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प्रेमी-अभिनंदन-प्रथ ६३०
गृहस्थ ही नही, साधु-समाज को भी इस सिद्धान्त का बही कठोरता से पालन करना पड़ता है। भगवान महावीर ने कहा है-"यदि कोई साधू अपने बीमार या सकटापन्न साथी को छोड कर तपश्चरण करने लग जाता है, शास्त्र-चितन में सलग्न हो जाता है या और किसी अपनी व्यक्तिगत साधना में लग जाता है तो वह अपराधी है, सघ मे रहने योग्य नहीं है। उसे एक सौ वीस उपवासो का प्रायश्चित लेना पडेगा, अन्यथा उसकी शुद्धि नही हो सकती।" इतना ही नहीं, एक गांव मे साथी साधू वीमार पडा हो और दूसरा साधू जानता हुआ भी गांव से वाहर-ही-वाहर दूसरे गांव में चला जाय,रोगी की सेवा के लिए गांव में न जाय तो वह भी महान पापी है, उग्रदण्ड का अधिकारी है। भगवान महावीर का कहना है कि सेवा स्वय बडा भारी तप है। अत जब भी कभी सेवा करने का अवसर मिले तो नही छोडना चाहिए। सच्चा जैन वह है, जो सेवा करने के लिए सदा प्राों की, दीन-दुखितो की, पतितो एव दलितो की खोज में रहता है।'
'स्थानाग-सूत्र' में भगवान महावीर की पाठ महान् शिक्षाएँ बडी प्रसिद्ध है। उसमे पांचवी शिक्षा यह है"असगिहीय परिजणस्स सगिण्हयाए प्रभुठेयन्व भवइ ।" अर्थात्-जो अनाश्रित है, निराधार है, कही भी जीवन-यापन के लिए उचित स्थान नहीं पा रहा है, उसे तुम आश्रय दो, सहारा दो, जीवन-यात्रा के लिए यथोचित प्रवन्ध करो। जैन गृहस्थ का द्वार प्रत्येक असहाय के लिए खुला हुआ है ।" वहां किसी जाति, कुल, देश या धर्म के भेद के विना मानवमात्र के लिए जगह है।
एक वात और भी बड़े महत्त्व की है। इस बात ने तो सेवा का स्थान बहुत ही ऊंचा कर दिया है। जैन धर्म में सबसे बडा और ऊंचा पद तीर्थकर का माना गया है । तीर्थकर होने का अर्थ यह है कि वह जैन समाज का पूजनीय महापुरुष देव वन जाता है। भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर दोनो तीर्थकर है। भगवान महावीर ने अपने जीवन के अन्तिम प्रवचन में सेवा का महत्त्व बताते हुए कहा है-“वपावच्चेण तित्ययर नाम गोत्त कम्म निवधइ । अर्थात्-वैयावृत्त करने से सेवा करने से तीर्थकर पद की प्राप्ति होती है। साधारण जनसमाज मे सेवा का आकर्षण पैदा करने के लिए भगवान महावीर का यह आदर्श प्रवचन कितना महान है।
आचार्य लक्ष्मीवल्लभ ने भगवान महावीर और गौतम का एक सुन्दर सवाद हमारे सामने रक्खा है। सवाद में भगवान महावीर ने दुखितो की सेवा को अपनी सेवा की अपेक्षा भी अधिक महत्त्व दिया है। सवाद का विस्तत एव स्पष्ट रूप इस प्रकार है -
श्री इन्द्रभूति गौतम ने जो भगवान महावीर के सब से बडे गणधर थे, भगवान महावीर से पूछा-भगवन् । एक सज्जन दिन-रात आपकी सेवा करता है, आपकी पूजा-भक्ति करता है। फलत उसे दूसरे दुखितो की सेवा के लिए अवकाश नहीं। दूसरा सज्जन दुखितो की सेवा करता है, सहायता करता है, फलत उसे आपकी सेवा के लिए अवकाश नहीं। भन्ते । दोनो में से आपकी ओर से धन्यवाद का पात्र कौन है और दोनो में श्रेष्ठ कौन है ?
भगवान महावीर ने वडे रहस्यभरे ढग से उत्तर दिया-गौतम | जो दीन दुखितो की सेवा करता है, वह श्रेष्ठ है। वही मेरे धन्यवाद का पात्र है।
'निशीथ सूत्र । २ उत्तराध्ययन, तपोमार्ग अध्ययन । 'प्रोपपातिक। *स्थानाग सूत्र, ८,६१ 'भगवती सूत्र। 'उत्तराध्ययन २६, ४३
उत्तराध्ययन, सर्वार्थसिद्धि, परिषद अध्ययन।