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प्रेमी अभिनंदन ग्रंथ
मानने पर प्राप्त होती है । चूकि जैन परम्परा में आत्मा को ज्ञान स्वभाव माना है, श्रत वन्धनमुक्त आत्मा सब पदार्थों का ज्ञाता और दृष्टा ही सिद्ध होता है । यहाँ यह कहा जा सकता है कि जव वन्वनमुक्त श्रात्मा सवको जानता श्रौर देखता है तव श्रविशुद्ध अवस्था में उसे ऐसा मान लेने में क्या आपत्ति है ? ऋपियो ने इसका यह समाधान किया है। कि जीव मे श्रविशुद्धता विजातीय द्रव्य के सयोग से आती है और इमीलिए उसकी जानने की शक्ति भी पगु हो जाती है । कभी वह इन्द्रियो की सहायता से जानता है - विना इन्द्रियो की सहायता के नही जानता । कभी वह स्थूल को जानता है - सूक्ष्म को नही जानता । श्रादि । किन्तु जव श्रावरण का प्रभाव हो जाता है श्रीर श्रात्मा की मूलशक्ति प्रकट हो जाती है तब वह वर्तमान को जानता है, भूत और भविष्यत को नही, म्यूल को जानता हूँ सूक्ष्म को नहीं, अव्यवहित को जानता है व्यवहित को नही, स्व को जानता है पर को नहीं, यह नियम कैसे किया जा सकता है ? अर्थात् नही किया जा सकता । यही कारण है कि जैन परम्परा में केवल ज्ञानी को सवका जानने वाला और देखने वाला स्वीकार किया है ।
(२) इतर धर्मो व दर्शनो मे सर्वज्ञता का स्वीकार
यहाँ तक हमने जैन मान्यता के अनुसार सर्वज्ञता और उसके कारण का विचार किया । श्रव हमे यह देखना है कि अन्य धर्मो या दर्शनो का सर्वज्ञता के विषय में क्या अभिमत हैं ?
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बौद्ध साहित्य में 'धम्मपद' एक प्रकाशमान हीरा है, जिसका समार के सभी विचारको ने ग्रादर किया है । इसका मकलन बुद्ध भगवान के कुछ ही काल बाद हो गया था इसमें कुल ४२३ गाथाएं हैं, जो २६ वर्गों में विभक्त हैं । इसके १४वे वर्ग का नाम 'बुद्धवर्ग' है। इसकी पहली गाथा में बतलाया है कि "जिसकी जीत हार में परिणतं नही हो सकती, जिसकी जीत को लोक में कोई नही पहुँच सकता, उस पद अनन्तज्ञानी बुद्ध को तुम किस उपाय मे अस्थिर कर सकोगे ?" इसमे स्पष्ट है कि वौद्धो ने दर्शन-युग के पहले ही सर्वज्ञता को स्वीकार किया है। धर्मकीर्ति ने सर्वज्ञता की अपेक्षा जो मार्गज्ञता पर अधिक जोर दिया है, इसका कारण भिन्न है, जिसका हम यथावसर विचार करेंगे ।
न्यायदर्शन में सर्वज्ञता के स्थान मे योगिज्ञान को स्वीकार किया है। वहाँ बतलाया है कि सूक्ष्म (परमाणु आदि) व्यवहित ( दीवार ग्रादि के द्वारा व्यवधान वाली) तथा विप्रकृष्ट (काल तथा देव उभयरूप से दूरस्थ ) वस्तुग्रो
ग्रहण लोक प्रत्यक्ष के द्वारा कथमपि नही हो मकता, परन्तु ऐसी वस्तुओ का ज्ञान अवश्य होता है । यत इससे योगिप्रत्यक्ष की सिद्धि होती है । इसके अतिरिक्त न्यायदर्शन मे एक नित्य ईश्वर श्रीर माना है, जो नित्य सर्वज्ञ है। वैशेपिक दर्शन का मत न्यायदर्शन से मिलता हुआ है । हाँ, प्रारंभ में वैशेषिक दर्शन ने नित्य ईश्वर की कल्पना पर जोर नही दिया ।
योगदर्शन मे योगी चार प्रकार के बतलाये है -- प्रथमकल्पिक, मधुकल्पिक, प्रज्ञाज्योति और प्रतिक्रान्तभावनीय । ये योगी की क्रम से विकसित होने वाली चार अवस्थाऐं है । पहली अवस्था मे श्रष्टाग योग की साधना, दूसरी मे चित्तशुद्धि और तीसरी में भूतजयी तथा इन्द्रियजयी होना मुख्य है । इन तीन अवस्थाओं के बाद योगी लोग अस्मिता में प्रतिष्ठित होकर सर्वज्ञता को प्राप्त करते है । और तब जाकर अतिक्रान्त भावनीय दशा को क्रम से प्राप्त होते हैं । इतना ही नही, प्रत्युत इस दर्शन मे भी अनादि ईश्वर की कल्पना की गई है । यहाँ ईश्वर का अर्थ ऐश्वर्य और ज्ञान की पराकाष्ठा लिया गया है ।
मीमांसादर्शन में यद्यपि लौकिक ज्ञान के लिए ही प्राप्त पुरुष प्रमाण माना गया है, पर धर्म का कथन केवल पौरुषेय वेद ही करते हैं । मीमासको के इस मत का क्या कारण है, इसका विचार तो हम आगे करेंगे, पर इतना
t 'यस्य जित' इत्यादि गाथा का वह अनुवाद जो भवन्त श्रानन्द कौसल्यायन ने किया है । भारतीयदर्शन, पृष्ठ ३६७