये है उसको ही यहाँ कवि 'अन्तरात्मा' और वाह्य' शब्द से व्यक्त करता है । मर्वतत्त्वो मे श्रात्मा ही मुख्य तत्त्व है इसलिए वह पर या परम श्रात्मा के रूप में सुविदित है । परन्तु कवि यहाँ उसको दुरात्मा भी कहता है जो विलकुल विरोधी बाजू है । इम परात्मा और दुरात्मा का विरोधाभास गीता के विभूतियोग अध्याय (१०) में स्पष्ट है । जव कृष्ण अपने को 'सिद्धाना कपिलो मुनि ' (१०-२६), 'मर्पाणामस्मि वासुकि ( १०-२८), अनन्तश्चास्मि नागानाम्' ( १०-२६) इस प्रकार कहता है तब वह अपने में परात्मा और दुरात्मापने का द्वन्द्व घटा करके अन्त में तो लोकोत्तरत्व ही सूचित करता है । कवि ने यहाँ यही मार्ग लिया है । ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में मूलतत्त्व का स्वरूप बताता हुया ऋषि कहता है कि वह न तो सत् है और न असत् श्रौर न सदसद् इत्यादि है । उसी प्रकार से यहाँ कवि आत्मा का स्वरूप बतला करके उसे एक मानना, पृथक् मानना या उभयरूप मानना इत्यादि विकल्पो का निषेध करता है और अन्त मे कहता है कि वह तो सर्वात्मक है । कवि आत्मा का ऐसा विरुद्ध दिखाई देने वाला वर्णन करके अन्त मे कहता है कि परमात्मा का स्वरूप ही ऐसा है कि जो अज्ञान और क्लेश वासना से ग्रस्त मनुष्यों से नही समझा जा सकता। इसके विपरीत वे परमात्मा का ऐसा स्वरूप मुन करके उसके प्रति द्वेष रखते है । जीवात्मा का कवि पशु शब्द से वर्णन करता है, वह यह सूचित करने के लिए कि वस्तुत मनुष्य जाति भी अज्ञानपाग से बद्ध है इसलिए वह पशु जैसी दीन और पराधीन ही है और इसीलिए वह पशुपति --- परमात्मा के स्वरूप मे चौंकती है । सर्वात्मक सर्वगत परीतमनादिमध्यान्तमपुण्यपापम्' । वाल कुमारमजर च वृद्ध य एन विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥ २८ ॥ अर्थ-सर्वरूप और फिर भी सर्व में व्याप्त, आदि, मध्य और प्रत से रहित, पुण्य-पाप से रहित, वाल होने पर भी कुमार, वृद्धत्व रहित होने पर भी वृद्ध ऐसे इस परमात्मा को जो जानता है वह अमर होता है । भावार्थ-यहाँ भी विरोधाभासी वर्णन है । परमात्मा सर्वव्यापक और सर्वरूप है इसलिए ऐसा वर्णन वस्तुत विरोधरहित ही है । कवि का मुख्य तात्पर्य तो यह है कि जो सर्वत्र परमात्मदर्शन करते है वे ही मृत्यु के उस पार जाते हैं । इस पद्य का प्रथम पाद श्वेताश्वतर (३-२१) के 'सर्वात्मान सर्वगत विभूत्वात् ।' इस वचन का प्रतिविम्व है । द्वितीय पाद में 'श्रनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यम्' गीता ( ११-१९ ) की तया 'य आत्मा अपहृतपाप्मा' छान्दोग्य (८७१ ) की प्रतिध्वनि है। तृतीय पाद में 'त्व स्त्री त्व पुमानसि त्व कुमार उत वा कुमारीत्व जीर्णो दण्डेन वञ्चसि (४३) तथा 'वेदाहमेतमजर पुराणम् (३२१ ) इस श्वेताश्वतर का सक्षेप है । चतुर्थ पाद भी श्वेताश्वतर की 'य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति' ( ३१ तथा १० ) वचन की अनुकृति मात्र है । नास्मिन् ज्ञाते ब्रह्मणि ब्रह्मचर्यं नेज्या' जाप स्वस्तयो नो पवित्रम् । नाह नान्यो नो महानो कनियान् नि सामान्यो जायते निर्विशेष ॥ २९ ॥ अर्थ - इस ब्रह्म- परमात्मा का ज्ञान होने पर ब्रह्मचर्य, यज्ञ, जाप, स्वस्तिवाचन या पवित्र --दर्भ अथवा यज्ञोपवीत -- यह कोई कर्तव्य नहीं रहता है । फिर तो श्रात्मा में नहीं, अन्य नहीं, बडा नहीं, छोटा नहीं, ऐसा निसामान्य और निर्विशेष हो जाता है । भावार्थ --- प्राचीन काल से ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य श्रादि श्राश्रमो की और तत्सम्वन्धी कर्तव्यपालन की प्रथा चलती आई है । ब्रह्मचर्य धारण करके पहले आश्रम में शास्त्राध्ययन कराया जाता था, दूसरे गार्हस्थ्य श्राश्रम में अनेकविध यज्ञो के करने का वघन था, त्यागाभिमुख वानप्रस्थ आश्रम मे जप, स्वस्तिवाचन तथा पवित्र गिने जाने वाले दर्भासन 'पुण्यपापी - मु० । ५२ २ नय्याजाप म० । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० प्रेमी-अभिनवन-प्रथ आदि के उपयोग की प्रथा थी। कवि यहाँ सन्यासाश्रम के ब्रह्मज्ञान को सर्वश्रेष्ठता और सर्वोच्च कर्तव्यता बतलाने के लिए कहता है कि जब ब्रह्मज्ञान होता है तो पहिले के तीनो आश्रमो के कर्तव्य और विधान स्वयमेव अनुपयोगी बन करके फट जाते है । ब्रह्मज्ञान होने के बाद को प्रात्मदशा का वर्णन करता हुआ कवि कहता है कि उस समय आत्मा मैंप्रथम पुरुप या अन्य-तृतीय पुरुष नहीं रहता है, तथा उसमें महत्ता और कनिष्ठता का भाव भी नही रहता है, वह सामान्य और विशेष दोनो प्रकारो से पर हो जाता है। ब्रह्मज्ञान जनित आत्मस्थिति का यह वर्णन निर्गुण और द्वद्वातीत भूमिका सूचित करता है । ज्ञानप्रधान उपनिषदो में और ज्ञानयोगप्रधान गीता के वचनो मे इसी प्रकार आत्मज्ञान का माहात्म्य वर्णित है। नैन मत्वा शोचते नाभ्युपैति नाप्याशास्ते म्रियते जायते वा। नास्मिल्लोके गृह्यते नो परस्मिन् लोकातीतो वर्तते लोक एव ॥३०॥ अर्थ-परमात्मा को जानने के बाद ज्ञाता न तो शोक करता है और न कुछ प्राप्त करता है, वह प्राशा का भी सेवन नहीं करता है, नहीं मरता है और नहीं जन्म लेता है, वह इस लोक या परलोक में पकडा नहीं जाता है । वह लोकातीत होने पर भी लोक में ही रहता है। भावार्थ-कवि ने यहाँ जीवनमुक्त ब्रह्मज्ञानो की दशा का वर्णन किया है। वह ज्ञानी, लोगो के बीच में रहता है फिर भी वह साधारण लोगो के शोक, हर्ष, आशा, जन्म, मृत्यु और ऐहिक-पारलौकिक बन्धन से पर होकर लोकातीत वन जाता है। ऐसी स्थिति प्राप्त करने के मुख्य साधन के रूप में यहाँ आत्मज्ञान का ही निर्देश किया है। गोना मे ऐसे जोवनमुक्त पुरुष की दशा का अनेक प्रकार से वर्णन है। कठ के 'मत्वा धीरो न शोचति' (४ ४) तथा 'न जायते म्रियते वा विपश्चित्' (३ १८) इन शब्दो का तो प्रस्तुत पद्य मे पुनरवतार हुआ हो ऐसा भासित होता है । यस्मात् पर नापरमस्ति किञ्चिद् यस्मानाणीयो न ज्यायोऽस्ति कश्चित् । वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येक तेनेद पूर्ण पुरुषेण सर्वम् ॥३१॥ अर्थ-जिससे पर या अपर कोई नहीं है। जिससे कोई छोटा या बडा नहीं है, जो अकेला द्यूलोक में वृक्ष की तरह निश्चल स्थित है उस पुरुष से यह सब परिपूर्ण है। भावार्थ-यहाँ लौकिक वस्तुओ से परमात्म पुरुष को विलक्षणता ही विरोधाभासी वर्णन द्वारा व्यक्त हुई है। ईशावास्य मे 'त(रेतद्वन्तिके' (५) शब्द से और कठ मे 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' (२ २०) तथा छादोग्य में 'एप म आत्माऽन्तहृदयेऽणीयान् ज्यायान्' (३ १४ ३) शब्द से विधिमुख द्वारा जो भाव प्रतिपादित हुआ है वही भाव यहाँ कवि ने श्वेताश्वतर का (३ ९) सारा पद्य जैसा का तैसा लेकर के व्यतिरेक मुख से पूर्वाध में सूचित किया है। अतिम पाद 'येन सर्वमिद ततम्' (गीता ८ २२) की प्रतिध्वनि है। नानाकल्प पश्यतो जीवलोक नित्यासक्ता व्याधयश्चाधयश्च । यस्मिन्नेव सर्वत सर्वतत्त्वे दृष्टे देवे न पुनस्तापमेति ॥३२॥ अर्थ-जीवलोक का नानारूप से दर्शनकरने वाले को प्राधियों और व्याधियां सदैव लगी रहती है। परन्तु पूर्वोक्त प्रकार से सव ओर सर्वतत्त्वरूप जो देव है उसका दर्शन होते ही द्रष्टा फिर सताप को प्राप्त नहीं होता है। भावार्थ-यहाँ कवि ने पहले के सभी पद्यो मे समूचे रूप से परमात्मा के अद्वैत स्वरूप का वर्णन किया है। इमलिए वह उपनिपदो और गोता की तरह द्वैत और अद्वैत ज्ञान की फलश्रुति रूप से भेदज्ञान से सताप और अभेदज्ञान से सताप का प्रभाव वर्णन करता है। छादोग्य के 'तरति शोकमात्मविद्' (७ १ ३) इस सक्षिप्त वाक्य मे आत्मज्ञान को फलश्रुति और अर्थापत्ति से भेदज्ञानजन्य सताप का सूचन है । उसी भाव का कवि ने यहाँ अधिक स्पष्टता से वर्णन किया है। [ गुजराती से अनूक्ति बबई] Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयचंद्र और उनका ग्रंथ 'रंभामंजरी' श्री आदिनाय नेमिनाथ उपाध्ये एम० ए०, डी० लिट० आत्म-परिचयसवधी कुछ श्लोको से, जो हम्मीर महाकाव्य" (१४,४६, ४६*१, ४६*३,६४*४)तथा 'रभामजरी" (१,१५-१८) दोनो ग्रयो में एक मे पाये जाते है, प्रकट होता है कि ये दोनो अथ एक ही नयचद्र की रचनाएं है। इनमे लेखक ने अपने धार्मिक पूर्वजो का कुछ वर्णन किया है-प्रसिद्ध कृष्णगच्छ में उत्पन्न जयसिंहसूरि ने शास्त्रार्थ में सारग नामक एक बडे प्रतिभाशाली कवि को परास्त किया, जो छ भाषाओ में रचना करने वालो मे से एक था, जो वडा प्रामाणिक (प्रमाण शास्त्र का ज्ञाता) था, और जिसने न्यायसारटोका, एक नवीन व्याकरण तथा कुमार नृपति सवधी एक काव्य की रचना की थी।' यह सारग कौन था, यह अनिश्चित है । जयसिंह के लिखे हुए तीनो ग्रथो में पहला भासर्वज्ञ के न्यायसार (६०० ई०) को टोका है और तीसरा ग्रथ कुमारपालचरित है, जो १० सर्गों मे है तया जो म० १४२२ (१३६४-६५ ई०) मे समाप्त हुआ था।' जयसिंह का शिष्य प्रसन्नचद्र' था, जो राजाओ मे सम्मान पाता था। 'रभामजरी' का लेखक हमारा अथकर्ता नयचद्र यद्यपि प्रसन्नचद्र का शिष्य था, तथापि वह अपने को काव्य-प्रतिभा में जयसिह का ही सर्वया उत्तराधिकारी लिखता है। उसने काव्य के क्षेत्र में अपने परिश्रम का उल्लेख किया है और मरस्वती को अपने ऊपर विशेप कृपा का वर्णन किया है। उसने पहले के कवियो-कुक्कोक, श्रीहर्ष (नैषधीयकता), वात्मायन, (वेणोकृपाण-) अमर अर्थात् अमरचद्र आदि का भी उल्लेख किया है। वह कविता मे अपने को द्वितीय अमरचद्र घोषित करता है। यह अमरचन्द्र पद्मानद महाकाव्य का लेखक है। इसकी अनुकृति ने हम्मीर महाकाव्य भी वीराक है। और उसका समय लगभग तेरहवी शताब्दी का मध्यभाग है। हम्मीरकाव्य मे ऐतिहासिक घटनाग्रो का मनोरजक वर्णन है। उसमे हम्मीर (तथा साथ ही उसके पूर्वजो) को वीरतायो का कयन है, जिसने अलाउद्दीन से डटकर लोहा लिया और १३०१ ई० मे समरभूमि पर अपने प्राण गाये। काव्यप्रकाग आदि ग्रयो मे कविता के जो लक्षण निर्धारित किये गये है वे सव नयचद्र को विदित थे। उसने लिखा है कि किस प्रकार अपने काव्य में उसने कथावस्तु के साथ रोचकता लाने की चेष्टा को। आलोचको को उसके वर्णन-दोपोपर ध्यान न देना चाहिए (जिनके लिए उसने क्षमायाचना कर ली है)। येदोष कुछ ऐसे है, जिनसे कालिदास जैसे लेखक भी मर्वथा मुक्त नहीं हो सके। नयचद्र ने इस काव्य में शृगार, वीर तया अद्भुत रसो का समावेश करके 'कीर्तने का सस्करण ववई, १८७६ । 'रामचन्द्र दोनानाय द्वारा सपादित (वबई, १८८९) रभामजरी की एक सुन्दर सस्कृत टिप्पणियो के सहित हस्तलिखित प्रति भडारकर पोरियटल रिसर्च इन्स्टीच्यूट, पूना (१८८४-८६ को सख्या ३३५) में है । विशेष जानकारी के लिए पी० के० गोडे कृत्त पुस्तक सूची का चौदहवां भाग (नाटक, पूना, १९३७) पृ० २४६-७ देखिए । यह सस्करण सभवत. इसी प्रति पर प्राधारित है। इस नाटक पर कुछ विवेचना श्री चक्रवर्ती ने अपने एक निबंध 'Characteristic Features of the Sattaka form of Drama' (इडियन हिस्टारिकल क्वार्टी भाग ७, पृ० १६६-७३)में की है। "एच० डी० वेलकर द्वारा सपादित 'जिनरत्नकोष' पूना, १९४४ । "एम्० डी० देसाई-जैन साहित्यनो सक्षिप्त इतिहास, बबई, १९३३, पृ० ३७८-३८१, एम्० बी० झवेरी. Comparative and Critical study of Mantrasastra, भूमिका, पृ० २२२-२३, महमदाबाद, १९४४। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ प्रेमी-अभिनंदन ग्रंथ तोमर वीरम के दरवारियो को चुनौती दी है, जो यह कहते थे कि तत्कालीन कवियो मे किसी में इतनी प्रतिभा न थी जो पहिले के कवियो जैसी उत्कृष्ट रचना कर सके । नयचद्र उद्घोषित करता है कि उसके काव्य में अमरचंद्र का लालित्य तथा श्रीहर्ष की वक्रिमा, ये दोनो गुण है । नयचद्र के समय के सबध में यह कहा जा सकता है कि वह ई०१३६५ ई० १४७८ के बीच में हुआ होगा । पहली तिथि उसके गुरु के शिक्षक जयसिंहसूरि रचित कुमारपालचरित की है तथा दूसरी तिथि पूना से प्राप्त रभामजरी की हस्तलिखित प्रति मे दी हुई है । तोमर वीरम राजा की पहचान निश्चित होने से हम अधिक निकट तिथि पर पहुँच सकते हैं । हम्मीर काव्य के सपादक ने लिखा है - ' तोमर वीरम राजा चाहे जो रहा हो, उसका समय अकवर से ७० वर्ष पहले प्रतीत होता है ।' इसकी पुष्टि के लिए कोई प्रमाण नही दिया गया है | ग्वालियर के तोमर राजाओ की वशावली' मे वीरम नाम का एक राजा है । उसके पोते डुगरेद्रदेव का समय १४४०१४५३ ई० मिलता है । दो पीढियो के लिए ५० साल के लगभग मान लेने पर उतना घटाने से १४०० ई० वीरम का समय आता है । वि० स० १४६२ में वीरम इकवालखाँ से लड़ा था । इस वीरम का कुशराज मंत्री था । उमी की विज्ञप्ति से पद्मनाभ कायस्थ ने यशोधर चरित्र की रचना की है (जैन- हितैपी, १५, २२३-२६) । अत हम नयचद्र का काल पन्द्रहवी शती के प्रारंभ में मान सकते हैं । जैसा कि नयचद्र की गुरु-शिष्य परपरा सूची से विदित होता है, वह जैन भिक्षु था, परन्तु उसके रचित मगलश्लोक, जो हम्मीरकाव्य में है, जैन तथा हिन्दू दोनो धर्मों के देवताओ पर लागू हो सकते हैं । रभामजरी के नादीपाठ में विष्णु की स्तुति वाराह अवतार के रूप में की गई है । नयचद्र कृत रभामजरी एक सट्टक है । यहाँ हम उसमें आये हुए विषयो की छानबीन करेगे तथा कुछ उसकी वातो पर आलोचनात्मक प्रकाश डालेंगे । १ नादीपाठ मे वाराह भगवान की प्रार्थना तथा युवतियो के हाव-भाव पूर्ण कटाक्षो के वर्णन द्वारा कामदेव की अभ्यर्थना करने के वाद सूत्रधार मदन भगवान की स्तुति करता है तथा ईश्वर और पार्वती का गुणगान करता है । फिर वह लवे-चौडे ढग से राजा जैत्रचद्र (या जयचद) उपनाम पगु का, जो मल्लदेव तथा चद्रलेखा से उत्पन्न हुआ था, कथन करता है कि उस जैत्रचद्र ने मदनवर्मन् के राज्य को छीना और वह यवनो को हराकर बनारस मे राज्यारूढ हुआ । इसके पश्चात् सूत्रधार नट से अपनी इच्छा प्रकट करता है कि ग्रीष्मऋतु की विश्वनाथ यात्रा के लिए एकत्रित भद्रजनो का एक प्रवन्ध नाट्यद्वारा मनोरजन किया जाय। इसके लिए वह उस सरस कथानक को उपयुक्त बताता है, जिसमें राजा जैत्रचद्र नायक है, जो एक सट्टक प्रवध है और जिसका नाम रभामजरी है। यह सट्टक सूत्रधार के कथनानुसार राजशेखर की कर्पूरमजरी से भी एक प्रकार से श्रेष्ठतर है । इसका लेखक नयचद्र है, जो सरस्वती देवी की कृपा के कारण छ भाषाओ का सुयोग्य कवि है और जिसने अपनी काव्य-प्रतिभा की समानता अमरचंद्र तथा श्रीहर्ष से की है । इस सट्टक मे राजा जैत्रचद्र, जो सात रानियो का पति है, रभा नामक आठवी रानी से विवाह करता है, जिससे वह अपना भूपति नाम सार्थक कर सके । राजा जैत्रचद्र चारण-भाटो के द्वारा संस्कृत, प्राकृत तथा मराठी मे अपना यशोगान सुनता हुआ अपनी रानियो के सहित प्रवेश करता है। मजरित रसाल की डाल पर से एक कोयल उन सब का स्वागत करती है। राजा श्रीर रानी एक दूसरे के प्रति सम्मान प्रकट करते है और वसन्तऋतु के अनुकूल उनकी अभ्यर्थना वन्दीजन के द्वारा की जाती है । इतने में विदूषक और कर्पूरिका के बीच में आक्रोश युक्त विवाद खडा हो जाता है। कर्पूरिका इस पर हँसती है कि विदूपक को सारी विद्वत्ता उसके श्वशुर आदि से प्राप्त हुई है और यह कह कर उसकी काव्य-प्रतिभा की हँसी उड़ाती है । वे दोनो अपनी अपनी रचनाएँ राजसभा मे सुनाते हैं । कर्पूरिका विजय प्राप्त करती है । विदूषक शर्मिन्दा होकर महल से चला जाता है। रानी चन्द्रोदय का वर्णन करती है । राजा नारायणदास के आने के लिए 'सी० एम० डफ दि क्रॉनॉलॉजी श्राव इंडिया पू० ३०६, वेस्टमिन्स्टर, १८६६, डो० प्रा० भडारकर ए लिस्ट प्रॉव इन्सक्रिप्शस ऑव नॉर्दर्न इडिया, पृ० ४०४ । = Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयचंद्र और उनका प्रथ रंभामंजरी' ४१३ चिंतित हो जाता है,जो रभा के मवय में कुछ ममाचार लाने वाला था। इनने में विदूपक नारायणदाम को नया उसके माय वैवाहिकनेपथ्य में रभा को लेकर उपस्थित होता है। राजा का 'जैत्रचद्र' नाम इम हेतु पड गया था कि उनके जन्मदिवम को ही उसके पितामह ने खर्पर मेना को परास्त किया था, जो दयार्ण देश में आई थी।' ___ नारायणदाम कुछ मधुर ममाचार मुनाने आया है। पर्दे के पीछे से राजा मुनता है कि रमा किम्मीरवगी देवराज की पौत्रीतया लाटनरेगा मदनवर्मा की पुत्री है औरम्प मे पार्वती के नमान सुन्दर है। उमकी मगाईम नामक व्यक्ति के साथ हुई थी, परन्तु वह अपने मातुल शिव के द्वारा वहां मे हटाई जाकर हाथ में वैवाहिक ककण पहने हुए यहाँ ले पाई गई है । यह सुन कर राजा रभा का, जो एक पालकी में उपस्थित होती है, स्वागत करता है। वह उसके मौंदर्य पर मुग्ध होकर उसके अगो का वखान करने लगता है। विदूपक तथा नारायणदाम राजा को और अधिक रभा के प्रति आकर्षित करते है, यहाँ तक कि वह बहुत प्रेमासक्त हो जाता है। राजा का चारण उम घडी को शुभमुहूर्त वताता है और पुरोहित लोग वैवाहिक मत्रोच्चार करने लगते है । गोघ्र ही विदूपक इम वात को घोपित करता है कि राजा जंत्र तया रभा का शास्त्रानुकूल परिणय-मवध सपन्न हो गया । उम समय आनन्दमगल होने लगते है। चारण प्रात काल होने की सूचना देता है । अन्य महिपियो के माय रभा अत पुर भेज दी जाती है, और राजा अपने प्रातकालीन नित्यकर्म में लग जाता है। २ रभा से अलग हो जाने पर राजा उसके मौंदर्य का ध्यान करता हुआ उसके विरह मे व्याकुल हो जाता है। प्रतिहारी उद्यान के अनेक भाति के दृश्यो का वर्णन कर राजा के मन को बहलाने का प्रयत्न करता है, परन्तु राजा रमा के ही मवत्र में कुछ सुनने को उत्सुकता प्रकट करता है। कर्पूरिका राजा मे निवेदन करती है कि अत पुर में रभा वडे आनन्द मे है और वहाँ रानी राजीमती उमका विशेष ध्यान रखती है। कर्पूरिका इस वात का भी विश्वास दिलाती है कि राजा के प्रति रभा का गहरा प्रेम है । वह उसका प्रेमपत्र पढकर मुनाती है, जिसे रभाने गुप्तरूपेण राजा के पाम भेजा था। उमे मुनकर राजा अधिक काम-विह्वल हो उठता है। फिर विदूपक उसे अपना स्वप्न सुनाता है कि किस प्रकार विदूपक ने अपने को एक भ्रमर के रूप में देखा, और उसके बाद वह भ्रमर मे चदन वन गया, जिसका लेप रभा ने अपने कुचो के ऊपर लगाया और उन कुचो का राजा के द्वारा प्रालिंगन किये जाने पर वह किस प्रकार जाग पडा। विदूपक इस स्वप्न का मतलव यह निकालता है कि राजा शीघ्र ही रभा से भेंट कर सकेगा। राजा उससे उमी क्षण मिलने को आतुर हो उठना है। कर्पूरिका अगोक वृक्ष की एक डाल के महारे खडी हो जाती है और रभा को खिडकी में से होकर नीचे उतार लेती है। राजा और रभा मिलन का आनद उठाते है। कुछ समय के बाद पटरानी के आ जाने से दोनो पृथक् हो जाते है । ३ प्रेमविहल पटरानी राजा का स्वागत करती है । यथेष्ट आमोद-प्रमोद के बाद राजा रानी से प्रार्थना करता है कि वह इमी प्रकार रभा मे भी मिलना चाहता है। रानी अपनी स्वीकृति देकर गयनागार में चली जाती है। तदुपरान्त रमा प्रवेश करती है। राजा प्रेमपूर्वक उसका सत्कार करता है । शृगारपूर्ण काव्य-पक्तियो को आपस में गाते हुए दोनो अनेक भाति की काम-कलापो का आनद प्राप्त करते है। रात शीघ्र ही व्यतीत हो जाती है और प्रात कालीन वदीगण का म्वर सुनाई देने लगता है। रभा अत पुर को भेज दी जाती है और राजा अपने प्रात कालीन कृत्यो के करने में लग जाता है। नयचद्र नाटक में एक से अधिक बार इस बात की ओर सकेत करता है कि जैत्र, जय या जयतचद्र का प्रवव दिखाया जा रहा है, अत बहुत मभव है कि उसने इस कथानक को किसी प्रवध मे से लिया हो। किसी अज्ञात लेखक 'ज्ञातव्य पक्तियां इस प्रकार है पत्त तम्मि दसण्णगेसु पवलं ज खप्पराण वल, जित्त झत्ति पियामहेण पहुणा जेत्त ति नाभं तो। १, ४३। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ प्रेमी - श्रभिनवन-प्रथ का लिखा हुआ एक प्राचीन प्रवध' उपलब्ध हुआ है, जिसमें निम्नलिखित मार्के की बातें मिलती है 'विजयचंद्र का लडका राष्ट्रकूट जैत्रचद्र कान्यकुब्ज देश मे वनारस का राजा था। उसकी रानी का नाम कर्पूरदेवी था तथा उसने एक गालापति की पुत्री सुहागदेवी से भी विवाह किया था । वगाल के राजा लक्ष्मणसेन तथा कल्याणकटक के परमर्दि को जैत्रचद्र ने पददलित किया। कविचद ने उसकी वडी प्रशसा की थी। जब जैन ने सुहागदेवी के लडके को अपना राज्य देने से इन्कार कर दिया तब सुहागदेवी ने सुरत्राण सहावदीन से महायता प्राप्त की। पृथ्वीराज ने सहाब्दीन का मुकाविला किया और योगिनीपुर में युद्ध हुआ। अपने शत्रु पृथ्वीराज की हार सुनकर जैत्रचद्र प्रसन्न हुआ, परन्तु उसके मंत्री को सन्देह हो गया कि सहावदीन उसके राज्य पर भी हमला करेगा। अपनी दूसरी चढाई में सुरत्राण स० १२४८ चैत्र शु० १० को बनारस आ धमका और उसने जैत्रचद्र पर विजय प्राप्त की । जैत्र यमुना नदी में डूब कर मर गया और उसका वडा बेटा युद्ध में काम आया । सुरत्राण ने पति को धोका देने के कारण सुहागदेवी के प्रति भी अपमानजनक व्यवहार किया और उसके लडके को तुरुष्क बना लिया ।' मेरुतुग' ने अपने 'प्रवघ चितामणि' ग्रंथ में लिखा है कि काशी का जयचद्र, जो एक साम्राज्य का अधीश्वर 'प्राज्यसाम्राज्यलक्ष्मी पालयन्' था, 'पगु' कहलाता था। उसने एक शालापति की पुत्री सूहवा से विवाह किया था । उससे उत्पन्न पुत्र को युवराज उत्तराधिकारी न मानने पर सूहवा ने म्लेच्छो अथवा तुरुष्को को वाराणसी पर चढाई करने के लिए आमंत्रित किया । जब नगरी को उन लोगो ने घेर लिया तव राजा ने सूहवा के पुत्र को अपने हाथी के ऊपर विठा दिया और स्वयं यमुना की धारा में डूब गया । 'राजशेखर' ने अपने प्रवधकोश नामक ग्रंथ में श्रीहर्षं प्रवन्ध के अन्तर्गत गोविंदचद्र के पुत्र जयतचद्र के विषय में इस प्रकार लिखा है कि वह बनारस का राजा था और 'पगुल' नाम से प्रसिद्ध था । उसने सूहवदेवी नामक एक कम तरुण और सुदरी विधवा से विवाह किया, जो पहले कुमारपाल के राज्य अणहिलपट्टन में रहने वाले शालापति की पत्नी थी। राजा जयतचद्र ने जब यह तय कर लिया कि राज्य का उत्तराधिकारी सूहवा के बेटे को न बनाकर कुमार मेघचद्र को बनाया जायगा तब सूहवादेवी क्रुद्ध हो उठी और उसने तक्षशिला से सुरत्राण को वनारस पर हमला करने के लिए ग्रामंत्रित किया । जयत युद्ध में पूर्ण रूप से परास्त हो गया और उसका राज्य शत्रु ने छीन लिया । जयचंद्र के पिता का नाम क्या था, इस पर सब प्रबंध एक मत नही है और न उनमे से कोई नयचद्र के ही कथन से सहमत है । आघुनिक इतिहास लेखकों ने इन राजाओ का वशक्रम इस प्रकार रक्खा है - गोविदचद्र ( ल० १११४ - ११५५ ई० ) । विजयचद्र ( ल० १९५५ - ११७० ई० ) । जयचंद्र ( ल० ११७०-११९३ ई० ) । इस क्रम के अनुसार कहा जा सकता है कि या तो प्रवघकोश में जय और विजयचद्र के नामी को एक मान कर गडबडी पैदा कर दी गई है या अधिक सभव है कि विजयचंद्र का नाम भूल या प्रमादवश छोड दिया गया हो । रभामजरी से हमको यह भी मानना पडता है कि विजयचंद्र का दूसरा नाम मल्लदेव था । उसकी सात रानियो तथा प्राठवी रभा की वावत, जिनका वर्णन नयचद्र ने किया है, प्रबंधो में कोई उल्लेख नही मिलता। एक प्रबंध मे एक रानी का नाम कर्पूरदेवी मिलता है, परन्तु रभामजरी में कर्पूरिका एक दासी का नाम श्राता है । जैत्रचद्र वनारस का प्रतापी शासक था और उसकी उपाधि 'पगु' थी, ये दोनो बातें दोनो प्रवघग्रथो में मिलती है । पहले प्रबध मे उपाधि नही दी हुई है १ 'पुरातन प्रबंध सग्रह, सपा० जिनविजय जी, सिंधी जैन प्रथमाला, २, कलकत्ता, १९३६, पृ० ८८-० जिनविजय जो द्वारा सिंघी प्रथमाला में प्रकाशित, शांतिनिकेतन, १६३३, पृ० ११३ - ११४ 1 जिनविजयजी द्वारा सिंधी प्रथ० 'प्रका०, शातिनिकेतन, १६३५, पृ० ५४-५८ ४ 'एच० सी० राय-दि डाइनेस्टिक हिस्ट्री ऑॉव नार्दर्न इन्डिया, भाग १, पृ० ५४८, कलकत्ता, १६३१ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयचद्र और उनका 'प्रथ रभामजरी' ४१५ यद्यपि अन्य अनेक वाते ममानस्प से पाई जाती है । रभामजरी मे तथा दोनो प्रवघो मे 'पगु' उपाधि की व्याख्या करीवकरीव एक ही ढग से की गई है । अत यह वात स्पष्ट हो जाती ह कि नयचद्र का नायक वही है, जिसका नाम प्रवधो में जैत्रचद्र दिया हुआ है। किन्तु नयचद्र ने 'कर्पूरमजरी के ढग पर अपने सट्टक को सुन्दर बनाने के लिए उसके कथानक मे कुछ अन्य वातें जोड दी है । रभामजरी का नायक, जैसा हम ऊपर सकेत कर चुके है, राजा जयचद ही है, जिसे गहड़वाल वश का अतिम शासक कह सकते है, जिसने बनारस को अपना प्रधान निवास स्थान बनाया था और जिसे मुहम्मद गोरी (गिहावउद्दीन) ने परास्त किया था। इस बात का पता नहीं चलता कि लाट का मदनवर्मन् कौन था। सभव है कि नयचद्र ने किसी चदेल राजा का, जिसका नाम मदनवर्मन् या, यहाँ उल्लेख किया है । नयचद्र का यह कथन कि जैवचद्र ने मदनवर्मन् के राज्य पर अपना अधिकार जमाया, शायद प्रवधो के उम वर्णन के आधार पर है जिममें जयचद को मदनवर्मन् के उत्तराधिकारी परमर्दि को परास्त करने वाला कहा गया है। नयचद्र राजशेखर की कर्पूरमजरी (क० म०)का उल्लेख करता है और इस बात का दावा करता है कि उसकी रभामजरी (र०म०) एक प्रकार मे कर्पूरमजरी से भी श्रेष्ठतर है । र० म० मे अनेक बातो में क० म० का अनुकरण दिखाई पडता है। वसत का दृश्य, जिसका वर्णन राजा, रानी तथा चारण लोग करते है, विदूषक तथा दासी का हास्यकलह, जिसमें विदूपक अपने को परपराधिगत विद्वान लगाता है, तथा प्रकृति-वर्णन जिसके द्वारा द्वारपाल राजा के विग्ह-विन्न चित्त को बहलाने का प्रयत्न करता है ये सब वातें हमको क० म० के तादृश दृश्यो को याद दिलाती है। कुछ भाव भी दोनो मट्टको मे एक मे है, केवल कही-कही थोडाअतर है। दोनो मे विदूपक एक विलक्षण स्वप्न देखता है। अशोक, वकुल, तथा कुरवक वृक्षो के वर्णन दोनो में राजा के कामोद्वेग को बढाने के लिए किये गये है। दोनो ग्रथो में प्रेम-पत्रो की लेखन-प्रणाली भी एक जैसी है। यहाँ तक कि दोनो में कई जगह एक से ही वाक्यो का प्रयोग मिलता है (मिलाइये क० म० २, ११, और र० म० १, ४०, क० म० १, ३२-३४, तथा र० म० १, ४६)। क० म० में कथानक बहुत सक्षिप्त है, परन्तु र० म० मे तो नहीं सरीखा ही है । नयचद्र के प्राकृत छदो में वह प्रवाह नहीं है, जो राजशेवर के छदो में है। संस्कृत भाषा पर नयचद्र का अच्छा अधिकार है और उनके सस्कृत के कुछ मुन्दर छद (३, ३-४) वास्तव में उनकी काव्य-कुशलता को सूचित करते है। नाटक की दृष्टि मे र० म० को सफल नहीं कहा जा सकता। एक सभ्य-दर्शक-समुदाय के सामने रगमच पर किसी राजा के द्वारा अपनी दोगनियो के सहित एक के बाद दूसरी के साथ काम-क्रीडा का दश्य दिखाना कहाँ तक सगत हो सकता है । प्रेमोल्लास के कथनो में गभीरता और सयम का विचार नही रक्खा गया। ये कथन मकेतमात्र होने की अपेक्षा भावो का खुल्लमखुल्ला प्रदर्शन करने वाले है। यह देख कर आश्चर्य होता है कि कहीं-कही नाट्यकार पात्रो के द्वारा कथनोपकथन आदि न करा कर रगमच के बाहर उन पात्रो के चरित्र की विवेचना करने लगता है (२, १८-२०, ३, ७, २१)।। पूना की हस्तलिखित प्रति में शायद और उसी के आधार पर रभामजरी की छपी हुई प्रति में उसे नाटिका लिखा गया है (समाप्ता रम्भामजरी नाम नाटिका)। नयचद्र ने र० म० को सट्ट या सट्टक कहा है (१, १९) । तीन यवनिकान्तरो में नाटक समाप्त हो जाता है, किन्तु राजा की यह महत्त्वाकाक्षा कि वह चक्रवर्ती सम्राट् होगा अत मे पूर्ण नही मिलती, यद्यपि पहले यवनिकान्तर में राजा और रभा का परिणय तथा दूसरे और तीसरे मे दोनो की प्रेमक्रीडायो का वर्णन पूर्ण मिलता है। अत या तो नाटक अधूरा रह गया है या नाटककार ने प्रारभ में सूत्रधार के मुख से कहलाये हुए इस कथन को कि राजा चक्रवर्ती होगा, योही छोड दिया है । नाटक का तीन यवनिकान्तरो के बाद एक दम से ठप हो जाना तथा भरत-वाक्य का न होना भी इसी बात को सूचित करते है कि नाटक अधूरा रह गया है। 'यह नाम 'विद्धशालभजिका' में प्रयुक्त लाट के राजा चद्रवर्मन की याद दिलाता है। Page #451 --------------------------------------------------------------------------  Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत और संस्कृत पंचसंग्रह तथा उनका आधार श्री हीरालाल जैन सिद्धान्तशास्त्री वर्तमान जैन साहित्य में 'पचमग्रह' नाम के तीन ग्रन्य उपलब्ध है, जिनमें दो दिगम्बर अथ है और एक श्वेताम्बर। श्वेताम्बर पचमग्रह चन्द्रपि महत्तर ने पूर्वाचार्यों द्वारा रचे गये शतक, मप्नतिका, कपायाभूत, सत्कर्मप्राभूत और कर्मप्रकृति नामक पांच ग्रन्यो के आधार पर प्राकृत गाथानो मे रचा है और उसकी एक सस्कृत टीका भी स्वय रची है, जो कि मुक्ताबाई ज्ञानमदिर डभोड (गुजरात) से प्रकाशित हो चुकी है । दोनो दिगम्बर पचसग्रहों में से सस्कृत पचमग्रह अमितगति प्राचार्यकृत है और 'माणिकचद ग्रन्यमाला' मे प्रकाशित हो चुका है। प्राकृत पचसग्रह किसी अज्ञात आचार्य की रचना है और यह ग्रन्य अभी तक अप्रकाशित है। इन दोनो दिगम्बर पचमग्रहो के मिलान करने पर यह बात स्पष्ट रूप से ज्ञात हो जाती है कि प्राकृत पचसग्रह को सामने रखकर ही प्राचार्य अमितगति ने मस्कृत पचसग्रह को रचना की है । दोनो ही पचमग्रहो मे १ जीवममास, २ प्रकृतिसमुत्कीर्तन, ३ कर्मवन्वस्तव, ४ शतक और ५ सप्ततिका नाम के पांच प्रकरण है। प्रयम के तीन प्रकरणो मे अपने नामो के अनुरूप विषयो की चर्चा की गई है। चौथे और पांचवें प्रकरणो के नाम दोनो ही पचमग्रहकारोने किम दृष्टि से रखे है, यह बात सहसा ज्ञात नही होती-विशेषकर उस दशा में जव कि दोनो ही पचमग्रहो में उक्त प्रकरणो की पद्यमख्या क्रमश ३७५, ५१८ और ४५०, ५०२ है। आगे चल कर उनके नामकरण पर विशेष प्रकाश डाला जायगा। (१) संस्कृत पंचसंग्रह का आधार क्या है ? सर्वप्रथम यहां कुछ ऐसे अवतरण दिये जाते है, जिनसे दोनो दिगम्बर पचसग्रहो का आधाराधेयपना निर्विवाद माना जा सके। दिगम्बर प्राकृत और सस्कृत पंचसग्रह की तुलना प्रथम जीव-समास प्रकरण में से छद्दव्व णव पयत्ये दवाइ चउन्विहण जाणते । वदित्ता अरहते जीवस्स परूवण वोच्छ ॥१॥ प्राकृतपचस० ये पट् द्रव्याणि बुध्यन्ते द्रव्यक्षेत्रादिभेदत । जिनेशास्तास्त्रिया नत्वा करिष्ये जीवरूपणम् ॥३॥ सस्कृतपचस० सिक्खा किरिअोवएसा पालावगाही मणोवलवेण। जो जीवो सो सण्णी तब्धिवरीमो असण्णी य ॥१७३॥ प्राकृतपच० शिक्षालापोपदेशाना ग्राहको य समानस । स सज्ञी कथितोऽसज्ञी हेयादेयाविवेचक ॥३१९॥ सस्कृतपच० Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ प्रेमी - अभिनवन - प्रथ द्वितीय प्रकृति समुत्कीर्तन प्रकरण मे से १ पर्याsविवषणमुक्क पर्याsसरूव विसेसदेसयर । पणविय वीरजिदि पर्याडिसमुक्कित्तण वृच्छ ॥ १॥ प्राकृतपच० यो ज्ञात्वा प्रकृतीदेवो दग्घवान् त प्रणम्य महावीर क्रियते ध्यानवह्निना । प्रकृतिस्तव ॥ १ ॥ सस्कृतपच० २ साइयरं वेदा विय हस्सादि चउक्क पच जाईश्रो । सठाण घडण छ छक्क चउक्क प्राणुपुथ्वी य ॥११॥ इचउ दो य सरीर गोय च य दोणि श्रगवगा य । दह जुवलाणि तसाई गयणगइदुग विसिद्वपरिवत्ता ॥ १२ ॥ प्राकृतपच० द्वे वेद्ये गतयो हास्यचतुष्क द्वे नभोगती । षट्के संस्थान --सहत्योर्गोत्रे वैक्रियिकद्वयम् ॥४५॥ agoकमानुपूर्वीणा दश युग्मानि जातय । प्रौदारिकद्वय वेदा एता सपरिवृत्तय ॥ ४६ ॥ सस्कृतपच० तृतीय कर्मबन्धस्तव प्रकरण में से १ कचणरूपदवाण एयत्त जेम प्रणुपवेसो ति । श्रोणपवेसाण तह बध परस्परप्रदेशाना प्रवेशो एकत्वकारको बंधो जीवकम्माण ||२|| प्राकृतपच० जीवकर्मणो' । रुक्म - काचनयोरिव ॥ ६ ॥ संस्कृतपच ० २ छिज्जह पढम बघो कि उदग्रो किच दो विजुगव किं । कि सोदएण वधो कि वा श्रण्णोदएण उभएण ॥ ६६ ॥ सातरणिरतरो वा कि वा वधो हवेज्ज उभय वा । एव णवविपन्ह कमसो वोच्छामि एव तु ॥ ६७॥ प्राकृतपच० कि प्राक् विच्छिद्यते बन्धः किं पाक. किमुभी समम् । किं स्वपाकेन वषोsन्यवाकेनोभयथापि किम् ॥७८॥ सान्तरोऽनंतर किं कि बंधो द्वेधा प्रवर्तते । इत्येव नवधा प्रश्नक्रमेणास्त्येतदुत्तरम् ॥७६॥ सस्कृतपच० Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत और सस्कृत पचसग्रह तथा उनका प्राधार चतुर्थ शतक प्रकरण मे से सुणह इह जीवगुणसण्णिएसु ठाणेसु सारजुत्तायो । वोच्छ कदिवइयाओ गाहामो दिट्टिवादाओ ॥३॥ प्राकृतपच० दृष्टिवादादपोवृत्य वक्ष्यन्ते सारयोगिनः । श्लोका जीवगुणस्यानगोचरा कतिचिन्मया ॥२॥ सस्कृतपच० तिरियगईए चोद्दस हवति सेसासु जाण दो दो दु। मग्गणठाणस्सेव णेयाणि समासठाणाणि ॥६॥ प्राकृतपच० तिर्यग्गतावशेषाणि द्वे सझिस्थे गतित्रये । जीवस्यानानि नेयानि सन्त्येव मार्गणास्वपि ॥५॥ सस्कृतपच० उम्मग्गदेसो सम्मग्गणासो गूढहिययमाइल्लो। सढसोलो य ससल्लो तिरियाउ णिवधए जीवो ॥२०७॥ प्राकृतपच० उन्मार्गदेशको मायी सशल्यो मार्गदूषक । आयुरर्जति तैरश्च शठो मूढो दुराशय ॥७॥ सस्कृतपच० पयडी एत्य सहावो तस्स प्रणासो ठिदी होज्ज । तस्स य रसोऽणुभानो एत्तियमेत्तो पदेसो दु॥५१०॥ प्राकृतपच० स्वभाव प्रकृतिज्ञेया स्वभावादच्युति स्थिति । अनुभागो रसस्तासा प्रदेशोंऽशावधारणम् ॥३६॥ सस्कृतपच० एसो वधसमासो पिंडक्खेवेण वणिो किं चि। कम्मप्पवादसुयसायरस णिस्सदमेत्तो दु॥५१६॥ बधविहाणसमासो रइयो अप्पसुयमदमदिणा हु। तं वय-मोक्खकुसला पूरेदण परिकहेतु ॥५१७॥ प्राकृतपच० कर्मप्रवादाम्बुधिबिन्दुकल्पश्चतुर्विधो बघविधि स्वशक्त्या। सक्षेपतोय कथितो मयाऽसौ विस्तारणीयो महनीयबोध ॥३७३॥ सस्कृतपच० पचम सप्ततिका प्रकरण में से णमिऊण जिणिदाण वरकेवललद्धिसुक्खपत्ताण । वोच्छ सत्तरिभग उवइट्ठ वीरणाहेण ॥१॥ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ सिद्धपदेहि महत्थ बधोदयसतपयडिठाणाणि । वोच्छ सुण सखेवेण णिस्सद दिद्विवादादो ॥२॥ प्राकृतपच० नत्वाऽहमहतो भक्त्या घातिकल्मषघातिन । स्वशक्त्या सप्तति वक्ष्ये बधभेदावबुद्धये ॥१॥ बन्धोदयसत्त्वाना सिद्धपदैदृष्टिवादपाथोधे । स्थानानि प्रकृतीनामुद्धृत्य समासतो वक्ष्ये ॥२॥ संस्कृतपंच इगिवीस पणुवीस सत्तावीसढवीसमुगुतीस । एए उदयद्वाणा देवगइसजुया पच ॥१८॥ ___ २१२२।२७।२८।२६। प्राकृतपच० अस्त्येकपचसप्ताष्टनवाग्रा विशति. क्रमात् । नाम्नो दिवौकसा रीताबुदये स्थानपचकम् ॥२०॥ २१।२।२७।२८।२९ सस्कृतपच० अह सुठिय सयलजयसिहर अरयणिरुवमसहावसिद्धिसुख । अणिहमव्वाबाह तिरयणसार अणुहवति ॥५००। प्राकृतपच० रत्नत्रयफल प्राप्ता निर्वाध कर्मवर्जिताः। निर्विशति सुख सिद्धास्त्रिलोकशिखरस्थिता. ॥४७७॥ सस्कृतपच० उपरिलिखित अवतरणो से यह वात तो पूर्ण रूप से निश्चित हो जाती है कि अमितगति के पचमग्रह का आधार प्राकृत पचसग्रह है। यद्यपि यहां यह प्राशका की जा सकती है कि सभव है कि सस्कृत पचसग्रह को सामने रखकर प्राकृत पचसग्रह की रचना की गई हो, तथापि इसके विरुद्ध कितने ही प्रमाण है, जिनमे प्राकृत पचसग्रह ही पूर्वकालीन सिद्ध होता है। उनमें से सबसे बडा प्रमाण धवला टीका में इस ग्रथ की गाथाओ का 'उक्त च' के रूप में पाया जाता है। इतना ही नही, एक स्थल पर तो धवलाकार ने 'तह जीवसमासए वि उत्त' कह कर 'छप्पचणव विहाण' इत्यादि गाथा उद्धृत की है, जो कि स्पष्टत अपनी अन्य गाथाओ के समान प्राकृत पचसग्रह के जीवसमासनामक प्रथम प्रकरण की १५९वी गाथा है। (२) शतक और सप्ततिका नाम क्यों ? सस्कृत पचसग्रह की रचना प्राकृतपंचसग्रह के आधार पर हुई है, इतना स्पष्टत ज्ञात हो जाने पर भी यह सन्देह तो अवशिष्ट रहही जाता है किपचसग्रह के चौथे प्रकरण का नाम शतक और पांचवे का नाम सप्ततिका क्यो रक्खा गया? भारतीयसाहित्य मे पद्यसख्या के आधार पर अन्य के नाम रखने को प्राचीन परिपाटी अवश्य रही है मगर पचसग्रह के इन दोनो ही प्रकरणो की पद्यसख्या इतनी अधिक है कि सहसा वैसी कल्पना करने का विचार मन मे नही उठता। "देखो षट्खडागम, पुस्तक ४, पृष्ठ ३१५, उक्त पृष्ठ पर 'जीवसमासाएं' पाठ अशुद्ध छपा है, 'जीवसमासए पाठ ही वहा होना चाहिए। लेखक Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत और सस्कृत पचसग्रह तथा उनका प्राधार ४२१ पर प्राकृत पचसग्रह का गभीरता के साथ सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन करने पर कुछ गाथाएँ ऐसी अवश्य प्रतीत हुई, जो अर्थ का पिष्ट-पेषण या सामान्यत निरूपित वस्तु का विशेष निरूपण करने वाली थी। इन दोनो कारणो से हमने यह कल्पना की है कि मभव है कि इन दोनो प्रकरणो की मूल गाथाएँ क्रमश १०० और ७० रही हो, और इसी कारण उन प्रकरणो के क्रमश 'शतक' और 'सप्ततिका' नाम पडे हो । इस कल्पना को सामने रखकर जब हमने श्वेताम्बर सस्थाओ. से मुद्रित 'सतक' और 'सत्तरी' नामके दो प्रकरणो से मिलान किया तो इस बात में कोई सन्देह नहीं रह गया कि उक्त प्रकरणो की क्रमश १०० और ७० गाथानो को आधार बनाकर रचे गये होने के कारण ही पचसग्रहकार ने कृतज्ञता प्रकाशनार्थ उन दोनो प्रकरणो के वे ही नाम रख दिये है। यहाँ उक्त दोनो प्रकरणो मे से कुछ अवतरण दिये जाते हैं, जिनसे उक्त कल्पना असदिग्ध सिद्ध होती है। प्राकृत पचसग्रहकार ने उक्त दोनो प्रकरणो को ज्यो-का-त्यो अपना लिया है और दोनो ही प्रकरणो को समस्त गाथानो पर भाष्यगाथाएँ रची है, जिसका विशद ज्ञान तो मूलग्रन्य के प्रकाश में आने पर ही हो सकेगा। यहाँ 'शतक' और 'सप्ततिका' प्रकरण की गाथाम्रो को मूलगाया और पचसग्रहकार द्वारा रचित गाथाओ को भाष्यगाथा नाम देकर उल्लेख किया जाता है १ शतक प्रकरण मे से मूलगाथा-एयारसेसु ति त्ति य दोसु चउक्क च वारमेषकम्मि। जीवसमासस्सेदे उवनोगविही मुणेयव्वा ॥२०॥ इस गाथा का पचसग्रह के इस प्रकरण मे २०वां स्थान है और शतक प्रकरण में वाँ । इसके अर्थस्पष्टीकरण के लिए प्राकृत पचसग्रहकार ने १६ भाष्यगाथाएँ रची है, जिनमे से प्रारभिक दो गाथाएँ यहाँ दी जाती हैभाष्यगाथा-मइसुन अण्णाणाइ अचक्खू एयारसेसु तिण्णेव । चक्खूसहिया तेच्चिय चउरक्खे असण्णिपज्जत्ते ॥२१॥ मइ सुय प्रोहिदुगाइ सण्णि अपज्जत्तएसु उवोगा। सव्वे वि सण्णिपुण्णे उवश्नोगा जीवठाणेसु ॥२२॥ विषय के जानकार पाठक जान सकेंगे कि इन दो गाथानो में मूलगाथा के 'एयारसेसु तित्तिय दोसु चउक्क च' इतने अश का ही अर्थ व्याख्यात हुआ है। मूलगाथा--अविरय-अता दसय विरयाविरयतिया दु चत्तारि । छच्चेव पमत्तता एया पुण अप्पमत्तता ॥३०॥ भाष्यगाथा-विदियकसायचउक्क मणुयाऊ मणुयदुग य उराल । तस्स य अगोवग सघयणाई अविरयस्स ॥३१०॥ तइयकसायचउक्क विरयाविरयम्मि बधवोच्छिण्णो। साइयरमरइ सोय तह चेव य अथिरमसुह च ॥३१॥ अज्जसकित्ती य तहा पमत्तविरयम्हि बधवोच्छेदो। देवाउय च एय पमत्त-इयरम्हि णायव्वो ॥३१२॥ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ इन तीन भाष्यगाथाओ मे से प्रथम भाष्यगाथा द्वारा मूलगाथा के प्रथम चरण का, दूसरी गाथा के पूर्षि से द्वितीय चरण का, और उत्तरार्ध तथा तीसरी गाथा के पूर्व से तीसरे चरण का, तथा तीसरी गाथा के ही उत्तरार्द्ध से मूल गाथा के चौथे चरण का अर्थ-व्याख्यान किया गया है। इस प्रकार एक मूल गाथा का तीन भाप्यगाथायो से अर्थ स्पष्ट किया गया है । इस तरह उक्त गाथाओ में मूल गाथानो और भाष्यगाथाओ का भेद स्पष्ट दृष्टिगोचर हो जाता है। २ सत्तरी प्रकरण में से मूलगाथा-वावीसमेक्कवीस सत्तारस तेरसेव णव पच । चउ तिय दुय च एय बघट्टाणाणि मोहस्स ॥२५॥ भाष्यगाथा-मिच्छम्मियावावीसा मिच्छासोलह कसाय वेदोय।। हस्सा जुयलेकणिदा भएण विदिए दुमिच्छसद्णा ॥२६॥ पढमचउक्केणित्योरहिया मिस्से अविरयसम्मे य। विदिएणूणा देसे छठे तइऊण सत्तमद्वै य ॥२७॥ अरइ-सोएणूणा परम्मि पुर्वय-सजलणा। एगेगूणा एव दह द्वाणा मोहबधम्मि ॥२८॥ मूलगाथा-अट्ठसु पचसु एगे एय दुय दस य मोहवघगये। तिय चउ णव उदयगवे तिय तिय पण्णरस सतम्मि ॥२६२॥ भाष्यगाथा-सत्त अपज्जत्तेसु य पज्जत्ते सुहुम तह य अट्ठसु य । वावीस वधोदय सता पुण तिष्णि पढमिल्ला ॥२६॥ पचसु पज्जत्तेसु पज्जत्तयसणिणामग वज्ज। हेटिम दो चउ तिणि य बघोदयसतठाणाणि ॥२६॥ दस णव पण्णरसाई वधोदयसतपयडिठाणाणि। सण्णिपज्जत्तयाण सपुण्णा इत्ति बोहव्वा ॥२६॥ विषय से परिचित पाठक भलीभाति जान सकेंगे कि एक-एक मूलगाथा के अर्थ को किस प्रकार तीन-तीन भाष्यगाथाओ द्वारा स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार यह मानने में कोई भी सदेह नही रह जाता है कि प्राकृत पचसग्रहकार ने मूल प्रकरणो के नाम को अक्षुण्ण रखने के लिए ही वही के वही नाम दे दिये है और ये दोनो प्रकरण-ग्रन्थ ही पचसग्रह के चौथे-पांचवें सग्रह के आधार है। (३) शेष अधिकारों के आधारों की छानबीन । प्राकृत पचसग्रह के प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक द्वितीय प्रकरण का आधार स्पष्टत षट्खडागम की प्रकृतिसमुत्कीर्तन नाम की चूलिका है, जो कि मुद्रित षट्खडागम के छठवें भाग में सन्निहित है। इस चूलिका के समस्त Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत और सस्कृत पचसग्रह तथा उनका श्राधार ४२३ सूत्रो को यहाँ ज्यो-का-त्यो उठाकर रख दिया गया है । केवल जहाँ कही कहने मात्र को 'ज' या 'त' मे से कोई एक शब्द को छोड़ दिया गया है । इस विषय मे यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जिन्हें इसमें लेशमात्र भी सदेह हो, वे मूल से मिलान करके देख सकते है । प्राकृत पचसग्रह के प्रथम जीवसमाम और तृतीय कर्मप्रकृतिस्तव नामक प्रकरणो का श्राधार क्या है, यह अभी तक स्पष्टत ज्ञात नही हो सका । सभव है कि ये दोनो प्रकरण प्राकृत पचसग्रह के कर्ता ने स्वतंत्र ही रचे हो और यह भी सभव हो सकता है कि इन दोनो प्रकरणो की बहुत सी गाथाएँ प्राचार्य - परपरा से चली आ रही हो और प्राकृतपचसग्रहकार ने उन्हे सुव्यवस्थित रूप से इस ग्रन्थ मे निवद्ध या सग्रह कर दिया हो, क्योकि 'पच सग्रह' इस नाम से उक्त बात की ध्वनि निकलती है । फिर भी इतना तो निर्विवाद कहा ही जा सकता है कि 'बघस्वामित्व' और 'बघविधान' ये दोनो खड षट्खडागम में आज भी उपलब्ध है और बहुत सभव है कि पचसग्रहकार ने इन दोनो के आधार पर इन दोनो प्रकरणो की स्वतंत्र पद्य रचना की हो। इन दोनो प्रकरणो का सीधा सबध किस-किस ग्रथ से रहा है, यह बात श्रद्यापि श्रन्वेषणीय ही है । ( ४ ) प्राकृत पंचसंग्रह का कर्त्ता कौन ? प्रस्तुत ग्रन्थ के श्राधार-सवधी इतनी छानवीन कर चुकने के बाद अब प्रश्न उठता है कि प्राकृत पचसग्रह का रचयिता या सग्रहकार कौन है ? पर्याप्त अन्वेषण करने के बाद भी अभी तक उक्त ग्रन्थ के रचयिता के विषय में कुछ भी निर्णय नही किया जा सका, हालाकि दो-एक आचार्यों के अनुमान के लिए कुछ प्रमाण अवश्य मिले है, पर जब तक इस विषय के काफी स्पष्ट और पुष्ट प्रमाण नही मिल जाते तब तक उनके नाम का उल्लेख करना उचित नही । ( ५ ) प्राकृत पंचसंग्रह का निर्माण-काल यद्यपि जब तक ग्रन्थकार के नाम का निर्णय नही हो जाता है तब तक उसके रचना-काल का निर्णय करना भी कठिन कार्य ही है, तथापि एक बात तो सुनिश्चित ही है कि यह ग्रन्थ मूल 'शतक' प्रकरण के पीछे रचा गया है । मूल 'शतक' प्रकरण के रचयिता श्राचार्य 'शिवशर्म' है, जैसा कि इस ग्रन्थ की चूर्णि बनानेवाले अज्ञात नामधेय आचार्य ने अपनी चूर्णि का प्रारंभ करते हुए लिखा है - 'केण कय सतग पगरण ति ? शब्द- तर्क- न्यायप्रकरण-कर्मप्रकृतिसिद्धान्तविजाणएण श्रणेगवायसमालद्धविजएण शिवसम्मायरियणामधेज्जेण कय ति । कि परिमाण ? माहापरिमाणेण सयमेत्त ।' आचार्य शिवशर्मं का समय यद्यपि श्रद्यावधि सुनिश्चित नही हो सका है, तथापि विद्वानो ने विक्रम की पाँचवी शताब्दी में होने का अनुमान किया है । इसलिए शिवगर्म श्राचार्य के पश्चात् और घवला दोका के कर्ता आचार्य वीरसेन के पूर्व किसी मध्यवर्ती काल मे प्राकृतपचसग्रह का निर्माण हुआ है, इतना अवश्य सुनिश्चित हो जाता है । धवला टीका की समाप्ति का काल शक स० ७३८ है । चौरासी, (मथुरा) ] Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री हरिभद्रसूरि और उनकी समरमयङ्का कहा मुनि पुण्यविजय जो इच्छइ भवविरह, भवविरह को न बघए सुयणो । समयसयसत्यकुसलो, समरमियङ्का कहा जस्स ॥ दाक्षिण्या प्राचार्य श्री उद्योतनसूरि महाराज ने अपनी प्राकृत कुवलयमाला कथा के प्रारम्भिक प्रस्तावनाग्रन्थ में अनेक प्राचीन मान्य आचार्य और उनकी कृतियों का स्मरण किया है और इम प्रसग में उन्होने आचार्य श्री हरिभद्रसूरि, (जिनको, विरह अक होने से विरहाक प्राचार्य माना जाता है) और उनकी समरमयङ्का कहा का भी स्मरण किया है । यही उल्लेख मैंने इस लेख के प्रारम्भ में दिया । इस उल्लेख को देखते हुए पता चलता है कि आचार्य श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने समरमयङ्का कहा नाम का कोई कथाग्रन्य वनाया था । आचार्य श्री हरिभद्रसूरि की कृतिरूप प्राकृत कथाग्रन्थ समराइच्च कहा मिलता है, परन्तु समरमया कहा ग्रन्थ तो आज तक कही देखने या सुनने में नही आया है । श्रत यह गन्य वास्तव में कौन ग्रन्थ है, इस विषय की परीक्षा इस अतिलघु लेख में करना है । मुझे पूरा विश्वास हो गया है कि प्राचार्य श्री उद्योतनसूरि जी ने समराइच्च कहा को ही समरमयङ्का कहा नाम से उल्लिखित किया है। प्रश्न यह उपस्थित होगा कि - समराइच्चकहा इस नाम मे ममर + श्रइच्च गब्द है तव समरमियका नाम में समर + मियका शब्द है । प्रइन्च का अर्थ सूर्य है तव मियक - (स० मृगाख) का प्र प्रचलित परिभाषा के रूप मे चन्द्र होता है । अत समराइच्च और समरमियक ये दो नाम एक रूप कैसे हो सकते है ? और इसी प्रकार समराइच्चकहा एव समरमियका कहा ये दो ग्रन्थ एक कैसे हो सकेंगे ? इस विवादास्पद प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है जैन प्रतिष्ठाविधि के ग्रन्थो को देखने से पता चलता है कि एक जमाने में चन्द्र की तरह श्रादित्य-सूर्य को भीगा, मृगाक आदि नाम से पहचानते थे । जैन प्रतिष्ठाविधान आदि के प्रसग में नव ग्रहो का पूजन किया जाता है । इसमें नव ग्रहो के नाम से अलग-अलग मन्त्रोच्चार होता है । इन मन्त्रो में सूर्य का मन्त्र आता है वह इस प्रकार है “ॐ ह्रीं शशाङ्क सूर्याय सहस्रकिरणाय नमो नमः स्वाहा ।" आदित्य को 'शशाङ्क' इस प्राचीनतम मन्त्र मे सूर्य या विशेषण दिया गया है। इससे पता चलता है कि एक जमाने में चन्द्र की तरह सूर्य को भी शगाक, मृगाङ्क आदि नाम से पहचानते थे। अधिक सम्भव है कि इसी परिपाटी का अनुसरण करके ही आचार्य श्री उद्योतनसूरि ने अपने कुवलयमाला कहा ग्रन्थ की प्रस्तावना में समराइच्च कहा ग्रन्थ को ही समरमयङ्का कहा नाम से उल्लिखित किया है । इस प्रकार मुझे पूर्ण विश्वास है कि समराइच्च कहा और समरमयता कहा ये दोनो एक ही ग्रन्थ के नाम है । अहमदाबाद ] Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भगवती आराधना' के कर्ता शिवार्य श्री ज्योतिप्रसाद जैन एम० ए०, एल-एल० बी० आराधना, मूलाराधना अथवा भगवती पागधना नामक ग्रन्थ मुनियो के प्राचार का एक प्रसिद्ध लब्धप्रतिष्ठ प्राचीन प्राकृत ग्रन्य है । इसके मूल रचयिता प्राचार्य शिवार्य थे। अनेक प्राकृत एव सस्कृत टीकाएँ इस ग्रन्थ पर रची गई, जिनमें से कितनी ही आज भी उपलब्ध है। अनन्तकीर्ति ग्रन्थमाला बम्बई से प्रकाशित 'भगवती आराधना' की श्रद्धेय प० नाथूराम जी प्रेमी कृत भूमिका तथा प्रेमी जी के तत्सम्बन्धी अन्य लेखो तथा 'आराधना और उसकी टीकाएं', 'यापनीय साहित्य की खोज इत्यादि मे उक्त ग्रन्थ के अन्त करण, उसकी विभिन्न टीकामो एव टीकाकारो के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी प्राप्त हो जाती है, किन्तु मूल लेखक के विषय मे, जितना कि वे अपने ग्रन्थ में स्वय प्रकट करते है, उससे अधिक विशेष ज्ञान नहीं होता। ग्रन्थ के अन्त में २१६१ से २१६६ पर्यन्त गाथानो मे ग्रन्थकार प्राचार्य ने अपना जो निजी परिचय दिया है, वह इस प्रकार है-"आर्यजिननन्दिगणि, आयंसर्वगुप्तगणि, प्रार्यमित्रनन्दिगणि के चरणो के निकट जल सूत्रो और और उनके अर्थ को अच्छी तरह समझ कर पूर्वाचार्यों द्वारा निवद्ध की हुई रचना के आधार से पाणितलभोजी शिवार्य ने यह आराधना स्वशक्त्यनुसार रची है। अपनी छमावस्था अथवा ज्ञान की अपूर्णता के कारण इसमे जो कुछ प्रवचन-विरुद्ध लिखा गया हो, उम पदार्थ को भली प्रकार समझने वाले प्रवचन वात्सल्य के भाव से शुद्ध करले । इस प्रकार भक्तिपूर्वक वर्णित भगवती आगधना सघ तथा शिवार्य को उत्तम समाधि प्रदान करे। इत्यादि।" उपर्युक्त गाथानो मे इतना ही स्पष्ट है कि 'भगवती आराधना' के कर्ता पाणितलभोजी-अत एक दिगम्बर जैनाचार्य-गिवार्य थे। उनके शिक्षागुरु प्रायजिननन्दिगणि, आर्यसर्वगुप्तगणि तथा आर्यमित्रनन्दिगणि थे। इनके दीक्षागुरु इन्ही तीन प्राचार्यों में से कोई एक थे अथवा अन्य कोई प्राचार्य थे, यह निश्चित नहीं है । ग्रन्थ का आधार तद्विषयक मूलसूत्र एव पूर्वाचार्यों द्वारा निबद्ध कतिपय रचनाएँ थी। ग्रन्थ की अनेक प्राकृत-सस्कृत टीकामो मे अपराजितसूरि कृत 'विजयोदया', दूसरी अमित गत्याचार्य कृत (११वी शताब्दी) तथा तीसरी प० प्रागाधर जी कृत (१३वी शताब्दी) विशेष प्रसिद्ध है। इनमें से अपराजित सूरि की विजयोदया टीका सबसे प्राचीन है। श्रद्धेय प्रेमी जी के अनुमानानुसार वह पाठवी शताब्दी विक्रम के पूर्व की ही है, किन्तु अपराजितसूरिके सम्मुख भी इम ग्रन्यकी अन्य प्राकृत-सस्कृत टीकाएँ मौजूद थी और प्राकृत टीकारो का समय छठी शताब्दी के लगभग समाप्त हो जाता है। अत अन्य की सर्व प्राचीन प्राकृत टीका कम-से-कम छठी शताब्दी की अवश्य रही होगी और इस प्रकार मूल ग्रन्थ का रचना काल भी ईस्वी सन् पाँचवी, छठी शताब्दी के पूर्व का ही होना चाहिए। वास्तव में कुछ प्रमाण इस प्रोर सकेत करते है कि यह रचना सम्भवत ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी की होनी चाहिए। यह ग्रन्थ दिगम्बर सम्प्रदाय मे प्रारम्भ से ही बहुमान्य रहा है और इसकी प्राय सब उपलब्ध टीकाएँ दिगम्बराचार्यों द्वारा ही रची हुई है। लेखक का 'पाणितलभोजी' विशेषण भी उनका श्वेताम्बर साधु न होकर दिगम्बर मुनि होना ही सूचित करता है, परन्तु प्रचलित दिगम्बर मान्यताओ के कुछ विरोधी विचार भी उसमे 'जैन साहित्य और इतिहास, पृ० २३ तथा अनेकान्त वर्ष १, पृ० १४५, २०६ अनेकान्त वर्ष ३, पृ० ५६ ५४ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ प्रेमीअभिनदन-प्रय मिलते है। वास्तव में गिवार्य की विचारधारा न श्वेताम्बर ही थी और न पूर्णत दिगम्बर ही, वरन् वह एक तीसरे ही जनसम्प्रदाय-यापनीय सच'-की ही मान्यताप्रो के अनुकूल एव अधिक निकट प्रतीत होती है। पूज्य प्रेमी जी ने यह भलीभति मिद्ध कर दिया है कि 'आराधना' के प्रसिद्ध प्राचीन टीकाकार अपराजितमूरि यापनीय ही थे और मानवी शताब्दी ई. के वैयाकरण शाकटायन भी, जिन्होने शिवार्य के गुरु सर्वगुप्तका ससम्मान उल्लेख किया है, यापनीय थे।' ऐमी दशा में शिवार्य का म्वय का भी यापनीय सघ से सम्बन्ध होना कोई आश्चर्य की बात नही। देवसेनाचार्य कृत 'दर्शनसार' के अनुसार यापनीय संघ की स्थापना विक्रम सवत् १४८ (सन् ६१ ई०) में श्री कलग नामक आचार्य ने की थी। इसके दस-यारह वर्ष पूर्व सन् ७६ अथवा ८१ ई० मे, दिगम्वर-श्वेताम्बर दोनो ही मम्प्रदायो की अनुश्रुति के अनुसार, उक्त दोनो सम्प्रदायो के बीच का भेद पुष्ट हो चुका था और उनकी एक दूसरे से पृथक् स्वतन्त्र सत्ता स्थापित हो चुकी थी। यापनीय सघ के प्राथमिक आचार्य इन दोनो ही सम्प्रदायो में मान्य थे। अत इसमे कोई मन्देह नही रह जाता कि ईस्वी पूर्व की अन्तिम शताव्दियो मे, जहाँ एक ओर दिगम्वरश्वेताम्बर मनभेद चल रहे थे, वहाँ दूसरी ओर एक स्वतन्त्र विचारधारा इन दोनो के समन्वय में प्रयत्नशील थी, किन्तु जब प्रथम शताब्दी के उत्तरार्व में वह मतभेद स्थायी रूप से प्रकट हो गया और इस प्रकार समन्वय का प्रयत्न विफल हो गया तो वह तीसरी विचारवारा भी एक स्वतन्त्र आम्नाय के रूप में परिणत हो गई। भगवती आराधना के कर्ता शिवार्य, समन्वय मे प्रयत्नशील इस तीसरी विचारधारा के ही प्रतीक थे, किन्तु उनकी रचना में यद्यपि यापनीय सघ की मान्यताओ के वीज मौजूद है, फिर भी वह स्वय उक्त सघ की वि० स० १४८ में स्थापना के पूर्व ही हो गये प्रतीत होते है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, आराधना मे ईस्वी सन् के प्रारम्भ के पश्चात् होने वाले किसी प्राचार्य का कोई उल्लेख नही है, किन्तु उसमें अन्यकर्ता ने अपने उपरिवणित तीन गुरुयो के अतिरिक्त भद्रवाहु आचार्य का स्मरण किया है, और इन भद्रबाहु के 'घोर अवमौदर्य से सक्लेश रहित उत्तम पद प्राप्ति' का ऐसा वर्णन है, जो शिवार्य और भद्रवाहु की सामयिक निकटता को सूचित करता प्रतीत होता है। यह भद्रबाहु चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व मे होने वाले भद्रबाहु (प्रथम) श्रुतकेवलि तो हो ही नहीं सकते, क्योकि उनके सम्बन्ध मे ऐसी कोई बात उनके विषय में रचे गये चारित्र ग्रन्थो, अन्य साहित्य, उल्लेखो, शिलालेख आदि में कहीं भी उपलब्ध नही होती। दूसरे चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व मे जैन ग्रन्थ-रचना के भी कोई प्रमाण अभी तक उपलब्ध नहीं हुए है और इन भद्रवाह के पश्चात् ही दिगम्बर-श्वेताम्वर मतभेद का सर्वप्रथम बीजारोपण हुआ था। ममन्वय का प्रयत्न इतना शीघ्र प्रारम्भ हुआ प्रतीत नही होता। दूसरे भद्रवाहु ईस्वी पूर्व प्रयम शताब्दी के मध्य में हुए है। उनके पट्टकाल का प्रारम्भ वि० स० ४ (ई० पू० ५३) में हुआ था। ये भगवान् महावीर के पश्चात् अङ्गपूर्वयारियो की परम्परा के अन्त के निकट हुए थे और स्वय आचाराङ्गधारी थे। अत ये ही वह भद्रबाहु थे, जिनका उल्लेख शिवार्य ने किया है। साथ ही ईस्वी सन को प्रथम शताब्दी में होने वाले कुन्दकुन्दाचार्य ने एक शिवभूति नामक आचार्य का तथा अन्यत्र एक शिवकुमार' नामक भावश्रमण का ससम्मान उल्लेख किया है। यह भी सम्भव है कि कुन्दकुन्दाचार्य के ये दोनो उल्लेख केवल पौराणिक उदाहरण ही हो, किन्तु इस (शिवभूति) नाम के एक प्राचार्य का कुन्दकुन्द के समकालीन होना और उनका दिगम्वर सम्प्रदाय (वोटिक सघ) से भी सम्बन्ध होना श्वेताम्बर अन्य मूलभाषा 'जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ४०, ४१ । भगवती पाराधना गाया १५४४ । प्रोमोदारिए घोराए भद्दवाहप्रसकिलिट्ठमदी। घोराए विगिछाए पडिवण्णो उत्तम ठाण ॥ 'चक्रवर्ती-पञ्चास्तिकाय भूमिका । 'भावपाहुड-पाया ५३ । 'भावपाहुडगाथा ५१ । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भगवती आराधना' के कर्ता शिवाय ४२७ (गाथा १४८) तथा कल्प सूत्र स्थविरावली (गाथा २०) से भी सिद्ध होता है और प्रो० हीरालाल जी ने नागपुर यूनिवर्सिटी जर्नल न०६ में प्रकाशित अपने 'शिवभूति और शिवार्य' शीर्षक लेख में भगवती आराधना के कर्ता शिवार्य तया श्वेताम्वर ग्रन्यो मे उल्लिखित शिवभूति आचार्य को अभिन्न सिद्ध करने का प्रयत्न भी किया है। वी शताब्दी के जिनसेनाचार्य ने भगवती आराधना के कर्ता का शिवकोटि नाम से स्मरण किया है। इन सब से यही निष्कर्ष निकलता है कि उक्त आचार्य का मूल नाम 'शिव' था, जिसके साथ भूति, कोटि, कुमार आदि शब्द उल्लेखकर्ताओने स्वरुचि अनुसार अथवा किसी भ्रमवश जोड दिये है और यह कि ये शिवार्य भद्रबाहु द्वितीय के पश्चात् तथा कुन्दकुन्दाचार्य से पूर्व, सन् ईस्वी के प्रारम्भ के लगभग हुए है। ठीक इसी समय एक 'शिवदत्त' नामक पारातीय यति के होने का पता श्रुतावतार आदि ग्रन्थो से चलता है।' श्रुताकधारियो की परम्परा भद्रबाहु (द्वितीय) तथा लोहाचार्य के साथ समाप्त हो जाती है। उसी समय तथा कुन्दकुन्दादि आचार्यों से पूर्व अर्हदत्त, विनयदत्त, श्रीदत्त तथा शिवदत्त-इन चार पारातीय यतियो का होना पाया जाता है। चीयो-पांचवी शताब्दी के पूज्यपादाचार्य ने पारातीयो को सर्वज्ञ तीर्थङ्कर तथा श्रुतकेवलियो के समान ही प्रामाणिक वक्ता माना है और उसी समय के कुछ पीछे लिखी गई आराधना की टोका विजयोदया के कर्ता अपराजित सूरि ने अपने गुरुयो तथा अपने आपको आरातीयसूरि चूडामणि कहा है। इस प्रकार आराधना के कर्ता शिवार्य ईस्वी सन् के प्रारम्भ काल के लगभग होने वाले आरातीय आचार्य शिवदत्त ही थे, इसमें विशेष सन्देह नहीं रह जाता। शिवार्य ने अपने ग्रन्थ मे अपने गुरुयो-जिननन्दि, सर्वगुप्त, मित्रनन्दि-का जिस प्रकार 'आर्य' पहले तथा 'गणी' शब्द पीछे लगा कर उल्लेख किया है, वह बिलकुल वैसा ही है जैसा कि मथुरा के ककाली टीले से प्राप्त अव से दो हजार वर्ष पूर्व के अनेको जन शिलालेखो में तत्कालीन विभिन्न जनाचार्यों के नामो का हुआ है।' पीछे के जैन साहित्य अथवा अभिलेखो में इन शब्दो का इस प्रकार का आम प्रयोग नहीं मिलता। दूसरे, शिवार्य के अन्य का आधार कथित 'मूलसूत्र' थे। यह मूलसूत्र, भगवान् महावीर से भद्रबाहु (द्वितीय) पर्यन्त चली आई श्रुत परम्परा मे आचाराङ्ग के अन्तर्गत विवक्षित-विषय-सवन्धी मूलसूत्र ही हो सकते है। शिवार्य के सम्मुख उक्त सूत्रो की अवस्थिति भी शिवार्य के उपरि निश्चित समय को ही पुष्टि करती है। शिवार्य के सम्मुख उक्त सूत्रो के आधार से रची हुई कतिपय पूर्वाचार्यों कृत निबद्ध-रचनाएँ भी थी। पहली शताब्दी ईस्वी पूर्व में ऐसी रचनाओ का होना कुछ असम्भव भी नही है । मथुरा ककाली टीले से ही एक खडितमूर्ति जैन सरस्वती की प्राप्त हुई है, जो लखनऊ के अजायवघर में सुरक्षित है।' यह सरस्वती की सबसे प्राचीन उपलब्ध मूर्ति है । डा. वासुदेवशरण जी अग्रवाल के मतानुसार जनेतरो मे सरस्वती की मूर्ति का निर्माण इसके बहुत पीछे प्रारम्भ हुआ। मूर्ति पर जो अभिलेख है उससे विदित होता है कि यह मूर्ति पहली शताब्दी ईस्वी पूर्व-क्षत्रप काल की है। इस मूर्ति के एक हाथ में डोरे से बँधी हुई एक ताडपत्रीय पुस्तक है, जो स्पष्ट सूचित करती है कि उस समय जैनो में पुस्तक रचना प्रारम्भ हो चुकी थी। शिवार्य ने अपने गुरुत्रय के चरणो के निकट मूलसूत्रो का अर्थ समझने तथा उसके आधार से अपने ग्रन्थ को रचने की जो बात कही है वह भी बिलकुल वैसी ही है जैसी कि तत्कालीन आचार्य पुष्पदन्त एव भूतबलि के घरसेनाचार्य के निकट तथा प्राचार्य नागहस्ति एव आर्यमा के गुणधराचार्य के निकट, परम्परागत मूल जिनवाणी के अन्तर्गत 'इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार। 'सर्वार्थसिद्धि-१-२० । 'एपिनेफिका इडिका-लुइस द्वारा सम्पादित मथुरा से प्राप्त जैन-शिलालेख । *स्मिथ-जैनस्तुप तथा मथुरा का अन्य पुरातत्त्व, पृ० ५६, प्लेट XCIX Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रय अन्य विषयो का अध्ययन करके उनके आधार से कर्म प्रकृति प्राभृत तथा कषाय प्रामृत आदि प्रारम्भिक प्रागम ग्रन्यो के रचने की है। 'आराधना' की अतीव प्राचीनता का एक अन्य प्रवल प्रमाण उक्त ग्रन्थ के चालीसवें विज्जहना नामक अधिकार में वर्णित मुनि का मृत्यु सस्कार है। इसके अनुसार मृत मुनि का शव बन में किसी स्थान पर पशु-पक्षियो के भक्षणार्थ छोड दिया जाता था। ठीक ऐसा ही रिवाज सन् ३२६ ई० पूर्व मे सिकन्दर महान् तथा उमके यूनानी साथियो ने दक्षिणी-पश्चिमी सिन्ध की ओरातीय' जाति में प्रचलित देखा था। यह 'ओरातीय' शब्द 'वात्य' शब्द का यूनानी रूप प्रतीत होता है । उस समय सिन्ध तथा पश्चिमोत्तर प्रदेशो में नाग, मल्ल आदि अनेक व्रात्य जातियो की वस्तियाँ तथा राज्य थे। अनेक जैन मुनि भी यूनानियो को उस प्रान्त मे मिले थे। यह अवैदिक प्रथा उन व्रात्य जातियो में प्रचलित थी और उसी व्रात्य सस्कृति का प्रतिनिधि एक प्राचीन जैनाचार्य उसका विधान करता है। वास्तव में उपर्युक्त प्रथा अवैदिक ही नहीं, प्राग्वैदिक थी। तामिल भाषा के प्राचीन सगम साहित्य में भी उसके उल्लेख मिलते है । डा० पायङ्गर के मतानुसार आर्यों के भारत-प्रवेश के पूर्व से ही वह इस देश में प्रचलित थी।' यह भी हो सकता है कि यूनानी वृत्तो में उल्लिखित 'ओरातीय' (Oreitas) शब्द का जैन अनुश्रुति मे वर्णित इन प्राचीन प्राचार्यों के 'आरातीय विशेषण से ही कोई सम्बन्ध हो। इस प्रकार भगवती आराधना और उसके कर्ता आचार्य शिवार्य की प्रतीव प्राचीनता में कोई सन्देह अवशेष नही रह जाता और ऐसा विश्वस्त अनुमान करने के प्रवल कारण है कि वह शिवार्य ईस्वी के प्रारम्भ के लगभग होने वाले पारातीय यति शिवदत्त ही थे। लखनऊ। 'मेकक्रिन्डल-सिकन्दर का भारत आक्रमण -डिडरो-पृ० २६७ । 'मायगर-तामिल स्टडीज पृ० ३६ । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवरचित 'स्याहादरत्नाकर' में अन्य ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के उल्लेख श्री वी० राघवन् एम० ए०, पी-एच० डी० श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के प्रसिद्ध तर्कवेत्ता श्रीदेव या देवसूरि (१०८६-११६६ ई०) का 'प्रमाणनयतत्त्वालोकालकार' नामक ग्रन्थ, जिसकी 'स्याद्वादरत्नाकर' टोका स्वय उन्होने लिखी है, जैन तर्कशास्त्र का एक प्रसिद्ध ग्रन्य है। श्रीदेव मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य थे और उन्होने अणहिल्लपट्टन के राजा जयसिंहदेव के दरवार में सन् १२२४ ई० मे दिगम्बर सम्प्रदायी कुमुदचन्द्र को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। 'प्रभावकचरित्र' ग्रन्थ के एक अध्याय में श्रीदेव के उक्त ग्रन्थ का विषय दिया हुआ है। 'स्याद्वादरत्नाकर' एक विस्तृत भाष्य है, जिसमें दर्शनशास्त्र-सम्वन्धी अनेक ग्रन्यो तथा शास्त्रकारो के मनोरजक उल्लेख भरे पडे है। इनमे से कुछ उल्लेख बडे मूल्यवान है और दर्शनशास्त्र के विभिन्न अगो का इतिहास जानने वाले विद्यार्थियो के लिए वडे काम के है। इन उल्लेखो को इकट्ठा करके उनका अध्ययन करना बहुत उपयोगी होगा। यहां पर मै उन्हे वर्णक्रमानुसार रखता हूँ, जैसा कि वे उल्लेख मुझे आर्हतमतप्रभाकर ग्रन्थमाला (न० ४) में पांच भागो मे छपे हुए उक्त ग्रन्थ के सस्करण मे मिले है। भाग १, पृ० २६ --अम्बाप्रसाद सचिवप्रवर और उनके प्रथ कल्पलता के सबध में, जिसकी 'कल्पपल्लव' नामक टीका उन्होने स्वय लिखी है, इस प्रकार कथन मिलता है 'यथा चात्र अमीषा मशानामनुवाद्यत्व पूर्वत्र च तत्तदशाना विधेयत्व तथा श्रीमदम्बाप्रसादसचिवप्रवरेण कल्पलताया तत्सकेते कल्पपल्लवे च प्रपञ्चितमस्तीति तत एवावसेयम् । जैनग्रन्थावली (पृ० १२४) तथा प्रो० एच० डी० वेलकर द्वारा सम्पादित 'जिनरत्नकोष' (भा० १, पृ० २०६ अ) से अम्बाप्रसाद नामक व्यक्ति का पता चलता है, जिसने सटीक 'नवतत्त्वप्रकरण' ग्रन्थ की रचना की थी, परन्तु इन सूचियो में कल्पलता नामक ग्रन्थ तथा उस पर कल्पपल्लव नाम की टीका का कोई जिक्र नहीं मिलता। पृ० १५७ दिङ्नाग और उनका अन्य अद्वैतसिद्धि-अद्वैतसिद्धयादिषु सस्तुतोऽसौ दिड्नागमुख्यरपि किं महद्भि ॥ दिड्नाग द्वारा रचित अद्वैतसिद्धि का कोई पता अभी तक नही चला है। भाग २, पृ० ३५०-अनन्तवीर्य -ये ग्यारहवी शताब्दी के मध्य के प्रसिद्ध जैन तर्कवेत्ता थे। इन्होने 'परीक्षामुखपञ्जिका', 'न्यायविनिश्चयवृत्ति' आदि ग्रन्थो की रचना की है। भाग ४, पृ० ७४६, ८००-'अनेकान्तजयपताका', हरिभद्रसूरिकृत। यह ग्रन्थ यशोविजय जैनग्रन्थमाला मे लेखक की टीका के साथ छपा है तथा गायकवाड ओरियटल सीरीज़ (८८) मे श्रीदेव के गुरु मुनिचन्द्र की टीका के माथ प्रकाशित हुआ है। न्यायवैशेषिक पर आत्रेय तया आत्रेयभाष्य । भाग २, पृ० ३३२ प्रत्यक्ष के वर्णन में प्रात्रेयभाष्य का उल्लेख किया गया है - यत्पुनरात्रेयभाष्यकार. पाह-"यथा सामान्यस्य विशेषाणा च प्रदीपालोकेन सन्निकृष्टत्वेन दूरात्सामान्यमुपलभ्यते न विशेषा इति प्रदीपालोककारितौ सशयविपर्ययो भवत , तथा सामान्यस्य विशेषाणां च चक्षुषा सन्निकृष्टत्वेऽपि दूरात्सामान्यमुपलभ्यते न विशेषा इति चाक्षुषो सशयविपर्ययो भवत । तत्र महाविषयत्वातूसामान्य दूरादप्युपलभ्यते, अल्पविषयत्वात्तु विशेषा न दूरादुपलभ्यन्त इति सशयविपर्ययोरुत्पत्ति" इति । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन-ग्रंथ इस पर अपने उत्तर को सक्षेप में देते ए श्रीदेव इस आत्रेय भाष्यकार को योग अर्थात् नैयायिक कहता है । भाग ४, पृ० ८४७ – यहाँ 'द्रव्य' पर श्रात्रेय का विचार उद्धृत किया है-: यत्पुनरात्रेय प्रोचितवान्- "न क्रियात्वे प्रसङ्गात् । क्रियात्वमपि क्रिथावद्भवति, क्रियाधारत्वात् । न च तद् द्रव्यमिति तद् व्यवच्छेदार्थं गुणवद् इति । न खल्वाधार एवाधेयेन तद्वान् भवति श्राधेयमप्याधारेण तद् व्यपदिश्यते" इत्यादि । अपनी आलोचना में श्रीदेव, आत्रेय को 'वर्षीयान् विप्रपुङ्गव' कहता है और उसका दूसरा उद्धरण ४३० देता है— तत्राय वर्षीयान् विप्रयुगवोऽनतरमेव स्वयमुक्त नाप्यनुसन्दधातोति किं ब्रूम । "कर्म उत्प्रेक्षणादि तद्यस्मिन् समवायेन वर्तते तत् क्रियावत्" इति हि तत्रादावनेन विवने । न च तद् द्रव्यमिति तद्वचवच्छेदार्थ क्रियावदिति । तदपि न सुसूत्रमात्रेयेणाभाणि । पृष्ठ ८४८ मे पुन आत्रेय का उल्लेख है, और पृ० ८४६ मे उपसहार रूप में आत्रेय का कथन वैशेषिक रूप में किया गया है । आत्रेयो व्याख्यातवान् 'नित्यमस्याश्रय पारतन्त्र्य द्रव्ये' इति द्रव्याश्रयी । दा प्रकार के पृ० ६१२ द्रव्यो पर । पृ० १४५ मे कर्म के न्याय दृष्टिकोण पर आत्रेय का मत दिया गया है लक्षणान्तर पुनरात्रेयो विवृणोति - एक द्रव्य मिति नाद्रव्य न चानेकद्रव्यमित्यर्थं । नास्य गुणा सन्ति स्वयं च न गुणो भवतीत्यगुणम् । सयोगाश्च विभागाश्च सयोगविभागा, तेषु सयोगविभागेषु कारणमित्युत्पन्न कर्म स्वाश्रयमाश्रयान्तराद्विभज्य सयोजयतीति । तेषु च सयोगविभागेषु कर्तव्येषु कर्म कारणान्तर नापेक्षत इत्यनपेक्ष न पुन समवायिकारणमपि नापेक्षित इति । यद्वा सयोगविभागा कर्मासाधारण नापेक्षते इत्यनपेक्ष न पुन. साधारणमपि नापेक्षत इति । दिश खलु सयोगविशेषापेक्ष कर्म स्वाश्रयस्य सयोगविभागावारभते तथा च प्रेरकस्य या दिश प्रति प्रयत्नसमारम्भ तदभिमुख कमं जायते तस्माच्च कर्मणस्तदभिमुखी सयोगविभागो भवत । अनेनावृष्टेश्वराद्यपेक्षस्य कर्मण सयोगविभागारम्भो व्यास्यात ॥ इति । पृ० १४६, इसके वाद ही आत्रेय की पुस्तक का निम्न अश भी उद्धृत किया गया है- यदाह स एव "सयोगविभागेषु अनपेक्ष कारणमित्येतावत् कर्मलक्षणमेकद्रव्यमगुणमित्यभिधान तु कर्मस्वरूपोपवर्णनायं न पुन कर्मलक्षणार्थम्" इति । अन्त के उद्धरणो ने हम पहले आये हुए उल्लेख को इस प्रकार शुद्ध कर सकते है--' यत्पुनरात्रेयो भाष्यकार आह' । यह वात हमारी समझ मे नही आती कि यह वैशेषिक नृत्यकार कौन था ? भाग १, पृ० १३३ इष्टसिद्धि विमुक्तात्मन् के इष्टसिद्धि ग्रन्थ ( गा० घो० से० ) की ११ कारिका उद्धृत की गई है। भाग २, पृ० २८६, ३१८, ३२० आदि । उदयन तथा उनके गन्यो- कुसुमाजलि तथा किरणावली-का उल्लेख प्राय किया गया है । पुरदर तथा उद्भट, लोकायत सप्रदाय के लेखक भारतीय चार्वाकवाद पर लिखी हुई अपनी पुस्तक ( प्रका० कलकत्ता, पृ० ४७ ) मे दक्षिणारजन शास्त्री ने लिखा है कि 'सम्मतितर्कप्रकरण' गन्य के भाष्य में किसी पुरदर नामक लेखक के लोकायत सूत्र का उल्लेख किया गया है । शान्तिरक्षित के तत्त्वसग्रह ग्रन्थ ( गा० ओ० से०, भाग १, पृ० ४३१) पर लिखी हुई कमलशोल को टीका में पुरन्दर तथा उनके लोकायत ग्रन्थ का दूसरी बार उल्लेख मिलता है। यहाँ पर पुरन्दर के 'अनुमान' पर विचार की Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवरचित 'स्याद्वावरत्नाकर' में अन्य ग्रन्यों और ग्रन्थकारो के उल्लेख ४३१ अोर सकेत है तथा कमलशील की टीका से विदित होता है कि शान्तरक्षित की कारिका (न० १४८२) में पुरन्दर के पहले होने का प्रमाण विद्यमान है। पुरन्दरस्त्वाह-'लोकप्रसिद्धमनुमान चार्वाकरपि इण्यत एव । यत्तु कैश्चिल्लौकिक मार्गमतिक्रम्य अनुमानमुच्यते तन्निषिध्यत इति । एतदाशक्य दूषयन्नाह लौकिकमित्यादि। गायकवाड ओरिएटल सिरीज़ मे प्रकाशित 'तत्त्वसग्रह' की भूमिका (पृ० ८५) मे सम्पादक ने लिखा है"सस्कृत साहित्य में हमको कही इस बात का पता नही मिलता कि पुरन्दर लोकायत था।" किन्तु अव 'स्याद्वादरत्नाकर' ग्रन्थ से न केवल पुरदर का पता चलता है, अपितु यह भी मालूम हो गया है कि उसके द्वारा रचित लोकायत सूत्रो पर उद्भट नामक भाष्यकार ने एक टीका भी लिखी है। 'तत्त्वसग्रह' में पुरन्दर का उल्लेख होने से ज्ञात होता है कि उस (पुरन्दर) का समय ७०० ई० से पहले का है। उसके लोकायत सूत्रो पर लिखे हुए उद्भट के भाष्य का नाम एक स्थान पर 'तत्त्ववृत्ति' तया दूसरे स्थान पर 'तन्त्रवृत्ति' मिलता है। ___ यच्चोक्त तत्त्ववृत्तावुद्भटेन 'लक्षणकारिणा लाघविकत्वेनैव शब्दविरचनव्यवस्था, न चैतावता अनुमानस्य गौणता, यदि च साध्यैकदेशर्मिधर्मत्व हेतो रूपं ब्युस्ते, तदा न काचिल्लक्षणेऽपि गौणी वृत्ति' इति । यत्तु तेनैव परमलोकायत-मन्येन लोकव्यवहारकपक्षपातिना लोकप्रसिद्ध धूमाद्यनुमानानि पुरस्कृत्य शास्त्रीय स्वर्गादिसाधकानुमानानि निराचिकीर्षता " गौणत्वाद् अनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभ" इति पौरन्दर सूत्र पूर्वाचार्य तिरस्कारेण व्याख्यानयता इदमभिहित 'हतो स्वसाध्य नियम ग्रहणे प्रकारत्रयमिष्ट दर्शनाभ्यामवशिष्टाभ्या दर्शनेन विशिष्टानुपलब्धिसहितेन भूयोदर्शनप्रवृत्या च लोकव्यवहारपतितया, तत्राद्येन ग्रहणोपायेन ये हेतोर्गमकत्वमिच्छन्ति तान् प्रतीद सूत्र लोकप्रसिद्धष्वपि, हेतुषु व्यभिचारा दर्शनमस्ति तन्त्रसिद्धष्वपि, तेन व्यभिचारादर्शन लक्षणगुणसाधर्म्यत तन्त्रसिद्धहेतूना तथाभावो व्यवस्थाप्यत इति गौणत्वमनुमानस्य । अव्यभिचारावगमो हि लौकिकहेतूनामनुमेयावगमे निमित्त स नास्ति तन्त्रसिद्धेष्विति न तेभ्य परोक्षार्थावगमो न्याय्य , प्रत इदमुक्तम्-अनुमानादर्थनिश्चयो दुर्लभ इति। पृ० २७० उक्त च तन्त्रवृत्तौ भट्टोद्भटेन 'सर्वश्च दूषणोपनिपातोऽप्रयोजकहेतुमानामतीत्यप्रयोजक विषया विरुद्धानुमान विरोधविरुद्धा व्यभिचारिण' इति । भाग ४, पृ० ७६४ --यत्र तु भट्टोद्भट प्राचीकटत् 'न पत्रकारणमेवकार्यात्मतामुपैति यत एकस्याकारणास्मन एककामरूपतोपगमे तदन्यरूपाभावात् तदन्यकार्यात्मनोपगतिर्न स्यात् । किन्तु अपूर्वमेव कस्यचिद्भावे प्रागविद्यमान भवत्तत्कार्यम् । तत्र विषयेन्द्रियमनस्काराणामितरेतरोपादानाहितरूप भेदाना सन्निधौ विशिष्टश्वेतरक्षणभावे प्रत्येक तद्भावाभावानुविधानादेकक्रियोपयोगो न विरुद्ध्यते । यत एकक्रियायामपि तस्य तद्भावाभावितव निबन्धनम्, सा च अनेक क्रियायामपि समाना, इति । भाग ५, पृ० १०८३-पुरन्दर के सूत्रो में से एक मे उन तत्त्वो का कथन है, जिन्हें लोकायतिक मानते हैवे तत्त्व है-पृथिवी, आपस्, तेजस् और वायु । दूसरे सूत्र में कहा गया है कि व्यक्ति मे चैतन्य का उदय' उसी प्रकार होता है जिस प्रकार कुछ परमाणुनो में, जब वे आपस मे मिला कर एक किये जाते है मादक शक्ति का आविर्भाव हो जाता है । उद्भट ने पुरन्दर के सूत्रो पर लिखे हुए अपने भाष्य में कहा है कि वास्तव में लोकायतिको के तत्त्व केवल यही चार नही है और सूत्र में दी हुई सूची केवल सकेतात्मक है। उसने यह भी लिखा है कि 'इति' शब्द से उल्लिखित सूची का अन्त नही प्रकट होता, अपितु इसी भांति के अन्य तत्त्वो का भी भान होता है और मदशक्ति के समान उत्पन्न विज्ञान एक अन्य तत्त्व है। उसी प्रकार शब्द, सुख आदि भी अन्य तत्त्वो में से है। न च 'प्रथिव्यापस्तेजो वायुरिति तत्त्वानि' इति सूत्र व्याघात । सूत्रे इति शब्दस्य समाप्त्यर्यत्वेन अव्याख्यानात् । यदाचष्ट भट्टोद्भट --'इतिशब्द प्रदर्शनपर न समाप्तिवचन , चैतन्य-सुख-दुख-इच्छा-द्वेष-प्रयत्नसस्काराणा तत्त्वान्तरत्वात्, पृथिव्यादि प्राप्रध्वसापेमान्योन्याभावानां चात्यन्तप्रकटत्वादुक्तविलक्षणात्वाच्च' इति। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ प्रमा-श्रमनवनाथ ओचक या उम्बेक भाग २, पृ० २७६ - प्रभावप्रमाण पर एक कारिका का कथन यहाँ किया गया है साथ ही उस पर श्रीचक की टीका भी उद्धृत की गई है । जो कारिका दी गई है वह कुमारिल के श्लोकवार्तिक में प्राये हुए प्रभाववाद का पहला श्लोक है और जो प्रोचक के नाम से टिप्पणियाँ दी हुई है वे उम्वेक की 1 Marस्त्वेव व्याख्यातवान् 'तत्र घटाये वस्तुनि प्रत्यक्षादिसद्भावग्राहक नोपजायते तस्य नास्तिता भूप्रदेशाधिकरणाभावप्रमाणस्य प्रमेया इति । यह वाक्य श्लोकवार्तिक ( मद्राम यूनिवर्सिटी सस्करण, उम्वेक के भाष्य सहित ) के पृ० ४०६ मे मिलता है । स्यादादरत्नाकर मे दिये हुए उद्धरण का पाठ अधिक शुद्ध जँचता है । भाग १, पृ० १५७ कमलशील, बौद्धनैयायिक ( ८वी श० ) न्यायविन्दु पर टीका का लेखक । उसकी पजिका, जो शान्तरक्षित के तत्त्वसग्रह पर लिखी गई है, गायकवाड प्रोग्यिटल मोरोज मे तत्त्वमग्रह के साथ प्रकागित हुई है। भट्टजयन्त का पल्लव स्याद्वादरत्नाकर से 'न्यायमजरी' ग्रन्थ के लेखक भट्टजयन्त नामक एक अज्ञात ग्रन्थकार का पता चला है । भाग १, पृ० ६४ - तथा च समाचष्ट भट्टजयन्त पल्लवे तत्रासन्दिग्धनिर्वाध वस्तु बोधविधायिनी । सामग्री चिदचिद्रूपा प्रमाणमभिधीयते ॥ फलोत्पादाविनाभावि स्वभावाव्यभिचारि यत् । तत्साधकतम युक्त साकल्यान पर च तत् ॥ साकल्यात्सदसद्भावे निमित्त कर्तृकर्मणो । गौण मुख्यत्वमित्येव न ताभ्या व्यभिचारिता ॥ सहन्यमानहोनेन सहतेरनुपग्रहात् । सामश्या पश्यतीत्येव व्यपदेशो न दृश्यते ॥ लोचनालोकलिगादे निर्देशो यस्तृतीयया । स तद्रूप समारोपादुषया पत्रतीतिवत् ॥ तदन्तर्गतकर्मादि कारकापेक्षया च सा । करण कारकाणा हि धर्मोऽसौ न स्वरूपवत् ॥ सामप्रयन्त' प्रवेशेऽपि स्वरूप कर्तृकर्मणो । फलवत्प्रतिभातीति न चतुष्ट्व विनश्यति ॥ इति ॥ सम्पादक का कथन है कि ये श्लोक 'न्यायमजरी' मे नही मिलते और उनका अनुमान है कि 'पल्लव' से श्रीधर का अभिप्राय 'न्यायमजरी' से ही है, परन्तु हम देखेंगे कि इस अनुमान की कोई पुष्टि नही होती कि 'पल्लव' से श्रीदेव का अभिप्राय 'न्यायमजरी' से हो रहा हो । भाग १, पृ० ३०२ यदजल्पि जयन्तेन पल्लवे- स्वरूपाद्भवत्कार्यं सह कार्यपबूहितात् । न हि कल्पयितु शक्त शक्तिमन्यामतीन्द्रियाम् ॥ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३३ श्रीदेवरचित 'स्याद्वादरत्नाकर' में अन्य अन्यों और अन्यकारो के उल्लेख सर्वदा न च सर्वेषा सन्निघि. सहकारिणाम् । स्वरूपसभिवानेऽपि न पदा कार्यसभव ॥ मन्त्रे सति विषादीना स्वकार्याकरण तु यत् । न शक्ति प्रतिवघात्तत् किन्तु हेत्वन्तरागमात् ॥ मन्त्राभावो हि तद्धेतु धर्मादि सहकारिवत् । मन्त्रभावस्ततस्तत्र हेत्वन्तरतया मत.॥ तेषामम्लानरूपाणा ननु मन्त्रेण किं कृतम् । कार्योदासीनता मात्र शक्ती चैष न य. सम ॥ न हि मन्त्रप्रयोगेण शक्तिस्तत्र विनाश्यते। मन्त्रवादिन्युदासीने पुनस्तत्कार्यदर्शनात् ॥ इति ॥ शक्ति के समालोचक जयन्त पर अपना विचार देते हुए अन्त मे श्रीदेव उदयन की तुलना में जयन्त को हाथी के मुकावले में कीटक जैसा कहता है यत्राल्या शक्ति ससिद्धी मज्जत्युदयनद्विप । जयन्त हन्त का तत्र गणना त्वयि कीटके ॥ यहाँ ग्रन्थ के सम्पादक का कहना है कि ऊपर के लोक, जो जयन्त के 'पल्लव' ने उद्धृत किये गये है, 'न्यायमजरी' (पृ० ४१, विजयनगर मस्करण) में मिलते है। इसी के आधार पर सम्पादक ने 'पल्लव' मे उद्धृत पहले कथन पर अपनी टोका में लिखा है कि श्रीदेव का 'पल्लव' कहने मे मतलव 'न्यायमजरी' से ही था। वास्तव में ऊपर के द्वितीय उद्धरण के श्लोको मे मे केवल पहला 'न्यायमजरो' में मिलता है, न कि उसके वाद के अन्य पाँच श्लोक । अन 'पल्लव' जयन्त द्वारा लिखा हुआ एक भिन्न न्याय का ग्रन्थ है, जो पूर्णतया कारिकामो के रूप मे लिखा गया है और दूसरे उद्वरण में आये हुए पहले श्लोक से मालूम पडता है कि कुछ छन्द 'पल्लव' तथा 'न्यायमजरी' दोनो ग्रन्थो में एक-जैसे ही हो सकते है। पृ० ३३८ में सात श्लोक 'जयन्त' के नाम के साथ उद्धृत किये गये है और ये सभी श्लोक 'न्यायमजरी' (पृ० २१५-१६) में मिलते है। यह एक मार्के की बात है कि यहाँ 'पल्लव' से उद्धरण देने की बात नहीं कही गई है। एक दूसरा ही ऐसा उद्धरण, जो 'जयन्त' के अन्य से पृष्ठ ५४३ पर दिया गया है, 'न्यायमजरी' (पृ० ११७) मे भी मिलता है और यहाँ भी 'पल्लव' का उल्लेख नहीं मिलता। भाग ४, पृ० ७८० में जयन्त तथा उसके 'पल्लव' का कथन जिस श्लोक मे किया गया है वह 'न्यायमजरी' में नहीं मिलतातदुक्त भट्टजयन्तेनापि पल्लवे किञ्चाविच्छिन्नदृष्टीना प्रलयोदयवजित । भावोऽस्खलित सत्ताक चकास्तीत्यामसाक्षिकम् ॥ गुणरत्न की षड्दर्शन समुच्चयवृत्ति (१४०६ ई.) मे जयन्त को 'नयकलिका' का उल्लेख हुआ है, परन्तु उसमें यह कथन कि नयकलिका भासर्वज के न्यायमार पर लिखी हुई टीका है, ठीक नहीं जान पडता। इसके अलावा सतीशचन्द्र विद्याभूपण के ग्रन्थ (History of Indian Logic) मे जयन्त की 'पल्लव' नामक किसी कृति का उल्लेख नहीं है। भाग ३, पृ० ५७६-ज्ञानश्रीमित्र वौद्धनैयायिक (११वी शताब्दी का मध्यभाग)। यहां उसका एक पूरा श्लोक उद्धृत है। पृ०७१२ में एक श्लोक उसके अपोहप्रकरण ग्रन्थ में से पूरा का पूरा दिया हुआ है। भाग ४, ५५ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ पृ०७७० पर उसके ग्रन्थ में से एक गद्यखड उद्धृत किया गया है। श्री राहुल साकृत्यायन ने तिब्बत मे प्राप्त सस्कृत के हस्तलिखित ग्रन्थो की सूची में इस लेखक के १३ गन्थो को गिनाया है-उदाहरणार्य, कार्यकारणभावसिद्धि, क्षणभगाध्याय, व्याप्तिचर्चा, भेदाभेदपरीक्षा आदि (देखिए जर्नल ऑव विहार ऐड उडीसा रिसर्च सोसाइटी, जिल्द २८, भाग ४, पृ० १४३-४४)। भाग ४, पृ० ७८७-८८-त्रिलोचन तथा च त्रिलोचन प्रकीर्णके . सर्वेषा नाशहेतूना वैकल्यप्रतिबन्धयो । सर्वदासभवान्नाश सापेक्षोऽपि ध्रुवत्वभाक् ॥ 'एव च ध्रुवभावित्वस्य' आदि (एक लम्बा गद्यखड उद्धृत है)। यह त्रिलोचन वाचस्पति मिश्र का गुरु हो सकता है, जिसका उल्लेख उसने अपनी तात्पर्यटीका मे किया है । रलकीर्ति ने भी अपने अपोहसिद्धि तथा क्षणभगसिद्धि मन्थो मे त्रिलोचन का कथन किया है (हिस्ट्री ऑव इडियन लॉजिक, पृ० १३४) । भाग ४, पृ० ७७४-७५ देवबल तया धर्मोत्तर के एक अन्य पर उसकी टोका। एतेन यदपि धर्मोत्तरविशेषव्याख्यानकोशताभिमानी देववल प्राह-निर्भागेऽपि च कार्ये पावापोद्वापाभ्या विशेषहेतूना विभ्यमसिद्धिरिति छलनोद्यानामनवसा' इति । इस वौद्ध लेखक का उल्लेख श्री एस०सी० वैद्य ने या श्री विद्याभूषण ने अपने न्याय के इतिहास में नही किया। भाग १, पृ० १७३ देवेन्द्र । इस वौद्ध लेखक का हवाला देते हुए लिखा है कि उसने एक ग्रन्थ पर जिसके लेखक का नाम अज्ञात है, टीका की है । उस गन्य से भी यहां उद्धरण दिये हुए है। तदुक्त 'नीलादिश्चित्रविज्ञाने ज्ञानोपाधिरनन्यभाक् । अशक्यदर्शनस्त हि पतत्यर्थे विवेचयन् ॥' प्रत्र देवेन्द्रव्यारया 'चित्रज्ञाने हि यो नीलादि' आदि (एक लवा गद्याश)। पृ० १८० परएक अज्ञातलेखक की ऐसी ही कारिका दी हुई है और उस पर देवेन्द्र की टीका मे से एक लम्बा उद्धरण दिया हुआ है तदुक्त किं स्यात्सा चित्रकस्या न स्यात्तस्या मतावपि । यदीद स्वयमर्थाना रोचते तत्र के वयम् ॥ प्रय देवेन्द्र च्यात्या-'यदि नामफस्या मतो आदि यह देवेन्द्र नामक लेखक देवेन्द्रवोधि हो सकता है, जिसका समय सातवी श० ई. के मध्य का है और जिसने धर्मकीति के प्रमाणवार्तिक पर एक पजिका लिखी है (हिस्ट्री ऑव इडियन लॉजिक, पृ० ३१६)। भाग १, पृ० २४, २५, २७, १७० आदि मे धर्मोत्तर का कथन प्राय किया गया है। इस वौद्धनैयायिक ने न्यायविन्दुटीका, प्रमाणविनिश्चयटीका आदि रचनाएं की है। धर्मोत्तर ८०० ई० में काश्मीर गया था जब वहां जयापीड शासक था (राजतरगिणी, भाग ४, पृ० ४६८)। भाग ५, पृ० १०६६-नेमिचद्रगणि, स्वय ग्रन्थकार श्रीदेव का शिष्य । तया च अस्मद्विनेयस्य निरवद्यविद्यापद्मिनीप्रमोदनद्युमणेः नेमिचन्द्रगणे अत्र व्यतिरेकप्रयोग 'त्वत्प्रति वादि शरीर प्रादि। नेमिचन्द्रगणि के किस ग्रथ का यहा हवाला दिया गया है, यह अज्ञात है। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवरचित 'स्याद्वादरत्नाकर' में अन्य ग्रन्थो और ग्रन्थकारो के उल्लेख ४३५ भाग ८, पृ० ३७२ | वाचस्पति मिश्र की न्यायकारिका मे उद्धरण दिया गया है । यह ग्रन्थ मीमासा पर लिखे हुए मडनमिश्र के विधिविवेक (पडितसस्करण) पर टीका है । भाग १, पृ० २३ धर्मकीर्ति लिखित न्यायविनिश्चय । पृ० २१ उपर्युक्त ग्रन्थ पर लिखी हुई टीका तथा वृत्ति नामक दो भाष्य । भाग १, पृ० ४४ उमास्वाति जैन तथा उनका ग्रंथ पचशती प्रकरण यदवाचि पञ्चशती प्रकरण प्रणयन प्रवीण उमास्वाति वाचकमुख्यै - - . तानेवार्थाद्विषत तानेवार्थान् प्रलीयमानस्य । निश्चयतोऽस्यानिष्ट न विद्यते किञ्चिदिष्टवा ॥ इति । पदार्थप्रवेशक ग्रथ । जैसा कि सम्पादक ने लिखा है, यह प्रशस्तपादभाष्य है । पद्मचन्द्रगणि । यह सम्भवत श्रीदेव का प्रधान शिष्य है । प्रकरणचतुर्दशीकार तथा उनका ग्रन्थ धर्मसारप्रकरण । भाग ४, पृ०८७८ भाग ४, पृ० ८०२ भाग ४, पृ० ८६५ प्रकरणचतुर्दशीकारोऽपि धर्मसारप्रकरणे प्राह--न ह्यङ्गनावदनच्छायानुसक्रामातिरेकेणादर्शके तत्प्रतिबिंब संभव इत्यादि । प्रो० वेलकर के ‘जिनरत्नकोश' (भाग १, पृ० १९४ व ) मे किमी सकलकीर्ति द्वारा लिखित धर्मसार ग्रन्थ का उल्लेख है । भाग ३, पृ० ५६० प्रज्ञाकर । दशवी श० के मध्य का वौद्ध नैयायिक, जिसने धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक पर अलकार नामक टीका लिखी है । भाग २, पृ० ४६६ | प्रभाचद्र, जैन तार्किक (८२५ ई०) जिसने तत्त्वार्थसूत्र पर एक टीका लिखी है । यहाँ दिया हुआ उद्धरण उसी टीका से है । भाग २, पृ० ४७८ प्रमेयकमलमार्तण्ड । यह माणिक्यनन्दिन् के परीक्षामुखसूत्र पर लिखी हुई प्रभाचन्द्र की टीका है । यह उस समय लिखी गई थी जब भोज धारा मे राज्य कर रहे थे । भाग २, पृ० ३२०, ३४५ प्रशस्तपादभाष्य --- प्रशस्तपाद का पदार्थ वर्मंसग्रह ( वैशेषिक ग्रन्थ) । भाग ४, पृ० ९२० पर लेखक का नाम प्रशस्तकर दिया हुआ है । भाग १, पृ० ८६, भाग ३, पृ० ६४८-४९, ६५४ यहाँ भर्तृहरि का हवाला कही तो उसके नाम के सहित दिया हुआ है और कही उसका नाम नही दिया है । भाग २, पृ० ३२२, भाग ४, पृ० ८५२ भूषण । यह भासर्वज्ञ का न्यायभूषण है, जिसका उल्लेख बहुत से अन्य ग्रन्थो मे भी आया है, परन्तु जो अभी तक प्राप्त नही हो सका । गुणरत्न की षड्वृत्तिदर्शन, राजशेखर सूरि के षड्दर्शनसमुच्चय तथा न्यायसार पर भट्ट राघव की टोका आदि जैन ग्रन्थो मे लिखा है कि भूपण, न्यायसार पर ग्रन्थकार द्वारा स्वय लिखी हुई टीका है । भाग ३, पृ० ५६६ मुनिचन्द्रसूरि (मृत्य् ११२१ ई० ) । श्रीदेव ने अपने ग्रन्थ मे अनेक स्थानो पर अपने गुरु मुनिचन्द्र का जिक्र किया है । प्रम अध्याय के अन्त में हरिभद्र रचित ललितविस्तार पर मुनिचन्द्र की टीका का कथन है । ललितविस्तार चैत्यवन्दनासूत्र (प्रका० देवचन्द्र लालभाई पुस्तकोद्धार फड मीरीज ) पर भाष्य है । अध्याय दो के अन्त में शिवगर्मन् के कर्मप्रकृतिप्राभृत पर मुनिचन्द्रमूरि द्वारा लिखी हुई टीका का जिक्र है । पाँचवे अध्याय के अन्त मे श्रीदेव ने शास्त्रवातमिमुच्चय पर मुनिचन्द्र की टीका का उल्लेख किया है । प्रो० वेलकर के ‘जिनरत्नकोश' (भाग १ ) मे इस टीका का नाम नही है और न वह मुनिचन्द्रलिखित ३२ ग्रन्यो की Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ प्रेमी अभिनंदन-प्रथ सूची मे मिलता है । यह सूची श्री एच० आर० कापडिया द्वारा लिखित हरिभद्र के अनेकान्तजयपताका ( प्रका० गायक ओरि० सी०, मुनिचन्द्र के भाष्य सहित ) की भूमिका पृ० ३० म मिलती है । अध्याय ६ के अन्त में हरिभद्र के उपदेशपद पर लिखी हुई मुनिचन्द्र की टीका का हवाला दिया गया है । भाग १, पृ० १६० -- यहाँ पर राहुल नामक लेखक का उल्लेख मिलता है, जिसने धर्मकीर्ति के प्रमाणवार्तिक पर टीका लिखी है । भाग २, पृ० ३४६, ४६७, भाग ३, पृ० ५२१ विद्यानन्द, प्रसिद्ध जैन लेखक जिसने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदि ग्रन्थ लिखे है । भाग २, पृ० २८६-७ । विमलशिव | इस नैयायिक का पता एक लम्बे उद्धरण मे चलता है। उसके विषय मे अन्यत्र कुछ पता नही चलता । विमलशिव पुनरन्यथा प्राह-- वहभ्यादिकन स्वैकसमवेतातीन्द्रियकार्यकृत्, चाक्षुषत्ये सति हेतुत्वात्, यदित्य यथा गोत्व, तथा च विवादास्पद, तस्मात्तथा, प्रादि । यह उद्धरण योग अर्थात नैयायिको द्वारा शक्ति के मतखडन के सबध में आया है । भाग २, पृ० २८६ विष्णुभट्ट । शक्ति-मत के ऊपर इस न्यायिक का कथन किया गया है-विष्णुभट्टस्त्वाह-- स्वरूपसहारिव्यतिरिक्ता शक्तिरस्तीतिवाक्यमनर्थक, सर्वप्रमाणैरनुपलभ्यमानार्थत्वात्, यदित्य तत्तया यथा मुल्यये करिशत मास्ते इति वाक्य यथोक्तसाधन चैतत् तस्माद्यथोक्तसाध्यम् । पृ० २८८ पर पुन उसका मत उद्धृत है- तथा चाभिदधे विष्णुभट्टेन' प्रतिबन्धक प्रागभावप्रध्वसभा वयोश्च नीलपीताद्यनेक विधानामिव यथासंभव कारणत्व विशेषत' इति । भाग २, पृ० ३१८ व्योमणिव, वैशेपिक, प्रशस्तपादभाष्य पर व्योमवती टीका का लेखक । पृ० ४१६ तथा ४९८ पर उसके दो और उत्लेख मिलते है । भाग २, पृ० ४३९ । शकर नामक एक नैयायिक का मत यहाँ उद्धृत है तथा भाग ४, पृ० ८५२ में न्यायमणकार के साथ उसका मत दिया हुआ है, तथा दोनो को उमी वाक्य का कर्ता माना गया है । १ अस्त्येवास्य ( ईश्वरस्य) शरीरमिति शवर । २ यच्च शकरन्यायभूषण कारावचक्षते -- यो हि भावो यावत्या सामग्रधा गृह्यते, तदभावोऽपि तावत्यैवेति श्रालोकग्रहणसामग्रया गृह्यमाण तमस्तदभाव एव । दूसरा उद्धरण उसी रूप मे रत्नप्रभ की प्रमाणनयतत्त्वालोकालकार पर लिखी हुई टीका ( पृ०६८, यशोविजयगन्यमाला मस्करण) मे मिलता है । करस्वामिन् नामक नैयायिक का मत शान्तरक्षित तथा कमलशील के द्वारा तत्त्वमग्रह तथा पजिका (गायक० ओरि० से०, पृ० ८१, २५०, ३७८) में तीन बार उद्धृत किया गया है । भाग ४, पृ० ७८३ शकरनन्दन, वौद्ध लेखक, उसकी एक कारिका इस प्रकार दो है कारणाद्भवतोऽर्थस्य नश्वरस्यैव स्वभाव कृतकरवस्य भावस्य पृ० ७८७ पर उसकी एक कारिका स्वयं उसकी टीका सहित उद्धृत है एतेन शङ्कर नदनोक्तकारिका यावदुक्तमपास्तम् । यदपि शकरनदन एव व्याकरोति---- भावत । क्षणभगिता ॥ न हि स्वहेतुजो नाशो नाशिना नश्वरात्मता । नाशायैषा भवन्तस्ते भूत्वैव न भवन्ति तत् ॥ नाशिना नश्वरात्मतैव नाशार्थो न तु विनाशहेतुजो विनाशो नाशायं श्रादि ॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीदेवरचित 'स्याद्वादरत्नाकर' में अन्य ग्रन्थों और ग्रन्थकारो के उल्लेख ४३७ क्या यह शकरनन्द वही काश्मीरी ब्राह्मण शकरानन्द है, जिसने वौद्ध ग्रन्थ - प्रमाणवार्तिकटीका, पोहसिद्ध यदि लिखे है ? भाग ४ पृ० ९५७ शर्करिका हमें यहाँ निम्नलिखित उद्धरण मिलता है-- यत्तु 'प्रत्येक समवेतार्थ' इत्यादि कारिका व्याख्याया जयमत्र शर्करिकाया प्राह-- 'गोमति धर्मिणी, कृत्स्नवस्तुविषयेति साध्यो धर्म कृत्स्नरूपत्वादिति हेतु । या या कृत्स्नरूपा सासा कृत्स्नवस्तुविषया, व्यक्तिबुद्धिवदिति दृष्टान्त' इति । यह कारिका कुमारिल के ग्लोकवार्निक (वनवाद, ग्लोक ४६ ) मे मे दी गई है। शर्करिका उम भाप्य का नाम है जो जयमिश्र ने ग्लोकवानिक पर लिखा है और जो उम्बेक के भाष्य के आगे लिखा गया है । अत ऊपर के उद्धरण में पहली पक्ति का शुद्ध पाठ जय मिश्र शर्करिकाया प्राह — होना चाहिए । श्रीदेव के द्वारा जो प्रश दिया गया है वह गर्करिका के मद्रास युनिवर्मिटी नम्करण मे पृ० ३२ मे मिलता है । श्रीदेव द्वारा दिया हुआ यह उरण महत्त्वपूर्ण हैं, क्योकि अब तक केवल यही बाह्य प्रमाण उपलब्ध हो सका है, जिसमे जयमिश्र की गर्करिका का उल्लेख है | भाग २, पृ० ४७५ | भदन्त शाकटायन के केवल मुक्ति प्रकरण में मे यहाँ एक लम्वा ग्रा उद्धृत है । भाग १, पृ० ६१, ११२-१५ । मीमानाकार शालिकनाथ, प्रकरणपत्रिका के लेखक, का कथन यहाँ किया गया है । भाग २, पृ० २३६, भाग २, पृ० २८८, ३१८ श्रादि श्रीघर कन्दली नामक न्यायग्रन्थ के लेखक, का यहाँ कई वार ज़िक्र है । भाग ३, पृ० ६४ε| सग्रहकार । व्याडि नामक वैयाकरण का यहाँ उल्लेख है, जिसके ग्रन्थ मे भर्तृहरि 'अपने ग्रन्थ वाक्यपदीय तथा उसकी वृत्ति म उद्दरण लिये है । जिम कारिका को यहाँ श्रीदेव ने यह कह कर उद्धृत किया है कि वह संग्रहकार की 'ययाद्यमन्या' आदि है, वह वाक्यपदीय (१,८८) मे मिलती है । पृ० ६४५ यदाह मग्रहकार - शब्दम्य ग्रहेण हेनु यादि । इमको भर्तृहरि ने अपनी वृत्ति मे मग्रहकार की लिखी हुई कहा है ( पृ० ७८-६, चडीदेव शास्त्री द्वारा वाक्यपदीय का लाहौर मस्करण, भाग १ ) । भाग १, पृ० ६२ । समतभद्र । यह प्रसिद्ध जैननैयायिक है जिसने तत्त्वार्थाधिगमसूत्र पर गन्धहम्ति - महाभाष्य की रचना की है। भाग २, पृ० ४६७ सर्वार्थसिद्धि । नत्त्वार्थमूत्र पर पूज्यपाद देवनन्दिन् कृत भाष्य । श्रीदेव ने इसका asन किया है । भाग १, पृ० ८६ हरिभद्रसूरि कृत शास्त्रवार्तासमुच्चय में यहाँ उद्धरण दिया गया है । अध्याय ५ के अन्त मे श्रीदेव ने अपने गुरु मुनिचन्द्र का उल्लेख किया है, जिन्होंने हरिभद्रसूरि के उक्त ग्रन्थ पर एक टीका लिखी थी । भाग २, पृ० २९२ हरिहर नामक नैयायिक का उल्लेख है यत्तु हरिहर प्राह-न च दुर्बल उत्तेजकमन्त्र स्तम्भकमन्त्रस्य प्रतिपक्ष । तस्मिन् सत्यपि स्तम्भकमन्त्रस्य कार्यकरणदर्शनात् । भाग १, पृ० १०३ मे ममारमोचको का उल्लेख है, जिन्हें सम्पादक ने ब्रह्माद्वैतवादी माना है । जयन्त की 'न्यायमजरी' में ममारमोचको का कथन बौद्धो के माथ किया गया है और उनके विषय में लिखा है कि वे पापकर्मो तथा आगमी का प्रचार करते और प्राणिहिमा में रत रहने हैं, तथा वे स्पर्श के योग्य नही है - ये तु सीगत ससारमोचकागमा पापकाचारोपदेशिन व्यस्तेषु प्रामाण्यमार्योऽनुमोदतेससारमोचका पापा प्राणिहिंसापरायणा । मोहप्रवृत्ता रावेति न प्रमाण तदागम ॥ X X X Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ ४३८ ससारमोचक स्पृष्ट्वा शिष्टा. स्नान्ति सवासस । (पृ० २६५-६, विजयनगर सस्करण) वेदान्तियो या ब्रह्मदर्शन के अनुयायियो के प्रति जयन्त ने कठोर शब्दो का व्यवहार किया है, परन्तु ऊपर की आलोचना अद्वैतवादियो के प्रति प्रयुक्त नही जान पडती। भाग १, पृ० १६०-परमब्रह्मवादी । यहाँ एक शार्दूलविक्रीडित छन्द उद्धृत किया गया हैअथ परमब्रह्मवादिन पाहु भावग्रामो घटादिर्वहिरिह घटते वस्तुवृत्या न कश्चित् । तन्मिय्येष प्रपञ्च तमपि च मनुते तत्त्वभूत जनोऽयम् । प्रौढाविद्या विलासप्रवलनरपते पारवश्य गतस्सन् । आत्माद्वैत तु तत्त्व परमिह परमानन्दरूप तदस्तु । भाग १, पृ० २७-२८ मे कुछ काव्यो तथा नाटको मे उद्धरण दिये हुए है, किन्तु उनके रचयिताओ के नाम नही है कृतककुपित बाष्पाभोभि आलोकमार्ग सहसा अजन्त्या (रघु०, ७, ६, फुमार० ७, ५७) पौलस्त्य स्वयमेव याचत इति (वालरामायण, २, २०) ताताज्जन्मवविलडितवियत् वय गत सप्रति शोचनीयताम् (कुमार० ५, ८१) तपस्विभिर्या सुचिरेण लभ्यते कारणगुण्यनुवृत्त्या सूर्याचन्द्रमसौ यत्र प्राज्ञा शक्रशिखामणिप्रणयिनी (बालरामायण, १, ३६) भाग २, पृ० २७३ रावण-सम्बन्धी 'ववतु सर्वे यदाज्ञाम् 'छन्द उद्धृत है। भाग २, पृ० २७३ पर एक छन्द दिया गया है, जिसमे श्रीसध नामक किसी राजा का गुणगान है । मदरास] [अनु०-श्री कृष्णदत्त बाजपेयी Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भाषा का 'जम्बूस्वामिचरित' और महाकवि वीर ५० परमानन्द जैन शास्त्री भारतीय माहित्य में जन-वाड्मय अपनी विशेषता रखता है । जैनियो का साहित्य भारत की विभिन्न भाषाओ में देखा जाता है। मस्कृत, प्राकृत, अर्धमागवी, गौरमैनी, महाराष्ट्री, अपभ्रश, तामिल, तेलगू, कनडी, हिन्दी, मराठी, गुजराती और वॅगला आदि भापानी में ऐसी कोई प्राचीन भाषा अवशिष्ट नहीं है, जिसमे जैन-साहित्य की मृष्टि न की गई हो। इतना ही नहीं, अपितु दर्शन, सिद्धान्त, व्याकरण, काव्य, वैद्यक, ज्योतिष, छन्द, अलकार, पुराण चरित तथा मन्त्र-तन्त्रादि सभी विषयो पर विपुल जैन-साहित्य उपलब्ध होता है। यद्यपि राज-विप्लवादि उपद्रवो के कारण जैनियो का बहुत-माप्राचीन बहुमूल्य साहित्य नष्ट हो चुका है, तथापि जो कुछ किसी तरह वच गया है, उससे उसकी महानता एव विशालना स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। जैनियो के पुराण और चरित-ग्रन्यो का अधिकतर निर्माण मम्कृत, प्राकृत और अपभ्रश भाषा में हुआ है। यहाँ अपभ्रश भाषा के एक महत्त्वपूर्ण प्राचीन चरित-ग्रन्य और उसके लेखक का कुछ परिचय देना ही इस लेख का प्रमुख विषय है। यद्यपि हम भापा का पूरा इतिहास अभी तक अनिश्चित है-इसके उत्थान-पतन, अभ्युदय और अस्त का कोई क्रमिक और प्रामाणिक इतिवृत्त अभी तक नहीं लिखा गया, जिसकी वडी आवश्यकता है तो भी ईमा की छठी शताब्दी मे सत्रहवी शताब्दी तक इम भापा में अनेक ग्रन्यो की रचनाएं होती रही है, ऐसा उपलव्य रचनाओ से ज्ञात होता है । जिस समय प्रस्तुत चरित-ग्रन्थ की रचना हुई, अपभ्रश भाषा का वह मध्याह्न काल था। उस समय यह भाषा केवल सव की वोल-चाल की ही भाषा नहीं बनी हुई थी, बल्कि महान साहित्यिक विद्वानो की नव्यकृतियो का निर्माण भी इसी भाषा मे किया जाता था। उस समय तया उसमे पूर्व के रचे हुए इस भाषा के ग्रन्यो को देखने से यह स्पष्ट अनुभव होता है कि उस समय इस भाषा की और कवियो का विशेष अनुराग था और जनता उम प्रचलित भाषा में अनेक ग्रन्यो का निर्माण कराना अपना कर्तव्य ममझती थी। साहित्य-जगत में इसका महान् आदर था। भाषा में मौष्ठवता, मरमता, अर्थगौरवता और पदलालित्य की कमी नहीं है। पद्धडिया, चौपई, दुवई, मर्गिणी, गाहा, घत्ता और त्रिमगी आदि छन्दो मे ग्रन्यो को रचना वडी ही प्रिय और मनोरजक मालूम होती है और पढते समय कवि के हृदयगत भावो का सजीव चित्र अकित होता जाता है । भाषा की प्राञ्जलता उमे वार-वार पढने के लिए प्रेरित एव आकर्षित करती है। यह भाषाही उत्तरकाल में अपने अधिकतम विकसित रूप को प्रकट करती हुई हिन्दी, मराठी और गुजराती आदि भापाओ की जननी हुई है--स्वयभू और पुष्पदन्तादि महाकवियो की कृतियो का रसास्वादन करने से इस भाषा की गम्भीरता सरमता, मरलता और अर्थ-प्रवोधकता का पद-पद पर अनुभव होता है। ग्रन्थ परिचय इस ग्रन्य का नाम 'जम्बूस्वामिचरित' है। इसमे जैनियो के अन्तिम केवली श्री जम्बूस्वामी के जीवन-चरित का अच्छा चित्रण किया गया है। यह ग्रन्य उपलब्ध साहित्य मे अपभ्रश भापा का सबसे प्राचीन चरित-अन्य है। अव तक इममे पुरातन कोई चरित-ग्रन्य, जिसका म्वतन्त्र रूप में निर्माण हुअा हो, देखने मे नही आया। हाँ, प्राचार्य गुणभद्र और महाकवि पुष्पदन्त के उत्तर पुराणो में जम्बूस्वामी के चरित पर मक्षिप्त प्रकाश डाला गया है। श्वेताम्बरीय मम्प्रदाय में भी जम्बूम्वामी के जीवन परिचायक ग्रन्थ लिखे गये है। जैन-ग्रन्यावलि मे मालूम होता है कि उक्त सम्प्रदाय में 'जम्बूपयन्ना' नाम का एक ग्रन्थ है, जो डेकन कालेज, पूना के भडार मे अब भी विद्यमान है। आचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने परिशिष्ट पर्व में जम्बूस्वामी के चरित का मक्षिप्त चित्रण किया है और पन्द्रहवी शताब्दी के विद्वान Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० प्रेमी-अभिनदन-प्रथ जयशेखरसूरि ने ७२६ पद्यो में जम्बूस्वामी के चरित का निर्माण किया है। इनके सिवाय पद्मसुन्दर आदि विद्वानो ने भी जम्बूस्वामी के चरित पर प्रकाश डाला है। इनमें 'जम्बूपयन्ना' का काल अनिश्चित है और वह ग्रन्थ भी अभी तक प्रकाश मे नही पाया है। इसके सिवाय शेष सब ग्रन्थ प्रस्तुत जम्बूस्वामीचरित से वाद की रचनाएँ है । उभय सम्प्रदाय के इन चरित ग्रन्थो मे वर्णित कथा मे परस्पर कुछ भेद जस्र पाया जाता है । उस पर यहां प्रकाश डालना उचित नहीं। किसी ग्रन्थ की रचना किसी भी भाषा मे क्यो न की गई हो, परन्तु उस भापा का प्रोढ विद्वान कवि अपनी आन्तरिक विशुद्धता, क्षयोपशम की विशेषता और कवित्वशक्ति से उस गथ को इतना अधिक आकर्षक बना देता है कि पढने वाले व्यक्ति के हृदय में उस ग्रन्थ और उसके निर्माता कवि के प्रति प्रादरभाव उत्पन्न हुए विना नहीं रहता। ग्रन्थ को सरस और सालकार बनाने में कवि की प्रतिभा और आन्तरिक चित्तशुद्वि ही प्रधान कारण है। "जिन कवियों का सम्पूर्ण शब्दसन्दोहरूप चन्द्रमा मतिरूप स्फटिक मे प्रतिविम्बित होता है उन कवियो मे भी ऊपर किसी ही कवि की वुद्धि क्या अदृष्ट अपूर्व अर्थ मे स्फुरित नहीं होती है ? जर होती है।" ग्रन्थकार ने अपने उक्त भाव की पुष्टि मे निम्न पद्य दिया है स फोप्यतर्वेद्यो वचनपरिपार्टी गमयत , कवे कस्याप्यर्थ स्फुरति हृदि वाचामविषय । सरस्वत्यप्यर्यान्निगदनविधी यस्य विषमामनात्मीया चेप्टामनुभवति कष्ट च मनुते ॥ अर्थात्-काव्य के विषम अर्थ को कहने मे मरस्वती भी अनात्मीय चेप्टा का अनुभव करती है और कप्ट मानती है। किन्तु वचन की परिपाटी को जनाने वाले अन्तर्वेदी किसी कवि के हृदय मे ही किसी-किसी पद्य या वाक्य का वह अर्थ स्फुरायमान होता है, जो वचन का विषय नही है। लेकिन जिनको भारती (वाणी) लोक में रसभाव का उद्भावन तो करती है परन्तु महान् प्रवन्ध के निर्माण में स्पष्ट रूप से विस्तृत नहीं होती, ग्रन्यकार की दृष्टि में, वे कवीन्द्र ही नहीं है। प्रस्तुत ग्रथ की भाषा बहुत ही प्राञ्जल, सुबोध, सरस और गम्भीर अर्थ की प्रतिपादक है और इसमे पुष्पदन्तादि महाकवियो के काव्य-ग्रन्थो की भाषा के समान ही प्रौढता और अर्थगौरव को छटा यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है। जम्बूस्वामी अन्तिम केवली है, इसे दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनो ही मम्प्रदाय वाले निर्विवाद रूप से मानते है और भगवान महावीर के निर्वाण से जम्बूस्वामी के निर्वाण तक की परम्परा भी उभय सम्प्रदायो में प्राय एक-सी है, किन्तु उसके बाद दोनो में मतभेद पाया जाता है। जम्बूस्वामी अपने समय के प्रसिद्ध ऐतिहासिक महापुरुष हुए है। वे काम के असाधारण विजेता थे। उनके लोकोत्तर जीवन की पावन झाँकी ही चरित्र-निष्ठा का एक महान् 'जाण समग्गसदोह मेंदुउ रमइ भइफडक्कमि । ताण पि हु उवरिल्ला कस्स व बुद्धी न परिप्फुरई ॥५॥ -जवूस्वामीचरित सधि १ 'मा होतु ते कइदा गरुयपवघे विजाण निव्वूढा । रसभावमुग्गिरती वित्थरइ न भारई भुवणे ॥२॥ -जबूस्वा० स०१ 'दिगम्बर परपरा में जबूस्वामी के पश्चात् विष्णु, नन्दीमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये पांच श्रुतकेवली माने जाते है, किन्तु श्वेताम्बरीय परपरा में प्रभव, शय्यभव, यशोभद्र, प्रार्यसभूतिविजय, और भद्रबाहु इन पांच श्रुतकेबलियो का नामोल्लेख पाया जाता है। इनमें भद्रबाहु को छोडकर चार नाम एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न है। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४१ अपभ्रंश भाषा का 'जम्बूस्वामिचरित' और महाकवि वीर श्रादर्श रूप जगत् को प्रदान करती हैं । इनके पवित्रतम उपदेश को पाकर ही विद्युच्चर जैसा महान् चोर भी अपने चौरकर्मादि दुष्कर्मों का परित्याग कर अपने पाँच सौ योद्धाओ के साथ महान् तपस्वियो मे अग्रणीय तपस्वी हो जाता व्यरादिकृत महान् उपसर्गों को ससघ साम्यभाव से सह कर सहिष्णुता का एक महान् आदर्श उपस्थित करता है । उस समय मगध देश का शासक राजा श्रेणिक था, जिसे विम्वमार भी कहते है । उसकी राजधानी 'रायगिह' (राजगृह) कहलाती थी, जिसे वर्तमान में लोग राजगर के नाम से पुकारते है । ग्रन्थकर्त्ता ने मगव देश और राजगृह का वर्णन करते हुए और वहाँ के राजा श्रेणिक का परिचय देते हुए उसके प्रतापादि का जो मक्षिप्त वर्णन किया है, उसके तीन पद्य यहाँ दिये जाते है "चड भुप्रदडखडियपयडमडलियमडली वि सड्ढें । धाराखडणभीयव्व जयसिरी वसइ जस्स खग्गके ॥ १॥ रे रे पलाह कायर मुहइ पेक्खद्द न सगरे सामी । इय जस्स पयावद्योसणाए विहडति वइरिणो दूरे ॥ २ ॥ जस्स रक्खिय गोमडलस्स पुरुसुत्तमस्स पढाए । के के सवा न जाया समरे गयपहरणा रिउणो ॥ ३॥ " राजाओ का समूह खडित हो गया है, (जिसने और धारा-खडन के भय से ही मानो जयश्री अर्थात् — “जिसके प्रचड भुजदड के द्वारा प्रचड माडलिक अपनी भुजाओ के वल से माडलिक राजात्रो को जीत लिया है) जिसके खजात में वसती है । "राजा श्रेणिक सग्राम मे युद्ध से सत्रम्त कायर पुरुषो का मुख नही देखते, 'रे, रे कायर पुरुपो । भाग जाओ' —— इस प्रकार जिसके प्रताप वर्णन से ही शत्रु दूर भाग जाते है । गोमडल ( गायो का समूह ) जिस तरह पुरुषोत्तम विष्णु के द्वारा रक्षित रहता है, उसी तरह यह पृथ्वीमंडल भी पुरुषो मे उत्तम राजा श्रेणिक के द्वारा रक्षित रहता है । राजा श्रेणिक के समक्ष युद्ध में ऐसे कौन शत्रु- सुभट है, जो मृत्यु को प्राप्त नही हुए, अथवा जिन्होने केशव (विष्णु) के आगे श्रायुधरहित होकर श्रात्म-समर्पण नही किया ।" इस तरह ग्रन्थ का कथाभाग बहुत ही सुन्दर, सरस और मनोरंजक है और कवि ने काव्योचित सभी गुणो का ध्यान रखते हुए उसे पठनीय बनाने का प्रयत्न किया है । ग्रन्थ निर्माण में प्रेरक इस ग्रन्थ की रचना मे जिनकी प्रेरणा को पाकर कवि प्रवृत्त हुआ है, उसका परिचय ग्रन्थकार ने निम्नरूप से दिया है - मालवा में वक्कडवश' के तिलक महामूदन के पुत्र तक्खडु श्रेष्ठी रहते थे । यह ग्रन्थकार के पिता महाकवि देवदत्त के परम मित्र थे । इन्होने ही वीर कवि से जम्बूस्वामीचरित के सकलन करने की प्रेरणा की थी श्रौर तक्खडु " 'यह वश ग्यारहवीं बारहवीं, और तेरहवीं शताब्दियों में खूब प्रसिद्ध रहा। इस वश में दिगम्बरश्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदायों की मान्यता वाले थे । दिगम्बर सम्प्रदाय के कई विद्वान् इसी वश में हुए है, जैसे भविसयत्तकहा के कर्ता कवि धनपाल और धर्मपरीक्षा के कर्ता हरिषेण । हरिषेण ने श्रपनी धर्मपरीक्षा वि०स० १०४४ में बनाई थी । प्रत यह धक्कड या घर्कट वश इससे भी प्राचीन जान पडता है । देलवाडा के वि० स० १२८७ के तेजपाल वा लेशिलालेख में घर्कट या घक्कड जाति का उल्लेख है - लेखक । ५६ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ श्रेष्ठी के कनिष्ट भ्राता भरत ने उसे अधिक सक्षिप्त और अधिक विस्तृत रूप से न कह कर सामान्य कथावस्तु को ही कहने का आग्रह किया था और तक्खडु श्रेष्ठी ने भरत के कथन का समर्थन किया और इस तरह ग्रन्थकर्ता ने अन्य बनाने का उद्यम किया। ग्रथकार इस ग्रन्थ के कर्ता महाकवि वीर है, जो विनयशील विद्वान और कवि थे। इनकी चार स्त्रियां थी। जिनवती, पोमावती, लीलावती और जयादेवी और नेमिचन्द्र नाम का एक पुत्र भी था ।' महाकवि वीर विद्वान और कवि होने के साथ-साथ गुणग्राही न्याय-प्रिय और समुदार व्यक्ति थे। उनकी गुण-ग्राहकता का स्पष्ट उल्लेख ग्रन्य की चतुर्थ सन्धि के प्रारम्भ मे पाये जानेवाले निम्न पद्य से होता है प्रगुणा ण मुणति गुण गुणिणो न सहति परगुणे दठ्ठ । वल्लहगुणा वि गुणिणो विरला कइ वीर-सारिच्छा ॥ अर्थात्--''अगुण अथवा निर्गुण पुरुष गुणो को नही जानता और गुणीजन दूसरे के गुणो को भी नहीं देखते, उन्हे सहन भी नही कर सकते, परन्तु वीर कवि के सदृश कवि विरले है, जो दूसरो के गुणो को समादर को दृष्टि से देखते है।" कवि का वश और माता-पिता कवि वीर के पिता गुडखेड देश के निवासी थे और इनका वश अथवा गोय 'लाड बागड' था । यह वश काष्ठा सघ की एक शाखा है। इस वश में अनेक दिगम्बराचार्य और भट्टारक हुए है, जैसे जयसेन, गुणाकरसेन और महासेन' तथा स० ११४५ के दूवकुण्ड वाले शिलालेख में उल्लिखित देवसेन आदि। इससे इस वश की प्रतिष्ठा का अनुमान किया जा सकता है। इनके पिता का नाम देवदत्त था। यह 'महाकवि' विशेषण से भूषित थे और सम्यक्त्वादि गुण से अलकृत। इनकी दो रचनाओ का उल्लेख प्रस्तुत ग्रन्थ में किया गया है । एक वरागचरित', जिमका इन्होने पद्धडिया छन्द मे उद्वार किया था। दूसरी 'अम्बादेवीरास', जो इनकी स्वतन्त्र कृति मालूम होती है। ये दोनो कृतियाँ अभी तक अप्राप्य है। सम्भव है, किसी भडार में हो और वे प्रयल करने पर मिल जायें। इनकी माता का नाम 'सन्तु' अथवा 'सन्तुव' था, जो शीलगुण से अलकृत थी। इनके तीन लघु सहोदर और थे, जो बडे ही वुद्धिमान् थे और जिनके नाम 'सीहल्ल', 'लक्खणक' और 'जसई' थे, जैसा कि प्रशस्ति के निम्न पद्यो से प्रकट है 'जाया जस्स मणिहा जिणवइ पोमावइ पुणो वीया। लीलावइति तईया पच्छिम भज्जा जयादेवी ॥८॥ पढम कलत्त गरहो सताण कमत्त विडवि पारोहो। विणयगुणमणिणिहाणो तणनो तह णोमिचंदो त्ति ॥ -जबूस्वामिचरितप्रशस्ति । 'काष्ठा सपो भुविख्यातो जानन्ति नूसुरासुराः । तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुता क्षिती ॥ श्रीनन्दितटसज्ञश्च माथुरो वागडाभिघ । लाडवाग इत्येते विख्याता क्षिति मण्डले ॥ -पट्टावलि भ० सुरेन्द्रकीति। 'देखो, महासेन प्रद्युम्नचरित प्रशस्ति, कारजा प्रति । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भाषा का 'जम्बूस्वामिचरित' और महाकवि वीर जस्स कइ-देवयत्तो जणयो सच्चरियलद्धमाहप्पो। सुहसीलसुद्धवसो जणणी सिरिसतुमा भणिया ॥६॥ जस्सय पसण्णवयणा लहुणो सुमइ ससहोयरातिण्णि। . सीहल्ल लक्खणका जसइ णामे ति विक्खाया ॥७॥ चूकि कविवर वीर का बहुत सा समय राज्यकार्य, धर्म, अर्थ और काम की गोष्ठी में व्यतीत होता था, इसलिये इन्हें इस जम्बूस्वामीचरित नामक ग्रन्थ के निर्माण करने में पूरा एक वर्ष का समय लग गया था।' कवि 'वीर' केवल कवि ही नही थे, वल्कि भक्तिरम के भी प्रेमी थे। इन्होने मेघवन' में पत्थर का एक विशाल जिनमन्दिर वनवाया था और उसी मेघवन पट्टण में वर्द्धमान जिन की विशाल प्रतिमा की प्रतिष्ठा भी की थी। कवि ने प्रशस्ति में मन्दिर-निर्माण और प्रतिमा-प्रतिष्टा के सवतादि का कोई उल्लेख नही किया। फिर भी इतना तो निश्चित ही है कि जम्बूस्वामि-चरित ग्रन्थ की रचना से पूर्व ही उक्त दोनो कार्य सम्पन्न हो चुके थे। पूर्ववर्ती विद्वानों का उल्लेख अन्य में कवि ने अपने से पूर्ववर्ती निम्न विद्वान कवियो का उल्लेख किया है शान्ति कवि, जो कवि होते हुए भी वादीन्द्र थे और जयकवि, जिनका पूरा नाम जयदेव मालूम होता है, जिनकी वाणी अदृष्ट अपूर्व अर्थ में स्फुरित होती है। यह जयकवि वही मालूम होते है, जिनका उल्लेख जयकीर्ति ने अपने छन्दानुशासन मे किया है। इनके सिवाय स्वयभूदेव, पुष्पदन्त और देवदत्त का भी उल्लेख किया है। 'बहुरायकज्जवम्मत्यकामगोट्ठीविहत्तसमयस्स । वीरस्स चरियकरणे इक्को संवच्छरो लग्गो ॥५॥-जबूस्वामिचरित प्र०। 'प्रयत्न करने पर भी 'मेघवन का कोई विशेष परिचय उपलब्ध नहीं हो सका। सो जयउ कइ वीरो वीरजिणदस्स कारिय जेण । पाहाणमय भवण पियरुइसेण मेहवणे ॥ इत्येव दिणे मेहवण पट्टणे वड्ढमाणजिणपडिमा । तेणावि महाकइणा वीरेण पयट्ठिया पवरा ।।-जबूस्वामिचरित प्र०। "सतिकई वाई विहू वण्णुक्करिसेषु फुरियविण्णाणो। रससिद्धिसचियत्यो विरलो वाई कई एक्को ॥३॥ "विजयतु जए कइणो जाण वाण अइट्ठपुव्यत्ये। उज्जोइय धरणियलो साहइ वट्टिन्व णिन्वडइ ॥४॥ -जबूस्वामीचरित प्रश०। 'माण्डव्व-पिंगल-जनाश्रय-सेतवाख्य, श्रीपूज्यपाद-जयदेव-बुधादिकानाम् । छदासि वीक्ष्य विविधानपि सत्प्रयोगान् छशेनुशासनमिद जयकीतिनोक्तम् ॥-जैसलमेर भण्डारग्रन्थसूची। "सते सयभूएए वे एक्को कइ त्ति विन्नि पुणु भणिया। जायम्मि पुप्फयते तिणि तहा देवयत्तम्मि । -देखो जबूचरित, सधि ५ का प्राविभाग । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ प्रमो-प्राभनदन-प्रय ग्रन्थ का रचनाकाल भगवान महावीर के निवांप के ४७० वर्ष पश्चात् विक्रम काल की उलनि होती है और विक्रम काल के १०७६ वर्ष व्यतीत होने पर माघ शुक्ला दममी के दिन इन जम्बूस्वामीचरित्र का आचार्य-परम्परा ने सुने हुए बहुलार्यक प्रशस्त पदो म नकलित कर उद्धार किया गया, जैसा कि अन्य प्रगति के निम्न पद्य में प्रकट है वरिसाण सयचउक्के सत्तरिजुत्ते जिणेंद वीरस्त । जिवापा उववण्णा विक्कमकालस्त उप्पत्ती ॥१॥ विक्कमणिवकालानो छाहत्तरदससएसु वरिताण । माहम्मि सुद्धपक्खे दतमोदिवसम्मि सतम्मि ॥२॥ मुणिय आयरियपरपराए वीरेण वीरणिहिट्छ । बहुलल्य पसत्यपय पवरमिण चरियमुद्धरिय ॥३॥ इन का यह ग्रन्य जोवन-परिचय के साथ-साथ अनेक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक व्यक्तियो के उल्लेखो और उनके सामान्य परिचयो से परिपूर्ण है। इसमे भगवान महावीर और उनके ममकालोन व्यक्तियो का परिचय उपलव्व होता है, जो इतिहामशो और अन्वेपण-कांगो के लिए बड़ा ही उपयोगी होगा। x यह प्रन्य-प्रति भट्टारक महेन्द्र कीति अम्बेर या आमेर के गास्त्रभडार की है, जो पहले किनो समय जयपुर राज्य की गजवानी थी। इस प्रति की लेत्रक-प्रगस्ति के नौन ही पद्य नमुपलब्ध है, क्योकि ७वे पन मे आगे का ७७वाँ पत्र उपलब्ध नहीं है। उन पद्यो मे प्रथम व द्वितीय पद्य में प्रति-लिपि के स्थान का नाम-निर्देश करते हुए 'झमना के उनुग जिन-मन्दिरो का भी उल्लेख किया है और ततीय पद्य मे उमका लिपि-ममय विक्रम संवत् १५१६ मगगिर शुक्ला त्रयोदशी बतलाया है, जिससे यह प्रति पांच नौ वर्ष के लगभग पुरानी जान पडती है। सरसावा ] . 'मन्ये वय पुण्यपुरी बभाति, सा मुझणेति प्रकटीबभूव । प्रोत्तुगतन्मडनचैत्यगेहा सोपानवदृश्यति नाकलोके ॥१॥ पुरस्सरारामजलवप्र, कूपा हाणि तत्रास्ति रतीव रम्या (2)। दृश्यन्ति लोका घनपुण्यभाजो ददाति दानस्य विशालशाला ॥२॥ श्रीविक्रमान गते शताब्दे, षडेकपचकसुमार्गशीर्षे । त्रयोदशीया तिथिसर्वशुद्धा श्रीनवूस्वामीति च पुस्तकोऽय ॥३॥ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटखंडागम, कम्मपयडी, सतक और सित्तरी प्रकरण . [क्या इनका एक ही उद्गम है ? ] ५० हीरालाल जैन जिम प्रकार पट्खडागम दिगम्बर सम्प्रदाय का आद्य परम मान्य सिद्धान्त ग्रन्थ माना जाता है, उसी प्रकार कम्मपयडी, सतक और मित्तरी प्रकरण नाम से प्रसिद्ध ग्रन्थ भी श्वेताम्बर सम्प्रदाय मे प्रामाणिक एव प्राचीन शास्त्र माने जाते हैं। पर्वमाधारण पट्खडागम को दिगम्बर अन्य और कम्मपयडी, मतक और मित्तरी को श्वेताम्बर ग्रन्थ ममझते है, परन्तु जब उक्त चारो ग्रन्यो की उत्यानिकानो को देखते है तो एक नये ही रहम्य का उद्घाटन होता है । इसलिए उक्त चारो ग्रन्यो को उत्थानिकानो पर पाठको को दृष्टिपात करना आवश्यक है। पट्खडागम की प्रसिद्ध धवला टोका मे उसकी उत्पत्ति का जो उद्गम वनलाया गया है वह इस प्रकार है एत्य किमायारादो, एव पुच्चा मवेसि । णो आयारादो, एव वारणा मवेमि । दिट्टिवादादो । (पट्ख० भाग १, पृ०१०८) तस्म पच अत्याहिमारा वति, परियम्म-मुत्त-पढमाणियोग-पुब्बवगय चूलिया चेदि। (पट्ख० भा० १, पृ० १०६) एत्य किं परियम्मादो, किं सुत्तादो? एव पुच्छा मन्बेमि । णो पग्यिम्मादो, णो सुत्तादो, एव वारणा मवेसि । पुन्वगयादो। (नम्स) अत्याहियारो चोद्दमविहो। त जहा-उत्पादपूर्वxxxइत्यादि । (पटन० भा० १, पृ० ११४) एत्य किमुप्पाय पुव्वादो, किमग्गेणियादो? एव पुच्या सर्वसि । णो उप्पायपुव्वादो, एव वारणा सर्वोमि । अग्गेणियादो। xxx(तम्स) अत्याधियारो चोहमविहो । त जहा-पुन्वते, अवरते, धुवे, अवे, चयणलद्वीxxx इत्यादि । एत्य किं पुव्वत्नादो, किं अवरनादो ? एव पुच्चा सन्वेसि कायबा। णो पुव्वत्तादो, णो अवरत्तादो, एव वारणा मसिं कायन्वा । चयणलद्धीदो। (पटव० भा० १, पृ० १०३)xxx(तस्म) अत्याधियारो वीमदिवियो। एत्य किं पढमपाहुडादो, किं विदियपाहुडादो? एव पुच्छा मवेसि णेयव्वा । णो पढमपाहुडादो, णो विदियापाहुडादो, एव वारणा मन्त्रेमि णेयन्वा । चउत्थपाहुडादोxxx कम्मपयडिपाहुडादो। (पट्ख० भा० १, पृ० १२०)yxxतम्म अत्याहियारो चउवीमादिविहो। त जहाकदी, वेदणाए, फासे, कम्मे,पयडीसुविधणे, णिवघणे, पक्कमे, उवक्कमे, उदये, मोक्खे, सकमे, लेस्सा, लेस्सायम्मे, लेस्सा परिगामे, सादमसादे, दोहे, रहस्से, भवधारणीये, पोग्गलत्ता, णिवत्तमणिवत्तं, णिकाचिदमणिकाचिद, कम्मटिदी, पच्छिमक्खघेत्ति । अप्पावहुग च सव्वत्य ।xxxएत्य किं कदीदो, किं वेयणादो, एव पुच्छा सव्वत्य कायव्वा । णो कदीदो, णो वेयणादो, एव वारणा मन्त्रेमि णेयवा। ववणादो Ixxxतम्स अत्याधियारो चउबिही। त . जहा बघो, ववगो, वणिज्जो, वधविधाण चेदि । एत्य किं ववादो, एव पुच्छा सव्वेसि कायव्वा । णो बवादो णो वणिज्जादो। ववगादो, बधविधाणादो च।xxxवविधाण चउविह । त जहा-पयडिववो, ट्ठिदिवयो, अणुभागवधो, पदेमववो चेदि । तत्य जो यो पयडिववो मो डुविहो, मूलपयडिवयो, उत्तरपयडिबधी चेदि । XXXइत्यादि (पट्ख० भा० १, पृ० १२५-१२६) गतकप्रकरण की उत्यानिका मे चूर्णिकार ने उमकी उत्पत्ति का जो क्रम बतलाया है, वह उपर्युक्त शब्दो में ही इस प्रकार है xxxदिट्टिवायादो कहेमि । किं परिकम्म-मुत्त-पढमाणुप्रोग-पुब्बगय-चूलिगामइयातो मन्वानो दिट्टिवायायो कहेनि ? न इत्युच्यते पुवगयाओ। किं उप्पायपुव अग्गेणिय जाव लोगविंदुसारापो त्ति एयाओ चोद्दसविहानो सब्वानो पुत्रगयाो कहेसि ? न इत्युच्यते, अग्गेणियातो वीयानो पुवातो। किं अट्ठवत्युपरिणामानो Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ अग्गेणियपुव्वातो सव्वातो कहेमि ? न इत्युच्यते, पुन्वते, अवरते, धुवे, अधुवे चवणलद्धीणाम पचम वत्यू, तातो पचमातो वत्थूतो कहेमि। किं सव्वातो वीसइपाहुडपमाणमेत्तातो कहेसि, न इत्युच्यते, तम्म पचमस्स वत्युस्स चउत्य पाहुड कम्मपगडी नामवेज्ज, ततो कहेमि । तस्स चउवीस अणुजोगदाराइ भवति । त जहा-- कइ' वेदणा' य फासे' कम्मे पगडी य वर्ण णिवघे", । पक्कम उवक्क मुदए मोक्खै "पुण सकमे लेस्सा" ॥१॥ लेसाकम्मे" लेस्सापरिणामे' तह य सायमम्साते"। दीहे हस्से" भवधारणीय तह पोग्गला" अत्ता"॥२॥ णिहत्तमणिहत्त" च णिक्काइयमणिक्काइय कम्मद्विती"। पच्छिमखघे अप्पाबहुग च सव्वत्यो ॥३॥ त्ति। कि मव्वतो चउवीसाणुोगदारमइयातो कहेसि न इत्युच्यते, तस्स छट्ठमणुगोगदार वधण ति ततो कहेमि। तस्स चत्तारि भेदा। त जहा-बघो, वषगो, वधणीय बधविहाण ति । किं सव्वातो चउम्विहाणयोगदारातो कहेसि ? न इत्युच्यते, वधविहाण ति चउत्यमणुप्रोगदार, ततो कहेमि । तस्स चत्तारि विभागा। त जहा-पगइववो ठिइवधो, अणुभागवधो पदेसवधो त्ति मूलुत्तरपगइभे-यभिन्नो Ixxx(गतकप्रकरणपत्र २) अव जरा सित्तरी प्रकरण की उत्यानिका देखिए 'निस्सद दिट्ठिवायस्स' त्ति परिकम्म १ सुत्त २ पढमाणुप्रोग, ३ पुन्वगय ४ चूलियामय ५ पचविहमूलभेयस्स दिट्ठिवायरस, तत्य चोदसण्ह पुन्वाण बीयानो अग्गेणियपुवायो, तस्म वि पचमवत्यूउ, तम्स वि वीसपाहुडपरिमाणस्स कम्मपगडिणामधेज चउत्य पाहुड तो नीणिय चउवीसाणुप्रोगदारमइयमहण्णवस्मेव एगो विंदू, तमो वि इमे तिण्णि अत्याहिगारा नीणिया, तम्हा 'नीसदो दिट्ठिवायस्म' त्ति भण्णइ। (सित्तरीचुण्णि पन २) कम्मपयडीग्रन्थ तो उक्त विच्छिन्न हुए महाकम्मपडिपाहुडका सक्षिप्त एव सगृहीत अश है, यह बात उसकी उत्थानिका मे चूर्णिकार स्पष्टरूप से लिख रहे है xxxदुस्समावलेण खोयमाणमेहाउ सद्धासवेगउज्जमारभ अज्जकालिय साहुजण अणुग्घेत्तुकामेण विच्छिन्नकम्मपयडिमहागथत्यसवोहणत्य पारद्ध पाइरिएण तग्गुणणामग कम्मपयडीसगहणी णाम पगरण । (कम्मपयडोचूणि पत्र १) इस प्रकार उक्त अवतरणो से यह भलीभांति सिद्ध है कि षट्खडागम, कम्मपयडी, सतक और मित्तरी प्रकरण, इन चारो का मूल स्रोत या उद्गमस्थान एक महाकम्मपयडिपाहुड ही है। प्रसन्नता के साथ आश्चर्य की बात तो यह है कि इनमें से पट्खडागम अपनी विशाल धवला टीका के साथ मूडविद्री के एकमात्र दिगम्बर जैन सरस्वती भडार में सुरक्षित रहा और शेष के तीनो ग्रन्य एकमात्र श्वेताम्बर सरस्वती भडारो मे सुरक्षित रहे । क्या यह बात दोनो सम्प्रदायो की समान विरासत या वपीती की परिचायक नहीं है ? पट्खडागम के कर्ता भगवान् पुष्पदन्त भूतवलि प्राचार्य है और वे विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी में हुए है। कम्मपयडी और सतक के कता शिवशर्मसूरि है और विद्वानो ने इनका समय विक्रम को पाचवी शताब्दी माना है। सित्तरी के कर्ता का अभी तक नाम अज्ञात है तथापि उसकी रचना का काल विक्रम की चौथी-छठी शताब्दी के मध्यवर्ती प्रतीत होता है। ____ कम्मपयडी और सतक के कर्ता शिवशर्मसूरि श्वेताम्वर सम्प्रदाय के प्राचार्य माने जाते है, तथापि श्वेताम्बर प्रागमसूत्रो से तथा चन्द्रपिमहत्तर प्रणीत प्रसिद्ध पचसग्रह से कई एक सिद्धान्तो एव मन्तव्यो मे विशेष मिलता है। यहाँ एक वात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है और वह यह कि जहां पचसग्रह की कितनी ही मान्यताएँ श्वेताम्बर Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खडागम, कम्मपयडी, सतक और सित्तरी प्रकरण ४४७ आगमो से मिलती है वहाँ कम्मपयडी की तत्सम्बन्धी मान्यताएँ दिगम्बर आगमो मे मिलती है । उदाहरण के रूप में यहाँ दो-एक मान्यताप्रो का उल्लेख कर देना अप्रामगिक न होगा। (१) कम्मपयडीकार ने तीर्थकर और आहारकद्विक की जघन्य स्थिति अन्त कोडाफोडी सागरोपम की वतलाई है, मगर श्वेताम्बर पचसग्रहकार तीर्थकर प्रकृति की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और आहारकद्विक की अन्तर्मुहूर्त्तमात्र ही मानते है। (२) आयुकर्म की आवावा वतलाते हुए कम्मपयडीकार अनपवायुप्को की आवाधा छ मास कहते है मगर पचसग्रहकार पल्योपम का असख्यातवाँ भाग बतलाते हैं। आश्चर्य नही जो कम्मपयडीकार और सित्तरीकार दोनो ही पट्खडागमकार की ही आम्नाय के हो और उनकी कुछ विशेष मान्यताप्रो को श्वेताम्बर आगमो मे प्रतिकूल देखकर ही चन्द्रपिमहत्तर ने कर्मप्रकृति, शतक, सप्ततिका नाम वाले नये प्रकरणो की रचना की हो। कम्मपयडी की वर्तमान में तीन टीकाएँ उपलव्य है, जिनमें सबसे प्राचीन अनात आचार्य-विरचित चूणि है, जो कि सभी विवादस्थ मन्तव्यो मे मूलकार के समान दिगम्बर अागमो का अनुमरण करती है। इसी चूणि के आधार पर रची गई दूसरी मस्कृत टीका प्राचार्य मलयगिरि की और तीमरी उपाध्याय यशोविजय की है। ये दोनो ही स्पष्टत श्वेताम्बर आचार्य है और सभी विवाद-ग्रस्त विपयो पर श्वेताम्बर आगमो का अनुसरण करते है । निष्कर्ष इस प्रकार उक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि पट्खडागम, कम्मपयडी, मतक और सित्तरी इन चारो ग्रन्यो का एक ही उद्गमस्थान है और वह है द्वादशाग श्रुतज्ञान के वारहवे अग दृष्टिवाद के द्वितीय अग्रायणी पूर्व का पचम च्यवनवस्तु-गत चतुर्थ महाकम्मपयडिपाहुड। यहाँ एक बात और भी ध्यान देने योग्य यह है कि पट्खडागम, कम्मपयडी आदि उक्त चारो ग्रन्थो के निर्माण काल तक जैनपरम्परा मे दृष्टिवाद का पठन-पाठन प्रचलित था, भले ही वह उसके एक देश मात्र का ही क्यो न रह गया हो। दूमरी वात यह सिद्ध होती है कि उक्त चारो ग्रन्थो की रचना श्वेताम्बर सम्प्रदाय मे प्रसिद्ध प्राचारागादि आगमसूत्रो की सकलना के पूर्व हो चुकी थी, क्योकि उनकी मकलना के समय यह घोषित किया गया है कि अव दृष्टिवाद नष्ट या विच्छिन्न हो चुका है। अब केवल एक बात विचारणीय रह जाती है कि उक्त चारो ग्रथों के रचयिता प्राचार्य भी क्या एक ही प्राचार्य-परम्परा के है ? उज्जैन ] Page #483 --------------------------------------------------------------------------  Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य ४४६ अश है ही नहीं। असल में सग्रह और सकलन चाहे जब क्यो न किया जाय उसमें प्राचीन अशोका यथासम्भव सुरक्षित रक्खा जाना ही अधिक सगत जान पडता है। और फिर वल्लभी की सभा ने पाटलिपुत्र और मथुरा वाली सभा के सकलन काही सस्कार या जीर्णोद्धार किया था, कुछ नया सकलन नहीं किया था। . दिगम्बरो के मत से भगवान महावीर की दिव्यवाणी को अवधारण करके उनके प्रथम शिष्य इन्द्रभूति (गौतम) गणवर ने अग-पूर्व ग्रन्थो की रचना की। फिर उन्हें अपने सधर्मा सुधर्मा (लोहार्य) को और सुधर्मा स्वामी ने जम्बूस्वामी को दिया। जम्बूस्वामी से अन्य मुनियो ने उनका अध्ययन किया। यह सव महावीर स्वामी के जीवनकाल में हुआ। इसके बाद विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रवाहु ये पांच श्रुतकेवली हुए । इन्हें पूर्वोक्त अग और पूर्वो का सम्पूर्ण ज्ञान था। महावीर-निर्वाण के ६२ वर्प वाद तक जम्बूस्वामी का और उनके १०० वर्ष वाद तक भद्रवाहु का समय है । अर्थात् दिगम्वर शास्त्रो के अनुसार महावीर-निर्वाण के १६२ वर्ष बाद तक अग और पूर्वो का अस्तित्व रहा। ___ इसके बाद के क्रमश लुप्त होते गये और वीर-निर्वाण ६८३ तक एक तरह से सर्वथा लुप्त हो गये । अन्तिम अगवारी लोहार्य (द्वितीय) वतलाये गये हैं, जिनको केवल एक प्राचाराग का ज्ञान था। इसके वाद अग और पूर्वो के एकदेश के ज्ञाता और उस एकदेश के भी अशो के ज्ञाता आचार्य हुए, जिनमें सौराष्ट्र के गिरिनगर के घरसेनाचार्य का नाम उल्लेखनीय है । उन्हे अग्रायणीपूर्व के पचमवस्तुगत महाकर्मप्राभृत का ज्ञान था। इन्होने अपने अन्तिम काल में आन्ध्रदेश से भूतवलि और पुष्पदन्त नामक शिष्यो को बुला कर पढाया और तव इन शिष्योने विक्रम की लगभग दूसरी शताब्दी मे षट्खडागम तथा कषायप्राभूत सिद्धान्तो की रचना की। ये सिद्धान्त-ग्रन्थ वडी विशाल टीकाप्रो के सहित अव तक सिर्फ कर्णाटक के मूडविद्री नामक स्थान में सुरक्षित थे, अन्यत्र कहीं नहीं थे। कुछ ही समय हुआ इनमें से दो टीका-ग्रन्थ धवला और जय-धवला वाहर आये है और उनमें से एक वीरसेनाचार्यकृत धवला टीका का प्रकाशन प्रारम्भ हो गया है। इस टीका के निर्माण का समय शक संवत् ७३८ है। ऐसा मालूम होता है कि श्वेताम्बर-मान्य अग-अन्य एक काल के लिखे हुए नही हैं । सम्भवत इनकी रचना महावीर-निर्वाण के अव्यवहित वाद से लेकर कुछ-न-कुछ देवद्धिगणि के काल तक होती रही होगी। इसका एक प्रमाण यह भी है कि प्रार्य सुधर्म,पार्य श्याम और भद्रवाहु आदि महावीर के परवर्ती अनेक प्राचार्य प्रगो और उपागो के रचयिता माने जाते हैं। ___ सम्पूर्ण जैनागम छ भागो में विभक्त है-(१) वारह अग, (२) वारह उवग या उपाग, (३) दस पइण्णा या प्रकीर्णक, (४) छ छेयसुत्त या छेदसूत्र, (५) दो सूत्र-ग्रन्थ, (६) चार मूल सुत्त या मूल सूत्र । ये सभी ग्रन्थ आप या अर्ध-मागधी प्राकृत में लिखे हुए है। कुछ प्राचार्यों के मत से वारहवां अग दृष्टिवाद सस्कृत में था । वाक़ी जैनसाहित्य महाराष्ट्री प्राकृत, अपभ्रश और सस्कृत में है। अंग और उपागपहला अगायारगसुत्त या आचाराङ्ग सूत्र है, जो दो विस्तृत श्रुत-स्कयो में जैन मुनियो के कर्तव्याकर्तव्यप्राचार का निर्देश करता है। विद्वानो के मत से इसका प्रथम श्रुतस्कन्ध दूसरे से पुराना होना चाहिए। वौद्ध माहित्य में जिस प्रकार गद्य-पद्यमय रचनाएं पाई जाती है, ठीक वैसी ही इसमें भी है। जैन और वौद्ध शास्त्रो में जो अन्तर स्पष्ट दिखाई देता है, वह यह है कि जहाँ वौद्ध सघ के नियमो में वहुत-कुछ ढील दिखलाई पडती है, वहां जैन-सघ के नियमो और अनुशासनो में वडी कडाई की व्यवस्था है। , 'तेनेन्द्रभूतिगणिना तहिव्यवचोऽवबुध्य तत्त्वेन । ग्रन्थोऽङ्गपूर्व-नाम्नाप्रतिरचितो युगपदपराह्न। ६६-श्रुतावतार Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ वारह भग ये है १मायारग सुत्त (आचाराग सूत्र), २ सूयगडग (सूत्रकृताग), ३ ठाणाङ्ग (स्थनानाङ्ग), ४ समवायग (समवायाग),५ भगवती वियाहपण्णति (भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति),६नाया धम्मकहानो (ज्ञातृधर्मकथा ), ७ उवासगदसानो (उपासकदशा), ८ अन्तगडदसामो (अन्तकृद्दशा ), ६ अणुत्तरोववाइयदसाप्रो (अनुत्तरोपपातिकदशा), १० पण्हवागरणाइ (प्रश्नव्याकरणानि.), ११ विवागसुय (विपाकश्रुत) और १२ दिदिवाय (दृष्टिवाद) । वारह उपाग ये हैं १ उववाइय (ोपपातिक), २ रायपसेणइज्ज (राजप्रश्नीय), ३ जीवाभिगम, ४ पन्नवणा (प्रज्ञापना), ५ सूरपण्णति (सूर्यप्रज्ञप्ति), ६ जम्बुद्दीवपण्णत्ति (जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति), ७ चन्द-पण्णत्ति (चन्द्रप्रज्ञप्ति), ८ निरयावली (नरकावलिका), ६ कप्पावडसिमानो (कल्पावतसिका), १० पुष्पचूलिआओ (पुप्पचूलिका), ११वण्हिदसाओ (वृष्णिदशा)। __ दस पइण्णा (प्रकीर्णक) ये है १ वीरभद्रलिखित चऊसरण (चतु शरण), २ पाउरपच्चक्खाण (आतुरप्रत्याख्यान), ३ भत्तपरिणा (भक्तपरिज्ञा), ४ सथार (सस्तार), ५ तडुल-वेयालिय (तन्दुलवैचारिक) ६ चन्दाविज्मय (चन्द्रवेधक), ७ देविन्दत्था (देवेन्दस्तव), ८ गणिविज्जा (गणिविद्या.), ६ महापच्चक्खाण (महाप्रत्याख्यान), १० वीरत्यन (वीरस्तव)। छ छेदसूत्र ये है १ निसीह (निशीथ), २ महानिसीह (महानिशीथ), ३ ववहार (व्यवहार), ४ आचारदसाओ (माचारदशा), ५ कप्प (वृहत्कल्प.), ६ पचकप्प (पचकल्प)। पचकल्प के बदले कोई-कोई जिनभद्ररचित जीयकप्प या जीतकल्प को छठा सूत्र मानते है। चार मूल सुत्त (मूलसूत्र) ये है १ उत्तराज्झाय (उत्तराध्याया) या उत्तरल्झयन (उत्तराध्ययन), २ आवस्सय (आवश्यक), ३ दसवेयालिय ( शवकालिक), ४ पिण्डनिज्जुत्ति (पिण्डनियुक्ति) । तृतीय और चतुर्थ मूलसूत्रो के स्थान पर कभी-कभी ओहनिन्जुत्ति (प्रोपनियुक्ति) और पक्खी सुत्त (पाक्षिक सूत्र) का नाम लिया जाता है। दो और अथ इस प्रकार है-१ नन्दीसुत्त (नन्दिसूत्र) और २ अणुयोगदार (अनुयोगद्वार)। इस प्रकार इन ४५ ग्रन्थो को सिद्धान्त-ग्रन्थ माना जाता है, पर कही-कही इन ग्रन्थो के नामो में मतभेद भी पाया जाता है। मतभेद वाले गन्थो को भी सिद्धान्त-ग्रन्थ मान लिया जाय तो उनकी सख्या सव मिला कर ५० के आसपास होती है। अगो में साधारणत जैन तत्त्ववाद, विरुद्धमत का खडन और जन ऐतिहासिक कहानियां विवृत है। अनेको में प्राचार-व्रत आदि का वर्णन है। उपागो में से कई (नम्वर ५, ६,७) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उनमें ज्योतिष, भूगोल, खगोल आदि का वर्णन है। सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति (दोनो प्राय समान वर्णन वाले है) ससार के ज्योतिषिक साहित्य में अपना अद्वितीय सिद्धान्त उपस्थित करती है। इनके अनुसार प्रकाश में दिखने वाले ज्योतिष्क पिण्ड दो-दो है, अर्थात् दो सूर्य है, दो-दो नक्षत्र । वेदाग ज्योतिष की भांति ये दोनो ग्रन्थ खीप्टपूर्व छठी शताब्दी के भारतीय ज्योतिष-विज्ञान के रेकर्ड है । सब मिला कर जैन सिद्धान्त-ग्रन्थो में बहुत ज्ञातव्य और महत्त्वपूर्ण सामग्री विखरी पडी है, पर वौद्धसाहित्य की भांति इस साहित्य ने अब तक देश-विदेश के पडितो का ध्यान आकृष्ट नहीं किया है। कारण कुछ तो इनकी प्रतिपादन-शैली की शुष्कता है और कुछ उस वस्तु काप्रभाव,जिसे आधुनिक पडित Human Interest कहते है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपपण्णति को उपाग माना है और दिगम्बरोने दृष्टिवाद के पहले भेद परिकर्म में इनकी गणना की है। इसी तरह श्वेताम्बरो के अनुसार जो सामायिक, सस्तव, वन्दना और प्रतिक्रमण दूसरे मूलसूत्र आवश्यक के प्रश विशेष है उन्हें दिगम्बरो ने अग-बाह्य के चौदह भेदो मे गिनाया है। दशवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार और निशीथ नामक ग्रन्थ भी अगबाह्य बतलाये गये है। अगो के अतिरिक्त जो भी साहित्य है वह सव अगवाह्य है । अगप्रविष्ट और अगवाह्य भेद श्वेताम्बर सम्प्रदाय मे भी माने गये है और उपाग एक तरह से अगवाह ही है। दिगम्बर सम्प्रदाय में उपाग भेद का उल्लेख नहीं है। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५१ जैन साहित्य परन्तु उक्त अग और अग वाह्य ग्रन्थो के दिगम्बर सम्प्रदाय में सिर्फ नाम ही नाम है । इन नामो का कोई अन्य उपलब्ध नहीं है। उनका कहना है कि वे सब नष्ट हो चुके है। दिगम्बरोने एक दूसरे ढग से भी समस्त जैनसाहित्य का वर्गीकरण करके उसे चार भागो में विभक्त किया है (१) प्रथमानुयोग जिसमें पुराण पुरुषो के चरित और कथाग्रन्थ है, जैसे पद्मपुराण, हरिवशपुराण, त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण (आदिपुराण और उत्तरपुराण), (२) करणानुयोग जिसमें भूगोल-खगोल का, चारो गतियो का और काल-विभाग का वर्णन है, जैसे त्रिलोकप्रज्ञप्ति, त्रिलोकसार, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, सूर्य-चन्द्र-प्रज्ञप्ति प्रादि। (३) द्रव्यानुयोग जिसमें जीव-अजीव आदि तत्त्वो का, पुण्य-पाप बन्ध-मोक्ष का वर्णन हो, जैसे कुन्दकुन्दाचार्य के समयसार, प्रवचनसार,पचास्तिकाय, उमास्वाति का तत्त्वार्थाधिगम आदि। (४) चरणानुयोग जिसमें मुनियो और श्रावको के आचार का वर्णन हो, जैसे वट्टकेर का मूलाचार, आगाधर के सागार-अनगारधर्मामृत, समन्तभद्र का रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि। इन चार अनुयोगो को वेद भी कहा गया है। दिगम्बर-सम्प्रदाय के अनुसार वारह अगो के नाम वही है, जो ऊपर लिखे गये है। वारहवें अग दृष्टिवाद के पांच भेद किये है-१ परिकर्म, २ सूत्र, ३ प्रथमानुयोग, ४ पूर्वगत और ५ चूलिका। फिर पूर्वगत के चौदह भेद वतलाये है-१ उत्पादपूर्व, २ अग्रायणी, ३ वीर्यानुप्रवाद, ४ अस्तिनास्तिप्रवाद, ५ ज्ञानप्रवाद, ६ सत्यप्रवाद, ७ आत्मप्रवाद, ८ कर्मप्रवाद, ६ प्रत्याख्यान, १० विद्यानुप्रवाद, ११ कल्याण, १२ प्राणावाय, १३ क्रियाविशाल और १४ लोकविन्दुसार। इन वारहो अगो की रचना भगवान् के साक्षात शिष्य गणघरो द्वारा हुई वतलाई गई है। इनके अतिरिक्त जो साहित्य है वह अगवाह्य नाम से अभिहित किया गया है। उसके चौदह भेद है, जिन्हें प्रकीर्णक कहते है १ सामायिक, २ सस्तव, ३ वन्दना, ४ प्रतिक्रमण, ५ विनय, ६ कृतिकर्म,७ दशवकालिक, ८ उत्तराध्ययन, ६ कल्पव्यवहार, १० कल्पाकल्प, ११ महाकल्प, १२ पुण्डरीक, १३ महापुण्डरीक, १४ निशीथ । इन प्रकीर्णको के रचयिता पारातीय मुनि बतलाये गये हैं जो अग-पूर्वो के एकदेश के ज्ञाता थे। सिद्धान्तोत्तर साहित्य देवधिगणि के सिद्धान्त-ग्रन्थ सकलन के पहले से ही जैन आचार्यों के ग्रन्थ लिखने का प्रमाण पाया जाता है। सिद्धान्त-ग्रन्थो में कुछ ग्रन्थ ऐसे है, जिन्हें निश्चित रूप से किसी आचार्य की कृति कहा जा सकता है। बाद में तो ऐसे ग्रन्थो की भरमार हो गई। साधारणत,ये ग्रन्थ जैन प्राकृत में लिखे जाते रहे, पर सस्कृत भाषा ने भी सन् ईसवी के वाद प्रवेश पाया। कई जैन प्राचार्यों ने सस्कृत भाषा पर भी अधिकार कर लिया, फिर भी प्राकृत और अपभ्रश को त्यागा नही गया। सस्कृत को भी लोक-सुलभ बनाने की चेष्टा की गई। यह पहले ही बताया गया है कि भद्रबाहु महावीर स्वामी के निर्वाण की दूसरी शताब्दी में वर्तमान थे। कल्पसूत्र उन्ही का लिखा हुआ कहाजाताहै। दिगम्बर लोग एक और भद्रवाहु की चर्चा करते है, जो सन् ईसवी से १२ वर्ष पहले हुए थे। यह कहना कठिन है कि कल्पसूत्र किम भद्रबाहु की रचना है। कुन्दकुन्द ने प्राकृत में ही ग्रन्थ लिखे है। इनके सिवाय उमास्वामी या उमास्वाति, वट्टकेर, निद्धसेन दिवाकर, विमलसूरि, पालित्त, आदि आचार्य सन् ईसवी के कुछ आगे-पीछे उत्पन्न हुए, जिनमें से कई दोनो सम्प्रदायो में समान भाव से प्रादृत हैं। पांचवी शताब्दी के बाद एक प्रसिद्ध दार्शनिक और वैयाकरण हुए, जिन्हें देवनन्दि (पूज्यपाद) कहते है । सातवी-आठवी शताब्दी भारतीय दर्शन के इतिहास में अपनी उज्ज्वल प्रामा छोड गई। प्रसिद्ध मीमासक कुमारिल भट्ट का जन्म इन्ही शताब्दियो में हुआ, जिन्होने वौद्धो और जैन आचार्यो (विशेषकर समन्तभद्र और अकलक) पर कटु आक्रमण किया तथा वदले में जैन प्राचार्यों (विशेष रूप से प्रभाचन्द्र मोर विद्यानन्द) द्वारा प्रत्याक्रमण पाया। इन्ही शताब्दियो में सुप्रसिद्ध आचार्य शकर स्वामी हए, जिन्होने अद्वैत वेदान्त की प्रतिष्ठा की। इस शताब्दी में सर्वाधिक प्रतिभाशाली जैन आचार्य हरिभद्र हुए, जो ब्राह्मणवग में उत्पन्न होकर समस्त ब्राह्मण शास्त्रो के अध्ययन के बाद जैन हुए थे। इनके लिखे हुए ८८ अन्य प्राप्त हुए है, जिनमें बहुत-ने छप चुके है। