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________________ २७१ हिंदू राजनीति में राष्ट्र की उत्पत्ति नियमो को, जो सर्वसम्मति से स्वीकृत किये गये है, लागू करने के लिए एक शक्ति होनी चाहिए। यह विचार होने पर लोगो ने करुणामय ब्रह्मा के पास जाकर निवेदन किया-“हे भगवन्, एक शासक के अभाव के कारण हम लोग नागकोप्राप्त हो जायेंगे । हमारे लिए एक शासक प्रदान करो (अनीश्वरा विनश्यामो भगवनीश्वर दिश-श्लो०२०), जिसके प्रति हम सब लोग अपना सम्मान प्रदर्शित करेंगे और जो हम लोगो का प्रतिपालन करेगा" (य पूजयेम सम्भूय यश्च न प्रतिपालयेत-श्लो०२१)। इस प्रार्थना से द्रवित होकर ब्रह्मा ने मन से कहा कि वे मर्त्य लोक का शासक होना स्वीकार कर ले, परन्तु मनु को मरणशील जीवो के प्रति कोई सहानुभूति नही थी और साथ ही उन्हें प्रसन्न या सन्तुष्ट रखना एक पहेली थी। उन्होने जवाव दिया-"मै पापकर्मों से बहुत डरता हूँ (और शासन-कर्म में पाप होना निश्चित है)। शासन की वागडोर अपने हाथो में लेना बहुत ही दुष्कर होता है" (विभेमि कर्मण पापाद्राज्य हि भृशदुस्तरम्) । उन्होने यह भी कहा-"मनुष्य-वर्ग के ऊपर राज्य करना तो और भी कठिन है, क्योकि वे सदा मिथ्यापरायण होते है" (विशेषतो मनुष्येषु मिथ्यावृत्तेषु नित्यदा-श्लो० २२) । इस पर मनु से प्रार्थना करते हुए लोगो ने उन्हें विश्वास दिलाया कि पाप से उनको विलकुल न डरना चाहिए, क्योकि “पाप का भागी उन्ही लोगो को होना पडेगा, जो उसे करेगे" (कर्तृनव गमिष्यति)। परन्तु चतुराई से भरा हुआ लोगो का यह विश्वास दिलाना मनु पर असर न कर सका। इसलिए उनके चित्त को दिलासा देने के लिए मनुष्यो ने उन्हें लम्बे-चौडे अधिकार देने के वचन दिये, जिनमे हिन्दू राजाओ के उन सभी अधिकारो का मूल पाया जाता है, जिन्हे राजनीतिशास्त्र में उनकी शक्ति के अन्दर बताया गया है। मनु से लोगो ने प्रतिज्ञा की कि उन्हे जानवरो और सुवर्ण की सम्पत्ति का पचासवां हिस्सा और अन्न का छठा हिस्सा दिया जायगा (पशूनामधिपञ्चाशद्धिरण्यस्य तथव च, धान्यस्य दशम भागम्-श्लो० २३-२४)। राजा के विशेषाधिकारो मे जो अन्तिम शर्त थी वह नीचे के (अशुद्ध) पाठ में कथित है कन्या शुल्के चाररूपा विवाहेऽद्यतासु च (श्लो० २४)। नीलकठ ने यही पाठ माना है। उन्होने विवादेषु ततासु च पाठ भी दिया है, और उसे प्राच्यो का पाठ कहा है। तीसरा पाठ नीलकठ ने विवादे धूततासु च दिया है, जिसे हिलबेड ने इस अर्थ में स्वीकार किया है कि यहाँ विवादे शब्द विवादेषु के लिए आया है (अल्टिडिरचे पोलिटिक, पृ० १७३) । हिलब्रेड ने सारे वाक्य का अर्थ यह दिया है-'जव दासियो को खरीदने के लिए बाजार में ग्राहक लोग यह पुकारपुकार कर एक दूसरे के ऊपर बोली बोलते हैं कि “मैं इस लडकी को खरीदता हूँ, मै इस लडकी को खरीदता हूँ", तब राजा के भाग के लिये एक दासी कन्या अलग रख लेनी चाहिए।' परतु नीलकठ ने जो पाठ दिये है, उनमें से किसी का यह अर्थ नही निकलता और हिलबेड द्वारा दिया हुआ अर्थ किसी प्रकार युक्तिसगत नही माना जा सकता। उक्त श्लोक का अभिप्राय बहुत प्राचीन काल की रीति से है जव राजा लोगो के लिए भार्यानो तथा दासी कन्याओ के रखने के सम्बन्ध में विशेषाधिकार थे, किन्तु जिस समय 'महाभारत' अपने वर्तमान रूप को प्राप्त हुआ, उस समय तक उपर्युक्त रोति विलकुल वन्द हो गई थी। इतना भारतीय राज्यतन्त्र मे राष्ट्र की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा गया है। __ अव नैतिक दृष्टिकोण पर विचार करना है। प्लेटो का यह आदर्शवाद कि राष्ट्र का शासन स्वार्थ-रहित तत्त्वज्ञानियो के हाथ में होना चाहिए, भारतीय राजनीति में भी मिलता है। एक आदर्श भारतीय राज्यप्रणाली मे क्षत्रिय को यज्ञ से बचे हुए अन्न के भक्षण द्वारा जीवन-निर्वाह का आदेश है तथा राजा को शास्त्रार्थ के तत्त्व को जानना अनिवार्य कहा गया है (महाभारत १२-२१-१४-क्षत्रियो यज्ञशिष्टाशी राजा शास्त्रार्थतत्त्ववित्), परन्तु इससे अधिक महत्त्व की बात, जो भारतीय राजनीतिज्ञो के मस्तिष्क में थी, वह हॉन्स के मत की तरह अनवरुद्ध युद्ध-नीति थी। अग्रेजी तत्त्वज्ञान के इस बडे प्रचारक ने लिखा है (लेविप्रथन, १११), "सबसे पहले मै सारी मानव-जाति की 'देखिए मनुस्मृति, अ० १२, १३०-१३१ । कौटिल्य (अर्थ०, प्रकरण ३३) ने भूमि-कर उपज का छठा अश बताया है (पिंडकर षड्भाग)। इतना ही बाद के ग्रन्थो में भी मिलता है । कालिदास के 'रघुवंश' से ज्ञात होता है कि वन के मुनियो को भी अपने एकत्रित अन्न का छठा प्रश कर-स्वरूप देना पडता था।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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