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जैन और वैष्णवो के पारस्परिक मेल-मिलाप का एक शासन-पत्र
१ हण कोट्टु श्रायेत्तिद होनिङ्गे देवर अङ्गरक्षेत्रेय इप्पत्तालतू सन्तविट्टु मिक्क होसिङ्गे जीणं जिनालयङ्गलिगे सोयेयन इकू यो मरियादेयलु चन्द्राकर्करुल्लन्न तप्पलीयदे वर्ष वर्षक्के कोट्टु कीर्तियन् पुण्यवनू उपाज्जसिकोम्बुदु यो माडिद कट्टलेयन आवन् श्रन्वन मोॠदवन राजद्रोहि सघ सम्दायक्के द्रोहि तपस्विय श्रागलि ग्रामिणयागलि यो घव केड सिदर प्रादडे गगेय तडियल्लि कपिलेयनू ब्राह्मणननू कोन्द पापदल्लि होहरु |
श्लो ॥ स्वदत्त परदत्तं वा यो हेरेति वसुन्धराम् ।
पष्ठि वर्णसहस्राणि विष्टाया जायते कृमि ॥
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(बाद मे जोडा हुआ भाग )
कल्लेहद हव्विशेट्टिय सुपुत्र वसुवि सेट्टि बुक्क रायरिंग विन्नमादि तिरुमलेय तातय्यङ्गल विजय गैसि तरन्दु नीन्तद्वारव माडिसिदरु उभय समयवू कूडि वसुवि सेट्टियरिंग सङ्घ-नायक पट्टव कट्टिदरु ||
हिन्दी अनुवाद
स्वस्ति । समस्त प्रशस्त सहित ।
पाखड रूपी समुद्र को सुखाने के लिये महान् वडवानल, श्री रंगनाथ देव के चरण-कमलो के सेवक और भगवान विष्णु के धाम मे निर्मित रत्न जटित मडप तक पहुँचने का मार्ग वताने वाले, यतिराज राजश्री रामानुज की जय हो ।
शक वर्ष १२९० । कीलक सवत्सर भाद्रपद शुक्ल दशमी बृहस्पतिवार —— श्री मन्महामडलेश्वर, शत्रु नाशन, वचनो का अतिक्रमण करने वाले राजाओ के दड-कर्त्ता, श्री वुक्कराय के शासन काल मे जैन और भक्तो ( वैष्णवो) मे विवाद उठने पर आनेयगोन्दि, होसपट्टन, पेनुगुण्डे और कल्लेह पत्तन आदि समस्त नाडो के भव्य जन अर्थात् जैनो ने मिलकर महाराज वुक्कराय से भक्तो (वैष्णवो) के अन्याय के बारे में विनती की। इस पर महाराज ने जैनो का हाथ पकड कर श्री वैष्णवो के हाथो मे रख दिया, जिसमें कि कोविल ( श्री रगम् ), तिरुमले ( तिरुपति ), पेरुमाल कोविल (काचीपुर ) और तिरुनारायणपुर (मेलकोटे) आदि अट्ठारह राष्ट्रो (नाड) के सकल आचार्य, सकल समयी, सकल सात्त्विक, मौष्टिक (मुट्ठी भर अन्न से निर्वाह करने वाले), श्री पूजनीय, पवित्र चरण और पवित्र अर्घ्य के पात्र, अडतालीस जन, सावन्त वोव, तिरुकुल और जाम्वव कुल सम्मिलित थे। साथ ही महाराज ने यह कहते हुये कि वैष्णव-दर्शन और जैन दर्शन मे भेद नही है, इस प्रकार घोषणा की
यह जैन दर्शन पूर्व की भाति पत्र महा वाद्य और कलश का अधिकारी रहेगा । यदि भक्तो (वैष्णवो) के द्वारा जैन दर्शन की हानि या वृद्धि की जायगी तो वैष्णव उसे अपने ही धर्म की हानि या वृद्धि समझेंगे । इस मर्यादा को स्थापित करने वाला एक शासन राष्ट्र की सब बस्तियो मे श्री वैष्णव लोग कृपया जारी करेगे । जब तक चन्द्र और सूर्य कायम हे तव तक वैष्णव- समय जैनदर्शन की रक्षा करता रहेगा। वैष्णव और जैन एक है। उन्हे अलग नही समझना चाहिए । तिरुमलै अर्थात् तिरुपति के तातय्य नामक सज्जन समस्त राज्य के भव्य जनो (जैन) की अनुमति