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ • प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ वारहवी शताब्दी में प्रसिद्ध जैन आचार्य हेमचन्द्र का प्रादुर्भाव हुआ। इन्होने दर्शन, व्याकरण और काव्य तीनो में समान भाव से कलम चलाई। इन नाना विषयो मे, नाना भाषामो मे और नाना मतो में अगाध पाडित्य प्राप्त करने के कारण इन्हें शिष्यमडली 'कलिकालसर्वज्ञ' कहा करती थी। इस शताब्दी में और इसके बाद भी जैनग्रन्थो और टीकामो की वाढ-सी आ गई। इन दिनो की लिखी हुई सिद्धान्त-ग्रन्थो की अनेक टीकाएँ वहुत ही महत्त्वपूर्ण है। असल में यह युग ही टीकामो का था। भारतीय मनीषा सर्वत्र टीका में व्यस्त थी। विमलसूरि का पउमचरिय (पद्मचरित) नामक प्राकृत काव्य, जो शायद सन् ईसवी के प्रारम्भकाल में लिखा गया था, काफी मनोरजक है। इसमें राम की कथा है, जो हिन्दुनो की रामायण से बहुत भिन्न है । ग्रन्थ मे वाल्मीकि को मिथ्यावादी कहा गया है। इस पर से यह अनुमान करना असगत नही कि कवि ने वाल्मीकि रामायण को देखा था। दशरथ की तीन रानियो में कौशल्या के स्थान पर अपराजिता नाम है, जो पद्म या राम की माता थी। दशरथ के बडे भाई थे अनन्तरथ । ये जैन साधु हो गये थे, इसीलिये दशरथ को राज्य लेना पड़ा। जनक ने अपनी कन्या सीता को राम से व्याहने का इसलिए विचार किया था कि राम (पद्म) ने म्लेच्छो के विरुद्ध जनक की सहायता की थी। परन्तु विद्याधर लोग झगड पडे कि सीता पहले से उनके राजकुमार चन्द्रगति की वाग्दत्ता थी। इसी झगडे को मिटाने के लिए धनुषवाली स्वयवर सभा हुई थी। अन्त में दशरथ जैन भिक्षु हो गये। भरत की भी यही इच्छा थी, पर राम और कैकेयी के प्राग्रह से वे तव तक के लिए राज्य सँभालने को प्रस्तुत हो गये जव तक पद्म (राम) न लौट आये। आगे की कथा प्राय सव वही है । अन्त में राम को निर्वाण प्राप्त होता है। यहां राम सम्पूर्ण जैन वातावरण में पले है। सन् ६७५ में रविषेण ने सस्कृत में जो पद्मचरित लिखा वह विमल के प्राकृत पउमचरिय का प्राय सस्कृत रुपान्तर या अनुवाद है । गुणभद्र भदन्त के उत्तरपुराण के ६८वें पर्व में और हेमचन्द्र के त्रिषष्टिगलाका-पुरुप-चरित के ७३ पर्व में भी यह कथा है। हेमचन्द्र की कृति को जैन-रामायण भी कहते हैं। रामायण की भांति महाभारत की कथा भी जैन ग्रन्यो में बार-बार पाई है। सबसे पुराना सघदास गणिका वसुदेवहिण्डि नामक विशाल अन्य प्राकृत भाषा में है और संस्कृत में शायद पुन्नाट-सघ के प्राचार्य जिनसेन का ६६ सर्गी हरिवशपुराण है। सकलकीर्ति आदि और भी अनेक विद्वानो ने हरिवंशपुराण लिखे हैं। इसी तरह १२०० ई० में मलघारि देवप्रभसूरि ने पाण्डवचरित नामक एक काव्य लिखा था, जो महाभारत का सक्षिप्त रूप है । १६वी शताब्दी में शुभचन्द्र ने एक पाण्डवपुराण, जिसे जैन महाभारत भी कहते हैं, लिखा था। अपभ्रश भाषा में तो महापुराण, हरिवंशपुराण, पद्म-पुराण स्वयभू पुष्पदन्त आदि अनेक कवियो ने लिखे है। जैनपुराणों के मूल प्रतिपाद्य विषय ६३ महापुरुषो के चरित्र है । इनमें २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ६ वलदेव, ६ वासुदेव और प्रतिवासुदेव हैं। इन चरित्रो के आधार पर लिखे गये ग्रन्थो को दिगम्बर लोग साधारणत 'पुराण' कहते हैं और श्वेताम्वर लोग 'चरित'। पुराणों में सबसे पुराना त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण (सक्षेप में महापुराण) है, जिसके आदिपुराण और उत्तरपुराण, ऐसे दो भाग है । प्रादिपुराण के अन्तिम पांच अध्यायो को छोड कर वाकी के लेखक जिनसेन (पचस्तूपान्वयी) है तथा अन्तिम पांच अध्याय और समूचा उत्तरपुराण उनके शिष्य गुणभद्र का लिखा हुआ। पुराणो की कथाएँ वहुधा राजा श्रेणिक (विम्बिसार) के प्रश्न करने पर गौतम गणधर द्वारा कहलाई गई है। महापुराण का रचनाकाल शायद सन् ईसवी की नवीं शताब्दी है । इन पुराणो से मिलते हुए श्वेताम्बर चरितो में सव से प्रसिद्ध है हेमचन्द्र का त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, जिसे प्राचार्य ने स्वय महाकाव्य कहा है। इस प्रश की बहुतसी कहानियां यूरोपियनों के मत से विश्व-साहित्य में स्थान पाने योग्य है । वीरनन्दिका चन्द्रप्रभचरित, वादिराज का पार्श्वनाथचरित, हरिचन्द्र का धर्मशर्माभ्युदय, धनजय का द्विसन्धान, वाग्भट का नेमिनिर्वाण, अभयदेव का जयन्तविजय, मुनिचन्द्र का शान्तिनाथचरित, आदि उच्च कोटि के महाकाव्य है । ऐसे भी चरित है, जो ६३ पुराणपुरुषो के अतिरिक्त अन्य प्रद्युम्न, नागकुमार, वराग, यशोधर, जीवधर, जम्बूस्वामी, जिनदत्त, श्रीपाल आदि महात्माओ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य ४५३ के हैं और इनकी सख्या काफी अधिक है। पार्श्वनाथ के चरित को अवलम्वन करके लिखे गये काव्यो की भी सख्या कम नही है । वादिराज, असग, वादिचन्द्र, सकलकीर्ति, माणिक्यचन्द्र, भावदेव और उदयवीरगणि आदि अनेक दिगम्वर - श्वेताम्वर कवियो ने इस विषय पर खूब लेखनी चलाई है । } जैनो के साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण श्रग प्रबन्ध है, जिन्हें ऐतिहासिक विवृतियाँ कह सकते है । चन्द्रप्रभसूरि का प्रभावकचरित, मेरुतुङ्ग का प्रवन्ध- चिन्तामणि (१३०६ ई०), राजशेखर का प्रवन्ध कोष (१३०८ ई०), जिनप्रभसूरि का तीर्थंकल्प (१३२६-३१ ई०) श्रादि रचनाएँ नाना दृष्टियो से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । इन प्रवन्धो ने इस बात प्रसिद्ध कर दिया है कि भारतीयों में ऐतिहासिक दृष्टि का प्रभाव था । इसी प्रकार जैन मुनियो की लिखी कहानियो की पुस्तकें भी काफी मनोरजक है । पालित्त ( पादलिप्त ) सूरि की तरङ्गवती कथा काफी प्राचीन पुस्तक है । हरिभद्र का प्राकृत गद्यकाव्य समराइच्च - कहा एक धार्मिक कथा -ग्रन्थ है । इसी तरह की 'कुवलयमाला' कथा भी है, जिसके रचयिता दाक्षिण्य-चिह्न उद्योतन सूरि है (आठवी शताब्दी) । इसी के अनुकरण पर सिद्धर्षि ने संस्कृत में उपमितिभव - प्रपञ्चकया लिखी थी. (६०६ ई० ) । धनपाल का अपभ्रश काव्य 'भविसयत्त - कहा ' काफी प्रसिद्ध है । ऐसी और भी अनेक कथाएँ लिखी गई है । यद्यपि ये धर्म-कथाएँ कही जाती है, पर अधिकाश में काल्पनिक कहानियाँ है । चम्पू जाति के काव्य भी जैन साहित्य में बहुत अधिक हैं । सोमदेव का यशस्तिलक (६५६ ई० ) प्रसिद्धि पा चुका है । हरिचन्द्र का जीवन्धरचम्पू, श्रद्दास का पुरुदेवचम्पू (१३वी सदी) आदि इसी जाति की रचनाएँ हैं । धनपाल की तिलक-मजरी ( ९७० ई०), प्रोडयदेव (वादी सिंह) की गद्यचिन्तामणि कादम्बरी के ढङ्ग के गद्य-काव्य है ( ११वी सदी) । इनके अतिरिक्त कहानियो की और भी दर्जनो पुस्तकें हैं, जिनका मूल उद्देश्य जैनवर्म को महिमा वर्णन करना है । कथाओ के कई सग्रह भी हैं, जो कथाकोश कहलाते हैं । इनमें पुन्नाटसघ के आचार्यं हरिपेण का कथाकोश सब से पुराना है ( ई० स० ६३२) । प्रभाचन्द्र, नेमिदत्तब्रह्मचारी, रामचन्द्र मुमुक्षु श्रादि के कथाकोश अपेक्षाकृत नवीन है । श्रीचन्द्र का एक कथाकोप श्रपश्रण भाषा में भी है । ऐसे ही जिनेश्वर, देवभद्र, राजशेखर, हेमहस आदि के कथा-ग्रन्थ है । यह साहित्य इतना विशाल है कि इस क्षुद्रकाय परिचय में सवका नाम देना भी मुश्किल है । नाना दृष्टियों से, विशेषकर जन साधारण के जीवन के सम्बन्ध में, जानने के लिए इन ग्रन्थो का बहुत महत्त्व है । जैन श्राचार्यों ने नाटक भी लिसे है जिनमें से अधिकाश श्रसाम्प्रदायिक है | हेचन्द्राचार्य के शिष्य रामचन्द्र सूरि के कई नाटक है | नलविलास, सत्यहरिश्चन्द्र, कौमुदीमित्रानन्द, राघवाभ्युदय, निर्भय भीम - व्यायोग श्रादि नाटक प्रसिद्ध है । कहते हैं, इन्होने १०० प्रकरण-ग्रन्थ लिखे थे । विजयपाल के द्रौपदीस्वयवर, हस्तिमल्ल के विक्रान्त कौरव और सुभद्राहरण में भी महाभारतीय कथाओ को नाटक का रूप दिया गया है । हस्तिमल्ल ने रामायण की कथा का आश्रय लेकर मैथिली कल्याण श्रौर अजनापवनजय नामक दो और नाटक लिखे है । यशश्चन्द्र का मुद्रित कुमुदचन्द्र एक साम्प्रदायिक नाटक है, जिसमें कुमुदचन्द्र नामक दिगम्वर पडित का श्वेताम्बर पडित से पराजित होगा वर्णन किया गया है (११२४ ई०) । वादिचन्द्रसूरि का ज्ञानसूर्योदय श्रीकृष्ण मिश्र के सुप्रसिद्ध 'प्रबोध - चन्द्रोदय' नाटक के ढग का एक तरह से उसके उत्तर रूप में लिखा हुआ नाटक है । जयसिंह का हम्मीर-मद-मर्दन ऐतिहासिक नाटक है । सन् १२०३ ई० के आसपास यश पाल ने मोहराज पराजय नामक रूपक लिखा था । मेघप्रभाचार्य का धर्माभ्युदय काफी मशहूर है । काव्य नाटको के सिवा जैन कवियो ने हिन्दू और बौद्ध आचार्यों की भांति एक बहुत बड़े स्तोत्र साहित्य की भी रचना की है । नीति-ग्रन्थो की भी जैन साहित्य में कमी नही है । राष्ट्रकूट अमोघवर्ष की प्रश्नोत्तर रत्नमाला को ब्राह्मण, वौद्ध और जैन सभी अपनी सम्पत्ति मानते है । इसके सिवा प्राकृत और संस्कृत में जैन पंडितो के लिखे हुए विविध नीतिग्रन्थ वहुत अधिक है । दिगम्बर आचार्य अमितगति के सुभाषितरत्नसन्दोह, योगसार और धर्मपरीक्षा (१०९३ ई०) महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इन ग्रन्थो में सभी जैन- प्रिय विषय है वैराग्य, स्त्री- निन्दा, ब्राह्मण निन्दा, त्याग Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ इत्यादि । हेमचन्द्र का योगशास्त्र और शुभचन्द्रका ज्ञानार्णव बहुत लोकप्रिय ग्रन्थ है । और भी अनेक नीतिग्रन्थ है, जिनमें सोमप्रभ के कुमारपालप्रतिवोध, सूक्तिमुक्तावली और शृगारवैराग्यतरगिणी, चारित्रसुन्दर का शीलदूत (१४२० ई०), समयसुन्दर की गाथासहस्री (१६३० ई०) प्रसिद्ध है। लेकिन जैन प्राचार्यों का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है उनकी दार्शनिक सैद्धान्तिक उक्तियां । यह जानी हुई बात है कि इन पडितो ने न्यायशास्त्र को पूर्णता तक पहुंचाया है। कुन्दकुन्द, अमृतचन्द्र, कार्तिकेय स्वामी, उमास्वाति, देवनन्दि, अकलक, प्रभाचन्द्र, वादिराज, सोमदेव, आशाधर आदि दिगम्बर प्राचार्यों ने भारतीय चिन्ता-धारा. को बहुत अधिक समृद्ध किया है । इसी प्रकार श्वेताम्बर आचार्यों मे हरिभद्र, मल्लवादी, वादि-देवसूरि, मल्लिषेण, अभयदेव, हेमचन्द्र, यशोविजय आदि ने जनदर्शन पर महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी है, जो निश्चित रूप से भारतीय पाण्डित्य की भूपण है । इन दार्शनिक ग्रन्यो के सिवाय जैन सम्प्रदाय के बाहर नाना क्षेत्रो में, जैसे काव्य नाटक, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, कोष, अलकार, गणित और राजनीति आदि विषयो पर भी जैन आचार्यों ने लिखा है। बौद्धो की अपेक्षा वे इस क्षेत्र में अधिक असाम्प्रदायिक है। फिर गुजराती, हिन्दी, राजस्थानी, तेलगु, तामिल और विशेष रूप से कन्नडी, साहित्य में भी उनका दान अत्यधिक है। कन्नड़ी साहित्य पर तो ईसा की तेरहवी शताब्दी तक जैनो का एकाधिपत्य रहा है। कन्नडी के उपलब्ध साहित्य के लगभग दो-तिहाई ग्रन्थ जैन विद्वानो के रचे हुए है। इस प्रकार भारतीय चिन्ता की समृद्धि में यह सम्प्रदाय बहुत महत्त्वपूर्ण है। शातिनिकेतन] - - - Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में प्राचीन ऐतिहासिक स ग्री श्री कामताप्रसाद जैन जैन साहित्य जितना ही विशाल है, उतना ही वह अज्ञात भी है । उसके अनेक बहुमूल्य रत्न आज भी किसी एकान्त भण्डार की शोभा बढा रहे है। बाहर की दुनिया की बात तो न्यारी है, स्वय जैनियो को ही यह पता नही कि उनके घर में कैसे-कैसे अन्ठे रत्न है । उन रत्नो को प्रकाश में लाने का उद्योग यद्यपि अब होने लगा है, तथापि वह सन्तोषजनक नही है । उस पर, जो भी प्रकाशन होता है वह जैनो के खास समुदाय तक सीमित रहता है । जैनो ने ऐसा कोई प्रबन्ध नही किया है, जिससे उनका साहित्य श्रजैन विद्वानो को सुलभता से प्राप्त हो सके । यही कारण है कि जैन साहित्य के महत्त्व को आधुनिक साहित्यरथी नही आँक पाये है । इसमें दोष हमारा ही है। श्री नाथूराम जी 'प्रेमी' ने अपने व्यक्तिगत श्रादर्श से इस दोष को हल्का करने का उद्योग बहुत पहले किया था, परन्तु अकेले उनका यह कार्य न था । उनके आदर्श का अनुकरण जैनो को सामूहिक रूप में करना चाहिए। ऐसा करने से ही जैन साहित्य का वास्तविक स्वरूप बाह्य जगत को ज्ञात होगा । 1 जैन साहित्य पर एक विहगम दृष्टि डालने से ही उसका विशाल रूप स्पष्ट हो जाता है । उपलब्ध जैन साहित्य की मूल आधार शिला जिनेन्द्र महावीर वर्द्धमान की, जिन्हें निर्ग्रन्थ ज्ञात्रिपुत्र भी कहते हैं, वाणी है । जिनेन्द्र महावीर के मुखारविन्द से जो वाणी निर्गत हुई, उसी की ग्रन्थबद्ध रचना गणवर इन्द्रभूति गौतम ने की थी । वह जिन-वाणी बारह अङ्ग-ग्रन्थो में रची गई थी । वारहवें दृष्टिवाद अग में चौदह पूर्व-प्रन्थो का समावेश था । इसके अतिरिक्त अद्भूवाह्य प्रकीर्णक साहित्य भी था । किन्तु जैनो का यह प्राचीन साहित्य पुरातन परिपाटी के अनुसार मेघावी ऋषिवरो की स्मृति में सुरक्षित था । ज्योज्यो ऋषिवरो की स्मृति क्षीण होती गई, जैनो का यह प्राचीन साहित्य लुप्त होता गया । कलिङ्ग चक्रवर्ती एल० खारवेल ने इस जैन वाङ्मय के उद्धार का उद्योग जैनयतिवरो का सम्मेलन बुलाकर किया था, किन्तु उनका यह स्तुत्य प्रयास भी काल की करालगति को रोक न सका। अलबत्ता उस सम्मेलन में यदि अवशेष अङ्ग साहित्य लिपिबद्ध कर लिया जाता तो जैन साहित्य की अमूल्य निधि सर्वथा लुप्त न होती, किन्तु मालूम ऐसा होता है कि जैन अङ्ग-प्रन्थो के विशाल रूप और उनके प्रति विनयभाव ने उस सम्मेलन में लिपिबद्ध करने का प्रश्नही उपस्थित नही होने दिया । दिगम्बर जैन कहते है कि श्रङ्गगत अर्द्धमागधी भाषा का वह मूल साहित्य प्राय सर्वलुप्त हो गया । दृष्टिवाद अङ्ग के पूर्वगतभ्प्रन्थ का कुछ प्रश ईस्वी प्रारंभिक शताब्दी में श्रीधर सेनाचार्यं को ज्ञात था । उन्होने देखा कि यदि वह शेषाश भी लिपिबद्ध नही किया जायगा तो जिनवाणी का सर्वथा अभाव हो जायगा । फलत उन्होने श्री पुष्पदन्त और श्री भूतवलि सदृश मेघावी ऋषियोको बुलाकर गिरिनार की चन्द्रगुफा में उसे लिपिबद्ध करा दिया । उन दोनो ऋषिवरो ने उस लिपिबद्ध श्रुतज्ञान को ज्येष्ठ शुक्ला पचमी के दिन सर्व सघ के समक्ष उपस्थित किया था । वह पवित्र दिन 'श्रुत पचमी' पर्व के नाम से प्रसिद्ध है और साहित्योद्धार का प्रेरक कारण बन रहा है ।" यह तो दिगम्बर जैनो की मान्यता है, परन्तु श्वेताम्बर जैन ऐसा नही मानते । वह समग्र अर्द्धमागधी अङ्ग -साहित्य को सुसस्कृत रूप में उपलब्ध बताते हैं । उनके यहाँ अङ्ग-ग्रन्थ है भी । श्वेताम्बर जैन 'आचाराङ्ग-सूत्र' के कुछ शका एव पूर्वगत साहित्य का सर्वथा लोप हुआ बताते हैं । उनका यह अङ्ग -साहित्य ईस्वी छठी-सातवी शताब्दी मे १ 'जर्नल प्रॉव दी बिहार ऍड प्रोड़ीसा रिसर्च सोसाइटी, भा० १३: पृ० २३६ R 'घवला टीका (अमरावती) भा० १, भूमिका पू० १३-३२ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ वल्लभी नगर में देवगिणि क्षमाश्रमण द्वारा लिपिवद्ध किया गया था। अतएव अर्द्धमागधी प्राकृत अङ्गसाहित्य का स्थान जैनो में विशिष्ट है। उसमें भ० महावीर के समय के धार्मिक जगत का विवरण देखने को मिलता है। यही नहीं, उस काल से पहले का इतिवृत भी उसमें सुरक्षित है । साथ ही ईस्वी प्रारभिक शताब्दी तक के राजाओ और प्राचार्यों का भी परिचय उससे उपलब्ध है । सम्राट विक्रमादित्य के व्यक्तित्व और उनके जीवन पर उल्लेखनीय प्रकाश 'कालककथा' आदि अर्द्धमागधी जैन साहित्य ग्रन्थो से ही पडा है। भारतीय काल-गणना में भी इन ग्रन्थो मे सुरक्षित कालगणना मुख्य रूप में सहायक है। प्राचीन भारतीय जीवन की झाकी इन जैनग्रन्थो में देखने को मिलती है, किन्तु पालीपिटक (बौद्ध) ग्रन्थो के आधार से जहाँ 'बौद्धकालीन भारत' (Buddhist India) लिखा गया है, वहाँ अभी तक उस अर्द्धमागधी जैनसाहित्य के आधार से 'जैन भारत' (Jainist India) लिखा जाना शेष है। श्री राधाकुमुद मुकर्जी सदृश विद्वान् इस प्रकार की पुस्तक लिखे जाने की आवश्यकता व्यक्त कर चुके है। उन्होने मुझे लिखा था कि मै ऐसी पुस्तक लिखू, परन्तु उसकी पूर्ति अभी तक नहीं हो सकी है। साराश यह कि अर्द्धमागधी जैन साहित्य प्राचीन भारत के इतिहास को जानने के लिए वहुमूल्य सामग्री से ओतप्रोत है। इसलिए डा० मुकर्जी जैन ग्रन्थो के श्राधार से भारतवर्ष का परिचय लिखने का परामर्श देते है । अर्द्धमागधी जैन साहित्य एव प्रकीर्णक जैन साहित्य के परिचय के लिए हाल ही मे पूना के प्रसिद्ध भाण्डारकर पुरातत्व-मन्दिर द्वारा प्रकाशित प्रो. वेलणकर द्वारा वीस वर्ष में सकलित 'जनरलकोष' नामक ग्रन्थ द्रष्टव्य है । उसके आधार से अंग्रेजी-विज्ञ पाठक उपलब्ध जनसाहित्य का पता पा सकेंगे। पूर्वोक्त अर्धमागधी अङ्ग साहित्य के अतिरिक्त प्रकीर्णक जैन साहित्य भी अपार है और उसमें भी ऐतिहासिक सामग्री विखरी हुई पडी है । प्राकृत, अपभ्रश, सस्कृत, हिन्दी, गुजराती, तामिल, कन्नड आदि भाषामो में भी जैनो ने ठोस साहित्य-रचना की है। इन भाषाओ के जैन साहित्य में भी उनके रचनाकाल के राज्य-समाज और धर्म-प्रवृत्ति का इतिहास सुरक्षित है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य के प्राकृत-भाषा-अन्य भारतीय अध्यात्म-विचार-सरणी के लिए अपूर्व निधि है। उन्होने तत्कालीन मत-मतान्तरो पर यत्र-तत्र प्रकाश डाला है। साथ ही उनसे पहले हुए कई आचार्यों का भी उल्लेख उन्होने किया है। अपभ्रश-प्राकृत-साहित्य पर तो जैनो का ही पूर्णाधिकार है। जैन शास्त्र भडारो से अपभ्रश प्राकृत भाषा के अनेक ग्रन्थरल उपलब्ध हुए है । महाकवि पुष्पदन्त के 'महापुराण', 'यशोधरचरित' आदि काव्यग्रन्थो मे तत्कालीन सामन्त-शासन का सजीव चित्रण मौजूद है। उनमे कतिपय ऐसे ऐतिहासिक उल्लेख है, जिनका किसी अन्य स्रोत से पता नहीं चलता। राठौर राजामो के ऐश्वर्य और जैन धर्म के प्रति सद्भावना का वर्णन उनमें निहित है। राठौर राजमन्त्रियो की दैनिक चर्या और दानशीलता का चरित्रचित्रण मत्रीप्रवर भरत और णण्ण के वर्णन में मिलता है।' मुनि कनकामर के 'करकडुचरिय' में दक्षिणापथ के प्राचीन राजवश 'विद्याधर' के राजानो और उनकी धार्मिक कृतियो का वर्णन लिखा हुआ है, जो भ० महावीर से पूर्वकालीन भारतीय इतिहास के लिए महत्त्व की चीज है। अपभ्रशप्राकृत में कई कथा-ग्रन्य है, जिनमें ऐतिहासिक वार्ता विखरी पड़ी है। उसका सग्रह होना चाहिए। किन्तु अपभ्रशप्राकृत के जनसाहित्य का वास्तविक महत्त्व वर्तमान हिन्दी की उत्पत्ति का इतिहास शोधते हुए दीख पडताहै। उसी में हिन्दी का प्राचीन रूप और विकास-क्रम देखने को मिलता है। हमने अन्यत्र कालक्रम से उद्धरण उपस्थित करके 'सक्षिप्त जैन इतिहास, भा० २, खड २ पृ० ११६ व उत्तराध्ययन सूत्र (उपसला) भूमिका, पृ० १६ जैन एटीक्वेरी, भा० १११० ४-५ 'महापुराण (मा० अ० वम्बई) भूमिका, पृ० २८-३३ व यशोधर चरित्र (कारजा सीरीज) भूमिका, पृ० १६-२१। *फरफडुचरिय (फारजा सीरीज) भूमिका, पृ० १५-१८ । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन साहित्य में प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री ४५७ प्राचीन हिन्दी को क्रमवर्ती रूपान्तर का दिग्दर्शन कराया है । अपभ्रंश प्राकृत के निम्नलिखित छन्दो को देखिये । इन्हें कौन हिन्दी-सा नही कहेगा 'देखिचि रयणमजूस विद्दाणउ । विभणऊ कामसरेहि प्रयाणउ ॥ तालू विल्लि लग्ग मण सलइ । जिम सर सुवई मछऊ विलइ ॥' X X X 'जिम सूर ण भूलइ हथियारू । जिणयत्तु तेम जलि णमोयारु ॥' X 1 1 X 'तुम्ह कहहु मज्भु सिरिप्पाल पुत्तु । तउ लाख दामु दइहउं तेणि सुणि पहुत्तउ राय हरकारु । भीतरि गय पुछवि X X 'हमारउ णरइव कम्बणु चिज्जु । घोवी चमार घर करहि खर- कुकुर - सूस्हग सहि मासु । हमि डोमं भढ कहिजहिय इसी के अनुरूप हिन्दी के कितने ही 'महावरों' का प्रयोग अपभ्रंश साहित्यग्रथो में मिलता है, बल्कि कई छन्दो का निर्माण ही अपभ्रश के आधार से हिन्दी में हुआ है ।" अपभ्रंश, प्राकृत और प्राचीन हिन्दी का एक सयुक्त 'पिंगल' छन्दशास्त्र जैनकवि राजमल्ल ने सम्राट् अकवर के शासनकाल में रचकर हिन्दी का वडा उपकार किया है ।" भाषा-विज्ञान के अध्ययन के लिए जैन साहित्यिक रचनाएँ अमूल्य साघन हैं। साथ ही हिन्दी की 'नागरी लिपि' के विकास पर जैन-भडारो में सुरक्षित प्राचीन और अर्वाचीन हस्तलिखित ग्रन्थो से प्रकाश पडता है । अपने सग्रह के दो-तीन हस्तलिखित मग्रह ग्रन्थो में सुरक्षित ' मुडिया-लिपि' की रचनाओ के आधार से हम उस लिपि की उत्पत्ति और विकास का इतिहास प्रकट करने में समर्थ हो सके। ऐसे ही अन्य भाषाओ और लिपियो का भी पता हस्तलिखित जैनग्रन्थो से चलता है । भाषा - विज्ञान के इतिहास के लिए उनका उपयोग महत्त्वपूर्ण है । सुङ्ग और सातवाहन काल में वैदिक धर्म को प्रोत्साहन मिला । परिणामत प्राकृतभाषा का, जो राज्य भाषा थी, महत्त्व कम हो चला । उसका स्थान सस्कृत भाषा को मिला । महाकवि कालिदास ने अपनी रचनाएँ संस्कृत भाषा में ही रची। जैनाचार्य उमास्वाति ने जनता की अभिरुचि को लक्ष्य करके जैन सिद्धान्त का सार 'गागर में सागर' के समान अपने प्रसिद्ध सूत्रग्रंथ 'मोक्षशास्त्र' में गर्भित किया । तव से जैनो का संस्कृत साहित्य आये दिन वृद्धिगत होता गया और श्राज उसकी विशालता और सार्वभौमिकता देखने की चीज है । किन्तु हमें तो उसमें भारतीय इतिहास के लिए उपयुक्त सामग्री का दिग्दर्शन करना अभीष्ट है । अत हम अपनी दृष्टि वही तक सीमित रक्खेंगे । जैनो के संस्कृत साहित्य की विशेषता यह है कि उसमें न्याय, दर्शन, सिद्धान्त, पुराण, भूगोल, गणित आदि सभी विषय इस खूब से प्रतिपादित किये गये है कि यदि उनमें से प्रत्येक विषय का कोई इतिहास लिखने बैठे तो जैन साहित्य से सहायता लिए विना वह इतिहास अधूरा ही रहेगा । न्यायशास्त्र का अध्ययन जैनन्याय का ऋणी है, यह उस विषय के ग्रन्थो को उठाकर देखने से स्पष्ट हो जाता है । दर्शनशास्त्र के इतिहास को जानने के लिए भी जैन दार्शनिक ग्रन्थ महत्त्व की चीज है । आजीविक श्रादि मत-मतान्तरो का परिचय उनमें निहित है । जैन गणित की विशेषता भारतीय गणितशास्त्र X हित्तु ॥ पडिहारू ॥' X भोजु ॥ नासु ॥' 'देखिये, हमारा 'भारतीय ज्ञानपीठ काशी' द्वारा प्रकाशित होने वाला 'हिन्दी जैन साहित्य का सक्षिप्त इतिहास' नामक ग्रंथ | २ ''अपभ्रंशदर्पण' - जैन सिद्धान्त भास्कर भा० १२, पृ० ४३ । " ''अनेकान्त' वर्ष ४ किरण २, ४, ५ । * प्रोभा अभिनंदन - ग्रन्थ ( हिन्दी साहित्य सम्मेलन), पू० २२ (विभाग ५) । ५८ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ का इतिहास लिखते समय विद्वानो ने आंकी ही है । भूगोल के अध्ययन के लिए और भारतीय भूगोल की ऐतिहासिक प्रगति को जानने के लिए जैन साहित्य अनूठा है। उसमें उपलब्ध दुनिया का और उससे भी कही अधिक विस्तृत लोक का वर्णन है। ___ सस्कृत भाषा मे लिखे हुए जैन पुराण ग्रन्थ अति प्राचीन है । उनमे अपेक्षाकृत बहुत अधिक ऐतिहासिक सामग्री सोधी-सादी भाषा में सुरक्षित है । अलबत्ता कही-कही पर उसमें धार्मिक श्रद्धा की अभिव्यजना कर्मसिद्धान्त की अभिव्यक्ति के लिए देखने को मिलती है। ___ जैन पुराणो के साथ ही जैनकथाप्रथो के महत्त्व को नही भुलाया जा सकता, जिनमें बहुत सी छोटी-छोटी कथाएं सगृहीत है। ऐसे कथानथ प्राकृत, सस्कृत, अपभ्रश, हिन्दी, कन्नड आदि भाषाओ मे मिलते हैं। इनमें कोईकोई कथा ऐतिहासिक तत्त्व को लिये हुए है। किसी में भेलसा (विदिशा) पर म्लेच्छो (शको) के ऐतिहासिक आक्रमण का उल्लेख है तो किसी में नन्द राजा और उनके मन्त्री शकटार आदि का वर्णन है। किसी में मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त और उनके गुरु श्रुतकेवली भद्रबाहु का चरित्र-चित्रण किया गया है, तो किसी अन्य में उज्जैन के गर्दभिल्ल और विक्रमादित्य का वर्णन है । साराश यह कि जैनकथानथो मे भी बहुत सी ऐतिहासिक सामग्री बिखरी पडी है । महाकवि हरिषेण विरचित 'कथाकोष' विशेषरूप से द्रष्टव्य है। जैन साहित्य में कुछ ऐसे काव्य एव चरित्रग्रन्थ भी है, जो विशुद्ध ऐतिहासिक है। उनमे ऐतिहासिक महापुरुषो काही इतिहास अथवद्ध कियागयाहै। इस प्रकार का पर्याप्त साहित्य श्वे. जैन समाज द्वारा प्रकाशित कियाजाचुका है। 'ऐतिहासिक जैनकाव्यसग्रह', 'ऐतिहासिक रास सग्रह' आदि पुस्तकें उल्लेखनीय है । 'चित्रसेन-पद्मावती' काव्यग्नथ में हमें कलिंग-सम्राट् खारवेल के पूर्वजो का इतिवृत गुम्फित मिलता है, जिसका ऐतिहासिक दृष्टि से सूक्ष्म अध्ययन वाछनीय है । अन्तिम मध्यकालीन भारत की सामाजिक स्थिति का परिचय गुणमाला चौपई' अथवा 'ब्रह्मगुलाल चरित्र' आदि ग्रथो से मिलता है । 'गुणमाला चौपई' में, जिसकी एक प्रति धारा के प्रसिद्ध 'जैन सिद्धान्त भवन' में सुरक्षित है, गोरखपुर के राजा गजसिंह और सेठपुत्री गुणमाला की कथा वर्णित है । गोरखपुर तव इन्द्र को अलका-नगरी-सा प्रतीत होता था, जैसा कि कवि खेमचद के उल्लेख से स्पष्ट है 'पूरवदेस तिहा गोरषपुरी, जाण इलिका आणि नै धरी। वार जोयण नगरी विस्तार, गढ-मठ मदिर पोलि पगार ॥५॥ x नगर माहि ते देहरा घणा, कोई न कोई शिव-तणां। माहि विराज जिनवर देव, भविणय सारै नितप्रत सेव ॥१०॥ 'प्रो० ए० सिंह और प्रो० वि० भू० दत्त कृत "हिस्ट्री प्रॉव इडियन मैथेमेटिक्स" देखिये। प्रो० सिंह ने 'घवलाटोका' को भूमिका में लिखा है, “यथार्यत. गणित और ज्योतिष विद्या का ज्ञान जैन मुनियों की एक मुख्य साधना ममझी जाती थी। महावीराचार्य का गणितसारसग्रह-प्रय सामान्य रूप-रेखा में ब्रह्मगुप्त, श्रीधराचार्य भास्कर और हिन्दू गणितज्ञों के अन्यों के समान होते हुए भी विशेष वातों में उनसे पूर्णत. भिन्न है। धवला में वणित अनेक प्रक्रियाएँ किसी भी अन्य ज्ञात अथ में नहीं पाई जातीं!" 'हमारा 'भगवान पार्श्वनाथ पृ० १५४-२००। 'पूर्वोक्त कथाकोष, पृ० ३४६ । *हरिषेण कथाकोष (सिंघीग्रथमाला), पृ० ३१७ । 'कालककथा-सजइ०, भा० २, खंड २, पृ० ६२-६४ । 'अनेकान्त', वर्ष ५, पृ० ३९५-३९७ एवं वर्ष ६, पृ० ६५-६७ । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री . ४५६ 'पार्श्वचरित्र', 'महावीर चरित्र', 'भुजवलि चरित्र', 'जम्बूस्वामी चरित्र', 'कुमारपाल चरित्र', 'वस्तुपाल रास' इत्यादि अनेकानेक चरित्रग्रय इतिहास के लिए महत्त्व की वस्तु है। जैन सस्कृत माहित्य मे पुरातन प्रवन्ध-अथ इतिहास की दृष्टि से विशेष मूल्यवान् है। ये प्रवन्व-अथ एक प्रकार के विशद निवन्ध है, जिनमें किमी ऐतिहासिक घटना अथवा विद्वान् या शासक का परिचय कराया गया है। श्री मेरुतुगाचार्य का 'प्रवन्ध चिन्तामणि' प्रवन्ध-ग्रयो में उल्लेखनीय है, जो "सिंघी जैन ग्रथमाला' में छप भी चुका है। श्री राजशेखर का प्रवन्धकोष', श्री जिनविजय का 'पुरातन प्रवन्धसग्रह' एव 'उपदेशतरगिणी' धादि प्रववाथ भी प्रकाशित हो चुके है। किमो समय श्वेताम्बर जैन साधु सम्प्रदाय में 'विज्ञप्तिपत्र' लिखने-लिखाने का प्रचार विशेष रूप से था। आजकल मभवत इम प्रथा में शिथिलता आ गई है। "विज्ञप्ति पत्र कुडली के आकार के उस आमन्त्रणपत्र की सज्ञा है, जिसे स्थानीय जैन समाज भाद्रपद में पqपण पर्व के अन्तिम दिन अपने दूरवर्ती प्राचार्य या गुरु के पास भेजता था। उसमें स्थानीय मध के पुण्य-कार्यों के वर्णन के माय गुरु के चरणो में यह प्रार्थना रहती थी कि वे अगला चातुर्मास उम स्थान पर आकर विताये । विज्ञप्तियो का जन्म गुजरात में हुआ और जनेतर समाज में इनका अभाव है। पहले विज्ञप्तिपत्र मामान्य प्रार्थनापूर्ण आमन्त्रण के रूप में लिखे जाते होगे, परन्तु काल पाकर उनका रूप अत्यन्त सस्कृत हो गया। उनमे चित्रकारी को भी भरपूर स्थान मिला। प्रेपण-स्थान का चित्रमय प्रदर्शन विज्ञप्तिपत्र में किया जाता था। सघ के मदस्यो का भी परिचय रहता और कभी-कभी इतिहास विषयक घटनाएं भी आ जाती थीं। वस्तुत कला और इतिहास उभयदृष्टि से विज्ञप्निपत्र महत्त्वपूर्ण है। इनमें से कुछ 'श्री प्रात्मानन्द जन सभा अम्बाला और डा० हीरानद शास्त्री द्वारा श्री प्रतापसिंह महाराज राज्याभिषेक ग्रन्थमाला वडीदा' से प्रकट भी किये जा चुके है । डा० हीरानद शास्त्री का सग्रह अग्रेजी में ऐशियेंट विज्ञप्ति पत्राज़' नाम से सचित्र प्रकाशित हुआ है । कुछ अप्रकाशित विज्ञप्तिपत्र श्री अगरचन्द्र नाहटा (बीकानेर) और प्रसिद्ध नाहर-सग्रह कलकत्ते में दर्शनीय है। दिगम्बर जैनो में यद्यपि विनप्तिपत्र लिखने की प्रथा कभी नही रही मालूम होती, परन्तु उनमें विशेष जनोत्सव, जैसे रथयात्रा आदि के अवसर पर निमत्रणपत्र अन्य स्थानो के जन-मघो को भेजने का रिवाज अवश्य रहा है। इनमें से कुछ निमत्रणपत्र मचित्र भी होते थे। इन निमत्रणपत्रो की खोज शास्त्रभडारो में होनी चाहिए। हमें सौ-डेढ-सौ वर्षों से अधिक प्राचीन निमत्रणपत्र नहीं मिले हैं। इनमें मघ कास्थानीय परिचय और उत्सव की विशेषता का दिग्दर्शन सुन्दर काव्यरचना में किया जाता था और अव भी कियाजाताहै। पहले यह निमत्रणपत्र हाथ से लिखकर भेजे जाते थे। उपरान्त जवछापेका प्रचार हुयातववेलियो और प्रेस में छपाकर भेजे जाने लगे। हमारे संग्रह में सबसे पुराना हस्तलिखित निमश्रणपत्र विक्रमसवत १८८० चैत्र वदी २ का है, जिसे मैनपुरी के जनो ने कम्पिलातीर्थ में रथयात्रा निकालने के प्रसग में लिखा था। ऐसाही एक निमत्रणपत्र स० १९५५ काहै, जिसकाप्रारभ निम्नलिखित श्लोक से होताहै "श्री नाभेय जिन प्रणम्य शिरसा वद्य समस्तैर्जन । लोकाना दुरिता पवृहण पवि वाचा सुधावषिणपत्रीमद्य लिखामि चारुरचनाविन्मनोहारिणी। श्रुत्वता विधाजना. स्वयमुदागच्छतु धर्मोत्सवे ॥" लियो की छपी हुई एक निमत्रण पत्रिका वि० स० १९५६ की हमारे सग्रह में है, जिससे प्रकट है कि उस वर्ष भोगाव में एक जिनविम्ब प्रतिष्ठोत्सव श्री बनारसीदाम जी ने कराया था, उसका प्रारम निम्नलिखित रूप में हुआ है "अनेकान्त' वर्ष ५, अक १२ और वर्ष ६, प्रक २। "अनेकान्त' वर्ष ५, पृ० ३९६-३६७ । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० प्रेमी-अभिनदन-प्रथ "पोइम् ।। श्लोक ॥ यच्चित्सागरमग्ना जीवाचा भाव भूतयो विविधास्त भगवन्त ' रागारं नत्वावि लिख्यते । पत्रम् ॥ स्वस्ति श्री मदन-वरत भक्ति-भारावनत पुरन्दर वृन्द वन्दित सुन्दर वर सुर सुन्दरी विवाह मडपाय-मानघन-घण्टाध्वजाचमर सिंहासनादिपरिमण्डित जिनेन्द्रचन्द्र मन्दिरसन्दर्भ पवित्रितघरातले वापी कूप तडाग सरित्सरोवर खातिका प्रकारादि परिकर परिवेष्टिते महाशुभस्थाने श्री इत्यादि ।" अन्त निम्नाकित दोहो से किया गया है "पाप गलत शुभ-रमन-कर, जिन-वृष वृषभ मयफ। नुति स्तुति करि दल क्षेम कर, मगल प्रत निशक ।। जनपद गुड निवासिनी, कमल वासिनी जेम। महारानी विकटोरिया, जयो सयोग क्षेम ॥ तत्व ज्ञान निधि भमि, शशि प्रतिपद भोर वैशाख । कृष्न पक्ष में स्वक्षता, आय करो वृष साख ॥" यह पत्र सुनहरी स्याही से लाल घोटे के कागज पर छपा हुआ है, जिस पर सुन्दर बोर्डर और ऊपर मदिर का चित्र वनाहुआहै । प्रेस मे छपा हुआएक निमत्रणपत्र स०१६६१ का तिरवा (जिला फर्रुखाबादमें कलसोत्सव एव रथयात्रा प्रसग का है । प्रारभिक श्लोक द्रष्टव्य है "न कोपो न लोभो न मानो न माया न हास्य न लास्य न गीत न कान्ता। न वायुस्य पुत्रान शत्रु मित्रो-स्तुनुर्देवदेवं जिनेन्द्र नमामि ॥१॥ प्रणम्य वृषभदेव सर्वपाप प्रणासन । लिखामि पत्रिका रम्या सत्समाचार हेतवे ॥२॥" यह पत्रिका स० १९६१ में तिरवा में जैनधर्म के बाहुल्य को प्रकट करती है, किन्तु आज वहाँ केवल एक जैन उस विशाल जैनमदिर की व्यवस्था के लिए शेप है, जिस पर कलस चढाये गये थे। श्री जैन मदिर अलीगज के सग्रह में दिल्ली के रथोत्सव की सचित्र पत्रिका लिथो की छपी हुई है, जिसमे जूलुस का पूरा चित्रण है । यह वह पहली रथयात्रा थी, जो वैष्णवो के विरोध करने पर भी सरकारी देख-रेख में दिल्ली में निकली थी। इस प्रकार की निमत्रणपत्रिकामो की यदि खोज हो तो इनसे भी प्राचीन और मूल्यवान पत्रिकाएँ मिल सकती है। तीर्थमाला-अथ भी इतिहास और भूगोल के लिए महत्त्व की चीजें है। प्राचीनकाल में जव यातायात के साधन नहीं थे तब सघपति किसी आचार्य के तत्वावधान में लवी-लवी तीर्थयात्राओं के लिए संघ निकाला करते थे। उनतीर्थयात्रामो के निकले हुए सपो का विवरण कतिपय विद्वानो ने लिखा है। श्वेताम्बर जन-समाज ऐसी तीर्थमालाप्रो का सग्रह कई स्थानो से प्रकाशित कर चुका है। फिर भी कई ग्रथ अप्रकाशित है। दिगम्बर जैनो के शास्त्रभडारो की शोध अभी हुई ही नहीं है और यह नहीं कहा जा सकता कि उनमें ऐसी कितनी तीर्थमालाएँ सुरक्षित हैं। अलीगज और मैनपुरी के शास्त्रभडारो में हमें तीन-चार तीर्थयात्रा विवरण मिले है। एक सघ श्री धनपतिराय जी रुइया ने मैनपुरी से शिखरजी के लिए निकाला था, उसका विवरण मिलता है। दूसरा विवरण गिरनार जी की यात्रा का पानीपत के सघ का है। तीसरा विवरण कम्पिला तीर्थ की यात्रा का है, जो प्रकाशित किया जा चुका है।' किन्तु इन तीर्थयात्रामो के विवरण के अतिरिक्त जैन साहित्य में कुछ ऐसे भी ग्रन्थ है, जिनमें तीर्थों का परिचय और 'पूर्व प्रमाण द्रष्टव्य । जनसिद्धान्तभास्कर भा०४, पृ० १४३-१४८ । 'श्री कम्पिल रथयात्रा विवरण (मैनपुरी) पु. १५-२४। . Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री ४६१ उनकी भौगोलिक स्थिति का उल्लेख हैं । श्री जिनप्रभुसूरि का 'विविधतीर्थकल्प' इस विषय का उल्लेखनीय ग्रन्थ है । दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में 'निर्वाणभक्ति' और 'निर्वाणकाण्ड' इस विषय की उल्लेखनीय रचनाएँ है । भारतीय भूगोल के अनुसधान में इन ग्रंथो से विशेष सहायता मिल सकती हैं। साथ ही इनमें वर्णित तीर्थों का माहात्म्य इतिहास के लिए उपयोगी है। श्री प्रेमी जी ने दक्षिण के जैन तीर्थों पर ग्रच्छा प्रकाश डाला है । कम्पिला, हस्तिनापुर आदि तीर्थों पर हमने ऐतिहासिक प्रकाश डाला है । 'पट्टावली' जैन साहित्य भी इतिहास के लिए उपयोगी है, क्योकि जैनसघ भारतवर्ष के प्रत्येक भाग में एक सगठित सस्था रह चुका है । जैनसघ के प्राचार्यों के यशस्वी कार्यों का विवरण भी उनमें गुम्फित होता है, जव कि गुरुशिष्य परम्परा रूपये उनका उल्लेख किया जाता है । भ० महावीर से लेकर आज तक जैनाचार्यों की श्रृंखलावद्ध वश-परम्परा प्रत्येक सघ-गग और गच्छ की पट्टावली में सुरक्षित है । श्वेताम्वरीय समाज में पट्टावली साहित्य के कई सग्रह-ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें उल्लेखनीय 'पट्टावलि समुच्चय' - 'तपागच्छपट्टावली' खरतरगच्छपट्टावली' - सग्रह आदि है । दिगम्बर जैन समाज में भी इन पट्टावलियो का प्रभाव नही है, परन्तु खेद है कि उन्होने अपनी पट्टावलियो का कोई भी सग्रह प्रकाशित नही किया। वैसे इस सम्प्रदाय की कई पट्टावलियाँ 'इडियन ऍट क्वेरी', ' जैन हितैषी' और 'जनसिद्धान्तभास्कर" नामक पत्रो में प्रकाशित हो चुकी हैं। संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी और कन्नड, इन सभी भाषाश्रो में पट्टावलियाँ लिखी हुई मिलती है । जैनग्रथों की प्रशस्तियाँ भी इतिहास के लिए महत्वपूर्ण है । प्रत्येक जैनग्रथ के प्राद्य भगलाचरण एव प्रतिम प्रशस्ति और पुष्पिका में पूर्वाचार्यो एव कवियो के नाम स्मरण एव अन्य परिचय लिखे रहते है । श्री डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल के शब्दो में "प्रशस्तिसग्रह गुरु-शिष्य परम्परा के इतिहास के उत्तम साधन है । इनमें ग्रंथलेखन की प्रेरणा देने वाले जैनगुरु का उनके शिष्य का और ग्रन्थ का मूल्य देने वाले श्रावक श्रेष्ठी का सुन्दर विवरण पाया जाता है । तत्कालीन शासक और प्रतिलिपिकार के विपय में भी सूचनाएँ मिलती है । इतिहास के साथ भूगोल सामग्री भी पाई जाती है । मध्यकालीन जैनाचार्यों के पारस्परिक विद्यासवध, गच्छ के साथ उनका सबध, कार्यक्षेत्र का विस्तार, ज्ञान प्रसार के लिए उद्योग श्रादि विषयो पर इन प्रशस्ति और पुष्पिकाओ से पर्याप्त सामग्री मिल सकती है | श्रावको की जातियो के निकास और विकास पर भी रोचक प्रकाश पडता है ।"" अभी तक श्वेताम्वर समाज की श्रोर से 'जैनपुस्तक प्रशस्ति सग्रह' प्रथम भाग एव एक अन्य सग्रह भी प्रकाशित हो चुका है । दिगम्बर समाज का एक सग्रह श्री जैन सिद्धान्त भवन, धारा से प्रकाशित हुआ है । किन्तु यह तो अभी कुछ भी नही हो पाया । अभी अनेकानेक जैन प्रशस्तियो को सग्रह करके प्रकाशित करने की आवश्यकता है । जैन प्रशस्ति का महत्त्व आँकने के लिए यहाँ पर उसका एक उदाहरण देना अनुपयुक्त न होगा । भा० दि० जैन परिषद् के कार्यकर्त्ता श्री प० भैयालाल जी शास्त्री को प्रचार प्रसग में भौगांव (जिला मैनपुरी) के वैद्य लालाराम जी से कई प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ मिले थे । उनमें एक 'कल्पसूत्र व्याख्यान' नामक ग्रथ है, जो अव हमारे सग्रह में है । इसकी प्रशस्ति का उपयोगी श्रश हम यहाँ उपस्थित करते है "श्री शासनाधीश्वर वर्द्धमानो । गुणर नं तैरिति वर्द्धमान ॥ यदीयतीर्थं खखखाऽज्वनेत्र २१००० वर्षाणियावद्विजय प्रसिद्ध ॥१॥ इंडियन एंटी० भा० २०, पृ० ३४४-४८ । 'जैनहितैषी, वर्ष ६ । ""जैन सिद्धान्त भास्कर' भा० १, किरण २-३-४ । ४ 'अनेकान्त, भा० ५, पृ० ३६६ व भा० २१, पृ० ५४-८४ । Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ प्रेमी-अभिनंदन ग्रंथ "तदीय शिष्योगण भुच्चर्यत्वमः सुषर्मानामाऽस्य परपराया । बभूव शाखा किल वज्रनाम्ना, चद्र कुल चद्र कलेव निर्मल ॥२॥ तद्गच्छेत्वभिधानत: खरतरे, ये स्तभनाधीश्वरो । तुमध्यात्प्रकटी कृत. पुनरपि स्नानोदका द्रुगगता ॥ स्थानांगादि नवांगसूत्र निवृत्तिर्नव्या क्षता । श्रीमतोऽभयदेवसूरिगुरवो जाता जगद्विश्रुता ॥ ३ ॥ यो योगिनीत्यो जगृहे वदौ च चरान् जाग्रदनेनेक विद्य । पचापि पीरान् स्ववशी चकार युगप्रधानो जिनरत्नसूरि ॥४॥ पुनरपि यस्मिनगच्छे बभूव जिन कुशल नाम सूरिवर । यस्य स्तूपनिवेशामुयश पुजाद्रवाभाति ॥५॥ तत्पट्टानुक्रमत' श्री जिनचन्द्रसूरि नामान । जाता जुगप्रधाना दिल्लीपति पातसाहि कृता ॥६॥ कबर रजन पूर्व द्वादश स्तवेषु सर्वदेशेषु स्फुटतरमारपटह. प्रवादितो यौश्च सूरिवरं ॥ ७॥ यद्वारे किल कर्मचद सचिव. श्राद्वोऽभवद्दीप्तिमान् । येन श्री गुरुराज नदि महमिद्रव्य व्ययोनिर्मिमे । कोटे' पादयुज. शराप्रिशमये दुर्भिक्ष वे लाकुले । मन्त्राकार विधानतो बहुजना सजीविता वेन च ॥८॥ यद्वारे मुनरत्न सोन जिसिवा श्राद्वौ जगद्विश्रुतो । यात्या राणपुरस्य १ खतगिरेः २ श्री अर्बुदस्य स्फुट । गौड़ी श्री शत्रुजयस्य च महान् सघोनद्य. कारितो । गच्छे लभनिका कृत्वा प्रतिपुर रुक्मार्थमेकपुन• ॥ ॥ तेषा श्री जिनचन्द्राणा शिष्य. प्रथमतोऽभवत् । गणि सकलचद्राख्यो रोहडान्वय भूषण ॥१०॥ तच्छिष्य समयसुन्दर सदुपाध्यायै विनिर्मित व्याय. कल्पलता नामाय ग्रथचक्रे प्रयत्नेन ॥ ११॥ X X X लूणकर्णसरो प्रामे प्रारभा कर्तुमादरात । वर्षमध्ये कृतापूर्णा मया चैवारिणीपुरे ॥१७॥ राज्ये श्री जिनराज सूरि सुगुरोर्बुध्याजितस्वर्गुरो भाग्य भुविलोक विस्मयकरसोभाग्यमत्युद्भुत । कीर्तिस्तु प्रसरीसरीति जगति प्रौढ़ प्रतापोदया । दाशीत्युग्रतमा कृपातनुभृता दारिद्र्य दुःखापहा ॥ १८ ॥ श्री मद्भान बडे चपुडर गिरी, श्री मेडताया पुन | श्री पल्ली नगरे च लौद्रनगरे प्रौढा प्रतिष्ठा कृता । द्रव्यं भूरि तरव्ययीकृत महोश्राद्धं महत्युत्सवो । राजते जिनराजसूरि गुरुवस्ते सात भूतले ॥२६॥ तद्गुरुणा प्रसादेन मया कल्पलता । कल्पसूत्रमिद यावत्तावन्नदतुसा पिहि ॥ २१ ॥ इति ॥” इससे स्पष्ट है कि वज्रशाखा-चन्द्रकुल- खरतरगच्छी अभयदेवसूरि की परम्परा में श्री जिनरलसूरि श्रादि श्राचार्य हुए, जिनमें से जिनचन्द्रसूरि वादशाह अकबर द्वारा 'युगप्रधान' घोषित किये गये। उन्होने कई वादियो को परास्त करके कवर का मनोरजन किया था। उनके उपदेश से कर्मचन्द्र सचिव ने धर्म-कार्य में अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग किया और दुर्भिक्ष के समय दान देकर अनेक प्राणियो की रक्षा की । आचार्य रत्नसोम के निमित्त से राणपुर, रैवतगिरि ( गिरिनार ), आबूपर्वत, गौडी (पार्श्वनाथ ) और शत्रुजय के यात्रासघ निकाले गये । इनमें श्री जिनचन्द्र सूरि के प्रतिशिष्य और सकलचन्द्र गणि के शिष्य उपाध्याय समयसुन्दर ने यह 'कल्पलता — कल्पसूत्र – व्याख्या' रची । लूनकर्ण ( लूनी ? ) ग्राम में इसे प्रारंभ करके एक वर्ष में ही पारिणीपुर (?) में रचकर समाप्त किया। उपरात जिनराजसूरि की महिमा का उल्लेख है । विज्ञ पाठक इस एक उदाहरण से ही प्रशस्ति के महत्त्व को समझ सकते हैं । प्रशस्ति के अनुरूप ही जिन मूर्तियो, यत्रो, और मंदिरो के शिलालेख भी इतिहास के लिए बहुमूल्य सामग्री है । यों तो जिनमूर्तियां और मंदिर ही भारतीय स्थापत्य और मूर्तिकला के इतिहास के लिए विशेष अध्ययन की वस्तु है, परन्तु उनसे संबधित लेख तो अद्वितीय है । खेद है, अभी तक इन लेखो को संग्रह करने का कोई भी व्यवस्थित उद्योग नही हुआ है तो भी श्वेताम्बर समाज के प्रसिद्ध विद्वान स्व० श्री पूर्णचन्द्र जी नाहर, स्व० श्री विजयधर्मसूरि और मुनि Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य में प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री ४६३ जिनविजय जी द्वारा कई मूर्तिलेख-सग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। दिगम्बर जैन समाज में प्रो० हीरालाल जी द्वारा श्रवणवेलगोल तीर्थ के लेखो का वृहद् सग्रह 'जैन शिलालेससग्रह' नाम से थीमाणिकचन्द्र प्रथमाला बम्बई में प्रकाशित हो चुका है। एक मूर्तिलेख सग्रह वावू छोटेलाल जी ने कलकत्ता से निकाला था और एक मूर्तिलेख संग्रह हमने वर्धा से। हमारे द्वारा सम्पादित एक अन्य मूर्तिलेख सग्रह जैनसिद्धान्त भवन पारा से भी प्रकाशित हुआ है। किन्तु इस दिशा में अभी बहुत कार्य होना शेष है। श्रावको के विविध कुलोको वशावलियां भी उल्लेखनीय है। हिन्दी जैन साहित्य मे भी ऐतिहासिक सामग्री का बाहुल्य है, जो एक दक्ष अन्वेषक की प्रतीक्षा कर रहा है। उसमे कविवर बनारसी दास जी का 'अर्द्धकथानक चरित्रग्रथ भारतीय ही नही, विश्व साहित्य में अनूठा है। इस प्रकार जैन साहित्य मे इतिहास की अपूर्व सामग्री बिखरी हुई पडी है । दक्षिण के जैन कन्नड और तामिल साहित्य मे भी अपारऐतिहासिक मामग्री सुरक्षित है, किन्तु उसके अन्वेषण की आवश्यकता है । तामिल का शिलप्पाधिकारम्' काव्य और कन्नड का 'राजावलीकथे' नामक ग्रथ भारतीय इतिहास के लिए अनूठे ग्रथ-रल है । दक्षिण भारत के जनशास्त्र भडारी का अवलोकन भारतीय ज्ञानपीठ के तत्वावधान में श्री प० के० भुजवली शास्त्री कर रहे है और हम आशा करते है कि शीघ्र ही दक्षिणवर्ती जैन साहित्य के अमूल्य रत्नो का परिचय विद्वज्जगत को उपलब्ध होगा। क्या ही अच्छा हो कि प्रेमीजी के प्रति कृतज्ञताज्ञापन स्वरूप जैनसाहित्यान्वेषण के लिए एक वृहद प्रायोजन किया जावे। अलीगज] अनेकान्त, भा० ६, अक २ में प्रकाशित नाहटा जी का लेख । 'अर्द्धकथानक (बम्बई) की भूमिका देखिये। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - साहित्य की हिन्दी - साहित्य को देन श्री रामसिंह तोमर एम० ए० प्रारंभ में ही यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि जैन - प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य को ही आधार मान कर यहाँ विचार किया है । अभी तक जितना प्राकृत और प्रपभ्रंश साहित्य प्रकाश में आया है, प्राय जैनो द्वारा ही लिखा हुआ मिला है। इन जैन लेखको ने देश के कोने-कोने में बैठकर रचनाएँ की । जैन साहित्य का रचना क्षेत्र बहुत विस्तृत था । जैन साहित्य की सबसे बडी विशेषता यह है कि उसे धार्मिक श्रावरण से छुटकारा कभी नही मिल सका । जैन कवियो या लेखको का कार्य बहुत ही कठिन था । धार्मिक दृष्टिकोण भुलाना उनके लिए मुश्किल था । यह प्रतिवन्ध होते हुए भी उचित अवसर आते ही जैन कवि अपना काव्य- कौशल प्रकट किए बिना नही रहते और ऐसे स्थलो पर हमें एक अत्यन्त उच्चकोटि के सरल और सरस काव्य के दर्शन होते है, जिसकी समता हम अच्छे-से-अच्छे कवि की रचना से कर सकते हैं । काव्य के सामान्य तत्त्वो के अतिरिक्त इन कवियो के काव्य की विशेषता यह है कि लोकरुचि के अनुकूल बनाने के लिए इन कवियो ने अपने काव्य को सामाजिक जीवन के अधिक निकट लाने का प्रयत्न किया है । मरलता और सरसता को एक साथ प्रस्तुत करने का जैसा सफल प्रयास इन कवियो ने किया, वैसा श्रन्यत्र कम प्राप्त होगा । धार्मिक प्रतिबन्धो के होते हुए भी वर्णन का एक नमूना पुष्पदन्त के महापुराण से हम उद्धृत करते हैं । ऐसे वर्णन स्थल -स्थल पर मिलते है। तीर्थकर का जन्म होने वाला है । जिस नगर में जन्म होगा, उसका वर्णन है उत्तुगकोलखडियकसेरु पुक्खरवरदीवइ पुव्व मेरु । तहु पुष्वविदेह वह विमल गइ कोलमाणकारडजुयल । खरदडस डदलछइयणीर डिडीपिंडपडुरियतीर । दरिसियपयडसोंडाललील लोलतयूलकल्लोलमाल । जुज्झतचडुलकरिमयर णिलय परिभमिय गहीरावत्तवलय । जलपक्खालियतउसाहिसाह णामेण सीय सीयल सगाह । दाहिणइ घण्णसछण्णसीम उवयठि ताहि सठिय सुसीम । - महापुराण पुष्पदन्त ४८. २१-७ इस प्रकार के वर्णनो से इन कवियो ने अपनी कृतियो में एक विचित्र सौंदर्य लाने की चेष्टा की है और उसमें वे बहुत कुछ सफल भी हुए है । समस्त संस्कृत साहित्य में एक प्रकार की एकरसता हम पाते है । महाकाव्य का या नाटक का नायक कोई महान व्यक्ति ही होता है, काव्य का विषय साधारण हो ही नही सकता । जैन प्राकृत अपभ्रंश साहित्य में हम पहिली वार देखते है कि काव्य का नायक साधारण श्रेणी का व्यक्ति भी हो सकता है । कोई भी धन-सम्पन्न श्रेष्ठि (वैश्य) काव्य का नायक हो सकता है । इन लेखको ने अपनी सुविधाओ के अनुकूल इन नायको के चरित्रो में परिवर्तन अवश्य १ नाटकीय प्राकृत, सेतुबंध श्रोर गाथा सप्तशती गोडवहो अजैनों द्वारा लिखे गए है। अपभ्रंश में अब्दुल रहमान कृत 'सदेश रासक', विद्यापति की कीर्तिलता दोहाकोष, विक्रमोर्वशीय के कुछ पद्य एव कुछ पद्य हेमचन्द के व्याकरण में भी श्रजैनो द्वारा लिखे प्राप्त हुए है । Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-साहित्य को हिन्दी-साहित्य को देन ४६५ किये है। किमी-न-किसी प्रकार उनको वार्मिक घेरे में बन्द करने का प्रयत्न तो किया ही है, किंतु इसके अतिरिक्त अन्य परिस्थितियों का वर्णन अत्यन्न स्वाभाविक ढग पर किया है। जिम समाज मे इन कथानायको का मवव है, वह नवके अनुभव करने योग्य मावाग्ण है। इसके नाथ इन कवियो ने घरेलू जीवन मे चुनकर प्रचलित और चिरपरिचित सुभापितो, मरल व्वन्यात्मक देशी गब्दो, घरेलू वर्णनो एव इसी बीच में उपमानो का प्रयोग करके काव्य को बहुत मामान्य रूप प्रदान क्यिा है। इन सबको लेकर लय और मगीत के अनुसार छन्दो मे एक मवुर परिवर्तन करके काव्य में एक अपूर्व माधुर्य एव मजीवता की सृष्टि की है। अपभ्रग के अविकाग छद ताल गेय है। सगीत के उल्लेख अपनग ग्रयों में हमे म्यान-म्यान पर मिलने है और वह मीत देवताओं, किन्नरी, अप्परानो की दुन्दुभियो, वीणाओं आदि का नहीं है, जन-समाज का संगीत है। आनन्द और उन्लाम में गाते हुए, नाचते हुए और अपने वाद्य यन्त्रो को वजाने हुए धरती के मनुप्यो का वह मगोत है, आकाश के देवताओं का नहीं । आकाग के देवता भी कभी-कभी पृथ्वी पर आते है, लेकिन वे केवल जिन (तीर्थकर) मे भेट, प्रणाम करने ही आते है। ये अपभ्रग काव्य गाये जाते थे। जनता की भापा म रचना करके लोक-भाषा को काव्य का माध्यम बनाने का श्रेय प्रधानत इन्ही जैन-कवियो को है। किमी समय की लोकभापा पाली-प्राकृनें भी मम्कृत के मदृश 'मस्कृत' (Classical ) हो चुकी थी। व्याकरण की महायता से ही उनका अध्ययन मुलभ हो मकता था। मेनुवध जैमे काव्यो का रसास्वादन करना पडितो के लिए भी सन्न कार्य नहीं था। अत लोकभापा माहित्य मे ही जनता का कल्याण हो सकता था। अपभ्रश कवियों की रचनायो ने ही आगे चल कर हिन्दी कवियों को भापा में रचना करने के लिए मार्ग-प्रदर्शक का कार्य किया। भाषा के दृष्टिकोण मे यह सबसे महत्त्वपूर्ण देन इन कवियो की हिन्दी-साहित्य को है। लोकभाषा के साथ-माथ अन्य सभी अपभ्रश काव्य के मावनो का प्रयोग भी भापा कवियो ने किया। अपभ्रग कवियो ने पहले-पहल लोकभाषा में लिखकर वडे माहम का काम किया। प्राकृत और अपभ्रंश का पडिन-समाज में आदर नहीं था। अपभ्रम नाम ही अनादर का द्योतक है । अपभ्रग नाम विद्वान् व्याकरणलेखको का दिया हुआ है। कहीं भी अपभ्रश-लेखको ने यह नाम नहीं दिया। मेतुवन्य जैसे पौराणिक नायक मे सम्बन्धित उत्कृष्ट काव्य की जब निन्दा होती थी' तव अन्य प्राकृत और अपभ्रश के ग्रन्यो के प्रति उपेक्षा का हम अनुमान कर सकते है। इस उपेक्षा की झलक हम अपना काव्यो की प्रारम्भिक भूमिकामो में भाषा में लिखने की मफाई देने के लिए लिखे गए स्थलो में मिलती है। अपभ्रश का प्रत्येक काव्य एव हिन्दी के प्राचीन कवि भी इस वात से सबक प्रतीत होते हैं कि भापा में लिखने के कारण उन्हें एक वर्ग का विरोध भी महना पडेगा। प्रत्येक कवि भाषा में लिखने के लिए अपनी उपयुक्तता प्रदर्शित करता दिखाई पडता है। इससे भी हमे यही ज्ञात होता है कि पडिनवर्ग के भय मे ही अपभ्रश कवि प्राय काव्य की श्रेष्ठता का मापदइ अर्थगाम्भीर्य को बतलाता है। भापा तो एक बाह्य आवरण मात्र है। अत भाषा में रचना का मूत्रात जैन-कवियो द्वारा ही हुआ और आगे चल कर हिन्दीकविया ने नी भाषा मे माहपूर्वक रचना करते समय इसमे अवश्य लाभ उठाया। 'पुष्पदन्त महापुराण जो सुम्मइ कइवइ विहियसेउ ।। तासु वि दुज्जणु किं परियहोउ ॥ १ ७ ८ “विद्यापति देसिल बयना सव जन मिट्ठा प्रादि । कवीर-मसमिरित है कप जल भाषा वहता नीर । तुलसी-"भापा भगित मोर मति थोरी।" "भावाबद्ध करवि मै सोई।" मराठी एकनाथ-"माझी मराठी भामा चौखडी।" Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ अव हम यह देखेंगे कि कौन-मी अपभ्रश काव्य-धाराएँ हिन्दी मे आई है। प्राय अपभ्रग के कवियो ने लोक प्रचलित कहानियो को लेकर उनमे मनोनुकूल परिवर्तन करके उन पर मुन्दर काव्य लिखे हैं। इन कहानियो को अपनाने का सवमे प्रवान कारण यह प्रतीत होता है कि इन परिचित कहानियो द्वारा उनके धार्मिक सिद्धान्तो का प्रचार भली भांति हो सकता था। इसके साथ-ही-साथ कवि भी लोकप्रिय बन मकते थे। इन अत्यन्त लोकप्रिय चिरपरिचित घरेलू कहानियो को लेकर उनके आसपास धार्मिक वातावरण भी अपने सिद्धान्तो के अनुकूल इन कवियों ने उपस्थित किया है। कहानी के नायको को जनवर्म का भक्त वना कर समस्त कथा को 'पचनमस्कारफल' या किमी व्रत से सम्बन्वित दृष्टान्त का रूप प्रदान किया है। बहुत सम्भव है कि पहले वे नायक धार्मिक वातावरण से पूर्ण स्वतन्त्र रहे हो, किन्तु जैन-कवियो ने उन्हें अपने रग मे रंग कर जैनगृहस्थो की पूजा-पाठ की सामग्री बना दिया। इसके साथ ही काव्य का रोचक पुट देकर उन्हें और भी मनोरजक बनाया और उन कथानो का एक नया सस्करण करके महत्त्वपूर्ण भी वनाया। हम भविष्यदत्तकथा को ही यहाँ उदाहरण के रूप म ले मकते हैं। (१) भविष्यदत्त की कथा 'भविसयत्तकहा' नामक ग्रन्थ के निर्माण होने के पूर्व प्रचलित थी और लोकप्रिय मा रही होगी। (२) धनपाल ने उसे कुछ धार्मिक' रग देकर व काव्यानुकूल कुछ परिवर्तन करके और सुन्दर बनाया। वह वार्मिक वातावरण के कारण जैनधरो मे ग्राह्य हुई और काव्य सौन्दर्य के कारण औरो के भी पढने योग्य हुई। (३) प्रेम और शृगार के दृश्यो को रखने मे और भी मनोरजक हुई।। (४) भाषा में निर्मित होने के कारण जनसाधारण में अधिक प्रचार हुआ। भविष्यदत्तकथा मे से पात्रो के नामो को यदि निकाल दे एव कुछ थोडे से अन्य परिवर्तन कर दें और वचे हुए मानचित्र से रत्नसेन पद्मावती की कहानी की तुलना करे तो दोनो में कोई अन्तर नही प्रतीत होगा। मेरा अनुमान है कि 'पद्मावती' मे रत्नसेन और अलाउद्दीन आदि नामो के अतिरिक्त ऐतिहासिकता बहुत कम है। वह केवल एक कहानी है। जिस प्रकार का प्रेम-चित्रण भविष्यदत्तकथा मे है, ठीक उसी प्रकार का रत्नसेन पद्मावती की कथा मे है। दोनो कृतियो की कथानो में समानता है। रत्नसेन की रानी पद्मिनी के हरण का अलाउद्दीन द्वारा प्रयत्न अत्यन्त अस्वाभाविक लगता है, भले ही वह ऐतिहासिक हो, किन्तु भविष्यदत्त की स्त्री का अपहरण उसके भाई बन्धुदन द्वारा अधिक स्वाभाविक है। सिंहल का भी उल्लेख दोनो कृतियो मे है। वह सिंहल कहाँ है, इसे जानने का प्रयास व्यर्य-सा है। उस समय की कहानियो मे सिंहल का आना आवश्यक है। पद्मावती मे 'जायसी' ने यत्र-तत्र आध्यात्मिक सकेत रक्खे हैं, किन्तु भविष्यदत्तकथा को एक धार्मिक कथा का रूप ही दे दिया है। अत उस प्रकार, के मकेतो को ढूढना निरर्थक है । ढूढने पर मिलना असम्भव नही है । 'जायसी' ने पद्मिनी की हार मान कर मृत्यु दिवाई है और इस प्रकार हरण करने से बचा दिया है, किन्तु भविष्यदत्तकथा मे वन्धुदत्त ने भविष्यदत्त की स्त्री का अपहरण किया है। पीछे घटनाचक्र के अनुकूल होने से उसे अपनी स्त्री वापिस मिल जाती है और वन्धुदत्त को दड मिलता है । इस प्रकार काव्य-न्याय का धनपाल ने निर्वाह किया है। इसको हम यही छोड कर प्राकृत में लिखी एक अन्य जैन-कथा से हिन्दी प्रेमाख्यानक काव्य के आदर्शग्रन्थ 'पद्मावत' की कथा से समता करके देखेंगे, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि ये कहानियाँ जनो द्वारा पहले ही काव्य-रचना के लिए अपनाई जा चुकी थी और प्रेममार्गी मूफी-धारा उसी का एक परिवर्तित द्वितीय सस्करण है। विक्रम को पन्द्रहवी शती की प्राकृत में लिखी एक 'रयणसेहरी नरवइ कहा' कथा मिलती है। कहानी को पौपच मनमी अप्टमी व्रत के दृष्टान्त के रूप में रक्खा गया है। इस कथा मे हिन्दी काव्य 'पद्मावत' की सव बाते भविष्यदत्तकया सूर्य पचमी व्रत के दृष्टान्त के रूप में कही गई है। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - साहित्य की हिन्दी साहित्य को देन न्यूनाधिक रूप में मिल जाती है । 'जायमी' के रत्नसेन ही इस कथा के 'रत्नशेखर नरपति' है । इसके अतिरिक्त मिहल का वर्णन, योग का उल्लेख, तोता पक्षी (यद्यपि उसका नाम हीरामन नही है - नामकरण सस्कार या तो जायसी ने किया होगा या कि कथा के किमी रचयिता ने), इन्द्रजाल श्रादि सव वातो का वर्णन है । पद्मावती के स्थान पर रानी का नाम रत्नावती है, लेकिन 'पद्मिनी' शब्द मिलता है । रत्नावती के मुख से ही इस प्रकार उसका प्रयोग हा है। रतनशेखर की शोभा पर मुग्ध होकर वह कहती है 'हे नाह । दूरदेमे ठियो विहिग्रयम्मि धारियोसि मए । सूर विणा समोहइ अहवा किं पउमिणी श्रन्न | -- रयणसेहरीकहा ८५ ॥ ४६७ 'जायसी' ने 'पद्मावती' नाम अच्छा नमझा । अत उसे ही रक्खा। उस नाम मे भी कथा प्रचलित रही होगी, ऐसा अनुमान करना अस्वाभाविक नही है । 'पद्मावत' में 'पद्मिनी' हरण के लिए अलाउद्दीन को उपस्थित करना निस्सन्देह ही 'जामी' की नई सूझ है । वह ऐतिहामिक मत्य हैं, यह कहना थोडा कठिन है । रयणमेहरी कथा में भी रानी का हरण हुआ है, लेकिन अन्त में वह इन्द्रजाल मिद्ध होता है और इस प्रकार रानीहरण को इन्द्रजाल सिद्ध करके एक धार्मिक वातावरण में कथा का अन्त किया है । इसमे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जैन साहित्य से इस प्रकार की अनेक काव्यमय आख्यायिकाओ के रूप हमारे प्रारम्भिक हिन्दी कवियो को मिले और प्रेममार्गी कवियो ने उन पर काव्य लिख कर अच्छा मार्ग प्रस्तुत किया । श्रागे चलकर कई कारणों से वह वारा रुक गई । दूसरी प्रधान धारा जैन - माहित्य में 'उपदेश' की है। यह अधिक प्राचीन है । यह उपदेशात्मकता हमे भारतीय साहित्य में मर्वत्र मिल सकती है, लेकिन जैन - माहित्य की उपदेशात्मकता गृहस्थ जीवन के अधिक निकट आ गई है । भाषा और उसकी सरलता इसके प्रधान कारण है । वर्तमान 'साधुवर्ग' पर जैनसाधुन श्रौर सन्यासियो का अधिक प्रभाव प्रतीत होता है । जो हो, हिन्दी-साहित्य मे इस उपदेश (रहस्यवाद मिश्रित) परम्परा के श्रादि प्रवर्तक कबीरदाम है श्रीर उनकी शैली, शब्दावली का पूर्ववर्ती रूप जैन - रचनाओ में हमें प्राप्त होता है । सिद्धो का भी उन पर पर्याप्त प्रभाव है, लेकिन उम पर विचार करना विपयान्तर होगा। यह कहना अनुचित और असगत न होगा कि हिन्दी की इस काव्यवारा पर भी जैन साहित्य का पर्याप्त प्रभाव पडा है । कुन्दकुन्दाचार्य, योगीन्दु देवसेन और मुनि रामसिंह इत्यादि कवियों की उपदेश - प्रधान शैली और सन्त साहित्य की शैली मे बहुत ममानता है । जिस प्रकार घरेलू जीवन (कवीर ने प्राय उपमान सामान्य जीवन से लिये है— जुलाहों, रहट की घरी श्रादि) के दृश्य लेकर सन्त कवियो ने अपने उपदेगी और मिद्धान्तो को बहुत दूर तक जनता मे पहुँचाया, उसी प्रकार इन जैन कवियो ने भी किया था । सिद्धो मे यह धारा किसी प्रकार कम व्याप्त नही थी और प्राचीन भी काफी थी । भक्ति के सव प्रधान श्रगो का वर्णन इसमें हमें मिलता है । सन्तो पर इसका प्रभाव अवश्य पडा है । यह हम ऊपर देख चुके है कि लोक-जीवन के स्वाभाविक चित्र अपभ्रग काव्य में हमें बहुत अधिक सख्या में मिलते है । शृगार, (मयोग और वियोग ), वालवर्णन एव अन्य गृहस्थ जीवन के स्वाभाविक चित्रण प्राय प्राप्त होते है । 'सूरदास' के शृंगार के चित्रो से समानता रखने वाले वर्णन और उनकी बाललीला की याद दिलाने वाले वर्णन भी अपभ्रण माहित्य में पाना कठिन नही है । हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में उद्घत पद्यो मे शृगार (विशेष कर वियोग-प्रोषित पतिका) के अनेक अच्छे उदाहरण हैं, जो सूरदाम की गोपियो की याद दिला देते हैं । यहाँ - एक पद्य उद्धृत किये जा रहे है । एक पथिक दूसरे पथिक मे अपनी प्रेमिका के विषय में पूछ रहा है - पहिश्रा दिट्ठी गोरडी दिट्ठी मग्गु निन्त । प्रसूसासेहि कातिन्तुव्वाण करन्त ॥ हेमचन्द्र - - प्राकृत व्याकरण ८ ४३१. Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ प्रेमी-अभिनदन-प्रय दूसरा उदाहरण एक वियुक्त नायिका का दृश्य अकिन करता है हिझडा फुट्टि तडत्ति करि कालक्खे। काई। देक्स हदविहि कहिठवइ पइ विण दुक्ख-सयाइ । -वही. ८. ३५७ ३. एक बालवर्णन का चित्र भी यह दिखाने के लिए यहाँ उदघृत करते है कि उसे पढ़ कर भक्त-कवियो के वालवर्गन को याद आ जाती है समानता भले ही कम हो। ऋषभदेव की बाललीला का वर्णन है तेसवलीलिया कोलमतीलिया। पहुणादाविया केण ण भाविया ॥ - धूलोधूसर वयकडिल्तु सजायकदिलकोतलु जडिल्लु । घत्ता-हो हल्लर जो जो सुहु सुअहिं पई पणवतउ भूयगणु। णदइ रिज्झइ दुक्कियमलेण कातुवि मलिगुण ण होइ मणु ॥ धूलीधूसरो कडिकिकिणीसरो। णिरुवमलीलउ कोलइ वालउ । पुष्पदन्त-महापुराण-प्रयमखण्ड । 'हो हल्लर' इत्यादि मब्दो को पढते समय 'हलराय दुलराय' आदि शब्दो की ओर ध्यान चला ही जाता है। तात्पर्य यह कि इस प्रकार के वर्णनो की झलक सूरदास मे मिल जाती है, यह इसलिए कि दोनो ही लोक-जीवन के वाभाविक वातावरण ने लिये गये है। अत नक्षेप में हम कह सकते है कि हिन्दी की नमी काव्य-पद्धतियो का सष्ट न्वरूप हमें जैन-कवियो द्वारा प्राप्त हुआ है। अब हम घोडा छन्दो पर विचार करके इस चर्चा को समाप्त करने। हिन्दी-साहित्य मे दोहा छन्द के दर्शन हमें सर्वप्रथम होते है। दोहा छद अपभ्रश का छन्द है। कालिदास के विक्रमोर्वशीय नाटक में भी एक दोहे के दर्शन होते हैं। उन अपभ्रम पचो की प्रामाणिकता के विषय में कहने का यह उचित स्थल नही है। उस पर विचार करने को आवश्यक्ता अवश्य है। जो हो, जैन-कवियो द्वारा इस छन्द का प्रयोग सबसे पहले हुआ। उपदेश आदि के लिए यह चन्द वहुन लोकप्रिय हो गया। सन्त कवियों ने आगे चल कर इने अपने उपदेशो का माध्यम बनाया। जर हम दोहे का प्रयोग शृगार के लिए भी दे चुके है। अत विहारी जैने कवियो ने उसमे सफलतापूर्वक शृगार रचना भी की है। दोहा-चौपाई के ढग की रचनाएँ भी अपभ्रश नाहित्य में हमे पर्याप्त मिलती है। चौपाई के पश्चात् दोहे के स्थान पर पत्ता' का प्रयोग हुआ है। पचमचरिय, भविष्यदत्तकथा, जसहरचरिउ, णायकुमारचरित, करकडूपरिज, सुदर्शनचरिउ आदि ग्रन्यो में दोहा-चौपाई के ढग को छन्द-व्यवस्था ही है। इन ग्रन्यो में चौपाई के स्थान पर अन्य छन्दो का भी प्रयोग हुआ है, लेकिन पत्ता' का प्रयोग कडवक को पूरा करने के लिए अवश्य हुआ है। हिन्दी में जापती के 'पद्मावत', तुलनीदास के 'मानस' में यही छन्द-व्यवस्था है, केवल दोहे ने पत्ता' का स्थान ले लिया है। इसने अतिरिक्त अन्य कई मात्रिक छन्दो का प्रयोग भी हिन्दी में अपभ्रम द्वारा ही आया है। विद्यापति, नृरदान एव अन्य भक्त कवियो के पद पहेली बने हुए है, लेकिन अपनग छन्दो पर विचार करने से वह परम्परा स्पष्ट हो जाती है। अपभ्रम कवि छन्द के दो चरणो को स्वतन्त्र पूर्ण चरण मान लेते है अर्थात् चौपाई के पूरे चार चरण लिखने की आवक्ता वे नहीं मममने है। दो चरण ते ही छन्द नमाप्त कर देते है। कभी एक चरण ही रख देते है और उनको न्यायी या ध्रुवक के रूप में कुछ पक्तियो के बाद दुहराते होगे। पदो को टेक या स्थायी का रूप इसी Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य की हिन्दी साहित्य को देन ४६६ में हमे मिलता है । उमके वाद और छन्दो की पक्तियाँ रख कर पद या पूर्ण गीत वन जाता है । अपभ्रंश मे संगीत की, लय की प्रधानता है, वर्णन स्वाभाविक रहता ही है। सगीत और लय दोनो का अपभ्रंश -कविता में सुन्दर विकास हुआ और यही हिन्दी पदशैली में हमें मिलता है । जयदेव श्रादि में वह सब ढूढने का प्रयाम निष्फल है । जयदेव पर भी अपभ्रश का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है । अपभ्रंश के छन्द प्राय सगीत प्रधान है, वे ताल - गेय है । हिन्दी की पदशैली में भी यह सव है । इस प्रकार हम देखते है कि जैन साहित्य ने भावधारा, विषय, छन्द, शैली आदि अनेक प्रकार के साहित्यिक उपकरण हिन्दी-साहित्य को प्रदान किये हैं । अभी तक बहुत कम जैन पण साहित्य प्रकाश में आया है। अधिकाधिक प्रकाश में आने पर यह प्रभाव और भी स्पष्ट होगा । शातिनिकेतन ] Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-साहित्य प्रचार मुनि न्यायविजय लगभग अठारह वर्ष पहले की बात है। हम पूना मे चातुर्मास कर रहे थे। उस समय हमने ज्ञान पचमी (कार्तिक शुक्ला पचमी) के उपलक्ष मे ज्ञान-पूजा के निमित्त जैन-साहित्य के सभी विषय के ग्रन्यो को अच्छी तरह प्रदर्शिनी के रूप में रख कर जैन व जैनेतर जनता को जन-साहित्य के दर्शन करने का अवसर दिया था। हमारा यह समारम्भ पूर्ण सफल हुआ। इस अवसर पर पूना के जैनेतर विद्वान व कुमारी जान्सन हेलन आदि आये थे। इन सव को जन-साहित्य की इतनी विपुल सामग्री देख कर अति प्रसन्नता हुई। उस समय एक प्रोफेसर महाशय के कहे हुए शब्द हमे ग्राज भी याद है । उन्होने कहा था, "जैन-साहित्य इतना अधिक है, यह तो हमें आज ही ज्ञात हुआ है। हमने वैदिक साहित्य खूब पढा है। हमारे लिए अव यह चर्वित चर्वण जैसा हो गया है । अव तो हम मे जैन-साहित्य पढने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई है। यहां जैसा प्रदर्शित किया गया है वैसा प्राचीन जैन-आगम-साहित्य, जैन-कथा-साहित्य, ज्योतिष विषयक जैन-साहित्य इत्यादि प्राचीन व अर्वाचीन साहित्य हमे मिल सके, ऐसा प्रवन्ध होना चाहिए।" ___ उन महानुभाव के ये शब्द हमारा ध्यान इस बात की ओर आकृष्ट करते है कि जैन-साहित्य के प्रचार के लिए भगीरथ प्रयत्न करने की आवश्यकता है। जैन-साहित्य को विश्व के सम्मुख रखने का इम' युग मे अच्छा अवसर है, पर इसके लिए जैन-साहित्य के (जैन आगम से लगा कर जैन-कथा-साहित्य पर्यन्त के) हर एक विषय के ग्रन्थो को नवीन सशोधन-पद्धति से सशोधित-सम्पादित करके सुन्दर रूप में मुद्रित करना अपेक्षित है। प्रत्येक ग्रन्थ के साथ उसमे प्रयुक्त जैन-पारिभाषिक शब्दो का परिचय एव उस ग्रन्थ का भाव राष्ट्र-भाषा हिन्दी एव अन्तर्राष्ट्रीय भाषा में दिया जाना चाहिए। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक दृष्टि से भी उस ग्रन्थ का महत्त्व विस्तार से समझाया जाना चाहिए। ___इस दिशा मे प्रयत्न करते समय मौलिक जैन-साहित्य के रूप मे जो आगम ग्रन्य विद्यमान है, उनके आदर्श मुद्रण और प्रकाशन की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। जो आगम ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके है वे वर्तमान सशोधनसम्पादन की दृष्टि से अपूर्ण प्रतीत होते है। इनके सुन्दर व सर्वांग-पूर्ण सस्करण प्रकाशित होने चाहिए। आगम के प्रकाशन के समय उसकी पचागी (भाष्य, नियुक्ति, टीका आदि) को भी विलकुल शुद्ध रूप में प्रकाशित करना चाहिए और यथासम्भव उनके विषय में गम्भीर पर्यालोचन करना चाहिए। मुझे विश्वास है कि जैन-आगम-साहित्य के प्रत्येक पहलू पर जितना अधिक ध्यान दिया जायगा, उतना ही अधिक जैन-सस्कृति का मौलिक रूप प्रकट हो सकेगा। जयधवला, महाधवला एव अन्य प्राकृत ग्रन्यो का भी इसी प्रकार आदर्श प्रकाशन होना चाहिए तथा संस्कृत एव प्रान्तीय भाषाओं में प्राप्त जैन-साहित्य सुचारु रूप से प्रकाशित होना चाहिए। यह बात ध्यान देने योग्य है कि किसी भी जैन-ग्रन्थ को प्रकाशित करते समय यह खयाल रखना चाहिए कि वह ग्रन्थ परम्परा से जैनधर्म को मानने वाले किसी एक समाज के लिए ही प्रकाशित नहीं किया जा रहा है। बल्कि जैनेतर जिज्ञासुमो की दृष्टि में रख कर ग्रन्थो का प्रकाशन होना चाहिए। भाव और भाषा इतने स्पष्ट और सरल होने चाहिए कि जनेतर बन्धु को उसे समझने में कोई कठिनाई न हो। हम देखते है कि धर्मपालन की दृष्टि से भले ही न हो, पर एक मनन-योग्य साहित्य की दृष्टि से जैन-साहित्य की ओर न केवल जैनेतर भारतीय विद्वान ही आकृष्ट हुए है, प्रत्युत यूरोप और अमरीका के विद्वानो का ध्यान भी उधर गया है। उनके अध्ययन के लिए प्रामाणिक एव सुवोध सामग्री प्राप्त कराने की दिशा मे प्रयत्न होना आवश्यक है। Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-साहित्य का प्रचार ४७१ हाई स्कूल व कॉलेज के पाठ्य-क्रम में अर्घ-मागधी भाषा को स्थान दिया गया है और मद्राम, वगाल आदि प्रान्तो में इस भाषा के अध्ययनकर्ता अच्छी मरया में है। इस कारण उनके अध्ययन के लिए उपयोगी हो सकें और उन्हें प्रेरणा दे सके, ऐसे जैन-ग्रन्थ समय-समय पर प्रकाशित किये जाने चाहिए और अल्प मूल्य मे जन-साधारण को सुलभ कराने का प्रवन्ध होना चाहिए। जैन-साहित्य के कोष में इतनी विपुल सामग्री भरी पडी है कि वह साधारण व्यक्तियो से लेकर पडित तथा इतिहास, ज्योतिष एव भाषा-शास्त्र के अध्ययन करने वालो को वडी उपयोगी हो सकती है। जैन-कथा-साहित्य अपने ढग का निराला साहित्य है। सस्कृत एव प्राकृत के विद्वानो का उससे खूब मनोरजन हो सकता है। तर्क-साहित्य, दर्शन-साहित्य और न्याय-साहित्य की तो मानो जैन-साहित्य अमूल्य निधि है । स्याद्वाद, नय व सप्तभगो की निराली नीव पर खडा किया गया जैन-दर्शन का तर्क इतना गहरा जाता है कि वह मुक्ति के उपासक को अपूर्व स्प ने प्रभावित कर देता है। इस विषय के मामान्य कोटि मे लगा कर उच्चतम कोटि मे रक्खे जाने वाले अनेक ग्रन्य है। जैन-दर्शन की मूक्ष्मता का स्पष्ट दर्शन इनमे होता है। आत्म-दृष्टि या अन्तर्मुख-वृत्ति के इच्छुक के लिए जैन-तत्त्वज्ञान एव उपदेश विषयक इतना सुन्दर साहित्य उपलब्ध है कि उसमें निमग्न होने वाला अवश्यमेव निजानन्द का अनुभव करने लगता है। इस विषय के ऐसे अनेक ग्रन्थ है, जिनमें कठिन-मे-कठिन मालूम होती आध्यात्मिक समस्या बडी ही सुगमता से समझाई गई है। परमाणुवाद का उल्लेख भी जन-ग्रन्यो मे प्राप्त होता है। तत्त्व-ज्ञान की दृष्टि को ध्यान में रखते हुए कर्मवाद के बारे में जो जैनमाहित्य प्राकृत एव मस्कृत भाषा मे रचा गया है, वह अपूर्व, अति सूक्ष्म एव अद्वितीय है। इस माहित्य को देखने पर जैन-दर्शन को नास्तिक-दर्शन कहने वालो को जैन-दर्शन की परम आस्तिकता का पूरा-पूरा अनुभव हो सकता है । ऐमा कहने में अत्युक्ति नहीं है कि जैन-दर्शन का कर्मवाद विषयक साहित्य ससार मे अपनी सानी नहीं रखता। ___ जन-काव्य-साहित्य में रामायण, महाभारत जैसे सरल कोटि के ग्रन्थो से लगा कर नैषध व कादम्बरी जैसे गूढ ग्रन्थ भी पर्याप्त मस्या में मिलते है। इसी प्रकार व्याकरण, कोष, अलकार, छन्द-शास्त्र आदि किसी विषय मे भी जैन-माहित्य पिछड़ा हुआ नहीं है। जैन-यागम-साहित्य का तो कहना ही क्या वह तो मानो उपर्युक्त मभी विषयो की साहित्य-गगा को जन्म देने वाला हिमालय है। उसमे सभी समा जाते हैं। उसमे सभी आविर्भूत होते है। प्रश्न उठता है कि जब जैन-माहित्य इतना सर्वागपूर्ण है तो फिर उसका इतना अल्प प्रचार क्यो ? इसका उत्तर स्पष्ट है । तिजोरी में पड़े हुए हीरे का यदि कोई मूल्य न पूछे तो उसमें हीरे का या मूल्य न पूछने वाले का क्या दोप? दोष है उसे निरन्तर तिजोरी में मूद रखने वाले लोभी व्यक्ति का । ठीक यही हाल हमारे जैन-साहित्य का है। हमारी अन्व सग्रह-गीलता, अज्ञता एव सकुचितता ने मारी दुनिया की सम्पत्ति रूप इस जैन-साहित्य को ससार की निगाह से अोझल कर रक्खा है, लेकिन सौभाग्य से विद्वानो का ध्यान अब इस ओर आकृष्ट हुआ है। अत उसके प्रचार मे पूरा-पूरा सहयोग देना हमारे लिए अनिवार्य हो जाता है। जैन-साहित्य के प्रचार के बारे में विचार करते समय ईसामसीह के मिशन का प्रचार करने के लिए हर एक भाषा मे छोटी-छोटी पुस्तकें तैयार करा कर अल्प मूल्य में बेचते हुए उपदेशक हमारी आंखो के सामने आते है । प्रचार का यह तरीका, उस मलिन अश को दूर करके, अपनाने लायक है । विना लोक-भाषा अर्थात् जहाँ प्रचार किया जाय, वहीं की भाषा, का सहारा लिये किसी भी धर्म या मत का पूर्ण रूप से प्रचार नहीं हो सकता। इस बात की सत्यता तो स्वय अर्धमागधी भापा के जैन-पागमो से ही प्रकट होती है । भगवान् महावीर स्वामी व भगवान् बुद्ध ने पडितो की मस्कृत भाषा को छोड कर अर्वमागधी व पाली भाषा को अपनाया। इसके पीछे यही भावना थी कि उनके उपदेशो को साधारण-से-साधारण व्यक्ति भी समझ सके। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ प्रेमी-अभिनदन-प्रय जैन-साहित्य के प्रचार का आयोजन करते समय हमे उन सस्थानो का आदर्श अपने सम्मुख रसना चाहिए, जो लोक-कल्याण की भावना मे ग्रन्थो का प्रकाशन करती है। जब तक निजी स्वार्थ को तिलाजलि देकर सत्साहित्य के प्रचार में न जुटा जायगा तव तक कुछ भी नही हो सकता। जैन-साहित्य इतना सर्वाङ्ग सुन्दर साहित्य है और जैन समाज में धन की कमी नहीं है । अगर समाज चाहे तो अल्प मूल्य क्या, विना मूल्य ही ग्रन्थो का वितरण कर सकता है। पर अभी समाज के साधन-सम्पन्न व्यक्तियो का ध्यान इस ओर नही गया। अव समय आ गया है कि इस दिशा मे भरसक प्रयत्न किया जाय । घोर हिंसा की पृष्ठ-भूमि में अहिंसा-प्रेरक साहित्य का जितना प्रचार किया जा सके, करना चाहिए। ___ इसके लिए हमे विद्वानो के सशोधन एव सम्पादन मडल, जैन-मस्कृति के केन्द्र रूप विद्यालय तथा आदर्श जैनग्रन्थालय भी जगह-जगह स्थापित कर देने चाहिए। जन-साहित्य के किसी भी अश के अध्ययन के लिए व्यक्तियों को पूरी सुविधाएँ मिल सके, ऐसा प्रवन्ध होना चाहिए। छात्रवृत्ति, निवन्ध आयोजन, उपाधि-वितरण आदि द्वारा भी जैन-साहित्य के अध्येतायो की सहायता की जा सकती है। इस प्रकार का प्रवन्ध करना कठिन नहीं है, लेकिन ऐसा करने मे एक वात का ध्यान रक्खा जाय कि जो कुछ भी किया जाय वह इतना दृढतापूर्वक किया जाय कि वरावर आगे चलता रहे। इस बारे मे सवसे अधिक यह कठिनाई अनुभव होती है कि योग्य कार्यकर्ता, विद्वान एव प्रवन्धक पर्याप्त मख्या म नही मिल पाते । लेकिन इसकी व्यवस्था होना कठिन नही है, वशर्ते कि हम इस दिशा मे अग्रसर होने के लिए कटिवद्ध हो जायं। सरकार की ओर से जिस प्रकार शिक्षक तैयार करने के लिए शिक्षण केन्द्र चलाये जाते है, उसी प्रकार की सस्थाए हम भी स्थापित कर सकते है। त्रिपुटी] - - - - - - - - - - - - - - - Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-साहित्य का भौगोलिक महत्त्व श्री अगरचन्द नाहटा किमी भी देश का इतिहास जब तक उस देणान्तर्गत ग्राम-नगर भूमि, उसके शासक और वहां के निवासी, इन तीनो का यथार्थ चित्र अकित न कर दे तव नक उमे पूर्ण नहीं कहा जा सकता। भारतीय इतिहास अभी तक गामको के इतिहास के स्प में ही विगेपनया हमारे सामने आया है। अत इमे एकागी ही कह सकते है। हमारे इनिहाम की इम कमी को पूर्ण करने की नितान्त आवश्यकता है। भारत के ग्राम और नगरी के इतिहाम की जो महत्त्वपूर्ण विशाल मामग्री जैन-साहित्य म पाई जाती है उनकी ओर हमारे इतिहाम-लेग्वको का ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य मे प्रस्तुत निबन्ध लिया जा रहा है। प्राचीन काल में ही गजकीय इतिहास को अधिक महत्त्व देने के कारण उसके सम्बन्ध में जितनी मामग्री पाई जाती है, उतनी ग्राम, नगर एव उसके निवामी जनमाधारण के इतिहास की नहीं पाई जाती। फिर भी भक्तिप्रवान भारत में कई स्थानों के माहात्म्य धार्मिक दृष्टि में लिखे गये है। उनके आधार पर एव भारत येतर यात्रियो के भ्रमण-वृत्तान्त आदि द्वाग कुछ प्रकाश डाला जा सकता है । जैनधर्म भारत में फला-फूला एव हजारो वर्षों से जैनमुनि इस देश के एक किनारे मे दूसरे किनारे तक धर्म-प्रचार करते रहे है । अत उनके साहित्य में भी भौगोलिक इतिहास की मामग्री अधिकाधिक पाई जाय, यह स्वाभाविक ही है। पर मेद है कि हमारे इतिहास-लेखको ने उस पोर प्राय ध्यान नहीं दिया। इमलिए इस लेग में जैन-साहित्य के भौगोलिक महत्त्व की चर्चा की जा रही है । जैन-माहित्य में सबसे प्राचीन माहित्य भागम-ग्रन्थ है। उनमें से ग्यारह अग प्रादि कई अन्य तो भगवान् महावीर द्वारा कथित होने के कारण ढाई हजार वर्ष पूर्व के इतिहास के लिए अत्यन्त उपयोगी है। इन आगमो में तत्कालीन धर्म, समाज-व्यवस्था, मस्कृति, कला-साहित्य, राजनैतिक हलचल और राजाओं के सम्बन्ध मे बहुमूल्य मामग्री सुरक्षित है। वैज्ञानिक दृष्टि मे इसका अनुमन्वान करना परमावश्यक है। इन पागमो मे जिन-जिन देश, नगर और ग्रामी का उल्लेख पाया है, मै यहां उन्ही का मक्षिप्त परिचय करा कर मध्यकालीन एतद्विपयक जैन साहित्य का परिचय दूगा । मेरा यह प्रयास केवल दिशासूचन के रूप में ही समझना चाहिए। विशेप अध्ययन करने पर पीर भी बहुत-भी जानकारी प्राप्त होने की सम्भावना है। प्राशा है, विचारशील विद्वद्गण इससे लाभ उठा कर हमारे इतिहास की एक महान् कमी को गीत्र ही पूर्ण करने मे प्रयत्नशील होगे। प्राचीन जैनागमो में जैनवाड़मय के चार प्रकार माने गये हैं-१ द्रव्यानुयोग (आत्मा, परमाणु आदि द्रव्यो की चर्चा) २ गणितानुयोग (भूगोल-बगोल और गणित) ३ चरणकरणानुयोग (प्राचार, विधिवाद, क्रियाकाण्ड के निम्पक गास्न) और ४ वर्मकथानुयोग (धार्मिक पुरुपो के चरित्र) । इनमे भूगोल-वगोल का विपय दूसरे अनुयोग में पाता है। इस विपय के कई मौलिक ग्रन्य भी है और कई अन्यो में अन्य बातो के माय भूगोल-खगोल की भी चर्चा की गई है । दोनो प्रकार के कतिपय ग्रन्यो के नाम इस प्रकार है भगवतीमूत्र, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्राप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, ज्योतिपकरटक, द्वीपसागरप्राप्ति, बृहत्मघयणी, लघुमघयणी, वृहत् क्षेत्रममाम, लघुक्षेत्रसमास, तिलोयपन्नति, मडलप्रकरण, देवेन्द्र नरेन्द्रप्रकरण, लोकनालिप्रकरण, जम्बूद्वीपमघयणि, लोकप्रकाण आदि। इन ग्रन्यो में पौराणिक ढग मे जैनभूगोल-गोल की चर्चा है । मुनि दर्शनविजय जी ने अपने विश्वरचना Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय ४७४ प्रबन्ध में इन ग्रन्यो में वर्णित वातो की तुलना जनेतर पुराणो के साथ भी की है एव मुनि धर्मविजय जी ने 'जनभूगोल' के नाम से एक वृहद्ग्रन्य भी प्रकाशित किया है। __ जैनागमो मे देशो के नाम जैनागमो में भगवतीमूत्र बहुत ही महत्त्वपूर्ण सूत्र है, जिसका अगसाहित्य में पांचवा स्थान आता है। इसके पन्द्रहवें भनक के गोगातक अध्ययन में भारत के सोलह प्रान्तो का नाम निर्देश पाया जाता है। यया १अग, २ वग, ३ मगध, ४ मलय, ५ मालव, अच्छ, ७ वत्स, ८ कोस्त, ६ पाट, १० लाट, ११ वज, १२ मौली, १३ कागी, १४ कोमल, १५ अवाव पीर १६ सभुक्तर। ___ इसी सूत्र में अवें शतक एव नवे शतक के तैतीसवे अध्ययन (देवानन्द के प्रमग ) मे कई वार भारततर अनार्य देशों के नाम पाये जाते है। जैसे वर, वर्वर, ढकण, भुत्तुन, पल्ट और पुलिंद यह : नाम अनार्य जाति के मूचक है । इन जातियो के नाम देगलूचक ही प्रतीत होते है। शक, यवन, चिलान, गवर, वर्वर इन्हें अनार्य या म्लेच्छ वतलाया गया है। देवानन्द के वस्त्रप्रनग में चीनाक (चीन का रेशम) एव विलात देश की दासियो का उल्लेख है। इनी प्रचार प्रीतिदान के प्रसग में पाग्नीक देग की दानियो का निर्देश पाया जाता है। अनार्य देशो म विस्तृत विवरण सूत्रकृनाग, प्रश्नव्याकरण एव प्रजापनासूत्र में है-(१) सूत्रकृताग के पृ० १२३ में शक, यवन, गवर, वर्वर, काय, मुरुड, दुगोल (२) पक्वणक, आत्याक, हूण, रोमस, पारस, खस, खामिक, दुविल, यल(२), वोन (२), वोक्कस, मिल्ल, अन्ध्र, पुलिंद, क्रौंच, भ्रमर, स्थ, कावोज, चीन, चुचुक, मालय (१) मिल और कुलाल यह सव अनार्य देश है। (२) प्रश्न व्याकरण के पृ० १२४ में दान, यवन, वर्वर, शवर, काय, मुरुड, उद भडक, तित्तक, पक्वणिक, कुलाल, गौड, मिह (ल),पारस क्रौंच, ग्रन्ध्र, द्वान्टि, विल्बल, पुलिन्द, अरोप , डोव, पोक्कण, गन्यहारक, वलीक, जल्ल, रोम, माप, वकुश, मलय, चुचुक, चूलिक (बोल' }, कोकण, भेद, पह्नव, मालवा, महुरा, आभापिक, अनक्क (अनक), चीन, ल्हासिक, खस, खासिय, नहर, महाराष्ट्र, माप्टिक, आरव, डोविलक, कुहण, केकय, हुण, रोमक, रुरु, मस्क और किरात, यह सव अनार्य देग हैं। (३) प्रज्ञापना पृ० ५५-- मक, यवन, किरात, गवर, वर्वर, मुरड, उट्ट, भडक, निम्नक, पक्वणिक, कुलाक्ष, गोंड, सिंहल, पारस, गोष, क्रौंच, प्रवड (१) द्रमिल, चिल्लल, पुलिंद, हार (१), ओस, डोव, वोक्कण, अनक्क, अघ्र, हारव, पहलीक, अध्यल, अध्वर, रोम, भाष, वकुश, मलय, वधुक, सूयति (?), कोकण, मेद, पलव, मालव, मग्गर (१), प्राभापिक, कणवीर, ल्हासिक, खस, खासिक, नेहर, भूढ डोविल, गलपोस (२), प्रदोष, कर्कतक, हण, रोमक, हूण, रोमक (१), नरु(मरु), मरुक और किरात, यह सब अनार्य है। प्रज्ञापनासूत्र में २५॥ आर्यदेशो के नाम और उनकी राजधानियो का उल्लेख इस प्रकार है '१ राजगृह (मगध), २ चपा (अग), ३ ताम्रलिप्ति (वग), ४ कचनपुर (कलिंग), ५ वाराणसी (काशी), ६ साकेत 'इसी अन्य के आधार पर 'जन भूगोल' शीर्षक लेख लिख कर मुनि न्यायविजय जी ने सातवीं गुजराती साहित्य परिषद् के अन्य में प्रकाशित करवाया है। देखिए भगवतीसूत्र (प० वेचरदास जी दोशी द्वारा सम्पादित) भा० २, पृ० ५३ । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - साहित्य का भौगोलिक महत्तव ४७५ ( कौशल ), ७ गजपुर ( कुरु), ८ सौरिक ( कुशावर्त ), 8 कापिल्य ( पाचाल ), १० अहिच्छत्र ( जागल ), ११ द्वारवती द्वारिका (सौराष्ट्र), १२ मिथिला (विदेह), १३ कौशाम्बी ( वत्स ), १४ नदीपुर (शाडिल्य ), १५ भद्दिलपुर ( मलय ), १६ वैराटपुर ( वत्स, मत्स्य २ ), १७ अच्छापुरी ( वरण), १८ मृत्तिकावती ( दशार्ण), १९ शौक्तिकावती ( चेदि), २० वीतभय (सिंधसौवीर), २१ मथुरा ( शूरसेन), २२ पापा (भग) २३ परावर्त्ता (मास), २४ श्रावस्ती ( कुणाल ), २५ कोटी वर्ष ( लाट), २६ श्वेताविका ( श्रर्घ केकय ) ।' ज्ञाता धर्मकथा नामक छठें अगसूत्र में भी मेघकुमार के प्रसग में निम्नोक्त देशो की दासियो का उल्लेख पाया जाता है : वर्वर, द्रमिल्ल, सिंहल, अरब, पुलिंद, बहल, गवर, पारस, वकुसि, योनक, पल्हविक, इसिनिका, धोरुकिनी, लासिक, लकुसिक, पक्वणी, मुरुडि । इस सूत्र के मल्लि अध्ययन में कोशल, अग, काशी, कुणाल, कुरु, पाचाल, विदेह, आदि देशो के नाम है । इसी प्रकार उइवाइ सूत्र में अनेक देशो की दासियो का उल्लेख है । विभिन्न ग्रन्थो मे नाम मग्रह करने का उद्देश्य हैं, उनके पाठान्तरो की ओर विद्वानो का ध्यान आकर्षित करना । इनमें से कई देश तो प्रसिद्ध है । अवन्ति देशो के वर्तमान नामादि पर प्रकाश डालने का विद्वानो से अनुरोध है । मध्यकालीन साहित्य मे देशो के नाम देशो की संख्या बढते - वढते ८४, जो कि प्रसिद्ध एव लोकप्रिय सख्या है, तक जा पहुँची । स० १२८५ के लगभग विनयचन्द्र रचित काव्य शिक्षाग्रन्थ में ८४ देशो का उल्लेख है -- चतुरशीतिर्देशा गौड —— कान्यकुब्ज —— कौल्लाक- कलिंग —— प्रग— वग——कुरग - आचाल्य ( ? ) – कामाक्ष - प्रोडू --पुड़ -- उडीग - मालव- लोहित - पश्चिम - काछ — वालम — सौराष्ट्र — कुकण - लाट —— श्रीमाल --- 'देखिए प० बेचरदास द्वारा अनुवादित 'भगवान महावीर नी धर्मकथाश्रो पृ० २०७ । जवृद्वीप प्रन्नप्तिसूत्र में भी इन देशो के नाम की सग्रहगाथा इस प्रकार पाई जाती है खुज्जा, चिल्लाई, वीमणि, बडभीश्रो, वन्वरी, वडसियाश्रो । जोणिय, पन्ववियानो, इसिणिया, चारू किणि या (१) लासिय, लउसिय, हामिली, सिहल्लीतह अफवि पुलिंदीऊ । पक्वाणि वलि मुरडी सबरी पारसियाओ (२) । इसी ग्रन्थ में भरत चक्रवर्ती के दिग्विजय के अधिकार में भी सिंहल, वर्बर, प्रारब, रोम, अलसड, पिक्खुर, कालमुख, जोनक, चिलात श्रादि देशों एवं वैताद्य आदि पर्वतो का उल्लेख एव विविध भौगोलिक सामग्री पाई जाती है। तत्वार्थ भाष्यवृत्ति के अध्याय ३ सूत्र पन्द्रहवें की व्याख्या में शक, यवन, किरात, काबोज, वाल्हीकादि को अनार्य बतलाया गया है । प्रज्ञापना सूत्र के श्राधार से ही प्रवचन सारोद्धार के २७४- २७५वे अधिकार में प्राय उन्हीं २६ श्रार्य देशों, उनकी नगरियो एव म्लेच्छ देशों के नाम दिये है (गाथा १५८३ से ६५) । इसी प्रकार श्रावश्यकसूत्र में भी अनार्य देशों के नाम है । कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य ने अपने त्रिसष्टिशलाका पुरुषचरित्र ( पर्व २ सर्ग ४) में निम्नोक्त देशों के नाम दिये है -- द्राविड, अध्र, कलिंग, विदर्भ, महाराष्ट्र, कोकण, लाट, कच्छ, सोरठ, म्लेच्छ-सिंहल, बर्बर, टकण, कालमुख, जोनक, यवनद्वीप, कच्छदेश । श्रादन, हावस, मुगदि, सुंघनगिरि, सीकोत्तर, चोलनार, पाडध, तालीउ, त्रिहूति, भोट, महाभोट, चीण, महाचीण, बगाल, खुरसाण, मगध, वच्छ, गाजणा । Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ अर्बुद-मेदपाट-मरुवरेंद्र-यमुना-गा तीर-प्रतर्वेदि-मागध-मध्य कुरु-डाहल-कामरूपकाचीअवती-पापातक-किरात-सीवीर-प्रौसीर-वाकाण-उत्तरा पथ-गुर्जर-सिंधु-केकाण-नेपाल टक्क -तुरुस्क-लाइकार-सिंघल--चौड-कोशल-पाडु--अन्ध्र-विध्य---कर्णाट-द्रविण-थीपर्वत-वर्वर ----जर्जर-कीर-काश्मीर-हिमालय-लोहपुरुप-श्रीराष्ट्र-दक्षिणापथ-विदर्भ-धाराउर-लाजी-तापी, -महाराष्ट्र-भाभीर-नर्मदातट-दी (द्वी) पदेशाश्चेति । ___ इसके पश्चात इस ग्रथ मे कई देश एव नगरो के ग्राम सख्यादि का भी निर्देश किया है। (देखें, पाटण भडार सूची पृ० ४८-४६)। स० १४७८ मे माणिक्यसुन्दरसूरि रचित पृथ्वीचद्र चरित्र में भगवान ऋषभदेव के ६८ पुत्रो के नाम से प्रसिद्ध हुए ६८ देशो के नाम की सूची इस प्रकार दी है काश्मीर, कीर, कावेर, काम्बोज, कमल, उत्कल, करहाट, कुरु, क्वाण, ऋथ, कोगक, कोशल, केशी, कारुत, कारुख, कछ, कर्नाट, कीकट, केकि, कौलगिरि, कामरू, कुकण, कुतल, कालिंग, करकूट, करकठ, केरल, सम, खर्पट, खेट, गोड, अग, गोण्य, गागक, चौड, चिल्लिर, चैत्य, जालघर, टकण, कोणियाण, गहल, तुग, नाज्जिक, तोमल, दशार्ण दडक, देवसम, नेपाल, नर्तक, पचाल, पल्लव, पुड़, पाडु, प्रत्यगथ, अर्बुद, वभ्रु, बभीर, भट्टीय, माहिप्यक, महोदय, मुरुड, मुरल, मेद, मरु, मुद्गर, मकन, मल्लवर्त, महाराष्ट्र, यवन, रोम, शटक, लाट, ब्रह्मोत्तर, वह्मावर्त्त, ब्राह्मणावाहक, विदेह, वग, वैराट, वनवास, वनायुज, वाहलीक, वल्लव, अवति, वह्नि, शक, सिंहल, सुम्ह, सूर्पग्वु, सौवीर, सुराष्ट, सुरड, अस्मक, हूण, हर्मोक, हर्मोज, हस, हुहुक, हेरक जैनागमो मे नगर एव ग्रामो का उल्लेख जैनागमो मे देशो के नाम के अतिरिक्त उन देशो के मुख्य नगर एव ग्रामो का भी अच्छा वर्णन पाया जाता है। कई नगरो के वनखड उद्यान, यक्षमदिर आदि जहां कि जैनमुनि रहते थे, उनका भी वर्णन किया गया है। पूरी खोज करने पर इस विषय मे बहुत कुछ नवीन ज्ञातव्य मिल सकता है, यहां तो यथाज्ञात थोडे से नामो का सग्रह किया जा रहा है। कई नगरो के उल्लेखो मे तत्कालीन राजाओ' का भी उल्लेख है। भगवतीसूत्र श्रावस्ती (कोष्टक चैत्य), कृतगला (छत्रपलाशचत्य), ताम्रलिप्ति (वेभेल सन्निवेग), सुसुमारनगर (अशोक वनखण्ड), वाणिज्यग्राम (दूतिपलाशचत्य), हस्तिनापुर (सहस्रादन उद्यान, शिवराजा, धारणी राणि गिविभद्रकुमार), कौशाम्बी (चन्द्रावतरणचैत्य-उदायी राजा, शतानिक का पुत्र-मृगावत राणी), वीतभयपत्तन (सिंधु-सौवीर देश-मृगवन उद्यान-उदायन राजा, प्रभावती रानी, अमिचीकुमार पुत्र, केशीकुमार-भानजा), उल्लुकतीर (जवूक चैत्य), राजगृह (गुणशील चैत्य, मडिकुक्षि चैत्य), चपानगरी (पूर्णभद्र चैत्य, अगमदिर, कौणिक राजा), वैशाली (कुडियायन चैत्य, चेटक राजा), ब्राह्मण कुड (बहुशालक चैत्य), क्षत्रियकुण्ड, तुगिया नगर। (पुष्यवती चैत्य), पालभिका (सखवन, प्राप्तकाल चैत्य), उद्दण्डपुर (चन्द्रावतरण चैत्य) वाराणशी (काममहावन), काकदी नगर, मेढियाग्राम (साणकोष्टक चैत्य) कूर्मग्राम, अस्थिग्राम, कोलाकसन्निवेश (नालदा के पास) मोका नगरी (नदन चैत्य), नालदा (राजगृह के वाहर), सिद्धार्थनाम, कर्मारग्राम, पणियभूमि, विशाला (बहुपुत्रिक चैत्य)। उपरोक्त सभी ग्रामनगरो का निर्देश भगवतीसूत्र से सकलित किया गया है। इनके अतिरिक्त आचारागसूत्र मे लाटभूमि, वनभूमि, शुभ्रभूमि के नाम आते है । ज्ञातासूत्र में शुक्तिमती, हस्तिशीर्प, मथुरा, कौडिन्यनगर, 'जैसे ठाणागसूत्त के वेस्थानक में १ वीरागक, २ वीरजस, ३ सजय, ४ ऐणेयक, ५ श्वेत, ६ शिव, ७ उदायन और ८ शख इन ८ राजाओं को तो भगवान महावीर ने दीक्षित किया लिखा है। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य का भौगोलिक महत्त्व विराट नगर, कापिलनगर, ( पाच ) लदेन ) वाराणमी, द्वारिका, मिथिला, श्रहिच्छत्रा, कापिल्य, पाडुमथुरा, हत्थकप्प, मातपुरी, इन नगरो के नामो के साथ मम्मेत, उज्जयत, शत्रुजय, नील पर्वत, वैभारगिरि आदि पर्वतो का भी निर्देश पाया जाता है । ७वे अग उपासक दशा में कपिलपुर, पोलामपुर, यह नाम उपरोक्त नामो के अतिरिक्त है । तगड दशासूत्र में कुछ विशेष स्थलो के नाम निम्नोक्त श्राये है। राजगृह में मुद्गरपाणि यक्ष का मंदिर, पोलामपुर, भहिलपुर | ४७७ विपाक नामक ११वे श्रग में विशेष नाम इम प्रकार है- मृगाग्राम, पुरिमताल, माभाजनी, पाटलिम्बड, मोरिकपुर, रोहीतक, वर्धमानपुर, वृषभपुर, वीरपुर, विजयपुर, सौगधिका, कनकपुर, महापुर, सुघोप । रायपसेणडय नामक उपाग मे ग्रामलकप्पा नगरी और मेयविया नगरी का नाम आता है। ठणागमूत्र में गंगा नदी में यमुना, मयू, आदी, कोशी, मही, इन ५ नदियो के मिलने का एव सिंधु नदी मे सेद्रु, भावितस्ती, भामा, एंगवती और चन्द्रभागा इन पांच नदियो के मम्मिलित होने का उल्लेख है । नमवायाग सूत्र मे ७ पर्वत एव १४ नदिया के नाम, गगासिधु के उद्गम एव प्रपातस्थल (समवाय २५वाँ ) आदि का वर्णन है । भगवान महावीर के विहारस्थल के प्रसग से कल्पसूत्र में पृष्टचपा, भद्रिका, पावा आदि का उल्लेख किया है । विहार के मव स्थानों का परिचय आधुनिक अन्वेषण के साथ मुनि कल्याणविजय जी ने अपने 'श्रमण भगवान महावीर नामक ग्रन्थ के परिशिष्ट में 'विहारस्थलनामकोप' के शीर्षक से दिया है । यहाँ लेख विस्तारभय से उसकी चर्चा नहीं की गई है । अत उक्त ग्रथ की ओर पाठको का ध्यान आकर्षित कर रहा हूँ । जैन तीर्थों के इतिहास सवधी विशाल साहित्य अपने मे विशेष गुणवान एव शक्तिसम्पन्न व्यक्ति के प्रति मनुष्य की पूज्यबुद्धि का होना स्वाभाविक एव आवश्यक है। इसी भावना ने भक्तिमार्ग का विकास किया और क्रमश अवतारवाद, बहुदेववाद, मूर्तिपूजा यादि ग्रमख्य कल्पनाएँ एव विधिविधान प्रकाश में आते गये । तीर्थभावना का प्रचार भी इसी भक्तिवाद की देन है । जिम व्यक्ति के प्रति अपनी पूज्यबुद्धि होती है, उसके माता, पिता, वश, जन्म-स्थान, क्रीडास्थान, विहारस्थल जहाँ कही भी उनके जीवन की कोई विशेष घटनाएँ हुई हो एव उनकी वाणी, उनकी मूर्ति, आदि उस व्यक्ति के मवय की सभी बातो के प्रति श्रादर बढते - वढते पूजा का भाव दृढ होने लगता है और अपने पूज्य व्यक्ति का जहाँ जन्म हुआ हो, निवास रहा हो, उन्होने जहाँ रह कर साधना की हो, जहाँ निर्वाण एव सिद्धि प्राप्त की हो, उन सभी स्थानो को 'तीर्थ' कहा जाने लगता है । प्रत्येक धार्मिक सम्प्रदाय में हम इसीलिए तीर्थों की यात्रा का महत्त्व पाते है। जैनधर्म में भी तीर्थकरो मे सबंधित स्थानो को तीर्थ कहा गया है और उनकी यात्रा से भावना की शुद्धि एव वृद्धि होने के कारण उनका वडा भारी फल वतलाया गया है, क्योकि उन स्थानो का वातावरण वडा शान्त एव पवित्र होता है । वहाँ जाते ही उन तीर्थकरो की पवित्र स्मृति चित्त में जाग्रत होती है। इसमे चित्त को वडी शान्ति मिलती है । अतएव वहाँ उनके चरणचिह्न या मूर्ति की स्थापना की जाती है, जिससे उनकी स्मृति को जाग्रति में सहायता मिले । पीछे मूर्ति की प्राचीनता, भव्यता, प्रभाव, चमत्कार आदि के कारण कई अन्य स्थान भी, जहाँ तीर्थंकरो के जीवन का कोई मवव नही था, तीयं रूप माने जाने लगे । फलत आज छोटे-मोटे अनेक तीर्थ जैन समाज मे प्रसिद्ध है | समय-समय पर जैन मुनि एव श्रावक वहाँ की यात्रा करते रहे है और उनका वर्णन लिखते रहे है । इसी कारण जैन तीर्थों मवधी ऐतिहासिक सामग्री भी बहुत विशाल रूप में पाई जाती है । यद्यपि जनेतर तीर्थों के माहात्म्य का साहित्य भी बहुत विशाल है, तथापि उसमे ऐतिहासिक दृष्टिकोण का प्रभाव मा ही पाया जाता है । इस दृष्टि से जैन माहित्य विशेष महत्त्व का है । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ ४७८ रास्ते की कठिनाइयो के कारण प्राचीन काल मेयात्रा श्राज जैसी सरल एवसुलभ नही थी। इमी कारण सैकडो और हजारो व्यक्तियो के सम्मिलित यात्री-सघ निकलते थे। उनके साथ साधु भी रहा करते थे। साधुओ का प्राचार ही पैदल चलना है। श्रावक लोग भी अधिकाश पैदल ही चलते थे। रास्ते में छोटे-बडे ग्राम-नगरो मे ठहरना होता था और वहाँ के मदिरो के दर्शन किये जाते थे। विद्वान मुनि उस यात्री सघ का वर्णन करते समय मार्ग के ग्राम नगर नथा वहां के निवासियो का वर्णन भी लिखते थे। यह साहित्य भौगोलिक दृष्टि से जितना अधिक उपयोगी है, उतना अन्य कोई भी साहित्य नहीं है। जैन तीर्थों सवधी साहित्य मे भारतीय ग्राम नगरो के इतिहास को अनमोल सामग्रो भरी पड़ी है, पर इस पोर अभी तक हमारे इतिहास-लेखको का ध्यान नहीं गया। अत भारत के ग्राम नगरी का वहत कुछ इतिहास अधकार में ही पडा है, जिसको प्रकाश मे लाने की परमावश्यकता है। जैन तीर्थों सवधी जितने साहित्य का पता चला है, उनकी सूची यहाँ दी जाती है । अभी जैन भडारो की पूरी खोज नही हुई है और बहुत सासाहित्य नप्ट भी हो चुका है। अत इस सूची को काम चलाऊ ही समझना चाहिए। स्वतत्र शोध करने पर और भी बहुत-सा साहित्य मिलेगा। तीर्थों की प्राचीनता एव विकास मूल जैनागमो मे स्वर्ग में स्थित जिन-प्रतिमायो, तीर्थकरो की पादानो एव नदीश्वर द्वीप मे स्थित गाश्वन जिनप्रतिमानो की भक्ति एव पूजन का उल्लेख मिलता है, पर तीर्य रूप में किमी स्थान का उल्लेख नहीं मिलता। अत तीर्थ-भावना का विकास पीछे से हुआ ज्ञात होता है। आगमो की नियुक्तियो मे तीर्थ-भावना के सूत्र दृष्टिगोचर होते है। सर्वप्रथम प्राचाराग नियुक्ति (भद्रवाहु रचित)में कुछ स्थानो का नामोल्लेख पाता है। यद्यपि वहाँ तीर्थ शब्द नहीं है, फिर भी उन स्थानो को महत्त्व दिया गया है-नमस्कार किया गया है। अत इसे तीर्थ-भावना का प्रादि सूत्र कहा जा सकता है । वह उल्लेख इस प्रकार है प्रहावय उजिते गयगग्गपए य धम्म चक्केय पासरहा वत्तणय चमरुप्पाय च वदामि ॥४६॥ गजानपदे-दशार्णकूटवतिनि तथा तक्षशिलाया धर्मचके तथा अहिच्छत्राया पाश्वनाथस्य धरणेन्द्र महिमा स्थाने ।-प्राचाराग नियुक्ति व वृत्ति पत्राक ४१८ । नियुक्तियो के पश्चात् चूणि एव भाष्यो की रचना हुई। उनमे से निशीथचूणि मे नीर्यभूत कतिपय स्थानो का निर्देश इस प्रकार पाया जाता है "उत्तरावहे धम्मचक्क, मथुराए देवणिम्मिो )मो। कोसलाए जियतसामि पडिमा, तित्यकराण वा जम्मभूमिओ। (निशीथचूणि पत्र २४३-२) । जैन मदिरो की सख्या क्रमश बढने लगी। अत भाष्य एव चूणि मे अष्टमी, चतुर्दशी, आदि पर्वदिनो में समस्तजैनमदिरो की वन्दना करने का विधान किया गया है और ऐसा न करने पर दड भी बतलाया गया है । यथा 'जैनतीर्थों के सम्बन्ध में प्रकाशित अन्थो की सूची परिशिष्ट में दी जा रही है। इससे तीर्थों की अधिकता एव एतद्विषयक सामग्री की विशालता का कुछ प्रामास हो जायगा। अप्रकाशित साहित्य का ढेर लगा पडा है। मेरे सग्रह में भी ५०० पृष्ठो को सामग्री सुरक्षित है, जिसे सम्पादन कर प्रकाशित करने का विचार है। प्रकाशित साहित्य की सूची भी स्वतत्र पुस्तको की ही दी है। इनके अतिरिक्त जैन साहित्य सशोधक, जनयुग, कॉन्फरेन्स हेरल्ड, जनसत्यप्रकाश, पुरातत्त्व प्रादि अनेक पत्रो में प्राचीन रचनाए एव भ्रमणावि के लेख प्रकाशित हुए है। Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ जैन-साहित्य का भौगोलिक महत्त्व निस्सकड मनिस्सकडे चेइए सवहिं थुई तिनि । वेल व चेइआणि व नाउ इक्किक्किया वा वि (भाष्य) अट्ठमी चउद्दसीसु चेइय सव्वाणि साहुणा सव्वे वदेयव्या नियमा अवसेस तिहिसु जहसत्ति । ए एव चेव अट्ठमी मादीसु चेइयाइ साहुणो वा जे अण्णाए वसहीए ठिा ते न ववति मास लहु । (व्यवहार भाष्य व चूर्णि) महानिशीथ सूत्र में तीर्थयात्रा करने का स्पष्ट उल्लेख है "अहन्नया गोयमा ते साहुणो त पायरिय भणति जहाण जइ भयव तुम पाणावहि ताण अम्हेहि तित्ययत्त करि (र) या चदप्पह सामिय दिया धम्मचक्क गतूणमागच्छामो। (महानिशीथ-५-४३५)। तीर्थो के इतिहास की सामग्री जैन तीर्थों के ऐतिहासिक साधन दिगम्बर सम्प्रदाय की अपेक्षा श्वेताम्बर समाज में बहुत अधिक है । तीर्थों के सवध मे मौलिक रचनायो का प्रारम्भ १३वी शताब्दी से होता है। गुजरात के महान् मत्रीश्वर वस्तुपाल, तेजपाल के कारित जिनालयो वा उनकी प्रतिमाओं के प्रमग को लेकर उसी समय 'आवूरास' एव 'रेवतगिरि रासो' की रचना हुई। इसके पश्चात १४वी शताब्दी से अब तक तीर्थमालापो, चैत्यपरिपाटियो, सघवर्णन आदि के रूप में भाषा एव सस्कृत के काव्य संकडो की संख्या मे प्राप्त है। यहां उन सबकी सूची देना सभव नहीं है, पर उनपर सरसरी निगाह डाल ली जाती है, जिससे इस विशाल सामग्री का आभास पाठको को हो जाय। जैन तीर्थों के सवध मे सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्य जिनप्रभसूरि विरचित 'विविध तीर्थकल्प है, जिसके महत्त्व के सवध में मुनि जिनविजय उक्त ग्रन्थ की प्रस्तावना के प्रारभ मे लिखते है "श्री जिनप्रभसरि रचित 'कल्पप्रदीप' अथवा विशेषतया प्रसिद्ध 'विविध तीर्थकल्प' नाम का यह ग्रन्थ जैन साहित्य की एक विशिष्ट वस्तु है । ऐतिहासिक और भौगोलिक दोनो प्रकार के विषयो की दृष्टि से इस ग्रन्थ का वहुत कुछ महत्त्व है । जैन साहित्य मे ही नही, समस्त भारतीय साहित्य में भी इस प्रकार का कोई दूसरा ग्रन्थ अभी तक ज्ञात नही हुआ । यह अन्य विक्रम की १४वी शताब्दी मे, जैन धर्म के जितने पुरातन और विद्यमान प्रसिद्ध-प्रसिद्ध तीर्थस्थान थे, उनके सबध की प्राय एक प्रकार की गाइडवुक है। इनमे वर्णित उन-उन तीर्थों का सक्षिप्त रूप से स्थान-वर्णन भी है और यथाज्ञात इतिहास भी।" इस प्रकार का सग्रहग्रन्थ तो दूसरा नहीं है, पर कतिपय तीर्थों का इतिहास उपदेशसप्तति' (सोमधर्मगणिरचित र० स० १५०३)मे पाया जाता है। स० १३७१ के शत्रुजय उद्धार का विस्तृत वर्णन समरा रास एव नामि नदनोद्धार प्रवध' (कक्कमूरिरचित स० १३६३) मे पाया जाता है। गाजय तीर्थ के कर्माशाहकारित 'जीर्णोद्धार' का सक्षिप्त वर्णन शत्रुजय तीर्थोद्धार प्रवध में है। फुटकर प्रवधसग्रहों में भी कई तीर्थों के प्रबन्ध प्राप्त होते है । लोकभापार 'सिंघी-जैन-प्रन्थमाला से प्रकाशित । 'श्री जैन प्रात्मानन्द सभा से प्रकाशित । 'हेमचन्द्र जैनग्रन्थमाला से प्रकाशित । *मुनि जिनविजय जी द्वारा सपादित, आत्मानद सभा, भावनगर से प्रकाशित । 'सिंघी जैन अन्यमाला से प्रकाशित 'पुरातन प्रबध सग्रह। Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० प्रेमी-यभिनदन-प्रव रचित तीर्पमालासोचैत्य परिपाटियो की नल्या प्रचुर है, जिनमें कई तो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इनमें ने कई रचनामो मेतो मार्ग के न्यानो का भी अच्छा वर्णन है। कइयो मे जैन मदिरो उनके निमानात्रो के उल्लेख के साथ उन-उन नादिरी की प्रतिमानो की नरना भी वलाई गई है। नाधारण चनात्रो मे मे कइयों में केवल तीर्थस्थानों का नामनिए कवि ने अपनी यात्रादि के समयादि का उल्लेख हो किया है। जन तीयों में गनुजय तीर्पतीयाविराज कह लाता है। इसी के समय में नवने अधिक न मनी प्राप्त होती है। पौराणिक ढग ने इन ती नाहात्म्यम बोवहिजो रनि मजय माहात्म्य नामक विशाल गन्ध पाया जाता है एवं कई 'कल्प उपलब। इस नार्थ के पत्रात माब एक गिरिनार का नाम उल्लेखनीय है। न-नीर्य नान के चारो कोनो में जनो का निवान होने के कापना फैन हुर, पर नमकान ने अब तक गुजरात के यानपान का प्रदेशही श्वेताम्बर जैनो का केन्द्र होने के का 1 अन्य प्रान्ना के स्थानों मबवो नानी अक्षाकृत पोडी ही है। ___ मौलिक नानी के अतिरिक्त अन्य ऐतिहानिक न्यो मे भी जैन तीर्थों के नवन में बहुत नी महत्त्वपण बाते पाई जाती है। एने न्यो ने पेयडरान विमन्तवव, विमलचत्रि, वन्नुपाल गोरजपाल के चन्त्रि, गम नमरा गन, प्रतापनि रानादिनन । कतिपय प्राचागें के रान एक पट्टावलियोम भी अच्छी ऐतिहानिकानमत्री पाईजातो है। विनि त्रिवेगी मादि विज्ञप्निपत्र एव तलन गर्दावती जी भ्रमणवृत्तान में उल्लेखपोग्य है । ग्राम एव नगरो के इतिहास के अन्य साधन ___वन-चरिनबी गन्यो, कालोएव तीर्थयानो नीहित्य के प्रतिकित अन्यईनधन भी जैन नाहित्य में हैं, जिनके द्वारा भारत के पाम एव नगरो का महत्वपूर्ण इतिहास नकलित किया जा सकता है। उनकी कुछ चर्चा क.देना भी यहा प्रावश्यक प्रतीत होता है। ऐने नावनो में नगर वर्णनात्मक गजने दिशपम्प से उल्लेखनीय है। हमारी कोज ने ऐती पत्रानो गजलो की प्राप्ति हुई है, जिने भारतीय नाहिय मे एक नवीन यन्त्रही पहा मानना है। इन गजलों में एक-एक नगर का अलकारिक भापा ने वर्णन होने के नायनाय वहाँ के जैन-जनेतर मनी दर्शनीय एव तोर्यनालामो में अपने यात्रा किए हुए या सुने हुए तीयों के नाम, उनका माहात्म्य. प्रतिमा आदि का वर्णन एव स्तुति होती है। ऐसी तीर्थमालाओं का प्रारभ भी १३वीं शताब्दी के लगभग से ही होता है। सिद्धसेन तरि रचित सकलतोयस्तोत्र उपलब्ध तीर्थ स्तवनो में सबसे प्राचीन प्रतीत होता है। इसकी ताडपत्रीय प्रति पाटण के भडार में उपलब्न है । तोर्यमालामो में सौभाग्यविजय और शीलविजय की तीर्थमालाएं बहुत महत्त्व को है। चैत्य परिपाटीमें किती ग्रामनगर के ममत्तमदिरों को क्रमवद्ध यात्रा का (जिन-जिन तीर्थपरो के जिनालय हों उन मदिरो के नाम, किनमोहल्ले में है उनका भी निर्देश एव किसी-किसी में प्रतिमानो की सरमा को भी सूचना मिलती है) वर्णन किया जाता है। ऐसी चैत्य परिपाटियों में हेमहतगणि व रगसार रचित गिरनारचंत्यपरिपाटी, देवचन्द्र और लेनो आदि के रचित शत्रुजय चैत्य परिपाटी, हससोमरचित पर्वदेश चैत्य परिपाटी, नगागणिको जालोर चत्य परिपाटी लाघा एविनय विजयजी रचित सूरत चै-यपरिपाटी, जिन सुखसूरि मादि रचित जैसलमेर चैत्य परिपाटी, सित्तूर, ललितप्रभसूरि, हविजय रचित पाटगचैत्य परिपाटी, डुगर रचित खभात चैत्य परिपाटी, जयहमशि एव गपेन्द्र रचित चित्रकूट चैत्य परिपाटी, धर्मवर्षन विमलचारित्रादि रचित बीकानेर चैत्य परिपाटी, खेमराज रचित माडवगढ चैत्य परिपाटी, ज्ञानसागर रचित आव चत्य परिपाटो, अनतहमकृत इलाप्रकार चैत्य परिपाटी आदि अनेक रचनाएँ उपलब्ध है। तोर्यमालाओ, चंय परिपाटियो प्रादि का एक सुन्दर सग्रह श्री विजयधर्मसूरि जी ने 'प्राचीन तीर्थमाला सग्रह के नाम से प्रकाशित किया है। जनयुग, जनसत्यप्रकाश ग्रादि पत्र एव कई ग्रन्यो में भी कई सुन्दर रचनाए प्रकाशित हुई है। Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८१ जैन-साहित्य का भौगोलिक महत्त्व उल्लेखनीय स्थानो का विवरण पाया जाता है। छोटे-छाटे दर्शनीय स्थानो का अन्यत्र कही भी इतिहास नही मिलता। उनका भी इनमे परिचय होने से उन स्थानो के समय, स्थान आदि का निर्णय करने के लिए महत्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती है। नगर वर्णनात्मक गजल साहित्य का निर्माण १७वी शताब्दी से होता है । उपलब्ध गजलो मे सबसे प्राचीन जटमल नाहररचित लाहौर गजल है। इसके पश्चात १८वी शताब्दी मे कवि खेतल ने उदयपुर (स० १७५७) एव चित्तौड (१७४८) की गजल, उदयचन्द्र ने बीकानेर गजल (१७६५), यति दुर्गादास ने मरोठ गजल (१७६५), लक्ष्मी चन्द्र ने आगरा गजल (१७८१), निहाल ने वगाल (१७५२ से १५) गजल बनाई। अनन्तर १९वी शताब्दी में तो वीसो गजले जैन कवियो ने बनाई है, जिनका परिचय स्वतत्र लेखो में दिया जायगा। ग्रामनगरो के अन्य ऐतिहासिक साधनो मे श्रीपूज्यो के दफ्तर,' आदेशपत्र, समाचारपत्र, विज्ञप्तिपत्र, दूतकाव्य वशावलिए, ऐतिहासिक काव्य (जैन प्राचार्यों, मुनियो और श्रावको की जीवनी के रूप में प्रथित) पट्टावलियां, उत्कीर्ण लेख और प्रशस्तियाँ प्रादि मुख्य है । इनके द्वारा नगरो की ही नहीं, छोटे-छोटे ग्रामो की प्राचीनता, स्थान अवस्थिति, प्राचीन नाम व उसका रूप एव वहां के निवासियो का पता चल सकता है, जो कि अन्यत्र दुर्लभ है । सक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि जैन साहित्य का ऐतिहासिक महत्त्व के साथ-साथ भौगोलिक महत्व भी बहुत है । अत प्राचीन भूगोल और इतिहास के प्रेमी विद्वानो को इस अमूल्य साहित्य से समुचित लाभ उठाना चाहिए, जिससे भारतीय साहित्य के एक अग की पूर्ति हो जाय।। 'जैन साधुओ के आचार-विचार बडे ही कठोर है। उनका यथारीति पालन न कर सकने के कारण जैनेतर मठाधीशों की भाति श्वेताम्बर समाज में भी श्री पूज्य, दिगम्बर समाज में भट्टारक नाम से सबोधित जैन नेतागच्छनायक सैकडों वर्षों से होते आये है । ये जहां-जहां पधारते थे, उनके अनुयायी श्रावक उनकी विविध प्रकार से भक्ति करते थे। अत ये अपने विहार (भ्रमण) की डायरी व प्रावश्यक घटनाओ के रेकार्डरूप दफ्तर बही लिखकर रखने लगे, जिनमें कब कौन से ग्रामनगर में गये, वहां किस श्रावक ने क्या भेंट किया, भक्ति की, किसे दीक्षा दी गई, कहाँ मदिरो की प्रतिष्ठा हुई, इत्यादि प्रावश्यक बातो को अपनी दफ्तर बहियो में लिख लेते थे। ऐसे दफ्तर इतिहास के अनमोल साधन है । पर खेद है इनमें से एक भी अभी तक प्रकाश में नहीं पाया। हमें ऐसे ४-५ दफ्तर देखने का सुयोग मिला है, पर सकोचवश दफ्तर जिनके पास है वे प्राय बतलाते नहीं, न नकल या प्रतिलिपिही करने देते है । आपसी फूट और अज्ञानतावश बहुत से दफ्तर अब नष्ट भी हो चुके है। फिर भी जितने बच पाये है, प्रयत्न कर प्राप्त किये जायें तो बहुत ही अच्छा हो। गच्छनेत्ता अपने शिष्यादि को जहां-जहां जाकर धर्मप्रचार करने की प्राज्ञा पत्रों द्वारा देते थे ऐसे पत्रो को 'प्रादेशपत्र कहते है। चातुर्मास के समय अपने अनुयायी समस्त मुनिमडल की सूची बनाई जाती, जिसमें किन-किन के चातुर्मास कहां है, लिखा जाता था। उस पत्र को विजयपट्टा, क्षेत्रादेश पट्टक कहा जाता है। पर्युषण पर्व एव विहार आदि के समाचार श्रावकादिसप को दिये जाते, उन्हें 'समाचार पत्र' कहा जा सकता है। ऐसे हजारो पत्र अज्ञानता से नष्ट हो चुके । इनमें से खरतर गच्छ के जितने पत्र हमें प्राप्त हो सके। हमने अपने 'अभय जैन ग्रन्थालय' में सगृहीत किये है। पत्रों का इतना विशाल सग्रह शायद ही कहीं हो। ऐसे आदेशपत्र एव क्षेत्रादेशपट्टक जैन साहित्य सशोधक एव जैन सत्यप्रकाश में थोड़े से प्रकाशित हुए है। अवशेष-नष्ट होते हुए इन ऐतिहासिक साधनभूत पत्रों का सग्रह एवं प्रकाशन परमावश्यक है। 'प्रत्येक जाति एव गोत्र को वशावलियां भाट, कुलगुरु आदि लिखते चले आ रहे है। फलत अनेक वशावलियाँ पाई जाती है, पर अभी तक वे सभी प्रकार में पड़ी है। जैन जाति को वशावलि में केवल एक वशावलि जैन साहित्य सशोषक एव प्रात्माराम शताब्दी स्मारक ग्रन्थ में प्रकाशित हुई है। Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i, चम्बई ४०२ प्रेमी-प्रभिनदन-ग्रंथ सचित्र विज्ञप्ति-पत्र भौगोलिक साहित्य के अतिरिक्त नगरो के चित्रमय दर्शन के लिये जैनाचार्गे को दिये गये विज्ञप्ति-पत्र भी वडे महत्त्व के है । जिस नगर के श्रावक अपने पूज्य आचार्य को अपने यहाँ पधारने को विज्ञप्ति करते थे वे अपने नगर के प्रमुख स्यानो के चित्र भी विज्ञप्ति-पत्र मे चित्रित करवा देते थे। इससे उस नगर के खास-खास स्थानो के तम्य एव न्यल निर्णय के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण सूचनाएं पाई जाती है । इन सचित्र विज्ञप्नि-पयो के सम्बन्ध में बडौदा राज्य ने प्रकाशित 'Ancient Vigraptu patras' नामक अन्य में प्रकाग डाला गया है। उक्त ग्रन्य म निर्देशित पत्रों के अतिरिक्त हमारे साह मे उदयपुर का ७५ फूट लम्बा सचित्र विज्ञप्ति-पत्र एव यहां के बडे ज्ञानमबार में २० फुट लम्वा वोकानेर का विज्ञप्ति-पत्र और वाव् पूर्णचन्द्र जी नाहर द्वारा नगृहीत ४ विज्ञप्ति-पत्र हमारे अवलोकन में आये है। चित्रकला, ऐतिहासिक एव भौगोलिक सभी दृष्टियों से जैनो के विज्ञप्ति-पत्र महत्त्वपूर्ण है। जैन तीर्थ सवधी प्रकाशित ग्रन्थ प्राचीन ऐतिहासिक साहित्य अन्यों के नाम कर्ता संपादक प्रकाशक मूल्य १ विविध तीर्थ कल्प जिनप्रभसूरि जिनविजय सिंघी जैनग्रन्यमाला, वम्बई (म० १३६४ ने८६) * (क) उपदेशसप्नतिका । मोमधर्म चतुरविजय श्री जैन आत्मानद सभा, भाव- २॥ (ख) ,, अनुवाद (स० १५०३) नगर। ३ प्राचीन तीर्थमाला विभिन्नकवि विजयधर्मसूरि यशोविजय ग्रन्थमाला, भाव- २॥ (२५प्राचीन भाषाकृतियां) नगर। ४ पाटण चैत्य परिपाटी ललितप्रभसूरि | कल्याणविजय हसविजय जैन को लाइब्रेरी, ।। हर्ष विजय, हीरा } वडोदा लाल, साधुचन्द्र ३ चारदिगानातीर्थोनीतीर्थ शीलविजय जैनधर्मप्रसारक सभा, भावनगर । __ माला सार्य ६ नाभिनदनोद्वार प्रवध सार्थ क भगवानदान हेमचन्द्र जैन न्यमाला (स० १३६%) अहमदावाद । ७ भत्रुजय तीर्थोद्वार प्रवध विवेकधीर जिनविजय जिनविजय श्री जैन आत्मानंद सभा, भाव- ) नगर। - तीर्थक्षेत्र कुल्पाक (हि०) जिनप्रभसूरि वालचन्द्राचार्य नेमचन्द्र गोलछा, हैदराबाद E , (गु०) चन्दनसागर झवेरी नवलचन्द, सूरत १० वाणी जैन तीर्थस्तोत्र समयसुन्दर जैनमदिर घघाणी ११ सूर्यपुर रासमाला लाघाशाह, विनय मोतीचन्द मगनभाई, सूरत विजयजी १२ समेत सिखररास जयविजय . लालचन्द मोतीचन्द, बडोदा تا ہے म لی Ed *इसमें शत्रुजय, आबू, भरोंच, जीरापल्ली, फलौवी, पारातण, कलिकुंड, अंतरोक्ष, स्तभन आदि का वृत्त है। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-साहित्य का भौगोलिक महत्त्व श्वेताम्बर तीर्थ-परिचय प्रन्थो के नाम कर्ता १ तीर्थमाला, अमोलक रत्न २ जैनतीर्थेनो नक्सो चारित्रविजय मफतलाल माणिकचद, वीरमगाम ३ जैनतीर्थ गाइड (जैन श्वेताम्बर मोहनलाल जती लेखक तीर्थ प्रकाश) ४ जैन तीर्थमाला जैन सस्ती बाचनमाला, भावनगर ५ जैन तीर्थमाला (शत्रुजय, गिर दोशी कस्तूरचन्द बहालजी, लीबडी नार आदि का वर्णन) ६ जैनतीर्थावलि प्रकाश ७ जैन तीर्थों (सचित्र) दिगम्बर तीर्थ-परिचय ८ जैन तीर्थयात्रा विवरण डाह्याभाई शिवलाल & यात्रादर्पण ठाकुरदास झवेरी (बबई, स० १९७०) १० जैनतीर्थयात्रा दर्शक गेबीलालजी किशोरलाल पाटणी, कलकत्ता ११ जैनतीर्थ और उनकी यात्रा कामताप्रसाद अखिल भारत दिगम्बर जैन परिषद् UE @E CE १२) ॥ १० १५ से प्राचीनजैन स्मारक (५भाग) ) ब्र० शीतल प्रसाद श्वे० दि० तीर्थ समुच्चय रूप | भ्रमण वृत्तात १६ भावनगर समेतसिखर स्पेशल बडवा जैन मित्रमडल, भावनगर ट्रेन स्मरणाक १७ प्रवासगाइड स० तरुण १८ राजनगर समेतसिखर ट्रेन मोहनलालदीपचदवोहरा कस्तूरचद खमात १६ प्रवास गाइड (श्री जैन श्वे. मिश्रीमल जैन स्वयसेवक मडल, इन्दौर समेतसिखर स्पेशलट्रेन) २० पूर्व प्रान्तीय जैन श्वेताम्बर तीर्थ उदयपुर श्री सख , गाइड (२) २१ मारी सिन्ध यात्रा विद्याविजय २२ मारी कच्छ यात्रा २३ मेरी मेवाड यात्रा २४ विहार वर्णन जयतविजय यशोविजय ग्रन्थमाला, भावनगर २५ विहारदर्शन चारित्रविजय चारित्रस्मारक ग्रन्थमाला, वीरमगाम २६ प्रियकर विहार दिग्दर्शन प्रियकर विजय सोमचन्द जेसिंग, म्हेसाणा २७ मेरी नेमाड यात्रा यतीन्द्रविजय सूर्रावन्नाजी भूति विजयधर्मसूरि ग्रन्थमाला, उज्जैन २॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ २८ यतीन्द्र विहार दिग्दर्शन भा० १-२-३-४ २६ वगाल बिहार ३० कच्छ गिरनार नी यात्रा ३९. तीर्थयात्रा दिग्दर्शन ३२ म्हारो यात्रा ३३ तीर्थयात्रा वर्णन ३४ जैन तीर्थावलि प्रवास ३५ किताव जैनतीर्थं गाइड ३६ जैन तीर्थ यात्रा दीपक ३७ जैन तीर्थ गाइड (भाग १ ) ३८ चैत्य परिपाटी यात्रा ( श्रमदावाद, वडोदा, भात, पाटण के मदिरो की सूची) १ शत्रुजयप्रकाश (पूर्वार्ध) २ (उत्तरार्ध) 31 अन्य ५ सिद्धाचलन वर्तमानवर्णन ६ "3 13 ७ सिद्धाचलन तात्त्विक वर्णन 37 "" 11 ३ शत्रुजय तीर्थंना १५वाँ उद्धारनु वर्णन ४ शत्रुजय तीर्थना १६व उद्धारनु गाधी वल्लभदास वर्णन "" 1 प्रेमी - अभिनंदन ग्रंथ शातिविजय (१९५५) फतेचन्द (१६७१) मोतीलाल मगनलाल पुष्पभिक्षु दोशी मणिलाल नथुभाई भोगीलाल साकलचन्द, वोहरा भगुभाई लखमसी नेणसी १३ अचलराज नावू १४ श्रावू जी तथा पच तीर्थानु वर्णन १५ श्राबू के जैन मंदिरो के निर्माता १६. ब्राह्मणवाडा " विभिन्न स्थानो के स्वतंत्र इतिहास कर्ता देवचन्द्रदामजी गाधी वल्लभदास 27 72 महताव कुमारी जिनेन्द्र प्रासाद चौथमल चडालिया वर्णन ६ गिरनारनु इतिहास १० माहात्म्य ११ तीर्थं परिचय 13 १२ (क) आबू (गुजराती) (ख) (हिन्दी) अमरचन्द बेचरदास 33 "" दौलतचद पुरुषोत्तम घरघर विजय जयतविजय "" घोरजलाल टोकरसी सौचमं गच्छीय सघ ललितविजय जयतविजय स्थानकवासी जैनसघ, कलकत्ता जैन सस्ती वाचनमाला अहमदावाद वडनगर फतेचन्द कारवारी, बम्बई वम्बई जैनसमाज, अहमदावाद देहली अहमदाबाद हस विजय लाइब्रेरी, अहमदाबाद जैन ग्रॉफिस, भावनगर ?? जैन श्रात्मानद सभा, भावनगर 13 "3 37 मोहनलाल देवचन्द अमरचन्द गुलाबचन्द सामजी पालीताणा 22 जैन सस्ती वाचनमाला, भावनगर जैन सस्ती वाचनमाला, वम्बई श्री जैन साहित्यवर्धक सभा, सूरत कल्याणजी परमानद, देलवाडा 37 "" ज्योतिकार्यालय, अहमदावाद 21 श्रात्मानद जैनसभा, अम्बाला विजयधर्मसूरि ग्रन्थमाला, उज्जैन リ २) मूल्य १) १) シ ツリウッ言言 १ १५ リリ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ eve eeee , . जैन-साहित्य का भौगोलिक महत्त्व १७ देलवाडा विजयेन्द्रसूरि यशोविजय जैन ग्रन्थमाला १८ , मेवाड ललितविजय आत्म तिलक ग्रन्थ सोसायटी १६ कोरटा तीर्थ का इतिहास यतीन्द्रविजय हजारीमल जोरजी २० केशरियाजी तीर्थ का इतिहास चन्दनमल नागौरी सद्गुण प्रसारक मित्र मडल, छोटीसादडी २१ कापरडा तीर्थ का इतिहास ज्ञानसुदर जैन ज्ञान भडार, जोधपुर २२ श्री कापरडा जी तीर्थ ललितविजय उदयमल कल्याण, व्यावर २३ शखेश्वर महातीर्थ जयतविजय विजयधर्ममूरि ग्रन्थमाला, उज्जैन २४ पावागढ थी प्रगट थयेला जीरा- लालचन्द्र गाधी अभयचन्द्र गाधी, भावनगर वल्ला पार्श्वनाथ २५ प्रगटप्रभावी पार्श्वनाथ जैन सस्ती वाचनमाला २६ चारूप नू अवलोकन मगलचद लल्लू चन्द पाटण २७ पाटण जैन मदिर नामावलि मोहनलाल लल्लूभाई। पाटण २८ " " " अष्टापद् धर्मशाला, पाटण २६ खभात नोप्राचीन जैन इतिहास नर्मदा शकर भट्ट आत्मानद शताब्दी स्मारक ग्रन्थमाला, बम्बई ३० खभात नो इतिहास-चैत्य परि स्तभ जैन तीर्थ मडल पाटी ३१ पाटलिपुत्र का इतिहास सूर्यमल यती श्रीसघ, पटना ३२ भीलडीया जी जैन तीर्थ सिद्धिमुनि मोहनलाल जैन लाइब्रेरी, अहमदाबाद ३३ गोल नगरीय पार्श्वनाथ प्रतिष्ठा रेवतीराम जैन कविशास्त्र सग्रह, जालौर प्रवध ३४ कदम्बगिरि तीर्थ जिनदास धर्मदास पेढी ३५ भोयणी नु मल्लिनाथ वर्णन । छोटूलाल पोचाभाई मोतीचन्द ३६ जैसलमेर जैन गाइड फूलचन्द चोरडिया अमृतलाल साराभाई ३७ जैसलमेर मा चमत्कार चदनमल नागौरी सद्गुण प्रसारक मडल, छोटी सादडी ३८ वीजापुर वृहत् वृत्तात बुद्धिसागरसूरि अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मडल ३६ सूर्यपुर नो स्वर्ण युग केशरीचन्द्र झवेरी मोतीचद मगनभाई, सूरत ४० सूरत चैत्य परिपाटी ४१ सूरत जैन डिरेक्टरी ४२ पावापुर तीर्थ का प्राचीन इति- पूर्णचन्द्र नाहर लेखक हास ४३ Tirth Pavapurn (अल्बम) लक्ष्मीचद सचेती ४४ सम्मेत सिखर चित्रावलि नाथमल चडालिया (स०१९११) लेखक हो, कलकत्ता ४५ शत्रुजय अलबम (१० चित्र) ४६ कमनीय कमलिनी (श्री शिखर झमकलाल रातडिया जी की यात्रा) ४७ वयान पारसनाथ पहाड शातिविजय हवासीलाल वानाचद mimi ili wa haitalli JEE ee Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ४८ महातीर्थ रीरीसा पार्श्वनाथ गोवर्धन प्रमुलख वर्णन ४६ अहमदावाद नी शहर यात्रा ५० नाकोडा पार्श्वनाथ ५१ इडरगढ़ ५२ जिनालय रिपोर्ट ५२ अजारा पार्श्वनाथ ५३ सखेश्वर पार्श्वनाथ ५४ स्तभन पार्श्वनाथ ५५ प्रहार ५६ पपौरा ५७ वैशाली ५८ अचलगढ (सचित्र) ५६ हमीरगढ 5 लेख १ जालोर २ भीमपल्ली और रामसेन ३ पालणपुर ४ हमारे तीर्थक्षेत्र ५ दक्षिण के तीर्थक्षेत्र १ सम्मेतसिखर माहात्म्य २ गिरनार माहात्म्य ३ प्रवधपरिचय प्रेमी - अभिनंदन ग्रंथ यतीन्द्रविजय मणिलाल लालचद 33 11 "" स० यशपाल जैन स ० -- राजकुमार जैन विजयेन्द्र सूरि जयन्त विजय 22 लेखक कल्याणविजय कल्याणविजय कातिसागर नाथूराम जी प्रेमी नाथूराम जी प्रेमी १ जैन लेखसग्रह भाग १ २ जैन लेखसंग्रह भाग २ ३ जैन लेखसग्रह भाग ३ ४ प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग १ जिनविजय (खारवेल शिलालेख ) -५ प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग २ जिनविजय ६ अर्बुद प्राचीन जैन लेख सन्दोह ७ जैन धातु प्रतिमा लेख संग्रह .. भाग १ अहमदाबाद 11 विशिष्ट लेख ( श्वेताम्बर ) उजमवाई धर्मशाला, अहमदावाद सस्ती वाचनमाला जयतविजय - वुद्धिसागरसूरि " " 'मधुकर' कार्यालय, टीकमगढ स० [सं० धन्यकुमार जैन, कटनी यशोवि० प्रथमाला, भावनगर महात्म्यादि ( दिगम्वर ) लोहाचार्य वशीधर जैन " "7 رو 13 कौन से पत्र श्रथवा ग्रंथ में प्रकाशित जैन रौप्याक जैन युग फास सभा का त्रैमासिक पत्र 'जैन साहित्य और इतिहास' 'जैन साहित्य और इतिहास' जैन प्रतिमा लेख- सग्रह ( श्वेताम्बर ) ० पूर्णचन्द्रजी नाहर कलकत्ता स० पूर्णचन्द्रजी नाहर कलकत्ता स० पूर्णचन्द्रजी नाहर कलकत्ता आत्मानंद सभा जैन ग्रन्थ कार्यालय, झासी श्रवध प्रादेशिक दि० जैन परिषद् लखनऊ आत्मानंद सभा विजय धर्मसूरि ग्रन्थमाला अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल, पादरा 15) १) १ मूल्य ३) २) ५) ५) ७) ३) ३) २) Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - साहित्य का भौगोलिक महत्त्व ८ जैन धातु प्रतिमा लेख सग्रह भाग २ बुद्धिसागर सुरि e प्राचीन लेख संग्रह विद्याविजय १ जैन शिलालेख संग्रह २ प्रतिमा लेखसग्रह ३ जैन प्रतिमा, यत्र लेख संग्रह अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल पादरा यशोविजय जैन ग्रन्थमाला दिगम्बर प्रतिमा लेख संग्रह हीरालाल जैन कामताप्रसाद जैन छोटेलाल जैन कलापूर्ण जैन शिल्प स्थापत्य की चित्रावलि लेखक, ग्रहमदावाद १ भारत मा जैन तीर्थों ने तेमनु (म० -- साराभाई शिल्पस्थापत्य नवाव ) माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्यमाला जैन सिद्धात भवन, श्रारा पुरातत्त्व अन्वेषणी परिषद्, कलकत्ता ४८७ ३) २) २) १५) श्राव के सुन्दर शिल्प स्थापत्य के चित्र 'श्रावू' ग्रन्थ में दिये गये है । शत्रुजय अलवम, तीर्थं पावापुरी, समेतसिखर चित्रावली, चित्रमय अचलगढ, सखेश्वर पार्श्वनाथ आदि ग्रन्थों में भी चित्र प्रकाशित है । बीकानेर ] Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि रन्न का दुर्योधन श्री के० भुजवली शास्त्री मनुष्य किसी बात की सत्यता या असत्यता का निर्णय प्राय अपने उन विचारो के अनुसार ही कर बैठता है, जिनसे उसकी बुद्धि पहले से प्रभावित हो चुकती है, परन्तु वह अपने पूर्व सस्कार को एक ओर रखकर समालोच्य विषय पर जब तक निष्पक्ष रूप से विचार नही करता तब तक किसी यथार्थ निर्णय पर नही पहुँच सकता । प्राचीन कालीन किसी व्यक्ति के वास्तविक आचार-विचारादि जानने के लिए हमे तत्कालीन या वाद के प्रामाणिक साहित्य का ही श्राश्रय लेना पडता है । इस सिद्वान्तानुसार श्रभिमानघनी एव प्रतापी दुर्योधन या कौरव के श्राचार-विचारादि जानने लिए हमे प्राचीन साहित्य की ही शरण लेनी पडती है । अधिकाश ग्रन्थ रचयिताओ ने द्रोपदी के वस्त्रापहरण आदि कुछ अनुचित घटनाओ को लेकर दुर्योधन को कलकी घोषित कर अपमानजनक शब्दो द्वारा उन पर आक्रमण किया है । हम भी दुर्योधन को दोषी मानते है । फिर भी इसके लिए उनके सारे मानवोचित गुणो को भुला देना समुचित नही कहा जा सकता । प्रत्येक मनुष्य मे गुण और दोष दोनो होते है । जिसमें दोपो का प्रत्यन्ताभाव है, वह मनुष्य नहीं है, देवता । श्राखिर दुर्योधन भी मनुष्य ही था । जव हम किमी व्यक्ति की अखड जीवनी पर प्रकाश डालते है तब गुण और दोष दोनो को एक ही दृष्टि से देखना होता है । तुलनात्मक दृष्टि से इन दोनो के मनन करने के बाद उन गुणदोषो की कमी-बेगी के लिहाज से ही हम उस व्यक्ति को गुणी या दोषी करार दे सकते है । इतना परिश्रम न उठाकर एक-दो गुण या दोषो को देखकर किसी के गुणी या दोषी होने का फैसला दे देना निष्पक्ष निर्णय नही कहा जा सकता । दुर्योधन भी रावण की तरह इसी पक्षपातपूर्ण निर्णय का शिकार किया जाकर लोगो की नजरो मे गिराया गया है । प्रश्न उठ सकता है कि दुर्योधन में जव गुण भी थे तो महाभारत के बहुसस्यक लेखको ने उसे दोषी क्यो ठहराया ? इसका उत्तर यही है कि एक तो हमारे भारतवर्ष का उस समय का वातावरण ही इस प्रकार का था। दूसरी बात यह कि हमारे पुरातन श्रद्धेय कवि बहुधा श्रनुकरणशील थे । इसलिए जो परपरा उनके सामने मौजूद थी उसी को कायम रखना वे अधिक पसन्द करते थे । इसका कारण यह भी था कि उन्हें इस बात का भय था कि पूर्व परपरा के विरुद्ध होने से उनकी कृतियाँ जनता मे सर्वमान्य नही हो सकेंगी। परपरा के कुछ विरुद्ध लिखने वाले 'रत्नाकर' जैसे कतिपय साहसी कवियो पर ऐसी आपत्ति था भी चुकी है। साथ ही साथ भारतवर्ष सुप्राचीन काल से आचार के लिए प्रधान है । यह सब कुछ होते हुए भी जैन कवियो ने रावण की तरह ' दुर्योधन का जीवन चित्रित करने मे जो वृद्धि एव साहम दिखलाया है, वह प्रशसनीय है । उन कृतियों में से केवल महाकवि रन्न के 'गदायुद्ध' में प्रतिपादित दुर्योधन पर प्रकाश डालना ही इस लेख का उद्देश्य है । महाकवि रन्न कन्नड साहित्य मे एक ख्यातिप्राप्त कवि था । कविरत्न, कविचक्रवर्ती, कविकुजराकुश, उभय भाषाकवि आदि इसे कई उपाधियाँ प्राप्त थी । इसका जन्म ई० सन् १४६ में मुदुबोल नामक ग्राम में हुआ था । यह वैश्य वर्ण का था और राज्यमान्य कवि था । राजा की ओर से सुवर्ण-दड, चवर, छत्र-हाथी आदि इसके साथ चलते थे । इसके गुरु का नाम अजितसेनाचार्य था । सुप्रसिद्ध जैन मत्री चाउडराय इसका पोपक था । इस समय इसके दो अन्य उपलब्ध है । एक 'अजितपुराण' और दूसरा 'साहस भीम' विजय या 'गदायुद्ध' । पहले ग्रथ में दूसरे तीर्थकर अजितनाथ का चरित्र वारह प्रश्वासो में वर्णित है । यह चम्पू ग्रथ है । यह पुराण ई० सन् ६६३ में रचा गया था। ''जैन सिद्धान्त - भास्कर' भाग ६, किरण १ में प्रकाशित हमारा लेख । Page #524 --------------------------------------------------------------------------  Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी - श्रभिनदन-ग्रथ दुख हुआ है, उतना असह्य दुख परम प्रिय कर्ण, दुश्शासन आदि के वियोग से भी नही हुआ था । 'पाडवो से विरोध छोड़ कर सधि कर लो,' इस वात को सुनने के लिए ही मानो ब्रह्म ने मुझे ये कान दिये है ।' ? दुर्योधन के व्यक्तित्व को और देखिये । वह कहता है कि कर्ण और दुष्गासन ये दोनो मेरे दो नेत्र या दो भुजाएँ कहे जाते थे । हा । इनके मरने के बाद भी मेरा जीना उचित है ? दुश्शासन के शरीर को देखकर दुर्योधन कहता हैं कि तुमको मारने वाला अव भी जीवित है । उसको विना मारे मैं जी रहा हूँ । क्या यही प्रेम का पुरस्कार है आगे द्रोण आदि के शरीरो को देख कर दुर्योधन मुक्तकठ से उनके पराक्रम की प्रशसा कर स्वाभाविक गुरुभक्ति को व्यक्त करता हुआ उनके नाश में अपना दुर्नय तथा दुरदृष्ट ही कारण है कहकर पश्चात्ताप करता है । अनतर गुरुचरणी मे प्रणाम करके उन्हें प्रदक्षिणा देकर आगे वढता है । इसी प्रकार भीष्म के चरणो मे मस्तक रखकर उनसे भी क्षमा माँगता है । यहाँ पर दुर्योधन की असीम गुरुभक्ति देखिये । श्रागे शत्रुकुमार, श्रद्वितीय पराक्रमी बालक अभिमन्यु के माहस की मुक्तकठ से प्रशसा करता हुआ दुर्योधन हाथ जोडकर प्रार्थना करता है कि मुझे भी इसी प्रकार का वीर मरण प्राप्त हो। इसी का नाम गुणैकपक्षपातिता है । ४६० उरुभग की असह्य पीडा में मरणोन्मुख दुर्योधन को देखना कोमल हृदय वालो का काम नही है । इस चितामयी अवस्था मे भी वह अपने व्यक्तित्व को नही छोडता । दुर्योधन अश्वत्थामा मे कहता है कि प्राणो के निकल जाने के पूर्व पाडवो को मार कर उनके मस्तको को लाकर मुझे दिखलाओ। इसमे शान्ति मे मेरे प्राण निकल जायेंगे । श्रश्वत्थामा भ्रातिवश पाडव समझ कर उपपाडवो के मस्तको को दुर्योधन के सामने लाकर रखता है। वह उन मस्तको को सावधानी से देखकर बालहत्यारूपी महापातक के लिये बहुत ही दुखी होता है और इस असावधानता पूर्ण कार्य के लिये अश्वत्थामा को फटकारता है। वस्तुत दुर्योधन महानुभाव है | महाकवि रन्न ने उसे 'महानुभाव' ठीक ही लिखा है । इस प्रकार रन का दुर्योधन प्रारंभ से अंत तक हमारा लक्ष्य बन कर व्यक्तिवैशिष्ठ्य से हम लोगो के साथ अपनी आत्मीयता स्थापित करता है । उसके उदात्त गुणो को देख कर हम उसके दुर्गुणो को भूल जाते है । महाभारत के दुर्योधन के मरण से हमें दुख नही होता, पर रन्न के दुर्योधन के सबध में ऐसी बात नही है । यहाँ दुर्योधन के मरण से हमे असीम सताप होता है । यथार्थत 'गदायुद्ध' का दुर्योधन सत्यव्रती, धैयंगाली, वीरागेसर, दैवभक्त, स्नेही, गुरुजनविधेय श्रौर मदुहृदयी है । 'महाभारत' का दुर्योधन - पाडवो के भय से ही वैशपायन सरोवर जाकर छिपता है, रन्न का दुर्योधन केवल भीष्म के प्राग्रह से मत्रसिद्धि के निमित्त | इसमे तीर्थ-यात्रा के हेतु गये हुए वलराम तथा कृप, कृतवर्मादि की प्रतीक्षा भी एक थी । दुर्योधन के पूर्वकृत जघन्य कृत्यों को प्रयत्नपूर्वक छिपाकर उसके उदात्त गुणो को ही सर्वत्र व्यक्त करते हुए दुर्योधन के सबध में पाठको के मन में व्यसन, गौरव तथा पक्षपात पैदा कर देना रन्न जैसे महाकवि के लिए ही सभव है। वास्तव में कवि ने इन कार्यों को अद्वितीय रूप मे सपन्न किया है । यह विशेषता महाभारत में नही मिलेगी। वहाँ पर दुर्योधन का दोपपुज ही हमारे समक्ष श्राकर खडा होता है । महाभारत में हमें सर्वत्र आदि से लेकर अत तक भीम के साहस का ही वर्णन मिलेगा, पर यहाँ पर दुर्योधन के साहस के सामने भीम का साहस फीका पड जाता है । अन्यत्र व्यासादि महर्षियो ने भी दुर्योधन के सबंध मे पक्षपात किया है । वहाँ के वर्णन को पढने से मालूम होता है कि भीम एक ही आघात से दुर्योधन को चकना चूर कर डालेगा, पर यहाँ पर तो राज्यलक्ष्मी तक धर्मराय के पास जाने के लिए उत्सुक नही है । इन सबो को देख कर निश्चय हो जाता है कि दुर्योधन का अभिमान कोरा अभिमान नही है । गदाप्रहार के द्वारा दुर्योधन के उरो को भग करना भीम का अनुचित कार्य था। इतना ही नहीं, रक्त से आद्रीभूत, मरणासन्न चक्रवर्ती दुर्योधन के मुकुट को लात से मारना और भी नीच कृत्य था । हर्ष की बात है कि रन्न का दुर्योधन अत तक क्षात्रधर्म को पालता जाता है। वह किसी की भी शरण में नही जाता Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि रन का दुर्योधन ४६१ दडनीति में प्रतिपादित कुटिल नीति तथा कपटयुद्ध राजानी के लिए दोष नहीं है। फिर भी दुर्योधन अपने गदाघात से मूच्छित भीम को नहीं मारता । उलटा उमे सचेत करने की चेष्टा करता है। यह वास्तव में उमकी धर्मयुद्धप्रियता का एक उदाहरण है । अगर दुर्योधन मे बडा भारी दोष था तो वह भरी सभा मे द्रौपदी का वस्त्रापहरण कराने की चेष्टा करना । यह दोष उममे नहीं होता तो वह क्षत्रकुलालकार होता। 'गदायुद्ध' में भीष्म ने इस भाव को व्यक्त किया भी है। रन के भीम की अपेक्षा दुर्योधन में हमें अधिक अभिमान दिखाई देता है । न्यायत 'गदायुद्ध' का नायक भीम न होकर दुर्योधन होना चाहिए था। दुर्योवन किनना उदार है । रणक्षेत्र में वह अपने ही व्यक्तियो के लिए प्रामू नही वहाता, बल्कि अभिमन्यु जैसे शत्रु वीरो के लिए भी। भीष्म, द्रोण, कर्ण आदि महावीरो के माथ अपनी अपरिमित मेना निग्गेप होने पर भी कालदडमदृश अपनी प्रचड गदा को कन्चे पर रख कर रण-क्षेत्र की ओर वढने वाले एकाकी दुर्योधन का गौर्य एव माहम प्रशमनीय है। रण-क्षेत्र में द्रोण, दुश्मासन, कर्ण आदि अपने पक्ष के महावीरो के मृत शरीरो को देख कर भी दुर्योधन का मन निलमात्र भी विचलित नहीं होता, प्रत्युत उद्विग्न होता है। उनके मरण में उत्पन्न अपार दुख का प्रतिकार वीरोत्रित गम्त्र के द्वारा ही करने के लिए वह तैयार है। गुरु भीम की आजा मे वैश्म्मायन सरोवर में ममय विताने वाला दुर्योवन भीम की अभिमानोक्तियो को न सह कर तुरन्त ही निर्भय हो बाहर निकलता है और उसके माय लडने के लिए उत्माह मे आगे वढता है। निष्कलक न होता हुआ भी दुर्योधन पूर्ण कलकी भी नही था। उसके शील में अविचार अवश्य थे, फिर भी वह निश्मीन नहीं था। वह गुणी था। माय-ही-माथ उसकी मना हम सभी को अपनी ओर आकृष्ट करने की शक्ति रग्बती थी। दुर्योधन में छोटी-मोटी अभिलापाएं नो थी ही नहीं। वीर सदैव वीरत्व का उपासक होता है। न्वपक्षी या परपक्षी कोई भी हो, वह वीर को पूजता था। इमीलिए शत्रुकुमार अभिमन्यु को देख कर वह हाथ जोडता है। इसमे यह भी व्यक्त होता है कि दुर्योवन दुम्साहमी नहीं था, अपितु अविश्रान्त पराक्रमी था। वह शत्रु के लिए निर्दयी और मित्र के लिए महृदयी था। इन सब बातो को महाकवि रन्न ने भिन्न-भिन्न प्रकरणो में भले प्रकार दिखलाया है। रन का दुर्योवन दुर्योधन नहीं, बल्कि मुयोधन है। दुर्योधन जैसे महावीर के लिए मरण भूपण ही है। इसलिए उमके मरण के लिए चिन्तित होना भूल है।' मूडबिद्री ] "रन्न कवि प्रशस्ति के आधार पर। Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनव धर्मभूषण और उनकी 'न्यायदीपिका' प० दरवारीलाल जैन कोठिया जैन तार्किक अभिनव धर्मभूषण से कम विद्वान् परिचित है। प्रस्तुत लेख द्वारा उन्ही का परिचय कराया जाता है । उनको जानने के लिए जो कुछ साधन प्राप्त है वे यद्यपि पर्याप्त नहीं है-उनके माता-पितादि का क्या नाम था, जन्म और स्वर्गवास कब और कहाँ हुआ, आदि का उनमे कोई पता नहीं चलता है फिर भी सौभाग्य और सन्तोष की बात है कि उपलब्ध साधनो से उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व, गुरुपरम्परा और समय का कुछ प्रामाणिक परिचय मिल जाता है । अत हम उन्ही शिलालेखो, ग्रन्थोल्लेखो आदि के आधार पर अभिनव धर्मभूषण के मम्वन्ध मे कुछ कह सकते है। अभिनव तथा यतिविशेषण अभिनव धर्मभूषण की एक ही रचना उपलब्ध है । वह है 'न्याय-दीपिका' । 'न्याय-दीपिका' के पहले और दूसरे प्रकाश के पुष्पिकावाक्यो मे 'यति' विशेषण तथा तीसरे प्रकाश के पुप्पिकावाक्य में 'अभिनव' विशेषण इनके नाम के साथ पाये जाते है, जिससे मालूम होता है कि 'न्याय-दीपिका' के रचयिता प्रस्तुत धर्मभूषण'अभिनव' और 'यति' दोनो कहलाते थे। जान पडता है कि अपने पूर्ववर्ती धर्मभूपणो मे अपने को व्यावृत्त करने के लिए 'अभिनव' विशेपण लगाया है, क्योकि प्राय ऐमा देखा जाता है कि एक नाम के अनेक व्यक्तियो मे अपने को पृथक करने के लिए कोई उपनाम रख लिया जाता है । अत 'अभिनव' न्याय-दीपिकाकार का एक व्यावर्तक विशेषण या उपनाम समझना चाहिए । जनसाहित्य मे ऐसे और भी आचार्य हुए है, जो अपने नाम के साथ 'अभिनव' विशेषण लगाते हुए पाये जाते है। जैसे अभिनव पडिताचार्य' (गक स० १२३३), अभिनव श्रुतमुनि, अभिनव गुणभद्र' और अभिनव पडितदेव आदि । पूर्ववर्ती अपने नाम वालो से व्यावृत्ति के लिए 'अभिनव' विशेपण की यह एक परिपाटी है । 'यति' विशेपण तो स्पष्ट ही है, क्योकि वह मुनि के लिए प्रयुक्त किया जाता है । अभिनव धर्मभूषण अपने गुरु श्री वर्द्धमान भट्टारक के पट्ट के उत्तराधिकारी हुए थे और वे कुन्दकुन्दाचार्य की आम्नाय मे हुए है। इसलिए इस विशेषण के द्वारा यह भी निभ्रान्त ज्ञात हो जाता है कि अभिनव धर्मभूपण दिगम्वर परम्परा के जैन मुनि थे और भट्टारक मुनि नाम से लोकविश्रुत थे। धर्मभूषण नाम के दूसरे विद्वान् ऊपर कहा गया है कि अभिनघ धर्मभूषण ने दूसरे पूर्ववर्ती धर्मभूपणो से भिन्नत्व स्यापित करने के लिए 'देखिए, शिलालेख न० ४२१ 'देखिए, जैन शिलालेख स० पृ० २०१, शिलालेख १०५ (२४५) 'देखिए, 'सी० पी० एण्ड वरार कैटलाग रा०प० हीरालाल द्वारा सपादित । "देखिए, जैन शिलालेख स० पृ० ३४५, शिलालेख न० ३६२ (२५७) ५"ऋषिपतिर्मुनिभिक्षुस्तापस सयतो व्रती ।'-नाममाला (महाकवि धनञ्जय कृत)। "शिष्यस्तस्य गुरोरासीद्धर्मभूषणदेशिक । भट्टारक मुनि श्रीमान् शल्यत्रयविवजित ॥"-विजयनगर शिलालेख न० २ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रभिनव धर्मभूषण और उनकी 'न्यायदीपिका' अपने नाम के साथ 'अभिनव' विशेषण लगाया है । ऋत यहाँ यह बता देना आवश्यक प्रतीत होता है कि जैनपरम्परा धर्मभूषण नाम के अनेक विद्वान् हो गये हैं । एक वर्मभूषण वे है, जो भट्टारक धर्मचन्द्र के पट्ट पर बैठे थे और जिनका उल्लेख वरार प्रान्त के मूर्तिलेखो में बहुलतया पाया जाता है।' ये मूर्तिलेख शक संवत् १५२२, १५३५, १५७२ और १५७७ के उत्कीर्ण हुए है, परन्तु ये धर्मभूषण न्यायदीपिकाकार के उत्तरकालीन है । दूमरे धर्मभूषण वे है, जिनके आदेशानुसार केशववर्णी ने अपनी गोम्मटमार की 'जीव तत्त्व प्रदीपिका' नामक टीका शक संवत् १२८१ (१३५९ ई०) में बनाई थी ।' तीसरे घर्मभूषण वे हैं, जो श्रमरकोत्ति के गुरु थे तथा विजयनगर के गिलालेख न० २ मे उल्लिखित तीन धर्मभूषणो मे सर्वप्रथम जिनका उल्लेख है और जो सम्भवत विन्ध्यगिरि पर्वत के शिलालेख न० १११ (२७४) में भी श्रमरकीत्ति के गुरूरूप मे उल्लिखित है । यहाँ उन्हें 'कलिकालमर्वज्ञ' भी कहा गया है। चौये वर्मभूषण वे है, जो मरकीति के शिष्य और विजयनगर शिलालेख न० २ गत पहले धर्मभूषण के प्रशिष्य है एवं सिंहनन्दी व्रती के सधर्मा है तथा विजयनगर के शिलालेख न० २ के ११वे पद्य में दूसरे न० के धर्मभूषण के रूप में उल्लिखित है । ४६३ गुरु-परम्परा अभिनव धर्मभूषण उपर्युक्त धर्मभूषणो से भिन्न है और जिनका उल्लेख उमी विजयनगर के शिलालेख न० २ में तीसरे नम्बर के धर्मभूषण के स्थान पर है तथा जिन्हें स्पष्टतया श्री वर्द्धमान भट्टारक का शिष्य वतलाया है । 'न्यायदीपिका' के अन्तिम पद्य और अन्तिम ( तीसरे प्रकाशगत ) पुष्पिकावाक्य में अपने गुरु का नाम न्यायदीपिकाकार ने स्वय श्री वर्द्धमान भट्टारक प्रकट किया है । मेरा अनुमान है कि मगलाचरण पद्य में भी उन्होने 'श्रीवर्द्धमान' पद के प्रयोग द्वारा वर्द्धमान तीर्थकर और अपने गुरु वर्द्धमान भट्टारक दोनो को स्मरण किया है, क्योकि अपने परापर गुरु का स्मरण करना सर्वथा उचित ही है। श्री धर्मभूषण अपने गुरु के अनन्य भक्त थे । वे 'न्याय - दीपिका' के उनी अन्तिम पद्य और पुष्पिका वाक्य में कहते है कि उन्हे अपने उक्त गुरु की कृपा से ही सरस्वती का प्रकर्ष (सारस्वतोदय) प्राप्त हुआ और उनके चरणो की स्नेहमयी भक्ति सेवा से 'न्यायदीपिका' की पूर्णता हुई । त मगलाचरण पद्य में अपने गुरु वर्द्धमान भट्टारक का भी उनके द्वारा स्मरण किया जाना सर्वथा सम्भव एव सगत है । विजयनगर गिलालेख न० २ में, जो शक संवत् १३०७ ( ई० १३८५) में उत्कीर्ण हुआ था, अभिनव धर्मभूषण की इस प्रकार गुरुपरम्परा दी गई है--- मूलसङ्घ, नन्दिसङ्घ- बलात्कार गण के सारस्वतगच्छ में पद्मनन्दी ( कुन्दकुन्दाचार्य) 1 धर्मभूषण भट्टारक प्रथम श्रमरकीति श्राचार्य (जिनके शिष्यो के शिक्षक दीक्षक सिंहनन्दी व्रती थे ) "सहस्रनामाराधना' के कर्ता देवेन्द्रकीति ने भी 'सहलनामाराधना' में इन दोनो विद्वानो का अपने गुरु और प्रगुरुरूप से उल्लेख किया है। देखिए, श्रारा से प्रकाशित प्रशस्ति स० पृ० ९४ देखिए डा० ए० एन० उपाध्ये का 'गोम्मटसारकी जीवतत्त्व प्रदीपिका टीका' शीर्षक लेख 'श्रनेकान्त' वर्ष ४, कि० १ पृ० ११८ देखिए, वीरसेवामन्दिर सरसावा से प्रकाशित और मेरे द्वारा सम्पादित 'न्यायदीपिका' पृ० १३२ ५ 'इस शिलालेख में कुल २८ पद्य है । उनमें प्रथम के १३ पद्यो में ही अभिनव धर्मभूषण की गुरु-परम्परा है । इसके श्रागे १५ पद्यों में राजवंश का वर्णन है । Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन - प्रथ श्री धर्मभूषण भट्टारक द्वितीय (सिंहनन्दी व्रती के सधर्मा) वर्द्धमान मुनीश्वर (सिंहनन्दी व्रती के चरणसेवक ) धर्मभूषण यति तृतीय (प्रस्तुत ) इसी प्रकार का एक शिलालेख' न० १११ ( २७४) का है, जो विन्ध्यगिरि पर्वत के अखड वागिल के पूर्व की ओर स्थित चट्टान पर खुदा हुआ है और जो गक स० १२६५ में उत्कीर्ण हुआ था । उसमें इस प्रकार परम्परा दी गई है ४६४ मूलसङ्घ -- बलात्कारगण कीत्ति (वनवासिके ) [ देवेन्द्र विशालकोत्ति 1 शुभकीत्तिदेव भट्टारक 1 घर्मभूषणदेव प्रथम अमरकीत्ति आचार्य धर्म भूषणदेव द्वितीय वर्द्धमान स्वामी इन दोनो लेखो को मिला कर ध्यान पूर्वक पढने पर विदित होता है कि प्रथम घर्मभूषण, अमरकीति श्राचार्य, धर्मभूषण द्वितीय और वर्द्धमान ये चार विद्वान् सम्भवत दोनो के एक ही है । यदि हमारी यह मान्यता ठीक है तो यहाँ एक बात विचारणीय है । वह यह कि विन्ध्यगिरि के लेख (शक स० १२६५) में वर्द्धमान का तो उल्लेख है, पर उनके शिष्य (पट्ट के उत्तराधिकारी) तृतीय धर्मभूषण का उल्लेख नही है, जिससे जान पडता है उस समय तक तृतीय धर्मभूषण वर्द्धमान के पट्टाधिकारी नही बन सके होगे और इसलिए उक्त गिलालेख में उनका उल्लेख नही आया, किन्तु इस शिलालेख के कोई बारह वर्ष बाद शक स० १३०७ (१३८५ ई०) में उत्कीर्ण हुए विजयनगर के शिलालेख न० २ मे उनका (तृतीय धर्मभूषण का ) स्पष्टतया नामोल्लेख है । अत यह महज ही अनुमान हो सकता है कि वे अपने गुरु वर्द्धमान के पट्टाधिकारी शक स० १२६५ से शक स० १३०७ मे किसी समय वन चुके थे । इस तरह अभिनव धर्मभूषण के साक्षात् गुरु श्री वर्द्धमान मुनीश्वर और प्रगुरु द्वितीय धर्मभूषण थे । अमरकीर्ति दादागुरु और प्रथम धर्मभूषण परदादागुरु थे और इसीसे हमारे विचारसे उन्होने अपने इन पूर्ववर्ती पूज्य प्रगुरु (द्वितीय धर्मभूषण) तथा परदादागुरु ( प्रथम धर्मभूषण) से पश्चाद्वर्ती एव नया बतलाने के लिए अपने को अभिनव विशेषण से विशेषित किया जान पडता है । कुछ भी हो, यह अवश्य है कि वे अपने गुरु के प्रभावशाली और मुख्य शिष्य थे । 