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प्रेमी-अभिनंदन-प्रेय
वताल-पत्रविमति' की भी यही स्थिति है। यहां हम इसी पर विचार करेंगे कि इन अतिरोचक कथा-पन्य के मूल में क्या है।
'वैतात-पव-विमति' नस्कृत-साहित्य का प्रसिद्ध क्या-प्रत्य है। इसका देश-विदेश की अनेक भापामोमें अनुवाद हो गया है, जो इसकी रोकता का प्रनाग है। यद्यपि कथा-कल्पनाएँ अपने निर्माण के पूर्व या समकालीन नमाज-स्थिति और सर्वप्रिय प्रत्रनित विषपो और वातावरणों पर ही निर्मित होती है तथापि कया-गाया-ग्रन्यो का मूचाक्न ऐतिहानिक आधार पर अवलम्बित नहीं न्यिा जाता। उक्त पचविंगति को भी इनी परम्परा के कारण 'कया' का नहत ही मिलना श रहा है। इनसे अधिक उजत पुलक की कयासो को इतिहास की कनोटी पर कमा गया या नहीं इनका हमें पता नहीं। 'वैताल पचविंशति का उत्तर प्रान्तो में कितना अधिक प्रचार है, यह भी हमें ठीक नालून नहीं, पर मालव-देन में तो ने अत्यधिक लोर-प्रियता प्राप्त है। नस्कृत के बाद जन-मापा मे वह वैतातपच्चोनी के रूप में सर्वान्य एव सर्वप्रिय स्थान पर अधिप्लिहै। वैताल को इन दिलचस्प कया-मालिका की निगेपता यह है कि हर एक कया के पूरेहोते न होने देताल अपने स्थान पर वापिस लौटाता है और णन अथवा श्रोता के मन में एक अतृप्त लालना बनी रहती है। वेतात की कया में विक्रमादित्य काही महत्त्व है। इस कया की प्रारम्भिक परम्परा कब से और किन कारणो से हुई, यह बतलाना कठिन है। ५. इतना स्पष्ट है कि यह अभिनव तो कदापि नहीं है। मतान्दियो पूर्व से इसका पर्याप्त प्रचार रहा है। ग्यारहवी शताब्दी में इस कथा का स्रोत थोडे फेर-फार
नाय कयारिलागर में प्राप्त होता है, क्नुि कया सरित्सागर में इसका अवतरण तो पैशाची भाषा की वृहत्कथा सेही हुआहै, जो कि प्रथम गती की रचना थी। नी का ननेप क्यारिलागर है। मकर कवि के पश्चात् चौदहवी मती में जन-ति के सूत्रबद्ध-पर्ता जैन विद्वान मेस्तुग मूरि ने अपनी प्रवन्व-चिन्तामणि' में भी इस आगिक रूप में स्थान दिया है। इस प्रकार कई भतियो की परम्परा को लेकर यह अपने तथ्य-रूप में व्यापक लोक-प्रियता लिये हुए अधाववि निरजीवी है।
ताल-पदिशति में विन के राज्यारोहण की कया रोचक रूप से वर्णित हुई है। उज्जैन के राजनिहासन पर दीर्ष काल पर्यन्त कोई भी एक राजा स्थायी रूप से नही बैठ पाता था। प्राय रात को कोई भक्ति ग्राक से अपना नक्ष्य बना लेती थी। फ्लत प्रतिदिन एक-एक व्यक्ति चुन कर लाया जाता और वह अयोग्य निश होकर उन मन्ति का भव्य वन पाया करता था। नारपुर-प्रान्त में ऐसा नात्त और आतक था कि कोई राजा बनने को तैयार ही नहीं होता था। इसी सिलसिले में एक दिन 'विक्रम नानक एक निर्धन व्यक्ति की वारी आई। वह सिंहासन पर पाकर बैग और उसने अपने बौद्धिक चातुर्य और माह से काम लिया। उसने विचार किया कि जो अज्ञात शक्ति मासक की बलि लेती है, उसे अन्य प्रकार से सन्तुष्ट कर लिया जाय और सतर्क रहकर उनका मुकाबला दिया जाय। यह सोच विविध रत के पकवानो की योजना करके विक्रम सङ्गहस्त हो एकान्त में धुत कड़ा हो गया। मध्य-निशा के निविडान्वकार में सहता द्वार से घूम-पटलो और लपटो के प्रवेश के बाद पन्त की भांति एक भयानक पुरष ने कक्ष में पदार्पण किया। आते ही खुवातुर हो उसने पकवानो पर हाथ डाला
और तृप्ति की। आप की इस अभिनव योजना और वटिया स्वाद से उसे वडा नन्तोष हुआ। विम्रान्ति के बाद वेताल ने उन चतुरमानक को प्रकट हो जाने के लिए आमन्त्रित किया। अभय वचन लेकर विक्रम प्रत्यक्ष उपस्थित हो गया। ताल ने अपना परिचय 'अग्नि-बेतात के रूप में देकर आतिथ्य के उपलक्ष्य में विक्रम को उज्जैन का स्थायी नरेश घोषित कर दिया और अपने दैनिक आतिथ्य की उचित व्यवस्था का वचन ले लिया। तब से वेताल विक्रम का सहायक हो गया। यह कया बहुत सुन्दरता से प्रतिपादित हुई है। सक्षेप में कया का आशय यही है और विभिन्न कयामओ में विश्मको परीक्षा को गई है, जिनमें वह श्रेष्ठ सिद्ध होता गया है। कुछ भी हो, मालव मे इस कया में सत्य की विश्वस्त वारणा है और उसके कुछ कारण भी हैं।
एक बात इन कया वे सष्ट हो जाती है कि विक्रमादित्य को वेताल जैसी महा शक्ति का सहयोग प्राप्त था