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________________ कुछ जैन अनुश्रुतिया और पुरातत्त्व २३६ राजा विश्वस्फाणि (भागवत, विश्वस्फूर्ति, वायु, विश्वस्फटिक) बहुत बडा वीर होगा। सव राजाओ का उन्मूलन करके वह निम्न जाति के लोगो को जैसे कंवों, पचको (ब्रह्माड, मद्रक, विष्णु, यदु) पुलिन्दो और ब्राह्मणो को राजा बनाएगा। उन जातियो के लोगो को वह वहुत से देशो का शासक नियुक्त करेगा। युद्ध मे वह विष्णु के समान पराक्रमी होगा। (भागवत के अनुसार उसकी राजधानी प्रभावती होगी)। राजा विश्वस्फाणि का रूप षण्ड की तरह होगा। क्षत्रियो का उन्मूलन करके वह दूसरी क्षत्रिय जाति बनाएगा। देव, पितृ और ब्राह्मणो को तुष्ट करता हुआ वह गगा के तीर जाकर तप करता हुआ शरीर छोड कर इन्द्रलोक को जाएगा (पाजिटर वही, पृ०७३)। विश्वस्फाणि का तित्योगाली के केलि से मेल खाता है । पुराणो के मतानुसार वह ब्राह्मणो का आदर करने वाला कहा गया है, लेकिन यह केवल पुराणो की ब्राह्मण श्रेष्ठता स्वीकार कराने वाली कपोल-कल्पना मालूम होती है, क्योकि वनस्फर जाति नहीं मानता था और क्षत्रियो का तो वह कट्टर वैरी था। अगर जायसवाल की राय ठीक है तो वनस्फर का समय ई० सन् ८१-१२० तक था और अगर तित्थोगाली के कल्की और वनस्फर एक थे तो पाटलिपुत्र के वाढ का समय दूसरी शताब्दी के पहले चरण में रक्खा जा सकता है। पुराण-साहित्य, जैन-साहित्य तथा चीनी-साहित्य से हमे विहार पर विदेशी मुरुण्डो के अधिकार का पता चलता है, लेकिन विहार में पुरातत्त्व की प्रगति सीमित रहने से उसके द्वारा मुरुण्डो के प्रश्न पर विशेष प्रकाश नही पड सका है। वैशाली की खुदाई से यह तो पता चलता है कि ईरानी सभ्यता का प्रभाव बिहार पर पड रहा था, पर इसके लाने वाले खास ईरानी थे या शक-तुखार, इस प्रश्न पर विशेष प्रकाश अभी तक नही पड सका है। वैशाली से चौथी या पांचवी शताब्दी की एक मुद्रा मिली है, जिस पर ईरानी अग्निवेदी बनी हुई है तथा गुप्तब्राह्मी का लेख भी उस पर है। ऐसी मुद्राएँ सर जान मार्शलको भीटा की खुदाई से भी मिली थी। डा० स्पूनर का अनुमान है कि इन मुद्रामो से यह पता चलता है कि वे इक्की-दुक्की न होकर उस ईरानी प्रभाव की द्योतक है जिसका सम्बन्ध काबुल के किसी राजकुल से न होकर विहार में स्वतन्त्र रूप से फले-फूले ईरानी प्रभाव से है। इस मुद्रा पर भगवत आदित्यस्य लेख होने से इस मुद्रा का सम्बन्व किसी सूर्य के मन्दिर से हो सकता है और शायद यह मन्दिर भारत में वसे ईरानियो का हो, क्योकि अगर मन्दिर हिन्दुओ का होता तो मुद्रा पर ईरानी अग्निवेदी न होती। डा० स्पूनर का कहना है कि ईरानी प्रभाव और सूर्य-पूजा पटना और गया जिलो मे गुप्त काल से बहुत अधिक पुरानी थी और इसका सम्बन्ध काबुल के चौथी शताब्दी के कुषाणो से न होकर उन परदार मिट्टी की मूर्तियो से है, जिनका काल मौर्य या शुग है (एन० रि० प्र० स० इ०, १९१३-१४, १० ११८-१२०)। वसाढ के मिट्टी की मूर्तियो पर ईरानी प्रभाव'जानने के लिए हमें उन मूर्तियो के बारे में भी कुछ जान लेना चाहिए। खुदाई मे दो मिट्टी के सर मिले है। उनमें एक वर्तुलाकार टोप पहने है और दूसरा चोगेदार टोपी। दोनो विदेशी मालूम पड़ते है। इन मूर्तियो का काल शुग या मौर्य माना गया है (वही, पृ० १०८)। डा. गॉर्डन इस काल से सहमत नहीं है (जर्नल ऑव दी इडियन सोसायटी ऑव ओरियटल आर्ट, बा०९, पृ० १६४)। उनका कहना है कि उनमें चक्करदार (radiate) शिरोवस्त्र वाला शिर गन्धार कला के सुवर्ण युग का द्योतक है और उसका काल इसा पू० प्रथम शताव्दी है। दूसरा शिर साँचे में ढली हुई इडोसिदियन या इडोपार्थियन मूर्तियो से समता रखता है आर इसका समय भी ई०पू० प्रथम शताब्दी है। डा० गॉर्डन इन शिरो को इसलिए मौर्य नहीं मानते कि इनका सम्बन्ध माय कालीन मिट्टी की मूर्तियो से न होकर ई०प० प्रथम शताब्दी की भारत में जगह-जगह पाई गई मृणन्मूर्तियो से है। पसाट म खिलौनो की तस्तियां भी मिली है, जिनमे स्त्री-मूर्ति को पख लगा दिये गये है। डा० स्पूनर इन परो को बाबुल का दन मानते है और उनका विचार है पसिपोलिस की ईरानी कला से होता हुआ यह प्रभाव भारत में आया। ये माया ईरान से सीधी न पाकर बसाढ में ही बनी थी और इस बात से डाक्टर स्पूनर यह निष्कर्ष निकालते है कि मौर्य काल में भी ईरानी प्रभाव विहार में विद्यमान था (ग्रा० स० रि०, वही, पृ० ११६)। पर डा० गॉर्डन श्री काड्रिंगटन सहमत होते हुए इन पख वाली स्त्री-मूर्तियो का समय मांचीकला के बाद वाला युग अर्थात् ई० पू० प्रथम शताब्दी
SR No.010849
Book TitlePremi Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremi Abhinandan Granth Samiti
PublisherPremi Abhinandan Granth Samiti
Publication Year
Total Pages808
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size34 MB
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