'देखिए, शिलालेख स० पृ० २२३ 'प्रो० हीरालालजी ने इनकी निषद्या बनवाई जाने का समय शक सम्बत् १२९५ दिया है। देखिये, शिलालेख स० पृ० १३६ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनव धर्मभूषण और उनकी 'न्यायदीपिका' समय- विचार यद्यपि अभिनव धर्मभूषण की निश्चित तिथि बताना कठिन है तथापि जो आधार प्राप्त है उनमे उनके समय का लगभग निश्चय हो जाता है । विन्ध्यगिरि का जो गिलालेख प्राप्त है, वह गक म० १२६५ का उत्कीर्ण हुआ है । हम पहले वतला चुके हैं कि इसमें प्रथम और द्वितीय इन दो ही धर्मभूषणों का उल्लेख है और द्वितीय वर्मभूषण के शिष्य वर्द्धमान का अन्तिम रूप से उल्लेख है। तृतीय धर्मभूषण का उल्लेख उसमे नही पाया जाता। डा० हीरालालजी एम० ए० के उल्लेखानुसार द्वितीय धर्मभूषण की निपद्या (नि मही) शक स० १२६५ में बनवाई गई है । अत द्वितीय धर्मभूषण का अस्तित्व समय डाक स० १२९५ तक ही समझना चाहिए। हमारा अनुमान है कि केशववर्णी को अपनी गोम्मटसार की जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका बनाने की प्रेरणा एव प्रदेश जिन धर्मभूषण मे मिला उन धर्मभूषण को भी यही द्वितीय भूषण होना चाहिए, क्योकि इनके पट्ट का समय यदि पच्चीस वर्ष भी हो तो इनका पट्ट पर बैठने का समय क स० १२७० के लगभग पहुँच जाता है । उम समय या उसके उपरान्त केशववर्णी को उपर्युक्त टीका के लिखने मे उनसे श्रादेश एव प्रेरणा मिलना असम्भव नही है । चूँकि केशववर्णी ने अपनी उक्त टीका शक स० १२८१ में पूर्ण की है, अत उस जैमी विशाल टीका को लिखने के लिए ग्यारह वर्ष का समय लगना भी आवश्यक एव भगत है । प्रथम व तृतीय धर्मभूषण केशववर्णी के टीकाप्रेरक प्रतीत नही होते, क्योकि तृतीय धर्मभूषण 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' के समाप्तिकाल ( गक० १२८१ ) मे लगभग उन्नीस वर्ष बाद गुरुपट्ट के अधिकारी हुए जान पडते है और उस समय वे प्राय वीस वर्ष के होगे । अत 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' के रचनारम्भ समय में तो उनका अस्तित्व ही नही रहा होगा । तव वे केशववर्णी के टीका-प्रेरक कैसे हो सकते हैं ? प्रथम धर्मभूषण भी उनके टीका-प्रेरक सम्भव प्रतीत नही होते । कारण उनके पट्ट पर अमरकीति और अमरकीर्ति के पट्ट पर द्वितीय धर्मभूषण (शक स० १२७० - १२६५ ) बैठे है । अत अमरकीत्ति का पट्ट-समय अनुमानत शक स० १२४५-१२७० और प्रथम धर्मभूषण का शक स० १२२०-१२४५ होता है । ऐसी हालत में यह सम्भव नही है कि प्रथम धर्मभूषण गक स० १२२०-१२४५ में केशववर्णी को 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' के लिखने का आदेश दे और वे ६१ या ३६ वर्षो के दीर्घ समय में उसे पूर्ण करे । प्रतएव यही प्रतीत होता है कि द्वितीय धर्मभूषण ( शक० १२७० - १२६५) ही केशववर्णी ( गक० १२८१) के उक्त टीका के लिखने में प्रेरक रहे हैं । ४६५ 7 पीछे हम यह निर्देश कर आये है कि तृतीय धर्मभूषण (प्रस्तुत अभिनव धर्मभूषण) शक स० १२६५ श्रौर शक स० १३०७ के मध्य में किमी समय अपने वर्द्धमान गुरु के पट्ट पर ग्रासीन हुए है । अत यदि वे पट्ट पर बैठने के ममय (करीव शक० १३०० मे) बीस वर्ष के हो, जैसा कि सम्भव है तो उनका जन्म ममय शक स० १२८० (१३५८ ई०) के लगभग होना चाहिए । विजयनगर साम्राज्य के स्वामी प्रथम देवराय और उनकी पत्नी भीमादेवी जिन वर्द्धमान गुरु के शिष्य धर्मभूषण के परम भक्त थे और जिन्हें अपना गुरु मानते थे तथा जिनसे प्रभावित होकर जैनधर्म की अतिशय प्रभावना में प्रवृत्त रहते थे वे यही अभिनव धर्मभूषण है । पद्मावती-वस्ती के एक लेख ज्ञात होता है कि "राजाधिराज परमेश्वर देवराय प्रथम वर्द्धमान मुनि के शिष्य धर्मभूषण गुरु के, जो वडे विद्वान् थे, चरणो में नमस्कार किया करते थे ।" इसी बात का समर्थन शक स० १४४० में अपने 'दशभक्त्यादिमहाशास्त्र' को समाप्त करने वाले कवि वर्द्धमान मुनीन्द्र के इसी ग्रन्थगत निम्न श्लोक से भी होता है— "राजाधिराजपरमेश्वरदेवरायभूपालमौलिलसदप्रिसरोजयुग्म । श्रीवर्द्धमानमु निवल्लभमोठ्यमुख्य श्रीधर्मभूषणसुखी जयति क्षमाढ्य ॥"" १ 'आरा से प्रकाशित प्रशस्ति स० पृ० १२५ से उद्धृत । Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन-ग्रंथ यह प्रसिद्ध है कि विजयनगरनरेश प्रथम देवराय ही 'राजाधिराज परमेश्वर' की उपाधि मे भूपित थे ।' इनका राज्य-काल सम्भवत १४१८ ई० के पहले रहा है, क्योकि द्वितीय देवराय ई० १४१९ मे १४४६ तक माने जाते है। अत इन उल्लेखो से यह स्पष्ट है कि वर्द्धमान के शिष्य धर्मभूपण तृतीय (न्यायदीपिका के कर्ता) ही देवराय प्रथम द्वारा सम्मानित थे। प्रथम अथवा द्वितीय धर्मभूषण नहीं, क्योकि वे वर्द्धमान के शिष्य नहीं थे। प्रथम धर्मभूषण तो शुभकीति के और द्वितीय धर्मभूषण अमरकीत्ति के शिष्य थे। अतएव यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि अभिनव धर्मभूषण देवराय प्रथम के समकालीन है अर्थात् उनका अन्तिमकाल ई० १४१८ होना चाहिए। यदि यह मान लिया जाय तो उनका जीवनकाल ई० १३५८ से १४१८ ई० तक समझना चाहिए । अभिनव धर्मभूषण जैसे पभावशाली विद्वान् जैनसाधु के लिए साठ वर्ष की उम्न पाना कोई ज्यादा नहीं है। हमारा अनुमान यह भी है कि वे देवराय द्वितीय (१४१६-१४४६ ई०) और उनके श्रेष्ठि सकप्प के द्वारा भी प्रणुत रहे हैं। हो सकता है कि ये अन्य धर्मभूषण हो। जो हो, इतना अवश्य है कि वे देवराय प्रथम के समकालीन निश्चित रूप से है। 'न्यायदीपिका' (पृ. २१) मे 'वालिशा' शब्दो के साथ सायण के सर्वदर्शनसग्रह से एक पक्ति उद्धृत की गई है । सायण का समय शक स० १३वी शताब्दी का उत्तरार्घ माना जाता है, क्योकि शक स० १३१२ का उनका एक दानपत्र मिला है, जिससे वे इसी समय के विद्वान् ठहरते है। न्यायदीपिकाकार का 'वालिशा' पद का प्रयोग उन्हें सायण के समकालीन होने की प्रोर सकेत करता है। साथ ही दोनो विद्वान् निकट ही नहीं, एक ही जगह विजयनगर के रहने वाले भी थे और एक दूसरे की प्रवृत्ति से भी परिचित जान पडने है। इसलिए यह सम्भव है कि अभिनव धर्मभूषण और सायण समसामयिक होगे अथवा दस-पांच वर्ष आगे-पीछे के। अत 'न्याय-दीपिका' के इस उल्लेख से भी पूर्वोक्त निर्धारित शक स० १२८० से १३४० या ई० १३५८ से १४१८ का समय ही सिद्ध होता है। अर्थात् ये ईसा की १४वी सदी के उत्तरार्ध और १५वी सदी के प्रथम पाद के विद्वान् है । डा० के० वी० पाठक और प० जुगलकिशोर जी मुख्तार इन्हें शक स० १३०७ (ई० १३८५) का विद्वान् बतलाते है, जो विजयनगर के शिलालेख न० २ के अनुसार सामान्यतया ठीक है, परन्तु उपर्युक्त विशेष विचार मे ई० १४१८ तक इनको उत्तरावधि निश्चित होती है। डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषण 'हिस्ट्री ऑफ दि मेडीवल स्कूल ऑफ इडियन लॉजिक' में इन्हे १६०० ई०का विद्वान् सूचित करते है, पर वह ठीक नहीं है, जैसा कि उपर्युनत विवेचन से प्रकट है। मुख्तार साहब ने भी उनके इस मत को गलत ठहराया है। -२ देखिए, डा० भास्कर आनन्द सालेतोर का 'मेडीवल जैनिज्म' पृ०३००-३०१, मालूम नहीं डा० सा०' ने द्वितीय देवराय (१४१६ ई०-१४४६ ई०) की तरह प्रथम देवराय के समय का निर्देश क्यो नहीं किया। 'डा० सालेतोर दो ही धर्मभूषण मानते हैं और उनमें प्रथम फा समय १३७८ ई० और दूसरे का ई० १४०३ बतलाते है तथा वे इस झमेले में पड़ गये है कि कौन से धर्मभूषण का सम्मान देवराय प्रथम के द्वारा हुआ था। (देखिए मेडोवल जैनिज्म पृ० ३००) । मालूम होता है कि उन्हें विजयनगर का पूर्वोक्त शिलालेख न० २ प्रादि प्राप्त नहीं हो सका, अन्यथा वे इस निष्कर्ष पर न पहुँचते। *प्रशस्ति स० १४५ में इनका ई० १४२९-१४५१ दिया है। ५ इसके लिए जैन सिद्धान्तभवन, पारा से प्रकाशित प्रशस्ति स० में परिचय कराये गये वर्द्धमान मुनीन्द्र का 'दशभक्त्यादिमहाशास्त्र देखना चाहिए । 'देखो, सर्व-दर्शनसग्रह की प्रस्तावना पृ० ३२ । 'स्वामी समन्तभद्र पृ० १२६ "स्वामी समन्तभद्र' पृ० १२६ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनव धर्मभूषण और उनकी 'न्यायदीपिका ४६७ व्यक्तित्व और कार्य आचार्य धर्मभूषण के प्रभाव एव व्यक्तित्वसूचक जो उल्लेख मिलते है, उनसे मालूम होता है कि वे अपने समय के सबसे बडे प्रभावक और व्यक्तित्वशाली जनगुरु थे। प्रथम देवराय, जिन्हें 'राजाधिराजपरमेश्वर' की उपाधि थी, धर्मभूषण के चरणो में मस्तक झुकाया करते थे। पद्मावती वस्ती के शासनलेख में उन्हें बडा विद्वान् एव वक्ता प्रकट किया गया है। साथ मे मुनियो और राजानो से पूजित बतलाया है। इन्होने विजयनगर के राजघराने में जैनधर्म की अतिशय प्रभावना की है। हम तो समझते है कि इस राजघराने में जो जैनधर्म की महती प्रतिष्ठा हुई है उसका विशेष श्रेय इन्ही अभिनव धर्मभूषण जी को है, जिनकी विद्वत्ता और प्रभाव के सव कायल थे। इससे स्पष्ट है कि अभिनव धर्मभूषण असाधारण प्रभावशाली व्यक्ति थे। जैनधर्म-प्रभावना उनके जीवन का विशेष उद्देश्य रहा, पर ग्रन्थरचनाकार्य में भी उन्होने अपनी शक्ति और विद्वत्ता का बहुत ही सुन्दर उपयोग किया है। आज हमे उनकी एक ही अमर रचना प्राप्त है और वह 'न्यायदीपिका' है, जो जैनन्याय के वाङ्मय में अपना विशिष्ट स्थान बनाये हुए है और ग्रन्यकार की धवलकीत्ति को अक्षुण्ण रक्खे हुए है। उनकी विद्वत्ता का प्रतिबिम्ब उसमें स्पष्टतया आलोकित हो रहा है। न्याय-दीपिका' छोटी-सी रचना होते हुए भी अत्यन्त विशद और महत्त्वपूर्ण कृति है और उसकी परिगणना जैनन्याय के प्रथम श्रेणी के ग्रन्थो में किये जाने के पूर्णत योग्य है। इसमें प्रमाण और नय का बहुत ही विशदता के साथ विवेचन किया गया है, जो उसके पाठक पर अपना प्रभाव डाले विना नही रहता। अभिनव धर्मभूषण ने इसके सिवाय भी और कोई रचना की या नही, इसका कुछ भी पता नही चलता, पर 'न्यायदीपिका' में एक स्थल पर 'कारुण्यकलिका' का इस प्रकार से उल्लेख किया है कि जिससे अनुमान होता है कि न्यायदीपिकाकार अपनी ही दूसरी रचना को देखने का वहाँ इगित कर रहे है। यदि सचमुच में यह ग्रन्य भी न्यायदीपिकाकार की रचना है तो मालूम होता है कि वह 'न्यायदीपिका' से भी अधिक विशिष्ट एव महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ होगा। अन्वेपको को इसका अवश्य ही पता चलाना चाहिए। अभिनव धर्मभूषण के प्रभाव और कार्यक्षेत्र से यह भी मालूम होता है कि उन्होने कर्णाकदेश के उपर्युक्त विजयनगर को ही अपनी जन्म-भूमि बनाई होगी और वही उनका शरीर-त्याग एव समाधि हुई होगी, क्योकि वे गुरुपरम्परा से चले आये विजयनगर के भट्टारकी पट्ट पर आसीन हुए थे। यदि यह ठीक है तो कहना होगा कि उनके जन्म और समाधि का स्थान भी विजयनगर है । सरसावा ] २देखिए 'मेडीवल जैनिज्म', पृ० २६९ 'प्रपञ्चितमेतदुपाधि निराकरण कारुण्यकलिकायामिति विरम्यते ।-न्यायदीपिका, पृ० १११ (वीरसेवामन्दिर, सरसावा से प्रकाशित)। ६३ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैन-सिद्धान्त-भवन' के कुछ हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थ श्री परमानन्द जैन जैन हिन्दी साहित्य अत्यन्त विशाल और महत्त्वपूर्ण है। भापा-विज्ञानियो को हिन्दी भाषा की उत्पत्ति और विकास-क्रम अवगत करने के लिए जैन हिन्दी साहित्य का ज्ञान प्राप्त करना परमावश्यक है। हिन्दी भाषा की जननी अपभ्रश भाषा मे जैनाचार्यों ने सहस्रो की सस्या में ग्रन्थ-रचना कर हिन्दी साहित्य के भडार को ममृद्धि-शाली वनाया है। पाश्चात्य विद्वान् डा० विन्टरनिज, प्रो. जेकोबी तथा अन्य कई विद्वानो ने इस बात का जोरदार शब्दो मे समर्थन किया है कि भारतीय माहित्य की श्री-वृद्धि में जैन लेखको का महत्त्वपूर्ण हाथ रहा है। कहा गया है कि भारतीय साहित्य का शायद ही कोई अङ्ग वचा हो, जिसमे जैनियो का विशिष्ट म्यान न रहा हो। श्री प्रो० जगन्नाथ शर्मा ने अपने 'अपभ्रशदर्पण' में लिखा है'-"अपभ्रश' भापा मे प्रबन्ध काव्यो की भरमार है । अभी तक जो काव्य उपलब्ध हुए है, उनमे पाँच वडे-बडे प्रबन्ध-काव्य है । जैसे (१) भविसयत्तकहा (२) तिमट्टिमहापुरिस गुणालंकार (३) पाराधना (४) नेमिनाहचरिउ (५) वैरिसामिचरिउ। इनमे से भविसयत्तकहा वहुत महत्त्वपूर्ण ग्रन्य है। मालूम होता है कि हिन्दी के रामचरितमानस और पद्मावत जैसे जगत्प्रसिद्ध काव्यग्रन्यो का आदर्श ग्रन्य यही है। इन काव्यो में बहुत-सी वातो में समता है।" उपर्युक्त पक्तियो से स्पष्ट है कि जैन अपभ्रश काव्य ग्रन्यो का तुलमी और जायसी जैसे हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध कवियो पर उल्लेखयोग्य प्रभाव पड़ा है। हमारे शास्त्रागारो मे सैकडो अप्रकाशित अपभ्रश भाषा के अन्य रखे हुए है। यदि ये ग्रन्थ प्रकाश में आ जाये तो हिन्दी साहित्य पर नया प्रकाश पडे । प्राचीन जैन हिन्दी साहित्य नवी और दसवी शताब्दी में पल्लवित और पुष्पित था। इस समय जैनाचार्यों ने अपभ्रश के साथ-साथ प्राचीन हिन्दी में भी कई रचनाएँ लिखी है । वीरगाथाकाल मे अनेक जैन मुनियो ने वीररस और शान्तरस की कविताएँ डिंगल भापा मे की। कई विद्वान् प्रसिद्ध ग्रन्थ खुमानरासो के रचयिता को भी जैन बतलाते है। जैन हिन्दी साहित्य के पद्य-ग्रन्थो के साथ-साथ गद्य ग्रन्य भी पन्द्रहवी शताब्दी के पहले से ही मिलते है । पडित हेमराज द्वारा विरचित पचास्तिकाय एव प्रवचनसार की वचनिकाएँ, पाडे रामलाल जी कृत समयसार की वालवोष टीका एव पार्वतधर्मार्थी की बनाई गई समाधितन्त्र की वचनिका आदि प्राचीन ग्रन्थ है और महत्त्वपूर्ण है। जैन शास्त्रागारो मे अनेक हिन्दी भाषा के साहित्यिक ग्रन्थ सशोधको एव प्रकाशको की प्रतीक्षा कर रहे है । 'अनेकान्त' मेंप्रकाशित सूची से पता चलता है कि पचायती जैनमन्दिर' (देहली) में २०२, सेठ कूचा' के जैनमन्दिर मे १३०, नये मन्दिर (देहली) मे १४० एव अमरग्रन्थालय इन्दौर मे १६ हस्तलिखित जैन हिन्दी माहित्य के महत्त्वपूर्ण ग्रन्य है। इन ग्रन्थो में से अधिकाश ग्रन्थ अप्रकाशित है। 'श्री जैन सिद्धान्त भवन आरा' में ३०२ हिन्दी साहित्य के हस्तलिखित ग्रन्थ है, जिनमे से मिथ्यात्वखडन, रूपचन्दशतक, चन्द्रशतक, हिन्दी नाममाला, ब्रह्माब्रह्मनिरूपण, पद्मपुराण छन्दोबद्ध, आनन्दधावक सन्धि, अजनासुन्दरिरास, गजसिंह गुणमालचरित्र, सप्तव्यसनचरित्र, बुद्धिप्रकाश, होमविधान, वालकमुडनविधि, ब्रह्मवावनी, पुण्याश्रयकथा छन्दोवद्ध आदि ग्रन्थ तो विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण एव उल्लेखनीय है । प्रस्तुत निवन्ध मे हम उपयुक्त ग्रन्थो का सक्षिप्त परिचय देने का प्रयत्न करेंगे। 'अपभ्रशदर्पण पृ० २६ । 'अनेकान्त' ४ किरण । देखिए 'अनेकान्त' वर्ष ४, किरण १० । 'अनेकान्त' वर्ष ४ किरण ६-७ । Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैन-सिद्धान्त-भवन के कुछ हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थ ४६९ १ मिथ्यात्व खडन नाटक-इस ग्रन्थ में तेरह पन्थ की उत्पत्ति का सकारण विवेचन किया गया है। इस पन्थ की उत्पत्ति स० १६८३ मे बतलाई है। अनेक ग्रन्थो के प्रमाण देकर बीसपन्थी दि० आम्नाय की पुष्टि की गई है । ग्रन्थ की भाषा शिथिल है । एक स्थान पर लिखा है प्रथम चलो मत प्रागरे, श्रावक मिले कितेक । सोलस सै तिरासिये, गही कितेक मिलि टेक ॥ काहू पडित पै सुने, कितै आध्यात्मिक ग्रन्थ । श्रावक क्रिया छाड के, चलन लगे मुनि पथ ॥" इन पक्तियो से स्पष्ट है कि सर्वप्रथम आगरे के प्रासपास तेरह पन्थ की उत्पत्ति हुई थी। ग्रन्थ में आगे बतलाया है कि जयपुर और आगरे के कुछ पडितो ने मिल कर इस पन्थ को निकाला। बीसपन्थ की पुष्टि करते हुए ग्रन्थकार ने तेरहपन्थियो की क्रियाओ का खडन किया है तथा बीसपन्थी दिगम्बर आम्नाय को प्राचीन बतलाया है। ग्रन्थ मे २५१ पृष्ठ है। लिपि अस्पष्ट है, प्रति भी अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। यह प्रति स० १८७१ में लिखाई गई है। २ रूपचन्दशतक--इसमें कविवर रूपचन्द ने सौ दोहो में नीति और वैराग्य का वर्णन किया है। प्रत्य की भाषा प्राञ्जल है । धार्मिक दोहो में भी साहित्यिक छटा का परिचय मिलता है। कविवर ने प्रारम्भ मे ससारी जीवो को सम्बोधन कर कहा है अपनो पद न विचार के, अहो जगत के राय । भव-वन छायक हो रहे, शिव पुर सुघि विसराय । भववन भरमत अहो तुम्हें, बीतो काल अनादि । अब किन घरहिं सवारई, कत दुख देखत वादि । परम अतीन्द्रिय सुख सुनो, तुमहि गयो सुलझाय । किञ्चित इन्द्रिय सुख लगे, विषयन रहे लुभाय । विषयन सेवते भये, तृष्णा तें न बुझाय । ज्यो जल खारा पीवतें, बाढ़े तुषाधिकाय ॥ इस प्रकार ग्रन्थ में हिन्दी भाषा-भाषियो के लिए अध्यात्म-रस का सागर भरा हुआ है। ३ चन्द्रशतक-यह सौ छन्दो में कवि चन्द्र का लिखा ग्रन्थ है । 'चन्द्र' यह कवि का उपनाम मालूम होता है । वास्तविक नाम का पता ग्रन्थ से नहीं लगता, पर जिस प्रति में चन्द्रशतक है, उसी प्रति में कुछ आगे कवि त्रिलोकचन्द्र के फुटकर कवित्त लिखे है । सम्भव है, कवि का नाम त्रिलोकचन्द हो । साहित्यिक दृष्टि से चन्द्रशतक के कवित्त और सवैये महत्त्वपूर्ण है। इसमें कवि ने अध्यात्मज्ञान का वर्णन किया है। द्रव्य, गुण, पर्याय आदि तात्त्विक विषयो का वर्णन भी बहुत ही सुन्दर हुआ है। भाषा सानुप्रास' और मधुर है। प्रत्येक सवैया पाठक को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। साधारण लोग भी ऐसे ग्रन्थो से गुणगुणी, द्रव्य-पर्याय, आदि सूक्ष्म विषयो को सरलता से समझ सकते है। नमूने के लिए एक-दो पद्य उद्धृत किये जाते है गुन सदा गुनी माहि, गुन गुनी भिन्न नाहि, भिन्न तो विभावता, स्वभाव सदा देखिये। सोई है स्वरूप प्राप, आप सो न है मिलाप, मोह के प्रभाव थे, स्वभाव शुद्ध पेखिये ॥ छहों द्रव्य सासते, अनादि के ही भिन्न-भिन्न, आपने स्वभाव सदा, ऐसी विधि लेखिये । पांच जड़ रूप, भूप चेतन सरूप एक, जानपनो सारा चन्द, माथे यों विसेखिये ॥ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० प्रेमी-अभिनदन-प्रय देह दहे लू सहे दुख सकट, मूढ महागति जाय अघोरे। प्रापही आप को ज्ञान बुझाय, लगी जो अनादि वि विपदौरे । सो सुख दूर करें दु ख को, निज सादि महारस अमृत कौरे। तेज कह मुख से यह, निज देखनहार तू देखन वोरे ॥ कवि ने सज्जन और मूर्ख का भी सुन्दर वर्णन किया है। सज्जन के स्वभाव का वर्णन करते हुए लिखा है पर प्रोगुन परिहरे, धरे गुनवत् गुण सोई । चित कोमल नित रहें, झूठ जाके नहि कोई ॥ सत्य वचन मुख कहें, आप गुन पाप न बोलें। सुगुरु-वचन परतीति, चित्त थे कब न डोले ।। वोलें सुवन परिमिष्ट सुनि इप्टवैन सुनि सुखकरें। कहें चन्द बसत जगफद में, ये स्वभाव सज्जन घरे॥ सज्जन गुन घर प्रीति रोति विपरीत निवारें। सकल जीव हितकार सार निज भाव सवारें। दया, शील, सतोष, पोख, सुख सब विधि जानें। सहज सुधा रस बर्वे, तजें माया अभिमाने । जाने सुभेद परभेद सब निज अभेद न्यारी लखें। कहें चन्द जहँ आनन्दप्रति जो शिव-सुख पावें प्रखे ॥ पाठक देखेंगे कि उपर्युक्त सज्जन-स्वभाव का वर्णन कवि ने कितना स्वाभाविक किया है। भापा मरत, सरल और मधुर है। कोमल कान्तपदावली सर्वत्र विद्यमान है। हिन्दी के प्रेमी पाठको को इस गतक में प्राचीन हिन्दी विभक्तियो के अनेक रूप दृष्टिगोचर होगे। भाषा-विकाम की दृष्टि से व्रजभाषा के सुन्दर प्रयोग हुए है। गव्दालकार प्राय सर्वत है। कही-कही अर्यालकारो का सुन्दर समन्वय भी हुआ है। ४ नाममालाभाषा-इसे कविवर देवीदास ने कवि धनञ्जय की नाममाला के आधार पर लिखा है। पुस्तक में मूल विषय के २३२ पद्य है और दो पद्य कवि के विषय मे है। कवि ने दोहरा, पद्धरि, चौपई छन्दो का प्रयोग अधिक किया है। पुस्तक सस्कृत अध्ययन करने वालों के साथ-साथ भापा अध्ययन करने वालो के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी। भाषा भी प्रौढ और प्राञ्जल मालूम होती है। दो नमूने इस प्रकार है "विपन गहन कान्तार वन, फानन कक्ष अरण्य । अटवी दुर्ग सुनाम यह, भीलन को सुशरण्य ॥ पानन्द, हर्ष, प्रमोद मुत, उत्सव प्रमद सन्तोष । करणा अनुकम्पा दया, प्रहन्तोक्ति अनुकोष ॥ ___ उपर्युक्त पद्यो से स्पष्ट है कि कवि ने सस्कृत-तत्सम शब्दो का व्यवहार अधिक किया है, पर व्रजभाषा के 'मुत' जैसे शब्दों का प्रयोग भी किया है। अन्य में उसका रचनाकाल निम्न प्रकार दिया है सम्बत अष्टादश लिखो, जा ऊपर उनतीस । वासों दे भादों सुदि बीते चतुर्दशीस ॥ पन्य की प्रति सुन्दर है । लिपि भी सुन्दर भौर सुवाच्य है। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैन - सिद्धान्त-भवन' के कुछ हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थ ५०१ ५ ब्रह्मबावनी - इसमे कविवर निहालचन्द ने वैराग्य और अध्यात्मसम्वन्धी विषय वडे ही सुन्दर और मनोरजक ढग से समझाए है । सर्वत्र शब्दालकार की अनुपम छटा दिखाई देती है । भाषा भी भावमयी और प्रौढ मालूम पडती है । प्रोकार मन्त्र का वर्णन कवि ने कितने अच्छे ढंग से किया है सिद्धन को सिद्धि, ऋद्धि देहि सतन क महिमा महन्तन को देत छिनमाही हैं । जोगी को जुगति हूँ मुकति देव, मुनिन कूं भोगी कूं भुगति गति मति उन पाँही है ॥ चिन्तामनरतन, कल्पवृक्ष, कामधेनु सुख के समाज सब याकी परछाही है । कहै मुनि हर्षचन्द निर्ष देय ग्यान दृष्टि उकारमत्र सम और मत्र नाहीं है ॥ इस प्रकार कवि ने केवल वावन पद्यो मे ही अध्यात्म-रम के सागर को गागर में भर कर कमाल कर दिखाया है । कवि की भाषा सरस और परिमार्जित है । शब्दालकार की कला के तो वे अनुपम जडिया प्रतीत होते है । थोडे से ही पद्य उपदेश-कला के योग्य एव कण्ठस्थ करने लायक है और जैन हिन्दी कवियो की अनुपम कविता रूपी पुष्पमाला में पिरोने के लिए तो ये कुछ मूगे के दाने हैं । ६ जलगालनविधि -- इसमें ३९ पद्य है । प्रति का कलेवर तीन पत्र है । प्रति से लेखक का परिचय प्राप्त नही होता, पर ३१वे पद्य के वाद इतना लिखा पाया जाता है--'भट्टारकशुभकीर्ति तस्सीष्यमेघकीर्ति लिखितम् ।' लेखक के मतानुसार ऊँच-नीच वर्ण वालो के कुए पृथक्-पृथक् होने चाहिएँ । जहाँ स्मशान भूमि हो वहाँ का पानी नही लेना चाहिए। यथा नीर तीर जह होइ मसाण, सो तजि घाट भरु जल आणि । धान जल जो रहि घट दोह, सो जल चुनि अनगालु होइ ॥ उपर्युक्त पद्य से स्पष्ट है कि ग्रन्थ की भाषा राजस्थानी है । रचना साधारण है । ७ स्वरूपस्वानुभव-यह हिन्दी का गद्य ग्रन्थ है । लिपि सुन्दर है । पृष्ठ १४ है । अन्त में अन्तराय कर्म का वर्णन है, पर इससे यह पता नही चलता कि ग्रन्थकार ने इतना ही ग्रन्थ लिखा है या यह ग्रन्थ अधूरा है । वीचवीच में दस सुन्दर चित्र है । पहला चित्र दसों दिशाओ का है, फिर क्रम से आठो कर्मों के चित्र दिखलाये गये है, जिनसे उस समय की चित्रकला का अच्छा परिचय मिलता है । कला-प्रेमी अन्वेषक विद्वानो को इसे अवश्य देखना चाहिए । सम्भव है, उन्हें जैन चित्रकला के सम्वन्ध में अच्छी सामग्री मिल जाय । भाषा में सुन्दर संस्कृत, तत्सम शब्दो की बहुलता है । ग्रन्थकर्ता ने मोक्षद्वार, जीवद्वार, अजीवद्वार और ध्यानद्वार- इन द्वारो से स्वानुभाव का स्वरूप समझाया है । ८ हरिवंशपुराण चौपईवन्द -- पृष्ठ १२८ | प्रति जीर्णशीर्ण दशा में है । लिपि अस्पष्ट एव बीच मे मिट गई है । ग्रन्थ के कुछ पृष्ठ भी नष्ट हो गये है । ग्रन्थ से ग्रन्थकर्त्ता का कोई विशेष परिचय नही मिलता है, पर ग्रन्थ की प्रत्येक सन्धि के अन्त में "इतिश्री हरिवशपुरानसग्रहे भविमगलकरणे श्राचार्य जिनसेन विरचिते तस्योपदेशे चौपही श्री शालिवाहन ते प्रथम नाम सन्धि ।” लिखा है, जिससे प्रतीत होता है कि जिनसेनाचार्य कृत हरिवशपुराण के आधार पर कवि ने प्रकृत ग्रन्थ को चोपई छन्द मे लिखा है । ग्रन्थ मे २१ सन्धि है - भाषा, भाव तथा रचना साधारण है । ६ यशोधरचरित - पृष्ठ १०७, पद्य ८८७ और सन्धि ५ हैं । लिपि सुन्दर और सुवाच्य है । लेखक का नाम प० लक्ष्मीदास है | सकलकीर्ति विरचित संस्कृत यशोधरचरित तथा पद्मनाभ कायस्थकृत यशोवर के आधार पर यह ग्रन्थ बनाया गया है । ग्रन्थकार के श्रतिम लेख से जाना जाता है कि यह गन्य सागानेर नगर मे राजा जयसिह के राजत्वकाल में लिखा गया है । Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी - श्रभिनदन ग्रथ १० प्रश्नमाला - यह गद्यग्रन्थ है । लिपि स्वच्छ और प्रति सुन्दर दशा में है । पृष्ठ ३४ है । ग्रन्थ के मादि और अन्त में निम्नलिखित पद्य विद्यमान है ५०२ प्रादि-आदि अन्त चौवीस लो, वन्दौ मन वच काय । भव्यन को उपदेश दे, करो मगलाचार ॥ १ ॥ पूरन भई, आदेश्वर गुनराय । सम्यक्त सहित वाचत रहो, जान सुरति मन माह ॥ अन्त-प्रश्नमाला इन पद्य के अतिरिक्त प्रस्तुत ग्रन्थ मे १२२ विविध धार्मिक प्रश्नो का उत्तर सरल एवं सरस भाषा मे समझाया गया है । ये प्रश्न देवागनाओ से पूछे गये जिनमाता तथा श्रेणिक गौतम सवधी है । लेखक का परिचय गन्य से नहीं मिलता है । 1 ११ दशलक्षणधर्म - यह भी गद्यग्रन्थ है । पृष्ठ ४२ है । लिपि सुन्दर और सुवाच्य है । ग्रन्थकार प० सदासुख जी हैं । यह ग्रन्थ मुमतिभद्राचार्य विरचित संस्कृत प्राकृत दशलक्षण धर्म का सरस भावानुवाद है । ग्रन्थ के प्रारंभ में १२ पद्य है । फिर गद्य में १० धर्मों का सुन्दर, सरस एव मधुर विवेचन हैं, जो पर्युषण पर्व के समय पठनीय है । १२ इष्टोपदेश -- यह गद्यग्रन्थ है । केवल ४ पृष्ठ ही है । यह पूज्यपाद कृत इष्टोपदेश का मधुर भावात्मक मनोरजक अनुवाद है । लेखक का नाम धर्मदास द्युल्लक है । यह मोक्षपद के पथिको का पाथेय है। भाषा और लिपि साधारण है । १३ वुद्धिप्रकाश — कविवर ने इस गन्य में धर्म, वैराग्य और नीति के विषयो का सुन्दर रूप से प्रतिपादन किया है । कर्म सिद्धान्त जैसे कठिन विषयो की कविता करने मे ग्रन्थकार ने अच्छी सफलता प्राप्त की है। दाता और सूम का कितना सरस और सरल सवाद इस ग्रन्थ में कराया है सूम - कहे सूम सव सङ्ग भले, धर्मी सङ्ग न लाय । ता सङ्ग तें घर धन सकल दान विषै ही जाय ॥ माल लेहें चोर के घर्यो घने जावतें तं श्रगनि किमि लागि भूमि गाडी रज डारी है । राजा किमि नेह रह्यो राकि की समानि होय, तन तो उधारो, खाय रोटी रज भारी है ॥ इत्यादिक में तो धनी चौकस राख्यो, खाय उधारी लाई लाज सब हारी है ॥ रूप को रुपया बड़े घने कष्ट तें, कमायो यार दान कैसो दियो जाय काढौ बहुगारी है ॥ दाता --दाता कहे सुन रे सठा, चौकस लाख कराय । के धन तज के तू वसै के देखत धन जाय ॥ राखो न माल रहे किस ही पर लाख सयाने कोय करो जो । खोद खडा धन माहि घरचो भल ऊपर लें बहु भार भयो जी ॥ जाये तबै बहु सोच करौ भल रोष करो निज पाय हरी जी 1 लाख उपाय करौ नर हे तातें भव्य यह द्रव्य दान करो जो ॥ इस पद्य में कितने सुन्दर ढंग से कृपण के स्वभाव का वर्णन किया गया है । ग्रन्थ का प्रारभ इन्दौर मे हुआ और इसकी समाप्ति भाडलनगर (भेलसा) में हुई है । कवि का नाम हरिकृष्ण प्रतीत होता है । ग्रन्थ समाप्ति का काल ग्रन्थकार ने स्वय इस भाति लिखा है । Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जन-सिद्धान्त-भवन' के कुछ हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थ सम्बत अष्टादश शत जोयो और छवीस मिलावो सोयो। मास जेठ वदि पा सारौ अन्य समापति को दिन धारौ ॥ अर्थात् स० १८२६ मे ज्येष्ठ कृष्णा अष्टमी को यह गन्थ समाप्त हुआ। १४ चन्द्रप्रभ पुराण-इन ग्रन्थ मे सोलह अधिकार और १८१ पृष्ठ है। कविवर ने यह गन्य गुणभद्राचार्य विरचित उत्तर पुराण के आधार पर हिन्दी के विविध छन्दो मे लिखा है। इसके श्लोकों की सख्या ३००० से अधिक है। कवि की कविता के नमूने इस भाति है - एक दिना नृप सभा मझारे, वैठे शक निहारे । मंत्री आदि सकल उमराव, बैठे मानो निर्जर राव ॥ पुत्र शोक का वर्णन मूर्छा पाय धरनि पर पर्यो, मानो चेतन ही निसरो। अव कीनो शीतल उपचार, भयो चेत नृप कर पुकार। हा हा ! कुंवर गयोतू काय, तो बिनमो को कहूँ न सुहाय । सिर, छाती फूटे अकुलाय, सुनत सभा सव रुदन कराय ॥ पुत्र-योक का कितना स्वाभाविक चित्र कवि ने खीना है, जिने पढ कर हृदय द्रवित हो उठता है । पुन न होने का वर्णन बिने देखि मन भया उदास, नैन नीर भर आयो जास। जो मेरे सुत होतो ये कोय, केलि करत लखि अति सुख होय । पुत्र विना सूनो ससार, पुत्र विना त्रिय पावे गार। पुत्र बिना सजन क्यो मिले, विना पुत्र कुल कैसे चले। जैसे फूल विना मकरन्द, कमल-नैन सज्ञा दृग अन्ध । पडित बिनाज्योसभा अपार, चन्द्र बिना निशि ज्योअंधियार॥ कवित्त कमल बिना जल, जल बिन सरवर, सरवर बिन पुर, पुर विन राय । राय सचिव विन, सचिव बिना बुधि, बुधि विवेक विन को सोभा न पाय ॥ विवेक विना क्रिया, क्रिया दया विन, दया दान बिन, धन बिन दान । धन बिन पुरुष तथा बिन रामा, रामा विन सुत त्यो जग माहि ॥ इन पद्यो मे कवि ने नारी हृदय के भावो को सजीव ढग से चित्रित किया है । ग्रन्थकार का नाम हीरासिंह प्रतीत . होता है । इस ग्रन्य की रचना बडोत नगर में हुई है। रचना काल० '१६१२ भादो कृष्ण त्रयोदशी । १५ श्री गुरूपदेश श्रावकाचार-इस पथ के रचयिता प० डालूराम है । ग्रन्थ की पत्र संख्या १८३ है और वह पद्यात्मक है, जिसमे ३६ सन्धियां है । १० डालूराम जी ने विविध ग्रन्थो का पयालोचन कर इस ग्रन्थ का निर्माण किया है। अन्य का वर्ण्य-विषय प्रधानतया श्रावको का प्राचार है, किन्तु बीच-बीच मे श्रावको के चरित्र-सवधी अन्य विषयो का भी समावेश हुआ है, जिससे यह ग्रन्थ सर्वागीण सुन्दर और सुपाठ्य हो गया है। ग्रन्थ के अन्दर दोहा, चौपाई, सवैया, पद्धरि, सोरठा, अडिल्ल, कुण्डलियां, आदि छन्दो का ललित भाषा मे प्रयोग हुआ है। कही कही द्रुतविलवित जैसे सस्कृत छन्द भी दृष्टिगोचर होते है । एक नमूना - Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय जिनके सुमति जागि, भोग सो भयो विरागी, परसङ्ग त्यागी, जे पुरुष त्रिभुवन सो। रागादि भावन सों जिनको रहन न्यारी कवतुं न मगन रहे घाम घन में। जे सदैव प्रापको विचार सब अङ्ग सुधा तिनके विकलता न व्या कहू मन में। तेई मोखमारग के साधक कहावें, जीव भावे रहो मन्दिर में, भावे रहो वन में। इस पद्य मे मोक्ष-साधक का कितना मनोहर और स्वाभाविक वर्णन है, जिनमे भाव और भापा की पुट भी मन को आकर्षित करती है। अन्य ऐसे अनेक सुन्दर पद्यो मे पूर्ण है। ग्रन्थकार ने अपना परिचय भी इन यन्य में अति विस्तृत रूप से लिखा है । सवाई माधोपुर में आने का कारण दिखलाया है तथा वहां के जिन-मदिर, जैन समाज का जीवन और धार्मिक रुचि का अनूठा चित्र अकिन किया है। राजा और प्रजा के गाट प्रेम का दिग्दर्शन भी वढिया ढग से किया गया है। अन्य की लिपि सुन्दर और मुवाच्य है। प्रति भी अच्छी दगा में सुरक्षित है। १६ हनुमच्चरित्र-यह गन्य न० रायमल्ल जी का रचा हुआ प्रतीत होता है। लेखक ने आचार्य अनन्तकीर्ति द्वारा विरचित सस्कृत हनुमच्चरित्र का आधार लेकर इसका निर्माण किया है। पांच परिच्छेदो मे विभक्त है। भापा प्राचीन हिन्दी प्रतीत होती है। यन्य का प्राकृतिक वर्णन कितना स्वाभाविक और सजीव है सेमर महुया तिन्दुक बेल, बकायन कैथ करील । चोच मोच नारग सुवग, नीबू जामुन वादाम तिलग ॥ अमृतफल, कटहल और कैलि, मण्डप चढि दाख की वेलि ॥ वेर सुपारी कमरख घनी, न्योजा श्राम कनत बिम्बनी ॥ प्रस्तुत पद्य से स्पष्ट प्रतीत होता है कि कवि का व्यावहारिक ज्ञान विगाल था तथा उसे विभिन्न प्रकार के वृक्षो कापूर्ण ज्ञान था। इसी के फलस्वरूप वाटिका के वृक्षो का ललित वर्णन कवि ने किया है। कविराज ने बीच-बीच में सुन्दर नीति विषयक पद्य भी दिये है। यथा-- मित्र मित्र को करे विश्वास । मित्र विना नहि पुरे पास । बहुत आपदा भावे जवै । मित्र परीक्षा मावे तबै ॥ धोरें पावे राजा राज । धीरे खेती उपजे नाज ॥ वोवे वृक्ष धीरे फल खाय । धोरे मुनिवर मुक्तिहिं जाय ॥ वीर वालक का ओजस्वी वर्णन देखिये वालक जव रवि उदय कराय। अन्धकार सव जाय पलाय ॥ वालक सिंह होय अति सूरो। दन्ति घात करे चक चूरो॥ सघन वृक्ष वन अति विस्तारो। रत्ती अग्नि फरे दह छारो॥ जो वालक क्षत्रिय को होय । सूर स्वभाव न छाडे कोय । उपर्युक्त पद्या मे क्षत्रिय वालक को उपमाए वाल-रवि, सिंह-गावक, और एक अग्नि की चिनगारी से दी गई हैं। ये उपमाएँ कवि की अनोखी सूझ की द्योतक है। जैसे अग्नि की चिनगारी प्रारभ मे छोटी होती है, पर अरण्य Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _ 'जैन-सिद्धान्त-भवन' के कुछ हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थ ५०५ मे प्रवेश करते ही प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है, उसी प्रकार प्रोजस्वी वालक प्रारभ में शूर-वीर होते है । अन्त मे ग्रन्थकार ने अपना परिचय इस भाति दिया है ब्रह्मराय मल बुधि कर हीन, हनुमच्चरित्र कियो परकाश । तास शीश जिन चरणहि लीनो, क्रियावन्त मुनिवर को दास ॥ भनियो सो मन धरि हर्ष, सोलह सौ सोलह शुभ वर्ष । ऋतु वसन्त मास वैशाखे, नवमी तिथि अधियारो पाखे। इससे सिद्ध होता है कि ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ की स० १६१६ वैशाख वदी नवमी को रचना की है। १७ बुद्धिविलास-इस ग्रन्थ के रचयिता प० वखतराम है। अन्य की प्रति साधारण तथा लिपि अच्छी है। ग्रन्थकार ने विशाल संस्कृत साहित्य का अध्ययन एव मनन कर इसको रचा है। रचना मौलिक तथा कही-कही पर साधारण है। ___ ग्रन्थ के प्रारभ मे कवि ने जयपुर के राजवश का इतिहास लिखा है। स० ११६१ मे मुसलमानो ने जयपुर में राज्य किया है । इसके पूर्व कई हिन्दू राजवशो की नामावलि दी है । इतिहास-प्रेमियो को यह ग्रन्थ अवश्य देखना चाहिए। इसका वर्ण्य विषय विविध धार्मिक विषय, सघ, दिगवर पट्टावलि, भट्टारको तथा खडेलवाल जाति की उत्पत्ति आदि है। विस्तार १५२४ पद्यो में है । कविवर ने राजमहल का रोचक और मधुर चित्र खीचा है प्रागन फरि कले पर वात मनु रचे विरचि जु करि सयान । है आव सलिल समतिह बनाय, तह प्रगट परत प्रतिबिंब पाय॥ कबहुँ मणिमन्दिरमाझिजाय, तिय दूजी लखि प्यारी रिसाय। तव मानवती लखि प्रिय हसाय, कर जोरि जोर लेह बनाय॥ इस पद्य मे शब्दालकार तथा अर्थालकार की पुट है। इस ग्रन्थ को कविवर ने स० १८२७ के मगसिर मास की शुक्ला १२ वृहस्पनिवार के दिन समाप्त किया। सवत अट्ठारह शतक ऊपर सत्ताइस, मास मागिसिर पषि सुकल तिथि द्वावसी तारीख । नखत अस्वनी वार गुरु शुभ मुहुरत के मद्धि, ग्रन्थ अनूप रच्यो पढ़े है ताको सर्वसिद्ध । इस प्रकार जैन हिन्दी साहित्य में अनक ग्रन्थ अप्रकाशित पड़े हुए है। यदि इन्हें हिन्दी जगत के समक्ष रक्खा जाय तो हिन्दी साहित्य के इतिहास की दृष्टि से यह सामग्री बडी मूल्यवान होगी। हिन्दी साहित्य के इतिहास पर दृष्टिपात किया जाय तो अवगत होगा कि अपभ्रश और भक्तिकाल के साहित्य की अपूर्णता का मूल कारण जैन हिन्दी साहित्य के समुचित उपयोग का अभाव ही है। पारा ] - - - - - Page #541 --------------------------------------------------------------------------  Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'माणिकचन्द्र ग्रन्यमाला' और उसके प्रकाशन ५०७ तृतीय नियम इसलिए वनाना पडा कि ग्रन्यमाला की वर्तमान पूंजी जो चन्दे से उपलब्ध हुई थी, कम थी और ग्रन्यमाला द्वारा प्रकाशित ग्रन्थो को लागत मूल्य पर वेचने का निश्चय हुआ था। इसलिए कुछ और सहायता मिल सके, इस विचार से यह नियम रक्खा गया और इसका प्रभाव भी पडा। प्रारभ के अनेक प्रकाशन साधन-सम्पन्न वधुओ ने अपने चित्र देकर खरीदे और इस प्रकार ग्रन्यमाला को सहायता पहुंचाई । माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला' की स्थापना का सक्षेप मे यही इतिहास है। ग्रन्थमाला के प्रकाशन और उनकी उपयोगिता ___ इस ग्रन्थमाला द्वारा अवतक मस्कृत, प्राकृत और अपभ्रश भाषा के छोटे-बडे व्यालीस ग्रथ प्रकाशित हो चुके है ? जैन वाड्मय के इन अमूल्य ग्रन्यो की गोध कर उन्हे सुसम्पादित और प्रकाशित करने का सर्वप्रथम श्रेय इस अन्यमाला को ही प्राप्त है। यद्यपि प्रस्तुत ग्रन्थमाला के प्रारम्भिक प्रकाशन आधुनिक सम्पादन-पद्धति के अनुसार सम्पादित नही हुए है, तथापि अतिम छह ग्रन्थो का जो सर्वाङ्गपूर्ण सुन्दर सम्पादन हुआ है, वह बडे ही महत्त्व का है । यही कारणहै कि वम्बई यूनिवर्सिटी ने इस माला के तीन ग्रन्यो के प्रकाशन में एक सहस्र रुपये की सहायता पहुंचा कर ग्रन्यमाला के गौरव की श्रीवृद्धि की है। प्रारभिक प्रकाशन आधुनिक ग्रन्य-सपादन शैली के अनुसार सम्पादित नहीं हो सके, उसके दो कारण थे। प्रयम तो प्रकाशनार्थ ग्रन्यो की विभिन्न पाण्डुलिपियाँ ही दुष्प्राप्य रही। फलत कई ग्रन्थो का सम्पादन केवल एक ही प्रति के आधार पर कराना पड़ा। दूमरे उस समय विद्वान् सम्पादन नवीन पद्धति से उतने परिचित नही थे। फिर भी ग्रन्यमाला के प्रकाशनो की महत्ता और उपयोगिता मे किसी प्रकार की कमी नही पाने पाई। इस रूप में प्रकाशित होने पर भी वे मूल्यवान और महत्वपूर्ण होने के साथ सग्राह्य और उपादेय है। यहां हम ग्रन्थमाला के सम्पूर्ण प्रकाशनो का सक्षिप्त परिचय दे रहे है। १. लघीयस्त्रयादिसग्रह : इसमें जैन-दर्शन-सबधी चार ग्रथ सगृहीत है - (१) भट्टाकलकदेवकृत लघीयस्त्रय अभयचन्द्र सूरि-रचित तात्पर्यवृत्तिसहित। प्रमाण, न्याय आदि विषयक एक छोटा-सा प्रकरण। (२) भट्टाकलकदेव-कृतस्वरुप सवोधन • आत्मा के स्वरूप के बारे मे पच्चीस श्लोक । (३-४) अनतकीतिकृत लघुसर्वज्ञसिद्धि और वृहत्सर्वज्ञसिद्धिः सर्वज्ञता के जैन-सिद्धान्त का विश्लेपण। इस ग्रथ का सशोधन स्व० पडित कल्लापा भरमाप्पा निटवे ने किया है। पृष्ठ संख्या २०४ । मूल्य छ माना। प्रकाशन तिथि वि० स०१९७२। २ सागरधर्मामृतम् . अथकर्ता प० आगाधर, जो तेरहवी शताब्दी के महान लेखक थे । इस ग्रन्थ मे गृहस्थ के कर्तव्यो पर उन्होने प्रकाश डाला है। स्व०प० मनोहर लाल जी द्वारा सशोधित । श्री नाथूराम जी प्रेमी की आशाधर तथा उनकी रचनाओं के विषय में भूमिका भी है। पृ० २४६ । मूल्य आठ आना। स० १९७२ । ३. विक्रान्तकौरवनाटकम् या सुलोचना नाटकम् छ • अको में कुरुवशी जयकुमार और काशी के महाराज अकम्पन की पुत्री सुलोचना के पारस्परिक अनुराग और स्वयवर आदि का चित्रण है । ग्रथकार उभय भाषा कवि चक्रवर्ती हस्तिमल्ल है। पृष्ठ १६४ । मूल्य छ पाना स० १९७२। (अप्राप्य)। ४. पार्श्वनाथ चरितम् दसवी शताब्दी के महान् कवि और तर्कशास्त्री वादिराजसूरि कृत । इस काव्यग्रन्थ के बारह सर्गों में भगवान पार्श्वनाथ का जीवन चरित है । मशोधन-कर्ता स्व० प० मनोहरलाल शास्त्री। पृष्ठ १९८ । मूल्य आठ आना । स० १९७३ । ५ मैथिलीकल्याणनाटकम् : पांच अको का एक छोटा सा नाटक । लेखक हस्तिमल्ल । पृ० ६६ । मूल्य चार आना। स० १९७२ । सशोधक स्व० प० मनोहरलाल शास्त्री। Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय ५०८ ६. आराधनासार• (सटीक) मूलकर्ता देवसेन और टीकाकार रत्नकीतिदेव । सशोधक स्व०प० मनो. हरलाल शास्त्री । इसमें जैन सिद्धान्त सम्मत दर्शन, ज्ञान, चारित्र्य और तप इन चार आराधनामो से सवधित सामग्री है। पृष्ठ १२८ । मूल्य साढे चार आना। स० १६७३। ७. जिनदत्त चरितम् : नो सर्गों में जिनदत्त का जीवन-चरित है। अथकर्ता गुण भद्राचार्य । सशोधक १० मनोहरलाल शास्त्री। पृ० ६६ । मूल्य साढे चार आना । स० १९७३ । (अप्राप्य) ८ प्रद्युम्न चरितम् : आचार्य महासेन कृत प्रद्युम्न का जीवनचरित । सपादक प० मनोहरलाल शास्त्री और प० रामप्रसाद जी शास्त्री । पृ० २३० । मूल्य आठ आना। स० १९७३ । ६ चारित्र्यसार • चामुण्डराय कृत । सशोधक प० इन्द्रलाल शास्त्री तथा उदयलाल काशलीवाल । गृहस्थ और साधु के चारित्र्य सवधी नियमो का इसमें उल्लेख है। पृ० १०४ । मूल्य छ पाना । स० १९७४ । (अप्राप्य)। १०. प्रमाण निर्णय ग्रन्थकर्ता वादिराजसूरि । यह ग्रन्थ जैनदर्शन से सवध रखने वाला है। इसमें जनदर्शन सम्मत प्रमाणो की प्रबल युक्तियो के साथ प्रतिष्ठा की गई है। प० इन्द्रलाल शास्त्री और प० खूबचन्द्र जी शास्त्री ने इसका सशोधन किया है । पृ० सख्या ८० । स० १९७४। मूल्य पांच आना। (अप्राप्य)। ११ आचारसार. वीरनन्दि प्राचार्य कृत । सपादक ५० इन्द्रलाल शास्त्री और मनोहरलाल शास्त्री। पृष्ठ मख्या १००। मूल्य छ आना। (अप्राप्य) १२ त्रिलोकसार ग्रन्थकर्ता श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती और टीकाकार श्री माधवचन्द्र विद्य दा। इस ग्रन्थ मे तीनो लोको का जैन-सम्प्रदाय-मान्य विस्तृत विवेचन है । सशोधक प० मनोहरलाल शास्त्री पृष्ठ सय ४५० । स० १९७५ । मूल्य एक रुपया. बारह आना। (अप्राप्य) १३. तत्त्वानुशासनादिसमह : इसमें निम्नलिखित छोटे-बडे ग्रन्थ सगृहीत है १-नागसेन मुनि-कृत तत्वानुशासन । २--पूज्यपाद स्वामिकृत इष्टोपदेश (आशाधर कृत टीकासहित)। 3--भट्टारक इन्द्रनन्दिकृत नीतिसार । ४--मोक्षपचाशिका। ५---इन्द्रनन्दि आचार्य कृत श्रुतावतार । ६--सोमदेवकृत अध्यात्मतरगिणी (सटिप्पण) । ७-विद्यानन्दि-कृत पात्रकेगरिस्तोत्र (सटीक)। ८-वादिराज-कृत अध्यात्माष्टक । 8-अमितगतिसूरि-कृत द्वात्रिंशतिका । १०--श्री चन्द्रकृत वैराग्य-मणिमाला। ११-श्री देवसेन कृत तत्त्वसार। १२--ब्रह्म हेमचन्द्र कृत श्रुतस्कत्य (प्राकृत)। १३-ढाढसी गाथा (प्राकृत)। १४-पयसिंह मुनि कृत ज्ञानसार (प्राकृत) । सशोधक प० मनोहरलाल शास्त्री । पृष्ठ सख्या १७६ । स० १९७५ । मूल्य चौदह आना । (अप्राप्य)। १४. अनगारधर्मामृतम् (सटीकम्) • अथकर्ता पडितप्रवर आशाधर । इस पर ग्रन्थकार ही की स्वोपज्ञभव्य कुमुदचन्द्रिका टीका है। सशोधक प० वशीधर जी न्यायतीर्थ और प० मनोहरलाल शास्त्री। इसमें मुनिधर्म का विस्तृत निरूपण है। पृष्ठ सख्या ६९२ । स० १९७६ । मूल्य साढे तीन रुपया (अप्राप्य) १५. युक्त्यनुशासनम् . ग्रन्यकर्ता स्वामी समन्तभद्र और टीकापार स्वामी विधानन्दि । यह जैनदर्शन का Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ 'माणिकचन्द्र अन्यमाला और उसके प्रकाशन ग्रन्य है। मगोधक प० इन्द्रलाल शास्त्री नया प० थी लाल भात्री। पृष्ठ मला १०२। म० १९७७ । मूल्य पन्द्रह आना। (अप्राप्य) १६. नयचश्मंग्रह : प्रयकना देवमेन । मपाठक प० वीवर शास्त्री, गोलापुर । इनमें निम्नाक्ति तीन अन्य मगृहीत है (१) आलाप पद्धति, (२) लवृनय चक्रम, (२) वृहन् नयचक्रम् । प्रत्येक ग्रन्य में वस्तु-धर्म का कयन करने वाली नमन मभाविन गलियां अयात् नयों का विवेचन है। पृष्ठ सख्या १८८ । २० १९७७ । मूल्य पन्द्रह पाना । (अप्राप्य) १७ पप्राभूतादिसग्रह : प्रन्यकर्ता प्राचार्य कुन्दकुन्द। यह जैन सिद्धान्त न मवव रखनेवाला मग्रह अन्य है। इनमें निम्नलिखित प्राकृत ग्रन्यो का नग्रह है (१) दर्शन प्रान्त, (२) वारिच प्रामृत, (B) मूत्र प्रामृत, (८) गेष प्राभृन, (५) भाव प्रामृत, (s) मोन प्रान्त, (७) लिङ्ग प्रामृत, (२) गील प्रामृत, (8) न्यणसारं और (१०) द्वादशानुप्रेक्षा। मशोषक प० पन्नालान जी नोनी । पृष्फ सन्न्या ४४२ । न० १९३७ । मूल्य नीन रुपया। १८. प्रायश्चितमग्रह : इममें जैन सम्प्रदाय मम्मन प्रायश्चितो का मकलन है। इनमें निम्नाकित अन्य नाहीत है (१) छेदपिण्ड (इन्द्रनन्दियोगीन्द्र कृत) प्राकृन (२) छेदयान्त्र या छेटनवनि (प्राकृत)। (३) गुरुदास कृन प्रायश्चित्तचूलिका (श्रीनन्दिगुरु कृत टीका सहित)। (४) प्रायश्चित्तप्रय भट्टाकलककृत। मगोवकप० पन्नालाल जी मोनी। पृष्ठनव्या १७२ । मूल्य एक रुपया दोआना । म० १९७८ । (अप्राप्य) १६ मूलाचारः सटीक (पूवार्द्ध)-ग्रन्यका प्राचार्य वट्टकेर । इसमें नात अधिकारी द्वारा मुनियों के यात्रा का वर्णन है । सम्पादक प० पन्नालाल मौनी और प० गजावरलाल गायी। पृष्ठ मन्या ५१६ । न० १९३७ । मूल्य ढाई रपया । (अप्राप्य) २०. भावसग्रहादिःमैद्धान्तिक माह-ग्रन्या नगोधक प० पन्नालालमोनी। इसमें निम्नलिन्वित ग्रन्य नगृहीत है(१) भावमग्रह (देवमनमूरिकृत) (२) भावमग्रह (वामढवपडितकृत) (२) भावविभगी (श्रुतमुनिकृत) म० १९७८ । पृष्ठ सख्या २८३, मूल्य मवा दो रुपया। २१. सिद्धान्तसारादिसग्रह : यह भी एक नद्धान्तिक मग्रह ग्रन्य है। इसमे मस्कृत-प्राकृत भापा निवद्ध, निम्नलिन्त्रित छोटे-बड़े पच्चीम य और प्रकरण मगृहीत है १ जिनचन्द्राचार्यकृत सिद्धान्नमार प्राकृत (जानभूपणकृत भाप्य सहित) २ श्रीयोगीन्द्रदवकृत योगमार, (अपभ्रण) ३ अजितब्रह्मकृत क्ल्याणलोयणा (प्राकृत)। ८ योगीन्द्रदेवकृत अमृतानीति (मस्कृत)। ५ शिवकोटिकृत रत्नमाला (मस्कृत)। ६ श्रीमाघनन्दिकृत मास्त्रमारसमुच्चय । ७ प्रभाबन्द्राचार्यकृत अर्हत्प्रवचन । ८ आप्तस्वरूप। १ वादिराजप्रणीत जानलोचनस्तोत्र । Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ १० विष्णुसेनमुनिकृत समवशरणस्तोत्र । ११ विजयानन्दसूरिकृत सर्वज्ञस्तवन (सटीक) । १२ पार्श्वनाथसमस्यास्तोत्रम् १३ श्रीगुणभद्रकृत चित्रबन्धस्तोत्र १४ महर्षिस्तोत्र १५ श्रीपद्मप्रभदेवकृत श्रीपार्श्वनाथस्तोत्र १६ नेमिनाथस्तोत्र १७ भानुकीतिकृत शखदेवाष्टक १८ योगीन्द्रदेवकृत निजात्माष्टक (प्राकृत) १६ अमितगतिकृत सामायिक पाठ या तत्त्वभावना २० पद्मनन्दिविरचित धम्मरसायण (प्राकृत) २१ कुलभद्रकृत सारसमुच्चय २२ श्रीशुभचन्द्रकृत अगपण्णत्ती (प्राकृत) २३ विवुधश्रीधरकृत श्रुतावतार २४ शलाकानिक्षेपणनिष्कासनविवरण २५ पडित आशाधरकृत कल्याणमाला ५० नाथूराम जी प्रेमी की कुछ ग्रन्थकर्तायो पर भूमिका । सम्पादक प० पन्नालाल सोनी । पृष्ठ सख्या ३२४ । मूल्य डेढ रुपया। स० १६७६ । २२. नीतिवाक्यामृतम् (सटीकम्) : गन्थकर्ता आचार्य सोमदेव। इस ग्रन्थ मे विशाल नीतिसागर का मन्थन करके सारभूत अमृत का सग्रह किया गया है। ग्रन्थ का प्रधान विषय राजनीति और सम्पूर्ण ग्रन्थ सूत्रबद्ध है। इसमें ३२ समुद्देश है और इस पर एक विशाल सस्कृत टीका है । सम्पादक प० पन्नालाल सोनी । पृष्ठ सस्या ४२६ । स० १६७६ । मूल्य पौने दो रुपया।। २३. मूलाचार सटीक (उत्तरार्द्ध). ग्रन्थकर्ताप्राचार्य वट्टकेर । वसुनन्दिश्रमण की सस्कृत टीका सहित। इसमें मुनियो के प्राचार का विवेचन है । ग्रन्थ में पांच अधिकार है । पृष्ठ सख्या ३३१ । स० १९८० । मूल्य डेढ रुपया। २४ रत्नकरण्डश्रावकाचार (सटीक) : ग्रन्थकर्ता स्वामी ममन्तभद्र और टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र । इस ग्रन्थ मे गृहस्थ पर्म का विवेचन किया गया है। सम्पादक प० जुगल किशोर जी मुख्तार । प्रारम्भ में मुख्तार साहब की ८४ पृष्ठो की भूमिका और २५२ पृष्ठो मे स्वामी समन्तभद्र का विस्तृत जीवन-परिचय है । ग्रन्थ सात परिच्छेदो में विभक्त है। स० १९८२ । मूल्य दो रुपया। २५. पचसग्रह : ग्रन्यकर्ता आचार्य अमितगति । इसमे कर्म-सिद्धान्त का विवेचन है । सशोधक साहित्यरत्न प० दरवारीलाल जी। पृष्ठ संख्या २३९ । मूल्य तेरह आना। २६ लाटीसहिताः ग्रन्थकर्ता राजमल्ल । इसमे सात सर्गों में जैन सिद्धान्तों का उल्लेख है। सशोधक पडित दरवारीलाल जी । पृष्ठ संख्या १३० । स० १९८४ । मूल्य आठ आना। २७ पुरुदेवचम्पू . ग्रन्थकर्ता महाकवि अर्हद्दास । चम्पू ग्रन्य है। १० स्तवको में भगवान् ऋषभदेव का जीवन-वृत्त है। मशोधक प० जिनदास शास्त्री। पृष्ठ सख्या २०६ । स० १९८५ । मूल्य बारह आना। २८ जनशिलालेखसग्रह . इस ग्रन्थ में श्रवणवेलगोल के स्मारक, चन्द्रगिरि, विन्ध्यगिरि, श्रवणवेलगोलनगर और उसके आसपास के महत्त्वपूर्ण शिलालेखो का हिन्दी अनुवाद सहित सग्रह है । सम्पादक प्रो० हीरालाल जी एम० ए०, एल-एल० बी० । पृष्ठ सख्या ४२७ । स० १९८४ । मूल्य दो रुपया। Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'माणिकचन्द्र अन्यमाला' और उसके प्रकाशन ५११ २९-३०-३१ पमचरितम् (तीन जिल्दो में) : ग्रन्यकर्ता आचार्य रविषेण । इसमें कवि ने जैन रामायण का रूप चित्रित किया है । २५ पर्व है । म० १९८५ । यशोधक प० दरवारीलाल जी साहित्यरत्न । मूल्य तीनो भागो का साढे पाँच रुपया। ३२-३३. हरिवशपुराणम् (दो जिल्दों में) : ग्रन्थकर्ता पुन्नाटसघीय जिनसेनसूरि । इसमें हरिवश के महापुरुषो का पौराणिक पद्धति के अनुसार वर्णन है । मशोधक पडित दरवारीलाल जी न्यायतीर्थ । पृष्ठ संख्या ८०६ । मूल्य साढ़े तीन रुपया। ३४. नीतिवाक्यामृतम् (परिशिष्ट भाग) : इसमे 'नीतिवाक्यामृत' की खडित टीका का अवशिष्ट अश है। पृष्ठ सख्या ७६ । मूल्य चार आना। ३५. जम्बूस्वामिचरितम् अध्यात्मकमलमार्तण्डश्च • ग्रन्यकर्ता पडित राजमल्ल । इसमें अन्तिम केवली श्री जम्बूस्वामी का जीवनचरित है। मशोधक प० जगदीशचन्द्र शास्त्री एम० ए० । म० १९६३ । पृष्ठ मख्या २६३ । मूल्य डेढ रुपया। ३६ त्रिषष्ठिस्मृतिपुराण (मराठी टीका सहित) : मूल-ग्रन्य-कर्ता १० आशाधर और मराठी-टीकाकार श्री मोतीलाल जैन । इसमे जैनपरम्परा के श्रेष्ठ महापुरुषो का संक्षिप्त परिचय है । पृष्ठ संख्या १६५, मूल्य आठ आना। - ३७-४१-४२ महापुराणम् (तीन जिल्दो में): ग्रन्थकार महाकवि पुष्पदन्त । यह अपभ्रंश भाषा का पौराणिक ग्रन्थ है । डाक्टर पी० एल० वैद्य ने आधुनिक ग्रन्थ-सम्पादनशैली स सम्पादित किया है । इसमें ६३ शलाका पुरुषो का चरित है। पृष्ठ संख्या लगभग १६०० । मूल्य २६ रुपया। ३८-३६. न्यायकुमुदचन्द्रोदय (दो जिल्दों में) : ग्रन्यकर्ता आचार्य प्रभाचन्द्र, जिन्होने भट्टाकलक के 'लघीयस्त्रय' पर विस्तृत भाष्य के रूप में इस ग्रन्य की रचना की है। यह जैनन्याय का ग्रन्थ है। मम्पादक पडित महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य और प्रस्तावना-लेखक प० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री। पृष्ठ संख्या ८०५ और प्रस्तावनामो की पृष्ठ सम्या २०० । स० १९९५ । मूल्य साढे सोलह रुपया ।। ४०. वराङ्गचरितम् : महाकाव्य है । काव्यकार श्री जयसिह नन्दि । इसमें राजकुमार वराङ्ग के जीवन का चित्रण है । सम्पादक डाक्टर ए० एन० उपाध्ये । पृष्ठ मख्या ३६५ । प्रस्तावना पृष्ठ मख्या ८८ । स० १९६५ । मूल्य तीन रुपया। माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला के प्रकाशनो का यह सक्षिप्त परिचय है। जो महाशय इन ग्रन्यो से अधिक परिचित होना चाहते है और जैन-साहित्य के विद्यार्थी है, उन्हें अन्यमाला के सम्पूर्ण प्रकाशनो को एक बार अवश्य पढना चाहिए। प्रेमी जी और 'माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला' सेठ माणिकचन्द्र की स्मृति में 'माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला' के आयोजन का प्रस्ताव रख कर प्रेमी जी ने इस ग्रन्थमाला को जन्म ही नहीं दिया, बल्कि इसे अब तक सदित और मरक्षित करके इसके कार्य को प्रगति दी और इसके गौरव की अभिवृद्धि भी की। ग्रन्यमाला का प्रत्येक प्रकाशन प्रेमी जी की प्रतिभा और उनके पुण्य श्रमजल से प्रोक्षिन है। अधिकाश अन्यो के प्रारम्भ में जो महत्त्व की प्रस्तावनाएँ है, उन्हें प्रेमी जी ही ने लिखा है और उनमे जैन-इतिहास और शोध की जो सामग्री सचित है उसे देख कर कोई भी इतिहास-विशारद प्रेमी जी की प्रशमा किये बिना नहीं रह सकता। जैन समाज में किये गये इतिहास और शोध सम्बन्धी कार्य के आदिरूप की झांकी हमें इस ग्रन्थमाला के प्रकाशनो में ही दिखलाई पड़ती है। Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनन्दन ग्रंथ पाठक आश्चर्य करेंगे कि इस प्रकार की उच्चकोटि की ग्रन्थमाला का न कोई स्वतन्त्र कार्यालय है और न कोई क्लर्क ग्रादि । प्रकाशन सम्वन्धी व्यवस्था श्रर पत्र-व्यवहार का कार्य प्रेमी जी अपनी दुकान की ओर से ही करने या रहे है । माला के ग्रन्थों का स्टॉक पहले प्रेमी जी की दुकान में ही रहता था, पर पुस्तको की संख्या बढ जाने तथा दुकान में स्थान की कमी पड जाने मे श्रव वह हीरावाग की धर्मशाला में रक्वा रहता है। जहाँ इस प्रकार की प्रगतिशील प्रकाशन- सम्यात्रो की व्यवस्था के पीछे मैकडों रुपये मामिक व्यय हो जाते हैं, वहा प्रेमी जी ने इस मद में ग्रन्थमाला का कुछ भी व्यय नही होने दिया । ग्रन्थमाला की इम प्रकार सर्वया नि स्वार्थभाव से मेवा करते हुए भी प्रेमी जी को पडित दल का विरोध सहन करना पडा । वात यह थी कि प्रेमी जी ग्रन्थमाला के ग्रन्थो के प्रारम्भ में जो खोजपूर्ण भूमिकाएँ लिखते थे उनमें कुछ तथ्य इस प्रकार के रहते थे, जिनमे तत्कालीन पडितदल की प्रचलित धारणाओ को ठेस पहुँचती थी और इस कारण वह न केवल उन्हे अग्राह्य ममभता था, बल्कि समाचार-पत्रो द्वारा उनका विरोध भी किया करता था। यही नही, एक वार तो इस विरोध ने इतना उग्र रूप धारण किया कि परतवाडा (वरार) की जैन- विद्वत्परिपद् में यह प्रस्ताव पेश किया गया कि प्रेमी जी के पास से ग्रन्थमाला का कार्य छीन लेना चाहिए, क्योकि प्रेमी जी सुधारक है और अपने सुधारक विचारो का ग्रन्थो मे समावेश कर सकते है । परन्तु यह एक आश्चर्यजनक घटना थी कि इस प्रस्ताव का विरोध उस समय के पडितदल के नेता (स्वर्गीय) प० धन्नालाल जी ने किया और वह प्रस्ताव पास नही हो सका । प्रस्ताव के विरोध में पंडित जी ने कहा था- "प्रेमी जी चाहे जैसे विचारो के हो, परन्तु वह जान-बूझ कर ग्रन्थो में एक अक्षर भी न्यूनाधिक नहीं कर सकते। फिर तुम लोगो मे से कोई तैयार भी है, जो उस काम को उन जैसे नि स्वाभाव से चला सके 1" ५१२ ग्रन्थमाला की आर्थिक स्थिति जैसा कि प्रारम्भ मे लिखा जा चुका है, ग्रन्थमाला के कार्य को चलाने के लिए सेठ माणिकचन्द्र जी की शोक सभा के अवसर पर माढे चार हजार रुपये का चन्दा एकत्र हो गया था, परन्तु जव यह द्रव्यराशि पर्याप्त प्रतीत नही हुई तो जैन समाज के अन्य साहित्य प्रेमी श्रीमानो से सहायता ली गई। स्वर्गीय ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी ने भी इस प्रन्थमाला को एक वार उल्लेखनीय सहायता दिलवाई और जीवनपर्यन्त ग्रन्थमाला की कुछ-न-कुछ सहायता कराते ही रहे । ग्रन्थ जव ययेष्ट सख्या मे प्रकाशित हो गये तब यह नियम वनाया गया कि कम-से-कम एक सौ एक रुपया देने वाले महानुभाव माला के स्थायी सदस्य समझे जायँ और उन्हें पूर्वप्रकाशित तथा आगामी प्रकाशित होने वाले ममस्त ग्रन्थ भेट में दिये जायें। इस प्रकार माला के सदस्य भी वढने लगे और सव प्रकार की सहायता से कुल वार्ड महल रुपया ग्रन्थमाला को प्राप्त हुग्रा, जो माला के प्रकाशन प्रोर सम्पादन श्रादि की व्यवस्था में लगाया गया । 'न्यायकुगुदचन्द्रोदय' तथा 'महापुराण' जैसे विशालकाय ग्रन्थो के प्रकाशन में तो माला का समस्त रुपया समाप्त हो चुका था तथा उसे ऋण भी लेना पडा था, परन्तु श्रव वह ऋण चुक गया है और दो- एक ग्रन्थो के प्रकाणित होने योग्य रुपया भी सचित हो चुका है । 'माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला' जैसी प्राचीन और महत्त्वपूर्ण सस्था की इस प्रकार की आर्थिक स्थिति सन्तोषजनक नही है । आशा है, जिनवाणी के भक्तो का ध्यान इस ओर आकर्षित होगा । प्रेमी जी ने जिस श्रध्यवसाय, श्रम, प्रामाणिकता, कुशलता और नि स्वार्थभाव से 'माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला' का कार्य सम्पादित किया है और इससे ग्रन्थमाला के गौरव की जो श्रीवृद्धि हुई है उसका उल्लेख जैन साहित्य के प्रकाशन के इतिहास में सुवर्णाक्षरो में श्रकित रहेगा । जव तक भारती के भव्य मन्दिर में 'माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला' का एक भी प्रकाशन विद्यमान है, सेठ माणिकचन्द्र श्रमर है, साथ ही प्रेमी जी भी । काशी ] Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी और गुजराती साहित्य ६५ Page #549 --------------------------------------------------------------------------  Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी-साहित्य की कहानी श्री. प्रभाकर माचवे एम० ए० प्राचीन साहित्य मराठो का प्राचीनतम आद्य कवि है मुकुन्दराज । इसके निश्चित काल के सम्बन्ध मे पता नहीं चलता। मावारणत ज्ञानेश्वर मे एक गती पहले (११८८ ईवी) के लगभग 'विवेकमिन्यु' और 'परमामृत' इन दो ग्रन्थो की रचना मुकुन्दराज ने की। 'ओवी' नामक मराठी के अपने अक्षरछन्द में अद्वैत-वेदान्त पर ये दोनो ग्रन्थ है। भाषाशैली उतनी प्राचीन नही जान पडती, जितनी ज्ञानेश्वरी की है। यह कवि नाथसम्प्रदाय का था। मछिन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, गैनीनाथ आदि शिवभक्त, हठयोगी गरुयो की परम्परा उत्तरभारत मे महाराष्ट्र में आई। इमी नाथमम्प्रदाय मे आगे चलकर महाराष्ट्र का 'वारकरी' (भागवत-धर्म) सम्प्रदाय निकला। जिस प्रकार एक ओर नाथमाम्प्रदायिक प्राचीन काव्य मिलता है, उसी प्रकार दूमरी ओर महानुभाव-पन्य नामक एक पन्य वर्मजाग्रति का कार्य कर रहा था। यह माहित्य प्राचीन भाषा-गली के अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। 'सकला' और 'सुन्दरी' नाम की साकेतिक लिपियो में यह साहित्य लिखा जाने के कारण कई गतियो तक इनके मार-सत्त्व मे जनता अनभिज्ञ थी। राजवाडे, भावे, य० खु० देशपाडे, नेने आदि आधुनिक सशोधको के प्रयत्न से वह साहित्य अव सब के लिए उपलब्ध हो मका है। गोविन्द प्रभु इस सम्प्रदाय के मूल पुरुष थे (११८८ ईस्वी)। उनके शिष्य चक्रवर हुए। कृष्ण और दत्त को महानुभावीय मुख्य आराध्य देवता मानते थे। स्त्रियो-शूद्रो तक को वे सन्यासदोक्षा देते थे। चक्रवर को थोडे से अवकाग में बहुत से शिप्य मिले। नागदेवाचार्य उनमें मुख्य थे। महानुभावियो की माहित्यिक दार्शनिक कृतियो में 'सिद्धान्तमूत्रपाठ', जिममे १६०६ मूत्र है और 'लीलाचरित्र' प्रमुख है। ये दोनो ग्रन्थ गद्य मे है। इनके वाद 'माती ग्रन्यो' को पूज्य माना जाता है। ये पद्यवद्ध है। इनके नाम है-शिशुपालवध, एकादशस्कन्द, वत्महग्ण, रुक्मिणी-म्बयवर, ज्ञानवोध, सह्याद्रिवर्णन, ऋद्धिपूरवर्णन । प्रथम चार कृष्णचरित को लेकर है। मराठों को आद्य कवियित्रो महदम्बा चक्रवर के मुख्य शिष्य नागदेवाचार्य की चचेरी वह प्रमग पर गाने योग्य कृष्ण-भक्ति-रम से भरे 'धवले' उमने लिखे है । 'धवले' अभग-छन्द के समान चार चरणो का अनियमित अक्षर-मस्या का छन्द है । इन धवलो से सतुकान्त कविता का मराठी में प्रारम्भ होता है। भावेव्यास नामक चक्रवर का दूसरा शिष्य प्रसिद्ध है। उसने 'पूजावसर' नामक चक्रवर का जीवनचरित लिखा है । महानुभावपन्य को स्थापना मे एक शताब्दी तक इसी पन्य की काव्य-परम्पग साहित्य के इतिहास मे सभी दृष्टियो से महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। १२६० ईस्वी मे भगवद्गीता के अट्ठारह अध्यायो पर नौ हजार प्रोवियो मे जो पद्यात्मक टीका मराठी मन्तकवियो को परम्परा के प्राद्यप्रणेता श्री ज्ञानेश्वर ने अपने 'ज्ञानेश्वरी' नामक ग्रन्थ द्वारा की, वह मराठी साहित्य के इतिहाम को एक अपूर्व घटना है। गोदावरी नदी के किनारे आपेगांव मे विट्ठलपन्त को श्री पादस्वामी की कृपा से सन्यासोत्तर जो चार मन्तान हुई उनके क्रमवार नाम है--निवृत्ति, नानदेव, सोपान, मुक्तावाई। ये सभी सन्तकवि थे, किन्तु ज्ञानदेव उनमें मवसे अधिक विख्यात हुए । केवल २२ वर्ष वे जीवित रहे। ऐमी अल्पायु में दर्शनशास्त्र में परिप्लुन और साहित्य-मोन्दर्य मे विभूपित काव्य-ग्रन्थ मराठी में ही क्या, अन्य माहित्यो मे Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय भी बहुत कम मिलेंगे। एक उदाहरण उनकी उत्तम रचना का यो है। काव्य की महत्ता बतलाते हुए ज्ञानेश्वर कहते है कि 'वह उस पानी के समान है, जो एक ओर तो आँख की पुतली तक को नही दुखाता और दूसरी ओर कठिन चट्टानो को भी तोडता हुमा वन्यारूप बहता है।' ज्ञानेश्वरी के साथ ही 'अमृतानुभव' तथा कुछ स्फुट अभग (पद) भी ज्ञानेश्वर ने लिखे । ज्ञानेश्वरी का हिन्दी और अग्रेजी अनुवाद अब हो गया है। ज्ञानेश्वर के समय में कई अन्य सन्त-कवि हुए। उनमें से अधिकाश ने तीर्थयात्रा के निमित्त भारत-भ्रमण किया और हिन्दी-पद्य मे भी रचनाएँ की। उनमें कई हरिजन कवि भी थे। यथा नामदेव दर्जी और उसकी दासी जनावाई, गोरा कुम्हार, सावता माली, विसोबा खेचर, नरहरी सुनार, वका महार, चोखा मेला, परमा भागवत, कान्होपात्रा (पतुरिया), सेना नाई, सजन कसाई इत्यादि । वारकरी सम्प्रदाय के प्रमुख प्राराध्य पढरपुर के पढरीनाथ थे। इस सम्प्रदाय मे भक्ति गुण प्रधान था। जातिभेद को कोई अवसर नहीं दिया जाता था। इस सन्तमालिका में साहित्य के इतिहास की दृष्टि से प्रमुख है नामदेव (१२७०-१३५० ईस्वी) और एकनाथ (१५३३-१५६६ ईस्वी)। नामदेव की रचना मुख्यत पदो के रूप में थी, सूर के समान । एकनाथ ने भागवत, भावार्थ रामायण, रुक्मिणी स्वयवर आदि ग्रन्थ लिखे हैं। इन दो कवियो के बीच एक-दो शतको में जो प्रमुख घटना हुई, वह थी मुसलमानो का दक्षिण मे प्रवेश । ये सव-के-सव हिन्दू-धर्म, मराठी सन्त और भाषा पर अत्याचार करने वाले नही थे। वहमनी राज्य के कुछ वादशाह और कुछ सुल्तान मराठी-प्रेमी थे। कई तो सन्तो के शिष्य भी बने। १५५५ ईस्वी मे इब्राहिम आदिलशाह ने वीजापूर दरवार में मराठी भाषा प्रचलित की, परन्तु ऐसे राजा थोडे थे। दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना थो चौदहवी-पन्द्रहवी शती में नृसिंह सरस्वती और जनार्दनस्वामी नामक दो साधुनो द्वारा 'दत्त' सम्प्रदाय का प्रचलन । गगाधर सरस्वती नामक उपरोक्त साधुओ के एक शिष्य का लिखा हुआ 'गुरुचरित्र' ग्रन्थ महाराष्ट्र में अत्यधिक लोकप्रिय हुआ और अभी भी वडे-बूढो को वह कठस्थ है। पुराने घरो में उसका नित्य पाठ होता है। ज्ञानेश्वरी के बाद प्राचीन मराठी साहित्य मे एकनाथ की भागवत की टीका वद्य और साहित्यिक गुणो में समतुल्य मानी जाती है। भागवती टीका में एकनाथ की एक बडी विशेषता थी सस्कृत मे मात्र मुट्ठीभर पडितो के लिए उपलब्ध वस्तु को जनता की, सर्वसाधारण की, लोकानुरजिनी और लोकोपयोगी वस्तु बनाना । 'सस्कृत वद्य, प्राकृत निंद्य । हे बोल काय होती शुद्ध ।' यह एकनाथ 'का वचन का भाषा का सस्किरित' वाली प्रसिद्ध उक्ति की याद दिलाता है। ज्ञानेश्वर की रचना में आभिजात्य (क्लासिकल) था, एकनाथ की रचना अधिक प्रासादिक और सर्वप्रिय हुई। ज्ञानेश्वर कई स्थलो पर कठिन और रहस्यवादी है, एकनाथ तुलसीदास की भांति अर्थसुलभ, साधारणीकरण-युक्त तथा अपनी सरलता से अलकृत है। एकनाथ की परम्परा को नाथ-परम्परा कहते है, जिसमें मुख्य कवि हुए-दासोपन्त, (१५५१-१६१५ ईस्वी), व्यवकराज (१५८० ईस्वी के निकट), शिवकल्याण (१५६८-१६३८१), रमावल्लभदास आदि । दासोपन्त ने ४६ ग्रन्थ और सवा लाख 'ओवियाँ' (छन्दविशेष) लिखी। ज्ञानेश्वर पचायतन मे ज्ञानेश्वर चार भाई-बहन और नामदेव आते थे, वैसे ही एकनाथ पचायतन में, एकनाथ, दासोपन्त, रामजनार्दन, जनीजनार्दन और विठारेणुकानन्दन नामक कवि आते है। ज्यवकराज का वालवोध अन्य वेदान्त पर और प्रोकारोपासना से सम्बद्ध है। शिवकल्याण ने नित्यानन्दक्यदीपिका, रासपचाध्यायी, ब्रह्मस्तुति, वेदस्तुति नामक ग्रन्थ लिखे है । रमावल्लभदास की गीता की 'चमत्कारी टीका' प्रसिद्ध है। ( २ ) मध्यकाल का साहित्य प्राचीन साहित्यिक परम्परा की अन्तिम शृखला के रूप में हम मुक्तेश्वर का स्मरण कर सकते है । निश्चित रूप से इनके जीवनचरित के विषय मे सामग्री नही मिलती, फिर भी अनुमान है कि आप एकनाथ के भाजे होगे। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी साहित्य की कहानी ५१७ आपका काल १६०० से १६५० ईस्वी के करीव रहा होगा। आपका प्रसिद्ध ग्रन्थ है महाभारत । यह सम्पूर्ण रूप मे उपलब्ध नही। केवल आदि, सभा, वन, विराट, सौप्तिक ये पाँच ही पर्व उपलब्ध है। मराठी प्राचीन साहित्य के इतिहासज्ञ और आलोचक स्व० पागारकर 'मुक्तेश्वर की वाणी में लोकोत्तरप्रसाद, दिव्य प्रोजस्विता और सृष्टिमौन्दर्यवर्णन की अनुपम शोभा' पाते है । मुक्तेश्वर का भाषा, देश और धर्म का अभिमान और अनुराग अलौकिक था। मुक्तेश्वर की सबसे बड़ी विशेषता है आख्यानक कविता का प्रारम्भ। यदि सन्त-साहित्य के ज्ञानेश्वर भित्तिचालक थे तो मुक्तेश्वर लौकिक साहित्य की नीव डालने वालो में मुख्य थे। मध्ययुग में पाकर मराठी काव्य जो अधिक लोकोन्मुख होता चला, उसके सबसे प्रमुख सहायक थे तुकाराम और रामदास । 'सन्त तुकाराम' नामक चित्रपट से और हिन्दुस्तानी एकेडेमी द्वारा प्रकाशित डॉ० ह. रा० दिवेकर की 'तुकाराम' सम्वन्वी पुस्तक से अधिक परिचित, सक्षिप्त इस सन्तकवि की जीवनकथा है। १६०८ ई० में तुकाराम और रामदास दोनो का जन्म हुआ। पूना के पास इन्द्रायनी नदी के किनारे देहू गाँव में तुकाराम वोल्होवा आविले का जन्म हुआ। इनकी जाति शूद्र (कुनबी) थी और वनिये का धन्वा इनका कुल करता था। सावजी कान्होबा तुकाराम के दो भाई थे। तुकाराम ने दो बार विवाह किया-पर न अपनी दूकान और न गिरस्ती वे ठीक तरह से चला सके। दृष्टि उनकी ईश्वरभक्ति की ओर थी। तिस पर अकाल आया। तुकाराम वैराग्य की ओर पूर्णत झुक गये। तुकाराम ने अपनी सव रचना 'अभग' नामक भजनोपयोगी छन्द में की है । वह अधिकाश स्फुट है । नामदेव के समान ही भक्ति पर, पाता और उपालम्भ से भरी उनकी रचना है। परन्तु जहाँ नामदेव शुद्ध सन्त थे, तुकाराम ने कवीर के समान व्यावहारिक धर्म की दाम्भिकता को भी खूव आडे हाथो लिया है। कबीर की ही भांति तुकाराम की रचनाएँ लोकोक्ति रूप बन गई है। वास्तविक जीवन के ययार्थ दृष्टात लेकर बडे-बडे नीतितत्त्व सहजता से समझाने की उनकी कुशलता बहुत ही प्रशसनीय है । उनके जीवनकाल में उन्हे विरोधको का कम सामना न करना पड़ा। उनका निर्माणकाल १६५० ईस्वी माना जाता है । देशस्थ ब्राह्मणकुल मे, सूर्याजीपन्त कुलकर्णी के पुत्र रामदास, गोदानदी तीर पर जावगांव में जनमे। बचपन से वे काफी उद्धत थे। विवाह-प्रसग मे वे मडप से भाग गये। आगे चल कर आपकी शिवाजी राजा से भेट हुई और शिवाजी ने उन्हे गुरु माना, यह आख्यायिका प्रसिद्ध है। फिर तो आजीवन वे धर्मप्रचार करते रहे। उन्होने कई मठ स्थापित किये। रामभक्ति इनका मुख्य जीवनध्येय था। सतारा के पास 'परली' और 'चाफल' रामदास के प्रमुख स्थान थे। आपने अपना एक सम्प्रदाय चलाया। प्रापका सर्वोत्तम ग्रन्थ है 'दासबोध'। पहले सात दशक और वाद के तेरह दशको के बीच मे बहुत-सा रचना-कालान्तर वीता होगा, ऐसा माना जाता है। यह ग्रन्थ निवृत्तिवादी नहीं है, निर्गुणिए सन्तो की तरह यह ब्रह्म-माया की सूक्ष्म छानवीन में नहीं पड़ता। यह ग्रन्थ प्रोजस्वी भाषा मे पूर्णत प्रवृत्तिवादी है। इसका कारण तत्कालीन परिस्थिति थी। शिवाजी की राज्यस्थापना का वह काल था। मुस्लिम शासको से सीधा विरोध हिन्दू-जनता कर रही थी-उसमे धर्म एक प्रधान अस्त्र था। रामदाम की वाणी ने उस अस्त्र को धार दी। रामदास की वानी अटपटी है। वह व्याकरण-दोष, भाषा-दोप, छन्द-दोप, काव्य-दोष किसी की चिन्ता न करती हुई बरावर ऊर्जस्वल वेग से बहती है । अजीब-अजीव नये शब्द-प्रयोग उममें मिलते है। कई ग्रामीण शब्द भी उसमें चले आये है। परन्तु सम्पूर्णत लेने पर रामदास की रचना बहुत ही प्रभावशाली है। दासवोध में मूर्ख, पडित, कवि, भक्त, राजा सब के लक्षण गिनाये गये है। राजनीति पर उनका जो एक दशक है, जिसे मैने पूरा-का-पूरा 'आगामी कल' मे ‘एक कार्यकर्ता को पत्र' नामक शीर्षक से शब्दश अनुवाति कर प्रकाशित किया है, वह एक अमर सत्य से प्रज्वलित रचना है । इस 'दासबोध' के अलावा 'मनाचे श्लो रामायण के 'मुन्दरकाड' पीर 'युद्धकाड', 'आनन्दवनभुवन' नामक महाराष्ट्र के भूप्रदेश-सौंदर्य-वर्णन 'देखिये-मेरा 'मर्मी तुकाराम' नामक लेख, विश्वमित्र मासिक सन् '४० में प्रकाशित । Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय ५१८ ग्रन्थ, करुणाष्टक, पचीकरण, आरतियाँ, 'मोवियो' के १४ शतक आदि कई ग्रन्थ उनके प्रसिद्ध है। दासगीता नामक एक सस्कृत-काव्य-पद्य भी उन्होने लिखा था। सज्जनगड पर १६८१ ईस्वी मे आपने समाधि ली। आपकी शिष्य-परम्परा में प्रमुख कवि-जयराम, रगनाथ, आनन्दमूर्ति, केशव ये चार स्वामी मिलाकर रामदास पचायतन पूरा होता है । ज्ञान-पचायतन, नाथपचायतन और दारूपचायतन के साथ सन्त-कवियो की परम्परा मत्रहवी सदी में आकर समाप्त होती है और हिन्दी-साहित्य मे जिस प्रकार भक्तिकाल के पश्चात् रीति-काल आता ई और उसका प्रारम्भिक रूप केशवदास जैसे भक्ति-रीति को मिलाने वाले कवियो में मिलता है, उसी प्रकार मराठी माहित्य मे भी भक्तिकाल से रीतिकाल की शृगारी-वीर-प्रवृत्तियो तक (मतिराम-भूषण जैसे 'लावणी-पोवाडे' लिखने वाले शाहीरो तक) सीधी रेखा नहीं मिलती-वह वीच-बीच में पडित-कवियो द्वारा खडित है। लालजी पेंडसे के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'साहित्य और समाजजीवन' (जिसमें मराठी साहित्य का इतिहास समाजवादी दृष्टिकोण से दिया गया है) मे इन नीन प्रकार के कवियो को, जिनके मुख्य रस थे भक्ति, शान्ति, शृगार-वीर आदि, बहुत ही सुन्दर ढग से तीन नामो मे सक्षिप्त किया गया है--सन्त-कवि, पन्त-कवि, तन्त-कवि । पन्त पडित का छोटा रूप है और ततु वाद्यो के साथ ('डफ', इकतारा आदि) गाने वाले होने से 'तन्त', या कहिए 'तन्त्र' अथवा 'रीति' की उनमें प्रधानता है, इस कारण मे 'तन्त'। प्रत्येक साहित्य के इतिहास में सिद्धान्तो के उत्थान-पतन का लेखा अनिवार्य रूप से आता ही है । जो आदर्श एक युग में पूजे जाते है, वे दूसरे युग मे निर्माल्यवत् बन जाते है और नये आदर्श उनका रिक्त स्थान ग्रहण करते है। इस एक के खडन में से दूसरे के निर्माण के सक्रान्ति काल का साहित्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है। आज नो ऐसे काल का अध्ययन इसलिए और भी आवश्यक है कि हमारा यानी भारतीय साहित्य भी ऐसे ही बौद्धिक अराजक, मतमतान्तरो के मन्थन मे से गुजर रहा है। अग्रेजी गाहित्य के इतिहास में ऐसे काल-खड को 'डिकेडेट' कहते है, जिसका शब्दश अर्थ होता है 'जीर्ण-शीर्ण या गलित'। 'जीवन' की उद्दाम तरल वेगमयी प्रवहमानता को यदि रूढ नियमो के और परिस्थितियो के कृत्रिम बन्धन से रोकने का प्रयत्न किया तो कुछ अवकाश के वाद उसमें की गतिमयता नष्ट होकर, एक विकृत स्थिरता-एक प्रकार की सडाघ-एक प्रकार की साहित्य की आत्मा-भावना को गौणत्व देकर, उसके वाह्यवेष भाषा, टेकनीक (रीति) आदि से उलझने की प्रवृत्ति अनजाने ही साहित्य में घुस पडती है जो एक ओर अतिशय हानिकर तो दूसरी ओर एक अपरिहार्य बुराई के रूप मे लाभप्रद भी होती है। रामदास के पश्चात् वामन पडित और उनके पश्चाद्वर्ती कवियो का काल इसी प्रकार का था। मत-कविता जब एक भंवर मे पडी-सी जान पडी तब उसे झकझोर कर तुकाराम ने पुन उसमें सजीवता पैदा की। रामदास ने कविता की उन मजीव गति में अतिरेक निर्मित कर पुन उसे विमूर्या में जैसे डाल दिया। उसी विमूर्छन-काल का स्वप्न-रजन वामन पडित, रघुनाथ पडित और मोरोपत की सुघर, नक्कासी भरी, अति-अलकृत कविता मे हमे मिलता है। अग्रेजी साहित्य में भी रोमेटिक युग की प्रारभिक ताजगी कुम्हलाकर जव उन्नीसवी सदी के उत्तरार्द्ध मे ऐसी ही प्रवृत्ति चल पडी तव 'प्रीरेफेलाइट' कवियो की अलकरण-प्रियता स्विन्वन आदि में अत्यधिक मात्रा में फूट पडी और हिन्दी मे भी बिहारी देव, पद्माकर के दोहे-कवित्तो में उस सुघराई के लिए सुघराई के वर्ण-चमत्कार के अतिरिक्त और है भी क्या? क्या 'निराला' की गीत-रचना में पुन छायावाद के अतिरेक की वैसी ही विमूर्छना, वैसी ही श्रान्ति और एकस्वरता (मोनो टोनी) नहीं मिलती ? स्टीफन स्पेडर का 'स्टिल सेंटर' मानो सभी ओर ऐसे साहित्यिक कालखडो मे अनुगुजित है। वामन पडित भी ऐसे ही शाब्दिक नक्कासी के लोभी कवि थे। निस्सशय उनको रचना अतिशय नादमधुर है । जयदेव और विद्यापति की वह याद दिलाती है। परतु कही-न-कही ऐसा जान पडता है कि भाव भाषा मे खो गये है। भाषानुवर्ती भाव हो रहे है , जैसे कि महादेवी की उत्तरकालीन रचना मे। परन्तु मराठी साहित्य की कहानी के सिलसिले मे मै कुछ व्यक्तिगत मत मावेश कह गया, जिन्हें पाठक अप्रासगिक न मानेंगे, ऐसी आशा है। वामन पडित शेषे नादेड गाँव का था। वह सस्कृत का उद्भट पडित था। उसका बहुत महत्त्वपूर्ण अथ है Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी साहित्य की कहानी ५१६ 'ययार्यदीपिका, जो कि ज्ञानेश्वरी को हो भाति गीता को टोका है। भावार्थदीपिका उम' टीका की और टीका है। गजेंद्रमोन (रामदास के शिष्य रगनाथस्वामी द्वारा लोकप्रिय बनाये गये विषय पर भावप्रचुर रचना), सीतास्वयवर, कात्यायतीव्रत, वनसुवा और रावाविलास वामन पडित के अन्य भावप्रवान ग्रथ है। वामन पडित की कविता मे मराठी काव्य मे विचार और भावना जैसे दो शैलियां ग्रहण करते हैं और नतो द्वारा परिचालित विचार भावना का मधुर ऐक्य मानो टूट जाता है । वामन पडित के समकालीन नागेश और विट्ठल ने श्लोक-शैली में सीतास्वयवर और रुक्मगी-स्वयवर काव्य रचे है । जयराम आनदतनय और रघुनाथ पडित (जिनके निश्चित काल के सवव में विद्वानो में मतभेद हैं) इमी प्रवृत्ति के उत्तरकालीन कवि है। रघुनाथ पडित का 'नल-दमयन्ती स्वयवराल्यान', नरोत्तमदाम के 'सुदामा-चरित्र' की भाति रसयुक्त और प्रसगो का यथातथ्य चित्रण करने वाला अनेक छन्दो मे लिखा ग्रय है। कचेश्वरवापा, निरजनमाधव, सामराज, श्रीधर, महीपति आदि अन्य कई कवियो के पश्चात् महत्वपूर्ण उल्लेखनीय कवि हैं मोरोपत (१७२६-१७६४ ईस्वी)। मोरोपत रामचन्द्र पराडकर पन्हालगड पर जन्मे। केशव पाध्ये उनके गुरु थे। बाद में पेशवाओ के समधी और साहूकार नाईक के घर आपने कथा-वाचको की । कुछेक काल मुशी भी रहे। समग्र महाभारत, भागवत, रामायण आपने 'आर्या' वृत्त में मगठी में उतारे परतु रामायण, मत्ररामायण, आदि १०८ रामायण आपने लिखे थे, ऐसा कहा जाता है। युद्ध-प्रमग, मवादप्रेम, वात्सल्य और करुणरस के प्रसगो का वर्णन आपने बहुत ही कमाल के साथ किया है। रचना अविकाश सस्कृतसमासप्रचुर है। आप अपने तुको के लिए बहुत ही प्रसिद्ध है। ईश्वरस्तुति पर पृथ्वीचन्द में केकावलो' नामक काव्य आपकी म्वतत्र रचना है। पेशवाओ के राज्यकाल के उत्तरकाल में अन्य कई कवि हो गये, जिनमें मे मुख्य-मुख्य नाम है-नारायग कवि दाजीवा जोशीराव, रामचन्द्र बडवे, रघुनाथ पत, कोशे, माहिरोबानाथ ऑविये आदि। इनमे अतिम कवि सिंधिया के दरवार मे थे । वह गोआ की ओर के रहने वाले थे और 'महदनुभवेश्वरी' नामक उनकी रचना रहस्यवादी है। . जवपत-कवियोने कविता कोयात्रिक और इतिवृत्तात्मक बना डाला तब स्वाभाविक रूप से कविता के रचनाकागे में दो वर्ग निर्मित हो गये-एक तो वडे-बडे विद्वान, व्युत्पन्न सस्कृत पडित थे, दूसरी ओर थे जन-कवि । जनता का कवि वोरो की गाथा गाता निपाहियो के मनोरजन के लिए शृगारपूर्ण नाट्यात्मक भावगीत भी लिखता । वह कभी-कभी पडित कवियो की नकल मे तुको का जाल विछाता, दूसरी ओर भाषा की चिंता न करते हुए उर्दू के रग में इश्क की शायरी का जिक्र करता, नाजुकखयाली और वदिश मे उलझता, तो तीसरी ओर महाराष्ट्र की भूमि-गत और जाति-गत रीति-रिवाजो, लोकोक्तियो-वाक्यप्रचारो, रहन-सहन की वैशिष्ट्यपूर्ण पद्धति का हूबहू चित्रण करता। इस कारण ने गाहीर कवियो के वीरश्रीपूर्ण पोवाडे' (आल्हा के ढग पर 'बैलेड्स') जहां एक ओर श्रवणीय है वहां दूसरी ओर उन्ही की शृगार से भरपूर, कभी-कभी तो अश्लील ऐसी 'लावणियाँ' (कजरी, होली जैसे गीत)चित्र-काव्य की सुन्दर प्रतिमाएं है। गाहिरोने मराठा-पेशवा राज्य के उत्तरकाल के रण-रग और रस-रग का ययार्थ प्रतिबिंब कविता मे उतार रक्खाहै, बिना किसी लागलपेट के । ग्राम-गीतो की वह परपराजो पडित कवियो के विद्वत्ता के ग्रीष्मातप में सूखती जा रही थी, उसे शाहिरो ने पुनर्जीवन दिया, पुन हराभरा किया। अवतक उपलब्ध ऐतिहासिक गेय वीर-काव्य 'पोवाडे-३०० है । शिवाकाल से साहू तक के सात पेशवे काल के डेह-मौ और बाकी १८०० ईस्वी के बाद के। उनमें अज्ञानदास' का 'अफजलखा-वव' और तुलसीदास का 'तानाजी मालुसरे' का पोवाडा बहुत प्रसिद्ध है। दोनो शिवाजी-कालीन है। दूसरे कालखड में पानीपत के सग्राम (१८१८ ईस्वी) और खाडी की लड़ाई को लेकर बहुत से पोवाडे हैं। ये गाहीर भाट-चारणो की भाति गुणीजनो के आश्रित थे। उत्तर पेशवाई के जो शाहीर प्रसिद्ध है, उनमे प्रमुख है-रामजोशी (१७५८-१८१२ ईस्वी), कीर्तनकार, अनतफदी (१७४४-१), होनाजी बाला, ग्वाला सगनभाऊ 'तमाशा' वाले (२-१८४०) शिकलगर मुसलमान, प्रभाकर दातार (१७५४-१८४३), परशराम दर्जी। विभिन्न जातियो के ये जन-कवि आधुनिक मराठी Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० प्रेमी-अभिनवन-प्रथ कविता की नीव वनानेवालो में मुख्य है । होनाजी की कविता मे उत्तान शृगार होने पर भी मधुरता खूब है । प्रभाकर की रचनाएँ सस्मरणीय है। आधुनिक काल १८१८ ईस्वी में पानीपत में पेशवा-राज्य का पूर्ण पराभव हुआ और महाराष्ट्र में ब्रिटिश राज्य का सूत्रपात । ब्रिटिशो का पूर्ण परिचय होने से पहिले प्रारभिक सभ्रम, सनातनी विरोध, सुधारवादियो की सपूर्ण प्राग्लानुकरण की वृत्ति, परिपक्व राष्ट्रीय विरोध आदि कई अवस्थानो मे से हमारे और ब्रिटिशो के सवध गुजरे। न केवल ऐतिहासिक दृष्टि से वरन् इस सारी दुखान्त कथा की पूर्वपीठिका समझने की दृष्टि से न० चि० केलकर की 'मराठे आणि इग्रज' पुस्तक बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । प्रारभ में मराठी-भाषी अग्रेजी की ओर झुकने के बजाय एकानेक कारणो से मराठी की ओर झुके थे। १८१० ईस्वी में सीरामपुर में डॉ विलियम करे ने मराठी-अग्रेजी कोष छपाया । उसी समय गणपत कृष्ण जी ने बवई मे प्रथम मुद्रणालय स्थापित किया। १८२० में ववई-प्रात अग्रेजो के हाथो मे पाया। माउट स्टुअर्ट एल्फिन्स्टन बबई के गवर्नर बनाये गये। आपने शिक्षा का प्रसार किया। तनिमित्त ग्रथानुवाद कराये। मोल्सवर्थ, कंडी, जविस आदि अग्रेज और जगन्नाथ शकरशेट, सदाशिव काशिनाथ छत्रे, बालशास्त्री जाभेकर आदि विद्वान उस प्रथोत्पादन-सस्था में कार्य करते थे। व्याकरण, अकगणित, भूमिति, पदार्थविज्ञान आदि विषयो पर विपुल ग्रथरचना की गई। मराठी गद्य का और वैज्ञानिक साहित्य का इस प्रकार से प्रारभ हुआ। १८५६ में बवई विश्वविद्यालय की स्थापना तक यह अरुणोदय (रिनेसाँ) चलता रहा। बवई विश्वविद्यालय की स्थापना से 'निबंधमाला' नामक मासिक के उदय तक (१८५७ से १८७४ ईस्वी) का काल प्राचीन और नवीन के संघर्ष का काल है। एक अोर सस्कृत-ज्ञान-परपरा के शास्त्री-पडितजन, दूसरी ओर अग्रेजी विद्या और वाङ्मय के सपर्क में आये हुए नवीन विद्वान् । १८५६ तक का साहित्य अधिकाश शालेय (स्कूलोपयोगी)था, परतु अव साहित्यिको के मनो मे यह भावना काम करने लगी कि साहित्य का प्रचारात्मक और कलात्मक पक्ष भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। फलत जहाँ परशुरामपत, तात्या गोडवोले ने सस्कृत नाटको के अनुवाद किये थे, उसी परपरा को कृष्णशास्त्री राजवाडे ने आगे चलाया । गत वर्ष जाकर कही हिन्दी में कालिदास के समग्र नाटको के और काव्यप्रकाश जैसे ग्रयो के सस्कृत से हिंदी अनुवाद हिंदी में छपे है। मराठी में यह कार्य पचास वर्ष पूर्व हो चुका था। गणेशशास्त्री लेले ने भी बहुत से अनुवाद सस्कृत और अंग्रेजी से किये । इस काल-खड के सबसे पसिद्ध लेखक है पितापुत्र, कृष्णशास्त्री और विष्णुशास्त्री चिपलूनकर। दोनो के आविर्भाव काल में पच्चीस वर्षों का अतर था, परतु दोनो का आदर्श एक था। कृष्णशास्त्री ने मिशनरियो के विरोध में 'विचार-लहरी' पत्र १८५२ में शुरू किया। डॉ० जान्सन के रासेलस का अनुवाद और 'अनेकविद्यामूलतत्त्वसग्रह' नामक स्फुट लेखों का ग्रथ १८६१ में प्रकाशित किया । मेघदूत और जगन्नाथ पडित के करुणविलास के पद्यानुवाद, सुकरात की जीवनी आदि अन्य कई ग्रथ लिखे। उनका अधूरा कार्य दुगने जोश से उनके सुपुत्र विष्णुशास्त्री ने चलाया । न केवल उन्होने पिता के अधूरे लिखे हुए अरेवियन नाइट्स' (सहस्र-रजनी-चरित्र, अरबोपन्यास)का अनुवाद पूरा किया,अपितु अपनी 'निवधमाला' द्वारा मिशनरियो पर अपना शब्दशस्त्राघात और भी प्रखर रूप से व्यक्त किया। 'आमच्या देशाची स्थिति' नामक निवध सरकार ने जन्त कर लिया था और काग्रेस शासनकाल में उस पर के निबंध उठे। आपही ने प्राचीन ऐतिहासिक साहित्य के प्रकाशनार्थ 'काव्योतिहाससग्रह' नामक मासिक, 'निवधमाला' नामक पत्रिका, 'चित्रशाला' और 'कितावखाना' नामक प्रकाशन सस्थाएँ और तिलक, आगरकर के सहकार्य से 'केसरी' और 'मराठा' नामक मराठी अग्रेजी पत्रो का सूत्रपात किया। निवधमाला के कुल ८४ अक उपलब्ध है, जो कि पूरे विष्णुशास्त्री ने लिखे है । उनके अन्य साहित्य का सुन्दर सकलन Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी साहित्य की कहानी ५२१ और सपादन नागपुर के इतिहासज्ञ श्रौर माहित्य - शिक्षक श्री ० वनहट्टी जी ने 'विष्णुपदी' नामक ग्रथ मे किया है । विष्णुशास्त्री की भाषाशैली प्रोढ, रममय और प्रोजपूर्ण है । प्रतिपक्षी का विरोध करते समय व्यग-परिहास आदि अत्रो का उन्होने बहुतायत मे उपयोग किया है । यह प्रभावशाली लेखक केवल ३२ वर्ष जीवित रहा, परंतु भारतेंदु हरिश्चन्द्र के समान ही वह युगनिर्माता लेखक माना जाता है । अग्रेजो के मपर्क में वैज्ञानिक शोध के विकाम-युग में मुद्रणकला की प्रगति के साथ माहित्य के प्रचारात्मक अग की परिपुष्टि के काल में मराठी साहित्य का प्रवाह अव वेग से आगे वढा । गई अर्वशताब्दी में साहित्य का ऐसा कोई श्रगविशेष नही है, जिनमे उनने पर्याप्त कार्य न किया हो । अव आगे के काल खडमे नामो से न चल कर प्रवृत्तियां के विचार से चलना उपयुक्त होगा, क्योकि नाम तो इतने अधिक है कि नवका उल्लेख करना सभव नही हो सकता । केवल प्रमुख नामों का ही उल्लेख करेंगे । विष्णुशास्त्री चिपलूनकर को युयुत्सु गद्य-शैली को निभाकर आगे पत्रकारिता को परपरा चलाने वालो मे प्रमुख है पत्र 'मुबारक' 'केसरी' 'काल' 'चाबुक' पत्रकार आगरकर वाल गगावर तिलक गि० म० पराजपे अच्युत वलवत कोल्हटकर इन स्वर्गगत पत्रकारो के पश्चात् जीवितो मे प्रमुख हैं । 'नवाकाल' के खाडिलकर, 'ज्ञानप्रकाश' के लिमये, 'चित्रा' के डॉ० ग० य० चिटनीम, 'महाराष्ट्र' के माडखोलकर, लोकमान्य के गाडगिल आदि । आगरकर की मान्यता थी कि राजनैतिक आन्दोलन को गौण स्थान देकर ममाज-सुधार पहिले से हो। तिलक बिलकुल इनसे उलटी बात कहते थे । परिणामत दोनो में बहुत काल तक विवाद रहा। ग्रागरकर दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर थे और फर्ग्युमन कालिज के मम्यापक | आपका लेखन अधिकाश प्रतिपक्षी पर वार करने के हेतु से हुआ, परन्तु हिन्दू समाज की कुरीतियों को दूर करने में आपके लेखो का बहुत बडा हाथ रहा है । तिलक 'गीतारहस्य', 'श्रोरायन', 'ग्राक्टिक होम इन दी वेदाज' नामक ग्रंथो के लेखक के नाते साहित्य में जैसे प्रसिद्ध हैं, भारतीय राष्ट्रीयता मग्राम के एक मेनानी के नाते राजनैतिक क्षेत्र में अविस्मरणीय है । दोनो ने जो परपरा पत्रसाहित्य में चलाई उसके अनुयायी श्राज भी माहित्य में मिल जावेगे और उसमें यह युग तो समाचार-पत्र का साहित्य --युग ही माना जाता है । गभीर गद्य के अन्य क्षेत्रों में, यथा इतिहास सशोधनात्मक, जीवनी, कोश-रचनात्मक, समालोचनात्मक, वैज्ञानिक, राजनैतिक प्रादि मराठी ने तिलकोत्तर काल में पर्याप्त प्रगति की है। यदि जयचन्द्र विद्यालकार और श्रोफा जी को हिंदी साहित्य नहीं भूलेगा तो गो० मा० मर देशाई, पारसनीस, खरे, राजवाडे आदि इतिहास सशोधको का कार्य भी मराठी मे श्रद्वितीय हैं । जीवनी साहित्य भी प्रचुर मात्रा मे समृद्ध है। तिलक की केलकर लिखित जीवनी, धर्मानद कौशावी का निवेदन, कर्वे की श्रात्मकथा, लक्ष्मीबाई तिलक की 'स्मृति चित्रे, दा० न० शिखरे की 'गावी जी की जीवनी' और अभी हाल में प्रकाशित और जन्त शि० ल० करदीकर का 'सावरकर - चरित्र' इम विभाग के ऐसे ग्रन्थ जो किमी भी साहित्य मे गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त करेगे । कोश-साहित्य पर तो एक स्वतंत्र लेख इसी ग्रथ में अन्यत्र है, दिया जा रहा है । साहित्य-ममालोचना मबबी कुछ महत्वपूर्ण आधुनिक ग्रथ निम्न कहे जा सकते है— ६६ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ प्रेमी-अभिनदन- प्रथ प्रथ लेखक १ प्रतिभासा धन - प्रो० ना० सी० फडके २ छन्दो - रचना - डॉ० मा० त्रि० पटवर्धन ३ हास्यविनोदमीमामा -० चिं० केलकर ४ अभिनव काव्यप्रकाश - रा० श्री० जोग ५ सौदर्यशोध व आनदबोध रा० श्री० जोग ६ काव्यचर्चा अनेक लेखक ७ वाड्मयीन महात्मता -- वा० सी० मर्ढेकर ८ कलेची क्षितिज - प्रभाकर पाध्ये & रसविमर्श - डॉ० के० ना० वाटवे १० चरित्र, आत्मचरित्र, टीका-प्रो० जोशी और प्रभाकर माचवे साहित्य के इतिहास मवधी कई ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं, फिर भी कोई एक पुस्तक ऐसी नही, जिसमें मराठी साहित्य का पूर्ण इतिहास सक्षेप में मिल जाय। वैसे मराठी वाङ्मयाचा इतिहास ( ३ भाग ) -ल० रा० पागारकर, अर्वाचीन मराठी - कुलकर्णी, पारसनीस, महाराष्ट्र सारस्वत - वि० ल० भावे, अर्वाचीन मराठी वाङ्मयसेवक --- ग० दे० खानोलकर, मराठी साहित्य समालोचन - वि० ह० सरवटे श्रादि ग्रंथ बहुमूल्य है श्रोर इन्हीं की महायता से यह लेख लिखा गया है । 2 इनके अतिरिक्त मराठी साहित्य में गभीर गद्य के परिपुष्ट अग है राजनीति, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, शिक्षाशास्त्र तथा इतिहास सशोधन सवधी ग्रंथ । इन भवका परिचय इस छोटे से लेख में सभव नहीं । कुछ उल्लेखनी है आधुनिक भारत -जावडेकर, लढाऊ राजकारण - करदीकर, पाकिस्तान --- प्रभाकर पाध्ये, भारतीय समाजशास्त्र — डॉ० केलकर, ग्यानवाचे अर्थशास्त्र - गाडगील अर्थशास्त्र की अनर्थ - शास्त्र -- आचार्य जावडेकर | मनोविज्ञान व शिक्षणशास्त्र पर श्रठवले, मा० घो० कर्वे, वाडेकर, प्रो० फडके, कारखानीस प्रादि के प्रथ बहुत उपयोगी है। इतिहाससंशोधन के क्षेत्र में प्रो० राजवाडे, पारसनीस, डॉ० भाडारकर, काशीनाथ पत, लेने और गोविन्द सखाराम सरदेसाई ये नाम स्वयप्रकाशी है । मराठी के गाधीवादी लेखको का परिचय एक स्वतंत्र विषय होगा। फिर भी उनमें प्रमुख विनोवा, कालेलकर, श्राचार्य भागवत, सानेगुरुजी आदि है । साहित्य के ललित श्रग (काव्य, नाटक, उपन्यास, धारयायिकादि) का विशेष रूप से विकास हुआ है । इनका विस्तारपूर्वक विवेचन यहाँ अनुपयुक्त न होगा । नीचे मराठी के प्राधुनिक साहित्यप्रवाहो तथा प्रमुख लेखको और उनकी रचनाओ (जिनके नाम ब्रैकटो मे दिये जावेगे) का एक विहगम उल्लेख मात्र में कर देना चाहता हूँ, जिससे हिंदी भाषी पाठक मराठी साहित्य की वर्तमान श्री वृद्धि से परिचित हो सकें । १ काव्य प्रथमोत्यान १८१८ ईस्वी तक मराठी कविता जो बहुत उन्नति पर थी धीरे-धीरे उसमें सामाजिक राजनैतिक परिपार्श्व अनुसार पतनोन्मुखता दिखाई देने लगी । शाहीर कवि -- जो कि जनता मे लोकप्रिय 'तमाशे' (एक प्रकार का काव्यपाठ) करते, वे उत्तान शृगार पर लावनियाँ अधिक लिखने लगे । 'पोवाडे' - रचना की प्रवृत्ति भी थी तो केवल श्रतीतोन्मुखी । राजनैतिक दृष्टि से यह बहुत आन्दोलनपूर्ण काल था । अस्थिर जीवन के कारण कविता मे किसी स्थिर प्रवृत्ति के दर्शन कम मिलते हैं । अग्रेजी राज्य की स्थापना के पश्चात् सन् १८८५ से मराठी की आधुनिक कविता का आरभ मान सकते हैं । जैसे उर्दू में हाली या हिंदी में भारतेंदु या गुजराती मे नर्मद, वैसे मराठी में Page #558 --------------------------------------------------------------------------  Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ मे उनकी काव्यात्मक मनोवृत्ति का गहरा अमर है। 'गोविंदाग्रज' के नाम से गडकरी ने कविता लिखी। उसमें वायरन जैसी उत्कट भावुकता, गहरी करुणा और गहरा शृगार मिलता है। 'राजहस माझा निजला', 'गुलावी कोडे', 'मुरली', 'घुवड', 'दसरा', 'कवि अणि कैदी' आदि कई रचनाएँ अविस्मरणीय है । कही-कही ऊँची दार्शनिक उडान, कही प्रकृति का अत्यत सजीव वर्णन और कही मनोभावनायो का सूक्ष्म हृदयस्पर्शी वर्णन आपकी कविताओ में मिलता है । प्रेम निराशाजन्य कड आहट भी कई गीतो में है। अनुप्रासो की बहुत सुन्दर छटा सर्वत्र पाई जाती है। माधुर्यप्रधान मराठी कविता की इस दूसरी धारा के तीसरे अत्यन्त कोमल कवि है अवक वापूजी ठोवरे उर्फ 'बालकवि' (१८६०-१९१८)। आपने प्रकृति-प्रेम को ही अधिक रचनाएं की है। इन्हें मराठी का मुमित्रानदन पत कह सकते है । 'सध्यातारक', 'निर्भर', 'पाऊप', 'फुलराणी', 'श्रावणमास', 'ताराराणो', 'काल अणि प्रेम' ये आपके विषय है । आपसीदर्यवादी है पौरपत जिस प्रकार 'सुदरतर मे सुदरतम' मारी सृष्टि को देखते है, वैसे ही वालकवि भी 'पानदी आनद गडे', 'इकडे तिकडे चोहिकडे', मर्वत्र आनद के दर्शन करते हैं। भारत के विषय मे वे 'देहात में एक रात' कविता में कहते है - __ "हम्मालो का (कुलियो का) यदि कोई राष्ट्र है तो वह हिंदभूमि है । हे मन, यह दैन्य, यह दीर्वल्य देखा नही जाता। हिंदभूमि की व्यथा सहन नहीं होती।" एकनाथ पाडुरग रेदालकर (१८८६-१९२०) मराठी मे मुक्तछद और अतुकान्त रचना के प्रथम प्रवर्तक है । आपकी रचना मे स्वाभाविकता विशेप है। 'रुक्मिणी पत्रिका', 'कृष्णा', 'वसत', 'उजाड मैदान', 'गिधाड' आदि आपको प्रसिद्ध रचनाएँ है । परतु 'प्रसाद' के आंसू की भाति आपकी रचनायो में करुणरस की एक अन्तर्धारा सतत प्रवहमान है। यदि माधुर्य तावे और गोविंदाग्रज मे मिलता है तो प्रसाद गुण बालकवि और रेदालकर मे । वचा हुआ प्रोजगुण वा० विनायक दामोदर सावरकर-जो अपने क्रान्तिकारी राजनैतिक जीवन के कारण भारत विख्यात है-की रचनायो मे मिलता है। मावरकर के कवि को सावरकर का राजनैतिक व्यक्तित्व खा गया और मराठी माहित्य ने एक बहुत अच्छे महाकवि को खो दिया, यह खेद से कहना पडता है। 'रानफुले' और हाल में प्रकाशित उनकी सपूर्ण रचनायो मे-युगातरीचा घोप', 'जगन्नाथचा रथोत्सव', 'माझे मृत्युपत्र', 'सागरा, प्राण तलमलला', 'सप्तपि' आपकी ऐसी रचनाएं है जो विश्व साहित्य में गर्व का स्थान प्राप्त कर सकती है। 'वैनायक' तथा 'कमला' नामक दी खडकाव्य भी आपने लिखे है। आपकी प्रतिभा 'क्लासिक' अथवा 'आभजात्य' लिये हुए है। आप 'महासमर' नामक एक और काव्य लिख रहे थे। वह पता नही, अभी पूरा हुआ या नहीं। प्रथमोत्थान मे जहाँ रूढियो के प्रति अनावश्यक मोह अथवा निर्भयता की अतिरेकपूर्ण वृत्ति प्रदर्शित हो रही थी, द्वितीयोत्यान में अग्रेजी रोमेंटिक कवियो की भाति एक प्रकार की ताज़गी, प्रकृति के प्रति विशेष प्रेम, जातीयता तया स्वदेशभक्ति के दर्शन होते है। तृतीयोत्यान तृतीगोत्यान में मुख्य हाथ पूना की 'रविकिरण मडल' नामक सात कवियो की एक मडली का रहा। उनमे प्रमुख कवि थे और है-डॉ. माधव त्र्यवक पटवर्धन उर्फ 'माधव जूलियन', यशवत दिनकर पेंढारकर उर्फ 'यशवत,' शकर केशव कानिटकर उर्फ 'गिरीश, मायदेव, घाटे आदि। 'माधव जूलियन' फारसी के प्रोफेसर थे और छदशास्त्र पर आपने ववई विश्वविद्यालय से मराठी की पहली डाक्टरेट पाई। फारसी-पद्धति के कई छद आप मराठी में लाये-रुवाई, गजलो की कई किस्में आदि। उमर खय्याम की रुवाइयो का मूल फारसी से ममश्लोकी तथा फिज्जेराल्ड के अग्रेजी अनुवाद से समश्लोकी अनुवाद मराठी में आपने प्रस्तुत किया। 'सुधारक' नामक एक व्यगपूर्ण खडकाव्य, 'विरहतरग' नामक प्रेम-प्रधान खडकाव्य, प्रगीत मुक्तको से भरा'तुटलेले दुवे' नामक दूसरा खडकाव्य केवल 'सुनीतो' में ('सुनीत' अर्थात् अग्रेजी 'सानेट' या चतुर्दशक को मराठी मे रूढ किया हुआ शब्द) Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी साहित्य की कहानी ५२५ 'नफूलालकार' नामक एक व्यग काव्य के अलावा श्रापकी स्फुट कविता 'गलाका' 'गज्जलाजली', 'स्वप्नरजन' तथा उद्बोधन मयुमाधवी' म मगहीत है । आपने उन्मुक्त प्रेम का ममथन, मामाजिक दम का परिस्फोट, राष्ट्रीय कर्तव्यो के प्रति तो दिया ही, गाथ ही अपनी कविता द्वारा मगठी में एक नवीन गली, एक नवीन भापा -मपदा को, प्रचलित किया। रविकिरणमडल में प्रापको मौलिकता मवमे अधिक प्रकाशमान थी। कई कविताओं के रेकार्ड भी बन गये है। यगवत ने भी राष्ट्रीय पोर समाज-सुधार पर की कविताएं लिया। वदीगाला' नामक एक खड-काव्य यरवदा के वच्ची की जेल पर और अपराधी बच्चों पर तया'जयमगला' विल्हण के प्रेमप्रमग को लेकर लिखा। इनके अलावा हाल में बदीदा नरेश के गज्याराहण प्रसग पर 'काव्यकिरीट'खडकाव्य लिखा, जिसमे वे वदीदा के राजकवि नियुक्त हुए। परन्तु उन पड-कायों में उनकी प्रतिभा इतनी नहीं चमक उठनी जितनी कि गीत-काव्यात्मक फुटकर रचनायो मं । 'यगीधन', 'यगवतो', 'यगोनिधि' 'यगोगध', आदि आपके कई मग्रह प्रकागित हुए है, जिनमे से 'आई', 'गुलामाचे गाहाणे', 'नजगणा,''भैनगणी', विगिविगी चाल', 'घर', 'प्रेमाचीदौलत' आदि आपके कई गीत बहुत लारूप्रिय हए है । कुछ रचनाएँ प्रापने ग्रामीण भापा मे की है। बच्चों के मन का भी बहुत सुन्दर चित्रण कई कविनाया में किया गया है, यया 'माल नको गा', 'इदुकना', 'कल्याचा भात' आदि।। रविकिरणमडल के अन्य कवि इतने प्रसिद्ध नहीं हुए। 'गिरीश' (काचनगगा, फलभार, अभागी कमल, श्रावगः, गुधा) अवश्य अपने पड-काव्यों के कारण अधिक सफल कवि माने जाते है । रविकिरणमडल के सभी कवियों ने अधिकाग प्रेम-कविताएँ निमी। म्वतन-प्रेम की प्रगमा उनकी रचनायो में मिली है, परतु जहाँ एक ओर उन्होंने मगठी कविता म नये-नये विषयो पर रचनाएँ करने की ययार्यवादिता बढाई, वहा दूसरी पोर कविता को कुछ नई ढियो में बांध दाला । रविकिरणपरिपाटी मराठी मे भावगीत के रूप मे कई वर्षों तक ऐसी चलती रही कि उसकी प्रतिनिया में एक और माधवानुज, दु० प्रा० तिवारी, टेकाडे, वेहेरे आदि ने प्रोजपूर्ण ऐतिहासिक सग्रामगीत गाना शुरू किये (जो स्पप्टन राष्ट्रीयता प्रचार मे भरे हुए अधिक थे, काव्य उनमें कम था) दूमरी ओर प्रि० प्र० के० प्रये उर्फ केशवकुमार ने अपनी पैरोटियो की प्रथा चलाई,जो 'विडवन काव्य' के नाम से बहुत ही प्रचलित हुई। 'भेंडूची फु' नामक एक अकेले मग्रह ने मराठी कविता में परिहासपूर्णता का वह प्रवाह बहा दिया कि एक दशक के अदर-अदर कविता एकदम उपेक्षित बन गई। अब इघर महायुद्ध के कुछ पूर्व मे कवियो म पुनर्चेतना जाग्रत हुई है। प्रा० रा० देशपाडे 'अनिल' इस नई काव्य-प्रेरणा के प्रधान उन्नायक है। कमुमाग्रज (विशाया), बोरकर (जोग्नमगीत) पु० गि० रेगे, कारे, वसत, वैद्य, वगत चिंघटे, ना. घ. देशपांडे, गजा बढे, गरच्चद्र मुक्तिबोध आदि कई नये कवि आगे आ रहे है, जो कि मराठी के इम अनुर्वर प्रात को मवार रहे है। इनकी उज्ज्वल प्रतिभा का भविप्य अभी अनिर्णीत है। २ नाटक. काव्य मे जुटा हुआ माहित्य का दूसरा प्रधानाग है नाटक । सौभाग्य से मराठी का रगमच बहुत विकसित अवस्था में रहा है। हाल में ही उसका शतमावत्सरिक उत्मय भी महाराष्ट्र में सर्वत्र मनाया गया । इस रगभूमि के विकाम का श्रेय जैमे मफल अभिनेता, रमिक प्रेक्षक और उत्तम गायको को है, वैसे ही उच्च कोटि के नाटककारो को भी है। आधुनिक नाटक का प्रारभ वैसे ही पौगणिक ऐतिहासिक कथावस्तु को लेकर हुआ, जैसे अन्य भापायो में। मन् १८८२ के बाद पच्चीस वर्ष तक मगीत का रगमच पर बहुत विकास होता रहा । अण्णा किर्लोस्कर महाराष्ट्र मे रगभूमि को सर्वाधिक लोकप्रिय करने वाले नट-नाटककार के पश्चात् देवल को यह श्रेय देना चाहिए कि उन्होने नाटको को उनके प्राचीन केंचुल में मे बाहर निकाल कर खुली हवा में सामाजिक प्रश्नो की चर्चा में मलग्न किया। वृद्धविवाह की प्रथा पर 'शारदा' नामक उनका नाटक बहुत ही लोकप्रिय रहा। श्रीपाद कृष्ण कोल्हटकर ने नाटको Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ प्रेमी-अभिनदन-प्रय में साहित्यिकता का सूत्रपात किया । आपके 'भूकनायक', 'प्रेमशोधन', 'मतिविकार' आदि नाटको ने अद्भुत रम्यता (रोमास) की नाटको मे अवतारणा की, परन्तु उनके नाटको मे यथार्थ का निरुपण नहीं था। कृत्रिमता भी बहुत कुछ थी । कृष्णा जी प्रभाकर खाडिलकर ने 'कीचकवध' (जो मरकार द्वारा जब्त किया गया) से 'मेनका' तक अनेक पौराणिक-सामाजिक नाटक रचे, जिनमे 'मानापमान' (१९११ ई०) मवसे अधिक लोकप्रिय हुआ । इतिहास अथवा पुराण की कथा लेकर उसे आधुनिक काल और समस्याओ पर घटित करने की साडिलकर की शैली बहुत ही तीक्ष्ण और प्रभावशाली थी। माधव नारायण जोशी ने मराठी नाटको को मामाजिक यथार्थवाद मिखाया। परिहास के अवगुठन में तीव्र सामाजिक व्यग आपने लिखे, जिनमे सगीत विनोद, मगीत स्थानिक स्वराज्य अथवा म्युनिमिपलिटो और सगोत वहाडचा पाटोल बहुत प्रसिद्ध है। नाटक के क्षेत्र में वैसे तो अनेकानेक प्रयोग हुए । शेक्सपीअर के अनुवादो (बाटिका, झुझारराव) से लगा कर करेल कपैक की 'मदर' (आई) नाटिका और इसन 'डाल्स हाउम' (घरकुल) के अनुवादी तक कई चीजे यूरोपीय रगमच मे मराठी मच ने ली। परतुप्रातीय भाषायोमे से अन्य किमी भाषा के नाटक मराठी में नहीं के बराबर अनुवादित हुए। हिंदी पर जिस प्रकार वगला को छाया स्पष्ट है, (डी० एल० राय को नाटको मे और शरच्चन्द्र चट्टोपाध्यायका उपन्यास में तया रवीद्रनाथ को काव्य मे) मराठी मे वकिम, शरच्चन्द्र के अनुवाद तो हुए, परतु नाटको म कही भी वगाली का प्रभाव नहीं दिखाई देता। महायुद्धोत्तर मराठी नाटक के इतिहास में तीन नामो का उल्लेख प्रमुख रूप से करना होगा। गडकरी, वरेरकर, अत्रे। गडकरी एक प्रकार से हिंदी के 'प्रसाद' थे। दोनो की प्रतिभा का स्वस्प रोमेंटिक था। दोनो की शैली काव्यात्मक थी। अतर था तो इतना ही कि जहाँ 'प्रसाद' ने बौद्व कालीन ऐतिहामिक वातावरण का विशेष प्राश्रय लिया, गडकरी ने सामाजिक प्रसगो की और ममस्याग्रो की ही विशेष विवेचना की। 'प्रेम सन्यास' मे विधवा विवाह का, 'पुण्यप्रभाव' मे सतीत्व के प्रताप का, 'एकच प्याला' में शराव और उसके दुष्परिणाम का चित्र गडकरी ने उपस्थित किया। गडकरी के वाद वैसे तो कई नाटककार हुए, जिन्होने मगठीरगमच को उर्वर बनाया और इसका समस्त श्रेय केवल नाटकलेखको को ही नहीं, अपितु नट, गायक और उस मनोरजन में मक्रिय योग देने वालो जनता को भी दिया जाना चाहिए। फिर भी वाल गवर्व (नारायणराव राजहम नामक अभिनेता को स्व० लोकमान्य तिलक ने इस पदवो से विभूषित किया था) और उनको कपनी द्वारा खेले गये आधुनिक राजनैतिक प्राशय से भरे पौराणिक कयानको वाले नाटको को विशेष श्रेय है। वीर वामनराव जोशी पीर सावरकर, अच्युत वलवत कोल्हटकर और टिपनीम तथा २० अ० शुक्ल आदि के प्रोजस्वी ऐतिहासिक नाटका ने पर्याप्त ग्याति प्राप्त की। इस क्षेत्र में नवयुग उपस्थित करने का समस्त श्रेय भार्गवराम विट्ठल उर्फ मामा वरेरकर को है। आपने इव्सन को शैलो को अपनाकर एक नई नारो-सृष्टि निर्मित को । राष्ट्रीय जागरण मे जो महयोग स्त्रियो से मिला उसका श्रेय मामा को 'सफेजेट' नाटिकायो को है । प्रापन मिल-मजदूरो के प्रश्न, मठो के और वुवागाही (यानी गुरुडम चलानेवाले महन्तो के) प्रश्न, अछूतोद्धार और खद्दर के प्रश्न अपने नाटको द्वारा सुलझाने का प्रयत्न किया। स्पष्टत प्रचार उनके नाटको को आत्मा वन गई। नाटिका (एकाकी) सप्रदाय मराठो में आप ही की प्रेरणा से लोकप्रिय बना। आप समय के साथ प्रगतिशील हुए और अभी हाल में 'मिगापुरातून' नामक नाटक में साम्यवादी विचारसरणि का भी उन्होने पोपण किया है। ____जहाँ सामाजिक प्रश्नो की ओर रोमेटिक और ययार्थवादी दृष्टिकोणो से गडकरी तया वरेरकर ने मराठी रगमच को आकृष्ट किया, अत्रे ने एक विलकुल नये ढग से (जिसे कुछ हद तक बनार्ड शा का ढग कहना चाहिए), प्रश्नो का परिहासात्मक पहल उपस्थित किया। मा० ना० जोशो ने जो 'म्युन्सिपैलिटो' का घोर व्यग-चित्र अपने स्थानिक स्वराज्य मे उपस्थित किया था, उसी को कुछ आगे बढाकर अत्रे ने अपने नाटको मे हास्य (परिस्थितिजन्य, शब्दजन्य तया चरित्रजन्य), अतिरेक, समाजमोमासा, विचार प्रक्षोमन का एक विचित्र 'मिक्स्चर' मराठी मचपर प्रस्तुत किया, जिसे जनता ने वर्षों तक बहुत ही सराहा । 'साष्टाग नमस्कार मे प्रत्येक पात्र एक-एक सन्त Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी साहित्य की कहानी ५२७ (फैड) का पोषक है । उन खन्तो के 'उद्याचा ससार' मे वैवाहिक असतोप के 'लग्नाची वेडी' मे आधुनिक प्रेमविवाह के 'घरावाहेर' मे पुरानी नई गृह-व्यवस्था के संघर्ष के बहुत ही आकर्षक चित्र उपस्थित किये गये है। आचार्य अत्रे ने पैरोडियां लिखकर जो कमाल हासिल किया था, उसमे मचपर अपना 'अतिहसित' प्रदर्शित कर चार चांद लगा दिये। वाद में वे सिनेमा के क्षेत्रो मे उतरे, वहाँ भी चमके, मगर इधर पाकर नाट्यक्षेत्र से जैसे उन्होने सन्यास सा ले लिया है, जो दोनो मराठी नाटक के तथा अत्रे के हक मे ठीक नही हुआ । मराठी रगमच उनसे अभी भी बहुत अपेक्षा कर मकता है । आधुनिकतम प्रयोगो मे वर्तक अनत काणेकर, के० ना० काले का नाट्यमन्वतर-मडल, 'लिटिल थियेटर और इधर लोकनाट्य के जो नये सोवियत-पद्धति के प्रयोग चल रहे हैं, इन सभी सत्प्रयत्लो ने सिनेमा से पराजित रगभूमि को पुनरुज्जीवित और सप्राण बनाने में योग दिया है। नाटक के ही मिलसिले मे 'नाट्य-छटा' का भी उल्लेख गौरव से करना चाहिए, जो मराठी साहित्य की अपनी चीज़ है। स्व. 'दिवाकर' आदि लेखको ने इसे अपनाया । इसमें ‘एकमुखी-भाषण' द्वारा सामाजिक विरोवो को स्पष्ट किया जाता है। एक प्रकार से यह शब्दो में लिखे हुए व्यग-चित्र ही समझिये । यद्यपि इस प्रकार के लेखन का चलन अव कम हो गया है तथापि यह एक अच्छा साहित्य प्रकार है, जो हिंदी को भी अपनाना चाहिए। ३ उपन्यास-आख्यायिका आदि मराठी उपन्यास का जन्म यात्रा-वृतान्तो में मिलता है। मराठी का पहिला उपन्यास 'यमुनापर्यटन' (१८४१ ईस्वी के करीव) यद्यपि नाममात्र को सामाजिक है, तथापि उसकी रचना मनोरजनप्रधान ही अधिक है। अद्भुतरम्यता पर उनका अधिक ध्यान था। १८७० के करीव मराठी मे ऐतिहासिक उपन्यास लिखने की प्रथा चल पडी। फिर भी १८८५ के पश्चात् उल्लेखनीय उपन्यासकार हरिनारायण आप्टे है। हिंदी के प्रेमचद की ही भाति आपने मराठी मध्यवर्गीय जीवन के यथार्थ चित्र अकित किये । आदर्शोन्मुख यथार्थवाद उनका लक्ष्य था। दोनो को ही समाचार-पत्र की सी शैली में खडश लिखना पडा। अत दोनो की शैली में कुछ अनावश्यक लम्बे और उवा देने वाले वर्णन मिलते है । आपकी प्रसिद्ध और ऐतिहामिक एव सामाजिक कादवरियो के नाम हैउप काल, सूर्योदय, सूर्यग्रहण, गडालापण सिंह गेलामी, (यह चारो शिवा जी के राज्यकाल सवधी है) यशवतराव खरे, पण लक्षात कोण घेतो। नारायण हरि आप्टे नामक एक दूसरे उपन्यासकार ने भी इस युग में ऐसी उपन्यास आख्यायिकाएँ लिखी, जो कि आप्टे की शैली की अनुकृति पर कौटुबिक जीवन से मवधित थी, किन्तु कम लोकप्रिय हुई। उपन्यास के क्षेत्र मे दूसरा युग वामनमल्हार जोशी से प्रारम्भ होता है। आपने तीन-चार ही उपन्यास लिखे है, परन्तु सभी विचारप्रक्षोभक है। रागिणी, नलिनी, आश्रम-हरिणी, सुशीलेचा देव, इन्दुकाले और सरला भोले ये उनके मुख्य उपन्यास है। सव मे किसी दार्शनिक या नीतिशास्त्रीय समस्या की विवेचना प्रमुख है। डॉ. केतकर ने अपने उपन्यासो में समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण को प्राधान्य दिया और दोनो को ही मराठी के सामाजिक उपन्यास को विचार-क्षेत्र में आगे बढाने का श्रेय है । ऐतिहासिक उपन्यास इस काल मे भी नाथमाधव और हडप ने शिवाजी काल और पेशवाई को लेकर बहुत से लिखे और वे वहुत लोकप्रिय भी हुए। राखालदास बनर्जी के 'शशाक', 'करुणा', 'अग्निवर्षा' आदि के अनुवाद इसी काल मे हुए। श्री० शहा ने सम्राट अशोक और छत्रसाल नामक दो प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास प्रकाशित किये, जिनका अनुवाद हिन्दी में प्रेमी जी ने प्रकाशित किया है। अव उपन्यास केवल प्रागे घटना-प्रधान या विचार-प्रधान न रह कर जन-जन के जीवन की आकाक्षायो और स्वप्नो का प्रतिनिधि वन गया। आगे जिन पाँच उपन्यासकारो का विस्तारपूर्वक विचार होगा, वे इसी प्रकार के लोकप्रिय और साहित्य के नवोत्थान के प्रतिनिधि उपन्यास लेखक है ना० सी० फडके, वि०म० खाडेकर, पु० य० देशपाडे, ग० Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनवन-ग्रंथ ५२८ so माडखोलकर, विभावरी शिरूरकर फडके उच्चवर्ग के पात्रो को चुनते हैं । उनके प्रारम्भिक उपन्यास अधिका रोमेटिक है। प्रेम का त्रिकोण विभिन्न रूपो में व्यक्त हुआ है । परन्तु वर्णन की शैली बहुत सजीव और ययार्थवादी होने के कारण और भाषा का प्रवाह बहुत ऋज् और प्रसन्न होने से - जादूगर, दौलत, अटकेपार आदि उनके आरम्भिक उपन्यास बहुत ही जनप्रिय बने । 'निरजन' से आगे 'शाकुन्तल' तक फडके ने अपने सामाजिक उपन्यामो की पार्श्वभूमि के रूप में राजनैतिक आन्दोलनो और पक्षो की मतावलियो को लिया, यया 'निरजन' और 'आशा' मे सन् ३० का सत्यागह, 'प्रतिज्ञा' मे राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ और हिन्दुत्वनिष्ठ राजकारण, 'समरभूमि' और 'उद्धार' में समाजवाद और नाम्यवाद, शाकुन्तल मे ४२ का आन्दोलन, 'माभावमं' में हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य को समस्या । प्रगतिशील माहित्य के सम्बन्ध में आचार्य जावडकर से जो उनका लेखरूप लम्वा विवाद हुआ है, उसमें वे 'कला के लिए कला' वाले अपने पुराने उसूल से कुछ वदले हुए जान पडते हैं। फिर भी श्रानन्द- प्राधान्य उनकी रचनाओ में मिलता है। इनसे विलकुल उलटे वि० स० खाडेकर 'जीवन के लिए कला' मान कर चले । 'हृदयाची हाक', 'काचनमृग', 'दोन ध्रुव' तक उनकी रचनाओ मे कोकण की प्राकृतिक पार्श्वभूमि पर काव्यमयी भाषा-दौली में कृनिम कथानक - रचना मिलती है । परन्तु 'दोन ध्रुव' के वाद 'उल्का' (जो उनको सर्वश्रेष्ठ कृति है), 'हिसा चाफा', 'दोनगने', 'रिकामा देव्हारा', 'चव' तक उनकी शैली सहजरम्यता ग्रहण करती जाती हैं श्रीर गाधीवाद तथा समाजवाद के मनोहर मिश्रण का श्रादर्श उनके उपन्यासो मे स्थल-स्थल पर व्यक्त हुआ है । माडखोलकर ने 'मुक्तात्मा' ने प्रारम्भ कर प्रगतिशील उपन्यासकारो मे अपना कदम रखा। तब से उनके नवीनतम उपन्यास 'डाकवगला' थोर 'चदनवाडी' तक वे रोमाम और राजनीति का ऐसा मजेदार मिलन अपने उपन्यासो मे उपस्थित करते रहे हैं कि कही आलोचको ने उनको 'दुहेरी जीवन', 'नागकन्या' आदि रचनाओ को अश्लील कहा है तो कही 'काता', 'मुखवटे' आदि को डा० सरे के पदत्याग प्रकरण पर लिखी प्रचारात्मक चीज़े । उनको 'नवेससार' और 'प्रमद्वरा' ('४२ के प्रान्दोलन पर लिखी दीर्घकथा) सरकार द्वारा जब्त किये गये दो उपन्यास है। आरम्भ से ही क्रातिकारी नायको भौर क्रातिकारी प्रान्दोलनो का बहुत निकटतम चित्रण करते रहने के कारण उनकी शैली में सुन्दर भावोत्कटता है, यद्यपि वर्णन कही कही यथार्थ से प्रति यथार्थ पर उतर आते हैं । पु० य० देशपाडे माडखोलकर की ही भाँति नागपुर के है, परन्तु उनकी रचनाओं में मार्वजनीनता अधिक है । 'बवनाच्या पलीकडे' नामक उनके विद्रोही उपन्यास ने एक समय महाराष्ट्र में खलबली मचा दी थी । उत्तरोत्तर उनकी कला 'सुकलेल फूल' और 'सदाफुली' में बहुत ही विकसित होती गई । यद्यपि 'विशालजीवन', 'काली रानी' और 'नवे जग' मे कुछ दुरुहता उनकी शैली में श्रा गई है और पहले का सा हलका फुलकापन जाकर वह भारी हो गई है, परन्तु मनोवैज्ञानिक विश्लेषण- सूक्ष्मता - क्षमता भी उतनी ही बढती चली गई हैं। देशपाडे इस वात के दिशा दर्शक है कि मराठी उपन्यास अव एक नई दिशा की ओर जा रहा है । वह खाडेकर के मानवतावाद और फडके - माडखोलकर के फैशनेबुल राजनैतिक उपन्यासो से अधिक गम्भीर वैचारिक क्षितिज की ओर वढ रहा है । जो कमाल पश्चिम मे काफ्का (पोलड का प्रतीकवादी उपन्यासकार ) या अल्डस हक्स्ले, लारेस या वूल्फ ने कर दिखाया वह धीरे-धीरे पु० य० देशपाडे मराठी में प्रतिष्ठित करना चाह रहे हैं। इस दृष्टि से, विभावरी शिरूरकर नामक उपनाम के बुर्के में छिपी, परन्तु आठ-दस वर्ष पूर्व मराठी कथाक्षेत्र में स्त्री का दृष्टिकोण बहुत स्पष्टता और बुलदगी से व्यक्त करने वाली महिला के दो उपन्यास 'हिन्दोल्यावर', और 'विरलेले स्वप्न' उल्लेखनीय है। टूटती हुई कुटुम्व व्यवस्था के वे बहुत अच्छे चित्र है । यहाँ अधिक विस्तार से उपन्यास पर लिखा नही जा सकता, परन्तु इस दिशा में मामा वरेरकर, गीता साने और कृष्णावाई मोटे द्वारा चित्रित की हुई नई नारी, विद्रोही नायिका का चित्र भुलाया नही जा सकता । साने गुरु जी ने बच्चो के विकासशील मन पर 'श्याम', 'श्यामूकी माँ', भारतीय संस्कृति सम्बन्धी 'श्रास्तिक' और 'क्राति', 'पुनजन्म' आदि राष्ट्रीयता - प्रचारक बहुत लोकप्रिय उपन्यास लिखे है । श्री० दिघे ने महाराष्ट्र के ग्रामजीवन के सुन्दर चित्र 'पाणकला' और 'सराई' मे उपस्थित किये है । मर्ढेकर, माघवमनोहर, रघुवीर मामत और श० वा० शास्त्री Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी साहित्य की कहानी ५२९ ने इस दिशा में बहुत अच्छे मनोवैज्ञानिक उपन्यासो के प्रयोग किये है। यह विभाग मराठी के आधुनिक साहित्य में सर्वाधिक परिपुष्ट है। इस सम्बन्ध मे विस्तारपूर्वक चर्चा मैने 'हस' (१९३५) मे 'तीन मराठी उपन्यासकार' और 'साहित्य-सन्देश' के उपन्यास-विशेषाक में 'मराठी के राजनैतिक उपन्यास' तथा 'औपन्यासिक मनोवैज्ञानिकता के प्रथम लेखाक मे की है। आख्यायिका के क्षेत्र में पूर्वोक्त सभी उपन्यासकारो ने (पु० य० देशपाडे का अपवाद छोड कर) अपनी लेखनी सफलतापूर्वक चलाई है। इस क्षेत्र में अगणित लेखक आधुनिक काल मे प्रसिद्ध है। फिर भी कुछ प्रमुख लघुकथा-लेखको के नाम यहाँ देना अनुचित न होगा वि० सी० गुर्जर, दिवाकर कृष्ण, प्र० श्री० कोल्हटकर, कुमार रघुवीर, वोकोल, दोडकर, लक्ष्मणराव सर देसाई, मुक्तावाई लेले, य० गो. जोशी, वामन चोरघडे, ठोकल, अनन्त काणेकर शामराव प्रोक आदि । आख्यायिका के विषय और तत्र (टेकनीक) में भी पर्याप्त सुधार और प्रगति होती गई। वि० स० खाडेकर ने 'रूपक-कथा' नामक खलील जिब्रान और ईसप के दृष्टान्तो जैसी काव्यमयी छोटी-छोटी कथाएँ बहु-प्रचलित की। उसी प्रकार से लघुतम कथाएं भी बहुत सी लिखी गई, जिनमें व्यग को प्रधानता दी गई है। चरित्रप्रवान, वातावरणप्रधान कहानियाँ घटनाप्रधान कहानियो से अधिक प्रचलित है। छोटी-छोटी कहानियां, जिनमें मोपासा की भाँति मानव-प्रकृति के कुछ वणित स्थलो का अकन हो या प्रो० हेनरी की भांति सहसापरिवर्ती अन्त से कोई चमत्कार घटित हो, या रूसो कथाकारो की भाँति वास्तविक जीवन की विषमता का कट-कठोर चित्रण हो-मराठी में अधिक प्रचलित है। इस सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए सरस्वती-प्रेस से प्रकाशित गल्पससारमाला के मराठीविभाग की भूमिका पठनीय है। यहां तक सक्षेप मे मैने ढाई करोड मराठी-भाषियो के साहित्य के विकास और विस्तार की गत पाँच-छ शताब्दियो की कहानी प्रस्तुत की है । मेरा उद्देश्य मुख्यत मराठी न जानने वालो को मराठी साहित्य की बहुविध प्रगति से परिचित कराना मात्र है। अत कई स्थलो पर अधिक सूक्ष्म विवरण चाह कर भी नहीं दे पाया। स्थलमर्यादा का ध्यान रखने से मोटी-मोटो रेखामो मे स्थूल चित्र से ही सन्तोप मान लिया है। नागरी-प्रचारिणी सभा के अर्द्ध-शताब्दी महोत्सव के प्रसग पर गत पचास वर्षों का मराठी साहित्य का विस्तारपूर्वक इतिहास मैने सभा की आज्ञा से लिखा था। वह अभी अप्रकाशित रूप मे सभा के पास है । यदि अवसर मिला तो हिन्दी, वगला, गुजराती और मराठी साहित्य का तुलनात्मक इतिहास पुस्तक रूप मे हिन्दी-भाषियो के लिए लिखने की मेरी इच्छा है। उज्जैन ] Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी में जैन-साहित्य और साहित्यिक श्री रावजी नेमचद शहा १-आदि तीर्थकर का आदिधर्म जैनधर्म सवसे उपेक्षित धर्म है। जैनदर्शन, सस्कृति और इतिहास के सम्बन्ध में भयानक गलतफहमियां जनता में फैली हुई है। प्रख्यात विद्वान तक इस धर्म के सम्बन्ध में कई प्रकार के कुतकं करते दिखाई देते है। भगवज्जिनसेनकृत महापुराण मे-"युगादिपुरुष प्रोक्ता युगादी प्रभविष्णव" जो है ऐमे वृषभदेव महाप्रतापी और महाप्रज्ञावान हुए है, ऐसा उल्लेख है। सर्वज्ञता जिससे प्राप्त हो ऐमा सन्मार्ग-रत्नत्रयपय बतलाने वाले वीतरागो आद्य धर्मोपदेष्य ऋषभ तीर्थकर ने तत्कालीन और वाद की जनता को सुमम्कृत जीवनपद्धति और जीवनदृष्टिकोण बताया। इसीमे 'प्रादिसुविधकार', 'अर्हत', 'आदिब्रह्म' आदि मार्थक नामाभिधानो मे कवीद्र ने उनकी स्तुति की है। मोहेनजोदडो में प्राप्त पांच हजार वर्ष पूर्व के अवदोपो में ऋषभ तीर्थकर के कायोत्सर्ग अवस्था की नग्न मूर्तियां गिल्पित मिली है। उनपर ऋषभ के बोधचिह्न भी है । ग० व० गमप्रसाद चन्दा के अनुसार ये मूर्तियां ऋषभतीर्थकरो की ही है । औद्योगिक युग के बुद्धिप्रधान आचारादि धर्म का प्रारम्भ इमी प्रथम तीर्थकर ने किया। इमो कारण इस कालखड को 'कृतयुग' नाम से पुकारा जाता है। विद्यावारिधि वै० चपतराय जी का कथन है-"जैन कालगणना की दृष्टि ने ऋषभ प्राचीनो मे प्राचीनतम है। किमी भी धर्म को व्यवस्थित रूप प्राप्त होने से भी पहले के काल में वे हो गये।" न्यायमूर्ति रागणेकर ने ऋषभदेव को प्राचीनता के सम्बन्ध में कहा है-"ब्राह्मणवर्म-वैदिकमत-अस्तित्व मे आने से पूर्व जैनधर्म प्रचलित था, यह आजकल के ऐतिह्य सशोधन से निश्चित होता है। जैन प्रथम हिन्दुधर्मी थे। बाद में उन्होने उस धर्म को ग्रहण किया, यह कथन भ्रमपूर्ण है।" मथुरा के पहाडो मे ऋषभमूर्ति, गुजरात, काठियावाड, मारवाड आदि प्रान्तो के मन्दिरो मे प्राचीन काल को मूर्तियां और उन पर खुदे प्राचीन लेखो से उमी प्रकार जन-अर्जन वाड़मय के लेखन में भी इस धर्म की प्राचीनता निष्पक्ष सत्यभक्त सशोधको को जॅची है। सैकडो विश्वसनीय प्रमाणो मे ऋषभदेव ही जैनधर्म के इस काल के प्रथम सस्थापक थे, ऐसा दिखाई देता है। नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और अन्तिम चौवीसवे महावीर आदि ने आदितीर्थकर ऋषभप्रणीत जिनधर्म का ही प्रसार किया। २-जैनदर्शन की विशेषताएँ विश्व के विभिन्न राष्ट्रो और समाजो को सस्कृतियां ज्ञानोपासना तथा ज्ञानसवर्धन की कसौटी पर ही परखी जाती है, यह निर्विवाद सत्य है । उस कसौटी पर कसने से वुद्धि-प्रधान जैनदर्शन हमें वैज्ञानिक जान पडता है । पूर्व मूरियो ने आत्मानात्मविचार-जीव-अजीव सृष्टि का ऐसा गहरा तर्कपूर्ण विवेचन किया है कि आज के वैज्ञानिक मशोधन की कसौटी पर भी वह पूर्णत खरा उतरता है। परमात्मपदप्राप्ति ही मानव का उच्चतम अन्तिम साध्य है । यदि आत्मा बहिरात्मावृत्ति छोड कर अन्तरात्मा का ज्ञान प्राप्त करें तो इस साध्य को उपलब्ध कर सकता है । डॉ० प० ल० वैद्य के शब्दो मे-"हेय, उपाय और उपेय इन तीन प्रकारो से प्रात्मस्वरूप का विवेचन पूज्यपाद के समाधिशतक में जितनी सुन्दरता से हुआ है उतना गायद ही अन्यत्र मिल सके। डॉ० एस० के० दे तथा प० नाथूराम Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी में जैन-साहित्य और साहित्यिक ५३१ सहा जी प्रेमी ने भी यही अभिप्राय भिन्न शब्दो में व्यक्त किया है। प्रबुद्धात्मा ही मर्वनता प्राप्त कर सकती है। सर्वज्ञता में अधिक श्रेष्ठ, मगलदायक और प्रानन्द पद पर दूसरी कौन सी वस्तु है ? इमी मर्वनता के कारण तुष्टि, पुष्टि तया गान्ति का लाभ सव कर सकते है। इस पृथ्वी पर दैवी सम्पदा का साम्राज्य अवतरित होकर, उच्चतम ज्ञानानन्द तया कनाविलास में निमग्न होकर अली किक अनिर्वचनीय मात्त्विक आनन्द में मव महभागी हो सकेंगे। इस कारण जान की महत्ता का जैनदानिको ने मुक्तकठ मे वर्णन किया है। जो पात्मतत्त्व 'वोधरूपम्' है वही आनन्ददायक है, वही जानमय और मोक्षदायक भी है। ऐसे म्वाभाविक नानम्वभाव मे तन्मय होना ही परमात्मपद है। अमितगनि प्राचार्य कहते है-"जान विना नास्त्यहितानिवृत्ति स्तत प्रवृत्तिर्न हिते जनानाम्।" ज्ञान की महत्ता का वर्णन करने वाले जानार्णव जैसे मैकडो ग्रन्य जैन मुनियो ने लिखे है। आत्मा को अमरता भी विवंकवादीके दृष्टिकोण मे न्यायशास्त्र के अनुमार जैनाचार्यों ने अपने मिद्धान्त तथा पौगणिक ग्रन्यो में मप्रमाण मिद्ध की है। सम्पूर्ण प्राणीमात्र का कल्याण करना ही जैनधर्म है और उमीके लिए तीर्थकरी ने तथा आचार्यों ने अपना जीवन बिताया। उन्होने आत्मतत्त्व पहचान कर उममे तन्मय होने का नया श्रेय-अभ्युदय के मार्ग मे मोक्ष की ओर जाने का उपदेश दिया। जैनधर्म को मवमे वडी विगेपता है चारो पुरुषार्थो की मिद्वि। इस सिद्धि का उपाय मनुष्यो के हाथ में है। अपनी दुष्कृति का, क्रियाशून्यता का फल म्बय हमे ही भोगना चाहिए। उमका दोप भी पूर्णतय हमें ही है । भगवन्त पर या भाग्य पर दोप मढना जैनवर्म मम्मत नहीं। पूजा की मिथ्या टीमटाम इस धर्म ने नहीं रची। नदी, वरगद, तुलमी, नाग आदि की पूजा करना धर्म का परिहार करना है। यह सब मिथ्यापूजा है-यही इस उदारधर्म ने प्रतिपादित किया। मानताएँ लेना म्वार्यपूर्ण तया निर्वाध व्यक्तियो का मार्ग है, यही इस धर्म ने सिद्ध किया। भाग्य को कोसने की वृत्ति दुर्बलता को द्योतक है। इममे पात्मवल तो नही वढना, उलटे पालस्यादि दुर्गुणो को महत्त्व मिलता है-यही उपदेश इम धर्म ने किया है। इस धर्म मे सृष्टिकर्तृत्व ईश्वर को नहीं दिया गया। इसी कारण ईश्वर को दगा अनुकम्पनीय और हास्यास्पद नहीं हुई और उसकी सर्वशक्तिमत्ता अबाधित रही। जैनधर्म का प्रमुख सिद्धान्न है-अनेकात । प्रो० मन जैकोबी के अनुसार-"The Jainas believe the ar to be the key to the solution of all metaphysical questions” अर्यात-"जनो का विश्वास है कि म्यादाद ममम्त आध्यात्मिक प्रग्नी के समाधान की कुजी है।" महान वनानिक आइन्स्टाइन का मापेक्षतावाद इसी म्याद्वाद की भांति है। डॉ० भाडारकर जैसे विख्यात पडित ने आक्षेप किया है कि शकराचार्य ने म्याद्वाद पूरी तरह न समझ कर उसकी आलोचना की। “Ahimsa is the fulfilment of life Killing the least is living the best" अर्थात्-"अहिंमा जीवन की परिपूर्णता है । जो जितनी कम हिमा करेगा, उसका जीवन उतना ही उत्कृष्ट होगा।" इन दो सूत्रो मे अहिंमा की श्रेष्ठना मिद्ध होती है। अहिंसा मे अमाप धैर्य उत्पन्न हो सकता है। जिसमें त्याग, धैर्य, पगक्रम, मयम ये गुण हो, वही सच्चा महावीर है। जैनमस्कृति ने ऐमे वीर और वीरागनाएँ उत्पन्न की हैं। सत्यक्षमा प्रादि दश वर्मों का विवेचन मद्भावनापोपक है। वह मनुप्यता निर्मित करने वाला है। कर्ममिद्धात सम्बन्धी जो विवेचन जैनागमो में मिलता है, वह किसी भी सत्यभक्त को जॅचेगा ही। मम्पत्ति के असमान वॅटवारे के विरोध म परिग्रह प्रमाण का मन्त्र बता कर एक अोर टॉल्स्टॉयमत और दूसरी ओर ममाजमत्तावाद के सारतत्त्वो को इस वर्म में कुछ अगो में मान्यता दी गई है। . ३-प्राचीन जैन-साहित्य डॉ० ५० ल० वैद्य के कथनानुसार-"प्राचीन जैन साहित्य गुणसभार तथा मख्या समृद्धि की दृष्टि मे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जैनधर्म-सस्कृति तथा जागतिक ज्ञानवृद्धि के हेतु से इस प्राचीन साहित्य का प्रकाशन कर उसे मवके Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ लिये उपलब्ध करा देना आवश्यक है।" इसी प्रकार के विधान अन्य प्राच्य-पाश्चात्य सशोधको ने किये है। प्रो० हीरालाल कापडिया ने जैन ग्रन्य-सूची के वारह भाग सम्पादित किये है। उसी प्रकार प्रो० वेलणकर ने 'जिन रत्नकोश' के दो भाग, लगभग सवा सौ स्थान के जैन-प्रय भाडारादि तथा जन-प्रजन पडितो की सहायता मे १९४४ ईस्वो मे प्रकाशित किये। ज्ञान-विज्ञान के प्रत्येक विभाग में-दर्शन, न्याय, व्याकरण, काव्य, वैद्यक, ज्योतिप, खगोल, भूगोल, नाटक, चम्मू, साहित्य, भौतिकविज्ञान आदि विपयो पर जनमाहित्यिको के सहस्रविध गन्य मिलते है। ये सव रचनाए महावीरोत्तर काल की है। जैनो के अन्तिम तीर्थकर को निर्वागप्राप्ति के पश्चात् मानवो-बुद्धि को धारणाशक्ति दिन-ब-दिन कम होती गई। महावीर के प्रमुख शिप्य गौतमगणधर ने अगपूर्व ग्रन्य को रचना की। उन्होने वह श्रुत-पागम सुधर्मम्वामी को सिखाया । यही मुधर्मस्वामी ग्यारह ग्रन्यो के रचयिता है। उनके पश्चात् अगपाठो मुनि हो गये। वोर निर्गणकाल के पश्चात् करीव मात सौ वरस तक वाग्परम्परा और पाठान्तर से ही यह श्रुतज्ञान चिरस्थायी किया गया। इसके पश्चात् लेखनकला का उदय हुआ। गुरुपरम्परा से श्रवण किये हुए और मुसोद्गत धर्मशास्त्र महाकवियो ने पहले ताम्रपट, फिर भूजपत्र, ताडपत्र आदि पर, अन्त मे कई गतियो के बाद कागज पर लिखना प्रारम्भ किया। श्री भूतवलि मुनि ने प्रथम पट्खडशास्त्री की रचना की। यह रचना ज्येष्ठ शुक्ल पचमी को लिपिवद्ध की। तभी से इस शास्त्र की अवतारणा हुई। उसी दिन के उपलक्ष मे अभी भी श्रुत पचमी नामक ज्ञानोत्सव मनाया जाता है। उसके उपरान्त के काल खड मे जनसाहित्य-पागम, दर्शन, काव्य, कथा आदि कुन्दकुन्दाचार्य, उमास्वामी, ममन्तभद्र, अमृतचन्द्रसूरि, जिनमेन, गुणभद्र, पूज्यपाद, भट्ट अकलक से लगा कर पडित तोडरमल, पागाधर, गोपालदास तथा नाथूराम प्रेमी तक के सभी जनमाहित्य धुरन्वरो ने रचा है। उपर्युक्त तालिका दिगम्बरपन्योय लेखको की है। श्वेताम्बरियो मे भी म्यूलभद्र, कलिकालसर्वज्ञ, हेमचन्द्र, आत्माराम, शतावधानी महात्मा गयचन्द्र आदि दिग्गज वाग्वीरो ने चिरतन स्वरूप का अनमोल माहित्य रचा है। ४-मराठी में जैन-साहित्य श्रवणवेलगुल के गोम्मटश्वर की-बाहुबलि कीजगद्विग्न्यात मूर्ति के चरणकमलो के एक अोर शिल्पित जो प्रसिद्ध शिलालेख है, वह मराठो का आद्य शिलालेख है । इस विशाल मूर्ति की ऊँचाई ५७ फीट है। ऐसा शिल्पकार्य भारतवर्ष मे अन्यत्र नहीं मिलेगा। नागरी शिलालेख के पहले लेख मे-'थी चामुडराजे करवियले' (अर्थात् श्री चामुडराज द्वारा बनाया गया) यही अक्षर है । इनमे केवल श्री ही दो फीट ऊंची है। लेख की ऊँचाई मूर्ति की ऊंचाई के अनुसार ही है । नागरी लिपि के दूसरे मराठी लेख मे-"श्री गगराजे सुत्ताले" (अर्थात् श्री गगराज ने इस मूर्ति का कटघरा बनाया) ऐसा उल्लेख है। इन मूर्ति की प्रतिष्ठापना का और चामुडराय के शिलालेख का काल ९८३ ईस्वी है । वोरमार्तड चामुडराज तथा गगराज जैनधर्म के वडे प्रवर्तक तथा प्रभावक हो गये। इसी के नीचे द्वाविडी शिलालेख में इसी प्रागय का लेख कन्नड तथा तमिल भापा में भी खोदा गया है। __ मराठी के जनसाहित्यिको मे प्रथम वाल ब्रह्मचारी हिराचन्द अमोलिक फलटणकर नामक साधुवर्य का गौरवपूर्ण उल्लेख करना चाहिए। उन्ही के साथ ब्रह्मचारो महतिसागर तथा कवीन्द्रसेवक इन दो त्यागियो का उल्लेख करना पडता है। हिराचन्द जैनो के आद्यपुराणकार है। आपका 'जन रामायण' नामक काव्यग्रन्थ प्रसादपूर्ण है । वह आवालवृद्ध में लोकप्रिय है। इस प्रतिभासम्पन्न पडित ने 'नलचरित्र' भी लिखा है। इसके सिवा अन्य फुटकर पद्यरचना द्वारा जैनियो की अन्धश्रद्धा तथा मूर्खताएं नष्ट की है। तत्कालीन जैन समाज मे कुरूढियो का बोलवाला था। हिराबुवा ने अपनी पूरी प्रायु उन्हें दूर करने मे तथा सम्यग्ज्ञान का साहित्य द्वारा तथा प्रवचन द्वारा प्रचार करने में विताई। उनके समन ग्रन्थो के तथा रामायणादि ग्रन्यो के पुनर्मुद्रण की आवश्यकता है। व० महतिसागर के अभग उपदेशपूर्ण है। उनमे व्यावहारिक दृष्टान्त, उपमा इत्यादि होने से वे अत्यन्त Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी में जैन साहित्य और साहित्यिक ५३३ प्रभावपूर्ण और मनोरंजक जान पडते है । यह अभग और महतिसागर का चरित श्री सखाराम नेमचंद ने प्रकाशित किया है । 1 व वीसवी सदी के आद्य जैन साहित्योद्धारक दानवीर हीराचन्द नेमचन्द के ग्रन्थो की चर्चा की जाती है । आपने जैनमाहित्य का मराठी तथा हिन्दी भाषा में प्रसार करने के लिए १८८५ ईस्वी में 'जैनवोधक' नामक मासिक चलाया। उनके द्वारा जैनागमो का मराठी में सुवोध अनुवाद कर जैनधर्म का प्रसार किया जाय, ऐसा भी सचालको का हेतु था । धार्मिक ग्रन्थ छापने का विरोध कर तत्कालीन जैनपडितो ने जैनमाहित्य की बड़ी हानि की है। इस विरोव की परवा न कर, बम्बई के प्रसिद्ध सेठ माणिकचन्द पानाचन्द तथा हीराचन्द नेमचन्द ने जो वैचारिक सुधार किया, उसी का फल यह है कि मराठी तथा विभिन्न प्रान्तीय भाषाओ मे जैनसाहित्य विशाल परिमाण में प्रकाशित हो रहा है । हिराचन्द ने समन्तभद्राचार्यकृत 'रत्नकरडश्रावकाचार' का मराठी में सुवोव यथातथ्य अनुवाद किया । इसमें १५० श्लोक है । उन पर प० सदासुखदास की हिन्दी विवेचनात्मक टीका भी है । इसीमे श्रावकाचार भी दिये है । इस ग्रथ को जैनियो में बहुत मान्यता दी जाती है । इस ग्रंथ से धर्म तथा नीतिशास्त्र के मुख्य-मुख्य तत्त्वो का ज्ञान होकर सद्भावनाओ का सचार होता है । श्राचार्य के श्रावकाचार का अनुवाद मराठी में कर उन्होने मराठी-कवियो पर बडा उपकार किया । 'पोडशकारणभावना' नामक अनुवाद भी उपदेशयुक्त बना है। इसके सिवा पार्श्वनाथचरित्र तथा महावीरचरित्र नामक दो छोटे-छोटे चरित्र भी लिखे है । उनमें तत्कालीन तीर्थकरो की पूर्वभवावलि दी है । उमी से पुनर्जन्म, आत्मा की श्रमरता यादि के सम्वन्ध में सदेह दूर होते है । यह चरित्र सगोधनात्मक, अद्यतन जानकारी का ग्रन्वेषण कर नवीन पद्धति से तथा स्वतन्त्र रीति से सागोपाग अध्ययन के उपरान्त लिखे गये होते तो अधिक उत्तम होता । 'भट्टारक चर्चा' नामक निवन्ध म जैनजगद्गुरु भट्टारक निरिच्छ तथा विद्वान हो यह आगम-सम्मत होने पर आजकल के बहुत मे भट्टारक लोभीवृत्ति के स्वार्थ से लिप्त हो है - प्रत उन्हें धर्मगुरु न माना जाय इस प्रकार का प्रतिपादन किया गया है। 'पात्रदान तथा नवविधाभक्ति' नामक लघुनिबन्ध भी उन्होने लिखा है । वे तेरापन्यी थे । 'क्या वेश्यानृत्य मे तेरापन्थी मे वाधा होगी ?" नामक निबन्ध में अपने अनुभव और विचारो का सार ग्रथित किया है । 'अहिंसा परमोधर्म' नामक निवन्व तथा अन्य धर्मग्रन्थ भी उन्होने मराठी के ही समान हिन्दी तथा गुजराती में अनूदित कर प्रकाशित किये । उनके 'जैनकथासग्रह' ( १९०७ ईस्वी) मे २४ पौराणिक कथाएँ है । यह ग्रन्थ विश्व के कथासाहित्य में स्थान पा सकता है । जैनकथामाहित्य कितना ऊँचा है, इस सम्बन्ध मे डॉ० जान हर्टले जैसे जर्मन सगोधक कहते है - " सर्वमुगम, स्वाभाविक तथा चित्ताकर्षक पद्धति से कथानिवेदन करने का गुण जैनग्रन्यकारो में मुख्यत प्राप्त होता है ।" सेठ जी ने जैनकथाओ का अनुवाद लालित्यपूर्ण रीति से किया है । 'जैनधर्म-परिचय' नामक सन् १९०१ में दिया हुआ व्याख्यान पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हुआ है, जिसकी हिन्दी, गुजराती, श्रग्रेजी आवृत्तियाँ हुई है । शासनदेवतापूजन, पापपुण्य के कारण, निर्माल्यचर्चा आदि अन्य निवन्ध आपने लिखे है । 1 उनके मच्छिष्य प० कल्लप्पा निटवे द्वारा अनुवादित भगवज्जिनसेनाचार्य कृत 'महापुराण आदिपुराण' एक बहुत मूल्यवान ग्रंथ है । निटवे जी का संस्कृत प्राकृत भाषा पर अधिकार, काव्यमर्मज्ञता तथा भाषान्तरपटुता उनके सुन्दर मराठी अनुवाद मे दिखाई देती है । भाडारकर की सशोधन सस्था द्वारा जैसे महाभारत की विवेचना-पूर्ण श्रावृत्ति प्रकाशित हो रही है, जैन यादि पुराण की भी वैसी आवृत्ति यदि निकल सके तो बहुत अच्छा हो । इसी यादिपुराण की 'महापुराणामृत' नामक सक्षिप्त स्वतंत्र रचना प्रस्तुत लेखक ने प्रकाशित की है । निटवे जी ने उपदेशरत्नमाला, देवागमस्तोत्र, प्राप्तमीमासा, प० श्रागाधरकृत सागारधर्मामृत, पचास्तिकाय, समयसार, प्रश्नोत्तर माणिक्यमाला, सम्यक्त्व कौमुदी, जैनधर्मामृतसार, कुदकुदाचार्य कृत रयणसार, श्रमितगति श्रावकाचार, जीवधरचरित्र ( क्षत्र चूडामणि ग्रंथ का अनुवाद) आदि अनेक ग्रथो के मराठी अनुवाद प्रस्तुत किये है। इन ग्रथो में से अनेको में जैनसिद्धान्त, आचारधर्म, श्रात्मानात्मविचार, सृष्टिकर्तृत्व की अत्यत तर्कयुक्त मीमासा व विवेचना मिलती है । · Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ ५३४ जीवनराज गौतमचन्द दोशी का साहित्य उल्लेखनीय है। भगवद्गीता के समान महत्वपूर्ण श्री उमास्वामी कृत 'तत्त्वार्थसूत्र' अथवा 'मोक्षशास्त्र' नामक दशाध्यायी सस्कृत ग्रथ का मराठी में प्रसन्न शैली में उत्तम अनुवाद आपने किया है। महावीर ब्रह्मचर्याश्रम कारजा को ककुवाई ग्रथमाला से इसी की अगली तीन प्रावृत्तियां प्रकाशित हुई है। इस ग्रथ का अंग्रेजी अनुवाद वै० जुगमदरलाल और ब्रह्मचारो गीतलप्रसाद जी ने किया है (सन् १९२०)। इसी ग्रथ का अनुवाद और टोका जर्मन भाषा मे हरमन जैकोबी साहब ने की है। इस ग्रथ पर देवनदो उर्फ पूज्यपादाचार्य का सर्वार्थसिद्धि नामक टीकात्मक ग्रथ प० क० निटवे ने प्रकाशित किया है, जिसे ववई विश्वविद्यालय ने एम० ए० और वी० ए० के पाठ्यक्रम मे सन्निहित किया है। इसी जैन सिद्धान्तात्मक मूत्रमय ग्रथ पर विभिन्न चालीस प्राचार्यों ने टोकाएँ लिखी है। आचार्यवर्य गुणभद्र ने 'आत्मानुशासन' नामक मार्मिक अनुवाद प्रस्तुत किया है। इसमें काव्य और दर्शन का मधुर समन्वय हमे मिलता है । जिनसेन और गुणभद्र आदि कवीन्द्रो की योग्यता कालिदास के समान है । 'हरिवशपुराण' नामक ग्रथ का अनुवाद मराठी में कर जीवगजभाई ने पर्याप्त यश सपादन किया है। सस्कृत तया मराठी दोनो भाषामो पर अनुवादकर्ता का प्रभुत्व होने के कारण यह अनुवाद पढते समय मूलग्रथ का हो रसास्वाद पाठको को होता है। 'सार्वधर्म', 'जैन सिद्वात प्रवेशिका' भी प० गोपालदास के ग्रयो के अनुवाद है। इनमें से प्रथम मे जैन धर्म का विश्वकल्याणोपकारित्व तथा दूसरे मे जैनागम के पारिभाषिक शब्दो को ययार्थ व्याख्या दी गई है। इनके अनुवाद किये हुए 'सार्वधर्म' तथा वाज-पार्टील के 'भट्टारक' नामक निवध दक्षिणमहाराष्ट्र जैन सभा ने प्रकाशित किये है। ब्रह्मचारो जो को यह माहित्यसेवा उनको साहित्यभक्ति के अनुरूप है। जिनवाणी प्रकाशन के लिए आपका किया हुआ त्याग अत्यत सराहनीय है। परतु आपके ब्रह्मचारी होने के पश्चात् आपकी साहित्यसेवा स्थगित हो गई, यह देखकर हम सभी माहित्यरमिको को खेद होता है।। धर्मवीर रावजी सखाराम दोशी ने जैनवाचनपाठमाला (भाग १-४) और कोर्तनोपयोगी भाग्यानादिको का अनुवाद मराठी में किया है । आपने सौ से अधिक सस्कृत ग्रयो को मराठो पहनावा दे कर प्रकाशित किया, यह बात आपके जैन साहित्य के प्रति अनुपम प्रेम को व्यक्त करती है। हीराचद नेमचद को विदुपी कन्या ककुबाई ने दशलाक्षणिक धर्म, समयसारिकलश, तत्त्वसार, मृत्युमहोत्सव, सल्लेसना आदि ग्रथो का मरस तथा सुबोध मराठी अनुवाद कर आपने अपनी वैराग्यशोल वृत्ति का परिचय दिया है। इन ममो ग्रथो में नीति, धर्म, त्याग तथा निवृत्तिमार्ग को प्रधानता देकर विवेचन किया गया है। ___ कविवर्य प० जिनदास के अनुवादित ग्रथ है--स्वयभूस्तोत्र, श्रीपात्र केसरोस्तोत्र, श्री गातिनाथपुगण, श्री वरागचरित्र, सुकुमारचरित, सावयवम्मदोहा, सारसमुच्चय, प्रभाचदाचार्य कृत दशभक्ति आदि। । श्रो नानचद वालचद गाधी, उस्मानाबाद नामक विद्वान कवि ने द्रव्यसग्रह, थावकप्रतिक्रमण, रविवारप्रतकथा इत्यादि काव्य रचनाएँ की है। उनके वधु तथा प्रसिद्ध साहित्यिक श्री नेमचद वालचद वकील ने गोमटसार जैसे कर्मसिद्धात का सूक्ष्म विवेचन करने वाले गहन ग्रथ का सुबोध अनुवाद कर जैन-अजन पाठको को उपकृत किया है। आप ब० शोतलप्रसाद जी के शिष्य है। सात वर्षों की गुरुसेवा के पश्चात् आपने इन ग्रथो की रचना की। इन ग्रथो के अलावा "ईश्वर कुछ करता है क्या ?", गुणस्थान चर्चा, सुभाषितावलो, सामयिक पाठ, सज्जनचित्तवलय, पद्मनदिपचविशत इत्यादि ग्रथो से आपके विस्तृत व्यापक अध्ययन का परिचय प्राप्त होता है। जैनेतिहाससार के भो वे ही सचालक है। उसमे आपके कई मार्मिक एव विद्वत्तापूर्ण लेख प्रकाशित हुए है। उस्मानाबाद के उत्साही तरुण जैन साहित्योद्धारक कवि श्रोमान् मोतीचद होराचद गाँधो उर्फ 'अज्ञात' की 'साधुशिक्षा' प्रथम कलात्मक काव्य रचना है। अनतर वृहत्कथा कोश, त्रियष्ठिस्मृति, आत्मसिद्धि, सज्जनचित्तवलय, नामक माहित्य कृतियाँ आप ही को है। निरपेक्ष, उदात्त हेतु से किये गये आपके जिनवाणी प्रकाशन के लिए आपको जितनी प्रशसा की जाय, थोडी ही है। आपका महावीर चरित्र के विषय मे साधार जानकारी एकत्र करने का कार्य चल रहा है। आपको यह स्वतत्र रचना चरित्रग्रथो मे उच्च कोटि का स्थान ग्रहण करेगी। इस पुस्तक की भूमिकाएँ देशभक्त अण्णासाहब लट्ठ एम० ए० तथा Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी में जैन साहित्य और साहित्यिक ५३५ डॉ० ए० एन० उपाध्ये एम० ए० ने लिखी है । जागतिक माहित्य में जिमे स्थान प्राप्त हैं ऐसे कुरल काव्य का मरस अनुवाद भी आपने मराठी में किया है । इस ग्रंथ की भूमिका में प्रो० चक्रवर्ती ने जैनवर्म की प्राचीनता दरसा, कर‍ निम तीर्थकर वीरप्रभु मे कुदकुदाचार्य तक का उद्वोवक, उज्ज्वल तथा प्रभावपूर्ण इतिहास वर्णित किया है। 'पुरुषार्थमिढ्युपाय' नामक प्रथ का मराठी अनुवाद कर इनी 'अज्ञात' कवि ने मराठी काव्य साहित्य को बहुत वडी देन दी है । आर्यावृत्त में यह काव्य रचा गया है । इम पुस्तक को ३४ पृष्ठों की एक भूमिका श्रहिंसा माहात्म्य पर प्रस्तुत लेखक ने लिखी है । श्री हीराचंद अमीचंद शहा ने जैन कथा माहित्य के सुमन चुनकर 'जैनकथा सुमनावली' नामक जय लिखा है । पौराणिक कालीन मुमस्कृत जैन ममाज के कथा माहित्य का नमाज विज्ञान की दृष्टि मे बडा महत्त्व है । आपकी दूमरी कलाकृति है 'यशोधर चरित्र' | सुरस ग्रथनाला नामक प्रसिद्ध लोकप्रिय प्रकाशन के कारण विख्यात श्री तात्याराव नेमिनाथ पागल ने गुणभद्राचार्य कृत उत्तरपुराण पर प्रत्यत परिश्रमपूर्वक दीर्घ अव्ययन मे 'तीर्थकरो के चरित्र' मराठी में लिखे है । इस ग्रंथ से जैन तथा अजैन समाज की प्राचीन संस्कृति पर बहुत प्रकाश पडा है । श्रापका सन् १९१३ में पूना की वमतव्यायानमाला में दिया हुआ जैन धर्म नववी व्याख्यान १९२१ में श्री दी० प्रा० बीडकर ने प्रकाशित किया है । सभा के अध्यक्ष 'आनंद' के मस्यापक वा० गो० आप्टे का भाषण तया प्राप्टे के शका समाधानार्थ श्री हिराचंद नेमिचद द्वारा दिये हुए प्रत्युत्तर आदि भव इसी प्रय में नमाविष्ट है । आपने अपनी माला में जैनेतिहास पर कुछ पुनिकाएँ तथा कुछ उपन्यान भी लिखे । पागल जी के पिता भी अच्छे लेखक और कवि थे । आपकी रत्नत्रयमार्गप्रदीप, पद्यावली तया अभग आदि पुस्तकें लोकप्रिय हुई है । मुरन ग्रंथमाला के कुछ उपन्याम श्री मोतिचद गुलाबचद व्होरा ने लिखे हैं । यही पर जैन माहित्यिको में प्रमुखम्प मे चमकने वाले प्रतिभानपन्न उपन्यानकार श्री वालचद नानाचद गहा मोडतिवकर का उल्लेख विशेष प मे किया जाता है | आपके सम्राट् अशोक, छत्रमाल तथा उपा नामक उपन्यास प्रौढ-प्राजल शैली के कारण तथा चित्ताकर्षक, सालकृत भाषा के लिए प्रख्यात है । 'मम्राट् ग्रशोक' उपन्याम एम० ए० मराठी के पाठ्यक्रम में दूसरी वार रञ्जने ममय निप्पल, रसिक ग्रालोचक प्रा० पगु ने इस उपन्याम की मुक्तकठ मे प्रशमा की हैं । (इन उपन्यामो के अनुवाद प्रेमी जी ने हिंदी में उपलब्ध करा दिये-म० ) तीन उपन्याम तथा 'प्रणयी युवराज' नामक एक नाटक लिखकर श्री गहा ने माहित्यमन्यास क्यों ले लिया, यह एक ऐसी पहेली है, जिसका उत्तर समझ नही प्राता । यशस्वी पत्रकार के रूप में विख्यान श्री वालचंद रामचद कोठारी का 'गीतारहस्य' पर आलोचनात्मक प्रवव उल्लेखनीय है । इन छोटे मे थालोचनात्मक निवव में कोठारी की विवेचनात्मक और प्रखर बुद्धि का परिचय मिलता है । इनके अलावा 'धर्मामृतरसायन' नामक अनुवादित जैनवमं मववी पुस्तिका में भी उनकी भाषापटुता के दर्शन होते हैं । प० नाना नाग ने तत्त्वार्थ सूत्रों का मराठी अनुवाद करके तथा पच परमेष्ठी गुण जैसे वहुत भी उपयोगी पुन्निकाएँ प्रकाशित करके जैनधर्म तथा जैन माहित्य के प्रति प्रेम व्यक्त किया है। उसी प्रकार श्री वालचद कस्तुरचंद धाराशिवकर ने अनेक जैनप्रय प्रकाशित किये है | श्री कृष्णा जी नारायण जोशी ने वर्मपरीक्षा, द्रव्यमग्रह, विक्रमकविकृत नेमिदूत काव्य तया वर्मगर्भाभ्युदय काव्य का मराठी अनुवाद कर जिनवाणी की मेवा की है । वर्मपरीक्षा में पुराणो की कुछ कथाएँ कैमी हास्यास्पद या श्रद्धेय है, इम बात का बहुत मार्मिक विवेचन मिलता है । प० नाथूराम जी प्रेमी ने भट्टारक नामक निवव ऐतिहासिक नामग्री के आधार पर सगोवित करके परिश्रमपूर्वक लिखा है । उनका अनुवाद श्री वा० ज० पाटील ने किया है । कुद-कुदाचार्य कृत 'पट्पाइड' केवलचद हिराचंद कोठारी बुधकर ने प्रकाशित किया । निस्वार्थी प्रकाशक श्री वालचंद कस्तुरचंद उम्मानावाद ने उपर्युक्त कृ० ना० जोगी द्वारा अनुवादित प्रयं तथा श्राचार्य सकलकीर्तिकृत मुभाषितावली तथा मल्लिगेणाचार्यकृत Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-पभिनदन-प्रय नजनवित्त वल्लभ और पपनदिपत्रविनत मूल नत्व तया मराठी अनुवाद सहित प्रकाशित किये हैं। भट्ट भकला विरचित रत्नन्यसार का मग पनुवाद अनरुदेवी धर्मप्पा पासाडे नामक लेखिका ने किया है। १० पात्र जिनदन उपाध्याय ने हादमानुप्रेना अध्यात्म-विपप के उच्चकोटि के गव 'परमात्म-प्रकाश' तया कन्नड भारतवैभव का अनुवाद करके नागे को भूषित किया है। जनधनको उदारता 'नामक स्वाय की रचना, प्रमात कवि दत्ताय रणदेव के सुपर धो प्रभाकरने को पौर वह कर्मवार वाला नाव धावने नागली नाना पानिक उदारवी ने पकानित की। इन गप ने जैनागम के मान जातिभेदादि कृत्रिम वचन न मान र पहिले कई विवाह हुए, उनके उदाहरण देकर जैन धर्म का दृष्टिकोण कैग विगाल और ममतावादी पा इल्का सुन्दर विवेचन क्यिा गया है। कूपमडूक्वृत्ति के पाठको पर इन अप का बहुत अच्छा प्रभाव पड़ेगा। श्री चदप्पा जिनप्पा हाडोले नानक पगतिशील वृत्ति के लेखक वै० चपतराय जी के जनवर्म को प्राचीनता नानक पाल्भापा के वित्ताप्र तथा ऐतिहानिक जानकारी ने परिपूर्ण व्यका पनुवाद कर मगठी नाहित्य को नज्जिन यिा है। जैनो ने प्रसिद्ध इतिहान लेखक धो वा० मुल पाटोल है। आपने दक्षिण भारत , जैन पौर जैन धर्म का नक्षिप्त इतिहान (सन् १९८) गदि राय नवीन गतो में लिखे है । यि लेखक के गुरु और भूतपूर्व प्रमोश्री अण्णासाहब ने अपनी विद्वत्तापूर्ण भूनिका ने राजनीति, साहित्य, दर्शन प्रादि विपनो में जनमर्म ने क्या कार्य किया है, मस्त प्राकृत कन्नड, आदि भापायों में जनधान्यायियों ने तिने बडे पसन्म किये है, यह सब इन गय को पटकर मनने पाता है ऐलग पर्मिमत दिया है। उपर्युक्त पुन्नक नया भावान महावीर का महावीरत्व' नामक पक्ष उनके अध्यपन का नाशी है । सो पाटील का पिलत ज्ञान, नून पवलोक्न बना विचान्गली तथा मननगील वृत्ति पादिगण उनके राय ने सप्तहोते है । पाजनक जनो का इतिहास पर्जन लेखको ने बहुन विकृत रूप में जनता के मानने रक्खा है। उनके लिए उत्तर रूप में पाटीन का इतिहास बहुत उयुक्त है। अापने समतभद्र के श्रावकाचार के माधार पर एक मालोचनात्मक पर प्रकासित किया है, वह भी बहुत लोकप्रिय हुमा है। उम गय में अनेक प्रनलित प्रश्नो नया रूडियो पर पाडित्यपूर्णतया निर्भीक विवेचन मिलता है । इन गय में जैन धर्म की नाहकता, उदा ता, सत्यापृश्यता जाति, दया नमता, बत्व आदि बातो का विचार किया गया है। विचार-पद्धति तुलनात्मक पौर सोपपत्तिक है। पन्तुत लेखक ने नो निस्तलिन्वित रचनाएं की है (१) जनवाद (मन् १९६०)। (२) पमितगति पाचार्य कृत सामायिक पा० (मराठी अनुवाद) तथा अन्य दो नामायिक पाठो का सविस्तर पत्वाद। (s) पूज्यपाद देवनन्दि कृत नमाविशतक (मराठी अनुवाद-प० प्रभाचद की टीका नहित) प्रथम आवृत्ति (१९६१) तथा तीरी मावृत्ति (१९३८) । दूसरी आवृत्ति में डॉ० प० ल० वैद्य को विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना है। (४) श्री जिनमेनाचार्यकृत पादिपुराण के भागार पर स्वतत्र रोति ने रचित 'महापुराणामृत ।' (५) भगवान न्निनेन तपा गुणभद्र के चन्त्रि। यहचरितपा नायूरामप्रेमी के 'जैनहितपी' में विद्वद्रलमाता नानक तेजो का अनुवाद है। इन दोनो ही चरित्रों में पात्मज्ञानी कवीद्र की दोनो कृतियो ने उद्धरण देकर उनका विश्वसाहित्यिको स्थान निर्धारित किया गया है। () "जन वर्म पर अनक्षिप्त विधान तया उनका निरसन (१९३८) । इस ग्य की भूमिका जैन इतिहासकार वा० मुल पाटील ने लिखी है। (७) “जनदर्शन की तुलनालक विशेषताएँ। Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी में जैन साहित्य और साहित्यिक ५३७ (८) "ऋषभदेव ही जैन धर्म के संस्थापक " ( प्रवध) । चपतराय जी के अग्रेजी ग्रथ के आधार पर लिखा हुआ प्रवच । (e) " ओरियटल लिटरेरी डाइजेस्ट मामिक का विहगमावलोकन", "महाकवि पुष्पदत के अपभ्रंश भाषा यदि पुराण ग्रथ का परीक्षण", "अपभ्रंग भाषा के सुभाषित", "जैनधर्म तथा सुधारणा", "साहित्यक्षेत्र मे सोलापुर प्रातका कार्य", "भगवान महावीर की जनमान्यता", "विश्वोद्धारक तथा जैन धर्म सरक्षक महावीर" "चिंतामणराव वैद्य के जैनधर्म पर आक्षेप और उनका निरमन", "जैनधर्म - ग्रास्तिक या नास्तिक ?” आदि स्फुट लेख । इनके सिवा 'जैन धर्म का इतिहास' नामक ७०० पृष्ठी का ग्रथ तथा 'महावीर और टाल्स्टाय' नामक ग्रथ प्रकाशित है । श्री ० ० ० नाद्रे ने रा० भ० दोगी तथा प्राचार्य गाति सागर के चरित्र प्रकाशित किये है । सन् १९३७ में श्री वीरग्रथमाला नामक एक प्रसिद्ध सस्या जैनियो के ख्यातनामा कवि अप्पा साहेब भाऊ मगदुम 'वीरानुयायी' ने स्थापित की है । आजतक इस ग्रथमाला से २० पुस्तके प्रकाशित हुई है । अहमदावाद रामकृष्ण मिशन के मी० कातावाई वालचद जी० ए० ने 'श्रमण नारद' नामक कथा का अनुवाद प्रेमीजी की मराठी कथा से किया है । यह कथा 'सत्यवादी' मे १६३६ में मराठी में प्रकाशित हुई । उदार प्रकाशक श्री ठाकारे इसे जल्दी ही प्रकाशित करने वाले है | जैनो की सुप्रसिद्ध कवियित्री सो० सुलोचनावार्ड भोकरे की 'जैन महाराष्ट्र लेखिका' तथा 'दक्षिण महाराष्ट्र जैन सभा का इतिहास' नामक दो पुस्तकें सदर्भ ग्रंथ के रूप में उपयोगी है । आपकी कविताएँ प्रसादपूर्ण हैं । आपकी काव्यसपत्ति की प्रशसा साघुदास ने की है । ० मिसीकर नरेंद्रनाथ जयवत की 'वालवोधिनी' तथा 'जैन सिद्धान्तप्रवेशिका उसी प्रकार दा० वा० पाटील का 'तत्त्कार्यमूत्रप्रकाशिनी' नामक ग्रथ कठिन विषय को सुगमता से समझाने वाले ग्रंथो के उत्तम उदाहरण है, दे० भ० वावा जो लट्टे ने दो पुस्तके अग्रेजी में लिखी है— एक कै० गाहु छत्रपती, कोल्हापुर की जीवनी, दूसरी जैनिज्म । कविवर्य तथा श्रेष्ठ उपन्यासकार कं० दत्तात्रय भिमाजी रणदिवे की साहित्यसेवा वृहत्महाराष्ट्र में विख्यात है । उन्होने चार स्वतत्र तथा वीस अनुवादित उपन्यास, दो प्रहरून, एक कीर्तन तथा वारह खडकाव्य लिखे है । जिनमे मे गजकुमार, चरितसुवार, निलीचरित्र, आर्यारत्नकरडक, अभिनव काव्यमाला में श्री केळकर द्वारा सपादित होकर हैं तथा कविता भाग १ उनके सुपुत्र प्रभाकर ने प्रकाशित किया है। दूसरा भाग भी वे जल्दी ही प्रकाशित करेंगे । चांदवड की महाराष्ट्र - जैन- माहित्य प्रकाशन समिति ने "भारतीय प्रभावी पुरुष" नामक चरित्रात्मक ग्रंथ में श्रावक शातिदास, हरिविजय जी सूरि तथा तेईसवे पार्श्वनाथ तीर्थकर की तीन जीवनियाँ सुन्दर शैली में प्रकाशित कर मराठी साहित्य मे नवीन योगदान किया है । र० दा० मेहता तथा शा० खे० शाह नामक दो उदीयमान लेखक भी महाराष्ट्र को जैन मस्कृति का परिचय करा रहे हैं । कुन्युमागर ग्रथमाला मे (१) लघुबोवामृतसार (२) लघुज्ञानामृतसार तथा आचार्य कुन्थुसागर विरचित मुवर्मोपदेशामृतमार (प्रश्नोत्तर रूप में) संस्कृत से मराठी में अनुवादित होकर प्रकाशित होने चाहिए । काव्यप्रागण में सोलापुर के माणिक तथा शातिनाथ कटके नामक दो वघुत्रो ने अच्छा नाम पाया है । उन्होने मराठी में जैनपूजन की पद्यात्मक पुस्तक प्रकाशित की है । यह पुस्तक भक्तो के उपयोग की है । इस निवध मे मराठी के जैन साहित्य तथा साहित्यकारो का परिचय वाड्मयोद्यान मे इतस्तत विहार करने वाले भ्रमर की वृत्ति से किया गया है। यदि इसमें किन्ही वडे प्रथकारो का अथवा कलाकृतियो का नामनिर्देश रह गया हो तो उसके लिए वे क्षमा करें । शोलापुर ] ६८ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी साहित्य में हास्य- रस श्री के० ना० डागे एम० ए० महाराष्ट्रोयो में विनोद-बुद्धि विशेष रूप मे है । अग्रेजी साहित्य मे परिचित होने के बहुत पहिले से उनमें परिहास -वृत्ति जाग्रत थी । 'पहिले शिखर, फिर नीव' का वेदान्तपूर्ण विनोद व्यक्त करने वाला मन कवि एकनाथ, 'पहिले लोगे तभी दोगे क्या हे भगवान' कहने वाले नामदेव और 'अच्छी भेट हुई एक ठग ने दूसरे ठग की' कहने वाला तुकाराम इसके उदाहरण हैं । मोरोपत ने अपनी 'केकावली' मे गाभीर्य छोड़कर का ललता अललता' में बच्चो की सी तुतलाहट गहण की हैं । लोकगीतो में गोपियो की हास्यपूर्ण उक्तियो में, कीर्तनकारो के हास्यपूर्ण चुटकुलो में, लावनियां गाने वालो को प्रस्यात छेकापन्हुतियो मे, घर-घरमे पहेली बुझौवल के रूप में 'उखाणो' में वह हास्य फैला हुआ है। यदि मायाब्रह्म का विचार करने वाले वेदाभ्यासी जड गुरुजनो में विनोदप्रियता इस सीमा तक है तो पग्रेजी साहित्य के सपर्क में आते ही यह परिहासबुद्धि विशेष रूप से फूली फली हो तो उसमें ग्राम्नर्य क्या ? इम पीढी के पहिले की पोढी ने पूर्व अनुवादित हास्य पर ही विशेष ध्यान गया था। शेक्सपीयर और गोल्डस्मिथ के नाटक, बीरवन की कहानियाँ, उत्तर रामचरित - मृच्छकटिक आदि के अनुवाद बहु प्रचलित थे । इनके पश्चात् स्वतत्र प्रज्ञा के हास्य की रचनाएँ होने लगी-गडकरी के नाटक मे भुलक्कड 'गोकुल की गवाही' 'पण्भानिका का वादा' विदूषक मैत्रेय - गकारादि के श्लेपो मे प्रवतक यानी अत्रे की प्रसिद्ध 'पैरोडी ' - 'घोवो, कब आओगे लोट ।" या वामन मल्हार जोशी के काव्यशास्त्रविनोद तथा मामा वरेरकर के मुन्दर सवादो तक इस हास्य ने अनेक रूप धारण किये है। आज के हमारे समाजजीवन में तो इस विनोदप्रियता के दर्शन सर्वत्र होते है कहानियों मे, चित्रपटो में, पत्रपत्रिकाओ मे चार महाराष्ट्रीयो की गप्पो की बैठक मे । सकट सहने की आदत, कष्टमय जीवन मे भी हँसमुख रहने का स्वभाव, ओजस्वी आशावाद, वुद्धिप्रधान जीवन में आनन्द मानने की टेव, स्वस्थ शरीर और आलोचनात्मक वृत्ति आदि गुणो के विचित्र समन्वय के कारण महाराष्ट्र के हाड-मान में हास्य भरा हुआ है । गवाह वनने वाले नापित गायको से लगाकर इतिहाससशोवन और साहित्यसम्मेलन जैसे गंभीर प्रसगो तक हास्यप्रियता इनके जीवन मे रमी हुई है । जव दूसरे लोग जीवन की विषमताओ को बुरा-भला कहते हैं, उसके नाम ने रोते हैं, महाराष्ट्रीय हॅम-खेलकर उनको भुलाने का प्रयत्न करते है । यह उनकी स्वभाव-गत विशेषता है । आधुनिक साहित्य में हास्ययुग का आरंभ श्रीपाद कृष्ण कोल्हटकर के 'सुदामा के तदुल' से होता है । 'पानी के दुर्भिक्ष्य' में कोल्हरकर कहते हैं -- "श्राद्ध के तर्पण मे पानी का मितव्यय होने लगा । शुद्धोदक का कार्य पूजनविधि में केवल अक्षताओं से होने लगा । पानी पीते समय 'हाँ, पानी नही, जरा मदिरा पी रहा हूँ' ऐसे असत्यविधान करने लगे । पानी की दुकान खुलने लगी- उनमे जो प्रामाणिक थी वही शुद्ध पानी मिलता । अन्य दूकानो मे तो पानी में दूध मिलाकर दिया जाता" । कोल्हरकर के हास्य निवघो मे लोकभ्रमो का निरसन और सामाजिक रूढियो पर प्रहार मिलते हैं । उदाहरणार्थ विवाह में दहेज की प्रथा के सबंध में वे कहते है - 'महारानी विक्टोरिया की जीवनी जबसे मैने पढी, उनकी अलौकिकता के विषय में मेरी श्रद्धा बढती ही चली गई । वह श्रद्धा यहाँ तक वढी कि मुझमे उनके चेहरे की मुद्राओ का सग्रह करने का शौक बहुत वढा । रानी साहिबा तो नही रही, कम से कम उनकी रौप्य प्रतिमाओं का वियोग न हो, इसी भावना से मैं अपने पुत्र के लिए दहेज स्वीकार करूंगा।' ज्योतिष सम्मेलन के अध्यक्षपद से दिये भाषणो में भी उन्होने अपनी विनोदप्रियता नहीं छोडी । Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी साहित्य में हास्य रस ५३६ साहित्यसम्राट् न० चिं० केलकर तो विनोद के अवतार है । आपने 'हास्यविनोदमीमासा' नामक समा लोचनात्मक ग्रंथ लिखा है । साथ ही कई सुन्दर निवधो मे अपनी परिहास -प्रियता का परिचय दिया है । अपने ही जीवन की घटनाएँ, मानो हँसते-खेलते हुए वे कह रहे हो -- ऐसी सहज - मनोरम उनकी शैली है । 'विलायत की सफर' में वे कहते है- 'हिमाच्छादित श्राल्पस पर्वत का शिखर ऐसा जान पडता है जैसे खिचडी पर गरी का चूर विछा दिया है। इससे मुझे खिचडी खाने की इच्छा हुई हैं, ऐसा न समझे ।' हाउस ग्रॉफ कामन्स का वर्णन देते हुए वे लिखते है'मत्रिमंडल जहाँ बैठता है उस कोने में अधेरा था । जिस साम्राज्य पर सूर्य कभी अस्त नही होता उसका कारोबार ऐसे ही अँधेरे मे चलता है ।' "गीता के बहुत बडे प्रेमी एक वकील गोताराव थे, जिन्हे दुख हुआ तो उसे वे 'विषादयोग' कहते, वीडी पीते हुए आरामकुर्सी पर पैर फैलाकर आँखे मूद कर पडे रहने को 'ध्यानयोग' कहते । जब कोई मुद्दई रुपये ला देता और वे उसे गिनते तो उसे 'साख्ययोग' कहते । हजामत करने बैठते तो उसे 'सन्यासयोग' कहते । 'कान्फिडेन्शियल' कोई वात श्राती तो उसे वे 'राजगुह्ययोग' कहते । " गडकरी उर्फ ‘बालकराम' ने तो अपने लेख, काव्य और नाटको मे हास्य को खूब बिखेरा है । ककण ( एक नाटक का पात्र ) याद किया हुआ भाषण कहता है कि 'तुम्हारे सौंदर्य का वर्णन हजार जिह्वावाला ब्रह्मा और चार मुँहवाला शेषनाग भी नही कर सकता । तुम्हारे नख भ्रमरो से, चरण प्रवाल से, गति कदली स्तभ-सी श्रौर हाथी के समान है । शायद कही कुछ भूल हो रही है ।' उनका 'कवियो का कारखाना' और 'ठकीचे लग्न' बहुत प्रसिद्ध विनोदी निवध है । चित्य का पूरा ध्यान रखकर, साहित्य का पवित्र उद्देश्य न विगाडते हुए उच्चकोटि का हास्य वा०म० जोशी साहित्य में मिलता है । उनके उपन्यासो में यह विनोद - बुद्धि सूक्ष्मता से निरीक्षण करने पर परिलक्षित होती है । 'ईश्वर सर्वभूताना हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति' पर भय्यासाहव ( एक पात्र जो कि डाक्टर है ) कहते है - 'मैने कई व्यक्तियो का हृद्देश आपरेशन के समय छूरी से काट कर बहुत वारीकी से देखा है, परन्तु वहाँ कही ईश्वर नामक चीज दिखाई नही दी ।' 'रागिणी' नामक उपन्यास में इस प्रकार के काव्यशास्त्रविनोद के कई सुन्दर प्रसग मिलते है । 'सुशीलेचा 'देव' में एक पात्र को लत है कि वह वारवार कहता है- 'स्पेसर कहता है कि-' ऐसे अभिजात और अक्षर ( क्लासिकल) विनोद का युग अव बीत गया । अब वह सर्वगामी, सर्वकल, सार्वत्रिक र मार्वजनीन वन गया है । पहिले जो शब्दनिष्ठ विनोद बहुत प्रचलित था, उसका स्थान अब प्रसगनिष्ठ और वातावरणनिष्ठ विनोद ने ले लिया है । कुएँ की भाति गहराई हास्य मे से चाहे कम हो गई हो, परतु सरोवर की भाति प्रमार उसमें वढा है । अव हास्य ने नाना प्रकार के आकार और रूप ग्रहण कर लिये है— उपहास, विडवन, उपरोध, व्यगचित्र, अतिशयोक्ति, व्याजोक्ति आदि । 'साधनानामनेकता' इस विभाग मे प्रत्यक्ष दिखाई देती है । प्रा० ना० सी. फडके कॉलेज कुमार श्रौर कुमारियो के जीवन के चित्रकार तथा उसी वर्ग के प्रिय लेखक है । उनके उपन्यासो सभापण में भी यह सूक्ष्म हास्य छटाएँ बिखरी हुई है । वि० स० खाडेकर का विनोद अधिकाश उपमारूपक दृष्टान्तो पर निर्भर है । 'उल्का' उपन्यास में लडकी का नाम क्या रक्खा जाय इस सबंध में चर्चा चल रही है 'तारा नाम क्यो नही रखते । एक चन्द्र का हाथ पकड कर भाग गई, दूसरी ने सुग्रीव से विवाह कर लिया ।' 'परतु हरिश्चन्द्र की तारा तो पति के साथ स्वय भी ऋयित हुई ।' 'तारा तो स्थिर रहने वाली है । अपनी लडकी कुछ ग्रादोलनमयी होनी चाहिए।' 'तो उसे उल्का ही क्यो नही कहते । " तो खाडेकर-साहित्य में इस प्रकार के श्लेष और हास्यपूर्ण सभाषण इतने अधिक है कि यह ऊपर का दृष्टात केवल सिंधु मे से बिंदु दिखाने के समान है । इस विनोद की गहन साहित्यिकता को और भी जनप्रिय बनाने का श्रेय है प्रि० अत्रे को। कई बार उनका विनोद श्लीलता की सीमा का अतिक्रमण कर जाता है । परतु मराठी साहित्य में कविता की पैरोडी (विडवन) की प्रथा उन्होने अपने 'झेडूची फुले' से बढाई और उसके हास्य के कारण ही महाराष्ट्र Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૧૪૦ प्रेमी-अभिनवन-ग्रथ की भूमि आज जीवित अवस्था में है । उनके हास्य के कुछ उदाहरण देखिये --' विवाह का शारदा - कानून जैसा विनोदी कानून और कोई नही होगा । गुनाह हो जाने के बाद यह कानून किमी रियासती पुलिस की भांति वहाँ अँगsing हाइयाँ भरते हुए भाता है । बहुत बार प्राता भी नही । चार महीने चतुर्भुज होने के ( जेल जाने के ) वाद अगर चाहे तो प्रादमी एक अनजान लडकी से जनम भर के लिए चतुर्भुज (विवाहित) हो सकता है, तो इतना हम कोई भी श्रार्यपुरुष करने के लिए उद्यत होगा ।' 'कविजनो का क्या कहिये। उनकी कल्पनाशक्ति इतनी उर्वरा है कि उनमें से कोई तो हिमालय के शिसर पर बैठ कर भी 'एक प्लेट आइसक्रीम खाने की इच्छा व्यक्त कर सकता है ।' गडकरी की 'श्ररुण' नामक वीररस की उत्प्रेक्षात्रो मे परिपूर्ण काव्य पर अत्रे ने एक हास्यरम की उत्प्रेक्षाश्री मे भरी पैरोडी लिसी है, वैसे ही माघव ज्यूलियन के 'तू' और 'मैं' की भी । य० गो० जोशी के लिखे हुए 'इटर व्यू' (मुलाकातें) हास्य से भरे-पूरे है । वाल्टेयर का युग श्रव मराठी दूर नही । 'पुनर्भेट' नामक उनके कहानी - सग्रहो म 'जय मग्नेशिया' म एक देशभक्त शुद्ध स्वदेशी श्रोपधि के पुरस्कार मेग्नेशिया का भी कैसे वहिष्कार करता है, इसका वर्णन है, 'इतिहास के प्रश्नपत्र में श्राधुनिक शिक्षाप्रणाली पर बहुत गहरा व्यग है, 'ग्यानबा तुकाराम श्रीर टेकनीक' म आधुनिक लेनको की टेकनीक - प्रियता का परिहाम है। ऐसे ही श्रीर भी कई उदाहरण मिल सकेंगे । स्वतत्र हास्यनिवच लिसने की परपरा क० लिमये, चि० वि० जोगी, शामराव थोक, वि० मा० दी० पटवर्धन यादि लेखको ने चलाई । ना० धो० ताम्हनकर का 'दाजी' अविस्मरणीय है । बाल- माहित्य र बोलपटो मे भी हाम्यरम के दर्शन श्रव हमें पर्याप्त श्रीर प्रचुर मात्रा में मिलने लगे है । मन्दसौर ] Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मराठी का कोश - साहित्य श्री प्रा० वा० ना० मुडी वैदिक वाड्मय के अध्ययनार्थ जैसे निघटु, वैसे ही होमर आदि के अध्ययन के लिए 'ग्लासरीज' की रचनाएँ ईसा पूर्व ७००-८०० के आसपास हुई । कोग निर्माण की यह वृत्ति इतनी पुरानी हैं । केवल संस्कृत के ही कोग लें तो आफ्रंट की सूची के अनुसार तीन मौ से अधिक प्राचीन संस्कृत-कोश उपलब्ध हैं । कोश निर्माण अत्यंत कष्टमय और शुष्क कार्य है, तयापि साहित्य के रसास्वादन के लिए वह अत्यत उपादेय वस्तु है । साहित्य का वह एक प्र अग है । साहित्य को लोकगगा के प्रवल प्रवाह में अक्षररूप में टिकाये रखने का श्रेय सर्वांगत इन कोशो को है । यह । भी लें कि पहिले मनुष्य फिर नियमन, पहिले नदी, फिर घाट, उसी प्रकार से पहिले भाषा फिर कोग का निर्माण होता है तो भी उनका मूल्य कम नही किया जा सकता । अमरकोशादि संस्कृत कोशो का आदर्श सामने रखकर मराठी के प्रारंभिक कोग बने । 'महानुभाव' पथ के साहित्य का क्षेत्र अभी हाल मे ही खुला है और उसमे अभी मशोवन चल रहे हैं । महानुभावियो ने पद्य के समान गद्य मे भी वैद्यक-ज्योतिप-व्याकरण-स्मरणिका आदि ग्रंथ लिखे थे। कुछ महानुभावो ने सकेतलिपि का बोव कराने वाले एक ग्रथ को रचना की । यही मराठो का प्राचीनतम कोश है । श्री राजवाडे ने ज्ञानेश्वर आदि सत कवियो को सहज - सुगम बनाने के लिए यादवकाल के कुछ कोग देखे । उन कोशो में और भी प्राचीन कोशो का उल्लेख है, ऐसा कहा जाता है । परतु ये सब कोश अभी तक अनुपलब्ध ही है । इस प्रारंभिक कोगोल्लेख के पश्चात् शिवा जो के समय के 'राज्यव्यवहारकोश' तक कोई कोश नही मिलता । यह मध्यम-काल धार्मिकता और श्रद्धा का होने के कारण संभव है कि वैज्ञानिक विवेचन को सहायता देनेवाले कोग जैसे साहित्य की इस काल में आवश्यकता विशेष न रही हो । शिवाजी की राजव्यवहार कुशलवुद्धि को ऐमे एक कोश को आवश्यकता जान पडी होगी, परतु उनकी प्रेरणा से बने इस कोग के पश्चात् एक सदी तक कोई कोग नहीं वना । पेशवाई के प्रतिम दिनो में अग्रेजी कोगो की प्रेरणा से कोशरचना आरंभ हो गई । अग्रेजो ने पराजित राष्ट्र की सभी अच्छाइयो को आत्मसात् करने के हेतु भारतीय भाषा और सस्कृति का अध्ययन आरंभ किया। मिशनरी इस कार्य मे सर्वप्रथम अग्रसर हुआ । कलकत्ता के पास मीरामपुर मिशन के 'शिलाप्रेम' पर मराठी का व्याकरण छोपा गया । १५१० में मोडी लिपि मे मराठी अग्रेजी कोश बनाया गया । प० विद्यानाथ श्रथवा वैजनाथ शर्मा नामक नागपुर के भोसले के कलकत्ता निवासी वकील ने इमे तैयार किया । आधुनिक मराठी साहित्य में अग्रेजी के ससर्ग से निर्मित यह प्रथम कोण है । डॉ० विलियम केरी ने अपना धर्महित और देशहित चाहे साध्य किया हो, परतु मराठी भाषा उनकी ऋणी रहेगी । उनको ही प्रेरणा से मुद्रित ग्रंथो की सख्या मराठो मे वढने लगी । उपरोल्लिखित प्रथम कोग के १४ वर्ष बाद १८२४ ईस्वी में कर्नल केनेडो ने एक कोश बनाया। अभी भी कोश निर्माण मे दृष्टि केवल सुविधा को ही थी । भारतीय महाराष्ट्रीय और आग्लमिशनरियो के बीच मे परम्पर व्यवहार कैसे अधिक सुगमता से हो सकेंगे, यही प्रवान उद्देश्य इन कोगो का था । सभव है कि शिवा जी काल और अग्रेजो के अभ्युदय काल के बीच में भी कुछ कोश वर्ने हो, जो मराठी - फारसी, फारसी-मराठी, मराठी पोर्चुगीज, पोर्चुगीज- मराठी इत्यादि रूप में हो और जो राजदरवारो में दुभाषिये के काम आते रहे हो और उनकी ही सहायता से ये मुद्रित कोश बनते रहे हो । परतु इन कोशो को श्रमतोषजनक मान कर ई० १८२६ मे पूर्णत भारतीय विद्वानों की समिति द्वारा निर्मित एक कोश रचा गया । इम समिति मे प० छगवे, फडके, जोशी, शुक्ल और परशराम पत गोडबोले प्रमुख थे । यह कोग पहले Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ के कोशो से आकार-गुणो में अधिक वितृस्त और उत्तम है। १८३१ मे मोल्मवर्थ ने एक नवीन शब्दकोश बनाया, जो उसके पूर्व के सभी कोशो से अधिक वैज्ञानिक और शब्दो के चुनाव, सख्या, अर्थ आदि सभी दृष्टियो में बेहतर है। अभी भी मोल्सवर्थ का यह कोश प्रमाणभूत माना जाता है। परिश्रमपूर्वक, विवेचकवुद्धि से वह बनाया गया था। मेजर क्याडो ने इसी कोश की दूसरी आवृत्ति मे वे दोप मुधार दिये, जो पहले मस्करण मे रह गये थे। इनके बाद के कोश इस प्रकार थे---गीर्वाण लघुकोश (ज० वि० ओक-१८३७), सस्कृत प्राकृत कोग (अनतशास्त्री तलेकर--१८५३, और माधव चन्द्रोवा-१८७०), हसकोश (२० भ० गोडवोले-१८५३), विग्रहकोश-धातुत्युत्पत्तिकोश (व० शा० म० गोपालशास्त्री धाटे-गिलाल्लिखित-१८६७), सस्कृतमहाराष्ट्र धातुकोग (विष्णु परशराम पडित-१८६५), वावा पदम जी और वा० गो० आप्टे के कोग-१९६३, रलकोश-वा० भ० वीडकर-१८६६, नवीन किंवा सुपरकोश-२० भ० गोडवोले-१८७०, सस्कृत-प्राकृत कोगना० प्रा० गोडवोले-१८७२, आदि कोश निवधमाला युग तक लिखे गये। इसके पश्चात् कोशसाहित्य के दृष्टिकोण में विचित्र परिवर्तन होने लगा। कोगनिर्माण की ओर जिस वैज्ञानिक दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति पाश्चात्यो ने प्रचलित की उसका मैसर्ग इधर भी वढा । पहले की सकुचित दृष्टि दूर होकर उसे व्यापक रूप मिलने लगा। इस बात का प्रमाण जनार्दन हरी पाठले और राव जी केशव सावारे का दुर्भाग्य से अधूरा पड़ा हुआ विश्वकोश है । पहिले लेखक के कोश का नाम विद्यामाला (१८७८) और दूसरे लेखक के कोग का नाम विद्याकल्पतरु है । लो० तिलक के एक सहाध्यायी माधवराव नाम जोगी ने भी एक विस्तृत कोशरचना का सूत्रपात किया था। वह प्रयत्न उनके असामयिक निधन से अपूर्ण रहा। शुद्ध मराठी कोश (वि० रा. बापट और वा० वि० पडित-१८९१) से केवल शब्दार्थ न देते हुए कुछ अधिक जानकारी देने का प्रयत्न होने लगा ये कोश है स्थल नामकोश (गो० वा० वैद्य और वा० व० भरकरे-१८६६), ऐतिहासिक स्थल सूची (गो० का० चादारेकर), अपभ्रष्टशब्दचद्रिका (प्र० रा० पडित-१८७८), व्युत्पत्तिप्रदीप (गो० श० वापट--१९०८) । अव कोश साहित्य के अन्य क्षेत्र भी खुलने लगे और भारतवर्ष के प्राचीन ऐतिहामिक चरित्रकोश (र० भा० गोडवोले), राजकोश (प्र० सी० काकेले), वाक्यप्रचार और कहावतो का कोश (सोलकर, देशपाडे-तारलेकर, छत्रे, आपटे, वि० वा० भिडे), सख्यावाचक दुर्बोधशक कोश (रघुनाथ देवमी मुले) के साथ-साथ अन्य भाषामो के कोश भी बनने लगे, यया पोर्चुगीज-मराठी (सूर्याजी पानदराव राजादिक्ष दलवी), कन्नड-मराठी (ना० मो० रुद्रे), वगाली-मराठी (वा० गो. आपटे), फारसी-मराठी (माधवराव पटवर्धन, पादा चादोरकर), हिदी-मराठी (न० त० कातगडे उर्फ मुडलिक और वैशपायन) 'ट्वेंटिएथ सेंचुरी' अग्रेजी-मराठी डिक्शनरी (श्री० रानडे), अमरकोश का मराठी भाषातर । मराठी शब्द रत्नाकर (वा. गो. आपटे) और गब्दसिद्विनिवध (आठवले, आगाशे) कोश साहित्य के प्रधान स्तभ माने गये है। __कोग-साहित्य की दृष्टि अव अधिक व्यापक होने लगी। ज्ञान की सीमाएँ ज्यो-ज्यो बढने लगी, इस ओर मांग भी बढती गई। डॉ० केतकर का महाराष्ट्र ज्ञानकोश इसी मॉग की पूर्ति है। डॉ. केतकर के कोश की तुलना में भारतीय साहित्य की अन्य भाषाओं में विरले ही ग्रथ होगे। वि० च. भिडे का १७ खडो का शब्दकोश, सरस्वतीकोश, सिद्धेश्वरशास्त्री चित्राव का वैदिक साहित्य का अध्ययन सुलभ बनाने की दृष्टि से चरित्रकोश, ग० र० मुजुमदार का व्यायाम-ज्ञानकोश-पर भिडे का पांच खडो मे 'व्यवहारज्ञानकोश', इनके अलावा वनस्पतिकोश, वैज्ञानिक शब्दकोश, समाजी शासन शब्दसग्रह, वाङ्मय सूची, पारिभाषिक शब्दकोश, रसकोश आदि कई अभिनव अथ इस दिशा मे मिलते है । हाल में मानसशास्त्रशब्दकोश प्रा० वाडेकर ने प्रकाशित किया है । इस प्रकार से कोश साहित्य का महावृक्ष बहुत दूर-दूर तक फैलता जा रहा है। ग्वालियर] Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रासयुग के गुजराती-साहित्य की झलक श्री केशवराम काशीराम शास्त्री विक्रम की पद्रवी सदी के अतिम पचीस वर्षों में गुर्जर भाषा के प्रादि-कवि का गौरव प्राप्त करने का मौभाग्य पानं वाने जूनागढ़ के नागर कवि नरसिंह मेहता ने अपनी ओर मे एक विशिष्ट प्रकार की काव्यवाग प्रवाहित की। उममे पहिले गुजगती भाषा में कुछ भी मादित्य नहीं था, एमा नी नहीं कहा जा सकता। पिछ नीम-पैतीस वर्षा में इम विपर में जो कुछ मगोधन हए है, उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि भारतवर्ष में अन्य महोदरा मापानी के साहित्य का जब तक प्रारम भी न हुआ था, गुजरात में भापा बहुत मम्कार पा चुकी थी। गोर्जर अपनग के मरक्षक आचार्य हेमचद्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में अपना का व्याकरण देते हुए हम जो लोकसाहित्य का परिचय दिया है उसे देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि इस भूमि में विपुन माहित्य का सृजन हो चुका था। मभवन उम ममय वह अम्न-व्यस्त रहा होगा। अपनग माहित्य ती वई पग्मिाण में ग्रया में आ गया था, पर उसम केवल गुजराती भाषा ही प्रयुक्त हुई है,ऐसा कहने के लिए हमारं पाम पर्याप्त प्रमाण नहीं है। वह तो भान्तवर्ष म ग्यारहवी-बारह्वी शताब्दी पर्यत गष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृत मामान्य अपनग के माहित्य का एक अग है, ऐमा कहना अधिक उपयुक्त है। जब मोज के 'मरस्वती कठामग्ण' की रचना हुई तब हम अपने माहिन्य को अमली प म देखने का मौभाग्य प्राप्त हुआ । गुजरात देश की भी अपनी निजी भाषा थी, इस बात के अभी तक प्राप्त प्रमाणो में प्राचीनतम प्रमाण यही ग्रथ है । भोज का "अपनगन तुप्पति वन नान्यंन गुर्जग" (म० क० २.१३) यह मबुर कटाक्ष यहाँ के लोकसाहित्य की अम्पष्ट स्मृति कराता है, यद्यपि भोज के उल्लिम्बित उदाहरणों में हम प्रान्तीय भेद को स्पष्ट करने के लिए कुछ भी नहीं मिलता। इस प्रकार का लाभ ना हम सर्वप्रथम प्राचार्य हमचद्र के द्वारा ही मिला। अपभ्रग का व्याकरण देते हुए प्राचार्य हेमचद्र ने लोक-साहित्य में में चुन-चुन कर अनेक दोहे हमारे लिए एकत्र कर दिये है। सबसे पहिलं उनमे हम इस देश की गमिकता का स्वाद मिलता है। एक प्रभावशाली चित्र देविये वायसु उहावन्तिए पिट दिटुट सहमत्ति । श्रद्धा वलया महिहि गय अद्धा फुट्ट तत्ति ।। (८-४-३५२) विरहिणी मृख कर कांटा हो गई है। विग्ह के कारण वह मगल-मूचक कौवे को उठाने जाती है और उसकी दुबली कलाई में मे प्राधी चूड़ियां निकल पडनी है। इतने में वह अपने प्रियतम को आता देखनी है और इम हपविग में उमका गरी प्रफुल्लित हो जाता है। पानट के उद्रेक मे उसकी दुबली कलाइयां रक्त में इननी भर उठनी है कि शेष त्रुटियाँ कलाई में न ममा मकन के कारण नटातट टूट जाती है। वप्पीहा पिट पिउ भणवि कित्तिउ रुमहि हयास । तुह जनि मह पुणु वल्लहइ बिहु वि न पूरिन श्राम ॥ (८-४-३८३) है पपीहे | तु पिडपिट' चिल्लाने-चिल्लाते हताश हो गया है, किन्तु जल ने तेरी पाया पूरी नहीं की। मेरे प्रियतम ने भी मेरी पाया पूर्ण नहीं की है। 'जब गह-प्रागण में कौवा बोलता है तो उस दिन किसी अतियि के पाने की सभावना की जाती है। गुजरात को इसी मान्यता की और यहां मक्त है-लेखक । Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ प्रेमी-अभिनदन-प्रय पिय संगमि कउ निद्दडी पिनहो परोक्खहो केम्ब । मइ विनि वि विनासिमा निद्द न एम्व न तेम्व ॥ (८-४-४१८) प्रियतम साथ होते हैं तो आनदोल्लास के कारण नीद नही आती। साथ नहीं होते तो विरह-दुख के कारण मांस नहीं लगती। इस प्रकार मिलन और विछोह दोनो प्रसगो मे मेरी नीद चली गई है। ऐसे अनेको शृगार, वीर, करुण आदि रस के सारगर्भित उदाहरण प्राचार्य हेमचद्र ने दिये है। इन्हें देखने से अनुमान होता है कि इस लोक में कितना विपुल साहित्य विखरा हुआ पडा है । इस प्रकार का साहित्य निरतर वढता हो गया है। साहित्य के गयो में उसका अधिकाग मम्मिलित नहीं हुआ है, पर इस प्रदेश मे वह अभी तक व्याप्त है। श्री भोरचद मेघाणी आदि लोक-साहित्य के प्रेमियो ने उमे पर्याप्त परिमाण मे सगृहीत करके इस देश की रसिकता, वोरता आदि का हमे स्पष्ट परिचय दिया है। एक ओर रसिकता-पूर्ण लोक-साहित्य पनपा तो दूसरी ओर अन्य प्रकार का साहित्य भी फला-फूला। अनेक माहित्यकारो ने हैम-युग मे साहित्य-सृजन किया, पर उसमे हमे भापा के असली रूप का आभास नहीं मिलता। यह चोज तो हमे रासयुग के साहित्यकारो की रचनात्रो मे ही दिखाई देती है। स० १२४१ में निर्मित वीररम से पूर्ण गालिभद्र सूरिकृत "भरतेश्वर बाहुबलिरास" नामक रास-काव्य अभी तक ज्ञात-कृतियो में प्राचीनतम कृति है, जिममें इस देश को वोलो असलो स्वरूप में हमे मिलती है। जोईय मरह नरिंद कटक मूछह वल घल्लइ , कुण बाहूबलि जे उ बरव मइ सिउ बल बुल्लइ । जइ गिरिकदरि विचरि वीर पइसतु न छुटइ, जइ थली जगलि जाइ किम्हइ तु सरइ अपूटइ ॥१३०॥ इस देश का साहित्यकार भी यहां अपनी मूछो परताव देता जान पडता है। रासयुग के लगभग ढाई सौ वर्ष के पश्चात् जन कवियों ने रास, फागु, वारमासी, धवलगीत, कक्का इत्यादि अनेक प्रकार का समृद्ध साहित्य इस देश को भेट किया । इसमे से प्रकाशित तो बहुत कम हुआहै। अभी तो कई सौ की सख्या मे पाडुलिपियाँ भडारोमे दवीछो पड़ी है। फिर भी जो कुछ प्रकाशित हुआ है उससे रामयुग की भव्यता का परिचय मिलता है। रामयुग की कविता धार्मिक परिधि मे वधी हुई है । अत प्रथम दृष्टि मे उममे हमे धार्मिकता का ही आभास होता है, पर उसका सूक्ष्म अध्ययन करने पर धार्मिक तत्त्व तो केवल कथा-वस्तु तक ही नीमित दीख पड़ता है। उस कथा-वस्तु की गोद में वास्तविक कवित्व ओत-प्रोत दिखाई पड़ता है। नेमिनाथ और राजिमती को लक्ष्य करके लिखे गये भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक काव्यो में हमे असली काव्य के दर्शन होते है। वारमासो विरह की महत्त्वपूर्ण काव्य-कृति होती है। यह चीज़ रासयुग मे पनपी है । चौदहवी सदी के पूर्षि में 'नेमिनाय-चतुष्पदिका' नामक वारमासी-काव्य विनयचन्द्र सूरि नामक एक जैन साधु ने तैयार किया था। निर्दोप विप्रलम्भ शृगार का ऐसा काव्य हमारी भाषा मे तो शायद अपूर्व है। उसकी भाषा की समृद्धि भी सम्मान की वस्तु है। श्रावणि सरवणि कडुय मेहु गज्जइ विरहि रिझिज्झइ देहु । विज्जु झवक्कइ रक्खसि जेव नमिहि विणु सहि सहियइ केम ॥२॥ मावन को बौछार गिरती है, कटु मेघ गर्जन करता है, विरह के कारण शरीर क्षीण होता है, राक्षसी जैसी विद्युत चमकती है। हे सखि । नेमि के विना यह सब कैसे सहा जाय ? फागु मे वसन्त-क्रीडा का वर्णन मिलता है। यह भी रासयुग को वारमासो जैसी दूसरो आकर्षक वस्तु है । Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रासयुग के गुजराती-साहित्य की झलक ५४५ • राजशेखर ने चौदहवी सदी के सन्धिकाल में 'नेमिनाथ फागु' नामक फागु-काव्य का निर्माण किया था। इसमें भी, नायक और नायिका नेमिनाथ व राजिमती है। कवि उसमे पूर्ण रूप से चमक उठता है राइमए सम तिहु भुवणि अवर न अत्यह नारे। मोहणविल्लि नवल्लडीय उप्पनीय ससारे ॥७॥ अह सामल कोमल केशपास किरि मोरकलाउ । प्रद्धचद समु भालु मयणु पोसइ भडवाउ । वकुडियालीय मुंहडियहँ भरि भुवणु भमाडइ । लाडी लोयण लह कुडलइ सुर सग्गह पाडइ ॥८॥ किरि सिसिबिंव कपोल कन्नहिंडोल फुरता । नासावसा गरुडचंचु वाडिमफल वता। प्रहरपवाल तिरेह क राजलसर रूडउ । जाणु वीणु रणरणइ जाणु कोइल टह कडलउ ॥६॥ सरस तरल भुयवल्लरिय सिहण पीणघणतुंग। उदरदेसि लकाउलि य सोहइ तिवल-तुरग ॥१०॥ अह कोमल विमल नियंबबिंब किरि गंगा पुलिणा। करि कर ऊरि हरिण जघ पल्लव कर चरणा ॥ मलपति चालति वेलडीय हसला हरावइ । सझारागु अकालि बाल नह किरणि करावइ ॥११॥ तीन लोक में राजिमती जैसी स्त्री नहीं है, मानो ससार में अद्भुत मोहन बेल प्रकट हुई है। उसके श्याम रग के कोमल केश मानो मयूर के पिच्छ कलाप हैं। अर्ध-चन्द्र जैसा उसका ललाट वलवान चरणो वाले कामदेव का पोषण करता है। उसकी तिरछी भौंए ससार को उन्मत्त बनाती है और आँखो के मधुर सकेतो से वह स्वर्ग के देवो को भी आकृष्ट कर लेती है। उसके कपोल कान रूपी झूले पर झूलते हुए चन्द्रमा के विम्ब जैसे है। नाक गरुड की चचु जैसी और दांत अनार के दाने जैसे। उसके ओष्ठ प्रवाल जैसे लाल और कठ सुन्दर है, मानो वीणा वोल रही हो या कोयल गा रही हो। भुजाएँ सोधी व चपल है, स्तन पीन घन और नुग है। उसके उदर प्रदेश में तीन रेखाएं शोभा देती है। गगा के किनारो जैसे कोमल विमल नितम्व है । जधाएँ हाथी की सूड जैसी, घुटनो का प्रदेश मृग जैसा व हाथ-पांव पल्लव जैसे है । मदभरी चाल से चलती हुई लता जैसी वह हसो को पराजित करती है और वह वाला अपने नखो की किरणो से सन्ध्या का रग जमाती है। मानो मदभरी चलती हुई उस वाला की भांति गुजराती-कविता भी आगे बढ़ती चली जाती है। अहमदाबाद ] Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक महत्त्व की एक प्रशस्ति श्री साराभाई मणिलाल नवाव मेरे मग्रह में मवन् १४७३ की श्री स्तम्भनीर्थ (खम्भात) मे धर्मघोपमूरि विरचित 'कालिकाचार्य कथा' की तेरह पृष्ठ की एक हस्तलिखित प्रति है । उसके नवे पृष्ठ की आठवी पक्ति से तेरहवें पृष्ठ तक अड़तालीन श्लोक की एक सुन्दर प्रगन्ति है। उसके पैतालीमवे श्लोक में प्रति लिखवाने तथा उसे चित्रित कराने के वर्ष का और जहां वह लिखी गई थी उम नगर का उल्लेख है। सैतालीमवें श्लोक में उम प्रति के लेखक मोमसिंह और उसके लिए पांच चित्र बनाने वाले चित्रकार देईयाक का नाम भी दिया हुआ है। चित्रकार का नामोल्लेख इम प्रति की विशेषता है। इस प्रशस्ति में श्वेताम्बरीय जनतीर्थ जैसे गत्रुजय, गिरनार, पाबू, अन्तरीक्ष जी, जीरावला और कुल्पाक का उल्लेख है, जो जैनतीर्थों के इतिहास के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जैन-मडारी में सुरक्षित हजारो ग्रन्यो मे मे शायद ही किसी अन्य के अन्त मे ऐसी सुन्दर एव विस्तृत प्रशस्ति मिलनी हो। अत बहुमूल्य ऐतिहामिक मामग्री से परिपूर्ण इस प्रशस्ति को हम यहां मूलरूप मे उसके अनुवाद सहित देते है और आशा करते है कि पाठको के लिए वह लाभदायक सिद्ध होगी। मूल प्रशस्ति इस प्रकार है प्रशस्तिः पदत्रयी यस्य विभोरशेषतो विष्णोरिव व्याप जगत्रयीमिमाम् । सद्भुतवस्तुस्थितिदेशक सता श्रीवर्द्धमान. शिवतातिरस्तु ॥१॥ गणमणि लसदविलंब्धि लक्ष्मीनिधान गणघरगणमुल्य शिष्यलक्षप्रधानम् । शम-दमकृतरगो गौतम श्रीगणेश किसश (किश)लयतु शिवश्रीसगम शाश्वत व ॥२॥ विद्वन्मन कमलकोमलचक्रवाले या खेलति प्रतिकल किल हसिकेव । ता शारदां सकलशास्त्रसमुद्रसान्द्र पारप्रदा प्रणमता वरदा च चन्दे ॥३॥ भू भू (भल्लवप्रतिष्ठे श्रितसुजनकृतोऽनन्तपापापहारे प्रेसच्छाखाविशेषे विपुलपरिलसत्सर्वपर्वाभिरामे। उकेगाहवानवशे समजनि सुकृती व्यक्तमुक्तायमान श्रीमान् धीनाऽभिधान सुगुणगणनिधिर्नायक श्राद्धघुर्य ॥४॥ तस्याऽङ्गजोऽजनि जगत्रयजातकोति ___ नाऽभिध सुकृतसततिमूर्तमूत्ति । तस्यापि याचककदम्बकदत्तवित्त लक्षश्च लक्ष इति पुत्र उदारचित्त ॥५॥ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४७ ऐतिहासिक महत्त्व की एक प्रशस्ति तस्याङ्गज. पोषटनामवेय समत्तलोकाद्भुतनागवे य.। __पल्योऽभवन स्वीमसिरितच मुल्या ताश्च पाल्हूरिति चास्यतिन.॥३॥ तासां क्रमेण गुणगौरवशालिनोऽमी पुत्रास्त्रय. समभवन् गुरुर्कात्तिभाल । गाङ्गाह्वयोज्य प्रथम प्रयितो द्वितीय. थीकामदेव इति चाय च वामदेव ॥७॥ गानाटयस्य जननी जज्ञे गुणश्रीरिति नामत । क्पूराईरिति त्याता कामदेवस्य वल्लभा ॥८॥ गाङ्गाजल्यस्य वनूब भूरिविभव मधेशरानाभह्वय । पूर्वः पुत्रवरः प्रसिद्धमहिमा नायूस्तया चापर.। राजा संघपतिर्वसन् नरगिरी भूपालमान्यो व्यघा~ नानापुण्यपरम्परा गुरुतरा श्रीसघभक्त्यादिका. ॥६॥ श्रीमत्रुञ्जय-रवतक्षितिवर-श्रीअर्बुद-श्रीपुरश्री जिरालि-कुल्यपाकप्रमुखत्रीतीर्थयात्रा मुदा । कालेत्रापि कली कराल ललिते चने स संघाधिपो वर्षयिजने घनाधन इव द्रव्याणि पानीयवद् ॥१०॥ एवं वितथि (वि)विषोत्सवव्रन __ श्रीमामन नमिदं म सघप । उद्योतयामान तया यया स्फुर करप्रसारंगंगनाङ्गणं रवि ॥११॥ इतञ्च ऊकेशाह्वे विशदजननेजायत श्राद्धघुर्यों धन्यो मान्यो निखिलवियां नेत्रसिंहो धनीश । श्रेय. श्रीमास्तदनु च नयात् मिहनामा प्रभावादानीद् दासीकृत खलकुलस्तस्य पुत्र. पवित्र ॥१२॥ तस्यापि पुत्रो श्रितननवाँ लक्ष्मीपराभल्योनवदद्भुत श्री । अमुष्य पत्नी च समस्ति नाम्ना ल्पी मनोहारिगुणाम्बुकूपी ॥१३॥ हरराज-देवरानी खीमराजस्तयाऽपर. । इति त्रयस्तयो पुत्रा. पवित्रा पुण्यतोऽभवन् ।।१४।। हरराजस्य नायाऽस्ति नाम्ना हांसलदेरिति । चन्द्रोन्ज्वलकलाशीला धर्मर्मसु कर्मन ॥१५॥ नाम्ना नरपति पूर्व पुण्यपातो द्वितीयक। तृतीयो वीरपानाट्यस्तुर्य. महस्ररानक ॥१६॥ पञ्चमो दशराजश्च पञ्चेति तनयास्तयो । पासते भूरिभाग्याश्या देमाईहिता तया ॥१७॥ युग्मम् ।। Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ प्रेमी-प्रभिनंदन-ग्रंथ राजाऽभिधस्याजनि सघपस्य समिणी धर्मपरायणेयम् । यथैव लक्ष्मी पुरुषोत्तमस्य ___ हरे शचीवाऽथ हरस्य गौरी ॥१८॥ सारङ्ग प्रथमोऽथिना सुरतरुप्रख्यो द्वितीयस्तथावार्योदार्यरमा निरस्तधनद श्रीरत्नसिंहाभिधः । तार्तीयीक-तुरीयको च सहदे-श्रीतूकदेवाह्वयो चत्वारश्चतुरा जयन्ति तनया एते तयोविभुता ॥१९॥ तोल्हाई पल्हाई-रयणाईनामका च लोलाई । सन्त्येताश्व चतस्त्र पुन्य पात्र गुणणे ॥२०॥ सधेशो नूनराजो जगति विजयते कामदेवस्य पुत्र सर्वत्रामानसर्पनिजविमलयश पूर्णविश्वत्रयीक । पुत्री पात्र गुणाना जयति च झवकू शम्भुशीर्षस्थगङ्गा रङ्गतुङ्गत्तरङ्गस्नपितसितकरीज्ज्वल्यतुल्यस्वशीता ॥२१॥ नूनाह्वसधाधिपते समस्ति प्रिया जयश्रीरिति धर्मनिष्णा। आस्ते महादेव इति प्रसिद्ध. सुतस्तयोभूरि रमासमृद्ध ॥२२॥ पुत्रीद्वय च फन्हाई. सोनाईरिति चापरा। महादेवाङ्गज साधुरश्वधीर सुधीवर ॥२३॥ युग्मम् ।। एतावता निजकुटुम्बयुतेन तेन नूनाऽह्वसधपतिना वसताऽमराद्री श्रीअन्तरिक्षमुखतीर्थ विचित्रयात्रा मुख्या [] कृता विविधपुण्यपरम्परास्ता ॥२४॥ इतश्च श्रीमद्दक्षिणदेशसघसहितो नूनाह्वय सधप । श्रीशत्रुञ्जय-रैवता-बुंदगिरि-श्रीतीर्थयात्राचिकी । प्राचालीन्महता महेन मतिमान् श्रीगूर्जरात्रा प्रति श्रीमच्छासनकानन प्रतिपद दानाम्बुभि सिञ्चयन् ॥२५॥ यात्राया यस्य जात्योत्तरल तरचलद्वाजिराजिप्रभूतप्रोत्सर्पत्पृष्ठवाहप्रकर रथभरोद्धृतधूलीकलापे। व्याप्ताऽकाशाऽवकाशे स्थगितरुचिरवी रात्रिकल्पा दिवासीद् । रात्रिश्चासीद् दिवेव प्रसरति परितो दीपिकाना प्रकाशे ॥२६॥ दिड्मातङ्गास्तुरङ्गप्लवनपरिचलद् भूभरोद्भग्नशीर्षा शेषेश्मा पीठभार सकलमपि ददु सोऽपि फूर्माधिराजे । तद्भाराद् भङ्गुराज्ङ्ग स च पुनरभवद् (त्) कुन्जितस्वाङ्ग इत्य । यत्र श्रीतीर्थयात्रा प्रति चलति समेऽमी विमुक्ताऽधिकारा' ॥२७॥ यात्राक्षणे यस्य रजोभिरुद्धृतर्लेभेऽन्वयो निर्जरसिन्धुपङ्कज । श्रोतीर्थिकस्नात्र जलप्रवाह समुच्छलङ्गि स्थलवारिजश्च ॥२८॥ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र च--- इतश्च- तयाहि ऐतिहासिक महत्त्व की एक प्रशस्ति स्फूर्जद गूर्जरमण्डलाधिपसुरत्राणेन सन्मानित श्रीयात्राफरमाणदानविधिना चीरप्रदानैस्तदा । भव्याद्यैश्च तदीयशाखिभिरपि श्रीतीर्थयात्रा असौ जीरापल्लिमुखा व्यधाप्यत पुरो भूत्वा महाप्रीतित ॥ २६॥ दुष्टेऽस्मिन्नपि दुष्यमाह्न समये श्रीतीर्थयात्रा इति द्रव्योत्सर्जनविस्तरेण महताऽनेनाऽऽदरात् कुर्वता । क्ष्मापाला-ऽऽम्रकुमारपालनृपति-श्रीवस्तुपालादय. सर्वेऽपि स्मृतिगोचर विरचिताश्वित्रैश्वरित्र स्वकै ॥३०॥ विधाय यात्राः सकला श्रथाऽय श्रीपत्तनाऽऽह्वानपुरे समागात् । श्रीशासन जैनमिद प्रभावयन् प्रभूतलक्ष्मीव्ययतोऽर्थिना व्रजे ॥३१॥ तत्राऽय चन्द्रगण पुष्करसूरकल्पा श्री सोमसुन्दर गुरुप्रवरा गणेशा | , सघेश्वरेण विनता विहिता च गुर्बी प्रोद्दीपना जिनमतस्य महोत्सवौषै ॥ ३२॥ श्रीस्तम्भतीर्थ- पुरपत्तनतीर्य सार्थ कर्णावती प्रमुख भूरि पुरेण्वनेन । सघ समश्च सकल मुनिमण्डल च स्फूर्जंदुकूलवस परिघाप्यतेऽस्म ॥३३॥ सघाघीशो राजमल्लस्य पत्नी देसाई सा तीर्थयात्रामुखानि । कुर्वाणा श्रीपुण्यकृत्यानि नाना तेने हृद्योद्यापनादीनि तत्र ॥३४॥ श्रीदानशील प्रमुखान सङ्ख्यान् गुणोत्कराश्चन्द्रकलोज्ज्वलास्तान् । क कोविद श्लाघयितु समर्थस्तस्याश्च सघाधिपराजपत्न्या ||३५|| निरीक्ष्य शील विमल यदीय स्वत शशाङ्क किल विद्यमान । एकैकयाsय कलया प्रहीयते दिने दिने तामपकर्तुमक्षम ॥३६॥ श्रीसघभक्ति-गुरु-पुस्तकलेखनाऽऽदि श्रीतीर्थं सार्थ करण प्रमुखाणि हर्षाद् । पुण्यानि या प्रतिदिन कुरुते स्वकीय द्रव्यव्ययाद् वहुविधान्यपि याऽपराणि ॥३७॥ श्रीपौषधाऽवश्यक मुख्यधर्म्य कर्माणि कर्माष्टक भेदनानि । धर्मामृतोद्भावितसप्तघातु यतिन्तनीति प्रवरप्रमोदात् ॥३८॥ क्षेत्रेषु सप्तस्वपि भव्यभावाद् (त्) स्वद्रव्यवीज विपुल मुदेति । या वापयामास परत्र लोके संख्याऽतिगश्रीभरवृद्धिहतो. ॥३९॥ ૪૨ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रय ५५० तत्रैवाऽयो पत्तने श्रीगुरूणा तेषा भव्यप्रार्थित्तस्वस्तरूणाम् । देमाई साश्राविकावर्गमुख्यानोषीद् (त्)हर्षाद् देशनावाणिमित्यम् ॥४०॥ तथाहि न ते नरा दुर्गतिमाप्नुवन्ति न मूकता नैव जडस्वभावम् । न चान्धता बुद्धिविहीनता च ये लेखयन्तीह जिनस्य वाक्यम् ॥४१॥ लेखयन्ति नरा धन्या ये जिनाऽऽगमपुस्तकम् । ते सर्ववाड्मय ज्ञात्वा सिद्धि यान्ति न सशय ॥४२॥ पठति पाठयते पठतामसी वसन-भोजन-पुस्तक-वस्तुभि । प्रतिदिन कुरुते य उपग्रह स इह सर्व विदेव भवेन्नरः ॥४३॥ विशेषत. श्रीजिनवीरभाषित श्रीकल्पसिद्धान्तमम् समुद्यता । ये लेखयन्तीह भवन्ति ते ध्रुव महोदयानन्दरमानिरन्तरम् ॥४४॥ निशम्य तेषामिति देशनागिर चिर फिरन्तीमुदयं महेनसाम् । विशेषत पुस्तकलेखनादिके श्रीधर्मकृत्येऽजनि सा परायणा ॥४५॥ श्रीस्तम्भतीर्यनगरे प्रवरे ततश्च श्रीकण्ठनेत्र-मुनि-विश्वमिते च वर्षे । (१४७३)। श्रेय श्रियेबहुतरद्रविणव्ययेन श्रीकल्पपुस्तकमिमं समलीलिखत् सा ॥४६॥ यावद् वित्ति धरणी शिरसा फणीन्द्रो यावच्च चन्द्रतरणी उदितोऽत्र विश्वे। तावद् विशारदवरैरतिवाच्यमानाः श्रीकल्पपुस्तफवरो जयतादिहष ॥४७॥ लिखित सोमसिंहन देईयाकेन चित्रित । आकल्प नन्दतादेष श्रीकल्प सप्रशस्तिक. ॥४॥ इति श्रीकल्पप्रशस्ति. समाप्ता ॥छ। अनुवाद जिस परमेश्वर की पदत्रयी (उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यरूप) ने विष्णु की भांति तीनो लोक को व्याप्त कर दिया है, वह ययार्थ वस्तु स्वरूप का उपदेश देनेवाले श्री महावीर स्वामी सज्जनो के लिए कल्याण की वृद्धि करने वाले हो ॥१॥ गुणरूपी रत्लो के लिए लहराते हुए समुद्र के समान, लब्धिरूप लक्ष्मी के भडार तुल्य, गणाधीशो के समुदाय के नायक, लाख शिष्यो के प्रधान, शम-दम में जिन्हें आसक्ति है, ऐसे सम्पत्ति भडार के स्वामी श्री गौतमस्वामी कल्याण (मोक्ष)रूप-लक्ष्मी के सयोग को सनातन करो ॥२॥ ___जो पडितो के मनरूपी कमल की कोमल पखुडियो में और प्रत्येक कला में हसिनी के समान खेलती है, उस समस्त शास्त्ररूपी समुद्र एव वन को पार कराने वाली और प्रणाम करने वालो को वरदान देने वाली सरस्वती को मै प्रणाम करता हूँ ॥३॥ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५१ ऐतिहासिक महत्व की एक प्रशस्ति गजाश्री ने जिसे सम्मान प्राप्त हुआ है और जो मज्जनो को ग्राश्रय देने वाला और अनन्त पाप का हरण करने वाला है, जिसकी व्वजाएँ फहरा रही है, जो अनेक विशाल पर्वो मे सुशोभित है, ऐसे उकेश नामक वश में चमकते मोती के समान मद्गुणों के समूहों का भडार श्रावको में अग्रणी और पुण्यगाली श्रीमान वीना नामक महान पुरुष हुआ ॥४॥ तीन लोक मे जिनकी कीर्ति व्याप्त हुई और जो पुण्य कार्यों की साक्षात मूर्तिरूप है, ऐमा भोजा नामक उसका पुत्र हुआ । उसे भी भिक्षुको के ममुदाय को लाखो का दान देने वाला उदार हृदय लक्ष नाम का पुत्र प्राप्त हुश्रा ॥५॥ उसके मारे ममार में श्रद्भुत सौभाग्यशाली पोपट (खोखट ) नाम का पुत्र हुआ । उसके तीन स्त्रियाँ थी -- (१) खीममिरि ( मुख्य पत्नी), (२) तारु और (३) पाल्तु ||६|| गुण के गौरव से शोभायमान और अत्यन्त कीर्तिवान उनके तीन पुत्र हुए। ( १ ) गाँगा, (२) कामदेव श्रीर (३) वामदेव ||७| गांग के गुणश्री नाम की पत्नी थी और कामदेव की पत्नी का नाम कर्पूरार्ड था |८|| गांगा के वडा ही वैभवशाली और प्रसिद्ध एव महिमावान मधपति राजा नाम का पहला श्रेष्ठ पुत्र हुग्रा और दूसरा पुत्र नाथु नाम का हुआ । देवगिरि में रहने वाला राजाओ का मान्य यह सघपति राजा श्रीसघ की भक्ति आदि अनेक प्रकार के पुण्य कार्य करता था ॥६॥ इस घोर कलियुग में भी भिक्षुको में वारीण के मदृश धन को पानी के समान वहाने वाले उस मघपति ने श्री अजय, गिरनार, श्रावू, श्रन्तरीक्ष जी, जीरावला जी, कुलपाक जी यादि प्रमुख तीर्थों की यात्रा श्रानन्दपूर्वक की थी ॥१०॥ इस प्रकार के अनेको उत्मवो के द्वारा उस मवपति ने जैन शामन को ऐसे प्रकाशमान किया जैसे सूर्य अपनी चमकती किरणों को फैलाकर आकाशमंडल को प्रकाशित करता है ॥ ११ ॥ और aha नामक निर्मल वश में श्रावको का प्रवान समस्त पडितो का मान्य धन्यवाद का पात्र जयसिंह नाम का निको में गुया हुआ । उसके पश्चात् श्रपने प्रभाव से समस्त खलपुरुषो के समूह को दाम बनाने वाला जयसिंह नाम का पवित्र पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ १२ ॥ उसके श्रद्भुत लक्ष्मी वाला जैन धर्मानुयायी लक्ष्मीवर नाम का पुत्र पैदा हुआ। उसकी पत्नी मनोहरगुणरूपी जल के कूप के समान रूपी नाम की थी ॥ १३॥ पुण्य सयोग से उनके हरराज, देवराज और खेमराज नाम के तीन पुत्र उत्पन्न हुए || १४ || हरराज के धर्म-कर्म में निपुण, चन्द्र की उज्ज्वल कला जैमी शीलव्रत वाली हॉमलदे नाम की पत्नी थी ॥ १५॥ उसके नरपति, पुण्यपाल, वीरपाल, महमराज और दाराज नामक पाँच वडे भाग्यशाली पुत्र हुए और देमाई नाम की एक कन्या हुई ॥१६, १७॥ देमाई सघपति राजा की धर्मपरायणा पत्नी थी, विष्णु की लक्ष्मी, इन्द्र की शची अथवा महादेव की पार्वती के मदृ ॥ १८ ॥ उनके माँगने वाले के लिए कल्पवृक्ष के समान' (१) मारग नाम का, (२) जिमने श्रविरल श्रोदार्यरूप लक्ष्मी ने कुबेर को परास्त किया है, ऐसा रत्नसिंह नाम का, (३) सहदेव और (४) श्री तुकदेव नाम के प्रख्यात चार चतुर पुत्र हुए ||१६|| श्रीर उनके (१) तील्हाई, (२) पल्हाई, (३) रयणार्ड और (४) लीलाई नाम की गुणी के समूह की भाजन चार पुत्रियाँ थीं ||२०| Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ चारो ओर निर्मर्याद फैलते हुए अपने निर्मल यश से जिसने तीनो लोको को भर दिया है ऐसा सघपति ननराज नाम का कामदेव का पुत्र ससार मे जय पाता है, और कामदेव की भवकू नामक गुणवती और महादेव के मस्तक पर रही हुई गगा नदी के उछलते हुए बडे-बडे तरगो से घुले हुए चन्द की उज्ज्वलता के जैसा जिसका चरित्र है, ऐसी पुत्री जय पाती है ॥२१॥ सघपति नूना के धर्मपरायणा जयश्री नामक पत्नी थी। उनके बहुत लक्ष्मी वाला प्रसिद्ध महादेव नामक पुत्र और (१) कन्हाई और (२) सोनाई नामक दो पुत्रियां थी। महादेव के बुद्धिमानो मे श्रेष्ठ प्रश्वधीर नामक साधुचरित पुत्र था ॥२२, २३॥ इस प्रकार अपने कुटुम्ब के साथ देवगिरि (दौलतावाद) रहते हुए सघपति नूना ने अनेक प्रकार के पुण्य की परम्परा रूप श्री अन्तरीक्ष आदि तीर्थों की अद्भुत यात्राएँ की ॥२४॥ और श्री शत्रुञ्जय, गिरनार, आबू तीर्थ आदि की यात्रा के इच्छुक बुद्धिमान सघपति नूना ने कदम-कदम पर दानरूपी जल से जैन-शासन रूपी वन को सीचते हुए दक्षिण देश के सघ के साथ बडी सजधज से गुजरात की ओर प्रयाण किया ॥२५॥ जिसकी यात्रा में उत्तम और अतीव आँखो के चलन से एव रथो के समूह से उछली हुई धूल के समूह से आकाशमार्ग व्याप्त होने के कारण सूर्य अदृश्य हो जाने से दिवस रात्रि जैसा हो गया और दीपको का प्रकाश चारो ओर फैल जाने से रात्रि दिवस जैसी हो गई ॥२६॥ अश्वो की दौड से कम्पायमान पृथ्वी के भार से जिनके सिर टूट गये है, ऐसे दिग्गजो ने पृथ्वी का समग्र भार शेषनाग को दे दिया, शेषनाग ने कच्छपराज को दे दिया वह भी उस भार से शरीरभग्न हो जाने से सकुचित अग वाला हो गया। इस प्रकार सबके तीर्थयात्रा को जाते समय इन सब ने अपना अधिकार छोड दिया ॥२७॥ जिसके यात्रा के समय उडे हुए धूल कणो से व उछलते हुए श्री तीर्थकर प्रभु के स्नान के जल के प्रवाह से स्वर्गलोक के कमल और मत्यलोक के कमलो का मिलान हो गया ॥२८॥ उस समय दैदीप्यमान गूर्जर-मडल के स्वामी सुलतान से यात्रा के फरमान और पोपाक के दान के द्वारा सम्मानित किये गये और उसकी जाति के भव्यजनो से भी सम्मानित किये गये उस सधपति ने अगुवा वन कर जीरावला आदि मुख्य तीर्थों की यात्राएँ की ॥२६॥ दुषम नामक इस दुष्ट समय में भी द्रव्य का वडा भारी त्याग करके इस प्रकार भावनापूर्वक तीर्थयात्रामो को करने वाले इस (सघपति) ने अपने अद्भुत चरित्र से आम्र राजा, महाराजा कुमारपाल, वस्तुपाल आदि सव को याद दिलाया है ॥३०॥ मांगने वालो के समूह में पुष्कल धन का व्यय करके भी जनशासन की प्रभावना करता हुआ यह (सधपति) सव यात्राएँ करके श्रीपत्तन नामक नगर में पाया ॥३१॥ वहां पर सघपति ने चन्द्रगण रूप कमल के लिए सूर्य समान गणाधीश श्री सोमसुन्दर नाम के वडे गुरु का बन्दन किया और बडे-बडे उत्सवो के समूह से जिनमत की बड़ी भारी प्रभावना की ॥३२॥ श्री स्तम्भतीर्थ, (खम्भात) पाटन, अन्य तीर्थ और कर्णावती (वर्तमान अहमदावाद) आदि अनेक नगरो में इसने समस्त सघ को और समस्त मुनिमडल को उत्तम वस्त्र पहनाये ॥३३॥ और सघपति राजमल्ल की पत्नी देमाई ने भी वहाँ तीर्थयात्रा के प्रमुख पुण्यकार्य करते हुए मनोहर उद्यापन प्रादि किये ॥३४॥ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक महत्व की एक प्रशस्ति ५५३ सघपति राजमल्ल की उस पत्नी के चन्द्र की कला जैसे उज्ज्वल दानशील इत्यादि असख्य उत्तम गुणो की प्रशसा करने में कौन पडित समर्थ है ? || ३५॥ श्रीर- जिसका निर्मल चरित्र देख कर उसे भ्रष्ट करने में असमर्थ चन्द्र स्वय खेदपूर्वक प्रतिदिन एक-एक कला से क्षीण होता जाता है ||३६|| जो अपने धन के व्यय से सघभक्ति, गुरु-सेवा, ग्रन्थो का लिखवाना, तीर्थों का पय्यंटन, इत्यादि पुण्यकार्य हर्षपूर्वक करती थी तथा अन्य अनेक प्रकार के पुनीत कार्यों में सलग्न रहती थी, जो बडे आनन्द से अष्टकर्म के नाश करने वाले पौषध, आवश्यक प्रमुख धर्म - कृत्य और शरीर की सातो धातुओ में धर्मामृत का सिंचन करती थी, जो परलोक में अगणित धन प्राप्त करने के उद्देश्य से अपने द्रव्य रूपी बीज को विपुल परिमाण में उत्तम भावना पर्वक आनन्द से सातो क्षेत्रो में बोती थी, उस श्राविका वर्ग में श्रेष्ठ देमाई ( श्राविका ) ने वही पाटण में भव्यो के लिए कल्पवृक्ष रूपी उन गुरु का इस प्रकार धर्मोपदेश सुना ।। ३७-४०।। जैसे कि- जो मनुष्य इस ससार में जिनागम लिखवाते है, वे दुर्गति को प्राप्त नही होते, न मूकता को, न जडता को और न अन्धेपन को न बुद्धिहीनता को ॥४१॥ जो धन्यपुरुष जैनागम लिखवाते है वे सर्वशास्त्र को जान कर मोक्षमार्ग को प्राप्त करते है, इसमे सन्देह नही ॥४२॥ मनुष्य सर्वदा पढता है, पढाता है और पढने वाले की पुस्तक इत्यादि चीज़ो से सहायता करता है, वह यहाँ सर्वज्ञ ही होता है ॥ ४३ ॥ विशेषकर जो उद्यमशील मनुष्य श्री वीर भगवान द्वारा कहे गये कल्पसूत्र के सिद्धान्त ग्रन्थ लिखवाते हैं वे अवश्य ही श्रानन्द स्वरूपी लक्ष्मी के समीपवर्ती होते है ॥ ४४ ॥ इनकी इस प्रकार की उपदेशवाणी को सुन कर चिरकालीन महापाप के उदय को काटती हुई वह श्रागमलेखन आदि धर्म-कृत्यों में विशेष रूप से आसक्त हुई ||४५|| पश्चात् श्री स्तम्भ तीर्थ (खम्भात) नामक श्रेष्ठ नगर में सवत् १४३७ की साल में बहुत से धन का व्यय करके कल्याण रूपी लक्ष्मी के लिए देमाई ने कल्पसूत्र का ग्रन्थ लिखवाया ॥४६॥ जब तक शेषनाग सिर पर पृथ्वी को धारण करता है और जब तक सूर्य-चन्द्र ससार में उदित होते हैं तब तक श्रेष्ठ पडितो द्वारा पढा जाने वाला कल्पसूत्र का यह श्रेष्ठ ग्रन्थ जय पायेगा ॥ ४७ ॥ सोमसिंह द्वारा लिखित और देईयाक द्वारा चित्रित प्रशस्तियुक्त यह कल्पसूत्र युगपर्य्यन्त वृद्धिगन्त हो ॥ ४८ ॥ कल्पसूत्र की प्रशस्ति समाप्त अहमदाबाद ] ७० Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवीं सदी का गुजरात का राजमार्ग श्री धीरजलाल धनजीभाई शाह बी० ए० दिल्ली में अपना प्रभुत्व स्थापित करके अलाउद्दीन खिलजी ने धीरे-धीरे अपने राज्य का विस्तार करना प्रारम किया। विक्रम् नवत् १३६६ तक तारा गुजरात उत्तके अधीन हो गया। इसी साल उसने जैनो के परम पवित्र तीर्थ यत्रजय के जार धावा बोल दिया और मूलनायक श्री आदीश्वर प्रभु की मूर्ति को उसकी सेना ने खडित कर दिया । इस ऐतिहासिक तथ्य का उल्लेख तत्कालीन 'तमरारातु' और 'नाभिनन्दन जिनोद्वार-प्रवन्ध में मिलता है। 'राम' और 'प्रबन्ध में कथा-वस्तु एक ही है। उकेश वभ की पांचवी पीढी में प्रह्लादनपुर (पालनपुर) में मनक्षण नामक एक जैन गृहत्य रहता था। उनके प्रपौत्र देशल ने पाटण में स्थिर होकर धन व प्रतिष्ठा प्राप्त की। उसके तीन पुत्र थे-महपाल, ताहणपाल और समरसिह । शत्रुञ्जय पर्वत की मूर्ति के खंडित होने का समाचार पाकर समरसिंह को वडा दुख झा और उकेश गच्छ के आचार्य सिद्धसरि के उपदेश से उक्त मन्दिर का जीर्णोद्धार कराने की तीव लालमा उनमें उत्पन्न हुई। पत जीर्णोद्धार के लिए पाटण के सूबे की आज्ञा प्राप्त कर उसने आरासण पर्वत में से सगमर्मर की एक वडी शिला मंगवाई और उसमे से एक विशाल प्रतिमा का निर्माण कराया। तदनन्तर पाटण ने एक विराट् सघ निकाल कर विक्रम संवत् १३७१ में शत्रुजय के मन्दिर का जीर्णोद्धार करा कर नवीन मूर्ति की प्रतिष्ठा की। वहां से गिरनार आदि स्थानो में होता हुआ सघ पाटण लौट आया। रास-नाहित्य में 'समरारानु" की अनेक प्रकार की विशेषताएँ है। उसके रचयिता निवृतगच्छ के श्री अम्वदेवरि ननरसिंह के समकालीन थे। इतना ही नहीं, बल्कि समरसिंह के सघ में सम्मिलित हुए अनेक आचार्यों में से बेनीएक थे। इनदृष्टि ने भी यह 'रास' उपयोगी है। इसके अतिरिक्त उस समय की भाषा, सामाजिक व राजनैतिक परिन्यिति का उल्लेख उनमे मिलता है । यह न्यि प्राचीन गुजराती भाषा मे लिखा गया है। नाभिनन्दन जिनोद्धार पवन्य' भी ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। उसके रचयिता श्री कक्कसूरि भी नमनिह के समकालीन थे और तप मे वह भी सम्मिलित हुए थे। 'समरारातु' का रचनाकाल हमें ज्ञात नही है, पर ऐसा अनुमान होता है कि विक्रम नवत् १३७१के आसपास उसका निर्माण हुआ होगा, क्योकि शत्रुञ्जय के जीर्णोद्धार के ममय रन्यकार वहां मौजूद थे। 'नाभिनन्दन जिनोद्धार प्रबन्ध' की रचना विक्रम सवत् १३६३ मे हुई। मनुजय के उद्धार के पश्चात् लगभग वीस वर्ष के भीतर की कृति होने के कारण उसमें सामाजिक एव राजकीय दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी सामग्री मिल सकती है। 'प्रबन्ध' मे २३४४ श्लोक हैं और उसके पांच प्रस्तावो मे ने प्रथम व अन्तिम प्रस्ताव गजरात के इतिहास और भूगोल के विषय मे अच्छा प्रकाश डालते है। नाभिनन्दन जिनोद्वार प्रवन्ध में उस समय के समूचे गुजरात का बहुत ही सजीव चित्र मिलता है। थोडेने गन्दो मे लेखक ने उस प्रदेश का वडाही सुन्दर चित्र अकित कर दिया है। उन वर्णन में थोड़ी-बहुत कवि की कल्पना भी हो सकती है, फिर भी गुजरात का यथार्थ स्वल्प हमारे समक्ष आ ही जाता है। उकेग वम के वनहकुल की चौथी पीढी में तल्लक्षण नाम का एक व्यक्ति उत्पन्न हुआ था। वह मारवाड के विराटपु नगर की अपनी दुकान पर वैश करता था। योग से गुजरात का एक सार्थवाहक अनेक किराणे लेकर उम नगर में आया। बाजार में होता हुआ जब वह जा रहा था तो सल्लक्षण ने कुतुहल से पछा “आप किस देश से 'देखिये 'प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह' भाग १, पृष्ठ २७ । Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवीं सदी का गुजरात का राजमार्ग ५५५ श्राये है और श्रापका वह देश कितना गुणवान व समृद्धिवान है ? उस देश के सर्वश्रेष्ठ नगर का विस्तृत वर्णन मुझे सुनाइए ।" सार्थपति ने कहा “हे महाबुद्धिमान, मैं गुजरात से आ रहा हूँ । वास्तव मे यदि मेरे मुख में एक हजार जिह्वा हो तभी में उस देश के गुणो का वर्णन कर सकता हूँ । फिर भी वहाँ के गुणो का सक्षेप मे वर्णन करता हूँ ।" और सार्थपति गुजरात का निम्न शब्दो में चित्र खीचता है "गुजरात देश की भूमि हर प्रकार की धान्य सम्पत्ति पैदा करने में समर्थ है । वहाँ बहुत से पर्वत है । कुएँ जल से भरपूर है । इसी कारण उस भूमि में जल का प्रभाव नहीं। वहाँ नारगी, मोसम्बी, जामुन, नीम, कदम, केल, सैजना, कैत, करोंदे, चिरौंजी, पीलु, श्राम, सीताफल, व्हेडा, खजूर, दाख, गन्ना, मालती, खस, जूही श्रादि अनेक प्रकार के फल-फूल व लताएँ है । आपके सामने में कितने वृक्षों के नाम गिनाऊँ ? सक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि ससार मे जितने फल-फूल वालं वृक्ष हो सकते है वे सब उस देश में विद्यमान है। इतना ही नही, उस देश की भूमि में एक ऐसा गुण है जिससे गेहूं, ज्वार, बाजरा, उरद, मूग, अरहर, धान सब तरह के अन्न पैदा होते है। वह के निवासी समुद्र तट पर थोडा सा व्यापार करके बहुत सा धन कमा लेते है । वहाँ सुपारी के टुकडे और नागरवेल के पान मनुष्य के मलीन मुख को रंगीन बना देते हैं । प्याऊ, कुएँ, तालाव और अन्न क्षेत्र आदि स्थलो मे ठहरने वाले कोई भी यात्री अपने माथ खाने-पीने की सामग्री नहीं रखते। वहाँ बटोहियो को चलने के लिए सघन वृक्षो की पक्ति मिलती है। इससे सूर्य का ताप कभी नही सताता । उस देश में शत्रुञ्जय, गिरनार आदि अनेक तीर्थं स्थित है, जो अपने उपासक भव्य जीवो की मोक्षपद प्राप्त कराते हैं । सोमनाथ, ब्रह्मस्थान, मूलस्थान तथा सूर्यतीर्थं श्रादि लौकिक तीर्थं भी वहाँ है । उस प्रदेश मे सब लोग गहरे लाल रंग के और रेशम के वस्त्र धारण करते है । वहाँ मनुष्यो के उपकार सदाचार व मिष्ट सम्भाषण से विद्वान पुरुष प्रसन्न होते है । यही कारण है कि उस देश को 'विवेकबृहस्पति' की उपाधि दी गई है। सचमुच ससार में जितने भी देश है, उनमें से कोई भी उसकी समता नही कर सकता । स्वर्ग तो मैने देखा नही । इसलिए उसके साथ इस प्रदेश की तुलना नहीं कर सकता । वहाँ के छोटे-छोटे ग्राम भी अतुल वैभवयुक्त होने के कारण नगरो के समान है और नगरो की गिनती तो में श्रापके सामने कर ही नही सकता, क्योकि स्तम्भतीर्थ आदि स्वर्ग जैसे असख्य नगर उस भूमि मे है । वहाँ पर प्रह्लादनपुर नाम का एक नगर है । मेरा अनुमान हैं कि स्वर्गलोक मे भी उसके जैसा शायद ही कोई नगर हो । चूकि उस नगर में धनोपार्जन के अनेक साधन मिल जाते हैं, इसलिए लोग उसे 'स्थल वेलाकूल' (जमीन का बन्दरगाह) के नाम से भी विभूषित करते है ।" यह वर्णन सुन कर व्यापारी सल्लक्षण का चित्त प्रह्लादनपुर (पालणपुर) जाने के लिए चचल हो उठा और वह थोडे ही दिनो में वहाँ पहुँच गया । इस सक्षिप्त वर्णन में कवि ने गुजरात के बारे मे अनेक बातो का उल्लेख किया है । उस प्रदेश की धान्यसम्पत्ति, वनवैभव, भूमि की उर्वरता श्रादि का तो पता चलता ही है, साथ ही यह भी मालूम होता है कि गुजराती लोग समुद्र के किनारो से व्यवसाय करते थे। जगह-जगह पर प्याऊ, कुएँ, तालाब और अन्नक्षेत्र थे और वहाँ का महामार्ग कैसा था । यात्री सघन वृक्षो की पक्ति के नीचे चलते थे । इसलिए उन्हें सूर्य का ताप नहीं सताता था । इससे स्पष्ट है कि मार्ग के दोनो ओर लम्बे-लम्बे छायादार वृक्ष रहे होगे और वह महामार्ग प्रावू से लेकर सौराष्ट्र तक की भूमि को सुशोभित करता चला जाता रहा होगा । इस महामार्ग की वास्तविक स्थिति का उल्लेख भी 'समरारासु' 'प्रबन्ध' में मिलता है । सम्भवत यही मार्ग राजमार्ग होगा और प्रतिदिन सैकडो की संख्या में मनुष्य और वाहन उसके ऊपर शान्तिपूर्वक चले जाते होगे । जय तीर्थ के उद्धार का निश्चय करके समरसिंह ने पाटण के सूबे अलपखान से उसके लिए श्राज्ञा प्राप्त ' देखिये 'नाभिनन्दन जिनोद्धार प्रबन्ध' प्रस्ताव २. श्लोक ३७-६३ । Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ प्रेमी-अभिनदन-प्रय की और मूर्ति के लिए त्रिसगमपुर नगर के राजा महीपाल देव से प्रारासण की खदान से 'फलही' (विराट शिला) मंगवाई। यह शिला उपर्युक्त राजमार्ग से होकर ही शत्रुञ्जय पहुंची। सबसे पहले यह शिला खेराल नामक नगर में गई और वहाँ से भांडु होकर पाटण पहुंची। शिला में से मूर्ति तैयार हो जाने का समाचार शत्रुञ्जय से मिलने पर समरसिंह ने अपने पिता जी के साथ वडा भारी सघ निकाला, जिसमें अनेक साधू, साध्वी, श्रावक व श्राविकाएं सम्मिलित हुई। यह सघ पाटण से रवाना होकर आगे वढता हुआ अनुक्रम से गखारिका, सेरिसा, क्षेत्रपुर (सरखेज), धवलक्कपुर (धोलका), पिप्पलाली (पिपराली) होता हुआ शत्रुञ्जय पहुंचा। 'समरारासु' में महामार्ग में पाये ग्रामो का निर्देश इस प्रकार है "सरीसे पूजियउ पासु, कलिकालिहिं सकलो, सिरजि थाइउ धवलकए सघु प्राविउ सयलो। घधूकउ अतिक्रमिउ ताम लोलियाणइ पहुतो, नेमिभुवणि उछ करिउ, पिपलालीय पत्तो। (भाषा ६ . ५) पालीताणइ नयरे सघ भयलि प्रवेसु। (भाषा ७ : १) शत्रुञ्जय तीर्थ का उद्धार कर और मूल प्रतिमा की प्रतिष्ठा करके सघ सौराष्ट्र देश में प्रभासपाटण तक गया। वहां से शत्रुञ्जय वापस होकर पाटण लौट आया। वापसी मे इन ग्रामो का उल्लेख मिलता है-अमरावती (अमरेली), तेजपालपुर, गिरनार, वामनपुरी (वथली ), देवपत्तन (प्रभासपाटन), कोडीनार, द्वीपवेलाकूल (दीववन्दर), शत्रुञ्जय, पाटलापुर (पाटडी), शखेश्वरपुर, हारीज, सोइला-गाम और पाटण । 'समरारासु' में भी इसी मार्ग का निर्देश है "सोरठदेस सधु सचरिउ मा० चउडे रयणि विहाइ आदिभक्तु अमरेलीयह मा० प्राविउ देसल जाउ" (भाषा ६ १-२) "ठामि गमि उच्छव हुआई मा० गढि नूनइ सपत्त" (भाषा ६.३) "तेजि अगजिउ तेजलपुरे मा० पूरिउ सख प्राणदु" (भाषा ६ ४) "वउणथली चेत्र प्रवाडि करे मा० तलहटी य गढमाहि, ऊजलि उपरि चालिया ए मा० चउविवह सघमाहि । दामोदर हरि पचमउ मा० कालमेघो क्षेत्रपालु, सुवनरेहा नदी तहिं वहए मा० तरुवरतणउ झमालु ॥" (भाषा ६. ५) "देवपटणि देवालउ प्रावइ सघह सरवो सरु पूरावई' (भाषा १० . २) "कोडिनारि निवासण देवी अविक अबारामि नमेवी वीवि वेलाउलि पावियउ ए।" (भाषा १०.६) वहाँ से शत्रुञ्जय होता हुआ सघ पाटण पाने के लिए रवाना हुआ "पिपलालीय लोलियणे पुरे राजलोफ रजेई छडे पयाणे सचरए राणपुरे, राणपुरे राणपुरे पहुचेई वढवाणि न विलवु किउ निमिउ करीरे गामि मडलि होइउ पाडलए नमियऊ ए नमियऊ ए नमियऊ नेमि सु जीवतसामि सखेसर सफलीयकरण पूजिउ पास जिणिदो" (भाषा १२:४-५) Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवीं सदी का गुजरात का राजमार्ग ५५७ 'नमरारासु' व 'नाभिनन्दन जिनोद्धार प्रवन्ध' के आवार में संघ के मार्ग में पाये ग्रामी को क्रमवद्ध लिया जायनो यह राजमार्ग निम्न ग्रामो मे मे होता हुआ चला जाता है ____ प्रागमण मे खेरालु, भाडु, पाटण, गखारिका(?), मेरिमा, क्षेत्रपुर (सरखेज), धवलक्कनगर (घोलका), वयूकठ (घका), लोलियाणु, पिप्पलाली (पिपगलु), शत्रुञ्जय (पालीनाणा)। ___ वहां से चउड (१), अमगवती (अमरेली), तेजपालपुर (नेजलपुर), जूनागढ, वामनपुरी (वयली), देवपट्टन (प्रभानपाटण), कोडीनार, दीववन्दर और गत्रुञ्जय । शत्रुञ्जय ने वापस लौटते समय नमहिने मग बडा मार्ग पसन्द किया। अर्थात् गगुञ्जय से पिप्पलाली (पिपरालु), लोलियाणु, गणपुर, वढवाणि (वढवाण), पाटनापुर (पाटडी), शर्वेश्वरपुर (गग्वेश्वर), हारिज, मोइलागाम और पाटण। चौदहवी मदी का यह राजमार्ग था, ऐना हम निमकोत्र कह सकते है । अहमदाबाद] Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल दवदन्ती-चरित्र [अज्ञात कविकृत सोलहवीं शताब्दी का प्राचीन गुर्जर काव्य सपादक-प्रो० भोगीलाल जयचन्दभाई सांडेसरा एम० ए० नल-दमयन्ती के सुप्रसिद्ध कथानक का सक्षिप्त वर्णन एक छोटे से प्राचीन गुजराती काव्य के रूप में हमें प्राप्त हुआ है। पाटन-निवासी प० अमृतलाल मोहनलाल भोजक के सग्रह के एक हस्तलिखित गुटके में यह काव्य है और उसके १०५ से १०७ तक के पृष्ठो में वह लिखा हुआ है । काव्य के अत में प्रतिलिपि करने की तिथि नही है, पर गुटके के अन्य काव्यो के अत में तिथियां दी हुई है। उनसे पता चलता है कि गुटके के सव काव्यो की प्रतिलिपि सवत् १५४८ से १५६० के बीच की गई है। अत यह मानना उचित प्रतीत होता है कि उक्त 'नल-दवदन्ती-चरित्र' की प्रतिलिपि भी उसी काल में हुई होगी। काव्य के अत में उसके रचयिता का नाम नहीं है और न रचना सवत् । पाटण के सागर के उपाश्रय-भडार मे इस काव्य की तीन पृष्ठ की एक हस्तलिखित प्रति है, जिसके अत मे लेखन सवत् १५३६ दिया है। अत यह काव्य मवत् १५३६ से पहले का है, यह निश्चित है। उसके रचनाकाल की पूर्वमर्यादा निश्चित करने का कोई साधन नहीं है, किन्तु उसकी भाषा के स्वरूप से ऐसा प्रतीत होता है कि उसका निर्माण विक्रम की सोलहवी शताब्दी में हुआ होगा। ___ इस काव्य के रचयिता जैन है। गुजरात की जैन वनेतर जनता मे नल-दमयन्ती की कथा अत्यत लोकप्रिय है। अनेको कवियो ने इस कथानक के आधार पर काव्यो की रचना की है। जैनेतर कवियो मे विक्रम की सोलहवी शताब्दी के पूर्वार्ध मे भालण ने और उत्तरार्ध में नाकर ने एव अठारहवी शताब्दी मे प्रेमानन्द ने तद्विषयक काव्यग्रन्थ तैयार किये है। उनमें प्रेमानन्द कृत नलाख्यान तो अपने विशिष्ट काव्य गुणो के कारण गुजरात के साहित्य-मर्मज्ञो तथा सामान्य जन-समाज में अपूर्व लोकप्रियता का भाजन हो गया है। जैन कवियो मे प्रस्तुत काव्य के अज्ञात रचयिता के अतिरिक्त ऋषिवर्द्धन सूरिने सवत् १५१२ में 'नल दवदन्ती रास-नलराज चउपई', वाचक नयसुन्दर ने सवत् १६६५ में 'नल दमयन्ती रास', वाचक मेघराज ने सवत् १६६४ में 'नलदमयन्ती रास', वाचक समयसुन्दर ने सवत् १६७३ में 'नल दवदन्ती रास' और पालनपुर के श्रीमाली जाति के वणिक वासण सुत भीम ने सवत् १६२७ में नलाख्यान की रचना की है। इन सब रचनाओ मे भी प्राचीनता की दृष्टि से उक्त काव्य सबसे पुराना है । यद्यपि काव्य की दृष्टि से यह विल्कुल सामान्य कृति है, पर भापा और शैली के विचार से इसका प्रकाशन निस्सदेह लाभदायक सिद्ध होगा। इसकी हस्तलिखित प्रति के उपयोग की अनुमति के लिए हम प० अमृतलाल भोजक के आभारी है। मूल काव्य इस प्रकार है ॥ श्री वीतरागाय नमः ॥ सरसति सामणि सगुरु पाय हीयडइ समरेवि, कर जोडी सासण देवि अबिक पणमेवि, नल-दवदती तणु रास भावइ पभणेई, 'देखिये उस प्रति की पुष्पिका-"इति श्री नलदमयन्ती रास. समाप्त ॥ सवत् १५३६ वर्षे लिखित ॥ प० समयरलगणि शिष्य हेमसमयगणि लिषत ॥ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल- दवदन्ती - चरित्र · एकमना थई भवीय लोक विगतs निसणेह निषेध नगर छह निषधराय सुर सुदरि राणी, शीयल सोभागइ प्रागली ए नलराय वषाणी, नल- कुवर वे छह पुत्र, गुणवन्त भणीजइ, नल- कुवरना रूप वन्न कुण ऊपम दीजइ, कुडिनपुरि छइ भीमराय, भुज प्राणइ भीम, को सीमाडउ तेह तणी नवि चापइ सीम, प्रति प्रीतइ गहगहीय गेलि राणी पुष्पदती, माय ताय मन मोहती ए बेटी दवदती, सोभागइ सोहामणी ए सवि विद्या जाणइ, सहस जीभ हुइ मुखहमाहि तउ रूप वखाणइ, प्रतिमा शाति जिणेस तणी सिद्धायक श्रापीय, दवदतीना मनमाहि जिणधम्मं स थापीय, भीमरायु वर कारणिइ ए सयवर मडावइ, हसद्द तेडिउ नलहराय परणेवा श्रावइ, लाख अग्यारह राय माहि रूपइ मन मोहइ, गहगण तारा माहि जेम पूनमि ससि सोहइ; पच रूप करी देवराय वरमडपि श्रावइ, दवदतीना मनह माहि एकइ नवि भावइ, दववतीना मनह माहि निरमल मति सूधी, वरमाला वेगिह करो ए नलकठ जि दीघी, नल परणीनइ चितवह ए दवदती राणी, 'सवि बहिनर तुझें साभलु, ए सवि सहीय समाणी, गय भवि भगति प्रति सभागि भइ मुनि वहिराव्या, साहमीय वच्छल सघ सहित मइ गुरु पहिराव्या; aaण बांध्या जीवडा ए कइ मइ म्हेलाव्या, बालक मायनइ मेलव्याए, कय दव उल्हवीचा, कइ जिण पूजिया त्रिणि काल दिनप्रति मह भगति, वारे व्रत किs नियमसहित मद्द पालिया शक्ति; कइ गुरु देव ज द्रव्य भइ ए रूडइ प्रतिपालउ, सवि अभक्ष मद्द परिहरिया ए समकित अजुझालिउ, भूषिया तरस्या सार करो, कइ मह तप कीघउ, ' नल परणीनइ चितवइ ए, 'माण सफल लीघउ ' ; हरषित भीम नरेसु राय जोसी डावर, मडपि माहि सोनातणी ए चउरी बधावद; सासू पूषद माहरइ ए वर श्राविड जाम, रगिइ जोसी समइ समइ वरतावह ताम, ५५६ १० १५ २० २५ ३० ५ ३५ ४० Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० प्रेमी-अभिनदन-प्रथ प्रीति सरितूं वरवहू ए कसार आरोगइ, अणू असी डाढडो य गलइ ए तेणइ गधि सजोगिइ, लाधा लाष तुरीय, सहिस गयमर मदि माता, मणि माणिक सोवन्न असष्य, सउ गाम वसतां, सवि पहिर्या, सवि ऊढीमा ए वर जान चलावइ, सघ देश लगइ भीमराय वउलावा प्रावइ, भणइ भीम, 'दवदती, वछि, नलसिउ नेह पाले, सइयणि, धोबणि, अधम जाति मालणि सग टाले; जीणइ प्रिय परसोइ ए ते वात म करजे, सुषि दुषि प्राविया प्रिय तणइ एतू पाय अणसरजे, वउलावी वलिउ भीमराय कुंडनपुरि पहुनु, नल पहुतु दववती सहित निषधई गहिगहित, (ढाल वीवाहलानु) नियरि पुरि हुइ वधामणा ए, वर नितु नितु भावइ भेटणा ए, आढण पाणी छाडती ए, दवदती मदिर प्रापती ए; नव लख सोना सिउ नमइ ए, तीणइ सासूनइ वहूयर प्रति गमइ ए, पाय पडती द्रव्य परखती ए, तीणइ गोत्रनी नारि सवि हरपती ए। पुत्रवती प्रियसिउ मिलीए, 'वहू, जीवजे कोडि दीवालडी ए !' दस दिन हुई दसाईया ए, तीणइ मायताय बिहु हरषीमा ए; निषध भणइ, 'नल कहिउ कीजइ, राजनउ भार जउ उद्धरीजइ, . व्रत लेसिउ अम्हिइ सहीइ ए, तप करिवउ वन कासगि रही ए; बलि करी राज सो पापीउए, नल राजनइ भार सउ थापीउ ए, देइ सीखामण निषध तात, 'वत्स, वेसि सउ नरवर, म करि घात; सात विसन तइ टालिवा ए, छ दरसिणि रूडी परि पालवा ए, राय राज रूडी परिइ ए, नवइ करि कोइ र पीडीइ ए, गुरुजन तइ न विलोपिवा ए, जिणमदिर प्राघाट पारोपिवा ए, देइ सीखामण चालीउ ए, नल राजनउ भार स पापीउ ए, कूबर बुद्धि कूडी करइ ए, नलना पग भगतइ प्रणसरइ ए, आराधह एक कापडी ए, कूवरनइ विद्या सापडीइ ए, कूबर कहइ, 'नल, कहिउ यकीजइ, एह अथिर लच्छी तणु भोग लीजइ, प्रालि माहिइ भव काई गमु ए ? हिव सार पासे सरिसा रमाए, रमतला राज हरावीउ ए, दववतीय विसन नवारीउ ए, हारि प्रागलि साभलइ नहीं ए, दववतीय तु पाछी रही ए, कूवरि सहूइ हरावीउ ए, दवदतीय सूथ करावीउ ए, । दवदती जीती देवरि ए; कूबर कहइ, 'जाउ अतेउरि ए, एक रय मुहते अपावीउ ए, नल दवदती सरिसउ चलावीउ ए, Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CG1 CARING BE Tota MSCE BESSER 74," प्रकृति-कन्या [ कलाकार श्री सुवीर नान्तगीर ] Page #597 --------------------------------------------------------------------------  Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नल दवदन्ती चरित्र मारगि चोरे रथ हरउ ए, नल नारिसिउ पालउ साचरिउ ए प्रिय पूठिइ पाली पलइ ए, त्रपा भूपइ दवदती टलविलइ ए फहु, 'प्रिय पीहर फेतलइ ए ?' 'इणि वडि वीसामउ तेतलइए' दवदती य पढइ साथरइ ए, नल ऊढणउ ऊपरि पाथरह ए. चीतवइ नल, 'नारिसिउ ए, हिव सासरइ सइ मुहि जाइसिउ ए' सूती अवला एकली ए, जउ दोहिलउ होसइ तु मूकिसउ ए' चोर चोरी पायउ रहिउ ए, नलिइ पीहरनउ मारग कहिउ ए, पाछिली रातइ नीसरइ ए, दवदती य समणडउ अणसरह ए. फल पाती थई प्राकली ए, जागी तउ प्रिय-सारथि टली ए. (सामान वन्ननउ ढाल) वववती पहबद्द पडइ, सपी अगज मोडइ रे, मोडई नइ ब्रोडइ हार हीमा तणु ए. घरह दावानल प्राफुली, सपी 'प्रिय प्रिय' भाषइरे, भाषइ नइ दापइ, 'कत, किहा गयु ए? वनदेव, तुम्ह वीनवउ, सषा नलवर दापउ रे, दापउ नइ भापर कत किहा गउ ए? चद सूरिज साचू कहु मोरउ जीवन जाणउ रे, जाणउ नइ पाणउ वर. वेगिइ फरी ए रूप सोभागइ पागलु, सुरकन्या कइ लीधर रे, लीघउ नइ दीघउ दाघ हीइ घणु ए. फइ वनि दाधा दव घणा, सर फोडीय पाल रे? पालइ नइ डालि मोडी तस्यर तणी ए ? रपिसताप्या कइ घणा, कइमइ दीघा छइपाल रे? पाल नइ बालक माय विछाहीया ए? नल वाल्हा विण हे सपी, किम यौवन जासिह रे ? जासह नइ थासिइ अग अगारूमा ए नर नइ नारी जोडि फरी, सखी, सष्ट नीपाइ रे, पाइ नइ भाइ काइ करी एकली ए? फिस्या उलभा दैव दिउ ? सपी मूं क्रम छ। कूडू रे, कूडउ नइ रुडउ शील न पालीउ ए एक वरि मोरी वीनतडी सुणि सुदर लाडण रे, लाडण नइ माडण नारि न नाहलू ए. धणी विहूणी धरणि ढली, सषी मुपि मूकती सासरे सास नइ पास टली जीवह तणी ए पीहरि पुहुती प्रिय तणी मइ वाहर जउ फरवी रे, वाहर नइ थाहर अने थि{ नहीं ए. स Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ ५६२ बाघ संघ वितर घणा, भूइ बोहती चालइ रे, चालह नइ सालइ वरसारस घणु ए. नइ नाला पूरइ वहs, पटुलडी भोजद रे, भीजइ नइ खीजह चोंकण लपसणइ ए समसमापुरि तिणि मूकीउ, तिहा छह रथपूर्ण राउ, नित विनोद कउतिग करइ, हुडिक नामइ सिद्ध; सूरिज 'परस केलवइ अभिनवु दा 'प्रसिद्ध. हरिमित्र बहूउ तिहा गउ, मिलिउ ते हुउ सूयार, तापस परि तप घट्ट करी प्रतिबोध्या छइ तापस रे, ११५ लाष सोना तिणि श्रापीउ अनइ एकाउलि हार. १३० तापस नइ पाय सर्व मइ निरजणिया ए चन्द्रयशा मासी मिली, सषी अचलपुरि पुहती रे, पुहुती नइ वहिती कुडिनपुरि गइ ए भीमराय बोलइ लेइ अग श्रतिघणु जोइ रे, जोइ नइ रोड, नलगुण साभरइ ए 'तात, जो आवु नल धणी, मूं जीवी छह काज रे, काज नइ आज ज त ज मोकलु ए. ' (हिव घुवुल) अहमदाबाद] १२० जव छाडी नल साचरिउ, दव परजलउ नाग काढता करि श्रहि डसिउ, सूका छइ हाथ नइ पाग बीला वे तस श्रापीया तातिक कोउ पसाउ. १२५ इंडिक तेढेवा कारणि सयवर कूडउ रचीउ; प्रश्वरिय हुड जपइ, रिथपूर्ण त्रिहु पुहुरे जाइ. रियपूर्ण मोलीयडउ पडिउ, 'कूवडा, रथ हवइ राखे'. 'पचवीस जोयण ते छाडिउ, रथिपूर्ण, वात म करिये.' प्रश्वरिदये हुडउ जप, सष्या नल नइ दोघी. १३५ राजह लेवा कारणि नलनूं काज ते सीघु, भीमइ ऋतिपर्ण रायुनइ भलउ प्रवेस ते दीघउ. (ढाल ) कर जोडी श्रवला वीनवद्द, 'विरह- दवानल काइ तू दहिइ ? दासी तह्मारी हू छु नाथ, दुषि सागर पड ता दइ हाथ, सुपुरिसन नही ए श्राचार, छाडइ जे निरघारु; १४० नारि तणा नीसासा पडइ, घणा जन्म ते नर रडवडइ.' रूप प्रगट करइ नल वर राउ, दमयती नइ मनि उच्छाह. भीमराय रलीनाइत थउ, निषधइ नयरि राजा नल गयु नलराय जीतू प्रथवीराज, कूबर कीधु जेणइ युवराज; धवल मगल परि घरि उच्छाह, नलह नरिद हुउ पहुवी नाह. साते क्षेत्र धन वावरs, दुषीत्रा पीडचा नइ ऊघर, निकरा करिया ते सघला लोक, पृथ्वी वत्तिउ पुण्यश्लोक. बार घडी जिइ उघउ लीघ, बार बरस तीणइ वरहु कीध, पुत्र राजि वइसारी करी, नल-दवदती संयम वरी. क्षमा सरसां वे तप करइ, भ्रष्ट कर्म सवेगइ तरह. देवलोकि बेह सुरवरह, सयल सघनइ प्राणद करइ. भणइ, भणावइ, जे साभलिइ, श्रेष्ट महा सघि तेह घरि फलइ, जे भसइ नर नइ नारि, नव नधि तेह तणइ घर बारि इति नलदवदती चरित्र समाप्त ॥ भुवनवल्लभगणि' लषित ॥ १४५ 72 १५० 'इस जगह मूल प्रति का किनारा घिस जाने से एकाध अक्षर लुप्त होगया मालूम होता है । प्रतिलिपिकर्त्ता का नाम पीछे से किसी ने मिटाने का प्रयत्न किया है। फिर भी कोशिश करने पर वह पढ़ा जाता है । Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 ܘܘ ܐܝ ܕ ܝܚܘܐ ܒ ܘܐܚܕ श्रोरछा का किला ܪ . ܐ ܕܐ ܐ ܕ Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड स्वर्गीय मुन्शी अजमेरीजी चदेलों का राज्य रहा चिरकाल जहां पर, हुए वीर नृप गण्ड, मदन परमाल जहाँ पर, वढा विपुल बल विभव बने गढ दुर्गम दुर्जय, मंदिर महल मनोज्ञ सरोवर अनुपम अक्षय, वही शौर्य सम्पत्तिमयी कमनीय भूमि है। यह भारत का हृदय रुचिर रमणीय भूमि है ॥ पाल्हा ऊदल सदृश वीर जिसने उपजाये, जिनके साके देश विदेशो ने भी गाये, वही जुझौती जिते बुंदेलो ने अपनाया, इससे नाम बुंदेलखण्ड फिर जिसने पाया, पुरावृत्त मे पूर्ण परम प्रख्यात भूमि है। यह इतिहात-प्रसिद्ध शौर्य संघात भूमि है । यमुना उत्तर और नर्मदा दक्षिण अञ्चल, पूर्व ओर है टोंस पश्चिमाञ्चल में चम्बल, उर पर केन घसान बेतवा सिंघ वही है, विकट विन्ध्य की शैल-श्रेणियां फैल रही हैं, . विविध सुदृश्यावली अटल प्रानन्द-भूमि है । __ प्रकृतिच्छटा वुदेलखण्ड स्वच्छन्द भूमि है ॥ अडे उच्च गिरि और सघन वन लहराते है, खडे खेत निज छटा छबीली छहराते है, जरख, तेंदुए, रीछ, बाघ स्वच्छन्द विचरते, शूकर, सांवर, रोझ, हिरन, चीतल है चरते, आखेटक के लिए सदा जो भेट भूमि है। अति उदण्ड बुन्देलखण्ड आखेट-भूमि है ॥ गढ गवालियर सुदृढ़ कोट नामी कालिंजर, दुर्गम दुर्ग फुडार कठिन कनहागढ़ नरवर, छोटे मोटे और सैकडो दुर्ग खडे है, मानो उस प्राचीन कीर्ति के स्तम्भ गढ़े है, दुर्ग-मालिकामयी दीर्घ दृढ़ अङ्ग-भूमि है। परि-दर्पघ्न घुदेलखण्ड रण रङ्ग भूमि है। Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ हुए यहां पर भूप भारतीचन्द बुंदेला, शेरशाह को समर सुलाया कर रण-खेला, मधुकरशाह महीप जिन्होने तिलक न छोडा, अकवरशाह समक्ष हुक्म शाही को तोडा, यह वीरो की रही अनोखी मान भूमि है। वीर-प्रसू बुंदेलखण्ड वर वान भूमि है। दानवीर वृसिंह देव ने तुला दान में, इक्यासी मन स्वर्ण दे दिया एक पान में, जिसकी वह मधुपुरी साक्ष्य अब भी देती है, नहीं अन्य नृप नाम तुल्यता में लेती है, ऐसे दानी जने यही वह दान-भूमि है। सत्त्वमयी वुदेलखण्ड सन्मान-भूमि है। कवि ने कहा "नरेन्द्र, गौड़वाने की गायें, हल में जुत कर विकल बिलपती है अवलायें।" पार्थिव प्रवल पहाड़सिंह सज सुन्दर वारण, चढ़ दौडे ले चमू फिया गी-कष्ट निवारण, गौ-द्विज-पालक रही सदा जो भूमि है। सत्यमूर्ति वुदेलखण्ड सत्कर्मभूमि है ॥ हुए यहीं हिंदुवान पूज्य हरदौल बुंदेला, पिया हलाहल न की भ्रात-इच्छा-अवहेला, पुजते है वे देवरूप प्रत्येक ग्राम में, है लोगो की भक्ति भाव हरदौल नाम में, यही हमारी हरी भरी हर देव भूमि है। वदनीय बुंदेलखण्ड नर देव भूमि है। थे चम्पत विख्यात हुए सुत छत्रसाल से, शत्रु जनों के लिये सिद्ध जो हुए काल-से, जिन्हें देखकर वीर उपासक कविवर भूषण, भूल गये थे शिवाबावनी के आभूषण, ___ यह स्वतत्रता-सिद्ध हेतु कटिबद्ध भूमि है। सङ्गरार्थ बुदेलखण्ड सन्नद्ध भूमि है ॥ यहाँ वीर महाराज देव से जन जोडना, काल सर्प की पूंछ पकड़ कर था मरोडना, मानी प्रान अमान बान पर बिगड पडे थे, बना राछरा शर सभट जिस भाति लडे थे, रजपूती में रंगी सदा जो सुभट भूमि है। वीर्यमयो बुदेलखण्ड यह विकट भूमि है। Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६७ बुन्देलखण्ड लक्ष्मीवाई हुई यहाँ झांसी की रानी, जिनकी वह विख्यात वीरता सब ने मानी, महाराष्ट्र का रक्त यहाँ का था वह पानी, छोड गया ससार मध्य जो कीति-कहानी, अबला सबला बने, यही वह नीर-भूमि है। वीराङ्गना बुदेलखण्ड वर वीर-भूमि है ॥ तुलसी, केशव, लाल, विहारी, श्रीपति, गिरधर, रसनिधि, रायप्रवीन, भजन, ठाकुर, पदमाकर, कविता-मदिर-कलश सुकवि कितने उपजाये, कौन गिनावे नाम जाय किससे गुण गाये, यह कमनीया काव्य-कला की नित्य भूमि है। सदा सरस बुदेलखण्ड साहित्य-भूमि है । ग्राम-गीत ग्रामीण यहाँ मिल कर गाते है, सावन, सैरे, फाग, भजन उनको भाते है, ठाकुरद्वारे यहाँ अधिकता से छवि छाजें, मन्दिर के अनुरूप जहाँ सङ्गीत-समाजे, यह हरिकीर्तनमयी प्रसिद्ध पुनीत भूमि है। स्वर-सद्धलित बुदेलखण्ड सङ्गीत-भूमि है । यहाँ समय अनुसार सभी रस हम पाते है, वन, उपवन, बूटियां, फूल, फल उपजाते है, गिरि-वन-भूमि-प्रदत्त द्रव्य मिलते मनमाने, गुप्त प्रकट है यहां हेम हीरो की खानें, यह स्वतन्त्र महिपाल-वृन्दमय मान्य भूमि है। वसुन्धरा बुन्देलखण्ड धन-धान्य-भूमि है ॥ यहां सेउडा सिंध मध्य सनकुना जहाँ है, वह विस्तृत हृद स्वत सुनिर्मित हुआ जहाँ है, इधर दुर्ग उत्तुङ्ग उधर बिन्ध्याचल ऊपर, वर्षा में वह दृश्य विलक्षण है इस भूपर, सनकादिक की तीन तपस्या-स्थली भूमि है। भव्य दृश्य बुदेलखण्ड वह भली भूमि है । चित्रकूट गिरि यहाँ जहाँ प्रकृतिप्रभुताद्भुत, वनवासी श्रीराम रहे सीता-लक्ष्मण-युत, हुमा जनकजा-स्नान-नीर से जो अति पावन, जिसे लक्ष्य कर रचा गया धाराघर-धावन, यह प्रभु-पद-रजमयी पुनीत प्रणम्य भूमि है। . रमे राम बुदेलखण्ड वह रम्य भूमि है॥ Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ यहाँ पोरका राम अयोध्या से चल पाये, और उनाव प्रसिद्ध जहां बालाजी छाये, वह खजुराहो तथा देवगढ अति विचित्र है, त्यो सोनागिरि तीर्थ जैनियों का पवित्र है, तीर्थमयी जो सकल साधना-साध्य-भूमि है। अति आस्तिक बुदेलखण्ड पाराध्य भूमि है ॥ चिरगांव ] - - - - - - - - - - - - - Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड के इतिहास की कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री श्री रघुवीरसिह एम्० ए०, डी०लिट्० यह देख कर किसे खेद न होगा कि अव तक वुन्देलखण्ड का कोई भी अच्छा प्रामाणिक इतिहास नही लिखा गया है | गोरेलाल तिवारी कृत 'बुन्देलखण्ड का सक्षिप्त इतिहाम' इस कमी को पूरी करने का सर्व प्रथम प्रयत्न था । श्रतएव ऐमे प्रारंभिक प्रयत्न में जो त्रुटियां रह जाना स्वाभाविक है, वे सब उक्त ग्रंथ में पाई जाती है। सच पूछा जाय तो हजारो वर्षों का ठीक-ठीक क्रमवद्ध इतिहास लिखना किमी भी एक इतिहासकार के बूते की बात नही है, विशेषतया जब कि उस इतिहासकार को प्रत्येक काल के लिए पूरी-पूरी खोज और श्रावश्यक गंभीर अध्ययन करना पडे । वुन्देलखण्ड परिषद् ने बुन्देलखण्ड का इतिहास लिखने का प्रस्ताव पास किया है, परन्तु उक्त प्रायोजन को प्रारंभ करने मे समय लगेगा । प० वनारसीदाम जी चतुर्वेदी उस युग के स्वप्न देखते है जव बुन्देलखड के मव प्रसिद्ध महत्वपूर्ण व्यक्तियो की सुन्दर प्रामाणिक जीवनियाँ लिखी जा चुकी होगी, परन्तु अभी तक किमी ने छत्रमाल बुन्देला का भी प्रामाणिक सम्पूर्ण जीवन-चरित लिसने का विचार नहीं किया है । दूरदेशी वगाली और मलयालम भाषा के उपन्यासकारो ने छत्रसाल की जीवन-घटनाओ को लेकर अनेकानेक ऐतिहासिक उपन्यासो की रचना की है, लेकिन प्रामाणिक इतिहास और जीवनियों के प्रभाव में वे कई एक भद्दी गलतियाँ भी कर बैठे है । प्रकवर के शासनकाल से ही बुन्देलखण्ड का मुगल साम्राज्य के साथ पूरा-पूरा मवव स्थापित हो गया था, परन्तु श्रौरगजेव के गद्दी पर बैठने के बाद मुग़ल साम्राज्य एव बुन्देलों में जो विरोध उत्पन्न हुआ, वह छत्रमाल बुन्देला की मृत्यु तक निरन्तर चलता ही रहा । इसका परिणाम यह हुआ कि इन श्रम्मी वर्षों का बुन्देलखण्ड का इतिहास मुग़ल साम्राज्य के इतिहाम के माय इतना सम्बद्ध हो गया है कि एक के अध्ययन के बिना दूसरे का ज्ञान पूरा नही हो सकता । यही कारण है कि बुन्देलखण्ड के तत्कालीन इतिहास की प्रचुर सामग्री मुगल साम्राज्य के इतिहास सववी प्रावार-यो में हमें प्राप्त होती है । वुन्देलखंड एव मराठी के इतिहासकार अपने चरित्र नायक या प्रान्त-विशेष का इतिहास लिखने में प्राय उनके विरोधी मुग़लो मे सम्बद्ध ऐतिहासिक सामग्री की पूर्ण उपेक्षा करते है, किन्तु यह प्रवृत्ति ऐतिहामिक शोव की दृष्टि से उचित नहीं है । श्रीरगज़ेब एव उसके उत्तराधिकारियो के शासनकाल सवची ऐसी ऐतिहासिक सामग्री हमे प्राप्त है कि उनसे बुन्देलखण्ड के तत्कालीन इतिहान पर बहुत कुछ प्रकाश पडता है एव उसकी सहायता से बुन्देलखंड में होनेवाली घटनाओ का ठीक-ठीक क्रमवद्ध इतिहान लिखा जा सकता है । बुन्देलखड का तत्कालीन इतिहास लिखते समय इस ऐतिहासिक सामग्री का उपयोग करना अत्यावश्यक है । यह मारी सामग्री विशेषतया फारमी भाषा में ही प्राप्य है । १ – मुगलकालीन अखवारात एव पत्र-संग्रह इस सामग्री में सर्व प्रथम श्राते हैं मुगल दरवार मे लिखे गये 'अखवारात इ-दरवार इ-मुअल्ला ।' औरगज़ेब के समय में दिन भर में जब-जब दरवार होता था, वहाँ अखवार -नवीस उपस्थित रहते थे, जिनका कार्य यही होता था कि दरवार मे वादशाह की मेवा मे अर्ज किए गए साम्राज्य - शासन के वृतान्त, सुदूर प्रान्तो के हालात एव इसी प्रकार की सारी बाते और उन पर वादशाह द्वारा दिए गए हुक्मो का पूरा-पूरा ब्योरा लिखें। इन अखबारात की नकलें प्राय सारे प्रवान उमरा एव नवाव प्राप्त कर लेते थे । श्रौरगज़ेव के शासनकाल के ऐसे अखवारात का एक बहुत वडा सग्रह जयपुर राज्य के मग्रह में प्राप्त था । इस सग्रह मे से कुछ बडल कर्नल टॉड अपने साथ लेगया और ये अखवारात श्राजकल लदन की रॉयल एशियाटिक सोसायटी के सग्रह में सुरक्षित है । ७२ Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ ५७० लदन में प्राप्य इन सब अखवारात की नकलें सर यदुनाथ सरकार ने करवाई थी और अपना सुप्रसिद्ध प्रय 'हिस्ट्री प्रॉव औरराजेब' (जिन्द १-५) लिखते समय उन्होने इन अखवारात का पूरा प्रयोग किया था। सर यदुनाथ सरकार के संग्रह में प्राप्य इन सव अखबारात को नकलें मैने अपने निजी पुस्तकालय के लिए भी करवाई है। कर्नल टॉड अखवारात के सव वडल नही ले जा सका। कई एक आज भी जयपुर-राज्य के सग्रह में विद्यमान है। वरसो के प्रयत्न के बाद मुझे इन वाकी रहे अखबारात की भी बहुत-सी नकलें जयपुर-राज्य की कृपा तथा सहयोग से प्राप्त हुई है । इस प्रकार औरगजेब के शासनकाल के प्राय सब प्राप्य अखवारात का संग्रह हमारे पुस्तकालय में हो गया है। हजारो पृष्ठो में सगृहीत ये अखबारात बुन्देलखण्ड के तत्कालीन इतिहास पर बहुत प्रकाश डालते हैं। सव महत्वपूर्ण घटनापो का उल्लेख हमें वहां मिलता है। छत्रसाल के विद्रोह, उसकी भाग-दौड, उसके हमलो, लूट-मार और युद्धो का विस्तृत वर्णन और उल्लेख इन अखबारात मे यत्र-तत्र पाता है। जयपुर-राज्य में प्राप्य अखबारात का यह सग्रह औरगजेव की मृत्यु के साथ ही समाप्त नही हो जाता है, अपितु उसके उत्तराधिकारियो के समय में फरुखशियर के अतिम दिनो तक के अखवारात भी हमें वहां प्राप्त होते है । औरगजेब के उत्तराधिकारियो के काल के इन अखवारात की नकलें कोई तीन हजार पृष्ठो में हुई है। इन अखवारात का अध्ययन करने से हमे ज्ञात होता है कि इन दस वरसो में छत्रसाल प्राय मुगलो के माथ महयोग ही करते रहे। इन अखवारात के अतिरिक्त हमें जयपुर-राज्य के सग्रह से कई एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक पत्र-हस्व-उलहुक्म'-आदि भी प्राप्त हुए है। उनसे भी इस काल के बुन्देलखण्ड के इतिहास की कई एक महत्वपूर्ण परन्तु अब तक अज्ञात घटनामो का पता चलता है । इस प्रकार के पत्रो आदि की कई नकले पहिले सर यदुनाथ सरकार ने प्राप्त की थी, जो मोटी-मोटी इक्कीस जिल्दो में सगृहीत है। पिछले वरसो मे इस प्रकार की और भी नई सामग्री प्राप्त हुई है, जिनकी नकले उसी प्रकार की दस और जिल्दो मे समाप्त हुई। राजस्थानी या पुरानी हिंदी में लिखे गए कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक पत्र भी जयपुर-राज्य के संग्रह में हमे मिले है। इन पत्रो में जहां हमे शिवाजी की दिल्ली-यात्रा, वहां औरगजेब के दरवार में उनका उपस्थित होना तथा दिल्ली से चुपके से भाग खडे होने का विशद विवरण प्राप्त होता है। छत्रसाल की बुन्देलखण्ड मे धूमधाम का उल्लेख भी हम यत्र-तत्र पाते है। छ मोटी-मोटी जिल्दो में ये राजस्थानी पत्र सग्रहीत है। अखवारात तथा जयपुर-राज्य से प्राप्त इन पत्र-सग्रहो के अतिरिक्त औरगजेब के शामनकाल के अन्य पत्रसग्रह भी हमे मिलते है, जिनमे से कुछ मेंतोप्रधानतया औरगजेब द्वारा लिखे हुए पत्र ही है। औरगजेव की गणना ससार के सुप्रसिद्ध पत्र-लेखको में की जानी चाहिए। अपने विशाल साम्राज्य के दूरस्थ प्रान्तो और प्रदेशो के शासको तथा सूबेदारो अथवा विभिन्न चढाइयो पर जाने वाले सेनापतियो को छोटी-छोटी बातो पर भी वह विस्तृत प्रादेश देता था। इस कारण औरगजेब के पत्रो मे हमें तत्कालीन घटनाओ का बहुत ही प्रामाणिक वर्णन मिलता है। औरगजेब के पत्रो के कई एक सग्रह हमें मिलते है। दो सग्रह 'अहकाम-इ-आलमगीरी तथा 'एक्कात-इ-आलमगीरी' नाम से छपकर प्रकाशित भी हुए है। परन्तु तीन महत्वपूर्ण सग्रह अभी तक दुष्प्राप्य है एव उनकी हस्तलिखित प्रतियां भी भारत के कुछ पुस्तकालयो मे ही देखने को मिलती है। ये तीन सग्रह है -'प्रादाब-इ-पालमगीरी', इनायतुल्ला खां द्वारा सगृहीत 'अहकाम-इ-आलमगीरी' और 'कालिमात-इ-तैम्यिवात' । इन तीनो सग्रहो की नकले हमारे निजी संग्रह में विद्यमान है। चम्पतराय तथा छत्रसाल की जीवनियो के लेखको को चाहिए कि इन पत्रसग्रहो का सूक्ष्म अध्ययन कर उनसे अत्यावश्यक ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त करें। २-मुहम्मद बगश और बुन्देलखण्ड छत्रसाल बुन्देला के जीवन के अन्तिम दस-बारह वर्ष मुहम्मद वगश का सामना करते हुए ही वीते। मुहम्मद वगण को सन् १७१६ ई० में पहली वार वुन्देलखड में जागीर मिली थी। तब से वुन्देलखण्ड मे इस विरोध एव युद्ध का Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड के इतिहास की कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री ५७१ प्रारभ होता है। तत्कालीन ऐतिहासिक फारसी ग्रयो में वगश के युद्धो का पर्याप्त विवरण मिलता है। बंगश द्वारा लिखे गए पत्रो का एक वृहत् सग्रह 'खाजिस्ता-इ-कलाम' शीर्षक प्राप्य है । पिछले मुगलो के सुप्रसिद्ध इतिहासकार विलियम इविन ने उक्त फारसी ग्रयो के आधार पर वगश के घराने का विस्तृत इतिहास लिखा था, जिसमें वुन्देलखड - में घटने वाली तत्कालीन घटनाओ का प्रामाणिक वर्णन दिया है। इविन कृत यह ग्रय 'हिस्ट्री ऑव वगश नवाज कलकत्ता की एशियाटिक सोसाइटी के जरनल में सन् १८७८-१८७६ ई० में प्रकाशित हुआ था और उसके अलग रिप्रिंट्स भी तव प्राप्य थे। परन्तु आज यह पुस्तक अलभ्य है। बुन्देलखण्ड के इतिहास के लिए यह अथ बहुत ही महत्वपूर्ण है। यदि कोई परिश्रमी इतिहासकार 'खाजिस्ता-इ-कलाम का पूर्ण अध्ययन कर सके तो उससे बुन्देलखण्ड सववी कई एक छोटी-छोटी, पर महत्वपूर्ण वातो पर वहुत-कुछ जानकारी प्राप्त हो सकेगी। इस फारसी अन्य की केवल एक ही प्रति का अव तक पता लगा है और वह इडिया आफ़िस लाइब्रेरी, लदन में सुरक्षित है। उसकी एक नकल हमने निजी पुस्तकालय के लिए करवाई थी और वह प्राप्य है । ३-मराठे और बुन्देलखण्ड सन् १८७०-७१ ई० के जाडे में छत्रसाल बुन्देला दक्षिण में जाकर शिवाजी से मिला था, परन्तु उसके बाद कोई पचास-पचपन वर्ष तक मराठो का बुन्देलखण्ड के साथ कोई विशेष सवव नही रहा । सन् १७१५ ई० में तो जव सवाई जयसिंह मालवा पर आक्रमण करने वाले मराठो का सामना करने को वढा तव छत्रसाल जयसिंह के साथ थे और पिलसुद के युद्ध में उन्होने मराठो को बुरी तरह से हराया था। किन्तु सन् १७२८ ई० के अन्तिम महीनो में वाजीराव ने बुन्देलखण्ड पर चढाई की और वगश का सामना करने में छत्रसाल की सहायता की। मराठो की बुन्देलखण्ड पर चढ़ाई एव वहां उनकी कार्यवाही का विस्तृत विवरण हमें मराठी ग्रथो में देखने को मिलता है। तत्कालीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक पत्रो के कई सग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनका अध्ययन किए विना बुन्देलखण्ड का इतिहास सपूर्ण नहीं हो सकता। बुन्देलखण्ड के प्रति मराठो की नीति, छत्रसाल के प्रति पेशवा बाजीराव की भावना आदि को लेकर अनेकानेक दन्तकथाएँ और कपोलकल्पित कहानियाँ वुन्देलखण्ड मे प्रचलित है । मराठी ऐतिहासिक पत्रो के पूर्ण अध्ययन के बाद इनमें से कितनी मिथ्या सावित होगी, यह सरलतापूर्वक नही कहा जा सकता, परन्तु मेरा विश्वास है कि मराठी भाषा में प्राप्य इस सामग्री के पूर्ण अध्ययन के अनन्तर मराठो की नीति के सवध में हमें अपने पुराने विश्वास एव विचार बहुत-कुछ बदलने पडेंगे। मराठो के इतिहास से सम्बद्ध जितनी सामग्री मराठी भाषा-भाषियो ने प्रकाशित की है, उसे देखकर आश्चर्यचकित हो जाना पडता है । ऐतिहासिक खोज के लिए जिस तत्परता, लगन और निस्वार्थता के साथ महाराष्ट्र के विद्वानो ने प्रयत्न किया और जिन-जिन कठिनाइयो को सहन करते हुए वे निरन्तर अपने कार्य में लगे रहे, वह अन्य प्रान्त-वासियो के लिए अनुकरणीय आदर्श है । पेशवा के दफ्तर में प्राप्य सामग्री की कुछ जिल्द वीसवी शताब्दी के प्रारम में वाड, पारसनिस आदि इतिहास-प्रेमियो ने प्रकाशित की थी। शेष सामग्री की देख-भाल कर सर देसाई जी के सपादन में कोई पैतालीस जिल्दे ववई की प्रान्तीय सरकारने प्रकाशित करवाई है। इन जिल्दो में बुन्देलखण्ड में मराठो की कार्यवाही, उनकी नीति तथा उनकी विभिन्न चढाइयो आदि सवधी सैकडो पत्र प्रकाशित हुए। गोरेलाल तिवारीकृत इतिहास के प्रकाशित होने के बाद ही यह सामग्री प्रकाश मे आई थी। अत वे इससे लाभ नही उठा सके। राजवाडे द्वारा सपादित 'मराठ्यांच इतिहासाची साधनेन' की कुछ जिल्दो में भी यत्र-तत्र वुन्देलखण्ड के इतिहास से सम्बद्ध पत्र प्रकाशित हुए हैं। पारसनिस-कृत 'श्री ब्रह्मेन्द्र स्वामी चरित्र में भी वाजीराव की बुन्देलखण्ड पर चढाई सबवी कई पत्र छपे है । उसी प्रकार 'इतिहास-सग्रह माला में 'ऐतिहासिक किरकोल प्रकरणे' शीर्षक ग्रथ में पारसनिस ने अलीबहादुर का सन् १७६० ई० तक का पत्र-व्यवहार प्रकाशित किया है । खरे द्वारा सपादित 'ऐतिहासिक पत्र सग्रह की चौदह जिल्दो में भी यत्र-तत्र बुन्देलखण्ड-सवधी उल्लेख ढूढ़ निकालने होगे। महादजी Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ सिन्धिया के पत्र-व्यवहार के भी तीन विभिन्न संग्रह अवतक प्रकाशित हुए है। 'वकील-इ-मुतलक' की हैसियत से उनका समस्त उत्तरी भारत से सवध रहा है। उनके पत्रो मे भी बुन्देलखण्ड के मामलो का उल्लेख मिलता है। हिम्मतवहादुर और अली वहादुर का सिंधिया के साथ-ही-साथ बुन्देलखण्ड के साथ अभिन्न सवध रहा है। अत मे गुलगुले दफ्तर का उल्लेख किये विना नहीं रह सकते। मराठो के वकीलो का यह घराना सन् १७३८ ई० से कोटा मे वस गया और इस प्रदेश-सबधी सारा कारवार करता रहा। गुलगुले घराने के इस दफ्तर में भी बुन्देलखण्ड-सवयी बहुत-सी उपयोगी सामग्री प्राप्त हो सकती है। ग्वालियर के सरदार प्रानन्दराव भाऊ साहब फालके इस दफ्तर को क्रमश प्रकाशित कर रहे है। इस दफ्तर के सव पत्रो की नकले हमारे निजी सग्रह में भी विद्यमान है। मराठी भाषा में प्रकाशित एव प्राप्य इस अगाध ऐतिहासिक सामग्री का पूर्ण अध्ययन किए बिना अठारहवी गताब्दी का वुन्देलखण्ड का इतिहास नही लिखा जा मकता । यह आवश्यक है कि बुन्देलखण्ड के इतिहास के विद्यार्थी मराठी भाषा का अध्ययन कर इस सामग्री की भलीभाति छानवीन कर इस प्रदेश के तत्कालीन इतिहास को पूर्णतया क्रमवद्ध रूप मे समुपस्थित करे। ४-फारसी अखबार (१७७९-१८१८ ई०) और उनका महत्व मराठी भाषा में लिखे गए पत्र एव अन्य सामग्री का ऊपर उल्लेख कर चुके हैं, परतु ज्यो-ज्यो मराठो का राज्य विशृखलित होने लगा और जैसे-जैसे मराठा सरदार अधिक शक्तिशाली होकर अर्द्ध स्वतत्र स्वाधीन गासक बनने लगे, पूना भेजे जानेवाले पत्रो की संख्या कम होने लगी। उन सुदूर प्रदेशो की ओर ध्यान भी प्राय कम दिया जाता था। उत्तरी भारत में उस समय प्रत्येक महत्वपूर्ण राजनैतिक केन्द्र में आसपास के स्थानो से प्राप्त खवरो को एकत्रित कर अखबार तैयार कर दूर-दूर प्रदेशो में भेजने की प्रथा चल निकली थी। सन् १७७५ ई० के वाद ऐसे अखवारो का महत्व बढ गया था। यही कारण था कि उन दिनो इन अखवारो के सग्रह तैयार किए जाने लगे थे। ये अखबार सन् १८१८ ई० के अत तक प्रचलित रहे और मालवा, राजपूताना तथा इन प्रदेशो में अंग्रेजो की स्थापना होने के बाद ही इनका अत हुआ। ऐसे अखवारो के छोटे-मोटे कोई पद्रह-बीम सग्रह हमे युरोपीय पुस्तकालयो के हस्तलिखित ग्रयो के सग्रहो मे मिलते है। ये अखबार फारसी मे लिखे जाते थे। अवतक अखवारो के जो सग्रह प्राप्त हुए हैं, वे सन् १७७६ ई० के बाद के है और सन् १८१८ ई० के अत तक मिलते है। कोई चालीस वर्षों के इस लवे काल में यत्रतत्र कई वरस ऐसे भी निकले है, जिनके कोई भी अखवार अब तक प्राप्त नहीं हो सके है, जैसे १७५८-१७६२,१७६८-१८०३, १८०६१८०८ ई० । प्राप्य अखबार कोई दस हजार हस्तलिखित पृष्ठो में जाकर सपूर्ण हुए है । अव तक जितने भी ऐसे अखवार-सग्रहो का पता लगा है, उन सब की नकले की जाकर हमारे निजी सग्रह में सुरक्षित रक्खी गई है। इसी प्रकार के फारसी अखवारो का एक बहुत बडा सग्रह पूना के एलियनेशन आफिस मे सुरक्षित है । इस सग्रह मे कुल मिलाकर कोई छ-सात हजार फारसी अखबार है। यद्यपि इनमे से कुछ अखवार ईसा की अठारहवी शताब्दी के भी है, तथापि इस सग्रह मे प्रधानतया सव अखवार सन् १८०५ ई० के वाद के ही है । सन् १८१८ ई० से वाद के कोई अखवार नहीं मिलते। इन सव अखबारो के फोटो हमारे सग्रह मे विद्यमान है।। ये अखबार जो उत्तरी भारत के महत्वपूर्ण केन्द्रो या उत्तरी भारत से सम्बद्ध महत्वपूर्ण व्यक्तियो के केम्पो से लिखे जाते थे, उन सव में उत्तरी भारत के प्राय सब प्रदेशो से प्राप्त सारी महत्वपूर्ण खवरे लिखी जाती थी। वुन्देलखण्ड यो तो पेशवा के अधिकार में समझा जाता था, परन्तु सिन्धिया, होलकर एव भोसले आदि सरदारो को भी बुन्देलखण्ड के मामलो में बहुत दिलचस्पी थी । अतएव इन अखवारो में वुन्देलखण्ड के मामलो का यत्र-तत्र उल्लेख होना स्वाभाविक ही है। अठारहवी शताब्दी के प्रतिम वीस वर्षों का इतिहास लिखने में इन अखवारोसे पर्याप्त सामग्री प्राप्त होगी। Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड के इतिहास की कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री ५७३ औरगजेब के सिंहासनारुढ होने के साथ ही बुन्देलखड का एक महत्वपूर्ण काल प्रारभ हुआ और सन् १८१८ ई० तक यह परिवर्तन-काल चलता ही रहा । यद्यपि इस काल की पिछली शताब्दी बहुत ही गौरवपूर्ण न थी, फिर भी ऐतिहासिक घटनाओ एव निरतर होनेवाले परिवर्तनो के कारण ही इस काल का महत्व बना रहा और इस निकट भूत का इतिहास ठीक-ठीक समझे बिना इस प्रदेश के भावी राजनैतिक मार्ग को सरलतापूर्वक निश्चित करना सभव नही। बुन्देलखण्ड प्रान्त की आज की राजनैतिक परिस्थिति का स्वरूप इन्ही एक सौ सत्तर वर्षों के इसी परिवर्तनकाल में निश्चित हुआ था और आज वुन्देलखण्ड के सम्मुख समुपस्थित होनेवाली कई एक कठिनाइयो अथवा विरोधो का वीजारोपण इन्ही बरसो मे हुआ था। यह सत्य है कि सन् १८१८ ई० के बाद इधर कोई सवा सौ वर्ष वीत चुके है, जगद्व्यापी महत्वपूर्ण घटनाओ, नवीन राजनैतिक और आर्थिक प्रवृत्तियो के फलस्वरूप अव परिस्थिति मे बहुत ही फेरफार हो गया है, सारा वातावरण ही पूर्णतया वदल गया है, किन्तु फिर भी आज जो-जो कठिनाइयां उठ रही है, वे उसी परिवर्तन-युग की देन है और उनको सुलझाने के लिए यह अत्यावश्यक है कि उन कठिनाइयो को ठीक तरह समझ कर उनको समूल नष्ट किया जाय । उस परिवर्तन-काल के प्रामाणिक इतिहास का अध्ययन इस ओर बहुत ही सहायक हो सकता है। यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बुन्देलखण्ड के इतिहासकार यह न सोच ले कि इस लेख मे तत्कालीन सारी ऐतिहासिक सामग्री की विवेचना की जा चुकी है। पूर्वोक्त सामग्री के अतिरिक्त और भी बहुत सी ऐसी सामग्री है,जो सुलभ है या जिसका बुन्देलखण्ड के इतिहास से इतना सीधा सवध है कि उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। बुन्देलखण्ड में भी अभी तक स्थानीय ऐतिहासिक सामग्री की पूरी-पूरी खोज नही हुई है, जिसके विना काम नहीं चलेगा। इस स्थानीय सामग्री की सहायता से ही हमे स्थानीय महत्व की ऐतिहासिक घटनामो आदि का पूर्णरूपेण पता लगेगा। इस लेख मे तो केवल उस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री की कुछ विवेचना की गई है, जो प्राय सुलभ नहीं है और न जिसका वुन्देलखण्ड के इतिहास से कोई सीधा सवध ही दीख पडता है । अतएव वुन्देलखण्ड के इतिहासकारो का उसकी ओर आसानी से ध्यान आकर्पित न होगा । यह यथास्थान बताया ही जा चुका है कि यो तो यह सामग्री सुलभसाध्य न थी, किंतु बहुत सी सामग्री की नकले हमारे निजी संग्रहालय मे सुरक्षित है। वे अब इतिहासकारो को सुलभता से प्राप्त हो सकती है । वुन्देलसण्ड के इस काल के इतिहास का अध्ययन करने वाले विद्वानो से मेरा विशेष प्राग्रह होगा कि वे इस सामग्री का पूर्ण उपयोग करे। बुन्देलखण्ड जैसे प्रदेश के इतिहास की सामग्री एकत्रित करना कोई सरल काम नही। यह प्रान्त शताब्दियो मे खण्ड-खण्ड में विभक्त ही रहा है। जब कभी भी एकता स्थापित हुई, वह बहुत काल के लिए स्थायी न रही। राजनैतिक दृष्टि से या शासन के लिए भी इस प्रदेश का सगठन नही हुआ तथा इस प्रदेश के इतिहास की सामग्री एकत्र करने अथवा उसकी प्रान्तीय एकता को देखते हुए उस सामग्री का अध्ययन करने की ओर अब तक विशेप ध्यान नही दिया गया है। गुजरात एव मालवा जैस प्रदेशो की राजनैतिक एकता शताब्दियो तक अक्षुण्ण बनी रही। उन प्रान्तो मे भी, इस राजनैतिक एकता का अन्त होते ही, ऐतिहासिक सामग्री के अध्ययन का अभाव तथा उस सामग्री के सचित न किए जाने की प्रवृत्ति चल पड़ी है। उन्ही कठिनाइयो का बुन्देलखण्ड के समान सर्वदा विभवत रहने वाले प्रान्त के इतिहास के लिए बहुत अधिक मात्रा में अनुभव होना स्वाभाविक ही है । आशा की जाती है कि इन कठिनाइयो का सामना करते हुए वुन्देलखण्ड के इतिहासकार इस युग का वृहत् क्रमवद्ध इतिहास लिखकर भारतीय इतिहास की एक बडी कमी को पूरा करेंगे। सीतामऊ] Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड के दर्शनीय र [ ऐतिहासिक, प्राकृतिक और धार्मिक ] १. प्रथम भाग श्री राधाचरण गोस्वामी एम० ए० 'बुन्देलखण्ड' नाम कोई तीन-चार सौ वर्ष से प्रयोग में आया है। इसके प्रथम इस प्रदेश का नाम जिजाकभुक्ति, जीजमुक्ति या जिझौति रहा है, जो यजुर्होति का अपभ्रश है। इस छोटे से प्रदेश में ऐतिहासिक दृष्टि से ससार को बहुत कुछ भेंट करने की सामग्री विद्यमान है, पर प्राय वनस्थली है और अगम्य दुरूह गम्य स्थान है। शताब्दियो से अदूरदर्शी शासको के द्वारा शासित रहने के कारण यह अमूल्य सामग्री नष्ट हो चुकी है। समय और मनुष्य के आघात-प्रत्याघात से जो कुछ शेष है, वह न केवल इस छोटे प्रदेश को, अपितु समस्त भारतवर्ष को विश्वकला और दर्शन की गैलरी में उच्च स्थान दिलाने के लिए पर्याप्त है। (१) ऐतिहासिक स्थान । १ देवगढ़-झासी से वबई जाने वाली लाइन पर जाखलौन स्टेशन से नौ मील पर जगल के बीच बेतवा नदी के कूल पर स्थित है। यहाँ पर हिंदू और जैन मदिरो का समूह है। इनमें विष्णु-मदिर कला की दृष्टि से विख्यात है । यह चतुर्थ शताब्दी के प्रतिम भाग से लेकर पांचवी के प्रारभ के समय का माना जाता है। रायवहादुर दयाराम साहनी ने वहाँ पर १९१७ ई० मे शिलालेख देखा था, जिसमे लिखा था कि 'भगवत् गोविन्द ने केशवपुर से अधिपति देव के चरणो मे इस स्तभ का दान किया था।' यह गोविन्द सम्राट् चन्द्रगुप्त के पुत्र परम भागवत गोविन्द जान पडते है। विष्णु मदिर का विशद वर्णन इस ग्रथ मे अन्यत्र हुआ है। २ खजुराहो-झासी-मानिकपुर रेल की लाइन पर हरपालपुर या महोवा से छत्तरपुर जाना पड़ता है । वह कई मार्गों का जकशन है। छत्तरपुर राज की वही राजधानी है। इसी के अन्तर्गत राजनगर तहसील मे चन्देलकालीन उत्कृष्ट शिल्पकला से पूर्ण मदिरो का समूह खजुराहो मे है । छत्तरपुर से सतना वाली सड़क पर बीस मील चलकर वमीठा पुलिस थाना है। वहाँ से राजनगर को, जो दस मील है, मार्ग जाता है । सातवें मील पर खजुराहो है। मोटर हरपालपुर से छत्तरपुर (तैतीस मील) और वहाँ से खजुराहो होती हुई राजनगर जाती है । यह भी सुविधा है कि उसी समय राजनगर से वह वापिस आती है। हमारे इस छोटे से प्रदेश मे खजुराहो के मदिरो की उन्नत कला की कल्पना स्वय देखकर ही की जा सकती है। चित्रो के खजुराहो और प्रत्यक्ष में वडा अन्तर है। खजुराहों की कला उस युग की है, जब हिंदू-सभ्यता चरम सीमा पर पहुंच चुकी थी। सुख, सम्पदा और समृद्धि ने शासको और नागरिको को विलासप्रिय बना दिया था। यहाँ के मदिरो मे देवगढ़ के मदिर के समान सुरुचि तो है, पर सयम नहीं। नारी के विलासप्रिय सौंदर्य की विविध भावभगी मदिर के अदर और बाहरी शिलाखडो, द्वारो, तोरणो, स्तभो और शिखरो पर सभी जगह अकित है। प्रत्येक मूर्ति और अभिप्राय (motuf) के चित्रण में कलाकारो ने किया है। पत्थर की मूर्तियां दर्शको को मोहित कर देती है। प्रधान मदिर ये है Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड के दर्शनीय स्थल ५७५ (अ) मातगेश्वर - शिव का मंदिर है । इसमें वडा भारी शिवलिंग चबूतरे पर स्थित है, जिसके चारो ओर कलामय स्तभ हैं । उन पर ऊपर की शिखर की छत उलटे कमल की तरह बनी है। (a) इसके निकट लक्ष्मणजी का मंदिर है । लक्ष्मण जी के हाथ कटे हुए है । मूर्ति श्वेत पाषाण की अति सुन्दर है और विजयनगर के राजाओ का सा मुकुट पहिने हैं । इस मंदिर की ऊँची जगती के चारो कोनो पर छोटे-छोटे मंदिर है । उनमे एक में सरस्वती की-सी मूर्ति मालूम पडती है, जो बडी सुन्दर, सोम्य और भावपूर्ण है । (स) इसी के उपरान्त कुछ दूरी पर एक मंदिर है, जो भरतजी का मंदिर कहलाता है । भगवतदयाल जी ने इसे सूर्य का मंदिर माना है । उन्होने एक ग्यारह शिरवाली विष्णु की मूर्ति का भी उल्लेख किया है । (द) एक दूसरा शिव का मंदिर है। यह भी सुन्दर है । इसमें शिलालेख है । सवत् १०५६ वि० का यह माना जाता है । इसमें नानुक से धग पर्यन्त नरेशो की वशावलि है । घग के द्वारा मंदिर निर्माण करने का वर्णन है । धग ने नीलम के शिवलिंग की मूर्ति की स्थापना की थी। दूसरा शिलालेख इस मंदिर का नही, वैद्यनाथ मंदिर का है, जो ध्वस हो चुका है । सवत् १०५८ विक्रम का। इसमे किसी कोक्कल द्वारा ग्राम- निर्माण का उल्लेख है । इस मंदिर के सामने नदी की मूर्ति छोटे से मंदिर में है। इसको भूल से स्व० भगवतदयालजी ने मसाले की वनी माना है | वास्तव में एक जगह उसका पैर का मसाला उखड गया है । नीचे पत्थर निकल आया है। उससे प्रकट है कि वह पालिश अधिक गहरी नही । भीतर पत्थर है । मौर्यकालीन पालिश की तरह की पालिश है । (इ) देवी का मंदिर, जो काली का कहलाता है । मूर्ति की अब भी पूजा होती है । (क) खजरिया महादेव- -यह सबसे बडा शिव जी का मंदिर है । मदिरो के पीछे की ओर है। मूर्तियो की हर जगह भरमार है । (ख) बाराह की मूर्ति --- जिसमें सहस्रो देवता वने है । पालिश सुन्दर है । (ग) हनुमान की एक विशाल मूर्ति सबसे पहले सडक के पास ही स्थित है । इसमें एक लेख होना कहा जाता है, जो ε२२ ई० का माना जाता है । यह खजुराहो में मिले लेखो में सबसे प्राचीन है । (घ) एक जगह मूर्तियो को एक घेरे में रख दिया गया है। इसमे एक नागकन्या की मूर्ति विलक्षण है । यह मंदिर चदेल-काल के है, जव कि यशोवर्मन और धग का यहाँ पर राज्य था । यशोवर्मन का राज्य काश्मीर से नर्मदा तक फैला था और धग का भी वडा विस्तृत राज्य था । घग की सेना भटिंडा के राजा जयपाल के साथ थी, जब वह सुबुक्तगीन से लड़ा था और फिर महमूद गजनी ने इस जिझौति प्रान्त पर १००८ या ६ में हमला किया । उस समय अनन्दपाल (जयपाल का पुत्र) राज्य करता था । युद्ध हुआ । हिंदुओ की सेना जीत ही चुकी थी कि अनन्दपाल का हाथी विगड गया, सेना में गडवड मच गई । वह हाथी फिर ठीक नही हुआ । इस समय कालिंजर का राजा गन्ड था । चन्देल देश की धार्मिक राजधानी खजुराहो, सामरिक कालिंजर और शासनिक महोबा थी । कन्नौज के राजा ने १०१९ ई० में वारहवें आक्रमण पर महमूद का शासन स्वीकार किया । गन्ड ने अपने पुत्र विद्याधर को देशद्रोही के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा । महमूद फिर बदला लेने आया । हमीरपुर गजेटियर में लिखा है कि धग लाखो सेना के होते रात को उठकर भाग गया । सन् १०२२ ई० मे महमूद फिर आया । कालिंजर पर, कहते हैं, घग ने कायरता दिखाई और सब कुछ देकर पद्रह किलो पर शासन रहने को महमूद से अभिषेक लिया । ३. कालिंजर, अजयगढ, मनियागढ, मरफा, वारीगढ, मौदहा, गढ और मैहर या काल्पी इन आठ गढो के चन्देल जनश्रुति के आधार पर स्वामी थे । इनमें कालिंजर व अजयगढ प्रसिद्ध है । (अ) कालिजर - चन्द्र ब्रह्मा ने करीब १०० वर्ष हुए, चन्देल राज्य स्थापित करके कालिंजर व महोवा बसाया । बाँदा से नरैनी २२ मील, पक्की सडक फिर कच्ची पडती है । नरैनी तक लारी चल तो है । पहाड के ऊपर कालिंजर का किला स्थित है । वहाँ पहुँचने को कई दरवाजे पडते हैं, जिनका मुस्लिम काल में नाम परिवर्तन Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ प्रेमी-अभिनदम-ग्रंथ हुआ है। कहा जाता है जब भगवान महादेव ने हलाहल पान किया और नीलकण्ठ हो गये तब इसी स्थान पर निवास किया। सीताराम के भाने की भी कथा सुरक्षित है। 'सीता सेज' एक स्थान का नाम है। पहाड पर 'स्वर्गारोहाण' जलाशय है। उसमें गमियो में स्वच्छ शीतल जल मिलता है। पहले नीलकठ महादेव का विशाल मदिर था। उसके टूटे खभे विशालता की स्मृति के स्मारक है। वहां के पुजारी चन्देल क्षत्रिय है। हजारो मूर्तियाँ और भी खुदी हुई है । स्वर्गीय कु० महेन्द्रपाल जी के अनुसार वहा हजारो लेख है । इस गढ़ का इतिहास भारतीय इतिहास मे विशेष स्थान रखता है। १२०२ ई० में कुतुबुद्दीन ने यहां पर आक्रमण किया। परमाल को हराया। १५३० ई० मे हुमायू ने चढाई की। दो वर्ष निरतर युद्ध के बाद सफल हुए। फिर १५५४ ई० मे शेरशाह चढ पाया। युद्ध में घायल होकर भागा और मारा गया। रामचन्द्र वघेल का कुछ दिन अधिकार रहा । फिर सम्राट अकवर के हाथ पाया। और राजा बीरवल को जागीर मे मिला । पन्ना के महाराज छत्रशाल ने इसे मुसलमानो से जीता और अपने पुत्र हृदयशाह को जागीर मे दिया। इसी वश में अमानसिंह और हिंदूपति हुए। हिंदूपति ने अमानसिंह को मरवाया। गृहकलह का लाभ उठाकर वेनी हजूरी और कायमजी चौवे ने अधिकार किया। फिर १८१२ ई० मे अग्रेजो के हाथ पाया। ____ इस गढ के प्रत्येक पाषाण मे, वहां की मूर्तियो मे, भग्न मदिरो मे और टूटे हुए शिलालेखो में पुरातन भारत के समुज्ज्वल इतिहास की मूल्यवान सामग्री है। (व) अजयगढ़-अजयगढ अव भी एक अलग राज्य है। अजयगढ उसी की राजधानी है। उसका किला पहाड पर है। वह अजयपाल का बनवाया है । एक के बाद एक फाटक पार करने पडते है । पाँच फाटक पार कर दर्शक वहाँ पहुंचता है। वहाँ पर पहाड को काट कर दो कुण्ड बने है और पहाड खभो पर स्थित है। यह कुण्ड गगा-यमुना कहलाते है । जल सदा रहता है । रगमहल वहां के दर्शनीय है । इनमे अच्छी कला है। भूतेश्वर के दर्शनो को परकोटा के नीचे-नीचे जाना पड़ता है। वहाँ भी दो कुण्ड है और शिलानो से पानी टपकता रहता है। यहां भूतेश्वर की गुफा है। इनके अतिरिक्त गज (गाजरगढ), नचनौरा, चौमुखनाथ भी प्रधान प्राचीन स्थान वहां है। शिलालेख भी है। ४ दतिया के पुराने महल-दतिया झासी के उत्तर मे जी० आई० पी० की वडी लाइन पर स्टेशन है। वहाँ पर राजधानी के समीप ही लाला के ताल पर स्थित महाराज वीरसिंह देव प्रथम भोरछा नरेश का बनाया महल है। वह ठीक चौकोर है। सात मजिल का है। चारो कोनो पर चार गुम्वद है और इस चौकोर भवन के मध्य में एक भवन पाँच मजिल का है, जिसमे प्रत्येक मजिल पर चारो ओर से आने-जाने को मार्ग से वने है । उस पर पांचवां गुम्बद है। हिंदू कला और पारसीक हिंदू कला के शुद्ध और कलापूर्ण सम्मिश्रण का अद्भुत उदाहरण है। उसे कुछ ऐतिहासिको ने ईसा के क्रास के आधार पर बना कह कर पश्चिमीय कला से प्रभावित होना बताया था, पर भारतप्रेमी कलाकार स्व० डॉ० हेवेल ने इसे स्वस्तिक के आधार पर वना बताया है। उनका कथन है कि यह मध्ययुग की सर्वोत्तम कृति है । इसमें भी रगमहल है और उसमे तत्कालीन चित्रकारी है, जिससे वेष-भूषा का पता लगता है। ५. ओरछा--ओरछा स्टेशन मासी-मानिकपुर लाइन पर है। वहां से लगभग तीन मील पर ओरछा राज्य की पुरानी राजधानी है । वेतवा के तीर पर बने हुए राजप्रासाद, रामराजा का मदिर, जहांगीरी महल, लक्ष्मीमदिर, वीरसिह नरेश (प्रथम) की समाधि और चतुर्भुजजी का मदिर दर्शनीय है । दतिया के पुराने महल की प्रणाली का वीरसिंहदेव का महल है। मदिर भी तभी के है । अब ओरछा की राजधानी टीकमगढ़ है। ओरछा राज्य वुन्देलखण्ड का सबसे पुराना राज्य है । रामराजा के मदिर में भगवान रघुनाथ जी की मूर्ति विराजमान है । नाभाजी कथित भक्तमाल में उल्लेख है कि उसे श्री अयोध्या जी से महारानी ओरछा लाई थी। प्रत्येक पुष्य नक्षत्र में वह चलते थे। इस तरह सालो में आये। महारानी जी जव वृद्ध हुई, उन्हें सेवा करने में कष्ट होने लगा तो वे विराज गये। भक्त मौर Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्देलखण्ड-चित्रावली-२ R 21IDHRE. PAWAR S HON स HAR Amplifier 14 . M4M N AA PATAN Lw B C447 himer 4 - . . ३ LAHI . - ओरछा में वेत्रवती [वाईं ओर वीरसिंह देव प्रथम की समाधि है Page #615 --------------------------------------------------------------------------  Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड के दर्शनीय स्थल भगवान को दया की सुन्दरगाथा है । स्थान प्राकृतिक दृश्यो से सुशोभित है । वेतवा (वेत्रवती) की छटा दर्शनीय है। ऊँचे-ऊँचे कगारो पर घने वृक्ष है । लतिकाएँ जल का स्पर्श करती है । वनस्थली में वन्य पशुओ का बाहुल्य है और सरिता में यहाँ-वहाँ द्वीप वने है । सारस और वगुला क्रीडा करते रहते है। ६ (क) महोवा-यह चन्देल काल का पुराना स्थान झाँसी-मानिकपुर रेल की लाइन पर ब्रिटिश भारत में है । चन्देलकाल के बडे-बडे तडाग, आल्हाऊदल की बारादरी, कीर्तिसागर, जिसकी प्रशसा आल्हाचरित मे वर्णित है, वहाँ की पुरातन स्मृतियो को सजीव करते है। (ख) राठ व कुल पहाड-मे भी पुरातन-स्थान तया वेलाताल और विजयनगरताल दर्शनीय है। यहाँ पर दर्जनो मन्दिर, मठ, स्मारक, प्रकृति की गोद मे विखरे पडे है। जहाँ भी शिलालेख होता है, हमारे अशिक्षित ग्रामीण और शिक्षित नागरिक भी उसे वीजक समझते है, जिसमे गुप्त धन की प्राप्ति का साधन लिखा मानते हैं। अत वे नष्ट कर दिये जाते है और इस प्रकार इस देश का अमूल्य धन नष्ट हो जाता है। (२) हिन्दू तीर्थ १ चित्रकूट-झाँसी मानिकपुर रेल लाइन पर चित्रकूट स्टेशन है। कर्वी मे उतरना अधिक सुविधाजनक होता है । हिन्दुओ का यह तीर्थ सारे भारत में प्रसिद्ध है। प्रधान दर्शनीय स्थल (अ) बांकेसिद्ध-सिद्धपुर ग्राम के पास प्रपात है । झरने का जल दो कुण्डो मे एकत्र होता है। (ब) कोटितीर्थ-पर्वत मे दो मील पर है । कोटि मुनियो ने यहाँ तप किया था। यहाँ धर्मशाला भी है । (स) देवागना-प्रपात है। मन्दिर है। (द) हनुमानधारा-सव प्रपातो से रमणीक है । हनूमान जी की मूर्ति पर जल गिरता है। (इ) प्रमोदवन-उद्यान के प्रकार का वन है। (क) सिरसावन-वन है। (ख) जानकीकुण्ड-सिरसावन से एक मील है । पयस्विनी सरिता की शाखा मन्दाकिनी यहाँ पथरीली भूमि पर बहती है। (ग) अनुरूपाजी-महर्षि अत्रि और उनकी पत्नी का स्थान है। घना जगल है । (घ) स्फटिकशिला-बडी भारी पत्थर की शिला पहाड पर है । रामायण में इसका वर्णन है। (ड) गुप्तगोदावरी-चौवेपुर से दो मील है। चित्रकूट स्टेशन से दस मील । गुप्तगोदावरी एक नदी है। पता नही कहाँ से पहाडो के भीतर-भीतर बहती हुई वह यहां आकर दर्शन देती है। प्रवेश करने को गुफा में जाना पडता है। और भी गुफाएं है। (च) रामसैय्या-भगवान राम सीता की शैल-सैय्या है। (छ) भरतकूप-भरतकूप स्टेशन से निकट है। भरत जी ने अत्रि ऋषि की आज्ञानुसार सब स्थानो का जल यहां डाला था। २ बालाजी-दतिया व झॉसी के पास दतिया राज्य के अतर्गत उन्नाव तहसील में पहूज नदी के किनारे है। यहाँ सूर्य देवता के मन्त्र की पूजा होती है। हजारो नर-नारी पूजा करते है । चर्मरोग पीडित हिन्दू और अहिन्दू यहाँ पाकर निरोग होने की भिक्षा मांगते है । दतिया मे यात्रा से लौटती हुई रमणियो को गाते सुना है बालाजी बिरोबर देव नैय्या, देवता नयाँ। बालाजी Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ ३ महर को शारदा देवी--पुरातन स्थान है । मैहर, मानिकपुर कटनी लाइन पर मैहर राज्य की राजधानी है। इस स्थान की वडी पूजा होती है। ४ पन्ना के प्राणनाथ-हिन्दुप्रो मे एक 'धार्मा मत है, जिसे प्राणनाथी भी कहते है। पन्ना इसका प्रधान केन्द्र है। गुजरात, पजाव, काठियावाड सभी जगह हजारो शिष्य है । मन्दिर के गुम्वज पर सोना लिपटा है। पुस्तक की पूजा होती है, जिसमे पुराण और कुरान का मिश्रण कहा जाता है। प्राणनाथ महाराज छत्रशाल के गुरु थे। कहते है, द्रव्य की कमी के कारण उन्होने वरदान दिया था कि जहां तक घोडे पर चढे जायोगे, हीरा की भूमि हो जायगी। अब भी उसी से लगो भूमि में विजावर व चरखारी राज्य मे हीरा निकलता है। ५ कुण्डेश्वर-टीकमगढ से ललितपुर की सड़क पर चार मील पर है। 'मधुकर'-कार्यालय यही है। जमडार नामक नदी में वर्तमान ओरछा नरेश के पितामह ने वांध लगवा कर एक मनोरम प्रपात का निर्माण कराया था, जो आज भी अपने अनुपम सौन्दर्य मे दर्शक को मुग्ध कर लेता है । प्रपात के निकट एक बडी कोठी तथा कुछ दूर पर दूसरो कोठी व उपवन है । प्रकृति का कमनीय स्थान है । शिवलिंग नूतन प्रणाली के मन्दिर में स्थापित है। मूर्ति प्राचीन है। यहां पर हर साल मेला लगता है। ६ जटाशकर-छतरपुर राज्य में विजावर निकट है। आसपास विजावर राज्य है । दो प्रपात है और सुन्दर छोटे-छोटे कुण्ड । उनके जल मे चर्मरोग शोधन की शक्ति है। शिवजी का स्थान है। पुरातन है। बुन्देलखण्ड मे इसकी वडी मानता है। ७ भीमकुण्ड-विजावर राज्य मे विजावर से वीस मील दक्षिण की ओर है। पहाड मे गुहा है, जो १६५४ ८५ फुट है । वीच में कोई पत्थर के खम्भे नही है। उसमे जाने को अच्छा सोपान है । अगाध जल भरा है। सौ फुट तक स्पष्ट दिखाई देता है । जल वडा हल्का और स्वास्थ्यप्रद है। सक्रान्ति को मेला लगता है। उसके कारण यहाँ पर सक्रान्ति को ही 'वुडकी' कहते है। (३) जैन-तीर्थ बुन्देलखण्ड में, विशेषकर विजावर राज्य में, जैन-मतावलम्बी बहुत बडी संख्या में है। प्रतीत होता है कि जब हिन्दुओ ने जैनो के साथ सद्व्यवहार नहीं किया तो वे इधर जगलो मे आ गये । अथवा यह उनके वशज है, जो बहुत काल से यही थे और पाठवी शताब्दी के पुनरुत्थान से अप्रभावित रहे। (क) सोनागिरि-दतियाराज्य मे जी० आई० पी० का स्टेशन है। वहां पर पुराने और नये मन्दिरो का पर्वत पर वाहुल्य है। धर्मशाला है । सहस्रो जनयात्री प्रति वर्ष श्रद्धाजलि समर्पित करने आते है। (स) द्रोणगिरि-(सैधया) विजावर राज्य मे छतरपुर सागर रोड पर मलहरा से पूर्व की ओर छ मील पर है । चन्द्रभागा सरिता, जिसका वर्तमान नाम 'काठन' है, अनवरत प्रवाहित रहती है। एक पर्वत को घेर लिया है। एक ओर से एक शाखा दूसरी ओर से दूसरी पा मिलती है। अद्भुत प्राकृतिक दृश्य है । पर्वत पर जैन मन्दिर है । नीचे जागीरदार साहब की गढी, धर्मशाला और पाठगाला है। वयालीस ग्रामो के प्रशस्त प्रदेश को इधर 'दीन' कहते है, जो द्रोण का अपभ्रश है। द्रोणाचार्य को यह गुरुदक्षिणा में मिला था। उनकी यह भूमि है । यदि यह सत्य है तो द्रोणगिरि के पुरातन होने में सन्देह नही। (ग) पपौरा--ओरछा राज्य की वर्तमान राजधानी टीकमगढ से तीन मील पूर्व की ओर है। दिगम्बर जैनो के ७५ मन्दिर है। मीलो से दीखते है। यहाँ पर १३वी से अब तक भिन्न-भिन्न शताब्दियो के शिलालेख मिलते है । अलग-अलग प्रकार की प्रस्तरकला के अच्छे उदाहरण है। (घ) प्रहार-ओरछा राज्य में है । शान्तिनाथ की यहाँ अठारह फुट की बडी ही मनोज्ञ मूर्ति है। परमद्धिदेव चन्देल नरेश के काल में स० १२३७ वि० मे वह स्थापित हुई थी। मूर्ति दर्शनीय है । वहाँ पर ढाई-तीन सो छोटी-बड़ी मूर्तियो का सग्रह है। प्राकृतिक छटा अद्भुत है। Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड के दर्शनीय स्थल ५७६ (ड) अन्य जैन तीर्थ - नयनगिरि, चन्देरी, देवगढ, कुण्डलपुर, पवा, वालावेट, बजरगगढ, पराई, सेरीन तथा खजुराहा आदि है । (४) अन्य दर्शनीय स्थान १ विजावर के दर्शनीय स्थान-विजावर वन प्रधान देशी राज्य है । यहाँ प्रकृति ने अपरिमित वरदान दिया है। (क) करैय्या के पाण्डव - पांच सतत् प्रवाहित सरिताएं एकत्र होकर एक पहाडी श्रृंखला से टकराती है । उसे पार न कर सकने पर अन्दर समा जाती है । फिर कई मील के बाद निकलती हैं । दृश्य अनुपम है । (ख) सलैय्या के पाण्डव पर्वत पर प्रकृति के विलकुल गोल कटे हुए कूप है। उनमे अगाध जल रहता है । फिर जल लोप सा हो जाता है । श्रनतर एक प्रपात वन कर गिरता, वहता श्रौर लुप्त होता है । एक पेड की जड मे जल निरन्तर वहता है श्रीर केतकी, केला को पानी देता है । ( ग ) घोघरा -- एक प्रपात है । फिर दूसरा प्रपात है, उससे झरना वहता है । उसकी कगार में गुहा है । वहाँ प्राचीन चित्रकारी है। कही वूद-जूद पानी टपकता है। कही पर्वत के शीर्ष पर अज्ञात स्थान से आने वाले जल का छोटा कुण्ड हैं । कही पर चन्देलकाल के पापाण के बँधे वांवो के तडाग है, जहाँ पक्षी क्रीडा करते है । सागौन, तेंदू, अचार, महुआ प्रोर सेजे के जगल है । उनमे तेंदुआ, रोछ, साभर, चीतल स्वच्छन्द विचरण करते है । एक ओर धमान और दूसरी ओर केन वहती है । २ झांसी का बेतवा का बाँध - छतरपुर पन्ना के मार्ग मे वमीठा मे बारह मील पर दर्शनीय स्थल है । 3 महेबा - छत्रसाल महाराज की समाधि और उनकी महारानी की समाधि का स्थान ओरछा राज्य की तारा तहसील मे है । ४ वरुग्रासागर — प्राकृतिक दृश्यों के लिए अक्षय कोष है । वहाँ के किला, तालाव, प्रपात, गुप्त झरना और उपवन दर्शनीय है । ५ जगम्मनपुर का पंचनदा -- यहाँ पर पाँच नदियो का सगम कजीसा ग्राम पर होता है। अति रमणीक स्थान है । ६ गढ़कुडार --श्रीयुत वृन्दावनलाल जी वर्मा के 'गढकुडार' उपन्यास के पात्रो के क्रीडास्थल का श्राधार, बुन्देली के पूर्व के खगार ( खड्गहारा) का मुख्य स्थान । पुराना गढ झांसी के निकट है । ७ पन्ना के अन्य स्थान —- वृहत्पतिकुंड भरना, हीरो की खदान, बल्देव जी का मन्दिर । ८ सामरिक गढ़ — सामरिक दृष्टि से झांसी, दतिया राज्यान्तर्गत सेउडा और समथर के मध्यकालीन गढ़ ar कुछ अच्छा में अब भी विद्यमान है । दर्शनीय है । झाँसी का किला केवल शिवरात्रि को जनता के लिए खोला जाता है । यह है हमारा बुन्देलखण्ड, जहाँ प्रागैतिहासिक युग में श्रायं श्रनार्य जातियो मे सघर्ष हुआ और भगवान राम - चन्द्र के वनगमन के विशिष्ट स्थान अव भी श्रद्धालु नर-नारियो के तीर्थं वने है । यही के प्रवल प्रतापी, प्रचड चेदि - नरेश शिशुपाल ने महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में विप्लव खडा कर दिया था और भगवान श्रीकृष्ण को उसे समाप्त करना पडा था। इसी भूमि मे गुप्तकालीन देवगढ प्रोर चन्देलकालीन खजुराहो के अतिरिक्त मौर्य, कण्व, शुग, कुशानकाल के स्मारक भी टीलो और वनो मे विद्यमान होगे । उत्तुग पर्वतमालाओ, सघन वनो, निरन्तर निर्मल जल वाहिनी सरितायो, पर्वतीय वर्षाकालीन अल्प जीवी करनो, भिन्न-भिन्न वर्ण-रस प्रभाव वाली भूमियो के 'प्रदेश में बहुत कुछ दर्शनीय है, जो मध्य युग की सभ्यता और संस्कृति को सुरक्षित रख सका है ।' बिजावर ] इस 'इस लेख के लिखने में कतिपय लेखो से सहायता ली गई है । उनके लेखकों का हम आभार मानते हैं । Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी अभिनंदन - प्रथ २. द्वितीय भाग श्री शिवसहाय चतुर्वेदी प्रथम भाग के लेखक महोदय ने दक्षिण बुन्देलखण्ड के अग्रेजी जिलो के ऐतिहासिक तथा दर्शनीय स्थानो का वर्णन लिख देने की हमे अनुमति प्रदान की है । अतएव यहाँ उनका सक्षिप्त वर्णन दिया जाता है। एरन - सागर जिले के बीना जक्शन से नैऋत्य कोण पर ६ मील और खुरई स्टेशन से वारह मील वायव्य कोण पर बीना नदी के किनारे बसा है । बीना नदी इसे तीन ओर से घेरे हुए है। सौन्दर्य दर्शनीय है । सागर जिले का यह सबसे प्राचीन और ऐतिहासिक स्थान है। आज से लगभग पन्द्रह-सोलह सौ वर्ष पहले सम्राट समुद्रगुप्त इस स्थान के सौन्दर्य से इतने प्रभावित हुए कि उन्होने एरन को अपना 'स्वभोग नगर' बनाया। प्राचीन खडहरो से मालूम होता है कि पहले यह वहुत बडा नगर रहा होगा । ५८० यहाँ पर चतुर्थ शताब्दी का एक खडावशेष विष्णुमन्दिर है। विष्णु भगवान की विशाल मूर्ति अव भी विद्यमान है । मन्दिर के प्रागण मे सैतालीस फुट ऊँचा पत्थर का एक विजय स्तम्भ है । इसके शिरोभाग के चारो कोनो पर चार सिंह बने हुए है और मध्य भाग मे एक दूसरे से पीठ मिलाये दो स्त्री-मूर्तियाँ खडी है । स्तम्भ की कारीगरी कलापूर्ण है । इस स्तम्भ पर लिखा है- "सन् ४८४ ई० मे बुधगुप्त के राज्य में मातृविष्णु और धन्यविष्णु दो भाइयो ने जनार्दन के हेतु खडा किया ।" विष्णुमूर्ति के पास एक बहुत ही सुन्दर और विशाल वाराह मूर्ति है । यह ग्यारह फुट ऊँची और साढ़े पन्द्रह फुट लम्बी है । इसके वक्षस्थल पर भी एक गिलालेख है जिससे मालूम होता है कि धन्यगुप्त ने इसे हूण राजा तोरमाणाशाह के राज्य के प्रथम वर्ष मे वनवाया था।' धामोनी - विन्ध्याचल पर्वत की ऊँची टेकडी, पार्वत्य शोभा-युक्त विशालकोट, रम्य वनस्थली, केतकी फूलो की मोहक - महक और खुदे हुए शिलाखडो पर बहने वाले सुन्दर निर्भरो की छटा एव कल-कल निनाद सहज ही धामौनी की छाप हृदय पर डाल देते है । यह वही घामौनी है, जो बादशाह जहाँगीर के समय उन्नति की चरम सीमा को पहुँच चुकी थी । हाथियो का बाजार भी उस समय यही भरता था । वादशाह औरगजेब ने सन् १६७६ ई० में यहाँ एक मसजिद बनवाई, जो 'औरगजेब की मसजिद' के नाम से प्रसिद्ध है । सेसाई और इशाकपुर दो गाँव अब भी मसजिद की तेल-वत्ती के खर्चे को लगे हैं । सम्राट अकबर के प्रसिद्ध वजीर अबुलफजल को जन्म देने का सौभाग्य इसी भूमि को प्राप्त हुआ था। उनके गुरु बालजतीशाह और मस्तानशाहबली के मकवरे अब भी उनकी स्मृति गाथा गा रहे है । यह सुन्दर नगरी अब खडहरो में परिणत हो गई है । मडला के राजा सूरतशाह का बनवाया किला श्रव खडहर के रूप मे खडा है । चारो ओर की १५ फुट चौडी श्रोर ५० फुट ऊँची दीवारो का कोट और चारो कोनो की चार सुदृढ बुर्जे और ५२ एकड की अन्तस्थली वाला मजबूत किला है। इसमें एक मील की दूरी के ताल से नल द्वारा पानी लेने का प्रवन्ध था । इस दुर्गं को ओरछा नरेश श्री वीरसिंह जू देव प्रथम ने अपने अधिकार में कर लिया था । धामौनी की सैकडो मसजिदो, कवरो और महलो के ध्वसावशेष आज भी मौजूद है । यह स्थान सागर से २८ मील उत्तर की ओर वडा तहसील मे झाँसी की पुरानी सडक पर है । विनायका -- सागर जिले के अन्तर्गत वडा से १० मील पश्चिम में है। नगर और बाकरई नदी के बीच के मैदान मे १७ - १८वी सदी के कई सुन्दर स्मारक बने हुए है । यहाँ २० फुट ऊँचा पत्थर का विजय स्तम्भ भी है । स्तम्भ का शिरोभाग चौकोण और सुन्दर कारीगरी से परिपूर्ण है । इन विजय स्तम्भो को लोग इस तरफ भीमगदा कहते है । 'देखिए, रायबहादुर हीरालाल कृत 'सागर-सरोज' हिन्दी गजेटियर । Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड के दर्शनीय स्थल ५८१ स्तम्भ के पास प्रस्तर-निर्मित एक भव्य मन्दिर है। इमे मढी कहते है। इसके दरवाज़ो और खम्भो का प्रत्येक पत्यर सुन्दर कारीगरी, वेलबूटो और देवी-देवताओं की मूर्तियो से सुसज्जित है। यह मढी ही यहां की सर्वश्रेष्ठ, दर्शनीय इमारत है। विजय स्तम्भ से एक फलांग दूर महावीरजी का मदिर है। मूर्ति ७ फुट ऊँची और अपने ढग की निराली ही है। महिषासुरमर्दिनी का मन्दिर यहाँ से एक फलांग दक्षिण मे है । मन्दिर बहुत वडा और सुन्दर है। मूर्ति मफेद संगमर्मर की बनी है और तीन फुट ऊंची है। यह गांव १५वीं सदी में गढा मडला के गोड राजानो ने वसाया था। पश्चात् ओरछा नरेश वीरसिंह जू देव प्रथम ने इसे गोडो से छीन लिया और मम्भवत इस नगर की विजय-स्मृति में ही सत्रहवी मदी के प्रारम्भ में उन्होने उक्त विजय-स्तम्भ का निर्माण कराया। खिमलासा-सागर से ४१ मील दूर खुरई तहसील में ऐतिहासिक स्थानो में से एक है। किसी राजपूत और मुसलमान के सम्मिलित प्रयास का बनवाया हुआ पुराना किला भी यहां पर है। इसके भीतर शीशमहल दर्शनीय है । इसमें दर्पण जडे थे। कुछ अव भी मौजूद है । शीगमहल के अतिरिक्त पजपीर की दरगाह भी है, जिसमें लगी हुई पत्यर की जाली विशेष कलापूर्ण है। प्राचीनकाल में अनूपसिंह ने जव इस पर हमला किया तव इसके चारो ओर पत्थर की एक दीवार वना दी गई थी, जो अब कुछ-कुछ गिर गई है। यहां पर शिलालेख भी कई हैं। किले के सिवाय खिमलासे मे सतीचीरो की भी बहुतायत है। उनमें से ५१ में तिथि-सवतो के साथ-साथ भिन्न-भिन्न मतियो और वादशाहो के नाम भी अकित है। औरगजेव के समय की वनवाई एक ईदगाह है। ममजिद है। पूरा-का-पूरा खिमलासा पत्थरो का बना हुआ है। यहाँ पर प्राचीन काल में संस्कृत के शिक्षण का वडा प्रचार था। अठारहवी सदी में स्वय पचाग बना कर निर्वाह करने वाली विदुषी अचलोवाई यही रहती थी। खिमलासे के स्मृति-चिह्न ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण और देखने योग्य है। राहतगढ–यहाँ पर एक विस्तृत किला है, जो ऊंचे स्थान पर बना हुआ है । इसमे वडी-बडी २६ वुर्जे है। वहुनेरी तो रहने के काम में लाई जाती थी। किले के हृदयाचल में ६६ एकड भूमि है। इसमें पहले महल, मन्दिर और बाजार बने हुए थे। 'वादल महल' सवसे ऊँचा है। इसे गढा मडला के राजगोडो का वनवाया वतलाते है। अन्य स्थल जोगनवुर्ज है। इस पर से प्राणदण्ड वाले कैदियो को वीना नदी की चट्टानो पर ढकेल दिया जाता था। लगभग तीन मील की दूरी पर नदी का ५० फुट ऊंचा प्रपात भी है। गढपहरा-मैदान से एकदम ऊँचे उठने वाले गिम्बर पर दागी राजाओ का वनवाया एक किला है। शीशमहल भी है, जिनमें रग-विरगे कांच जडे हुए थे। किला जीर्णावस्था में है। किले के उत्तर मे टौरिया के नीचे मोतीताल नामक छोटा-सा तालाव है। गढ से सटा हुआ हनुमान जी का मन्दिर है। आपाढ माम के प्रत्येक मगलवार को छोटा-सा मेला भरता है। ___ गढ़ाकोटा की धौरहर-छत्रसाल के लडके हृदयशाह ने गांव से दो-ढाई मील दूर रमना मे १३ फुट लम्वी और उतनी ही चौडी तया १०० फुट ऊंची धौरहर बनवाई थी। कहते है कि इस पर से उमकी रानी सागर के दीप देखा करती थी। कुडलपुर-हटा तहसील मे हिंडोरिया-पटेरा सडक पर दमोह से २३ मील की दूरी पर जैनियो का तीर्थस्थान है । एक पहाडी पर २०-२५ जन-मन्दिर बने है। कुछ पहाडी के नीचे है। इनमे वर्द्धमान महावीर का मन्दिर मवमे पुराना है। मूर्ति की ऊंचाई वारह फुट है । मन्दिर के द्वार पर एक शिलालेख है, जिससे पता चलता है कि ढाई सौ वर्ष पूर्व (सन् १७००) कुडलपुर का नाम मन्दिर-टीला था। यहाँ जैनियो का मेला भरता है। पहाडी के नीचे एक तालाव के किनारे दो मन्दिर हिन्दुओ के है। ये जैन मन्दिरो की अपेक्षा बहुत पहले बनाये गये थे। Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रय ५८२ बांदकपुर–दमोह से ६ मील पूर्व में जी० आई० पी० का एक स्टेशन है। यहां पर जागेश्वर महादेव का प्रसिद्ध मन्दिर है। प्रति वर्ष वसन्त पचमी को बडा मेला भरता है। सामने पार्वती जी का मन्दिर है। महादेव और पार्वती के मन्दिरो में झडे लगे है। कहते है, जिस वर्ष सवा लाख काँवर चढ जाती है उस वर्ष वसन्त पचमी को दोनो झडे झुक कर आपस में मिल जाते है । इस प्रान्त के प्रति वर्ष हजारो श्रद्धालु नर-नारी काँवर मे नर्मदा जी का जल भर कर जागेश्वर महादेव को चढाने ले जाते है । पास ही मे एक वावडी है, जिसे इमरती कहते हैं । मन्दिर का प्रवन्ध वाला जी दीवान के खानदान वालो के सुपुर्द है । मन्दिर की आमदनी का चतुर्थ भाग पुजारी को दिया जाता है। शेष दीवान के वशजो को मिलता है। बहुत दूर-दूर मे यात्री पाते है। मृगन्नाथ-यह स्थान सागर-करेली रोड पर ५४-५५वें मील पर झिराघाटी से पांच-छ मील पूर्व को है। विन्ध्या के ऊँचे पहाड एक मैदान को तीन ओर से घेरे हुए है । पहाडो के नीचे एक वावडी है, जिसके पास धर्मशाला-सी बनी है। बावडी के आगे पर्वत की चोटी की ओर लगभग एक मील ऊपर चढने पर एक बडी गुफा सामने आती है। इसे मृगन्नाथ की गुफा कहते है । किसी समय इस गुहा में मृगन्नाथ नाम के सिद्ध पुरुष रहते थे। बहुतेरे मनुष्य मृगन्नाथ की गुफा के पास अपना मृगी रोग दूर करने के लिए मानता मनाने आते है। मदन-महल-गोडराजा मदनसिंह की विभूति मदन-महल जबलपुर के इसी नाम के स्टेशन से लगभग दो मील दूर दक्षिण मे है । यह महल विन्ध्या की टेकडी पर काले शिला-प्रस्तरो के बीच, सघन वृक्ष-कुजो से भरी भूमि पर एक ही अनगढ चट्टान पर बना हुआ है। सामने घुडगाला आदि है। ____ यहां की चट्टानो की शोभा विशेष उल्लेखनीय है । वडे-बडे आकार-प्रकार की विशाल गिलाएँ एक के ऊपर एक तुलनात्मक रूप से बहुत ही छोटे आधार पर सधी हुई है। गुप्तेश्वर-मदन-महल (जवलपुर) स्टेशन से डेढ-दो मील दक्षिण-पूर्व तथा मदन-महल से लगभग एक मील पूर्व विन्ध्या की टेकडियो में विशालकाय काले शिलाखडो के बीच गुप्तेश्वर महादेव का एक रमणीय देवालय है। यह टेकडी काट कर ही बनाया गया है। मन्दिर प्रशत छतदार और उत्तराभिमुख है । एक वडी शिला को काट कर उसी का शिवलिंग निर्मित किया गया है । मूर्ति के पीछे बहुत ही छोटा जल-स्रोत भी सदा बहता रहता है। ___ सामने सभामडप है । फर्श और दीवारो पर फ्लोर-टाइल्स लगे हुए है। एक कुआं और एक बावडी है । दोनो का पानी दूधिया रग का है। भेडाघाट-धुआंधार-जवलपुर से नौ मील की दूरी पर है । नर्मदा का सर्वोत्तम रम्य रूप है । नर्मदा के जल-प्रपातो का शिरमौर है । रेवा की महान जलराशि यहाँ चालीस फुट की ऊंचाई से एक अथाह जलकुड में गिरती है। जलकरणो के वादल के बादल उठते है, जिससे कुड से दूर-दूर तक धुंआ सा छाया दीखता है। साथ ही बादलो के गर्जन-सा जोर-शोर सुनाई देता है। थोडे और नीचे की ओर सगमरमर की गगनचुम्बी चट्टानें है, जिनकी शोभा पूर्णिमा की रात्रि को वडी ही मोहक होती है। बुन्देलखड का मध्यप्रान्तीय विभाग भी समय बुन्देलखड की भांति ऐतिहासिक एवं प्राकृतिक स्थलो से परिपूर्ण है । सव का उल्लेख इस लेख में करना असम्भव है। देवरी] Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड की पावन भूमि स्व० 'रसिकेन्द्र' , , झाकी 2 , उर्वरा भव्य धरा है यहाँ की, छिपे पडे रत्न यहाँ अलबेले मुण्ड चढे यही चण्डिका पै, उठ रुण्ड लडे है यहीं असि ले ले । खण्ड बुन्देल की कीर्ति श्रखण्ड, बना गये वीर प्रचण्ड बुंदेले, ल के सकट खेल के जान पै, खेल यहीं तलवार से खेले ॥१॥ शाह भी टीका मिटा न सके, हुई ऐसे नृपाल के भाल की झाकी युद्ध के पडितो के बल-मडित की भुजदण्ड विशाल की झाकी । पाई यहीं पर धर्म- धुरीण प्रवीण गुणी प्रणपाल की है जगती जगती में कला, करके कमला करवाल की झाकी ॥२॥ श्राते रहे भगवान समीप ही, ध्यानियो का यहाँ ध्यान प्रसिद्ध हैं। पुत्र भी दण्ड से त्राण न पा सका, शासकों का नय-ज्ञान प्रसिद्ध है । हीरक-सी मिसरी है जहाँ, वहाँ व्यास का जन्म स्थान प्रसिद्ध है, वश चल की प्रान प्रसिद्ध है, ऊदल का घमासान प्रसिद्ध है ॥३॥ स्वर्ण- तुला चढ् वीरसिंह देव ने दान की प्रान लचा दी ha पं पालकी ले छत्रसाल ने सत्कवि-मान की धूम मचा दी । राग में माधुरी श्रा गई, 'ईसुरी' ने अनुराग की फाग रचा दी काव्य-कलाधर केशव ने, कविता की कला को स-भोज जचा दी ॥४॥ स्वर्ग में सादर पा रहा श्राज भी, भावुक मानसो का अभिनन्दन दर्शन देते रहे जिसको तन धार प्रसन्न हो मारुति-नन्दन । पावन प्रेम का पाठ पढा दिया, प्राण-प्रिया ने किया पद-वन्दन, " " 1 वाले " वाले । प्राप्त हुई तुलसी को रसायन, रामकथा का यहीं घिस चन्दन ॥ ५ ॥ पाये गये हरदौल यहीं, विष टक्कर से नहीं डोलने सन्त, प्रधान, महान यहीं हुए, ज्ञान कपाट के खोलने मृत्यु से जो डर खाते न थे, मिले सत्य ही सत्य के बोलने भाव-विहारी बिहारी यही हुए, स्वर्ण से दोहरे तोलने अचल में हरिताभ लिये तने, वेत्रवती के वितान को गूंज पहूज की कान में गूंजती, पचनदी के मिलान को कृत्रिम - रत्न- प्रदायिनी केन की, शान को देखा, धसान को देखा द्वार में भानुजा के सजे निर्मल, नीलम-वेश - विधान को देखा ॥७॥ राम रमे वनवास में लाकर, है गिरि को गुरुता को बढाया ; पादप पुज ने दे फल-फूल, किया शुभ स्वागत है मनभाया । 7 राम लला की कला ने यहीं, अचला बन के है प्रताप दिखाया 1 जीवन धन्य हुआ 'रसिकेन्द्र' का, पावन भूमि में जन्म है पाया ॥८॥ उई ] वाले 2 वाले ॥६॥ देखा 1 देखा । Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमीजी की जन्म-भूमि देवरी श्री शिवसहाय चतुर्वेदी सागर जिले की रहली तहसील मे सागर से चालीस मील दक्षिण की ओर सागर-करेली रोड पर देवरी स्थित है। इसी स्थान को श्री नाथूराम जी प्रेमी को सवत् १९३८ मे जन्म देने का सौभाग्य मिला। यही के हिन्दी मिडिल स्कूल मे १ जनवरी १८८६ ई० को प्रेमी जी का विद्यारम्भ हुआ। स्कूल के दाखिल-खारिज रजिस्टर में उनका सीरियल नम्बर ६०६ है । सन् १८६८ मे पाठकीय परीक्षा (टोन क्लास) पाम करने के पश्चात् उनका नाम स्कूल से खारिज हो गया। प्राचीन और वर्तमान रूप 'सुखचैन' नामक नदी वस्ती के बीच मे होकर बहती है। उसके दक्षिणी किनारे पर गोड राजाओ का वनवाया हुया एक किला है, जो अब खडहर मात्र रह गया है। इसी किले के पत्थर निकाल कर सन् १८६६ ई० में नदी का पुल बांधा गया था। देवरी से नर्मदा नदी का 'ब्रह्माण घाट' पक्की सडक पर दक्षिण की ओर सत्ताईस मील और करेली स्टेशन पैतीस मील दूर है । यहाँ का भूभाग समुद्र तट से १४०८ फुट ऊँचा है। पानी वरसने का औसत देवरी पहले एक बडा नगर था। सन् १८१३ ई० मे इस नगर की जन-सख्या तीम हज़ार थी। इसी साल गढाकोटा के राजा मर्दनसिंह के भाई जालमसिंह ने कुछ फौज इकट्ठी करके देवरी घेर ली। उसी समय अकस्मात् नगर में आग लग गई। कहते है कि प्राग जालमसिंह के सैनिको ने लगाई थी। जो हो, दैव दुर्विपाक से उसी समय जोर की हवा चलने लगी। देखते-देखते नगर जल कर भस्म हो गया। नगर के चारो ओर फौज का घेरा था। लोगो को भागने का अवकाश कम ही मिला। वडी मुश्किल से पांच-छ हजार प्रादमी वच सके। शेष सव जल मरे। कहा जाता है कि आग लगने के दिन जालसिह के सिपाहियो ने एक आदमी को मार डाला था, जो हूँका घराने का गहोई वैश्य था। पादमी की मृत्यु होने पर उसकी साध्वीपत्नी अपने पति के शव के साथ सती होने स्मशान जा रही थी कि कुछ लोगो ने उसके सती होने की दृढता पर सन्देह करके उपहास किया। इस पर वह रुष्ट होकर वोली, "मेरा उपहास क्या करते हो । देखो, चार घटे के भीतर क्या होता है ?" कहते है, उसी दिन चार घटे के भीतर देवरी जल कर भस्म हो गई। सोलहवी शताब्दी के प्रारम्भ मे देवरी नगर गढा-मडले के गोड राजाओ के अधीन था। गौडो में सग्रामसिंह प्रतापी राजा हुआ। उसने अपने बाहुबल से वावन गढ जीते, जिन मे से दस सागर जिले में थे। धामौनी, गढाकोटा, राहतगढ, गढपहरा, रहली, रानगिर, इटावा, खिमलासा, खुरई, शाहगढ और देवरी। सग्रामसिंह ने पचास वर्ष राज्य किया। इसने अपने नाम के सोने के सिक्के चलाये। सग्रामसिंह १५३० के लगभग मर गया। उसके मरने पर इन गढो पर इनके वशजो का अधिकार बना रहा। १७३२ ई० में सागर का अधिकाश भाग पूना के पेशवायो के अधिकार मे आ गया और सम्भवत सन् १७५३ में देवरी इलाका भी उनके अधीन हो गया। __ सन् १७६७ ई० मे बालाजी बाजीराव पेशवा ने अपने एक सरदार श्रीमन्त धोडू दत्तात्रय को दक्षिण की विजय से प्रसन्न होकर देवरी पचमहाल जागीर में दी थी। ये श्रीमन्त नाय गाँव-नासिक के निवासी थे। जागीर मिलते ही देवरी पा कर रहने लगे और यहाँ के राजा बन गये। धोड़ के पुत्रो ने अपने को सिन्धिया सरकार का आश्रित बना लिया। १८२५ मे अंगरेज़ सरकार ने श्रीमन्त रामचन्द्र राव से देवरी का इलाका ले लिया और इसके बदले Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी जी की जन्म-भूमि देवरी ग्वालियर के सिन्धिया से उन्हें इसी जिले का पिठौरिया इलाक़ा दिला दिया। श्रीमन्त के वशज आज भी पिठौरिया में रहते है । सन् १८२५ में देवरी में अंगरेजी अमलदारी प्रारम्भ हुई। इस समय मेजर हार्डी कब्जा करने आये थे। उनको इस तहसील के प्रवन्ध के लिए, जो हाल ही में अंगरेजी राज्य में मिलाई गई थी, एक स्थानीय सुयोग्य और अनुभवी श्रादमी की आवश्यकता थी। उनके विशेष आग्रह पर इन पक्तियो के लेखक के पूर्वज, जो पुराने राजा श्रीमन्त के समय के तहसीलदार थे, प० राव साहब चौवे देवरी तहसील के अंगरेजी अमलदारी के सर्वप्रथम तहसीलदार और त्र्यम्बक राव नामक एक महाराष्ट्र मज्जन नायव तहसीलदार बनाये गये। इस तहसील मे गौरझामर. नाहरमौदेवरी. चांवरपाठा और तेंदखेडा परगने शामिल थे। इसका विस्तार दक्षिण में नर्मदा नदी तक था, परन्नु कुछ ममय पश्चात् नरसिंहपुर के अंगरेजी राज्य में आ जाने के कारण तहसीलो में परिवर्तन हुआ और देवरी रहली तहसील में शामिल कर दी गई। सन् १८५७ मे गदर के समय सिंहपुर के गोंड ज़मींदार दुर्जनसिंह ने देवरी के किले पर अविकार कर लिया था, परन्तु उमे किला छोड कर गीघ्र भागना पडा।' मन् १९४१ ई० की मनुष्य-गणना के अनुसार देवरी की जन-सख्या आठ हजार के करीव है। जन-सख्या के हिमाव से सागर और दमोह को छोड कर देवरी इस जिले का सबसे वडा कस्वा है। सन् १८६७ ई० में यहाँ म्युनिसिपलिटी कायम की गई थी। वर्तमान समय में इसकी सालाना आमदनी पचीस-तीस हजार रुपया है। यहाँ म्युनिसिपलिटी के दो मिडिल स्कूल है । एक हिन्दी का, दूसरा अंगरेज़ी का । एक मरकारी कन्याशाला भी है। इन शिक्षणमस्याओ के अतिरिक्त यहाँ पर पुलिस स्टेशन, सिटी पुलिस चौकी, डाकखाना, अस्पताल, ढोरअस्पताल, वन-विभाग, पडाव, सराय और विश्राम-चंगला (रेस्ट हाउस) भी है। पहले यहां रजिस्ट्री और तार आफिम भी थे, परन्तु अब टूट गये है। एक छोटा बाजार भी प्रतिदिन भरता है। साप्ताहिक बाजार शुक्रवार के दिन लगता है, जिममें गल्ले और मवेशियो की अधिक विक्री होती है। सागर-करेली में रेल्वे लाइन निकलने के पहले यहाँ का व्यापार बहुत वढा-चढा था। अव भी यहां बहुत व्यापार होता है। सरोते यहां के प्रसिद्ध है । देवरी पहले राज-म्यान रहा है। इस कारण यहां वैश्य, महाजन, व्यापारी, लुहार, वढई, तेली, तम्बोली, कोरी, कुस्टा, कुम्हार, मुनार, कमेरे, तमेरे, रगरेज, छीपा, कचेरे (कांच की चूडियां बनाने वाले), लखेरे, कुन्देरे (लकडी के खिलौने बनाने वाले), मोची, चित्रकार, जमोदी, (गाने वाले), कडेरे (वास्द आतिशवाजी बनाने वाले), माली, धोवी, नाई, ढीमर आदि सभी जातियो के लोग रहते है। कपडे के रोज़गार के अभाव के कारण यहां के वहु-सख्यक कोरी अहमदावाद और इन्दौर में जा बसे है। प्रेमीजी का घर वस्ती के बीच से जो मडक गुजरती है, उसी के पश्चिम की ओर लगभग ढाई फलांग की दूरी पर प्रेमीजी का घर है। यह उनकी पैतृक-भूमि है । प्रेमीजी के छोटे भाई नन्हेलाल जी ने उस घर को फिर से बनवा लिया है और वही उसमें रहते है । प्रेमीजी तो वर्ष दो वर्ष में कभी आते है । समारोह और महापुरुपो का आगमन देवरी में समय-समय पर अनेक उत्सव होते रहते है और महापुरुषो का आगमन । सन् १९०१ से लेकर कई वर्षों तक 'मीर'-मडल-कवि-समाज के जल्सो की धूम रहती थी। वाहर के विद्वान् भी उनमे सम्मिलित होते थे। प्रति वर्ष दशहरे के अवसर पर यहां रामलीला या कृष्णलीला हुआ करती थी। सभी वर्ग के लोग उसमें भाग लेते थे। महत्त्व की बात यह है कि रामलीला मे मुसलमान प्रेमपूर्वक सम्मिलित होते थे और ताजियो में हिन्दू सागर गजेटियर। Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ ५८६ योग देते थे। यह सन् १९०३-४ के पहले की वात है। उसके बाद समय ने, पलटा खाया और हिन्दू-मुसलिम एकता की बात स्वप्न हो गई। सन् १९०५ ई० मे लार्ड कर्जन द्वारा वग-भग और उसके विरोध में बगाल से स्वदेशी और बॉयकाट का आन्दोलन उठने के पूर्व देवरी मे स्वदेशी वस्तु-प्रचार का आन्दोलन जोर पकड गया था। सभामो तथा जातीय पचायतो द्वारा स्वदेशी वस्तुओ के व्यवहार करने, देवरी के बुने स्वदेशी वस्त्र पहनने और देशी शक्कर खाने की प्रतिज्ञा कराई जाती थी। इस हल-चल का अपूर्व प्रभाव पडा। देवरी के बाजार में वाहर की शक्कर ढूढे न मिलती थी। हलवाई तो स्वदेशी शक्कर की मिठाई बनाने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध थे ही। अधिकाश लोग देवरी के बने कपडे पहिनने लगे थे। यहां उत्तम रेशम किनारी के धोती जोडे, साडियां, कुरते और कोटो के बढिया-बढिया कपडे बुने जाने लगे थे। इन सब कामो के मुख्य प्रवर्तक स्थानीय मालगुजार लाला भवानीप्रसाद जी थे। गाँव के सभी लोगो की इनसे पूर्ण सहानुभूति थी। श्री सैयद अमीर अली 'मीर' स्वदेशी आन्दोलन में विशेष क्रियात्मक भाग लेते थे। वे अपनी दूकान द्वारा देवरी की बनी स्वदेशी वस्तुएँ वेचते थे। उन्होने कपडा बुनना भी सीख लिया था। लाला भवानीप्रसाद जी और श्री नाथूराम जी प्रेमी आदि कुछ सज्जनो के प्रयत्न से वम्बई से 'शिवाजी हेण्ड लूम' मँगाई गई और उससे तथा कुछ यहाँ के बने करघो से कपडा बुनने का एक व्यवस्थित कारखाना खोला गया। देवरी के कुछ कोरी मीर साहब के साथ वस्त्र वुनने की कला में विशेष दक्षता प्राप्त करने के लिए बम्बई भेजे गये। हेण्ड-लम प्रा जाने पर यहाँ बडे अर्ज के कपडे सुगमता से बुने जाने लगे। आज भी यहाँ कई किस्म के अच्छे कपडे तैयार होते है। चालीस नम्बर के सूत के नामी जोडे, रेशमी किनारी की साडियां और अनेक प्रकार के चौखाने वुने जाते है। पटी (स्त्रियो के लंहगा बनाने का लाल रंग का धारीदार कपडा, जिसके नीचे चौडी किनार रहती है।) यहाँ खूब तैयार होता है। सन् १९०६-१० में इन कामो की ओट में सरकार को राजविद्रोह की गन्ध आने लगी। फलतः श्री लाला भवानीप्रसाद, प० लक्ष्मण राव, प० श्रीराम दामले आदि छ सात आदमियो पर ताजीरात हिन्द के अन्तर्गत १२४ अ के मामले चलाये गये और उनसे दो-दो हजार रुपयो की जमानतें तलव की गई। दमनचक्र ज़ोर पकड गया। 'मीर' साहव वाहर चले गये । प्रेमीजी पहले ही वम्बई जा चुके थे। अत कार्य शिथिल पड गया। ___ सन् १९२० मे नागपुर-काग्रेस के प्रचार-कार्य तथा चन्दे के लिए श्री माधव राव जी सप्रे, प० विष्णुदत्त जी शुक्ल और वैरिस्टर अभ्यकर देवरी पधारे और उनके भाषण हुए। काग्रेस के पश्चात् महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन ने जोर पकडा। देवरी में भी काग्रेस की प्रवृत्तियाँ चल पडी। सन् १९१८ से १९३३-३४ तक देवरी की प्रत्येक राजनैतिक तथा सार्वजनिक हलचल में इन पक्तियो के लेखक का हाथ रहा है। सन् १९३३ के दिसम्बर की पहली तारीख देवरी के इतिहास में सदा स्मरणीय रहेगी। उस दिन महात्मा गाधी देवरी पधारे। शुक्रवार वाजार के मैदान में सभा की आयोजना की गई। हजारो नर-नारी महात्मा जी के दर्शन करने और उनका भाषण सुनने के लिए इकट्ठे हुए। पूर्वाह्न मे दस बजे महात्मा जी का आगमन हुआ और दो बजे सभा हुई। भाषण के पश्चात् महात्मा जी को थैलियां और मानपत्र भेंट किया गया। 'हरिजन-सेवक' में महात्मा जी ने देवरी के सुप्रवन्ध और मानपत्र की प्रशसा की थी। सन् १९४१-४२ में महात्मा जी के युद्ध-विरोधी आन्दोलन के समय देवरी सत्याग्रहियो की राजनैतिक हलचलो का प्रसिद्ध अखाडा रहा। वहुत से आदमियो ने जेल-यात्रा की। साहित्यिक सेवा साहित्यिक क्षेत्र में भी देवरी की सेवाएँ कभी भुलाई नही जा सकती। स्व० सैयद अमीर अली 'मीर' तथा मीर-मडल के कवियो ने, जिनमेप० कन्हैयालाल जी 'लालविनीत', मुशी खैराती खाँ 'खान', गोरे लाल जी भजुसुशील, Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी जी की जन्म-भूमि देवरी ५८७ कामताप्रसाद वीरकवि', फदालीरामजी स्वर्णकार 'नूतन', नाथूराम जी 'प्रेमी', बुद्धिलाल जी 'श्रावक',प० लक्ष्मीदत्त जी 'लालप्रताप', बारेलाल जी 'हूँका' प्रभृति विद्वानो के नाम उल्लेखयोग्य है, हिन्दी-साहित्य की प्रशसनीय सेवा की है। श्री नाथूराम जी 'प्रेमी' की व्यापक और ठोस सेवाओ से तो हिन्दी-जगत् भलीभांति परिचित ही है। उनके सुपुत्र हेमचन्द्र भी प्रतिभाशाली युवक थे और उनसे बडी आशाएँ थी, लेकिन अल्पायु में ही वे स्वर्गवासी हो गये। इन पक्तियो के लेखक से भी साहित्य की थोडी-बहुत सेवा बन पडी है । देवरी की उर्वर भूमि अनेको 'मोर' और 'प्रेम' उत्पन्न करे, ऐसी कामना है। देवरी ] Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड की पत्र-पत्रि एँ श्री देवीदयाल चतुर्वेदी 'मस्त हमारे देश में आज विभिन्न प्रान्तो से अनेकानेक पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही है। प्रस्तुत लेख में हम केवल वुन्देलखड के पत्रो पर ही सक्षिप्त प्रकाश डालने की चेप्टा करेंगे। समय-समय पर बुन्देलखड से जो पत्र प्रकाशित हुए और समाप्त हो गये, उन सब का क्रमागत उल्लेख कर सकना सम्भव नहीं। कारण, कितने ही पनो का आज न तो कही कोई इतिहास ही प्राप्य है और न उनका विवरण जानने वालो का ही अस्तित्व है, लेकिन आज के युग में हमें अपनी पत्र-पत्रिकाओ का लेखा-जोखा रखना अत्यन्त आवश्यक है, ताकि विस्मृति के गर्भ में वे भी वैसे ही विलीन न हो जाये, जैसे कि पहले हो गए है। बुन्देलखड मे पत्र-पत्रिकामो के प्रकाशन का सर्वाधिक श्रेय जवलपुर को ही दिया जा सकता है। वहां से समय-समय पर अनेक पत्र निकले और अपने क्षेत्र में उनकी सेवाएँ पर्याप्त उल्लेखनीय रही। लेकिन हम देखते है कि हमारे प्रान्त में अन्य प्रान्तो की पत्र-पत्रिकाएँ तो सहज ही में अपना प्रचार कर लेती है, ग्राहको के रूप में जनता का सहयोग प्राप्त कर लेती है और उत्तरोत्तर उन्नत होने का मार्ग बना लेती है, लेकिन अपने ही प्रान्त के पत्रो को अपनाना और उन्हें उन्नत करना मानो यहां के निवासियो ने सीखा ही नहीं। छिन्दवाडा से इन पक्तियो के लेखक के सम्पादकत्व में 'स्काउट-मित्र' नामक जिस मासिक पत्र का प्रकाशन श्री रामेश्वर दयाल जी वर्मा ने प्रारम्भ किया था, उसके सिलसिले में हमने अनुभव किया कि हमारे प्रान्तवासी केवल उन पत्रो को ही अपनाने के अभ्यस्त है जो प्रारम्भ से ही भारी-भरकम और ऊंचे दर्जे के हो। वे कदाचित् यह नहीं जानते कि दूसरे प्रान्तो के जिन पयो के वे आज ग्राहक है, प्रारम्भ में वे भी क्षीणकाय और साधनहीन थे और अत्यन्त साधारण कलेवर लेकर प्रकाशित हुए थे। यदि हमारे प्रान्त-वामी अपने प्रान्त के पत्रो को अपनाने की उदारता दिखावे तो कोई कारण नहीं कि यहा पत्रपत्रिकामो को अकाल ही काल-कवलित हो जाना पडे । खेद की बात है कि इमी त्रुटि के कारण हमारे प्रान्त के अनेको ऐसे पत्र कुछ दिन ही चल कर खत्म हो गये, जो कुछ ही समय में भारत के सर्वश्रेष्ठ पत्रो की श्रेणी मे गिने जा सकते थे। जवलपुर से अभी तक निम्नलिखित ग्यारह पत्रो का प्रकाशन समय-समय पर किया गया, लेकिन उनमें से आज दो-एक के अतिरिक्त किसी का भी अस्तित्व नही रहा। .१-'शारदा-विनोद'-सेठ श्री गोविन्ददास जी की प्रेरणा से जून १९१५ मे इसका प्रकाशन प्रारम्भ किया गया था। इसके सम्पादक थे मध्यप्रान्त के सुप्रसिद्ध राष्ट्रकर्मी प० नर्मदाप्रसाद जी मिश्र । छोटी-छोटी कहानियो का यह सुन्दर मासिक पत्र था। वार्षिक मूल्य था डेढ रुपया। कुल सत्रह अक इसके निकले। गारदा-भवन-पुस्तकालय, जबलपुर द्वारा इसका प्रकाशन हुआ था। २-छात्र-सहोदर'-मध्यप्रान्त के सुप्रसिद्ध विद्वान् और इतिहासकार स्वर्गीय प० रघुवरप्रसाद जी द्विवेदी और राष्ट्रकवि श्रीयुत नरसिंहदास जी अग्रवाल 'दास' के सम्पादकत्व में यह पाक्षिक पत्र प्रकाशित होता था। छात्रो के लिए उपादेय सामग्री से पूर्ण रहता था। लेकिन कुछ समय बाद वह भी वन्द हो गया। ३--'श्री शारदा-हिन्दी-ससार के श्रेष्ठ मासिक पत्रो में 'श्री शारदा' का नाम चिरस्मरणीय रहेगा। हिन्दी के धुरन्धर लेखको का सहयोग इसे प्राप्त था। इसकी सी गहन और गम्भीर सामग्री आज के कितने ही श्रेष्ठ मासिक पत्रो में खोजने पर भी न मिलेगी। मध्यप्रान्त के साहित्य में इस पत्रिका की सेवाएँ अपना सानी नही रखती। इसके सम्पादक थे प० नर्मदाप्रसाद जी मिश्र । सेठ गोविन्ददास जी के तत्वावधान में यह पत्रिका राष्ट्रीय हिन्दी मन्दिर, जवलपुर द्वारा प्रकाशित होती थी। इसका वार्षिक मूल्य पांच रुपया था। Page #628 --------------------------------------------------------------------------  Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड-चित्रावली-३ 1 - RANCH "r m TAGE CATE 110 - me GA N बुन्देलखण्ड का एक ग्रामीण मेला Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड की पत्र-पत्रिकाएँ ५८६ 'श्री शारदा' का प्रथमाक २१ मार्च मन् १९२० को प्रकाशित हुआ था। लगभग तीम अक प्रकाशित होने के वाद प० नर्मदाप्रसाद जी मिश्र ने इसके सम्पादकत्व से अवकाश ग्रहण कर लिया। आपके हट जाने पर पडित द्वारकाप्रसाद जी मिश्र इसके मम्पादक नियुक्त हुए, लेकिन मिश्र जी के मम्पादकत्व में यह पत्रिका मासिक न रह कर त्रैमामिक हो गई और तीन-चार अक निकल कर वन्द हो गई। ४--'लोकमत'-मेठ गोविन्ददास जी के तत्त्वावधान में इसका प्रकाशन प्रारम्भ हुआ था। पडित द्वारकाप्रमाद जी मित्र इसके प्रधान सम्पादक थे। इसके प्रकाशन मे हिन्दी के दैनिक पत्रो मे तहलका मच गया। कलकत्ते का दैनिक 'विश्वमित्र' आज जिम वृहत् रूप में प्रकाशित होता है, 'लोकमत' ऐसे ही विशाल स्प में मोलह पृष्ठ का भारी कलेवर लेकर प्रतिदिन प्रकाशित होता था। यह राष्ट्रीय जागरण का प्रवल समर्थक था। "विन्ध्य-शिखर से गीर्षक स्तम्भ की सामग्री पढ़ने के लिए जनता लालायित रहती थी। इस स्तम्भ मे हास्य का पुट देते हुए राजनैतिक हलचलो का जो खाका खीचा जाता था, वह आज भी हिन्दी के किसी दैनिक अथवा साप्ताहिक मे दुर्लभ है। इस पत्र के सम्पादकीय विभाग में भारत के विभिन्न प्रान्तो के लगभग एक दर्जन प्रतिभागाली पत्रकार काम करते थे। इन पक्तियो के लेखक को भी पत्रकार-कला का प्रारम्भिक पाठ पढने का सौभाग्य इसी दैनिक पत्र के मम्पादकीय विभाग मे प्राप्त हुआ था। लेकिन मध्यप्रान्त की अनुर्वर भूमि पर ऐमा अप्रतिम दैनिक भी जीवित न रह सका । प्रान्त के लिए यह लज्जा-जनक बात है। सन् १९३१ के राष्ट्रीय आन्दोलन में मिश्र जी और बाबू साहब के जेल चले जाने पर महीनो तक मांसें लेने के बाद 'लोकमत' का प्रकाशन वन्द हो गया। ५-'प्रेमा'-'श्री शारदा' के वाद 'प्रेमा' का प्रकाशन हुआ। सन् १९३१ मे वह श्रीयुत रामानुजलाल जी श्रीवास्तव के सम्पादकत्त्व में निकली। प्रारम्भ में कुछ समय तक श्रीवास्तव जी के साथ-साथ श्री परिपूर्णानन्द जी वर्मा भी इसके सम्पादक थे और अन्तिम समय में मध्यप्रान्त के सुपरिचित कवि और 'उमरखैय्याम' के अनुवादक प० केशवप्रसाद जी पाठक इसका सम्पादन करते थे। हिन्दी के सुप्रसिद्ध लेखको की रचनायो से जहाँ 'प्रेमा' का कलेवर अलकृत रहता था, वहाँ प्रान्त के उदीयमान कवियो और लेखको की कृतियों को भी इसमें यथेष्ट स्थान दिया जाता था। इसमें सन्देह नहीं कि जवलपुर के अनेक प्रतिभा सम्पन्न कलाकारो के निर्माण में 'प्रेमा' का वडा हाथ रहा। काव्य-शास्त्र में प्रतिपादित नौ रसो पर एक-एक उपादेय विशेपाक निकालने की दिशा में 'प्रेमा' का प्रयत्न स्तुत्य था। लेकिन हास्य, शृगार और करुणरस के भी विशेपाक पारगत साहित्यिको के सम्पादकत्त्व में प्रकाशित करने के बाद 'प्रेमा' का प्रकाशन भी बन्द हो गया। श्रीवास्तव जी ने 'प्रेमा' के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था, लेकिन प्रान्त इस मासिक पत्रिका को भी जीवित न रख सका। ६-'पतित-वधु-श्री वियोगी हरि जी और श्री नाथूराम जी शुक्ल के सम्पादकत्त्व में हरिजन-आन्दोलन के समर्थन में 'पतित-बन्धु' का साप्ताहिक प्रकाशन भी काफी समय तक होता रहा। श्री व्योहार राजेन्द्रसिंह जी का सहयोग इसे प्राप्त था। लेकिन 'चार दिनो की चांदनी, फेर अंधेरी रात' वाली उक्ति इसके साथ भी चरितार्थ होकर ही रही। ७-'सारथी-प० द्वारकाप्रसाद मिश्र के सम्पादकत्त्व में सन् १९४२ में इस साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन आरम्भ किया गया था। हिन्दी के श्रेष्ठ साप्ताहिको में इसकी गणना होती थी, लेकिन अगस्त १९४२ के आन्दोलन में मिश्र जी के जेल चले जाने पर श्री रामानुजलाल जी श्रीवास्तव ने कुछ महीनो तक इसका सम्पादन-भार ग्रहण कर उमे जीवित रखने का भरसक प्रयल किया, परन्तु परिस्थितियो ने उनका साथ नहीं दिया और यह साप्ताहिक भी वन्द हो गया। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० प्रमी-अभिनंदन-प्रथ -'कर्मवीर'-हिन्दी साप्ताहिक 'कर्मवीर' जो आजकल प० माखनलाल जी चतुर्वेदी के सम्पादकत्व में खडवा से प्रकागित हो रहा है, प्रारम्भ मे-शायद १९१६ मे-जबलपुर से ही प्रकाशित होता था। उस समय भी चतुर्वेदी जी ही इसके मम्पादक थे। कुछ समय के वाद चतुर्वेदी जी इस पत्र को अपना निजी पत्र बना कर खडवा ले गये और आज तक वही से इसे प्रकाशित कर रहे है। लेकिन किसी समय राष्ट्रीयता का शखनाद करने वाला 'कर्मवीर' आज अपने प्राचीन महत्त्व को खो बैठा है। -शुभचिंतक-सन् १९३७ में विजयदशमी के अवसर पर इस पत्र का प्रकाशन साप्ताहिक के रूप में प्रारम्भ किया गया था। इसके सम्पादक थे जवलपुर के सुप्रसिद्ध कथाकार स्वर्गीय श्री मगलप्रसाद जी विश्वकर्मा । लगभग तीन वर्ष तक विश्वकर्मा जी ने इसका सम्पादन योग्यता-पूर्वक किया। उनके निधन के बाद श्री नाथूराम जी शुक्ल कुछ समय तक इसके सम्पादक रहे, लेकिन इसके सचालक श्री वालगोविन्द गुप्त से मतभेद हो जाने के कारण शुक्ल जी ने उसे छोड दिया। इमके वाद से अव तक श्री वालगोविन्द गुप्त का नाम सम्पादक की हैसियत मे प्रकाशित हो रहा है । अव यह पत्र अर्द्ध साप्ताहिक के रूप मे निकलता है। १०-'शक्ति'-श्री नाथूराम शुक्ल के सम्पादकत्त्व में साप्ताहिक 'शक्ति' भी पिछले कई वर्षों से प्रकाशित हो रही है, लेकिन जबलपुर के वाहर लोग इसे जानते भी नहीं। हिन्दू महासभा के उद्देश्यो का समर्थन ही इसकी नीति है। ११-'महावीर-सन् १९३६ मे इन पक्तियो के लेखक के ही सम्पादकत्त्व में इस वालोपयोगी मासिक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ था। इसके सचालक थे श्री भुवनेन्द्र 'विश्व', जिनकी 'सरल जैन-ग्रन्य-माला', जवलपुर के जैन समाज मे अपना विशेष महत्त्व रखती है। लगभग एक वर्ष तक इसका प्रकाशन सफलतापूर्वक हुआ। बाद मे सम्पादक और सचालक में मतभेद हो जाने के कारण इसके दो-चार अक स्वय सचालक महोदय ने अपने ही सम्पादकत्त्व में प्रकाशित किये, लेकिन पत्र को वह जीवित न रख सके।. १२-मधुकर'-जवलपुर के बाद पत्र-पत्रिकाओ के प्रकाशन का जहां तक सम्बन्ध है, ओरछा राज्य की राजधानी टीकमगढ का नाम उल्लेखनीय है। हिन्दी के यशस्वी पत्रकार प० बनारसीदास जी चतुर्वेदी 'विशाल भारत' का सम्पादन छोड कर टीकमगढ आये और श्री वीरेन्द्र-केशव-साहित्य परिषद् के तत्त्वावधान में टीकमगढ से 'मधुकर' नामक पाक्षिक पत्र का अक्तूवर १९४० से प्रकाशन प्रारम्भ किया। इस पत्र ने बुन्देलखड के प्राचीन और वर्तमान रूप को प्रकाश में लाने का सफलता-पूर्वक उद्योग किया है। श्री चतुर्वेदी जी ने समय-समय पर अनेक आन्दोलन चलाये है और उनमे सफलता भी प्राप्त की है। 'मधुकर' द्वारा भी उन्होने कुछ आन्दोलन चलाये है जिनमें प्रमुख बुन्देलखण्ड-प्रान्त-निर्माण तथा जनपद-आन्दोलन है। यह पत्र चार वर्ष तक बुन्देलखण्ड तक सीमित रहा । अव इसका क्षेत्र व्यापक हो गया है । १३-'लोकवार्ता'-'लोकवार्ता-परिषद्' टीकमगढ के तत्त्वावधान में हिन्दी के सुपरिचित लेखक श्री कृष्णानन्द गुप्त के सम्पादकत्त्व में जून १९४४ में इसका प्रथमाक प्रकाशित हुआ था। पत्रिका त्रैमासिक है। देश के विभिन्न प्रान्तो की लोक-वार्ताओ पर प्रकाश डालने के उद्देश्य से इस पत्रिका ने जिस दिशा में कदम बढाया है, वह वाछनीय और स्तुत्य है । पत्रिका का क्षेत्र अभी बुन्देलखण्ड तक ही सीमित है, लेकिन आगे चल कर इसका क्षेत्र व्यापक होने की आशा है। इन पत्रो के अतिरिक्त दमोह से 'ग्राम-राम' नामक मासिक पत्र का प्रकाशन हुआ, लेकिन कुछ समय के बाद वह भी बन्द हो गया। श्री शरसौदे जी ने भी 'मोहनी' और 'पैसा' नाम के मासिक पाक्षिक पत्रो का प्रकाशन किया, किन्तु ये पत्र कुछ ही अक प्रकाशित कर बन्द हो गए। झांसी से 'स्वतन्त्र साप्ताहिक और 'जागरण' दैनिक प्रकाशित होते है और कभी-कभी 'स्वाधीन' के भी दर्शन हो जाते है। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६१ बुन्देलखण्ड को पत्र-पत्रिकाएँ बुन्देलखण्ड में पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन का सर्वप्रथम प्रयास सम्भवत सागर से ही प्रारम्भ हुआ था। सन् १८६२ ई० मे प० नारायणराव बालकृष्ण नाखरे ने पालकाट-प्रेम स्थापित करके सर्वप्रथम "विचार-वाहन' नामक मासिक पत्र निकाला था। यह पत्र थियोसोफी मत का प्रवर्तक था। कुछ वर्ष चलने के पश्चात् वन्द हो गया । इसके कुछ वर्ष वाद अनुमानत सन् १६०० ई० में नाखरे जी ने सागर से दूसरा पत्र-'प्रभात' निकाला। यह भी मासिक था। धार्मिक और सामाजिक विषयो पर इसमें लेख निकला करते थे। दो साल चल कर नाखरे जी की वीमारी के कारण कुछ समय के लिए वन्द हो गया। दो वर्ष पश्चात् उसका प्रकाशन पुन प्रारम्भ हुआ और फिर दो-तीन वर्ष तक चलता रहा । नाखरे जी के उक्त प्रयत्न के पश्चात् सागर मे एक सुदीर्घ समय तक पूर्ण सन्नाटा रहा । बीच में किसी भी पत्र-पत्रिका का जन्म नही हुआ। एक लम्बी निद्रा के पश्चात् सन् १९२३ से फिर कुछ पत्रो का निकलना प्रारम्भ हुआ, किन्तु ग्वेद है उनमें से एक भी पत्र स्थायी न हो सका। नीचे इन पत्रो का सक्षिप्त परिचय दिया जाता है। १४-'उदय'-(साप्ताहिक) श्री देवेन्द्रनाथ मुकुर्जी के सम्पादकत्त्व में सन् १९२३ मे निकला। यह पत्र राष्ट्र-निर्माण, शिक्षाप्रचार तथा हिन्दूसगठन का प्रवल समर्थक था। लगभग दो वर्ष चल कर कर्जदार हो जाने के कारण अस्त हो गया। १५-'वैनिक प्रकाश-सम्पादक-मास्टर बलदेवप्रसाद । सन् १९२३ में जव कि नागपुर में राष्ट्रीय झडामत्याग्रह चल रहा था। इस पत्र ने इस प्रान्त में काफी जाग्रति उत्पन्न की थी । झडा-सत्याग्रह के सम्बन्ध मे जेल अधिकारियो की इस पत्र ने कुछ सवाद-दाताओ के सवाद के आधार पर टीका की थी। जेल अधिकारियो ने पत्र और सम्पादक पर मान-हानि का दावा किया। परिणाम स्वरूप पत्र को अपनी प्रकाश की किरणें समेट कर सदा के लिए बन्द हो जाना पड़ा। १६-'समालोचक' (साप्ताहिक) सचालक-स्वर्गीय पन्नालाल राघेलीय । सम्पादक भाई अब्दुलगनी । यह पत्र भी सन् १९२३ मे निकला और तीन साल चला । पत्र हिन्दू-मुस्लिम एकता का हामी था। स्वर्गीय गणेशशकर विद्यार्थी-सम्पादक 'प्रताप', प० माखनलाल चतुर्वेदी-सम्पादक 'कर्मवीर' और कर्मवीर प० सुन्दरलाल जी ने इस पत्र की नीति की यथेष्ट प्रशसा की थी। जब देश में खुले आम हिन्दू-मुस्लिम-दगा हो रहे थे, उस समय सागर के इस पत्र ने इन दगो की कडी टीका की थी। पत्र बन्द होने का कारण सम्पादक का जबलपुर चला जाना और वहां से 'हिन्दुस्थान' पत्र निकालना था। 'हिन्दुस्थान' अपने यौवन-काल में फल-फूल रहा था कि अकस्मात् मेरठ-पड्यन्त्र के मामले मे पत्र और सम्पादक की तलाशी हुई और उसमे कुछ आपत्तिजनक पत्र पकडे गये । घटनाचक्र में फंस कर पत्र वन्द हो गया। १७–'स्वदेश-सन् १९२८ में साधुवर प० केशवरामचन्द्र खाडेकर के सम्पादकत्त्व में निकला और सन् १९३० में देशव्यापी सत्याग्रह छिड जाने पर सम्पादक के जेल चले जाने और पत्र में काफी घाटा होने के कारण बन्द हो गया। १८-'देहाती दुनिया' साप्ताहिक । सम्पादक--भाई अब्दुलगनी। यह पत्र मन् १९३७ से देहात की जनता में जाग्रति करने और उन्हें कृषि-सम्बन्धी परामर्श देने के लिए अपना काम करता रहा। सन् १९४२ के आन्दोलन में सम्पादक के गिरफ्तार हो जाने पर वन्द हो गया। १६--'बच्चो की दुनिया' (पाक्षिक)। सम्पादक-मास्टर वल्देवप्रसाद । सन् १९३८-३६ में निकला। सन् १९४२ में सम्पादक के जेल जाने तथा कागज़ के अभाव में बन्द हो गया। उक्त पत्रो के अतिरिक्त कई एक स्थानो से कुछ छोटे-मोटे पत्र निकलते है । जैसे, हमीरपुर से 'पुकार', कौंच से 'वीरेन्द्र' तथा उरई से 'आनन्द' । इस पिछडे प्रान्त में जन-जाग्रति का कार्य करने के लिए प्रभावशाली पत्रो के प्रकाशन की आवश्यकता है। यह निर्विवाद सत्य है कि राजनैतिक, सामाजिक तथा शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्ति Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ उत्पन्न करने में पत्र वडे लाभदायक सिद्ध होगे। अत कुछ ऊंचे दर्जे के पत्र निकालने की दिशा में हमे शीघ्र ही प्रयत्न करना चाहिए। जानकारी के अभाव में, सम्भव है, कुछ पत्रो के नाम छुट गये हो। लेखक क्षमा-प्रार्थी है। नोट-डा० रामकुमार जी वर्मा द्वारा हमें निम्नलिखित पत्र-पत्रिकामो के विवरण और प्राप्त हुए है। -सम्पादक १ हितकारिणी-यह मासिक पत्रिका जवलपुर से हितकारिणी मभा की ओर से प्रकाशित होती थी और इसके सपादक थे स्वर्गीय श्री रघुवरप्रसाद जो द्विवेदी। इस पत्रिका ने शिक्षा के प्रतार और मगठन करने में अभूतपूर्व कार्य किया। वीस वर्षों से अधिक इस पत्रिका ने मध्यप्रात मे साहित्यिक प्रेरणाएं भी प्रदान की और शिक्षको और विद्यार्थियो को चरित्रवल की शिक्षा दी। २ शिक्षामृत-यह मासिक पत्रिका नरसिंहपुर से 'हिन्दी साहित्य प्रसारक कार्यालय' से श्री नाथूराम रेपा के निरीक्षण और श्री आनन्दिप्रसाद श्रीवास्तव के सम्पादकत्व मे सन् १९२० से प्रकाशित होना प्रारम हुई। यह ५ वर्षों तक प्रात और उसके बाहर शिक्षा और साहित्य की समस्याओ पर प्रकाश डालती रही। इसमें कविताएँ उच्चकोटि की होती थी और भारत के प्राचीन गौरव से मवध रखने वाले चरित्रो पर अच्छी कविताएँ लिखी जाती थी। ३ विध्यभूमि-पन्ना, बुन्देलखण्ड से यह त्रैमासिक पत्र बुन्देलखण्ड के साहित्यिक और ऐतिहामिक वैभव से सवव रखता है। यह जून सन् १९४५ से प्रकाशित हुआ। इसमे माहित्यिक मुरुचि मे सम्पन्न सुन्दर लेखो का मग्रह रहता है । इसके सम्पादक है श्री हरिराम मिश्र, एम० ए०, एल-एल० वी, वी० टी० । ४ जयहिन्द-श्री गोविन्ददास जी के निर्देशन में जबलपुर से एक दैनिक पत्र के रूप में प्रकाशित हुआ। इसमें प्रमुखत राजनैतिक विपयो की ही चर्चा रहती है। साहित्यिक समारोहो के विवरण देने में भी इस पत्र में विशेष ध्यान रखा जाता है । इस पत्र का प्रकाशन इसी वर्ष (१९४६) से प्रारभ हुआ है। Page #634 --------------------------------------------------------------------------  Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड-चित्रावली-४ .. . ... । . है ५.PATHA म . i 31 .. 14 . RAM : ELA i . . . . . .. उपा-विहार [ गुगर के निकट जागनेर की छटा Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड का एक महान् संगीतज्ञ [ उस्ताद आदिलखां] श्री वृन्दावनलाल वर्मा एडवोकेट "है तो ज़रा पगला, पर उसके गले में सरस्वती विराजमान है ।" ५० गोपालराव घाणेकर ने एक दिन मुझमे कहा। प० गोपालराव वयोवृद्ध थे। मैं उन्हें 'काका' कहा करता था। सितार बहुत अच्छा बजाते थे। गाते भी वहुत अच्छा थे। दमे के रोगी होने पर भी ख्याल मे वही सुरीली गमक लगाते थे। मै उनका मितार मुनने प्राय जाया करता था। एक दिन उन्होने उस्ताद आदिलखां के गायन की प्रशमा करते हुए उक्त शब्द कहे थे। उमी दिन मे आदिलखाँ का गाना सुनने के लिए मेरा मन लालायित हो उठा। उन्ही दिनो अगस्त की उजली दुपहरी मे एक दिन मै डॉक्टर सरयूप्रसाद के यहाँ गपगप के लिए जा बैठा। छुट्टी थी। वह वैठकंवाज़ थे और गानेवजाने के वडे शौकीन । उमी ममय उनके यहां एक नवागन्तुक वडी तेजी से आया। मूंछ मुडे चेहरे पर श्रमकण सवेरे की हरियाली पर ओस की बूदो की तरह मोतियो जैसे झिलमिला रहे थे। शरीर का वारीक सफेद कुर्ता पमीने से भीग गया था। नजाकत के साथ सारग की तान छेडता हुआ वह व्यक्ति आया और वैठते ही वातचीत प्रारम्भ कर दी। "डॉक्टर साहब ।" वह बोला, "कलकत्ते गया था। एक वगाली वावू ने कई दिन रोक रक्खा। कई बैठकें हुईं।" चेहरे से लडकपन, अल्हडपन और सरलता टपक रही थी और आँखो से प्रतिभा। मुझे सन्देह । हुआ कि शायद यह आदिलखा हो, परन्तु ऐसा लटका-सा और अल्हड कही इतना महान् सगीतन हो सकता है। यह तो कोई चलतू गवैया होगा। मैने डॉक्टर साहब से सकेत में प्रश्न किया। उन्होने आश्चर्य के साथ उत्तर दिया, "इनको नहीं जानते ? आदिलखा है। प्रसिद्ध गवैये।" मैने क्षमा याचना की वृत्ति बना कर कहा, "कभी पहले देखा नहीं। इसलिए पहचान नहीं पाया। तारीफ आपकी ५० गोपालराव जी से अवश्य मुनी है।" आदिलखां ने पूछा, "आप कौन है ?" डॉक्टर माहब ने मेरा परिचय दे दिया। आदिलखां वोले, "प० गोपालराव जी वहुत जानकार है। वडे सुरीले हैं।" फिर उन्होने सारग की तानो से उस कमरे को भर-मा दिया। कोई वाजा साथ के लिए न था, परन्तु जान पडता था मानो आदिलखां के स्वर और गले को वाजो की अपेक्षा ही नहीं। इमसे और अधिक परिचय उस दिन मेरा और उनका नहीं हुआ। कुछ ही समय उपरान्त गोपाल की बगिया मे, जहाँ अखिल भारतवर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन पन्द्रह वर्ष पूर्व हुआ था, गायनवादन की बैठक हुई। एक प्रसिद्ध पखावजी और आदिलखां का मुकावला था। बीच-बीच मे मुझे ऐमा भान होता था कि पखावजी का अनुचित पक्ष किया जा रहा है। जब वैठक समाप्त हुई तो लोग अपने पक्षपात को प्रकट करने लगे। मैने प्रतिवाद किया और आदिलखां की जो कारीगरी ताल के सम्बन्ध में मेरी समझ में आई, अपने प्रतिवाद के प्रतिपादन मे लोगो के सामने पेश की। वहाँ मे हम लोग चले तो आदिलखां साय थे। मार्ग में वातचीत होने लगी। आदिलखां ने पूछा, "आपने सगीत किमसे सीखा ?" ७५ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ मैने उत्तर दिया, "किसी से नहीं। भारतखडे की पुस्तको से।" "अजी, पुस्तको से सगीत नही आता।" "क्या करता मन भरने योग्य गुरू न मिलने के कारण पुस्तको का ही सहारा लेना पड़ा।" "किसी दिन मै अपना गाना सुनाऊँगा।" यह बात आज से वाईस वर्ष पहले की है। तब से उस्ताद आदिलखां के साथ मेरा सम्बन्ध उत्तरोत्तर वढता चला गया और अब तो वह मेरे छोटे भाई के वरावर है। (२) सन् १९२५ के नवम्बर की वात है। चिरगांव से एक वरात ललितपुर गई। वरात मे भाई श्री मैथिलीशरण गुप्त, स्वर्गीय मुशी अजमेरी जी तथा प्रसिद्ध सगीतज्ञ श्री लक्ष्मणदास मुनीम (हिन्दू विश्वविद्यालय काशी के सगीत के प्रोफेसर) और बनारस के विख्यात शहनाई बजानेवाले थे। मै आदिलखां को एक दिवस उपरान्त झामी से ले पहुंचा। सवेरे का समय था। बनारस की शहनाई वज रही थी। शहनाई वाले झूम-झूम कर टोडी की ताने ले रहे थे। उस्ताद आदिलखां को चिरगांव के सभी वराती जानते थे, परन्तु मुनीम जी और शहनाई वाले उनकी ख्याति से थोडे ही परिचित थे। मैने और उस्ताद ने उनको पहले-पहल ही देखा था। हम लोग एक ओर को वैठ गए। अभी शहनाई समाप्त नहीं हुई थी कि आदिलखां ने मेरे कान में कहा, “प्रच्छी वजाते है, पर मेरी भी टोडी होनी चाहिए।" शहनाई के समाप्त होते ही मैने उस्ताद से गवाने का अनुरोध किया। भाई मैथिलीशरण जी तथा मु० अजमेरी जी उस्ताद का गाना सुन चुके थे। उनका अनुमोदन होते ही आदिलखां का गाना प्रारम्भ हो गया। उस्ताद ने विलासखानी टोडी छेडी और ऐसा गाया कि हम लोग तो क्या, शहनाई वाले और प्रोफेसर लक्ष्मणदास मुनीम भी मुग्ध हो गये। ग्यारह वज गये। कोई उठना नहीं चाहता था, परन्तु स्नान इत्यादि से निवृत्त होना था। इसलिए बैठक दोपहर के लिए स्थगित कर दी गई। दुपहरी की बैठक में सारग गाने के लिए आग्रह हुआ। उस्ताद ने पूछा, "कौन सा सारगगाऊँ ? सारग नौ प्रकार के है। जिस सारग का हुकुम हो, उसी को सुनाऊँ।' मुनीम जी ने प्रस्ताव किया, "पहले शुद्ध सारग सुनाइए।" यहां यह कह देना आवश्यक है कि यह राग तानो और मीड मसक की गुजाइश रखते हुए भी अच्छे गयो की कारीगरो की परीक्षा की कसौटी है। उस्ताद ने मुस्करा कर कहा, “बहुत अच्छा।" मुनीम जी ने हारमोनियम लिया। वह इसके पारगत थे। आदिलखां ने शुद्ध सारग ऐसी चतुराई के साथ गाया कि श्रोता मन्त्रमुग्ध-से हो गये। मुझको ऐसा भान हुआ मानो गर्मियो के दिन हो। लू चल रही हो। कोकिलाएँ प्रमत्त होकर शोर कर रही हो। मुझ समेत कई श्रोतामो को पसीना आ गया। शुद्ध सारग के समाप्त होते ही मुनीम जी ने कहा, "मै पैतीस वर्ष से हारमोनियम पर परिश्रम कर रहा हूँ और अनेक बडे-बडे गवयो को सुना है, परन्तु जैसा सारग आज सुना वैसा पहले कभी नहीं सुना।" उस्ताद ने कहा, “अजी, मै किस योग्य हूँ।" उस्ताद की कोई जितनी प्रशसा करे वह उतने ही नम्र हो जाते है, वास्तविक रूप में, परन्तु यदि कोई उनके स्वाभिमान को चोट पहुंचाये तो उसकी मुसीवत ही आई समझिए। __ मन् १९२७-२८ की बात होगी। ग्वालियर से एक मराठे सज्जन तवला वजाने वाले आए। उनको अपने ताल-ज्ञान का और तवला बजाने का बहुत अभिमान था। तबला वह बजाते भी बहुत अच्छा थे। मेरे घर बैठक हुई। जगह छोटी थी, फिर भी झांसी के लगभग सभी जानकार और संगीतप्रेमी आ गए। तबला वाले मराठा सज्जन को आदिलखां के गायन का साथ करना था। मराठा सज्जन अपने शास्त्र के प्राचार्य थे और उन्होने अनेक Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड का एक महान सगीतज्ञ ५६५ बडे-बडे उस्तादो के कठिन गायन के साथ तवला वजाया था। उनको अपने फन पर नाज़ था। प० गोपालराव भी वैठक में थे। मै उनके पास ही था। एक और सज्जन ने, जिन्होने मराठे प्राचार्य का तबला सुना था, उनके ताल की तारीफ की। इस पर मराठे सज्जन ने नम्रता तो प्रकट की नही, जरा दम्भ के साथ बोले, "मैंने श्री कृष्णराव पडित के साथ बनाया है। उन्होने मेरा लोहा माना । और भी बहुत-से बडे-बडे उस्तादो के साथ वजाया है और उनको हराया है। आज उस्ताद आदिलखां की उस्तादी की परख करनी है।" आदिलखां पहले जरा मुस्कराए। फिर उनकी त्यौरी बदली, होठ फडके और दवे । एक क्षण उपरान्त गला सयत करके वोले, “देखिए राव साहब, उस्तादो की जगह सदा से खाली है। इसलिए इतनी बड़ी बात नही कहनी चाहिए। आज जो यहां इतने लोग है, आनन्द के लिए इकट्ठे हुए है। झगडा-फसाद सुनने के लिए नही । इमलिए मजे को क्यो किरकिरा करते हो?" राव साहब न माने । कहने लगे “यह तो अखाटा है, उस्ताद | लोगो को मुठभेड में ही आनन्द प्राप्त होगा।" "तव हो।"उस्ताद ने चिनौती स्वीकार करते हुए कहा, “शुरु करिए।" उस्ताद ने तम्बूरा लिया। ध्रुवपदाङ्ग ख्याल का प्रारम्भ किया। इस प्रकार का ख्याल केवल उस्ताद का घराना गाता है। इनके पिता स्वर्गीय बिलासखाँ वहुत बडे गवैये थे और पितामह उस्ताद मिठूखाँ का देहान्त उस समय के धौलपूर नरेश के दरबार में एक प्रतिद्वन्द्वता में तान लेते-लेते हुआ था। मिठूखों के पिता पुरदिलखां और पुरदिलखाँ के पिता केसरखाँ तथा केसरखां के पिता मदनखाँ सव अपने जमाने के नामी गये थे। इस घराने का ख्याल ध्रुवपद के अङ्ग से उठता है और उत्तरोत्तर तेज सजीव ख्याल का रूप धारण करता चला जाता है । यह परिपाटी और किसी गवैये मे, श्री प्रोकारनाथ और फैयाजखाँ को छोड कर, नही है । अन्य गवयो के ख्याल की मनोहरता शुरू से ही लय की अति द्रुतगति की कारीगरी मे विलीन हो जाती है । वे प्रारम्भ से ही ताने लेने लगते है और ख्याल के कण नही भरते । इसीलिए अनेक ध्रुवपदिये इस परिपाटी को नापसन्द करते है और यहां तक कह देते है कि ख्यालिये तो बेसुरे होते है। परन्तु आदिलखां के घराने की परिपाटी इस दोप से सर्वथा मुक्त है। आरम्भ में उनका ख्याल ध्रुवपद-सा जान पडता है। स्वर सीधे और सच्चे लगते है। कुछ क्षण उपरान्त गमकै पिरोई जाती है और फिर शनै -शनै क्रमागत अलकार भरे जाते है। इसके पश्चात् तव, लय द्रुत और अति दूत की जाती है। उस्ताद आदिलखां ने उस रात अपने घराने की परिपाटी का एक ख्याल उसी सहज ढग से प्रारम्भ किया । परन्तु एक अन्तर के साथ-लय इतनी विलम्बित कर दी कि ताल का पता ही नही लग रहा था | थोडी देर तक तवले के उक्त आचार्य ने परनो और टुकडो में अपने अज्ञान को छिपाया, परन्तु यह करामात वहुत देर तक नहीं चल सकती थी। आदिलखां ने टोक कर कहा, “सम पकडिए, सम।" सम कहां से पकडते । तवलिये की समझ मे ताल ही नहीं पाया था। उस्ताद हँसे और उन्होने अपने हाथ की ताली से ताल देना शुरू किया। वोले, "अव तो समझिए। हाथ से ताल देता जा रहा हूँ।" परन्तु लय इतनी अधिक विलम्बित थी कि तवलिया न तो ताल को समझ सका और न 'खाली' 'भरी' को । सम तो अब भी उससे कोसो दूर था। झखमार कर, खीझ कर, लज्जित होकर तवला-शास्त्री ने तवला वजाना बन्द कर दिया। कठावरोध हो गया। हाथ जोड कर उस्ताद से वोला, "मै माफी चाहता हूँ। मैं नहीं जानता था कि आप इतने बडे उस्ताद है। यह ताल मैने कभी नही बजाया। ब्रह्मताल, लक्ष्मीताल इत्यादि तो बहुत वजाए है, परन्तु यह ताल नहीं। इसीलिए चूक गया।" उस्ताद को यकायक हँसी आई। तम्बूरा रख कर और गम्भीर होकर बोले, "बहुत सीधा ताल है। आप उसे प्राय वजातेहै।" तवलिया ने आश्चर्य से कहा, "ऐं।" Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी अभिनंदन - प्रथ उस्ताद बोले, "जी हाँ, परन्तु घमंड नही करना चाहिए । वुजुर्ग घमड को बुरा कह गए है । जो लोग उनकी बात को नही मानते, मुंह की खाते है । गवैये के गले का साथ भला तबला बजाने वाले का हाथ कैसे कर सकता है ? आपका दोष नही, दोष घमंड का है ।" ५६६ प० गोपालराव ने भी फटकारा । तवलिया बिलकुल ढल चुका था । उसी नम्रता के साथ उसने पूछा, "उस्ताद, में प्रव भी बहुत कोशिश करने पर ताल नही समझा। बतलाइए, कौन-सा ताल था ? श्राप कहते है कि इसको प्राय जाता हूँ। मैं कहता हूँ कि मैने इसको पहले कभी बजाया ही नही ।" उस्ताद ने तम्बूरा हाथ मे लिया । वोले, "बजाओ । तिताला है ।" " तिताला 1" अचानक प्रनेक कठो से निकल पडा। "तिताला " प्राश्चर्य में डूब कर तवलिये ने भी कहा । वोला, “देखू ।” उस्ताद ने उसी विलम्वित लय मे उसी स्याल को फिर गाया । अव तबलिये ने अच्छी तरह उनका साथ दिया। एक बार भूतपूर्व इन्दौर नरेश (श्री तुकोजीराव होलकर) ने उस्ताद प्रादिलखों को उनके तालज्ञान के पुरस्कार में पाँच सौ रुपये भेंट किये थे । उस्ताद के गायन का एक चमत्कार मैने स्वय एक बार अनुभव किया। रात का समय था। हम तीन-चार श्रादमी घर बैठे थे । उनमे से एक गायनवादन के प्रेमी होते हुए भी जानते कुछ नही थे । मैने उस्ताद से देश गाने के लिए प्रार्थना की। उन्होने उम रात देश इतना वढिया गाया कि न तो उनसे ही कभी ऐसा सुना और न किसी और गवैये से । वात यो हुई । देश मे तीव्र निषाद का स्वर भी लगता है । उस्ताद ने उस रात तीव्र निपाद इतना सम्पूर्ण, इतना सजग और इतना सजीव गाया कि हम लोग सब एकदम बिना किसी भी प्रयास के यकायक " श्रोह" चीख कर अपने आसनों से उठ गए और वैसी ही "प्रोह" उस्ताद के भी मुँह से निकल पडी । फिर उसी प्रकार की निपाद लगाने के लिए उनमे कहा, परन्तु प्रयत्न करने पर भी वह सफल नही हुए । मुझको लगभग एक युग पहले कविता करने का व्यसन था । उसमे श्रपने को नितान्त असफल समझ कर छन्दोभग और रसविपर्यय का प्रयास सदा के लिए त्याग दिया, परन्तु दो-एक कविताएँ कही लिखी पडी थी । उस्ताद को मालूम हो गया । "बड़े भैया । " एक दिन बोले, "इनको में याद करूंगा और गाऊँगा ।" मैने विनय की, "गए-गुजरे खडहरो को आप क्यो प्राबाद करने जा रहे हैं ?" तुरन्त उत्तर दिया, "एक गवरमटी मुहकमा खडहरो की मरम्मत के लिए भी है। वह क्यो ? उस मुहकमे को तुज्या दो तो मानूगा, नही तो नही ।" उस्ताद हिन्दी नही जानते। थोडी सी, बहुत थोडी, उर्दू जानते हैं । मैने अपनी दो कविताएँ उनको उर्दू में लिखवा दी । सन्ध्या को वह उन्हे याद करके श्रा गए। एक को वसन्तमुखारी राग में विठलाया और दूसरी को देश मे । इन दोनो कविताओ को वह प्रत्येक वडी बैठक मे अवश्य गाते है । उनको वे बहुत प्रिय है, क्योकि वे उनके 'बड़े भैया' की है । एक दिन स्वर्गीय श्री गणेशशंकर विद्यार्थी ( प्रताप, कानपुर) झाँसी मे राजनैतिक प्रसग पर बातचीत कर रहे थे। विद्यार्थी जी जव-कभी झाँसी आते थे, राजनैतिक मतभेद होते हुए भी ठहरते मेरे घर पर ही थे। उसी समय उस्ताद आदिलखाँ आ गए । विद्यार्थी जी उनको नही जानते थे, पर श्रादिलखाँ उनसे परिचित थे । उस्ताद इतने बेतकल्लुफ है कि परिचय इत्यादि सरीखी परिपाटियो मे न तो विश्वास रखते है और न उन पर अपना समय ही खर्च करते है । बैठते ही बोले, "यह शायद विद्यार्थी जी हैं । कानपुर वाले ।" विद्यार्थी जी ने भी बेतकल्लुफी के साथ पूछा, "आप कौन है ?" मैने दोनो प्रश्न का उत्तर एक साथ ही दिया, "यह मेरे मित्र प्रसिद्ध नेता श्री गणेशशकर विद्यार्थी और यह प्रसिद्ध गायनाचार्य उस्ताद आदिलखां । " Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड का एक महान सगीतज्ञ ५६७ गणेश जी को नगीन पर परिश्रम करने का समय और अवकाग न मिला था, परन्तु मैंने उस्ताद मे गाना मुनाने के लिए कहा। उम्नाद ने तुरन्त विना वाजे-बाजे के एक स्याल सुनाया। गणेश जी उस्ताद की कारीगरी पर अचम्भे मे भर पाए। बोले, "उस्ताद, आप निस्मन्देह इम कला के बहुत बडे कारीगर है। आपके गले में मशीन-सी लगी जान पड़नी है, पर गाना आपका इतना मुश्किल है कि साधारण जनता नहीं समझ सकती। इसको इनना मरल बनाइए कि मामूली आदमी भी समझ सके।" उस्ताद वटे हाजिर-जवाव है। तुरन्त बोले, “जनाव, आप नेता है, वहुत बड़े नेता है । एम० ए०, वी० ए० पास वाले लोगो के मज़मून ममझने के लिए जनता को कुछ पढना पड़ता है या नहीं ? तव हमारी नाद-विद्या को ममझने के लिए भी पहले लोगो को कुछ मीखना चाहिए।" उन्नाद की पढाई-निवाई की वात हुई। स्वय परिचय दिया, "मैंने तो मरमुती जी की पूजा की है। पढानदा कुछ नहीं। छुटपन में बकरियां चगता था और एक पमे में पांच चीजें गाकर मुना देता था। डड पेलता था। एक पैने की प्रागा पर मो इट पेल कर दिखला देता था।" विद्यार्थी जी बहुन हमे। बहुत-से विद्वानी में एक कमर होती है। वे ठीक तौर पर विद्यादान नहीं कर मकते। ठोकपीट कर अपने विद्यार्थियो को नयार करते है और फिर भी अपनी बात नहीं समझा पाते। उस्ताद आदिलों में उनकी महान् विद्वत्ता के माथ यह महान् गुण भी है कि वह महज ही अपने विद्यार्थियो को पूरा विद्यादान करते है। डाटते-फटकारते है और यदाकदा चांटे भी लगा देते है, परन्तु छोटे-मे-छोटे लटके-लडकियों को भी इतनी शीघ्रता के माथ इस कठिन विषय को इतनी ग्रामानी ने नमझा देते हैं कि आश्चर्य होता है। और पुरस्कार के लिए कोई हठ नहीं करते । जो मिल जाय, उम पर मन्नोप करने है । विना बुलाए कभी किमी राजा या नवाव के यहां भी नही जाते। प्रयाग मे एक महती मगीत वान्म हुई। उम्नाट वुलाए गए। श्री पटवर्धन, श्री प्रोकारनाथ, श्री नारायणगव व्यास प्रभृति भी उस बैठक में आए थे। उस्ताद को स्वर्णपदक मिला। मव बडे-बटे गवयो ने उनकी सराहना की। प्रयाग की मगीत समिति के नयोजक प्रयाग-विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर थे। उन्होंने उस्ताद को अपने यहां गाने के लिए बुलवाया । उन्नाद के ठग्ने का प्रवन्व मने प्रयाग के एक अपने वकील मित्र के यहां किया था। उस्ताद ने उत्तर भेजा, "मैं ऐने नहीं आ सक्ना। जिनका मै मेहमान हूँ, उनको लिसिए। वह इजाजत देंगे तो पाऊंगा, नहीं तो नहीं।" मगीत-ममिति के सयोजक इन पर कुट गए । उम्ताद ने विलकुल परवाह नहीं की। झांमी में एक मगीतनम्मेलन सन् १९४० मे हुआ। यहां भी उनको स्वर्णपदक मिला। पुरस्कार की वात हुई। बोले, "या तो पुरस्कार की वात विलकुल न करो, क्योकि झांसी का हूँ, पर यदि वात करोगे तो जो वाहर वालो को दिया है, वही मै लूगा । कम लेने में मेरा अपमान है।"विवाद हुआ। मेरे लिए पचायत कर देने का प्रस्ताव उस्ताद के मामने आया। तुरन्त बोले, "बडे भैया कह दे कि पाम से कुछ चन्दा सगीत सम्मेलन को दे दो तो आपसे कुछ भी न लेकर गाँठ का और दे दूगा।" उनका कहना ठीक था। मैने पचायत कर दी और उनको सन्तोप हो गया। उस्ताद का राजनैतिक मत भी है। गवरमट को बहुत प्रवल मानते हुए भी वह राष्ट्रवादी है और हिन्दूमुस्लिम समस्या उपस्थित होते ही निप्पक्ष राय देते है । कितने भी मुसलमानो की मजलिस हो और कही भी हो, यदि हिन्दुओ की कोई भी मुसलमान, चाहे वह कितना ही वडा क्यो न हो, अनुचित निन्दा कोतो उस्ताद आदिलखां विगड पडते है और घोर प्रतिवाद करते है और न्याय-पक्ष की वकालत करते है। हिम्मत के इतने पूरे है कि यदि हजार की भी बैठक में कोई उनके किसी मित्र की बुराई करे तो तुरन्त उसका विरोध और अपने मित्र का समर्थन करते है। मैने म्वय उनको कहते सुना है, "यह वुज़दिली है । जिनकी बुराई पीठ पीछे कर रहे हो, उनके मुंह पर करो तव जानू ।" Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनवन-पथ जिन्ना साहव (मि० मुहम्मद अली जिना) हिन्दुनो और मुसलमानो को दो राष्ट्र कहते है । उस्ताद कहते है कि हम में और हिन्दुओ मे मजहब के सिवाय और क्या फर्क है ? कुछ वर्ष हुए मेरी भान्जी का विवाह खडवा में हुआ। प्रसिद्ध साहित्यिक और नेता ब्यौहार राजेन्द्रसिंह (जवलपुर) के पुत्र इस विवाह के वर थे। विवाह में शामिल होने के लिए मेरे बहनोई श्री श्यामाचरणराय ने (वह भी एक विख्यात लेखक है) उस्ताद को निमन्त्रण दिया । उस्ताद मुझसे पहले ही खडवा पहुँच गए । जव वरात विदा हो गई तो उस्ताद झांसी आने लगे और श्री राय के पास विदा मांगने गए । उन्होने मुझसे पहले ही उस्ताद की विदाई के सम्बन्ध मे बातचीत कर ली थी। मैने श्री राय से कह दिया था कि जो जाने, दे दे। उस्ताद बहुत सन्तोपी है। श्री राय ने बहुत सकोच के साथ उस्ताद से अपने प्रस्ताव का प्राक्कथन किया। उस्ताद समझ गए और बोले, "राय साहब, कह डालिए, आप जो कहना चाहते हो।" श्री राय ने पचास-साठ रुपये के नोट बहुत नम्रता के माथ उस्ताद की ओर बढाए। और भी अधिक नम्रता के साथ उस्ताद ने कहा, "क्या यह विवाह मेरी भान्जी का नहीं था? इस अवसर पर आपका पैसा लेकर कैसे मुंह दिखलाऊँगा?" श्री राय चुप रह गए। चलते समय उस्ताद मेरी वहन के पास गए। उस्ताद ने उनके पैर छुए और दो रुपये भेट करते हुए हाथ जोड कर वोलं, "वहिन जी, मैं तुम्हारा गरीव भाई हूँ। मेरी यह छोटी-सी भेट मजूर करो।" मेरी वहिन ने तुरन्त भेंट लेकर कहा, "भैया प्रादिल, ये दो रुपये दो सौ रुपयो से वढ कर है।" फिर वहिन ने उस्ताद की चादर में कलेवा की मोटी-सी पोटली वांधी और हल्दी-चावल का तिलक लगाया। उस्ताद ने फिर पैर छुए और अभिमान के साथ उस तिलक को झाँसी तक लगाए आए। उस्ताद को झांसी बहुत प्रिय है और वुन्देलखड से वडा स्नेह है। झांसी मे इनके निजी मकान भी है, परन्तु पिता और पितामह के घर धौलपुर में है। इनके और पहले पुरखे गोहद (ग्वालियर राज्य) मे रहते थे। गोहद राजदरवार मे वे गायकी करते थे। गोहद के ग्वालियर के अधीन हो जाने पर वे गोहदनरेश के साथ धौलपुर चले आए। आप गोहद को, चम्बल इस पार होने के कारण, बुन्देलखड मे ही मानते हैं। इसलिए अपने को बुन्देलखडी कहने मे गौरव अनुभव करते है। झांसी के बाहर बहुत दिन के लिए कभी नहीं टिकते। भोपाल मे ढाई सौ रुपये मासिक पर जूनागढ़ की बेगम साहवा के यहां नौकरी मिली। केवल चौदह दिन यह नौकरी की। जहां बैठते थे वहाँ होकर उनके बडे-बडे कर्मचारी निकलते थे। कोई कहता था कि भैरवी गाइए, कोई कहता था, ईमन सुनाइए। एकाध मिनिट के बाद वह शौकीन वहां से चल देता और उस्ताद कुढ़ कर अपना तम्वूरा रख देते। सलामें जुदी करनी पडती थी। एक रात उस्ताद विना चौदह दिन का अपना वेतन लिये गांठ का टिकिट लेकर झांसी चले आये। दिल्ली रेडियो पर गाने के लिए बुलाए गए। कई वार गाया। स्वभावत वहुत अच्छा , परन्तु वहाँ के अधिकारी घर पर गाना सुनना चाहते थे और ग्रामोफोन मे भरना । उस्ताद ने दोनो प्रस्तावो से इनकार कर दिया और रेडियो को धता वतलाई। बहुत थोडा पढा-लिखा होने पर भी यह कलाकार हिन्दी-हिन्दुस्तानी के झगडे को जानता है। उसकी स्पष्ट राय है कि जो भाषा रेडियो पर वोली जाती है वह "मेरी भी समझ मे नही पाती।" तुलसीदास के प्रति उस्ताद की बडी श्रद्धा है। यदि तुलसीदास के साथ किसी आधुनिक कवि की कोई तुलना करता है तो वे वेधडक कह देते है, "वको मत । कहाँ राजा भोज, कहाँ भुजवा तेली।" ___ बुन्देलखड मे हाल ही मे ईसुरी नाम का एक कवि हुआ है। इसकी चार कडी की फागें बहुत प्रसिद्ध है। अपढ किसान, गाडीवान, मल्लाह और मजदूर से लेकर राजा और महाकवियो तक की ईश्वरी पर प्रीति है। इसकी फागें ठेठ बुन्देलखडी में है। उस्ताद इन फागो को वही मधुरता और लगन के साथ गाते है। बुन्देलखड में गायन की Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड का एक महान सगीतज्ञ ५६६ एक परिपाटी है जो 'लेद' कहलाती है । लेद गाने के आरम्भ में ख्याल जान पडती है और धीरे-धीरे दादरे में परिवर्तित हो जाती है । वहुत ही मनोमोहक है । उस्ताद इस परिपाटी के भी श्राचार्य है । उस्ताद कभी-कभी दो सतरो की कविता का कठिन प्रयास भी करते हैं और जैसे- वने-तैसे "आदिल मियाँ की बिनती सुन लो " प्रक्षिप्त करते हैं और मुझसे पूछते है, "भैया, इसमे अगन अक्षर तो नही है ?" में हमेशा उनसे कह देता हूँ, "इसमे सारे के सारे अगन अक्षर ही है ।" तव वह हँस देते है । लोगो से मज़ाक करना करवाना उनको है वह कभी बुरा नही मानते । प० तुलसीदास शर्मा और प० दत्तात्रेय रघुनाथ घाणेकर फोटोग्राफर (प० गोपालराव के भतीजे) इनके वडे मित्र है । इनको सदा झखाते रहते है और ये उनको हैरान करते रहते हैं । एक वार इन लोगो ने इनकी ग्रांख पर आक्षेप किया । 'काना' तक कह दिया । शर्मा जी ने तो एक बार एक काने भिखारी को तुलना करने के लिए सामने खडा भी कर दिया । उस्ताद बहुत हँसे और बोले, "मैं सब को एक प्रख से देखता हूँ ।" फोटोग्राफर मित्र से कहा, "मेरा फोटू खीचो तो जैसी मेरी एक आँख है, वैसी ही बनाना ।" धुनी ऐसे हैं कि कई एक बार मिर के चेहरे के और भौंहो तक के बाल मुडवा दिये । सिगरेट बहुत पीते थे । एक दिन आश्चर्यपूर्ण समाचार सुनाया, "भैया, मैने सिगरिट पीना छोड दिया है । अव कभी नही पिऊँगा, चाहे श्राप ही हज़ार रुपये क्यों न दें ।" मैने कहा, "क्यो न उस्ताद, आप ऐसे ही दृढप्रतिज्ञ हैं ।" फिर उन्होने सारे शहर में दिन भर अपने सिगरेट-वीडी छोडने का ढिंढोरा पीट डाला । दूसरे दिन सवेरे मुझको मिले। वही शान, वही गुमान । " अव कभी सिगरेट नही पिऊँगा ।" मैने कैची मारका सिगरेट की एक डिविया पहले से मँगा रक्खी थी । एक सिगरेट निकाल कर पेश की । वोले, "हरगिज़ नही । चाहे कुछ हो जाय, प्रण नही तोडगा ।" मै तो जानता था । मैंने दियासलाई जलाई । सिगरेट वढा कर कहा, "अच्छी है । आप इसको पसन्द भी करते हैं ।" " आपके इतना कहने पर नाही नही कर सकता । लाइए ।" उस्ताद ने हँसते हुए कहा और पूरी डिब्बी उसी दिन खतम कर दी । ( ५ ) उस्ताद का व्यावहारिक सगीतज्ञान विलक्षण है । चाहे जौनसा वाजा सिखला सकते है, बजाते यद्यपि वह केवल सितार ही है । स्वर और ताल पर उनका अद्भुत अधिकार है । डेढसो-दोसौ राग-रागिनियाँ जानते है । उनमें से कुछ राग तो वह अकेले में स्वान्त सुखाय ही गाते है । दुर्गा, भोपाली, दरवारी कान्हडा, विलासखानी टोडी, ललित, वमन्त, कामोद, छायानट, पट, वहार, केदारा, देश, बिहाग, पूरिया इत्यादि उनके विशेष प्रिय राग है । वह सहज ही एक-एक वोल की सैकडो नई तानें लेते है और वनाते चले जाते हैं । एक राग के समाप्त होते ही किसी भी राग की फरमायश को तुरन्त पूरा करते हैं । पचास-पचास रागो तक की रागमाला बना कर सुना देते है । उनसे राग की प्रार्थना करते ही वह तिताला, झप, सूरफाग, चौताला या इकताले में गायन प्रारम्भ कर देते है और तानें भी स्वभावत इसी ताल के विस्तार मे भरते चले जाते हैं । यदि कोई उनसे कहे कि तिताला में गाए जाने वाले उन्ही वोलो को झप या और किसी ताल में विस्तृत या सकुचित कर दीजिए तो वह सहज ही ऐसा कर देंगे और सम्पूर्ण तानें, गमक इत्यादि उसी ताल और उसकी परनो के विस्तार में भर देंगे और समग्र तानो की वर्णमाला — सरगम — गले के आलाप की तेजी के साम्य पर बना देगे । यह कारीगरी भारतवर्ष के वहुत थोडे गवैये कर सकते है । मेरी समझ मे भारतवर्ष के दस-वीस ऊंचे गायको में इनकी गिनती है । उनके सगीत - ज्ञान की गहराई उनके मधुर गायन से कानो को पवित्र करने पर ही अनुमान की जा सकती है । उस्ताद आदिलखों का गला बहुत मीठा है । इतना मीठा कि पुरुष-गायको में श्री फैयाजखाँ, श्री श्रीकारनाथ, श्री पटवर्द्धन, श्री रतनजनकर और नारायणराव व्यास ही उन्नीम-वीस के अनुपात में होगे । व्यास जी की अपेक्षा मैं उस्ताद आदिलखाँ को अधिक मीठा समझता हूँ । Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० प्रेमी-अभिनदन-प्रय गच्ने यह इतने हैं कि मेरे एक बार प्रश्न करने पर कि श्री रतनजनकर की बावत उनकी क्या राय है, वह पिनाशिनी नकोन के वोले, "यह बीस है, मैं उन्नीस हूँ। भैया, मैं झूठ नहीं बोलूगा।" हमारा यह महान् गवैया, विगाल कलाकार बुन्देलखड का गौरवगर्व इस समय पैतालीस वर्ष का है। ईश्वर इनको निगप पारे और इनको इतनी सामर्थ्य दे कि वह अपने जैसे और कलाकार उत्पन्न करे और इस देश की कलानिधि पा समुद्ध करे। झांसी - 3 - - - Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर वन्दनीय बुन्देलखण्ड स्व० घासीराम 'व्यास' जाके शीश जमुन डुलावै चौंर मोद मान, नर्मदा पखार पाद-पद्म पुण्य पेखी है। कटि फलकेन किंकिणी-सी कलधौत कांति, वेतवा विशाल मुक्त-माल सम लेखी है। 'न्यास' कह सोहं सीस-फूल सम पुष्पावति, __पायजेव पावन पयस्विनी परेखी है। ए होशशि! सांची कही, सांची कही, सांची कही, दिव्य भूमि ऐसी दुनी और कहुँ देखी है ॥ चित्रकूट, औरछौ, कलिंजर, उनाव तीर्य, - पन्ना, खजुराहो जहाँ कीति झुकि झूमी है। जमुन, पहूज, सिंधु, वेतवा, घसान, केन, मदाकिनि पयस्विनी प्रेम पाय घूमी है ॥ पचम वृसिंह, राव चपतरा, छत्रशाल, लाला हरदौल भाव चाव चित चूमी है। अमर अनन्दनीय असुर निकन्दनीय, वन्दनीय विश्व में बुंदेल-खड भूमी है ॥ लखन, विदेहजा समेत बनवासी राम, वास कियो हाई सोच शाति सरसाय लेहु । पाई सुख शरण अज्ञात-वास कीन्हो यहाँ, पाडवन प्रेमसौं प्रभाव उर छाय लेहु ॥ पाय ना पिराने होंहि भ्रम-भ्रम लोक-लोक, पलक विसार श्रम, चित विरमाय लेहु । ए हो शशि ! परम पुनीत पुण्य-भूमि यह, ननन निहार नैक हिय सियराफ लेहु । ७६ Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ ६०२ नसुक खनत निकसत पुज हीरन के, जग-मग होति ज्योति जागत विभावरी। हिम है न आतप न पकिल प्रदेश जाहि, विरचि विरचि कर सुरुचि घराघरी॥ नांधी कौन ऊघमन उल्का-पात कप की भराभरी न बाढ़ की तराभरी। कीरति प्रखड धन्य धन्य श्री बुंदेलखण्ड, , ऐसौ कौन देश करै रावरी बरावरी ॥ ध बांकुरे बुदेलन के खगन के खेल देख, ससक सकाय शत्रु होत रन बौना से। धन्य भूमि जहाँ वीर मानत न शक मन, तत्र से, न मत्र से, न जादू से, न टोना से॥ छीने छत्र म्लेच्छन मलीने कर लीने यश, कीने काम कठिन अनेक अनहोना से। जाके सुत होना सुठिलोना मृग-राजन कौं, हँस-हँस बांध लेत मजु मृगछौना से ॥ सुख-भूमि यह, वह नित्य जहाँ, नदियां नव नेह के नीरन की। उपमा नहिं आवत है लखि के, सुखमा कल केन के तीरन की। हरसाव हियो हवारन को, __सरसाव सुगघ समीरन की। वर वैभव का कह हीरन सौं जहाँ छोहरी खेले अहीरन की। मऊरानीपुर ] Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विन्ध्यखण्ड के वन डा० रघुनाथसिंह बुन्देलखड की सीमा के सम्बन्ध में जब हम विचार करते है तो हमारी दृष्टि के सामने सहसा वह मानचित्र आ जाता है, जिसे राजनैतिक रूप में वुन्देलखड कहते है । इस भू-खड की ये सीमाएँ अठारहवी सदी के मध्य या पूर्व काल में शासको ने अपनी सुविधा या नीति के दृष्टिकोण से रची है और इस भू-खड के इतिहास पर भी दृष्टि डालें तो प्रतीत होता है कि बुन्देलखड की राजनैतिक सीमाएँ निरन्तर बदलती रही है। राजनैतिक सीमानो के अतिरिक्त प्रत्येक प्रदेश की दो सीमाएं और होती है। इनमें एक तो सास्कृतिक है और दूसरी प्राकृतिक । सास्कृतिक रूप में बुन्देलखड कहाँ तक एक माना जा सकता है, इस पर प्रस्तुत लेख में विचार करना सम्भव नही, परन्तु यह निर्विवाद बात है कि वुन्देलखड प्राकृतिक रूप में सदा एक ही रहा है । बुन्देलखड का सही नाम प्राकृतिक दृष्टि से विन्ध्यखड है, अर्थात् विन्ध्य पर्वत का देश। यह देश भारतवर्ष के मध्य भाग में है । इमका देशान्तर ७८-८२, अक्षाग २६-२३ के लगभग है और कर्करेखा इसके निचले मध्य भाग मे ने जाती है। चार मरिताएं इसकी सीमाएँ मानी जा सकती है-चम्बल पश्चिम में, यमुना उत्तर मे, टोस पूर्व में और नर्मदा दक्षिण मे। इस भूभाग का ढाल दक्षिण से उत्तर की ओर है। नर्मदा के उत्तरी कूल पर महादेव और मैकाल श्रेणियो तथा अमरकटक से प्रारम्भ होकर यमुना के दक्षिणी कूल पर पहुंचता है। वीच-बीच मे कई छोटीवडी पर्वतश्रेणियां है। इनका नाम सस्कृत में 'विन्ध्याटवी' है। उच्चतम पृष्ठ-भाग ममुद्र की सतह से तीन हजार फुट ऊंचा है और ढाल के उत्तरी अन्तिम छोर पर लगभग पांच सौ फुट रह जाता है। यही कारण है कि विन्ध्यखड की सरिताएं उत्तरोन्मुखी है। विन्ध्यखड का भूभाग प्राचीन चट्टानो का देश है । भूगर्भ शास्त्र बताता है कि ये चट्टानें पृथ्वी की प्राचीनतम चट्टाने है। जिन दिनो वर्तमान मारवाड और कच्छ की मरुभूमि पर समुद्र लहराता था और गगा की भूमि, विहार और वगाल भीषण दलदलो से आच्छादित थे उन दिनो भी हमारा यह भूभाग वहुत कुछ लगभग ऐसा ही रहा होगा। भारत के प्रति प्राचीन पृष्ठ-भाग में इसकी गणना है। एक युग था जव कि पृथ्वी के भूभाग पर वन ही वन था। मानव-समुदाय ज्योज्यो वढने लगा, वह अपने स्वार्थ के लिए वनो का नाश करने लगा। धीरे-धीरे मानव की आवश्यकताएं भी वढने लगी। इसे लकडी आदि के अतिरिक्त खेती के लिए भूमि की आवश्यकता हुई। परिणामत वन घटने लगे। वनो का यह नाश अनवरत गति से मानव के हाथो से हो रहा है । वह पृथ्वी के पृष्ठ-भाग को अ-वनी करने में लगा हुआ है । जहाँ-जहाँ मानव वढे और उन्नतिशील हुए वहाँ-वहाँ वनो का नामनिशान तक न रह सका। इसके उदाहरण ढूढने के लिए हमें दूर न जाना होगा। उत्तर-पश्चिमी पजाव को लीजिए। जहां इस समय सूखी और नगी पहाडियाँ दिखाई देती है वहाँ आज से कुछ सौ वर्ष पहले वन थे। सिकन्दर ने जव मिन्यु के कूलो पर डेरे डाले थे उन दिनो वहां सघन वन थे। वर्तमान मुलतान और सिन्यु की उपत्यका वनो से भरी पड़ी थी। महमूद गजनी की चढाइयो के वर्णन में कावुल से कालिंजर तक वह जहाँ पहुंचा, उमे वन मिले । हमारे पडोस की वृजभूमि में भी बहुत से वन थे। जहाँ गोपाल गाएँ चराते थे, अव वनो के अभाव में वृन्दावन मे धूल उडती है और महावन में करील खडे है। गगा के दुअआवे, सरयू के अचल और विहार में अभी-अभी एक सौ वर्ष पहले तक जहाँ वन थे, वहाँ मुर्दे जलाने को लकडी मिलने में कठिनाई हो रही है। सच तो यह है कि मानव से बढ़ कर वन का शत्रु और कोई नही है । Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन प्रथ राजनैतिक रूप से क्षतविक्षत और आर्थिक दृष्टि से पिछडे हुए विन्ध्यखड की एक ही सम्पदा है और वह है वन । इसीके सहारे सरिताएँ बहती है । प्राकृतिक सौन्दर्य दिखाई देता है और अधिकाश निवासी जीविका उपार्जन करते है । इस देश की निधि, ऋद्धि-सिद्धि और लक्ष्मी जो कुछ है, उसका श्रेय यहाँ के वन और वृक्षराजि को है । विन्ध्यखड के वनो को वनविज्ञानवेत्ता पतझड वाले मानसूनी वन ( Deciduous ) मानते है । ये वन वर्ष मे सात-आठ मास तक हरे रहते है और बसन्त तथा ग्रीष्म मे इनके पत्ते झड जाते तथा छोटे-छोटे क्षुप ( पौधे ) सूख जाते है, परन्तु यह विश्वास करने के लिए प्रमाण है कि पहले यहाँ सदा हरे ( Ever - green ) वन रहे होगे, जैसे कि आजकल अराकान ब्रह्मदेश आदि में है । हमारे यहाँ सदा हरे वृक्षो मे जामुन, कदम्ब और अशोक शेष है, परन्तु ये वही पनपते हैं, जहाँ कि पानी की सुविधा हो । सदा हरे वनो के लिए ६०" वर्षा प्रतिवर्षं होनी आवश्यक है । पहले हमारे यहाँ ऐसी वर्षा होती थी। आज से तीन सौ वर्ष पूर्व तक विन्ध्यखड के वन बहुत विस्तीर्ण और सघन थे । सम्राट अकबर चन्देरी, भेलसा और भोपाल के आसपास हाथियो का शिकार खेलने आया था । ६०४ ? विन्ध्यखड के वर्तमान वन प्राकृतिक वन है और श्रव जहाँ कही है, उनमें अधिकाश इस देश की सरिताओ के अचलो मे है । बात यह है कि वन और सरिता परस्पर श्राश्रित है । जहाँ वन होगा, वहाँ पानी होगा । जहाँ पानी होगा, वहाँ वन होगा । वन और पानी का यह सम्बन्ध एक रोचक विषय है । जहाँ वन होता है, वहाँ वायुमडल में नमी ( आर्द्रता) अधिक रहती है । वर्षा के वादल जहाँ का वायुमडल आर्द्र पाते है वहाँ थमते और बरसने लगते है । इन्ही मानसूनी बादलो का एक अच्छा भाग मारवाड को पार कर हमारे यहाँ श्राता और वरसता है, परन्तु मारवाड सूखा रह जाता है । कारण कि एक तो मारवाड में पर्वत नही और दूसरे वन नही । बादल थमे तो किस तरह वन के पास के वायुमंडल में नमी का कारण यह है कि जितना पानी वर्षा मे बरसता है उसका अधिकाश भागवन की भूमि, वृक्ष की जडो और पत्तो आदि में रह जाता है । वनाच्छादित भूमि से सूर्य का प्रखरताप जितने समय में वहाँ के जल का बीस या पच्चीस प्रतिशत सोख पाता है, उतने ही समय मे वनहीन भूमि का ८० प्रतिशत के लगभग सोख लेता है । वृक्षो का शीर्ष भाग सूर्य की किरणों की प्रखरता झेल लेता है और नीचे के पानी को बचा लेता है । यह पानी भूमि को आर्द्र रखता है । विशेष जल धीरे-धीरे स्रोतो और नालो के रूप मे वह बह कर सरिताओ को सूखने से बचाता है । पत्तो की आर्द्रता तथा भूमि, स्रोतो और नालो की श्रार्द्रता हवा में नमी पैदा करती और वहाँ के तापमान को अपने अनुकूल बना कर वादलो के बरसने में सहायक होती है । यही कारण है कि वनो में और वन के श्रासपास वर्षा अधिक होती है श्रौर नदी-नाले अधिक समय तक वहते है । कुओ मे कम निचाई पर पानी मिलता है और भूमि प्राकृतिक रूप में उपजाऊ रहती है । वृक्षो से गिरे पत्ते, टहनियाँ और सूखे पदुप श्रादि सड कर भूमि को अच्छी बनाते है । वन की स्थिति नदियों और नालो पर एक प्रकार का नियन्त्रण रखती है । वर्षा की बौछार वन के शीर्षभाग पर पड़ती है और बहुत धीमे-धीमे भूमि पर वर्षा का जल श्राता है । ऐसा जल तीव्र वेग से नही बह पाता और नाले तथा ऐमी नदियाँ अपेक्षाकृत मथर गति से बहती है । वन की स्थिति भूमि को न कटने देने में सहायक होती है । जहाँ नदी के किनारे वन या वृक्षराजि होगी वहाँ नदी का पूर आसपास की भूमि को ऐसा न काट सकेगा, जैसा कि वन-हीन नदी का पूर काट देता है । इसका उदाहरण चम्बल और जमुना के कूल है। ये नदियाँ जहाँ वन-वृक्षहीन प्रदेश में बहती है वहाँ इन्होने आसपास की भूमि काट-काट कर मीलो तक गढे कर दिए है, जिन्हें 'भरका' कहते हैं । वहाँ की उपजाऊ भूमि तो ये नदियाँ बहा ले गई, परन्तु यदि इनके कूलो पर वन होते तो नदी की धारा का पहला वेग वृक्षो के तने और मूल सहते और पानी को ऐसी मनमानी करने का अवसर न मिलता । जिन पहाडियो के वन साफ कर दिए गए उनकी दशा देखें । वर्षा की बौछारें पहाडी की मिट्टी और ककरी को नीचे वहा ले जाती है । घुली मिट्टी तो पानी के साथ आगे वढ जाती है, परन्तु ककरी पहाडी के नीचे की भूमि पर जमती जाती है । पाँच-दस वर्षों मे ही नोचे की उपजाऊ भूमि रॉकड हो जाती है और पहाडी अधिक नग्न होती Page #648 --------------------------------------------------------------------------  Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ -- -- --. . . . E Homed PARENA SPAPAR बरी घाट [ मधुवन मे जामनेर का जल-प्रपात Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विन्ध्यखण्ड के वन ६०५ ६०० ४० २६ F०० १६० ५७० EE जाती है। वनो का प्रभाव आसपास के तापमान पर अच्छा होता है। परीक्षणो से यह पाया है कि वही या वैसा ही वनहीन स्थान अधिक सर्द और गर्म हो जाता है । वन-भूमि पर शीत का प्रभाव लगभग ४ से ६ डिग्री कम होता है और ग्रीष्म मे ६ से ८ डिग्री तक कम होता है । अर्थात् वनहीन भूभाग यदि शीत मे ६०° तक होता तो वन भूमि होने पर ६४ या ६६ होता और ग्रीष्म में ६० होता तो वनभूमि होने पर ८२ या ८४ ही रहता। शीत और ऊष्णता की प्रखरता को कम करने की शक्ति वनो में है । वात यह है कि एक तो वनो के कारण वायु में नमी रहती है। दूसरे शीत या ग्रीष्म की प्रखरता वनो के शीर्ष-भाग पर टकरा कर मन्द पड़ जाती है। उत्तर भारत तथा मध्य भारत के कुछ नगरोको वनहीन प्रदेश के नगर और वनवेष्टित देश के नगरो में वांट कर अध्ययन किया जावेतो परिणाम यो मिलेगा १-वनहीन प्रदेश के नगर नगर का समुद्र सतह से जनवरी का औसत जून का औसत वर्षा इचों में नाम ऊचाई तापमान तापमान (वार्षिक) बनारस २६२ आगरा ५५५ मेरठ ७३८ दिल्ली ७१८ बीकानेर ७०१ २-वनभूमि के नगर माडला २५० ७८ रायपुर ६७० ५० जवलपुर १३२७ बनारस और माडला एक सी स्थिति मे है, परन्तु तापमान और वर्षा के अन्तर का कारण वन है। यदि आगरा के पास थोडी बहुत वृक्षावलियाँ न हो तो वह बीकानेर की सी स्थिति में आ सकता है। भारतवर्ष के वन वृक्षो से और वनस्पतियो से जितने सम्पन्न है उतने समस्त ससार के और देशो के वन नही है। हमारे देश के वनो मे २५०० से अधिक जातियो के तो केवल वृक्ष ही है । लताएँ और क्षुप आदि अलग रहे, जब कि इग्लैंड में केवल चालीस प्रकार के वृक्ष है और अमेरिका जैसे महाद्वीप में करीब तीन सौ। ज्यो-ज्यो खोज होती जा रही है, हमारी यह सम्पदा और प्रकाश में आती जा रही है, परन्तु इतने वृक्षो में काम में लाए जाने वाले वृक्ष उँगलियो पर गिनने योग्य है । विन्ध्यखड के वन भी ऐसे ही सम्पन्न है । यहाँ सदा हरे वृक्षो से लगा कर अर्ध मरुस्थल के वृक्ष जैसे नीम, बबूल आदि पाए जाते है, परन्तु सागौन, साजा, महुआ, आम, जामुन, अशोक, बवूल, तेद, अचार, हल्दिया, तिन्स आदि मुख्य है। लताएँ और क्षुप अनगिनती है। वन-उपज से कितनी वस्तुएँ काम में लाई जाती और बनाई जाती है, इसका अनुमान करना भी सहज नही है। हमें पग-पग पर वन-उपज से बनी वस्तुओ की आवश्यकता और महत्त्व का अनुभव होता है। विन्ध्यदेश के वनवृक्षो में सबसे अधिक काम आने वाला और अनेक दृष्टियो से सर्वोत्तम वृक्ष सागौन है। सागौन मे अधिक मजबूत और सुन्दर वृक्ष और भी है, परन्तु यह उन वृक्षो मे सर्वोत्तम है, जो कि प्रचुर मात्रा मे मिलते है। विन्ध्यदेश में इसके प्राकृतिक वन भरे पडे है। सबसे अच्छा सागौन ब्रह्मदेश और मलावार का माना जाता है, परन्तु विन्ध्यप्रान्त के सागौन मे कुछ कमी होने पर भी रग और रेशे की दृष्टि से ब्रह्मदेश के सागौन से अधिक सुहावना होता है। अन्य वृक्ष धामन, सेजा, शीशम, जामुन, महुआ, तिन्स, तेदू, हल्दीया आदि भी महत्त्वपूर्ण है। ____लकडी की उपादेयता निश्चित करने मे लकडी की रचना, आकार, लम्बाई-चौड़ाई, वजन, शक्ति, सख्ती, लचक, सफाई, टिकाऊपन, रग, दाने, रेशे और मशीन या अौजार से काम करने में प्रासानी आदि वातो पर विचार ६१ ८५ ५५ Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय ६०६ करना होता है। अभी हमारे देश में वनो की उपज को सावधानी से काम में लाने की ओर न तो सरकार का ही ध्यान है और न जनता का। एक वृक्ष वन में काटा जाता है तो यहाँ उसका केवल ३० प्रतिशत भाग काम मे पाने योग्य ठहरता है, जब कि जर्मनी, नार्वे, स्वीडन, और कनाडा मे ७० से १० प्रतिशत तक को काम मे ले पाते है। पेड में से हमारे यहां १५% वन में ठूठ के रूप में छोड दिया जाता है। १०% छाल और पत्ते फेंक दिए जाते है। १०% कुल्हाडे और करवत के कारण वेकार निकल जाता है। २०% टहनियाँ और चिराई मे टेढा निकला हुआ अनावश्यक प्रश। ५% लकडी को पक्का करने मे हानि । १०% लकडी का दोषपूर्ण भाग। ७०% अब यदि सावधानी से उपयोग किया जावे तो छाल, वुरादे और पत्तो से स्पिरिट या पावर अल्कोहल (Pover Alcohol), टहनियो से होल्डर, पैन्सिले, टेढ़े-मेढे अश से श्रीजारो के हत्ते, वेट आदि बन सकते है। लकडी के अतिरिक्त और भी बहुत सी वस्तुएं हमे वनो से मिलती है। सर्वप्रथम घास, जिसे चराई के काम में लिया जाता है और कागज बनता है। कई घासो से सुगन्धित और औषधोपयोगी तेल निकलते हैं। विन्ध्यखड में लगभग ४० प्रकार के वांस पाये जाते है, जिनसे चटाइयां, टोकनी आदि वस्तुएं बनती है। कई वृक्षो से हमे गोद, कतीरा, राल आदि मिलते है । महुए के फूलो से शराव और फलो से चिकना सफेद तेल निकलता है । घोट, बवूल की छाल आदि से चमडे की रगाई होती है और दवाइयो की तो गिनती ही नहीं। शहद, मोम, लाख, कोसे से जगली रेशम, वनजीवो के सीग, चमडे आदि अनेको पदार्थ है। ___स्पष्ट है कि हमारे जीवन, उन्नति, आवश्यकताओ की पूर्ति, वर्षा, भूमि की उपजाऊ शक्ति प्रादि के लिए वनो का अस्तित्व किस प्रकार अनिवार्य है, परन्तु इसे हम अपना दुर्भाग्य ही कहेंगे कि हमारे वन अभी तक उपेक्षित ही नही, वरन् केवल सहार के ही पात्र हो रहे है। आज से साठ-सत्तर वर्ष पूर्व सरकार का ध्यान इनकी ओर प्राकृप्ट हुआ और वनविभाग की सृष्टि हुई। इस विभाग के द्वारा बहुत कुछ लाभ हुआ, परन्तु रचनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो लगभग कुछ नहीं के वरावर काम हुआ है। फिर पिछले और हाल के महायुद्ध मे तो वनो की अपार हानि हुई है और इस हानि की पूर्तिहेतु कुछ नही हो सका। यह काम केवल शासकगण का ही नहीं है। जनता और सार्वजनिक सस्थाओ के लिए भी विचारणीय है। वनो का नाश हमे कहाँ ले जा रहा है, इसके अनेक ज्वलन्त उदाहरण है। पूर्वी पजाव के वन गत पचास वर्षों मे कट गये। परिणामत नदियो और नालो ने उपजाऊ मिट्टी वहा दी और भूमि बजर हो चली। अव वहाँ वन लगाए जा रहे है। दिल्ली से इटावा तक जमुना के दोनो कूलो के वन गत सौ वर्षों में साफ हो गए। अव पश्चिम से उठी हवाएँ मारवाड से अन्धड के रूप मे पाती है और जहाँ थमती है, वहां मारवाडी रेत गिरा जाती है। रेत का इस तरह गिरना गत पचास-साठ वर्षों से चालू है। अव इस प्रदेश की भूमि पर तीनतीन इच मोटी रेत की सतह जम गई है। वह भूमि पूर्वापेक्षा ऊर्वरा नही रही। यदि दिल्ली से इटावा तक जमुना के दक्षिणी छोर पर चार या छ मील चौडी वनरेखा होती तो ये अन्धड जहां-के-तहां रह जाते । वर्षा भी काफी होती और जमुना तथा चम्बल और उनकी सहायक नदी-नालो से भूमि न कटती। जहां सरकार के लिए ये प्रश्न विचारणीय और करने योग्य है, वहां प्रत्येक गृहस्थ और नागरिक का भी कर्तव्य है कि वह अपने अधिकार की भूमि में लगे पेडो की रक्षा करे, नए पेड लगावे और उनका पालन-पोषण करे। वन ही राष्ट्रीय धन है और इसकी रक्षा सरकार और प्रत्येक नागरिक को करनी चाहिए। टीकमगढ़ ] Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देली लोक-गीत गीतों पर एक दृष्टि श्री गौरीशकर द्विवेदी सुकवि और वीर-प्रसविनी बुन्देलखड की रमणीय भूमि को प्रकृति ने उदारतापूर्वक अनोखी छटा प्रदान की है। ऊंची-नीची विन्ध्याचल-पर्वत की शृखला-बद्ध श्रेणियाँ, सघन वन-कुज, कल-कल निनाद करती हुई सरिताएँ और गाँव-गाँव लहराते हुए सरोवर आदि ऐसे उपक्रम है, जिनकी मनोहरता से मानव-हृदय अपने आप आनन्द-विभोर हो जाता है। यहां की भूमि में ही कवित्व-गुण प्रदान करने की प्राकृतिक शक्ति विद्यमान है। बुन्देलखड का अतीत वडाही गौरवमय रहा है। आदिकवि वाल्मीकि, कृष्ण द्वैपायन वेद व्यास, वीर मित्रोदय ग्रन्थ के प्रणेता मित्र मिश्र, तुलसी, केशव, विहारी, लाल और पद्माकर जैसे सस्कृत और हिन्दी-साहित्य-ससार के श्रेष्ठतम कवियो को प्रसूत करने का सौभाग्य बुन्देलखड की ही भूमि को प्राप्त है। बुन्देलखड का अधिकाश प्राचीन साहित्य अभी गाँव-गाँव और घर-घर मे वस्तो ही में बँधा पडा है। उससे हम परिचित नही । यही कारण है कि उसको प्रकाश में लाने का हमारा सम्मिलित उद्योग नहीं होने पाता। __ जन-साधारण में भी ऐसे-ऐसे मनोहर गीत प्रचलित है, जिनको सुनकर तवियत फडक उठती है। ये गीत पीढी-दर-पीढी हमारे प्रान्त में प्रचलित है और यह हमारा सौभाग्य है कि हमारे ग्राम-वासी इस अमूल्य धरोहर को वश-परम्परा से सुरक्षित रखते चले आ रहे है। उनके नवीन सस्करणो के लिए स्याही और काग़ज़ वाछनीय नही, उनकी मधुरता ही जन-साधारण को अपनी ओर आकर्षित किये विना नही रहती और वे उनकी अमूल्य निधि है, जिन्हें शिक्षित समुदाय निरक्षर भट्टाचार्य कृषक, ग्रामीण आदि कह कर पुकारता है। उन गीतो में वाक्य-विन्यास, शब्दो की गठन और भावो की प्रौढता खोजने का ग्रामीण बन्धुओ को अवसर नही । गीतो की आलोचना और प्रत्यालोचना से भी उन्हें सरोकार नहीं। वे तो उनमें तन्मयता प्राप्त करते है और । इतनी अधिक मात्रा में प्राप्त करते है, जितनी शिक्षित समुदाय शायद ही अपनी उत्तमोत्तम कही जाने वाली कवितायो में प्राप्त कर पाता होगा। तन्मयता के अतिरिक्त सामाजिक जीवन का भी सच्चा प्रतिविम्ब हमें ग्राम-गीतो ही में मिला करता है। नई स्फूर्ति, नए भाव और सबसे अधिक नग्न सत्य को सीधी-सादी सरल भाषा में हम ग्राम-गीतो ही में पा सकते है । ग्राम-गीतो की विजय का यह स्पष्ट चिह्न है कि शिक्षित समुदाय उनकी ओर उत्सुकतापूर्वक अग्रसर हो रहा है। यह हमारी मातृ-भाषा के लिए कितने ही दृष्टिकोणो से हितकर ही है। वैसे तो समूचा भारतवर्ष ग्रामो का देश है और उसमें सर्वत्र ग्राम-गीतो की प्रचुरता है, किन्तु बुन्देलखड के गीत सरलता, सरसता और मिठास के कारण अपना एक विशेष स्थान रखते है । उदाहरणार्थ कुछ गीत यहाँ दिये जाते है। शिक्षित समुदाय को वर्ष और महीनो में कभी कवि-सम्मेलन का सुअवसर प्राप्त होता होगा, किन्तु ग्रामजीवन का प्रभात गीत-मय ही होता है। ऊषा से भी कुछ पूर्व स्त्रियाँ चक्की पीसते हुए ऋतु के अनुकूल कितने ही गीत गाती है । प्रत्येक अवसर पर वे उनको अपने सुख-दुख का साथी बनाती है । एक घर से बारामासी की ध्वनि सुनाई दे रही है Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ चत चितं चह और चितं मैं हारी वैसाख न लागी आँख विना गिरधारी। जेठ जले अति पवन अग्नि अधिकारी , असढा में बोली मोर सोर भनौ भारी। साउन में बरस मेउ जिमी हरयानी, भदवा की रात डर लग झिकी अंघयारी। क्वार में करे करार अधिक गिरधारी , कातिक में आये ना स्याम सोच भये भारी। अगना में भनौ अंदेश मोय दुख भारी, पूषा म परत तुषार भीज गई सारी। माव मिले नंदलाल देख छबि हारी, फागुन में पूरन काम भये सुख भारी। दूसरे घर से भी दो कठो से मिल कर दूसरी बारामासी सुनाई पड़ रही है चैत मास जब लागे सजनी विछ्रे कुंअर कन्हाई, कौन उपाय फरों या ब्रज में घर अगना ना सुहाई, थोडा आगे बढने पर एक ओर से बिलवाई गीत भी सुन पडा-- रथ ठांडे करी रघुवीर, तुमारे सगै रे चलो वनवासा की। तुमारे कार्य के रथला वन, ___काये के डरे है बुनाव , चन्दन के रथला बने है, और रेसम के डरे है बुनाव । तुमारे को जौ रथ पै वैठियो, को जो है हांकनहार , रानी सीता जी रथ पै बैठियो, राजा राम जी हांकनहार । गाँव के छोर पर एक ओर से यह विलवाई भी सुन पडी अनबोलें रहो ना जाय, ननद वाई वीरन तुमारे अनवोला गइया दुभावन तुम जइयो, उतं बछडा को दइयो छोर ॥ अनबोलें। भुजाई मोरी! बीरन हमारे तब बोलें। ग्रीष्म ऋतु की प्रखरता में जव नागरिक समुदाय बिजली के पखो और बर्फ के पानी में भी ऊबता हुना-सा जान पडता है, उन दिनो भी गाँवो मे कितने ही गीतो द्वारा समय व्यतीत हुआ करता है। अकती, दिनरी, बिलवाई प्रादि कितने ही प्रकार के गीत भिन्न-भिन्न अवसरो पर गाये जाते है। नगर के निवासी भले ही सावन के आने का भली प्रकार स्वागत न कर सकें, किन्तु गाँवो में उसकी उपेक्षा न होगी, घर-घर दिनरी और राघरे हो रहे है Page #654 --------------------------------------------------------------------------  Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड-चित्रावली-६ 1 जतारा (ओरछा राज्य) के सरोवर का एक दृश्य 1 2 1 Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ 4 बुन्देली लोक-गीत साउन कजरियां जवई जे बेहे, अपनी बहिन को ल्याव लिवाय । गुउवा पिसाय माई करौ कलेवा, अपनी बहिन लिवावे जाँय; कहाँ बंधे मोरे उडन बछेरा, कहाँ टॅगी तरबार । श्रपनी० । सारन बँधे भईया उडन बछेरा, घुल्लन टंगी तरवार । कहाँ घरी भैया जीना पलेंचा, कहाँ घरी पोशाक, खिरकिन टंगी तोरे जीना पलैचा, उतई घरी पोशाक । श्रपनी० । X X ऊंचे अटा चढ़ हेरें वैना, मोरे भैया लिवऊन श्राये ; माई को बेटी बिसर गई, बाबुल की गई सुध भूल । जाय जो कइयौ उन बैन के जेठ सें, तुमरे सारे छिके पैले पार, छिके, छिके उन रैन दो, उन सारे को दियो लोटाय, जाय जो कइयो उन वैन के देउर सें, तुमरे सारे छिके पैले पार; छिके छिके उन रोन दो, उन सारे को दियौं लौटाय; जाय जो कइयौ उन हमरे बनेउ सें, तुमरे सारे छिके घर आव कौना सहर के बढ़ई बुला लये, काना को नाव झाँसी सहर के बढ़ई बुला लये, दतिया को नाव जाय जो कइयौ उन हमरे राजा सॅ, अपने सारन क डेरा दिवाउ; डराव; सारन जो बाँधी उडन बछेरा, डराव; घुल्लन टांगो तरवार, सुनो मोरी सासो वीरन श्रये, उने कहा रचौं जेउनार; X X ) ६०६ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ मेंहदी रचाते समय भी इन्ही दिनो जो गीत गाया जाता है, उसे भी देखिए कहां से मांदी आई हो सौदागिरलाल, कांहां धरी विकाय माउदी राचन मोरे लाल, अग्गम में माउदी आई हो सौदागिरलाल, पच्छिम धरी विकाय माउदी राचनू मोरे लाल, कार्य से मांदी चोटियौ सौदागिरलाल, कार्य से लइयो पोछ, माउदी राचन मोरे लाल; सिल लोडा घर बांटियो, सौदागिरलाल, लियो कचुरतनपौछमाउदी राचनू मोरे लाल कीने रचाई दोई छींगुरी सौदागिरलाल, कीने रचायेदोई हात, माउदी राचनू मोरे लाल, देउरा रचाई दोई छींगुरी सौदागिरलाल, भौजी रचायेदोई हात माउदीराचनू मोरे लाल, भौजी की रच केवली परौं, सौदागिरलाल, देवरा की रच भई लाल, माउदी राचनू मोरे लाल; किये बताई दोई छींगरी, सौदागिरलाल, किये बतायेदोऊ हात,माउदीराचनू मोरे लाल, देवरा बताई अपने भाई कौं, सौदागिरलाल, किय बताऊँदोऊ हाथ, माउदी राचनू मोरे लाल, xxx कुछ पक्तियां इन्ही दिनो गाये जाने वाले मंगादा गीत की भी देखिये - साउन मइना नीको लगे, गेंउडे भई हरयाल, साउन में भुजरियाँ ब दियौ, भादी में दियौ सिराय, ऐसो है भैया कोऊ घरमी, बहिनन को लियो है बुलाय, पासों के साउना घर के करी, प्रागे के दे है खिलाय: सोने की नावें दूध भरी सो भुजरियां लेव सिराय, के जेहं तला की पार पै, के जैहै भुजरियां सूक, घरौं भुजरियां मानिक चौक में, वीरा घरी लुलाय, कैसी बहिन हट परी, बर वट लेत पिरान, पासों के सउना जूझ के है। आगे के दे है कराय, इन्ही दिनो टेसू, मामूलिया, हरजू झिझिया और नारे सुप्रटा के गीतो मे आनन्द-विभोर होकर जब वच्चो की टोली की टोली एक स्वर से गाती है टेसू पाये बाउन वीर, हात लिये सोने का तीर, उस समय एक बार फिर वयोवृद्धो में भी वचपन की लहर दौड जाती है । Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X बुन्देली लोकगीत लडकियो के उल्लासमय मधुर स्वर मे जिन्होने मामूलिया और हरजू के गीतो की निम्नलिखित पक्तियाँ ही सुन ली होगी, वे विना आकर्षित हुए न रहे होगे मामुलिया के आये लिवोत्रा, झमक चली मोरी मामुलिया X उठी मोरे हर जू भये भुनसारे, गोअन के पट खोलो सकारे, उठकें कर्नया प्यारे गइयां दोई, झपट राधका दुहनी दीनी, काये की दातुन कार्य को लोटा, काये को नीर भर ल्याई जसोदा; अज्जाझारे की दातुन सोने को लोटा, सो जमुना जल भर ल्याई जसोदा। छोटी-छोटी लडकियो ने लीप-पोत कर अपने देवता की पूजा के लिए कितने सुन्दर उपचार किये है । देखिए, रग-विरगे वेल-बूटो और फूलो से सुशोभित चौक पूरे गये है, जाति-पात का भेद-भाव भुला कर सब कन्याएं आज एक सूत्र में आवद्ध हो तन्मयता से गा रही है हेमाचल जू की कुंअरें लडायतें नारे सुप्रटा, सो गौरावाई नेरा तोरा नयो बेटी नौ विना नारे सुप्रटा, उगई न हो बारे चंदा, हम घर हो लिपना पुतना; सास न हो दे दे धरिया, ननद न हो चढ़े अटरिया, जी के फूल, तिली के दाने, चन्दा उगे बडे भुनसारे xx कार्तिक मास का पवित्र महीना आ गया है । देखिए, गांव-गांव प्रात काल ही से स्त्रियां सरोवर की ओर भगवान कृष्ण की आराधना के निमित्त किस उल्लास से जा रही है और हिल-मिल कर कितने चाव और भक्ति-भाव से वे गा रही है सखी री मै तो भई न ब्रज की मोर । कांहां रहती काहा चुनती काना करती किलोल, बन में राती बन फल खाती वनई में करती किलोल, उड उड पख गिरें घरनी में, वीने जुगलकिसोर, मोर पख को मुकुट बनानौ, बाँदै नन्दकिसोर, सखी री में तो भईन ब्रज की मोर। X X गिरधारी मोरो वारी, गिर न पर। एक हात पर्वत लये ठांडी, दूजे हात के मुकट समारो, लये लकुटिया फिरें जसोदा, सोतन तन सब कोउ देउ सहारी; x x Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ प्रेमी-प्रभिनदन- प्रथ हमें छोड को जानो ब्रजवासी । जो तुम हमें छोड हरि जैही, तज डारौं प्रान, गरे डारों फाँसी, मोर मुकुट हरि के अधिक विराज, सो फलियन बीच बिहारी जू की झाँकी; नैनन सुरमा हरि के अधिक विराजे, सो भयन बीच बिहारी जू की झाँकी, कानन कुण्डल हरि के अधिक विराज, सो मोतिन बीच बिहारी जू की झाँकी, मुख भर बिरियाँ हरि के अधिक बिराजे, सो श्रोठन बीच बिहारी जू की झाँकी, X X इन चरनन परकम्मा देऊ, छाया गोबरधन की; चिन्ता कव जै है जा मन की, दुविधा कव जैहै जा मन की । जब नंदरानी गरभ से हू है, आस पुर्ज मोरे मन को, जब मोरो कान्ह कलेऊ मांग, दघ माखन सँ रोटी; जब मोरो कान्ह गुलिया माँगे, रतन जटित की टोपी, मोरो कान्ह खिलोना माँगे, चन्द सूरज को जोटी; X X फागुन का मस्त महीना तो बुन्देलखड मे गीत-मय ही हो जाया करता है । रात-रात भर चौकडियाऊ साखी की फाग, स्वांग और ईसुरी की फागें गाँव-गाँव में होती है। दिन भर कार्यों में व्यस्त रहने वाला कृषक समुदाय उन दिनो कितनी तन्मयता प्राप्त करता है, इसे भुक्त भोगी ही अनुभव कर सकते है । फाग साखी की हर घोडा ब्रह्मा खुरी और बासुकि जीन पलान; चन्द्र सुरज पावर भये, चढ भये चतुर सुजान । भजन बिन देइया सुफल होने नइयां, हो चढ़ भये चतुरसुजान, भजन बिन देइया सुफल होने नइयां; ( २ ) श्राग लगी बन जल गये, जल गये चन्दन रूख, उड जा पछी डार से, जिन जली हमारे साथ; पछी फेर जनम होने नइयाँ, जिन जली हमारे साथ, पछी फेर जनम होने नइयाँ, X X आग लगी दरयाव में, धुआँ न परगट होय, कि दिल जाने श्रापनो, जा पर वीती होय, काऊ की लगन कोई का जाने, Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देली लोकगीत ६१३ उठी पिया प्रव भोर भये, चकई बोली ताल; मुख विरियां फीकी परी, सियरी मोतिन माल, पिया उठ जागी कमल विगसन लागेः X गो हते सो उड गये, भुस ले गई अधदार; त्याई में टलवा गये, वाज गये खग वार, हमारे बाकी में लिखा देउ पैजना, वाज गये खगवार, हमारे बाकी में लिखा देउ पैजना। दतिया में हतिया पजे, और पन्ना में हीरा जवार, टीकमगढ़ सूरा पजे, रे जिनको बेडी बह तलवार, दुश्मन पास कभऊँ नई आवै हो, बेटी वह तलवार, दुश्मन पास कभके नई पावै हो। फाग छदयाऊ भागीरथ ने तप कियो, ब्रह्मा ने बर दीन गङ्गा ल्याये स्वर्ग सें, लये पाप सब छीन । जग के अघ काटन को आई, जय श्री गङ्गामाई। गऊ मुख से धार, है निकरी अपार, तिन लई निहार, नर सुखकारी; भाई हरद्वार, सब फोरत पहार, भनौ जै जैकार, अघ फर छारी ॥ भज लो गङ्गामाई ॥ यो तो बुन्देलखड में कितनी ही प्रकार की फागें और गीत गाये जाते हैं, किन्तु ईसुरी की फागो की सर्वप्रियता सर्वत्र ही है। स्थानाभाव के कारण उनका पूर्ण परिचय दे मकना यहाँ सम्भव नहीं। उदाहरणार्थ दो-तीन फागें दी जा रही हैं मन होत तुमें देखत रइये, छिन छोड अलग ना कउँ जइये । मौन स्वभाव, सांवली मूरत, इन अँखियन बिच घर लइये, जब मिल जात नैन नैनन सो, वेह घरे को फल पइये। 'ईसुर' कात दरस के लानें, खिरकिन में ढूंकत रइये । x प्रीति-पन्थ के पथिको की दशा का सजीव चित्रण निम्न गीतो में रसास्वादन कीजिए जब से भयी प्रीत की पीरा, खुसी नई जो जीरा, X Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ x X प्रेमी-अभिनदन-प्रय कूरा, माटी, भनौ फिरत है, इतै उतै मन हीरा; कमती आ गई रकत मांस में, बही व्रगन सें नीरा; फुकत जात विरह की प्रागी, सूकत जात सरीरा, प्रोई नीम में मानत 'ईसुर', पोई नीम को कीरा। फिरतन परे पांव में फोरा, सग न छोडों तोरा; घर घर अलख जगावत जा, टंगो केंदा पं झोरा, मारी मारो इत उत जावै, गलियन कैसो रोरा, नई रव मांस, रकत देही में, भये सूफ के डोरा, फसकत नई 'ईसुरी' तनफउँ, निठुर यार है मोरा। विरहिणी नायिका के मुंह से आप कहलाते है कि वैरिन वर्षा ऋतु आ गई है। हमारी भलाई तो इसी में है कि उसके द्वारा प्रशसित उपादानो का हम त्याग ही करें। यथा हम पै बैरिन वरसा आई, हमें, बचा लेव माई चढ़ के अटा, घटा ना देखें, पटा देव अगनाई; बारादरी दौरियन में हो, पवन न जावे पाई; जे द्रुम कटा, छटा फुलबगियां, हटा देव हरयाई; पिय जस गाय सुनाव न ईसुर',जो जिय चाव भलाई मोरे मन की हरन मुनयाँ, आज दिखानी नयां के कऊँ हुये लाल के सङ्ग, पकरी पिंजरा मइयां, पत्तन पत्तन ढूंड फिरे है, बैठी कौन डरयां; कात 'ईसुरी' इनके लानें, टोरीं सरग तरयां । मनुष्य-शरीर की असारता को लक्ष्य करके उन्होने कहा है बखरी रईयत है भारे की, दई पिया प्यारे की कच्ची भीत उठी मांटी की, छाई फूस चारे की बे बवेज बडी बेबाडा, जेई में दस द्वारे की किवार किवरिया एको नइयां, बिना कुची तारे की 'ईसुर चाये निकारो जिदनां, हमें कौन ड्वारे की X X इन गीतो के सम्बन्ध मे जितना भी लिखा जाय, थोडा है। हर्ष है कि इनके सास्कृतिक और वैज्ञानिक विश्लेपणता के लिए शिक्षित समुदाय उद्योग कर रहा है। इससे हमारा और हमारी मातृभाषा हिन्दी का हित ही होगा, ऐसी आशा है। झासी] x X Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड-चित्रावली-७ . .. . .. ThU FAal. __ezi कुण्डेश्वर का जल-प्रपात Page #663 --------------------------------------------------------------------------  Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देली लोक-गीत ६१५ सात बुन्देली लोकगीत श्री देवेंद्र सत्यार्थी बुन्देलखड मे पुरानी टेरी (टीकमगढ) के नन्हे धोवी के मुख से मधुर और करुण स्वरो मे 'धनसिंह का गीत' सुन कर वुन्देलखड के इतिहाम का एक महत्त्वपूर्ण पृष्ठ मेरी आंखो में फिर गया था। मै यह मोचता रह गया था कि आखिर यह कुंवर धनसिंह थे कौन, जिनकी याद में एक धोबी की नही, समस्त बुन्देलखड की आँखो में आंसू आ जाते है ? इस गीत का लोक-कवि बताता है कि धनसिंह ने छीकते हुए पलान कमा था और मना किये जाने की भी परवा न करते हुए घोडे पर सवार हो गया था। गम्ते मे उमके वाई पोर टिटहरी वोल उठी थी और दाई ओर गीदड चिल्लाने लगा था। यहां हम किमी एक व्यक्ति या परिवार के नहीं, बल्कि समूचे बुन्देलखट के पुरातन अशकुनो का परिचय पा लेते है । जहाँ तक गीत के माहित्यिक मूल्य का सम्बन्ध है, घर लौट आने पर धनसिंह के घोडे का यह उत्तर कि उसका म्बामी चोख मे माग गया और इममे उसका कुछ अपराध नहीं, बहुत प्रभावकारी है। एक और बुन्देली लोकगीत मे वैलो के गुण-दोप आदि की परख का बहुत सुन्दरता मे वर्णन किया गया है। जहां तक इसकी मगीतक गतिविधि का सम्बन्ध है, इमे हम वडी प्रामानी से एक प्रथम श्रेणी का नृत्य-गीत कह सकते है। मुझे पता चला कि यह 'छन्दियाऊ फाग' कहलाता है। पाण्डोरी में गौरिया चमारिन से मिला 'मानोगूजरी का गीत' मुगलकालीन वुन्देलखड के इतिहास पर प्रकाश डालता है। उत्तर भारत के दूसरे प्रान्तो मे भी इममे मिलते-जुलते गीत मिले हैं। हर कही मुगल के इश्क को ठुकराया गया है। भारतीय नारी मुगल मिपाही को खरी-खरी मुनाती है। माता के भजनो में एक ऐसी चीज़ मिली है, जिसे हम अहिमा का विजय-गान कह सकते है। यह गीत टीकमगढ में न्होनी दुलइया गुमाइन में लिखा गया था। 'कविता-कौमुदी" मे भी इसमे मिलता-जुलता एक गीत मौजूद है, जिसमें पता चलता है कि यह कथा उत्तर भारत की किमी पुरातन कथा की ओर मकेत करती है । टीकमगढ जेल में हलकी ब्राह्मणी मे मुना हुआ एक 'सोहर' इस समय मेरे सामने है। जिस मधुर और जादूभरी लय में हलकी ने यह गीत गाकर मुनाया था, वह अपूर्व था। उसका यह गीत मेरी आत्मा में सदा गूजता रहेगा। जब किमी परिवार में माता की कोग्व मे पुत्र का जन्म होता है तो मारे गांव मे हर्ष की लहर दौड जाती है। जन्म मे पहले के नौ महीनो में ममय-समय पर स्त्री की मानसिक दशा का चित्रण 'सोहर' की विशेषता है। ___ एक गीत मे गडरियो की भांवर का मजीव चित्र अकित है। टीकमगढ जेल के समीप एक वृद्ध गडरिये से वह गीत प्राप्त हुआ था। । अन्त मे एक और गीत की चर्चा करना आवश्यक है। पुरानी टेरी की जमुनियां वरेठन, जिसने वह 'दादरों लिखाया था, डरती थी कि कही उमका गीत उसके लिए मज़ा का कारण न वन जाय । यह इसी युग की रचना है, जिममे न केवल यह पता चलता है कि अभी तक लोक-प्रतिभा की कोख बाँझ नहीं हुई है, बल्कि यह भी ज्ञात होता है कि एक नये प्रकार का व्यग्य, जो विशेपत वदलती हुई राजनैतिक परिस्थितियो पर कडी चोट करता है, गहरी जड पकड रहा है। नीचे वे मात गीत दिये जा रहे है, जिनका ज़िक्र ऊपर किया गया है 'ग्रामगीत पृष्ठ ७७७ Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ १-धनसिंह का गीत तोरी मत फौने हरी धनसिंघ, तोरी, मत कौने हरी? छीकत बछेरा पलानियों,' बरजत भये असवार जातन भारौं गौर खौं, गढ़ एरछ के मैदान तोरी मत कौने हरी धनसिंघ, तोरी मत कोने हरी? माता पफरें फैटरी', वैन', घोडे की बाग रानी बोलेधनसिंह की, मोए कोन की करके जात तोरी मत कौने हरी धनसिंघ, तोरी मत कौने हरी? माता खो गारों वई, वैदुल खी दयो ललकार 'बैठी जो रहियो रानी सतखण्डा, मोतिन से भरा देऊ मांग !' तोरी मत कोने हरी, धनसिंघ, तोरी मत फौने हरी ? डेरी' बोली टीटही दाइनी' बोली सिहार" सिर के साम" तीतर बोले, 'पर भ में मरन काएं जात ?" तोरी मत कौने हरी, धनसिंघ, तोरी मत कोने हरी ? कोऊ जो मेले ढेरी ढेरा, कोऊ जिल्ला के वाग जा मेले धनसिंघ ज, जाळे फसव" के पाल" तोरी मत कौने हरी, धनसिंघ, तोरी मत कोने हरी? पैले मते भये ओरछे," दूजे वरुया के मैदान तीजे मते भये पाल में, सो मर गये कुंवर धनसिंघ तोरीमत कोने हरी, धन संघ, तोरी मत फौने हरी ? भागन लगे भागेलुमा, उड रई गुलावी धर रानी देखे धनसिंह की, घोरो पा गयो उबीनी पीठ" तोरीमत कौने हरी, धनसिंघ, तोरी मत कौने हरी ? काटौं बछेरा तोरी वजखुरी", मेटौं कनक और दार" मेरे स्वामी जुझवाय के, ते प्राय बंधो घुरसार तोरी मत कौने हरी, धनसिंघ, तोरी मत कोने हरी ? 'कायखौं काटो, रानी, बजखुरी, काय मेटी कनक औदार? दगा जो होगपाल में मोपै होनेई न पाए असवार" तोरीमत कौने हरी, धनसिंघ, तोरी" मत कोने हरी ? 'पलानकसा 'कमरबन्द 'बटन 'गालियां 'बहन 'मोतियों से 'बाई ओर ‘टिटिहर 'दाई ओर "सियार "सामने "पराई भूमि पर मरने के लिये क्यों जाते हो? "एक वर । विशेष "तम्बू "पहली सलाह ओरछे में हुई। "घोडा खाली पीठ के साथ पा गया। "हे बछरे, ते । खरियो के ऊपरी भाग काट डालूं। गेहूँ और दाल (वाना) देना बन्द कर दूं। तम्बू में धोखा हुमा । " वे मुझ पर सवार ही न हो पाए थे। "धनसिंह, तेरी बुद्धि किस ने हर ली ? Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देली लोक-गीत २-अरे जात बजारे, छैला अरे जात वजारें, छैला! मोरे जात बजारें, छला लाल ! सो लेन अनोखे वैला, मोरे जात वजारें, छैला लाल ! कन्त बजार जात हो, कामन कह कर जोर एक अरज सुन लीजियो, कन्त मानियो मोरलीला है रग अति जबर जग प्रोगन न अग एकऊ वा के रोमा मुलाम पतरो है चाम चाहे लगे दाम कितने हु वा के सो लिइए असल पुखला मोरे जात वजारें, छैला, लाल ! भौरा रग वाकुडा चचल पोछे फानन खेला मोरे जात वजारे छला, लाल ! हसा से वैल न लिइए छेल न दिइए पैल अगरे वा के कजरा की शान ले लिइए जान दैदिइए दाम चित में दै के पुठी उतार घींच पतरी को न लिइए विगरला सो प्रोछे कानन खेला मोरे जात वजारे छला, लाल ! करिया के दन्त जिन गिनी, कन्त हठ चलो अन्त मानो बिनती ७८ Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ प्रेमी-प्रभिनदन- प्रथ सींगन के बीच भयन दुबीच भौंरी हो वीच सो हुइ असल परैला मोरे जात बजार छैला, लाल ! न अनोखे वैला मोरे जात बजारें छैला, लाल ! ३ - मानो गूजरी काहांना सें मुगला चले, री मानो, काहाना लेत मिलान पच्छम से मुगला चले, री मानो, श्रग्गम लेत मिलान ऊँचे चढ के मानो हेरियो, कोई लग गए मुगल वजार हुक्म जो पाऊँ रानी सास को, में तो देखि श्राऊँ मुगल बजार मुगला को का देखना, री मानो, मुगला मुगद गवार सास की हटकी में न मानों में तो देखि श्राऊँ मुगल बजार जो तुम देखन जात हो, री मानो, कर लो सोरहो सिंगार तेल की पटियां पार लई मानो सिदरन भर लई मांग माथे बीजा श्रत वनो मानो बन्दिन की छव नियार चलीं चलीं मानो हुना गई रे कोई गई कुम्हरा के पास अरे अरे भइया कुम्हरा के रे, एक मटकी हमें गढ़ देउ एक मटकिया का गढ़ री मानो मटकी गढ़ों दो-चार एक मटकिया ऐसी गढो रे भइया जा में दहिया बने और दूध अरे अरे भइया कुम्हरा के तुम कर दो मटकिया के मोल पाँच टका की जाकी बौनी है, री मानो लाख टका को मोल पाँच टका घरनी घरे, कुम्हरा के, मटकी लई उठाय दहियो- दूष जा में भर लियो, रीमानो, देख आयो मुगल बजार चली चली री मानो हुना गयो रे कोई गई मुगल के पास पहली टेर मानो मारियो -रे कोई दहिया लेत के दूध दही दूध के गरजी नहीं रे मानो घघटा कर दो मोल दूजी टेर मानो मारियो रे कोई मुगल लई पछिप्राय लौट आायो मानो बदल श्रायो रे मोरी रनियाँ देखे श्रायो रनियाँ को का देखना रे मुगला ऐसी रैतीं मोरि गुबरारि लौट आायो मानो बदल श्रायो मेरे कुंवरन देखे जायो कुँवरन को का देखना, रे मुगला, मेरे रैते ऐसे गुलाम लोट आायो मानो बदल प्रायो मेरे हतिया देखे जायो हतियन को का देखना रे मुगला मेरी भूरी भैंस को मोल घुंघटा खोलत दस मरे रे मुगला बिन्दिया देख पचास Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देली लोकगीत मुगला सोक जब भरे रे जब तनिक उघरि गई पीठ ! सोउत चन्द्रावल श्रोधकेरे तेरी व्याही मुगल ले जाय मुगला मारे गरद करे रे बिन ने लोयें लगा दई पार रक्तन की नदियाँ बहीं, रे बिन ने लोयें लगा दई पार ! ४- सुरहिन दिन की ऊँघन किरन की फूटन, सुरहिन बन को जाय हो माँ इक बन चाल सुरहिन दुज बन चालों, तिज बन पची जाय हो माँ कजली वन माँ चन्दन हरो विरछा, जाँ सुरहिन मो डारो हो मां मोघालो सुरहिन टुज मो घालो, तिज मो सिंघा गुंजार हो माँ अब की चूक वगस वारे सिंघा, घर बछरा नादान हो माँ को तोरो सुरहिन लाग-लरनियाँ, को तोरो होत जमान हो माँ चन्दा सुरज मोरे लाग लगनियाँ, वनसपति होत जमान हो मॉ चन्दा सुरज दोह ऊँ श्रयैवें, वनसपति भर जाय हो माँ धरती के वासक मोरे लाग लगनियाँ, धरती होत जमान हो माँ इक बन चालीं सुरहिन दुज बन चालों, तिज बन वगर रम्हानी हो माँ बन की हेरों सुरहिन टगरन श्राई, बछरे राम्ह सुनाई हो माँ प्रायो बरा पीलो मेरो दुघुप्रा, सिंघा बचन हार आई हो माँ हारे दुघुआ न पियों मोरी माता, चलो तुमारे सग हो मां गे गेवरा पीछे पीछें सुरहिन, दोऊ मिल वन को जांय हो माँ इक वन चालों सुरहिन दुज बन चालों, तिज वन पौंची जाय हो मां उठ उठ हेरे बन के सिंघा सुरहिन श्राज न आई हो माँ वोल की वांदी वचन की सांची, एक सें गईं दो से आई हो मां पैलो ममइयाँ हमई को भख लो, पीछे हमाई माय हो मां कोने भनेजा तो सिख-बुध दीनों, कोन लगो गुर कान हो माँ देवी जालपा सिख बुध दीनीं, वीर लगर लगे कान हो माँ जो कजली बन तेरो भनेजा, छुटक चरो सौ गऊ आगे सो गऊ पाँछे, होइयो बगर के साँढ़ हो माँ मैदान हो माँ ५ - सोहर जेठानी के भए नन्दलाल, कहो तो पिया देख श्राव महाराज सासू की हटको न मानी, सखिन सग लिंग चलीं महाराज पिया की हटकी न मानी, सखिन सग लिंग चलीं महाराज सासू ने डारी पिडियाँ, ननद श्रादर करें महाराज लं सुनी बिछिप्रन खनकार, जिजी ने लाला ढापलए महाराज देखत देनोरानी भग आई महाराज इतनी के सुनतन मनई मन कर सोच मनई मन रो रई, महाराज चलो लाला हाट बजार, ललन मोल ले दियो महाराज ६१६ Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० प्रेमी-अभिनदन-प्रय कैसी भौजी मूरख अजान, ललन मोल न मिलें महाराज गऊसन के करो भौजी दान, कन्यमन के करो विग्राउ हो महाराज जमना के करो असनान चरइन चुन डारो महाराज लग गए पैले मास तो दूजे लागियो महाराज तीजे मास जब लागे तो चौथे लागियो महाराज चौथे मास जव लागे, जिमिरिअन मन चले महाराज पांचए मास जब लागे, नरगिभन भन चले महाराज लग गए छटएँ मास, बिहिन पै मन चले महाराज लग गए सातएँ मास तो निब्बू पै मन चले महाराज लग गए पाठएं मास तो सदाफल मन चले महाराज हो गए नौ दस मास. ललन न्हीने हो परे महाराज दिनोरनियां के भए न्हौने लाल कहोतो पिया देख आवै महाराज राजा को हटकी न मानी सखिन सग तिग चली महाराज सासू ने डारी पिडियां, ननद आदर फरे महाराज सुनि विछिपन ठनकार. विभोरानी ने लाल दे दये महाराज तुम ल्हौरी हम जेठी, उदिना को दुरा जन मानिनों महाराज ६-एक गडरियाई भाँवर आडर दीनी गाडर दीनी डला भर ऊन दीनी बम्मन मार पटा घर दीनी रूप की घरी सोने की माल रांहट चले पानी ढरे निम थे औलाद बढे कोपचो भावरें परीकै नई ? ७-दादरो अंगरेजी परी, गोरी, गम खानें ! काहाँ बनी चौकी काहाँ बने थाने काहाँ जो बन गए वे जेरखाने अंगरेजी परी, गोरी, गम खाने । अंगीत बनी चौकी, पछीत बने थाने बाकी देरी पै बनगए जेरखाने अंगरेजी परी, गोरी, गम खाने ! वुन्देलखड अपने सम्बन्ध में अपनी भाषा में क्या कहता है ? किन-किन उत्सवो से उसे दिलचस्पी है ? उसके रीति-रिवाजो का वास्तविक महत्त्व क्या है ? समाज के विविध स्तरो के भीतर से आती हुई उसकी आवाज़ हमारे लिए क्या सन्देश रखती है ? इन प्रश्नो के उत्तर पाने के लिए बुन्देली लोकवार्ता का सचय तथा अध्ययन करना आव ली लोकगीत का वास्तविक महत्त्व बुन्देली लोकवार्ता की पृष्ठभूमि मे ही समझा जा सकता है। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड के कवि श्री गौरीशङ्कर द्विवेदी 'शङ्कर (१) शस्य श्यामला, शीतल जननी, कविवर-वीर-विभूति प्रसविनी, है बुन्देलखण्ड की धरिणी, घरणीतल में घन्य कहां है, कोई ऐसी अन्य ? (२) अग्रगण्य है अति शुचिता में, सरस सरलता में, मृदुता में, सहिष्णुता में, सहृदयता में, वीर-वुदेल-प्रदेश यही है, अनुमप जिसका वेश। कर्ता अष्टादश पुरान के, लेखक भारत के विधान के, अधिपति विपुल पवित्र ज्ञान के, वल, तप, तेज निधान यहीं थे, वेद व्यास भगवान् । वालमीकि वसुधा के भूषण, कृष्णदत्त कविकुल के पूपण, मित्र मिश्र ने किया निरूपण, ऐसा ग्रंय-विशेष पुज रहा है जो देश-विदेश । Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ ६२२ मधुकुरशाह भक्ति -रस रे, इन्द्रजीत, विक्रम बल पूरे, छत्रसाल नरपति रण शूरे, __वर-बुंदेल-अवतस हुए है कवि-कुल-मानस-हस । तुलसीदास ज्ञान-गुण-सागर, व्यास, गोप, बलभद्र, जवाहर, केशवदास कवीन्द्र कलाधर, भाषा प्रथमाचार्य हुए थे, इसी भूमि में आर्य । सुकवि बिहारीदास गुणाकर, हरिसेवक, रसनिधि, कवि गकुर, पचम, पुरुषोत्तम, पद्माकर, कवि कल्याण अनन्य हुई है, जिनसे बसुधा धन्य । विष्णु, सुदर्शन, श्रीपति, मण्डन, खगराय, गङ्गाधर, खण्डन, किङ्कर, कुजकुंअर, कवि कुदन, मोहन मिश्र, ब्रजेश यहीं थे, रसिक, प्रताप, हृदेश। (६) हसराज, हरिकेश, हरीजन, फेरन, करन, कृष्ण कवि, सज्जन, मान, खुमान, भान बदीजन, लोने, खेम, उदेश हुए है, भौन, बोध, रतनेश । Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्ड के कवि ६२३ (१०) कोविद, कृष्णदास, कवि कारे, दिग्गज, रतन, लाल प्रण वारे, अवुज, काली, नदकुमारे, नवलसिंह पजनेस हुए थे, मचित, द्विज अवधेस । (११) 'प्रेम', 'व्यास', 'रसिकेन्द्र', गुणाकर, 'लाल विनीत' 'मीर' से कविवर, काव्य-कला-कमनीय दिवाकर, अमर कर गये नाम प्रान्त यह है गुणियो का धाम । ( १२ ) वीर पुरुष ऐसे है जाये, वसुधा ने जिनके गुण गाये, विश्व-वद्य इसने उपजाये, अगणित कवि शिरमौर, गिनाएँ 'शङ्कर' कितने और। ( १३ ) जग जीवन वे सफल कर गये, अमर हुए है, यदपि मर गये, भव्य-भारतीकोष भर गये, कविता-कामिनि-कांत यहीं थे, है ऐसा यह प्रात । झासी 1 Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहार और उसकी मूर्तियाँ श्री यशपाल जैन वी० ए०, एल-एल० वी० पुरातत्व की दृष्टि मे वुन्देलखण्ड एक बहुत ही समृद्ध प्रात है। स्थान-स्थान पर ऐमी सामग्री पाई जाती है, जो पुरातत्वों के लिए वडी महत्वपूर्ण है । पुरातत्व विभाग के युक्तप्रातीय नकिल के सुपरिटेण्डेण्ट श्री माधवस्वरूप जी 'वत्स' तया डा० वासुदेवशरण जो अग्रवाल के साथ हमें देवगढ के गुप्तकालीन विष्णुमदिर के देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उन्होने वारीको के नाथ जव उक्त मदिर की विशेषताएं समझाई तो हम आश्चर्यचकित रह गये कि उम छोटे-से मदिर में कितनी मूल्यवान सामग्री मौजूद है। इसी प्रकार खजुराहा, चदेरी, महोवा, कालजर, साची आदि स्यान है, जिनके वर्तमान रूप को देखकर हम कल्पना कर मकते है कि किसी जमाने मे वे कितने गौरवशाली रहे होगे। ऐसे स्यानो मे से कई एक तो प्रकाश में आ चुके है, लेकिन कुछ ऐसे भी है, जिनकी ओर अभी तक विशेष ध्यान नहीं दिया गया। अहार एक ऐसा ही स्थान है । ओरछा राज्य की राजधानी किमगढ से बारह मील पूर्व में वह स्थित है। वहाँ की प्राकृतिक सुषमा को देख कर प्राचीन तपोवनो का स्मरण हो आता है, लेकिन प्रहार का महत्व केवल उनके प्राकृतिक सौंदर्य के कारण ही नहीं, बल्कि वहाँ की मूर्तियो के कारण है । ये मूर्तियां वही ही मनोज्ञ और भव्य है। अहार ग्राम के दो-ढाई मोल इधर से ही मूर्तियां यत्रतत्र पडी मिलने लगती है । मदनसागर के वांव पर, जिसके निकट ही अहार के मदिर है, एक विशाल मदिर के भग्नावशेष दिखाई देते है। जिन पत्यरो से न मदिर का निर्माग हुआ था, उनमें से बहुत से आज भी वहाँ अस्त-व्यस्त अवस्था में पड़े हुए है। उनको कारीगरी का अवलोकन कर मन आनद से भर उठता है । इधर-उधर पहाडियो की चोटियो पर भी बहुत से मदिरो के अवशेष मिलते हैं। कहा जाता है कि प्राचीन काल में यहाँ लगभग डेढ सी मदिरो का समुदाय था और भगवान शान्तिनाय की प्रतिमा के आमन पर उत्कीर्ण शिलालेख से पता चलता है कि किसी ममय वहां एक विशाल धेरे में 'मदनसागरपुर' नामक नगर वसा था। इधर-उधर परकोटो के जो चिह्न मिलते है, उनसे उक्त कथन की पुष्टि हो जाती है। ___ अहार में इस समय ढाई-नोन सौ प्रतिमानो का सग्रह है, जिनमें से अधिकाश खण्डित है। किनी का हाय गायव है तो किमो का पैर, किनी का सिर तो किसी का धड, लेकिन जो अग उपलब्ध है, उन्हें देखने पर उनके निर्माताप्रो को कला-प्रियता तथा कार्य-पटुता का अनुमान लग जाता है। इन मूर्तियो को प्राचीन वास्तु-कला का उत्कृष्ट नमूना कहा जा सकता है। किसी के मुखमण्डल पर अनुपम हास्य है तो किसी के गभीरता। किसी भी प्रतिमा को देख लोजिये । उसकी सुडौलता में कही वाल भर का भी अतर नही मिलेगा। आज के मशीन-युग में तो सब कुछ समव है, लेकिन तनिक उन युग की कल्पना कीजिये, जब मशीने नही थी और सारा काम इनेगिने दस्ती औजारो की मदद से होता था। जरा हाथ डिगा अयवा छैनी इधर-उधर हुई कि बना-बनाया खेल विगडा। सभी प्रतिमानो की पालिश आज आठ सौ वर्ष बाद भी ज्यो-की-सी चमकती है। अहार क्षेत्र के अहाते मे इस समय तीन मदिर है। उनमें से दो तो हाल के ही बने हुए है। तीसरा प्राचीन है। बाहर मे देखने में वह बहुत मामूली-सा जान पड़ता है। उसके अदर वाईम फुट को शिला पर अठारह फुट की भगवान भान्तिनाय की मूर्ति है । वाएँ पार्श्व मे ग्यारह फुट की कुन्थुनाथ भगवान की प्रतिमा है। कहा जाता है कि उमो के अनुरूप दाएँ पार्श्व में अरहनाथ भगवान की प्रतिमा थी, जिसका अव कोई पता नहीं चलता। प्रस्तुत प्रतिमाएं अत्यन्त भव्य है। उनके मुवमण्डल की तेजस्विता और भव्यता को देख कर हमे अद्भुत आनद और शाति प्राप्त हुई। श्रद्धेय नाथूराम जाप्रेमी का कथन था कि उन्होने जैनियो के बहुत से तीर्थ देखे है और भगवान शातिनाथ Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** هد که مسله له ܠܕܢ ܚܢܢ ܚܐܢܢܐܢ ܠܐ * می است fin' Jak стро ознаковий чай Loth で w to theatre AND 1. ? ܒܕ ܗܢ अहार का एक दृश्य 71 3 است at th moting 25924 spast! ++ ~. when my w F Y ما -15 44151 41, приманки до под следни ragi Boy, 2' 44' 'Arquit 12" & ད{ مدله Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A TE भगवान शातिनाथ Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहार और उसकी मूर्तियाँ ६२५ की इस प्रतिमा से भी विशाल प्रतिमाएँ देखी है, लेकिन इस जैसी भव्य, सौम्य श्रीर सुन्दर मूर्ति उन्होने अब तक . नही देखी । "इस महान शिल्पी ने सुप्रसिद्ध गोम्मटेश्वर की मूर्ति के निर्माता की कला प्रतिभा को भी अपने से पीछे छोड दिया है । इस मूर्ति का सौष्ठव श्रोर श्रग प्रत्यग की रचना हमारे सम्मुख एक जीवित सौन्दर्य - मूर्ति को खड़ी कर देती है ।"" I 1 इस प्रतिमा का शिलालेख सुरक्षित है । यह लेख लगभग दो फुट चार इच की लम्बाई और नौ इच की चौडाई में हैं। नौ पक्तियाँ हैं । इस शिलालेख से मूर्ति का निर्माण कराने वाले श्रेष्ठि का पता तो चलता ही है, साथ ही शिल्पकार का भी । अन्य कई वातो की भी जानकारी होती है। पूरा लेख इस प्रकार है पक्ति १ ॐ नमो वीतरागाय ॥ ग्रहपतिवंशसरोरुहसहस्ररश्मि सहस्रकूट य । वाणपुरे व्यधितासीत् श्रीमानि पक्ति २ ह देवपाल इति ॥१॥ श्रीरत्नपाल इति तत्तनयो वरेण्य. पुण्यकमूर्तिरभवद्वसुहाटिकाया । कीर्तिर्जगत्रय पक्ति ३ परिभ्रमणश्रमार्त्ता यस्य स्थिराजनि जिनायतनच्छलेन ॥ २ ॥ एकस्तावदनूनबुद्धिनिधिना श्रीशान्तिचैत्याल पक्ति ४ यो दिष्टयानन्दपुरे पर परनरानन्दप्रद श्रीमता । येन श्रीमदनेशसागरपुरे तज्जन्मनो निर्मिमे । सोयं श्रेष्ठिवरिष्ठगल्हण इति श्रीरहणाख्याद् पक्ति ५ भूत ॥ ३ ॥ तस्मादजायत कुलाम्वरपूर्णचन्द्र श्रीजाहडस्तदनुजोदयचन्द्रनामा । एक परोपकृतिहेतुकृतावतारो धम्र्मात्मक' पुनरमो पक्ति ६ घसुदानसार ॥ ४ ॥ ताभ्यामशेषदुरितौघशमैकहेतु निर्मापित भुवनभूषणभूतमेतद् । श्रीशान्तिचैत्यमति नित्यसुखप्रदा पक्ति ७ तृ मुक्तिश्रियो वदनवीक्षणलोलुपाभ्याम् ||५|| सवत् १२३७ मार्ग सुदि ३ शुक्रे श्रीमत्परमर्द्धिदेवविजयराज्ये । पक्ति ८ - चन्द्रभास्करसमुद्रतारका यावदत्र जनचित्तहारका | धम्मंकारिकृतशुद्धकीर्त्तन तावदेव जयतात् सुकीर्त्तनम् ॥६॥ पक्ति ९ वाल्हणस्य सुत. श्रीमान् रूपकारो महामतिः । पापटो वास्तुशास्त्रज्ञस्तेन विम्व सुनिर्मितम् ॥ ७ ॥ अनुवाद $ वीतरागके लिये नमस्कार ( है ) । श्लोक १–जिन्होने बानपुरमें एक सहस्रकूट चैत्यालय बनवाया, वे ग्रहपति वश रूपी कमलो ( को प्रफुल्लित करने) के लिये सूर्यके समान श्रीमान् देवपाल यहाँ ( इस नगर में ) हुए । ''प्रहार' पुस्तक में प्रेमीजी का लेख, पृष्ठ २४ ७६ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन-ग्रथ ६२६ श्लोक २--उनके रत्नपाल नामक एक श्रेष्ठ पुत्र हुए, जो वसुहाटिकामें पवित्रताकी एक . (प्रधान) मूर्ति थे, जिनकी कीर्ति तीनो लोकोमे परिभ्रमण करनेके श्रमसे थककर इस जिनायतनके. बहाने ठहर गई। श्लोक ३-श्री रल्हणके, श्रेष्ठियोमें प्रमुख, श्रीमान् गल्हणका जन्म हुआ जो समग्र बुद्धिके निधान थे और जिन्होने नन्दपुरमे श्रीशान्तिनाथ भगवान्का एक चैत्यालय बनवाया था, और इतर सभी लोगोको आनन्द देनेवाला दूसरा चैत्यालय अपने जन्मस्थान श्रीमदनेशसागरपुरमे भी बनवाया था। श्लोक ४-उनसे कुलरूपी आकाशके लिये पूर्ण चन्द्रके समान श्री जाहड उत्पन्न हुए । उनके छोटे भाई उदयचन्द्र थे । उनका जन्म मुख्यतासे परोपकारके लिये हुआ था । वे धर्मात्मा और अमोघ दानी थे। श्लोक ५-मुक्ति-रूपी लक्ष्मीके मुखावलोकनके लिये लोलुप उन दोनो भाइयोने समस्त पापोंके क्षयका कारण, पृथ्वीका भूषण-स्वरूप और शाश्वतिक महान् आनन्दको देनेवाला श्री शान्तिनाथ भगवानका यह प्रतिविम्ब निर्मापित किया। सवत् १२३७ अगहन सुदी ३, शुक्रवार, श्रीमान् परमर्द्धिदेवके विजय राज्यमें । ____ श्लोक ६-इस लोकमें जव तक चन्द्रमा, सूर्य, समुद्र और तारागण मनुष्योके चित्तोका हरण करते है तब तक धर्मकारीका रचा हुआ सुकीर्तिमय यह सुकीर्तन विजयी रहे। ___ श्लोक ७-बाल्हणके पुत्र महामतिशाली मूर्ति-निर्माता और वास्तुशास्त्रके ज्ञाता श्रीमान् पापट हुए। उन्होने इस प्रतिविम्बकी सुन्दर रचना की। इस शिला-लेख से कई महत्वपूर्ण वातं ज्ञात होती है। प्रथम पक्ति मे वानपुर का उल्लेख पाया है। यह स्थान टीकमगढ से अठारह मील पश्चिम में अब भी विद्यमान है। तीसरी पक्ति के 'मदनेशसागरपुर' पद से ज्ञात होता है कि उस समय इस स्थान का 'मदनेशसागरपुर' नाम रहा होगा। अहार के तालाब को आज भी 'मदनसागर कहते है । सातवी पक्ति से मालूम होता है कि अगहन सुदो तीज, सवत् १२३७, शुक्रवार को परमद्धिदेव के राज्य में शिल्पशास्त्र के ज्ञाता पापट नामक शिल्पकार ने इसका निर्माण किया था। मूर्ति पर बहुत बढिया पालिश हो रही है । पाठ सौ वर्ष वाद भी उसकी चमक में कोई अन्तर नहीं पाया। अहार मे जितनी मूर्तियां है, उनमें से अधिकाश के आसन पर शिला-लेख है, जिनसे जैनो के अनेक अन्वयो का पता चलता है। इतने अन्बयो का वहाँ पाया जाना इस बात का सूचक है कि प्राचीन समय में यह स्थान अत्यन्त समृद्ध रहा होगा। ये सव मूर्तियाँ पुरातत्व और इतिहास की दृष्टि से वहुत ही मूल्यवान है। उनकी सुरक्षा के लिए वहाँ पर एक सग्रहालय का निर्माण हो रहा है। अब आवश्यकता इस बात की है कि अहार तथा उसके निकटवर्ती ग्रामो की भूमि की विधिवत् खुदाई हो। इसमे लेशमात्र सन्देह नहीं कि वहां पर बहुमूल्य सामग्री प्राप्त होगी। संग्रहालय की नीव जिस समय खुद रही थी उस समय स्फटिक की एक मूर्ति का अत्यन्त मनोज्ञ सिर प्राप्त हुआ। खुदाई होने पर और भी बहुत-सी चीजें मिलेगी। अन्न भी जब तालाव का पानी कम हो जाता है, उसमें कभीकभी मूर्तियां निकल पाती है। इस प्रकार की कई मूर्तियो का उद्धार हुआ है। अहार मे तपोवन बनने की क्षमता है, लेकिन उसके लिए भगवान शान्तिनाथ की मूर्ति के निर्माता पापट जैसे महापुरुषो और उनकी.जैसी वर्षों की तपस्या चाहिये। उस मूर्तिकार की यह अनुपम कला-कृति मानो आज भी कह रही है, “महान कार्य के लिए समान साधना की आवश्यकता होती है। टीकमगढ़ ] Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- PAL L D ire कुथुनाथ भगवान की मूर्ति Page #679 --------------------------------------------------------------------------  Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ८ : समाज-सेवा और नारी - जगत् Page #681 --------------------------------------------------------------------------  Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति में सेवा-भाव जैन-मुनि श्री श्रमरचन्द्र उपाध्याय जैन सस्कृति की आधारशिला प्रधानतया निवृत्ति है । अत उसमें त्याग और वैराग्य तथा तप और तितिक्षा आदि पर जितना अधिक जोर दिया गया है, उतना और किसी नियम विशेष या सिद्धान्त विशेष पर नही । परन्तु जैन धर्म की निवृत्ति साधक को जन सेवा की ओर अधिक-से-अधिक आकर्षित करने के लिए है। जैन धर्म का आदर्श ही यह है कि प्रत्येक प्राणी एक दूसरे की सेवा करे, सहायता करे और जैसी भी अपनी योग्यता हो, उसी के अनुसार दूसरो के काम आये । जैन धर्म में जीवात्मा का लक्षण' ही सामाजिक माना गया है, वैयक्तिक नही । प्रत्येक सासारिक प्राणी अपने सीमित अश में अपूर्ण है, उसकी पूर्णता आसपास के समाज मे और सघ मे है । यही कारण है कि जैन संस्कृति का जितना अधिक झुकाव आध्यात्मिक साधना के प्रति है, उतना ही ग्राम-नगर और राष्ट्र के प्रति भी है । ग्राम-नगर और राष्ट्र के प्रति अपने कर्त्तव्यो को जैन साहित्य मे धर्म' का रूप दिया है और भगवान् महावीर ने अपने धर्म प्रवचनो में ग्रामव, नगरधर्म और राष्ट्रधर्म को बहुत ऊंचा स्थान दिया है । उन्होने प्राध्यात्मिक क्रियाकाण्ड प्रधान जैनधर्म की साधना का स्थान ग्रामघर्म, नगरधर्म और राष्ट्रधर्म के बाद ही रक्खा है, पहले नही । एक सभ्य नागरिक एव देशभक्त ही सच्चा जैन हो सकता है, दूसरा नही । उक्त विवेचन के विद्यमान रहते यह कैसे कहा जा सकता है कि जैनधर्मं एकान्त निवृत्ति प्रधान है अथवा उसका एकमात्र उद्देश्य परलोक ही है, यह लोक नही । जैन गृहस्थ जव प्रात काल उठता है तो वह तीन सकल्पो का चितन' करता है । उनमे सबसे पहिला यही सकल्प है कि मैं अपने धन का जन-समाज की सेवा के लिए कव त्याग करूंगा। वह दिन धन्य होगा, जव मेरे सग्रह का उपयोग जन-ममाज के लिए होगा, दीन-दुखितो के लिए होगा । भगवान महावीर का यह घोष हमारी निद्रा भग करने के लिए पर्याप्त है - " प्रसविभागी न हु तस्स मोक्खो ।"" अर्थात् — मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह अपने सग्रह के उपभोग का अधिकारी केवल अपने श्राप को ही न समझे, प्रत्युत अपने आस-पास के साथियो को भी अपने वरावर का अधिकारी माने । जो मनुष्य अपने साधनो का स्वय ही उपभोग करता है, उसमें से दूसरो की मेवा के लिए कुछ भी श्रर्पण नही करना चाहता है, उसको कभी भी मोक्ष प्राप्त नही हो सकता । " T I जैन धर्म में माने गये मूल आठ कर्मों मे मोहनीय कर्म का स्थान वडा ही भयकर है। आत्मा का जितना अधिक पतन मोहनीय के द्वारा होता है, उतना और किसी कर्म से नही । मोहनीय के सबसे अन्तिम उग्ररूप को महामोहनीय कहते हैं । उसके तीस भेदो में से पच्चीसवाँ भेद यह है " यदि आपका साथी बीमार है या किसी और सकट मे पडा हुआ है, आप उसकी सहायता या सेवा करने में समर्थ है, कि इसने कभी मेरा काम तो किया नही, में ही इसका काम क्यो करूँ क्या ?" भगवान महावीर ने अपने चम्पापुर के धर्मं प्रवचन में स्पष्ट ही कर्त्तव्य के प्रति उदासीन होता है, वह धर्म से सर्वथा पतित हो जाता है । उक्त पाप के कारण वह सत्तर कोटाकोटि फिर भी सेवा न करें और यह विचार करे ? कष्ट पाता है तो पाये अपनी वला से, मुझे यह कहा है- "जो मनुष्य इस प्रकार अपने सागर तक चिरकाल जन्म-मरण के चक्र में उलझा रहेगा, सत्य के प्रति श्रभिमुख न हो सकेगा ।" 'परस्परो पग्रहो जीवानाम् — तत्त्वार्थाधिगम सूत्र । २ 'स्थानाग सूत्र, दशमस्थान । ३ स्थानाग सूत्र, ३, ४, २१ ४ दशवकालिक सूत्र, &, २, २३ दशाश्रुत स्कन्ध-नवम दशा । ५ Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ ६३० गृहस्थ ही नही, साधु-समाज को भी इस सिद्धान्त का बही कठोरता से पालन करना पड़ता है। भगवान महावीर ने कहा है-"यदि कोई साधू अपने बीमार या सकटापन्न साथी को छोड कर तपश्चरण करने लग जाता है, शास्त्र-चितन में सलग्न हो जाता है या और किसी अपनी व्यक्तिगत साधना में लग जाता है तो वह अपराधी है, सघ मे रहने योग्य नहीं है। उसे एक सौ वीस उपवासो का प्रायश्चित लेना पडेगा, अन्यथा उसकी शुद्धि नही हो सकती।" इतना ही नहीं, एक गांव मे साथी साधू वीमार पडा हो और दूसरा साधू जानता हुआ भी गांव से वाहर-ही-वाहर दूसरे गांव में चला जाय,रोगी की सेवा के लिए गांव में न जाय तो वह भी महान पापी है, उग्रदण्ड का अधिकारी है। भगवान महावीर का कहना है कि सेवा स्वय बडा भारी तप है। अत जब भी कभी सेवा करने का अवसर मिले तो नही छोडना चाहिए। सच्चा जैन वह है, जो सेवा करने के लिए सदा प्राों की, दीन-दुखितो की, पतितो एव दलितो की खोज में रहता है।' 'स्थानाग-सूत्र' में भगवान महावीर की पाठ महान् शिक्षाएँ बडी प्रसिद्ध है। उसमे पांचवी शिक्षा यह है"असगिहीय परिजणस्स सगिण्हयाए प्रभुठेयन्व भवइ ।" अर्थात्-जो अनाश्रित है, निराधार है, कही भी जीवन-यापन के लिए उचित स्थान नहीं पा रहा है, उसे तुम आश्रय दो, सहारा दो, जीवन-यात्रा के लिए यथोचित प्रवन्ध करो। जैन गृहस्थ का द्वार प्रत्येक असहाय के लिए खुला हुआ है ।" वहां किसी जाति, कुल, देश या धर्म के भेद के विना मानवमात्र के लिए जगह है। एक वात और भी बड़े महत्त्व की है। इस बात ने तो सेवा का स्थान बहुत ही ऊंचा कर दिया है। जैन धर्म में सबसे बडा और ऊंचा पद तीर्थकर का माना गया है । तीर्थकर होने का अर्थ यह है कि वह जैन समाज का पूजनीय महापुरुष देव वन जाता है। भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर दोनो तीर्थकर है। भगवान महावीर ने अपने जीवन के अन्तिम प्रवचन में सेवा का महत्त्व बताते हुए कहा है-“वपावच्चेण तित्ययर नाम गोत्त कम्म निवधइ । अर्थात्-वैयावृत्त करने से सेवा करने से तीर्थकर पद की प्राप्ति होती है। साधारण जनसमाज मे सेवा का आकर्षण पैदा करने के लिए भगवान महावीर का यह आदर्श प्रवचन कितना महान है। आचार्य लक्ष्मीवल्लभ ने भगवान महावीर और गौतम का एक सुन्दर सवाद हमारे सामने रक्खा है। सवाद में भगवान महावीर ने दुखितो की सेवा को अपनी सेवा की अपेक्षा भी अधिक महत्त्व दिया है। सवाद का विस्तत एव स्पष्ट रूप इस प्रकार है - श्री इन्द्रभूति गौतम ने जो भगवान महावीर के सब से बडे गणधर थे, भगवान महावीर से पूछा-भगवन् । एक सज्जन दिन-रात आपकी सेवा करता है, आपकी पूजा-भक्ति करता है। फलत उसे दूसरे दुखितो की सेवा के लिए अवकाश नहीं। दूसरा सज्जन दुखितो की सेवा करता है, सहायता करता है, फलत उसे आपकी सेवा के लिए अवकाश नहीं। भन्ते । दोनो में से आपकी ओर से धन्यवाद का पात्र कौन है और दोनो में श्रेष्ठ कौन है ? भगवान महावीर ने वडे रहस्यभरे ढग से उत्तर दिया-गौतम | जो दीन दुखितो की सेवा करता है, वह श्रेष्ठ है। वही मेरे धन्यवाद का पात्र है। 'निशीथ सूत्र । २ उत्तराध्ययन, तपोमार्ग अध्ययन । 'प्रोपपातिक। *स्थानाग सूत्र, ८,६१ 'भगवती सूत्र। 'उत्तराध्ययन २६, ४३ उत्तराध्ययन, सर्वार्थसिद्धि, परिषद अध्ययन। Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सस्कृति में सेवा-भाव ६३१ गौतम विचार में पड गये कि यह क्या ? भगवान की सेवा के सामने अपने ही दुष्कर्मों से दुखित पापात्माओ की सेवा का क्या महत्त्व ? धन्यवाद तो भगवान के सेवक को मिलना चाहिए। गौतम ने जिज्ञासाभरे स्वर से पूछा – भन्ते । यह कैसे ? दुखितो की सेवा की अपेक्षा तो आपकी सेवा का अधिक महत्व होना चाहिए ? कहाँ सर्वथा पवित्रात्मा आप भगवान् और कहाँ वे पामर प्राणी । 1 भगवान ने उत्तर दिया- मेरी सेवा, मेरी श्राज्ञा के पालन करने में ही तो है । इसके अतिरिक्त अपनी व्यक्तिगत सेवा के लिए तो मेरे पास कोई स्थान ही नही है । मेरी सबसे बडी आज्ञा यही है कि दुखित जन-समाज की सेवा की जाय, उसे सुख-शान्ति पहुँचाई जाय । अत दुखितो की सेवा करने वाला मेरी आज्ञा का पालक है । गौतम । इसलिए मैं कहता हूँ कि दुखितो की सेवा करने वाला ही धन्य हैं, श्रेष्ठ है, मेरी सेवा करने वाला नही । मेरा सेवक सिद्धान्त की अपेक्षा व्यक्तिगत मोह में अधिक फँसा हुआ है । यह आदर्श है नरसेवा में नारायण सेवा का, जन सेवा में भगवान की सेवा का । जैन सस्कृति के अन्तिम प्रकाशमान सूर्य भगवान महावीर है । उनका यह प्रवचन सेवा के महत्त्व के लिए सबसे वडा ज्वलन्त प्रमाण है । भगवान महावीर दीक्षित होना चाहते हैं, किन्तु अपनी सपत्ति का गरीव प्रजा के हित के लिए उपयोग करते है और एक वर्ष तक मुनि दीक्षा लेने के विचार को लवा करते है । एक वर्ष में अरवो की सपत्ति जन सेवा के लिए अर्पित कर देते है और मानव-जाति की आध्यात्मिक उन्नति करने से पहिले उसकी भौतिक उन्नति करने मे सलग्न रहते है ।' दीक्षा लेने के पश्चात् भी उनके हृदय में दया का असीम प्रवाह तरगित रहता है । फलस्वरूप एक गरीब ब्राह्मण के दुख से दयार्द्र हो उठते है और उसे अपना एकमात्र आवरण वस्त्र भी दे डालते हैं ।" जैन सम्राट् चन्द्रगुप्त भी सेवा के क्षेत्र में पीछे नही रहे है । उनके प्रजाहित के कार्य सर्वत सुप्रसिद्ध हैं । सम्राट् सप्रति की सेवा भी कुछ कम नही है । जैन इतिहास का साधारण से साधारण विद्यार्थी भी जान सकता है कि सम्राट् के हृदय में जनसेवा की भावना किस प्रकार कूट-कूट कर भरी हुई थी और किस प्रकार उन्होने उसे कार्य स्प में परिणत कर जैन संस्कृति के गौरव की रक्षा की। महाराजा कलिंग, चक्रवर्ती खारवेल और गुर्जर नरेश कुमारपाल भी सेवा के क्षेत्र में जैन सस्कृति की मर्यादा को बराबर सुरक्षित रखते रहे हैं । मध्यकाल में जगडूशाह, पेथड और भामाशाह जैसे धनकुवेर जन-समाज के कल्याण के लिए अपने सर्वस्व की आहुति दे डालते है और स्वय कगाल हो जाते है । जैन समाज ने जन-समाज की क्या सेवा की है। इसके लिए सुदूर इतिहास को अलग रहने दीजिये, केवल गुजरात, मारवाड, मेवाड या कर्नाटक आदि प्रान्तो का एक वार भ्रमण करिये, इधर उधर खडहरो के रूप में पडे हुए ईंट-पत्थरो पर नज़र डालिये, पहाडो की चट्टानो के शिलालेख पढिये, जहाँ-तहाँ देहात में फैले हुए जन-प्रवाद सुनिये । श्रापको मालूम हो जायगा कि जैन संस्कृति क्या है ? उसके साथ जन सेवा का कितना अधिक घनिष्ठ सवध है ? जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, सस्कृति व्यक्ति की नही होती, समाज की होती है और समाज की संस्कृति का यह अर्थ है कि समाज अधिक-से-अधिक सेवा की भावना से ओत-प्रोत हो, उसमें द्वेष नही, प्रेम हो, द्वैत नही, अद्वैत हो, एक रग-ढंग हो, एक रहन-सहन हो, एक परिवार हो । सस्कृति का यह विशाल आदर्श जैन संस्कृति में पूर्णतया घट रहा है । इसके लिए इसका गौरवपूर्ण उज्ज्वल भूतकाल पद-पद पर साक्षी है। मैं श्राशा करता हूँ, आज का पिछडा हुआ जैन समाज भी अपने महान् अतीत के गौरव की रक्षा करेगा और भारत की वर्तमान विकट परिस्थिति विना जाति, धर्म, कुल या देश के भेदभाव के दरिद्रनारायण मात्र की सेवा में अग्रणी भाग लेगा । १ श्राचाराग, महावीर जीवन । प्राचार्य हेमचन्द्र कृत महावीर चरित्र । २ Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज-सेवा महात्मा भगवानदीन प्रेमी जी का अभिनन्दन मै उनकी मनलगती कह कर करूं या अपनी मनलगती? वे खरे प्रकाशक रह चुके है और औरो की मनलगती सुनने के अभ्यस्त है। उसको औरो तक पहुंचाने में उन्हें आनन्द आता रहा है । इसलिए में अपनी मनलगती ही कहूँगा। आश्रम (ब्रह्मचर्याश्रम-हस्तिनापुर) का सर्वेसर्वा होने पर भी अनेक बन्धनो में जकडे होने में मुझे अपनी जान से प्यारे ब्रह्मचारियो को वह सिखाना पडता था और मीखने देना पडता था, जिसे मै जी से नहीं चाहता था। मेरे अध्यापको में एक से ज्यादा ऐसे थे, जिन्हें मेरी तरह उस बात के सिखाने में दुख होता था, जिसे वे ठीक नहीं समझते थे। उस तकलीफ ने समाज-सेवा के सबध में मेरे मन में एक जवर्दस्त क्रान्ति पैदा कर दी और मुझे माफसाफ दिखाई देने लगा कि समाज-सेवा और समाज-दासत्व दो अलग-अलग चीजे हैं। समाज-सेवा से समाज ऊँचा उठता और समाज-दासत्व से समाज का पतन होता है । आत्म-विकास, आत्म-प्रकाश, मौलिकता और नवसर्जन से समाज-सेवा होती है। लीक-लीक चलने से समाज की दासता हो सकती है, मेवा नही | व्यक्ति के सुग्व में ही समाज का सुख है, समाज के सुख में व्यक्ति का सुख नहीं और समाज का भी नहीं। आज जिस सुख को सुख मान कर समाज सुखी हो रहा है, वह सुख नही, मुखाभास है, सुख की छाया है, झूठा सुख है। सुख क्या है, वह कैसे मिलेगा, समाज सुखी कैसे होगा, यह जान लेनाही समाज-सेवा है। इसलिए उसी पर कुछ कह-सुन लू और इस नाते लिख कर भी थोडी समाज-सेवा कर लू ।। खेती-युग मे दुख रहा तो रहा, मशीन-युग में क्यो? खाने के लिए विस्कुट के कारखाने, पहनने के लिए कपडे की मिलें, सैर-सपाटे के लिए मोटर, रेलें, हवाई जहाज, वीमारी से बचने के लिए पेटेंट दवाएं, बूढे से जवान बनन के लिए ग्लेड चिकित्सा, कानो के लिए रेडियो, अांखो के लिए सिनेमा, नाक के लिए सस्ते सेन्ट, जोम के लिए चाकलेट, लाइमजूस, क्रीम, देह के लिए मुलायम गद्दे, यहाँ तक कि मन के लिए भी किसी बात का टोटा नहींगुदगुदाने वाली कहानियां, हँसाने वाले निवध, अचरज में डालने वाली जासूमी कहानियाँ, रुलाने वाले उपन्यास, उभारने वाली वक्तृताएँ, सभी कुछ तो है। रुपया ? रुपये का क्या टोटा। उन्तीस रुपये कुछ पाने में एक लाख के रुपये वाले नोट तैयार हो जाते है और वे उन्तीस रुपये भी कागज के हो तो काम चल सकता है। सरकार वाजीगर की तरह घर-घर में अगर चाहे तो रुपयो का ढेर लगा सकती है। वाजीगर को हाथ की सफाई से सरकार की सफाई कई गुनी बढी चढो है। ___मतलब यह कि यह युग खपत से कही ज्यादा पैदावार का युग है, सुख को वाढ का युग है, चीजो को भरमार का युग है, जी दुखाने का नही, आँसू बहाने का नही, रोने-चिल्लाने का नहीं। है । फिर यह कौन रोता है ? क्यो रोता है ? किसलिए रोता है ? रोने का नाटक तो नहीं करता? अगर सचमुच रोता है तो विस्कुट, कपडे और रुपयो की वाढ में डूब कर दम घुटने से ही रोता होगा। सुख मोटा होकर ही काम का हो सके, यह नही, वह बढिया भी होना चाहिए। हलवा गालियो के साथ म ठा नहीं लगता। मुफ्त में पाये प्रोवरकोट से जाडा नही जाता,बे पैसे की सवारी में मजा नही आता, सुख का सुख भोगने को ताकत विदेशी राज्य ने रगड दी, विदेशी व्यापार ने पकड ली, विदेशी तालीम ने जकड दी, विदेशी वेश-भूषा से लजा गई और विदेशी वोली से मुरझा गई। Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-सेवा ६३३ खाने का लुत्फ वनाने के तरीको पर निर्भर है, कपडे की खूबसूरती उसके काट में हैं, श्रमदनी का सुख इसमें है कि वह कैसे कमाई गई है । पाँच वार खाकर, घटे-घटे बाद कपडे बदल कर, कई कमरे वाले मकान में रह कर, सुख नही मिलता । सुख के लिए ऐमा काम चाहिए, जिसके द्वारा में यह बता सकू कि मैं क्या हूँ ? जिनके लिए काम करूं, वे माँ-बाप, वे सवधी भी चाहिए। मेरी मर्जी की तालीम न मिली तो सव सुख वेकार, मेरी मर्जी का समाज न मिला तो सव सुख भार । इस वाढ -युग के मुकाबले में पहले युग का नाम श्राप सूखा-युग रख लीजिए, पर उस युग में ये सब चीजें मिल जाती थी । श्राजकल कारखाने चीजें बनाने मे जुटे हैं। सरकार परमाणु बम बनाने में । सुख उपजाने की किसी को फुरसत नही । चीजो की भरमार से और एटम बम की दहाड से सुख की परछाई देखने को मिलेगी, सुख नही । हलवाई की तवित मिठाई से ऊब जाती है यानी उसे सुख की जगह दुख देने लगती है। रेल का गार्ड रेल की सवारी को ग्राफ समझता है । खपत से उपज कुछ कम हो तो सुख मिले। खपत की वरावर हो तो हर्ज नही, पर खपत से ज्यादा हो तो दुख ही होगा । डाक-वाबू को यह पता नही कि उसके कितने बच्चे है, जहाज के कप्तान को यह पता नही कि उसके माँ-बाप भी है और उसका विवाह भी हो गया है, जुलाहे को पता नही कि वह तरह-तरह के वेल-बूटे भी बना सकता है । सुख जिसका नाम है वह कही रह ही नही गया । खाओ - पहिनो दौडो । सुख से कोई सरोकार नही । फटफटिया की फटफट, घुंग्रा - गाडी की भक-भक, हवाई जहाजो की खरखर, मिलो की घर-घर । बाहर चैन कहाँ । पखे की सर-सर, टाइपराइटर की क्लिक क्लिक, स्टोव की शू-शू, रेडियो की रुँ-रूं, घर में प्राराम कहाँ । छब्बे होने चले थे, दुवे रह गये । सुख की खोज में गांठ का सुग्व भी गंवा बैठे। वह मिलेगा, इसमें शक है । सुख लोगो को आजकल कभी मिलता नही । इसलिए वे उसे भूल गये, अगर वह आये तो उसे पहचान भी नही सकते । भीतर का सुख और बाहर का सुख दोनो ही भूल गये । सुख उस हालत का नाम है, जिसमें हम आजाद हो, कोई हमे हमारी मर्जी के खिलाफ न सताए, न भूखो मारे, न जाडा-गर्मी सहने को कहे । इतना ही नही, हमारी मर्जी के खिलाफ न हमे खिलाए, न पहिनाये, श्रौर न सैर कराये । सुखबीच की अवस्था में है, खीचतान में नही । मर्जी से किये सब कामो में सुख है -- बर्फ में गलने में, श्राग मे जलने में, डूबने में और ऊबने में भी । वेवात की मेहनत में भी सुख नही । लगन और उद्देश्य विना किसी काम में सुख नही । सुख एक हालत तो है, पर है वह तन- मन-मस्तक तीनो की । भूखो मर कर सुख न मिलेगा और पाषाण हृदय होकर भी नही । पेट भरी वकरी भेडिये के पास वांघने से दुवली हो जाती है तो राम भजन करने वाला सत भी भूखा रह कर दुबला हो जावेगा । सुख की पहेली का एक ही हल है । धर्म से कमाए और मौज करे (धर्म अर्थ काम) । धर्म से कमाने का अर्थ है खपत के अनुसार पैदा करना । कमाने में मौज करने की योग्यता गँवा बैठना बुद्धिमानी नही है । इतना थकने से फायदा, किखा भी न सको ? थककर भूखे ही सो जाओ ? पैसे से वेचैनी तो देह भी नही चाहती, पर यहाँ तो मन और मस्तक विक रहे है । तन-मन और मस्तक सभी विक गये तो सुख कौन भोगेगा ? विको मत, विकना गुलामी है । गुलामी में सुख कहाँ ? दुख मे मीठा कडवा हो जाता है । कपडा देह का भार हो जाता है । तमाशा काटने को दौडता है । मवारी खीचती नही, घमीटती-सी मालूम होती है । बना बनाया खाने मे खाने भर का मजा । वना कर खाने में दो मजे - एक बनाने का और एक खाने का । मिलो में चीजें बनती है । तुम्हारे लिए नही बनती। घर मे चीजें बनती है । वे तुम्हारे लिए वनती है । तुम्हारी रुचि का ध्यान रखकर बनाई जाती है। तुम्हारे स्वास्थ्य का भी ध्यान रक्खा जाता है । अपनी चीज़ अपने आप वनी कुछ और ही होती है । सभी तो बनी-बनाई काम मे ला रहे है। ? ५० Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ __ लाने दो, वे पास खडे सुख को पहिचानते ही नहीं। अपनायें कैसे । तुम पहिचान गये हो, अपनायो। उसके अपनाने से सोना, स्वास्थ्य, सुख तीनो हाथ पायेंगे। सुख से सुख और उस सुख से और सुख मिलेगा। सुख तुम में से फूट कर निकलने लगेगा। धीरे-धीरे मव तुम्हारे रास्ते पर आ जायेंगे, उन्होने अव तक सुख देखा ही नहीं। अब देखने को मिलेगा तो फिर क्यो न अपनायेंगे ? श्रम से सुख है, मेहनत में मौज है। श्रम विका सुख गया। मेहनत विकी, मौज गई। पंसा पाया वह न खाया जाता है न पहिना जाता है। चीजे मोल लेते फिरो। भागे-भागे फिरो, जमीदार के पास, वजाज के पाम, बनिये के पाम, सिनेमाघरो में, स्कूलो में। लो, खराव चीजे और दो दुगने दाम। कभी सस्ता रोता था वार-वार, प्राज अकरा रोता है हजार वार । सुख चाहते हो तो वडा न सही, छोटामाही घर वनायो। चर्खा खरीदो, चाहे महँगाही मिले। कर्पा लगाओ, चाहे घर की छोटी सी कोठरी भी घिर जाये। जरूरी औजार खरीदो, चाहे एक दिन भूसा मरना पडे। खेत जोतोवोमो, चाहे खून पसीना एक हो जाये। गाय-घोडा रक्खो, चाहे रात को नीद न ले सको। विक्री की चीज न बनो। विगड जानोगे। अगर विकनाही है तो काम की उपज को विको। सुख पाओगे। खाने भर के लिए पैदा करो, थोडा ज्यादा हो जाय तो उसके बदले में उन्ही चीजो को लो, जो सचमुच तुम्हारे लिये जरूरी है और जिन्हें तुम पैदा करना नहीं जानते। कमाना और वेचना, कमाना और गंवाना है । कमाना और खाना, कमाना और सुख पाना है। काम के लिए काम करने में सुख कहाँ ? अपनो के लिए और अपने लिये काम करने मे सुख है। सुस की चीजे बनाने में सुख नही । अपने सुख की चीजे बनाने में सुख है । जव भी तुम पैसो से अपने को वेचते हो, अपनी मलमनमियत को भी माथ बेच देते हो। उमी के साथ सच्ची भली जिंदगी भी चली जाती है। मन और मस्तक सव विक जाते है। तुम न विकोगे, ये सब भी न विकेगे। भलमन्सी की बुनियादी जरुरते यानी कुटिया, जमीन, चर्खा, कर्घा वगैरह बनी रहेगी तो तुम भी बने रहोगे और सुख भी पाते रहोगे। सुख भलो के पास ही रहता है, वुरो के पास नहीं। जो वुरो के पास है वह सुख नही है, सुख की छाया है। ___गाडी में जुत कर वैल घास-दाना पा सकता है, कुछ मोटा भी हो सकता है, सुखी नही हो सकता। सुखी होने के लिए उसे घास-दाना जुटाना पडेगा, यानी निवुन्द होकर जगल मे फिर कर घास खाना होगा। तुम पैसा कमा रोटी-कपडा जुटा लो, सुख-सन्तोप नही पा सकते। रोटी-कपडा कमाने से मिलेगा, पैसा कमाने से नहीं। रोटीन कमा कर पैसा कमाने मे एक और ऐव है । घर तीन-तेरह हो जाता है। घर जुटाने वाले माता-पिता और अविवाहित वच्चे अलग-अलग हो जाते है। वाप दफ्तर चल देता है और अगर मां पढ़ी-लिखी हुई तो वह स्कूल चल देती है, वालक घर में सनाथ होते हुए अनाथ हो जाते है। यह कोई घर है ? वासना के नाते जोडा झमेला है। वह वासना कुछ कुदरती तौर पर और कुछ दफ्तरो के वोझ से पिचपिचा कर ऐसी वेकार-सी रह गई है, जैसे वकरी के गले में लटकते हुए थन । घर को घर बनाने के लिए उसे कमाई की सस्था बनाना होगा। वह कोरी खपत की कोठरी न रह कर उपज का कारखाना बनेगी। आदमी मुंह से खाता है तो उसे हाथ से कमाना भी चाहिए। इसी तरह एक कुटुम्ब को एक आदमी बन जाना चाहिए, कोई खेत जोत-बो रहा है, कोई कात रहा है, कोई बुन रहा है, कोई खाना बना रहा है, कोई मकान चिन रहा है, कोई कुछ, और कोई कुछ। इधर-उधर मारे-मारे फिरने से यह जीवन सच्चा सुख देने वाला होगा। आज भी गांव शहर से ज्यादा सुखी है । वे अपना दूध पैदा कर लेते है, मक्खन वना लेते हैं, रुई उगा लेते है, सब्जी वो लेते है, अनाज तैयार कर लेते है और सबसे बडी बात तो यह कि घर को वीरान नही होने देते। शहर Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-सेवा ६३५ वाले ये सब चीजें पैसे ने खरीदते है, घर वारह वाट कर गले में गुलामी का नोक डाले सुबह-सुबह खरगोश की चाल जाते हैं और शाम को कछुए की चाल घिसटते-घिसटते घर आते है। वृक्ष का अपना कोई सुख नहीं होता, जडो का नीचे तक जाना और खुराक खीचने के लिए काफी मजबूत होना,पीड काडालियो और पत्तो के बोझ को सभाले रखने के लिए काफी मोटा होना और रस ऊपर ले जाने के लिए पुरा योग्य होना, डालो का मुलायम होना और पत्तो का हरा-भरा होना इत्यादि ही पेड का सुख है। ठीक इसी तरह समाज का अपना कोई सुख नहीं। वह समाज सुखो है, जिसके बच्चे, जवान, बूढे, औरत-मर्द सुखी है, भरे-वदन है, हँसते चेहरे है, ऊंची पेशानी है, खातिरदारी के नमूने है, समझदारी के पुतले है, आदमी को शकल में फरिश्ते है । ऐसे ही मनुष्यो की जिन्दगी के लिए देवता तरमते हैं। जिस्म बनाने के लिए खाना, कपडा और मकान चाहिए। जी हाँ, चाहिए, पर उन चीजो के जुटाने मे अगर आपने देह को थका मारा तो वे मुख न देकर आपको काटेगे, खसोटेगे, रुला देगे। मेहनत से आप ये चीजें जुटाइये, पर ऐसी मेहनत से,जिसमे लगकर आपकाजिम्म फूल उठे, आपका मन उमग उठे,आपका जी लग सके, आपका दिमाग ताजगी पा सके, आपकी प्रात्मा चैन माने और जिस काम मे आप अपने को दिखा रहे हो कि आप क्या है, जिस काम मे आपका पात्म-विकाम न हो, आपका आत्म-प्रकाश न हो, उसे कभी न करना। वह काम नही, बेगार है। वदले मे ढेरोरुपये मिले तो भी न करना। असल में जी न लगने वाले कामो मे लगकर जी मर जाताहै। मरे जी, मरी तबियतें सुख का आनन्द कैमे ले मकती है ? दोस्तो, समाज को सुखी बनाने के लिए अपना वक्त जाया न करो। वह सुखी न होगा। वह मशीन है। वह जानदार नहीं है। वह तुम मव का मिल कर एक नाम है। तुम अपने को सुखी वनायो, वह सुखी है। यह नहीं हो रहा। जैसे बहुत खाने मे सुस नहीं होता, भूखो मरने से भी सुख नही मिलता, वैसे ही वहुत कमाने से सुख नहीं मिलता और न विलकुल बेकार रहने मे । जो वेहद कमा रहे है, वे विलकुल सुखी नही। वे असल में कमाही नही रहे। उनके लिए और कमा रहे है और जो और कमा रहे है वे यो सुखी नही है कि वे अपने लिए नहीं कमा रहे । यो समाज में कोई सुखी नहीं है और इमी वजह से समाज मे कही पहाड और कही खाई वन गई है। समतल भूमि नाम को नही रही। समता में सुख है । समता का नाम ही समाज है। अगर समता का नाम समाज नही है तो उस समता को पैदा करने के लिए ही उसकाजन्म होता है। समता होने तक समाज चैन नही लेता। चैन पा भी नहीं सकता। खाना, कपडा, मकान दुख पाये विना मिल सकते है, जरूर मिल सकते है, विला शक मिल सकते है और अगर नहीं मिल सकते तो सुख भी नहीं मिल मकता। फिर समाज का ढाचा वेकार। उसका पैदा होना बेसूद, उसकी हस्ती निकम्मी । अगर पाराम को निहायत जसरी चीजे जुटाने मे भी हमें अपने पर शक है तो सुख हमारे पास न फटकेगा। फिर तो हम मोहताज से भी गयेबीते है। फिर बच्चे के माने अनाथ । जवान के माने टुकरखोर, और बूढे के माने जीते-जी-मुर्दा। सांस लेकर खून की खुराक हवा, हम हमेशा से खीचते आये है, खीच रहे है और खीचते रहेंगे। फिर हाथपावहिलाने से जिस्म की खुराक रोटी, कपडा, मकान क्यो न पायेगे? हम पाते तो रहे है, पर पानहीं रहे है। कोशिश करने से पा सकते है और पाते रहेंगे। हवा हम खुद खीचते है, अनाज और कपास भी हम खुद उगायेंगे। मकान भी आप बनायेंगे। हमने अब तक धन ढूढा, धन ही हाथ आया। अव सुख को खोज करेगे और उसे ढूंढ निकालेंगे। जर, जमीन, जबर्दस्ती की मेहनत और जरा सख्त इन्तजामी से पैसा कमाया जाता है तो चार बीघे जमीन स चार घडी सुबह-शाम जुट जाने से, चर्खे जैसी मशीनो के बल से और चतुराई की चौंटनी जितनी चिनगारी से चैन और सुख भी पाया जा सकता है । Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ नये युग में नये अर्थ - शास्त्र से काम चलेगा, पुराने से नही । चार बीघे जमीन का दूसरा नाम है घर-वार । घर वह जिसमे हम रहते हैं । घरवार वह, जिसमें हम सुख से रहते है, यानी उसमें हम कमा-खा भी लेते है । ६३६ आदमी, भूचर थलचर प्राणी है । वह हवा में भले ही 'उड ले और सागर में भले ही तैर ले, पर जीता जमीन से है और मर कर उसी में मिल जाता है । वह जमीन से ही जियेगा और यह ही उसका जीने का तरीका ठीक माना जायगा । जमीन उसे जो चाहे करने देगी और जी चाहे जैसे रहने देगी । उसे हर तरह आजाद कर देगी । वह ज़मीन से हट कर ज़वर मे ज़ेर हो जायेगा । आज़ादी खोकर गुलामी बुला लेगा । आजादी के साथ सुख का प्रत हो जावेगा । दुख प्रा जुटेगा और वह देवता से कोरा दुपाया रह जायेगा । जव हमारे पास ज़मीन थी हम सुखी थे और हमने वेद रच डाले । दशरथ और जनक हल चलाते थे, कौरव और पाडव खेत जोतते-त्रोते थे । वे श्राज भी जीवित है और हमें पाठ दे रहे हैं। सुख जमीन में है श्रौर व्ही से मिलेगा। जिस दिन तुमने जमीन लेकर फावडा उठाया, उसी दिन तुम्हारा सुख तुम्हारे सामने हरी-हरी खेती वन कर लहराया और जिस दिन उसी खेती से लगी अपनी छोटी सी कुटिया में बैठ कर चर्खा चलाते चलाते तुमने वेद से भी ऊँची ज्ञान की तान छेड़ी कि सुख अप्सरा का रूप रख तुम्हारे सामने नाचने लगेगा । फिर किस सेठ की मजाल है जो तुमसे आकर कहे कि प्रायो, मेरी मिल मे काम करना या मेरी मिल के मैनेजर बनना। कौन राजनेता तुमको सिपाही बनाने या वजारत की कुर्सी पर बिठाने की सोचेगा ? और कौन सेनापति तुमको फौज में भर्ती होने के लिए ललकारेगा ? ये सब तो तुम्हारे सामने दुजानू हो ( दडवत कर) सुख की भीख मागेगे। सच्चा गायक हुक्म पाकर राग नही छेडता, सच्चा चित्रकार रुपयो की खातिर चित्र नही बनाता। गायक गाता है, अपनी लहर में आकर । चित्रकार चित्र वनाता अपनी मौज मे आकर । ठीक इसी तरह तुम भी वह करो, जो तुम्हारा जी चाहे, जिसमें तुम खिल उठो, जिसमें तुम कुछ पैदा कर दिखाओ, जिसमे तुम कुछ बना कर दे जाओ। ऐसा करने पर सुख तुम्हारे सामने हाथ बाँधे खडा रहेगा । आजकल 'मेहनत बचाओ', 'वक्त बचाओ' की आवाज़ चारो ओर से आ रही है। मेहनत बचाने वाली और वक्त बचाने वाली मशीने आयेदिन गढी जा रही है। परम पवित्र श्रम को कुत्ते की तरह दुर्दुराया जा रहा है । समय जिसकी हद नहीं, उसके कम हो जाने का भूत सवार है । एक ओर समय के निस्सीम होने पर व्याख्यान दिया जा रहा है और दूसरी ओर गाडी छूट जाने के डर से व्याख्यान अधूरा छोडकर भागा जा रहा है। यह क्या । एक ओर श्रम की महत्ता पर बडे-वडे भाषण हो रहे है, दूसरी ओर उसी से बच कर भागने की तरकीबे सोची जा रही है । खूब काम के वारे में लोगो का कहना, है " काम करना पडता है, करना चाहिए नही ।" उन्ही का खेल के बारे में कथन है, "खेलने को जी चाहता है, पर वक्त ही नही मिलता ।" इन विचारो मे लोगो का क्या दोष ? समाज का दोष है | हर एक से वह काम लिया जा रहा है, जिसे वह करना नही चाहता और वह भी इतना लिया जाता है कि उसे काम नाम मे नफरत हो जाती है । उसको सचमुच खेल में सुख मिलता-सा मालूम होता है । 1 काम में खेल की अपेक्षा हजार गुना सुख है, पर उस सुख को तो समाज ने मिलो को भेट चढा दिया । आदमी को मशीन बना दिया। मशीन सुख कैसे भोगे ? माली को, किसान को, कुम्हार को चमार को, जुलाहे को, दरजी को, बढई को, मूर्तिकार को, चित्रकार को, उनकी प्यारी-प्यारी पत्नियाँ रोज खाना खाने के लिए खुशामद करती देखी जाती है । वे काम से हटाये नही हटते । कभी-कभी तो इनने तल्लीन पाये जाते हैं कि वे सच्चे जी से अपनी पत्नियो से कह बैठते है, "क्या सचमुच हमने अभी साना नही खाया ?" यह मुन उनकी सहधर्मिणी मुम्करा देती है और उनके हाथ से काम के प्रोज़ार लेकर उन्हें प्यार मे साना खिलाने ले जाती हैं सुख यहाँ है । यह सुख दफ्तर के बाबू को कहाँ ? मिल के मालिक को कहाँ ? सिपाही को कहाँ ? उनकी वीवियाँ तो वाट जोहते - जोहते थक जाती है । एक रोज़ नही, रोज़ यही होता है । Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-सेवा ६३७ महब्बत इस बेहद इन्तजार की रगड से गरमा जाती है और आग की चिनगारियां उगलने लगती है। इसका दोप वीवी को न लगा कर समाज को ही लगाना चाहिए। कुम्हारिन, चमारिन वगैरह अपनी आँखो अपने पतियो को कुछ पैदा करते देखती है, कुछ बनाते देखती है, कुछ उगलते देखता है, कुछ उमगते देखती है, कुछ मानद पाते देखती हैं, पर सेठो की औरतें इन्तजार में सिर्फ घटियाँ गिनती है और अगर देखती है तो यह देखती है कि उनके पति घिसटतेघिसटते चले आ रहे है, या पांव के पहिये लुडकाते आ रहे है, या मोटर में बैठ प्रोघते आ रहे है। वे उनकी दया के पात्र रह जाते है, मुहब्बत के नहीं । कुम्हार का चेहरा काम के बाद चमकेगा, वजीर का मुरझावेगा। कुम्हार के जी में होगी कि थोडी देर और काम करता, वजीर के जी में होगी कि जरा जल्दी ही छुट्टी मिल जाती तो अच्छा होता। अदर होता है, वही वाहर चमकता है। जो चमकता है, उसी हिसाव से स्वागत मिलता है। जिसे काम मे सुख नही, वही उसे खेल में ढूढेगा। वहाँ वह उसको मिल भी जायेगा। उसके लिये तो काम से वचना ही सुख है वह काम से तो किसी तरह वच जाता है, पर काम की चिंता से नहीं बच पाता। खेल मे भी जी से नहीं लग पाता। वहाँ से भी सुख के लिहाज से खाली हाथ ही लौटता है। 'काम के घटे कम करो'--यह शोर मच रहा है और यह प्रलय के दिन तक मचता रहेगा। काम आठ घटे की बजाय आप घटे का भी कर दिया जाये तव भी सुख न मिलेगा। ऊपर नीचे हाथ किये जाने मे आप घटे में ही तवियत ऊब जायेगी। पांच मिनट को भी मशीन वनने मे सूख नही। एक मिनट की गुलामी दिन भर का खुनचुस लेती है। काम के घटे कम करने से काम न चलेगा। काम को बदलना होगा। काम अभी तक साधन बना हुआ है । उसे साधन और साध्य दोनो वनना होगा। चार मील सर पर दूध रख, बाजार पहुँच, हलवाई को वेच और बदले मे रवडी खाने मे वह सुख नही है, जो घर पर उसी दूध की रवडी बना कर खाने में है। सावन को साध्य में बदलते ही सुख मिल सकेगा और वही सच्चा सुख होगा। विना समझे-सोचे पहिया घुमाये जाना, हथौडा चलाये जाना, तार काटे जाना, कागज़ उठाये जाना, उजड्डपन या पागलपन के काम है। इनको मिल-मालिक भला और समझदारी का काम बताते है और नाज, तरकारी और फल उगाने के शानदार काम को बेअक्ली और नासमझी का बताते है । खूब | किया उन्होने दोनो मे से एक नही। पेट भरने के लिए मेहनत की जाती है। यह सच है, पर इसमे एक-चौथाई सचाई है। तीन-चौथाई सचाई इसमें है कि हम मेहनत इसलिए करते है कि हम जीते रहें और आनन्द के साथ जिन्दगी बिता सके और गुलामी का गलीज धब्बा अपनी ज़िन्दगी की चादर पर न लगने दें। हम पेट भरने के लिए हलवा बनाये, यह ठीक है, पर हम ही उमको खायें-खिलावें, यह सवाठीक है, और हम ही उसके बनाने का आनन्द ले, यह डेढ ठीक है। मेहनत हमारी, उपज हमारी, तजुरुवा हमारा। तव सच्चा सुख भी हमारा।। ___ जानवर रस्सी से वधताहै, यानी जगह से वधता है। शेर भी मांद मे रह कर जगह से वधता है। और आदमी? वह घर में रह कर जगह से वधता है और दस वजे दफ्तर जाकर वक्त से बँधता है । वाह रे प्राणी श्रेष्ठ । चिडिया फुदकती फिरती है और खाती फिरती है । उसे ९-१०-११ बजने से कोई सरोकार नहीं। आदमी के अद्धे, पौवे वजते हैं, मिनटो का हिसाव रक्खा जाता है। सिकडो की कीमत आंकी जाती है और कहा यह जाता है कि उसने जगह (Space)और वक्त (Time) दोनो पर काबू पा लिया है । हमे तो ऐसा जंचता है कि वह दोनो के काबू में आ गया है। और लीजिये। हमें वाप-दादो की इज्जत रखना है और नाती-पोतो के लिए धन छोड जाना है, यानी स्वर्गवासियो को सुख पहचाना है और उनको जिन्होने अभी जन्म भी नहीं लिया। तव हम वीच वालो को मुख कैमे मिल सकता है? Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन- प्रथ अगले-पिछलो को भूल जाना, जानवर बनना नही है, सच्चा श्रादमी बनना है । हमारे सुखी रहने मे, हमारे पिछले सुखी और हमारे अगले सुखी । सुखी ही सुखी सन्तान छोड जाते है और सुखी देख कर ही स्वर्गीय सुखी होते है | बेमतलव की मेहनत में समय खर्च करना गुनाह है । वक्त पूजी है । उसे काम में खर्च करना चाहिए और ऐसे काम में जो अपने काम का हो । ६३८ सुख भोगने की ताकत को जाया करने वाले कामो मे लगा कर जो वक्त जाता है, उस कमी को न गाना पूरा कर सकता है, न खेल, न बजाना पूरा कर सकता है, न तमाशा और न कोई और चीज़ । कपडा खतम कर धव्वा छुडाना, धन्वा छुडाना नही कहलाता। ठीक इसी तरह आदमी को निकाल कर वक्त बचाना, वक्त बचाना नही हो सकता । मिलें यही कर रही है । सौ श्रादमी की जगह दस और दस की जगह एक से काम लेकर निन्यानवे को बेकार कर रही हैं। काम में लगे एक को भी सुख से वंचित कर रही है । यो सौ के सौ का सुख हडप करती जा रही है । मिल और मशीन एक चीज़ नही । मिल श्रादमी के सुख को खाती है और मशीन आदमी को सुख पहुँचाती है। मशीन सुख से जनमी है, मिल शरारत से । चर्खा मशीन है, कोल्हू मशीन है, चाक मशीन है, सीने की मशीन मशीन है। मशीनें घर को आवाद करती है, मिलें वरवाद करती है। मशीन कुछ सिखाती है, मिल कुछ भुलाती है । मशीन सेवा करती है, मिल सेवा लेती है। मशीन पैदा करती है, मिल पैदा करवाती है। मशीन समाज का ढांचा बनाती है, मिल उसी को ढाती है। मशीन चरित्र बनाती है, मिल उसको धूल मे मिलाती है। मशीन गाती है, मिल चिल्लाती है | मशीन धर्मपत्नी की तरह घर में आकर बसती हैं, मिले वेश्या की तरह अपने घर बुलाती है और खून चूस कर निकाल बाहर करती है। मशीन चलाने में मन हिलोरें लेता है, मिल में काम करने में मन चकराने लगता है, जी घबराने लगता है। मशीनें पुरानी है । हमसे हिलमिल गई है। मिलें नई है और कर्कश स्वभाव की है। मशीनें हमारे कहने में रहती हैं, मिले हमारी एक नही सुनती । मतलब यह कि मशीन और मिल का कोई मुकावला नही । एक देवी, दूसरी राक्षसी है । मशीनो की पैदावार का ठीक-ठीक बटवारा होता है। मिलो का न होता है, और न हो सकता है और अगर मार-पीट कर ठीक कर दिया जाय तो तरह-तरह की दुर्गंध फैलेगी, बेकारी फैलेगी, बदकारी फैलेगी, बीमारी फैलेगी श्रीर न जाने क्या-क्या । मशीन पर लगाया हुआ पैसा घी-दूध में वदल जाता है, मिलो पर लगाया हुआ पैसा लाठी, तलवार, बदूक, वम वन जाता है | J एक का सुख जिसमें हैं, सबका सुख उसमें है । एक को भुला कर सब के सुख की मोचना सब के दुख की सोचना है। मिले सैकडों का जी दुखा कर शायद ही किसी एक को झूठा सुख दे सकती हो। झूठा सुख यो कि वे मुफ्त क रुपया देती है और काफी से ज्यादा धन से ऊवा देती है । ऊवने में सुख कहाँ ? ऊपर बताये तरीको से सुख मिल सकता है, पर उस सुख को बुद्धि के जरिये बहुत वढाया जा सकता है । ज्ञान बाहिरी श्राराम को अन्दर ले जाकर कोने-कोने में पहुँचा देता है । अनुभव, विद्या, हिम्मत वगैरह से ज्ञान कुछ ऊँची चीज़ है । वही अपनी चीज है। और चीज़े उससे वहुत नीची है। ज्ञानी आत्म-सुख खोकर जिस्मानी आराम नही चाहेगा । भेडिये की तरह कुत्ते के पट्टे पर उसकी नजर फौरन पहुँचती है। उसको यह पता रहता है कि आदमी को कहाँ, किस तरह, किस रास्ते पहुँचना है। जो यह नही जानता वह प्रादमियत को नही जानता और फिर वह आदमी कैसा ? समझ में नहीं आता, दुनिया धन कमाने मे धीरज खोकर अपने को घी-मान कैसे जाने हुए है । वह घन की बुन में पागल बनी हुई हैं और उसी पागलपन का नाम उसने वुद्धिमानी रख छोडा है । खूव । उसने सारे सन्तमहन्तो को महलो में ला विठाया है, गदी गलियो मे मंदिर बना कर न जाने वे उनको क्या सिद्ध करना चाहते है 1 ज्ञान दुनिया इतनी दूर हट गई है कि उसके हमेशा साथ रहने वाला सुख उसकी पहचान में नही आता । सुख का Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 समाज-सेवा ६३६ रूप बनाये असन्तोप उसे लुभाये फिरता है और घुमाये फिरता है । हिरन की तरह लू की लपटो को पानी मान कर दुनिया उनके पीछे-पीछे दौड़ी चली जा रही है। तुम बुद्धिमानी के साथ सुख कमाने में लगो । उसे असतोष के पीछे दौडने दो । कितना ही मूरख क्यो न हो, 'क्यों' और 'कैसे' को अपनाने से वुद्धिमान वन सकता है। अनुभव मे वडी पाठशाला और कौन हो सकती है ? हाँ, दुनिया की लीक छोड कर अपने रास्ते थोडी देर भटक कर ही सीधा रास्ता मिलेगा । ध्यान रहे, आदमी को लीक-लीक चलने में कम-से-कम बुद्धि लगानी पडती है, पर वह लीक सुखपुरी को नही जाती । वह लीक असतोप नगर को जाती है । उस ओर जाने की उसे पीढियो से आदत पडी है । दूसरे रास्ते में ज्यादा-से-ज्यादा बुद्धि लगानी पडती है, ज्यादा मे-ज्यादा जोर लगाना पडता है, वहाँ कोई पग-डडी वनी हुई नही है । हर एक को अपनी बनानी पडती है। हाँ, उस रास्ते चल कर जल्दी ही ज्ञान- नगर दीखने लगता है और फिर हिम्मत वॅब जाती है । कम ही लोग यादत छोड उम रास्ते पर पडते हैं, पर पडते जरूर हैं । जो पडते है, वे ही ज्ञान-नगर पहुँचते हैं और उसके चिर-सायी सुख को पाते हैं । सुख चाहते सव हैं । बहुत पा भी जाते हैं, पर थोडे ही उसे भोग पाते हैं । सुख ज्ञान के बिना भोगा नहीं जा सकता । असतोष नगर की ओर जो बहुत वढ चुके हैं वे सुन कर भी नही सुनते और जान कर भी नहीं जानते । उन्हें भेद भी कैसे बताया जाय, क्योकि वे भेद जानने की इच्छा ही नही रखते । भगवान बुद्ध पर उसका राजा वाप तरस खा सकता था, पाँव छू सकता था, बढिया माल खिला सकता था, पर भेद पूछने की उमे कव मूझ सकती थी । मेठ को स्वप्न भी श्रायेगा तो यह आयेगा कि अमुक साघु विना कुटी का है । उसकी कुटी बना दी जाय । उसे स्वप्न यह नही आ सकता कि वह मावु सुख का भेद जानता है और वह भेद उमसे पूछा जाय । ज्ञानी कहलाने वाले लोग बाज़ार की चीज़ वने हुए हैं। अखवार उठाओ और जी चाहे जितने मँगा लो । जो बाज़ार की चीज बनता है, वह ज्ञानी नही है ! वह क्या है, यह पूछना बेकार है और वताना भी बेकार है । पैदा हुए, बढे, समझाई, दुख-सुख भोगा, बच्चे पैदा किये, वूढे हुए और मर गये | यह है जिन्दगी । एक के लिये और सव के लिये । इसमें सुख कहाँ ? सुखी वह है, जिसने यह समझ लिया कि कैसे जीयें ? क्यो जीयें ? पर यह कौन सोचता है ? और किसे ठीक जवाब मिलता है ? मुसलमान के लिये यह बात क़ुरानगरीफ सोच देता है और हिन्दू के लिये वेद भगवान । फिर लोग क्यो सोचें ? कभी कोई सोचने वाला पैदा हो जाता है, पर उसका सोचा उसके काम का । तुम्हारे किस काम का । वह तुमको सोचने की कहता है। तुम उसका सोचा अपने ऊपर घोप लेते हो । थोपने से तुम्हारा अपना ज्ञान थुप जाता है । सोचने की ताकत जाती रहती है । इस तरह दुनिया वही की वही बनी रहती है । पुजारी पूजा करता रहता है, सिपाही लड़ता रहता है, सेठ पैसा कमाता रहता है, नाईधोबी सेवा करता रहता है । सोचने का रास्ता वद हो जाता है, रूढि रोग रुके का रुका रह जाता है । रूढि रोग से अच्छा होना चमत्कार ही समझना चाहिये । रूढियो मे खोट निकालने लगना और भी वडा चमत्कार है और उन्हें सुख के रास्ते के काँटे बता देना सबसे बडा चमत्कार है । जिन्दगी की अलिफ-वे-ते, यानी आई, यही से शुरू होती है । धर्म भले ही किसी वुद्धिमान की सूझ हो, पर हिन्दू जाति, मुसलमान जाति, ईसाई जाति, जैन जाति, सिख जाति, किसी समझदार की सूझ नही है । यह आप उगने वाली घास की तरह उठ खडी हुई है । इनकी खाद है— कायरता, जगलीपन, उल्टी-सीधी बातें, उजड्डुपन, दब्बूपन वगैरह । आलस के पानी से यह खूब फलती-फूलती है । रिवाजो की जड में, फिर वे चाहे कैसे ही हो, मूर्खता और डर के सिवाय कुछ न मिलेगा। जब किसी को इस वात का पता चल जाता है तो वह उस रिवाज को फौरन तोड डालता है और अपनी समझ से काम लेने लगता है । आज ही नही, सदा से ज्ञान पर शक (संदेह ) होता आया है । कुछ धर्म पुस्तक तो उसको शैतान की चीज़ मानती हैं। जो धर्मपुस्तक ऐसा नही बताती उसके अनुयायी ज्ञान की खिल्ली उडाते हैं और खुले कहते हैं कि ज्ञानी दुराचारी हो सकता है और अज्ञानी भला, पर याद रहे सुखी जीवन ज्ञानी ही विता सकता है, अज्ञानी कदापि नही । Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ ज्ञानी बेगुनाह हो सकता है, भला नहीं। भला वनने के लिये अक्ल चाहिये । वह अज्ञानी के पास कहाँ ? ईंट, पत्थर निष्पाप है, मदिर के भगवान भी निष्पाप है, पर वे कुछ भलाई नहीं कर सकते। सव एक वरावर ज्ञान लेकर नही पैदा होते। हीरा भी पत्थर है और सगमरमर भी पत्थर, पर सगमरमर घिसने परहीरा जैसा नही चमक सकता। पढने-लिखने से समझ नही वढती। हाँ, पहिले से ही समझ होती है तो पढने-लिखने से चमक उठती है । यो सैकडो पढ़े-लिखे रुढियो मे फंस जाते है, वे दया के पात्र है। और क्या कहा जाय? आजकल की दुनिया अक्षर और अको की हो रही है, यानी वी० ए० ए० एमो० की या लखपतियो-करोडपतियो की, समझदारो की नहीं। वह सुखी जीवन में और जीवन सुख के साधनो में कोई अन्तर करना ही नही जानती। दुनिया मे समझदार नही, ऐसी बात नही है। वे है, और काफी तादाद में है, पर वे भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य और विदुर आदि की तरह अक्षरो और अको को विक गये है। जो दो-एक बचे हैं, वे मस्थाएँ खोल कर अपने जाल मे आप फंस गये हैं और उन्ही के यानी अक्षरो और अको में हो गये है। अपनी औलाद की खातिर और मनुष्य-समाज की खातिर वे उस गुलामी से निकले तो दुनिया बदले और दुनिया सुखी हो। याद रहे, दुनिया ममझदारो की नकल करती है, अक्षरो और अको की नही। हमेशा से ऐसा होता पाया है और होता रहेगा। दुनिया असच की ओर दौडी चली जा रही है। कोशिश करने से विलकुल सम्भव है कि वह सच की ओर चल पड़े। दुनिया बुराई मे फंस रही है । जोर लगाने से निकल सकती है और भलाई में लग सकती है। दुनिया दिन-पर-दिन भोडी होती जा रही है। कोशिश करने से शायद मुगढ हो जाय । सत्य, शिव, सुन्दर के लिये भी क्या दासता न छोडेगी? पैसा रोके हुये है। समझदारो को वह कैसे रोकेगा? वे ऐसी अर्थनीति गढ सकते है, जिससे उन्हे मनचाहा काम मिलने लगे और पराधीन भी न रहें। रोटी-कपडे ही से तो काम नही चलता। आत्मानद भी तो चाहिए। विना उस पानद के सुख के साधनो में डूब कर भी सुख न पा सकोगे। समाज की सेवा इसी में है कि वर्तमान अर्थनीति का जाल तोड डाला जाय । ज्ञानियो को नाक रगडना छोडना ही होगा और इस जिम्मेदारी को प्रोढनाही होगा। इस विप के घडे को फोडनाही होगा। अपने को बचाना अपनी सन्तान को बचाना है । मनुष्य-समाज को बचाना है । वह कुरूपी दुनिया तुम्हारे हाथो ही सुखिया बन सकती है । और किसी के बूते सुखिया न बनेगी। . पैसा ठीकरा है । वह तुम्हें क्यो रोके ? पापी पेट रोक रहा है। पापी पेट ने समझदारो को कभी नहीं रोका। उनका जिस्म कमजोर नही होता। वे भूख लगने पर खाते है। वे काम करते है और खेलते जाते है। वे थोडा खाते है और बहुत बार नहीं खाते। वे धीरे-धीरे खाते है । वे कुदरती चीजे खाते है। जरूरत पड़ने पर हाथ की बनी भी खा लेते है। वे घर पर खाते है । वे बीमार क्यो होगे और क्यो कमजोर ? जिस्म तुम्हारा घोडा है । वह तुम्हें क्यो रोकेगा। वह तो तुम्हें आगे, और आगे, ले चलने के लिये तैयार खडा है। समाज रोक रहा है। वह क्या रोकेगा? वह घास की तरह उग खडा हुआ जजाल है । वह सूख चुका है। उसमें अव दम कहाँ ? उसमें रिवाजो के वट है सही, पर वे जली रस्सी की तरह देखने भर के है। अंगुली लगाते विखर जायेंगे। समाज समझदारो को अपने रास्ते जाने देता है। Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-सेवा ६४१ धर्म रोक्ता है। धर्म आगे ढकेला करता है, रोका नहीं करता और अगर वह रोकता है तो धर्म नहीं है । धर्म के रूप मे कोई रूढि या रिवाज है । जो रोकता है, वह धर्म नहीं होता। वह होता है 'धर्म का डर'। धर्म खुद तोडखानी चीज़ नहीं। वह तो बडी लुभावनी चीज़ है, पर धर्म के नाम पर चली रस्में बेहद डरावनी होती है । अगर डराती है तो वे । अगर रोकती है तो वे । उस डर को भगाने में ममझ वढी मददगार सावित होगी। ढर हम में है नहीं। वह हम में पैदा हो जाता है या पैदा करा दिया जाता है। जो डर हम मे है, वह वडे काम की चीजहै। यह इतनाही है जितना जानबरोमे। जिन कारणो से जानवर डरते है, उन्ही कारणो से हम भी। उतना डर नो हमे उतरे मे बचाता है और खतरे को वरवाद करने की ताकत देता है। अचानक वदूक की आवाज़ से हम आज तक उछ न पड़ते हैं। हमारी हमेशा की जानी-पहचानी विजली की चमक हमको आज भी डरा देती है। इतना डरतो काम की चीज़ है, पर जब हम भूत-प्रेत से डरने लगें, नास्तिकता से डरने लगें, नर्क से डरने लगे, मौत मे डरने लगे, प्रलय मे डरने लगे, तब ममझना चाहिये कि हमारा डर वीमारी में बदल गया। उसके इलाज की जरूरत है। तिल्ली और जिगर तो काम की चीजे है, पर बडी तिल्ली और वडा जिगर बीमारियां है। वडा डर भी बीमारी है। मामूली पर हमारी हिफाजत करता है, वढा हुअा डर हमारा खून चूमता है। हमें मिट्टी मे मिला देना है। मिट्टी में मिनने ने पहिले हम उसे ही क्यो न मिट्टी में मिलादें। भूत-प्रेत आदि है नहीं। हमने खयाल से बना लिये है। जने हम अंधेरे में रोज ही तरह-तरह की गकलं बना लेते है। उपोक को धर्म हिम्मत देताहै,तसल्ली देताहै, वच भागने को गली निकाल देताहै। जिन्हें अपने आप सोचना नहीं पाता, धर्म उनके बड़े काम की चीज है। सोचने वाले ना समझदारो के लिए ही तो सोच कर रख गये है। मोचने ममझने वालो के लिये धर्म जाल है, धोका है, छल है। धर्म आये दिन की गुत्थियो को नहीं सुलझा सकता, कभी-कनी और उलझा देना है। धर्म टाल-मटोल का अभ्यस्त है और टालमटोल में नई उलझनें खड़ा कर देता है। मुनी वनने और समाज को सुखी बनाने के लिये यह विलकुल जरूरी है कि हमारे लिये औरो के सोचे धर्म को हम अपने में मे निकाल बाहर करें-उसकी रस्में, उमकी पादते, उमकी छूत-छात, उसका नर्क-स्वर्ग, उसकी तिलक आप, उसकी टाढी-चोटी उसका घोती-पाजामा, एक न बचने दे। नचाई, भलाई और सुन्दरता की खोज में इन मव को लेकर एक कदम भी आगे नहीं बढा जा सकता। मां बच्चे के लिये होवा गढती है । बच्चा डरता है। मां नही डरती। मां क्यो डरे । वह तो उसका गढा हुआ है। महापुरुप एक ऐसी ही चीज़ हमारे लिये गढ जाते है । हम डरते है, वे नही डरते । जो दिखाई-सुनाई नही देता, मोसमझ में नहीं आता, जो सव कही और कही नहीं बताया जाता, ऐसे एक का डर हम में विठा दिया जाता है। धर्म माधारण ज्ञान और विज्ञान की तरह सवाल-पर-सवाल पैदा करने में काफी होशियार है, पर जवाब देने या हल मोच निकालने में बहुत ही कम होशियार । वह होनी वाती को छोड अनहोनी मे जा दाखिल होता है। धर्म की इम पादन मे आम आदमियों को बडे टोटे में रहना पड़ता है। वे जाने अनजाने अपनी अजानकारी को कबूल करना योट वैठने है। इस जरा-नी, पर बडी भूल से आगे की तरक्की रुक जाती है । समझदार अपनी अजानकारी जानता भी है और पौरोकोभी कह देता है। समझदारी की वढवारी में अजानकारी भी वढती है, पर इससे समझदार घवराता नही। खोज में निकला आदमी बीहड जगलो से घबराये तो आगे कैसे वढे ? समझदार अपने मन में उठे सवालो का काम-वलाऊ जवाब सोच लेता है, वे जवाव कामचलाऊ ही होते है, पक्के नही । पक्केपन की मोहर तो वह उन पर तव लगाता है जब वे तजुरुवे की कसौटी पर ठीक उतरते है। जो जितना ज्यादा रूढिवादी होगा, वह उतना ही ज्यादा धर्मात्मा होगा, उतना ही ज्यादा अजानकार होगा, उतना ही ज्यादा उसे अपनी जानकारी पर भरोसा होगा। वह स्वर्ग को ऐसे बतायेगा, मानो वह अभी वहां से होकर आ रहा है । वह ईश्वर को ऐसे समझायेगा, मानो वह उसे ऐसे देख रहा है, जैसे हम उसे । ८१ Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी - अभिनंदन - प्रथ नासमझी से समझदारी की तरफ चलने का पहला कदम है 'शका करना'। शका करना ही समझना है, अपनी नासमझी की गहराई शका के फीते से नापी जाती है । यह नापना ही समझदारी है। 'ईश्वर है' यह कह कर सचाई की खोज से भागना है । अपनी नासमझी से इन्कार करना है । कितना सच्चा और कितना समझदार था वह, जो मरते दम तक यही कहता रहा, "यह भी ईश्वर नही," "यह भी ईश्वर नही", "यह भी ईश्वर नही" ( नेति नेति नेति) उसकी तरह तुम भी खोज में मिटा दो अपने श्रापको, पर जानकारी को मत छिपायो । 'में नही जानता' कहना जिसको नही आता, वह सच्चा नहीं वन सकता । समाजसेवक तो वन ही नही सकता । श्रास्तिकता के लिये अपनी बोली मे लफ्ज है 'हैपन ।" जो यह कहता है कि मुझमें जानकारी है, वही आस्तिक है। जो यह कहता है, "मैं नही जानता कि ईश्वर है" वही आस्तिक है। जो यह नही जानता, "ईश्वर है" और कहता है कि "ईश्वर है" वह नास्तिक है । ६४२ क्यो ? "जो नही जानता कि ईश्वर है" यह वाक्य यो भी कहा जा सकता है कि जो जानता है कि ईश्वर नही है । " नही है " -- यही नास्तिकता है । मन की ज़मीन में वेजा-डर का जितना ज्यादा खाद होगा, धर्म का वीज उतनी ही जल्दी उसमें जड पकडेगा श्रीर फले-फूलेगा ? महा-सत्ता यानी वडी ताकत से चाहे हम इन्कार न भी करें, पर बडी शखसियत से तो इन्कार कर ही सकते है । व्यक्तित्व व्यक्ति की इन्द्री और मन का योगफल ही तो है । इनके विना व्यक्तित्व कुछ रह ही नही जाता । श्रव कोई अनन्तगुण वाली शक्ति व्यक्ति नही हो सकती । मनका स्वभाव है वह डर कर शेखी मारने लगता है। कहने लगता है। "मैं अजर हूँ, अमर हूँ, और न जाने क्या क्या हूँ ।" धर्म की डीगो की जड में भी अहकार मिल सकता है। जीवन श्राप ही एक बडी पवित्र चीज है । तुम वैसा मान कर आगे क्यो नही बढते ? धर्म तुम्हारे मार्ग में क्यो आडे श्रावे ? आत्मा को अजर-अमर कह कर धर्म चिंता में पड गया कि वह इतना समय कहाँ वितायेगा । इसलिए उसको मजबूर होकर नर्क - स्वर्ग रचने पडे, पर इन दोनो ने दुनिया का कुछ भलान किया । धर्म के लिये श्राये दिन के झगडो इनको सिद्ध किया है या प्रसिद्ध, यह वे ही जानें। हिंदू मुसलमान लडकर हिंदू स्वर्ग चले जाते है और मुसलमान जिन्नत । नर्क दोज़ख किसके लिये ? हिंदू मुसलमान लडकर हिंदू मुसलमानो को नर्क भेज देते हैं और मुसलमान हिंदुओ को दोजख । फिर स्वर्ग, जिन्नत किसके लिये ? फिर एक धर्म दूसरे की वातें काटता है । एक का नैतिक विधान दूसरे को मजूर नही । कहना यही होगा कि ठीक विधान किसी को भी नहीं मालूम । असल में कुछ सवाल निहायत जरूरी है और कुछ निहायत जरूरी से मालूम होते है, पर बिलकुल गैरजरूरी । दुनिया ज़रूरी सवालो को छोड कर ग़ैर जरूरी के पीछे पड गई है । इस लिये सुख से दूर पड गई है और समाजसेवा की जगह समाज की दासता में लग गई है । अपना नुकसान करती है और समाज का । खाने पहनने का सवाल सबसे जरूरी है ('भूखे भजन न होय गुपाला') । इनको तो हल करना ही होगा । न हम वग़ैर खाये रह सकते है, न बग़ैर पहने। रहने को मकान भी चाहिये। इसके वगैर भी काम नही चलता । इनके बिना जी ही नही सकते। सुख की बात तो एक ओर । जीवन नही तो धर्म कहाँ ? ज़रूरी से लगने वाले गैर जरूरी सवाल है १ 'है' की भाववाचक संज्ञा । Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-सेवा ६४३ पुनर्जन्म, ईश्वर, स्वर्ग-नर्क इत्यादि । इनके हल करने की विरले ही कोशिश करते है और वह भी कभी-कभी । कोई-कोई इन नवाली को बहुत जरूरी समझते हैं, पर वे समझते ही है । कुछ करते नहीं है । ईश्वर को कोई माने या न माने, श्राग उसे जरूर जलायंगी पानी उसे जरुर दुवायेगा । कोई ईश्वर को माने या न माने, पानी उसकी प्यास जरूर बुझायेगा । श्राग उमकी रोटी जरूर पकायेगी। हाँ, धर्म के ठेकेदार मानने पर भले ही न माननेवालो को कुछ मज़ा दें । श्रव अगर न मानने वाले का समाज से कोई श्रार्थिक नाता नही है तो समाज का धर्म उनका क्या रोक लेगा ? श्रोर वह क्यां रुकेगा ? रह गया धर्म यानी मच्चा कर्तव्य । वह तो तुम्हारा तुम्हारे साथ है और हमेगा नाय रहेगा। रह गया धर्म, यानी सच्चा ज्ञान । वह तो तुम्हारा तुम्हारे साथ है और हमेशा रहेगा । रह गया धर्म यानी सच्ची लगन । उसे तुमने कौन छीनेगा ? यह धर्म रोकता नहीं । धर्म वही जो हमें सुन्वी करे, हमें वांधे नहीं, हमें रोके नहीं । श्रव ग्रापकी तनल्ली हो गई होगी और समाज सेवा के मैदान में कूदने की सारी दिक्कतें भी खत्म हो चुकी होगी और आप हर तरह यह समझ गये होगे कि व्यक्ति जैमे अपने पैरो पर सडा होता जायगा और जैसे-जैसे वह अपने खानेपहनने और रहने के लिये दूमरी पर निर्भर रहना छोटता जायेगा, वैसे-वैसे ही वह मुखी होता जायेगा और समाज को सुखी बनाता जायेगा । उसके पास ऐसी चीजें ही नहीं होगी, जिनके लिये उसे सरकार की जरूरत पड़े। हाँ, वह समाज की कुठगी रचना के कारण कुछ दिनों सरकारी टैक्म ने न वच सकेगा, पर इन से उसके सुख में ज्यादा वावा न पडेगी, लेकिन जव उनकी देना देगी और भी वैना करने लगेगे तो उसकी यह दिक्कत भी कम होकर विलकुल मिट जायेगी । डी-बडी मम्याश्री का हम तजुरवा कर चुके, तरह-तरह की सरकारें बना चुके, तरह-तरह के धर्मों की स्थापना कर चुके, पर व्यक्ति को कोई मुत्री न बना सका । देखने के लिये प्राजाद, पर हर तरह गुलाम । वन अपने को पूरा स्वस्थ रखने में, मव तरह प्रसन्न रहने में, भला और समझदार बनने में, अपने नियम वना कर आजाद रहने में और अपने ऊपर पूरा क़ाबू रखने में ही अपनो की, अपनी और समाज की सेवा है । दिल्ली ] Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृति का मार्ग-समाज-सेवा श्री भगवानदास केला भिन्न-भिन्न विद्वानो ने सस्कृति की अलग-अलग परिभाषाएँ और व्याख्याएँ की है। सक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जो वाते या गुण मनुष्य को मनुष्य वनाते हैं और पशु से ऊंचा उठाते है, वे सस्कृति के अग है। उनके समूह को सस्कृति कहते है। ममता, प्यार और सहानुभूति प्रादि एक सीमा तक पशुप्रो मे भी पाई जाती है, पर प्रादमी मे प्राशा की जाती है कि वह इन गुणो का उपयोग दूर-दूर तक के क्षेत्र में करे। अपने परिवार, भाईवदो, रिश्तेदारी या जाने पहिचाने लोगो से ही नहीं, अपने धर्म और जातिवालो से ही नहीं, अपने देश या अपने रग के लोगो से ही नही-सवसे, गैर धर्म और दूसरी जाति तथा पराये आदमियो से और हां, शत्रु तक से भी अपनेपन का परिचय दे, अपनो का-ना व्यवहार करे। जितना अधिक आदमी यह कर सकता है, उतना ही वह अधिक सुसस्कृत है। सुसस्कृत होने का उपाय शिक्षा (लिखने-पढने का ज्ञान) नही है । हां, शिक्षा से हमे अपनी मस्कृति का विकास करने में मदद मिल सकती है। सस्कृति के लिए हमें धन की इतनी आवश्यकता नहीं है। हां, धन के सदुपयोग मे हम अपनी संस्कृति का परिचय दे सकते है । सस्कृति के लिए शारीरिक वल भी विशेप रूप से प्राप्त करना अनिवार्य नहीं है। हां, स्वास्थ्य की रक्षा करने से हमारी सस्कृति के रास्ते मे एक वडी बाधा दूर हो जाती है। सस्कृति के लिए आवश्यकता है कि हम मे सहानुभूति, उदारता, परोपकार की भावना इतनी विकसित हो जाय कि हम इन्हें रोजमर्रा के, हर घडी के, काम में अमल में लावे । ऐसा करना हमारा स्वभाव ही वन जाय । हम दूसरो के दुख को अपना दुख मानने लगें और उसे दूर करने के लिए स्वय कष्ट उठाने को तैयार रहें। हमारा हृदय मानवसेवा के वास्ते वेचैन हो। हम सव प्राणियो में अपनी आत्मा का अनुभव करें। सक्षेप में सुमस्कृत बनने के लिए आदमी को समाज-सेवा में लगना चाहिए। यही जीवन का ध्येय हो। जिन महानुभावो ने सेवा-वती होकर लोक सेवा में जीवन विता कर महान आदर्श उपस्थित किया है, वे धन्य है। लेकिन खास तौर से सेवा-कार्य में लगने वाले, सेवा-कार्य को ही अपना धन्धा बना लेने वाले आदमियो की सरया किसी देश या समाज में, कुल मिला कर, थोडी-सी ही हो सकती है। ज्यादातर आदमियो के लिए यह व्यावहारिक नही है । साधारण लोगो के लिए तो यही उपाय है कि वे जो भी काम-धन्धा करें, उसी को सेवा-भाव से करें। ___ उदाहरणार्थ एक लेखक किताब लिखता है। अगर उसके सामने केवल पैसा पैदा करने का ही ध्येय है तो वह वैसी ही किताव लिखेगा, जिसके ग्राहक अधिक-से-अधिक हो, चाहे उससे लोगो में साम्प्रदायिक भेदभाव बढे, चाहे युवको और युवतियो के विचारो में चचलता और उत्तेजना पैदा हो और वे भोग-विलास के शिकार बनें या चाहे उससे ठगी-मक्कारी आदि के ढगो की जानकारी हो। इसके विरुद्ध यदि लेखक सेवा-भाव से काम करता है तो वह पाठको की रुचि सुधारने की कोशिश करेगा, उनके सामने अच्छे आदर्श रक्खेगा, वह बहुत परिश्रम से निश्चित किये हुए विज्ञान आदि के उपयोगी सिद्धान्तो का प्रचार करेगा। ऐसा करने से चाहे उसकी पुस्तक की मांग कम हो और इसलिए उसे आमदनी कम हो, यहाँ तक कि उसे अपना गुजारा करना भी कठिन हो। इसी तरह एक डाक्टर (या वैद्य) का विचार करें। लोभी डाक्टर को अपनी आमदनी की चिंता रहती है । मरीज़ को जल्दी अच्छा करने की और उसका लक्ष्य नही रहता। वह चाहता है कि किसी तरह मरीज़ मेरा इलाज बहुत दिन तक करता रहे और मुझे फीस मिलती रहे। लेकिन जब डाक्टर सेवा-भाव से काम करेगा तो वह मरीज Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 सस्कृति का मार्ग --समाज-सेवा ६४५ को जल्दी से जल्दी तन्दुरुस्त करने की कोशिश करेगा और समय-समय पर ऐसे आदमियो को भी अपनी कीमती सलाह और दवाई तक देगा, जो बेचारे अपनी गरीबी के कारण किसी तरह की फीस नही दे सकते । अव कारखाने वाले की बात लीजिये। जब उसका उद्देश्य केवल रुपया कमाना है तो वह ग्राहको की आँखो मे धूल 'झोकने की कोशिश करेगा, घटिया माल को वढिया बताएगा और तरह-तरह की चालाकी करके खूब मुनाफा पैदा करेगा, यहाँ तक कि जनता को नुकसान पहुँचाने वाली और उसका धन वरवाद करने वाली चीजे बनाने और उनका प्रचार करने में तनिक भी सकोच न करेगा। लेकिन अगर कारखाने वाले में सेवा-भाव है तो वह हमेशा समाज के हित का विचार करेगा । ऐसी ही चीजें बनाएगा जो लोगो के लिए बहुत उपयोगी और टिकाऊ हो । वह वढिया माल बनाएगा और मामूली नफे से बेचेगा । इसी तरह दूसरे कामो के बारे में भी विचार किया जा सकता है । सेवा-भाव होने से हमारी कार्य-पद्धति ही वदल जायगी और हाँ, चाहे हमारी श्रामदनी कम रहे, हमारे मन में श्रानन्द रहेगा । हमे यह सन्तोष रहेगा कि हम अपने भाई-बहिनो के प्रति अपने कर्त्तव्य का भरसक पालन कर रहे हैं। इससे हमे शान्ति और सुख मिलेगा । अच्छा हो, हर नवयुक अपने पथ प्रदर्शन के लिए प्रति सप्ताह किसी खास आदर्श का विशेष रूप से अभ्यास करे और कुछ सिद्धान्त वाक्यो को सुन्दर और मोटे अक्षरो मे लिख कर अपने काम करने के कमरे में लगा ले, जिससे समयसमय पर उनकी ओर ध्यान जाता रहे । आदर्श या सिद्धान्त - वाक्यो के कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते है १ लोक-सेवा ही पूजा है । २ दूसरो से ऐसा व्यवहार करो, जैसा हम चाहते हैं कि दूसरे हम से करें । ३ अगर धन गया तो कुछ नही गया, अगर स्वास्थ्य गया तो कुछ गया, अगर सदाचार गया तो सब कुछ गया । ४ दूसरो को ठगने वाला अपनी अवनति पहिले करता है । यह तो व्यक्तियो की बात हुई। इसी तरह हर परिवार या सस्था को अपना उद्देश्य बहुत सोच-समझ कर स्थिर करना चाहिए । यही नही, हर जाति या राष्ट्र को भी अपने सामने मानव सेवा का निश्चित लक्ष्य रखना चाहिए । सवको इस बात की कोशिश करनी चाहिए कि उसका हर सदस्य अच्छे-अच्छे गुणो वाला हो । सच्चा, ईमानदार, मेहनती, स्वावलवी और लोक-सेवी । किसी देश या राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति की पहचान ही यह है कि उसके श्रादमी कितने योग्य और सेवा-भावी है । राष्ट्रो को सोचना चाहिए कि इस समय ससार में पूजीवाद और साम्राज्यवाद का भयकर जोर है । हरेक सभ्य देश हिंसा - काण्ड मे दूसरो से बाजी मार ले जाना चाहता है। ऐसे समय क्या मानवता की सेवा के लिए कुछ राष्ट्र हिंसा और प्रेम का आदर्श रखने वाले न हो ? क्या सभ्य और उन्नत कहे जाने वाले राष्ट्रो मे कुछ ऐसे न मिलेंगे, जो स्वय निस्वार्थ भाव से काम करें और दूसरो से स्वार्थ त्याग करने की अपील करें ? क्या कुछ राष्ट्र यह आदर्श न अपनायेंगे कि पूजीवाद का अत करो, साम्राज्यवाद को छोडो, ससार का हर एक देश और जाति स्वतंत्र हो, कोई किसी भी बहाने से दूसरो को अपने अधीन न करे और दूसरो का शोषण न करे ? आज दिन मानव-सन्तान वर्ण-भेद और जाति-भेद से घोर कष्ट पा रही है । राष्ट्रो का श्रादर्श वाक्य होना चाहिए -वर्ण-भेद दूर करो, जाति-भेद मिटाओ, काला आदमी और पीला आदमी भी उसी प्रभु की सन्तान हैं, जिसकी सन्तान गोरा या भूरा आदमी है । सब आपस मे भाई-भाई है । भेद-भाव मिटाश्रो और सबसे प्रेम करो। सवकी सेवा करो सेवा ही उन्नति, विकास, सभ्यता और सस्कृति का मार्ग है । प्रयाग ] Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श श्री अजितप्रसाद श्री तत्वार्थाधिगम मोक्षशास्त्र (अध्याय ५ सूत्र २१ ) मे आचार्य श्रीमद् उमास्वामी ने कहा है, "परस्परोपग्नहोजीवानाम् ।" समस्त देहस्य ससारी जीवो का व्यावहारिक गुण, तद्भव स्वभाव, पर्याय बुद्धि, कर्तव्य, उनके अस्तित्व का ध्येय, उनके जीवन का उद्देश्य यही है कि एक दूसरे का उपकार करें । स و -सेवा 'तत्वार्थसूत्र' की सर्वार्थसिद्धि टीका में इस सूत्र की व्याख्या इस प्रकार है - "स्वामी भूत्य, श्राचार्यशिष्य इत्येवमादिभावेति वृतिः परस्परोपग्नहो, स्वामी तावद्वित्त-त्यागादिना भृत्यानामुपकारे वर्तते । भृत्याश्च हितप्रतिपादनेनाहितप्रतिषेधेन च । श्राचार्य उभयलोक फलप्रदोपदेशदर्शनेन, तदुपदेशविहित क्रियानुष्ठापनेन च शिष्याणामनुग्रहे वर्तते । शिष्या अपि तदानुकूल्यवृत्या श्राचार्याणामुपकाराधिकारे ।" श्री जुगमन्दरलाल जैनी ने इस सूत्र की अग्रेजी में टीका लिखी है- “The function of (mundane) souls is to support each other We all depend upon one another. The peasant provides corn, the weaver clothes, and so on.” श्लोकवार्तिक, राजवार्तिक, अर्थप्रकाशिका आदि अन्य टीकाप्रो में भी इसी प्रकार इस सूत्र का अर्थ किया है । जैनमुनि उपाध्याय श्रीमद् आत्माराम महाराज द्वारा सगृहीत 'तत्वार्थसूत्र जैनागम समन्वय' मे भी ऐसी ही व्यास्या पाई जाती है । शास्त्री प० सुखलाल सघवी ने तत्त्वार्थ सूत्र - विवेचन में लिखा है -- " परस्पर के कार्य मे निमित्त होना यह जीवो का उपकार है। एक जीव हित या अहित द्वारा दूसरे जीव का उपकार करता है । मालिक पैसा देकर नौकर का उपकार करता है और नौकर हित या अहित की बात कहकर या करके मालिक पर उपकार करता है । आचार्य सत्कर्म का उपदेश करके उसके अनुष्ठान द्वारा शिष्य का उपकार करता है और शिष्य अनुकूल प्रवृत्ति द्वारा आचार्य का उपकार करता है ।" तत्त्वार्थ सूत्र के आधार पर समाज सेवा प्राणी मात्र का धर्म है । प्रस्तुत प्रकरण में समाज सेवा का क्षेत्र मनुष्य-समाज-सेवा तक सीमित समझा गया है। महाकवि प्राचार्य श्री रविषेण प्रणीत महापुराण जैनागमानुसार आधुनिक अवसर्पिणी के चतुर्थ काल के प्रारंभ में कर्मभूमि को रचना श्री ऋषभदेव तीर्थकर के समय में हुई । भगवान् ऋषभदेव युगादि पुरुष थे । श्रीमद् भागवत् पुराण मे ऋषि वेदव्यास ने उनको नाभिराजा और मरुदेवी के पुत्र ऋषभावतार माना है और यह भी कहा है कि विष्णु भगवान के इस अवतार ने अपने सौ पुत्रो मे से ज्येष्ठतम पुत्र भरत चक्रवर्ति को राज्य सिंहासनारूढ करके दिगम्वरीय दीक्षा और दुद्धर तपश्चरण के प्रभाव से परमधाम की प्राप्ति की । कालचक्र और ससार-रचना तो अनादि और अनन्त है, फिर भी काल के उतार-चढाव के निमित्त से जगत् का रूप ऐसा बदलता रहता है कि एक अपेक्षा से, पर्यायार्थिक नयसे जगत् की उत्पत्ति और सहार भी कहा जा सकता है । चौथे काल के पहिले योगभूमि की रचना इस मर्त्यलोक में थी, जिसकी रूप-रेखा उस समय स्वर्गीय जीवन से कुछ ही कम थी । उस समय के मनुष्यो की समस्त आवश्यकताएँ कल्पवृक्षो द्वारा पूरी हो जाती थी । उनको जन्म-मरण, इष्टवियोग- अनिष्टसयोग, आधि-व्याधि, जरा-रोग, विषाद-दारिद्र्य आदि दु खो का अनुभव तो दूर, उनकी कल्पना भी नही होती थी। योगभूमि का समय बीत जाने पर कर्म भूमि का प्रारंभ हुआ । समाज-सगठन या समाज-सेवा का आयोजन आदिपुरुष श्री ऋषभदेव ने किया, उनके पुत्र भरत चक्रवर्ति के राज्य में समाज-सेवा का क्षेत्र विस्तीर्ण हुआ और उत्तरोत्तर व्यापक ही होता गया । Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-सेवा का श्रादर्श ६४७ मनुष्य का गर्भ से शरीरात तक समस्त जीवन व्यवहार समाज सेवा ही तो है । पूर्वाचार्यों ने भारतीय समाज का जीवनक्रम धर्म का अग बना दिया है। तीर्थंकर भगवान के गर्भ कल्याणक के समय से माता की सेवा में देवागना लगी रहती है। गर्भकाल के आचार-विचार का प्रभाव गर्भस्थ जीव पर पडता ही है । अत माता-पिता का कर्तव्य है कि स्वत अपने आचार-विचार-शुद्धि का ध्यान रक्खे | महाभारत का कथन है कि एक समय जव अभिमन्यु गर्भ में था, अर्जुन सुभद्रा को शत्रु के चक्रव्यूह में किस प्रकार प्रवेश किया जाता है, यह बतला रहे थे कि सुभद्रा को नीद आ गई और चक्रव्यूह से बाहर निकलने की तरकीव न सुन पाई। महाभारत युद्ध में एक अवसर पर जव वीर अर्जुन अन्य स्थान पर लड रहे थे, कुमार अभिमन्यु गर्भ-समय-प्राप्त- ज्ञान के वल से कोरवोका चक्रव्यूह भेद कर उसमें घुस गये, किन्तु बाहर न निकल सके और धोखे में फँस कर मारे गये । स्वर्गीय मोहम्मद हुसैन आजाद रचित 'भारतीय कहानियाँ' नामक पुस्तक में लिखा है कि जब श्रकवर गर्भ में था, एक दिन उसकी माता अपने तलुए में सुई गोद कर सुरमा भरकर फूल बना रही थी। हुमायू के कारण पूछने पर उसने उत्तर दिया कि मैं चाहती हूँ कि मेरे पुत्र के तलुए में ऐसा ही फूल हो । कहा जाता है कि जब अकवर पैदा हुआ तो वैसा ही फूल उसके • तलुए में था । अकलक-निकलक की कथा तो प्रसिद्ध ही है कि माता-पिता के सदाचार का प्रभाव उन बालको पर ऐसा पड़ा कि जव माता-पिता ने श्रष्टाह्निक पर्व मे आठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत लिए तो इन वालको ने भी ब्रह्मचर्य - व्रत ग्रहण कर लिया और जव इनके विवाह का प्रस्ताव हुआ तो इन्होने कह दिया कि हम तो ब्रह्मचर्य व्रत गोकार कर चुके । वाल-ब्रह्मचारी रह कर, निकलक ने धर्मार्थ प्राणों का बलिदान किया और अकलक की उमर जिन-धर्मप्रचार में ही व्यतीत हुई । जन्म दिन से आठ वर्ष तक शिशु-पालन, शिक्षण माता-पिता द्वारा होता है। माता-पिता के अच्छे-बुरे, श्राचार-विचार, क्रिया वर्त्तावि का गहरा प्रभाव बच्चे पर पडता है। माता-पिता की बोलचाल बच्चा विना सिखाए सीख जाता हैं | वह उसकी मातृभाषा कहलाती है । असभ्य गन्द, गाली, सभ्यवाक्य, कटुवचन, मीठा वोल, arगात्मक प्रयोग, हितकर सीधी बोलचाल, प्रहारात्मक उच्च स्वर मे या जल्दी-जल्दी बोलना, अथवा वीरे-धीरे स्पष्ट मन्द स्वर में, मीठे प्यारे शब्दों में वात करने की आदत, नम्रता या उद्दण्डता, बच्चा माता-पिता से विना सिखाये स्वत सीख जाता है । उसी को सस्कार, आदत अथवा अभ्यास कहते है । यह देखा जाता है कि कुछ बच्चे मातापिता तथा कौटुम्बिक गुरुजनो को प्रात ही प्रणाम करते है । उनके सामने विनय-पूर्वक उठते-बैठते है | आदरश्रद्धा सहित व्यवहार करते है, चरण छूते हैं, आते देख कर खडे हो जाते है, स्वय नीचा श्रासन ग्रहण करते हैं, विनय भाव से बैठते है और शिक्षा ग्रहण करते है । इसके विपरीत कुछ बच्चे विस्तर से रोते, शोर मचाते उठते है, आपस में लडतेझगडते, गाली-गलौज, छोटी-छोटी बातो पर छीना-झपटी, मारपीट करते रहते हैं । मुँह उठाये चले आते हैं, ऊँचे स्थान पर आ बैठते है, या लेट जाते है, गुरुजनो की शिक्षा या कथन ध्यान से नही सुनते और न मानते है । कुछ को तो यह कटेव पड जाती है कि अपने लिए सदैव 'हम' शब्द का प्रयोग करते है और अन्य श्रपने वरावर या वडो को अनादर भाव मे सबोधन करते हैं । हमेशा चिल्लाकर बोलते है । अपने छोटे भाई-बहनो से भी छीना-झपटी, लडाईझगडा, कटुवचन व्यवहार करते हैं । उन बच्चो के ये बुरे सस्कार और कुटेव उमर भर उनके लिये हानिकारक और कष्टोपकारक होते है । माता-पिता का धर्म है कि आत्म-सयम करें, ताकि बच्चे उनका अनुसरण करें । वच्चो को धमकाना, मारना पीटना, बुरा कहना, गाली देना, भयभीत करना, लालच देना, धोखा देना, उनसे झूठ वोलना, कदापि किमी परिस्थिति में भी उचित या क्षम्य नही । "लालयेत् पच वर्षाणि, दश वर्षाणि ताडयेत्" की कहावत ठीक एव अनुकरणीय नही है । वह चाहे चाणक्य नीति हो, किन्तु धार्मिक नीति नही हो सकती । यदि बच्चे से भूल हो जाय, नुकसान हो जाय तो उसे समझा देना चाहिए। बच्चे की माँग सदैव पूरी करनी चाहिए । धोखा देकर टालना ठीक नही । प्राय देखा जाता है कि यदि बच्चा कोई चीज मांगता है तो उसको यह कहकर टाल Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ प्रेमी अभिनदन- प्रथ दिया जाता है कि "कल ला देंगे ।" दूसरे दिन जब उसकी श्राशा पूरी नही होती और फिर कल का वहाना किया जाता है तो उसके विश्वास को ठेस लगती है और फिर भी उसकी आशा पूरी न होने पर वह समझ जाता है कि मुझे धोखा दिया गया है । उसका विश्वास उठ जाता है और वह मान लेता है कि धोखा देना, झूठ बोलना ही ठीक है । प्राचीन भारत मे श्राठ वरस की उमर से ग्रामीण और नागरिक, सभी को, प्राथमिक श्रेणी की धार्मिक श्रीर लौकिक शिक्षा अनिवार्य रूप से दी जाती थी । वालक-बालिका सवको लिखना-पढना और जीवन-निर्वाह का काम रोजगार, दूकानदारी, वाणिज्य, असि, मसि, कृषि सिखलाना समाज का और राज्य का धार्मिक कर्त्तव्य था । शिक्षा बाजारू विकाऊ वस्तु न थी । गुरु दानरूप शिक्षा प्रदान करता था और शिष्य विनयपूर्वक शिक्षा ग्रहण कर चुकने पर अपनी शक्ति के अनुसार गुरु-दक्षिणा रूप भेट समर्पण करता था । प्राचीन भारत इतिहास मे नालदा विश्व विद्यालय विख्यात विद्या - केन्द्र था। चीन देश के दो विद्वान् वहाँ ये, बरसो रहे, विद्या अध्ययन किया और पन्द्रह वरस के श्रात्म अनुभव से वहाँ का विस्तीर्ण वृत्तान्त लिखा । उमी कथन के आधार पर सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ डाक्टर राधाकुमुद मुकर्जी ने अपनी पुस्तक "Ancient Indian Education" मे नालदा का ऐतिहासिक वर्णन लिखा है । उस पुस्तक से सक्षिप्त उद्धरण जनवरी १९४० के “Aryan Path” मे प्रकाशित हुआ । १३०० वरस गुजरे। तव नालदा में ८५०० विद्यार्थी और पन्द्रह मी अध्यापक निवास करते थे । भारत के विविध प्रान्तो के रहने वाले तो उनमें थे ही, परन्तु चीन, जापान, कोरिया, मगोलिया, बुखारा, तातार देश से आये हुए विद्यार्थी भी वहाँ शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। सो-सो विविध विषयो पर हर रोज विवेचन होता था और रात दिन अध्यापको और प्रोढ शिष्यों में पारस्परिक चर्चा रहती थी । किमी को भोजन, वस्त्र आदि किसी आवश्यक वस्तु की चिंता न थी । विद्यार्थियों से किसी रूप में फीस नही ली जाती थी। राज्य ने कई सौ ग्राम नालदा विश्वविद्यालय को समर्पण कर दिये थे । सैकडो मन अनाज, घी, दूध श्रादि प्रति दिवस वहाँ पहुँचा दिया जाता था । नालदा के स्नातको का दुनिया भर में अपूर्व सत्कार होता था । ऐसे उच्चतम विद्याकेन्द्र में भरती हो जाना आसान काम न था । प्रार्थी की वैयिक्तिक योग्यता की कडी परीक्षा करके १०० में २० प्रार्थी ही प्रविष्ट होने में सफल होते थे । वहाँ किसी प्रकार की सिफारिश या प्रलोभन से काम नही चलता था। नालदा की गगनस्पर्शी विहार-श्रेणियो के भग्नावशेष पावापुरी के पास अव भी मोजूद है । उस समय की ईंट डेढ फुट लवी श्रीर एक फुट चौडी होती थी । नालदा के विशाल शास्त्र भडार के लिखित ग्रन्थ कही कही नेपाल और तिव्वत के ग्रन्थागारों में मिल जाते है । पूर्व मे नालदा और पश्चिम मे तक्षशिला नाम की लोकविरयात विद्यापीठ थी । तक्षशिला के भी भग्नावशेष विद्यमान है । वहाँ का प्रदाजा भी नालदा के सक्षिप्त वर्णन से लगाया जा सकता है। वैदिक काल की शिक्षण-पद्धति का वर्णन तैत्तिरीय उपनिषद् ( प्रथम खण्ड, अध्याय ११ ) से विदित होता है । उपनयन संस्कार के समय कहा जाता था, "तू आज से ब्रह्मचारी हो गया, प्राचार्याघीन होकर वेदाध्ययन कर ।" उस दिन से शिक्षा की सम्पूर्णता तक वह गुरुकुल में ही रहता था । सामान्यतया इसकी अवधि वारह वरम होती थी, किन्तु ब्रह्मचारी की वैयक्तिक योग्यतानुसार घटवढ जाती थी । गुरु का श्रन्तिम आदेश यह होता था, "सच बोलो, धर्माचरण करो, स्वाध्याय करते रहो, सदाचार का पालन करो, ऐहिक स्वार्थाघीन होकर परमार्थ को न भूलो।" डाक्टर देवेन्द्रचन्द्रदास गुप्त श्रध्यापक कलकत्ता यूनिवर्सिटी रचित 'शिक्षा की जैन पद्धति' ('Jain system of Education' ) में लिखा है - जैन साधु सघ के विहार धार्मिक तथा साहित्य, कला, व्यायाम श्रादि सास्कृतिक शिक्षा प्रदानार्थं मगध से गुजरात और विजयनगर से कौशल तक फैले हुए थे । भिन्न धर्मानुयायी और समस्त श्रेणी के विद्यार्थी, विविध कार्य - कला - शिक्षा प्राप्ति के अर्थ उनमे प्रविष्ट हो सकते थे । आठ बरस की उमर से बालकवालिका एक साथ शिक्षा पाते थे । विद्यार्थी की रुचि का भले प्रकार अंदाजा करके यथोचित शिक्षा दी जाती थी । प्रजा की उन्नति और उसके जीवन को सुखी बनाने के लिये राज्य की थोर से काफी सहयोग दिया जाता था । विद्यार्थी Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-सेवा का प्रादर्श ૬૪હ, शिक्षा और जीवन निर्वाहार्थ व्यवसाय साथ-साथ प्राप्त करते थे । धार्मिक शिक्षा में अध्यात्म, 'भक्ति, चित्त-नियन्त्रण, क्रिया-काड और दैनिक क्रिया-क्रम, सव कुछ गर्मित होता था। उस जमाने में पढाई की फीस नही लगती थी। अध्यापक, उपाध्याय नौकरी नही करते थे। अपनी विद्या को वस्त्र-भोजन-प्राप्ति धनोपार्जन का साधन नही बनाते थे। वैद्य भिषगाचार्य फीस या दवाई के मुंहमांगे दाम नही लेते थे। रोगी का इलाज करना वे धार्मिक कर्तव्य समझते थे। वकालत करने का रिवाज यूनान से चला है। वकील फीस नही लेते थे और अब तक यह प्रथा चली आती है कि वैरिस्टर को जो कुछ दिया जाता है वह फीस नहीं, बल्कि 'समर्पण' कहा जाता है। वह व्यापारिक मामला नही है, सम्मानित भेट है। उसके लिए कचहरी मे नालिश नही हो सकती। धर्म के नाम पर प्रजा-प्रतिष्ठा आदि धर्मानुष्ठान कराने की फीस चुका कर लेना तो बडा ही निंद्य कर्म समझा जाता था। प्रजा धन-धान्य-सम्पन्न, स्वस्थ, सुखी, सदाचारी और धर्मनिष्ठ थी। इस प्रकार समाज-सेवा याप्रजा-पालन राजा का धर्म था। खेती की उपज का केवल एक नियमित निश्चित भाग समाज सेवार्थ लिया जाता था। उर्वरा वसुन्धरा की देन में राजा-प्रजा यथोचित रीति से भागीदार होते थे । महाकवि कालिदास ने 'रघुवश' (प्रथम सर्ग श्लोक १६) में कहा है प्रजानामेव भूत्ययं स ताभ्यो वलिमग्रहीत् । सहस्रगुणामुत्स्रष्टुमादत्रे हि रस रवि ॥१८॥ अर्थातू-(राजा दिलीप) प्रजा के हितार्थ ही कर ग्रहण करते थे। जैसे सूरज पृथ्वी से जल खीच कर हजार गुणा वापिस कर देता है। शकुन्तला नाटक के पांचवे अक में लिखा है भानुसकृयुक्त तुरगएव रात्रिन्दिव गन्धवह प्रयाति । शेष. सदैवाहित भूमिभार षष्ठाश वृत्तेरपि धर्म एष ॥ अर्थात्-सूर्य एक वार घोडे जोत कर बरावर चलता रहता है, हवा रात दिन वहती है, शेषनाग निरन्तर पृथ्वी का भार वहन करता है, (जो राजा) छठा हिस्सा लेकर अपनी गुजर करता है, उसका धार्मिक (कर्त्तव्य) यही है (कि निरन्तर समाज-सेवा करता रहे)। हिन्दू साम्राज्य में राज्य-कर पैदावार का छठा भाग था। मरहठो के राज्य मे वह चौथा हिस्सा हो गया, मुगल-साम्राज्य में तीसरा भाग निश्चित किया गया। अव भी देशी रियासतो मे वटाई की प्रथा जारी है। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली रूप समाजसेवा का ऊपर जिकर हो चुका है। उस प्रथा की छाया मुगल साम्राज्य में सरकारी दारूल-उलूम और ग्रामो और शहरो की गली-गली में मकतवो की सूरत में मौजूद रही। शुरु अंग्रेजी राज्य में सरकारी स्कूल इस मतलव से खुले कि सरकारी काम चलाने के लिए पढे-लिखे नौकरी की जरुरत पूरी हो सके। स्कूल जाने के लिए प्रलोभन दिये गये। पिता जी से मैने सुना है कि हर वालक को पुस्तक, लिखने का सामान स्कूल से दिया जाता था, फीस कुछ नही ली जाती थी, पारितोषिक और छात्रवृत्ति उदारता से दी जाती थी, पढ जाने पर वेतन अच्छा मिलता था। किन्तु दिनोदिन सख्ती वढती गई। मेरे पढाई के जमाने मे एम० ए० तक फीस केवल तीन रुपये और कानून पढने की फीस एक रुपया मासिक थी। मुझे पन्द्रह रुपये छात्रवृत्ति स्प मिलते थे और वहुमूल्य अग्रेजी कोष आदि पुस्तकें इनाम मे मिलती थीं। अब तो स्थिति ही कुछ और हो गई है। परिणाम यह कि पुरानी शिक्षण-पद्धति घटती और मिटती चली गई। ठोस विद्वता का स्थान पुस्तको ने ले लिया। किन्तु भारत की गुरुकुल शिक्षा पद्धति विदेशो ने ग्रहण की। ८२ Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ गुरुकुल शिक्षा-पद्धति के विनाश और अग्रेजी पढाई के फल-रूप भारतवासियो के दैनिक जीवन-व्यवहार में गहरा उलट-फेर हो गया। समाज सेवा का आदर्श उठ गया । शिक्षित वर्ग का सत्कार घटता गया । श्रध्यात्म ज्ञान, चारित्रशुद्धि, सदाचारिता का लोप-सा होता गया । विलासिता, इन्द्रियभोग की लोलुपता, ईर्ष्या, छीना-झपटी यादि दुर्गुणो का प्रभाव वढता गया। विद्योपार्जन ऐहिक जीवन निर्वाह का साधन बन गया । ऐसी परिस्थिति में कुछ देशहितैषियो ने प्राचीन गुरुकुल प्रणाली को फिर से जारी करने का विचार किया । श्रार्यसमाज ने कागडी (हरिद्वार) में गुरुकुल की स्थापना की । महात्मा मुशीराम ( स्वामी श्रद्धानद) ने अपना जीवन उसके लिए समर्पण किया, समाज ने लाखो रुपया दान दिया । किन्तु समाज के प्रतिष्ठाप्राप्त लोगो ने अपने बच्चो को वहाँ नही भेजा और इसी त्रुटि के कारण गुरुकुल कागडी भारतवर्ष की आदर्श सर्वोच्च शिक्षा सस्या न वन सकी। मई १९११ में जैन समाज ने हस्तिनापुर (मेरठ) में ऋषभ ब्रह्माचर्याश्रम की स्थापना की। इसके लिए महात्मा भगवानदीन तथा ब्रह्मचारी गंदन लालजी ने आत्मसमर्पण किया। समाज ने भी श्रावश्यकतानुसार पर्याप्त दान दिया। परन्तु दुर्भाग्यवश चार वर्ष वाद, १९१५, में ही कुछ पारस्परिक वैमनस्य ऐसे बढ गये कि इस श्राश्रम के सभी सस्थापको और मुख्य कार्यकर्ताओ को एक-एक करके श्राश्रम छोडना पडा । नाम के वास्ते तो ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम श्रव भी चौरासी (मथुरा) में चल रहा है, किन्तु जिस उद्देश्य से वह स्थापित किया गया था उसकी गन्ध भी वहाँ नहीं है। गुजरावाला, (पजाव), पंचकूला ( श्रम्वाला) व्यावर ( राजपूताना ) स्थानो पर जैन गुरुकुल वर्षों से चल रहे हैं मगर उनमें भी समाज के प्रतिष्ठा प्राप्त उच्च घरो के बालक प्रविष्ट नही होते और गुरुकुल स्थापना का वास्तविक उद्देश्य पूरा नही हो पाता । 1 महात्मा गांधी के शब्दो मे "समाज सेवा का उद्देश्य मनुष्यमात्र का सर्वोदय, जगत का उत्थान है। जॉन रस्किन ने 'सर्वोदय' ('Unto this last ' ) मे लिखा है कि थोडो को दुख देकर बहुतो को सुस पहुँचाने की नीति समाज-सेवा का प्रादर्श नही है । चाणक्य राजनीति जैसी है । नैतिक नियमो को पूर्णतया पालने में ही मनुष्य का कल्याण हैं । नोकर और मालिक, वैद्य और रोगी, अन्याय पीडित मनुष्य और उसके वकील, कारखानो के मालिक और श्रमजीवी मनुष्यो के बीच धन का नही, प्रेम का वन्धन होना चाहिए।" नीतिमान समाज सेवी पुरुष ही देश का धन है । अन्यान्योपार्जित धन का परिणाम दुख ही है । भोग-विलास और दूसरो को नीचा दिखाने, दयाने, दास बनाने में धन खर्च करने से गरीबी बढती है । जैन कवि द्यानतराय जी ने भी 'अकिंचन धर्म-पूजा' में कहा है, "बहुधन बुरा हू भला कहिये लीन पर उपकार सों।" ६५० समाज-सेवा का मूलमन्त्र यह है, "श्रात्मनः प्रतिकूलानि परेषा न समाचरेत् ।" जो बात आप खुद नही पसन्द करते, वैसा व्यवहार दूसरे के साथ भी मत करिए । फारसी में भी कहा है, "हरचे वरख़ुद न पसदी, वादी गरा हम मपसन्द ।" अग्रेजी की कहावत है "Doto others as you wish that they should do unto you." अर्थात् — लेने-देने की तराजू एक ही होनी चाहिए। श्राजकल समाज-सेवा-भाव के प्रभाव में लेने के बाट तराजू एक और देने के दूसरे है। अपने पराए के लिए नियम विरोधात्मक बनाये जाते है । जगत् की शान्ति चाहने वाला समाजसेवक अपनी श्रावश्यकता के लिए समाज से कम-से-कम लेता है और उसके बदले में समाज को अपनी शक्तिभर अधिक-से-अधिक देता है । समाज सेवा करके उसको श्रानन्द होता है । वह समाज शोषण को पाप समझता है । जैन धर्मानुयायी का तो सारा धर्म ही जैसा प्रारभ में कहा गया है, परोपकार पर खडा हुआ है। गृहस्थ, व्रती प्रव्रती, श्रावक, ब्रह्मचारी, ऐलक, मुनि सभी को समाज सेवा-धर्म का पालन पूर्ण शक्ति से करना अपना धार्मिक कर्तव्य समझ लेना चाहिए। जैनधर्मानुसार प्रवृत्ति से विश्व शान्ति स्थायी और पूर्णरूपेण स्थापित हो सकती है । किन्तु ऐसा नही हो रहा है । जैनी जैनधर्म के मूल सिद्धान्त से विपरीत मार्ग पर चल रहे है । जैनधर्म के सिद्धान्त पुस्तको श्रौर 'जैन हितैषी' समाचार-पत्र द्वारा श्री पडित नाथूराम प्रेमी ने समझाए और अब भी वे इसी प्रयत्न मे लगे Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-सेवा का प्रावर्श ६५१ है। किन्तु मिथ्यात्व का अनादि सवध, अज्ञान मोह की प्रबलता जैनो को सीधे रास्ते पर, समाज-सेवा की सीधी सडक पर आने से रोक रही है। श्रावक के पट आवश्यक कर्म रूढि मात्र, दिखावे, मन समझाने और आत्मवचना के तौर पर किये जाते है । श्रावको के दान की प्रणाली का प्रवाह रेतीले, बजर मैदानो में हो रहा है। धर्म-प्रभावना के नाम पर जो द्रव्य सर्च होता है, उसका सदुपयोग नहीं होता। धर्म की हसी होती है। जैन रथोत्सव के अवसरो पर कही तो सरकारी रोक लगा दी जाती है, कही बाजार में दुकानें बन्द हो जाती है और कलकत्ता जैसे लवे और तडक-भडक के जलूस पर भी मैंने देखा है कि अजैन जनता पर जैनत्व का प्रभाव अथवा महत्व अकित नहीं होता। जनता केवल तमाशे के तौर पर जलूम देखने को उसी भाव से जमा होती है, जैसे वह किसी सेठ की वरात, किसी राजा की मवारी, किसी हाकिम या किमी फोजी पलटन के जलूस को देखने कौतूहलवश एकत्र हो जाती है । कहने को दिगम्बर-श्वेताम्बर रथोत्सव सम्मिलित होता है । वास्तव में प्रागे श्वेताम्बरीय जुलूस निकल जाता है, तब तक दिगम्बरीय जुलूस एक नाके पर रुका रहता है । दोनो के बीच में काफी फासला होता है। अच्छा होता यदि ग्वेताम्बर-दिगम्बर मूर्ति एक ही रय में विराजमान होती। दिगम्बर-श्वेताम्बरी उपदेशक भजन-टोलियां मिली-जुली चलती, उपदेगी भजन स्पष्ट स्वर में जनता को सुनाये-गमझाये जाते और दोनो मप्रदाय के वाजे, झडियाँ, पालकियाँ और भक्न-जनसमूह यादि एमे मिले-जुले होते कि अजन जगत् को दोनो मे भेद प्रतीत न हो पाता। दोनो जुलूस एक ही म्यान पर पहुंचते और दोनों सम्प्रदाय के पडितो के व्याख्यान, प्रीति-भोज सम्मिलित होते। उन स्थानों में जहां पर्याप्त मरया में जिनालय मौजूद है, नये मदिर बनवाने, उनको सजाने और नई मूर्तियो की प्रतिष्ठा करने का शौक भी बहुत बढता जा रहा है, जिसमें जन-समाज का लाखो रुपया खर्च हो जाता है और परिणाम यह होता है कि ममाज में भेद-भाव बढ जाता है। लोग मदिरो में भी ममकार वुद्धि लगा लेते है। अपनेअपने मोहल्ले, अपनी-अपनी पार्टी, अपने-अपने दलके मदिर अलग हो जाते है । समाज सगठन का ह्रास हो जाता है। रेल की मस्ती सवारी के कारण तीर्थ यात्रा का शौक भी वढ गया है । वास्तव मे तीर्थयात्रा के नाम से नगरो की मैर, अन्य-विक्रय-व्यापार, विवाहादि सवध आदि ऐहिक कार्य मुख्यतया किये जाते है और भावो की विशुद्धता, वैराग्य का प्रभाव, निवृत्ति मार्ग की पोर झुकाव तो विरले ही मनुष्यो को प्राप्त होता है । मदिरो मे और सस्यानो में जो दान दिया जाता है, उसका बदला नामवरी हामिल करके अपनी शोहरत फैला कर प्राप्त कर लिया जाता है। उन दान मे पुण्यप्राप्ति या कर्म-निर्जरा समझना भुलावे में पडना है । स्थानीय पाठशाला, पुस्तकालय, वाचनालय, पोपचालय, चिकित्मालय, विद्यालय, अनाथालय, धर्मशाला आदि सस्था स्थापित कर के भी लोग स्वार्थ साधन करते है। थोडे दिनो की ऐहिक स्याति प्राप्त करते है। इन विविध संस्थानो में साम्प्रदायिक, स्थानीय, जातीय, प्रात्मीय, अहकार, ममकार का विणेप पुट रहता है। उनके समुचित प्रवध की तरफ बहुत कम लक्ष्य दिया जाता है। ऐमी कोई विरली ही सम्था होगी, जिममे दलवदी, अधिकार प्राप्ति की भावना के दोप प्रवेश नहीं कर गए है। दिगम्बरीय समाज में भी तीन मस्या, महासभा, परिपद्, सघ नाम से पृथक्-पृथक् काम कर रही है। वास्तविक समाज-मैया के भाव को लिए हुए जैन-समाज यदि केन्द्रीय मगठन करके समाज-सेवा भाव से प्रेरित, आत्मसमर्पण करने वाले कार्यकर्ता निर्वाचित करके प्रान्तीय, स्थानीय समाजोद्धार और धर्म-प्रचार का कार्य प्रारभ कर दे तो समाज के कितने ही मनुष्यो को उच्चगोत्र और शायद तीर्थकर कर्म का वध भी हो जावे, क्योकि तीर्थकरकर्म जगत-हितकर भावना का ही फल है। साघु, उपाध्याय, प्राचार्य, केवली, तीर्थकर, जगत का उत्कृष्ट और अमित उपकार करते है और निस्पृह होकर ऐसा करते है। यह सव समाज-सेवा ही तो है। गृहस्थ श्रावक के पट् आवश्यक कर्मों में दान भी है। दान समाज-सेवा ही का पर्यायवाची शब्द है । दान का अर्थ है-पर-उपकार । अन्य का भला करना । प्रत्येक अवस्था में दान देना मनुष्य का कर्तव्य, और मुख्य कर्तव्य है। दान समझ कर ही करना चाहिए। पान और वस्तु के भेद से दान का फल भला और बुरा दोनों प्रकार का हो सकता है। हिंसा का उपकरण, छुरी, कटारी, तलधार, बदूक दान मे या उवार मागी देना या वेचना अशुभ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ कर्म-बध का ही कारण होगा। व्याध, वधिक, वूचड, चिडीमार को या लडाई के चलाने के लिए धन या उपकरण या सिपाही व्याज पर, या दान मे, या किसी भी प्रलोभन या भय के वश होकर देना पापवध काही कारण होगा। आजकल दान देना भी श्रावक जीवन में एक प्रथापूर्ति, रूढिपालन, वहम, मिथ्यात्व स्प रह गया है । जैनी भाई वेटा होने, वीमारी दूर होने, मुकदमा जीतने की अभिलाषा से, व्यापार वृद्धि के प्रलोभन आदि ऐहिक स्वार्थ साधनार्थ धर्म-स्थानो मे घी, केसर, छतर, स्वस्तिका, सोना-चांदी द्रव्य चढाते है । नवीन मदिर शहरो में बनवाते है, जहाँ काफी जैन मदिर मौजूद है । विम्व प्रतिष्ठा कराते, गजरथ निकलवाते, रथोत्सव करवाते है और वहुधा स्त्रियाँ मरण समय पर अपना जेवर मदिरो में दान कर जाती है । ये लोग समझते है कि इस प्रकार के दान से उन्होने पुण्यप्राप्ति की । यह तो केवल भ्रम है, आत्मप्रवचना है । सस्थाओ में बिना समझे, सस्था की सुव्यवस्था की जांच किये विना दान देना व्यर्थ ही होता है । सच्ची समाज-सेवा उस दान से होती है, जिसके फलस्वरूप दुखी, दरिद्री, सहधर्मी, सदाचारी बन्धुवर्ग को आवश्यकीय सहायता मिले। धार्मिक या लौकिक लाभदायक शिक्षा का प्रसार हो। प्राचीन जैन मूर्तियो, शिलालेखो, स्तूपो, अतिशयक्षेत्रो को सुव्यवस्था तथा सुप्रबध हो। जैन धर्म की । वास्तविक प्रभावना हो, अजन जनता पर जैन धर्म के सिद्धान्तो का प्रभाव पडे और जैन धर्म में उन्हें श्रद्धा उत्पन्न हो। ऐसे केन्द्रीय शिक्षणालय, गुरुकुल, उदासीनाश्रम स्थापित किये जावे, जहाँ रह कर दीक्षित ब्रह्मचारी बालक सदाचार और प्रौढ ज्ञान को प्राप्ति करें। जहाँ के व्युत्पन्न उत्तीर्ण विद्यार्थी धनिक वर्ग के तुच्छ सेवक बन कर उदर-पालन, धनसग्रह, या कुछ सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेने को ही अपना जीवनोद्देश्य न समझे। सच्चे मुनि तो निरन्तर सदुपदेश देकर उत्कृष्ट दान करते रहते है । उपाध्याय और प्राचार्य भी सदा धर्मोपदेश और आत्मानुभव का मार्ग बतलाकर महान दान करते रहते है। अहंन्त भी तो दिव्यध्वनि से क्षणिक दान देते रहते है। सक्षेपत मनुष्य जीवन गृहस्थ अवस्था से व्रती, श्रावक, क्षुल्लक, ऐलक, मुनि, साधु, उपाध्याय, अहंन्त अवस्था तक वरावर समाज-सेवा में रत रहते है। सिद्धप्राप्ति तक समाज-सेवा मनुष्य का भारी जन्मसिद्ध अधिकार और परम कर्तव्य है। इससे आत्मलाभ और परोपकार एक साथ दोनो सधते है। युद्ध, वैमनस्य, ईर्ष्या, द्वेष, लोम, मायाचारी, छीना-झपटी का समूल नाश होता है । ससार में शान्ति-सुख का प्रसार, विस्तार और सचालन होता है । "वसुधैव कुटुम्बकम" की कहावत चरितार्थ हो जाती है और ससार स्वर्ग बन जाता है। सक्षेप में समाज-सेवक मनुष्य की पहचान यह है कि वह समाज से कम-से-कम ले और समाज को अधिक-सेअधिक दे । जैन साधु का लक्षण यह है कि वह ऐसा आहार भी नहीं ग्रहण करता है जो उसके निमित्त से बनाया गया हो,या जो दया भाव से दिया जाता हो। जैन-साधु भिक्षु नहीं है । उसको आहार की भी चाह नही है । वह कर्मनाग के लिए तपश्चरण करने के अर्थ और आत्मघात के पाप से बचने के लिए जो कोई भव्य जीव भक्तिवश, सत्कारपूर्वक, निर्दोप भोजन में से, जो उसने अपने कुटुम्ब के वास्ते बनाया है, मुनि को भक्तिसहित समर्पण करे तो खडेखडे अपने हाथ में लेकर दिन में एक बार ग्रहण कर लेता है। साधु ऐसे स्थान में भी नहीं ठहरता, जो उसके लिए तैयार या खाली कराया गया हो। शीचार्थ जल और शरीर स्थिति के लिए शुद्ध अस्प भोजन के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु औषधि आदि भी जैन-साघु ग्रहण नहीं करेगा और वह सदा प्रत्येक क्षण प्रत्येक जीव को अभयदान, ज्ञानदान, उपदेश दान देता और अपने साक्षात निर्दोष दैनिक चरित्र से मोक्ष-मार्ग प्रदर्शन करता रहता है। यह समाज-सेवा का आदर्श है। प्रत्येक गृहस्थ थावक इस आदर्श को सदैव सामने रखता हुआ, अपनी पूरी शक्ति, साहस, उदारता से अपने जीवन निर्वाह के लिए समाज से कम-से-कम लेकर समाज को अधिक से अधिक देता रहे। श्रद्धेय पडित नाथूराम प्रेमीजी ने अपने आदर्श जीवन से समाज-सेवा का आदर्श जैन श्रावक के लिए उपस्थित कर दिया है। लखनक ] Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-स के बीसवीं सदी के प्रमुख आंदोलन श्री परमेष्ठीदास जैन न्यायतीर्थ जैन समाज का भूत-काल कितना आन्दोलनमय रहा है, यह तो हम नही जानते, किन्तु वीसवी शताब्दी में जो खास-खास आन्दोलन हुए है, उन्ही में से कुछ का उल्लेख हम इस लेख में करेंगे। बहुत समय से हमारी यह इच्छा रही है कि जैन समाज का बीसवी सदी का एक प्रामाणिक इतिहास लिखा जाय, लेकिन खेद है कि हमारी वह इच्छा अभी तक पूर्ण नहीं हो सकी। वस्तुत इस इतिहास को वे ही भलीभांति लिख सकते है, जिनकी आँखो के आगे जैन समाज के ये पैतालीस-पचास वर्ष वीते हो । इतना ही नहीं, बल्कि जिन्होने इन दिनो में समाज के आन्दोलनो मे स्वय भाग लिया हो। हमारी दृष्टि में इस सवध मे सबसे अधिकारी व्यक्ति वा० सूरजभान जी वकील थे। वे बीसवी सदी के जैन समाज के सभी आन्दोलनो के दृष्टा थे और अनेक आन्दोलनो के जन्मदाता भी । उन्होने उस युग में, जब कि सुधार का नाम लेना भी कठिन था, ऐसे-ऐसे आन्दोलन किये जिनके सवध में आज भी इस विकास-युग में वडे-बडे सुवारक वगलें झांकने लगते है । स्व० वावू सूरजभान जी जैन समाज के आन्दोलन-भवन की नीव की ईंट थे। वे उच्चकोटि के लेखक भी थे। यदि उनके द्वारा जैन-समाज का बीसवी शताब्दी का इतिहास लिखा गया होता तो वह समाज के लिए अपूर्व चीज होती, किन्तु समाज का यह दुर्भाग्य है कि लाखो रुपये का प्रति वर्ष दान होने पर भी इस ओर कोई प्रयत्न न हो सका और आन्दोलनो के आचार्य वावू सूरजभान जी चले गये । अव हमारी दृष्टि श्रद्धेय प० नाथूराम जी प्रेमी की ओर जाती है। इस कार्य को अव वही कर सकते है क्योकि उन्होने भी वा० सूरजभान जी की भांति जैन समाज के इस युग के सभी आन्दोलन देखे हैं और उनमे से अधिकाग में स्वय भाग भी लिया है। कई आन्दोलनो के वे सृष्टा भी है। इधर के पचास वर्षों मे जैन समाज मे कई आन्दोलन हुए है, जिनमें से कुछेक का परिचय यहां दिया जाता है। (१) छापेखाने का आदोलन इस शताब्दी का जैन-समाज का यह प्रारभिक एव प्रमुख आन्दोलन था। जब जैन-प्रथो की छपाई शुरू हुई तो जैन समाज में तहलका मच गया। उसके विरोध में बडे-बडे आन्दोलन हुए। जैन-पुस्तको के प्रकाशको का वहिष्कार हुआ। उस समय छपी हुई जैन-पुस्तको को स्पर्श करने में पाप माना जाता था और उन्हें मदिरो में ले जाने की सख्त मनाई थी। इसके पक्ष-विपक्ष में कई वर्ष तक आन्दोलन चलते रहे। स्व० वाबू सूरजभान जी, स्व० बा० ज्योतिप्रसाद जी, प० चद्रसेन जी वैद्य तथा उनके कुछ साथी जैन-पुस्तकें छपा-छपा कर प्रचारित कर रहे थे और जैनसमाज का बहुभाग उनसे सख्त नाराज था। उनका बहिष्कार किया गया और जैन-धर्म के विघातक के रूप में उन्हें देखा गया। धीरे-धीरे विरोध कम होता गया। फलत जहां पहले पूजा-पाठो का छपाना भी पाप माना जाता था, वहाँ वडे-बडे आगम-अथ भी छपने लगे। यहां तक कि 'जैन-सिद्धान्त-प्रकाशिनी' सस्था की स्थापना हुई, जिसके द्वारा गोमट्टसार और राजवार्तिक आदि वीसियो अथ छपे तथा उनका सम्पादन, अनुवाद आदि उन पडितो ने किया, जो छापे के विरोधी थे। अव तो धवल-जयधवल आदि महान आगम-अथ भी छप गये है। यद्यपि अव भी कुछ नगरी के किसी-किसी मदिर में छपा हुआ शास्त्र रखने अथवा उसको गादी पर रख कर वचनिका करने की मुमानियत है, Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ तथापि यह केवल निष्प्राण रूढि ही रह गई है । अव तो सभी छपे हुए शास्त्रो को चाव से पढते है और उनकी उपयोगिता को अनुभव करते है। जिन्होने छापे का प्रारमिक विरोध अपनी आँखो से नही देखा, वे आज कल्पना भी नही कर सकते कि उसका रूप कितना उग्र था। उस समय ऐसा माना जाता था कि छापे' का यह आन्दोलन जैन-धर्म को इस या उस पार पहुंचा देगा। (२)दस्साओ का पूजाधिकार दस्सा-पूजा का आन्दोलन भी बहुत पुराना है। स्व०प० गोपालदास जी वरैया इसके प्रधान आन्दोलनकर्ताओ मे मे थे। जिस जमाने में उन्होने इस आन्दोलन को प्रारभ किया था, दस्सा-पूजाधिकार का नाम लेना भी भयकर पाप समझा जाता था। गुरु गोपालदास जी का समाज में वडा ऊँचा स्थान था। वर्तमान समय में जितने भी पडित दिखाई देते है, वे सब प० गोपालदास जी के ऋणी है और वे उन्हें अपना गुरु या 'गुरुणागुरु' स्वीकार करते है। ऐसे प्रकाण्ड सिद्धान्तज्ञ विद्वान ने जब देखा कि जन-धर्म की उदारता को कुचल कर अदूरदर्शी समाज एक बड़े समुदाय-दस्सानो-को पूजा से रोकती है और उन्हें अपने जन्मसिद्ध अधिकार का उपभोग नहीं करने देती तो उन्होने उसके विरोध में आन्दोलन किया और सरेआम घोषणा की कि दस्साओ को पूजन का उतना ही अधिकार है, जितना कि दस्सेतरो को। गुरु जी की इस घोषणा से भोली-भाली जन-समाज तिलमिला उठी। उसे उसमें धर्म डूवता दिखाई देने लगा। पण्डितो तथा धर्मशास्त्रो से अनभिज्ञ सेठ लोगो ने जैन-सिद्धान्त के मर्मज्ञ गुरू जी का विरोध किया, किन्तु उसका परिणाम यह हुआ कि यह आन्दोलन बहुत व्यापक बन गया । यह झगडा जन-पण्डितो और श्रीमानो के हाथो से निकल कर अदालत में पहुंचा। जैन समाज का करीव एक लाख रुपया वर्वाद हुआ और अन्त में जन-धर्म के सामान्य सिद्धान्तो से भी अनभिज्ञ न्यायाधीशो ने फैसला दिया कि चूकि रिवाज नही है, इसलिए दस्साओ को पूजा का अधिकार नहीं है। इस निर्णय के वावजूद भी आन्दोलन खत्म नही हुआ,क्योकि यह फैसला रिवाज को लक्ष्य करके दिया गया था और रिवाज तो मूढ जनता के द्वारा भी प्रचलित होते हैं। रिवाज का तभी महत्व होता है, जव उसके पीछे तर्क सिद्धान्त या आगम का वल हो, लेकिन दुख है कि रूढि-भक्त जन-समाज ने जैनागम की आज्ञा की चिन्ता न करके अपनी स्थिति-पालकता के वशीभूत होकर दस्सामो को पूजा करने से रोका और वह रोक आज भी पूर्णतया नही हटी है। कुछ वर्ष पूर्व अ०भा० दिगम्बर जैन-परिषद् ने इस आन्दोलन को अपने हाथ में लिया था और उसके आदेशानुसार कुछ कार्यकर्ताओ ने उत्तर भारत के कई नगरो का भ्रमण करके सुधार की प्रेरणा की, जिसके परिणामस्वरूप कई स्थानो पर दस्सामओ ने पूजा प्रारभ कर दी। दस्सानो के पूजाधिकार के सिलसिले में अनेक मुकदमे अदालतो मे लडे गये और कई स्थानो पर सिरफुटोवल तक हुई। तग आकर कई दस्सा-परिवार दिगम्बर जैन-धर्म का त्याग करके केवल इसलिए श्वेताम्बर हो गए कि उन्हें दिगम्बर-समाज पूजाधिकार देने के लिए तैयार नहीं था। आन्दोलन के परिणामस्वरूप समाज की मनोवृत्ति में कुछ परिवर्तन अवश्य हुआ है। लेकिन अभी इस दिशा में प्रयल आवश्यक है। (३) अतर्जातीय विवाह पिछले दो आन्दोलनो की भांति एक और आन्दोलन चला, जिसे विजातीय अथवा अन्तर्जातीय विवाहआन्दोलन कहा जाता है । यद्यपि यह आन्दोलन इस शताब्दी के प्रारम से ही चल रहा है, तथापि इसने अधिक जोर आज से लगभग बीस वर्ष पर्व तव पकडा जब प० दरवारीलाल जी न्यायतीथं ने इसे अपने हाथ में लिया। ५० दर Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज के बीसवी सदी के प्रमुख आन्दोलन ६५५ वारीलाल जी सिद्धहस्त लेखक है। क़रीब पाँच वर्ष तक इसी विषय को लेकर पडित जी लिखते रहे । उनकै लेखो के कारण स्थितिपालक पण्डितो में खलबली मच गई और उन्होने विरोध में कई लेख लिखे, लेकिन उनका विशेष परिणाम नही निकला । जैन समाज के कई पत्रो ने इस आन्दोलन में भाग लिया। कुछ ने पक्ष में लिखा, कुछ ने विपक्ष में । समाज ने दोनो प्रकार के लेखो को पढा और तुलना करके अधिकाश बुद्धिजीवी जनता अन्तर्जातीय विवाह के पक्ष में हो गई । उसी समय हमने 'विजातीय मीमासा' पुस्तक लिखी थी, जिसमे अपने पक्ष को युक्ति और श्रागम प्रमाणो से सिद्ध किया था । 1 श्रन्तर्जातीय विवाह की सगति और उपयोगिता को देख कर अनेक लोगो ने इसे क्रियात्मक रूप में परिणत कर दिया | जैन-समाज में धीरे-धीरे अन्तर्जातीय विवाह होने लगे । गुजरात प्रान्त के दिगम्बर जैनो की प्राय सभी उपजातियो में अन्तर्जातीय विवाह होने लगे । अधिकाश मुनिराजो ने वहाँ अन्तर्जातीय विवाह करने वालो के हाथ से आहार ग्रहण किया और वहाँ किसी प्रकार की धार्मिक या सामाजिक रोक नही रही । प्र० भा० दिगम्बर जैन - परिषद् ने इस आन्दोलन को पर्याप्त मात्रा में गति दी । यदि परिषद् के अग्रगण्य नेता और प्रमुख कार्यकर्त्ता स्वय अपनी सतान का अन्तर्जातीय विवाह करने का श्राग्रह रखते तो यह श्रान्दोलन और भी अधिक सफल सिद्ध होता । फिर भी गत बीस वर्ष के अल्प काल में यह आन्दोलन आशातीत सफल हुआ है । (४) जाली ग्रथों का विरोध 1 स्वामी समन्तभद्र ने शास्त्र का लक्षण करते हुए बताया है कि जो प्राप्त के द्वारा कहा गया हो और जिसका खडन न किया जा सके और जो पूर्वापर विरोध रहित हो, वह शास्त्र है । किन्तु दुर्भाग्य से पवित्र जैन - शास्त्रो के नाम पर कुछ स्वार्थी पक्षपाती भट्टारको ने पूर्वाचार्यों के नाम से अथवा अपने ही नाम से अनेक जाली ग्रंथो की रचना कर डाली और वे धर्मश्रद्धा या श्रागमश्रद्धा के नाम पर चलने भी लगे । इसी श्रद्धावश कई सौ वर्ष तक लोगो ने यह नही सोचा कि जो चातें हमारे जैनधर्म सिद्धान्तो के साथ मेल नहीं खाती, वे जिन ग्रंथो मे हैं, वे हमारे शास्त्र क्योकर हो सकते हैं ? ऐसी स्थिति में यह साहस कौन कर सकता था कि धर्म-प्रथो के प्रासन पर आठ उन ग्रंथो को जाली कह दे अथवा उनके बारे में ग्राशका प्रकट करे। यदि कभी कोई दवे शब्दों में शका करता भी तो उसे 'जिन बच में शका न धार' वाली पक्ति सुनाकर चुप कर दिया जाता । किन्तु इस प्रकार के जाली ग्रथ कव तक चल सकते थे । श्रद्धेय प० नाथूराम जी प्रेमी का 'जैन- हितैषी' पत्र निकलना प्रारंभ हुआ । उसमें स्वतंत्र और विचारपूर्ण लेख श्राने लगे ।. कुछ लेखको ने साहस किया और जाली ग्रथो के विरोध में लिखना प्रारंभ कर दिया। जैन समाज में तहलका मच गया। कट्टरपथी घवरा गये । उन्हें ऐसा लगा कि श्रव जैनागम का नाश हुआ । समालोचको के विरुद्ध लेख लिखे जाने लगे, सभाएँ होने लगी और उनका बहिष्कार किया जाने लगा। ज्योज्यो उनका विरोध हुआ, समीक्षको का साहस वढता गया, जिसके परिणामस्वरूप जाली ग्रंथो के विरुद्ध वीस लेख लिखे गये । उनमें से माननीय श्री प्रेमी जी और महान समालोचक-परीक्षक प० जुगलकिशोर जी मुख्तार का नाम सर्वप्रथम लिया जाता है । श्रद्धेय प्रेमी जी ने करीव २० वर्ष पूर्व लिखा था - "वर्षा का जल जिस शुद्ध रूप में बरसता है, उस रूप में नहीं रहता । श्राकाश के नीचे उतरते-उतरते और जलाशयो में पहुँचते-पहुँचते वह विकृत हो जाता है । फिर भी जो वस्तु-तत्व के मर्मज्ञ है उन्हें उन सब विकृतियो से पृथक वास्तविक जल का पता लगाने में देर नही लगती । · वेचारे सरल प्रकृति के लोग इस बात की कल्पना भी नही कर सकते कि घूर्त लोग श्राचार्य भद्रवाहु, कुन्दकुन्द, उमास्वाति, भगवज्जिनसेन आदि बडे-बडे पूज्य मुनिराजो के नाम से भी ग्रथ बनाकर प्रचलित कर सकते हैं ।" हर्ष और सौभाग्य की बात है कि माननीय प० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अपनी पैनी बुद्धि और तीक्ष्ण लेखनी से ऐसे बनावटी - जाली ग्रंथो के विरोध में श्राज से करीव तीस वर्ष पूर्व तव आन्दोलन खड़ा किया था, जब लोग Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ 'वावा वाक्य प्रमाण' को ही महत्व देते थे। श्री मुख्तार साहब ने सोमसेन त्रिवर्णाचार, धर्मपरीक्षा (श्वेताम्बर), अकलक प्रतिष्ठा-पाठ, और पूज्यपाद-उपासकाचार के विरोध मे युक्त्यागम सगत वीसो लेख लिखे, (जो 'अथ-परीक्षा' तीसरा भाग के नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित हुए) जिनसे समाज की आंखें खुल गई । इससे भी पूर्व उन्होने 'प्रथपरीक्षा के दो भाग लिखे थे, मोर 'जैनाचार्यों का शासन भेद' आदि पर लेख लिखे थे तथा करीब बारह वर्ष पूर्व 'सूर्य प्रकाश' अथ के खडन मे सूर्यप्रकाश परीक्षा' लिखी थी ।आपके उन लेखो और पुस्तकोने जैन समाज का वडा उपकार किया और समाज की अन्धश्रद्धा मिटाकर उसे सत्पथ दिखाया। ___ इसमे कोई सन्देह नहीं कि जिस सोमसेन 'त्रिवर्णाचार' की जिनवाणी की भांति पूजा हो रही थी, वह श्री मुख्तार साहब के लेखो और समीक्षा पुस्तको (ग्रथपरीक्षा भाग ३) से घृणास्पद माना जाने लगा । यह हाल उन सभी ग्रथो का हुआ, जिनके विरोध में मुख्तार साहब ने कुछ भी लिखा है। अभी-अभी कुछ मुनियो एव भट्टारकीय परम्परा वाले जैन साधुओ द्वारापुन रन तथा उनसे मिलते-जुलते जालो ग्रयो का प्रचार प्रारभ हुआ था। स्व० मुनि सुधर्मसागर जी का इसमें काफी हाथ रहा है । उन्होने 'सूर्यप्रकाश' और 'चर्चासागर' का प्रचार किया, 'दान-विचार' और 'सुधर्मश्रावकाचार' नामक प्रयो की रचना की, उन्हें छपाया और प्रचारित किया, किन्तु जब उनका डट कर विरोध हुआ, समीक्षाएँ लिखी गई तो समाज के नेत्र खुले और उन जाली ग्रथो के प्रति घोर धृणा हो गई। क्षुल्लक ज्ञानसागर जी (स्व० मुनि सुधर्मसागर जी) ने 'सूर्यप्रकाश' जैसे मिथ्यात्वपोषक अथ को आचार्य नेमिचन्द्रकृत बताने का प्रतिसाहस किया। उसका अनुवाद किया और छपवा कर उसे प्रचारित किया। श्री मुख्तार साहब ने उस के विरोध में कई लेख लिख कर उसे विल्कुल जाली, मिथ्यात्व पूर्ण और जैनत्व का नाशक सिद्ध कर दिया। चर्चासागर, दानविचार, और सुधर्मश्रावकाचार आदि ग्रन्यो की समीक्षाएँ हमने लिखी थी, जिन्हें लेकर कई वर्ष तक जैन-पयो में चर्चा चलती रही। हमारी पुस्तक 'चर्चासागर-समीक्षा' की भूमिका में प० नाथूराम जी प्रेमी ने लिखा था, "हमारा विश्वास है कि स्वर्गीय प० वनारसीदास जी और प० टोडरमल जी आदि ने जो सद्विवेक ज्ञान की ज्योति प्रकट की थी, वह सर्वथा वुझ नही गई ई-हजारो-लाखो धर्मप्रेमियो के हृदय में वह आज भी प्रकाशमान है-और इसलिए हमे यह आशा करनी चाहिए कि मलिनीकृत और निर्मल जिन-शासन के भेद को समझने में उन्हे अधिक कठिनाई नही पडेगी।" और भी बहुत से मिथ्यात्वपोषक अथ रचे गये, जिनका इस शताब्दी में खूब विरोध हुआ। दिल्ली] Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋग्वेद में सूर्या का विवाह श्री धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री ऋग्वेद हिन्दुओ का धार्मिक ग्रथ है अयवा आर्य सभ्यता की प्राचीनतम गाथा, दोनो ही दशाओ मे यह मानना पडेगा कि उसमें हमारी नभ्यता का उद्गम स्रोत विद्यमान है। पुरातत्त्व के विद्वानो के लिये भानव-विकाम की पहेली को नमझने की दृष्टि मे ऋग्वेद का अध्ययन आवश्यक है ही, पर हमारे लिये तो वह अनिवार्य है, क्योकि हमारे राष्ट्रीय जीवन का मूलरुप उममें मौजूद है, जिसका समझनान केवल हमारे समाज के नव निर्माण में सहायक होगा, प्रत्युत वह हमारे जीवन के लिए नवीन स्फूर्ति का सतत श्रोत भी होगा। हमारे पारिवारिक और सामाजिक जीवन का आधार विवाह की प्रथा है। इस प्रथा के विषय में जो कुछ भी परिचय हमें ऋग्वेद मे मिलता है वह हमारे लिये कितना रुचिकर और उपयोगी होगा, यह कहने की आवश्यकता नही। ऋग्वेद-जैसे विस्तृत आय में विखरी हुई विवाह-मवधी जितनी बातें है, उन सव का सचय कर उन्हें व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करना महान् कार्य है। यह लेख विवाह-सवधी मुख्य सूक्त-'सूर्यासृक्त' (मण्डल १०, सू० ८५)के अध्ययन तक ही सीमित है । उस सूक्त से, जहाँ तक उसका अर्थ इस समय तक समझा जा सका है, विवाह-प्रथा के विषय में हमें जो परिचय मिलता है, वही इस लेख मे दिखाया जायगा। ऋग्वेद आर्यों या भारत-यूरोपीय (IndoEuropean)परिवार काही नहीं, प्रत्युत सारी मानव-जाति का सबसे प्राचीन ग्रथ निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जाता है। इसलिए उसमें सूर्या के विवाह का वर्णन मानव-जाति के इतिहास में विवाह का सबसे पुराना वर्णन है और इस दृष्टि से वह हमारे लिये अत्यन्त रोचक है। उस प्रागैतिहासिक काल मे जो विवाह-प्रया की झलक दिखाई देती है, आज तक भी हिन्दुओं के विवाह में वही प्रथा लगभग उसी रूप मे विद्यमान है । सच तो यह है कि सूर्या आर्य-जाति की आदि वधू है और आज भी प्रत्येक आर्यवधू, जो विवाह-मण्डप मे आती है, सूर्या काही रूप है, मानो वार-बार 'सूर्या' ही हमारे सामने आती है। युगान्तरकारी राजनैतिक परिवर्तनो के वीच भी हिन्दुओ ने अपनी सामाजिक प्रयानो को अक्षुण्ण रक्खा है, इसका इमसे वडा प्रमाण और क्या मिल सकता है ? ऋग्वेद में सूर्या का विवाह प्राकृतिक जगत में होने वाली एक घटना का आलकारिक रूप है, जैसा कि हम आगे देखेंगे। वस्तुत ऋगवेद के अधिकाश देवता प्राकृतिक घटनाओ की पुरुषविध (Anthropomorphic) कल्पना के रूप में है, यह वात प्राय सभी वैदिक विद्वान् स्वीकार करते है। आलङ्कारिक होते हुए भी उस में जो विवाह सम्बन्धी वर्णन है और विशेषकर विवाह के विषय में प्रतिज्ञा-सूचक मन्त्र है उनमें से अधिकाश गृह्य-सूत्रो में दी हुई विवाह की पद्धति में लिये गये है, और वे आज तक हिन्दुओ की विवाह-पद्धति में प्रचलित है। इन ऋचामो में विवाह के सवध में जैसे हृदय-स्पर्शी उदात्त भाव है, वैसे ससार की किसी भी विवाह-पद्धति में मिलना कठिन है। Winternitz Indian literature Vol P 107 Macdonell. Sanskrit Literature p 67 “ Process of Personification by which natural phenomena developed into gods” 'पारस्कर गृह्यसूत्र काण्ड १, कण्डिका ३-८। 'ऋषि दयानन्दः संस्कारविधि विवाह प्रकरण । तथा षोडश सस्कार-पद्धति गोविन्द प्रसाद शास्त्री रचित (सनातन धर्मरीत्या)-विवाह प्रकरण । ८३ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५८ प्रेमी-अभिनवन-पथ यदि इस समय हमारी विवाह-पद्धति की गौरव-गभीरता उतनी प्रभावोत्पादक नहीं तो इसका कारण सभवत यह है कि अनेक प्रकार की विधियो के विस्तृत जजाल में, जो कि आधुनिक समय में नीरस, निरर्थक और वहुधा हास्यास्पद-सी प्रतीत होती है, इन ऋचाओ का सरल सौदर्य बिलकुल दब जाता है। यदि समयानुसार प्रभावोत्पादक और सरल विवाह-पद्धति तैयार की जाय तो इन ऋचाओ की उदात्त, ओजस्वी और सजीव भावना में विवाह का सर्वोत्कृष्ट आदर्श मिलेगा। सूर्यासूक्त मे हमे विवाह-पद्धति का परिपूर्ण चित्र नहीं मिलता, परन्तु फिर भी उस दिशा में इस सूक्त से जो परिचय प्राप्त होता है, वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है। सूर्यासूक्त ऋग्वेद के दशम मण्डल का ६५वां सूक्त है। इसमें ४१ ऋचाए है । इस प्रकार यह ऋग्वेद के वडे सूक्तो मे से है । इस सूक्त की ऋषि भी स्वय सूर्या है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि ऋग्वेद के और भी अनेक सूक्तो की ऋषि स्त्रियाँ है । इस सूक्त के देवता, जो कि विषयसूचक होते है, विभिन्न है । पहले पाँच मनो में सूर्या के पति सोम का वर्णन है । इसलिए उनका देवतासोम है। अगले ११ मनो में विवाह का वर्णन है । अत उनका देवता विवाह ही है। इसी प्रकार अगली ऋचालो में भी विवाह-सवधी आशीर्वाद, वस्त्र आदि का वर्णन है। इसलिए उन-उन विषयो को ही इस सूक्त का देवता कहा जायगा । इस सूक्त की ऋचाओ का क्रम, पूर्वापर भाव अभी तक स्पष्ट समझ में नहीं आ सका है। यह कहना अप्रासगिक न होगा कि किसी वैदिक विद्वान द्वारा इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सूक्त के विशिष्ट अध्ययन का पता लेखक को नहीं मिला है। पूर्वापर भाव स्पष्ट न होने से हमें मत्रो पर विचार करने मे सूक्त का क्रम छोडना पड़ा है। अनेक ऋचामो का प्राशय अभी तक स्पष्ट नहीं है। इसलिए केवल ऐसी ऋचामो पर ही इस लेख में विचार किया जायगा, जो स्पष्ट रूप से विवाहपद्धति के विषय में प्रकाश डालती है ।। सबसे पहले सूर्या के विवाह के अलकार की आधारभूत प्राकृतिक घटना का समझना आवश्यक है, क्योकि जो विद्वान ऋग्वेद को प्राचीन युग की गाथा के रूप में ऐतिहासिक दृष्टि से देखते है, वे भी इस सूक्त में ऐतिहासिक गाथा न मान कर इसे प्राकृतिक घटना काही पालकारिक वर्णन स्वीकार करते है । यहाँ 'सूर्या' सूर्य या सविता की पुत्री है। बहुतो के विचार मे यह सविता की पुत्री 'उषा' है, परन्तु वस्तुत यह प्रतीत होता है कि सूर्य की किरणें ही सूर्य की पुत्री 'सूर्या' के रूप में है । 'सोम' ऋग्वेद मे साधारणतया उस वनस्पति के लिये प्राया है, जिससे सोमरस निकाला जाता था, परन्तु यह सोम वनस्पतियो का राजा है और चन्द्रमा को भी वनस्पतियो का राजा माना गया है। इसलिये 'सोम' शब्द चन्द्रमा के लिये भी ऋग्वेद में तथा वाद के साहित्य मे आने लगा है। इस सूक्त में भी सोम शब्द चन्द्रमा के लिये है, यह सूक्त के प्रथम पांच मत्रो में ही स्पष्ट कर दिया गया है। प्रश्न यह है कि चन्द्रमा का सूर्य की किरणो के साथ विवाह का क्या अर्थ है ? सभी जानते है कि चन्द्रमा सूर्य की किरणो द्वारा ही चमकता है। वैज्ञानिक बताते है कि चन्द्रमा वुझे हुए कोयले का एक बड़ा पिण्ड माना गया है। सूर्य की किरणो से सयुक्त होकर वह चमक उठता है, प्रकाशक और आह्लादक होता है और कवियो की कल्पना मे वह अमृत से भरा हुआ सुधासमुद्र बन जाता है। यही घटना चन्द्रमा से सूर्य की किरणो का विवाह है। कितनी हृदयङ्गम कल्पना है। इसमें कितना महत्त्वपूर्ण सत्य विद्यमान है । मनुष्य का जीवन कोयले का ढेर है, नीरस है, अन्धकारमय है, निर्जीव है, किन्तु स्त्री का सयोग उसे सरस वनाता है, प्रकाश देता है और सजीव कर देता है । स्त्री पुरुष के जीवन की ज्योति है। सूक्त के मत्रो पर विचार करने से पूर्व यह बतला देना आवश्यक है कि ऋग्वेद की नारी आधुनिक हिन्दू समाज की नारी के समान निर्वल, दलित और व्यक्तित्वहीन नही, प्रत्युत वह गौरवशालिनी गृह की स्वामिनी है । वह वशिनी' सारे घर को वश में करने वाली है। इतना ही नही वह घर की 'सम्राज्ञी है। इससे अधिक गौरवपूर्ण अधिकार 'ऋग्वेद १०८।२६ । 'ऋग्वेद १०५०४६ । Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋग्वेद में सूर्या का विवाह ६५६ सूचक शब्द क्या हो सकता है ? हमारी सस्कृति मे यह भावना चली आती है कि स्त्री ही घर है-'गृहिणी गृहमुच्यते' इस भावना का स्रोत भी ऋग्वेद का यह मत्र ही है-'जायेदस्तम्" (जाया+इत् +अस्तम्) अर्थात् स्त्री ही घर है । ऋगवेद मे स्त्री का यह स्वरूप प्राधुनिक पालोचको की भावना से मेल नहीं खाता, क्योकि समझा जाता है कि वैदिक आर्यों का समाज पितृतन्त्र (Patriarchic) परिवार से बना था, जिसके अनुसार स्त्री का पद हीन है। इसके विपरीत भारत मे पार्यों से पहले विद्यमान द्राविड सभ्यता का परिवार मातृतन्त्र (Matriarchic) था, जिसमें स्त्री का स्थान पुरुष से अधिक गौरवपूर्ण है । आर्य एक स्थान पर न रहने वाले साहसप्रिय विजेता थे। इसलिये उनके समुदाय में स्त्रियो का पद उतना गौरवशाली नही हो सकता था, परन्तु द्राविड सभ्यता स्थिर जीवन की पोषक नागरिक सभ्यता थी। अत उसमे स्त्री का पद उच्च होना स्वाभाविक था । इस दृष्टि से आधुनिक हिन्दू समाज में, जो कि वैदिक आर्यो तथा द्राविड जाति की सस्कृति का सम्मिश्रण है, स्त्रियो का पद वैदिक संस्कृति से कुछ उच्चतरही होना चाहिए था, परन्तु वास्तविक स्थिति इससे ठीक उल्टी है। किन-किन सस्कृतियो के सपर्क से किन-किन परिस्थितियो मे भारतीय नारी का सामाजिक पद उन्नत और अवनत हुआ है, यह इतिहास के विद्यार्थियो के लिये एक जटिल समस्या है, जिसका पालोचनात्मक अध्ययन होना चाहिए। ___ स्त्री का पद गौरवपूर्ण होते हुए भी वैदिक संस्कृति मे इस प्राकृतिक तथ्य को स्वीकार किया गया है कि स्त्री पुरुष के द्वारा रक्षा और आश्रय की उपेक्षा रखती है। विवाह से पूर्व कन्या माता-पिता के पाश्रय में रहने के साथसाथ विशेषकर अपने भाई के मरक्षण में रहती है, यह वैदिक संस्कृति के 'भ्राता' शब्द की विशेष भावना है। 'भ्राता' शब्द का घात्त्वर्थ न केवल सस्कृत मे, प्रत्युत भारत-यूरोपीय परिवार की सभी भाषाओ में (रक्षा करने वाला) अर्थात् वहिन का रक्षक है। इस प्रकार 'भ्रातृत्त्व' का प्रवृत्ति निमित्तक मूल अर्थ वहिन की दृष्टि से ही है। दो सगे भाइयो के बीच 'भाई' शब्द का प्रयोग गौण रूप से ही हो सकता है। उसका मौलिक प्रयोग तो वहिन की दृष्टि से होता है। इसी लिये भाई के द्वारा वहिन की रक्षा का भाव हमारी संस्कृति मे अोतप्रोत है और वह मनुष्य की उदात्ततम भावनायो मे गिना जाता है । इमी दृष्टि से भाई बहिन का स्नेह अत्यन्त निष्काम और मधुरतम है तथा भाई का वहिन के प्रति कर्तव्य अति वीरोचित भावनामे भरपूर है । पजावी भाषा में भाई के लिए 'वीर' शब्द का प्रयोग कितनासारगर्मित है। इस प्रकार ऋग्वेद की नारी जहां वर्तमान हिन्दू स्त्री के समान गौरवहीन और व्यक्तित्वहीन नही है, वहाँ आधुनिक पश्चिम की नारी के समान पुरुष की रक्षा और छाया से पृथक् स्वच्छन्द विचरने वाली स्त्री भी नही है । विवाह के सवध मे पति का चुनाव एक मौलिक प्रश्न है । यह चुनाव भी न तो वर्तमान हिन्दू समाज के समान है, जिसमे कन्या और वर का कोई हाथ ही नही और न पश्चिम के समान है, जिसमें युवक और युवती ही सर्वेसर्वा है और स्वय ही अपने लिए साथी ढूढते है । ऋग्वेद के चुनाव मे तीन अश स्पष्ट दिखाई देते है (१) वर वधू का पारस्परिक चुनाव, विशेषकर कन्या का अपनी इच्छापूर्वक पति को चुनना। (२) माता-पिता और वन्धुप्रो द्वारा चुनाव मे सहयोग, प्रयत्न और अनुमति । (३) सार्वजनिक अनुमति अर्थात् साधारण पडोसी जनता द्वारा उस सबध की स्वीकृति । इन तीन वातो पर प्रकाश डालने वाले सूर्यासूक्त के दो महत्त्वपूर्ण मन्त्र निम्नलिखित है यदश्विना पृच्छमानावयात त्रिचक्रेण वहत सूर्याया। विश्वे देवा अनु तद्वामजानन् पुत्रः पितराववृणीत पूषा ॥ (ऋ० १०८५०१४) 'ऋग्वेद १०॥५३॥४॥ Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन-ग्रंथ ६६० सोमो वड्युरभदश्विवास्तामुभा वरा। सूर्या यत्पत्ये शसती मनसा सविता ददात् ॥ (ऋ० १०१८ ) अर्थात् (अ) जिस समय हे अश्विन् ! तुम सूर्या के विवाह का प्रस्ताव करते हुए तीन चक्रवाले रथ मे आये, सव देवो ने तुम्हारे प्रस्ताव पर अनुमति दी और पुत्र पूषा (?) ने तुमको पिता के रूप में चुना। (आ) उस समय मोम वधुयु (वधू को चाहने वाला वर) था और दोनो अश्विन वर (यहां वर दूसरे अर्थ में है जैसा कि नीचे स्पष्ट किया जायगा) थे, जव कि मन से पति को चाहती हुई सूर्या को (उसके पिता) सविता ने (सोम के लिये) दिया। इन मत्रो से निम्नलिखित वाते स्पष्ट होती है (१) इस विवाह में 'सूर्या' वधू है और सोम 'वधूयु' अर्थात् वधू को चाहने वाला या वरने वाला है। यहाँ 'वधूयु' शब्द प्रचलित 'वर' के अर्थ में है। (२) दोनो अश्विन वर है। यह स्पष्ट है कि यहां वर शब्द प्रचलित अर्थ से भिन्न अर्थ में है। यहाँ 'वर' का अर्थ विवाह करने वाला नहीं है, बल्कि विवाह करने वाले वधूयु के लिये कन्या का चुनने वाला, ढूढने वाला, विवाह का प्रस्ताव लेकर जाने वाला और विवाह को निश्चय कराने वाला 'वर' है। दोनो 'अश्विन्' वर है, क्योकि वे सोम के लिए कन्या को चुनते हैं । विवाह का प्रस्ताव लेकर जाते है । पाश्चात्य व्यवहार में उनको वर का मुख्य प्रादमी कहा जा सकता है। (३) अश्विन् जिस विवाह का प्रस्ताव लेकर जाते है, जो चुनाव उन्होने किया है, उस पर सब देव (सव जनता) जो परिवार से सम्बद्ध है, अपनी अनुमति देते है। (४) दोनो अश्विनो के प्रस्ताव करने पर सूर्या का पिता सविता उसे स्वीकार करता है। (५) परन्तु पिता की अनुमति तभी सभव हो सकी जव कि वधू सूर्या ने सोम को इच्छापूर्वक पति स्वीकार किया है (पत्ये शसती मनसा)। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि चुनाव में तीन अश है-कन्या के द्वारा चुनाव, माता-पिता की स्वीकृति और जनता की अनुमति। यहां पूर्वोक्त १४वें मन्त्र के अन्तिम पद-पुत्र पितराववृणीत् पूषा' का कुछ विवेचन करना अप्रासगिक न होगा। शब्दार्थ तो यही होगा कि "पुत्र पूषा ने तुम अश्विनो को पिता के रूप में चुना"। इसका क्या मतलब हो सकता है ? इस पर सायण चुप है, पर ग्रिफिथ लिखता है, 'पूषा' सूर्य है। उसने अश्विनो को पिता इसलिए माना कि उन्होने उसकी लडकी के विवाह का प्रवध किया, परन्तु यह बिलकुल अयुक्त मालूम पडता है, क्योकि अश्विन, जैसा ऊपर कहा गया है, 'सोम' की तरफ के मुख्य पुरुष है। उसको लडकी का पिता सविता अपना वन्यु या भाई चुन सकता है, न कि पिता, क्यो कि सविता सोम का श्वशुर पितृस्थानीय है। वह सोम के पक्ष के व्यक्ति को यदि वह (मोम का) पितृस्थानीय भी हो तो उसे 'भाई' चुन सकता है, न कि पिता । वस्तुत सायण, ग्रिफिथ, या अन्य टीकाकारो को इसका अर्थ स्पष्ट नहीं हुआ। ऐसा प्रतीत होता है कि यहां 'पूषा' शब्द सोम के लिये है, जिसका कारण कोई भी वैदिक कल्पना हो सकती है, जो कि स्पष्ट नहीं है। चाहे किसी विशेष दृष्टि से हो, पर है यह 'पूपा' शब्द सोम के लिये । जव 'अश्विन्' सोम के लिये कन्या ढूंढने चलते है तो यह स्वाभाविक है कि सोम उन अश्विनो को अपना पिता चुने । 'पूषा' शब्द इस सूक्त में सविता के लिये नही हो सकता, बल्कि सोम के लिये ही है। यह बात इस सूक्त के २६वे मत्र से भी स्पष्ट होती है । २६वें मत्र का पहिला भाग इस प्रकार है - पूषा स्वेतो नयतु हस्तगृह्माश्विना त्वा प्रवहता रथेन ॥ (ऋ० १०८।२६) Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋग्वेद में सूर्या का विवाह ६६१ हे सूर्या (वधू) पूपा हाथ पकड कर तुमको यहाँ से ले जाये और दोनो श्रग्विन् तुमको ( पति के घर) रथ से पहुँचायें । यह तो इस मूक्त में स्पष्ट हो जाता है कि सूर्या को रथ पर बैठा कर ले जाना श्रश्विनो का काम है, परन्तु 'सूर्या' को हाथ पकट कर ले जाने वाला 'पूपा' सोम ही हो सकता है, न कि सूर्या का पिता सविता । कुछ भी हो, 'पूपा' का वास्तविक श्रर्थं इम मूक्त में विचारणीय है । कन्या के द्वारा स्वेच्छापूर्वक वर के चुनाव की बात ऋग्वेद में दूसरी जगह और भी स्पष्ट और कुछ अविक जोरदार शब्दो में पाई जाती है । ऋग्वेद के १० वें मण्डल के २१वें मूक्त का मन्य है ― भद्रा वघूर्भवति यत्सुपैशा स्वय सा मित्र वनुते जनेचित् ॥ ऋ १०।२१।१२ जो मगलम्बस्पा सुन्दर वधू है, वह मनुष्यों में अपने 'मित्र' (साथी पति) को स्वय चुनती हैं । यहाँ पर 'स्वय वनुते' यह बहुत ही स्पष्ट हैं । पति के चुनाव के बाद प्रश्न आता है विवाह की तिथि के निर्णय का। इस विषय में सूर्यामूक्त का १३ वाँ मन्त्र इस प्रकार है - सूर्याया वहतु प्रागात् सविता यमवासृणत । अघासु हन्यन्ते गावोऽर्जुनो पर्युह्यते ॥ १०१६८५ १३ सूर्या का विवाह सववी दहेज (वहतु ) जो सविता ने दिया, पहिले ही भेजा गया, श्रघा ( मघा नक्षत्रों मे श्रर्थात् (माघ मास में) गायें चलने के लिये ताडित की जाती है और अर्जुनी नक्षत्रो में (फाल्गुनी माम में) विवाह के बाद वधू को ले जाया जाता है । इम मन्त्र से निम्न बातें हमारे सामने आती है (१) विवाह में कन्या का पिता' दहेज देता है और वह दहेज विवाह मे पहिले ही भेज दिया जाता है । दहेज के विषय में अधिक विचार श्रागे किया जायगा । - (२) 'अघासु हन्यन्ते गाव ' इसका अर्थ सायण करता है कि माघ मास में दहेज में दी हुई गायें सोम के घर जाने को ताडित की जाती है, अर्थात् प्रेरित की जाती है । परन्तु 'राय' (Roth) के अनुसार एक मास पूर्व होने वाले विवाह सवघी भोज के लिये गायें मारी जाती है, ऐसा अर्थ है । यहाँ पहिले भाग मे स्पष्ट रूप से दहेज की चर्चा है और यह बात मानी हुई है कि दहेज की मुख्य वस्तु गायें थी, जो प्रया जामाता को गोदान देने के रूप में आजतक विद्यमान है । इसलिए मायण का श्रयं ही उपयुक्त प्रतीत होता है । (३) गायें माघ के मास में भेजी जाती है और विवाह उसके बाद फाल्गुन मास में होता है । फाल्गुन माम ही विवाह का समय था, या केवल सूर्या के विवाह में ही फाल्गुन मास है, यह बात विचारणीय है । ऊपर दहेज की चर्चा श्राई है। ऋग्वेद में दहेज विवाह का आवश्यक श्रम प्रतीत होता है । यद्यपि श्राजकल दहेज की प्रया हिन्दू समाज के लिए अभिशाप रुप हो रही हैं, तयापि यह याद रखना चाहिये कि दहेज की प्रथा की मौलिक भावना कन्यात्रो के मवध में उच्च नैतिक श्रादर्श को प्रकट करती है । ससार की उन प्राचीन जातियों में, जहाँ नैतिक आदर्शो का विकास नही हुआ था, प्राय कन्या के विवाह में वन लेने की या दूसरे शब्दो में कन्या को बेचने की प्रथा पाई जाती है । दहेज की प्रथा ठीक उसका उल्टा रूप है ।" 'दहेज देने का सबध विशेषकर भाई के साथ हैं, ऐसा ऋग्वेद के १११०६।२ मन्त्र से प्रतीत होता है । १ कुछ श्रालोचकों का विचार है कि दहेज की प्रथा के साथ-साथ उससे विपरीत इस प्रथा की भी झलक ऋग्वेद में मिलती है कि वर की ओर से कन्या के माता-पिता को धन दिया जाय । Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी अभिनवन - प्रथ मुख्य दहेज़ 'गो' का है, जो पहिले ही भेज दिया जाता था, जैसा कि ऊपर श्राया है, परन्तु उसके सिवाय अन्य दहेज का भी वर्णन सूर्यासूक्त के ७वें मन्त्र मे है ६६२ चित्तिरा उपबर्हण चक्षुरा अभ्यञ्जनम् । भूमिः कोश श्रासीद्यदयात् सूर्या पतिम् ॥ ( ऋ० १०१६८५१२ ) चित्ति ( विचार या देवता विशेष ) उसका तकिया था और चक्षु ही नेत्रो में लगाने का अञ्जन या उवटन था । द्युलोक और भूमि ही सूर्या का कोष था, जब कि वह पति के घर गई । इस मन्त्र में तो आलकारिक वर्णन होने से दहेज की वस्तुएँ काल्पनिक है, पर यह प्रकट होता है कि (१) तकिया या तकिया से उपलक्षित बिस्तर (पलग आदि ) तथा (२) शृगार सामग्री और (३) बहुत सा धन दहेज में दिया जाता था । दहेज का बहुत कुछ यही रूप अभी तक चला आ रहा है । विवाह के समय जिस प्रकार वर के मुख्य कार्यकर्ता पुरुष अश्विन् है, उसी प्रकार कन्या की सहेलियाँ भी होती थी, जो विवाह संस्कार में सहायता देती थी ― रैभ्यासीदनुदेवी नाराशसी न्योचनी । सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथयेति परिष्कृतम् ॥ ( ऋ० १०२८५२६) रंभी (ऋचा) उसकी सहेली ( श्रनुदेयी) नाराशसी (ऋचा) उसको पति घर ले जाने वाली ( न्योचनी) थी और सूर्या की सुन्दर वेशभूषा गाया ने सजाई थी । सूर्या के विषय में तो सहेलियाँ ऋचाओ के रूप में काल्पनिक है, परन्तु सहेलियो का असली रूप क्या था ? सायण के अनुसार 'अनुदेवी' का अर्थ है वह सहेली, जो वधू के साथ जाती है और 'न्योचनी' जो कि सेविका के रूप में वधू के साथ मे भेजी जाती है, परन्तु इन सब का वास्तविक रूप अभी तक अस्पष्ट ही है । इसके बाद सस्कार के समय पुरोहित क्या प्रादेश देता था और वर-वधू का वाग्दान किस रूप में होता था, इस पर सूर्यासूक्त क्या प्रकाश डालता है, यह देखना चाहिए । सूर्यासूक्त का पहिला मत्र है सत्येनोत्तभिता भूमिः सूर्येणोत्तभिता द्यो ऋतेनादित्यास्तिष्ठन्ति दिवि सोमो श्रधिश्रित ॥ ( ऋ० १०८५११ ) सत्य के द्वारा पृथिवी ठहरी हुई है और सत्य के द्वारा ही सूर्य ने आकाश को सभाल रक्खा है । प्रकृति के अटल सत्य नियम से आदित्य ठहरे हुए है और उसी से श्राकाश मे चन्द्रमा स्थित है । विवाह-संस्कार और दाम्पत्य जीवन की भूमिका में क्या इससे सुन्दर भाव रक्खे जा सकते है ? सारा जगत 'सत्य' पर ठहरा हुआ है और वह सत्य ही दाम्पत्य जीवन का आधार है। मानव के अन्दर भगवान का दिव्य रूप सत्य साधना ही है । जीवन भर के लिये किसी को अपना साथी चुनना मानव-जीवन की सबसे पवित्र और सबसे महत्त्वपूर्ण सत्य प्रतिज्ञा है । यह 'सत्य' ही दो हृदयो के ग्रन्थि-वन्धन का श्राधार है । उस सत्य को साक्षी बना कर विवाह सस्कार का प्रारंभ होता है । यह विचित्र सी बात है कि गृह्यसूत्रो में इस महत्त्वपूर्ण मन्त्र को विवाह-संस्कार में स्थान नही दिया । वस्तुत यह एक बडी भूल हुई है । विवाह सस्कार की प्रस्तावना में इस वैदिक ऋचा के द्वारा उच्च मधुर स्वर मे 'सत्य' का आवाहन कितना प्रभावोत्पादक होता होगा । इसके वाद विवाह-संस्कार का प्रारंभ होता है, जिसका मुख्य रूप पुरोहित की घोषणा है, जो इस सूक्त के विशेषकर चार मन्त्रो (२४-२७) मे है । ये चारो मन्त्र अत्यन्त सारगर्भित भावो से भरे हुए हैं । यहाँ यह कह देना अनावश्यक न होगा कि इस सूक्त के सारे मन्त्रो का सबध विशेषकर कन्या से ही है, क्योकि विवाह-संस्कार की Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋग्वेद में सूर्या का विवाह ६६३ मुख्य पात्र कन्या है, वर उतना नही, क्योकि विवाह-सस्कार के द्वारा कन्या अपना व्यक्तित्व वर के व्यक्तित्व में मिलाती है। मन्त्र निम्नलिखित है - प्रत्वा मुञ्चामि वरुणस्य पाशा येन त्वाऽवघ्नात् सविता सुशेव । ऋतस्य योनौ सुकृतस्य लोकेऽरिष्टा त्वा सह पत्या दधामि ।। (ऋ० १०८५५२४) हे सूर्ये, मै तुम्हें उस वरुण के पाश से छुड़ाता हूँ, जिससे सुखद सविता ने तुम्हें बांध रक्खा था। मैं तुमको जो अक्षत (सर्वथा प्रदूषित) हो, इस सत्य प्रतिज्ञा (ऋत) की वेदी पर पुण्य कर्म-युक्त जगत में जाने के लिये पति के साथ जोडता हूँ। वह वरुण (सत्य धर्म के अधिष्ठाता देव) का वन्धन, जिससे कन्या पिता के घर बंधी हुई है, कौमार जीवन का व्रत है। विवाह के समय तक कन्या 'अरिष्टा' है, उसका पवित्र कौमार्य अक्षत है। सत्य की वेदी पर उसे पति के साथ पुरोहित ने जोडा है, पुण्य कर्मों के जगत में (सुकृतस्य लोके) जाने के लिये, क्योकि पुण्य का सचय ही दाम्पत्य जीवन का आदर्श है। प्रेतो मुञ्चामि नामुत सुवद्धाममुतस्करम् । यथेयमिन्द्र मीदः सुपुत्रा सुभगासति ॥ (ऋ० १०८।२५) मै (पुरोहित) इस कन्या को इधर से (पितृकुल से) छुड़ाता हूँ, उधर से जोडता हूँ, जिससे कि हे वर्षक इन्द्र, यह कन्या पुत्रवाली और भाग्यशाली हो।। इस प्रकार कन्या पितृकुल से छूटकर दृढता के साथ पतिकुल में जुड़ जाती है । पूषा त्वेतो नयतु हस्तगृह्याश्विना त्वा प्रवहता रथेन । गृहान गच्छ गृहपत्नी यथासो वशिनी त्व विदयमावदासि ॥ (ऋ० १०८।२६) पूषा तुम को हाथ पकड कर यहाँ से ले जाये और दोनो अश्विन तुम को (पति के घर) रथ में पहुंचाएँ। तुम पति के घर जाओ, जिससे उनके घर की स्वामिनी होकर और सारे घर को वश मे कर (वशिनी) अपने अधिकार (विदथ) की घोषणा करो। __पति के घर में पत्नी की मर्यादा और स्थिति क्या है, इस बात को यह मन्त्र बताता है । इस मन्त्र के तीन शब्द वहुत ही महत्त्वपूर्ण है। (१) 'गृहपत्नी' (घर की स्वामिनी) (२) 'वशिनी' (सव घर को वश मे रखने वाली) (३) 'विदयमावदासि' शासन अधिकार की घोषणा करने वाली (विदथ-शासन) । सायण ने 'वशिनी' का अर्थ किया है, सब घर के लोगो को वश में लाने वाली अथवा पति के वश में रहने वाली। यह स्पष्ट है कि 'वशिनी' का पिछला अर्थ वश में रहने वाली विलकुल असगत है और सायण ने अपने काल की परिस्थिति के अनुसार यो ही कर डाला है। अगला मन्त्र सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है - इह प्रिय प्रजया ते समृध्यतामस्मिन् गृहे गार्हपत्याय जागृहि । राना पत्या तन्व ससृजस्वाधा जिवी विदथमावदाथ ॥ (ऋ० १०।८।२७) इस पतिकुल में तुम्हारा प्रिय सुख-सौभाग्य सन्तानो के साथ समृद्ध हो। इस घर में तुम गृहपतित्व सबधी कर्तव्य के प्रति सजग रहो। इस पति के साथ अपने शरीर (व्यक्तित्व) को जोड कर एक कर दो और फिर दोनो एक होकर वृद्ध होने तक अपने अधिकार का पालन करो। Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ ६६४ मन्त्र के पहिले भाग मे सन्तानो के साथ समृद्ध होने और अपने गृह-स्वामिनी होने के कर्तव्य और अधिकार के विषय में जागरूक रहने का आदेश है । मन्त्र के दूसरे भाग मे गृहस्थ जीवन के चरमनिष्कर्ष को रख दिया है। पति के साथ अपने शरीर को जोडना भौतिक अर्थ मे नही, किन्तु पात्मिक अर्थ में है। (हमारे प्राचीन साहित्य में आत्मा और शरीर दोनो शब्द एक दूसरे के लिये प्राजाते है)। इस प्रकार पति-पत्नी एक हो जाते है और उनके लिये उसके साथ ही सम्मिलित द्विवचन का प्रयोग बुढापे तक अधिकार-पालन के विषय मे आ जाता है। जब पुरोहित ने दोनो को एक कर दिया तब वह कह सकता है - गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्त मया पत्या जरदष्टिर्यथास। भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मा त्वादुर्गाहपत्याय देवा ।। (ऋ० १०१८२३६) मै सौभाग्य के लिये तेरा हाथ ग्रहण करता हूँ, जिससे कि तू मुझ पति के साथ वृद्धावस्था तक पहुचे। भग, अर्यमा, सविता और पुरन्धि इन देवो ने मुझे गृहस्थ जीवन के कर्तव्य-पालन के लिये तुझे दिया है। यहां पर एक वात महत्त्वपूर्ण है । 'सौभाग्य' (सोहाग) जो स्त्री के लिये सव से वडे गौरव के रूप में हमारी सारी पिछली सस्कृति में माना गया है, इस मन्त्र के अनुसार पति के लिये भी अपेक्षित है। पति को भी पत्नी के द्वारा अपना सौभाग्य' (सोहाग) चाहिये । इसलिये वैदिक संस्कृति के अनुसार यह 'सोहाग' दुतरफा है, एकतरफा नहीं। इसके बाद दोनो दम्पत्ति मिल कर प्रार्थना करते है - समञ्जन्तु विश्वे देवा समापो हृदयानि नी । स मातरिश्वा सधाता समुदेष्ट्री दधातु नौ । (ऋ० १०६५४७) सारे देव हम दोनो के हृदयो को जोड कर एक कर दे और जल के देवता जल के समान हमारे हृदयो को जोड दे। मातरिश्वा, पाता और देष्ट्री' (देवी) हम दोनो के हृदयो को मिलाएँ। यह इस सूक्त का अन्तिम मन्त्र है। इसके सिवाय कई आशीर्वादात्मक मन्त्र है जो कम महत्त्वपूर्ण नहीं है और परिस्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डालते है । निम्नलिखित मन्त्र में पुरोहित जनता से आशीर्वाद देने के लिए प्रार्थना करता है -- सुमङ्गलीरिय वधूरिमा समेत पश्यत् । सौभाग्यमस्य दत्वा याथास्त विपरेतन ।। (ऋ० १०८०३३) अच्छे मगलो से युक्त यह वधू है। आनो सव इसको देखो और इसे सौभाग्य (का आशीर्वाद) देकर फिर अपने अपने घरो को लौट जाओ। इस सूक्त के ४२वें मन्त्र मे बहुत सुन्दर आशीर्वाद है, जो सभवत सारी जनता की ओर से है - इहैवस्त मा वियोष्ट विश्वमायुर्व्यश्नुतम् । क्रीडन्तौ पुत्र नंप्तभि मोदमानो स्वगृहे ॥ (ऋ० १०८५४४२) तुम दोनो यही बने रहो । कभी परस्पर वियुक्त मत होमो और पूरी (मनुष्य जीवन की) आयु को प्राप्त होओ-पुत्री और नातियो के साथ खेलते हुए और अपने घर में आनन्द मनाते हुए। पुत्रो और नातियो के साथ खेलना वृद्धावस्था का सवसे वडा सौभाग्य है । इसके सिवाय इसी ८५वे सूक्त मे 'देष्ट्री-उपदेश देने वाली वेद की एक देवी जो केवल यहां हो पाई है। सायण के अनुसार देष्ट्री'दात्री फलानाम्' फत्त देने वाली, सरस्वती। Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋग्वेद में सूर्या का विवाह ६६५ चार और मन्त्र (४३-४६ ) आशीर्वादात्मक हैं, जो सायण के अनुसार उस समय बोले जाते है, जव वर वधू सहित अपने घर आकर यज्ञ करता है । वे मन्त्र इस तरह है --- श्रान प्रजा जनयतु प्रजापति राजरसाय समनत्वर्यमा । अदुर्मङ्गली. पतिलोकमाविश शन्नो भव द्विपदेश चतुष्पदे ॥ (ऋ० १०१६८५२४३) अघोर चक्षुरपतिघ्न्येधि शिवा पशुभ्य सुमना सुवर्चा | वीरसूदेवकामा स्योना शन्नो भव द्विपदेशं चतुष्पदे ॥ (ऋ० १०१६८५२४४) इमां त्वमिन्द्र मीढ्व सुपुत्रां सुभगां कृणु । देशास्या पुत्रानाघेहि पतिमेकादश कृधि ॥ (ऋ० १०१८५२४५) सम्राज्ञी श्वसुरे भव सम्राज्ञी श्वश्वा भव । ननान्दरि सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी श्रधिदेवृषु ॥ (ऋ० १०२८५/४६ ) प्रजापति हमें सन्तान दें । श्रर्यमा वृद्धावस्था तक मिलाये रक्खें, श्रमगलो से सर्वथा रहित (हे वधू) तुम पति के घर में प्रवेश करो और घर के द्विपदो और चतुष्पदो के प्रति, अर्थात् मनुष्यो और पशुओ के प्रति कल्याणमयी होय ॥४३॥ तुम्हारे नेत्र कभी रोषपूर्ण न होवें, तुम पति का अनिष्ट न सोचो। पशुओ के प्रति (भी) कल्याणमयी तुम 'सुवर्चा' अर्थात् ओजस्विनी पर साथ ही 'सुमना' मधुर स्वभाव वाली होग्रो, वीरो को जन्म देने वाली, देवताओ की पूजा करने वाली, प्रसन्न स्वभाव वाली, मनुष्यो और पशुओ के प्रति कल्याणमयी हो ॥ ४४ ॥ हे वर्षक इन्द्र, इसको सुन्दर पुत्रो से युक्त सौभाग्य वाली बनाओ । उसके दश पुत्र हो और पति ग्यारहवाँ ॥४५॥ हे बघू, तुम श्वगुर के ऊपर सम्राज्ञी होग्रो, और सास के ऊपर भी सम्राज्ञी । ननद पर सम्राज्ञी और अपने देवरो के ऊपर भी । इन चारो मन्त्री से वैदिक गार्हस्थ जीवन की झलक स्पष्ट दिखाई देती है । गृहिणी सच्चे अर्थों में घर की स्वामिनी है । शासन करने के लिये उसका 'सुवर्चा' ओजस्विनी होना आवश्यक है, पर साथ ही उसे 'सुमना' प्रसन्न मधुर स्वभाव का भी होना चाहिए । अतएव ४३ और ४४वें मन्त्र का ध्रुवपद है कि "हे गृहिणी, मनुष्यो और पशुओ के प्रति कल्याणमयी होत्रो ।" ८४ इस प्रकार विवाह-सस्कार - सवधी सभी मुख्य-मुख्य मन्त्रो पर दृष्टिपात किया गया है । यह कह देना श्रावश्यक है कि इस सूक्त के तीन अग हम विना विचार किए छोड देते हैं, क्योकि उनके लिए न तो इस लेख में जगह है और न उन बातो पर अभी तक पर्याप्त प्रकाश ही पड सका है । वे अश निम्नलिखित है (१) सूर्या का रथ पर बैठ कर पति के घर जाना, इसका वर्णन इस सूक्त के १२, २० और ३२वे मन्त्र है । (२) सूर्या रूप वधू का सोम, गन्धर्व और अग्नि के द्वारा मनुष्य पति को पाना और विशेषकर विश्वावसु गन्धर्व का इस विषय में कार्य (२१-३२, ३८-४१ मन्त्रो में) । (३) वधू के वस्त्रो के सबध में कृत्या का वर्णन, जो कि अभी तक विल्कुल अस्पष्ट है (२८-३१, ३४, ३५ मन्त्रो में । मेरठ ] 00 Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय नारी की वर्त समस्याएँ श्रीमती कमलादेवी चट्टोपाध्याय पिछले पच्चीस वर्षों में भारतीय नारी जगत में जो जाग्रति हुई है, वह वडे महत्व की है। यह जाग्रति कुछ अश में ससारकी गतिविधि के परिवर्तन से और कुछ अश मे भारतीय जनता में राजनैतिक उत्तेजनाके कारण, जिसका नारी-समाज के उत्थान में काफी हाथ है, हुई है। देश के स्वतन्त्रता-युद्ध ने स्त्रियो के उत्थान के लिये अच्छा अवसर प्रदान किया है। देश की निरतर पुकार ने महिलाओ को अध-विश्वास की चहारदीवारी से बाहर निकाल कर उनके लिए बहुत काल से अवरुद्ध उन नये द्वारो को खोल दिया, जिनमें उनके विचार और कर्म का क्षेत्र वहुत विशाल है। भारतीय नारियो ने भी इस अवसर को पाकर अपनी तत्परता दिखा दी। उन्होने यह प्रदर्शित कर दिया कि वे किसी भी दायित्व को सफलतापूर्वक वहन कर सकती है । वे सब प्रकार के दमन तथा मृत्यु तक का अडिग धर्य के साथ स्वागत करने को तैयार हो गई। अत यह अवश्यभावी था कि जिन नारियो ने स्वातन्त्र्य संग्राम में भाग लिया, उन्हें विजय में भी यथोचित भाग प्राप्त हो। इस क्षेत्र में काग्रेस के द्वारा मौलिक अधिकार मवधी प्रस्ताव-योजना में पुरुषो और स्त्रियो को समानाधिकार का भागी घोषित किया गया । इस दिशा में यह पहली महत्त्वपूर्ण वात थी। फिर देश की पुनर्निमाण-योजना-समिति में स्त्रियो की भी एक उपसमिति बनाई गई, जिसके द्वारा वे अपनी विशेष समस्यायो तथा भविष्य की स्थिति पर विचार प्रकट करे। यह उन्नति के क्षेत्र में एक दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना थी। इसके बाद एक अन्य तर्क-सम्मत प्रस्ताव यह रक्खा गया कि स्त्रियो की एक विशेष उपसमिति बनाई जाय जो इस योजना को कार्यान्वित करे, क्योकि देश के उत्थान मे स्त्रियो का वैसाही भाग है, जैसा पुरुपो का, और जब तक स्त्रियो को राष्ट्रीय क्षेत्र मे वरावर भाग नहीं दिया जाता तब तक यथेष्ट प्रयोजन की सिद्धि असभव है। राष्ट्र-निर्माण-योजना-समिति की रिपोर्ट में कहा गया कि "इस निर्माण योजना पर न केवल आर्थिक दृष्टियो से ही विचार करना आवश्यक है, अपितु सास्कृतिक तथा आध्यात्मिक भावना और जीवन में मानवता का समावेश भी आवश्यक वाते है।" इससे स्पष्ट है कि गृहस्थी की सॅकडी चहारदीवारी से बाहर का विशाल जीवन विना स्त्री के अपूर्ण है। गांधी जी ने इस वात को 'हरिजन' के एक अक में इस प्रकार प्रकट किया है, "मेरा निजी विचार यह है कि जिस प्रकार मूलत स्त्री और पुरुष एक ही है, उनकी समस्याएं भी एक होनी चाहिए। दोनो में एक ही आत्मा है, दोनो एक-सा जीवन-यापन करते है, दोनो एक-से ही विचार रखते है । एक दूसरे का पूरक है । विना एक दूसरे की सहायता के उनमे से किसी का जीवन पूर्ण नही हो सकता स्त्री और पुरुष दोनो के लिए जिस सस्कृति और साधारण गुणो की आवश्यकता है, वह प्राय एक से ही है स्त्री पुरुष की सगिनी है और उसके समान ही मानविक शक्ति रखती है। उसे अधिकार है कि वह पुरुष के छोटे-से-छोटे कर्म मे भाग ले और पुरुष के साथ-साथ वह भी स्वतन्त्रता में समानरूपेण अधिकार भागिनी हो। कठोर रीतियो के वधन में जकडे हुए महा अनाडी और क्षुद्र पुरुष भी स्त्रियो के ऊपर अपनी उस श्रेष्ठता का दम भरते है, जिसके लिये वे सर्वथा अयोग्य है और जो उन्हें कदापि न मिलनी चाहिए। हमारी स्त्रियो की वर्तमान दशा के कारण हमारे बहुत से उत्थान-कार्य रुक जाते है, हमारे बहुत से प्रयत्नो का यथेष्ट फल नही प्राप्त होता। स्त्री और पुरुष एक महान् युगल है, प्रत्येक को दूसरे की सहायता की आवश्यकता है, जिससे एक के विना दूसरे का जीवन युक्तिसगत नही कहा जा सकता। ऊपर के कथनो से यह परिणाम निर्विवाद निकलता है कि कोई भी वात जिससे दोनो मे से किसी एक की स्थिति के ऊपर धक्का पहुँचेगा, परिणामत दोनो के लिये बराबर नाशकारी होगी।" Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय नारी की वर्तमान समस्याएँ ६६७ समाज केवल उस घरेलू जीवन का एक विकसित रूप है, जिसके ऊपर समाज की स्थिति निर्भर है। घरेल् जीवन की भाति समाज के भी बड़े कार्यों में स्त्री-पुरुष का सहयोग अवश्यभावी है। यह सहयोग वास्तव में तभी प्राप्त हो सकता है जव स्त्री को पुरुष के साथ राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा कानून-व्यवस्था के क्षेत्रो में समान अधिकार प्राप्त हो। किंतु भारत की वर्तमान वास्तविक स्थिति इससे बहुत भिन्न है । बहुत समय से भारतीय नारी आर्थिक दृष्टि से दूसरे के अधीन समझी गई है। उसके विविध कार्यो का आर्थिक मूल्य कुछ नहीं आंका गया है, यद्यपि अपनी अनेक सेवानो, प्रयलो, परिश्रम तथा सहानुभूतिमय प्रभाव के द्वारा यह घरेलू जीवन के चलाने में पुरुष के तुल्य ही योग देती है। पुरुष ही कुटुम्ब का प्रधान और जीविका चलाने वाला माना जाता है और इससे वही सर्वेसर्वा होता है। गृहिणी का परिश्रम, जो लगातार घटो गृहस्थी के लिए जीतोड उद्यम करती है, महत्त्वहीन समझा जाता है, मानो उसका श्रम पुरुप की तुलना में बिलकुल नगण्य है। यह पुराना ख्याल कि केवल पुरुष ही आर्थिक नेता है और स्त्री केवल उसकी पिछलगी है, विलकुल भुला देना चाहिए। अव यह वात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि स्त्री भी (सर वेवरिज के शब्दो में) "विना वेतन पानेवाली परिचारिका" है। पुरुष और सारे समाज को यह झूठी वात मस्तिष्क से निकाल देनी चाहिए कि पुरुष स्त्री का भरण-पोपण करता है, क्योकि इसी विचार से हमारे समाज में अनेक भ्रात धारणाओ की सृष्टि होगई है। यदि स्त्री के विषय मे वास्तविक तथ्य को स्वीकार कर लिया जाय तो सपत्ति पर उमका निजी अधिकार अवश्य सिद्ध होगा। ऐसा होने से स्त्री को आर्थिक स्वतत्रता की भी प्राप्ति होगी, क्योकि फिर वह कमानेवाली तथा परिवार का पोपण करने वाली समझी जाने लगेगी। आज हमे अपने समाज मे दोहरी प्रणाली देख कर परेशानी होती है । इस प्रणाली के द्वारा, जो कठोर एकागी तथा अनैतिक कानूनो के जरिये पुष्टि पा रही है, हमारे दैनिक जीवन का हनन हो रहा है। स्त्री के ऊपर आज पतिव्रत धर्म का वोझ लाद दिया गया है, जब कि पुरुष को वहु-विवाह का अधिकार है । यह बहुत आवश्यक है कि इस प्रकार का वधन हटा दिया जाय और स्त्री-पुरुष दोनो के लिये विवाह-सवधी एक-सा ही नियम हो । अनुभव से ज्ञात हुआ है कि एक-पत्नी-विवाह सबसे अच्छा है, परन्तु यदि कोई गभीर और आवश्यक समस्या उपस्थित हो जाय तो विवाहविच्छेद का भी अधिकार होना चाहिए। यह वडे आश्चर्य की बात है कि कानून दो पागल' या रोगी व्यक्तियो को विना एक-दूसरे की राय के आपस में विवाह करने का अधिकार देता है। इसके द्वारा समाज के प्रति घोर अन्याय किया जाता है। परतु यदि दो विचारशील व्यक्ति, जिन्हें अपने अधिकारो का पूरा ज्ञान है, दोनो के हित की दृष्टि से विशेष कारणवश सवर्ष-विच्छेद करना चाहे,तो कानून उन्हें ऐसा करने से रोकता है और इस प्रकार वे एक विचित्र परिस्थिति में रहने को वाध्य किये जाते हैं। सिविल-मैरिज कानून के अनुसार विच्छेद का अधिकार है, परतु उस कानून के भी नियम अनुचित म्प से जटिल बना दिये गये हैं। वर्तमान दशा मे सवध-विच्छेद के लिये लोगो को अनेक प्रकार के झूठे मामले, जैसे धर्म-परिवर्तन आदि, पेश करने पड़ते है। सवध-विच्छेद को लागू न करने से या उसमें इतनी अडचनें लगाने से यह ग्रागा करना कि इससे वैवाहिक वधन अवश्यमेव सुखप्रद होगा एक दुराग्रह मात्र है। स्त्री और पुरुष के लिये चरित्र सवा पथक्-पृथक नियम बना कर समाज के धर्म को पालन करने का सारा भार स्त्री पर ही डाल दिया गया है और पुरुप को स्वतत्रता दे दी गई है कि वह चरित्र-दुर्वल या व्यभिचारी होते हुए भी क्षम्य है। समाज को यह अच्छी प्रकार से समझ लेना चाहिए कि दो जानवरो के द्वारा खीचे जाने वाली गाडी का यदि सारा बोझ एक ही जानवर पर लाद दिया जाय तो वह गाडी ठीक प्रकार से आगे न बढ सकेगी। इसलिये यह अतीव आवश्यक है कि हमारे समाज के सारे नियम और उपनियम एक ही प्राधार पर निर्मित किये जाय । कानून और रीतिरिवाज किमी समाज विशेष की आवश्यकता के अनुसार समय-समय पर यथानुकूल बनाये जाते है । जब इन कानूनी का यह उद्देश्य होता है कि उनके द्वारा समाज ठीक ढग से चलता रहे और उसमें अधिक-से-अधिक शान्ति और सुख का सचारहोतब ये कानून समाज के लिये बडे लाभप्रद होते हैं । देश-कालानुसार इन कानूनों में परिवर्तन करना अवश्य Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ भावी होता है । विवाह-सस्कार की उत्पत्ति मनुष्य की सबसे बडी आवश्यकता की पूर्ति के लिये हुई है तथा वह सामाजिक जीवन के लिये सवसे अधिक महत्त्वपूर्ण व्यावहारिक सस्था है । विवाह सस्कार का मूल स्त्री और पुरुष का पारस्परिक प्रेम है, न कि उनका एक दूसरे के प्रति विराग । इसमें सम्मान और अनुग्रह वाछनीय है, न कि वल-प्रदर्शन । जिस वैवाहिक सवध में प्रेम या सम्मान नहीं है उसका ऊपरी दिखाऊ गठवधन समाज के लिये कोई गक्ति नही प्रदान कर सकता। वह तो केवल एक ऐसी स्थिति उपस्थित करता है, जिसमें पति का पत्नी के ऊपर वैसाही अधिकार रहता है, जैसाकि एक विदेशी शासक का किसी उपनिवेश के ऊपर रहता है। और जव समाज इस प्रकार पुरुषो के अविच्छिन्न अधिकारी द्वारा शासित होता रहता है तव पलियो के ऊपर पतियो का वैसे ही साम्पत्तिक अधिकार जारी रहता है, जैसे किसी जमीदार का अपनी जमीन के ऊपर । गाँधी जी ने इस समस्या पर निम्नलिखित विचार प्रकट किये है"कुटुम्ब में शान्ति का होना बहुत आवश्यक है, किन्तु वह इतने ही तक नहीं समाप्त हो जाती। वैवाहिक सवध होने पर नियमानुकुल आचरण उतनाही आवश्यक है, जितना किसी अन्य सस्था में । वैवाहिक जीवन का अभिप्राय एक-दूसरे की सुख-समृद्धि को बढाने के साथ-साथ मनुष्य-जाति की सेवा करना भी है। जव पति-पत्नी में से कोई एक आचरण के नियमो को तोडता है, तो दूसरे को अधिकार हो जाता है कि वह वैवाहिक वधन को तोड दे। यह विच्छेद नैतिक होता है, न कि दैहिक पत्नी या पति उक्त दशा में इसलिए अलग हो जाते है कि वे अपने उस कर्तव्य का पालन कर सकें, जिसके लिये वे विवाह-सबध मे जुड़े थे । हिंदू-शास्त्रो में पति और पत्नी को समान अधिकार वाले कहा गया है, परन्तु समय के फेर से अव हिंदू समाज में अनेक बुराइयो की सृष्टि हो गई है ।" इन बुराइयो मे सबसे अधिक वर्वर पर्दे की प्रथा है, जिसके द्वारा स्त्रियो को पिंजडे मे वद-सा कर दिया जाता है और यह ढोग प्रदर्शित किया जाता है कि इससे समाज मे उनकी लज्जा की रक्षा होती है। यहां गांधी जी का एक कथन फिर उद्धृत करना उचित होगा-"लज्जा या सच्चरित्रता कोई ऐसी वस्तु नहीं जो एकदम से पैदा कर दी जाय । यह कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो किसी को पर्दे की दीवार के भीतर विठाकर उसमे उत्पन्न कर दी जाय । इसकी उत्पत्ति आत्मा के भीतर से होती है और वही सच्चरित्रता वास्तविक है जो सभी प्रकार के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष लोम का सवरण कर सके। पुरुषो को इस योग्य बनना चाहिये कि वे अपनी स्त्रियो पर वैसे ही विश्वास कर सकें जिस प्रकार स्त्रियां पुरुषो पर विश्वास रखने के लिये वाध्य रक्खी जाती है।" दूसरी वडी बुराई स्त्रियो में शिक्षा का प्रभाव है, जिसके कारण वे विलकुल असमर्थ रहती है और उन्हें पुरुषो की नितात अधीनता में रहना पड़ता है। यह वात वहुत जरूरी है कि जहां आवश्यक प्रारभिक शिक्षा का प्रवध है वहां लडको के साथ लडकियो की भी शिक्षा की व्यवस्था हो। शिक्षा के होने से स्त्रियां अपने में आत्मनिर्भरता तथा स्वतत्रता का अनुभव करेंगी और वे इस योग्य हो सकेंगी कि बड़े कार्यों और व्यवसार्यों के लिये भी वे अपने को दक्ष कर सकें। आज उचित शिक्षा के अभाव से अपनी शारीरिक और मानसिक दुर्बलता के कारण स्त्रियो का एक बहुत बडा समुदाय उस विशाल कार्य-क्षेत्र में भाग लेने से वचित है, जो उनके लिये खुला हुआ है। मातृत्व का भार, जो नारी का सबसे महत्त्वपूर्ण कर्तव्य है, दुर्भाग्यवश उसकी दासता का हेतु वना दिया गया है। न तो समाज ने और न राज्य ने इस बात पर समुचित विचार किया है कि माता के प्रति उनका क्या उत्तरदायित्व है। आज लाखो मातामो को बिना उनकी किसी रक्षा का प्रवध किये हुए, इस वडे कष्ट को वहन करना पडता है, जिसमें उनका तथा उनके गर्भजात शिशु का जीवन खतरे से खाली नहीं रहता। सहस्रो नारियां थोडी सी जीविका के लिये अपने बच्चो को विना किसी रक्षा का प्रवध हए राम भरोसे घर पर छोड कर सारे दिन वाहर काम करती है। जिन देशो में मातृत्व का महत्त्व समझा जाता है वहां प्रत्येक स्त्री के लिये विना उसकी आर्थिक स्थिति का विचार किये, गर्भ के समय तथा वच्चा उत्पन्न होने के बाद सभी हालतो में, अच्छे-से-अच्छे डाक्टरी इलाज का प्रवध खास अस्पतालो में किया जाता है। बच्चों के लिये शिक्षित दाइयो तथा शिशु-शालाओ आदि की व्यवस्था की जाती है। महिला-समाज की उन्नति का तात्पर्य यह नहीं है कि स्त्री और पुरुष के लिये एक समान ढाचा गढ़ दिया जाय Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय नारी की वर्तमान समस्याएं और दोनो को एक ही सतह पर स्थिर कर दिया जाय, किंतु इस उन्नति का उद्देश्य जीवन को समृद्ध और बहुमुखी बनाना है और स्त्री-पुरुष में ऐसी भावनाएं उत्पन्न कर देना है कि वे एक-दूसरे के व्यक्तित्व का गौरव समझ कर उसके प्रति सम्मान प्रदर्शित करें। ऐसी भावना के द्वारा समाज निश्चय ही सवल और समृद्ध बन सकेगा। इस समय महिला-वर्ग की सभी सस्थानो के सामने प्रमुख कार्य यह है कि वे निर्माण योजना को कार्यन्वित कर अपनी स्वतन्त्रताप्राप्त करें। बिना राजनैतिक स्वतन्त्रता के अन्य सारी बातें अर्थहीन है, परन्तु साथ-ही-साथ जब तक सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रो में स्त्री-पुरुष के समानाधिकार नही निश्चित होते तव तक राजनैतिक स्वातन्त्र्य से भी यथेष्ट प्रयोजन की सिद्धि नही हो सकती। दोनो का गहरा अन्योन्याश्रय सवध है। राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्री में उन्नति प्राप्त करने के लिये गांधीजी की निर्माण योजना बडी ही व्यावहारिक और लाभप्रद सिद्ध होगी। इसके द्वारा भारतीय महिलाओ को अपना सगठन करने में, सामाजिक कार्यों के लिये अपने को शिक्षित करने में, सूत आदि कातने की घरेलू दस्तकारियो में, जन-साधारण के विचार-सवर्धन में तथा नारी-वर्ग को आत्म-निर्भर बना सकने के प्रयत्लो में बड़ी सहायता मिलेगी। D - - Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय नारी की बौद्धिक देन श्री सत्यवती मल्लिक सीता और सावित्री-सी सती-साध्वियोतथा भारतीय नारी के वीरतापूर्ण चरित्र की विमल गाथा, जहां इतिहास के पन्नो में स्वर्णाक्षरो से अकित हुई है, वहाँ साहित्य, कला एव विज्ञान आदि के क्षेत्र में उनकी गणना प्रच्छन्नाकाश में प्राय लुप्त, तारिकामो-सी ही रही है। __ फलयुक्त वृक्ष की भाति, जिसकी विनत डालियां, पत्ते, फल आदि सव मूल को आच्छादित किये रहते है, मातृत्व एव पत्नीत्व के आँचल तले निज व्यक्तित्व को ढके रखने में ही नारी ने अपना गौरव माना है। चारित्रिक विकास के साथ-ही-साथ नारी के वौद्धिक विकास-सवधी उदाहरणो को भी भावी सतति के लाभ तथा समाज-निर्माण के निमित्त प्रकाश में लाने की कितनी आवश्यकता है, चिरकाल तक जाने क्यो हमारे विद्वानो और इतिहासकारो ने इसकी उपेक्षा की। ___ यद्यपिन केवल स्वाभाविक प्रवृति के अनुसार रसमे लीन और झूम पड़ने की क्षमता रखने, अपितुज्योतिष, गणित, दर्शन, कला, विज्ञान, चिकित्सा आदि जहाँ भी वौद्धिक चेतना अथवा व्यक्तिगत विकास का सवध है, युगान्तर से बाह्य प्राचीरो द्वारा घिर कर भी इस वदिनि की मुक्त प्रातरिक निरिणी को वाँध रखने की सामर्थ्य किसमे हुई है ? लीलावती, गार्गी, वाचकन्वी और पूर्व मीमासा जैसे कठिन विषय में भाग लेने वाली कास्कृतस्नी की लेखिका कास्कृतस्ना, चिकित्सा में रुसा और चित्रकला में माणकू-सी पारगत प्राचीन विदुषियो के नाम वर्तमान युग के लिये कितने महत्वपूर्ण है। __ इधर साहित्य मे हिन्दी, वगला, मराठी, गुजराती, तामिल तथा अन्य प्रान्तीय भाषामो के अतिरिक्त केवल सस्कृत ही मे शान्तिमय वैदिक काल से मध्यकालीन भक्तियुग तथा आधुनिक डावाडोल युग तक स्त्रियो द्वारा विरचित व्यापक सृष्टि पर स्वतत्र रूप से हिन्दी में मौलिक ग्रन्थ लिखे जाने की मांग है। वस्तुत सस्कृत साहित्य ही ऐसा पूर्ण भडार है, जिसके यत्र-तत्र छिन्न-भिन्न बिखरे पृष्ठो मे हमारे किसी भी सास्कृतिक पक्ष को मूर्तरूप से खडा कर देने की चमत्कारिक क्षमता है। उपरोक्त गुरुतर कार्य के अनुसन्धान का श्रेय कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्राचार्य डा. जितेन्द्र विमल चौधरी को है, जिन्होने कुछ ही वर्ष पूर्व पांच-छ भाग मे 'सस्कृत-साहित्य में महिलामो का दान' (The contribution of women to sanskrit literature) नामक सीरीज प्रकाशित की थी। भारतीय नारी-समाज उनका चिरऋणी रहेगा । सस्कृत लेखिकाओ और कवियित्रो के सबंध में डा० चौधरी का परिचयात्मक लेख इसी विभाग मे अन्यत्र दिया जा रहा है । वैदिक, प्राकृत और पाली भाषा की प्रमुख कवियित्रियो का सक्षिप्त उल्लेख, जो चौधरी महोदय के लेख में नहीं है, प्रस्तुत लेख में अभिप्रेत है । साहित्य यदि युग का प्रतिविम्व और जीवन की प्रत्यालोचन है तो पलभर तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था एव स्थिति की ओर झाकना अनिवार्य होगा। राग उत्तरोत्तर भले ही वेसुरा होता चलागया हो, किन्तु पालाप हमारे पूर्वजो ने सभी स्वर साधकर ही लिया था। विशेषतया समाज के वाम अग को प्रत्येक पहल से उन्नत एव विकासोन्मुख करने में ही जीवन-कला का मुख्य रहस्य है । इसके वे कैसे ज्ञाता थे, यह विभिन्न समय की निम्न भावनाप्रो द्वारा प्रकट है। (१) समारोह-विशेष पर दम्पति कामना करते है हमारे यहाँ पण्डिता और चिरायु कन्या उत्पन्न हो। Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय नारी की वौद्धिक देन "अय य इच्छद्दहिता में पण्डिता जायेत सर्वमायुरियादिति ।" (वृहद्धारण्यक उपनिषद १, ४, १७) (२) "कुछ स्त्रियां पुरुषो की अपेक्षा कही अधिक सच्चरित्र और विद्वता में श्रेष्ठ होती है" " इत्यपि हि एकची या लेय्यो पोसा, जनाधिप मेघावती सीलावती' (३) 'ललित विस्तार' में कुमार सिद्धार्थ गाया लिखने वाली और कवियित्री कन्या की भावी वव् के रूप में कामना करते हैं. " सा गाय - लेख - लिखिते गुण श्रर्ययुक्ता या कन्य ईश भवेन्मम ता वरे था ।" करता है (ललित विस्तार अ० १२ पृ० १५८ ) (४) पुरुषो की भाति ही स्त्रियाँ भी कवित्रियाँ हो सकती हैं । काव्य प्रतिभा नर-नारी के भेद मे सर्वथा पृथक नैसर्गिक वस्तु हैं, जैसा कि राजपुत्रियो, राज कर्मचारिणियो, मन्त्रि- दुहिताओ और वेश्याओं तक को प्राय शास्त्र में प्रवीण वुद्धिमती और संज्ञ देखते-सुनते है । ( काव्य मीमासा पृ० ५३) । "पुरुषवद्योषित श्रूयते दृश्यन्ते च रा प्रभवेयुः । सस्कारो ह्यात्मनि समवैति न स्त्रैण पौरुष वा विभागमपेक्षते । सत्य- दुहितरो गणिका कौतुकि- भार्याश्च शास्त्र प्रहत बुद्धय कवयश्च ।" शिक्षा एव स्ि ए वेदाध्ययन, दर्शन, ज्ये. प्रो के पद को सुशोभित कर जिनके मानसिक स्तर की गहराई इस भावना से अधिक क्या होगी में कैसा सुन्दर सरल विभाजन था ! प्रथम वे ब्रह्मवादिनी कन्याएं स्वेच्छा से यो की शिक्षा के हेतु श्राजीवन ब्रह्मचारिणी रह कर श्राचार्या और उपाध्याया "गार्गी, ब्रह्मवादिनी, आत्रेयी, मैत्रेयी श्रादि के नाम इसमें विशेष उल्लेखनीय है, - "येनाहं नामृतास्या कि तेन, (प्रति प्रभुतेनापि वितेन) कुर्यामिति ।" अर्थात् जिससे अमृतत्व को प्राप्त न कर सकूँ, ऐसे राशि राशि धन-वैभव का क्या करूँ ? + दूमरी बहुसख्यक 'सद्योद्वाहा' साधारण समाज की उन्नति की दृष्टि से कम-से-कम सोलह-सत्रह वर्ष की अवस्था तक पठन-पाठन व ललित कलाओ द्वारा उनकी अभिरुचि एव सृजनात्मक शक्तियो को परिष्कृत करने का भरपूर प्रयत्न किया जाता था । कुलीन घरो की स्त्रियाँ, कन्याएँ राज-दरवारी में प्राय नृत्य, सगीत - अभिनय आदि का प्रदर्शन किया करती थी । घरो को आनन्द का केन्द्र बनाने के हेतु वे विविध कला और शिल्प से पूर्ण परिचित तथा विनोद-कौतुक में पटु होती थीं। युद्ध, राजनीति, कृषि, यन्त्र एव अस्त्र-शस्त्र आदि के निर्माण तक में समान रूप से भाग लेने के कारण आर्थिक वन्वनो से मुक्त होती थी और इमी से सम्मान की पात्र समझी जाती थी । अपने-अपने निजी विषय की भली भाति ज्ञाता होने और जीवन के विस्तृत क्षेत्र मे कार्य करने के कारण ही उनकी लेखनी प्रत्येक विषय में प्रसूता थी । इसका एक प्रत्यक्ष प्रमाण हाल ही में प्रकाशित हुए 'कौमुदी महोत्सव' नामक नाटक से मिला है, जिसकी लेखिका श्री किशोरिका विजैनिका गुप्तकालीन एक राजकर्मचारिणी थी । यह नाटक विशेषतया राजनैतिक दृष्टिकोण से ही लिखा और उस समय खेला गया था । फिर मानव-सस्कृति को ऊंचे घरातल पर आसीन करने के लिये सर्वगुण सम्पन्न और विवेकशील कन्या स्वयवर द्वारा मनोनुकूल पति वरण करने में स्वतंत्र थी । "ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं वन्दिते पतिम रूढिवाद अथवा जातिभेद की कोई अडचन नही थी, यहाँ तक कि एक स्थान पर पिता अपनी कन्या से प्रश्न ६७१ 22 'भगवान बुद्ध " "एषा चतुर्णा वर्णाना पुत्रि कोऽपि - मतस्तव ।” (कथा-सरित-सागर ५३, १०४ ) अर्थात् - "यह चारो वर्ण तुम्हारे सामने है । इनमें से किसके लिये तुम्हारी इच्छा है ?" Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ प्रेमी-अभिनदन-पथ ऐसे उन्मुक्त एव स्वस्थ वायुमडल की आदि नारी यदि अमर वेदमत्रो की दृष्टा हुई हो तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है, यद्यपि ससार के अन्य किसी भी धार्मिक व प्राचीन ग्रथो को ऐसा श्रेय प्राप्त नही। श्रवणनुक्रमणिका के अनुसार बीस और सायुनायिक के कथन से २६ ऋग्वेद की स्रष्टा ऋषि स्त्रियाँ है। इससे सर्व सहमत नहोतो भी लोपामुद्रा, घोषा, विश्वारा, सिक्ता, नीवावरी म०१, १७६, म०२८,म०६१, म० ८१ ११ २० और ३६ ४० की निर्विवाद सृष्टा है ही। रात्रि, यमी, अपाला, शची, इन्द्राणी, अदिति, दक्षिणा, सूर्या, उर्वशी, श्रद्धा, रोमासा, गोधा, श्रमा, शाश्वती, जिन्होने प्रेम, वीरता, वात्सल्यता, सौंदर्य आदि के विभिन्न क्षेत्रो में उच्च कोटि के भावो की सृष्टि की है, सायण और सायुनायिक सरीखे महापडितो की सम्मति में काल्पनिक नाम होते हुए भी प्रामाणिक है । ___ वेद की इन ऋचामो में, रात्रि, अग्नि आदि प्राकृतिक विषयो की अभिव्यक्ति अति सुन्दर है। विभिन्न प्रकृति नारियो के अनन्यतम कोमल भाव जहां-तहां अनेक रूपो मे वेगपूर्वक भर पडे है । सस्कृत, पाली, प्राकृत कवियित्रियो की अपेक्षा वैदिक कवियित्रियां कही अधिक सुघड कलाकार है। णिो को भी प्राकृत की कवियित्रिया काल तक अनुलक्ष्मी, असुलवी, अवन्तीसुन्दरी, माधवी, प्रात रेवा, रोहा, शशिप्रा , प्राचीत्य, प्रादि प्रकृत भाषा की मुस्य कवियित्रियां है । इनके द्वारा रचित सोलह श्लोको की काव्यघोसी क्षमतारण सस्कृत काल की स्त्रियो की भाति ही जीवनदायिनी, प्रेम सगीत, आनन्द-व्यथा, आशा-निराशा और उमविकास का है। अभिव्यक्ति अनूठे ढग की है और जीवन, प्रेम, सौदर्य के प्रति अनन्त प्यास है। (थेरी गाथा) पाली की कवियित्रिया १अश्त्रतरार्थरी, २ मुक्ता, ३ पुष्णा, ४ तिस्सा, ५ अञ्चतरा तिस्सा, ६ धीरा, ७ अश्वतरा धीरा, ८ मित्ता, ६ भद्रा, १० उपसमा, ११ मुत्ता, १२ धम्म दिना, १३ विसाखा, १४ सुमना, १५ उत्तरा, १६ सुमना (वुड्ढपव्वजिता) १७ धम्मा, १८ सडा, १६ नन्दा, २० जेन्ती, २१ अनतराथेरी, २२ अड्ढकासी, २३ यित्ता, २४ मेत्तिका, २५ मित्ता, २६ अभयमाता, २७ प्रभत्थरी, २८ सामा, २६ अत्रतरा सामा, ३० उत्तमा, ३१ अश्वतरा उत्तमा, ३२ दन्तिका, ३३ उब्बिरी, ३४ सुक्का, ३५ सेला, ३६ सोमा, ३७ भद्दा कापिलानी, ३८ अश्वतरा भिक्खुणी अपजाता, ३६ विमला पुराण गणिका, ४० सीहा, ४१ नन्दा, ४२ नन्दुत्त राथेरी, ४३ मित्तकाली, ४४ सकुला, ४५ सोणा, ४६ भद्दा पुराणनिगण्ठी, ४७ पटाचारा, ४८ तिसमत्ता थेरी भिक्खुणियो, ४६ चन्दा, ५० पञ्चसता पटाचारा, ५१ वासिट्टि, ५२ खेमा, ५३ सुजाता, ५४ अनोपमा, ५५ महापजापती गोतमी, ५६ गुत्ता, ५७ विजया, ५८ उत्तरा, ५६ चाला, ६० उपचाला, ६१ सीसूपचाला, ६२ वड्ढमाता, ६३ किसागोतमी, ६४ उप्पलवण्णा, ६५ प्रणिका, ६६ अम्वपाली, ६७ रोहिणी, ६८ चापा, ६६ सुन्दरी, ७० सुभा कम्मारधीता, ७१ सुभा गीवकम्बवनिका, ७२ इसिदासी, ७३ सुमेधा ॥ उपरोक्त ७३ विदुषियों पाली भाषा की स्रष्टा है। यह साहित्य ५२२ श्लोको मे "थेरीगाथा" नाम से खुदक निकाय की पन्द्रह पुस्तको मे से एक है। इसका स्वतन्त्र अनुवाद अग्रेजी में 'Psalms of sisters' और बगला में 'थेरीगाथा' के नाम से भिक्षु शीलभद्र द्वारा हो चुका है। जातक ग्रन्यो एव अन्य बौद्ध साहित्य मे, जहाँ अनेक स्थलो पर नारी के प्रति सर्वथा अवाछनीय मनोवृत्ति का उल्लेख है, वहाँ 'थेरीगाथा' का उच्च विशिष्ट साहित्य एक विस्मय एव गौरव की वस्तु है। इससे भी अधिक माश्चर्य यह कि भगवान बुद्ध ही सर्व प्रथम ऐसे महापुरुष है, जिन्होने उस युग की करुणापात्र नारी को घर के सकुचित वृत्त से वाहर ससार की सेवा और शान्ति के निमित्त सन्यास की अनुमति देकर एक नया मार्ग खोला। Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NA-MAIL.JahayAARTANCE MCGM w TA . UPER7 THIRDAN y -PAC -10 4NEL ज n dutoda Da - .. 12 . 22 HTRA KHELATO LARAN NET NORAMITA KATTA PSCt. पमाजलि [कलाकार-श्री सुधीर खास्तगीर Page #727 --------------------------------------------------------------------------  Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय नारी की वौद्धिक देन ६७३ इस दीक्षा की गाथा निम्न है - सिद्धार्थ गौतम के बुद्धत्व प्राप्त करने के उपरान्त महाराज शुद्धोधन जव स्वर्गत हुए तो उनकी पत्नी (रानी महामाया की छोटी बहन अर्थात् गौतम की विमाता व मौसी ) प्रजापति गौतमी गोककातर हो भगवान बुद्ध के पास गई, जो उन दिनो नन्दन-वन में निवास करते थे और मसार-त्याग की अनुमति चाही, किन्तु उम ममय बुद्ध ने उनकी प्रार्थना प्रस्वीकृत कर दी । पुन शाक्य वश को पाँच सौ नारियो ने गोतमी मे इसी अभिप्राय से चलने को कहा । तव गौतमी केशोच्छादन करवा, कापाय वस्त्र वारण कर, उन पाँच सहस्र स्त्रियों को ले बुद्ध के प्रिय शिष्य श्रानन्द की महायता ले दुवारा भगवान के समीप गईं । दुग्ख, क्लेश, क्षोभ से विह्वल उनकी जीवन-कथाएँ सुन अन्तत भगवान बुद्ध को अनुरोध स्वीकार करना पडा और गोतमी तथा वे पांच मौ नारियाँ एक साथ अभिषिक्त हुई । बुद्धवचनो मे प्रभावित यह भिक्षुणीमघ उत्तरोत्तर ग्राम, नगर, राजप्रासाद की वचुत्रो, कुलीन स्त्रियो एव कन्याग्रो की सख्या से वर्द्धित होता चला गया । इन्ही मे मे जिन विदुषियों का अन्तर स्वकथारूप में जिस करुण छन्द द्वारा भर पटा, वह 'थेरीगाथा' कहलाया । किन्तु जीवन, सौन्दर्य, प्रेम-समर्पण यादि की जो उत्कट तृषा, वैदिक, प्राकृत तथा संस्कृत कवियित्रियो मे मिलती है, थेरीयां इसके सर्वथा प्रतिकूल है, जो स्वाभाविक ही है । वे ग्रहत्यागिनि है । सासारिक इच्छाएँ ही उनके दुका मूल है | विश्व के चिर अन्दन और गहन भयानकता का उन्होने अत्यन्त सूक्ष्म और अन्तर्मुख हो स्पर्श किया है। निर्वाण-पद ही अब केवल उनके एकाकी मानस-पट का श्रालोक है । सक्षेप मे दोनो धाराओ का निम्पण इम प्रकार कर सकते हैं । एक उत्सुकता एव उमग मे पूर्ण है तो दूमरो गम्भीर और गात, एक जीवित है तो दूसरी परिपक्व, एक भौतिक जगत से परे की ओर नितान्तमुख है तो दूसरी विवेकशीला की दृष्टि में ऐहिक जगत में सर्वथा हेय है, यदि एक उनमा अलकारों आदि को मौन्दर्य पूर्ण रम-माधुरी है तो दूमरी ठोस, मरल, संयमित भाषा कटु सत्य इनका स्पष्टीकरण दोनों ओर की रम धाराओ का किंचित श्रास्वादन किये बिना न सकेगा। प्राकृत [दूत प्रति नायिकोक्ति ] जह जह वाएइ पिश्रो तह तह णच्चामि चञ्चले पेम्मे । वल्ली वलेs अङ्ग सहाव-यद्धे वि रुक्खम्मि ॥ Sy यथा यथा वादयति प्रियस्तथा तथा नृत्यामि चञ्चले प्रेम्णि । वल्ली वलयत्यङ्ग स्वभाव स्तब्धेऽपि वृक्षे ॥ [ससिप्पहाए ] [शशिप्रभा ] " जैसे-जैसे प्रियतम की लय ध्वनि वजती हैं, वैसे ही में चचल प्रेमिका नृत्य करती हूँ । प्रेम भले ही उनका दिग्ध हो, किन्तु वृक्ष यदि निश्चल सीधा खडा रहे तो लता का स्वभाव उसके चारो ओर लिपटना ही है ।" सस्कृत [दूत प्रति स्वावस्था-कथनम् ] गते प्रेमावन्ध हृदय बहु-मानेऽपि गलिते निवृत्ते सद्भावे जन इव जने गच्छति पुर तथा चैवोत्प्रेक्ष्य प्रियसखि गता स्ताश्च दिवसान् न जाने को हेतुर्दलति शतघा यत्र हृदयम् ॥ विज्जाकाया [शिखरिणी] Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ प्रेमी-अभिनदन-प्रय जव प्रेम का वधन ही टूट गया, जब हमारे हृदयो मे एक दूसरे के प्रति सद्भाव ही नहीं रहा और जिस समय वह मेरे सामने से एक अजनवी की भाति चला गया तव हे सखी | क्यो नही अतीत के दिनो की स्मृति मे मेरा हृदय सौ-सौ टुकडे हो गया? विज्जिका की प्रतिभा के विषय मे राजशेखर तथा धनदेव आदि कवियों ने उसे कालिदास के वाद म्यान दिया है और उसे साक्षात् सरस्वती स्वीकार किया है। • विरहिणी प्रति सख्युक्ति । कृशा केनासि त्व प्रकृतिरियमङ्गस्य ननु मे मला धूम्रा कस्माद् गुरु-जन-गृहे पाचकतया। स्मरस्यस्मान कच्चिन्नहि नहि नहीत्येवमगमत् । स्मरोत्कम्प वाला मम हृदि निपत्य प्ररुदिता ॥ "मारूलाया"। [शिसरिणी] "तुम क्षीण क्यो हो रही हो?" "शरीर ही ऐसा है।" “घूल धूमरित क्यो हो रही हो?" "गुरुजनो की सेवा के लिए निरन्तर पाकशाला में लगे रहने से।" , "क्या हमे पहचानती हो?" "नही | नही। नही |" कह पुन स्मृति से कांपती हुई वाला मेरे वक्ष पर सिर झुका कर रोने लगा।" "कच"। कि चार-चन्दन-लता-कलिता भुजङ्गय किं यत्र-यत्र-पद्य मधु सचलिता नु भङ्गया। कि वाननेन्दु-जित-राकदु-रुचो विवाल्य कि भान्ति गुर्जर-वर-प्रमदा-कचाल्य ॥ ___ "पद्मावत्या" [वसन्त-तिलकम् ] "चन्दन तरु को नागिनियो ने लपेट रक्खा है या मधुपूरित कमल को भौंरी के समूह ने ढक लिया है या कि राहु के समान यह भँवरे चन्द्रमा को ग्रमना चाहते है। अरे, तो नहीं। क्या यह गुजराती रमणी की सुन्दर मुस छवि है ?" वाहुकण्ठ, तिलक आदि पर जहां प्रसिद्ध पण्डिता पद्मावती ने अति अनुराग-पूर्ण शैली में लिखा है, ठीक उन्ही भावो का दूसरी दिशा मे अम्वपाली थेरी का वर्णन देखिये-- [पाली] "कालका भमरवण्ण सदिसा वेल्लितग्गा मम मुद्धजा अहु । ते जराय साण वाफसदिसा सच्च वादि वचनम नञ्चया ॥ वापितो व सुरभिकरण्डको पुप्फपूर मयुत्तमङ्गम् । त नराय सस लोम गन्धिक सच्च वादिवचनम नञ्चथा ।" इत्यादि [थेरीगाथा श्लोक २२५ से २७० तक] Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय नारी की वौद्धिक देन . ६७५ "किसी ममय भंवरे से कृष्ण वर्ण घने केश-पाश और सघन उपवन सी यही मेरी वेणी, पुप्पाभरणो तथा उज्ज्वल स्वर्णालकारो से सुरभित एव सुशोभित हुआ करती थी, जो आज जरावस्था मे श्वेत गन्धपूर्ण, विखरी हुई जीर्ण वल्कलो-मी झर रही है । गाढ नील मणियो से समुज्ज्वल, ज्योति-पूर्ण नेत्र आज शोभा-विहीन है । नव-यौवन के समय सुदीर्घ नासिका, कर्णद्वय और कदली मुकुल के सदृश पूर्व की दन्त-पक्ति क्रमश ढुलकती और भग्न होती जा रही है। वनवामिनी कोकिला के सदृग मेरा मधुर स्वर और सुचक्षिण शख की भाति सुघड ग्रीवा प्राज कम्पित है । स्वर्ण-मण्डित उगलियाँ, हस्त द्वय पाज अशक्त एव मेरे उन्नत स्तन आज रम-विहीन ढुलकते चर्म मात्र है। स्वर्ण नपुरी मे सुशोभित परो और झकृत कटि प्रदेश की गति आज कैसी श्री-विहीन है। आज वही स्वर्ण-मजित पलको के समान परम कान्तिमयी रूपवान मुखधाम देह, आज जर्जरित और दुग्यो का आगार बनी है। सत्यवादी जनो के वाक्य वृथा नहीं होते। किन्तु इसी चरम वैराग्य द्वारा जो शान्ति, जिस अलौकिक परम पद की प्राप्ति उन्होने की, उमे कितनी गहराई से सुन्दरी राजकन्या नन्दा अभिव्यक्त करती है "तस्मा तस्सा मे अप्प मत्ताय विचिनन्तिया योनि सो। यथा भूत अय कायो दिट्ठो सत्तर वाडिरो॥ अथ निम्विन्द इ कार्य अज्झतञ्च विरज्ज है। अप्पयत्ता विसयुत्ता उपसन्तम्हि ॥" प्रवल जिज्ञासा उत्पन्न होने पर अदम्य उत्साहपूर्वक मैने उत्पत्ति के कारण और देह के वाह्य अन्तर दोनो स्वम्पो को सम्यक् दृष्टि से देख लिया। इम देह के विषय में मुझे और चिन्ता शेष नहीं। मै अव सपूर्ण रूप से राग-मुक्त हूँ। लक्ष्यबोध, अनासक्त और शान्तचित्त हो निर्वाण-पद की शान्ति का उपभोग कर रही हूँ। (रोहिणी) श्रम, गील, अनालस, श्रेष्ठ कार्यों में मग्न, तृषा द्वेपहीन आज मै व्रती हूँ, बुद्ध हूँ। इससे पूर्व मै नाम मात्र की ब्राह्मण थी, आज मत्य ही ब्राह्मण हूँ। तीनो विद्याओ, (प्रकृतज्ञ, वेदज्ञ, और ब्राह्मणत्व) को पाकर प्राह | आज मै स्नातिका हूँ। मेरा हृदय आज पाकुलता-शून्य, चित्त निर्मल और शान्ति-पूर्ण है। ऐसे-ऐसे उल्लसित वाक्यो से यह 'थेरी गाथाएँ' भरी पडी है। सत्य और सौन्दर्य के इस गहन क्षेत्र में से कौन-सा शिव-पथ है, यहां मन्तव्य नहीं। उक्त विस्तृत उपलब्ध माहित्य द्वारा भारतीय नारी के अन्तर की अद्भुत झलक ससार की प्राचीन भाषाओ मे एक अद्वितीय वस्तु है। अन्य किसी भी देश की प्राचीन स्त्रियो की सृजनता इन नाटक, इतिहास, दर्शन, ज्योतिष,गणित,पालेखन आदि की विदुषियो की सीमा तक नही पहुंच सकी। इतना भी कम गौरवपूर्ण नहीं है। नई दिल्ली] - - Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत-साहित्य में महिलाओं का दान डा० यतीन्द्रविमल चौधरी वर्तमान युग मे महिलाओ की प्रगति के बारे मे यो तो सभी सचेष्ट है, परन्तु महिलाएँ विशेषरूप से सचेष्ट है । वे शिक्षा, दीक्षा एव सब विषयो में ऊँचे से ऊँचे प्रादर्श को प्राप्त करना चाहती है और इसके लिये कितनी ही महिलाओ ने काफी यत्न भी किया है। उन्होने सिर्फ ऊँची शिक्षा ही नही प्राप्त की है, बल्कि नाना विषयो के ग्रन्थो की रचयित्री होने का श्रेय भी उन्हें प्राप्त हैं । स्त्री-शिक्षा का उच्च आदर्श हिन्दुस्तान में कोई नया नहीं है । वैदिक युग से ही भारतीय महिलाएँ इस आदर्श से अनुप्राणित होती श्रा रही है। वैदिक युग में महिलाओ ने सब तरह से मामाजिक जीवन मे जो उच्च स्थान प्राप्त किया था, उसके बारे में कुछ-न-कुछ प्राय सभी लोग जानते हैं । इम छोटे-से लेख मे वर्तमान युग की महिलाओ के विषय में कुछ बतलाने की कोई चेप्टा हम नही करेगे । प्रतीत काल मे भी स्त्रियाँ सिर्फ उच्च शिक्षिता ही नही थी, बल्कि वे बहुत से ग्रन्थो की रचयित्री भी थी । सम्भव है कि इनका इतिहास भी किसी को मालूम न हो । इन सब सस्कृत ग्रन्थो की हस्त लिखित पोथियाँ भारत के विभिन्न स्थानो - पुस्तकालयों, व्यक्ति विशेषो के हाथो, मठो और मन्दिरो मे विक्षिप्त रूप से छिपी पडी है। इनमें से कितनी ही काल-स्रोत से नष्ट-भ्रष्ट भी हो गई है । इसके अलावा कुछ पोथियाँ भारत के बाहर भी चली गई है। फिर भी काव्य, पुराण, स्मृति, तन्त्र आदि विषयों में खोज करने से उनके जो पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थ प्राप्त हुए हैं, उनका भी कुछ कम मूल्य नही है । इन ग्रन्थो से ही प्राचीन कालीन भारतीय महिलाओ की बहुमुखी प्रतिभा का कुछ-कुछ आभास हम पाते हैं । मस्कृतसाहित्य मे भारतीय नारियो का जो दान अवशिष्ट है, उससे भी इस साहित्य में एक नवीन शाखा की सृष्टि की जा सकती है, जो श्राज तक अज्ञात ही पडी हुई है। काफी अनुसन्धान के बाद भारतीय महिलाओ की जो संस्कृत - रचनाएँ हम संग्रह कर सके हैं, उन्हें भी हम क्रमश प्रकाशित करेगे। उनके कितने ही ग्रन्थो का सक्षिप्त विवरण यहाँ हम देंगे । दृश्य-काव्य-नाटक आदि महापण्डित घनश्याम की सुन्दरी और कमला नामक दो विदुषी पत्नियो ने कवि राजशेखर के प्रसिद्ध 'विद्धशाल-भजिका' पर एक अत्यन्त सुन्दर श्रीर पाण्डित्यपूर्ण टीका लिखी है। इस टाका का नाम है 'सुन्दरीकमली' या 'चमत्कारी -तरगिणी' । उनके पति घनश्याम ने भी इसी 'विद्वशालभजिका' पर 'प्राणप्रतिष्ठा' नामक एक सक्षिप्त टोका लिखी है । सुन्दरी और कमला की बोधशक्ति अपूर्व, भाषा शुद्ध और विचारदक्षता अतुलनीय है । उन्होने पहले के टीकाकारो की समालोचना ही नही की है, बल्कि कालिदास, भवभूति, अमरसिंह, विशाखदत्त आदि महामनस्वियों की कठोर आलोचना करने से भी वे विचलित नही हुई है । यह तो स्वीकार करना ही पडेगा कि बहुत-सी जगहो में उनकी आलोचना उपयुक्त भी है। उक्त टीका मे कितने ही स्थलो पर अपने मत की पुष्टि के लिए उन्होने अलकार-अन्य, अभिधान, व्याकरण आदि से प्रमाण उद्धृत किए है । इन ग्रन्थो का अधिकाश भाग बहुत पहले दुनिया से लुप्त हो गया है । श्राव्य-काव्य और महाकाव्य आदि श्राव्य-काव्य में महिलाओ के दान के सम्बन्ध में जो कुछ पाया गया है, उसे दो हिस्सो मे बाँटा जा सकता है(१) विभिन्न विषयो पर छोटी-छोटी कविताएँ थोर ( २ ) सम्पूर्ण काव्य | Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत माहित्य में महिलाओ का दान ६७७ (१) घोपा, विश्ववाला, अपाला आदि वैदिक ऋपियो की म्पियो और प्राकृत और पालि भाषाओ की कवियित्रियो के बारे में यहां हम कुछ नहीं कहेगे। उनका उल्लेख इसी ग्रथ मे अन्यत्र हुआ है। इनके अतिरिक्त भी बहुत-मी ऐमी कवियित्रियो के नाम हमें प्राप्त हुए है, जिन्होने सस्कृत मे कविताएँ लिखी है। राजशेखर, धनददेव आदि जैसे प्रसिद्व माहित्यि महारथियो ने भी उनका काफी गुणगान किया है। ऐसी महिलाओं में से अाज कितनी के निफ नाम ही मिलने है। यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि उनके सुमज्जित काव्योद्यान को जग-मी भौ झाकी हमें प्राज नहीं मिलती। उनमें से कुछ के नाम इस प्रकार है--कामलीला, कनकवल्ली, जनितागी, घुरागी, सुनन्दा, विमलागी, प्रभुदेवी, लाटी, विजयाका इत्यादि। जिनकी छोटी-मोटी कविताएँ पाई गई उनमें से पिननो के नाम है~-भावदेवी, गौरी, इन्दुलेखा, केरली, कुटला, लक्ष्मी, मदालसा, मधुग्वर्णी, मदिरेक्षणा, मारुला, मोरिका, नागम्मा, पद्मावती, फल्गुहस्तिनी, चन्द्रकान्ता भिक्षुणी, प्रियम्बदा, मरस्वती, मरम्वतीकुटुम्बदुहिता, गीलाभट्टारिका, सीता, सुभद्रा, त्रिभुवनसरस्वती, चण्डालविद्या, विद्यावती, पिज्जा, विकटनितम्बा आदि। इनमें मे हमे किमी-किमी की तीस-नीम कविताएँ मिली है और किसी-किसी ती मिफ दो-चार । ये कविताएँ विविध विषयो पर लिपी गई है-जैसे, देवस्तुति, दर्शन, धर्म, प्रेम इत्यादि का वर्णन, अग-प्रत्यग-वर्णन, पशु-पक्षी-वर्णन आदि । इनके भाव और भाषा मधुर है एव छन्द और अलकारो को छटा की कमी नहीं है। उनकी और भी कितनी ही कविताएँ थी, इसमें कोई सन्देह नही, परन्तु आज ये सब दो-चार इधर-उधर निस हुए फूलों की त ह नाना दिपायो को सुवामित कर रही है । उनमें से बहुतो ने ईस्वी सन् नवी और दसवी नताब्दियों में पूर्व भाग्न को अलकृत किया था। (२) हम भारतीय महिलाओं के कितने ही सम्पूर्ण काव्य भी प्राप्त हुए है। (क) मग्रामसिंह की माता अमरसिंह की पटरानी देव-कुमारिका ने 'वैद्यनाथ-प्रसाद-प्रशस्ति' लिखी है। वैद्यनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा के ममय यह प्रगस्ति लिखी गई थी और यह मन्दिर में खुदी हुई है। यह ऐतिहासिक प्रगति राजामाता-गृत है या नहीं, इस विषय में मदेह की काफी गुजाइश है। ईस्वी सन् की अठारहवी शताब्दी मे राजपनाने में उनका जन्म हुया था। (ग) रानी गगादेवी-गृत 'मथुरा-विजय' या 'वीर-कम्पराय-चरित' है। वे विजयनगर के सम्राट् वीर उम्पन की गनी थी। ईम्बी मन् की चौदहनी शताब्दी के मध्य में अपने पति के मदुरा (मधुरा) विजय के उपलक्ष में उन्होंने उक्त ग्रन्थ की रचना की। यह ग्रन्य चौदहवी शताब्दी के दक्षिण-भारत के ऐतिहानिक तथ्यो से परिपूर्ण है। (ग) ताजोर के राजा रघुनाथ नायक की मभा-कवियित्री मधुरानी-कृत 'रामायण-काव्य' है । वे ईस्वी मन् की सग्रहवी शताब्दी मे हुई थी। यह अन्य रघुनाथ-कृत तेलगू रामायण के आधार पर सस्कृत मे लिखा गया है। (घ) उपर्युक्त्त रघुनाथ नायक की एक दूसरी मभा-कवियित्री रामभद्राम्वा-कृत 'रघुनाथाभ्युदय-महाकाव्य' है। इस महाकाव्य में ग्घुनाथ राजा के रूप, गुण और विजय की कहानियो का वर्णन किया गया है। इससे हम लोग नाजोर के तत्कालीन कितने ही ऐतिहासिक तथ्यो को जान सकते है । (ड) विजयनगर के मम्राट अच्युतदेवराय की सभा कवियित्री तिरुमलम्बा-कृत 'वरदाम्बिका-परिणयचम्प' है। उन्होने ईम्बो मन् की मोलहवी शताब्दी के मध्य में इस ग्रन्थ की रचना की। इसके प्रथम भाग मे अच्युत देवगय को वशावली, उनके पिता की विजय-कहानी और उनके वाल-काल का इतिहास आदि का वर्णन है तथा उत्तगर्द्ध में अच्युतदेवराय का वरदाम्विका के माय परिणय और उनके पुत्र चिनवेंकटगय के जन्म आदि का वर्णन है । इमम इतिहास की अपेक्षा कवित्व की ही मात्रा अधिक है। Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ आधुनिक सस्कृत-कवियित्रियाँ यद्यपि आजकल सस्कृत का पठन-पाठन बहुत कम हो गयाहै, फिर भी अभी भारतीय महिलाएँ सस्कृत में काव्य इत्यादि की रचना करती है, इसके अनेक प्रमाण पाये जाते है-जैसे मलावार की लक्ष्मीरानी-कृत सम्पूर्ण काव्य 'सन्तान गोपालन'। इस सम्बन्ध में और भी कितने ही नाम लिए जा सकते है, जैसे-अनसूया कमलाबाई वापटे, बालाम्बिका, हनुमाम्बा, ज्ञानसुन्दरी, कामाक्षी, मन्दमय धाटी, आलमेलम्मा, राधाप्रिया, रमावाई, श्री देवी बालाराज्ञी, सोनामणीदेवी, सुन्दरवल्ली, त्रिवेणी इत्यादि । पौराणिक कर्म-पद्धति मण्डलीक नृपति की कन्या हरसिह राजा की महारानी वीनयागी ईस्वी सन् की तेरहवी या चौदहवी शताब्दी मे गुजरात की शोभा बढाती थी। श्रुति, स्मृति और पुराण की ये प्रगाढ पण्डिता थी। 'द्वारका-माहात्म्य' नामक उनकी पुस्तक सिर्फ कई एक विशिष्ट प्रादमियो की धार्मिक क्रिया की सहायता के लिए ही नहीं लिखी गई है, बल्कि सव जातियो और वर्णों की धर्म-क्रिया सुचारु रूप से सम्पादित करने के लिए उन्होने इम गन्य की रचना बहुत देशी और तीर्थों के भ्रमण मे ज्ञान प्राप्त करने के बाद की थी। इससे यह बात प्रमाणित होती है कि धर्म-मकान्त विषयो पर -खासकर लौकिक प्रचार के विधान के सम्बन्ध मे केवल वैदिक युग में ही स्त्रियो का अधिकार था, यह बात नही। उसके बाद के युगो में भी स्त्रियां देश के धर्म-सक्रान्त विविध विषयो पर सुव्यवस्था कर गई है और आचारविचार तथा क्रिया-कलाप आदि विषयो पर नाना प्रकार के पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थो की रचना कर गई है। स्मृति-शास्त्र स्मार्त नारियो के वीच विश्वासदेवी और लक्ष्मीदेवी पायगुण्ड के नाम विशेप स्प से उल्लेखनीय है। ईस्वी सन् की पन्द्रहवी शताब्दी मे विश्वासदेवी मिथिला के राजसिंहासन की शोभा बढाती थी। वे पद्मसिंह की पटरानी थी। उनके राजत्व के अवसान के साथ उनका राज भवसिह के पुत्र हरसिह के हाथ में चला जा रहा था। वे अत्यन्त धर्मपरायणा थी। गगा के प्रति उनकी बहुत ज्यादा आसक्ति थी, इसलिए उन्होने गगा पर एक विस्तृत पुस्तक की रचना की, जिसका नाम 'गगा-पद्यावली' है। गगा से सम्बन्ध रखने वाले जितने भी प्रकार के धर्म, क्रिया-कर्म इत्यादि सम्भव है-जैसे, दर्शन, स्पर्शन, श्रवण, स्नान, गगा के तीर पर वास, श्राद्ध इत्यादि सभी विषयो पर श्रुति, स्मृति, पुराण, इतिहास, ज्योतिष इत्यादि ग्रन्यो से अपने मत की पुष्टि मे उद्धरण देकर उन्होने अधिकार-पूर्वक प्रकाश डाला है। स्मृति के कठोर नियमो के अनुसार आत्म-नियोग करने मे वे जरा भी विचलित नही हुई। उन्होने पहले के सभी स्मार्तों के मतो की विवेचना करके अपने मत का नि सदिग्ध भाव से प्रचार किया है । स्मृति-तत्त्व-सम्बन्धी उनकी वोध-शक्ति अपूर्व और विश्लेषण-शक्ति अनुपम थी। इस पुस्तक ने परवर्ती स्मार्त-मण्डली का ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट किया था। फलस्वरूप मित्र मिश्र, स्मार्त-भट्टाचार्य रघुनन्दन, वाचस्पति मिश्र इत्यादि सभी स्मार्त-शिरोमणियोने इस ग्रन्थ के मत का श्रद्धा के साथ उल्लेख किया है और उसको सब जगह माना है। इतनी युक्ति और पाण्डित्यपूर्ण पुस्तक एक भारतीय महिला कैसे लिख सकती है, ऐसी शका भी किसी-किसी सम्मानित व्यक्ति ने की है। उनके विचार से यह पुस्तक विद्यापति-कृत है। परन्तु उक्त पुस्तक में स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है कि यह विश्वासदेवी को लिखी हुई है और विद्यापति ने इसके लिये प्रमाण सग्रह करने मे थोडी-सी मदद दी है। सिर्फ इसलिए यह मान लेना कि यह पुस्तक विश्वासदेवी-कृत नहीं है, अत्यन्त अयुक्तिपूर्ण है। ____ लक्ष्मीदेवी पायगुण्ड सुप्रसिद्ध वैयाकरण वैद्यनाथ पायगण्ड की सहधर्मिणी थी। वे अठारहवी शताब्दी मे जीवित थी। अपनी 'कालमाधव-लक्ष्मी' नामक टीका के द्वितीय अध्याय के शेष मे उन्होने लिखा है कि सन् १७६२ Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत साहित्य में महिलाओ का दान ६७६ ६३ मे इस टीका के लिखने के पहले तेरह दिन का पक्ष हुआ था, जो हमेशा नही होता । लक्ष्मीदेवी एक असाधारण विदुषी रमणी थी। विज्ञानेश्वर-कृत 'याश्यवल्क-स्मृति-टीका-मिताक्षरा' पर उन्होने 'मिताक्षरा-व्याख्यान' नामक टोका लिखी है । माधवाचार्य-रचित 'कालमाधव' नामक सुप्रसिद्ध स्मृति-ग्रन्थ पर भी उन्होने बहुत ही सुन्दर टीका लिम्वी है और उसका नामकरण उन्होने अपने नाम के अनुसार 'कालमाधवलक्ष्मी' किया है। लक्ष्मी पूर्ण सरस्वती ही थी। उनकी हर एक पक्ति मे अगणित शास्त्रो का ज्ञान प्रकट रूप से विद्यमान है। उन्होने वैदिक साहित्य, ब्राह्मण, उपनिपद्, सूत्र, महाभारत, प्राचीन और नवीन स्मृति, पुराण और उपपुराण, ज्योतिष और विशेषत व्याकरण आदि के अगविशेष को यथास्थान उद्धृत करके उनकी व्याख्या अपने मत के प्रतिपादन मे जिस निपुणता के साथ की है, उसे देख कर हम लोगो को आश्चर्यचकित हो जाना पडता है । माधवाचार्य प्रगाढ विद्वान और अपने सिद्धान्त-निरूपण मे अकाट्य युक्ति देने में सिद्धहस्त थे। माधवाचार्य-रचित ग्रन्थ पर टीका करना असीम साहस का कार्य है। किन्तु लक्ष्मीदेवी की टीका देखने से ज्ञात होता है कि मौलिक तत्त्वो के अनुसन्धान और विश्लेषण करने में अनेक स्थानो में वे माधवाचार्य से भी आगे बढ़ गई है। माधव जहाँ पर अस्पष्ट है, वहाँ पर लक्ष्मी सुस्पष्ट, जिन पर माधव ने कुछ नहीं कहा है, उन पर लक्ष्मी ने अपनी नारी-सुलभ सरलता और सौजन्यपूर्वक प्रकाश डाला है। लक्ष्मी के समान मरस्वती की पुत्रियाँ कम ही है। 'कालमाधव-लक्ष्मी के सस्करण के प्रथम खण्ड में और दो टीकाएँ साथ-ही-साथ दी हुई है। उनमे से एक टीका 'कालमाधव-लक्ष्मी' से पहले स्वय माधवाचार्य के नाम पर चलती थी। देखा गया है कि उक्त टीका के हिसाव से लक्ष्मी की टीका सर्वोत्कृष्ट है। दूसरी दो टीकाएँ 'कालमाधव' पर ठीक टीकाएं नहीं है। सिर्फ लक्ष्मी ने ही सम्चे ग्रन्थ पर सुचारु रूप से टीका की है। उन्ही के कल्याण, धैर्य और ज्ञान के समुद्र से जगत के कल्याण के लिए 'कालमाधव-लक्ष्मी' टीका निकली है, जो भारत की विशिष्ट निधि है । तत्रशास्त्र मुप्रसिद्ध तात्रिक प्रेमनिधि की पत्नी प्राणमजरी शिक्षा-दीक्षा आदि सब प्रकार से अपने पति की अनुवर्तिनी थी। अठारहवी सदी के प्रथम भाग में उनका जन्म कुमायू मे हुआ था। उनकी 'तत्रराज-तत्र' की टीका का प्रथम परिच्छेद ही बचा हुआ है। बहुत सम्भव है कि उन्होने अवशिष्ट परिच्छेदो की भी टीका की हो, पर कालक्रम से अब वह लुप्त हो गई है। टोका का जितना अश प्राप्त और प्रकाशित हुआ है, उससे प्रमाणित होता है कि उन्होने और भी कितने ही ग्रन्यो की रचना की थी। 'तत्रराज-तत्र' की टीका का नाम 'सुदर्शन' है। उन्होने अपने पुत्र सुदर्शन की मृत्यु के बाद उसे अमरत्व प्रदान करने के खयाल से 'अविनाशी सुदर्शन' नामक टीका की रचना की। इसमें उन्होने तत्रशास्त्र-सम्बन्धी अपनी प्रगाढ निपुणता प्रदर्शित की है। 'तत्र-राजतत्र' की प्रथम कविता की पाँच प्रकार की व्याख्या उनके विशेष पाण्डित्य का द्योतक है। उन्होने अपने पूर्ववर्ती 'मनोरमा' के रचयिता सुभगनाथ आदि टीकाकारो और दूसरे तात्रिको तथा शास्त्रो के मत उद्धृत किए है। कही-कही तो उन्होने अपने मत के प्रतिपादन में उन मतो का समर्थन और कही-कही खण्डन भी किया है। उन्होने तत्रशास्त्र के सूक्ष्म-से-स्दम विचारो पर अपने विचार प्रकट किए है और तत्रशास्त्र के विभिन्न मतो का खडन करके अपने मत का प्रतिपादन किया है। इस प्रकार की विदुषी होने पर भी उन्होने अभीप्ट देवता हैहयनाथ से अपने ग्रन्थ सम्पादन के कल्याणार्थ वर न मांग कर अपने पति की शुभकामना का ही वर मांगा था। तत्रशास्त्र अत्यन्त जटिल है । उस पर इस प्रकार पाण्डित्यपूर्ण प्रकाश डालना सर्वथा प्रशसनीय है। युग-युग से भारतीय महिलाएँ जो ज्ञान-दीप जलाती आ रही है उसके आलोक का अनुसरण कर वर्तमान युग की महिलाएँ भी ज्ञान की अधिकारिणी हो सकती है। इस प्रकार ज्ञान के आलोक का वितरण कर वे देश का कल्याण करेंगी, इसमे सन्देह नहीं। कलकत्ता Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय गृहों का अलंकरण श्री जयलाल मेहता घर को श्राकर्षक तथा शान्ति प्रद बनाये रखना नारी का एक गुण है । उसको उपस्थिति हो मानो घर की वा गोभा का हेतु है और घर के अंदर माता या पत्नी के रूप में अपने आदर्श के प्रति मच्ची भक्ति भावना रमते हुए उसका सचरण एक अनुपम सोदर्य का बोधक है । भारतीय सस्कृति में ठीक ही नारी को 'गृहलक्ष्मी' अर्थात् गृह की प्रष्ठात्री देवी का विरुद प्रर्पित किया गया है । भारतीय महिला ने इसके बदले में घर को एक आदर्श रूप प्रदान करके उसके लिये उसने अपना सपूर्ण व्यक्तित्व ही समर्पित कर दिया है । 1 भारतीय समाज के द्वारा नारी को गृहलक्ष्मीत्व का जो उपयुक्त सम्मान दिया गया है उमगे वह अपने दायित्व पर पूरी लगन के साथ सलग्न है । यही मुख्य मनोवैज्ञानिक तथ्य है, जिसके कारण हमारे अतर्गृह सौंदर्य तथा श्रानद प्रतिरूप बने हुए है । केवल इसी प्रातरिक भावना के होने पर अनेक प्रकार के फर्नीचर, दरवाजा पर लटकने वाले विविध झाड फनूस श्रादि अनावश्यक प्रतीत होगे । साफ-सुथरा फर्श, उम पर एक मादी चटाई और श्रास-पास कुछ सुन्दर पुष्पो की सुगन्ध केवल इतनी ही वस्तु से मानव- निकेतन का एक रमणीक चित्र उपस्थित किया जा सकता है । गृह का इस प्रकार का नितात सादा रूप किसी वैरागी महात्मा के लिये नहीं है । यह सौंदर्य का वह निसरा हुआ रूप है, जिसे जापानी तथा चीनी लोगो ने भी, जो ससार मे नवमे अधिक सौदर्य - प्रेमी विख्यात हैं, अपनाया है । इनके सर्वोत्तम सजे हुए कमरो का अर्थ है-एक साफ चटाई का फर्श, सुन्दर वर्णावली या किमी प्राकृतिक दृश्य मे युक्त एक लटकती हुई तसवीर, भली प्रकार मे को हुई पुष्प-रचना तथा ( यदि सभव हुआ तो ) एक छोटो काठ की मेज । वम इतना ही काफी है । यहाँ तक कि धनिक वर्ग के भी घरो की सजावट ऐमी ही रहती है । केवल उनमें प्रक्त वस्तुएँ अधिक कीमती होती हैं। घरो की सजावट करते समय स्थान की पवित्रता का वडा ध्यान रक्खा जाता है और उसे अधिक वस्तुओ की भरमार करके विरूप नही बना दिया जाता । श्राजकल के फैशन को, जिसमे वैभवप्रदर्शन के लिए कमरो को अलकरण से बोझिल कर दिया जाता है, वे लोग भद्दा समझते है । चीन और जापान मे घरो को इस प्रकार सुन्दर बनाने का उतना श्रेय वहाँ के महिला समाज को नही दिया जाता, जितना हम उसे भारत में देते हैं । यहाँ तो हम स्त्री को गृहलक्ष्मी तक का पद समर्पित करते है । उक्त देशो मेस्त्री का स्थान गौण है । अत उसकी उपस्थिति घर के वातावरण में प्रभावपूर्ण नही होती । इसके प्रतिकूल घर मे उसका सचरण मानो उस सुन्दर सजे हुए स्थान में किसी श्रापत्ति का सूचक होता है । उपर्युक्त वात हमारे इस कथन की सत्यता को ही प्रमाणित करती है कि जब तक नारी को पूर्ण महायता तथा सच्ची लगन के साथ अपने दायित्व को सभालने के लिए तत्पर नहीं किया जाता तब तक घरो को चाहे जितना भाज-श्रृगार से भर दिया जाय, उनमे श्रभीष्ट सौदर्य नही लाया जा सकता । प्राचीन हिंदू समाज-सुधारको ने इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को अच्छी तरह समझ लिया था । उन्होने हमारे गार्हस्थ्य जीवन तथा उससे सबंधित सामाजिक उपागो को एक ओर तो कुटुव के आदर्श पुरुष के और दूसरी ओर श्रादर्श नारी के जिम्मे रखकर इस दिशा मे यथेष्ट साफल्य प्राप्त कर लिया था। समय की गति में हम जीवन की विभिन्न गति-विधियो को अपनाने लगे और धीरे-धीरे अपने आदर्श मार्ग से च्युत हो गये । आज पुरुष नारी को उसके अधिकारपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित करने में असफल है । साथ ही नारी भी घर की चहारदीवारी के प्रतिबंध में रह कर Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय गृहो का अलकरण ६५१ जीवन-यापन करने से इकार करती है। जिम आधुनिक यथार्थवाद का हमें वदा घमड है, उसने परिस्थिति को और भी विकृत कर दिया है । आजकल पति और पत्नी का जीवन अधिकार और मांग का जीवन है, न कि 'कर्तव्य और त्याग' का। ऐमी दशा मे गाईम्य जीवन में ममन्वय की प्रागा करना कहाँ तक मगत है । आज हमारे घरोकी सजावट की क्या हालत है ? वह या तो क्षोभपैदा कग्ने वाली होती है, या उसमें सजावट का केवल दभ होता है। न तो मौदर्य का कोई उपयुक्त स्वरूप हमारे सामने है और न हममें मुन्दर वातावरण उत्पन्न करने की कोई उत्कठा ही है। हम मांदर्य की भावना को अपेक्षा सम्मान के भाव का अधिक आदर करते है। उम्दापन या आवश्यकता से अधिक न होने का विचार हमारे लिये उतना ग्राह्य नही, जितना कि मागहीन दिखावा। वास्तविकता की अपेक्षा हम तडक भडक को पमद करते है। मुहावना शान्तिभाव हम उतना प्रिय नहीं लगता, जितना कि भडकीले रगो का माज । आधुनिक घरों की मजावट में, केवल वैमव-प्रदर्शन दृष्टिगोचर होता है। मोफे, रेडियो, दरियां, कार्डबोर्ड, दरवाजो तया दीवालो में लटकने वाले झाड-फानूग आदि शृगार के उपकरण होते है । इम अव्यवस्थित अलकरण में न तो मयम की भावना रहती है,ज मौदर्य का ही समन्वय मिलता है । ययासभव कीमती वस्तुओं का प्रदर्शन ही सुन्दर समझा जाता है। हमे यह मानना पड़ेगा कि अाधुनिक सभ्यता की दृष्टि से अपने को प्रतिष्ठिन जताने के लिए हम विना सोचेविचारे यूरोपीय ढग को रहन-सहन का अनुकरण कर रहे है। वास्तव मे रह्न-महन का रूप अधिकाग मे देश की भौगोलिक स्थितियो पर अवलवित है। जो वात ठडी जलवायु के लिए आवश्यक है, वह गर्म के लिये नही। जिस प्रकार के रहन-सहन की आवश्यकता पहाडी प्रदेश के लिए उपयुक्त है, वैमी खुले तथा लवे-चौडे मैदान के लिए नहीं। फिर जो बातें किमी एक व्यक्ति के मनोनुकूल हो मकती है, वे दूसरे के नहीं। यूरोप की जलवायु के लिये दरी विछे हुए बद कमरे, गद्दीदार कुर्सियां तथा गर्म कपडे आवश्यक होते हैं, परतु ये मव वात हमारे देश मे, जो यूरोप की अपेक्षा कहीं गर्म है, क्यो अपनाई जायें ? एक यूरोप के निवामी को ऊँचे पर बैठ कर अपने पैर नीचे लटकाने मे सहूलियत होती है, परतु कोई जरूरत नहीं कि हिंदुस्तानी भी इसकी नकल कर और फर्श पर पालथी मार कर बैठने की अपनी आदत छोट दे। यूरोप के व्यक्ति को आग के समीप बैठना भला मालूम पड़ता है। क्या हम भी इसको देखकर अपने कमरो मे अंगीठी जलाने का एक स्थान यूरोप के ढग की तरह बनावे ? कपडो का जो रंग गोरे लोगो के लिए वर्फीली जगह और कुहरे वाले मौसम मे उपयुक्न होता है वह भूरे या काले रंग वाले मनुष्यो के लिये, जो हरे-भरे तथा धूप वाले स्थानी में रहते है, आवश्यक नहीं हो सकता। दूमरो की नकल कर लेने में ही शोभा नही आ जाती। इससे तो नकल करनेवाले के शौक का छिछलापन प्रकट होता है। भारतीय जलवाय के लिये खुला हुआ फर्श का होना जरूरी है । गट्टीदार कुसियो का रखना बुरा शौक है । स्प्रिंगदार कुर्मियों का प्रयोग म्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालने वाला है । उनके स्थान पर काठ या वेत की कुर्मियो का, जिनके ऊपर अलग मे गद्दियां रक्खी गई हो, व्यवहार करना ठीक है । यूरोप के ढग की सोफा वाली कुर्मी की बनावट अप्राकृतिक होती है। उसे कुछ चौडा बनना चाहिए, जिममे बैठने वाला अपने पैर कूलो की मीच में फैला कर बैठ सके । दुपहली मोफा-कुर्सी अनावश्यक जंचती है। कुसियो की अपेक्षा फर्ग पर पालथी मार कर बैठना अधिक अच्छा है और इमे मम्मानप्रद मानना चाहिए। रगो का चुनाव प्राकृतिक आवश्यकताओ नथा लोगो के शारीरिक रूपरग के अनुकूल होना चाहिए । भारनीयो के लिए लाल या पीले रग, जिनमे एकाच काली चित्तियां वनी हो अधिक उपयुक्त है । हलके पीले तथा सफेद रग भी, जिनके किनारे कुछ काले या गहरे हो, व्यवहार में लाये जा सकते है। यदि नीला रग पमद है तो वह इतना हीनीला हो, जितना आसमान का रग है । काले रंग के साथ गहरे नीले रंग का प्रयोग भयावना लगता है। हर रग निलाई की अपेक्षा पिलाई लिये हुए होने चाहिए। हमारे चारो ओर पत्तियो की हरियाली बहुत देखने को मिलती Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ प्रेमी - श्रभिनंदन - प्रथ है । इसी रग को घर के प्रदर भी दिखाना अच्छा नही । लाल और नीले रंगो का साथ-माथ प्रदर्शन हमारे लिये ठीक नही जँचता । इन दोनो रगो का सम्मिलित प्रभाव दर्शक को डरावना लगता है । रगो के मवध मे हमें यह गुर ध्यान में रखना चाहिए कि एक साथ तीन रंगो से अधिक का प्रयोग करना ठीक नही । बैठने के लिये कमरे को सजावट तथा रगो की बावत इतना कह कर श्रव हम सौन्दर्य की अन्य छोटा-मोटा बातो पर प्रकाश डालेगे । उदाहरणार्थं पत्थर की मूर्तियां, चित्र, फोटो, गमले, लेप-स्टैंड तथा काँमे के प्याले श्रादि । इन सवध में एक आवश्यक बात ध्यान में रखनी चाहिये कि कमरे मे जो कुछ वस्तुएं रक्खी जाँय वे किसी-न-किसी प्रयोजन को सिद्ध करती हो -- जैसे पुष्प- पात्र, धूप- दान, लैम्प-स्टैंड तथा कागज दवाने के लिये प्रयुक्त वस्तुएँ। ऐसी वस्तुएँ किसी तत्कालीन प्रयोजन के लिये नही रक्खी जाती, कितु जिनका कुछ निजी उद्देश्य होता है, जैसे अच्छे चित्र, मूर्तियाँ या भावात्मक फोटो आदि, उन्हें वे कभी-कभी और क्रमवार ( एक को निकाल कर दूसरी ) प्रदर्शित करना चाहिये । उनके प्रदर्शन का आधार-पृष्ठ देश कालानुमार उपयुक्त भाव होना चाहिए। तभी उन वस्तुत्रो का वास्तविक लाभ उठाया जा सकता है और वे प्रभावोत्पादक हो सकती है । घरको पवित्रता के भाव से भरने के लिये दूसरी श्रावश्यक बात है फर्श को सजावट । प्रत्येक भारतीय घर‍ त्यौहारो या धार्मिक सस्कारो आदि के समय पर फर्श पर अल्पना या रगोली की जाती है। ऐसे प्रांगनो या फर्शा सजाना, जिन पर जूतो की चरमर हुआ करती है श्रीर जली हुई सिगरटी के टुकडे फेंके जाते है, केवल वर्धरता है । अपनी सास्कृतिक पवित्रता के नियमो का पालन हमे दृढता के साथ करना होगा, नही तो वह केवल दिखाऊ और अस्वाभाविक हो जायगी । अब हम फूलो की मजावट को लेते हैं । इस सवध मे हम जो बात जापान या यूरोप में पाते है या जिसकी नकल हमारे भारतीय घरो मे देखी जाती है वह सतोषजनक नही है । फूलो को उनके डठल सहित काट कर कमरो के भीतर गमलो मे लगाना असगत जँचता है, जब कि प्रकृति ने विस्तृत भू-क्षेत्र तथा सूर्य को प्रचुर प्रभा प्रदान की है, जो फूलो को स्वाभाविक रूप से विकसित होने में सहायक हो सकती है । इसका अर्थ यह नहीं कि घर में बगीचा सडा किया जाय। इसका केवल यह अभिप्राय है कि कुछ स्थायी फूलो के पौधे या लताएँ, जो मीठी सुगन्ध तथा सुन्दर रग की हो, खिडकियो के आसपास लगा दी जाय। भारत में चमेली, मालती, शेफाली, मोतिया और अपराजिता आदि के पुष्प काफी पसन्द किये जाते हैं। कमरो के अदर केवल कुछ चुने हुए पूर्ण विकसित फूलो को लाकर उन्हें निर्मल जल से भरी हुई एक वडी तश्तरी में तैराना बहुत सुहावना प्रतीत होगा । जल के ऊपर तैरते हुए पुष्पो का दर्शन देखने वाले की थकान को दूर करने वाला होता है, विशेषत गर्मी की ऋतु मे । यदि ठठलो के सहित फूल सजाये ही जाँय तो वे जापानियो के ढंग से हो। वे एक समय केवल एक या दोडठलयुक्त उत्तमोत्तम फूलो को कमरे के एक ही स्थान पर सजाते है । इस प्रकार उन फूलो का व्यक्तित्व पूर्ण रूप से प्रत्यक्ष जाता है और उसका प्रानद लिया जा सकता है । फूलो का पूरा गुच्छा किसी वर्तन के भीतर रख कर उसका प्रदर्शन करना सजावट का अच्छा तरीका नही कहा जा सकता । खजूर-जैसे पौधो को कमरे के अंदर रखना बिलकुल असगत है । यदि ये पेड अच्छे लगते ही हो तो उन्हें घर के बाहर आसपास उनके विशाल रूप में ही क्यो न देखा जाय ? 1 आधुनिक विज्ञान के अनेक चमत्कार - विजली की रोशनी, पखे, रेडियो आदि — श्रव भी साधारण भारतीयो की पहुँच से बाहर है। हममे से जिनको ये साधन प्राप्त है उन्हें बिजली के तारो के सबंध में यह ध्यान रखना चाहिए कि वे इस प्रकार से दीवालो में फिट किये जाय कि दृष्टि में कम पडे । विजली की रोशनी को स्क्रीन से ढँक देना चाहिये, जिसमे आँखो मे चकाचौंध न पैदा हो। वास्तव में रोशनी को पर्दे से ढंकना स्वय एक कला है । इसके द्वारा अनेक भाति के प्रभाव उत्पन्न किये जा सकते है ? इतना होते हुए भी पर्दे से ढकी हुई बिजली की रोशनी कृत्रिम ही है और हम उसको तुलना उगते या डूबते हुए सूर्य की प्रभा से या चांदनी रात से कदापि नही कर सकते ? Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय गृहों का अलकरण ६८३ रेडियो का खर्च अभी इतना अधिक है कि वह आम जनता की पहुंच से बाहर है। उसके स्थान पर कमरे के भीतर खिडकी के पास कुछ मरकडे के टुकडो को या पतली, पोली लकडियो को टांग कर सगीत का मद स्वर सुना जा सकता है। खिडकी मे से जो हवा आवेगी उससे वे हिल-डुल कर एक दूसरे से लगेगी और इस प्रकार एक धीमा मृदु स्वर उत्पन्न होगा। ___ ऊपर अतर्गृह की सजावट का जो वर्णन किया गया है वह सब प्रकार के कमरों में लागू हो सकता है, केवल उममें वैयक्तिक सचि विशेष होगी। हमने ऊपर यह बताया है कि घर को सुख-शान्तिमय बनाने के लिये स्त्री-पुरुप में एक मनोवैज्ञानिक अनुकूलता का होना आवश्यक है । इसके बाद अपनी नकल करने वाली आदत को कोसते हुए हमने यह वताया कि भारतीय जलवायु तथा लोगो के रुचि के अनुकूल कमरो की कैसी सजावट यहाँ वाछनीय है । अव हम एक दूसरी आवश्यक वात का कथन करेंगे और वह है अपने हाथो अपना काम करना। घर की देखभाल और उसकी सजावट करना प्रतिदिन अपने व्यक्तित्व का एक नया चित्र उपस्थित करने के ममान है । नौकरो या किसी अन्य व्यक्ति के ऊपर यह काम छोड देना ठीक नही है। दूसरे के भरोसे बैठ कर न केवल हम अपने को मौलिक रचना के आनद से वचित रखते है, अपितु हम उस वातावरण को भी खो देते है, जिसकी हम भविष्य के लिए प्रतीक्षा किये रहते है । गृहस्वामिनी तथा गृहस्वामी का तथा उसी प्रकार उनके बच्चो का यह एक आवश्यक गुण होना चाहिए कि वे घर पर अपने ही हाथो से कार्य करते रहें। हमारी दास-मनोवृत्ति ने ही हमे ऐसा वना दिया है कि हम अपने हाथो से अपना काम करना घृणित और अप्रतिष्ठित समझते है । घर को सजाने के सबध में एक अन्य महत्वपूर्ण वात सफाई का होना जरूरी है। साफ-सुथरी वस्तुएँ, चाहे वे भली प्रकार सजा कर न भी रक्खी गई हो, सुन्दर लगती है। अतिम वात, जो कम महत्व की नहीं है, वैयक्तिक सजावट की है। चलते-फिरते हुए लोग भी घर के वातावरण का अभिन्न अंग है। 'शृगार' स्वय ही एक अपरिहार्य विषय है। यहाँ केवल इतना कहना पर्याप्त होगा कि घर पर रहने के समय आवश्यक साफ-सुथरी तथा घरेलू कार्यों के लिए उपयुक्त वेश-भूषा ही यथेष्ट है, जो एक सुव्यवस्थित गृह की महत्ता के अनुकूल होगी। घरो को सुन्दर-सुहावने वनाये रखना सदा से ही भारतीय ललना-समाज का एक अनुपम गुण रहा है। खेद है कि विपरीत समय के आ पडने से बहुतो का अपनी पुरातन सस्कृति से विच्छेद हो गया है । आधुनिक सभ्यता की क्षणिक चमक-दमक वाली वस्तुओं के लोभ में पडकर वहुत सी भारतीय नारियो का अपनेपन से विश्वास उठ गया है। यह सव होते हुए अव भी कितनी ही महिलाएं है, जिन्होने असाधारण कठिनाइयो और प्रलोभनो का सवरण कर भारतीय गृह के मौदर्य को स्थिर रक्खा है और यह उन्ही के महान् त्याग का फल है कि पुरुषो की उदासीनता और अवहेलना के होते हुए भी हमारी मास्कृतिक निधि का रक्षण हो सका है तथा उसका सवर्धन भी हो रहा है । घरो के भीतर ऐसी गृहलक्ष्मियो की उपस्थिति ही उन घरो की शोभा और सजावट के लिए अलम् है । दिल्ली] Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसेविका प्राचीन जैन देवियाँ ब० चदावाई जैन कुटुम्ब ही समाज और देश की नीव है । नैतिक, आर्थिक और धार्मिक दृष्टि से कुटुम्ब का समाज में विदोप महत्व है। कटुम्ब के सदस्य पुरुष एव स्त्रियां इन दोनो वर्गों का आपस मे इतना घनिष्ट सबध है कि एक दूसरे को अन्योन्याश्रित समझा जाता है। अथवा यो कहना चाहिये कि ये दोनो वर्ग एक दूसरे के पूरक है। एक के विना दूसरे का काम चलना कठिन ही नहीं, बल्कि असभव है। यही कारण है कि दोनो का मदा मे सर्वत्र समान भाग रहा है। समाज एव राष्ट्र में पुरुष वर्ग का काम अपने जीवन मे संघर्ष के द्वारा अर्जन करना है, महिलाओं का काम उमे सुरक्षित रखना है। इस प्रकार पुरुष का कर्मक्षेत्र बाहर का एव महिलामो का भीतर का है। पुरुप वहिर्जगत के स्वामी है तो महिला अन्तर्जगत की स्वामिनी, लेकिन ये दोनो जगत परस्पर दो नहीं, एक और अभिन्न है । इसलिए एक का उत्कर्ष एव अपकर्ष दूमरे का उत्कर्प एव अपकर्प है। पुरुष वर्ग में यदि कोई कमजोरी अथवा त्रुटि आई तो उसका प्रभाव महिला वर्ग पर पडे विना नही रह सकता। इसी प्रकार महिला वर्ग के गुण-दोष पुरुष वर्ग को प्रभावित किये बिना नही रह सकते। लाला लाजपतराय ने लिखा है, 'स्त्रियो का प्रश्न पुरुषो का प्रश्न है, क्योकि दोनो का एक दूसरे पर असर पड़ता है। चाहे भूतकाल हो या भविष्य,- पुरुषो की उन्नति बहुत कुछ स्त्रियो की उन्नति पर निर्भर है।" स्त्री-पुरुषो के कार्य का विभाजन उनके स्वभाव-गुण के अनुसार किया गया है । सवल पुरुषो के हाथ मारी कार्यों को सौंपा गया और चूकि महिलाओ का स्वभाव सहज एव मृदु होता है, अत उसीके अनुरुप कार्य उन्हे दिये जाते हैं। शारीरिक बनावट के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि स्त्री में हृदय की प्रधानता है और पुरुष मे मस्तिष्क की । वैज्ञानिको का मत है कि स्त्री के हृदय मे गुण अधिक होते है। उसमे पुरुष की अपेक्षा प्रेम, दया, श्रद्धा, महानुभूति, क्षमा, त्याग, सेवा, कोमलता एव सौजन्यता आदि गुण विशेष रूप से पाये जाते है। स्त्री का हृदय नैसर्गिक श्रद्वालु होता है । गुणवान व्यक्ति को देखकर उसे बडा आनन्द प्राप्त होता है। इसी प्रानन्द का दूसरा नाम श्रद्वा है। यह श्रद्धा कई प्रकार की होती है। जीवनोन्नति के प्रारंभ मे स्त्री की श्रद्धा सकुचित रहती है। वह अपने पति, पुत्र, पिता, भाई और वहिन पर भी रागात्मक रूप से श्रद्धा करती है । इस अवस्था में श्रद्धा और प्रेम इतने मिल जाते है कि उनका पृथक्करण करना कठिन हो जाता है, परन्तु जब यही श्रद्धा वढते-बढते व्यापक रूप धारण कर लेती है तव धार्मिक श्रद्धा के रूप में परिणत हो जाती है। इस परिणमन में विशेष समय नहीं लगता। इसलिए किशोरावस्था से लेकर जीवनावमान तक स्त्री के हृदय मे धार्मिक श्रद्धा की मदाकिनी प्रवाहित होती रहती है। इसी श्रद्धा के कारण महिलाओ ने प्राचीन काल से लेकर अब तक अनेक प्रकार से धर्म की सेवा की है। प्रस्तुत निवध में प्राचीन धर्म-सेविका देवियो के सबध मे प्रकाश डालने का प्रयत्न किया जायगा। प्राचीन शिलालेखो एव चित्रो से पता चलता है कि जैन श्राविकाओ का प्रभाव तत्कालीन समाज पर था। इन धर्म-सेविकाओने अपने त्याग से जैन-समाज मे प्रभावशाली स्थान बना लिया था। उस समय की अनेक जैन देवियो ने अपनी उदारता एव आत्मोत्सर्गद्वारा जैनधर्म की पर्याप्त सेवा की है। श्रवण वेलगोल के शिलालेसो मे अनेक श्राविका एव आर्यिकापो का उल्लेख है, जिन्होने तन, मन, धन से जैनधर्म के उत्थान के लिये अनेक विपत्तियो का सामना करते हुए भी प्रयत्न किया था। यद्यपि आज वे भूतल पर नही है, तथापि उनकी कीति-गाथा जैन महिलायो को स्मरण दिला Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसेविका प्राचीन जैन देवियाँ ६८५ रही है कि उन्होने माता, बहिन और पत्नी के रूप मे जो जैन धर्म का वीज- वपन किया था, वह पल्लवित और पुष्पित होकर पुरुष वर्ग को अक्षुण्ण गीतल छाया श्रनन्तकाल तक प्रदान करता रहेगा । seat पूर्व छठी ताब्दी में जैनधर्म का अभ्युत्यान करने वाली इदवाकुवशीय महाराज चेटक की राज्ञ भद्रा, चद्रीय महाराज गतानीकको वर्मपत्ती मृगावतो, महाराज उदयन को सम्राज्ञी वासवदत्ता, सूर्यवंशीय महाराज दगर की पत्नी सुत्रभा, उदयन महाराज को पत्नी प्रभावती, महाराज प्रमेनजित की पत्नी मल्लिका एव महाराज दाफवाहन की पत्नी अभया हुई है । इन देवियो ने अपने त्याग एव शीर्य के द्वारा जैनधर्म की विजयपताका फहराई या । इहोने अपने द्रव्य से अनेक जिनालय का निर्माण कराया था तथा उनको समुचित व्यवस्था करने के लिये राज्य की ओर से भा महायता का प्रबंध किया गया या । महारानी मल्लिका एव श्रभया के सवव में कहा जाता है कि इन देवियों के प्रभाव ने ही प्रभावित होकर महाराज प्रमेनजित एव दार्फवाहन जैन धर्म के दृढ श्रद्वालु हुए थे । महाराज प्रसेनजित ने श्रावस्ती के जैनो को जो सम्मान प्रदान किया था, इसका भी प्रवान कारण महारानी की प्रेरणा ही थी । इनके सबंध मे एक स्थान पर लिवा है कि यह देवी परम जिन भक्ता और माधु-मेविका थी । नामायिक करने में इतनी लीन हो जाती थी कि उसे तन-बदन की सुधि भी नही रहता था । इसका मुख अत्यन्त तेजस्वी और कान्तिमान था । विधर्मी भी इनके दर्शन में जैनधर्म के प्रति श्रद्धालु हो जाते थे । ईस्वी पूर्व ५वी और ४यो शताब्दी म इक्ष्वाकुवगीय महाराज पद्म की पत्नी धनवती, मौर्यवगीय चन्द्रगुप्त की पत्नी मुपगा एव सिद्धमेन की धर्मपत्नी सुप्रभा के नाम विशेष उल्लेग्वयोग्य है । ये देवियाँ जैनधर्म को श्रद्धालु एव भक्ता थी । महाराज यम उड़देश के राजा थे । इन्होने सुधर्म स्वामी मे दीक्षा ली थी । इन्ही के साथ महारानी वनवती भी श्राविका के व्रत ग्रहण किये थे । धनवती ने जैनधर्म के प्रसार के लिये कई उत्मव भी किये थे । यह जैनधर्म की परम श्रद्धालु और प्रचारिका थी। इसके मवध में कहा जाता है कि इसके प्रभाव मे केवल इसका ही कुटुम्व जैनवर्मानुयायी नहीं हुया था, बल्कि उडूदेश को ममस्त प्रजा जैनधर्मानुयायिनी वन गई थी। इसी प्रकार महागनी सुभद्रा ने भी जैनवर्म की उन्नति मे पूर्ण महयोग प्रदान किया था। प्राचीन जैन इतिहास के पन्ने उलटने पर ईस्वी मन् मे २०० वर्ष पूर्व सम्राट् ऐल खारवेल की पत्नी भूमीसिंह यया वडी घर्मात्मा हुई है । इम दम्पत्ति युगल ने भुवनेश्वर के पान सण्डगिरि और उदयगिरि पर जैन मुनियों के रहने के लिये अनेक गुफाएँ बनवाई और दोनो ही मुनियो की मेवा सुश्रूषा करते रहे। सिंहयथा ने जनवमं की प्रभावना के लिये एक बडा भारी उत्सव भी किया था । ईस्वी पूर्व ४यी शताब्दी मे लेकर ईस्वी सन् की ध्वी शताब्दी तक के इतिहास मे सिर्फ गगवश की महिलाओ की सेवा का ही उल्लेख मिलता है । यह वग दक्षिण भारत के प्राचीन और प्रमुख राजवगो मे से था । आन्ध्रar के गक्तिहीन हो जाने पर गगवश के राजाओ ने दक्षिण भारत की राजनीति म उग्र रूप से भाग लिया था । इस वश के राजाओ की राजधानी मैसूम थी । इम वग के अधिकाश राजा जैन धर्मानुयायी थे । राजाओ के साथ गगवा की रानियों ने भी जैन धर्म की उन्नति के लिये अनेक उपाय किये। ये रानियाँ मन्दिरो की व्यवस्था करती, नये मन्दिर और तालाव वनवाती एव धर्म कार्यों के लिये दान की व्यवस्था करती थी । इम राज्य के मूल सस्थापक ददिग और उनकी भार्या कम्पिला के धार्मिक कार्यों के सवध मे कहा गया है कि इस दम्पति-युगल ने श्रनेक जैन मन्दिर बनवाये ये । इम काल मे मन्दिरो का वडा भारी महत्त्व था । मन्दिर केवल भक्तो की पूजा के स्थान ही नहीं थे, बल्कि जैन धर्म के प्रसार एव उन्नति के सच्चे प्रतीक होते थे । प्रत्येक मन्दिर के साथ एक प्राचार्य रहता था, जो निरन्तर धर्मप्रचार और उसके उत्कर्ष का ध्यान रखता था । वास्तव में उस काल में जैन मन्दिर ही जैन धर्म के साहित्य, संस्कृति, कला एव मालिक शक्ति के पुनीत श्राश्रम थे । इसलिए जैनदेवियों ने अनेक जिनालय निर्माण करा कर जैन धर्म की उन्नति में भाग लिया था । 1 श्रवणबेलगोल के शक म० ६२२ के शिलालेखो मे प्रादेय रेनाडु में चितूर के मौनीगुरु की शिष्या नागमति, Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ पेरुमाल गुरु की शिष्या घण्णेकुत्तारे, विगुरवि, नमिलूरसघ की प्रभावती, मयूरसघ की अध्यापिका दभितावती, इसी सघ की सौंदर्या आर्या नाम की प्रायिका एव व्रत शिलादि सम्पन्न गशिमति-गन्ति के समाधिमरण धारण करने का उल्लेख मिलता है। इन देवियो ने श्राविका के व्रतो का अच्छी तरह पालन किया था। अन्तिम जीवन में मसार से विरक्त होकर कटवप्र पर्वत पर समाधि ग्रहण कर ली थी। सौन्दर्या आर्या के सवध मे शिलालेख न० २६ (१०८) मे लिखा है कि उसने उत्साह के माथ आत्म-मयम-तहित समाधि अत्त का पालन किया और सहज ही अनुपम सुरलोक का मार्ग ग्रहण किया। ___ इसके अनन्तर जैनवर्म के धार्मिक विकास के इतिहास में पल्लवाधिराज मरुवर्मा की पुत्री और निर्गुन्द देश के राजा परमगूल की रानी कदाच्छि का नाम आता है । इसने श्रीपुर मे 'लोकतिलक' जिनालय बनवाया था। इस जिनालय की सुव्यवस्था के लिये श्रीपुरुष राजा ने अपनी भायां की प्रेरणा एव परमगूल की प्रार्थना से निर्गुन्द देश में स्थित पूनल्लि नामक ग्राम दान मे दिया था। ऐतिहासिक जैनधर्म-सेविका जैनमहिलाओं में इस देवी का प्रमुख स्थान है। इसके मवध मे कहा जाता है कि “यह सदापुण्य कार्यों मे आगे रहनी थी। इसने कई उत्सव और जागरण भी किये थे।" इसका पता ७७६ ईस्वी की एक राजाज्ञा मे चलता है कि इस काल मे कदाच्छि पूर्ण वयस्क थी। माथ ही यह भी मालूम होता है कि इस देवी का केवल अपने ही परिवार पर प्रभाव नहीं था, बल्कि गगराज परिवार पर भी था। इसके बाद प्रमुख जैन महिलामो में जाक्कियव्वे का नाम आता है। श्रवण वेलगोल के शिलालेख न० ४८६ (४००) से पता चलता है कि यह देवी शुभचन्द्र सिद्धान्तदेव की शिष्या थी और इसने एक मूर्ति की स्थापना कराई था। इसकी व्यवस्था के लिए गोविन्द वार्ड की भूमि दान की थी। इस देवी के पति का नाम सत्तरन नागार्जुन या। यह राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय के समय में हुई थी। सन् १११ मे सत्तरस नागार्जुन जो नागखण्ड ७० का गासक था, मर गया था। राजा ने उसके स्थान पर उसकी पत्नी को नियुक्त किया था। इस कथन से सिद्ध होता है कि जाक्किायवे राज्य-कार्य सचालन में भी निपुण था। इसके सवध में कहा गया है कि “This lady who was skilled in ability for good government faithful to the Jinendra Sasan and rejoicing in her beauty" अर्थात्-"यह राज्यकार्य में निपुण, जिनेन्द्र के शासन के प्रति प्राज्ञाकारिणी और लावण्यवती थी।" स्त्री होने पर भी उसने अपने अपूर्व साहस और गाम्भीर्य के साथ जैन शासन और राज्य शासन की रक्षा की थी। अन्तिम समय में यह व्याधिग्रस्त हो गई । इसलिये इसने पुत्री को राज्य सौंप कर वन्दणिक नामक ग्राम को वमादि में सल्लेखना धारण की थी। ___ इस शताब्दी में एक और जैनमहिला के उल्लेखनीय कार्य आते है, जिसका नाम अतिमव्ये या। इस देवी के पिता का नाम सेनापति मल्लय्य, पति का नाम नागदेव और पुत्र का नाम पडेवल तेल था। अतिमव्वे का जैन नारियो में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। कहा जाता है कि इस देवी ने अपने व्यय से पोनकृत शान्तिपुराण की एक हजार प्रतियां और डेढ हजार सोने और जवाहिरात की मूर्तियां तैयार कराई थी। अनेक धर्म-सेविकागो की तुलना अतिमव्वे से की गई है। दसवी शताब्दी के अन्तिम भाग मे वीरवर चामुण्डराय की माता कालल देवी एक वडी धर्म-प्रचारिका हुई है। 'भुजवल-चरित' से पता लगता है कि इस देवी ने जव जैनाचार्य जिनसेन के मुख से गोम्मट देव की मूर्ति की प्रशसा सुनी तो प्रतिज्ञा की कि जब तक गोम्मट देव के दर्शन न करूँगो, दूध नहीं पीऊंगो। जव चामुण्डराय को अपनी पत्नी अजितादेवी के मुख से अपनी माता का यह सवाद मालूम हुअा तो मातृभक्त पुत्र ने माता को गोम्मटदेव के दर्शन कराने के लिये पोदेनपुर को प्रस्थान किया। मार्ग में उन्होने श्रवण वेलगोल की चन्द्रगुप्त वस्ति मे पार्श्वनाथ के दर्शन किये "विशेष जानकारी के लिए देखिए 'मेडीवल जैनिज्म' पृ० १५६ । Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसेविका प्राचीन जैन देवियां ६८७ और भद्रवाह के चरणो की वन्दना की। उमी रात को पद्मावती देवी ने कालल देवी को स्वप्न दिया की कुक्कुट सो के कारण पोदेनपुर की बन्दना तुम्हारे लिये असम्भव है, पर तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर गोम्मटदेव तुम्हे यही बटी गहाटी पर दर्शन देगे। दर्शन देने का प्रकार यह है कि तुम्हारा पुत्र शुद्ध होकर इस छोटी पहाडी पर से एक स्वर्णवाण छोटे तो भगवान के दर्शन होगे। प्रात काल होने पर चामुण्ड ने माता के प्राज्ञानुमार नित्यकर्म मे निपट कर शुद्र हो स्नान-पूजन कर छोटी पहाडी की एक शिला पर अवस्थित हो दक्षिण दिशा की ओर मुह कर एक वाण छोडा जो विन्ध्यगिरि के मस्तक पर की शिला में लगा । बाण के लगते ही गोम्मटस्वामी का मस्तक दृष्टिगोचर हुअा। फिर जैनगुरु ने हीरे की खेती और मोती के हथोडे मे ज्यो ही शिला पर प्रहार किया, गिला के पापाणखण्ड अलग हो गये और गोम्मटदेव की प्रतिमा निकल आई। इसके बाद माता की आज्ञा मे वीरवर चामुण्डराय ने दुग्धाभिषेक किया। इस पौगणिक घटना में कुछ तथ्य हो या नहीं, पर इतना निर्विवाद सिद्ध है कि चामुण्डराय ने अपनी माता कालल देवी की आज्ञा और प्रेरणा मे ही श्रवण वेलगोल में ही गोम्मटेश्वर की मूर्ति स्थापित की थी। इस देवी ने जैनधर्म के प्रचार के लिये कई उत्राव भी किये थे । चामुण्डराय के जैनधर्म का पक्का थद्वानी होने का प्रधान कारण इम देवी की स्नेहमयी गोद एव वाल्यकालीन उपदेश ही या।। ___ दमवी, ग्यारहवी और बारहवी शताब्दी में अनेक जैन महिलाओ ने जैनधर्म की मेवा की है। इस काल में दक्षिण में राजघरानो की देवियो के अतिरिक्त साधारण महिलाओं ने भी अपने त्याग एव मेवा का अच्छा परिचय दिया है। दमवी शताब्दी के अन्तिम चरण में पाम्बव्वे नाम की एक अत्यन्त धर्मशीला महिला हो गई है। इसके पति का नाम पडियर दोरपय्य था। यह उनकी पत्नी बनाई गई है। यह नाणव्वे कन्ति नामक धर्माचार्य की शिष्या थी। इसके मबध में लिया हुआ मिलता है-"Pambabbe having made her head bold (by plucking cut the hair), performed penance for thirty years, and observing the five vows expired in A D.971." __ अर्थात्-पाम्बव्वे केगलुञ्च कर तीस वर्ष तक महान् तपश्चरण करती रही और अत मे पचनतो का पालन करते हुए ६७१ ई० मे शरीर-त्याग किया। ग्यारहवी शताब्दी में गम्भूदेव और अकन्ने के पुत्र चन्द्रमौलि की भार्या अचलदेवी अत्यन्त धार्मिक महिला हुई है। यह चन्द्रमौलि वीरवल्लालदेव का मन्त्री था। अचलदेवी के पिता का नाम मोवण नायक और माता का नाम वाचब्बे था। यह नयकीत्ति के शिष्य वालचन्द्र की शिष्या थी। नयकीर्ति सिद्धान्तदेव मूलसघ, देशीयगण पुस्तकगच्छ कुन्दकुन्दान्वयके गुणचन्द्र सिद्धान्तदेव के शिष्य थे। नयकोति के शिष्यो मे भानुकीति, प्रभाचन्द्र, माघनन्दी, पद्मनन्दी, वालचन्द्र और नेमिचन्द्र मुख्य थे। अचलदेवी का दूसरा नाम प्राचियक्क बताया गया है । इसने अक्कनवस्ति (जिनमन्दिर) का निर्माण कराया था। चन्द्रमौलि ने अपनी भार्या अचलदेवी की प्रेरणा से होयसल नरेश वीरवत्लाल से बम्मेयनहल्लि नामक ग्राम उपर्युक्त जिनमन्दिर की व्यवस्था के लिए मांगा था। राजा ने धर्म-मार्ग का उद्योत ममझ कर उक्त ग्राम दान मे दिया था। इसी अचलदेवी की प्रार्थना से वीरवल्लाल नृप ने बेक्क नामक ग्राम गोम्मटनाथ के पूजन के हेतु दान मे दे दिया। इस धर्मात्मा देवी के सम्बन्ध मे एक स्थान पर कहा गया है कि यह माक्षात् धर्ममूर्ति थी। इसने धर्म-मार्ग की प्रभावना के लिए कई उत्सव किये थे। इन उत्सवो में यह रात्रि-जागरण करती रही थी। इसके अनन्तर इमी शताब्दी में पद्मावती वक्क का नाम धर्मसेविकानो मे पाता है। यह देवी अभयचन्द्र की गृहस्थ गिप्या थी। सन् १७०८ मे अभयचन्द्र का देहावसान होने पर इमने उस वसादि का निर्माण कार्य पूर्ण किया था, जिमका प्रारम्भ अभयचन्द्र ने किया था। इस देवी ने देवमन्दिर की चहारदीवारी भी वनवा दी थी। अपने ममय की लव्ध-प्रतिष्ठ सेविका यह देवी थी। इमी देवी की ममकालीन कोगाल्व की माता पोचव्वरसि ने एक वमादि का निर्माण कराया था। इस वसादि में इसने अपने गुरु गुणसेन पडित को मूत्ति स्थापित की थी। सन् Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ දපස් प्रेमी-प्रभिनदन- ग्रंथ १०५८ में उस वसादि के निर्वाह के लिए भूमि दान भी किया था। इसने अपने जीवन काल मे अनेक धार्मिक उत्सव किये थे । कदम्वराज कीर्त्तिदेव की प्रथम पाणिगृहीता पत्नी मालल देवी का भी धर्मप्रचारिका जैन महिलायों में ऊँचा स्थान है । इसने सन् १०७७ मे कुप्पटूर में पधनदी सिद्धान्तदेव के द्वारा पार्श्वदेव चैत्यालय का निर्माण कराया था । इस देवी ने जिनालय के तैयार होने पर एक वडा उत्नव किया था तथा इस उत्सव में सभी ब्राह्मणो को आमन्त्रित किया था और उनकी पूजा कर उन्हें घन मानादि द्वारा सन्तुष्ट किया था । इसलिए इसा जिनालय का नाम उन्ही आमन्त्रित ब्राह्मणो से ब्रह्मजिनालय रखवाया था । यह जिनालय एडेनाडु नामक सुन्दर स्थान पर था । इसके सम्वन्ध मे उल्लेख है—''This sage belonged to the Mula Sangha and the Tintrinka gaccha This Tinaloya she obtained from the king Sıddoni the most beautiful place in Edenad." • इसके अनन्तर इसी शताब्दी की जैन महिलाओ मे सान्तर परिवार की जैनवर्माराविका चट्टल देवी का नाम विशेष उल्लेखयोग्य है । यह देवी रक्कम गग की पौत्री थी। इसका विवाह पल्लवराज काडुवेही से हुआ था । असमय में ही इसके पति और पुत्र का स्वर्गवास हो गया था। इसके बाद इसने अपनी छोटी बहन के तैल, गोग्गिए, डुग और वर्म इन चार पुत्रो को अपना मातृस्नेह समर्पित किया । इन्ही की सहायता मे सान्नरो की राजवानो पोम्बुच्चपुर में जिनालयो का निर्माण किया । इन जिनालयो मे एक पत्रकूट या पचवमादि है जो 'ऊवितिलकम्' के नाम से प्रसिद्ध है । इस परोपकारी देवी ने तालाव, कुएँ, मन्दिर तथा घाटो का भी निर्माण कराया। यह श्राहार, ज्ञान, षधि और अभय इन चारो प्रकार के दानो से जनता की सेवा करती थी। इसके सम्वन्ध में कहा गया है कि यह लावण्यवती, स्नेह की मधु धारा और परोपकार की साक्षात् मूर्ति थी । इसने जैनधर्म के प्रचार और प्रसार में पूर्ण महयोग प्रदान किया था । श्रवण वेलगोल के शिलालेख न० २२६ (१३७) से पता लगता है कि इसी शताब्दी मे पोयमल सेट्टि और नेमि सेट्टि की माताओ - मात्रिकब्बे और शान्तिकब्बे ने जिनमन्दिर और नन्दीश्वर निर्माण करा कर भानुकीर्ति मुनि से दोक्षा ली थी । ये दोनो देविना जैनधर्म को प्रचारिका थी । इन्होने अपने समय मे जैनधर्म का अच्छा प्रसार किया था । साधारण धर्मसेवी महिलाओ मे श्रीमती गन्ती का नाम भी मिलता है । इस देवी के गुरु दिवाकर नन्दी मुनीन्द्र बताये गये है | श्रवण वेलगोल के शिलालेख न० १३६ (३५१) से पता चलता है कि माकवे गन्ती न श्रीमती गन्ती के स्मरणार्थ उक्त लख लिखवाया था । लेख के प्रारम्भ में बताया गया है कि देशीय गण कुन्दकुन्दान्वय के दिवाकर नन्दी और उनकी शिष्या श्रीमती गन्ती का स्मारक है । इस प्रकार अनेक साधारण महिलाएं जैनधर्म की मेवा करती रही । ग्यारहवी शताब्दी मे राजपरिवार को देवियो गग महादेवी को जैनधर्म प्रचारिकाओं में अत्यन्त ऊँचा स्थान प्राप्त है। यह भुजबल गग हेम्माडि मान्धाता भूप को पत्नी थो । इस देवी का दूसरा नाम पट्टदमहादेवी भी मिलता है । यह देवी जिन चरणारविन्दो मे लुब्धभ्रमरी थी । ग्यारहवी शताब्दी मे शान्तलदेवी की माता माचिकव्वे भी वडी धर्मात्मा एव धर्मसेवी हुई है । इसका सक्षिप्त वशपरिचय मिलता है कि दण्डाघीग नागवर्म और उनकी भार्या चन्दिक के पुत्र प्रतापी वलदेव दण्डनायक और उनकी भार्या वाचिकवे मे माचिकब्वे की उत्पत्ति हुई थी। यह वचपन से ही वडी धर्मात्मा और स्पवती थी । इसका विवाह मारसिङ्गय्य युवक से हुआ था । इसका पति शैव धर्मानुयायी था, लेकिन यह पक्की जैन थी। इसके गुरु का नाम प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव, वर्द्धमानदेव और रविचन्द्रदेव था । श्रवण वेलगोल के शिलालेख न० ५३ (१४३) से प्रकट होता है कि इसने वेलगोल में आकर एक मास के अनशन व्रत के पश्चात् गुरुग्रो की साक्षि-पूर्वक सन्यास ग्रहण किया था । इस धर्मात्मा देवी की पुत्री महारानी शान्तलदेवी हुई। यह प्रारम्भ से ही माता के समान Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसेविका प्राचीन जैन देवियां ६८९ धर्मात्मा, रूपवती और विदुषी थी। इसका विवाह होयसलवशी महाराज विष्णुवर्धन के साथ हुआ था। इसके सम्बन्ध में कहा गया है कि यह जैन धर्मावलम्बिनी, धर्मपरायणा और प्रभाचन्द्र मिद्धान्तदेव की शिष्या थी। श्रवण वेलगोल के शिलालेख न० ५६ (१३२) में बताया गया है कि "विष्णुवर्द्धन की पट्टरानी गान्तलदेवी-जो पातिव्रत, धर्मपरायणता और भक्ति मे रुक्मिणी, सत्यभामा, सीता-जैसी देवियो के ममान थी- सवतिगन्धवारणवस्ति निर्माण कराकर अभिषेक के लिए एक तालाब वनवाया और उसके साथ एक गांव का दान मन्दिर के लिए प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव को कर दिया।" एक दूसरे शिलालेख मे यह भी कहा गया है कि इस देवी ने विष्णुवर्द्धन नरेश की अनुमति से और भी कई छोटे-छोटे ग्राम दान किये थे। इन ग्रामो का दान भी मूलसघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ के मेघचन्द्र विवदेव के शिष्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव के लिए किये जाने का उल्लेख है। जैन महिलाओ के इतिहास में इस देवी का नाम चिरस्थायी है। इमने सन् ११२३ मे श्रवण वेलगोल में जिनेन्द्र भगवान् की एक प्रतिमा स्थापित की, जो शान्ति जिनेन्द्र के नाम से प्रसिद्ध है । इमने भक्ति, दया, दान, धर्मशीलता और सौजन्यता आदि गुणो से अपूर्व ख्याति प्राप्त की थी। अन्तिम जीवन मे शान्तलदेवी विषयभोगी से विरक्त होकर कई महीनो तक अनशन और ऊनोदर व्रतो को धारण करती रही थी। मन् ११३१ में शिवगगे नामक स्थान मे सल्लेखना धारण कर गरीर त्याग किया था। गान्तलदेवी की पुत्री हरियबरसि ने अनेक धार्मिक कार्य किये थे। इसने सन् ११२६ में कोडागिनाद के हन्तिपूर नामक स्थान मे एक बडा भारी जिनमन्दिर बनवाया था तथा इसके गोपुर की चोटियो मे हीरा, रत्न एव जवाहिरात आदि अमूल्य मणि-माणिक्य लगवाये थे। इस चैत्यालय के निर्वाह के लिए बहुत सी भूमि दान की है। इनके सम्बन्ध मे एक स्थान पर कहा गया है कि "हरिपब्वरसि की ख्याति तत्कालीन वार्मिको में थी, मदसुन्दरी जैनधर्म की अत्यन्त अनुरागिणी थी, भगवान् जिनेन्द्र का पूजन प्रतिदिन करती थी, मावु और मुनियो को आहार दानादि भी देती थी।" विष्णुचन्द्र नरेश के बडे भाई बलदेव की भार्या जवक्कणब्वे की जैनधर्म में अत्यन्त श्रद्धा थी। श्रवण वेलगोल के गिलालेख न० ४३ (११७) मे बताया गया है कि देवी नित्य प्रति जिनेन्द्रदेव का पूजन करती थी। यह चारित्र्यशील, दान, सत्य आदि गुणो के कारण विख्यात थी। यह गुरु के चरणो मे रात-दिन अहंत गुणगान, पूजन, भजन, स्वाध्याय आदि में निरत रहती थी। इसने 'मोक्षतिलक' व्रत करके एक प्रस्तरखड में एक जिनदेवता की प्रतिमा खुदवाई थी और वेलगोल में उसकी प्रतिष्ठा भी कराई थी। इस प्रतिष्ठा का समय अनुमानत ११२० ई० है। जैन महिलाओ के इतिहास मे नागले भी उल्लेखयोग्य विदुषी, धर्मसेविका महिला है । इसके पुत्र का नाम वृचिराज या वूचड मिलता है । यह अपनी माता के स्नेहमय उपदेश के कारण शक स० १०३७ में वैशाख सुदी १० रविवार को सर्वपरिग्रह का त्याग कर स्वर्गगामी हुआ था। इसकी धर्मात्मा पुत्री देमति या देवमति, थी। यह राजसम्मानित चामुण्ड नामक वणिक् की भार्या थी। इसके सम्वन्ध में उल्लेख है पाहार त्रिग्गज्जनाय विभय भीताय दिव्योषधम् । व्याधिव्यापदुमेतदीनमुखिने श्रोत्रे च शास्त्रागमम् । एवं देवमतिस्सदेव ददती प्रप्रक्षये स्वायुषामहद्देवमति विधाय विधिना दिव्या वधू प्रोदभू आसीत्परक्षोभकर प्रतापा शेषावनी पाल कृता दरस्य । चामुण्डनाम्नो वणिज प्रियास्त्री मुख्यासती या भुविदेवमतीति ॥ इन श्लोको से स्पष्ट है कि देवमति आहार, औषधि, ज्ञान और अभय इन चारो दानो को वितीर्ण करती ८७ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनवन-पथ ६९० थी। इसका समस्त जीवन दान-पुण्यादि पवित्र कार्यों में व्यतीत हुआ था। अन्त में शक स० १०४२ फाल्गुण वदी ११ गुरुवार को सन्यासविधि से शरीर त्याग किया था। इसी समय मार और माकणब्वे के पुत्र एचि की भार्या पोचिकब्बे बडी धर्मात्मा और जैनधर्म की प्रचारक हुई है। इसने अनेक धार्मिक कार्य किये थे । वेल्गोल मे जैनमन्दिर बनवाने में भी इसका उल्लेख मिलता है। शक स० १०४३ आषाढ सुदी ५ सोमवार को इस धर्मवती महिला का स्वर्गवास हो जाने पर उसके प्रतापी पुत्र महासामन्ताधिपति महाप्रचण्ड दण्डनायक विष्णुवर्द्धन महाराज के मन्दी गगराज ने अपनी माता के चिरस्मरणार्थ एक निवद्या का निर्माण कराया था। ___एक अन्य जैनधर्म की सेविका तैल नृपति की कन्या और विक्रमादित्य सान्तर की बडी वहन सान्तर राजकुमारी का उल्लेख मिलता है । यह अपने धार्मिक कार्यों के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध थी । लेखो मे इस महिला की प्रशसा की गई है। इसने शासन देवते का एक मास में निर्माण कराया था। पम्पादेवी वडी धर्मशीला थी। यह नित्यप्रति शास्त्रोक्त विधि से जिनेन्द्र भगवान की पूजा करती थी। यह अष्टविधार्चने, महाभिषेकम् और चतुर्भक्ति को सम्पन्न करना ही अपना प्रधान कर्त्तव्य समझती थी। ऊवितिलकम् के उत्तरी पट्टशाला के निर्माण में इस देवी का पूर्ण हाथ था । ____अनेकान्त मत की प्रचारिका जैन महिलामो के इतिहास में जन सेनापति गगराज की पत्नी लक्ष्मीमती का नाम भी नही भुलाया जा सकता है। श्रवण वेलगोल के शिलालेख न० ४८ (१२८) से पता लगता है कि यह देवी दान, क्षमा, शील और व्रत आदि मे पर्याप्त ख्याति प्राप्त कर चुकी थी। इस लेख में इसके दान की प्रशसा की गई है। इस महिला ने सन् १११८ में श्रवण वेलगोल में एक जिनालय का निर्माण कराया था। इसके अतिरिक्त इसने अनेक जिनमन्दिरो का निर्माण कराया था। गगराज ने इन जिनालयो की व्यवस्था के लिए भूमि-दान किया था। यह देवी असहाय और दुखियो की अन्न वस्त्र से सहायता करती थी। इसी कारण इसे उदारता की खान कहा गया है। एक लेख में कहा गया है कि "क्या ससार की कोई दूसरी महिला निपुणता, सौन्दर्य और ईश्वर-भक्ति मे गगराज की पत्नी लक्ष्मीपाम्बिके की समानता कर सकती है ? सन् ११२१ में लक्ष्मीमती ने समाधि लेकर शरीर त्याग किया था। सुग्गियब्बरसि, कनकियब्बरसि,बोपव्वे और शान्तियक्क महिलामो की धर्म-सेवा के सम्बन्ध में भी कई उल्लेख मिलते है । इन देवियो ने भी जैनधर्म की पर्याप्त सेवा की थी। श्रवण वेलगोल के शिलालेखो में इच्छादेवी एचव्वे, एचलदेवी, कमलदेवी, कालव्वे केलियदेवी, गुज्जवे, गुणमतियब्वे, गगायी, चन्दले, गौरश्री, चागल देवी, जानकी जोगवे, देवीरम्मणि, धनाश्री, पद्मलदेवी, (डुल्लमार्या) यशस्वती, लोकाविका (डल्ल की माता) शान्तल देवी, (बूचिराज की भार्या) सोमश्री एव सुप्रमा आदि अनेक जैनधर्मसेवी महिलामो का उल्लेख मिलता है। इन देवियो ने स्वपर-कल्याणार्थ अनेक धार्मिक कार्य किये थे। दक्षिण भारत के अतिरिक्त उत्तर भारत में भी दो-चार धर्म-सेविकाएँ ११वी, १२वी और १३वी शताब्दी में हुई है। सुप्रसिद्ध कवि कालिदास' पाशाधर जी की पत्नी पद्मावती ने बुलडाना जिले के मेहकर (मेघकर) नामक ग्राम के बालाजी के मन्दिर में जैन मूत्तियो की प्रतिष्ठादि की थी, यह एक खण्डित मूत्ति के लेख से स्पष्ट सिद्ध होता है। राजपूताने की जैन महिलामो मे पोरवाडवशी तेजपाल की भार्या सुहडादेवी, शीशोदिया वश की रानी जयतल्ल देवी एव जैन राजा माशाशाह की माता का नाम विशेष उल्लेखयोग्य मिलता है। चौहानवश की रानियो ने भी उस वश के राजाओ के समान जैनधर्म की सेवा की थी। इस वश का शासन विक्रम संवत् की १३वी शताब्दी में था। इस वश के राजा कीर्तिपाल की पत्नी महिवलदेवी का नाम विशेष उल्लेखयोग्य मिलता है। इस देवी ने शान्तिनाथ भगवान का उत्सव मनाने के लिए भूमिदान की थी। इसने धर्म-प्रभावना के लिए कई उत्सव भी किये थे। Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मसेविका प्राचीन जैन देवियाँ ६६१ इसी वर्ग में होने वाले पृथ्वीराज द्वितीय और सोमेश्वर ने अपनी महारानियो की प्रेरणा से विजौलिया के जैनमन्दिर को दान दिया था तथा मन्दिर के स्थायी प्रवन्ध के लिए राज्य की ओर से वार्षिक भी दिया जाता था। परिवार (?) वश में भी उल्लेखयोग्य धारावश की पत्नी शृगारदेवी हुई है। इस देवी ने झालोनी के शान्तिनाथ मन्दिर के लिए पर्याप्त दान दिया था तथा धर्म के प्रसार के लिए और भी अनेक कार्य किये थे। इस प्रकार उत्तर और दक्षिण दोनो ही प्रान्तो की महिलाओ ने जैनधर्म की उन्नति के लिये अनेक कार्य किये। उत्तर में केवल बड़े घरानो की महिलाओ ने ही जैनधर्म के प्रचार और प्रसार में योग दिया, पर दक्षिण में सर्वसाधारण महिलामो ने भी जैनधर्म की उन्नति में योगदान किया। पारा] Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काश्मीरी कवियित्रियाँ कुमारी प्रेमलता कौल एम० ए० ___ काश्मीरी कविता का आस्वादन कराने के पूर्व काश्मीरी भाषा के सम्बन्ध मे कुछ बातें निवेदन कर देना आवश्यक है। यद्यपि स्थानाभाव के कारण काश्मीरी भाषा के क्रमिक विकास का सविस्तर वर्णन सम्भव नही, तथापि थोडा-सा दिग्दर्शन तो करा ही सकती हूँ। यह सर्वमान्य है कि काश्मीर की प्राचीनतम भाषा सस्कृत थी। जिस प्रकार बोलचाल की भाषा में समयसमय पर परिवर्तन होते रहते है, काश्मीरी भाषा भी बदलती रही है। उसमे रूसी और तिब्बती भाषा के आज भी कुछ चिह्न मिलते हैं। जव से मुसलमानो के आक्रमण होने प्रारम्भ हुए तब से तो बोलचाल की भाषा में बहुत ही परिवर्तन होने लगे। जैसा कि ऊपर निवेदन किया जा चुका है, काश्मीर की भाषा तो सस्कृत थी। वाहर से आई फारसी। यद्यपि काश्मीर-वासियो ने इस नई भाषा से दूर रहने का भरसक प्रयत्न किया, परन्तु फिर भी वह उन पर लादी जाने लगी। मुसलमानो ने फारसी को राज्य-भाषा बनाया। आपस का सम्पर्क आवश्यक था। परिणामस्वरूप दोनो भाषाओ के शब्द विभिन्न प्रकार से प्रयुक्त होने लगे। काश्मीर वाले फारसी का और मुसलमान संस्कृत का शुद्ध उच्चारण नही कर सकते थे। नतीजा यह हुआ कि एक ऐसी भाषा वन गई, जिसमें फारसी और सस्कृत के अपभ्रश शब्दो का इस्तेमाल होने लगा। इस नवीन भाषा का व्याकरण दस प्रतिशत सस्कृत व्याकरण है, किन्तु इसमें चार ऐसे स्वर आ गये है, जो न सस्कृत वर्णमाला में है और न फारसी में। इनका कुछ सम्बन्ध रूसी भाषा से अवश्य पाया जाता है। हम उन्हें अपने ही स्वर-अक्षरो में कुछ चिह्न लगा कर सूचित करते है। आजकल को काश्मोरी भाषा में उर्दू, फारसी, हिन्दी, सस्कृत और अंग्रेजी के शब्द प्रयुक्त होते है । फारसी के अतिरिक्त यहाँ देवनागरी से मिलती-जुलती 'शारदा' नामक लिपि भी पाई जाती है, जिसका प्रयोग कुछ प्राचीन हिन्दू ही करते है और इसका स्थानिक प्रयोग ज्योतिष तक ही सीमित है । कोई उल्लेखयोग्य साहित्य उसमें उपलब्ध इस समय जो काश्मीरी साहित्य मिलता है, उसे देखने से पता चलता है कि इस प्रदेश में अनेक कवि हुए है, जिन्होने साहित्य की अच्छी सेवा की है। प्रस्तुत लेख में केवल कवियित्रियों पर ही प्रकाश डालूगी।। काश्मीरी कवियित्रियो में सबसे पहला स्थान ललितेश्वरी देवी उपनाम 'ललीश्वरीदेवी' का है। इनकी रचनाएँ बहुत ही प्रभावशाली है और इनकी वाणी में अद्भुत भोज है। उनका जन्म काश्मीर के एक गाँव में हुआ था। बडी होने पर पध्मपुर में एक ब्राह्मण से इनका विवाह हुया । जब ये ससुराल पहुंची तो इन्हें अपनी आध्यात्मिक उन्नति मे अनेक बाधाओ का सामना करना पड़ा। इनकी सास का व्यवहार इनके प्रति बडा कटु था। फिर भी सब कुछ सहन करती हुई वे अपने मार्ग पर अग्रसर होती गई। इनके बारे में अनेक चमत्कारपूर्ण घटनाएँ प्रसिद्ध है, लेकिन विस्तार-भय से उनका उल्लेख करना सम्भव नही। ___ ललितेश्वरी का शास्त्रीय अध्ययन कितना था, इसका ठीक पता नही, लेकिन वेदान्त के सिद्धान्तो को उन्होने गहराई से हृदयगम कर लिया था। जैसा कि उनकी रचनाओ से विदित होता है, ब्रह्म-ज्ञान को उन्होने व्यक्तिगत् माधना का विषय बनाया। हर स्थान पर 'वटा (ब्राह्मण) कह कर वे जनता को सम्बोधित करती है। कर्मकाण्ड की उलझनो का कवीर की भाँति इन्होने विरोध किया और साधना का सहज पथ ग्रहण करने की प्रेरणा की। 'प्राधुनिक पाम्पुर (केसर-भूमि)। Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काश्मीरी कवियित्रियों ६९३ इनकी वाणी के कतिपय दृष्टान्त इनकी प्रवृत्ति को स्पष्टतया व्यक्त कर देते है। इनकी वाणी पर सस्कृत आचार्यों की छाप है। वे लिखती हैं अन्दर भासिय न्यवर छोडुम पवनन रगन करनम सथ ध्यान फिन दिए जगि फीवल जोनुम रग गव सगस मोलिय क्यथ अन्दर होते हुए भी मैने उसे (ब्रह्म को) वाहर ठूढा । पवन ने मेरी नसो को तसल्ली दी और ध्यान से मैने सारे सतार में केवल एक परमात्मा को जाना। यह सारा प्रपच (रंग) ब्रह्म में लीन हो गया। वे फिर कहती है ओंकार यलि लय मोनुम वृहिय कुरूम पनुन पान श्य वत त्रोविथ त सथमार्ग रुटुम त्यलि ललि वोचुस प्रकाशस्थान ॥ ओकार को जब मैंने अपने आप में लय कर लिया, अपने शरीर को भस्म किया और छ रास्तो को छोड कर सातवे अर्थात् सत्य के रास्ते को ग्रहण किया, तब मैललीश्वरीप्रकाश के स्थान पर पहुंची। इस पद्याश में सत्य का सहज पथ दिखाई देता है। ब्रह्म को अपने में लय करके सत पथ पर चलने का वे प्रादेश देती है। फिर कहती हैं और ति पानय योर ति पानय पानय पनस छु न मैलान । पृथम अच्यस न मुलेह दानिय सुइ हा मालि चय प्राश्चर जान ॥३॥ उधर भी आप ही है और इधर भी आप ही है, किन्तु आप अपने को ही नहीं मिलता। इसमे जरा भी नहीं नमा सकता। हे तात | इस आश्चर्य पर तू विचार कर। ___ यहां अपने आपको पहचानने का प्रयत्न है। कहती है कि आत्मा ही ब्रह्म होते हुए माया का परदा पडा रहने से मिलता नहीं। आगे चलकर कहती है अछान आय त गछुन गछे पकुन गछे दिन क्योह राय योरय प्राय तूर्य गछुन गर्छ कह न त कह न त कह न त क्याह? अनादि से हम आये है और अनन्त मे हमे जाना है। दिन और रात हमे इसी की ओर चलते रहना चाहिए। जहां से हम आये हैं, वही हमे जाना है । कुछ नही, कुछ नही, कुछ नही। यह ससार कुछ नही । गुरू की श्रेष्ठता बताते हुए कहती है गुरु शब्दस युस यछ पछ मरे ज्ञान वहिग रटि च्यथ तोरगस इन्द्रय शोमरथि अनन्द करे प्रद कस मरियत मारन कस ॥५॥ Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ गुरू के शब्द पर जो विश्वास धरे, ज्ञान रूपी लगाम से चित्त रूपी घोडे (तोरग-फारसी शब्द) को रोके और जो इन्द्रियो का शमन करके पानन्द पाये तो भला कौन मरे और किस को मारे ? वे कवीर की भांति गुरू पर अधिक विश्वास करती जान पडती है। गुरू पर इतनी आस्था है कि उनकी कृपा से परमानन्द तक मिल सकता है और फिर गीता के अनुसार कोई किसी को मार नहीं सकता, न कोई मरता है। ठीक भी है जव परमानन्द प्राप्त कर लिया तो फिर मरने का प्रश्न ही नहीं रह जाता। वे निरन्तर अपने आपको पहचानने का प्रयल करती जान पडती है। कहती है छाडान लुसुम पानिय पानस छयपिथ ज्ञानस वोत न कहं लय फरमस वाचस मय खानस बर्य वर्य प्याल त च्यवान न कह ।।६।। अपने आपको ढूढ़ते-ढूढते मै तो हार गई। उस गुप्त ज्ञान तक कोई न पहुंचा, पर जब मैने अपने आपको उसमें लय कर दिया तो मै ऐसे अमृत धाम में पहुंची, जहां प्याले तो भरे पडे है, पर पीता कोई भी नहीं। अपने आपको पहचान कर "मैं" और "तू" के भेद-भाव को मिटा देना चाहती है। कहती है नाथ ! न पान न पर जोनुम सवा हि बुदुम अकुय देह ध्य बो बो च्य म्युल न जोनुम च कुस बो क्वस छुह सन्देह ॥७॥ नाथ, न मैने अपने को जाना, न पराये को। सदा शरीर की एकता को दृष्टि में रक्खा। "तू-मै" और "मै-तू" का एकात्म मैने नही अनुभव किया। तू कौन है ? मै कौन हूँ? यही तो मेरे मन में सन्देह है। वे "मैं" और "तू" के भेद-भाव को मिटा देना चाहती है। सारे ब्रह्माण्ड को ब्रह्ममय देखते हुए कहती है गगन चय भूतल चय चय दयन त पवन त राय अर्घ चन्दुन पोष पो म चय चय सकल तय लगजि कस ॥८॥ आकाश तू ही है । पृथ्वी भी तू ही है । दिन, पवन और रात भी तू ही है । अर्घ, चन्दन, फूल और जल भी तू ही है। तू ही सब कुछ है । फिर भला तुझ पर चढाये क्या? ससार की प्रत्येक वस्तु में वे प्रभु का दर्शन करती है। इसी प्रकार एक स्थान पर और भी कहती है दीव वटा वीवर वटा हेरि बोन छु एक वाट पूज कस करख हूत वटा कर मनस त पवनस सघाठ ॥॥ देव (मूर्ति) भी पत्थर का ही है। देवालय भी पत्थर का ही है। ऊपर से नीचे तक एक ही वस्तु, अर्थात् पत्यर ही पत्थर है । हे मूर्ख ब्राह्मण, तू किस को पूजेगा? तू मन और आत्मा (पवनस) को एक कर। इसी प्रकार के भाव कबीर ने भी व्यक्त किये है पाथर पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहार। घर की चाकी पूजिए पीस खाय ससार ॥ Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काश्मीरी कवियित्रियां ६६५ मूर्ति-पूजा का कबीर ने खडन किया है । ललितेश्वरी के लिए भी मूर्ति एक पत्यर के टुकडे से अविक अस्तित्त्व नही रखती। वे ज्ञान पर ही अधिक जोर देती है । वुद्धि को प्रकाशमान करना उन्हें अभीष्ट है और ज्ञान द्वारा आत्म साक्षात्कार करना उन्हें अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। जगत को नश्वर मान, सासारिक वातो को मिथ्या समझ कर कहती है कुस वव तय क्वस माजि कमी लाजि बाजी बठ फाल्य गछक कुह न वव फुह नो माजि जानिय कव लानिय वोजी वठ ॥१०॥ कौन है वाप? और कौन है माँ ? किम ने तेरे माय प्रेम किया? ममय आने पर तू तो चला जायेगा। न तेरा कोई पिता होगा, न कोई माता होगी। यह मब कुछ जानते हुए भी तू क्यो प्रेम वढाता है? ललितेश्वरी के और भी बहुत से पद्य यहां दिये जा सकते है, किन्तु पाठक इतने ही से उनके विचारो की सूक्ष्मता का अनुमान कर सकते है। अन्त में उनकी चार पक्तियां और देना उचित समझनी हूँ, जिनमे विदित होता है कि वे योग की क्रियाओं से भी पूर्णतया परिचित थी। वे कहती है दाद शान्त मण्डल यस देवस यजय नासिक पवन अनाहत रव स यस कल्पन अन्तिह चलिय स्वयम् देव त अर्चन फस ।।११।। ब्रह्मरन्ध्र को जिसने शिव का स्यान जाना, प्राणवायु के (प्रवाह) साथ-साथ जिमने अनाहत को मुना और जिम की वामनाएं अन्दर-ही-अन्दर मिट गई, वह तोम्वय ही देव है, शिव रूप है, फिर पूजा काहे की? इनके पश्चात् विशेष उल्लेखनीय कवियित्री है 'हव्व खातून' । कहा जाताहै कि वे अकवर के समय में काश्मीर के गवर्नर की पत्नी थी। वे अत्यन्त रूपवती थी। जब अकबर ने उनको देखा तो उनके पति से कहा कि यह स्त्री मुझे दे दो। उसने देने से इन्कार किया और खातून स्वय भी वादगाह के हरम में जाने को राजी न हुई । इस पर वादगाह ने क्रोधित हो कर उनके पति को कत्ल करवा दिया । इस पर हव्व खातून अपने पति की याद में घर छोड कर वैरागी हो गई और इसी प्रकार मारी श्रायु विता दी। इनकी रचनाएं बहुत कम उपलव्व है, किन्तु जो कुछ भी है, प्रेम से भरी हुई है, चाहे उसे आध्यात्मिक प्रेम कहें, या भौतिक । हब्ब खातून तया इनकी समकालीन अथवा वाद की कवियित्रियो पर फारसी माहित्य तया कल्पना का अधिक प्रभाव है। फारमी एव उर्दू के कवियो मे विरह की व्याकुलता और चिर मिलन की साप हर समय बनी रहती है। यही वात हव्व खातून की रचनाओ में पाई भी जाती है। वे कहती है लति थवनम दद फिराक कति लुगसय रसय मस छी रऽव यार करनस मच व फलवान ॥१॥ लति (अपने आपको सम्बोधित करती है), मेरे उस (प्रेमी) निष्ठुर ने मुझे विरह की वेदना ही दी है। न जाने उमका मन कहाँ रमा है ? उम प्रीतम ने मेरी मस्ती को छित्र-भिन्न कर दिया और मैं बावली हो कर मारीमारी फिर रही हूँ। Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-पथ सीन मुचरित हाल बावहस 'कीन म्योन क्यांह छुसय म्य छ, तहन्ती मनिकामन सुछ वे परवाय लद न ति खाफ रोयस वद न वे फसय मस छोरश्व यार करनस मै अपना दिल खोल कर अपनी दशा दिखाऊँ और बताऊँ कि मुझे क्या दुख है । मै तो उसी की मनोकाक्षा करती रहती हूँ, किन्तु वह निष्ठुर मेरी तनिक भी सुधि नहीं लेता। फिर उसको निष्ठुरता पर अपने शरीर मे खाक न मलू ? क्या मैं निराश हो कर न रोऊँ ? उस प्रीतम ने मुझे बहुत निराश कर दिया है। ननि कथ वन मनसूरन कनि लय हसय मनि मज सुई नार गुडनम हनि हनि झम रेह तनि मुचरित हाल वावहस । तनि तन लागहसय वचार मन्सूर ने सत्य बाते कही तो उसे पत्थर मारे गये। मेरे मन में भी वही अग्नि प्रज्वलित हो रही है और धीमी-धीमी लौ उठ रही है । मैं अपना दिल खोल कर दिखाती, तुम्हारे गरीर से अपना शरीर लगाती। तव तुम्हें मालूम होता कि मेरे अन्दर कैसी ज्वाला है ? द्रुद हरको प्याल बरसय मसय या त दुपनम च त दामा न त दामा चाव ' बोलि नय दपम रोजि महार म्योन दावा छुसय मै सुरा के प्याले भरूँगी। उस (प्रीतम) से एक घूट पीने को प्रार्थना करूंगी अथवा कहूंगी कि तुम नही पीते तो मुझी को एक घुट पिला दो। यदि वह मेरी प्रार्थना न सुनेगे तो कहूंगी कि प्रलय के दिन मैं दावेदार बनूंगी। इन रचनामो पर फारसी का प्रभाव होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं, क्योकि समय का प्रभाव पडना आवश्यक ही था। इसके पश्चात् एक कवियित्री का नाम और पाता है। उनका अपना नाम तो विख्यात नहीं। वे पति के नाम से ही जानी जाती है। वे मुशी भवानीदास की स्त्री थी। यह अपने समय की अच्छी कवियित्री थी। चरखा इनकी विशेष प्रिय चीज थी। इन्होने जितनी भी कविताएं की, अधिकाश चरखा कातते हुए ही की । कहती है Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काश्मीरी कवियित्रियां ६६७ अरनि रग गोम श्रावन हिए कर इये दर्शन दिए कन्द प्रारूद नावद मुतय फन्द अकीय सु गोम कुतय खन्द करनम वुपरन थिए-कर इए मेरा रग अरनि फूल (पीला फूल) के समान हो गया है। वह (प्रीतम) कब पाकर दर्शन देगा? मै कितने मीठे पदार्थों से उसका स्वागत करने बैठी हूँ। वह मुझे धोखा देकर न जाने कहाँ चला गया और मुझे दूसरो के मामने लज्जित कर गया। वह कब आकर दर्शन देगा? श्राम ताव कोताह गजस श्याम सुन्दर पामन लजस नाम पंग्राम कुसनिय कर इये दर्शन दिए मै उसके विरह की अग्नि कहाँ तक सहूँ | हे श्यामसुन्दर | मेरी सखियाँ मुझे ताने देती है। मेरा सन्देश तुम तक कौन ले जायेगा? मुफ्त पुरसे पॉवर वशन सोख्तगी झम न तम सजमशान छुक लदग दवा दिए-करइए मै उसकी चादर में मोती से शिल्पकारी काँगी, किन्तु उसकी कठोरता भुलाये नही भूलती । मेरी पीडा की वही दवा कर मकता है और केवल उमके दर्शनो से ही मेरी पीडा दूर हो सकती है। वे मौतो से विशेष चिढती थी, ऐसा प्रतीत होता है। एक स्थान पर कहती है स्वन छुम गेलान कुनि छुम न मेलान पर जन सत छम खेलानी अश्क नाव सूर गव परवत शेलन अश्क चूर फुर बलवीरनी अश्क नार हनि हनि तनि छम तेलान पर जन सत छुम खेलानी मेरी सौतें मेरा परिहास करती है और वह निष्ठुर प्रीतम दूसरी स्त्रियो के साथ रगरेलियां मना रहा है। मुझे कही भी नहीं मिलता। प्रेम की अग्नि मे मै भस्म हो चुकी हूँ। मुझे पर्वत भी सूखे दिखाई देते है। यह प्रेम का चोर वडे-बडे वीरो के घर में भी डाका डाल देता है। यह प्रेम को पांच धीरे-धीरे मेरे शरीर को भस्म कर रही है । पर वह निष्ठुर प्रीतम कही मिलता ही नही । अन्य स्त्रियो ही में मस्त है । 'काश्मीर में पर्वत का सूखा होना अशुभ-सूचक है, क्योकि यहां कोई पर्वत सूखा नहीं है। । Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ प्रेमी-अभिनंदन ग्रंथ - एक बार चरखा कातते हुए चरखे को ही सम्बोधित करके कहती है- गूँ गूँ मव कर हां इन्वरो कन्यर्यन त फुलला मलयो योनि छु नरल त कल्म छ परान इल्म वान लगयो हा, इन्दरो. हे चरखे ! तू 'गू गूं' शब्द न निकाल । में तेरी गुनियों में इत्र लगाऊँगी । तेरे गले में माल, (योनि --- यज्ञोपवीत का धागा) है और तू कलमा (सत्य) पढ़ता है। हे चरखे, तू वडा ही पण्डित है । इसके अतिरिक्त इनकी रचनाए कम ही उपलब्ध है । कोई सग्रह नही छपा । कुछ फुटकर पद्य हमको इधर-उधर से कुछ मनुष्यो की जबानी मिलते है, जो कि कवियित्री के ही कहे हुए प्रसिद्ध है, परन्तु इस सम्बन्ध में अधिकतर निर्माताओ के नाम ज्ञात नहीं है । अनेक पद्य बहुत सुन्दर और ऊँचे दरजे के है, परन्तु खेद है कि अभी तक उनका प्रामाणिक सग्रह नही हो सका है । उदाहरण के लिए निचला पद्य देखिए यार छुम करान प्रसवनि हिलय विलन्य बोल्यम मारस पान याद वित भवनन मुछनस शिलय · ₹ छाय जन लूसस पत लारान वात न जमीनस विलनय बोज्यम मारस पान. मेरा प्रीतम मुझसे हजारों बहाने बनाता है । यदि वह मेरी प्रार्थना को न सुनेगा तो मैं प्राण त्याग दूंगी । मुझे वचन देकर मेरे प्रीतम ने मुझे ककड की भाँति फेंक दिया ( भुला दिया ) । किन्तु में तो छाया की भांति उसके साथ ही रहूँगी । यदि पृथ्वी पर उसे न पा सकी तो आकाश तक उसे पकडने जाऊँगी । यदि वह मेरी प्रार्थना नही सुनेगा तो में अपने प्राण त्याग दूगी । एक और सन्त स्त्री का उल्लेख आवश्यक है । इनका नाम रूपभवानी था । कहा जाता है कि यह भक्त थी और बहुधा प्रश्नोत्तर में ही इनकी तीव्र बुद्धि का परिचय मिलता है । इनकी रचनाएँ बहुत कम लोगो में प्रचलित है । कारण कि इनके विचार कट्टर आध्यात्मिक है और जनता इन विचारो को आसानी से समझ नही पाती । एक छोटी-सी कथा इनके बारे में प्रचलित है । कहते है कि एक बार किसी ने इनसे प्रश्न किया कि आपके कुरते का क्य रग है ? इन्होने भट उत्तर दिया- "जाग- -सुरठ-मजेठ ।" ये तीनो शब्द तीन रंगो के नाम भी है और इनवे पिलय भावात्मक अर्थ भी निकलते है (१) जाग - काही रग भावार्थ - देख । · (२) सुरठ-रग विशेष भावार्थ - उसे ( प्रभु को ) पकड । (३) मजेठ— मजीठ रग : भावार्थ-व्यर्थ के आडम्बरो में न पढ । इस प्रकार इन्होने तीनो रंगो के नाम भी लिये और यह भी कहा कि "जाग कर ईश्वर को देखने का प्रयत्न करो और व्यर्थ के आडम्बरो को छोड दो ।" इस एक ही वाक्य से इनकी तीव्र बुद्धि का अच्छा परिचय मिलता है इस लेख में अन्य कवियित्रियो के बारे में कुछ लिखना सम्भव नहीं, क्योंकि काश्मीरी साहित्य लेखबद्ध + होने के कारण उसके निर्माताओं के विषय में प्रामाणिक और विस्तृत जानकारी प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है हमें यह देख कर बहुत ही खेद होता है कि इस प्रदेश के साहित्य-प्रेमी इस प्रकार की उत्कृष्ट रचनाओं के संग्रह नों सरक्षण की भोर ध्यान नही देते । यदि प्रयत्न किया जाय तो बहुत सी मूल्यवान सामग्री प्राप्त हो सकती है !श्रीनगर ] Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध Page #755 --------------------------------------------------------------------------  Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटिल्य-कालीन रसायन श्री. सत्यप्रकाश, डी० एस-सी० जिन व्यक्तियो ने किसी भी भाषा मे मुद्राराक्षम नामक नाटक पढा है, वे चन्द्रगुप्त और चाणक्य के नाम से परिचित है । चाणक्य का ही नाम विष्णुगुप्त या कौटित्य है । कामन्दक ने अपने 'नीतिसार' के प्रारम्भ में विष्णुगुप्त के सम्बन्ध में ये शब्द लिखे है यस्याभिचार वत्रेण वज्रज्वलन तेजसः । पपात मूलत. श्रीमान्सुपर्वा नन्द पर्वत ॥ एकाकी मन्त्रशक्त्या यशक्त्या शक्ति घरोमप । प्राजहार नृचन्द्राय चन्द्रगुप्ताय मेदिनीम् ॥ नीतिशास्त्रामृत धीमानर्थशास्त्र महोदधे । समुद्दधे नमस्तस्मै विष्णुगुप्ताय वेधसे ।। वर्शनात्तस्य सुदृशो विद्याना पारदृश्वनः । यत्किञ्चिदुपदेश्याम राजविद्या विवा मतम् ॥ कौटिल्य अर्थशास्त्र के कुछ उद्धरण दण्डि के 'दशकुमार चरित्र' में भी पाये जाते हैं । विष्णुगुप्त के सम्बन्ध में इसके ये वाक्य महत्त्व के है अधीष्व तावद्दण्डनीतिम् इयमिदानीमाचार्य विष्णुगुप्तेन मौर्यार्थ पड्भिश्लोक सहस्रस्सक्षिप्ता संवेयमीत्य सम्यगनुष्टीयमाना यथोक्तकार्यक्षमेति ॥ इस वाक्य से यह स्पष्ट है कि कौटिल्य अर्थशास्त्र ६००० श्लोक का है। यह आश्चर्य की बात है कि इतना बडा अन्य पुरातत्त्ववेत्ताप्रो और विद्वानो की दृष्टि में इतने दिनो छिपा कैसे रहा? हमारे देश मे पाश्चात्य पद्धति पर प्राच्य ग्रन्यो के अनुशीलन का काम सर विलियम जोन्स के समय से विशेष प्रारम्भ हुआ, पर इस वीसवी शताब्दी को ही इस बात का श्रेय है कि यह लुप्तप्राय ग्रन्य हमको फिर से मिल सका। इस ग्रन्थ के कुछ उद्धरण मेधातिथि और कुल्लूक की टीका मे पाये जाते है, पर साधारणत यह धारणा थी कि समस्त ग्रन्थ लुप्त हो गया है। ४० वर्ष लगभग की बात है कि मैसूर राज्य की प्रोरियटल लायनेरी को तजोर के पडित ने एक हस्तलिखित प्रति इस ग्रन्थ की दी, साथ में इसकी टीका की एक खडित प्रति भी थी । उक्त पुस्तकालय के अध्यक्ष श्री श्याम शास्त्री ने अत्यन्त परिथम से इस पुस्तक की प्रामाणिकता सिद्ध की, और "इडियन एटिक्वेरी" पत्रिका मे सन् १९०५ से यह ग्रन्थ मुद्रित होने लगा। मैसूर राज्य के अनुग्रह से सन् १९०६ में पूर्ण ग्रन्य छप कर प्रकाशित हुआ। सन् १९१५ में श्री श्याम शास्त्री द्वारा किया गया अनुवाद भी छपा। पजाब अोरियटल सीरीज़ मे प्रो० जॉली के सम्पादन मे और ट्रावनकोर राज्य की सरक्षता मे प्रकाशित होने वाली सस्कृत-सीरीज़ में स्वर्गीय महामहोपाध्याय प० गणपति शास्त्री के सम्पादकत्व में इसके दो सस्करण और निकले। इधर हिन्दी में भी इस अर्थ-शास्त्र के दो अनुवाद (प० गगाप्रसाद शास्त्रीकृत महाभारत कार्यालय दिल्ली से एव प्रो० उदयवीर शास्त्रीकृत मेहरचन्द्र, लक्ष्मणदास लाहौर से) छपे है। इस ग्रन्य के प्रकाशित होते ही प्राच्य-साहित्यज्ञो में एक क्रान्ति-सी आ गई, और कौटिल्य के सम्बन्ध में अनेक समालोचनात्मक ग्रन्थ भी प्रकाशित हुए। Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०२ प्रेमी-अभिनंदन-प्रय कौटिल्य का यह अर्थशास्त्र ईसा से ३२१ से ३०० वर्ष पूर्व के बीच में लिखा गया होगा। पर यह निश्चय है कि यह अर्थशाल अपनी परम्परा का पहला ग्रन्थ नहीं है । इस अर्थशास्त्र में पूर्ववर्ती अनेक आचार्यों का उल्लेख है जैसे विगालाक्ष (१८६३), पराशर (श६७), पिशुन ( १२), बाहुदन्ती पुत्र (शमा२७), कोणपदन्त (१।१६), वातव्याधि (शा२३), कात्यायन (५॥५॥५३), कणिक भारद्वाज (२०५४), चारायण (५०५०५५), धोटमुख (२०५६), किंजल्क (५०५५७), पिशुनपुत्र (२०५९) । इनके अतिरिक्त मानवो, वार्हत्सत्यो, मोशनसो और माम्भीयो का भी उल्लेख है । स्पष्टत अर्थशास्त्र की परम्परा हमारे देश में बहुत पुरानी है। अर्थवेद को वेद का एक उपवेद माना जाता रहा है । खेद का विषय है कि जिन आचार्यों का उल्लेख यहाँ किया गया है उनके गन्य हमें इस समय उपलब्ध नहीं है। __ अर्यशास्त्र की परिभाषा कौटिल्य ने स्वय अपने गन्थ के अन्तिम अधिकरण में कर दी है-मनुष्याणां वृत्तिर्य। मनुष्यवती भूमिरित्यर्थ । तत्या' पृथिव्या लाभपालनोपाय शास्त्रमर्थशास्त्रमिति । इस प्रकार मनुष्यो को वृत्ति को और मनुष्योसे युक्त भूमि को भी अर्थ कहते हैं। ऐसी भूमि की प्राप्ति और उसके पालन के उपायो का उल्लेल जित शाल मे हो उसे अर्थशास्त्र कहेंगे। इस अर्थशास्त्र का उद्देश्य भी कौटिल्य के शब्दो में इस प्रकार है धर्ममयं च कामं च प्रवर्तयति पाति च । अधर्मानर्थ विद्वषानिदं शास्त्र निहन्ति च ॥ अर्थात यह शास्त्र धर्म, अर्थ एव काम को प्रोत्साहित करता है और इन तीनो की रक्षा करता है और अर्थविद्वेषी अवर्मों का नाश भी करता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में १५ अधिकरण, १५० अध्याय, एक सौ अस्सी प्रकरण और लगभग ६ सहन श्लोक हैं। इतने बडे अन्य में अर्थ सम्बन्धी लगभग सभी विषयो का समावेश हो गया है। मेरी धारणा यह है कि मनुष्यवती पृथिवी के लाभ और पालन का सम्बन्ध रसायन विद्या से भी घनिष्ट है और मुझे कौटिल्य के अर्थशास्त्र का पारायण करते समय वडा सन्तोष इस बात से हुआ कि इस अन्य में रासायनिक विषयो की अवहेलना तो दूर, उनका अच्छा समावेश किया गया है। भारतीय रसायन का एक सुन्दर इतिहास आचार्य सर प्रफुल्लचन्द्र राय ने सन् १९०२ मे लिखा था जिसमे तन्त्र और आयुर्वेद के ग्रन्थो के आधार पर विषयो का प्रतिपादन किया गया था। सरप्रफुल्ल को उस समय कौटिल्य के इस अमूल्य अन्य का पता न था। यह ठीक है कि रसायन विद्या का सम्बन्ध भायुर्वेद से भी विशेष है, पर इतना ही नहीं, इसका विशेष सम्वन्ध तो राष्ट्र की सम्पत्ति की प्राप्ति, उसकी वृद्धि और रासायनिक द्रव्यो के सर्वतोन्मुखी उपयोग से है। भारतीय रसायन के इतिहास में कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित सानत्री बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। वैशेषिक दर्शन में प्रतिपादित परमाणुवाद और सात्य का विकासवाद भारतीय रसायन के शास्त्रीय दृष्टिकोण का अभिभावक बना। पचभूतो का शास्त्रीय विवेचन विज्ञानभिक्षु के योगवात्तिक तक में किया गया। सुश्रुत ने अपने शारीरस्तान में प्रत्येक महाभूत में अन्य महाभूतो के समावेश का भी उल्लेख किया है-अन्योन्यानुप्रविष्टानि सर्वान्येतानि निद्दिशेत् । चरक और सुधुत दोनो ने अपने सूत्र-स्थानो में पार्थिव तत्त्व के अन्तर्गत अनेक धातुओ और रासायनिक पदार्थों का उल्लेख किया है पायिवा. सुवर्ण रजत मणिमुक्तामन शिलामृत्कपालाक्य । सुवर्णस्य इह पार्थिवत्वमेवाङ्गीक्रियते गुरुत्व काठिन्य त्यादिहेतुभिः । सूत्रे प्रादि ग्रहणात् लोहमलसिकता सुधा हरिताल लवण गैरिक रसाजन प्रभृतीनाम् ॥ चरक और सुश्रुत इतने प्रसिद्ध ग्रन्य है कि उनके उल्लेख की यहाँ कोई आवश्यकता नही, चरक और सुश्रुत की भी अपनी परम्परा पुरानी है । वर्तमान समय में प्राप्त चरक और सुश्रुत लगभग १८०० से १४०० वर्ष पुराने (ईसा की पहली शताब्दी से ५वी शताब्दी तक के) है। कहा जाता है कि आत्रेय पुनर्वसु के शिष्य अग्निवेश ने जो Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटिल्यकालीन रसायन ७०३ अन्य लिखा था उसके आश्रय पर चरक ने अपने ग्रन्थ का सम्पादन किया और चरक के मूल ग्रन्थ को दृढबल ने जो रूप दिया वह आधुनिक चरक सहिता है। इसी प्रकार सुश्रुत धन्वन्तरि का शिष्य था जिसने वृद्ध सुश्रुत ग्रन्थ का आयोजन किया, पर जो सुश्रुत ही प्राप्त है वह नागार्जुन द्वारा सम्पादित हुआ है। सम्भवत नागार्जुन दृढवल से पूर्व का व्यक्ति है, इसलिए इस समय प्राप्त सुश्रुत दृढवल के सम्पादित चरक से पहले का है, पर फिर भी मूल चरक सहिता वृद्ध सुश्रुत से पूर्व की मानी जाती है। साधारणत यह विश्वास किया जाता है कि सुश्रुत का नागार्जुन वही है जिसे सिद्ध नागार्जुन भी कहते है और जो लोहशास्त्र का रचयिता भी था, और दार्शनिक के रूप में जिसने बौद्धो के माध्यमिक सम्प्रदाय की माध्यमिक सूत्रवृत्ति भी लिखी। ___ कहा जाता है कि धातुविद्या अर्थात् लोहशास्त्र का सबसे प्रमुख प्राचार्य पतजलि है। सम्भवत पतजलि ने ही विड़ का आविष्कार किया (विड शोरे और नमक के अम्लो का मिश्रण है जिसमें सोना भी धुल जाता है)। पतजलि का मूलग्रन्य लोहशास्त्र आजकल अप्राप्य है, पर परावर्ती ग्रन्थो में इसके ग्रन्थ के जो उद्धरण पाये जाते है उनसे इस ग्रन्थ की श्रेष्ठता स्पष्ट व्यक्त होती है। नागार्जुन ने पारे के अनेक यौगिको का आविष्कार किया और धातुशास्त्र में भी नागार्जुन का नाम विशेष उल्लेखनीय है । यह कहना कठिन है कि नागार्जुन पहले हुआ या पतजलि पर आगे के लोहशास्त्रो पर दोनो का ही अमिट प्रभाव रहा है। नागार्जुन के अन्य रसरलाकर में (१) राजावत, गन्धक, रसक, दरद, माक्षिक, विमल, हेम, तार आदि के शोधन, (२) वैक्रान्त, रसक, विमल, दरद आदि सत्त्वो का उल्लेख, (३) माक्षिकसत्त्वपातन, अभ्रकादिद्रुतपातन, चारण-जारण आदि विधियो का विवरण, एव (४) शिलायन्त्र, भूधरयन्त्र, पातनयन्त्र, धोरणयन्त्र, जालिकायन्त्र आदि अनेक यन्त्रो का प्रतिपादन-ये सब विषय ऐसे है जो रसायनशास्त्र के विद्यार्थी को आज भी आकर्षित कर सकते है। भारतीय रसायन के इतिहास के विद्यार्थी को जिस ग्रन्थ ने आजतक विशेष प्रभावित किया है वह वैद्यपति सिंहगुप्त के पुत्र वाग्भटाचार्य का रसरत्नसमुच्चय है। प्राचार्य सर प्रफुल्ल ने अपने भारतीय रसायन के इतिहास के पहले भाग में इसका विशेष उल्लेख किया है। रसायन शास्त्र का क्षेत्र बडा विशद है। सभवत कोई भी शास्त्र ऐसा नहीं है जिसमें रसायन से कुछ न सहायता न मिलती हो। यह प्रसन्नता की बात है कि कौटिल्य ने अपने सर्वांगपूर्ण अर्थशास्त्र में ऐसे विषयो की मीमासा की है जिनका सम्बन्ध रसायन से भी है। यह ठीक है कि यह ग्रन्थ रसायनशास्त्र का ग्रन्थ नही, पर इससे कौटिल्य के समय की रासायनिक प्रवृत्तियो पर अच्छा प्रकाश पडता है। कुछ ऐसे रासायनिक विषयो की भी इसमें चर्चा है जिनके सम्बन्ध के अन्य प्राचीन ग्रन्थ हमे इस समय उपलब्ध नहीं है। कौटिल्य के इस ग्रन्य का रचनाकाल पूर्ण निश्चित है और इसकी प्राचीनता में सन्देह नहीं है । सुश्रुत, चरक और नागार्जुन के मूलग्रन्थो का रचनाकाल उतना निभ्रान्त नहीं है जितना कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र का। इस दृष्टि से इस ग्रन्थ के आधार पर निश्चित की गई रासायनिक प्रवृत्तियाँ हमारे इतिहास में एक विशेष महत्त्व रखती है। यह ग्रन्थ इस देश की रासायनिक परम्परा को इतिहास में इतनी प्राचीनता तक ले जाता है जितना कि यूनान और अरव वालो के ग्रन्थ नही। इस दृष्टि से इसका महत्त्व और भी अधिक है । चाणक्य प्लैटो (४२७-३४७ ई० से पूर्व) और अरस्तू (३८४-३२२ ई० से० पू०) के समकक्ष समय का है। यद्यपि हमारे देश का यूनानियो से सम्पर्क आरम्भ हो गया था, फिर भी मेरी आस्था यह है कि चाणक्य का यह सम्पूर्ण ग्रन्थ अपने देश की पूर्वागत परम्परा पर अधिक निर्भर है, यूनानियो का प्रभाव इस पर कम है। इसमें जिन आचार्यों का उल्लेख है वे भी इसी देश के थे । यूनानियो का अभी इतना दृढ प्रभाव इस देश पर नहीं हो पाया था कि हम यह कह सके कि अर्थशास्त्र में वर्णित रासायनिक प्रवृत्तियो को यूनानी सस्कृति का आश्रय प्राप्त हो गया था। ___यह तो सम्भव नही है कि इस लेख में कौटिल्यकालीन समस्त रासायनिक प्रवृत्तियो की विस्तृत मीमासा की जा सके। सक्षेपत इस ग्रन्थ में निम्न विषय ऐसे है जिनमे आजकल के रसायनज्ञो के लिए कौतूहल की सामग्री विद्यमान है। Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रथ ७०४ (१) भवन निर्माण की सामग्री (श२०१६-१६) (२) विष परीक्षण (श२१११०-२२), (४७८,१२,१३) (३) खनिज (२।६४, २।१२।१-७, १२-१८) (४) मौक्तिक (२।११।२-५) मणि (२।१।२६-३७) (६) हीरा (२११११३८-४२) (७) मूगा (२।११०४३) (८) चन्दन, अगर आदि सुगन्ध काष्ठ (२।११।४४-७६) (8) चर्म (२।१११७७-१०१) (१०) ऊन (२।११।१०२-१११), पत्रोर्णा (२।११।११२-१२०) (११) धातुनिर्माण (२।१२।८-११) (१२) धातुमिश्रण और पणनिर्माण (२।१२।२५-३३) (१३) स्वर्णशोधन और अक्षशाला (२।१३।१-६५), स्वर्ण अपहरण (२।१४।१६-६१) (१४) तेल (२॥१५॥१४, ४६-५१) (१५) बीजो की रक्षा (२।२४१३३) (१६) सुरानिर्माण (२।२५।१७-३४) (१७) घी-दूध (२।२६।३४) (१८) (क) प्राणहर पदार्थ और धूमयोग (१४।१।५-१४), (ख) नेत्रघ्न पदार्थ (१४११११५, १६) (ग) मदनयोग (१४।१।१७, १८) (घ) मूकबधिरकरयोग (१४११०२५) (ड) विषूचिका कर योग (१४११०२४) (च) ज्वर कर योग (१४३१२५) (छ) दशयोग (१४११०३१-३३) (ज) जलाशय भ्रष्टयोग (१४।११३४-३६) (झ) अग्नियोग (१४।११३६।४२) (न) नेत्रमोहन (१४११०४३) (ट) क्षुद्योग (१४।२।१-५) (8) श्वेतीकरणयोग (१४१२।६-६) (ड) रोम्णश्वेतीकरणयोग (१४।२।१०-१३, १४) (ढ) कुष्ठयोग (१४१२।१५-१८) (ण) श्यामीकरणयोग (१४१२।१६-२१) (त) गात्रप्रज्वालनयोग (१४।२।२२-२३) (थ) विविधज्वलनप्रयोग (१४।२।२४-३०) (द) अगारगमनप्रयोग (१४१२।३१-३३) (घ) विविधयोग (१४।२।३४-४८) (न) रात्रि दृष्टि और विविध अजन (१४।३।१-१८) (अन्तर्धान योग)। (प) विषप्रतीकारयोग (१४१४११-६) Page #760 --------------------------------------------------------------------------  Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ लोहाध्यक्षस्ताम्रसीस त्रपु बैंकृन्तकारकूटवृत्तकसताललोहकर्मान्तान्कारयेत् ।।२।१२।२५॥ लक्षणाध्यक्षश्चतुर्भाग ताम्र रूप्यरूप तीक्ष्णत्रपुसीसाजनानामन्यतम माषवीजयुक्त कारयेत् पणमधपण पादमष्टभागमिति ॥ २१२॥२७॥ लोहाध्यक्ष तो समस्त धातु विभाग का अध्यक्ष होता था और लक्षणाध्यक्ष (mint master) सिक्के बनाने के विभाग पर गासन करता था। एक पण मे ११ माष चांदी, ४ माप तांबा और १ माप लोहा, सीसा, रांगा, अजनादि होता था। यह महत्त्व की बात है कि कोटिल्य के समय में क्षार व्यवसाय भी राज्य के नियन्त्रण में रहता था। खन्यध्यक्ष इम विभाग का अधिकारी था। खन्यध्यक्ष शङ्खवज्ञमणिमुफ्ता प्रवालक्षारकर्मान्तान्कारयेत् ॥ २॥१२॥३४॥ रत्नो की परीक्षा शुक्रनीतिसार के अनुसार वज (हीरा), मोती, मूगा, इन्द्रनील, वैडूयं, पुखराज, पाची (पन्ना) और माणिक्य ये नौ महारत्न है। रत्नो में वज्र श्रेष्ठतम, माणिक्य, पाची और मोती श्रेष्ठ पौर इन्द्रनीरा, पुषराज, वैडूर्य मध्यम, एव गोमेद और मूगा अधम बताये गये है। कौटिल्य ने इन रत्नों की विस्तृत विवेचना की है (२।११।२९-३३) जिसका उल्लेख करना यहाँ सम्भव नही है । मणि-कौट, मौलेयक, पार-समुद्रक (३ भेद)। माणिक्य-सौगन्धिक, पद्मराग, अनवद्यराग, पारिजात पुष्पक, वालसूर्यक (५ भेद)। वैडूर्य-उत्पलवर्ण, शिरीषपुष्पक, उदकवर्ण, वशराग, शुकपावर्ण, पुष्यराग, गोमूनफ, गोमेदक ( भेद)। इन्द्रनील-नोलावलीय, इन्द्रनील, कलायपुष्पक, महानील, जाम्बवाभ, जीमूतप्रभ, नन्दपा, वन्मध्य ( भेद)। स्फटिक-शुद्ध, मूलाटवर्ण, शीतवृष्टि (चन्द्रकान्त), सूर्यकान्त (४ भेद) इसी प्रकार मणियो के १८ अवान्तर भेद है और ६ भेद हीरे के है। वर्तमान मणि-विज्ञान (Crystallo graphy) मे मणियों के प्राकृति-निरीक्षण पर विशेष बल दिया गया है । यह सन्तोष की वात है कि कौटिल्य ने भी इस ओर सकेत किया हैषडतुश्चतुरश्रो वृत्तो वा तीन राग सस्थानवानच्छ स्निग्यो गुरुचिष्मानन्तर्गतप्रभ प्रभानुलेपी चेति मणिगुणा ॥ २११॥३४ ।। मणियो के गुणो का परीक्षण करते समय चतुरश्र प्रादिक परीक्षण (geometrical),गुरुत्ल (density), एव अर्चिष्मान अन्तर्गत प्रभ, और प्रभानुलेपो आदि प्रकाश सम्बन्धी (optical) गुणो का ध्यान रलगा चाहिए। आजकल भी मणिपरीक्षण की बहुधा यही विधियाँ है। हीरे के सम्बन्ध में भी कहा है कि अच्छा हीरा समकोटिक (regular) होना चाहिए, अप्रगस्त हीरा नष्टकोण होता हैनष्टकोण निरश्रिपाश्वपिवृत्त चाप्रशस्तम् ॥ २॥११॥४२॥ सुवर्ण और उसका शोधन कौटिल्य ने सुवर्ण के आठ भेद बताये हैजाम्बूनद, शातकुम्भ, हाटक, वैणव, भृगशुक्तिज, जातरूप, रसविद्धमाकरोद्गत, च सुवर्णम् ॥ २॥१३॥३॥ ये भेद उत्पत्ति स्थान की दृष्टि से है। सुवर्ण शोधन की विधियो मे निम्न मुग्य है-- Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०७ कौटल्य-कालीन रसायन (१) चतुर्गुणेन सोसेन शोषयेत् सीसा मिला कर गलाना। (२) शुष्कपटलपियेत्-कडो के साथ पिघलाना। (३) तैलगोमये निषेचयेत्-तेल और गोवर की भावना देना। (४) गण्डिकासु कुट्टयेत्-घन पर कूटना। (५) कन्दली वज्रकन्दकल्के वा निषेचयेत्-कन्दली लता और वचकन्द के कल्क की भावना देना। (३।१३।८-१२) सीसा मिलाकर शोवन की विधि आजकल भी प्रचलित है। चांदो के साथ तो यह बहुत काम आती है (cupellation or Parkes process) । कौटिल्य ने चांदी के शोधन के सम्बन्ध मे भी इसका उल्लेख किया है-तत्सीस चतुर्भागेन शोषयेत् (२॥१३॥१६) । कौटिल्य के ग्रन्य मे तावे और चांदो पर सोना चढाने (goldplating) का भी उल्लेख किया है। इस क्रिया को त्वष्टकर्म कहते है-त्वष्टकर्मण शुल्वभाण्ड सम सुवर्णेन सयूहयेत् (२११३३४९) इस कृत्य को एक विधि इस प्रकार है चतुर्भागसुवर्ण वा वालुका हिंगुलकस्य रसेन चूर्णेन वा वासयेत् । (२११३३५१) अर्थात् तावे या चांदी के आभूषण का चतुर्थीश सोना लेकर वालुका के रस और शिंगरफ के चूर्ण के साथ उस पर मोने का पानी चढा दे। ___चांदी साफ करने का काम कई प्रकार की मूषामो (crucibles) में किया जाता था-(१) मिट्टो और हड्डी से बनी (अस्थि तुत्य), (२) सोसा मिली मिट्टी से बनी-सोस तुत्य, (३) शुष्क शर्करा मिली मिट्टी की (शुष्क तुत्थ), (४) शुद्ध मिट्टो की (कपाल तुत्थ), (५) गोवर मिली मिट्टी को (गोमय तुत्य) । (२।१३।५४) रसरत्नसमुच्चय मे मूषामो का जो विवरण है उससे यह कही अधिक अच्छा है-विशेषतया अस्थि तुत्य और सोस तुत्य की दृष्टि से मृत्तिका पाण्डुरस्थूला शर्करा शोणपाण्डुरा । चिराध्मानसहा साहि मूषार्यमतिशस्यते ॥ तदभावे हि वाल्मीकी कौलाली व समीर्यते ।। या मृत्तिका दग्धतुष शर्णन शिखियकर्वा हय लद्दिना च । लोहेन दण्डेन च कुट्टिता सा साधारणी स्यात् खलु मूषकार्थम् ॥ (रसरत्नसमु० १०॥५-६) आजकल के युग मे मिट्टो, पोर्सलेन, सिलिका, निकेल और प्लैटिनम को मूषामो का अधिक प्रचार है। यह भी महत्त्व को बात है कि कौटिल्य ने सोना अपहरण करने के ५ ढगो का उल्लेख किया हैतुलाविषममपसारण विनावण पेटको पिंकश्चेति हरणोपाया ॥ २॥१४॥१९॥ अर्थात् (१) डडी मारना (तुला विषम), (२) त्रिपुटक (२ भाग चाँदी में १ भाग तांबा) मिला कर सोना हर लेना (त्रिपुटकापसारण), शुल्कापसारण (केवल ताँवा मिला कर), वेल्लकापसारण (चाँदी-लोहा मिला कर), हेमापसारण (तांवा-सोना का मिश्रण मिला कर), (३) अांख वचा कर सोने के पत्रो के स्थान पर चांदी के पत्र वदल देना विस्रावण कहलाता है। (४) पेटक पत्र चढाते समय को चालाकी से सम्वन्व रखता है। पत्र तीन प्रकार के चढाये जाते है-सयूह्य (गाढे पत्र), अवलेप्य (पतले) और सघात्य (कडियां जोडने वाले) (२॥१४॥३१) । (५) अनेक प्रकार को भरतू चीज़े भर देना पिंक कहाता है (filling materials)। Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०८ प्रेमी-अभिनवन-प्रय पुराने आभूषणो से स्वर्ण चुराने के परिकुट्टन, अवच्छेदन, उल्लेखन और पग्निर्दन ये चार प्रकार हैं। रमायनज्ञो की दृष्टि से परिमर्दन विशेष महत्त्व का हैहरिताल मन शिलाहिङ्गलफचूर्णानामन्यतमेन कुरुचिन्द चूर्णेन वा वस्त्र नयूह्ययत् परिमृद्नन्ति तत्परिमर्दनम् ॥२॥१४॥५४॥ इम प्रक्रिया में हरिताल (orpiment), मन गिला (realgar), और हिंगुल (cinnabar) मे ग्गटने का विधान है । सखिया और पारे के साथ मोने का छोज जाना यह माधारण वात है । कौटिल्य ने जिन कुरुविन्द चूर्ण का उल्लेख किया है, वह क्या है इसका पता नहीं। सुगन्धित द्रव्य - कौटिल्य अर्थशास्त्र के दूसरे अधिकरण में सुगन्धित काप्ठो का उन्लर किया गया है। इन द्रव्यो म चन्दन विशेष है। चन्दन के उत्पत्ति स्थान के अनुसार १६ भेद है-मातन, गोगीर्षक, हरिचन्दन, तार्णन, ग्रामेक, दैवमभय, जावक, जोगक, तोरूप, मालेयक, कुचन्दन, कालपर्वतक, कोगकारपवतक, शानादकीय, नागपर्वतक और शाकल । इन चन्दनो मे ९ प्रकार के रग और ६ प्रकार की गन्ध होती है। अच्छा चन्दन निम्न गुणी वाला होता है लघुस्निग्धमश्यान सपिस्नेहलेपि गन्ध सुख त्वगनुसायनुल्बणमचिराग्युष्णसह वाह ग्राहि सुखस्पर्शनमिति चन्दनगुणा ॥ (२३११२६०) अर्थात् अच्छ। चन्दन थोडा सा चिकना, बहुत दिनो मे नखने वाला, घृत के समान चिकना, देह में लिपटने वाला, सुखकारी गन्ध से युक्त, त्वचा में शोतलना देने वाला, फटा मा दाग्खने वाला, वर्णविकार से रहित, गग्मी सहने वाला और सुखस्पर्शी होना चाहिए। इसी प्रकार का वर्णन अगर, तैलपणिक, भद्रधीय (कपूर) और वालेयक (दान्हल्दी या पोला चन्दन) का भी दिया गया है। मुझे आशा थी कि कौटिल्य ने चन्दन के तेल का भा कही उल्लेख किया होता, पर मेरे देवने में नही आया। इत्रो का विवरण भी कही नहीं मिलता है यह आश्चर्य की बात है। कौटिल्य ने चार प्रकार के स्नेहो, घृतादि, का उल्लेख किया हैसर्पिस्तैलवसामज्जान स्नेहा ॥ २॥१५॥१४ ॥ घृत, तेल, वसा और मज्जा। यह भी लिखा है कि अलमी से तेल का छठा भाग तैयार होता है, नामकुश, आम की गुठलो और कपित्य से पांचवां भाग, तिलकुसुम्भ (कुमूम), मधुक (महुआ) और गुदी मे चौथाई भाग तेल प्राप्त होता है (२११५४६-५१)। यह आश्चर्य की बात है कि इस स्थल पर मग्सो, तिल, विनीला, नीम, नारियल आदि के तेलो का उल्लेख क्यो नही किया। घृतो का उल्लेख करते समय कौटिल्य ने यह लिखा हैक्षीरद्रोणे गवा घृतप्रस्य ॥ पञ्चभागाधिको महिषीणाम् ॥ द्विभागाधिकोऽजावीनाम् ।। (२।२६।३४-३६) अर्थात् गाय के १ द्रोण दूध मे १ प्रस्थ घी निकलता है, भैस के इनने ही दूध मे ५ गुना अधिक घी और भेटवकरी के दूध में एक द्रोण में दो प्रम्थ । गुप्तकाल में ४ प्रस्थ का १ श्राढक और ४ माढक का एक द्रोण माना जाता था अर्थात् १ द्रोण में १८ प्रस्थ होते है। इस दृष्टि से गाय के एक सेर दूध मे १ छटांक घी निकलता है। यह बात तो ठीक मालूम होती है। पर भैस के एक सेर दूध से ५ छटॉक घो निकलना होगा इसमें मन्देह है। हाँ, मिद्वान्त रूप से चाणक्य के निम्न दो सूत्र महत्त्व के है-मन्यो वा सर्वेपा प्रमाणम् अर्थात् मय कर देख लो कि कितना घो निकलता है, वही प्रमाण है । गौर भूमि तृणोदक निशेषाद्धि क्षीर घृत वृद्धिर्भवति ॥ (२।२६।३७-३८) अर्थात् भूमि, तृण और जल के अनुसार दूध में घी की मात्रा की कमी या वृद्धि होतो रहती है। Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौटिल्य-कालीन रसायन ७०६ चर्म और ऊन कोटित्य की दृष्टि मे चर्मणा मृदु स्निग्ध बहुल रोम च श्रेष्ठम् (२११।१०१) अर्थात् श्रेष्ठ चर्म वह है जो मृदु, स्निग्ध और अधिक रोम वाला हो। स्थानादि भेद से चर्म की अनेक जातियो का विवरण दिया गया है जैसेकान्तनावक, प्रेयक, विमी, महाविसी, श्यामिका, कालिका, कदल, चन्द्रोत्तरा, शाकुला, सामूर, चीनसी, सामूली, सातिना, नलतूला और वृत्तपुच्छा। इन चमडो के रग और माप का वर्णन भी दिया गया है (२११११७७-१०१)। मुझे आशा थी कि कच्चे चमडे को किस प्रकार पकाठे इसका भी कही उल्लेख मिले पर यह पूर्ण न हुई। रसायनशास्त्र की दृष्टि से यह उल्लेख अधिक महत्त्वपूर्ण होता। कौटिल्य ने ऊन के सम्बन्ध मे लिखा है कि पिच्छलमामिव च सूक्ष्म मृदु च श्रेष्ठम्।। अर्थात् चिकना, गोल सा प्रतीत होने वाला सूक्ष्म और कोमल ऊन अच्छा माना जाता है। ऊन से बने अनेक वस्त्रो का भी उल्लेख है (२१११११०२-१११)। इसी प्रकार एक सूत्र मे काशिक और पौड्रक रेशमी वस्त्र का निर्देश है। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण निर्देश पत्रोों का है। इनके तीन भेद है-मागधिक, पौंड्रिक और सौवर्ण ऋडयक। ये ऊनें नागवृक्ष, लिकुच, वकुल और वट वृक्ष पर होती है । सम्भवत ये ऊने इन वृक्षो पर रहने वाले कीटो द्वारा तैयार की जाती है । कौशेय, चीनण्ट्ट और चीनभूमिजा (चायना सिल्क) का भी निर्देश महत्त्व का है (२।११।११९)। विषपरीक्षण कूटनीति ग्रस्त राष्ट्रो मे शत्रुओ पर विषप्रयोग करना साधारण घटना हो जाती है। अपने पक्ष का व्यक्ति जव सहसा अस्वाभाविक अवस्था में प्राणत्याग करता है, तब यह सन्देह हो जाता है कि उस पर किमी ने विषप्रयोग तो नही किया। कौटित्य कहते है कि श्याव पाणि पाद दन्तनख शिथिलमासरोमचर्माण फेनोपदिग्धमुख विषहत विद्यात् ॥ ४७८ ॥ अर्थात् जिसके हाथ, पैर, दाँत, नख काले पड गये हो, मास, रोम और चर्म ढीली पड़ गई हो, मुह झागो से भरा हो, उसे विप से मारा समझो। फिर लिखने है कि विपहतस्य भोजनशेप पयोभि परीक्षेत्-अर्थात् उस विषहत व्यक्ति का शेप भोजन दूध से जाँचो (४१७१२)। पोस्ट मार्टेम परीक्षा (गव-परीक्षा) की जावे हृदयादुद्धत्याग्नी प्रक्षिप्त चिटचिटायदिन्द्रधनुर्वणं वा विषयुक्त विद्यात् ॥ ४७१३ ॥ अर्थात् मरे हुए व्यक्ति का हृदय अग्नि में डाला जाय । यदि उसमे चटचट शब्द पीर इन्द्र धनुष का रग निकले तो उसे विषयुक्त समझे। आजकल भी तावे और सखिये के विष की पहचान ज्वाला का रग देख कर भी की जाती है। ज्वाला मे कमा रग किस प्रकार के लवणो से आता है इसका विस्तृत निश्चय आधुनिक रमायनशास्त्र में हो चुका है। ___ पहले अधिकरण के २१वे अध्याय मे कौटिल्य ने विषपरीक्षण के विविध प्रकारो का उल्लेख किया है। इन प्रकारो मे ज्वालापरीक्षण और धूम्रपरीक्षण विशेष महत्त्व के है । अग्नालाघूम नोलता शब्द स्फोटन च विषयुक्तस्य वयसा विपत्तिश्च । (०२१६१०) अयात् यदि भोजन में विष मिलाहो तो अग्नि मे उसकी लपट नीली और धुआं भी नीला निकलेगा। अग्नि मे चटचट शब्द भी होगा। यदि पक्षी उसे खायेगा तो वह उसी समय तडफडाने लगेगा। हम जानते है कि तांबे के लवण ज्वाला को हरा-नीला मिश्रित रग प्रदान करते है और सीसा, सखिया (आरसेनिक) और आञ्जन (एटीमनी) के लवण ज्वाला को हलका नीला रग देते है। सामान्य विषो में वहुधा इन्ही लवणो का प्रयोग होता है। कौटिल्य के विपपरीक्षण का यह प्रकार रसायन की दृष्टि से विशेष महत्त्व का है । Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी - श्रभिनदन- प्रथ एक और प्रकार विशेषतया उल्लेखनीय है यद्यपि हम निश्चय रूप मे इसकी रासायनिक व्याख्या को समझने में असमर्थ है रसस्य मध्ये नीला राजी, पयस्ताम्रा, मद्यतोययो काली, दघ्न श्यामा च मघुन श्वेता ॥ ७१० १।२१।१५ ॥ अर्थात् विषयुक्त भोजन के रस में नीली धारी, दूध में लाल, मद्य और जल में काली, दही में श्याम और मधु मे सफेद धारी विष की पहचान है । इस सम्वन्ध में कौटिल्य का यह सामान्य विवरण महत्त्व का है स्नेह राग गौरव प्रभाव वर्ण स्पर्श वघश्चेति विषयुक्तलिंगानि ॥ २२ ॥ अर्थात् विष मिले पदार्थ में उसकी स्वाभाविक स्निग्धता, रगत, उनका प्रभाव, वर्ण और स्पर्श ये नष्ट हो जाते है और इनके आधार पर विष का परीक्षण हो सकता है । कौटिल्य ने इस सम्बन्ध मे और भी कई बाते लिखी है जैसे भोजन में विष हो तो वे शीघ्र शुष्क हो जायँगे, क्वाथ का सा उनका आकार हो जायगा, विकृत प्रकार का भाग निकलेगा इत्यादि । इन सब का हम विस्तृत वर्णन देने मे यहाँ श्रममर्थ है । सुरा का निर्माण कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में सुराध्यक्ष के कर्त्तव्यो का विशेष उल्लेख किया है श्रीर पानागारो या मदिरालयो की नियन्त्रित व्यवस्था की है । सुरा के ६ भेद बताये गये है- मेदक, प्रसन्ना, श्रासव, अरिष्ट, मैरेय और मधु । (१) एक द्रोण जल, श्रावे आढक चावल और तीन प्रस्थ किण्व मिलाकर मेदक सुरा तैयार की जाती हैं । (२) १२ श्राढक चावल की पिट्ठी, ५ प्रस्थ किण्व या पुत्रक वृक्ष की त्वचा और फल से प्रसन्ना बनती है । (३) कैथे के रम, गुड की राव और मधु से आसव बनता है । (४) चिकित्सक अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार अपने प्रमाण से जो वनावे वह अरिष्ट होगा - मेदकारिष्ट, प्रसन्नारिष्ट आदि । (५) मेढासीगी ( मेष युग) की त्वचा का क्वाथ, गुड, पीपल, मिरच श्रीर त्रिफला के योग से मैरेय सुरा बनती है । (६) द्राक्षो से मधु सुरा तैयार होती है । (२१२५११७-२५) सुरा बनाने में किण्वो का प्रयोग विशेष महत्त्व का है । आजकल तो किण्व रसायन रसायनशास्त्र का एक स्वतन्त्र मुख्य श्रग समझा जाता है । यह हर्ष की बात है कि चाणक्य ने किण्व-वन्ध की विधि भी दी हैमाषकलनीद्रोणमाम सिद्ध वा त्रिभागाधिक तण्डुल मोरटादीना कार्पिक भागयुक्त किण्व बन्व ॥ २।२५।२६ ॥ HTC (उडट) की कलनी या उसका आटा, तडुलो की पिट्ठी, और मोरटादि श्रीपधियो के पयोग होने पर किण्ववन्ध तैयार होता है । प्रसन्ना- सुरा के किण्व बनाने में पाठा, लोध, इलायची, वालुक, मुलहठी, केसर, दारूहल्दी, मिरच, पीपल आदि पदार्थ और मिलाये जाते है । इसी प्रकार अन्य किण्व वन्धो का भी विवरण है । बीजो की रक्षा कोटिल्य की दृष्टि वडी व्यापक थी । उसने अपने अर्थशास्त्र में बहुत सी छोटी-छोटी बातो तक का वर्णन दिया है जैसे घोवियो को कपडो की बुलाई किस प्रकार दी जाय इत्यादि । इसी प्रकार वीजो की रक्षा के भी उमने कुछ उपाय बताये है । कृषिशास्त्र में दूसरी फसल तक बीजो के सुरक्षित रखने के अनेक विधानों का आजकल उल्लेख किया जाता है । अनेक रासायनिक द्रव्यो का भी उपयोग करते है । कृषिकर्म के अध्यक्ष को सीताध्यक्ष कहते है । इसके अधिकार मे राष्ट्र की खेती की देख-भाल रहती है । ने अपने अर्थशास्त्र में इसका उल्लेख कर दिया है कि कैसी ॠतु मे कौन से वीज वोने चाहिए, और कैसे खेत को कितना पानी मिलना चाहिए। खेत को खाद किस प्रकार की मिलनी चाहिए, इसके उल्लेख का प्रभाव कुछ Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोटिल्य-कालीन रसायन ७११ चटकता है। उन नमय भूमि इतनी उर्वरा रही हो कि उसमें खाद देने का प्रश्न ही न उठता हो । बीजो कुन होने पर गीन मछली की खाद और स्नुही के दूध से सिंचित करने का विधान अवश्य दिया है । प्रन्दारचा शुष्क याहू मत्स्याश्च स्तुहि क्षीरेण वापयेत् ॥ २।२४।३४ ॥ कौटिल्य का कथन है कि धान के बीजो को रात मे श्रोम मे और दिन में वूप में सात दिन तक रखना चाहिए । उसी प्रकार कोणीधान्य (उड़द, मूग आदि) भी भोग और धूप में रक्वे जायें। ईख आदि काण्ड वीजो को मधु, घृत, सूकरवता बीरगोवर में लपेट कर रखते । कन्दी को काट-काट कर मधु और घृत में रक्खे, अस्थिवीजो को (गुठनी बानों को) गाजर में लोट कर और नागी वृक्षो के बीजो को (आम कटहलादि ) गोवर या गो-अस्थि से थाने के गड्ढे में नेके | ( २२२४१३३ || ) युद्ध मे गैसो का प्रयोग जाता है कि २२ अप्रैल नन् १६१५ को गत युरोपीय महानगर में जर्मन चामियो ने पहली बार गंग का प्रयोग मनुनेना को कष्ट पहुँचाने के लिए किया था । १६ दिनम्बर को उसी वर्ष जर्मनो ने फॉर्मजीन नाम दूसरी गैस का प्रयोग किया। इसी वर्ष प्रभु जैन (Lachrymators) जाइलील ब्रोमाइड का भी उपयोग किया गया । जर्मनी ने मानी गेना को घदृष्ट रखने के लिए धुम्र के बादल ( Camouflage gas) भी छोडे । गैर नामकी श्री त्वचाघातक गेमो के प्रयोग भी १६१६ में हुए । डाइफीनाइल क्नोर न नामक पदार्थ ने की इतनी भाती है कि सेना के निपाही छीको के मारे हैरान हो जाते है (Sneezing gas ) । गैनयुद्ध इम युग का एक भीषण श्राविष्कार समझा जाता है । कोटि के गाम्य में मनुनेना को पीडा पहुँचाने के अनेक योग दिये गये है । १४वें अधिकरण का पहला अध्याय इस दृष्टि से महत्त्व का है। उन विपन में रुचि रखने वाले व्यक्ति को यह समस्त श्रध्याय पढना चाहिए । हैक, कोण्डिन्यक, कृरुण, यतपदी ( कनखजूरा ) श्रादि का चूर्ण भिलावा और वावची के रस में मिलाकर दिना इनका बुदे तो गीघ्र मृत्यु होती है । सद्य प्राणहरमेतेषा वा धूम ॥ १४ ॥ ११५ ॥ शतकर्दमोच्चिदिङ्ग करवीर कटुतुम्बीमत्स्यवूमो मदनकोद्रवपलालेन हस्तिकर्ण पलाशवलालेन वा प्रवातानुवाते प्रणीतो यावच्चरति तावन्मारयति ॥ १४॥१॥ १० ॥ ग्रीन् शतावरी, वपूर, उच्चिदिंग, कनेर, कटु तुम्बी, और मत्म्य का धुआँ, धतूरा, कोदो, पलाल आदि के नाम हवा के रूज पर उठाया जावे तो वह जहाँ तक जावेगा वही तक लोगो को मार देगा । इसी प्रकार पूतिकोटमत्स्य, कटुनुम्ब, इन्द्रगोपयादि के चूर्ण बकरे के सीग या खुर के साथ जलाये जायें तो उनी उम्र श्रन्धा करने वाला होता है - "श्रन्धी करो धूमः” १४।१।११। इसी प्रकार अन्य ग्रन्वीकर धूम भी ई । ( १२, १३ ) | "नेत्रघ्न" नूम का सुन्दर उल्लेख निम्न सूत्र में है— कालीकुष्ठनड शतावरी मूल सर्पप्रचलाककृकण पचचूर्ण वा धूम पूर्व कल्पे नार्द्रशुष्क पलालेन वा प्रणीत सग्रामावतरणावस्कन्दन सफुलेषु कृततेजनोदकाक्षि प्रतीकारं प्रणीत सर्वप्राणिना नेत्रघ्न || १४।१।१५ ।। हम योग द्वारा बनाये गये धुएँ में विशेषता यह है कि यह मग्राम के समय उतरने, श्रोर वलात्कार प्राक्रमण की भीड के समय में प्रयोग किया जाता है, और सभी के नेत्रो को नष्ट कर देता है । फलत इस धुएँ के प्रयोग करने वाले के नेन भी तो नष्ट हो जायँगे जो वाछनीय नहीं है । इसलिए प्रणीता के लिए यह श्रावश्यक है कि वह तेजनोदक (१४१४११ ) मे अपने नेत्र की रक्षा करें। यह प्रतीकार रस मानो श्राजकल के गैसमाम्को ( Gas masks) का काम करना है । कुछ विपो के प्रतीकार ग्मो का उत्लेग डमी ग्रधिकरण के चौथे अध्याय में दिया गया है । Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ रोगोत्पादक योग ऐसा कहा जाता है कि ऐमा विचार था कि इस महायुद्ध में रोग फैलाने वाले अनेक कृमियो का प्रयोग किया जायगा। नागरिको के जलाशयो मे ये कृमि प्रविष्ट होकर नगरवामियो को पीडा पहुंचायेगे। आश्चर्य की बात है कि कौटिल्य के इम ग्रन्थ मे रोगोत्पादक योगो का भी वर्णन है १.