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ज-सेवा
महात्मा भगवानदीन प्रेमी जी का अभिनन्दन मै उनकी मनलगती कह कर करूं या अपनी मनलगती? वे खरे प्रकाशक रह चुके है और औरो की मनलगती सुनने के अभ्यस्त है। उसको औरो तक पहुंचाने में उन्हें आनन्द आता रहा है । इसलिए में अपनी मनलगती ही कहूँगा।
आश्रम (ब्रह्मचर्याश्रम-हस्तिनापुर) का सर्वेसर्वा होने पर भी अनेक बन्धनो में जकडे होने में मुझे अपनी जान से प्यारे ब्रह्मचारियो को वह सिखाना पडता था और मीखने देना पडता था, जिसे मै जी से नहीं चाहता था। मेरे अध्यापको में एक से ज्यादा ऐसे थे, जिन्हें मेरी तरह उस बात के सिखाने में दुख होता था, जिसे वे ठीक नहीं समझते थे। उस तकलीफ ने समाज-सेवा के सबध में मेरे मन में एक जवर्दस्त क्रान्ति पैदा कर दी और मुझे माफसाफ दिखाई देने लगा कि समाज-सेवा और समाज-दासत्व दो अलग-अलग चीजे हैं। समाज-सेवा से समाज ऊँचा उठता और समाज-दासत्व से समाज का पतन होता है । आत्म-विकास, आत्म-प्रकाश, मौलिकता और नवसर्जन से समाज-सेवा होती है। लीक-लीक चलने से समाज की दासता हो सकती है, मेवा नही | व्यक्ति के सुग्व में ही समाज का सुख है, समाज के सुख में व्यक्ति का सुख नहीं और समाज का भी नहीं। आज जिस सुख को सुख मान कर समाज सुखी हो रहा है, वह सुख नही, मुखाभास है, सुख की छाया है, झूठा सुख है। सुख क्या है, वह कैसे मिलेगा, समाज सुखी कैसे होगा, यह जान लेनाही समाज-सेवा है। इसलिए उसी पर कुछ कह-सुन लू और इस नाते लिख कर भी थोडी समाज-सेवा कर लू ।।
खेती-युग मे दुख रहा तो रहा, मशीन-युग में क्यो? खाने के लिए विस्कुट के कारखाने, पहनने के लिए कपडे की मिलें, सैर-सपाटे के लिए मोटर, रेलें, हवाई जहाज, वीमारी से बचने के लिए पेटेंट दवाएं, बूढे से जवान बनन के लिए ग्लेड चिकित्सा, कानो के लिए रेडियो, अांखो के लिए सिनेमा, नाक के लिए सस्ते सेन्ट, जोम के लिए चाकलेट, लाइमजूस, क्रीम, देह के लिए मुलायम गद्दे, यहाँ तक कि मन के लिए भी किसी बात का टोटा नहींगुदगुदाने वाली कहानियां, हँसाने वाले निवध, अचरज में डालने वाली जासूमी कहानियाँ, रुलाने वाले उपन्यास, उभारने वाली वक्तृताएँ, सभी कुछ तो है।
रुपया ?
रुपये का क्या टोटा। उन्तीस रुपये कुछ पाने में एक लाख के रुपये वाले नोट तैयार हो जाते है और वे उन्तीस रुपये भी कागज के हो तो काम चल सकता है। सरकार वाजीगर की तरह घर-घर में अगर चाहे तो रुपयो का ढेर लगा सकती है। वाजीगर को हाथ की सफाई से सरकार की सफाई कई गुनी बढी चढो है।
___मतलब यह कि यह युग खपत से कही ज्यादा पैदावार का युग है, सुख को वाढ का युग है, चीजो को भरमार का युग है, जी दुखाने का नही, आँसू बहाने का नही, रोने-चिल्लाने का नहीं।
है । फिर यह कौन रोता है ? क्यो रोता है ? किसलिए रोता है ? रोने का नाटक तो नहीं करता? अगर सचमुच रोता है तो विस्कुट, कपडे और रुपयो की वाढ में डूब कर दम घुटने से ही रोता होगा।
सुख मोटा होकर ही काम का हो सके, यह नही, वह बढिया भी होना चाहिए। हलवा गालियो के साथ म ठा नहीं लगता। मुफ्त में पाये प्रोवरकोट से जाडा नही जाता,बे पैसे की सवारी में मजा नही आता, सुख का सुख भोगने को ताकत विदेशी राज्य ने रगड दी, विदेशी व्यापार ने पकड ली, विदेशी तालीम ने जकड दी, विदेशी वेश-भूषा से लजा गई और विदेशी वोली से मुरझा गई।