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प्रेमी - श्रभिनदन-प्रथ
द बोधगया', १८९६) । यहाँ पर हम उन तीनो पत्रो का पूरा अनुवाद दे रहे हैं, क्योकि इनसे उस प्राचीन समय में भी भारतीय और विदेशी विद्वानो के पारस्परिक घनिष्ट सम्वन्धो पर पर्याप्त प्रकाश पडता है ।
श्यूनान्-चुनाडु के दो सस्कृत नाम थे । महायानी उसे 'महायानदेव' कहते थे और हीनयान के अनुयायी उसे ‘मोक्षदेव' या ‘मोक्षाचार्य' कहकर पुकारते थे । नीचे के पत्रो में यही दूसरा नाम प्रयुक्त हुआ है ।
( १ )
प्रज्ञादेव और ज्ञानप्रभ का श्यूआन्- चुआड के नाम पत्र
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(श्यूनान्-चुनाडु का जीवनचरित्र, नानकिड् मस्करण, तृतीय, अध्याय ७, पृ० १५ अ -१५ श्रा) (3
सवत् ७१२ (६५५ ई०) के पचम महीने मे ग्रीष्म ऋतु के समय, श्रार्यभिक्षु ज्ञानप्रभ (चीनी नाम च- कुशाडु), प्रज्ञादेव' (चीनी रूप हुअइ-थिश्रान्) तथा मध्य देश के महाबोधि विहार के दूसरे भिक्षुग्रो ने मोक्षाचार्य के पास एक पत्र भेजा । ज्ञानप्रभ हीनयान और महायान दोनो साहित्यो के तथा अन्य धर्मों के साहित्य जैसे चार वेद और पांचो विद्याओ के भी प्रका विद्वान् थे । महान् आचार्य शीलभद्र के सव शिष्यो में ज्ञानप्रभ सवसे मुख्य थे । प्रज्ञादेव हीनयान बौद्ध धर्म के अठारह सम्प्रदायो के समस्त माहित्य से परिचित और उसमे निष्णात थे । अपनी विद्या श्रोर चरित्रवल के कारण उन्हे सव का आदर प्राप्त था । भारत मे रहते हुए श्यूनान्-चुआ को हीनयान के विद्वानो के खडन के विरुद्ध महायान के सिद्धान्तो का पक्ष लेना पडा था, किन्तु भद्रता से किये हुए उन शास्त्रार्थी के कारण उसके प्रति उनके मन मे जो आदर और प्रेम का भाव था, उसमें तनिक भी अन्तर नही पडा । इसलिए प्रज्ञादेव ने उसी विहार के भिक्षु धर्मवर्धन' (फा-चाड्) के हस्ते अपने रचे हुए एक स्तोत्र और धौतवस्त्र युगल के साथ एक पत्र श्यूग्रान्-चुाड् के पास भेजा । वह पत्र इस प्रकार था --
" स्थविर प्रज्ञादेव, जिसने महाबोधि मन्दिर मे भगवान् बुद्ध के वज्रासन के पास रहने वाले विद्वानो का सत्सग किया है, यह पत्र महाचीन के उन मोक्षाचार्य महोदय की सेवा मे भेजते हैं, जो सूत्र, विनय श्रीर शास्त्रो के सूक्ष्म ज्ञाता है । मेरी प्रार्थना है कि आप सदा रोग श्रीर दुखो से मुक्त रहें ।
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मै- भिक्षु प्रज्ञादेव - ने अव बुद्ध के महान और दिव्य रूपान्तरो पर एक स्तोत्र ( निकायस्तोन ? ) तथा एक दूसरा ग्रन्थ ‘सूत्रो और शास्त्रो का तुलनात्मक विचार' विषय पर बनाया है। उन्हें में भिक्षु फा चाड़ को श्रापके पास पहुँचाने के लिए दे रहा हूँ । मेरे साथ आचार्य आर्य भदन्त ज्ञानप्रभ, जो बहुश्रुत और गम्भीरवेत्ता है, श्रापका कुशल समाचार जानना चाहते है । यहाँ के उपासक आपके लिए अपना अभिवादन भेजते है । सब की ओर से एक धीतवस्त्र युगल आपकी सेवा में अर्पित करते है । कृपया इससे यह विचारे कि हम आपको भूले नही है । मार्ग लम्बा है । श्रतएव इस भेट की अल्पता पर कृपया ध्यान न कर हमारी प्रार्थना है कि श्राप इसे स्वीकार करे। जो सूत्र और ग्रथ गास्न चाहिए कृपया उनकी एक सूची भिजवा दें। हम उनकी प्रतिलिपि करके श्राप के पास भेज देगे । प्रिय मोक्षाचार्य, हमारा इतना निवेदन है ।"
( २ )
श्यूआन्- चुआड का उत्तर ज्ञानप्रभ के नाम-
फा-चाड् (धर्मवर्धन) दूसरे मास में वसन्त-काल ( यूङ्-हुइ वर्ष में ) विक्रम संवत् में वापिस गए। उसी वर्षं श्यूआन्-चुप्राङ्ने ज्ञानप्रभ के नाम नीचे लिखा पत्र धर्मवर्धन के हाथ भेजा—
''प्रज्ञादेव' नाम चीनी से उल्था किया गया है, पर इसके सही होने का निश्चय नहीं है । मूल चीनी शब्दों का अर्थ है - मतिदेव । किन्तु चीनी भाषा में 'हुनइ' पद के दो श्रर्थ है-मति और प्रज्ञा और दोनो में कभी-कभी गडबड हो जाता है । चीनी फा-चा का अर्थ है 'धर्म- लम्बा' । इसका सस्कृत रूप धर्मवर्धन हो सकता है । एक चीनी मित्र की सम्मति में 'फा-चा' का मूल धर्मनायक भी सम्भव है । ( अनुवादक की टिप्पणी )