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श्रीदेवरचित 'स्याहादरत्नाकर' में अन्य ग्रन्थों
और ग्रन्थकारों के उल्लेख
श्री वी० राघवन् एम० ए०, पी-एच० डी०
श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के प्रसिद्ध तर्कवेत्ता श्रीदेव या देवसूरि (१०८६-११६६ ई०) का 'प्रमाणनयतत्त्वालोकालकार' नामक ग्रन्थ, जिसकी 'स्याद्वादरत्नाकर' टोका स्वय उन्होने लिखी है, जैन तर्कशास्त्र का एक प्रसिद्ध ग्रन्य है। श्रीदेव मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य थे और उन्होने अणहिल्लपट्टन के राजा जयसिंहदेव के दरवार में सन् १२२४ ई० मे दिगम्बर सम्प्रदायी कुमुदचन्द्र को शास्त्रार्थ में पराजित किया था। 'प्रभावकचरित्र' ग्रन्थ के एक अध्याय में श्रीदेव के उक्त ग्रन्थ का विषय दिया हुआ है। 'स्याद्वादरत्नाकर' एक विस्तृत भाष्य है, जिसमें दर्शनशास्त्र-सम्वन्धी अनेक ग्रन्यो तथा शास्त्रकारो के मनोरजक उल्लेख भरे पडे है। इनमे से कुछ उल्लेख बडे मूल्यवान है और दर्शनशास्त्र के विभिन्न अगो का इतिहास जानने वाले विद्यार्थियो के लिए वडे काम के है। इन उल्लेखो को इकट्ठा करके उनका अध्ययन करना बहुत उपयोगी होगा। यहां पर मै उन्हे वर्णक्रमानुसार रखता हूँ, जैसा कि वे उल्लेख मुझे आर्हतमतप्रभाकर ग्रन्थमाला (न० ४) में पांच भागो मे छपे हुए उक्त ग्रन्थ के सस्करण मे मिले है।
भाग १, पृ० २६ --अम्बाप्रसाद सचिवप्रवर और उनके प्रथ कल्पलता के सबध में, जिसकी 'कल्पपल्लव' नामक टीका उन्होने स्वय लिखी है, इस प्रकार कथन मिलता है
'यथा चात्र अमीषा मशानामनुवाद्यत्व पूर्वत्र च तत्तदशाना विधेयत्व तथा श्रीमदम्बाप्रसादसचिवप्रवरेण कल्पलताया तत्सकेते कल्पपल्लवे च प्रपञ्चितमस्तीति तत एवावसेयम् ।
जैनग्रन्थावली (पृ० १२४) तथा प्रो० एच० डी० वेलकर द्वारा सम्पादित 'जिनरत्नकोष' (भा० १, पृ० २०६ अ) से अम्बाप्रसाद नामक व्यक्ति का पता चलता है, जिसने सटीक 'नवतत्त्वप्रकरण' ग्रन्थ की रचना की थी, परन्तु इन सूचियो में कल्पलता नामक ग्रन्थ तथा उस पर कल्पपल्लव नाम की टीका का कोई जिक्र नहीं मिलता। पृ० १५७ दिङ्नाग और उनका अन्य अद्वैतसिद्धि-अद्वैतसिद्धयादिषु सस्तुतोऽसौ दिड्नागमुख्यरपि किं महद्भि ॥
दिड्नाग द्वारा रचित अद्वैतसिद्धि का कोई पता अभी तक नही चला है।
भाग २, पृ० ३५०-अनन्तवीर्य -ये ग्यारहवी शताब्दी के मध्य के प्रसिद्ध जैन तर्कवेत्ता थे। इन्होने 'परीक्षामुखपञ्जिका', 'न्यायविनिश्चयवृत्ति' आदि ग्रन्थो की रचना की है।
भाग ४, पृ० ७४६, ८००-'अनेकान्तजयपताका', हरिभद्रसूरिकृत। यह ग्रन्थ यशोविजय जैनग्रन्थमाला मे लेखक की टीका के साथ छपा है तथा गायकवाड ओरियटल सीरीज़ (८८) मे श्रीदेव के गुरु मुनिचन्द्र की टीका के माथ प्रकाशित हुआ है।
न्यायवैशेषिक पर आत्रेय तया आत्रेयभाष्य । भाग २, पृ० ३३२ प्रत्यक्ष के वर्णन में प्रात्रेयभाष्य का उल्लेख किया गया है -
यत्पुनरात्रेयभाष्यकार. पाह-"यथा सामान्यस्य विशेषाणा च प्रदीपालोकेन सन्निकृष्टत्वेन दूरात्सामान्यमुपलभ्यते न विशेषा इति प्रदीपालोककारितौ सशयविपर्ययो भवत , तथा सामान्यस्य विशेषाणां च चक्षुषा सन्निकृष्टत्वेऽपि दूरात्सामान्यमुपलभ्यते न विशेषा इति चाक्षुषो सशयविपर्ययो भवत । तत्र महाविषयत्वातूसामान्य दूरादप्युपलभ्यते, अल्पविषयत्वात्तु विशेषा न दूरादुपलभ्यन्त इति सशयविपर्ययोरुत्पत्ति" इति ।