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इदोर
मैं हूँ नित्य वर्तमान
श्री वीरेन्द्रकुमार जैन एम्० ए०
मै हूँ नित्य वर्तमान, चिरन्तन प्रवर्त्तमान् । दिगत का विषाद कैसा ? अनागत की शका कैसी ? जब कि हूँ निश्चित सनातन में वर्तमान ।
स्मृति के तारो की दूरागत झकार, क्षीण-सी टकराती चेतन के रुद्ध द्वार, होते ही श्रात्मा मुक्त, हो जाती हवा-सी वह खिडकियों के प्रारपार ।
चिद्रूप में है मव एक-मान, एक-तान । छाया - चलचित्रो की जगती यह, क्षण-क्षण नव-नवीन, क्षण-क्षण तिरोमान । इस सबके अन्तर में, मैं हूँ चिर वर्तमान !
खिडकी से झाँक रहा शरद के प्रभात का यह नीला आसमान,
और इस नीलिमा में अथाह
पीपल की डाल पर पल्लव वे चिकने गोल खेल रहे डोल-डोल,
नवीन मधु किरणो के झूलन पर
गाते वे अमर गान दिव्य मौन |
इसी नित-नवीन लीलामयता में मं तो हूँ एक तान वर्तमान !
इस काल - सागर के तट पर खड़ा बालक-मा
खेल रहा हूँ इन चचला लहरो को भर-भर अँगुलियों में, में उछाल देता,
हवा
इन चन्द्र-सूर्य, ग्रह-नक्षत्रो पर वार देता ।
इन तरग-फेनो को रंग देता हूँ अपने ही सपनो से !
अपनी ही इस चित्रसारी में अपने को
नित्य में वना देता, मिटा देता । मै तो हूँ वर्तमान, निरन्तर प्रवर्तमान !
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