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________________ श्यूनान्- चुना और उनके भारतीय मित्रो के बीच का पत्रव्यवहार २१५ "महान् थाडु वशी राजाओ के देश का निवासी भिक्षु श्यूत्रान् चुम्राङ् मध्य देश में मगध के धर्माचार्य त्रिपिटकाचार्य भदन्त ज्ञानप्रभ की सेवा मे नम्रता पूर्वक लिखता है । मुझे लौटे हुए दश वर्ष से अधिक हो चुके । हमारे उभय देशो की सीमाएँ एक दूसरे से बहुत दूर है। मुझे द्यापका कुछ समाचार नहीं मिला। इसलिए मेरी चिन्ता बढ रही थी । अव भिक्षु फा चाङ् से पूछने पर ज्ञात हुआ कि आप सब कुगल मे है। इस समाचार से मुझे जितना हर्प हुआ, लेखनी उसका वर्णन नहीं कर सकती । वहाँ की जलवायु अव उष्ण होती जा रही होगी और में कह नही सकता कि श्रागे चल कर क्या हाल होगा ।" । भारतवर्ष से हाल ही में लौटे हुए एक सन्देशहर से मुझे पता चला है कि पूज्य श्राचार्य शोलभद्र श्रव इस लोक में नहीं रहे। यह समाचार पाकर मुझे अपार दुख हुआ गोक है, इस दुखमय भवसागर की वह नौका डूब गई, मनुष्यो श्रीर देवताओ का नेत्र मुद गया। उनके न रहने के दुख को किस प्रकार प्रकट करूँ ? पुराकाल में जब भगवान बुद्ध ने अपना प्रकाश समेट लिया था, कश्यप ने उनके कार्य को जारी रक्खा और वढाया। शोणवास के इस समार से विदा हो लेने पर उपगुप्त ने उनके सुन्दर धर्म के उपदेश का सिलसिला बनाए रक्खा । श्रव धर्म का एक सेनानी अपने सच्चे वाम को चला गया है, अतएव उसके वाद में रहे धर्माचार्यों को चाहिए कि अपने कर्त्तव्य का पालन करें। "मेरी तो यही अभिलापा है कि ( धर्म के) पवित्र उपदेशो और सूक्ष्म विचारो की महोर्मियाँ चार समुद्रो की लहरो की तरह फैलती रहे और पवित्र ज्ञान पाँच पर्वतों के समान सदा स्थिर रहे । जो सूत्र और शास्त्र में इयूमान् चुग्राङ् ग्रपने साथ लाया था उनमे से योगाचार - भूमि - शास्त्र का तथा अन्य ग्रन्थो का अनुवाद तीस जिल्दों में में समाप्त कर चुका हूँ । कोप श्रीर न्यायानुमार शास्त्र' का अनुवाद अभी पूरा नही हुआ है, पर इस साल वे श्रवश्य पूरे हो जाएगे । इम समय यहाँ थाडु वश के देवपुत्र सम्राट् अपने धर्माचरण और अनेक कल्याणो के द्वारा देश का शासन कर रहे है और प्रजा को सुख शान्ति दे रहे है । चक्रवर्ती के तुल्य अपनी भक्ति से और धर्मराज की भाँति वे धर्म के दूर-दूर तक प्रचार में सहायक हो रहे है। जिन सूत्रो और शास्त्रो का हमने श्रनुवाद किया है उन के लिए सम्राट् ने अपनी पवित्र लेखनी से एक भूमिका लिख देने का अनुग्रह किया है । उन के विषय में अधिकारियो को यह भी आदेश मिला कि वे इन ग्रन्यो का सब देशो मे प्रचार करे। जिस समय इस श्रादेश पर पूरी तरह अमल होगा, हमारे पडोमी देशो मे भो सव ग्रन्थ पहुँच जाएगे । यद्यपि कल्प के अन्त होने के दिन निकट है, फिर भी धर्म का फैला हुआ प्रकाश श्रभी तक बडा मवुर और पूर्ण है। श्रावस्ती के जेतवन में जो धर्म का श्राविर्भाव हुआ था उस से यह प्रकाश विल्कुल भिन्न नही है । मै नम्रता-पूर्वक आपको यह भी सूचित कर देना चाहता हूँ कि सिन्धु नद पार करते समय साथ लाए हुए धर्मग्रन्थो को एक गठरी उसमें गिर पडी थी । श्रव इस पत्र के साथ उनकी एक सूची नत्यी कर रहा हूँ। मेरी प्रार्थना है कि अवसर मिलते ही कृपया उन्हें भेज दीजिएगा। मेरी थोर से कुछ तुच्छ भेट प्रेषित है। कृपया उन्हें स्वीकार करें। मार्ग इतना लम्बा है कि अधिक कुछ भेजना सम्भव ही नही है । कृपया इस से श्रवज्ञा न मानिएगा । श्यूआन्-चुनाडु का प्रणाम ।" 'यहाँ भारतवर्ष की करारी गर्मी की ओर सकेत है । * कोप का तात्पर्य वसुबन्ध के तीस श्रध्यायात्मक श्रभिधर्म कोषव्याख्या नामक ग्रन्थ (नन्जिनो का सूचीपत्र स० १२६७) से है । इमका अनुवाद ६५१ ६० के पाँचवें महीने की १० तारीख को शुरू किया गया और सन् ६५४ के सातवें मास को २७ ता० को समाप्त हुआ। दूसरा ग्रन्य सघभद्र विरचित 'न्यायानुसार शास्त्र' (नन्जिन्नो, स० १२६५) है। इसका अनुवाद सन् ६५३ में पहले महीने की पहली तारीख को शुरू हुआ और सन् ६५४ में वें मास की १० ता० को समाप्त हुआ । यह पत्र सन् ६५४ के पांचवें मास में लिखा गया था ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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