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________________ प्रेमी-अभिनदन-प्रय ४० प्रेमीजी ने प्रकाशित की है, वे हिन्दी के लिए ही नहीं, अपितु अन्य भाषानो के लिए भी आदर्श है। उत्तम विचारो के प्रचार की दृष्टि से प्रेमीजी ने इन ग्रन्य-मालाओ का प्रारम्भ किया था। गत वर्षों में मुझे बम्बई अनेक वार जाना पड़ा है और मै प्रत्येक प्रवास में प्रेमीजी से मिले वगैर नही रहा है। मैने उन्हें नये लेखको को सदैव सत्परामर्श देते और उत्साह के साथ उनका मार्ग-प्रदर्शन करते हुए देखा है। मै जव-जव उनसे मिलने गया हूँ, वे अपना सब काम छोडकर बडे प्रेम के साथ मिले है। विविध विषयो पर घटो विचार-विनिमय होता रहा है। उनके विचार मुझे हिन्दी और अग्रेजी के बडे-बडे विचारक विद्वानो से भी उच्च प्रतीत हुए। उनके विचारो की दूरदर्शिता का इसीसे पता लग सकता है कि जिन वातो को उन्होने आज से पच्चीस-तीस वर्ष पूर्व कहा या लिखा था, वे आज कार्यरूप में परिणत हो रही है। प्रेमीजी अपने विचारो के स्वय आदर्श है। यदि उन्होने कभी 'विधवा-विवाह' का समर्थन किया तो स्वय अपने छोटे भाई श्री नन्हेलाल का सर्वप्रथम उसी प्रकार विवाह कर दिखाया। प्रेमीजी का ध्येय 'हिन्दी-ग्रन्य-रत्नाकर-कार्यालय का सचालन, नवीन साहित्य का अध्ययन और सर्जन, पुराने साहित्य की शोव, नवीन लेखको को प्रोत्साहन, आगन्तुको को सत्परामर्श देना एव स्वय सत्य का अन्वेषण करते रहना है। आज इस उत्तरावस्था में अपने एकमात्र पुत्र के चिर-वियोग जैसे वज्राघात के होने पर भी वे अपना अध्ययन वरावर करते रहते है और नित नई खोजो से जैन-प्राचार्यों का इतिहास प्रकाश में लाकर जन-साहित्य का भडार भर रहे हैं। विगत वर्षों में जव-जव प्रेमीजी से मिला तव-तव उनके सुपुत्र स्व० हेमचन्द्र से भी मिला हूँ। वह अपने पिता के समान अध्ययनशील, सरल और निश्छल था। विविध विषयो को पढने और लिखने की रुचि आदि अनेक ऐसे गुण थे, जो उसने अपने पिता से प्राप्त किये थे। यदि वह जीवित रहता तो नि सन्देह सुयोग्य पिता का सुयोग्य पुत्र निकलता, पर दैवगति के सामने किसकी चलती है! प्रेमीजी स्वावलम्वी और अपने पैरो खडे होने वाले व्यक्ति है । उन्होने बहुत छोटी-सी पूंजी से पुस्तकप्रकाशन का कार्य प्रारम्भ किया था। आज उनके अदम्य उत्साह, सच्ची लगन, अनवरत परिश्रम और कर्तव्य-परायणता से उनके कार्यालय को सचमुच 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' कहलाने का गौरव प्राप्त है। मुझे आज लगातार उनसे मिलते हुए तीस वर्ष हो गए, मगर उन्होंने पान तक कभी किसी प्रकार के निजी स्वार्य का प्रस्ताव नहीं रक्खा। यह विशेषता मैंने बहुत कम व्यक्तियो में पाई है। मेरी समझ से स्वावलम्बी होकर दूसरो की सेवा करना ही सच्ची समाजसेवा है। ऐसे आदर्श साहित्य-सेवी और समाज-हितैषी व्यक्ति के सम्मान में जो भी कृतज्ञता प्रकट की जाय, थोडी है। उज्जन ] - - - - - - X
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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