________________
श्यूान्-चुआ और उनके भारतीय मित्रों के
बीच का पत्रव्यवहार
श्री प्रबोधचन्द्र बागची एम० ए०, डी० लिट० महान् चीनीयात्री श्यूप्रान्-चुआड भारत में सोलह वर्ष तक (६३०-६४५ ई०) रहा। उसका अधिकाश समय नालन्दा मे तत्कालीन आचार्य शीलभद्र के पास वौद्ध दर्शन का अध्ययन करने में बीता। सम्राट हर्षवर्धन ने तीन वार उसे राजधानी में आने का निमन्त्रण दिया, पर उसने स्वीकार नही किया। बाद मे जव हर्ष से भेट हुई तव उसने इसका कारण पूछा। श्यूआन्-चुपाड् ने उत्तर दिया कि वह इतनी दूर से बौद्धधर्म को जिज्ञासा और बौद्ध दर्शन के अध्ययन का ध्येय लेकर आया था और क्योकि उसका वह उद्देश्य तवतक पूरा नही हुआ था, इसलिए वह सम्राट से मिलने न आ मका (बील, श्यूप्रान्-चुनाड् का जीवनचरित, पृ० १७३-१७४) । इससे नालन्दा मे अध्ययन के प्रति उसकी गहरी आसक्ति प्रकट होती है। अपने गुरु शीलभद्र और अपने सहपाठियो के, विशेषकर ज्ञानप्रभ के लिए जो शीलभद्र के प्रधान शिष्य थे, उसके मन मे ऐसा ही गहरा प्रेम था।
श्यूमान्-चुप्राइ के भारतीय मित्रो के मन में भी उसके लिए वैसे ही भाव थे। नालन्दा से उसके विदा लेते ममय जो घटना घटी उसमे इसका कुछ परिचय मिलता है। यह सुनकर कि वह चीन लौटने के लिए तैयार था, नालन्दा विहार के मव भिक्षु मिलकर उसके पास आये और यही रह जाने के लिए अनुरोध करने लगे। उन्होने कहा कि भारतवर्ष भगवान् वुद्ध को जन्मभूमि है, चीन इस तरह की तोर्य-भूमि नहीं है। उन्होने वातचीत के सिलसिले मे यहाँ तक कह डाला कि बुद्ध का जन्म चीन में कभी न हो सकता था, और इसलिए चीन के निवासियो में वह धर्म-भाव कहाँ सम्भव है । किन्तु श्यूअान्-चुअाड् ने उत्तर दिया कि बुद्ध का धर्म सारे समार मे फैलने के लिए है, इसलिए चीन देश को वुद्ध के अनुग्रह मे वचित नही रखा जा सकता। जव मव युक्तियाँ व्यर्थ हुई तव उन्होने यह दुखद समाचार प्राचार्य शीलभद्र के पास पहुंचाया। तव शीलभद्र ने म्यूग्रान्-चुआड को बुलाकर कहा-"क्यो भद्र, तुमने ऐसा निश्चय किस कारण से किया है ?" श्यूपान्-चुवाड् ने उत्तर दिया-"यह देश वुद्ध की जन्मभूमि है। इसके प्रति प्रेम न हो सकना असम्भव है। लेकिन यहां आने का मेरा उद्देश्य यही था कि अपने भाइयो के हित के लिए मै भगवान् के महान् धर्म की खोज करूं
__ मेरा यहाँ आना बहुत ही लाभदायक सिद्ध हुआ है। अव यहाँ से वापिस जाकर मेरी इच्छा है कि जो मैने पढा-सुना है, उमे दूसरो के हितार्थ वताऊँ और अनुवाद रूप मे लाऊँ, जिसके फलस्वरूप अन्य मनुष्य भी आपके प्रति उसी प्रकार - कृतज्ञ हो सकें, जिस प्रकार मैहुआ है।" इस उत्तर से शीलभद्र को वडी प्रसन्नता हुई और उन्होने कहा-"ये उदात्त विचार
तो वोधिसत्वो जैसे है। मेरा हृदय भी तुम्हारी सदागानो का समर्थन करता है।" तव उन्होने उसकी विदाई का सव प्रवन्ध करा दिया (वील-वही, पृ० १६६)। उस विछुडने में दोनो पक्षो ने ही वडे दुःख का अनुभव किया होगा।
चीन को लौट जाने के बाद भी उस यात्री का अपने भारतीय मित्रो के साथ वैसा ही घनिष्ट सम्वन्ध बना रहा । हुअइ-ली (Hut-1) ने जो श्यूमान-चुनाइ का जीवनचरित लिखा है (मूल ची० पुस्तक, अध्याय ७) उसमें तीन ऐसे पत्र सुरक्षित है, जो मूल सस्कृत भाषा में थे और श्यूप्रान्-चुना और उसके भारतीय मित्रो के बीच लिखे गये थे। उनमें से दो पाशिक रूप से चीन के वौद्ध विश्वकोष फो-चु-लि-ताय्-थुङ्-चाय नामक ग्रन्थ मे सन्निविष्ट है, जिनका शावान (Chavannes) ने फिरगी भाषा में अनुवाद किया था। (वोधगया के चीनी लेख, 'ल इस्क्रिप्त्सिा शिनुमा
'अग्रेजी और फ्रेंच हिज्जे के कारण जिस नाम को हम हिन्दी में प्राय युअन च्वाइ या हुअन-साग लिखते है उसका शुद्ध चीनी उच्चारण 'श्यूप्रान्-चुनाइ' है ।-अनुवादक (वासुदेवशरण अग्रवाल)