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________________ महाकवि रन्न का दुर्योधन श्री के० भुजवली शास्त्री मनुष्य किसी बात की सत्यता या असत्यता का निर्णय प्राय अपने उन विचारो के अनुसार ही कर बैठता है, जिनसे उसकी बुद्धि पहले से प्रभावित हो चुकती है, परन्तु वह अपने पूर्व सस्कार को एक ओर रखकर समालोच्य विषय पर जब तक निष्पक्ष रूप से विचार नही करता तब तक किसी यथार्थ निर्णय पर नही पहुँच सकता । प्राचीन कालीन किसी व्यक्ति के वास्तविक आचार-विचारादि जानने के लिए हमे तत्कालीन या वाद के प्रामाणिक साहित्य का ही श्राश्रय लेना पडता है । इस सिद्वान्तानुसार श्रभिमानघनी एव प्रतापी दुर्योधन या कौरव के श्राचार-विचारादि जानने लिए हमे प्राचीन साहित्य की ही शरण लेनी पडती है । अधिकाश ग्रन्थ रचयिताओ ने द्रोपदी के वस्त्रापहरण आदि कुछ अनुचित घटनाओ को लेकर दुर्योधन को कलकी घोषित कर अपमानजनक शब्दो द्वारा उन पर आक्रमण किया है । हम भी दुर्योधन को दोषी मानते है । फिर भी इसके लिए उनके सारे मानवोचित गुणो को भुला देना समुचित नही कहा जा सकता । प्रत्येक मनुष्य मे गुण और दोष दोनो होते है । जिसमें दोपो का प्रत्यन्ताभाव है, वह मनुष्य नहीं है, देवता । श्राखिर दुर्योधन भी मनुष्य ही था । जव हम किमी व्यक्ति की अखड जीवनी पर प्रकाश डालते है तब गुण और दोष दोनो को एक ही दृष्टि से देखना होता है । तुलनात्मक दृष्टि से इन दोनो के मनन करने के बाद उन गुणदोषो की कमी-बेगी के लिहाज से ही हम उस व्यक्ति को गुणी या दोषी करार दे सकते है । इतना परिश्रम न उठाकर एक-दो गुण या दोषो को देखकर किसी के गुणी या दोषी होने का फैसला दे देना निष्पक्ष निर्णय नही कहा जा सकता । दुर्योधन भी रावण की तरह इसी पक्षपातपूर्ण निर्णय का शिकार किया जाकर लोगो की नजरो मे गिराया गया है । प्रश्न उठ सकता है कि दुर्योधन में जव गुण भी थे तो महाभारत के बहुसस्यक लेखको ने उसे दोषी क्यो ठहराया ? इसका उत्तर यही है कि एक तो हमारे भारतवर्ष का उस समय का वातावरण ही इस प्रकार का था। दूसरी बात यह कि हमारे पुरातन श्रद्धेय कवि बहुधा श्रनुकरणशील थे । इसलिए जो परपरा उनके सामने मौजूद थी उसी को कायम रखना वे अधिक पसन्द करते थे । इसका कारण यह भी था कि उन्हें इस बात का भय था कि पूर्व परपरा के विरुद्ध होने से उनकी कृतियाँ जनता मे सर्वमान्य नही हो सकेंगी। परपरा के कुछ विरुद्ध लिखने वाले 'रत्नाकर' जैसे कतिपय साहसी कवियो पर ऐसी आपत्ति था भी चुकी है। साथ ही साथ भारतवर्ष सुप्राचीन काल से आचार के लिए प्रधान है । यह सब कुछ होते हुए भी जैन कवियो ने रावण की तरह ' दुर्योधन का जीवन चित्रित करने मे जो वृद्धि एव साहम दिखलाया है, वह प्रशसनीय है । उन कृतियों में से केवल महाकवि रन्न के 'गदायुद्ध' में प्रतिपादित दुर्योधन पर प्रकाश डालना ही इस लेख का उद्देश्य है । महाकवि रन्न कन्नड साहित्य मे एक ख्यातिप्राप्त कवि था । कविरत्न, कविचक्रवर्ती, कविकुजराकुश, उभय भाषाकवि आदि इसे कई उपाधियाँ प्राप्त थी । इसका जन्म ई० सन् १४६ में मुदुबोल नामक ग्राम में हुआ था । यह वैश्य वर्ण का था और राज्यमान्य कवि था । राजा की ओर से सुवर्ण-दड, चवर, छत्र-हाथी आदि इसके साथ चलते थे । इसके गुरु का नाम अजितसेनाचार्य था । सुप्रसिद्ध जैन मत्री चाउडराय इसका पोपक था । इस समय इसके दो अन्य उपलब्ध है । एक 'अजितपुराण' और दूसरा 'साहस भीम' विजय या 'गदायुद्ध' । पहले ग्रथ में दूसरे तीर्थकर अजितनाथ का चरित्र वारह प्रश्वासो में वर्णित है । यह चम्पू ग्रथ है । यह पुराण ई० सन् ६६३ में रचा गया था। ''जैन सिद्धान्त - भास्कर' भाग ६, किरण १ में प्रकाशित हमारा लेख ।
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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