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प्रेमी-प्रभिनदन-ग्रंथ
इस पर अपने उत्तर को सक्षेप में देते ए श्रीदेव इस आत्रेय भाष्यकार को योग अर्थात् नैयायिक कहता है । भाग ४, पृ० ८४७ – यहाँ 'द्रव्य' पर श्रात्रेय का विचार उद्धृत किया है-:
यत्पुनरात्रेय प्रोचितवान्- "न क्रियात्वे प्रसङ्गात् । क्रियात्वमपि क्रिथावद्भवति, क्रियाधारत्वात् । न च तद् द्रव्यमिति तद् व्यवच्छेदार्थं गुणवद् इति । न खल्वाधार एवाधेयेन तद्वान् भवति श्राधेयमप्याधारेण तद् व्यपदिश्यते" इत्यादि ।
अपनी आलोचना में श्रीदेव, आत्रेय को 'वर्षीयान् विप्रपुङ्गव' कहता है और उसका दूसरा उद्धरण
४३०
देता है—
तत्राय वर्षीयान् विप्रयुगवोऽनतरमेव स्वयमुक्त नाप्यनुसन्दधातोति किं ब्रूम । "कर्म उत्प्रेक्षणादि तद्यस्मिन् समवायेन वर्तते तत् क्रियावत्" इति हि तत्रादावनेन विवने । न च तद् द्रव्यमिति तद्वचवच्छेदार्थ क्रियावदिति । तदपि न सुसूत्रमात्रेयेणाभाणि ।
पृष्ठ ८४८ मे पुन आत्रेय का उल्लेख है, और पृ० ८४६ मे उपसहार रूप में आत्रेय का कथन वैशेषिक रूप में किया गया है ।
आत्रेयो व्याख्यातवान् 'नित्यमस्याश्रय पारतन्त्र्य द्रव्ये' इति द्रव्याश्रयी । दा प्रकार के
पृ० ६१२
द्रव्यो पर ।
पृ० १४५ मे कर्म के न्याय दृष्टिकोण पर आत्रेय का मत दिया गया है
लक्षणान्तर पुनरात्रेयो विवृणोति - एक द्रव्य मिति नाद्रव्य न चानेकद्रव्यमित्यर्थं । नास्य गुणा सन्ति स्वयं च न गुणो भवतीत्यगुणम् । सयोगाश्च विभागाश्च सयोगविभागा, तेषु सयोगविभागेषु कारणमित्युत्पन्न कर्म स्वाश्रयमाश्रयान्तराद्विभज्य सयोजयतीति । तेषु च सयोगविभागेषु कर्तव्येषु कर्म कारणान्तर नापेक्षत इत्यनपेक्ष न पुन समवायिकारणमपि नापेक्षित इति । यद्वा सयोगविभागा कर्मासाधारण नापेक्षते इत्यनपेक्ष न पुन. साधारणमपि नापेक्षत इति । दिश खलु सयोगविशेषापेक्ष कर्म स्वाश्रयस्य सयोगविभागावारभते तथा च प्रेरकस्य या दिश प्रति प्रयत्नसमारम्भ तदभिमुख कमं जायते तस्माच्च कर्मणस्तदभिमुखी सयोगविभागो भवत । अनेनावृष्टेश्वराद्यपेक्षस्य कर्मण सयोगविभागारम्भो व्यास्यात ॥ इति ।
पृ० १४६, इसके वाद ही आत्रेय की पुस्तक का निम्न अश भी उद्धृत किया गया है-
यदाह स एव "सयोगविभागेषु अनपेक्ष कारणमित्येतावत् कर्मलक्षणमेकद्रव्यमगुणमित्यभिधान तु कर्मस्वरूपोपवर्णनायं न पुन कर्मलक्षणार्थम्" इति ।
अन्त के उद्धरणो ने हम पहले आये हुए उल्लेख को इस प्रकार शुद्ध कर सकते है--' यत्पुनरात्रेयो भाष्यकार आह' । यह वात हमारी समझ मे नही आती कि यह वैशेषिक नृत्यकार कौन था ?
भाग १, पृ० १३३ इष्टसिद्धि विमुक्तात्मन् के इष्टसिद्धि ग्रन्थ ( गा० घो० से० ) की ११ कारिका उद्धृत की गई है।
भाग २, पृ० २८६, ३१८, ३२० आदि । उदयन तथा उनके गन्यो- कुसुमाजलि तथा किरणावली-का उल्लेख प्राय किया गया है ।
पुरदर तथा उद्भट, लोकायत सप्रदाय के लेखक
भारतीय चार्वाकवाद पर लिखी हुई अपनी पुस्तक ( प्रका० कलकत्ता, पृ० ४७ ) मे दक्षिणारजन शास्त्री ने लिखा है कि 'सम्मतितर्कप्रकरण' गन्य के भाष्य में किसी पुरदर नामक लेखक के लोकायत सूत्र का उल्लेख किया गया है । शान्तिरक्षित के तत्त्वसग्रह ग्रन्थ ( गा० ओ० से०, भाग १, पृ० ४३१) पर लिखी हुई कमलशोल को टीका में पुरन्दर तथा उनके लोकायत ग्रन्थ का दूसरी बार उल्लेख मिलता है। यहाँ पर पुरन्दर के 'अनुमान' पर विचार की