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मार्ग-दर्शक प्रकाशक
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प्रेमीजी ने अनेक मौलिक ग्रन्थो की रचना की है और प्राचीन जैन साहित्य के अनुसन्धान का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। तीन- चार सस्कृत ग्रन्थो का उन्होने अनुवाद भी किया है । बंगला, गुजराती और मराठी के भी अनेक उपयोगी ग्रन्थो का हिन्दी रूपान्तर स्वय किया है और अपने सहयोगियो से करवाया है । कुल मिलाकर प्रेमीजी की तीस-बत्तीस पुस्तके है |
अपने यहाँ से पुस्तको के प्रकाशन में प्रेमीजी बडे सजग रहे है और उनके चुनाव मे लोक-हित की दृष्टि को प्रधानता दी है । यही कारण है कि 'हिन्दी-ग्रन्थ - रत्नाकर' से एक भी हल्की चीज प्राज तक प्रकाशित नही हुई । परिवार दुर्घटनाए—
(प्रेमीजी को बनाने मे बहुत-कुछ हाथ उनकी पत्नी का था । वे बडी ही कष्ट-सहिष्णु और मेवा - परायण थी। कप्ट-काल मे उन्होने सदैव प्रेमीजी को ढाढस बँधाया और समाज-सुधार के कार्यो मे उत्साहित किया । (२२ अक्तूबर १६३२ को उनका देहान्त हो गया ।
प्रेमीजी ने अपनी आशाएँ अपने एकमात्र पुत्र हेमचन्द्र पर केन्द्रित की श्रीर बडे लाड-प्यार से उनका लालनपालन किया । हेमचन्द्र विलक्षण बुद्धि के ये । अल्पायु में ही उन्होने अनेक विपयो में दक्षता प्राप्त कर ली थी और साहित्य का गहन अध्ययन किया था, लेकिन ३३ वर्ष की अवस्था मे १६४२ की मई मास की १६ तारीख को वे भी चले गये । अव प्रेमीजी के परिवार मे उनकी पुत्रवधू चम्पादेवीजी तथा दो नाती यगोधर और विद्याधर है ।) प्रेमी जी एक अनुपम देन -
प्रेमीजी का एक निजी व्यक्तित्व है । अपनी कार्य क्षमता, श्रमशीलता और पाण्डित्य से हिंदी - जगत् को उन्होने जो कुछ भेट किया है उससे साहित्य की मर्यादा वढी है। प्रेमीजी जीवन के चौसठ वर्ष पार कर चुके है । इस सुदीर्घ काल मे उन्होने असाधारण सफलता प्राप्त की है। जाने कितने प्राघात उन्होने धैर्यपूर्वक सहन किये है अनेक सकट ग्रस्त वधुओ को ढाढस बंधाया है ।
अध्ययनशीलता प्रेमीजी का व्यसन है । उचित उपायो द्वारा धनोपार्जन के साथ-साथ अपने बौद्धिक विकास सतत उद्यमशील रहना वे कभी नही भूले ।
अनेक उदीयमान लेखको को पथ-प्रदर्शन द्वारा उन्होने साहित्य क्षेत्र मे ग्रागे वढाया है । उत्तम ग्रन्थ प्रकाशन, पुरस्कार वितरण, लेखको, श्रनुवादको श्रीर सम्पादको को उनकी रचनाओ पर पारिश्रमिक दान, विद्यार्थियो को छात्रवृत्ति, कठिनाइयो मं पडे बघुयो की सहायता द्वारा वे अपने धन का सदुपयोग करते रहते है । उनका द्वार छोटे-वडे सबके लिए हर घडी खुला रहता है ।
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र्ग-दर्शक प्रकाशक
श्री हरिभाऊ उपाध्याय
प्रेमीजी हिन्दी के उन थोडे-से प्रारम्भिक प्रकाशको में हैं, जिनमे आदर्शवादिता, सहृदयता व व्यापारिकता का सुन्दर सामजस्य हुआ है । उन्होने जो कुछ साहित्य हिन्दी - ससार को दिया है, उसमे हिन्दी - पाठको की आत्मा पुष्ट ही हुई है और हिन्दी - प्रकाशको के लिए वह दिशा दर्शक रहा है । अपनी सेवाओ के कारण वे हिन्दी - जगत् मे आदरणीय है और इस शुभ अवसर पर में भी अपना सम्मान उनके प्रति प्रदर्शित करने हुए श्रानन्द व गौरव का अनुभव कर रहा हूँ । अजमेर ]