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________________ बुन्देलखण्ड का एक महान सगीतज्ञ ५६६ एक परिपाटी है जो 'लेद' कहलाती है । लेद गाने के आरम्भ में ख्याल जान पडती है और धीरे-धीरे दादरे में परिवर्तित हो जाती है । वहुत ही मनोमोहक है । उस्ताद इस परिपाटी के भी श्राचार्य है । उस्ताद कभी-कभी दो सतरो की कविता का कठिन प्रयास भी करते हैं और जैसे- वने-तैसे "आदिल मियाँ की बिनती सुन लो " प्रक्षिप्त करते हैं और मुझसे पूछते है, "भैया, इसमे अगन अक्षर तो नही है ?" में हमेशा उनसे कह देता हूँ, "इसमे सारे के सारे अगन अक्षर ही है ।" तव वह हँस देते है । लोगो से मज़ाक करना करवाना उनको है वह कभी बुरा नही मानते । प० तुलसीदास शर्मा और प० दत्तात्रेय रघुनाथ घाणेकर फोटोग्राफर (प० गोपालराव के भतीजे) इनके वडे मित्र है । इनको सदा झखाते रहते है और ये उनको हैरान करते रहते हैं । एक वार इन लोगो ने इनकी ग्रांख पर आक्षेप किया । 'काना' तक कह दिया । शर्मा जी ने तो एक बार एक काने भिखारी को तुलना करने के लिए सामने खडा भी कर दिया । उस्ताद बहुत हँसे और बोले, "मैं सब को एक प्रख से देखता हूँ ।" फोटोग्राफर मित्र से कहा, "मेरा फोटू खीचो तो जैसी मेरी एक आँख है, वैसी ही बनाना ।" धुनी ऐसे हैं कि कई एक बार मिर के चेहरे के और भौंहो तक के बाल मुडवा दिये । सिगरेट बहुत पीते थे । एक दिन आश्चर्यपूर्ण समाचार सुनाया, "भैया, मैने सिगरिट पीना छोड दिया है । अव कभी नही पिऊँगा, चाहे श्राप ही हज़ार रुपये क्यों न दें ।" मैने कहा, "क्यो न उस्ताद, आप ऐसे ही दृढप्रतिज्ञ हैं ।" फिर उन्होने सारे शहर में दिन भर अपने सिगरेट-वीडी छोडने का ढिंढोरा पीट डाला । दूसरे दिन सवेरे मुझको मिले। वही शान, वही गुमान । " अव कभी सिगरेट नही पिऊँगा ।" मैने कैची मारका सिगरेट की एक डिविया पहले से मँगा रक्खी थी । एक सिगरेट निकाल कर पेश की । वोले, "हरगिज़ नही । चाहे कुछ हो जाय, प्रण नही तोडगा ।" मै तो जानता था । मैंने दियासलाई जलाई । सिगरेट वढा कर कहा, "अच्छी है । आप इसको पसन्द भी करते हैं ।" " आपके इतना कहने पर नाही नही कर सकता । लाइए ।" उस्ताद ने हँसते हुए कहा और पूरी डिब्बी उसी दिन खतम कर दी । ( ५ ) उस्ताद का व्यावहारिक सगीतज्ञान विलक्षण है । चाहे जौनसा वाजा सिखला सकते है, बजाते यद्यपि वह केवल सितार ही है । स्वर और ताल पर उनका अद्भुत अधिकार है । डेढसो-दोसौ राग-रागिनियाँ जानते है । उनमें से कुछ राग तो वह अकेले में स्वान्त सुखाय ही गाते है । दुर्गा, भोपाली, दरवारी कान्हडा, विलासखानी टोडी, ललित, वमन्त, कामोद, छायानट, पट, वहार, केदारा, देश, बिहाग, पूरिया इत्यादि उनके विशेष प्रिय राग है । वह सहज ही एक-एक वोल की सैकडो नई तानें लेते है और वनाते चले जाते हैं । एक राग के समाप्त होते ही किसी भी राग की फरमायश को तुरन्त पूरा करते हैं । पचास-पचास रागो तक की रागमाला बना कर सुना देते है । उनसे राग की प्रार्थना करते ही वह तिताला, झप, सूरफाग, चौताला या इकताले में गायन प्रारम्भ कर देते है और तानें भी स्वभावत इसी ताल के विस्तार मे भरते चले जाते हैं । यदि कोई उनसे कहे कि तिताला में गाए जाने वाले उन्ही वोलो को झप या और किसी ताल में विस्तृत या सकुचित कर दीजिए तो वह सहज ही ऐसा कर देंगे और सम्पूर्ण तानें, गमक इत्यादि उसी ताल और उसकी परनो के विस्तार में भर देंगे और समग्र तानो की वर्णमाला — सरगम — गले के आलाप की तेजी के साम्य पर बना देगे । यह कारीगरी भारतवर्ष के वहुत थोडे गवैये कर सकते है । मेरी समझ मे भारतवर्ष के दस-वीस ऊंचे गायको में इनकी गिनती है । उनके सगीत - ज्ञान की गहराई उनके मधुर गायन से कानो को पवित्र करने पर ही अनुमान की जा सकती है । उस्ताद आदिलखों का गला बहुत मीठा है । इतना मीठा कि पुरुष-गायको में श्री फैयाजखाँ, श्री श्रीकारनाथ, श्री पटवर्द्धन, श्री रतनजनकर और नारायणराव व्यास ही उन्नीम-वीस के अनुपात में होगे । व्यास जी की अपेक्षा मैं उस्ताद आदिलखाँ को अधिक मीठा समझता हूँ ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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