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________________ प्रेमी - श्रभिनंदन - प्रथ थी । इससे हर्प के साथ प्रेमीजी का साहस भी बढा । प्रेमी जी के स्वतन्त्र जीवन की सफलता के प्रथम अध्याय का श्री यहाँ से ही हुआ । वह पाण्डुलिपि बाद मे खो गई । 'प्रेमीजी 'जैनमित्र' का सम्पादन व प्रकाशन वडी लगन और तत्परता से करते रहे और वरैयाजी ने जो कुछ पारिश्रमिक दिया, उसे विना 'ननुनच' किये लेते रहे। पहले वर्ष मे सवा सो, दूसरे मे डेढ सौ श्रादि । ८ १. स्व० हेमचद्र २. श्री नाथूराम प्रेमी ३ हेमचंद्र की माता स्व० रमाबाई (सन् १९१३) इसके बाद प्रेमीजी पर 'जैनहितैषी' के सम्पादन का दायित्व भी आ पडा, जिसे उन्होने ग्यारह चारह वर्ष तक योग्यतापूर्वक वहन किया । 'जैनहितैषी' के सम्पादन -काल में ही उन्होने माधवराव सप्रे गन्यमाला के द्वितीय पुष्प 'स्वाधीनता' को 'मुवई वैभव' प्रेस से छपवा कर प्रकाशित किया और उसी गमय (सन् १९१२ मे) 'हिन्दी-ग्रन्थ- रत्नाकर' की स्थापना की । 'हिन्दी - ग्रन्थ - रत्नाकर' सीरीज का 'स्वाधीनता' ही प्रथग ग्रन्थ बनाया गया । यह कार्यालय श्राज अपनी विकसित अवस्था में हिन्दी - जगत् के सम्मुख विद्यमान है ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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