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जैन-साहित्य को हिन्दी-साहित्य को देन
४६५ किये है। किमी-न-किसी प्रकार उनको वार्मिक घेरे में बन्द करने का प्रयत्न तो किया ही है, किंतु इसके अतिरिक्त अन्य परिस्थितियों का वर्णन अत्यन्न स्वाभाविक ढग पर किया है। जिम समाज मे इन कथानायको का मवव है, वह नवके अनुभव करने योग्य मावाग्ण है। इसके नाथ इन कवियो ने घरेलू जीवन मे चुनकर प्रचलित और चिरपरिचित सुभापितो, मरल व्वन्यात्मक देशी गब्दो, घरेलू वर्णनो एव इसी बीच में उपमानो का प्रयोग करके काव्य को बहुत मामान्य रूप प्रदान क्यिा है। इन सबको लेकर लय और मगीत के अनुसार छन्दो मे एक मवुर परिवर्तन करके काव्य में एक अपूर्व माधुर्य एव मजीवता की सृष्टि की है। अपभ्रग के अविकाग छद ताल गेय है। सगीत के उल्लेख अपनग ग्रयों में हमे म्यान-म्यान पर मिलने है और वह मीत देवताओं, किन्नरी, अप्परानो की दुन्दुभियो, वीणाओं आदि का नहीं है, जन-समाज का संगीत है। आनन्द और उन्लाम में गाते हुए, नाचते हुए और अपने वाद्य यन्त्रो को वजाने हुए धरती के मनुप्यो का वह मगोत है, आकाश के देवताओं का नहीं । आकाग के देवता भी कभी-कभी पृथ्वी पर आते है, लेकिन वे केवल जिन (तीर्थकर) मे भेट, प्रणाम करने ही आते है। ये अपभ्रग काव्य गाये जाते थे।
जनता की भापा म रचना करके लोक-भाषा को काव्य का माध्यम बनाने का श्रेय प्रधानत इन्ही जैन-कवियो को है। किमी समय की लोकभापा पाली-प्राकृनें भी मम्कृत के मदृश 'मस्कृत' (Classical ) हो चुकी थी। व्याकरण की महायता से ही उनका अध्ययन मुलभ हो मकता था। मेनुवध जैमे काव्यो का रसास्वादन करना पडितो के लिए भी सन्न कार्य नहीं था। अत लोकभापा माहित्य मे ही जनता का कल्याण हो सकता था। अपभ्रश कवियों की रचनायो ने ही आगे चल कर हिन्दी कवियों को भापा में रचना करने के लिए मार्ग-प्रदर्शक का कार्य किया। भाषा के दृष्टिकोण मे यह सबसे महत्त्वपूर्ण देन इन कवियो की हिन्दी-साहित्य को है। लोकभाषा के साथ-माथ अन्य सभी अपभ्रश काव्य के मावनो का प्रयोग भी भापा कवियो ने किया।
अपभ्रग कवियो ने पहले-पहल लोकभाषा में लिखकर वडे माहम का काम किया। प्राकृत और अपभ्रंश का पडिन-समाज में आदर नहीं था। अपभ्रम नाम ही अनादर का द्योतक है । अपभ्रग नाम विद्वान् व्याकरणलेखको का दिया हुआ है। कहीं भी अपभ्रश-लेखको ने यह नाम नहीं दिया। मेतुवन्य जैसे पौराणिक नायक मे सम्बन्धित उत्कृष्ट काव्य की जब निन्दा होती थी' तव अन्य प्राकृत और अपभ्रश के ग्रन्यो के प्रति उपेक्षा का हम अनुमान कर सकते है। इस उपेक्षा की झलक हम अपना काव्यो की प्रारम्भिक भूमिकामो में भाषा में लिखने की मफाई देने के लिए लिखे गए स्थलो में मिलती है। अपभ्रश का प्रत्येक काव्य एव हिन्दी के प्राचीन कवि भी इस वात से सबक प्रतीत होते हैं कि भापा में लिखने के कारण उन्हें एक वर्ग का विरोध भी महना पडेगा। प्रत्येक कवि भाषा में लिखने के लिए अपनी उपयुक्तता प्रदर्शित करता दिखाई पडता है। इससे भी हमे यही ज्ञात होता है कि पडिनवर्ग के भय मे ही अपभ्रश कवि प्राय काव्य की श्रेष्ठता का मापदइ अर्थगाम्भीर्य को बतलाता है। भापा तो एक बाह्य आवरण मात्र है। अत भाषा में रचना का मूत्रात जैन-कवियो द्वारा ही हुआ और आगे चल कर हिन्दीकविया ने नी भाषा मे माहपूर्वक रचना करते समय इसमे अवश्य लाभ उठाया।
'पुष्पदन्त महापुराण
जो सुम्मइ कइवइ विहियसेउ ।।
तासु वि दुज्जणु किं परियहोउ ॥ १ ७ ८ “विद्यापति देसिल बयना सव जन मिट्ठा प्रादि । कवीर-मसमिरित है कप जल भाषा वहता नीर । तुलसी-"भापा भगित मोर मति थोरी।"
"भावाबद्ध करवि मै सोई।" मराठी एकनाथ-"माझी मराठी भामा चौखडी।"