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कुछ जैन अनुश्रुतिया और पुरातत्त्व
२४१ हुए और उस समय महात्मा बुद्ध ६५ वरस के थे (कल्याणविजय, वीरनिर्वाण सवत् और जैन कालगणना, पू० ४३)। लका की अनुश्रुति के अनुसार बुद्ध का निर्वाण ८० वर्ष की अवस्था में ई० पू० ५४३-४४ में हुआ और इसलिए महावीर को केवलज्ञान की प्राप्ति ई० पू० ५५८-५६ में हुई। महावीर के केवलज्ञान के तेरह वरस पहले यानी ई० पू० ५७१७२ में कुणाला की वाढ आई। श्रावस्ती की इस वाढ का जिक्र धम्मपद अट्ठकथा में भी आया है। कहते है कि अनाथपिण्डिक के अठारह करोड रुपये अचिरावती (आधुनिक राप्ती) के किनारे गडे हुए थे। नदी में एक वार वाढ आई
और पूरा खजाना वह गया (वरलिंगेम, वुधिस्ट लीजेडस्, वा० २, पृ० २६८)। खेद की वात है कि प्राचीन श्रावस्ती (आधुनिक सहेट-महेट) की जांच-पड़ताल ऊपर ही ऊपर हुई है, खाई खोद कर स्तरो की खोज भी अभी तक नहीं हुई है। यह जानने की हमें बडी उत्सुकता है कि पाटलिपुत्र की तरह यहाँ भी पुरातत्त्व एक प्राचीन अनुश्रुति का समर्थन करता है अथवा नही। अगर पुरातत्त्व से अनुश्रुति सही निकलती है तो हमें प्राग् मौर्यकाल की एक स्तर का ठीक-ठीक काल मिल जायगा और यह पुरातत्त्ववेत्ताओ के एक वडे काम की बात होगी।
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जैनो का कार्यक्षेत्र विशेषकर विहार, युक्तप्रान्त, दक्षिण तथा गुजरात रहा है । जैन-साहित्य में पजाव का उल्लेख केवल प्रासगिक रूप से आया है। तक्षशिला, जिसका उल्लेख वौद्ध-साहित्य में काफी तौर से आया है, जैनसाहित्य में बहुत कम वार आई है। प्राचीन टीका साहित्य मे तक्षशिला को जैन धम्मचक्र भूमि कहा गया है (बृहत्कल्पसूत्र, १७७४) । आवश्यक चूणि (पृ० १६२, आ०नि० ३२२) में कहा गया है कि ऋषभ देव वहाँ अक्सर चारिका किया करते थे। एक समय वाहुबलि को खवर लगी कि ऋषभ देव वहाँ आये हुए है। उनके दर्शनार्थ वे दूसरे दिन वहां पहुंचे, लेकिन ऋषभदेव वहां से चल चुके थे। बाहुबलि ने भगवान् के चरण-चिह्नो पर एक धर्मचक्र स्थापित कर दिया।
प्रभावकचरित में मानदेव सूरि की कथा के अन्तर्गत तक्षशिला का वर्णन आया है । कथा हम नीचे उद्धृत करते है, क्योकि उसके कुछ प्रशो से तक्षशिला की खुदाई की सत्यता पर प्रकाश पडता है
मानदेव सूरि ने युवावस्था मे मुनि प्रद्योतन मूरि से जैन-धर्म की दीक्षा ली। कुछ दिनो मे वे मूल सूत्रो मे निष्णात हो गये और उनके तप से प्रभावित होकर लोगो ने उन्हें प्राचार्य पद पर अधिष्ठित किया।
उसी समय धर्मक्षेत्र रूप और पांच सौ चैत्यो मे युक्त तक्षशिला नगरी में भारी उपद्रव उठ खडा हुआ। भयकर रोगो से ग्रस्त होकर लोग अकाल मृत्यु पाने लगे और औषधियों रोग-शमन में सर्वदा असमर्थ रही। रोग का इतना वेग वढा कि नगर के वाहर हजारो चिताएँ लगने लगी और पुजारियो के प्रभाव से देव पूजा अटक गई।
श्रावको मे से थोडे बहुत जो वच गये थे इकट्ठा होकर अपने भाग्य को कोसने और देवी-देवतानो की स्वार्थपरता की आलोचना करने लगे। उनकी यह अवस्था देखकर शासन देवी ने आकर कहा, "आप सन्ताप क्यो करते है । म्लेच्छो के प्रचड व्यन्तर ने सव देवी-देवताओ को दूर कर दिया है। ऐसी अवस्था में वतलाइए, हम क्या कर सकते ह' आज से तीन वर्ष वाद तरुष्को के हाथ नगर भग हो जावेगा, यह सब समझ कर आप जो चाहें करें, पर मै आपको एक उपाय बताती है जिसे आप सावधान होकर सुनिए, जिससे सघ की रक्षा हो। इस उपद्रव के शान्त होते ही आप हमारी वात मानकर इस नगर को छोडकर दूसरी जगह चले जायें।"
देवी की बात मानकर श्रावको ने अपनी रक्षा का उपाय पूछा। देवी ने नगर के मकानो को मानदेव के पदधोवन स पवित्र करने को राय दी। उसकी राय में उपद्रव शान्ति का एकमात्र यही उपाय था। ... गुरु को बुलाने को वीरदत्त नाम का श्रावक भेजा गया। मानदेव के पास जया विजया नाम की दो देवियो गावठ देख उसे प्राचार्य के चरित्र पर कछ सन्देह हा और इसके लिए देवियो ने उसकी काफी लानत-मलामत की।
तक्षशिला जाने से इनकार किया. पर उपद्रव के शमन के लिए कछ मन्त्र बतला दिये। वीरदत्त ने तक्षशिला "आकर लोगो को शान्तिस्तव वतलाया और उसके प्रभाव से कुछ ही दिनो में उपद्रव गान्त हो गया। उसके
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