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प्रेमीअभिनदन-प्रय मिलते है। वास्तव में गिवार्य की विचारधारा न श्वेताम्बर ही थी और न पूर्णत दिगम्बर ही, वरन् वह एक तीसरे ही जनसम्प्रदाय-यापनीय सच'-की ही मान्यताप्रो के अनुकूल एव अधिक निकट प्रतीत होती है। पूज्य प्रेमी जी ने यह भलीभति मिद्ध कर दिया है कि 'आराधना' के प्रसिद्ध प्राचीन टीकाकार अपराजितमूरि यापनीय ही थे और मानवी शताब्दी ई. के वैयाकरण शाकटायन भी, जिन्होने शिवार्य के गुरु सर्वगुप्तका ससम्मान उल्लेख किया है, यापनीय थे।' ऐमी दशा में शिवार्य का म्वय का भी यापनीय सघ से सम्बन्ध होना कोई आश्चर्य की बात नही।
देवसेनाचार्य कृत 'दर्शनसार' के अनुसार यापनीय संघ की स्थापना विक्रम सवत् १४८ (सन् ६१ ई०) में श्री कलग नामक आचार्य ने की थी। इसके दस-यारह वर्ष पूर्व सन् ७६ अथवा ८१ ई० मे, दिगम्वर-श्वेताम्बर दोनो ही मम्प्रदायो की अनुश्रुति के अनुसार, उक्त दोनो सम्प्रदायो के बीच का भेद पुष्ट हो चुका था और उनकी एक दूसरे से पृथक् स्वतन्त्र सत्ता स्थापित हो चुकी थी। यापनीय सघ के प्राथमिक आचार्य इन दोनो ही सम्प्रदायो में मान्य थे। अत इसमे कोई मन्देह नही रह जाता कि ईस्वी पूर्व की अन्तिम शताव्दियो मे, जहाँ एक ओर दिगम्वरश्वेताम्बर मनभेद चल रहे थे, वहाँ दूसरी ओर एक स्वतन्त्र विचारधारा इन दोनो के समन्वय में प्रयत्नशील थी, किन्तु जब प्रथम शताब्दी के उत्तरार्व में वह मतभेद स्थायी रूप से प्रकट हो गया और इस प्रकार समन्वय का प्रयत्न विफल हो गया तो वह तीसरी विचारवारा भी एक स्वतन्त्र आम्नाय के रूप में परिणत हो गई।
भगवती आराधना के कर्ता शिवार्य, समन्वय मे प्रयत्नशील इस तीसरी विचारधारा के ही प्रतीक थे, किन्तु उनकी रचना में यद्यपि यापनीय सघ की मान्यताओ के वीज मौजूद है, फिर भी वह स्वय उक्त सघ की वि० स० १४८ में स्थापना के पूर्व ही हो गये प्रतीत होते है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, आराधना मे ईस्वी सन् के प्रारम्भ के पश्चात् होने वाले किसी प्राचार्य का कोई उल्लेख नही है, किन्तु उसमें अन्यकर्ता ने अपने उपरिवणित तीन गुरुयो के अतिरिक्त भद्रवाहु आचार्य का स्मरण किया है, और इन भद्रबाहु के 'घोर अवमौदर्य से सक्लेश रहित उत्तम पद प्राप्ति' का ऐसा वर्णन है, जो शिवार्य और भद्रवाहु की सामयिक निकटता को सूचित करता प्रतीत होता है।
यह भद्रबाहु चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व मे होने वाले भद्रबाहु (प्रथम) श्रुतकेवलि तो हो ही नहीं सकते, क्योकि उनके सम्बन्ध मे ऐसी कोई बात उनके विषय में रचे गये चारित्र ग्रन्थो, अन्य साहित्य, उल्लेखो, शिलालेख आदि में कहीं भी उपलब्ध नही होती। दूसरे चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व मे जैन ग्रन्थ-रचना के भी कोई प्रमाण अभी तक उपलब्ध नहीं हुए है और इन भद्रवाह के पश्चात् ही दिगम्बर-श्वेताम्वर मतभेद का सर्वप्रथम बीजारोपण हुआ था। ममन्वय का प्रयत्न इतना शीघ्र प्रारम्भ हुआ प्रतीत नही होता। दूसरे भद्रवाहु ईस्वी पूर्व प्रयम शताब्दी के मध्य में हुए है। उनके पट्टकाल का प्रारम्भ वि० स० ४ (ई० पू० ५३) में हुआ था। ये भगवान् महावीर के पश्चात् अङ्गपूर्वयारियो की परम्परा के अन्त के निकट हुए थे और स्वय आचाराङ्गधारी थे। अत ये ही वह भद्रबाहु थे, जिनका उल्लेख शिवार्य ने किया है।
साथ ही ईस्वी सन को प्रथम शताब्दी में होने वाले कुन्दकुन्दाचार्य ने एक शिवभूति नामक आचार्य का तथा अन्यत्र एक शिवकुमार' नामक भावश्रमण का ससम्मान उल्लेख किया है। यह भी सम्भव है कि कुन्दकुन्दाचार्य के ये दोनो उल्लेख केवल पौराणिक उदाहरण ही हो, किन्तु इस (शिवभूति) नाम के एक प्राचार्य का कुन्दकुन्द के समकालीन होना और उनका दिगम्वर सम्प्रदाय (वोटिक सघ) से भी सम्बन्ध होना श्वेताम्बर अन्य मूलभाषा
'जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ४०, ४१ । भगवती पाराधना गाया १५४४ । प्रोमोदारिए घोराए भद्दवाहप्रसकिलिट्ठमदी।
घोराए विगिछाए पडिवण्णो उत्तम ठाण ॥ 'चक्रवर्ती-पञ्चास्तिकाय भूमिका । 'भावपाहुड-पाया ५३ ।
'भावपाहुडगाथा ५१ ।