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________________ प्रेमी-अभिनंदन ग्रंथ तात्त्विक प्रश्न प्रत्यक्ष रूप मे सतत परिवर्तनशील यह वाह्य विश्व कव उत्पन्न हुआ होगा ? किसमे से उत्पन्न हुया होगा ? स्वय उत्पन्न हुआ होगा या किसी ने उत्पन्न किया होगा ? और उत्पन्न नही हुआ हो तो क्या यह विश्व ऐसे ही था श्रीर है ? यदि उसके कारण हो तो वे स्त्रय परिवर्तनविहीन नित्य ही होने चाहिए या परिवर्तनशील होने चाहिए ? ये कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के होगे या समग्र वाह्य विश्व का कारण केवल एकरूप ही होगा ? इस विश्व की व्यवस्थित और नियमवद्ध जो सचालना और रचना दृष्टिगोचर होती है वह बुद्धिपूर्वक होनी चाहिए या यत्रवत् अनादि सिद्ध होनी चाहिए ? यदि बुद्धिपूर्वक विश्वव्यवस्था हो तो वह किसकी बुद्धि की आभारी है ? क्या वह वुद्धिमान् तत्त्व स्वय तटस्थ रह करके विश्व का नियमन करता है या वह स्वयं ही विश्व रूप से परिणमता है या श्राभासित मात्र होता है ? २६६ उपर्युक्त प्रणाली के अनुसार आन्तरिक विश्व के सम्वन्ध मे भी प्रश्न हुए कि जो यह वाह्य विश्व का उपभोग करता है या जो वाह्य विश्व के विषय में और अपने विषय में विचार करता है वह तत्त्व क्या है ? क्या यह अहरूप से भामित होने वाला तत्त्व वाह्य विश्व जैमी ही प्रकृति वाला है या किसी भिन्न स्वभाव वाला है ? यह श्रान्तरिक तत्त्व अनादि है या वह भी कभी किसी अन्य कारण मे से उत्पन्न हुआ है ? अहरूप से भासित होने वाले अनेक तत्त्व वस्तुत free ही है ? या किमी एक मूल तत्त्व की निर्मितियां है ? ये सभी सजीव तत्त्व वस्तुत भिन्न ही है तो क्या वे परिवर्तनशील है ? या मात्र कूटस्थ है ? इन तत्त्वो का कभी अन्त आने वाला है या ये काल की दृष्टि मे अन्तरहित ही हे ? इसी प्रकार ये सव देहमर्यादिन तत्त्व वस्तुत देश की दृष्टि से व्यापक है या मर्यादित है ये और इसके जैसे दूसरे बहुत मे प्रश्न तत्त्वचिन्तन के प्रदेश में उपस्थित हुए। इन सव प्रश्नो का या इनमें मे कुछ का उत्तर हम विभिन्न प्रजा के तात्त्विक चिन्तन के इतिहास में अनेक प्रकार से देखते है । ग्रीक विचारको बहुत प्राचीन काल से इन प्रश्नो की ओर दृष्टिपात करना प्रारम्भ किया । उनका चिन्तन अनेक प्रकार से विकमित हुआ, जिसका कि पाश्चात्य तत्त्वज्ञान में महत्त्वपूर्ण भाग है । आर्यावर्त के विचारको ने तो ग्रीक चिन्तको के पूर्व हज़ारो वप पहले से इन प्रश्नो के उत्तर प्राप्त करने के लिए विविध प्रयत्न किये, जिनका इतिहास हमारे सामने ? स्पष्ट I उत्तरो का सक्षिप्त वर्गीकरण आर्य विचारको के द्वारा एक-एक प्रश्न के सम्वन्ध मे दिये हुए भिन्न-भिन्न उत्तर और उनके विषय में भी मतभेद की शाखाएँ अपार है, परन्तु मामान्य रीति से हम सक्षेप मे उन उत्तरो का वर्गीकरण करें तो इस प्रकार कर सकते हैं । एक विचार प्रवाह ऐसा प्रारम्भ हुआ कि वह वाह्य विश्व को जन्य मानता था । परन्तु वह विश्व किसी कारण मे मे बिलकुल नया हो-- पहले ही ही नही, वैसे उत्पन्न होने का निषेध करता था और यह कहता कि जिस प्रकार दूध में मक्खन छिपा रहता है और कभी केवल आविर्भाव होता रहता है, उसी प्रकार यह सारा स्थूल विश्व किमी सूक्ष्म कारण मे मे केवल आविर्भाव होता रहता है और यह मूल कारण तो स्वत सिद्ध अनादि है । दूसरा विचार प्रवाह यह मानता था कि यह वाह्य विश्व किसी एक कारण में से उत्पन्न नही हुआ है, परन्तु स्वभाव से ही विभिन्न ऐसे उसके अनेक कारण है और इन कारणो में भी विश्व दूध मे मक्खन की तरह छिपा नही रहता है, परन्तु भिन्न-भिन्न काष्ठ खडो के सयोग से एक गाडी नवीन ही तैयार होती है, उसी प्रकार उन भिन्न-भिन्न प्रकार के मूल कारणो के सश्लेषण विश्लेषण में से यह वाह्य विश्व विलकुल नवीन ही उत्पन्न होता है । पहला परिणामवादी है और दूसरा कार्यवादी । ये दोनो विचारप्रवाह बाह्य विश्व के आविर्भाव या उत्पत्ति के सम्वन्ध में मतभेद रखने वाले होने पर भी प्रान्तरिक विश्व के स्वरूप के सम्बन्ध मे सामान्यरूप से एकमत थे । दोनो यह मानते थे कि अहू नाम का श्रात्म-तत्त्व अनादि है । वह न तो किसी का परिणाम है और न किसी कारण मे से उत्पन्न हुआ
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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