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प्रेमी - श्रभिनदन- प्रथ
( ३ ) प्रज्ञादेव के नाम श्यूआन्- चुआड का पत्र
"महान् था देश के भिक्षु इम्रान्-चुआ महावोधि विहार के धर्माचार्य, त्रिपिटकाचार्य, प्रज्ञादेव से सादर निवेदन करते है-वहुत समय व्यतीत हो गया । आपका कोई समाचार न मिला था, जिसके कारण में बहुत चिन्तित था । इस चिन्ता को दूर करने का कोई साधन भी न था । जव भिक्षु धर्म-वर्धन ( फा - चाड् ) श्राप का पत्र ले कर पहुँचा तो मुझे मालूम हुआ कि आप सब कुशल से है। इस से मुझे बडा हर्ष हुआ । श्राप के भेजे हुए वस्त्र युगल और स्तोत्र संग्रह मुझे मिल गए। यह ऐसा वडा सम्मान आप ने किया, जिस के में योग्य नही था । इसके कारण में लज्जित हूँ । ऋतु धीरे-धीरे गर्म हो रही है । मैं नही जानता कि कुछ दिन बाद यह कितनी गर्म हो जायगी और आप सब किस प्रकार रहेंगे। आप ने सैकडो सम्प्रदायो के शास्त्रो की धज्जियाँ उड़ा दी है और नवाग बुद्ध शासन के सूत्र ग्रन्थो की सत्यता प्रमाणित कर दी है । सत्यधर्म की ध्वजा को ग्रापने ऊँचा उठा दिया है और सव को लक्ष्य तक पहुँचने में सहायता दी है। अपने विजय की दुन्दुभि बजा कर विपक्षियों को परास्त कर दिया है। श्रापने ज्ञान के एकच्छव अधिकार से सव राजाश्रो को भी चुनौती दे डाली है। सचमुच आप इसके कारण महान् श्रानन्द का अनुभव करते होगे । • मै इयूमान् चुना प्रबुध हूँ । इस समय बुढापा था रहा है और मेरी शक्ति घट रही है । में श्रापके गुणो का स्मरण करता हूँ और आपकी कृपा के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है । फिर, इन विचारो से मुझे और भी खेद हो रहा है । जब मैं भारत मे था, मेरी आपसे कान्यकुब्ज की सभा में भेट हुई । उस समय अनेक राजाओ और धर्मानुयायियो के सामने सिद्धान्तो का निश्चय करने के लिए मैंने आपसे शास्त्रार्थ किया । एक पक्ष महायान का पोपण कर रहा था और दूसरा पक्ष हीनयान (श्र-पूर्ण धर्म) का समर्थन । शास्त्रार्थ के समय कभी वातावरण बडा उग्र हो जाता था और कभी शान्त । मेरा उद्देश्य केवल युक्ति और तर्क को ग्रहण करना था, किसी प्रकार का पक्षपात दिखाना नही। इसी कारण हम दोनो एक दूसरे के विरुद्ध थे। जब वह सभा समाप्त हुई, हमारा विरोध भी उसी के साथ समाप्त हो गया । अव सन्देशहर के हाथ आपने अपना पत्र और क्षमाप्रार्थना भेजी है। श्राप उस बात को मन मे क्यो रख रहे है ? आप अगाध विद्वान् हैं, आपकी शैली स्पष्ट हैं, ग्रापका निश्चय दृढ है और श्रापका चरित्र उच्च | अनवतप्त सरोवर में उठने वाली लहरो की भी तुलना श्रापकी प्रवृत्तियो से नही की जा सकती। मणि की स्वच्छता भी आपकी वरावरी नही कर सकती । आप अपने शिष्यो के लिए उज्ज्वल आदर्श है। मै चाहता हूँ कि धर्म के व्याख्यान में आपने भी महायान का आश्रय लिया होता। जब युक्ति अविकल होती है तो उसको प्रकट करने वाले शब्द भी अपनी पराकाष्ठा को प्राप्त कर लेते है । महायान से बढकर अन्य कुछ नही है । मुझे खेद है कि आपकी श्रद्धा उसमे गहरी न हो सकी । आप घौली गाय को छोडकर बकरी और हिरन को ले रहे है और मणि के स्थान पर स्फटिक से सन्तुष्ट है । आप तो स्वय प्रकाश और उदात्त गुणो के आगार है। फिर महायान की उपेक्षा कैसे कर रहे है ? मिट्टी के घट की तरह आपका शरीर नश्वर और अल्पस्थायी है। कृपया सम्यक् दृष्टि निष्पन्न कीजिए जिससे मृत्यु से पहले पछताना न पडे । यह सन्देशहर अब भारत को लौटेगा । मैं यह सम्मति आपके प्रति अपने प्रेम को प्रकट करने के लिए ही दे रहा हूँ । आपके उपहार के प्रति निजी कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिए में भी एक तुच्छ भेंट भेज रहा हूँ । श्रापके लिए मेरे मन में जो गहरा सम्मान हैं, उसे यह व्यक्त नही कर सकता । आशा है कि आप मेरा भाव समझते हैं | वापिसी यात्रा में सिन्धु पार करते समय धर्मग्रन्थो की एक गठरी नदी में गिर गई थी। उनकी एक सूची इस पत्र के साथ भेजता हूँ । प्रार्थना है कि उन्हें भेजने की कृपा करे । भिक्षु धान्-चुआ का प्रणाम ।"
शातिनिकेतन ]
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'इयूनान्-चुनाडु ने जिस क्षमाप्रार्थना का सकेत किया है वह प्रज्ञादेव के पत्र में उल्लिखित 'सूत्रों और शास्त्रो का तुलनात्मक अध्ययन' इस ग्रन्थ में रही होगी । श्यूनान् चुनाई की कुछ युक्तियो का उत्तर देने के लिए ही स्पष्टत इस ग्रन्थ की रचना हुई थी ।