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प्रेमीजी की देन
१० देवकीनन्दन प्रेमीजी से मेरा बहुत पुराना परिचय है। मेरे विचार से उनके लेखो से जन-जनता की मनोवृत्ति में जितना परिवर्तन हुआ है, उतना अन्य कारणो से नहीं। उन्होंने किसी भी शिक्षा प्रेमी को, चाहे वह सुधारक हो, अथवा स्थितिपालक, अपनी दृष्टि से शिक्षा देने का प्रयत्न नहीं छोड़ा। उनका मत मान्य होता है या नहीं, इसकी उन्होने अधिक चिन्ता नहीं की। अपने मत की पुष्टि सयत ढग से निरन्तर करते रहे है। इन बातो से निष्कर्ष निकलता है कि प्रेमीजी अपने विचारो में दृढ है और प्रभावशाली ढग से उनका प्रचार करते है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि वे अपने विचारो का भाषण द्वारा नही, बल्कि वैयक्तिक परिचय एव सम्पर्क द्वारा दूसरो पर प्रभाव डालते है । जन-समाज में शायद ही कोई ऐसा विद्वान हो, जिसने प्रेमीजी के समान अपनी स्वाभाविक जिनामा एव प्रामाणिकता के द्वारा देश के विद्वानो मे इतना नाम कमाया हो।
सन् १९०७ में प्रेमीजी अपने पुस्तक-सम्बन्धी किसी मामले में काशी गये थे। मै भी वहां पहुंचा। उस समय स्याद्वाद महाविद्यालय के छात्रो के समक्ष भाषण देते हुए प्रेमीजी ने कहा था-केवल अगेजी पढ-लिखकर ही कोई सुवारक नही बन सकता । सच्चा सुधारक तो वही हो सकता है, जो सस्कृति का तुलनात्मक अध्ययन करके अपने विचारो को पुष्ट करे। आज के ये पडित लोग कालान्तर में सुधारक बन जायेंगे। प्रेमीजी के इस कथन को इतने वर्ष वाद आज मै स्वय अपनी आँखो सत्य होते दे
प्रेमीजी की सदा से यह भावना रही है कि विद्यालयो में प्राकृत और अपभ्रश का पठन-कम रक्खा जाय तथा इन भाषाओं के व्याकरण एव कोष छपाये जायें। इससे जिज्ञासुनो को जैनागमो का रहस्य समझने में वडी सहायता मिल सकती है। इस प्रयल में प्रेमीजी को पूरी सफलता तो नही मिली, लेकिन साहित्य-प्रेमियो का ध्यान भाषा और विज्ञान के अध्ययन की ओर अवश्य आकृष्ट हुआ है।
प्रेमीजी ने अपने ज्ञान का अर्जन स्वय किया है। उनके जीवन की सबसे बडी खूबी यही है कि वे प्रारम्भ से ही स्वावलम्बी रहे है और सात्विक दृष्टि से विविध विषयो का अध्ययन करके लगन और परिश्रम के माथ उन्होने पाठको को स्वस्थ मानसिक भोजन प्रदान किया है। कारजा]