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प्रेमी-अभिनंदन-ग्रंय
वर्ण
१
विवरण न० नाम २० मुराह
मुखपुण्ड्रक के साथ कुलाह मुराह (पुण्ड्रकेण) मुरगहन
वोल्लाह सराहक (पुण्डकेण) मुन्हक (ह-१२) २२ वोल्गह
वीराह वोराह (पुण्ड्रकेण) २३ दुराह
दुकुलाह दुराह (पुण्डकेण) २४ त्रियुराह
चित्रलाग त्रियह त्रियुराहश्च चित्रलाङ्गश्च यो भवेत् । मंने जयदत्त के 'अश्ववैद्यक' में मे घोडों को नामावली की तालिका जितनी अच्छी तरह से उसे समझकर बना सकता था, बना दी है। यह नामावली उम नामावली से भिन्न है, जो गालिहोत्र ने घोटो-मम्वन्धी अपने निवन्य में दी है और जिसका बार-बार जपढन ने उल्लेख किया है। जयदत्त के समय मे प्राचीन परिभाषा ग़लत नाबिन हो चुकी थी और इसी कारण जयदत्त ने अपने समय में प्रचलित नामावली को ही लिया, क्योकि इस प्रकार के उल्लेस की व्यावहारिक उपयोगिता थी। जयदत्त ने निम्निलिम्वित छन्दों में अपने इस ध्येय को व्यक्त किया है
"वक्त्वाकादिभिर्वर्णे शालिहोत्रादिभि स्मृत । पाटलाद्यञ्च लोकस्य व्यवहारो न साम्प्रतम् ॥१८॥ तम्मात्प्रसिद्धकान्वर्णान् वाजिना देसम्भवान् ।
ममानेन यथायोग्य कथयाम्यनुपूर्वग ॥६॥ घोडो के वर्गों के आधार पर उनके नामो की तीनो मूचियो से पता चलता है कि जयदत्त और सोमेश्वर (११३०) की भूचियां हेमचन्द्र की अपेक्षा अधिक पूर्ण है । इन तीनो मूचियों में बहुत से नाम समान होने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ग्यारह्वी और वारहवी शताब्दी में अश्व-विद्या का खूब प्रचलन था। इस अश्व-विद्या का निश्चित व्प ने विदेशी अश्व-व्यापार से भी नम्बन्व था, जो लगभग ८०० ई० पू० के बाद भारतीय वन्दरगाहो के माय चल रहा था, जैसा मैने अन्यत्र लिखा है। हेमचन्द्र कहते है कि यह नामावली दगीप्राया है। मेरा यह विश्वास है कि इन नामो मे मे कुछ फारसी है और कुछ अरखी, और वे फारसी, अरवी, तुर्की तथा अन्य घोडो की नस्लो के भारत में आने के माय आय, जैना कि विस्तार से मार्को पोलो ने अपने यात्रा-विवरणो (१२९८ ई.) में लिखा है। घोटी के विदेगी आयात के सम्बन्ध में माकों पोलो के विवरण की पुष्टि डा० एम० के० एयगर के निम्नलिखित विवरण से हो जाती है, जो उन्होन 'कायल' नामक मलावार के बन्दरगाह में १६०० ई० के लगभग प्रचलित अश्व-व्यापार के बारे में तैयार किया था
दक्षिण में मनार की खाडी मे तमरपर्णी के मुहाने पर कायल नामक एक बहुत ही सुरक्षित वन्दरगाह था, जो मुप्रसिद्ध 'कोरकार्ड' (जिसे यूनानी भूगोल-लेम्वको ने 'कोलखोड' कहा है) से दूर न था। १२६० ई० के लगभग कायल एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था और वहां पर 'किग के एक अरवी नरदार मलिकुलइस्लाम जमालुद्दीन ने, जो वाद में 'फा'का फार्मर जनरल हो गया था, एक एजेन्मी कायम की थी। 'वसफ के कथनानुसार इस समय लगभग दस हजार घोडे कायल और भारत के अन्य बन्दरगाहो में व्यापार के लिए बाहर से लाये गयेथे, जिनमें १४०० घोडे स्वय जमालुद्दीन के घोटो की नस्ल के थे। हर एक घोडे का औसत मूल्य चमकते हुए सोने के बने हुए २२० दीनार था। उन घोडो का मूल्य नी जो रास्ते में मर गये थे पाड्य राजा को, जिसके लिए वे लाये गये थे, देना पड़ा था। मालूम होता है, जमालुद्वान का एजेन्ट फ़क्रोरुहीन अब्दुर्रहमान मुहम्मदुतटयैवी का वेटा, जिसे मरजवान (मारग्रेव) के नाम से भी पुकारा
'भाडारकर ओरियटल रिसर्च इस्टीच्यूट की पत्रिका, भाग २६, पृ० ८९-१०५