कृकलासगृह गोलिका योग कुष्ठकर । । २ दूषीविष मदनकोद्रव चूर्णमुपजिविका योग मातृवाहकाञ्जलिकारप्रचलाक भेकाक्षि पीलुक योगो विषूचिकाफर । ३ पञ्चकुष्ठक कौण्डिन्यकराजवृक्षमधुपुष्प मधुयोगो ज्वरकर । ((२११४१२०-३०) इसी प्रकार उन्मादकर, मूकवधिरकर, प्रमेहकर आदि अनेक योगो का वर्णन है। यह कहना तो कठिन है कि अर्थशास्त्र मे दिये गये योग विश्वसनीय है या नहीं। जब तक इन पर फिर में प्रयोग न कर लिये जायें, तब तक कुछ निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता। पर इतना तो स्पष्ट है कि ग्रन्यकार का लक्ष्य कितना सर्वतोन्मुखी है। रसायनशास्त्र का उपयोग जीवन के कितने विशद क्षेत्रों में किया जा सकता है यह भी स्पष्ट है । साथ ही यह भी असन्दिग्व है कि मनुष्य की प्रवृत्तियाँ आज भी वैसी ही है जैसी कौटिल्य के समय में थी। प्रयाग] - - - - Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन - गणित की महत्ता श्री नेमिचन्द्र जैन शास्त्री, साहित्यरत्न भगवान् महावीर की वाणी प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग इन चार अनुयोगो में विभाजित है । करणानुयोग में अलौकिक और लौकिक गणित शास्त्र सम्वन्धी तत्त्वो का स्पष्टीकरण किया गया हैं । प्रस्तुत निवन्ध में केवल लौकिक गणित पर ही प्रकाश डाला जायगा । लौकिक जैन गणित की मौलिकता और महत्ता के सम्बन्ध में अनेक विद्वानो ने अपने विचार प्रकट किये हैं । भारतीय गणितशास्त्र पर दृष्टिपात करते हुए डा० हीरालाल कापडिया ने 'गणित तिलक' की भूमिका में लिखा है "In this connection it may be added that the Indians in general and the Jainas in particular have not been behind any nation in paying due attention to this subject This is borne out by Ganita Sārasangraha (V I 15) of Mahāvīrācharya (850.A. D) of the Southern School of Mathematics Therein he points out the usefulness of Mathematics or 'the science of calculation' regarding the study of various subjects like music, logic, drama, medicine, architecture, cookery, prosody, grammar, poetics, economics, erotics etc "" इन पक्तियो से स्पष्ट है कि जैनाचार्यों ने केवल धार्मिकोन्नति में ही जैन गणित का उपयोग नही किया, वल्कि श्रनेक व्यावहारिक ममस्याग्रो को सुलझाने के लिए इस शास्त्र का प्रणयन किया है। भारतीय गणित के विकास एव प्रचार में जैनाचार्यो का प्रवान हाय रहा है । जिम समय गणित का प्रारम्भिक रूप था उस समय जैनो ने अनेक वीजगणित एव मैन्स्यूरेशन सम्बन्धी समस्याओ को हल किया था । डा०जी० थीवो (Dr G Thibaut) साहब ने जैन गणित की प्रशसा करते हुए अपने " Astronome, Astrologie and Mathematk" शीर्षक निबन्ध में सूर्यप्रज्ञप्ति के सम्बन्ध में लिखा है "This work must have been composed before the Greeks came to India, as there is no trace of Greek influence in it" इनमे स्पष्ट है कि जैन गणित का विकास ग्रीको के श्रागमन के पूर्व ही हो गया था । आपने आगे चल कर इसी निवन्ध में बतलाया है कि जैन गणित और जैन ज्योतिष ईस्वी मन् से ५०० वर्ष पूर्व प्रकुरित ही नहीं, अपितु पल्लवित और पुष्पित भी थे । प्रो० वेवर (Weber) ने इडियन एन्टीक्वेरी नामक पत्र में अपने एक निवन्ध में वतलाया है कि जैनो का 'सूर्यप्रज्ञप्ति' नामक ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गणित-प्रन्य है । वेदाङ्ग ज्योतिष के समान केवल धार्मिक कृत्यों के सम्पादन के लिए ही इसकी रचना नही हुई है, बल्कि इसके द्वारा ज्योतिष की अनेक समस्याओ को मुलझा कर जैनाचार्यों ने अपनी प्रखर प्रतिभा का परिचय दिया है । मेथिक मोमाइटी के जरनल में डा० श्यामशास्त्री, प्रो० एम० विन्टरनिट्ज, प्रो० एच० वी० ग्लासेनप और डा० सुकुमाररजनदास ने जैन गणित की अनेक विशेषताएँ स्वीकार की है । डा० वी० दत्त ने कलकत्ता मैथेमेटिकल नोसाइटी से प्रकाशित वीसवे बुलेटीन मे अपने निबन्ध " on Mahāvita's solutions of Rational Triangles and quadrilaterals" में मुख्य रूप से महावीराचार्य के त्रिकोण और चतुर्भुज के गणित का विश्लेषण किया है । आपने इसमें त्रिभुज और चतुर्भुज के गणित की अनेक विशेषताएं बतलाई है । ६० Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ प्रेमी-अभिनदन-ग्रय हमें जैनागमो में यत्र-तत्र विवरे हुए गणितसूत्र मिलते हैं। इन सूत्रो में से कितने ही नूत्र अपनी निजी विशेषता के साथ वात्तनागत सूक्ष्मता भी रखते है । प्राचीन जैन गणितसूत्रो में ऐसे भी कई नियम है, जिन्हे हिन्दू गणितज्ञ १४वी और १५वी शताब्दी के वाद व्यवहार में लाये है। गणितशास्त्र के नख्या-तम्बन्धी इतिहान के ऊपर दृष्टिपात करने से यह भलीभांति भवगत हो जाता है कि प्राचीन भारत में सख्या लिखने के अनेक फायदे थेजने वस्तुओ के नाम, वर्णमाला के नाम, डेनिग ढग के सख्ला नाम, महावरो के सक्षिप्त नाम । और भी कई प्रकार के विशेप चिह्नो द्वारा नल्याएं लिखी जाती थी। जैन गणित के फुटकर नियमो में उपर्युक्त नियमो के अतिरिक्त दानमिक क्रम के अनुसार मस्या लिखने का भी प्रकार मिलता है। जैन-गणित-अन्यों में अक्षर मला कोरीति के अनुसार दशमलव और पूर्व मस्याएँ भी लिखी हुई मिलती है। इन सख्याओ का स्थान-मान बाई ओर मे लिया गया है। श्रीधराचार्य की ज्योति न विधि में आर्यभट के मस्याक्रम मे भिन्न नस्याक्रम लिया गया है। इन अन्य में प्राय अव तक उपलब्ध मभी सस्याक्रम लिजे हुए मिलते है। हमें वराहमिहिर-विरचित वृहत्महिता को भट्टोत्पली टीका में भद्रबाहु की सूर्यप्रज्ञप्ति-टीका के कुछ अवतरण मिले हैं, जिनमें गणित सम्बन्धी सूक्ष्मताओ के माय नळ्या लिवने के सभी व्यवहार काम में लाये गये है। भट्टोत्पल ने ऋपिपुत्र, भद्रबाहु और गर्ग (वृद्ध गर्ग) इन तीन जैनाचार्यों के पर्याप्त वचन उद्धृत किये है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि भट्टोत्पल के समय में जैन गणित बहुत प्रनिद्व रहा था, अन्यया वे इन आचार्यो का इतने विस्तार के साथ स्वपक्ष की पुष्टि के लिए उल्लेख नहीं करते। अनुयोग द्वार के १४२वे सूत्र में दशमलव क्रम के अनुसार सरवा लिखी हुई मिलती है। जैन शास्त्रो मे जो कोडाकोडी का कथन किया गया है वह वार्गिकक्रम ने सख्याएँ लिखने के क्रम का द्योतक है। जैनाचार्यों ने मल्याओ के २६ स्थान तक बतलाये है। १ का स्थान नहीं माना है, क्योकि १ मस्या नहीं है। अनुयोग द्वार के १४वे सूत्र में इमीको स्पष्ट करते हुए लिखा है-"मे कि त गणगासबा एक्को गणण न उवइ, दुप्पभिइ मखा"। इसका तात्पर्य यह है कि जब हम एक वर्तन या वस्तु को देखते है तो मिर्फ एक वस्तु या एक वर्तन ऐमा ही व्यवहार होता है, गणना नहीं होती। इसीको मालावारिन हेमचन्द्र ने लिखा है-“Thus the Jainas begin with Tro and end, of course, with the highest possible type of infinity” जैन गणितशास्त्र की महानता के द्योतक फुटकर गणितसूत्रो के अतिरिक्त स्वतन्न भी कई गणित-पन्य ई। रैलोक्यप्रकाश, गणितशास्त्र (श्रेष्ठचन्द्र), गणित माठमी (महिमोदय), गतिसार, गणितमूत्र (महावीराचार्य), लीलावती कन्नड (कवि राजकुजर), लीलावती कन्नड (आचार्य नेमिचन्द्र) एव गणितसार (ौचर) आदि ग्रन्य प्रधान है। अभी हाल में ही श्रीधराचर्य का जो गणितमार उपलव्व हुआ है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। पहले मुझे यह मन्देह था कि यह कही अजैन ग्रन्थ तो नहीं है, पर इधर जो प्रमाण उपलब्ध हुए हैं उनके आधार मे यह मन्देह बहुत कुछ दूर हो गया है । एक नवसे मजबूत प्रमाण तो यह है कि महावीराचार्य के गणितसार में "धन धनर्णयोवंग! मूले स्वर्ण तयो क्रमात् । ऋण स्वरूपतोऽवर्गो यतस्तस्मान तत्पदम्"यह श्लोक श्रीधराचार्य के गणितशास्त्र का है। इसमे यह जैनाचार्य महावीराचार्य से पूर्ववर्ती प्रतीत होते है। श्रीपति के गणिततिलक पर मिहतिलक सूरि ने एक वृत्ति लिखी है। इस वृत्ति मे श्रीधर के गणितशास्त्र के अनेक उद्धरण दिये गये है। इस वृत्ति को लेखन-शैली जैन गणित के अनुसार है, क्योकि सूरि जी ने जैन गणितो के उद्धरणो को अपनी वृत्ति मे दूध-पानी की तरह मिला दिया है। जो हो, पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि जैनो में श्रीधर के गणितशाम्न की पठन-पाठन प्रणाली अवश्य रही यो। श्रीधराचार्य की ज्योतिज्ञान विधि को देखने से भी यही प्रतीत होता है कि इन दोनो ग्रन्यो के कत्ता एक ही है। इस गणितशास्त्र के पाटीगणित, त्रिशतिका और गणितसार भी नाम बताये गये है। इसमे अभिन्न गुणन, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, 7 पनमूल, भिन्न-समच्छेद, भागजाति, प्रभागजाति, मागानुबन्ध, भागमातृ 'सख्या सम्बन्धी विशेष ईहास जानने के लिए देखिये 'गणित का इतिहास प्रथम भाग, पृ० २-५४ । Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-गणित की महत्ता ७१५ जाति, त्रैराधिक, पचराशिक, सप्नराणिक, नवराशिक, भाण्ड प्रतिभाण्ड, मिश्रव्यवहार, भाव्यकव्यवहार, एकपत्रीकरण, सुवर्णगणित, प्रक्षेपकगणित, समक्रयविक्रयगणित, श्रेणीव्यवहार, क्षेत्रव्यवहार एवं छायाव्यवहार के गणित उदाहरण सहित बतलाये गये हैं । सुवाकर द्विवेदी जैसे प्रकाण्ड गणितज्ञ ने इनकी प्रशंसा करते हुए लिखा है"भास्करेणाय्याने प्रकारास्तम्करवदपहृता । अहो अस्य सुप्रसिद्धस्य भास्करादितोऽपि प्राचीनस्य विदुषो ऽन्यकृतिदर्शनमन्तरा समये महान् समय । प्राचीना एकशास्त्रमात्रैकवेदिनो नाऽमन् ते च बहुश्रुता बहुविषयवेत्तार आसन्नन न साय ।" इमसे स्पष्ट है कि यह गणितज्ञ भास्कराचार्य के पूर्ववर्ती प्रकाण्ड विद्वान् थे । स्वतन्त्र रचनाओ के प्रतिरिक्त जैनाचार्यों ने अनेक श्रर्जन गणित ग्रन्थों पर वृत्तियाँ भी लिखी है। मिहतिलक सूरि ने लीलावती के ऊपर भी एक ast वृत्ति लिखी है । इनकी एकाव स्वतन्त्र रचना भी गणित सम्बन्वी होनी चाहिए । लौकिक जैन गणित को अकगणित, रेखागणित श्रीर वीजगणित इन तीन भागों में विभक्त कर विचार करने की चेष्टा की जायगी । जैन अकगणित - इसमें प्रधानतया श्रक सम्बन्धी जोड, बाकी, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन और घनमूल इन आठ परिकर्मों का समावेश होता है । भारतीय गणित में उक्त श्राठ परिकर्मों का प्रणयन जैनाचार्यों का अति प्राचीन है । आर्यभट, ब्रह्मगुप्त और भास्कर आदि जैनेतर गणितज्ञो ने भी उपर्युक्त परिकर्माष्टको के मन्च में विचार-विनिमय किया है, किन्तु जैनाचार्यों के परिकर्मों में अनेक विशेषताएं है । गणित सारसग्रह की अग्रेजी भूमिका में डेविड यूजीन स्मिय ( David Eugene Smith ) लिखते हैं- “The shadow problems, primitive cases of trigonometry and gnomonics, suggest a similarity among these three great writers, and yet those of Mahavīrācārya are much better than the one to be found in either Brahmagupta of Bhāskara ” इन पक्तियो मे विद्वान् लेखक ने महावीराचार्य की विशेषता को स्वीकार किया है। महावीराचार्य ने वर्ग करने की अनेक रीतियां बतलाई है । इनमे निम्न मौलिक श्रीर उल्लेखनीय है - " अन्त्य' श्रक का वर्ग करके रखना, फिर जिसका वर्ग किया है उसी क को दूना करके शेष को से गुणा करके रखना, फिर जिसका वर्ग किया है उसी अक को दूना कर शेष को मे गुणा कर एक अक आगे हटा कर रखना इस प्रकार अन्त तक वर्ग करके जोड़ देने से राशि का वर्ग हो जाता है ।" उदाहरण के लिए १३२ का वर्ग करना है (2)= १ १x२=२,२४३= १x२=२,२x२= (३)= ३x२=६, ६x२= (२')= ६ १ ७ ४ ६ १ २ ४ २ ४ ४ ' कृत्वान्त्यकृति हन्याच्छेषपद द्विगुणमन्त्यमुत्सार्य । शेषात्मायैव करणीयो विधिरय वर्गे ॥ यहाँ अन्त्य अक्षर से तात्पर्य इकाई दहाई से है, प्रथम, द्वितीय प्रक से नहीं—परिकर्म व्यवहार श्लो० ३१ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ प्रेमी-प्रभिनदन-प्रय इस वर्ग करने के नियम मे उपपत्ति (वासना) अन्तनिहित है, क्योकि प्र= (क+ग)=(क+ग) (क+ग)=क (क+ग)+ग(क+ग)=क+क ग+क ग+ग'क'+रक ग+ग। उपर्युक्त राशि में अन्त्य अक्षर (क) का वर्ग करके वर्गिन अक्षर (क) को दूना कर आगे वाले अक्षर (ग) से गुणा किया गया है तथा आदि अक्षर (ग) का वर्ग करके सव को जोड दिया है । इस प्रकार उपर्युक्त सूत्र में वीजगणित गत वामना भो सन्निवद्ध है। महावीराचार्य के उत्तरवर्ती गणितज्ञो पर इम सूत्र का अत्यन्त प्रभाव पड़ा है। इसी प्रकार "अन्त्यौजादपहृतकृतिमूलेन" इत्यादि वर्गमूल निकालने वाला सूत्र भी जैनाचार्य की निजी विशेषता है। यद्यपि आजकल गुणा, भाग के भय से गणितज्ञ लोग इस सूत्र को काम में नहीं लाते है, तथापि वीजगणित में इसके बिना काम नहीं चल सकता। धन और घनमूल निकालने वाले सूत्रो में वासना सम्बन्धी निम्न विशेषता पाई जाती है अ अ अ अ (अ+व) (अ-4)+व' (अ-व)+ब'अ'। इस नियम मे वीजगणित में घनमूल निकालने में बहुत सरलता रहती है। आज वैज्ञानिक युग में जिम फारमूला (fotmuln) को बहुत परिश्रम के वाद गणितज्ञो ने पाया है, उसीको जैन गणितज्ञ सैकडो वर्ष पहले से जानते थे । वर्तमान में जिन वर्ग और घन सम्बन्धी बातो की गूढ समस्याओ को केवल बीजगणित द्वारा सुलझाया जाता है उन्ही को जैनाचार्यों ने अकगणित द्वारा सरलतापूर्वक हल किया है। इनके अतिरिक्त जैन अकगणित मे साधारण और दशमलव भिन्न के परिकाष्टक, साधारण और मिश्र व्यवहार गणित, महत्तम और लघुत्तम समापवर्तक, साधारण और चक्रवृद्धि ब्याज, समानुपात, ऐकिक नियम, पैराशिक, पचराशिक, सप्तराशिक, समय और दूरी सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण प्रश्न भी दिये गये है। जैन अकगणित मे गच्छ, चय, प्राद्य और सर्वधन सख्या आनयन सम्बन्धी सूत्रो की वाननागत सूक्ष्मता गणितज्ञो के लिए अत्यन्त मनोरजक और आनन्दप्रद है । तिलोयपण्णति मे सकलित धन लाने वाले सूत्र'- निम्न प्रकार वनाये है (१) पद के वर्ग को चय से गुणा करके उसमें दुगुने पद से गुणित मुख को जोड देने पर जो राशि उत्पन्न हो उसमें से चय से गुणित पद प्रमाण को घटा कर शेष को प्राधा कर देने पर प्राप्त हुई राशि के प्रमाण सकलित धन होता है। (२) पद का वर्ग कर उसमे से पद के प्रमाण को कम करके अवशिष्ट राशि को चय के प्रमाण से गुणा करना चाहिए। पश्चात् उसमें पद से गुणित आद्य को मिलाकर और फिर उसका प्राधा कर प्राप्तराशि मे मुम्ब के अर्द्धभाग से गुणित पद के मिला देने पर सकलित धन का प्रमाण निकलता है। गणित-पद ५, चय ४ और मुख ८ है। प्रथम नियमानुसार सकलित धन=(५)=२५, २५४४१००, ५४२=१०, १०x=८०, (१००+८०)=१८०, ५४४=२०, (१८०-२०)=१६०, १६०-२=८० द्वितीय नियमानुसार सकलित धन-(५)=२५, २५-५=२०, २०४४-८०, ५४८=४०, (८०+४०)=१२०-२=६०, ८-२=४, ४४५=२०, (२०+६०)=८०। उपर्युक्त दोनो ही नियम सरल और महत्त्वपूर्ण है । आर्यभट, ब्रह्मगुप्त और भास्कर जैसे गणितज्ञ भी श्रेढी-व्यवहार के चक्र मे पडकर इन मरल नियमो को नहीं पा सके है। वस्तुत गच्छ, चय, आद्य और सर्वधन सम्बन्धी प्रक्रिया जैनाचार्यों की अत्यन्त मौलिक है । अकगणित के नियमो मे अर्द्धच्छेद सम्बन्धी सिद्धान्त (formula) महत्वपूर्ण और मौलिक है। प्राचीन 'पदवग्ग चयपहद दुगुणिगच्छेण गुणिदमुहजुत्तम् । वढिहदपदविहीण दलिद जाणिज्ज सकलिदम् ॥ --तिलोयपण्णत्ति, पृ० ६२ २"पदवग्ग पदरहिद इत्यादि । -तिलोयपण्णत्ति, पृ० ६३ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैननाणित को महत्ता जनेतर गगितनो ने इन जटिल मिद्धान्नो के ऊपर विचार मी नहीं क्यिा है। आधुनिक गणितज्ञ श्रद्धच्छेद प्रक्रिया को लरिक्य (Logarithm) के अन्तर्गत मानते है, पर इस गणित के लिए एक अक टेबुल साय रखनी पडनी है, तनी अच्छंदो से राम का जान कर सकते हैं। परन्तु अनागों ने बिना वीजगन गगयय लिये अको द्वारा ही अर्द्धन्टदो ने रागि' का ज्ञान क्यिा है। (१) देयगगि-पग्विनित गनि (Substituted) के अदच्छेदों का इप्टमि के अर्द्धच्छेदों में भाग देने पर जो लब आवे उनका अनीप्ट अनुच्छेद गनिमें भाग देने में जो लब्ध पाये, उतनी ही जगह इप्ट गमि को रख कर परम्पर गुणा करने ने अच्छेटोने गमिवानान्होजाता है। उदाहरणदेवरामि (२) इसकी अर्द्धच्छेदरागि १, इष्ट रागि १६,इनकी अदच्छेद गमिअमोष्ट पद्धंच्छंद गिइन अर्बुच्छेदी ने राशि निकालनी है। ४:१-४, ६-४-२, १६X१=२५६ गनि आठ लुच्छेदो को है। अर्द्धच्छेद के गणित मे निम्न सिद्धान्त और मो महत्त्वपूर्ण निकलन है। *कxक'क', काxकक- गुण्य गगि के अईन्छेदों को गुगाका गगि के अर्द्धच्छेदो में जोड देनेपर गुणनफलागि के अर्द्धच्छेद आ जाते है । उपर्युक्त सिद्धान इमो ग्यं का द्योतक है। अन्गणित के अनुसार १६ गुन्यरागि, ६४ गुणाकार रामि और गुणनफल गगि १००४३ । गृण्यनशि= (२), गुणाकार ६४%=(२), (२)"x (२)=(0)"गुणनफल राशि २०२८%=(0)" +क': की, काक-का-म! भाज्य रागि के अर्द्धच्छेदों में से भाजक राशि के अईच्छेदो को घटाने में नागफ्न राशि के अर्द्धच्छेद होने है । अकगणित के अनुसार नाज्य राशि २५६, नाजक और भागफल ६४ है । २५६ भाज्यरागि=(२)', भाजक (२), (२) (२) (२), भागफन्ट रागि ४=(0)=(२) (कम) =क., इस सिद्धान्त को जैनाचार्यों ने अझुद के गणित में लिखा है कि विन्लनरागिविभाजितरागि (Distubuted number) को देवरागि-परिवर्तित गि (substituted number) के अर्द्धच्छेदो के नाच गुणा करने ने जो रागि आनी है वह उत्पन्न (resulting number) के अर्द्धच्छेदों के वरावर होती है। न्यास-विभाजितरामि ४, परिवनितरागि १६, उत्पन्नगगि ६५५३६ है। पग्वितितरागि १६-(२), (२)=(२)", उत्सनराशि :५५३६(२)" 5(क)x (क)क, विरलन-विभाजिन राशि के अर्द्धच्छेदो को देयगगि के अदच्छेदो के अर्द्धच्छेद में जोडने में उत्पन्न राशि की वर्गशाला का प्रमाण पाता है। विभाजिनगगि ४, परिवर्तितगमि और उत्पन्नरागि ६५५३६ है। विभाजितरामि ४= (२), परिवर्तितरागि १६, (२१) =(२), ५५३% उत्पन्नरागि= (४) । 'दिण्णच्छेदेणवहिदइट्ठच्छेदेहिं पयदविरलण भजिदे । लद्धमिदइट्टरासीणपणोण्णहदीए होदि पयद घणम् ॥ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया नं० २१४ * गुणयारद्धच्छेदा गुणिज्जमाणस अद्धछेदजुदा । लद्धम्सद्धच्छेदा अहियस्स छेदणा गयि ।।-त्रिलोकमार गाया न० १०५ भिज्नस्सद्धच्छेदा हारद्धच्छेदणाहि परिहीणा। अद्धच्येदमलागा लद्धस्स हवति सन्चत्य ॥-त्रिलोकमार गाया न० १०६ I विरलिज्जमाणारामि दिण्णसद्धच्छिदीहिं संगणिदे। अद्धच्छेदा होंति दु सन्वत्युप्पण्णरामिस्स ॥-त्रिलोकमार गाथा नं. १०७ विरलिदरासिच्छेदा दिग्णद्धच्छेदयेदसं मिलिदा ।। वग्गसलागपमाण होंति ममुप्पण्णरामिस्म ॥-त्रिलोकसार गाथा न० १०८ Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ ७१८ उत्तराध्ययन सूत्र मे द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, षष्ठम और द्वादशम वर्गात्मक शक्तियो (powers) के लिए वर्ग, धन, वर्ग-वर्ग, घन-वर्ग और धन-वर्ग-वर्ग शब्दो का प्रयोग मिलता है । अनुयोगद्वार सूत्र १४२वें के अनुसार (क), (क)' क', (क), (क) इत्यादि वर्गात्मक शक्तियो का विश्लेषण होता है। इसी प्रकार वर्गमूलात्मक कककान इत्यादि शक्तियो का उल्लेख भी जैनगणित में किया गया है। गणितसार मग्रह में विचित्र कुट्रोकार एक गणित का प्रकार पाया है, यह सिद्धान्त अक गणित को दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसके अनुसार वीजगणित के वडे-बडे प्रश्न सुलझाये जा सकते है। अन्य भारतीय गणितज्ञो ने जिन प्रश्नो को चक्रवाल और वर्ग प्रकृति के नियमो से निकाला है, वे प्रश्न इम विचित्र कुट्टीकार की रीति से हल किये जा सकते है। अकगणित मे जहाँ कोई भी कायदा काम नहीं करता, वहाँ कुट्टोकार से काम सरलतापूर्वक निकाला जा सकता है। फुटकर गणति में त्रिलोक-सारान्तर्गत १४ धारापो का गणित उच्चकोटि का है, इस गणित पर से अनेक बीजगणित सवधी सिद्धान्त निकाले जा सकते है ।' सक्षेप मे जैन अकगणित को विशेषता बीजगणित सम्बन्धो सिद्धान्तो के सन्निवेप की है, प्रत्येक परिकर्म सूत्र से अनेक महत्त्वपूर्ण बीजगणित के सिद्धान्त निकलते है। जैन रेखागणित-यो तो जैन अकगणित और रेखागणित आपस में बहुत कुछ मिले हुए है, पर तो भी जैन रेखागणित मे कई मौलिक वाते है । उपलब्ध जैन रेखागणित के अध्ययन से यही मालूम होता है कि जैनाचार्यों ने मन्स्यूरेशन की ही प्रधानता रक्खी है, रेखामओ की नही । तत्त्वार्थसूत्र के मूलसूत्रो में वलय, वृत्त, विष्कम्भ एव क्षेत्रफल आदि मैन्स्यूरेशन सम्बन्वी वातो की चर्चा सूत्र रूप से की गई है। इसके टोका अन्य भाष्य और राजवात्तिक मे ज्या, चाप, वाण, परिधि, विष्कम्भ, विस्तार, वाहु एव धनुष आदि विभिन्न मैन्स्यूरेशन के अगो का साङ्गोपाङ्ग विवेचन किया गया है। भगवतीसूत्र, अनुयोगद्वारसूत्र, सूर्यप्रज्ञप्ति, एव प्रैलोक्यप्रज्ञप्ति मे त्रिभुज, चतुर्भुज, आयत, वृत्त और परिमण्डल (दीर्घवृत्त) का विवेचन किया है। इन क्षेत्रो के प्रतर और घन ये दो भेद बताकर अनुयोगद्वार सूत्र में इनके सम्बन्ध में वडी सूक्ष्म चर्चा की गई है । सूर्यप्रज्ञप्ति मे समचतुरस्र, विषमचतुरस्र, समचतुष्कोण, विपमचतुष्कोण, समचक्रवाल, विषमचक्रवाल, चकाचक्रवाल और चक्राकार इन आठ भेदो के द्वारा चतुर्भुज के सम्बन्ध में सूक्ष्म विचार किया गया है। इस विवेचन से पता लगता है कि प्राचीनकाल में भी जैनाचायों ने रखागणित के सम्बन्ध में कितना सूक्ष्म विश्लेषण किया है। ____ गणितसार सग्रह मे त्रिभुजो के कई भेद बतलाये गये है तथा उनके भुज, कोटि, कर्ण और क्षेत्रफल भो निम्न प्रकार निकाले गये है। अकग त्रिभुज मे अक, अग भुज और कोटि है, क ग कर्ण है तथा <क प्रग समकोण है, असमकोण विन्दु से क ग कर्ण के ऊपर अम लम्ब गिराया गया है। • अक-कग कम, अग=क ग ग म : अक+अग=क ग क म क ग गमक ग (क म+ग म) क ग क ग=क ग,Vक ग =/अक+अग=Vभु+को'=/क', Vक-भु = को , Vक'-को'=/भु 'देखिये-'श्री नेमिचन्द्राचार्य का गणित' शीर्षक निबन्ध जनदर्शन व ४, अ० १-२ में।। Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-गणित की महत्ता ७१६ क्षेत्रफल । अ इ उ त्रिभुज में छोटी भुज=भु, बडी भुज भु, भूमि=भू अ क लम्ब, छोटीअावाधा इक=भू-(भु-भु) ल' =Y-{- (भू-मु)} = {+ (--))} x{भु - (-(भू-मु))} = (२ भू सुन + मुY) x ( २५ भू-सम्म') = ((भू+म):-) (-(भू-भ), = (भू+४+ )x (भू+भू–y) x (मु+भू–भु) x (मु+भु-भू) = (y++t) - (+-) - (y+t-v) - (+-) _ (+४+y) - ( भू++y - मुं) (भू++म् - ) x (++म् - मू) २ भू इसका वर्गमूल त्रिभुज का क्षेत्रफल होगा। यो तो उपर्युक्त नियम' को प्राय सभी गणितज्ञो ने कुछ इधर-उधर करके माना है, पर वासनागत सूक्ष्मता और सरलता जैनाचार्य को महत्त्वपूर्ण है। वृत्तक्षेत्र के सम्बन्ध में प्राचीन गणित में जितना कार्य जैनाचार्यों का मिलता है उतना अन्य लोगो का नहीं। आजकल की खोज में वृत्त की जिन गूढ गुत्थियो को मुश्किल से गणितज्ञ सुलझा रहे है, उन्ही को जैनाचार्यों ने सक्षेप मे सरलतापूर्वक प्रको का आधार लेकर समझाया है । वृत्त के सम्बन्ध में जैनाचार्यों का प्रधान कार्य अन्त वृत्त, परिवृत्त, वाद्यवृत्त, सूत्रीव्यास, वलयव्यास, समकोणाक्ष, केन्द्र, परिधि, चाप, ज्या, वाण, तिर्यक् तथा कोणीय नियामक, परिवलयव्यास, दीर्घवृत्त, सूत्रीस्तम्भ, वृत्ताधारवेलन, चापीयत्रिकोणानुपात, कोटिस्पर्श, स्पर्शरेखा, क्षेत्रफल और घनफल के विषय में मिलता है। 'त्रिभुजचतुर्भुजबाहुप्रतिबाहुसमासदलहत गणितम् । । नेमे जयुत्यर्घ व्यासगुण तत्फलामिह बलिन्दो ॥ -णितसारसग्रह-क्षेत्राध्याय श्लो० ७ 'वृत्त सम्बन्धी इन गणितो की जानकारी के लिए देखिये "तिलोयपण्णत्ती' गाथा न० २५२१, २५२५, २५६१, २५६२, २५६३, २६१७, २६१६, २८१५ से २६१५ तक । 'त्रिलोकसार' गाथा न० ३०६, ३१०, ३१५, ७६०, ७६१, ७६२, ७६३, ७६४,७६६ गणितसार एव गणित शास्त्र का क्षेत्राध्याय। प्राचार्य नेमिचन्द्र और ज्योतिषशास्त्र' शीर्षक निबन्ध भास्कर, भाग ६,किरण २ एवं 'प्राचार्य नेमिचन्द्र का गणित' शीर्षक निबन्ध जैनदर्शन वर्ष ४, अक १-२. Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ जैन वीजगणित-जैन अकगणित के करणसूत्री के साथ वीजगणित सम्बन्धी सिद्धान्त (formulas) व्याप्त रूप से मिलते है । जैनाचार्यों ने अपनी प्रखर प्रतिभा से अकगणित के करणसूत्रो के साथ बीज गणित के नियमो को इस प्रकार मिला दिया है कि गणित के साधारण प्रेमी भी वीजक्रिया से साधारणतया परिचित हो सकते है। जैन वीज गणित में एक वर्ण समीकरण, अनेक वर्ण सभीकरण, करणी, कल्पित राशियां, समानान्तर, गुणोनर, व्युत्क्रम, समानान्तर श्रेणियो, क्रम सचय, धानाङ्क और लघुगुणको के सिद्धान्त तथा द्विपद सिद्धान्त आदि वीजक्रियाएँ है । उपर्युक्त वीजगणित के सिद्धान्त धवलाटीका, त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति, लोकविभाग, अनुयोगद्वारसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, गणितसारसग्रह और त्रिलोकसार आदि ग्रन्यो में फुटकर रूप से मिलते हैं। धवला में बड़ी संख्याओं को सूक्ष्मता से व्यक्त करने के लिए घाताङ्क नियम (वर्ग-सवर्ग) का कथन किया गया है। बीजक्रिया जन्य घाताङ्क का सिद्धान्त अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और मौलिक है। डाक्टर अवधेशनारायण धवला को चतुर्थ जिल्द को अग्रेजो भूमिका मे लिखते है कि "The theory of the indices as described in the Dhavala is somewhat different from what is found in the mathematical works This theory is certainly primitive and is earlier than soo A D The fundamental ideas seem to be those of (1) the square, (11) the cube, (ul) the successive square, (1v) the successive cube, (v) the raising of a number to its owa power, (vi) the square root, (vi) the cube root, (viu) the successive square foot, (ix) the successive cubc root etc" घाता, सिद्धान्त के अनुसार अ को अके धन का प्रथम वर्गमूल माना जायगा। धवला के सिद्धातो के अनुसार उत्तरोत्तर वर्ग और घनमूल निम्न प्रकार सिद्ध होते हैअ का प्रथम वर्ग अर्थात् (अ)= प्र' " द्वितीय वर्ग ,, (अ) = = , तृतीय वर्ग , (अ')'= = , चतुर्थ वर्ग , (अ) = = , पचम वर्ग , (अ) =अ"= , छठवां वर्ग , (अ) = = इसी प्रकार प्र' का दृष्टाडू वर्ग= (अ)इ अइ घाताङ्क' के अनुसार (१) क. ब-+ब(२)/न-मन (३) () = अग्न वीजगणित के एक वर्ण समीकरण सिद्धान्त के आविष्कर्ता अनेक विद्वानो ने जैनाचार्य श्रीधर को माना है। यद्यपि इनका नियम परिष्कृत एव सर्वव्यापी नही है, फिर भी प्राचीनता के खयाल से महत्त्वपूर्ण है। श्रीधराचार्य के नियमानुसार एक अज्ञात राशि का मान निम्न प्रकार निकाला जाता है - 'छट्टवग्गस्स उवरि सत्तमवग्गस्स हेटदोत्ति वुत्ते अत्यवत्तीण जोदत्ति धवलाटीका, जिल्द ३, पृ० २५३ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-गणित की महत्ता ७२१ कव+ख ब= ग। इस गणित मे क, ख, ग ये ज्ञात राशियां और व अज्ञातराशि है। क्रिया मे श्रीधराचार्य न और भजन का नियम निकाल कर इस प्रकार रूपान्तर किया दोनो राशियो मे सम जोड देने से भी समत्त्व रहेगा। नं समगु म = व+ = खग क यहाँ दोनो पक्षो मे ख घटा दिया तो व=_ + Vख +-गक = ख+ Vख+गक, क इस प्रकार जैनाचार्यों ने अज्ञातराशियो का मान निकाला है। गणितसारसग्रह में अनेक बीज गणित सम्वन्धी सिद्धान्तो का प्रतिपादन किया गया है। यहाँ उदाहरणार्थ मूलधन, व्याज, मिश्रधन और समय निकालने के सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण नियम (formulas) दिये जाते है। मूलधन =स, मिश्रधन =म, समय = ट, व्याज=ई १-(1) स = मसXमा ट+स (प्रा म-स (4) स = Ext + १ (ul) प्रा= अनेक प्रकार के मूलधन . टर्स २-या - सXट मा +ट XIX स -Fxxx मा+ - म मस+ X4 xxx आ+-म म-स-+ट (1) स २ स. Xट,x म ८ x ८+ स.x ८+ स. x ८+ - पा, (11) X 2 XỸ ---श्रा स, ४८+ २ स Xट+स,xc+ म = प्रा. + प्रा. + आ + व्याज के लिए नियम (formula) - ३--(1) था, + अ + अ + Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंथ -~~ श्रा, = स. 'श्राः + अ + + म = स. + स. + स + समय निकालने के लिए नियम ८, मट,+८++ आ, आ, आ, सX XR (u) VAX x म + (१) २-सXट = = स सXट २Xट -ई - स __मxt - = स.Xट, जैन गणित मे भिन्न सम्वन्धी वीजगणित की क्रियाएँ महत्त्वपूर्ण और नवीन है। मुझे भिन्न (fraction) के सम्बन्ध में शेषमूल, भागशेष, मूलावशेष और शेष जाति के ऐसे कई नियम मिले है जो मेरी बुद्धि अनुसार प्राचीन और आधुनिक गणित में महत्त्वपूर्ण है । नमूने के लिए शेषमूल' का नियम नीचे दिया जाता हैस= कुल संख्या, संस के वर्गमूल से गुणितराशि, व= भाजितराशि, प्र= अवशेष ज्ञातराशि । [ (u) स–व स{+ /()+ (v) स= {t+va+}x . घवलाटीका मे भी भिन्नो की अनेक मौलिक प्रक्रियाएँ है, सम्भवत ये प्रक्रियाएँ अन्यत्र नही मिलती है। उदाहरणार्थ कुछ नीचे दी जाती है १-नान/प) = न+पर एक दी सख्या मे दो भाजको का भाग देने से परिणाम निम्न प्रकार आता है द+ई = (क/क) + १ अथवा =१+ (क/क) 'मूलार्धाग्ने छिन्धादशौनकेन युक्तमूलकृते । दृश्यस्य पद सपद वर्गितमिह मूलजातौ स्वम् ॥ -णितसारसग्रह प्रकीर्णकाध्याय श्लो० ३३ Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि : क, श्रीर द यदि न = क, तो अ व+ कं, तो द ( क क ) + = म व न === क जैन-गणित की महत्ता - क न + १ तथा अ व - व न = क क न - १ ७२३ इस प्रकार अनेक भिन्न सम्वन्धी महत्त्वपूर्ण नियम दिये गये है । समीकरणो के प्रकरण में भी ऐसे कई नियम है जिनके द्वारा अधिक गुणा भाग के चक्र में विना पडे ही सरलता पूर्वक समीकरण (Equation) हल किये जा सकते है | श्रारा ] Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-मानव गांधी श्री काशिनाथ त्रिवेदी “A leader of his people, unsupported by any outward authority, a politician, whose success rests not upon craft, nor mastery of technical devices, but simply on the convincing power of his personality, a victorian fighter who has always scorned the use of force, a man of wisdom and humility, armed with resolve and inflexible consistency, who has devoted all his strength to the uplifting of his people and the betterment of their lot, a man who has confronted the brutality of Europe with the dignity of the simple human being, and thus at all times risen superior Generations to come, it may be, will scarce believe that such a one as this ever in flesh and blood walked upon this carth "mA Einstein गाधी जी की ७५वी वर्षगांठ पर लिखे गये विश्वविख्यात वैज्ञानिक आइन्स्टीन के ये वचन गाची जी के समग्र व्यक्तित्व को वडी खूबी के साथ नपी-तुली, किन्तु सारगर्भित भाषा मे व्यक्त करते है। आज जव कि सारी मानवता सत्रस्त भाव से कराह रही है और अपने निस्तार का कोई एक निश्चित उपाय उसके बस का नहीं रहा है, अकेले गाधी जी का ही व्यक्तित्व ऐसा है, जो उसे आश्वस्त कर रहा है। चारो ओर फैली हुई घनी निराशा के घोर अन्धकार में वही प्रकाश की एक ऐसी किरण है, जो मनुष्य को प्राशा के साथ जाने का वल और निश्चय दे रही है । आज विश्व की समूची मानवता की, जो मानव की ही पशुता, पैशाचिकता और वर्वरता से घिर कर जकड गई है, भाकुल हो उठी है, निरुपाय और निस्तेज हो गई है। यदि कही से मुक्ति का कोई सन्देश मिलता है, पागा, विश्वास, श्रद्धा और निष्ठा का कोई जीता-जागता प्रतीक उसके सामने खडा होता है, दुख, दैन्य, दारिद्रय, दास्य और अन्याय-अत्याचार का अटल भाव से प्रतीकार करने की प्रचण्ड शान्त शक्ति का कोई स्रोत कही उसे नजर आता है तो वह है परतन्त्र और पराधीन भारत के इस सर्वथा स्वतन्त्र और स्व-अधीन महामानव गाधी में । गाधी जी के विश्वव्यापी प्रभाव का और उनकी प्रचड शक्ति का रहस्य भी इसी मे है कि वे स्वय स्वतन्त्र और स्वाधीन है। दूसरा कोई तन्त्र, दूसरी कोई अधीनता उन पर न लद सकती है, न लादी जा सकती है। उनकी अपनी सत्ता ससार की सभी सत्तानो से परे है और श्रेष्ठ है। इसीलिए आज वे समूचे विश्व के आराध्य बने हुए है और बडी-से-बडी भौतिक सत्ताएँ भी उनके सामने हतप्रभ है। यो देखा जाय, तो उनके पास वाहर की कोई सत्ता नही-सेना नही, शस्त्रास्त्र नही, कोष नही, शासन के कोई अधिकार नही-फिर भी वे है कि देश के करोडो नर-नारियो पर और विश्व के असख्य विचारशील नागरिको पर उनकी अखड सत्ता व्याप्त है। किसी सम्राट् के शासनादेश की उपेक्षा और अवहेला हो सकती है, लोगो ने की है, करते है और करेंगे, पर गाधी के आदेश की यह परिणति नहीं। वह तो एक प्रसाद है, एक सौभाग्य, जो ललक के साथ लिया जाता है और विनम्र भाव से, कृतार्थता के साथ, शिरोधार्य होता है। उसकी इप्टता मे, उसकी कल्याणकारिता में, किसी को कोई सन्देह नहीं। स्वतन्त्रता और स्वाधीनता | मानव की परिपूर्णता के लिए, उसके सम्यक् विकास और उत्थान के लिए, इन दोनो की उतनी ही जरूरत है, जितनी जीवन के लिए प्राणो की और प्राण के लिए श्वासोच्छ्वास की। विना Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-मानव गांधी ७२५ स्वातन्त्र्य और स्वाधीनता के मनुष्य अपनी शक्तियो का सम्पूर्ण विकास कर ही नहीं सकता। जन्म के क्षण से लेकर मृत्यु के क्षण तक मनुष्य के लिए स्वतन्त्रता और स्वाधीनता की आवश्यकता स्वय-मिद्ध है। और फिर भी हम देखते है कि आज की दुनिया में मानव-मात्र के लिए यही दो चीजे है, जो अधिक-से-अविक दुर्लभ है। मनुष्य का स्वार्थ और उसकी लिप्मा कुछ इतनी बढ गई है कि उसने स्वस्थ मानव-जीवन की मूलभूत आवश्यकतानो को भुला दिया है और वह अपने निकट के स्वार्थ मे इतना डूब गया है कि दूर की चीज़, जो शाश्वत और सर्वकल्याणकारी है, उसे दीखती ही नहीं। अपने मकुचित स्वार्थ के वशीभूत होकर मनुष्य स्वय वन्वनो मे बंधता है और अपने प्रामपाम भी वन्वनो का मजबूत जाल फैला देता है । समार में आज सर्वत्र यही मूढ दृश्य दिखाई दे रहा है। निर्मल आर्प दृष्टि दुर्लभ हो गई है। विश्व-कल्याण की भावना मानो विला गई है। एक का हित दूसरे का अहित बन गया है, एक की हानि, दूसरे का लाभ । शोपण, उत्पीडन, दमन, और सर्वसहार के भीषण शस्त्रास्त्रो से सज्ज होकर मनष्य प्राज इतना बर्वर और उन्नत हो उठा है कि उपको इस मार्ग से हटाना कठिन हो रहा है। बार-बार पछाडे खाकर भी वह मंभलता नहीं, उसे होश नहीं आता। समार आज ऐसे ही कठिन परिस्थिति में मे गुजर रहा है। वह पथभ्रष्ट होकर सर्वनाश की ओर दौडा चला जा रहा है । किमी की हिम्मत नहीं होती कि इस उन्मत्त को हाथ पकड कर रोके, इसके होग की दवा करे और इमे सही रास्ता दिखाये--उस रास्ते इसे चला दे | मव आपाधापी में पड़े है। अपनी चिन्ता को छोड विश्व की चिन्ता कौन करे ? विश्व की चिन्ता तो वही कर सकता है, जिसे अपनी कोई चिन्ता नही, जिसने अपना सब कुछ जगन्नियन्ता को मौंप रक्खा है और जो नितान्त निम्पृह भाव से उमकी सृष्टि की सेवा में लीन हो गया है । हम भारतीयो का यह एक परम सौभाग्य है कि हमारे देश में, आज के दिन हमारा अपना एक महामानव अपने सर्वस्व का त्याग करके निरन्तर विश्वकल्याण की चिन्ता में रत रहता है और अपने सिरजनहार से सदा, सोते-जागते, उठते-बैठते, यह मनाता रहता है कि दुनिया में कोई दुःखी न हो, कोई रोगी न हो, किमी की कोई क्षति न हो, सव सुख, समृद्धि और सन्तोष का जीवन विताये, सव ऊर्ध्वगामी बने, मव कल्याण-कामी बनें । सर्वेऽत्र सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामया । सर्वेभद्राणिपश्यन्तु माकश्चिदु ख माप्नुयात् ॥ वह नहीं चाहता कि विश्व की सारी सम्पदा उसे प्राप्त हो, विश्व का साम्राज्य उसके अधीन हो। वह अपने लिए न स्वर्ग चाहता है, न मोक्ष चाहता है। उसकी तो अपनी एक ही कामना है-जो दीन है, दुखी है, दलित है, पीडित है, परतत्व और पराधीन है, उनके मव दुख दूर हो, उनकी पीडाएँ टले, उनका शोपण-दमन बन्द हो, उनके पारतन्त्र्य का नाश हो, उनकी पराधीनता मिटे । नत्वह कामये राज्य न स्वर्ग नाऽपुनर्भवम् । कामये दुखतप्तानां प्राणिनामाति नाशनम् । भयाकुल, परवश और सत्रस्त समार को निर्भय, स्वतन्त्र और सुखी वनाना ही गाधी जी के जीवन का एकमात्र ध्येय है। मानव-ससार की पीडा और व्यथा को जितना वे समझते और अनुभव करते है, उतना शायद ही कोई करता हो । यही कारण है कि उन्होंने एक निपुण चिकित्सक की भांति विश्व को उसके भयानक रोग की अमोघ औषधि दी है और उसकी अमोघता के प्रमाण भी प्रस्तुत किये है। जीवन के ममग्र व्यापार में अहिंसा का पालन ही वह अमोघ औपधि है, जिसके सेवन से विश्व-शरीर के समस्त रोगो का निवारण हो सकता है। इसी अहिंसा की एकात उपासना मे से गाधीजी को उन ग्यारह व्रतो की उपलब्धि हई है, जिनके विना जीवन में अहिंमा की शुद्धतम सिद्धि सम्भव नही Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ "अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असग्रह शरीरश्रम, अस्वाव, सर्वत्रभयवर्जन । सर्वधमासमानत्व, स्वदेशी, स्पर्शभावना ही एकादश सेवावी नम्रत्वे व्रतनिश्चये ॥ नम्रता के साथ और व्रत के निश्चय के साथ इन ग्यारह व्रतो का आजीवन पालन ही मनुष्य को उसके सब दुखो से मुक्त कर सकता है। आज सारे ससार में हिंसा की ही विभीषिका छाई हुई है। जहां-तहां मानव दानव वन कर जीवन में जितना कुछ सरक्षणीय है, इष्ट है, पवित्र है, उपासनीय है, उस सब को उन्मत्त भाव से नष्ट करने में लगा है । क्षणिक सुखो की आराधना ही मानो उसका जीवन-ध्येय बन गया है । ऐश्वर्य और भोग की अतृप्त लालसा ने उसे निरकुश वना दिया है। जीवन के शाश्वत मूल्यो को वह भूल गया है। उसने नये मूल्यो की, जो सर्वथा मिथ्या है, सृष्टि की है और उनकी प्रतिष्ठा को बढाने में कोई कसर नही रक्खी । यही कारण है कि आज की दुनिया में अहिंसा की जगह हिंसा की प्रतिष्ठा वढ गई है, सत्य का स्थान मोहक असत्य ने ले लिया है, अपने स्वार्थ के लिए, अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने के लिए मनुष्य प्राज सत्य का सबसे पहले वध करता है। पिछले महायुद्ध का सारा इतिहास डके की चोट यही सिद्ध कर रहा है। हमारे अपने देश मे सन् '४२ के बाद जो कुछ हुया, उसमे शासको की ओर से अमत्य को ही सत्य सिद्ध करने की अनहद चेष्टा रही । सफेद को काला और काले को सफेद दिखाने की यह कसरत कितनी व्यर्थ थी, कितनी हास्यास्पद, सो तो आज सारी दुनिया जान गई है, फिर भी गासको ने इसी का सहारा लिया, क्योकि उनका सकुचित स्वार्थ उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य कर रहा था। आज भी देश मे और दुनिया मे इमी असत्य की प्रतिष्ठा वढाने के अनेक सगठित प्रयत्न हो रहे है । ऐसी दशा में गाधी जी की ही एक आवाज़ है, जो निरन्तर उच्च स्वर से सारे ससार को कह रही है कि हिंसा से हिंसा को और असत्य से असत्य को नही हराया जा सकता। यही कारण है कि उन्होने सदियो की गुलामी से समस्त भारतवर्ष को सत्य और अहिंसा का नया प्राणवान् सन्देश दिया है। और उनके इस सन्देश का ही यह प्रताप है कि सदियो से सोया हुया और अपने को भूला हुआ भारत पिछले पच्चीस वर्षों में सजग भाव से जाग उठा है और उसने अपने को-अपनी अत्मा को-पा लिया है। अव ससार की कोई शक्ति उसको स्वाधीनता के पथ से डिगा नही सकती। जहाँ सत्य और अहिंसा है, वहाँ अस्तेय तो है ही। जो सत्य का उपासक है और अहिंसा का व्रती है, वह चोर कैसे हो सकता है ? चोरी को वह कैसे प्रश्रय दे सकता है ? और चोर कौन है ? वही, जो दूसरो की कमाई पर जीता है, जो खुद हाथ-पैर नही हिलाता और दूसरो से अपना सब काम करवा कर उनसे मनमाना फायदा उठाता है, जो गरीबो और असहायो का शोषण करके अपनी अमीरी पर नाज करता है, जो धनकुवेर होकर भी अपनी जरूरतो के लिए अपने सेवको का गुलाम है, जो झूठ-फरेव से और धोखाघडी से भोले-भाले निरीह लोगोको लूट कर अपना स्वार्थ सीधा करता है और राज व समाज में झूठी प्रतिष्ठा पा जाता है। गीता के शब्दो में ये सब पाप कमाने और पाप खाने वाले है, जिनकी असल मे समाज के वीच कोई प्रतिष्ठानही होनी चाहिए। प्रतिष्ठा की यह जो विकृति आज नजर आती है, उसका एक ही कारण है-कुशासन । शासन चाहे अपनो का हो, चाहे परायो का, जब वह सुशासन मिटकर कुशासन का रूप धारण कर लेता है तो लोक-जीवन पर उसका ऐसाही प्रवाछनीय प्रभाव पडता है। आज के हमारे चोर वाजार और काले बाजार इसके प्रत्यक्ष प्रमाण है। आज तो शासन का आधार ही गलत हो गया है। शासन का लक्ष्य प्राज प्रजा का सवर्द्धन, सगोपन, और सपोषण नहीं रहा। शासन तो आज लूट पर उतारू है। शोषण, उत्पीडन, दमन उसके हथियार है और वह निरकुश भाव से प्रजा पर सव का प्रयोग कर रहा है। शासन की इस उच्छृङ्खलता को रोकने का एक हीउपाय है, और वह है, समाज के बीच अस्तेय की अखड प्रतिष्ठा। Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-मानव गाधी ७२७ जव प्रजा स्थूल और सूक्ष्म, सब प्रकार की चोरी से घृणा करने लगेगी, व्रतपूर्वक उससे मुँह मोड लेगी, तो राजा को, शामकको, शासनसत्ता को विवश भाव से प्रजा के अनुकूल बनना पडेगा । पुरानी उक्ति हैं, 'यथा राजा तथा प्रजा । आज हमे इस उक्ति को बदलना है। नये युग की नई उक्ति होगी 'यथा प्रजा तथा राजा ।' और जव राजा ही न रहेंगे, तब तो 'यथा प्रजा, तथा प्रजा' की उक्ति ही सर्वमान्य हो जायगी । जव उद्बुद्ध प्रजा स्वयं अपना शासन करेगी तो बहुत सोच-समझ कर ही करेगी और तव वह अयथार्थ को यथार्थ की, अयोग्य को योग्य की और मिथ्या को मत्य की प्रतिष्ठा कभी न देगी । यही गाधी जी का स्वप्न है और इमीलिए वे समाज में और राज में अस्तेय को प्रतिष्ठित करना चाहते है । उनका यह सदेश अकेले भारत के लिये नही, अखिल विश्व के लिये है । श्राज उसकी भाषा में दुनिया के जो देश मभ्य और सम्पन्न माने जाते हैं, वे ही छद्मवेग में चोरी के सबसे वडे पृष्ठपोषक हैं । अपने अधीन देशो का सर्वस्वापहरण करने में जिस कूट बुद्धि और कुटिल नीति से वे काम लेते हैं, ससार के इतिहास मे उसकी कोई मिमाल नही । इस सर्वव्यापी स्तेय भावना का प्रतिकार करके विश्व में अस्तेय की प्रतिष्ठा बढाने के लिए अस्तेय के व्रतधारियो की एक सेना का सगठन जरूरी है । गावी जी श्राज इसी की साधना में निरत है । जहाँ सत्य है, हिमा है और अस्तेय है, वहाँ ब्रह्मचर्य को आना ही है । गाधी जी लिखते है "ब्रह्मचर्य अर्थात् ब्रह्म की - सत्य की शोध में चर्या, श्रर्थात् तत्सम्वन्वी ग्राचार । इस मूल अर्थ से सर्वेन्द्रिय -सयम का विशेष अर्थ निकलता है । केवल जननेन्द्रिय-सयम के अधूरे अर्थ को तो हमें भूल ही जाना चाहिए ।" वे आगे और लिखते है "जिमने सत्य का आश्रय लिया, जो उसकी उपासना करता है, वह दूसरी किसी भी वस्तु की प्राराधना करे, तो व्यभिचारी वन जाय । फिर विकार की आराधना तो की ही कैसे जा सकती है ? जिसके सारे कर्म एक सत्य के दर्शन के लिए ही है, वह सन्तान उत्पन्न करने या घर - गिरस्ती चलाने में पड ही कैसे मकता है ? भोग-विलास द्वारा किसी को मत्य प्राप्त होने की श्राज तक एक भी मिसाल हमारे पास नही है । श्रहिंसा के पालन को लें, तो उसका पूरा-पूरा पालन भी ब्रह्मचर्य के विना असाध्य है । अहिंसा अर्थात् सर्वव्यापी प्रेम । जिस पुरुष ने एक स्त्री को या स्त्री ने एक पुरुष को अपना प्रेम सौंप दिया उसके पास दूसरे के लिए क्या बच गया ? इसका अर्थ ही यह हुआ कि 'हम दो पहले और दूसरे सब वाद को ।' पतिव्रता स्त्री पुरुष के लिए और पत्नीव्रती पुरुष स्त्री के लिए सर्वस्व होमने को तैयार होगा, इससे यह स्पष्ट है कि उसमे मर्वव्यापी प्रेम का पालन हो ही नही सकता । वह सारी सृष्टि को अपना कुटुम्ब बना ही नही सकता, क्योकि उसके पाम उसका अपना माना हुआ एक कुटुम्ब मौजूद है या तैयार हो रहा है । जितनी उनकी वृद्धि, उतना ही सर्वव्यापी प्रेम में विक्षेप होगा। मारे जगत् में हम यही होता हुआ देख रहे है । इसलिए श्रमाव्रत का पालन करने वाला विवाह के बन्धन मे नही पड सकता, विवाह के बाहर के विकार की तो बात ही क्या ?" यह है गावी जी की कल्पना का ब्रह्मचर्यं । ब्रह्म की अर्थात् सत्य की शोध में जीवन का यह सकल्प, यह व्रत, कितना उदात्त है, कितना भव्य । देश-काल की कोई सीमा इसे वाँध नही सकती । मानव-जीवन का यह शाश्वत और मनातन धर्म है, जिसके भरोसे दुनिया आज तक टिकी है । गाघोजी स्वभाव से गगनविहारी है । असीम की, अनन्त की, अखड और अविभाज्य उपासना उनका जीवन ध्येय है । वे अपने को श्रद्वैतवादी कहते हैं और उनके द्वैत मे सारा ब्रह्माड समाया हुआ है । अणु-परमाणु मे लेकर जड-चेतन, स्थावर-जगम, सभी कुछ उनकी चिन्ता का, उपासना का विषय है। वे सब का हित, सब का उत्कर्षं चाहते है । सव के कल्याण के लिए अपनी अशेष शक्तियो का विनियोग उनके जीवन की प्रखर साधना रही है । उनके लिए सव कोई अपने है, पराया कोई नहीं । जिस परम सत्य की शोध में उनके जीवन का क्षण-क्षण वीतता है, उसी ने उनको अजातशत्रु बनाया है। वे अपने कट्टर -से-कट्टर विरोधी को भी अपना शत्रु नही मानते। उसके प्रति मन मे किसी तरह का कोई शत्रुभाव नही रखते । मनुष्य की मूलभूत अच्छाई में उनकी श्रद्धा श्रविचलित है, इसीलिए दुष्ट-से-दुष्ट व्यक्ति को भी वे अपना बन्धु और Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२८ प्रेमी-अभिनंदन अर्थ'. मित्र समझते है और अपनी ओर से सदा बन्धुत्व की ही उपहार उसे देते हैं-वह चाहे उसे ग्रहण करे, चाहें हरायो। इस विषय मे अनासक्ति ही गाधी जी का नियम है । भगवान् कृष्ण के इस वर्जन में उनकी श्रद्धा कभी डिंगी नहीं। "न हि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गति तान गच्छति अर्थात् जो कुछ भी कल्याण-भावना से किया जाता है, वह कभी, दुर्गति को प्राप्त नहीं होता। और कल्याण-भावना तो गांधी जी के रोम-रोम में रमी है। '' " -- अपने जीवन के ये पिछले चालीस वर्ष गाधी जी ने अखड ब्रह्मचर्य के साथ विताये है। उनके ब्रह्मचर्य में जडता, प्रमाद, स्वार्थ, सकुचितता, महमन्यता और कट्टर धर्मान्धता को कोई स्थान नहीं। यो दुनिया में जे. नामधारी ब्रह्मचारियो की कमी नही है। सभी देशो में, सभी खडो में, वे पाये जाते है, पर उनमें गांधी जी-सी प्रतापी, प्रखर व्रतधारी, निरन्तर विकासमान ब्रह्मचारी आज कहाँ है ? और गाधी जी का यह ब्रह्मचेयं भी किसको समर्पित है ? जनता-जनार्दन को, दरिद्रनारायण को, विश्व की दुर्बल, दलित मानवता को उसी को ऊपर उठाने, उसीको सुखी बनाने के लिए ब्रह्मचारी गाधी आज सौ नहीं, सवा सौ वर्ष जीना चाहता है। पिछले पचास वर्षों की तीव्र और उग्र तपस्या ने यद्यपि शरीर को जर्जर बना दिया है, फिर भी गाधी जी जीवन से निराश नहीं, जीवन के संघर्षों से हताश नहीं। जीवन उनको माज भी कमनीय मालूम होता है। वे उससे उकताये नही, ऊबे नहीं। जैसे-जैसे वे उमर में बढते जाते है, जीवन का मर्म उनके सामने खुलता जाता है और वे जीवन के अलौकिक उपासकवनते जाते है । यो हमारे देश में और दुनिया में १००, १२५, १५० साल की लम्बी उमर पाने वाले स्त्री-पुरुष, दुर्लभ नहीं है। पर उनमें और गाधी जी में एक मौलिक भेद है । गाधी जी ने अपने लिए जीना छोड दिया है। वे आज विश्व-मानव की कोटि को पहुंचे है, विश्व के गुरुपद को प्राप्त हुए है, सो यो ही नही हो गये। विश्व के लिए जीना ही उनके जीवन की एकमात्र साध रही है और इसीलिए मानव-जीवन में उन्होने नये अर्थों और नई भावनात्रों के साथ ब्रह्मचर्य को प्रतिष्ठित किया है। उनकी व्याख्या का ब्रह्मचारी साधारण कोटि का मानव नही रह सकता। उसे तो निरन्तर उन्नत होना है और मानव-विकास की चरमसीमा तक पहुंचना है। पराधीन भारत के लिए उसका ब्रह्मचर्य, उसका सत्य, सत्य के लिए उसकी चर्या, सव कुछ स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रयत्नो में समा जाता है। आज तो स्वतन्त्रता ही उसकी आराधना का एकमात्र लक्ष्य हो सकता है। स्वतन्त्रता - रूपी सत्य का साक्षात्कार किये बिना वह परम सत्य की शोध में एक डग मी मागे नहीं बढ़ सकता । यही कारण है कि . गाधीजी-जैसो को आज देश की स्वतन्त्रता के महान यज्ञ का अध्वर्यु वनना पड़ा है। उनके जीवन का यह एक दर्शन है। अनुभव से उन्होने इसे जाना-माना है कि जब तक मनुष्य अपने तई स्वतन्त्र नही, वह सत्य की सम्पूर्ण साधना कर ही नहीं सकता। जिसके चारो ओर बन्धनो का जाल विछा है, जो अपने आप में जकडा पडा है, जिसे न हिलनेडुलने की स्वतन्त्रता है, न बोलने-बतलाने की, जिसके कदम-कदम पर रुकावटो के पहाड अडे है, वह सत्य की शोध में कैसे लीन होगा? कैसे उसे सत्य के दर्शन हो सकेंगे? और बाहर के वन्वनो के साथ-साथ अपने अन्दर के बन्धनो से भी तो मुक्ति पाना आवश्यक है। दोनों स्वतन्त्रताएं साथ-साथ चलनी चाहिए, अन्यथा काम बन ही नहीं सकता, शोध पूरी हो ही नहीं सकती। यो कहने को आज दुनिया में कई देश हैं, जो स्वतन्त्र कहे जाते हैं,वाहर की कोई सत्ता उन पर हावी नही, फिर भी वे सच्चे अर्थों में स्वतन्त्र तो नहीं हैं, उनकी आत्मा अनेक वन्धनो से जकडी हुई है,. विकारा से ग्रस्त है। स्वार्थ उनका आसुरी बन गया है और महत्त्वाकाक्षानो ने हद छोड दी है। वे आज ससार के लिए अभिशाप बन गये हैं। उनकी वह तथाकथित स्वतन्त्रता ससार के लिए तारक नही, मारक बन रही है। यह स्वतन्त्रता का बडा कुत्सित रूप है, भयावना और घिनौना। हमें इससे बचना है। इस मृगजल से सावधान , रहना है और इसका एक ही उपाय है कि हम अन्तर्बाह्य स्वतन्त्रता की सच्चे दिल से उपासना करें। एक-दो की इक्की-दुक्की उपासना से सारे विश्व की इस विभीषिका का अन्त नहीं हो सकता। करोडो को एक साथ सामूहिक रूप से ऊपर उठना होगा और निर्मल स्वतन्त्रता की उपासना में लगना पडगा। यह कैसे हो? जीवन में स्वार्थ को गौण और परमार्थ को प्रधान पद देने से ही इसका रास्ता खुल सकता है। छोटे-बडे, 'अमीरवारीव, Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-मानव गाधी ७२६ विवाहित अविवाहित मभीको इस रास्ते वीर-वीर गति मे जाना है । मत्य किमी एक की बपौती नही । वह सव का है और सव को उसकी उपलब्धि करनी है । वालब्रह्मचारी ही सत्यान्वेपक वने श्रौर वाल- बच्ची वाला गृहस्थ सत्य से विमुख रहे, ऐसा कोई नियम नही । ब्रह्मचारी, गृही, वनी, सन्यामो सभी मत्य के अधिकारी है और सब को उमका साक्षात्कार होना चाहिए। इसीलिए गाधी जी कहते हैं "तब जो विवाह कर चुके है, उनकी क्या गति ? उन्हें सत्य की प्राप्ति कभी न होगी ? वे कभी सर्वार्पिण नहीं कर सकते ? हमने इसका रास्ता निकाला ही है--विवाहित विवाहित मा हो जाय। इन वारे में इससे बढकर मुझे दूसरी बात मालूम नही । इस स्थिति का श्रानन्द जिमने लूटा है, वह गवाही दे सकता है । श्राज तो इम प्रयोग की सफलता सिद्ध हुई कही जा सकती है । विवाहित स्त्रीपुरुष का एक- दूसरे को भाई वह्न मानने लग जाना सारे झगडो से मुक्त हो जाना है । ससार भर की मारी स्त्रियों बहने है, माताये है लडकियाँ है—यह विचार ही मनुष्य को एकदम ऊँचा ले जाने वाला है । उमे बन्धन से मुक्त कर देने वाला हो जाता है । इसमें पति-पत्नी कुछ खोते नही, उलटे अपनी पूजी बढाते हैं, कुटुम्व बढाते है । प्रेम भी विकार रूपी मैल को निकाल डालने से वढता ही है। विकार के चले जाने मे एक-दूसरे की मेवा भी अधिक अच्छी हो सकती है, एक दूसरे के बीच कलह के अवसर कम होते है । जहाँ स्वार्थी, एकागी प्रेम है, वहाँ कलह के लिए ज्यादा गुजाइश है।" 'जहाँ स्वार्थी, एकागी प्रेम हैं, वहाँ कलह के लिए ज्यादा गुजाइग है, इस एक वाक्य में गाधी जी ने अपने समय की मानवता को अमर मन्देश दिया है । मानव जीवन के सभी क्षेत्रो मे श्राज कलह नाम की जिस चीज़ ने ताडव मचा रक्खा है, यह स्वार्थ ही उनका एकमात्र सूत्रधार है और इसकी विभीषिका का कोई अन्त नही । घर में, ममाज में राष्ट्र मे और विश्व में आज सर्वत्र इमी की तूती बोलती है और छोटे-वडे, अमीर-गरीब, ऊँच-नीच, पढेअनपढे मभी इसके पीछे पागल है--उसकी मोहिनी से 'मुग्ध । इसीके कारण श्राज का हमारा पारिवारिक जीवन छिन्न-विच्छिन्न हो गया है, ममाज ने उच्छृङ्खलता धारण करली है, राष्ट्रो ने श्रामुरी भाव को अपना लिया है। और विश्व की शान्ति, उसका ऐक्य सकट में पड गया है । विज्ञान ने यद्यपि दुनिया को एक कर दिया है, पर स्वार्थ श्रव भी उमं खड-गड किये हुए हैं और उसने विज्ञान को भी अपना चाकर वना लिया है । वडे-बडे वैज्ञानिक आज स्वार्य के शिकार होकर राष्ट्र-राष्ट्र के बीच शत्रुता की खाई को चौड़ा करने में लगे है और शुद्ध, मात्विक, सर्व-हितकारी विज्ञान की उपासना मे कोमो दूर जा पडे है । ऐमे समय एक महान् वैज्ञानिक की-सी मूझ-बूझ के साथ गावी जी विश्व को निस्वार्थ और सर्वव्यापी प्रेम का पावन मन्देश सुना कर उमे सच्चे मार्ग पर लाने और चलाने की कोशिश में लगे है | विश्व की मानवता को गाधी जी की यह एक अनमोल देन है । निस्वार्थ और सर्वव्यापी प्रेम की इस अलौकिक उपासना ने ही गाधी जी को अहिंसा, सत्य, अस्तेय श्रौर ब्रह्मचर्य की भावना के साथ-साथ श्रम्वाद, अपरिग्रह, गरीरश्रम, निर्भयता, सर्वधर्मसमभाव, स्वदेशी और अस्पृश्यतानिवारण का व्रती वनाया है और उनकी इस युगानुयुग-व्यापिनी, अविचल, और सतत व्रतनिष्ठा ने देश के लाखो उद्बुद्ध नर-नारियो को वैमा व्रती जीवन विताने की प्रवल प्रेरणा प्रदान की है। यही नही, दूर-पास के विदेशो में भी अनेको ऐसे हैं, जो इस क्षेत्र में गावी जी को अपना गुरु मानते हैं और उनके बताये जीवन-पथ पर चल कर अपने को धन्य अनुभव करते हैं । इनमें विश्वविख्यात वैज्ञानिक, विचारक, दार्शनिक, राजनीतिज्ञ, धर्मगुरु, महन्त, सन्त, समाज सुधारक, लोकनेता, लोक-मेवक, पडित प्रपडित, अमीर-गरीब, स्वाधीन -परावीन, सभी शामिल हैं । सव समान भाव से गावी जी के प्रति अनुरक्त है और कृतज्ञ भाव से उनका पदानुसरण करने में व्यस्त । गाधी जी के इस विराट् व्यक्तित्व का क्या कारण है ? उनमे विश्व-मानव का यह ऐसा लौकिक विकास कैसे हुआ ? वे विश्व- पुरुष की कोटि को कैसे पहुँचे ? इन मव का एक ही उत्तर है शून्यता । अपने को मिटा कर शून्य बना लेने की एक अद्भुत कला गावी जी ने अपने अन्दर विकसित की है । शून्य की उनकी यह नसीम उपासना ही श्राज उनको ममार की सर्वश्रेष्ठ विभूति बनाये हुए है । इम शून्यता ने ही उनकी महानता को इतना २ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी अभिनंदन गांग ७३० उन्नत किया है । यो देखा जाय तो वे कहीं कुछ भी नहीं है । फिर भी उनका व्यक्तित्व इतना व्यापक हो गया है। कि वे सबके सब कुछ बन बैठे है । कहने को वे काग्रेस के चवन्नी सदस्य भी नही, पर-काग्रेस सारी उनमें समा गई है उनके बिना काग्रेस एक डग आगे नहीं वढा पाती। यो वे स्वयं अपने को किसी का प्रतिनिधि नहीं, मानते, पर संसार की दृष्टि में प्राज अकेले वे ही सारे भारत के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि है। जहाँ भी, जब कभी भी, किसी राजनैतिक या साम्प्रदायिक या अन्य किसी गुत्थी को सुलझाने का प्रश्न आता है, गाधी को आगे होना पडता है। उनके बिना पत्ता नहीं हिलता। किसी महान् राष्ट्र के जीवन में एक व्यक्ति की यह ऐसी अनिवार्यता अद्भुत है । इतिहास में इसकी कोई मिसाल नहीं। इसीके कारण कुछ लोग भ्रमवश गाधी जी को भारत का निरकुश तानाशाह कहते है और उनकी तानाशाही की जी भर कर निन्दा करते हैं। पर गांधी में तानाशाही की तो बू भी नहीं है । तानाशाही का सारा इतिहास कहता है कि उसकी जड में हिंसा भरी है । बिना हिंसा के वह कहीं टिकी, बढ़ी और पनपी ही नहीं। और गाधी जी तो हिंसा के परम विरोधी है। वे तो जड-चेतन सव को परमात्मा की पवित्र कृति मानते है और अत्यन्त कोमल भाव से सव की रक्षा में सलग्न रहते है। जिसके लिए चीटी तक अवध्य है, जो उसमें भी अपने प्रभु के दर्शन करता है, वह प्रचलित अर्थ में तानाशाह कैसे हो सकता है ? जो मानवताको जिलाने और तारने आयाहै, वह तानाशाह कैसा? जो हो, इसमें कोई सन्देह नहीं कि गाधी जी की विश्वव्यापी लोकप्रियता ने उनके कई स्वार्थान्ध विरोधियो और मालोचको को मूढ बना दिया है और वे अपने तरकश के हर तीर से गाधी को नीचे गिराने की, अपनी सतह पर लाने की कोशिश में लगे हैं। पर गाधी इन सब बातो से इतना ऊपर है कि उस तक ये कभी पहुंच ही नहीं पाती। गाधी जी ने मानवता को कभी खड-खड करके नहीं देखा। अपने समय के वे सबसे बड़े समन्वयकारी व्यक्ति है। जोडना उनके जीवन का लक्ष्य है । तोड-फोड से उन्हें कोई रुचि नही। हाँ, जोडने के लिए जितनी तोड-फोड़े जरूरी है, उतनी तो वे नि शक भाव से करते ही आये है । इसमें उनके पैर कभी पीछे नहीं पडे। इस दृष्टि से देखें तो गाधी जी के जैसा कोई विध्वसक भी नही । पर उनका विध्वस भी सृजनात्मक होता है। विध्वस के लिए विध्वंस से उन्हें कोई मतलब नहीं, बल्कि वे उसके घोर विरोधी है । यह गाधी जी की ही प्रखर तपस्या का प्रताप है कि प्राज भारत का नाम विश्व के बडे-बडे देशो के नाम के साथ सम्मानपूर्वक लिया जाता है। यो विश्व के साथ भारत, को जोडने में गाधी जी को यहां का बहुत-कुछ तोडना भी पड़ा है। हिन्दुस्तान के सार्वजनिक जीवन में गाधीजी के प्रागमन से पहले यहां का सामाजिक जीवन अनेक तग कोठरियो में बन्द पड़ा था और इधर की हवा उपर पहुंच नहीं पाती थी। राष्ट्र के जीवन मे बारह कनौजिये और तेरह चूल्हे वाली मसल चरितार्थ हो रही थी। जात-पात, धर्म सम्प्रदाय, ऊँच-नीच, छूत-अछूत, अमीर-गरीव, पढ-अनपढ की अनेक अभेद्य दीवारें भारत की मानवता को सैकडो खडो में विभक्त किये हुए थी और किसी का किसी से कोई जीवित सम्पर्क नहीं था। सब एक-दूसरे के प्रभावों-अभियोगो के उदासीन दर्शक बने हुए थे। राष्ट्र का जीवन एक जगह वैध गया था और सडने लगा था। उसमें प्रवाह की ताजगी नहीं रह गई थी। गाधी जी ने दक्षिण अफ्रीका से हिन्दुस्तान आते ही इस असह्य परिस्थिति को भांप लिया और वे एक दिन की भी देर किये विना इसके प्रतीकार के यल में लग गये। उन्होने अपनी पार्षदृष्टि के सहारे भारत की सारी मानवता को उसके समग्न रूप में देखा-परखा और वे उसके सामूहिक उत्थान के लिए सचेष्ट हो गये! उनकी इसी भगीरथ चेष्टा ने राष्ट्र को अहिंसात्मक असहयोग और सत्याग्रह के महान् अस्त्र दिये और दिया वह चौदह-पन्द्रह प्रकार का रचनात्मक कार्यक्रम, जिसकी अमोघ शक्ति ने बेसुध भारत को सुध-बुध से भर दिया और उसकी विखरी ताकत को इकट्ठा करके इतना मजबूत बिना दिया कि अब ससार की कोई उद्दड से उदंड शक्ति भी उसका सामना नहीं कर सकती। भाज काश्मीर से कन्याकुमारी तक और द्वारिका से डिबरूगढ़ तक सारा भारत एक तार बन गया है, चालीस करोड नर-नारी एक साथ सुख में और दु ख में, हानि और लाभ में, एक-सा स्पन्दन अनु. भव करने लगे है, धर्म, मत, पन्थ, जात-पात, प्रान्त, पक्ष, भाषा आदि की जो दीवारें एक को दूसरे से अलग किये Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-मानव गांधी ७३१ हुए थी, वे बहुत कुछ ढह गई है और रही-सही जल्दी ही बह जाने को है । इस सब के कारण देश एक प्रचड शक्ति मे भर उठा है और चूकि वह शक्ति शान्त अहिंसा की स्निग्व शीतल शक्ति है, सारा ससार उमकी ओर बडे कुतुहल के साथ पाश्चर्य-विमुग्ध भाव से देख रहा है। ससार की साम्राज्यवादिनी शक्तियाँ इस नई शक्ति के विकास को भय और विस्मय के साथ देख रही है और अपने भविष्य के विषय में चिन्तित हो उठी है। यह सब इन पच्चीस वर्षों में हुमा है और इसका अधिकाश श्रेय' गाधी जी के दूरदर्शितापूर्ण नेतृत्व को और उनकी एकान्त ध्येयनिष्ठा को है। इससे पहले देश की सारी शक्तियाँ विखरी हुई थी और उनको एक सूत्र में पिरो कर अप्रतिहत शक्ति से अभिपिक्त करने वाला कोई नेतृत्व देश के सामने नहीं था। साम्राज्यवाद के चगुल से छूटने की छुटपुट कोशिशें देश में जहां-तहां अवश्य होती थी, लेकिन उनके पीछे सारे देश की शक्ति का सगठित वल न होने से वे या तो असफल हो जाती थी या गासको द्वारा निर्दयतापूर्वक विफल कर दी जाती थी। देश सामूहिक रूप से आगे नहीं बढ पाता था। वहिष्कार, स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा की त्रिसूत्री ने देश में नवचेतन का सचार अवश्य किया, किन्तु उमसे स्वातन्त्र्य युद्ध के लिये देश की शक्तियो का समुचित सगठन नही हो पाया गावी जी ने देश की इस कमी को तीव्रता के साथ अनुभव किया और देश में छाई हुई निराशा, जडता और भीरुता का नाश करने के लिए उन्होने देश के एक ओर अहिंसक सत्याग्रह का सन्देश सुनाया और दूसरी ओर जनता को स्वावलम्बी बनाने के लिए, उसमें फैली हुई व्यापक जडता, पालस्य और परमुखापेक्षिता का नाश करने के लिए, उन्होने रचनात्मक कार्य का विगुल वजाया। देश की मूलभूत दुर्वलताओ को उन्होने समग्र रूप से देखा और उनका प्रतिकार करने के लिए साम्प्रदायिक एलता, अस्पृश्यता-निवारण, मद्यनिषेच, खादी, ग्रामोद्योग, ग्राम-आरोग्य, गोसेवा, नई या बुनियादी तालीम, प्रौढ-शिक्षण, स्त्रियो की उन्नति, प्रारोग्य और स्वच्छता की शिक्षा, राष्ट्रभाषा प्रचार, स्वभाषा-प्रेम, आर्थिक समानता, आदिवासियो की सेवा, किसानो, मजदूरो और विद्यार्थियो का सगठन आदि के रूप में देश के सामने एक ऐसा व्यापक कार्य-क्रम रक्खा कि देश की उवुद्ध शक्तियाँ उसका सहारा पाकर राष्ट्रनिर्माण के इस भौतिक काम मे तन-मन-धन के साथ एकाग्र भाव से जुट गई और देखते-देखते देश का नकशा वदलने मे सफल हुई। अनेक अखिलभारतीय सस्थाओ का सगठन हुआ-चर्खा-सघ, ग्रामोद्योग-सघ, तालीमी-सघ, हरिजन-सेवक संघ, गोमेवा-सघ, कम्तरवा स्मारक निधि आदि के रूप में देशव्यापी पैमाने पर राष्ट्रनिर्माण का काम शुरू हया और कार्यकत्तायो की एक मॅजी हुई सेना इनके पोषण-मवर्धन में जुट गई। जहां-तहां यह रचनात्मक काम जम कर हुआ, वहाँ-वहाँ सर्वसाधारण जनता में एक नया प्राण प्रस्फुटित हो उठा और जनता नये आदर्श की सिद्धि में प्राणपण मे जुट गई। निराशा, जडता और भीरुता का स्थान अदम्य आशावाद ने ले लिया। लोग मजग हो गये। उनका स्वाभिमान प्रवल हो उठा। वे साम्राज्यवाद के आतक-चिह्नो से भयभीत रहना भूल गये और फांसी, जेल, वन्दुक, तोप, मशीनगन, जमीन-जायदाद की जन्ती, जुर्माना, जुल्म, ज्यादती, सब का अटल भाव से निर्भयता-पूर्वक सामना करने लगे। जो लोग खाकी पोशाक और कोट-पैट-टोप से भडकते थे, उन्हें देख कर सहम उठने थे, वे ही खादी की पोशाक में मज्ज होकर आज खाकी वालो के लिए खतरे की चीज़ बन गये है और दूर से दूर देहात में भी अव खाकी वालो का आम-जनता पर वह पुराना आतक नहीं रह गया। लोग अब डट कर इनकी ज्यादतियो का मामना करते है और इनकी चुनौतियो का मुंहतोड़ जवाब देते है । सदियो से सोये हुए देश की जनता का पाव मदी में, पच्चीस बरस के अन्दर, यो उठ खडा होना और अपने शासको का शान्त भाव से धीरता-वीरतापूर्वक सामना करना, इम युग का एक चमत्कार ही है और इस चमत्कार के कर्ता है गाधी जी। गाधी जी का जीवन आदि से अब तक चमत्कारो का जीवन रहा है। चमत्कारो की एक लडी-सी, एक परम्परा-सी, उनके जीवन में उतर पाई है। और ये सब चमत्कार काल्पनिक या हवाई नहीं, बल्कि इस जग के प्रत्यक्ष और प्रमाणित चमत्कार है । कोई इनकी सचाई से इनकार नही कर सकता, इनकी वास्तविकता के विषय मे मदिग्ध नही रह सकता। दक्षिण अफ्रीका से इन चमत्कारो का श्रीगणेश हुआ और भारत में ये अपनी पराकाष्ठा को पहुंचे। Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ प्रेमी-प्रभिनदन-ग्रंथ 1 आज भी इनकी परम्परा टूटी नही है । एक काले कुलो वैरिस्टर का विदेश मे विरोधी, विद्वेपी और मदान्ध लोगो के बीच न्याय और सत्य के लिए अकेले अविचल भाव से जूझना, स्थापित सत्ता और स्वार्थ के विरुद्ध शान्त सत्याग्रह के शस्त्र का सफलता-पूर्वक प्रयोग करना, अपने हजारो-लाखो देशवासियो मे स्वाभिमान की प्रखर भावना उत्पन्न करना, बच्चो, वूढो नौजवानो और स्त्रियों तक को हिंसक सेना का सैनिक बना कर उन्हें त्याग, बलिदान और कष्ट सहन के लिए तैयार करना, कोई मामूली चमत्कार न था । सारी दुनिया इस शान्त क्रान्ति के समाचारो से थ उठी थी और हिन्दुस्तान में तो इसने एक नई ही चेतना उत्पन्न कर दी थी । सारा देश इस नई क्रान्ति के दृष्टा का उल्लासपूर्वक जय-जयकार कर उठा और कल का बैरिस्टर गाधी श्राज का कर्मवीर गाधी बन गया ओर सन् १९१४ में गाघी जी त्याग और तप के प्रतीक बनकर दक्षिण अफ्रीका में हिन्दुस्तान श्राये । श्राते ही वीरमगाम का प्रश्न हाथ में लिया और विजयी बने । फिर सन् १७ मे उन्होने चम्पारन के निल गोरो के अत्याचारो की बाते सुनी और वे उनका प्रतिकार करने के लिए अकेले वहाँ जा बसे । उनका जाना मफल हुया । निलहो का अत्याचार मिटा | चम्पारन वालो ने सुख की साँस ली। देश को प्रत्याचारी का सामना करने के लिए एक नया और अनूठा हथियार मिला । सन् १८ मे गुजरात मे श्रहमदाबाद के मजदूरो को न्याय दिलाने का मवाल सडा हुआ । गाधी जी ने उनका नेतृत्व सँभाला। उनकी टेक को निवाहने के लिए स्वय उपवास किये। मजदूर डटे रहे । मालिक झुके । गडा निपटा | अहमदावाद मे अहिंसक रीति से मज़दूरो की सेवा का सूत्रपात हुआ और ग्राज अहमदाबाद का मजदूर संघ देश के ही नहीं, दुनिया के मज़दूर सघो में अपने ढंग का एक ही है। और श्रव तो सारे देश मे वह अपनी शाखा प्रशाखाओ के माथ हिन्दुस्तान मजदूर मेवक सघ की छाया तले फैलता चला जा रहा है। अहमदावाद के बाद उसी साल गुजरात के खेडा जिले मे वहाँ के किमानो का लगान सम्वन्वी सवाल उठा । गाधी जी किमानो के नेता बने । उन्होंने लगान वन्दी की सलाह दी। लोग डट गये। सरकार ने दमन शुरू किया। लोग नही झुके । सरकार को झुकना पडा । झगडा मिट गया। गाधी जी का अस्त्र अमोघ सिद्ध हुआ । मारे देश में उसका का बज गया और फिर तुरन्त ही एक साल बाद १९१६ में काले कानून का जमाना श्राया । रौलट एक्ट बना । गावी जी ने उसके विरोध मे देशव्यापी सत्याग्रह सगठित किया। सारे देव ने विरोध मे उपवास रक्खा, प्रार्थना की, हडतालें हुई, सभाओ मे विरोध प्रस्ताव पास हुए। सविनय कानून भग का सूत्रपात हुआ। और इन्ही दिनो अमृतमर का जलियाँवाला बाग शहीदो के खून मे नहा लिया। सारा पजाव सरकारी प्रातक-लीला का नग्नक्षेत्र वन गया । देश इस चोट से तिलमिला उठा । गाधी जी महम उठे। उन्होने अपनी हिमालय-मी भूल कवूल की और अपने सत्याग्रह अस्त्र को लौटा लिया । सन् '२० में दूसरा देशव्यापी श्रहिंसक असहयोग का ग्रान्दोलन शुरू हुआ । 'यग इडिया' और 'नवजीवन' के लेखो ने देश में नया प्राण फूक दिया। खिलाफत के सिलमिले मे देश ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के अनूठे दृश्य देखे । असहयोग का ज्वार आया । नोकरो ने नौकरियाँ छोडी । विद्यार्थियो ने स्कूल और कॉलेजो से सम्बन्ध तोडा । वकीलो ने वकालत छोडी । सरकारी उपाधियो का वहिष्कार हुआ । कोर्ट, कचहरी, कॉलेज, कौन्सिल सव सूने नज़र आने लगे । विदेशी वस्त्रो का बायकाट वढा । होलियाँ जली । गाधी जी ने बारडोली में लगान चन्दी का ऐलान किया कि इतने में चौरीचौरा का वह भीषणकाड घटित हो गया और गाधीजी ने इस सत्याग्रह को भी रोक दिया। वे गिरफ्तार हुए और उनको छ साल की सजा हुई। फिर सन् चौबीस में त्रावणकोर राज्य के अछूतो को न्याय दिलाने के लिए वायकोम सत्याग्रह हुआ । शुरू में सरकार ने सनातनियो का साथ दिया । पर अन्त में वह झुकी और अछूतो को अपने अधिकार मिले । सन् २७ मे मद्रास वालो ने जनरल नील के पुतले को हटाने के लिए सत्याग्रह शुरू किया । गाधी जी उसके समर्थक बने । कुछ दिनो बाद उनकी सलाह से वह ख़तम कर दिया गया और सन् ३७ में काग्रेस मत्रिमण्डल ने नील के पुतले को हटाकर उसकी पूर्ति की । सन् २८ मे विजयी वारडोली का मशहूर सत्याग्रह शुरू हुआ । सरदार वल्लभभाई पटेल ने उसका नेतृत्व किया । गाधी जी उनके समर्थक रहे । सरकार और किसानो के बीच जोरो का सघर्ष शुरू हो गया। सरकार ने दमन करने में कसर Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-मानव गांधी ७३३ न की, जनता ने सहन करने मे कमी न रक्खी। आखिर सरकार को जांच कमीशन बैठाना पड़ा और कमीशन ने जनता की मांग को उचित वताया। जनता की जीत हुई। सरकार फिर हारी। फिर सन् ३० का जमाना आया। रावी के तट पर ३१ दिसम्वर १९२६ की रात को देश सम्पूर्ण स्वतन्त्रता की प्रतिज्ञा कर चुका था। इस सम्पूर्ण स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए गाधी जी ने देश को फिर जगाया। सत्याग्रह का बिगुल वजा। गाधी जी १२ मार्च १९३० के दिन स्वतन्त्रता का वरण करने निकल पडे । दोसौ मील पैदल चलकर अपने अस्सी साथियो के साथ दांडी पहुंचे। वहां उन्होने खुल्लमखुल्ला नमक का कानून तोडा और देश भर में नमक-सत्याग्रह की धूम मच गई। एक तरफ निहत्थी जनता के उमडते हुए जोश का ज्वार था और दूसरी तरफ दमन और उत्पीडन के लिए अधीर हुई सरकार का पशुवल जनता के इस जोश को कुचलने मे लगाया। लाखो जेल गये। हजारो घायल हुए। सैकडो शहीद बने। देश में एक तूफान खडा हो गया। सरकार चौंकी। डरी। उसने ममझौते का हाथ वढाया। गाधी-इरविन समझौता हुआ और गाधी जी देश के प्रतिनिधि बन कर लन्दन की गोलमेज परिषद् में शामिल हुए। भारत की निहत्थी जनता की यह सबसे बडी नैतिक विजय थी। इसने भारत का नाम ससार में चमका दिया । २८ दिसम्बर '३१ को गाधी जी विलायत से लौटे और सरकार की हठधर्मी के कारण ३१ दिसम्बर को उन्हें फिर देशव्यापी सत्याग्रह की घोषणा करनी पड़ी। ४ जनवरी '३२ को सरकार ने गाधी जी को गिरफ्तार कर लिया और देश में सत्याग्रह दावानल की तरह भडक उठा। सरकार भी अपने पशुवल के साथ सन्नद्ध हो गई और सघर्ष तीव्र हो उठा। आखिर मई '३३ मे गाधी जी ने सामूहिक सत्याग्रह को स्थगित किया और उसकी जगह व्यक्तिगत सत्याग्रह चलाया। जुलाई '३४ के बाद यह भी समाप्त हुआ। देश ने बहुत महा था, वहुत खोया था। उसे जरा सुस्ताने की, संभलने की जरूरत थी। गाधी जी ने इस जरूरत को महसूस किया और देश को जरा दम लेने का मौका दिया। इसके बाद १९३६ मे दूसरा महायुद्ध शुरु हुआ और '४० के अक्तूवर मे गाधी जी ने देश को फिर व्यक्तिगत सत्याग्रह के लिए पुकारा। उनकी पुकार पर देश के तीस हजार सत्याग्रहियो ने जेल-यात्रा की और सरकार सोच में पड गई। १९४१ के दिसम्बर में उसने आम रिहाई कर दी और काग्रेस ने फिर सत्याग्रह नही छेडा । इस तरह भिडन्त पर भिडन्त होती रही। जनता दिन-दूनी रात चौगुनी शक्तिसम्पन्न होती गई। उसका आत्मविश्वास बढा । उसके तप-तेज में वृद्धि हुई और वह भीषण सत्वपरीक्षा के लिए तैयार बनी। इस बीच ससार में अनेक उथल-पुथल हुईं। जर्मनी ने रूस तक धावा बोला। जापान ने पर्ल हॉर्वर से लेकर ब्रह्मा तक के सब देशो पर अपना झडा गाड दिया। साम्राज्यशाही के होश गुम हो गये। सरकार सिटपिटाई । उसने सर स्टफर्ड क्रिप्स को भेजा। उनकी वात किसी के गले नही उतरी। देश मे और देश के बाहर भारतवासियो की स्थिति उत्तरोत्तर विकट होने लगी । सरकारी दमन शुरू हो गया। शोषण-उत्पीडन की अवधि हो गई। काग्रेस यह सव चुपचाप देख न सकी। गाधी जी से रहा न गया। उन्होने देश को नये सघर्ष के लिए तैयार किया और 'भारत छोडो' के नारे से सारा देश गूज उठा। ८ अगस्त '४२ को 'भारत छोडो' का वह प्रसिद्ध प्रस्ताव पास हुआ और ६ अगस्त के दिन सरकार की बर्बरता देश में सर्वत्र खुल कर खेली। नेता सव वन्द कर दिये गये। दमन की चक्की चल पडी। देश का नया खून इम विभीषिका के लिए तैयार न था। वह इस चुनौती का मुकाबला करने को तैयार हो गया और तीन साल तक विना हारे, विना थके, विना डरे, वरावर मुकावला करता रहा। देश ने रावण-राज्य और कम-राज्य के प्रत्यक्ष दर्शन किये। बगावत की एक प्रचड आँधी ने देश को ओर-छोर से झकझोर दिया। दुनिया दहल उठी। सरकार को खुद अपनी करतूतो पर शरम आने लगी। गाधी जी इस वार भी नहीं झुके। उन्होने इक्कीस दिन का उपवास करके देश और दुनिया की सोई हुई चेतना को जगाने का पावन प्रयास किया, सरकार के आसुरी भाव को हततेज किया, अपने महादेव और अपनी वा को खो कर भी वे अविजेय बने रहे, उनकी नीलकठता ने देश में उनके प्रति अनुरक्ति और भक्ति की एक प्रचड लहर उत्पन्न कर दी, सरकार ने बहुत चाहा कि लोग गाधी को भूले, पर उसके सव हथकडे वेकार सावित हुए और आखिर उसे परास्त होना पडा । उसने गाधी को जेल से छोडा। काग्रेस की कार्यसमिति को वन्धनमुक्त किया और Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ उसके सामने सहयोग का हाथ बढाया। बाद में डेलीगेशन मिशन आया और वह भी अपने उद्देश्य में असफल होकर लौट गया, फिर भी देश के शासन की बागडोर भारतीयो के हाथ में सौंपने की प्रयत्न जारी रहा और अन्तत उसमें सफलता मिल कर ही रही। आज काग्रेस अपनी समस्त शक्ति के साथ देश की एकमात्र प्रिय और प्रतिनिधिसस्था बनी है और लाखो-करोडो उसके इशारे पर अपना सर्वस्व होमने को तैयार है। यह सब चमत्कार किसका है ? गाधी जी का । आज से तीस बरस पहले किसने सोचा था कि सन् '४६ का भारत इतना महान, इतना शक्ति-सम्पन्न, इतना सजग, इतना सगठित, इतना सघर्षप्रिय, इतना धीर-वीर और उदात्त बन जायगा। लेकिन आज वह ऐसा है और उसको ऐसा बनाने में गाधी जी की अलौकिक शक्ति ने अद्भुत काम किया है। अभी भी उनका मिशन सर्वाश में पूरा नहीं हुआ है, उन्हें सर्वत्र शतप्रतिशत सफलता नही मिलती है, कई बार उनको पीछे भी हटना पड जाता है, पर वे कभी पराजित नहीं हुए। उनकी अहिंसा, उनका सत्याग्रह पराजय को जानता नही । उनकी तथाकथित हार भी वास्तव मे जीत ही होती है और जनता का बल उससे बढता है, घटता नहीं। यह उनके शस्त्र की विलक्षणता है और सदा रहेगी। ___ गाधी जी के बारे में अब तक हमने बहुत तरह से सोचा। उनके जीवन के अनेक पहलुओं को देखा। अन्त में हमें यही कहना है कि उनमे मर्यादा पुरुषोत्तम राम की मर्यादाशीलता, योगेश्वर कृष्ण की योगनिष्ठा, अहिंसावतार बुद्ध की प्रखर अहिंसा, महावीर स्वामी की निस्पृह दिगम्वरता, ईसा की पावनता और परदुःखकातरता, एव पैग़म्बर साहब की त्याग-वैराग्य-भरी सादगी और फकीरी ने एक साथ सामूहिक रूप से निवाम किया है। उनमें मानवता अपने चरम उत्कर्ष को पहुंची है। वे अवतारो के भी अवतार-से है और आज के विश्व में पुरुषोत्तम भाव मे विश्व-मानव के प्रतीक। आइये, हम सब अपने इस महामानव को विनम्र भाव से प्रणाम करें और परमात्मा से प्रार्थना करे कि वह अभी युगो तक इस देश और दुनिया के लिए हमारे बीच अपनी सम्पूर्ण शक्ति और विभूति के साथ जीने का बल-सवल दे । बडवानी] MAHAR - - - - Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक निर्माण [शिल्पगुरु श्री अवनीन्द्रनाथ ठाकुर की शिल्प-साधना] श्री कांति घोष "कलाकार बनने में छ महीने से अधिक की आवश्यकता नही, बशर्ते कि शिक्षार्थी मे कला-प्रतिभा हो।" भारतीय पुनर्जागरण के प्राचार्य श्री अवनीन्द्रनाथ ने कला-भवन के विद्यार्थियो-अपने शिष्य के शिष्यो-के साथ वातचीत करते हुए ये वाक्य कहे। उस समय वे अपने पिछले जमाने के स्वानुभव का स्मरण कर रहे थे। “अध्यापक अपने विद्यार्थियो के काम में दखल दे, इसमें मुझे प्रास्था नही है । अध्यापक को केवल राह दिखानी चाहिए, अपने विद्यार्थियो को हठात् किसी ओर विनियुक्त करने का प्रयत्न न करना चाहिए। ऐसा करना बडा घातक सिद्ध होगा। उसे अपने विचारो और कार्य-पद्धति को विद्यार्थियो पर लादना नही चाहिये । विद्यार्थियो को अपने ही ढग से शक्ति विकसित करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।" अवनी वाबू ने स्वय भी श्री नन्दलाल और अपने अन्य शिष्यो के साथ इसी सिद्धान्त का अनुसरण किया था, जिसका परिणाम आज सारी दुनिया जानती है । "लेकिन विद्यार्थियो कोऐसा आभास रहना चाहिए कि गलती होने पर उसे संभालने के लिए उनके पीछे कोई और है। इसका आश्वासन स्वय अध्यापक की ओर से मिलना चाहिए।" उन्हे स्मरण हो पाया कि किस प्रकार बहुत पहले, जब वे नवयुवक ही थे, उनके चाचा कवि ने बच्चो के लिए कहानी लिखने की सलाह देते हुए कहा था-"जैसे (कहानी) कहते हो, वैसे ही लिखो।" उन्होने यह भी कहा था, “इन कहानियो को सुघड बनाने में यदि ज़रूरत हुई तो में सहायतादूगा।" पहली कहानी लिखी गई-'शकुन्तला कथा'। रवि काका ने सारी कथा ध्यानपूर्वक देखी। एक सस्कृत श्लोक पर उनकी सम्पादकीय कलम रुकी और फिर बेरोक आगे बढ गई। कहानी सफल सिद्ध हुई और यह सफलता एक ऐसे स्थान से प्रमाणित हुई, जिससे उन्हें अपनी शक्ति पर भरोसा करने में सहायता मिली। उन्हें प्रात्म-विश्वास हुआ और तब से अवनी बाबू की कलम से एक के बाद एक कहानी-निवन्ध और कविता भी–निकलते गये, जिनका वगाली-साहित्य में अप्रतिम स्थान है । तो भी उनकी कला-शिक्षा बहुत सरल न थी। उन दिनो 'भारतीय कला' नाम की कोई वस्तु ही नहीं थी। अजन्ता यदि कल्पना नही तो स्मृति का विषय ही था। दक्षिण से श्री रविवर्मा कलकत्ता आर्ट-स्टुडियो से मिलकर ग्राम्य अभिरुचि को मुग्ध करने वाली शैली द्वारा भारत की कला-क्षुधा को शान्त करने का श्रेय प्राप्त कर रहे थे। यह शैली भारतीयता से विमुख थी। इसी समय अवनी वाबू ने शिक्षण प्राप्त करने का निश्चय किया। उनका ध्यान उस समय प्रचलित युरोपीय कला की ओर आकर्षित हुआ। इसके सिवाय और कोई रास्ता ही न था। दो यूरोपियन अध्यापको ने, एक के बाद एक, उन्हें जीवित मॉडल का अकन और तैल चित्र-विधान का अपना सम्पूर्ण ज्ञान दिया। उसके बाद उन्हें शरीर-विज्ञान के अध्ययन की सलाह दी गई। लेकिन एक बहुत असामान्य अनुभव के बाद उन्हें यह छोड देना पडा । अनुशीलन के लिए लाई गई मनुष्य की खोपडी से उन्हें बडा विचलित और विभीषिका-पूर्ण अनुभव हुआ। उसकी प्रतिक्रिया के कारण वे अस्वस्थ हो गए और कुछ समय के लिए उन्हें अभ्यास छोड देना पडा । अन्त में एक प्रसिद्ध नॉर्वेजियन पाया, जिससे उन्होने रग-चित्र (Water colour) की कला सीखी। चित्राधार (Easal) और रग-पेटी को झोले में डाले प्राकृतिक दृश्यो की खोज में उन्होने मुगेर तथा अन्य स्थानो की यात्रा की। परिणामत उन्हें यूरोपियन कला में विशेष प्रवीणता प्राप्त हुई। Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन ग्रंथ ७३६ शिक्षा तो पूर्ण हुई, लेकिन उनकी तूलिका ने कमी विनाम नहीं लिया। चित्र बनते जाते थे और उन्हें प्रतिष्ठा भी प्राप्त होती जाती थी, पर वे सन्तुष्ट नहीं थे। निराशा उनके मन में घर करने लगी। "मैं वेचैन हो उठा था। अपने हृदय में मुझे एक व्याकुलता का अनुभव होता था लेकिन मैं उसका स्पष्ट निरूपण नहीं कर पाता था। विस्मय-विमूढ होकर मै कहता-आगे क्या हो?" सम्भवत यह सर्जक प्रवृत्ति ही थी, जो अपने को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त माध्यम ढूढ़ रही थी। लगभग इसी समय उनके हाथ में कला केदो नमूने आ पडे, जिन्होने उनके अवरुद्ध मार्ग को खोल दिया। क्रमश उनमें से एक तो मध्यकालीन यूरोपीय शैली में चित्रित 'आइरिश मैलॉडी' का चारो ओर से भूषित चित्र-सग्रह था और दूसरा सुनहले-पहले रगों से मडित उत्तर मुगलकालीन शैली में अंकित दिल्ली का चित्र-सम्पुट । उन्हें यह जान कर आनन्द के साथ आश्चर्य भी हुआ कि दोनों के अपने विधानो के निर्वाह में आधारभूत प्रभेद कोई नही था । उन्होने इस नव प्राप्त विधान को प्राजमाने के लिए भारतीय, विषय खोजने प्रारमें किये। श्री रवीन्द्रनाथ के अनुरोध से वे विद्यापति और चण्डीदास के वैष्णव गीतो को अकित करने लगे। पहला चित्र, जिसमें अभिसार को जाती हुई राधा को प्रदर्शित किया गया था, असफल रहा,। उसका निर्वाह सदोष था और अनजाने ही उसमें यूरोपियन प्रभाव झलक पाया था। "मैंने चित्र को ताले में बन्द कर दिया, लेकिन मन में कहा कि प्रयत्न करता रहूंगा।" एक प्रवीण भारतीय कारीगर को उन्होने चित्रसज्जा-विधान सीखने के लिए बुलाया। उसके बाद काम सरल हो गया। उन्होने वैष्णव पदावली को समाप्त कर वैतालपचीसी हाथ में ली और फिर बुद्धचित्रावली तथा अन्य चित्रो को पूरा किया। सर्जन-प्रवृत्ति को निकलने के लिए, एक राह मिल गई और,अवनी वावू. को भारतीय पुनर्जागरण में श्रद्धा प्राप्त हुई। इस शिल्प-स्वामी के जीवन में यह समय सबसे अधिक उपलब्धिपूर्ण था, "मैं कैसे बताऊँ कि उस सारे समय मे मै क्या अनुभव करता था। मैं चित्रो से भरपूर रहता था,ऐसा ही कुछ कह सकता हूँ। चित्रोने मेरी सम्पूर्ण सत्ता को अधिकृत कर लिया था। मै केवल अपनी आँखें वन्द करता कि चित्र मेरे मन के सामने उतराने लगतेआकृति, रेखा, रग, छाया सम्पूर्ण रूप में। म हाथ में तूली उठा लेता और जैसे चित्र स्वय वनते जाते।":सर्जन के उन दिनो में भी छिद्रान्वेषी समालोचको का प्रभाव नहीं था। एक प्रसिद्ध वैष्णव प्रकाशक राधाकृष्ण चित्रावली को देखने के लिए आये। चित्रो को देख कर उन्होने स्पष्ट रूप से निराशा प्रकट की। क्या यह राधा है। क्या शिल्पी उसे जरा अधिक मासल और कोमल नहीं बना सकता था ? "यह सुन कर मै पाश्चर्य से स्तम्भित रह, गया, लेकिन एक क्षण के लिए ही। ये वचन मुझ पर कोई प्रभाव नहीं छोड गये।" कुछ समय में सब यूरोपियन प्रभावो से पूरी तरह मुक्त होकर वे अपने ढग से सावधानी के साथ चित्र बनाते गये। "मोह, वे भी दिन थे!", ' लेकिन वे दिन भी सहसा समाप्त हो गये। शिल्पी के जीवन में एक वडा विषाद का अवसर प्राया। मारे परिवार को लाडली, उनकी दस बरस की लड़की कुछ समय से कलकत्ते में फैली महामारी में प्रवसन्न हो गई। उसकी मृत्यु से उन्हें वडा आघात पहुंचा। मन को किसी प्रकार समाधान ही नहीं मिलता था । बाह्य-उपचारो से कोई भी लाभ नहीं हुआ। लाभ हुआ तो श्री० हैवल की सलाह से। हवल,उन्हे उनके चाचा श्री सत्येन्द्रनाथ के घर पहली बार मिले। उन्होने कहा, "अपने काम को हाथ में उठा लो। यही एकमात्र दवा है।" सयोग ने ही इन दो समान-धर्मी प्रात्मानो को मिलाया था। यह सम्मिलन, जैसा कि हम आगे देखेंगे, भारत के सास्कृतिकादृष्टिकोण में हलचल मचाने वाला सिद्ध हुआ। आगे जाकर हैवल के विषय में वे अपने छात्रो से कहा करते थे, "उन्होने मुझे उठा लिया और घड दिया। उनके प्रति मेरे मन में हमेशा गुरु जैसा आदर-भाव रहा है ? कमी-कभी वे विनोद में मुझे अपना सहकर्मी भोर कमी शिष्य कहा करते थे। सचमुच वे मुझसे अपने भाई-सा स्नेह करते थे। तुम जानते हो, नन्दलाल के प्रति मेरा कितना गहरा स्नेह है, लेकिन हवल का स्नेह उससे भी अधिक गभीर था ।। funny श्री हैवल ने अवनी बाबू से कला-शाला का उपाध्यक्ष होने को कहा, जिसे अवनी बाबू ने अस्वीकार कर दिया। उन जैसे शिल्पी को सरकारी सस्था चला कर क्या करना था। इसके सिवाय पढ़ाने की भी बात थी और Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - w ANT - KiA ZAILS १JL . 0 - 1 . .. ACIA नत्यमत्ता - MNE MAR STATE TRAM Rad .. VJN PA 14 - I4% SWERS 144 .. LadARELI HEA" RANAS [ कलाकार-श्री सुधीर खास्तगीर . EMS 4 AMDM 24 Page #793 --------------------------------------------------------------------------  Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक कलाकार का निर्माण ७३७ प्रारम केने करें, यह भी प्रश्न था और फिर हुक्के के वगैरवेकाम कैसे करते ? पर हैवल ने युक्ति निकाल ही ली। मारी व्यवस्था अवनी वाचू की इच्छानुसार हो गई और आखिर उन्हें यह पद स्वीकार करने के लिए मना ही लिया गया। पद-स्वीकार के पहले दिन ही हैवल उन्हें गाला मे सम्बन्धित पार्ट-गलरी के निरीक्षण के लिये ले गए। हैवल ने पिटने कुछ वर्षों में इकळे हुए कूड़े-करकट को-पुराने यूरोपियन कलाकारो की तीमरे दर्जे की कृतियो को हा कर उनके स्थान में मुगल शैली के कुछ मौलिक नमूने लगवा कर गैलरी को साफ करवा दिया था। इन नमूनो में एक मारन का छोटा-मा चित्र था, जिसने अवनी बाबू का ध्यान आकृष्ट हुआ। उन्होंने पहले आँखो मे और फिर आतगी भीगे ने उसकी परीक्षा की। उम चित्र के रूप-विवान और अङ्गोपाङ्गी के रचना-विन्यास की उत्कृष्टता मेवे चकित रह गए। अन्य नमूनी की भी उन्होने परीक्षा की और इन मध्यकालीन चित्रो की उदात्तता, रेखाकन और रगो द्वारा प्रकट होने वाली मास्कृतिक स्वमताग्रहता से वे मुग्व हो गये । इन चित्रो द्वारा उन पर पड़ा प्रभाव भी हैवल के लिए अप्रत्यागित नहीं था। अवनी वावू को तो इन चित्रो ने एक सन्देश दिया। "तव में पहले-पहल हृदयगम कर सका कि मध्ययुगीन भारतीय गिल्प में कैनी निवियाँ छिपी हुई है। मुझे मालूम हो गया कि इनके मूलहेतु-मृगार भाव (Emotional element) में क्या कमी थी और उसे ही पूर्ण करने का मैने निश्चय किया। यही मेरा ध्येय है, ऐमा मुझे अनुभव हुना।" काम उन्होने जहा छोडा था, वहीं से उठा लिया। इस काल का प्रथम चित्र मुगल-शैली पर बना था। चित्र का विषय था अन्तिम पुकार के लिए तैयार माहजहाँ अपने कैदखाने की खिड़की की जाली से दूर-ताज को अनिमेप आँखो मे निहार रहे है। उनकी अनुगत प्यारी लडकी जहाँनारा फर्श पर नीरव वैठी है। चित्र को दिल्ली दरखार और कांग्रेस प्रदर्शनी में भी दिखाया गया। उत्कृष्टतम कला-कृति के रूप में इसका समादर हया। समालोचको ने इसमें खूब रस लिया और चित्र-कला से अनभिज लोग भी इमकी उदात्त करुणा से आई हो गए। "इसमें क्या पाश्चर्य है कि मैंने अपनीआत्मा की पुकार इस चित्र में रख दी है।" उनकी आत्मा अव भी अपनी लडकी के लिए क्रन्दन कर रही थी। उन्होंने यह महान् दुःख रूपी मूल्य ही इस महान् कृति के लिए दिया था। इसके बाद ही श्री देवल ने मस्या की अववानता में भारतीय चित्रो की प्रदर्शनी की आयोजना की। इमी प्रदर्शनी के निलमिले में एक दिलचस घटना हुई। प्रदर्शन के नमूनो मे बहुत से अवनी वावू के स्टुडियो से आये थे। इनमें से एक पर चित्रो के प्रसिद्ध मग्राहक लॉर्ड कर्जन की आंख लग गई । हेवल ने अपने महकर्मी को यह चित्र वाइसराय को भेट नहीं देने दिया, बल्कि उमे कीमत लेकर वेचा। मूल्य यद्यपि उचित ही था, फिर भी लार्ड कर्जन को यह वीक न लगा। लॉर्ड कर्जन खूब धनवान थे। फिर भी अपने व्यक्तिगत खर्च पर बहुत कठोर दृष्टि रखते थे। परिणाम यह हुआ कि वाइसराय ने नौदा करने का निश्चय किया, लेकिन हैवल जरा भी विचलित न हुए। वहन मभव है कि हैवल इन चित्रों में से किसीको भी, किमी व्यक्तिगत संग्रह में, भारत से बाहर नहीं जाने देना चाहते हो। आखिर अवनी वावू ने सम्पूर्ण चित्रावली धी हवल को गुरुदक्षिणा के रूप में अर्पण कर दी। हैवल शिष्य की श्रद्धाजली को पाकर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होने इन चित्रो को पार्टीलरी में स्थिर रूप से प्रदर्शन के लिए रखवा दिया। तबतक नव्य-प्राच्य-स्कूल (Neo-Oriental school) अपने पथ पर भली प्रकार अग्रसर हो चुका था। इम शिल्पम्वामी के चारो ओर शिक्षार्थी जुटने लगे। अवनी वावू स्वय अपने विद्यार्थियो को चुनते थे और उनकी आंखो ने गिल्पियो को चुनने में कभी धोखा नही खाया। सर्वप्रथम श्री सुरेन्द्र गागुली आये, जो एक विरल प्रतिभासम्पन्न युवक थे। अकाल मृत्यु के कारण वे वीच में ही मुरझा गये। उनके बाद श्री नन्दलाल आये, जो इस समय अवनी वावू के शिष्यों में मवसे अधिक प्रिय है और जिन्हें भावी मन्तति के लिए नवज्योति ले जाने का एकान्त श्रेय प्राप्त हुआ है। श्री अमितकुमार हल्दार भी अपनी चतुर्मुखी दक्षता के माय आये। इन लोगो को अपने Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन - प्रथ ७३८ पास बिठाकर श्री अवनीन्द्र चित्र बनाते हुए विचित्र माध्यमो द्वारा परीक्षा करके पढाई और कला-चर्या द्वारा दिन भर काम में जुटे रहते थे । स्वदेशी आन्दोलन के प्रारंभिक दिनो मे अवनी बाबू ने अपने चाचा श्री रवीन्द्रनाथ के पथप्रदर्शन में सच्चे हृदय से काम किया । अन्त में उचित कारण से ही उन्होने अपने को आन्दोलन से अलग कर लिया । तो भी उन्होने स्वदेशी भावना का त्याग नही किया था । अपने नये स्कूल में उन्होने ऐसे माध्यम की स्थापना की, जिससे भारत के सास्कृतिक पहलू का सम्बन्ध है | आर्ट स्टूडियो में उन्ही दिनो हावी हुए भारतीय देवी-देवताओ के अशुद्ध रूप से वे घवरा उठे। उन्होने अपने शिष्यो को इस विषय मे सामान्य जनता की अभिरुचि को शिक्षित करने का आदेश दिया । शिष्यो को रामायण और महाभारत के पात्रो से परिचित करवाने के लिए एक पडित की नियुक्ति की गई और सारे देश में पौराणिक श्राख्यानो का निरूपण करने वाले विविध मूर्तिस्वरूपो की वडे श्रध्यवसाय के साथ खोज प्रारंभ हुई। शिष्यो द्वारा इस सरणी पर तैयार किये गये चित्रो ने जन-सामान्य को उन दिनो इतना प्रोत्साहित किया कि जिसकी स्वप्न में भी कल्पना न थी । निस्सन्देह सामान्य जनता चित्रो के गुणो को समझने में असमर्थ थी तो भी उसने अनुभव किया कि आखिर 'अपनी' कहने लायक वस्तु उसे मिल गई और जिसमे उसकी श्रात्म-प्रतिष्ठा कापुन उद्धार हो गया । अवनी वावू द्वारा प्राचीन शिल्प-सम्प्रदाय के विषय में लिखी पुस्तको और विभिन्न पत्रपत्रिकाओ मे दिये गये लेखो ने भी इस विषय की अच्छी भूमिका तैयार कर दी थी। चारो ओर से श्राशीर्वादो की वर्षा के साथ विशिष्ट जनो के श्राश्रय में प्राच्य कला समिति ( Oriental Art Society) की स्थापना हुई । शिल्पस्वामी के शब्दो में कहे तो "कोश के पन्नो में निरुद्ध भारतीयकला श्रव हरेक के मुंह में बस गई ।" लगभग इन्ही दिनो अवनी बाबू की शिल्प-प्रवृत्ति एक नई दिशा की ओर मुडी। बाहर से तो यह नवीन ही मालूम होती थी, पर वस्तुत यह प्रवृत्ति भारतीय परम्परा को जीवन के हरेक क्षेत्र में लाने के सुसगत विकास रूप ही थी। वे हरेक वस्तु को 'स्व-देशीय' बनाना चाहते थे । और ऐसा क्यो न हो ? शिक्षित वर्ग की प्रादतें भद्दे ढंग से अपनाई गई पाश्चात्य सस्कृति को अपने ऊपर लादने के कारण इतनी बदल गई थी कि यह श्रद्भुत मिश्रण पहचाना भी नही जाता था । अवनी बाबू ने इन सब को बदलने का निश्चय किया। राजसी ठाठ वाट वाले ठाकुरो के महलो से पुराना कीमती यूरोपीय फर्नीचर एकदम वाहर कर दिया गया और उसके स्थान पर भारतीय रीतिरिवाजो और प्राकृतिक श्रवस्थाओं के अनुकूल सिद्ध होने वाले स्वयं अपने ही निरीक्षण में बनवाये फर्नीचर के विभिन्न नमूने लगवाये । स्थापत्य के नमूने, भवन और रंगशाला की सज्जा- वेशभूषा, चित्रो के फ्रेम छोटे से लेकर वडे तक किसी की उपेक्षा किये बिना सब पर उन्होने व्यक्तिगत ध्यान दिया । नवजाग्रत भारतीय सौन्दर्य-ज्ञान श्रात्मज्ञान के यथायं पक्ष पर प्रवृत्त करना ही उनका मुख्य उद्देश्य था । भारत के विभिन्न स्थलो पर अच्छे पदो पर प्रतिष्ठित उनके शिष्यो ने उनके द्वारा इस दिशा में दिखाये गये पथ का श्रद्धा और निष्ठा के साथ अनुसरण किया । वास्तव में इस शिल्प- स्वामी की सबसे बडी देन ही यही है कि उन्होने अपने सम्प्रदाय को श्रागे ले जाने वाले एक शिल्पी मण्डल का सर्जन किया। इन कलाकारों में से कुछ ने (उदाहरण के लिए दो का ही नाम लेते हैं श्री नन्दलाल और श्री असित कुमार हल्दार ने) कला-स्वामी का पद अधिकार- पूर्वक ही पाया है। अवनी बाबू की शिक्षण-पद्धति उन्ही के शब्दों में यह है "किसी वस्तु को दूसरे पर लादने की जरूरत नही । सनातन काल से चले आये पाठो को सिखाने से भी कोई लाभ नही । केवल उनके पथ की वाघात्रो को हटा दो, जिससे उन की प्रतिभा को निर्वाध होकर खिलने का अवसर मिल सके।" लेकिन इसके लिए प्रतिभा का होना श्रावश्यक हैं, साथ ही चतुर्मुखी सस्कारिता भी जरूरी है । इन थोडे से शिल्पकारो को भारत के शिल्प-आन्दोलन का श्रेय प्राप्त है । अपनी शिक्षण-पद्धति को समझाने के लिए अवनी बाबू स्वय एक कथा कहा करते है कि किस प्रकार जव उन्हे नन्द बाबू का 'उमा का परिताप' नामक चित्र, जो तभी से बडा प्रसिद्ध हो गया, दिखाया गया तो उन्होने चित्र में थोडे से परिवर्तन सुझाये, लेकिन घर जाने पर वे बेचैन हो गये । वे स्वय कहते है, "मैं सारी रात सो नही सका ।" दिन उगते ही अपने शिष्य के स्टुडियो दौडे गये और अन्त में चित्र को खराब होने से बचाया। उन्होने स्वीकार किया है कि यथासमय ही उन्हें अपनी Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक कलाकार का निर्माण ग़लती का भान हो गया था । " नन्दलाल की कल्पना के बीच में पडने वाला मैं कौन हूँ । नन्दलाल ने उग्रतप-निरता उमा की कल्पना की थी । इसीलिए उसका रग-विधान कठोर होना ही चाहिए था । उसे मैं अपने सुझावो से खराव कर रहा था।" ७३६ उन्होने अपने शिष्यो को सारे हिन्दुस्तान में इवर-उवर बिखरे हुए प्राचीन चित्रो, मूर्तियों और स्थापत्य के स्मारको का अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित किया । इस अनुशीलन का हेतु था कि उन्हें प्रेरणा मिले । इसे कभी श्रात्मप्रकटीकरण में वावक मिद्ध होने नही दिया गया। अपने शिष्यो को कला के नये प्रदेश जीतने में उन्होने कभी अनुत्साहित नही किया । उन्होने स्वय पाश्चात्य प्रभाव से हट कर भारतीय शैली को पूर्ण रूप से अपनाया था। तो भी वे " युरोपियन अथवा प्राचीन भारतीय कला के वन्चन को न मानने वाली वर्तमान स्वस्थ मानस-गति में विक्षेप करना नही चाहते थे”, जैमा कि भारतीय कला के एक यूरोपियन अभ्यासी ने ययार्थ ही कहा है । वे इसीलिए अपने शिष्यो को इतनी स्वतन्त्रता दे सके, क्योंकि उन्हें विकामोन्मुख कलियो में, इतने समृद्ध रूप में प्रकट हुई पुनरुज्जीवित भारतीय कला की प्रमुप्त शक्ति में नम्पूर्ण विश्वास और श्रद्धा" थी । भारतीय गुरु की यह परिपाटी विश्व-भारतीकला-भवन के केन्द्र मॅ, जिसका सचालन उनके प्रधान शिष्य श्री नन्दलाल वसु निष्ठा-पूर्वक कर रहे है, खूब पनप रही है । यह तो हुआ प्रेरक और मार्गदर्शक अवनी बाबू के विषय में । शिल्पी अवनी बाबू ने अपनी प्रेरणा को रूप देने में, उन्ही के अपने शब्दो में "एक के बाद एक श्रमफलता" का सामना किया है । "हृदय की व्यथा से मैने क्याक्या दुख नही महा है, और ग्रव भी मह रहा हूँ ।" पर यह सभी कलाकारो के भाग्य में होता है । जैसे श्रात्मा शरीर से अवरुद्ध है, उसी प्रकार प्रेरणा अपूर्णता से आवद्ध है । केवल एक या दो वार पूर्णता से होने वाले इस परमानन्द का उन्हें अनुभव हुआ है । वे कहते हैं, "चित्रावली को चकित करते समय पहली बार मुझे इस श्रानन्द का अनुभव हुआ था । मुझ में और चित्र के विषय में पूर्ण एकात्मता सघ गई थी । कृष्ण की बाललीला जैसे मेरे मन की आँखो के मामने हो रही हो । मेरी तूलिका स्वयं चलने लगती और चित्र मम्पूर्ण रेखा और रंगो में चित्रित होते जाते ।" दूसरी बार जब वे अपनी स्वर्गीया माता के, जिनके प्रति श्रवनी बाबू की अनन्त भक्ति थी, मुख को याद करने का प्रयत्न कर रहे थे तव उन्हें इसी प्रकार का अनुभव हुआ था । "यह दृष्टिकोण पहले तो ज़रा बुंधला सा था और माँ का मुख मुझे वादलो से घिरे अस्तोन्मुख सूर्य मा लगा । इसके वाद मुखाकृति धीरे-धीरे इतनी स्पष्ट हो गई कि अङ्ग-प्रत्यङ्ग के साथ उद्भासित हो उठी। फिर मुखाकृति मेरे मन पर अपनी स्थिर छाप छोड कर धीरे-धीरे विलीन हो गई। मेरे किये गये मुखो के अध्ययन में चित्रो में सबसे अच्छा निरूपण इसका ही है ।" ऐसे अनुभव इने-गिने लोगो के लिए भी दुर्लभ होते हैं । अवनी बाबू की उमर इस समय सत्तर से भी अधिक है । वे अव नये क्षेत्र में काम में तत्पर है। सर्जन की प्रेरणा उनमें विद्यमान है, नही तो उनका शरीर निष्प्राण हो गया होता । निस्सन्देह वे जीवन से अवकाश ग्रहण कर चुके हैं, लेकिन रहते है अपने सर्जन के अन्त पुर में ही । वाहर की वैठक अव उजड गई है । समालोचको की चर्चाएँ वन्द हो गई है । अतिथि अभ्यागत विदा ले चुके है, उत्सवे ममाप्त हो गया है और वत्तियाँ वुझ गई है । अन्त पुर में जहाँ किमी का भी प्रवेश नहीं है - वे कला की देवी के साथ खेल रहे हे । उपहार हे खिलोने, लेकिन वे इतने बहुमूल्य है कि समालोचको अथवा अतिथियों के लिए स्तुति या आश्चर्य - मुग्ध होने के लिए बाहर की बैठक मे नही भेजे जाते । "माँ की गोद में वापिस जाने की तैयारी का समय आ पहुंचा है और इसलिए में एक बार फिर वालक बन कर खेलना चाहता हूँ ।" अथवा नन्दवावू के गब्दो मे "अव वे दूरवीन के तालो को उलटा कर देखने में व्यस्त है ।" कुछ भी हो, भगवान् करे उनकी दृष्टि (Vision) कभी घुंवली न हो और खेल निरतर चलता रहे । ( अनुवादक - श्री शकरदेव विद्यालकार) Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दनीय प्रेमी जी श्री जुगलकिशोर मुख्तार मुझे यह जानकर वडी प्रसन्नताह किश्रीमान् पडित नायूराम जी प्रेमी को अभिनन्दन-प्रथ भेंट किया जा रहा है। प्रेमी जी ने समाज और देश की जो सेवाएं की है, उनके लिए वे अवश्य ही अभिनन्दन के योग्य है। अभिनन्दन का यह कार्य बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था, परन्तु जव भी समाज अपने सेवको को पहचाने और उनकी कद्र करना जाने तभी अच्छा है। प्रेमी जी इस अभिनन्दन को पाकर कोई वडे नही हो जावेगे-वे तो बड़े कार्य करने के कारण स्वत बडे है परन्तु समाज और हिन्दी-जगत उनकी सेवामओ के ऋण से कुछ उमण होकर ऊँचा जरूर उठ जायगा। साथ ही अभिनन्दन-अथ में जिस साहित्य का सृजन और सकलन किया गया है उसके द्वारा वह अपने ही व्यक्तियो की उत्तरोत्तर सेवा करने में भी प्रवृत्त होगा। इस तरह यह अभिनन्दन एक ओर प्रेमीजी का अभिनन्दन है तो दूसरी ओर ममाज और हिन्दी-जगत् की सेवा का प्रवल साधन है और इसलिए इससे 'एक पन्य दो काज वाली कहावत वडे ही सुन्दर रूप में चरितार्थ होती है । प्रेमी जी का वास्तविक अभिनन्दन तो उनकी सेवायो का अनुसरण है, उनको निर्दोष कार्य-पद्धति को अपनाना है, अथवा उन गुणो को अपने मे स्थान देना है, जिनके कारण वे अभिनन्दनीय वने है। प्रेमी जो के माय मेरा कोई चालीस वर्ष का परिचय है । इस प्रम में उनके मेरे पास करीब सात सौ पन आए हैं और लगभग इतने ही पत्र मेरे उनके पास गए है। ये सब पत्र प्राय जैन साहित्य, जैन-इतिहाम और जनसमाज की चिन्तामो, उनके उत्थान-पतन की चर्चाओ, अनुसवान कार्यों और सुधारयोजनायो आदि से परिपूर्ण है । इन पर से चालीस वर्ष को सामाजिक प्रगति का सच्चा इतिहास तैयार हो सकता है । सच्चे इतिहास के लिए व्यक्तिगत पत्र वही ही काम की चीज होते हैं। सन् १९०७ में जब मै साप्ताहिक 'जैन-गजट' का सम्पादन करता था तव प्रेमी जी 'जैनमिन', वम्बई के आफिस में क्लर्क थे। भाई शीतलप्रसाद जी (जो वाद को ब्रह्मचारी शीतलप्रसाद जी के नाम से प्रसिद्ध हुए) के पत्र से यह मालूम करके कि प्रेमी जी ने 'जैनमित्र' की क्लर्की से इस्तीफा दे दिया है, मैने अक्तूबर मन् १९०७ के प्रथम सप्ताह में प्रेमी जो को एक पत्र लिखा था और उसके द्वारा उन्हें 'जनगजट' आफिस, देववन्द में हेड क्लर्की पर आने की प्रेरणा की थी, परन्तु उस वक्त उन्होने वम्बई छोडना नही चाहा और वे तव से बम्बई में ही बने हुए है। ८ जनवरी सन् १६०८ के जनगजट' में मैने 'जनमित्र' की, उसके एक आपत्तिजनक एव आक्षेपपरक लेख के कारण, कडी आलोचना की, जिससे प्रेमी जी उद्विग्न हो उठे और उन्होने उसे पढते ही १० जनवरी सन् १९०८ को एक पत्र लिखा, जिससे जान पडा किप्रेमीजी का सम्बन्ध 'जनमित्र' से बना हुआ है। समालोचना की प्रत्यालोचना न करके प्रेमी जी ने इस पत्र के द्वारा प्रेम का हाथ बढाया और लिखा-"जबसे 'जैनगजट' आपके हाथ में आया है, जैनमित्र' वरावर उसकी प्रशसा किया करता है और उसकी इच्छा भी मापसे कोई विरोध करने की नहीं है।'' जो हो गया सो हो गया। हमारा समाज उन्नत नहीं है, अविद्या बहुत है, इसलिए आपके विरोध से हानि की शका की जाती है। नहीं तो आपको इतना कष्ट नहीं दिया जाता। आप हमारे धार्मिक बन्धु है और आपका तथा हमारा दोनो का ध्येय एक है। इसलिए इस तरह शत्रुता उत्पन्न करने की कोशिश न कीजिए। 'जैनमित्र' से मेरा सम्बन्ध है। इसलिए आपको यह पत्र लिखना पडा।" इस पत्र का अभिनन्दन किया गया और १५ जनवरी को ही प्रेमपूर्ण शब्दो में उनके पत्र का उत्तर दे दिया गया। इन दोनो पत्रो के आदान-प्रदान से ही प्रेमी जी के और मेरे बीच मित्रता का प्रारम्भ हुआ, जो उत्तरोत्तर वढती ही गई और जिससे सामाजिक सेवाकार्यों में एक को दूसरे का सहयोग बरावर प्राप्त होता रहा और एक दूसरे पर अपने दुख-सुख को भी प्रकट करता रहा है । Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिनन्दनीय प्रेमी जी ७४१ इसी मित्रता के फलस्वरूप प्रेमी जी के अनुरोध पर मेरा सन् १९२७ और १९२८ में दो बार बम्बई जाना हुआ और उन्ही के पास महीना दो-दो महीना ठहरना हुआ। प्रेमी जी भी मुझसे मिलने के लिए दो-एक वार सरसावा पधारे। अपनी सख्त वीमारी के अवसर पर प्रेमी जी ने जो वसीयतनामा ( will ) लिखा था। उसमें मुझे भी अपना ट्रस्टी बनाया था तथा अपने पुत्र हेमचन्द्र की शिक्षा का भार मेरे सुपुर्द किया था, जिसकी नौवत नही आई। अपने प्रिय पत्र 'जनहितैषी' का सम्पादन-भार भी वे मेरे ऊपर रख चुके है, जिसका निर्वाह मुझसे दो वर्ष तक हो सका। उसके बाद से वह पत्र बन्द ही चला जाता है। इनके अलावा उन्होने 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' की प्रस्तावना लिख देने का मुझसे अनुरोध किया और मैने कोई दो वर्ष का समय लगा कर रत्नकरण्ड की प्रस्तावना ही नहीं लिखी, बल्कि उसके कर्ता स्वामी समन्तभद्र का इतिहास भी लिख कर उन्हें दे दिया। यह इतिहास जब प्रेमी जी को समर्पित किया गया और उसके समर्पण-पत्र में उनकी प्रस्तावना लिख देने की प्रेरणा का उल्लेख करने तथा उन्हे इतिहास को पाने का अधिकारी बतलाने के अनन्तर यह लिखा गया कि-"आपकी समाज-सेवा, साहित्यसेवा, इतिहासप्रीति, सत्यरुचि और गुणज्ञता भी सब मिलकर मुझे इस बात के लिए प्रेरित कर रही है कि मैं अपनी इस पवित्र और प्यारी कृति को आपकी भेट करूं। अत मै आपके करकमलो में इसे सादर समर्पित करता हूँ। आशा है, आप स्वय इससे लाभ उठाते हुए दूसरो को भी यथेष्ट लाभ पहुंचाने का यत्ल करेंगे," साथ ही एक पत्र द्वारा इतिहास पर उनकी सम्मति मांगी गई और कही कोई सशोधन की जरूरत हो तो उसे सूचना-पूर्वक कर देने की प्रेरणा भी की गई, तब इस सव के उत्तर मे प्रेमी जी ने जिन शब्दो का व्यवहार किया है, उनसे उनका सौजन्य टपकता है । १५ मार्च सन् १९२५ के पत्र में उन्होने लिखा "मैं अपनी वर्तमान स्थिति मे भला उस (इतिहास) में सशोधन क्या कर सकता हूँ और सम्मति ही क्या दे सकता हूँ। इतना मै जानता हूँ कि आप जो लिखते है वह सुचिन्तित और प्रामाणिक होता है। उसमें इतनी गुजाइश ही आप नही छोडते है कि दूसरा कोई कुछ कह सके। इसमें सन्देह नहीं कि आपने यह प्रस्तावना और इतिहास लिख कर जैन-समाज मे वह काम किया है, जो अब तक किसी ने नही किया था और न अभी जल्दी कोई कर ही सकेगा। मुर्ख जन-समाज भले ही इसकी कदर न करे, परन्तु विद्वान आपके परिश्रम की सहस्र मुख से प्रशसा करेंगे। आपने इममे अपना जीवन ही लगा दिया है। इतना परिश्रम करना सबके लिए सहज नही है । मै चाहता हूँ कि कोई विद्वान् इसका माराश अग्रेजी पत्रो मे प्रकाशित कराये। बाबू हीरालाल जी को मै इस विषय में लिखूगा। इडियन एटिक्वेरी वाले इसे अवश्य ही प्रकाशित कर देगे। "क्या आप मुझे इस योग्य समझते है कि आपकी विद्वन्मान्य होने वाली यह रचना मुझे भेंट की जाय ? अयोग्यो के लिए ऐसी चीजे सम्मान का नही, कभी-कभी लज्जा का कारण बन जाती है , इसका भी आपने कभी विचार कियाहै ? मैं आपको अपना बहुत ही प्यारा भाई समझता हूँ और ऐसा कि जिसके लिए मै हमेगा मित्रो मे गर्व किया करता हूँ। जैनियो में ऐसा है ही कोन, जिसके लेख किसी को गर्व के साथ दिखाये जा सके ?" इस तरह पत्रो पर से प्रेमी जी की प्रकृति, परिणति और हृदयस्थिति का कितना ही पता चलता है। नि सन्देह प्रेमी जी प्रेम और सौजन्य की मूर्ति है। उनका प्रेमी' उपनाम बिल्कुल सार्थक है। मैने उनके पास रह कर उन्हे निकट से भी देखा है और उनके व्यवहार को सरल तथा निष्कपट पाया है। उनका आतिथ्य-सत्कार सदा ही सराहनीय रहा है और हृदय परोपकार तथा सहयोग की भावना से पूर्ण जान पडा है। उन्होने साहित्य के निर्माण और प्रकाशन-द्वारा देश और समाज की ठोस सेवाएं की है और वे अपने ही पुरुषार्थ तथा ईमानदारी के साथ किये गए परिश्रम के बल पर इतने वडे बने है तथा इस रुतबे को प्राप्त हुए है। अत अभिनन्दन के इस शुभ अवसर पर मैं उन्हें अपनी हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पण करता हूँ। सरसावा] Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी जी श्री बनारसीदास चतुर्वेदी आज से अट्ठाईस वर्ष पहले प्रेमी जी के दर्शन इन्दौर में हुए थे। स्थान का मुझे ठीक-ठीक स्मरण ,नहीं, शायद लाला जगमदिरलाल जी जज साहब की कोठी पर हम दोनों मिले थे। इन्दौर में महात्मा गान्धी जी के समापतित्त्व में सन् १९१८ में हिन्दी साहित्य-सम्मेलन का जो अधिवेशन हुआ था, उसी के आसपास का समय था। प्रेमी जी की ग्रन्थ-माला की उन दिनों काफी प्रसिद्धि हो चुकी थी और प्रारम्भ में ही उसके बारह सौ स्थायी ग्राहक बन गये थे। उन दिनो भी, मेरे हृदय में यह आकाक्षा थी कि "हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर-कार्यालय' से मेरी किसी पुस्तक काप्रकाशन हो, पर प्रमादवश में अपनी कोई पुस्तक उनकी ग्रन्था-माला में आज तक नहीं छपा सका। सुना है, जनशास्त्रो में सोलह प्रकार का प्रमाद बतलाया है । सत्रहवें प्रकार के प्रमाद (साहित्यिक प्रमाद) का प्रेमी जी को पता ही नही। इसलिए पच्चीस वर्ष तक वे इसी उम्मेद में रहे कि शायद उनकी ग्रन्थ-माला के लिए मै कुछ लिख सकूगा। प्रेमी जी का यह वडा भारी गुण है कि वे दूसरों की त्रुटि के प्रति सदा क्षमाशील रहते है। अनेक साहित्यिकों ने उनके साथ घोर दुर्व्यवहार किया है, पर उनके प्रति भी वे कोई द्वेष-भाव नहीं रखते। प्रेमी जी के जीवन का एक दर्शन-शास्त्र है। उसे हम सक्षेप में यो कह सकते है-खूब डट कर परिश्रम करना, अपनी शक्ति के अनुसार कार्य हाथ में लेना, अपने वित्त के अनुसार दूसरो की सेवा करना और सब के प्रति सद्भाव रखना। यदि एक वाक्य में कहें तो यो कह सकते है कि प्रेमी जी सच्चे साधक है। पिछले भट्ठाईस वर्षों में प्रेमी जी से बीसियो बार मिलने का मौका मिला है। सन् १९२१ में तो कई महीने बम्बई में उनके निकट रहने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ था और विचार-परिवर्तन के पचासो ही भवसर मुझे प्राप्त हुए है। प्रेमी जी को कई बार कठोर चिट्टियां मने लिखीं, कई दफा वाद-विवाद में कटु आलोचना भी की और अनेक बार चाय के नशे में उनके घटे पर घटे वर्वाद किये, पर इन अट्ठाईस वर्षों में मैने प्रेमी जो को कभी अपने ऊपर नाराज या उद्विग्न नहीं पाया। क्या मजाल कि एक भी कठोर शब्द कभी उनकी कलम से निकला हो अथवा कमी भूल कर भी उन्होने अपने पत्र में कोई कटुता पाने दो हो। अपनी भाषा और भावों पर ऐसा स्वाभाविक नियंत्रण केवल साधक लोग ही कर सकते है, हाँ, कृत्रिम नियत्रण की बात दूसरी है। वह तो व्यापारी लोग भी कर ले जाते है। प्रेमी जी के आत्म-सयम का भाषार उनकी सच्ची धार्मिकता है, जब कि व्यापारियों के सयम की नीव स्वार्थ पर होती है। प्रेमी जी का प्रथम पत्र प्रेमी जी का प्रथम पत्र, जो मेरे पास सुरक्षित है, आसोज बदी १२, संवत् १९७६ का है । सत्ताईस वर्ष पूर्व के इस पत्र को मै गहाँ कृतज्ञता-स्वरूप ज्यों-का-त्यो उद्धृत कर रहा हूँ। प्रिय महाशय, ___ तीन-चार दिन पहले मैं महात्मा गाधी जी से मिला था। आपको मालूम होगा कि उन्होने गुजराती में 'नवजीवन' नाम का पत्र निकाला है और अब वे हिन्दी में भी 'नवजीवन' को निकालना चाहते है। इसके लिए उन्हें एक हिन्दी-सम्पादक की आवश्यकता है। मुझे उन्होने आज्ञा दी कि एक अच्छे सम्पादक की मै खोज कर दूं। परसो उनके 'नवजीवन' के प्रबधकर्ता स्वामी आनन्दानन्द जी से भी मेरी भेंट हुई। मैने आपका जिक्र किया तो उन्होने मेरी सूचना को बहुत ही उपयुक्त समझा। उन्होने आपकी लिखी हुई 'प्रवासी भारतवासी' प्रादि पुस्तकें पढ़ी है। Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधक प्रेमी ली ७४३ "क्या आप इन कार्य को करना पनन्द करेंगे? वेतन आप जो चाहेंगे, वह मिल सकेगा। इसके लिए कोई विवाद न होगा। "मेरी समझ में आपके रहने में पत्र की दशा अच्छी हो जायगी और आपको भी अपने विचार प्रकट करने का उपयुक्त क्षेत्र मिल जायगा। गावी जी के पास रहने का सुयोग अनायान प्राप्त होगा। "पत्र का आफिस अहमदाबाद में या बम्बई में रहेगा। "गुजराती की १५ हजार प्रतियां निकलती है। हिन्दी की भी इतनी ही या इससे भी अधिक निकलेंगी। “पत्रोत्तर शीघ्र दीजिए। भवदीय नायूराम यद्यपि पत्र का प्रारम्भ 'प्रिय महागय और अन्न भवदीय' से हुआ है, तथापि उसनेप्रेमी जो की आत्मीयता स्पष्टनया प्रकट होती है। प्रेमी जी जानते थे कि राजकुमार कालेज इन्दौर की नौकरी के कारण मुझे अपने नाहित्यिक व्यक्तित्व को विकसित करने का मौका नहीं मिल रहा था। इसलिए उन्होंने महात्मा जी के हिन्दी-'नवजीवन' के लिए मेरी निफारिग करके मेरे लिए विचारों को प्रकट करने का उपयुक्त क्षेत्र तलाग कर दिया था। खेद की वात है कि मैं उन नमय 'नवजीवन' में नहीं जा सका। मैं गुजराती विल्कुल नहीं जानता था। इसलिए मैने उस कार्य के लिए प्रयल भी नहीं किया। आगे चलकर बन्वुवर हरिभाऊ जो ने, जो गुजराती और मराठी दोनो के ही अच्छे जाता रहे हैं, बड़ी योग्यतापूर्वक हिन्दी नवजीवन' का सम्पादन किया। शायद मेरी मुक्ति को काललब्धि नहीं हुई थी। प्रेमी जी के उक्त पत्र के साल नर वाद दीनदन्यूऍडज़ के आदेश पर मैने वह नौकरी छोड़ दी और उनके मवा माल बाद महात्मा जी के आदेशानुनार मै वम्बई पहुंच गया, जहां कई महीने तक प्रेमी जी के सत्लग का मुभवमर मिला। आत्मीयता के माय उपयोगी परामर्ग देने का गुण मैने प्रेमी जी में प्रथम परिचय ने ही पाया था और फिर वम्बई में तो उन्हीं की छत्रछाया में रहा। कच्चा दूध अमुक मुसलमान की दुकान पर अन्दा मिलता है, दलिया वहाँ से लिया करो, व्हलने का नियम बम्बई में अनिवार्य है, भोजन की व्यवस्था इस ढग मे करो और अमक महाभय मे माववान रहना, क्योकि वे उवार के रुपये आमदनी के खाते में लिखते हैं। इत्यादि कितने ही उपदेश उन्होने मझे दिये थे। यही नहीं, मेरी भोजन-सम्बन्वी अनाध्य व्यवस्था को देखकर मुझे एक अन्नपूर्णा-कुकर भी खरिदवा दिया था। यदि अपने वम्बई-प्रवान ने मै नकुगल ही नहीं, तन्दुरुस्त भी लौट सका तो उसका श्रेय प्रेमी जी कोही है। वम्बई में मने प्रेमी जी को नित्यप्रति ग्यारह बारह घटे परित्रम करते देखा था । सवेरे नात से वारह वजे तक और फिर एक ने छ तक और तत्पश्चात् रात में भी घटे दो घटे काम करना उनके लिए नित्य का नियम था। उनकी कठोर सावना को देखकर आश्चर्य होता था। अपने ऊपर वे कम-ने-कम खर्च करते थे। घोडा-गाडी में भी वैठने हुए प्रेमी जी को मैने कभी नहीं देखा, मोटर की वात तो बहुत दूर रही। वम्बई के चालीन वर्ष के प्रवास के बाद भी बम्बई के अनेक भाग ऐने होगे, जहाँ प्रेमी जो अब तक नहीं गये। प्रात काल के समय घर से व्हलने के लिए सनुद-तट तक और तत्पश्चात् घर ने दुकान और दुकान से घर, वम प्रेमी जी की दौड इसी दायरे मे सोमित थो, और कभी-कभी तो टहलने का नियम भी टूट जाता था। अनेक वार प्रेमी जी का यह आदेश मुझे भी मिला था, "चौबेजी, अाज मुझे तो दुकान का बहुत-सा काम है। इसलिए आज हेम ही आपके माय जायगा।" प्रेमी जी प्रत्येक पत्र का उत्तर अपने हाथ से लिखते थे (इस नियम का वे अब तक पालन करते रहे है), फ़्फ़ स्वय ही देखतये, अनुवादो की भाषा को मूल से मिलाकर उनका नशोधन करते थे और आने-जाने वालो से बातचीत भी करते थे। वम्बई पधारने वाले नाहित्यिको का आतिथ्य तो मानो उन्ही के हिने में आया था। मैंने उन्हें सप्ताह Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ प्रेमी-अभिनंदन-थ के सातो दिन और महीनों के तीसों दिन बिना किसी उद्विग्नतों के काम करते देखा था। उम्र में और, अंकल में भी छोटे होने पर भी मैं उन दिनो प्रेमी जी का मजाक उडाया करता था, "आप भी क्या तेली के बैंलें । की तरह लगे रहते है, घर से दूकान और दूकान से घरं। इसे चक्कर से कभी वाहिर ही नहीं निकलते।" पर उस परिश्रमशीलता का मूल्य में आगे चल कर आंक पाया, जब मैने देखा कि उसी के कारण प्रेमी जी हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ प्रकाशक बन गये, उसी की वजह से बीसियों लेखको की रचनाएं शुद्ध छप सकी, उन्हें हिन्दी-जगत में प्रतिष्ठा मिल सकी और मातृभाषा के भडार में अनेक उपयोगी अन्यो, की वृद्धि हो सकी। प्रेमी जो प्रारम्भ से ही मितभाषी रहे है और वातून आदमियों से उनकी अक्कल बहुत चकराती है। हमारी कमी खतम न होने वाली-'हितोपदेश' के यमनक दमनक के किस्सो की तरह प्रासगिक अथवा अप्रासगिक विस्तार' से श्रोता के मगज को चाट जाने वाली बातो को सुनकर वे अनेक बार चकित, स्तब्ध और स्तम्भित रह गये है और एकाध बार बडे दवे शब्दो में उन्होने हमारे मित्रों से कहा भी है, "चौबे जी इतनी वातें कैसे कर लेते हैं, हमें तो इसी पर आश्चर्य होता है।" प्रेमी जी के विषय में लिखते हुए हम इस बातपर खास तौर पर जोर देना चाहते हैं कि अत्यन्तं साधारण, स्थिति से उन्होने अपने आपको ऊंचा उठाया है। आज का युग जन-साधारण का युग है और प्रेमी जी साधारण-जन के प्रतिनिधि के रूप में वन्दनीय है। प्रेमी जो को व्यापार में जो सफलता मिली है, उसका मूल्य हमारी निगाह में बहुत ही कम है, बल्कि नगण्य है। स्व० रामानन्द चट्टोपाध्याय ने हमसे कहा था, "यह असभव है कि कोई भी व्यक्ति दूसरो का शोषण किये बिना, लखपती बन जाय।" जब अर्थ-सग्रह के मूल में ही दोष विद्यमान है तो प्रेमी जी इस अपराध से बरी नहीं हो सकते। पर हमें यहां उनकी आलोचना नही करनी, बल्कि अपनी रुचि की बात कहनी है। हमारे लिए भाकर्षण की वस्तु प्रेमी जो का सघर्षमय जीवन ही है। जरा कल्पना कीजिए, प्रेमी जी के पिता जी टूडेमोदी घोडे पर नमक-गुड वगैरह मामान लेकर देहात में बेचने गये हुए है और दिन भर मेहनत करके चार-पांच पाने पैसे कमा कर लाते हैं। घर के आदमी अत्यन्त दरिद्र अवस्था में है। जो लोग मोदी जी से कर्ज ले गये थे, वे देने का नाम नहीं लेते। रूखा-सूखा जो कुछ मिल जाता है, उसी से सब घर पेट भर लेता है। इस अवस्था में भी यदि कोई संकटग्रस्त भादमी उधार मांगने आता है तो मोदी जी के मुंह से 'ना' नहीं निकलती। इस कारण वे कर्जदार भी हो गये थे। स्व० हेमचन्द्र - ने लिखा था "एक वार की बात है कि घर में दाल-चावल पक कर तैयार हुए थे और सब खाने को वैठने वाले ही थे कि, साहूकार कुडकी लेकर पाया। उसने वसूली में चूल्हे पर का पीतल का बर्तन भी मांग लिया। उससे कहा गया कि . भाई, थोडी देर ठहर, हमें खाना खा लेने दे, फिर बर्तन ले जाना, पर उसने कुछ न सुना। वर्तन वहीं राख में उडेल' दिय । खाना सव नीचे राख में मिल गया और वह बर्तन लेकर चलता बना। सारे कुटुम्ब को उस दिन फाका करना पड़ा।" तत्पश्चात् हम प्रेमी जी को देहाती मदरसे में मास्टरी करते हुए देखते है, जहां उनका वेतन छ सात रुपये मासिक था। उनमें से वे तीन रुपये में अपना काम चलाते थे और चार रुपये घर भेज देते थे। उनकी इस बात से हमें अपने पूज्य पिताजो को किफायतशारी को याद आ जाती है। वे पचास वर्ष तक देहाती स्कूलो में मुंदरिस रहे, और उनका औसत वेतन दस रुपये मासिक रहा। दरअसल प्रेमी जो हमारे पिता जो की पीढी के पुरुष है, जो परिश्रम तथा सयम में विश्वास रखती थी और ' जिसकी प्रशसनीय मितव्ययिता से लाभ उठाने वाले मनचले लोग उसी मितव्ययिता को कसी के नाम से पुकारते. हैं! जहाँ प्रेमी जो एक-एक पैसा बचाने की मोर ध्यान देते है वहाँ समय पड़ने पर सैकडो रुपये दान करने में भी वे. Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधक प्रेमी जी ७४५ नहीं हिचकिचाते। अपनी किफायतशारी के कारण ही वे स्वाभिमान की रक्षा कर सके है। यही नहीं, कितने ही लेखकों को भी उनके स्वाभिमान की रक्षा करने में वे महायक हुए है। प्रेमी जी का सम्पूर्ण जीवन सघर्ष करते ही बीता है और जब उनके आराम के दिन आये तव घोर देवी दुर्घटना ने उनके सारे मनसूबो पर पानी फेर दिया | देव की गति कोई नही जानता | ईश्वर ऐमा दुख किसी को भी न दे। उक्त वज्रपात का ममाचार प्रेमी जी ने हमें इन शब्दो में भेजा था "मेरा भाग्य फूट गया और परमो रात को १२ वजे प्यारे हेमचन्द्र का जीवन-दीप बुझ गया। अव सव ओर अन्धकार के सिवाय और कुछ नही दिखालाई देता। कोई भी उपाय कारगर नहीं हुअा। बहू का न थमने वाला आफन्दन छाती फाड रहा है। उसे कैसे समझाऊँ, समझ में नहीं आता। रोते-रोते उसे गश आ जाते है। विधि की लीला है कि म माठ वर्ष का बूढा बैठा रहा और जवान वेटा चला गया। जो वात कल्पना मे भी न थी, वह हो गई। ऐसा लगताहै कि यह कोई स्वप्न है, जो शायद झूठ निकल जाय।" अाज मे दम वर्ष पहले यही वज्रपात हमारे स्वयि पिता जी पर हुआ था। हमारे अनुज रामनारायण चतुबंदी का देहान्त ६ अक्टूबर मन् १९३६ को कलकत्ते में हुआ था। अपने पिता जी की स्थिति की कल्पना करके हम प्रेमीजी को घोर यातना का कुछ-कुछ अन्दाज़ लगा मके। जर्मनी के महाकवि गेटे को निम्नलिखित कविता चिरस्मरणीय है “Who never ate his bread in sorrow Who never spent the midnight hours Weeping and waiting for the morrow He knows you not, ye heavenly powers" अर्थात्--"ए दैवी-यक्तियो । वे मनुष्य तुम्हें जान ही नहीं सकते, जिन्हें दुःखपूर्ण समय मे भोजन करने का दुर्भाग्य प्राप्त नहीं हुया तथा जिन्होने रोते हुए और प्रात काल की प्रतीक्षा करते हुए राते नहीं काटी।" जिनके जीवन को धारा विना किसी रुकावट के सीधे-सादे ढङ्ग पर वहती रहती है, जिनको अपने जीवन में कभी भयकर दुखो का सामना नही करना पडता, वे प्रेमी जो की हृदय-वेदना की कल्पना भी नही कर सकते। समान अपराधी एक वात मे प्रेमी जी और हम समानरूप से मुजरिम है । जो अपराव हमसे वन पडा था, वही प्रेमी जो से। हमारे स्वर्गीय अनुज रामनारायण ने प० पद्मसिंह जी से कई वार शिकायत की थी "दादा दुनिया भर के लेख छापते है, पर हमे प्रोत्साहन नही देते।" यही शिकायत हेमचन्द को अपने दादा (पिता जी) से रही । प्रेमी जी ने अपने सस्मरणो मे लिखा था यो तो वह अपनी मनमानी करने वाला प्रवाध्य पुत्र था, परन्तु भीतर से मुझे प्राणो से भी अधिक चाहता था। पिछली वीमारी के समय जव डा० करोडे के यहां दमे का इजैक्शन लेने वाँदरा गया तव मेरे शरीर में खून न रहा था । डाक्टर ने कहा कि किसी जवान के खून की ज़रूरत है । हेम ने तत्काल अपनी वाह वढा दी और मेरे रोकतेरोकते अपने शरीर का प्राधा पौड रक्त हँसते-हँसते दे दिया | मेरे लिए वह सव कुछ करने को सदा तैयार था। ___"अब जव हेम नही रहा तब सोचता हूँ तो मेरे अपराधो की परम्परा सामने आकर खडी हो जाती है और पश्चात्ताप के मारे हृदय दग्ध होने लगता है। मेरा सवसे वडा अपराध यह है कि मैं उसकी योग्यता का मूल्य ठीक नही आंक सका और उसको आगे बढने से उत्साहित न करके उल्टा रोकता रहा। हमेशा यही कहता रहा, "अभी और ठहरो। अपना ज्ञान और भी परिपक्व हो जाने दो। यह तुमने ठीक नहीं लिखा। इसमें ६४ Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ प्रेमी-अभिनवन-प्रय ये दोष मालूम होते है ।" इससे उसे बडा दुख होता था और कभी-कभी तो वह अत्यन्त निराश हो जाता था। एक बार तो उसने अपना लिखा हुआ एक विस्तृत निवध मेरे सामने ही उठा कर सडक पर फेक दिया था और फफकफफक कर रोने लगा था। उस अपराध की या गलती की गुरुता अब मालूम होती है। काश उस समय मैने उसे उत्साहित किया होता और आगे बढ़ने दिया होता। अब तक तो उसके द्वारान जाने कितना साहित्य निर्माण हो गया होता।" जो पछतावा प्रेमी जी को है, वही मुझे भी। इस गुरुतम अपराधो का प्रायश्चित्त भी एक ही है । वह यह कि हम लोग प्रतिभाशाली युवको को निरन्तर प्रोत्साहन देते रहें। प्रेमी जी ने अपने परिश्रम से सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश इत्यादि भाषाओ की जो योग्यता प्राप्त की है और साहित्यिक तथा ऐतिहासिक अन्वेषण-कार्य में उनकी जो गति है, उनके बारे में कुछ भी लिग्वना हमारे लिए अनधिकार चेष्टा होगी। मनुष्यता की दृष्टि से हमें उनके चरित्र मे जो गुण अपने इस अट्ठाईस वर्ष-व्यापी परिचय मे दीख पडे है उन्ही पर एक सरसरी निगाह इस लेख में डाली गई है। डट कर मेहनत करने की जो आदत उन्होने अपने विद्यार्थी-जीवन में ही डाली थी वही उन्हे अव तक सम्हाले हुई है। अपने हिस्से मे आये हुए कार्य को ईमानदारी से पूरा करने का गुण कितने कम बुद्धिजीवियो में पाया जाता है । अशुद्धियो से उन्हें कितनी घृणा है, इसका एक करुणोत्पादक दष्टान्त उस समय हमारसम्मख आया था, जब हम स्वर्गीय हेमचन्द्र विषयक मस्मरणात्मक पस्तक बम्बई में छपवा रहे थे। दूसरे किसी भी भावुक व्यक्ति से वह काम न बन सकता, जो प्रेमी जी ने किया। प्रेमी जी बडी सावधानी से उस पुस्तक के प्रूफ पढते थे। पढते-पढ़ते हृदय द्रवित हो जाता, पुरानी बातें याद हो पाती, कभी न पुरने वाला घाव असह्य टीस देने लगता, थोडी देर के लिए प्रूफ छोड देते और फिर उसी कठोर कर्तव्य का पालन करते। ____ वृद्ध पिता के इकलौते युवक पुत्र के सस्मरण-अथ के प्रूफ देखना | कैसा घोर सतापयुक्त साधनामय जीवन है महाप्राण प्रेमी जी का। ___ बाल्यावस्था की वह दरिद्रता, स्व० पिता जी की वह परिश्रमशीलता, कुडकी कराने वाले माहूकार की वह हृदयहीनता, छ-सात रुपये की वह मुदरिंसी और बबई-प्रवास के वे चालीस वर्ष, जिनमे सुख-दुख, गार्ह स्थिक आनद और देवी दुर्घटनामो के बीच वह अद्भुत प्रात्म-नियरण, बुन्देलखण्ड के एक निर्धन ग्रामीण वालक का अखिल भारत के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी प्रकाशक के रूप में आत्मनिर्माण-निस्सदेह सापक प्रेमी जी के जीवन में प्रभावोत्पादक फिल्म के लिए पर्याप्त सामग्री विद्यमान है। उस साधक को शतश प्रणाम । टीकमगढ] Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्र - परिचय १- श्रद्धाजलि मनोहारी चित्र के निर्माता श्री सुवीर खास्तगीर है । इसमें चेहरे से तन्मयता और श्रद्धा के भाव स्पष्ट झलकते हैं । पद्म के रूप में मानो हृदय की ममूची श्रद्धा अजलि मे भर कर श्राराध्य के चरणी में अर्पित की जा रही है । २- पोशित भृत्तिका ( कलाकार - श्री सुधीर खास्तगीर) यह योवन की छटा ! घटा पावस की ! कर में कज, कलश में जल, चरण शिथिल यौवन- भार से । खींच दी है दृष्टि पल में भृत्तिके ! किस सुमोहन-मत्र ने ? दृष्टि-वधन में बँधी हे वन्दिनी ! खोलती यों लाज-वधन श्राज तुम ! ३ - सित्तन्नवासल की नृत्यमुग्धा अप्सरा दक्षिण की पुदुकोट्टै रियामत में सित्तन्नवासल ( जैन सिद्धाना वास ) गुफा अजन्ता की प्रसिद्ध गुफा की तरह भित्तिचित्रो से ग्रलकृत हैं । ये चित्र लगभग सातवी गती के है और राजा महेन्द्र वर्मन् पल्लव के समकालीन कहे जाते हैं । कला की दृष्टि से चित्र बहुत उत्कृष्ट है । इनमे भी पद्म-वन का चित्र और देवनृत्य करती हुई एक अप्सरा का चित्र तो बहुत ही सुन्दर हैं । नृत्यमुग्वा श्रप्सरा के प्रस्तुत चित्र में रेखाओ का कौशल और भाव व्यजना कला की चरमसीमा को प्रकट करते है । पूर्व मध्यकाल के जीवन में जो प्राणमय उल्लास था, जिमने कुमारिल और गकर जैसे कर्माध्यक्ष राष्ट्र-निर्माता को जन्म दिया और जो एलोरा के कैलास मंदिर में प्रकट हुआ, उसकी प्रजित शक्ति इस चित्र के रेखा -कर्म में भी स्पष्ट झलकती है । श्रानन्द के कारण शरीर श्रोर मन की अनूठी भावोद्रेकता नाचती हुई देवागना के रूप मे प्रकट की गई है । ४ - देवगढ का विष्णु मदिर यह मंदिर गुप्त काल की रमणीय कलाकृति है । इसके शिला-पट्टी पर जो शिल्प की शोभा है, उसमे रसज्ञ दर्शक सौन्दर्य के लोक में उठ कर अपूर्व श्रानन्द का अनुभव करता है । चित्र, शिल्प, भाषा, वेप, श्राभरण आदि जीवन के सभी गोमे सुरुचि और सयम के साथ सुन्दरता की उपामना को तत्कालीन मानव ने अपना ध्येय कल्पित किया है । कलामय मौंदर्य के अतिरिक्त इस विष्णुमदिर की एक विशेषता श्रीर है, जिसके कारण भारतीय मूर्तिकला में इसका स्थान वहुत ऊँचा है। राम और कृष्ण के जीवन की कथाओ का चित्रण भारतीय कला में सर्वप्रथम देवगढ के विष्णुमंदिर में ही पाया गया है । ३५० ई -४२५ ई० के बीच में इस मंदिर का निर्माण अनुमानत मम्राट् चन्द्रगुप्त के पुत्र भागवत गोविन्द गुप्त की सत्प्रेरणा से कराया गया था। Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ ५ - विष्णु मंदिर का प्रवेश द्वार विष्णुमदिर की शोभा की खान उसका पश्चिमाभिमुखी यह प्रवेश द्वार हैं । उसका चौखटा ११ -२" ऊँचा और १०'-९" चौडा है | इस चौखटे में जो प्रवेश मार्ग है, वह ६-११" ऊँचा और ३-४१ " चौडा है । चारों श्रोर का शेष भाग अत्यन्त सुन्दर अभिप्राय ( Motif) और मूर्तियो से सजा हुआ है । उपासको के लिए देवमंदिर में जो सुन्दरता की परमनिधि देव प्रतिमा थी, उसकी छवि का पूर्ण सकैत इस द्वार की शोभा में अकित किया गया है । विशुद्ध कला को दृष्टि से द्वार पर उत्कीर्ण पन्नहावली एवं उसके पार्श्व स्तभो पर चित्रित उपासक स्त्री-पुरुषो को मूर्तियाँ अत्यन्त सुन्दर है । गुप्त-कालीन मानव के हृदय में सौंदर्य की जो साधना थी, उसकी यथेष्ट अभिव्यक्ति इस मंदिर के द्वार पर मिलती है । ७४८ ६- शेषशायी विष्णु यह मूर्ति काफी बड़े आकार के लाल पत्थर पर ( विष्णुमंदिर की दक्षिण की दीवार पर) खुदी हुई हैं । अनन्त या शेष पर विष्णु लेटे हुए हैं। लक्ष्मी की गोद में उनका एक पैर है । उनका एक हाथ उनके दाहिने पैर पर रक्खा हुआ है और दूसरा मस्तक को सहारा दिये हुए है । उनके नाभि-कमल पर प्रजापति विराजमान है । ऊपर महादेव, इन्द्र आदि देवता अपने-अपने वाहनो पर बैठे हैं । नीचे पाण्डवो समेत द्रोपदी दिखाई गई है । कुछ व्यक्तियो को राय मे ये पाँच श्रायुध-धारी वीर पुरुष है । सभी मूर्तियो की चेष्टाएं वडी स्वाभाविक है। लक्ष्मी चरण चाप रही हैं । उनकी कोमल उँगलियो के दबाव से चरण की मासपेशी दब रही है । वस्त्रो की एक-एक सिकुडन स्पष्ट है । ७- नर-नारायण-तपश्चर्या विष्णुमदिर की दीवार में पूर्व की ओर लगे इस शिलापट्ट पर वदरिकाश्रम में नर-नारायण की तपस्या का सुन्दर दृश्य अकित है। तापस वेषधारी नरनारायण जटाजूट बांधे और मृगचर्म पहिने हुए हैं । ८- गजेन्द्र-मोक्ष विष्णुमदिर के उत्तर की ओर के इस शिलापट्ट पर गजेन्द्रमोक्ष का दृश्य अकित है । पद्मवन के भीतर एक हाथी को दो नागो ने अपने कुण्डलो में जकड रक्खा है। उसकी सहायता के लिए गरुड पर चढ कर चतुर्भुजी विष्णु वडे सम्भ्रम से पधारे हैं । यहाँ अभी तक ग्रह या मगर की मूर्ति का इस कथा के साथ सवध नही दीख पडता, गज का ग्राह करने वाले नाग और नागी है । क्योकि इतनी ममता ! ममतामयि । खग छोड मुक्त नभ को उडान, पखों का सुख औ' मधुर तान, सब खिच प्राये ९ - प्रकृति- कन्या ( कलाकार - श्री सुधीर खास्तगीर) हो मंत्र-मुग्ध करने को तव मुख-सुधा पान ! लो, कोकिल, शुक, सारिका सभी खिच आए अचरज यह महान् ! Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ चित्र-परिचय १०-१६-बुन्देलखण्ड-चित्रावली अ-ओरछा का किला ओरछा का यह किला भारत के प्रसिद्ध किलो में से एक है। इसके अधिकाश भागो का निर्माण ओरछा के प्रतापी नरेश वीरसिंहदेव प्रथम ने करवाया था। किले के भीतर कई इमारतें भारतीय वास्तु-कला की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उनमे प्रमुख राजमहल और जहाँगीर-महल है । राजमहल तीन मजिल का है । इसमे कही भी काष्ठ का प्रयोग नहीं हुआ है। महाराज वीरसिंह प्रथम की यह कला-कृति वास्तव में वडी सुन्दर है । जहाँगौर महल में पत्थर की कारीगरी दर्शनीय है । यह किला वेत्रवती के तट पर बना हुआ है । भीतरी भाग की तरह इसका बाहरी भाग भी कितना चित्ताकर्षक है। आ-ओरछा में वेत्रवती ___ओरछा का महत्व उसके भव्य प्रासादो के कारण तो है ही, साथ ही वहां का वेत्रवती का प्राकृतिक सौदर्य भी बडा ही मोहक है । वेत्रवती को 'कलो गगा' (कलियुग की गगा) कहा गया है । बुन्देलखण्ड की प्रमुख नदियो में से यह एक है। ओरछा में इसके तट पर अनेक प्रतापीओरछा नरेशो की समाधियाँ (छतरियाँ)बनी हुई है। चित्र में वाई ओर वीरसिंह देव प्रथम की समाधि है, जो यहाँ के बडे यशस्वी राजा हुए है । इमारतें बनवाने का इन्हें बडा शौक था और बहुत से किलो का इन्होने निर्माण कराया था। दतिया के महल, ओरछा, बल्देवगढ, जतारा, दिगौडा आदि के किले इन्ही के वनवाये हुए है। इ-बुन्देलखण्ड का एक ग्रामीण मेला प्रस्तुत चित्र कुण्डेश्वर के मेले का है। यह स्थान टीकमगढ से चार मील के फासले पर ललितपुर जाने वाली सडक पर स्थित है। यहाँ पर जमडार नामक नदी के किनारे प्रतिवर्ष शिवरात्रि के अवसर पर पद्रह दिन तक मेला लगा करता है। दूर-दूर के दुकानदार पाते है । सहस्रो नर-नारी एकत्र होते हैं। बुन्देलखण्ड की एक झलक इस मेले में मिल जाती है। इस मेले को इस प्रात का प्रतिनिधि-मेला कहा जा सकता है । ई-उषा-विहार कुण्डेश्वर से लगभग दो मील पर जमडार और जामनेर नदियो का सगम है। कुण्डेश्वर पर जमडार की दो शाखाएं हो जाती है और ये दोनो करीब मील डेढ मील के अन्तर से जामनेर में जाकर मिलती है। इन शाखाओ तथा जामनेर के सहयोग से एक द्वीप का निर्माण होता है, जिसपर घना जगल है। इसका नाम 'मधुवन' रक्खा गया है। इसी 'मधुवन' में जामनेर के कई सुन्दर दृश्य है। प्रस्तुत चित्र में जामनेर मथर गति से बहती दिखाई देती है। उनके दोनो किनारो पर घने वृक्ष है, जिनका प्रतिविम्ब पानी में बडा भला लगता है। श्री देवेन्द्र सत्यार्थी का कथन था कि इसे देख कर काश्मीर का स्मरण हो पाता है। वाणासुर की पुत्री उषा के, जिसका मदिर थोडी ही दूर पर इसी नदी के किनारे बना हुआ है, नाम पर इस स्थान का नामकरण हुआ है। उ-बरी-घाट इस चित्र में जामनेर का जल-प्रपात दिखाई देता है। जामनेर की पूरी धारा को एक चट्टान ने रोककर भव्य प्रपातो का निर्माण किया है। लगभग दो महीने के लिए ये प्रपात बद हो जाते है । वाणासुर जिस ग्राम में निवास करता था, उस वानपुर ग्राम को यही होकर रास्ता है । यहाँ की प्राकृतिक छटा दर्शनीय है। Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५० प्रेमी-अभिनवन-ग्रंथ ऊ-जतारा के सरोवर का एक दृश्य ओरछा-राज्य में लगभग नौ सौ तालाव है। कई तालाव तो बहुत बडे है । प्रस्तुत चित्र में जिस तालाव का दृश्य दिखाया गया है, वह राज्य के वडे तालावो में से एक है। इसके किनारे पर जतारा का विशाल किला है। उसके ऊपर चढ कर देखने से तालाव का दृश्य वडा सुन्दर दिखाई देता है । इस तालाब के जल से काफी भूमि की सिंचाई होती है। ए-कुण्डेश्वर का जल-प्रपात ___इस चित्र में जमडार नदी से निर्मित जल-प्रपात का दृश्य उपस्थित किया है। वर्तमान ओरछा-नरेश के पितामह ने लाखो की लागत से इस प्रपात तथा इसकी निकटवर्ती कोठी का निर्माण कराया था। वडा ही मनोरम दृश्य है । इसके नजदीक शिव जी का सगमरमर का मदिर है। यह स्थान बुन्देलखण्ड का तीर्थ माना जाता है । कहा जाता है कि वाणासुर की कन्या उषा यहाँ आकर शिवजी पर जल चढाया करती थी। प्राकृतिक एव धार्मिक दृष्टि से यह स्थान वडा महत्व-पूर्ण है। १७-अहार का एक दृश्य बुन्देलखण्ड का यह गौरवशाली तीर्थ अहार ओरछा-राज्य की राजधानी टीकमगढ से लगभग १२ मील पूर्व में स्थित है। ग्यारहवी-वारहवी शताब्दी की ढाई-तीन सौ प्रतिमानो का वहाँ पर सग्रह है। भगवान शातिनाथ की मूर्ति के शिलालेख से पता चलता है कि प्राचीन काल मे वहां पर 'मदनेशसागरपुर' नामक नगर था, जो कई मील के घेरे में वसा था। ___ इस समय वहां पर दो मदिर और एक मेरु है तथा पाठशाला और क्षेत्र के कुछ कमरे । प्रस्तुत चित्र में दोनो मदिर दिखाई देते है । दाई ओर का मदिर प्राचीन है और उसमे शातिनाथ भगवान की अठारह फुट की अत्यन्त भव्य और मनोज्ञ मूर्ति है। दूसरा मदिर उतना पुराना नहीं है।। प्रतिमानो को व्यवस्थित रूप से प्रतिष्ठित करने के लिए वहां पर एक संग्रहालय का निर्माण हो रहा है। उपलब्ध मूर्तियो में 85 फीसदी पर शिला लेख है, जिनसे इतिहास की अनेक महत्त्वपूर्ण वातो का पता चलता है। अहार प्राकृतिक सौंदर्य का भण्डार है। १८-भगवान शातिनाथ की मूर्ति भगवान शातिनाय की इस अठारह फुट की प्रतिमा के कारण प्रहार का गौरव कई गुना बढ़ गया है । इस भव्य मूर्ति का निर्माण सम्वत् १२३७ मे पापट नामक मूर्तिकार ने किया था। इसके प्रासन पर जो शिला-लेख दिया हुमाहै, वह एतिहासिक दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है । उससे पता चलता है कि यह प्रतिमा चन्देल नरेश परमद्धिदेव के राज्यकाल में तैयार हुई थी। श्री नाथूराम जी प्रेमी का कथन है कि इस जैसी भव्य, सौम्य और सुन्दर प्रतिमा उन्होने आजतक नहीं देखी। महान् शिल्पी पापट ने सुप्रसिद्ध गोम्मटेश्वर की मूर्ति के निर्माता की कला-प्रतिभा को भी अपने से पीछे छोड दियाहै। इस मूर्ति का सौष्ठव और अग-प्रत्यग की रचना दर्शको के सम्मुख एक जीवित सौंदर्य मूर्ति को खडी कर देती है। इतनी विशाल प्रतिमा को इतना सर्वाङ्ग सुन्दर बनाने का काम पापट जैसा कलाविशेषज्ञ और साधक ही कर सकता था। १९-कु थुनाथ भगवान की मूर्ति ___यह मूर्ति शातिनाथ भगवान के वाएँ पार्श्व मे है और ग्यारह फुट की है। इसका रचना-काल भी वही है। यद्यपि इस मूर्ति की नासिका और ओष्ट खडित है, तथापि उसका सौंदर्य आज भी बड़ा आकर्षक बना हुआ है। वडी Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिचय मूर्ति की भाति इसके भी अग- निर्दोष है। इसके आसन प उत्कीर्ण है, जिससे पता चलतानपन के कारण एक शोकम कराया था। ये मूर्तियां बुन्देलखण्ड का का गौरव है। निस्सद ससार इनकी ओर आकृष्ट हुए कि मा अग-प्र निर्दोष है। इसके आसन पर एक वडा मार्मिक लेख । चलतनिवन के कारण एक शोकमग्न श्रेष्ठि ने इसका निर्माण लखण्ड का का गौरव है। निस्सदेह प्रकाश में आने पर कला-प्रेमी जलि सुधीर खास्नगीर) पद्मलोचन मूत्तिवत् प्राह्वान में। कर-पद्म में आज पलको में जडित पद्माञ्जली मृदु स्वप्न कोबांधती हो तापसी, तुम कौन से? शुभ ध्यान पर, जगत् के सामने मत खोलना ध्यान की पलकें, अपर ये मौन के। अर्घ्य देती, शीश नत साधना साक पाराधना ज सिमिट कर नृत्य-मत्ता । सुधीर खास्तगीर) चित्र-से हो खींचती चित्र-से हो खीं यो शून्य में देवता के हेतु आज मतवाला से कल्पना का जा फैलाती मधुर? देह-वल्ली डोलती है प्राज योकिस नवल ऋतुराज की मधु-वात में? २) नृत्य-मत्ते! छा गया भू-लोक लो, तुम्हारा नृत्य माया-जालन शून्य भी सकुल सु-यौवन-भार से। स्वर्ग में है खिल रहा सखि, मौन-सा मृदुल कर-जलजात किस सकोच में? [सुधार खास्तगीर के रचय के लिए हम श्री भगवती प्रसाद चदोला तथा देवगढ़ के पारचय के लिादेवशरण अग्रवाल तथा श्री कृष्णानद गुप्त के आभारी है।