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स्मरणाध्याय
प्रमीजी का थोडा-बहुत असर अवश्य है। पुराने विचार के जो लोग प्रेमीजी के विचार से सहमत नही, वे भी प्रेमीजी के सद्गुणो के प्रशमक अवश्य रहे है । यही उनकी जीवनगत असाधारण विशेषता है।
प्रेमीजी में असाम्प्रदायिक व सत्यगवेषी दृष्टि न होती तो वे अन्य बातो के होते हुए भी जैन-जनेतर जगत् में ऐसा सम्मान्यस्थान कभी नही पाते । मैंने तत्त्वार्थ और उमास्वाति के बारे में ऐतिहासिक दृष्टि से जो कुछ लिखा है, प्रेमीजी की निर्भय गवेषक दृष्टि ने उसका केवल समर्थन ही नहीं किया, बल्कि साम्प्रदायिक विरोधो की परवाह विना किये मेरी खोज को और भी आगे बढाया, जिसका फल सिंधी स्मृति अक भारतीय विद्या में विस्तृत लेखरूप से उन्होंने अभी प्रकट किया है। आजकल प्रेमीजी मेरा ध्यान एक विशिष्ट कार्य की ओर साग्रह खीच रहे है कि 'उपलब्ध जैनआगमिक साहित्य का ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्याकन तथा भारतीय संस्कृति और वाङ्मय में उसका स्थान' इस विषय पर साधिकार लिखना आवश्यक है। वे मुझे बार-बार कहते है कि अल्पश्रुत और साम्प्रदायिक लोगो की गलत धारणाओ को सुधारना नितान्त आवश्यक है।
कोई भी ऐतिहासिक बहुश्रुत विद्वान हो, प्रेमीजी उससे फायदा उठाने से नहीं चूकते। आचार्य श्री जिनविजय जी के साथ उनका चिर परिचय है। मैं देखता आया हूँ कि वे उनके साथ विविध विषयो की ऐतिहासिक चर्चा करने का मौका कभी जाने नहीं देते।
अन्त में मुझे इतना ही कहना है कि प्रेमीजी की सतयुगीन वृत्तियो ने साम्प्रदायिक कलियुगी वृत्तियो पर सरलता से थोडी-बहुत विजय अवश्य पाई है। . बम्बई
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