SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 485
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५० प्रेमी-प्रभिनदन-प्रथ वारह भग ये है १मायारग सुत्त (आचाराग सूत्र), २ सूयगडग (सूत्रकृताग), ३ ठाणाङ्ग (स्थनानाङ्ग), ४ समवायग (समवायाग),५ भगवती वियाहपण्णति (भगवती व्याख्याप्रज्ञप्ति),६नाया धम्मकहानो (ज्ञातृधर्मकथा ), ७ उवासगदसानो (उपासकदशा), ८ अन्तगडदसामो (अन्तकृद्दशा ), ६ अणुत्तरोववाइयदसाप्रो (अनुत्तरोपपातिकदशा), १० पण्हवागरणाइ (प्रश्नव्याकरणानि.), ११ विवागसुय (विपाकश्रुत) और १२ दिदिवाय (दृष्टिवाद) । वारह उपाग ये हैं १ उववाइय (ोपपातिक), २ रायपसेणइज्ज (राजप्रश्नीय), ३ जीवाभिगम, ४ पन्नवणा (प्रज्ञापना), ५ सूरपण्णति (सूर्यप्रज्ञप्ति), ६ जम्बुद्दीवपण्णत्ति (जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति), ७ चन्द-पण्णत्ति (चन्द्रप्रज्ञप्ति), ८ निरयावली (नरकावलिका), ६ कप्पावडसिमानो (कल्पावतसिका), १० पुष्पचूलिआओ (पुप्पचूलिका), ११वण्हिदसाओ (वृष्णिदशा)। __ दस पइण्णा (प्रकीर्णक) ये है १ वीरभद्रलिखित चऊसरण (चतु शरण), २ पाउरपच्चक्खाण (आतुरप्रत्याख्यान), ३ भत्तपरिणा (भक्तपरिज्ञा), ४ सथार (सस्तार), ५ तडुल-वेयालिय (तन्दुलवैचारिक) ६ चन्दाविज्मय (चन्द्रवेधक), ७ देविन्दत्था (देवेन्दस्तव), ८ गणिविज्जा (गणिविद्या.), ६ महापच्चक्खाण (महाप्रत्याख्यान), १० वीरत्यन (वीरस्तव)। छ छेदसूत्र ये है १ निसीह (निशीथ), २ महानिसीह (महानिशीथ), ३ ववहार (व्यवहार), ४ आचारदसाओ (माचारदशा), ५ कप्प (वृहत्कल्प.), ६ पचकप्प (पचकल्प)। पचकल्प के बदले कोई-कोई जिनभद्ररचित जीयकप्प या जीतकल्प को छठा सूत्र मानते है। चार मूल सुत्त (मूलसूत्र) ये है १ उत्तराज्झाय (उत्तराध्याया) या उत्तरल्झयन (उत्तराध्ययन), २ आवस्सय (आवश्यक), ३ दसवेयालिय ( शवकालिक), ४ पिण्डनिज्जुत्ति (पिण्डनियुक्ति) । तृतीय और चतुर्थ मूलसूत्रो के स्थान पर कभी-कभी ओहनिन्जुत्ति (प्रोपनियुक्ति) और पक्खी सुत्त (पाक्षिक सूत्र) का नाम लिया जाता है। दो और अथ इस प्रकार है-१ नन्दीसुत्त (नन्दिसूत्र) और २ अणुयोगदार (अनुयोगद्वार)। इस प्रकार इन ४५ ग्रन्थो को सिद्धान्त-ग्रन्थ माना जाता है, पर कही-कही इन ग्रन्थो के नामो में मतभेद भी पाया जाता है। मतभेद वाले गन्थो को भी सिद्धान्त-ग्रन्थ मान लिया जाय तो उनकी सख्या सव मिला कर ५० के आसपास होती है। अगो में साधारणत जैन तत्त्ववाद, विरुद्धमत का खडन और जन ऐतिहासिक कहानियां विवृत है। अनेको में प्राचार-व्रत आदि का वर्णन है। उपागो में से कई (नम्वर ५, ६,७) बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। उनमें ज्योतिष, भूगोल, खगोल आदि का वर्णन है। सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति (दोनो प्राय समान वर्णन वाले है) ससार के ज्योतिषिक साहित्य में अपना अद्वितीय सिद्धान्त उपस्थित करती है। इनके अनुसार प्रकाश में दिखने वाले ज्योतिष्क पिण्ड दो-दो है, अर्थात् दो सूर्य है, दो-दो नक्षत्र । वेदाग ज्योतिष की भांति ये दोनो ग्रन्थ खीप्टपूर्व छठी शताब्दी के भारतीय ज्योतिष-विज्ञान के रेकर्ड है । सब मिला कर जैन सिद्धान्त-ग्रन्थो में बहुत ज्ञातव्य और महत्त्वपूर्ण सामग्री विखरी पडी है, पर वौद्धसाहित्य की भांति इस साहित्य ने अब तक देश-विदेश के पडितो का ध्यान आकृष्ट नहीं किया है। कारण कुछ तो इनकी प्रतिपादन-शैली की शुष्कता है और कुछ उस वस्तु काप्रभाव,जिसे आधुनिक पडित Human Interest कहते है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपपण्णति को उपाग माना है और दिगम्बरोने दृष्टिवाद के पहले भेद परिकर्म में इनकी गणना की है। इसी तरह श्वेताम्बरो के अनुसार जो सामायिक, सस्तव, वन्दना और प्रतिक्रमण दूसरे मूलसूत्र आवश्यक के प्रश विशेष है उन्हें दिगम्बरो ने अग-बाह्य के चौदह भेदो मे गिनाया है। दशवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार और निशीथ नामक ग्रन्थ भी अगबाह्य बतलाये गये है। अगो के अतिरिक्त जो भी साहित्य है वह सव अगवाह्य है । अगप्रविष्ट और अगवाह्य भेद श्वेताम्बर सम्प्रदाय मे भी माने गये है और उपाग एक तरह से अगवाह ही है। दिगम्बर सम्प्रदाय में उपाग भेद का उल्लेख नहीं है।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy