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हिंदुस्तान में छापेखाने का आरंभ
___ श्री अनन्त काकावा प्रियोळकर वी० ए० [इस निवन्ध के विद्वान् लेखक प्राचीन साहित्य की खोज करने वालो में अपना मुख्य स्थान रखते है। अब तक इन्होंने अनेक ग्रन्यो का सम्पादन किया है। बम्बई यूनीवर्सिटी ने सन् १९३५ में इनके द्वारा सम्पादित रघुनाथ पडित विरचित 'दमयन्ती स्वयवर' नामक ग्रन्थ को मराठी में सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ मानकर उसके लिए 'तरखडफर प्राइज', जो मराठी के सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ के लिए दिया जाता है, इन्हें प्रदान किया था। समय-समय पर मराठी एव गुजराती की साहित्यिक सस्थाओ में इनके व्याख्यान होते रहते है। प्राचीन शोध-सम्बन्धी इनके लगभग सौ निवन्ध अव तक पुस्तक रूप में या मासिक पत्रो में प्रकाशित हो चुके है।-सम्पादक]
___ यह बात विलकुल सही है कि जैसे लेखन-कला के प्रचार से ज्ञान-प्राप्ति का मार्ग सुलभ हुआ है, वैसे ही छापने की कला के प्रचार से यह मार्ग सहस्र गुना अधिक सुलभ और विस्तृत हो गया है। इसलिए छापेखाने का इतिहास जानना आवश्यक है।
मुद्रणकलाछापाखाने-की शोध सबसे पहले चीन में हुई थी। वहां सन् १६०० में एक छपी हुई पुस्तक मिली थी, जिसमें छापने की ता० ११ मई सन् ८६८ थी। यह छपाई ब्लॉक-प्रिंटिंग में हुई थी। मगर कहा जाता है कि अलग-अलग टाइप वनाने और उनसे छापने की कला का प्राविप्कार पी० शेग (Pi Sheng) ने ईस्वी सन् १०४१ से १०४६ के बीच किया था।
यूरुप के छापेखाने के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वहां छापने की कला की शोध और उसका विकास स्वतन्त्र रूप से हुआ था। ईस्वी सन् १४४० के पूर्व चित्रादि लकडी के ब्लॉक बनाकर छापे जाते थे। टाइप बनाकर उनसे छापने का कब से और कहां से प्रारम्भ हुआ, इस सम्बन्ध में विभिन्न मत है । जर्मनी, फ्रास, हॉलैंड और इटली इन देशो में से हरेक देश कहता है कि छपाई का प्रारम्भ हमारे यहाँ से हुआ था। मगर हमें इस वाद-विवाद में पड़ने की ज़रूरत नहीं है।
अधिकाश लोगो का मत है कि सुप्रसिद्ध जर्मन मुद्रक 'जोन गटेनवर्ग' (Johann Gutenberg) ने, जिसका समय १३९८ से १४६८ माना जाता है, टाइप बनाकर छापने की कला का विकास किया था। इससे यह सिद्ध होता है कि पन्द्रहवीं सदी में जर्मनी में छपाई का श्रीगणेश हुआ।
छापने की कला का प्रवेग हिन्दुस्तान मे इसके सौ वरस वाद हुआ। यह वात जेसुइट लोगो के पत्र-व्यवहार से मालूम होती है ।* २६ मार्च सन् १५५६ के दिन, जेमुइट मिशन की एक टुकडी अवीमीनिया जाने के लिए पुर्तगाल के वेले नामक वन्दर से जहाज़ पर चढी । इसके साथ ही मुद्रणकला का जानकार जुआन द वुस्तामाति (Juan de Bustamante) अपने एक सहयोगी के साथ गोवा जाने वाले जहाज़ पर मवार हुआ। वह ६ सितम्बर सन् १५५६ के दिन गोवा पहुंचा। वह अपने साथ छपाई के अविश्यक मापन लेकर आया था। इसलिए उसने गोवा पहुंचते ही 'मेंटपाल' नामक कॉलेज में छापाखाना खडा कर छापने का काम शुरू कर दिया।
६ नवम्बर सन् १५५६ को पाट्रियार्क का लिखा हुया एक पत्र मिला है। उसमें इस छापेखाने में तत्त्वज्ञान का निर्णय' (Conclusoes Philosophicas) नामक ग्रन्थ छपा था, इसका उल्लेख है। उसमें यह भी लिखा है कि सेंट जेवियर कृत 'ईमाई धर्म के सिद्धान्त' (Doutrina Christa) नामक अन्य छापने का विचार
' ' * Rerum Aethiopic Script, Vol x, pp 55-61