________________
प्रतिभा-मूर्ति सिद्धसेन दिवाकर
३५१ वे स्पष्ट कहते है कि कल्याण का मार्ग अन्य है और वादी का मार्ग अन्य, क्योकि किसी मुनि ने वाग्युद्ध को शिव का उपाय नही कहा है।
"अन्यत एवं श्रेयास्यन्यत एव विचरन्ति वादिवृषा । वाफ्सरभ क्वचिदपि न जगाद मुनि शिवोपायम् ॥" ८७
आद्य जैन दाशनिक व आद्य सर्वदर्शनसग्राहक
दिवाकर पाद्य जैनदार्शनिक तो है ही, पर साथ ही वे आद्य सर्व भारतीय दर्शनो के सग्राहक भी है। सिद्धमेन के पहले किसी भी अन्य भारतीय विद्वान् ने सक्षेप में सभी भारतीय दर्शनो का वास्तविक निस्पण यदि किया हो तो उसका पता अभी तक इतिहास को नही है। एक बार सिद्धमेन के द्वारा सव दर्शनो के वर्णन की प्रथा प्रारम्भ हुई कि फिर आगे उसका अनुकरण किया जाने लगा। आठवी मदी के हरिभद्र ने 'पड्दर्शनसमुच्चय' लिखा, चौदहवी सदी के माधवाचार्य ने 'सर्वदर्शन-सग्रह' लिखा, जो सिद्धमेन के द्वारा प्रारम्भ की हुई प्रथा काही विकास है। जान पडता है, सिद्धसेन ने चार्वाक, मीमासक आदि प्रत्येक दर्शन का वर्णन किया होगा। परन्तु अभी जो बत्तीसियाँ लभ्य है, उनमे न्याय, वैशेषिक, साख्य, वौद्ध, आजीवक और जैनदर्शन की निरुपक वत्तीसियाँ ही है । जैनदर्शन का निरूपण तो एकाधिक वत्तीमियो में हुआ है। पर किसी भी जैन-जनंतर विद्वान् को आश्चर्यचकित करने वाली सिद्धसेन की प्रतिभा का स्पष्ट दर्शन तव होता है जब हम उनकी पुरातनत्व समालोचना विषयक और वेदवाद विषयक दो वत्तीसियो को पढते है। मैं नहीं जानता कि भारत मे ऐसा कोई विद्वान् हुआ हो जिसने पुरातनत्व और नवीनत्व की इतनी क्रान्तिकारिणी तथा हृदयहारिणी एव तलस्पगिनी निर्भय समालोचना की हो। मै ऐसे विद्वान् को भी नहीं जानता कि जिम अकेले ने एक बत्तीसी में प्राचीन सब उपनिषदो तथा गीता का मार वैदिक और औपनिषद भाषा मे ही शाब्दिक और आर्थिक अलकार युक्त चमत्कारिणी सरणी से वर्णित किया हो। जैनपरम्परा मे तो सिद्धसेन के पहले
और पीछे आज तक ऐसा कोई विद्वान् हुआ ही नहीं है जो इतना गहरा उपनिपदो का अभ्यासी रहा हो और प्रौपनिषद भाषा मे ही तत्त्व का वर्णन कर मके । पर जिस परम्परा में मदा एकमात्र उपनिपदो की तथा गीता की प्रतिष्ठा है, उस ग्रोपनिषद वैदिक परम्परा के विद्वान् भी यदि मिद्धसेन की उक्त बत्तीसी को देखेगे तो उनकी प्रतिमा के कायल होकर यही कह उठेंगे कि आज तक यह ग्रन्थरत्न दृष्टिपथ में आने से क्यो रह गया। मेरा विश्वास है कि प्रस्तुत बत्तीसी की ओर किमी भीतीक्ष्ण-प्रज्ञ वैदिक विद्वान् का ध्यान जाता तो वह उस पर कुछ-न-कुछ विना लिखे न रहता। मेरा यह भी विश्वास है कि यदि कोई मूल उपनिपदो का माम्नाय अध्येता जैन विद्वान् होता तो भी उस पर कुछ-न-कुछ लिखता। जो कछ हो, मै यहां सिद्धसेन की प्रतिभा के निदर्शकरूप से उम पुरातनत्व समालोचना विषयक द्वात्रिशिका , में मे कछ ही पद्य भावसहित देता हूँ और सविवेचन समूची वेदवादद्वात्रिंशिका स्वतन्त्र रूप से अलग दूगा, जिसके प्रारम्भ में उसमें प्रवेश करने के लिए समुचित प्रास्ताविक वक्तव्य भी है।
कभी-कभी सम्प्रदायाभिनिवेश वश अपढ व्यक्ति भी, आज ही की तरह उस समय भी विद्वानो के सम्मुख चर्चा करने की धृष्टता करते होगे। इस स्थिति का मजाक करते हुए सिद्धसेन कहते है कि विना ही पढे पण्डितमन्य व्यक्ति विद्वानो के सामने बोलने की इच्छा करता है फिर भी उमी क्षण वह नही फट पडता तो प्रश्न होता है कि क्या कोई देवता दुनिया पर शासन करने वाले है ? अर्थात् यदि कोई न्यायकारी देव होता तो ऐसे व्यक्ति को तत्क्षण ही सीधा क्यो नही करता?
"यदशिक्षितपण्डितो जनो विदुषामिच्छति वक्तुमग्रत ?
न च तत्क्षणमेव शीर्यते जगत किं प्रभवन्ति देवता" (६ १) विरोधी वढ जाने के भय से सच्ची बात भी कहने में बहुत से समालोचक हिचकिचाते है । इस भीरु मनोदशा