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प्रेमी-अभिनदन-प्रथ वाद लोग अपनी इच्छा से नगर छोडकर दूसरी जगह चले गये। तीन वर्ष बीतने पर तुरुष्को ने इस महा नगरी को नष्ट कर दिया। वहाँ अव तक (१३वी शताब्दी तक) पाषाण तथापीतल की मूर्तियां तहखानो में मिलती है (प्रभावकचरित, भूमिकालेखक कल्याणविजय जी, पृ० १८४-१८७, भावनगर, १६३०)।
मुनि कल्याणविजय जी के अनुसार पट्टावलियो में दो मानदेवो का वर्णन है। मानदेव प्रथम २०वे पट्टधर थे और मानदेव दूसरे २८वे पट्टधर थे जो प्राचार्य हरिभद्र के परम मित्र थे। पट्टावलियो के अनुसार मानदेव प्रथम वीरनिर्वाण सवत् की आठवी शताब्दी मे हुए। अचल गच्छ की वृहत् पट्टावली में मानदेव सूरी को २१वा पट्टधर माना गया है और उनका समय ७३१ वीरनिर्वाण सवत् (वि० स० २६१, ई० सन् २०४) दिया है । पट्टावलियो की राय से मानदेव ई० सन् की तीसरी शताब्दी में हुए । लेकिन इन मानदेव सूरी का या इनके अनुयायियो का भाष्यो और चूर्णियो में जिक्र तक नहीं है (वही, भूमिका, पृ०७२)।
तक्षशिला पर तुरुष्को के आक्रमण पर विचार करते हुए मुनि कल्याणविजय जी इस बात की ओर मकेत करते है कि यह घटना मानदेव के जीवन-काल में अर्थात् ई० सन् २०७ के पहले घटी होगी। उनका कहना है कि शायद ससानी राजा आदेशर ने ही तक्षशिला का नाश किया होगा, पर इसके लिए कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है (वही, पृ०७२-७३)। इस लडाई के पहले ही जैनसघ वहाँ से चल दिया और कल्याणविजय जी के मतानुसार पोसवाल जाति तक्षशिला इत्यादि पश्चिम पजाव के नगरो के जैनसघो से निकली हुई है। इस जाति की कई खासियतो को देखते हुए, जिनमें उनका और शाकद्वीपी ब्राह्मणो (सेवकों) का सम्बन्ध भी है, यह कहा जा सकता है कि प्रोसवालो के पूर्व पुरुष पश्चिम भारत से आये थे।
तक्षशिला की चढाई का तीसरी शताब्दी के प्रारम्भ में होने का प्रमाण केवल इस घटना का मानदेव सूरि के समय मे होना ही है। अगर हम मानदेव सूरि की कथा की भली भांति जांच-पड़ताल करेंतो उनका तक्षशिला से केवल इतना ही सम्बन्ध देख पडता है कि उन्होने महामारी के शमन के लिए एक शान्तिस्तव भेजा और यह कथा पीछे से भी गढ ली जा सकती है। प्रभावकचरित्र में अनेक स्थल ऐसे है जहां पुराना नया सव मिला दिया गया है। पादलिप्ताचार्य की जीवनी में उनकी मान्यखेट के राष्टकूट राजा कृष्ण प्रथम (सन् ८१४-८७६) से मुलाकात लिखी है (वही पृ० ३५) जो नितान्त असम्भव है । बात यह है कि मुनियों के चरित्र कोई ऐतिहासिक दृष्टिविन्दुलेकर तो लिखे नही गये थे । इन परम्परागत चरित्रो के अधिकतर मौखिक होने के कारण अगर वाद के बडे-बडे राजामो के नाम उसमे जुटते गये हो तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लगता ऐसा है कि बहुत सी ऐतिहासिक अनुश्रुतियाँ किसी शास्त्र विशेष से सम्बन्धित न होकर केवल मौखिक थी। कालान्तर में घटना का समय तो लोगो को भूल गया, पर घटना ज्यो-की-त्यो रही। मुनियों के चरित मे उनका किसी घटनाविशेष से सम्बन्ध दिखला कर उनके अलौकिक गुणो को प्रकाश में लाना था, इसलिए पुरानी अनुश्रुतियो को किसी बाद के प्राचार्य के नाम के साथ जोड देना कोई ऐसी अनहोनी बात नहीं है। यह सब कहने का तात्पर्य केवल यही है कि पुरातत्त्व की खुदाई से जो प्रमाण मिले है उनसे तक्षशिला कुषाणो द्वारा ईसा की पहली शताब्दी में नष्ट हुआ और अनुश्रुति इस घटना का समय ईसा की तीसरी शताब्दी मानती है। पुरातत्त्व के प्रमाण अकाट्य है, इसलिए इस घटना का वास्तविक काल ईसा की पहली शताब्दी का अन्त ही मानना ठीक होगा । हाँ, अगर हम कनिष्क के काल को ई० सन् १२७ या उसके पीछे मान लें, जैसा बहुत से विद्वानो ने माना है तो शायद अनुश्रुति की ही वात ठीक रहे, क्योकि अधिकतर पट्टावलियो ने मानदेव को २०वा पट्टधर माना है और उनका समय वीरनिर्वाण का आठवां सैका है, जो ईसा की दूसरी शताब्दी के अन्त में पड़ता है।
अब हमे देखना चाहिए कि तक्षशिला की खुदाई से तक्षशिला नगर का कुषाणो द्वारा नाश होने के प्रश्न पर क्या प्रकाश पडता है, और साथ ही हमें इस बात की भी पडताल करनी चाहिए कि जैनो का तक्षशिला से तथाकथित सम्बन्ध ठीक है या कोरी कल्पना। इस जांच के लिए हमें तक्षशिला के सिरकप नगर की खुदाई पर विशेष ध्यान देना होगा। सर जान मार्शल के कथनानुसार ई० पू० दूसरी शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में इडोग्रीक राजाओ ने नगर