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सिद्धसेन दिवाकरकृत वेदवादद्वात्रिशिका
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अस्मिन् प्राणा प्रतिबद्धा प्रजानाम् अस्मिन्नस्ता रथनाभाविवारा ।।
अस्मिन् प्रीते शीर्णमूला पतन्ति प्राणाशसा' फलमिव मुक्तवृन्तम् ॥२४॥ अर्य-इस परमात्मा में ही प्रजा के प्राण प्रतिबद्ध है इसी में ही वे प्राण रथ को नाभि में पारे की तरह अर्पित हुए है। जब यह परमात्मा प्रसन्न होता है तभी प्राण की एषणा डठल से छुटे हुए फल की तरह शिथिलमूल बन करके खिर जाती है।
भावार्थ-शुक्लयजुर्वेद मे जैसे मन के विषय में कहा गया है “यस्मिन्नृच साम यजूषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवारा । यस्मिश्चित्त सर्वमोत प्रजानाम् ।।" (३४५) वैसे ही कवि यहाँ परमात्मा को लक्ष्य में रख कर कहता है कि प्रजा के प्राण परमात्मा में ही बद्ध है और वे नामि में पारे की तरह व्यवस्थित है अर्थात् प्राणीजीवन परमात्मा के साथ ही सकलित है उससे भिन्न नहीं है। फिर भी जब परमात्मा का अनुग्रह होता है तब यह प्राण धारण करने की वृत्ति, इसके मूल अविद्या के नष्ट होते ही अपने आप वन्द हो जाती है। इस कथन में विरोध भासित होता है, क्योकि यदि प्रजाप्राण परमात्मा के साथ मे ग्रथित हो तो वह परमात्मा के प्रसन्न होने से खिर कैसे जाता है ? परन्तु इसका परिहार इस प्रकार करना चाहिए कि प्राणियो को जिजीविषा अज्ञान के कारण है। जब तक प्राणी अपने परमात्मारूप को नही जानते है तभी तक वह जिजीविषा स्थिर रहती है और तभी तक परमात्मा मे प्राण सकलित रहते है। परमात्मास्वरूप का भान होते ही इस अज्ञान का मूल शिथिल होने से जिजीविषा अपने आप चली जाती है।
नाभि में आरो को जमाने की उपमा वेद काल से प्रसिद्ध है और वह वृहदारण्यक, मुण्डक, कौषीतको आदि उपनिषदो में भी बहुत प्रचारित हुई है।
मुण्डकोपनिषद् के 'तस्मिन् दृष्टे परावरे' (२२८) इस पद्य मे ज्ञानयाग की महिमा है जव कि यहाँ 'अस्मिन् प्रीते' इस उत्तरार्ध मे भक्तियोग का माहात्म्य है, जिस प्रकार 'यमेवैष वृणुते तेन लभ्य ।' (कठ २ २२) इत्यादि में है। पके फल की डठल से छट जाने की उपमा भो बहुत प्राचीन है-"उवारुकमिव बन्धनात्"-शुक्ल यजुर्वेद ३६० । कालिदास ने भी इसका उपयोग किया है।
अस्मिन्नेकशत निहित मस्तकानामस्मिन् सर्वा भूतयश्चेतयश्च ।
महान्तमेन पुरुप वेद वेद्य आदित्यवर्ण तमस परस्तात् ॥२५॥ अर्थ-इसमें सौ मस्तक रहे हुए है, इसमें सभी सम्पत्तियां और विपत्तियां है । अन्धकार से पर सूर्य जैसे प्रकाशमान वर्ण वाले इस ज्ञेय महान् पुरुष को मैं जानता हूँ।
भावार्थ-पुरुषसूक्त में (ऋ० १०-६०-१) पुरुष का वर्णन करते समय 'सहस्रशीर्षा' पद से हजार मस्तक का निर्देश है जिसका अनुकरण शुक्लयजुर्वेद (३११) तथा श्वेताश्वतर (३ १४) आदि में है। यहां तो कवि ने पुरुषरूप से वर्णन करते समय सो मस्तक का निर्देश किया है। सौ या हजार यह केवल सख्याभेद है। इसका तात्पर्य तो इतना ही है कि लोक पुरुषरूप परमात्मा के अनेक मुख है, जब कि मनुष्य पुरुष या किसी भी प्राणी पुरुष को केवल एक ही मुख होता है। परमात्मा की विशेषता यह है कि तमाम प्राणियो के मुख इसके ही मुख है। शुक्लयजुर्वेद में (२५ १३) मृत्यु और अमरत्व दोनो का परमात्मा की छाया के रूप मे वर्णन है। इसी तत्त्व को कवि यहाँ भिन्न प्रकार से कहता है कि सभी विभूतियां लोकपुरुषरूप परमात्मा में ही है। ऐसे परमात्मपुरुष का वर्णन 'वेदाहमेत पुरुष 'रथनामा विचारा-मु०।
'शसाफ-मू०। 'शुक्ल यजुर्वेद ३४.५। "बृहदा० २. ५. १५.. मुण्डक० २.२.६ । कौषी ३.६। "पुरुषवेल-मू०।