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समाज-सेवा
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खाने का लुत्फ वनाने के तरीको पर निर्भर है, कपडे की खूबसूरती उसके काट में हैं, श्रमदनी का सुख इसमें है कि वह कैसे कमाई गई है ।
पाँच वार खाकर, घटे-घटे बाद कपडे बदल कर, कई कमरे वाले मकान में रह कर, सुख नही मिलता । सुख के लिए ऐमा काम चाहिए, जिसके द्वारा में यह बता सकू कि मैं क्या हूँ ? जिनके लिए काम करूं, वे माँ-बाप, वे सवधी भी चाहिए। मेरी मर्जी की तालीम न मिली तो सव सुख वेकार, मेरी मर्जी का समाज न मिला तो सव सुख भार । इस वाढ -युग के मुकाबले में पहले युग का नाम श्राप सूखा-युग रख लीजिए, पर उस युग में ये सब चीजें मिल जाती थी । श्राजकल कारखाने चीजें बनाने मे जुटे हैं। सरकार परमाणु बम बनाने में । सुख उपजाने की किसी को फुरसत नही । चीजो की भरमार से और एटम बम की दहाड से सुख की परछाई देखने को मिलेगी, सुख नही ।
हलवाई की तवित मिठाई से ऊब जाती है यानी उसे सुख की जगह दुख देने लगती है। रेल का गार्ड रेल की सवारी को ग्राफ समझता है । खपत से उपज कुछ कम हो तो सुख मिले। खपत की वरावर हो तो हर्ज नही, पर खपत से ज्यादा हो तो दुख ही होगा ।
डाक-वाबू को यह पता नही कि उसके कितने बच्चे है, जहाज के कप्तान को यह पता नही कि उसके माँ-बाप भी है और उसका विवाह भी हो गया है, जुलाहे को पता नही कि वह तरह-तरह के वेल-बूटे भी बना सकता है । सुख जिसका नाम है वह कही रह ही नही गया । खाओ - पहिनो दौडो । सुख से कोई सरोकार नही । फटफटिया की फटफट, घुंग्रा - गाडी की भक-भक, हवाई जहाजो की खरखर, मिलो की घर-घर । बाहर चैन कहाँ । पखे की सर-सर, टाइपराइटर की क्लिक क्लिक, स्टोव की शू-शू, रेडियो की रुँ-रूं, घर में प्राराम कहाँ । छब्बे होने चले थे, दुवे रह गये । सुख की खोज में गांठ का सुग्व भी गंवा बैठे। वह मिलेगा, इसमें शक है ।
सुख लोगो को आजकल कभी मिलता नही । इसलिए वे उसे भूल गये, अगर वह आये तो उसे पहचान भी नही सकते । भीतर का सुख और बाहर का सुख दोनो ही भूल गये ।
सुख उस हालत का नाम है, जिसमें हम आजाद हो, कोई हमे हमारी मर्जी के खिलाफ न सताए, न भूखो मारे, न जाडा-गर्मी सहने को कहे । इतना ही नही, हमारी मर्जी के खिलाफ न हमे खिलाए, न पहिनाये, श्रौर न सैर कराये । सुखबीच की अवस्था में है, खीचतान में नही । मर्जी से किये सब कामो में सुख है -- बर्फ में गलने में, श्राग मे जलने में, डूबने में और ऊबने में भी । वेवात की मेहनत में भी सुख नही । लगन और उद्देश्य विना किसी काम में सुख नही । सुख एक हालत तो है, पर है वह तन- मन-मस्तक तीनो की । भूखो मर कर सुख न मिलेगा और पाषाण हृदय होकर भी नही । पेट भरी वकरी भेडिये के पास वांघने से दुवली हो जाती है तो राम भजन करने वाला सत भी भूखा रह कर दुबला हो जावेगा ।
सुख की पहेली का एक ही हल है । धर्म से कमाए और मौज करे (धर्म अर्थ काम) । धर्म से कमाने का अर्थ है खपत के अनुसार पैदा करना । कमाने में मौज करने की योग्यता गँवा बैठना बुद्धिमानी नही है । इतना थकने से फायदा, किखा भी न सको ? थककर भूखे ही सो जाओ ? पैसे से वेचैनी तो देह भी नही चाहती, पर यहाँ तो मन और मस्तक विक रहे है । तन-मन और मस्तक सभी विक गये तो सुख कौन भोगेगा ?
विको मत, विकना गुलामी है । गुलामी में सुख कहाँ ? दुख मे मीठा कडवा हो जाता है । कपडा देह का भार हो जाता है । तमाशा काटने को दौडता है । मवारी खीचती नही, घमीटती-सी मालूम होती है ।
बना बनाया खाने मे खाने भर का मजा । वना कर खाने में दो मजे - एक बनाने का और एक खाने का । मिलो में चीजें बनती है । तुम्हारे लिए नही बनती। घर मे चीजें बनती है । वे तुम्हारे लिए वनती है । तुम्हारी रुचि का ध्यान रखकर बनाई जाती है। तुम्हारे स्वास्थ्य का भी ध्यान रक्खा जाता है । अपनी चीज़ अपने आप वनी कुछ और ही होती है ।
सभी तो बनी-बनाई काम मे ला रहे है।
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